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Thursday, February 8, 2024

🔆🙏 चरित्र निर्माण में शिक्षा की भूमिका (চরিত্র গঠনে শিক্ষার ভূমিকা ) 🔆🙏(Blog date - 8.2.2024) चरित्र निर्माण में स्वपरामर्श (Autosuggestion):चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा। द्वारा संकल्प-ग्रहण की भूमिका]🔆🙏 [(SVHS -4.3) अध्याय- 4 🙏शिक्षा समस्त व्याधियों की रामबाण औषधि है ! 🙏🔱 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🔱' शिक्षा : समस्त रोगों का रामबाण ईलाज है "

🔆🙏 चरित्र निर्माण में शिक्षा की भूमिका 🔆🙏

    श्रीरामकृष्ण की एक प्रसिद्द उक्ति है- "जब तक जीना, तब तक सीखना "('जावत बाँची तावत सीखी ! ' क्योंकि अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।) इच्छाशक्ति को प्रभावी (effective) बनाने के लिये उसे नियंत्रित करना ही शिक्षा का लक्ष्य  है। आज हमारे समाज की जो असहनीय परिस्थिति (परस्पर विश्वास की कमी) बन गयी है उसका कारण हमारी शिक्षा है। हमलोगों ने जो शिक्षा पाई है, उसी शिक्षा ने इस वर्तमान परिवेश का निर्माण किया है। अपना सुन्दर चरित्र गठन करके, हमलोग किस प्रकार अपना और दूसरों का कल्याण करने में सक्षम 'मनुष्य' बन सकते हैं, छात्रों को इसी का उपाय बता देना शिक्षा का अभीष्ट है।
        अतएव पारस्परिक सम्बन्ध और पारस्परिक-श्रद्धा (Interpersonal relationship and mutual respect) इन दोनों विषयों के उपर शिक्षा प्रणाली में विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है। ये दोनों गुण निःस्वार्थपरता से प्राप्त होते हैं। नैतिकता का दूसरा नाम निःस्वार्थपरता है। स्वार्थ प्रेरित कार्य कभी नैतिक नहीं हो सकता है। क्योंकि जैसे ही (कोई) व्यक्ति अपने स्वार्थ को प्रश्रय देना चाहेगा, तुरन्त ही प्रतिस्पर्धा का प्रश्न उठ खड़ा होगा।  फलस्वरूप उसकी सम्पूर्ण शक्ति संघर्ष और घृणा में बर्बाद होने लगेगी। इसलिये जो शिक्षा उपरोक्त दोनों विषयों का ध्यान नहीं रखती हो, वह व्यर्थ है। यथार्थ शिक्षा हमें चलने, बोलने, कार्य करने  इत्यादि समस्त हाव-भाव को मानवोचित ढंग से करने के लिए निर्देशित करती है। 
     उपयुक्त शिक्षा (यानि जीवन अनुभव से प्राप्त शिक्षा) ही चरित्र निर्माण में सहायक होती है। क्योंकि यथार्थ शिक्षा की बुनियाद एक सकारात्मक सोच (Positive thinking) पर आधारित होती है। मन के ऊपर अधिकार रखे बिना हम अपने विचारों को प्रयोजनीय मार्ग (इच्छानुसार क्षेत्र के लीक Rut) में नहीं प्रवाहित कर सकते। 
     मनुष्योचित चरित्र गठित हो जाने के बाद ही कोई व्यक्ति अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति सही रूप में जागरूक हो सकता है। हर समय केवल अपने अधिकार की बात सोंचते रहने से कोई परिवार, समाज या देश सुचारू रूप में नहीं चल सकता। कर्तव्य की परवाह किये बिना किसी को उसका उचित अधिकार मिल भी नहीं सकता। हमारे मानवोचित एवं विवेकपूर्ण कर्तव्य के द्वारा ही समाज में नैतिक-मूल्यों की स्थापना हो सकती है। 
    हमारा पहला कर्तव्य है, दूसरों का सुख, दूसरों के कल्याण के बारे में सोचना। इसी के माध्यम से हम समाज के प्रति जागरूक बनते हैं। समाज के कल्याण के प्रति जागरूक बनने से ही हम अपना अधिकार अर्जित कर सकेंगे। यदि हम काम करने जायेंगे ही नहीं तो वेतन कैसे मिलेगा ? उसी प्रकार यदि हमें कर्तव्य-बोध ही न रहे तो हमें अधिकार क्यों मिलना चाहिये ? कर्तव्यबोध की शिक्षा नहीं मिलने पर चरित्र-निर्माण नहीं हो सकता। यदि हम सचमुच अपने समाज और देश का निर्माण करना अपना दायित्व समझते हैं, तो हममें से प्रत्येक को दूसरों के लिये अपने स्वार्थ का त्याग करना सीखना होगा। सर्वप्रथम स्वयं एक चरित्रवान  मनुष्य बनना पड़ेगा।
