🔆🙏 चरित्र निर्माण में शिक्षा की भूमिका 🔆🙏
श्रीरामकृष्ण की एक प्रसिद्द उक्ति है- "जब तक जीना, तब तक सीखना "('जावत बाँची तावत सीखी ! ' क्योंकि अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।) इच्छाशक्ति को प्रभावी (effective) बनाने के लिये उसे नियंत्रित करना ही शिक्षा का लक्ष्य है। आज हमारे समाज की जो असहनीय परिस्थिति (परस्पर विश्वास की कमी) बन गयी है उसका कारण हमारी शिक्षा है। हमलोगों ने जो शिक्षा पाई है, उसी शिक्षा ने इस वर्तमान परिवेश का निर्माण किया है। अपना सुन्दर चरित्र गठन करके, हमलोग किस प्रकार अपना और दूसरों का कल्याण करने में सक्षम 'मनुष्य' बन सकते हैं, छात्रों को इसी का उपाय बता देना शिक्षा का अभीष्ट है।
अतएव पारस्परिक सम्बन्ध और पारस्परिक-श्रद्धा (Interpersonal relationship and mutual respect) इन दोनों विषयों के उपर शिक्षा प्रणाली में विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है। ये दोनों गुण निःस्वार्थपरता से प्राप्त होते हैं। नैतिकता का दूसरा नाम निःस्वार्थपरता है। स्वार्थ प्रेरित कार्य कभी नैतिक नहीं हो सकता है। क्योंकि जैसे ही (कोई) व्यक्ति अपने स्वार्थ को प्रश्रय देना चाहेगा, तुरन्त ही प्रतिस्पर्धा का प्रश्न उठ खड़ा होगा। फलस्वरूप उसकी सम्पूर्ण शक्ति संघर्ष और घृणा में बर्बाद होने लगेगी। इसलिये जो शिक्षा उपरोक्त दोनों विषयों का ध्यान नहीं रखती हो, वह व्यर्थ है। यथार्थ शिक्षा हमें चलने, बोलने, कार्य करने इत्यादि समस्त हाव-भाव को मानवोचित ढंग से करने के लिए निर्देशित करती है।
उपयुक्त शिक्षा (यानि जीवन अनुभव से प्राप्त शिक्षा) ही चरित्र निर्माण में सहायक होती है। क्योंकि यथार्थ शिक्षा की बुनियाद एक सकारात्मक सोच (Positive thinking) पर आधारित होती है। मन के ऊपर अधिकार रखे बिना हम अपने विचारों को प्रयोजनीय मार्ग (इच्छानुसार क्षेत्र के लीक Rut) में नहीं प्रवाहित कर सकते।
मनुष्योचित चरित्र गठित हो जाने के बाद ही कोई व्यक्ति अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति सही रूप में जागरूक हो सकता है। हर समय केवल अपने अधिकार की बात सोंचते रहने से कोई परिवार, समाज या देश सुचारू रूप में नहीं चल सकता। कर्तव्य की परवाह किये बिना किसी को उसका उचित अधिकार मिल भी नहीं सकता। हमारे मानवोचित एवं विवेकपूर्ण कर्तव्य के द्वारा ही समाज में नैतिक-मूल्यों की स्थापना हो सकती है।
हमारा पहला कर्तव्य है, दूसरों का सुख, दूसरों के कल्याण के बारे में सोचना। इसी के माध्यम से हम समाज के प्रति जागरूक बनते हैं। समाज के कल्याण के प्रति जागरूक बनने से ही हम अपना अधिकार अर्जित कर सकेंगे। यदि हम काम करने जायेंगे ही नहीं तो वेतन कैसे मिलेगा ? उसी प्रकार यदि हमें कर्तव्य-बोध ही न रहे तो हमें अधिकार क्यों मिलना चाहिये ? कर्तव्यबोध की शिक्षा नहीं मिलने पर चरित्र-निर्माण नहीं हो सकता। यदि हम सचमुच अपने समाज और देश का निर्माण करना अपना दायित्व समझते हैं, तो हममें से प्रत्येक को दूसरों के लिये अपने स्वार्थ का त्याग करना सीखना होगा। सर्वप्रथम स्वयं एक चरित्रवान मनुष्य बनना पड़ेगा।