       जन-कल्याण या समाजसेवा के अलग-अलग स्तर हैं।  न्नहीन को अन्नदान, बेघर लोगों के लिये आवास निर्माण करना , ये सभी बहुत अच्छे कार्य हैं। किन्तु ये सब कार्य हमारे कर्तव्यबोध की पहली सीढ़ी है। इसके बाद का चरण है मनुष्य को उसके मानसिक संपदा से समृद्ध करना आदि । फिर समाज सेवा का उच्चतम स्तर है मनुष्य को उसकी अध्यात्मिक संपदा के प्रति जाग्रत कर देना। यही सबसे बड़ी समाज सेवा है। 
     हमारे पास जो अत्यन्त दुर्लभ पर स्वाभाविक सम्पदा है उसके बारे में कुछ नहीं जानने से उसे व्यर्थ में गवाँना पड़ेगा । जब हम अपनी अध्यात्मिक संपदा को आविष्कृत कर लेंगे तब हम इस बात को भी जान लेंगे कि हम सभी लोगों का अस्तित्व अलग- अलग नहीं है, बल्कि हम सभी लोगो के भीतर एक अस्तित्व का एकत्व (Oneness of existence ) है - ऐसी समझ होते ही हम आध्यात्मिक दृष्टि से एकात्मबोध अर्जित कर लेंगे। [जो जिसके इष्टदेव हैं, वे ही उसकी आत्मा हैं ! काली-कृष्ण एक हैं- की धारणा होते ही हमलोग आध्यात्मिक दृष्टि से एकात्म बोध अर्जित कर लेंगे।] इसीलिए हमारी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है आध्यात्मिक दृष्टि का जागरण, दृष्टि को ब्रह्ममयी बनाकर जगत को ब्रह्ममय देखना।  इससे एक सीढ़ी नीचे उतर कर पहले  अपने मन को  पवित्र -भावों से भर लेना होगा।  इसी को मन की शक्ति का विकास या मन को प्रशिक्षित करना कहते हैं। इसके एक सीढ़ी नीचे उतर कर हम लोग शारीरिक व्यायाम और पौष्टिक आहार द्वारा अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट या शक्तिशाली बना सकते हैं। और दैहिक क्षमता की सहायता से अपना और दूसरों के अभाव को दूर करने की चेष्टा कर सकते हैं। 
    अच्छी आदतों से चरित्र गठन किस प्रकार होगा ? कोई व्यक्ति किसी  परिस्थिति विशेष में किस प्रकार का आचरण करेगा यह उसकी पुरानी आदतों (ingrained habits) पर निर्भर करेगा। कोई व्यक्ति निर्जन स्थान में मूल्यवान वस्तु गिरी हुई देखकर नजरें बचाकर उसे अपने अधिकार में लेने की चेष्टा करेगा, दूसरा उसके असली मालिक को वापस करने की चेष्टा करेगा। 
      हमारा मन बहुत कुछ कैमरे के समान है। जिस वस्तु के सामने कैमरा रखा जायेगा उसके फिल्म पर सिर्फ उसी वस्तु  का चित्र बनेगा। किन्तु मनुष्य का मन किसी कैमरा की अपेक्षा अधिक उन्नत किस्म का यंत्र है। इसीलिए मन रूपी कैमरे में  शब्द और रूप के आलावा किसी वस्तु के गंध, स्पर्श और स्वाद के छाप भी पड़ जाते हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रियाँ से युक्त हमारा मन रूपी कैमरा हर समय जगत के असंख्य वस्तुओं की छाप हमारे चित्त पर डालता रहता है। मेरे अपने विचार, वाणी और कर्म का जितना गहरा छाप (लकीर) मेरे चित्त पर पड़ेगा , उतना गहरा छाप दूसरों के विचार , कथन और कार्य के द्वारा नहीं पड़ सकता है। एक ही कार्य का बार- बार अभ्यास करने से उन्हीं विचारों, शब्दों और कार्यों के आदतों की लकीरें हमारे चित्त के ऊपर भी पड़ जाती है, तथा ये लकीरें क्रमशः गहरी होती जाती हैं। इस प्रकार हमलोग बैल-गाड़ी में जुते बैलों के समान ही एक ही लकीर पर बार- बार चलते रहते हैं। इसीलिये जब हम बार-बार विवेक का प्रयोग करके अपनी (विवेकसम्पन्न) बुद्धि को केवल पवित्र विचारों का संग्रह करने में दक्ष बना लेंगे, तब हमारे चित्त पर केवल सदविचारों की ही लकीरें गहरी पड़ेंगी। फिर हम यदि यही सदअभ्यास दुहराते रहेंगे तो हमारा चरित्र अच्छा बने बिना नहीं रहेगा ! 
    इसलिये स्वयं का और प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण करने के लिए मुझे पहले अपने चरित्र को अच्छा बनाना होगा। चरित्र को अच्छा बनाने के लिए मुझे यथार्थ शिक्षा के माध्यम से पवित्र विचारों को अर्जित करना होगा। इस शिक्षा को ग्रहण करने के लिये बड़े- बड़े विद्यालय भवन  की आवश्यकता नहीं है। घर पर हों या बाहर, दिन-रात अच्छी आदतों को अर्जित करने की शिक्षा प्राप्त करने से जीवन में असफलता नहीं आयेगी। हम स्वयं अपने जीवन को सुन्दर रूप में गढ़ेंगे और अपने देश-वासियों का कल्याण करने की क्षमता अर्जित करके, अपने जीवन को सार्थक बना सकेंगे
  
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🔆🙏"शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। और धर्म का अर्थ उस दिव्यता को व्यक्त करना है जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। " -स्वामी विवेकानन्द।
 🔆🙏"शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं , यह भी नहीं। जिस मनःसंयोग के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है , उसे शिक्षा कहते हैं। "
🔆🙏 सांख्ययोग वास्तव में ज्ञानयोग है। आत्मा एवं शरीर दोनों पृथक्-पृथक् हैं फिर भी अज्ञानी जन शरीर को ही आत्मा मान लेते हैं, अत: शरीर के नाश होने से आत्मा के नाश का ज्ञान कर लेते हैं। ज्ञानयोग को बुद्धियोग भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ पर बुद्धि का अर्थ है संख्या। अत: जिससे आत्मतत्त्व का दर्शन हो वह सांख्ययोग है 
साभार https://www.holy-bhagavad-gita.org/chapter/2/hi]
🔆🙏दादा कहते थे - नेता (जीवन्मुक्त शिक्षक) को इन तीन बातों की पक्की धारणा रखनी होगी। ->>बुद्धि और विवेक का अंतर क्या है ? धर्म क्या है ?श्रद्धा क्या है?  और मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ? जानो और बताओ
आज हमारे समाज में, संगठन में यहाँ तक कि परिवार में भी जो असहनीय स्थिति पैदा हो गयी है, उसका कारण परस्पर विश्वास की कमी है; जो  हमारी दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली से उत्पन्न हो गयी है। हमलोगों ने जो शिक्षा पाई है, उसी शिक्षा ने इस वर्तमान परिवेश का निर्माण किया है। इसका समाधान स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति -"Be and Make " है, जो भारत की प्राचीन  गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में आधारित है। 
अपना जीवन और चरित्र सुन्दर रूप से  गठन करके हमलोग किस प्रकार अपना और दूसरों का कल्याण करने में सक्षम "मनुष्य " बन सकते हैं। छात्रों को इसी का उपाय बता देना शिक्षा का अभीष्ट है
     Be and Make परम्परा में प्रशिक्षित  "मनुष्य " क्रमशः कैसे बन सकते हैंऔर बना सकते हैं -प्रशिक्षणार्थियों को इसीका उपाय बता देना - स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति में आधारित महामण्डल के छः दिवसीय -"गुरुगृह वास युवा प्रशिक्षण शिविर" का अभीष्ट है!  अर्थात पशु की अवस्था से, मनुष्य में और मनुष्य से देवमानव- (51 to 100 % निःस्वार्थी-जीवनमुक्त शिक्षक या नेता) के रूप में क्रमशः कैसे विकसित हुआ जाता है -इसीका उपाय बता देना - स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति में आधारित महामण्डल के छः दिवसीय -"गुरुगृह वास युवा प्रशिक्षण शिविर" का अभीष्ट है !]