जन-कल्याण या समाजसेवा के अलग-अलग स्तर हैं। अन्नहीन को अन्नदान, बेघर लोगों के लिये आवास निर्माण करना , ये सभी बहुत अच्छे कार्य हैं। किन्तु ये सब कार्य हमारे कर्तव्यबोध की पहली सीढ़ी है। इसके बाद का चरण है मनुष्य को उसके मानसिक संपदा से समृद्ध करना आदि । फिर समाज सेवा का उच्चतम स्तर है मनुष्य को उसकी अध्यात्मिक संपदा के प्रति जाग्रत कर देना। यही सबसे बड़ी समाज सेवा है।
हमारे पास जो अत्यन्त दुर्लभ पर स्वाभाविक सम्पदा है उसके बारे में कुछ नहीं जानने से उसे व्यर्थ में गवाँना पड़ेगा । जब हम अपनी अध्यात्मिक संपदा को आविष्कृत कर लेंगे तब हम इस बात को भी जान लेंगे कि हम सभी लोगों का अस्तित्व अलग- अलग नहीं है, बल्कि हम सभी लोगो के भीतर एक अस्तित्व का एकत्व (Oneness of existence ) है - ऐसी समझ होते ही हम आध्यात्मिक दृष्टि से एकात्मबोध अर्जित कर लेंगे। [जो जिसके इष्टदेव हैं, वे ही उसकी आत्मा हैं ! काली-कृष्ण एक हैं- की धारणा होते ही हमलोग आध्यात्मिक दृष्टि से एकात्म बोध अर्जित कर लेंगे।] इसीलिए हमारी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है आध्यात्मिक दृष्टि का जागरण, दृष्टि को ब्रह्ममयी बनाकर जगत को ब्रह्ममय देखना। इससे एक सीढ़ी नीचे उतर कर पहले अपने मन को पवित्र -भावों से भर लेना होगा। इसी को मन की शक्ति का विकास या मन को प्रशिक्षित करना कहते हैं। इसके एक सीढ़ी नीचे उतर कर हम लोग शारीरिक व्यायाम और पौष्टिक आहार द्वारा अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट या शक्तिशाली बना सकते हैं। और दैहिक क्षमता की सहायता से अपना और दूसरों के अभाव को दूर करने की चेष्टा कर सकते हैं।
अच्छी आदतों से चरित्र गठन किस प्रकार होगा ? कोई व्यक्ति किसी परिस्थिति विशेष में किस प्रकार का आचरण करेगा यह उसकी पुरानी आदतों (ingrained habits) पर निर्भर करेगा। कोई व्यक्ति निर्जन स्थान में मूल्यवान वस्तु गिरी हुई देखकर नजरें बचाकर उसे अपने अधिकार में लेने की चेष्टा करेगा, दूसरा उसके असली मालिक को वापस करने की चेष्टा करेगा।
हमारा मन बहुत कुछ कैमरे के समान है। जिस वस्तु के सामने कैमरा रखा जायेगा उसके फिल्म पर सिर्फ उसी वस्तु का चित्र बनेगा। किन्तु मनुष्य का मन किसी कैमरा की अपेक्षा अधिक उन्नत किस्म का यंत्र है। इसीलिए मन रूपी कैमरे में शब्द और रूप के आलावा किसी वस्तु के गंध, स्पर्श और स्वाद के छाप भी पड़ जाते हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रियाँ से युक्त हमारा मन रूपी कैमरा हर समय जगत के असंख्य वस्तुओं की छाप हमारे चित्त पर डालता रहता है। मेरे अपने विचार, वाणी और कर्म का जितना गहरा छाप (लकीर) मेरे चित्त पर पड़ेगा , उतना गहरा छाप दूसरों के विचार , कथन और कार्य के द्वारा नहीं पड़ सकता है। एक ही कार्य का बार- बार अभ्यास करने से उन्हीं विचारों, शब्दों और कार्यों के आदतों की लकीरें हमारे चित्त के ऊपर भी पड़ जाती है, तथा ये लकीरें क्रमशः गहरी होती जाती हैं। इस प्रकार हमलोग बैल-गाड़ी में जुते बैलों के समान ही एक ही लकीर पर बार- बार चलते रहते हैं। इसीलिये जब हम बार-बार विवेक का प्रयोग करके अपनी (विवेकसम्पन्न) बुद्धि को केवल पवित्र विचारों का संग्रह करने में दक्ष बना लेंगे, तब हमारे चित्त पर केवल सदविचारों की ही लकीरें गहरी पड़ेंगी। फिर हम यदि यही सदअभ्यास दुहराते रहेंगे तो हमारा चरित्र अच्छा बने बिना नहीं रहेगा !