 अच्छी आदतें अच्छे चरित्र का निर्माण क्यों करेंगी?  Why good habits will form good character? कोई व्यक्ति किसी विशेष परिस्थिति में कैसा व्यवहार करेगा यह उसकी पुसनी आदतों या अन्तर्निहित  प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है। [अर्थात अच्छी आदतों का निर्माण करने से अच्छे चरित्र का निर्माण कैसे होगा ? कोई व्यक्ति किसी  परिस्थिति विशेष में किस प्रकार का आचरण करेगा यह उसकी अन्तर्निहित प्रवृत्तियों (inherent tendencies) के  पर निर्भर करेगा।]
(How a person will behave in a particular situation depends on his ingrained habits (inherent tendencies). 3H विकसित करने के 5 अच्छे अभ्यासों से अच्छी आदतें बनेंगी (सर्वमंगल की प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग आदि का पुनः-पुनः अभ्यास करने से अच्छी आदत बनेंगी), अच्छी आदतें पुरानी हो जाने से अच्छी प्रवृत्ति, और अच्छी प्रवृत्तियों के कुल समाहार को ही अच्छा चरित्र कहते हैं। 
🔆🙏स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखो कि तुम क्या सोचते हो ? जो तुम सोचते हो, वो बन जाओगे। यदि तुम खुद को कमजोर सोचते हो, तुम कमजोर हो जाओगे, अगर खुद को ताकतवर सोचते हो, तुम ताकतवर हो जाओगे। एक विचार (महावाक्य !!!) लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो, उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जियो अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सफल होने का तरीका है। 
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Wednesday, February 5, 2020

🕊🏹 स्वामी विवेकानन्द का नव-विप्लव' 🕊🏹[ प्रथम अध्याय -1.5 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.5] ("The Way of the Drop-outs - Come Out and Stand Alone"))

5.

🕊🏹स्वामी विवेकानन्द का नव-विप्लव🕊🏹

 [Come Out and Stand Alone !]

      "मुक्ति ओ मुक्ति, मुक्ति ओ मुक्ति! ' आत्मा के अन्तस्तल से सदैव यही संगीत ध्वनित होता रहता है।" ये बातें स्वामी विवेकानन्द की हैं। (२/२९४) वे यह भी कहते हैं-" जगत में सबके भीतर ही एक असन्तोष का भाव दिखाई पड़ता है। इस सर्वव्यापी असन्तोष का अर्थ क्या है ? " इसका  अर्थ यह है कि स्वाधीनता ही मनुष्य का चरम लक्ष्य है
`जब तक मनुष्य स्वाधीनता की प्राप्ति नहीं करता, तबतक किसी भी तरह उसका असन्तोष दूर नहीं हो सकता। विश्व के स्पन्दन के माध्यम से यही मुक्ति प्रस्फुटित हो रही है। स्वामी विवेकानन्द ने जिस नए विप्लव में कूद पड़ने के लिए युवाओं का आह्वान किया था, उस विप्लव के मूल को उन्होंने यहीं से प्राप्त किया था। स्वामी जी कहते हैं -" जब तक मनुष्य मुक्त नहीं हो जाता, तब तक इस मुक्ति को खोजता रहेगा। शिशु जन्म ग्रहण करते ही नियम के विरुद्ध विद्रोही हो जाता है। उसकी पहली आवाज रुदन की होती है, जो स्वयं को बंधनों में आबद्ध देखकर उसके विरोधस्वरूप होता है। " 
             किन्तु, वे पुनः कहते हैं - " वेदान्त में संग्राम का स्थान तो है, किन्तु भय के लिए कोई स्थान नहीं है। यह 'संग्राम', 'प्रतिवाद', 'विद्रोह', 'निर्भिकता', 'स्वाधीनता प्राप्ति की चेष्टा '--ये सब विप्लवी मन की भाषा है।"  किन्तु, अन्य कई शब्दों की तरह ही 'विप्लव' या 'इंकलाब'  शब्द के साथ भी - हमारे मन में 'विद्रोह', 'विनाश', 'विक्षोभ' आदि धारणायें इस प्रकार घुल-मिल गयी हैं कि, इंकलाब या विल्पव की जो एक महान गरिमा है, एक सुन्दर रूप है, उसमें जो अन्तर्निहित देवत्व के अनिवार्यरूप से आविर्भूत हो जाने की तीव्र आकांक्षा है, उसी मूल अर्थ को हम बिल्कुल भूल चुके हैं। 
      'विप्लव' शब्द 'प्लू' धातु से उत्पन्न हुआ है। 'प्लू' धातु का मूल अर्थ है- 'पार जाना' विशेष तौर पर जिन बन्धनों में मनुष्य जकड़ा हुआ है,उन बन्धनों को तोड़ना ही विप्लव का लक्ष्य है। स्वामी जी के नव विप्लव का यही निहितार्थ है। 
      स्वामीजी कहते हैं- " मैं इस सिद्धान्त से असहमत हूँ कि - प्रकृति के नियमों का पालन ही मुक्ति है। मैं नहीं समझता कि इसका क्या अर्थ हो सकता है? मनुष्य की प्रगति के इतिहास के अनुसार प्रकृति के नियमों के उल्लंघन से ही प्रगति सम्भव हुआ है। यह भले ही कहा जा सकता है कि निम्नतर नियमों पर उच्चतर नियमों द्वारा विजय प्राप्त हुई, परन्तु वहाँ भी विजेता मन मुक्त होने के लिए प्रयत्न कर रहा था। जैसे ही उसने देखा कि वह संघर्ष नियमों के कारण ही था, उसने  उस नियम को भी जीतना चाहा। प्रत्येक क्षेत्र का आदर्श सदा ही मुक्ति है। वृक्ष कभी प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं करते, गाय को कभी किसी ने चोरी करते हुए नहीं देखा, कोई घोंघा कभी झूठ नहीं बोलता, फिर भी वे मनुष्य से बड़े नहीं हैं। यह जीवन मुक्ति का एक उत्कट आग्रह है।" (2/261)
          स्वामी जी ने कहा है, " इस देश में एक बात हर समय सुनता रहता हूँ कि हमारे लिये सदा प्रकृति के साथ ताल मिलाकर चलना ही उचित है। क्या तुम यह नहीं जानते कि आज विश्व में जितनी भी प्रगति हुई है, वह सब प्रकृति को जीत लेने से ही हुई है।  यदि हमलोग किसी भी तरह से उन्नति करना चाहते हों, तो इसके लिये हर कदम पर हमें प्रकृति का प्रतिरोध करना होगा।" इसीलिये विनय कुमार सरकार ने कहा था यदि विवेकानन्द के विचारों को किसी मतवाद की संज्ञा देनी ही हो तो उसको ' प्रकृति के उपर- मनुष्यवाद' (Man-over-nature -ism) कहना होगा। प्रकृति तो मनुष्य को यह शिक्षा देती है कि स्वयं जीवित बचे रहने के लिये संग्राम करते रहो। लेकिन, स्वयं बचे रहने के लिये संग्राम करना तो स्वार्थपरता को साधित करने का नामान्तर मात्र है, और विवेकानन्द के अनुसार वैसी चेष्टा किसी भी सामाजिक नैतिकता का सम्पूर्ण विरोधी है। इसी स्वार्थपूर्ण प्रथा का पालन करते रहने से विशेष अधिकार का जन्म होता है 
विवेकानन्द कहते हैं, " विशेषाधिकार भोग करने की धारणा मनुष्य जीवन के लिये कलंकस्वरुप है।" स्वामी जी इस विशेषाधिकार की धारणा को केवल आर्थिक क्षेत्र में ही निबद्ध रखने के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने कहा है " इसके द्वारा पहले पाशविक विशेषाधिकार की धारणा उत्पन्न होती है- दुर्बल पर सबल के अधिकार की चेष्टा। इस जगत में धन के ऊपर अधिकार भी इसी प्रकार का है। किसी व्यक्ति के यदि दूसरों की अपेक्षा अधिक धन होता है, तो वह जो कम धनी हैं, उनके ऊपर अधिकार जमाना चाहता है या अधिक सुविधा का भोग करना चाहता है।  बुद्धिमान व्यक्तियों अधिकार- लिप्सा सूक्ष्मतर तथा अधिक प्रभावशाली होती है। कोई व्यक्ति यदि दूसरों की तुलना में अधिक ज्ञान या जानकारी रखता है, तो इसी आधार पर वह अपने लिए विशेष सुविधा का दावा करने लगता है। और  सबसे अन्तिम और सबसे निकृष्ट विशेषाधिकार है-आध्यात्मिकता का विशेषाधिकार। यह निकृष्टतम इसलिए है कि इसमें दूसरों के ऊपर सबसे अधिक अत्याचार करने की क्षमता होती है। जो यह समझते हैं, कि आध्यात्मिकता या ईश्वर के सम्बन्ध में वे अधिक जानते हैं, वे दूसरों से अधिक अधिकार पाने का दावा करने लगते हैं। 