इसलिये स्वयं का और प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण करने के लिए मुझे पहले अपने चरित्र को अच्छा बनाना होगा। चरित्र को अच्छा बनाने के लिए मुझे यथार्थ शिक्षा के माध्यम से पवित्र विचारों को अर्जित करना होगा। इस शिक्षा को ग्रहण करने के लिये बड़े- बड़े विद्यालय भवन की आवश्यकता नहीं है। घर पर हों या बाहर, दिन-रात अच्छी आदतों को अर्जित करने की शिक्षा प्राप्त करने से जीवन में असफलता नहीं आयेगी। हम स्वयं अपने जीवन को सुन्दर रूप में गढ़ेंगे और अपने देश-वासियों का कल्याण करने की क्षमता अर्जित करके, अपने जीवन को सार्थक बना सकेंगे।
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🔆🙏"शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। और धर्म का अर्थ उस दिव्यता को व्यक्त करना है जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। " -स्वामी विवेकानन्द।
🔆🙏"शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं , यह भी नहीं। जिस मनःसंयोग के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है , उसे शिक्षा कहते हैं। "
🔆🙏 सांख्ययोग वास्तव में ज्ञानयोग है। आत्मा एवं शरीर दोनों पृथक्-पृथक् हैं फिर भी अज्ञानी जन शरीर को ही आत्मा मान लेते हैं, अत: शरीर के नाश होने से आत्मा के नाश का ज्ञान कर लेते हैं। ज्ञानयोग को बुद्धियोग भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ पर बुद्धि का अर्थ है संख्या। अत: जिससे आत्मतत्त्व का दर्शन हो वह सांख्ययोग है।
साभार https://www.holy-bhagavad-gita.org/chapter/2/hi]
🔆🙏दादा कहते थे - नेता (जीवन्मुक्त शिक्षक) को इन तीन बातों की पक्की धारणा रखनी होगी। ->>बुद्धि और विवेक का अंतर क्या है ? धर्म क्या है ?श्रद्धा क्या है? और मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ? जानो और बताओ !
आज हमारे समाज में, संगठन में यहाँ तक कि परिवार में भी जो असहनीय स्थिति पैदा हो गयी है, उसका कारण परस्पर विश्वास की कमी है; जो हमारी दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली से उत्पन्न हो गयी है। हमलोगों ने जो शिक्षा पाई है, उसी शिक्षा ने इस वर्तमान परिवेश का निर्माण किया है। इसका समाधान स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति -"Be and Make " है, जो भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में आधारित है।
अपना जीवन और चरित्र सुन्दर रूप से गठन करके हमलोग किस प्रकार अपना और दूसरों का कल्याण करने में सक्षम "मनुष्य " बन सकते हैं। छात्रों को इसी का उपाय बता देना शिक्षा का अभीष्ट है।
Be and Make परम्परा में प्रशिक्षित "मनुष्य " क्रमशः कैसे बन सकते हैंऔर बना सकते हैं -प्रशिक्षणार्थियों को इसीका उपाय बता देना - स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति में आधारित महामण्डल के छः दिवसीय -"गुरुगृह वास युवा प्रशिक्षण शिविर" का अभीष्ट है! अर्थात पशु की अवस्था से, मनुष्य में और मनुष्य से देवमानव- (51 to 100 % निःस्वार्थी-जीवनमुक्त शिक्षक या नेता) के रूप में क्रमशः कैसे विकसित हुआ जाता है -इसीका उपाय बता देना - स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति में आधारित महामण्डल के छः दिवसीय -"गुरुगृह वास युवा प्रशिक्षण शिविर" का अभीष्ट है !]
अच्छी आदतें अच्छे चरित्र का निर्माण क्यों करेंगी? Why good habits will form good character? कोई व्यक्ति किसी विशेष परिस्थिति में कैसा व्यवहार करेगा यह उसकी पुसनी आदतों या अन्तर्निहित प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है। [अर्थात अच्छी आदतों का निर्माण करने से अच्छे चरित्र का निर्माण कैसे होगा ? कोई व्यक्ति किसी परिस्थिति विशेष में किस प्रकार का आचरण करेगा यह उसकी अन्तर्निहित प्रवृत्तियों (inherent tendencies) के पर निर्भर करेगा।]
(How a person will behave in a particular situation depends on his ingrained habits (inherent tendencies). 3H विकसित करने के 5 अच्छे अभ्यासों से अच्छी आदतें बनेंगी (सर्वमंगल की प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग आदि का पुनः-पुनः अभ्यास करने से अच्छी आदत बनेंगी), अच्छी आदतें पुरानी हो जाने से अच्छी प्रवृत्ति, और अच्छी प्रवृत्तियों के कुल समाहार को ही अच्छा चरित्र कहते हैं।
🔆🙏स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखो कि तुम क्या सोचते हो ? जो तुम सोचते हो, वो बन जाओगे। यदि तुम खुद को कमजोर सोचते हो, तुम कमजोर हो जाओगे, अगर खुद को ताकतवर सोचते हो, तुम ताकतवर हो जाओगे। एक विचार (महावाक्य !!!) लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो, उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सफल होने का तरीका है।
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