     किन्तु, एक वेदान्ती कभी भी शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक रूप से बलवान होने के कारण किसी के भी लिए विशेषाधिकार का समर्थन नहीं कर सकता। बिल्कुल ही नहीं। सभी के भीतर एक ही शक्ति विद्यमान है। इसलिए अद्वैत का कार्य है इन सभी विशेषाधिकारों को तोड़ डालना । वेदान्त इस विशेषाधिकारवाद के विरुद्ध प्रचार करना चाहता है, मानव-आत्मा के उपर होने वाले इस उत्पीड़न को चूर-चूर कर देना चाहता है।" 
             स्वामी विवेकानन्द के `वेदान्ती इंकलाब ' या 'वेदान्ती विप्लव' की योजना में यही नया मोड़ है। किन्तु वे बड़े क्षोभ के साथ कहते हैं- " इस देश में लक्ष्य तो अनेक हैं, किन्तु उपाय नहीं।मस्तिष्क तो है, परन्तु हाथ नहीं। हम लोगों के पास वेदान्त मत (चार महावाक्य) है लेकिन उसे कार्य में परिणत करने की क्षमता नहीं है। हमारे ग्रन्थों में सार्वभौम-साम्यवाद का सिद्धान्त है, किन्तु कार्यों में महाभेदवृत्ति है। महा निःस्वार्थ निष्काम कर्म भारत में ही प्रचारित हुआ, किन्तु  हमारे कर्म अत्यन्त निर्मम और हृदयहीन हुआ करते हैं; और मांसपिण्ड की अपनी इस काया को छोड़ कर, अन्य किसी विषय में हम सोचते ही नहीं। " 
              स्वामी विवेकानन्द के अनुसार- "ईश्वर और शैतान में स्वार्थशून्यता और स्वार्थपरता के सिवा और कोई अन्तर नहीं हैं।  शैतान भी ईश्वर के जैसा ही शक्तिशाली है, केवल उसमें पवित्रता नहीं है -इस पवित्रता के अभाव ने ही उसको शैतना बना दिया है। केवल इसी पैमाने को इस दृष्टिगोचर जगत के प्रति प्रयोग करो। पवित्रता नहीं रहने से, ज्ञान और शक्ति का आधिक्य मनुष्य को शैतान में परिणत कर देता है। " (९/१०२) इस पवित्रता को प्राप्त करना ही वेदान्ती-विप्लव की योजना का प्रधान अंग है। इसकी प्राप्ति ही आध्यात्मिकता को अर्जित करना है एवं जीवन के समस्त स्तर पर वह प्रभावकारी होता है। विवेकानन्द के विचार में मनुष्य जीवन में- ' धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष' (Sacred and Secular) जैसे दो अलग-अलग कार्य-क्षेत्र नहीं हैं। क्योंकि जीवन एक ही वस्तु है, और हर प्रकार से अधि-आत्मिक है 
       किन्तु,धर्म क्या है ? विवेकानंद कहते हैं -" धर्म का अर्थ क्या इस प्रकार प्रार्थना करना है कि "मुझे यह दो, मुझे वह दो" ? धर्म के संबन्ध में ये सब अहमकी धारणा है। मेरे गुरु श्री रामकृष्ण देव कहते थे -' गिद्ध  तो बहुत ऊँचाई पर उड़ते हैं, किन्तु, उनकी दृष्टि जानवरों के मुर्दा शरीर पर होती है।'  .....रास्ते की सफाई करना और अच्छे अन्न-वस्त्र का संग्रह और उनका वितरण कर देना ?  यदि साहस हो, इन सबके बाहर निकल आओ। समुदय नियम के बाहर  चले जाओ, मानो समग्र जगत भाप बनकर उड़ गया हो - तुम अकेले आकर खड़े हो जाओ।'(८/७९) यही है स्वामीजी का सच्चा इन्कलाब जिन्दाबाद ! या यथार्थ विप्लवी आह्वान !
        हम लोग उनके इसी उक्ति की प्रतिध्वनी प्रसिद्द इतिहासकार एवं विचारक अर्नाल्ड टायनबी की पुस्तक 'Surviving the Future' में सुन सकते हैं। वे कहते हैं- " सच्चे दीर्घ स्थायी शान्ति के लिए जो अत्यन्त आवश्यक है, वह है एक आध्यत्मिक-विप्लव के घटित हो जाने की!" वे क्रांति के दो मार्गों की बातें करते हैं। एक में यह विप्लव व्यवस्था के प्रति क्षोभ और मुक्ति की आकांक्षा विस्फोटक रूप धारण कर लेती है और दूसरे प्रकार का इन्कलाब या निःशब्द और बाहर से देखने पर कम क्रियाशील प्रतीत होता है। फिर टॉयनबी  अपनी पुस्तक  'The way of the dropouts' में ठीक विवेकानन्द की भाषा में - सेन्ट फ्रांसिस ऑफ़ आसीसी का उदाहरण देते हुए कहते हैं- उनके अलावा इस प्रकार अकेले आकर खड़े हो जाने वाले क्रन्तिकारी नेतृत्व के और भी कई उदाहरण  हैं, जिनके कारण समाज विशेष रूप से उपकृत है।" हम नहीं जानते कि यह लिखते हुए टॉयनबी के मन में विवेकानन्द का नाम था या नहीं किन्तु हम निःसन्देह यह जानते हैं कि हमारे युग के ऐसे ही आध्यात्मिक यायावर दल के पुरोधा' का नाम था- स्वामी विवेकानन्द! ये यायावर लोग केवल अपने समाज में ही क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए ही संकल्पवान नहीं थे, बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति के विचार जगत में एक क्रांति लाना चाहते थे । और यही है इस नव विप्लव की भूमिका ।   
             विवेकानन्द ने घोषणा किया था, " हमलोग निश्चित रूप से विशेषाधिकार को विलुप्त कर सकते हैं। समग्र जगत के सामने यही एक सच्चा कार्य है। प्रत्येक जाति और देश के सामाजिक जीवन में यही एकमात्र संग्राम है। युग-युगान्तर से नैतिकता और धर्म का लक्ष्य इसी (वंशवाद में आधारित) अधिकारवाद का ध्वंश करना है। विभिन्नता को नष्ट किये बिना साम्य और ऐक्य (oneness) की ओर अग्रसर होना ही हमलोगों का एकमात्र कार्य है।" यहीं पर स्वामी विवेकानन्द के अध्यात्मिक इन्कलाब का सकारात्मक पक्ष दिखाई देता है। जड़वादियों के इन्कलाब और अध्यात्मवादियों के इन्कलाब में यही अन्तर है। संस्कृत के कवि भास ने बहुत ही सुंदर ढंग से कहा है- 
 प्राज्ञस्य मूर्खस्य च कार्ययोगे, 
 समत्वमभ्येति तनुर्नबुद्धि: ।  

- कोई कार्य चाहे किसी ज्ञानी द्वारा सम्पादित हो या मूर्ख द्वारा बाहर से उसमें कोई अन्तर नहीं दिखलाई पड़ता। किन्तु, बुद्धि या विचार की दृष्टि से देखने पर दोनों में बहुत अन्तर रहता है। 
            विवेकानन्द की स्वाधीनता की परिकल्पना काफी व्यापक थी। वे सम्पूर्ण मानव जाति को राजनैतिक, सामाजिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक स्वाधीनता उपलब्ध करवाना चाहते थे।
        इसीलिये 1929 ई० में हुगली जिला छात्र सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था- " राममोहन के युग से प्रारम्भ हो भारत की स्वाधीनता  की आकांक्षा विभिन्न आन्दोलनों के माध्यम से क्रमशः प्रकट होती आ रही है।  उन्नीसवीं शताब्दी में यह आकांक्षा एक विशेष वर्ग के विचार -जगत तक ही सीमित दिखाई देता, उस समय तक यह विचार राष्ट्रीय फलक पर नहीं आया था।  क्योंकि उस समय भी भारतवासी पराधीनता के मोहनिद्रा में निमग्न हो ऐसा समझते थे कि अंग्रजों का भारत पर विजय भाग्य का फेर है या 'divine dispensation' ईश्वरीय विधान है।" 
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत एवं बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में स्वाधीनता के अखण्ड रूप का आभास 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त विचारधारा में प्राप्त होता है। "Freedom! Freedom, is the song of the soul. यह सन्देश जब स्वामीजी के हृदय को भेदकर प्रकट हुआ उस समय इस दैवी सन्देश ने सम्पूर्ण भारतवर्ष को मंत्रमुग्ध और हर्ष से भर दिया था। विवेकानन्द की साधना, आचरण एवं व्याख्यानों के माध्यम से भी यही सत्य प्रकट हुआ था। 
     स्वामी विवेकानन्द जहाँ एक ओर मनुष्य को समस्त प्रकार के बन्धनों से स्वाधीन  होकर यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद) बनने का आह्वान करते हैं वहीं दूसरी ओर सर्वधर्म समन्वय का प्रचार कर भारत के राष्ट्रीय-एकता की बुनियाद को भी स्थापित कर देते हैं। "
               बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में गठित Sedition Committee' या "राजद्रोह जाँच समीति " के रिपोर्ट में कहा गया था कि "भारत के क्रांतिकारियों को कोर्स के रूप में मैजिनी, गैरीबाल्डी की जीवनी के साथ-साथ भगवदगीता और विवेकानन्द साहित्य पढ़ाये जाते थे।" तात्कालीन बंगाल के गवर्नर रोनाल्ड ने क्रांतिकारी हरिकुमार से ढाका के जेल में   पूछा था - " कहीं आप विवेकानन्द के अनुयायी और वेदान्ती तो नहीं हैं ? " विपिन चन्द्र पाल विवेकानन्द को ' राष्ट्रवाद के प्रवक्ता ' कहते थे। कई लोग उनको 'भारत का रूसो ' के नाम से भी संबोधित करते थे। ऋषि अरबिन्दो ने लिखा था, " दक्षिणेश्वर की मिट्टी से डायनामाईट का निर्माण हुआ था।" शायद इसीलिये जब अरबिन्दो को बम बनाने के मुकदमे में गिरफ्तार किया गया था, उस समय तलाशी में पुलिस को वहाँ से केवल एक ही सन्देहास्पद पुड़िया प्राप्त हुई थी। उनलोगों ने समझा  कि शायद उसमें कोई बिस्फोटक पदार्थ रखा हुआ है। अरबिन्दो  ने बाद में लिखा था, " पुलिस का सन्देह गलत नहीं था, क्योंकि ताखे में जो पुड़िया बांध कर रखा रखा हुआ था , वह वास्तव में बिस्फोटक पदार्थ ही तो था क्योंकि उसमें दक्षिणेश्वर की थोड़ी- सी मिट्टी रखी हुई थी।" 
          विवेकानन्द के भीतर अध्यात्मिक-क्रांति का बीज था, इसीलिये यह सब सम्भव हुआ था। उन्होंने आह्वान किया था- " हे नर-नारियों! उठो, आत्मा के सम्बंध में जाग्रत होओ, सत्य में विश्वास करने का साहस करो संसार को कई सौ साहसी नर-नारियों की आवश्यकता है। अपने में वह साहस लाओ, जो सत्य को जान सके, (विज्ञान और वेद दोनों प्रकार के सत्य को जान सके), जो जीवन में निहित सत्य को दिखा सके, जो मृत्यु से न डरे, प्रत्युत उसका स्वागत करेजो मनुष्य को यह ज्ञान करा दे कि वह आत्मा है और सारे जगत में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो उसका विनाश कर सके। " लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) में दृढ़ विश्वास रूपी कवच से सज्जित होकर दरिद्र,पतित  और पददलितों के प्रति सहानुभूति सेसिंह के समान साहसी बनकर, सिंह विक्रम से युक्त होकर  इस सम्पूर्ण भारत देश में सर्वत्र मुक्ति,सेवा, सामाजिक उन्नति और साम्य के मंगलमय सन्देश को भारत के द्वार-द्वार तक पहुँचा सकें। उठो, जागो ! तुम्हारी मातृभूमि इसी महाबली की प्रार्थना कर रही है। " [पत्रावली2/18] अध्यात्मिक इन्कलाब का यह मार्ग उस्तुरे की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान दुर्गम है। यदि भारत के युवा लोग व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हों, समाज से भ्रष्टाचार को दूर करने के लिये कृतसंकल्प हों तथा इस नई क्रांति से प्रेम करने का साहस करें तभी उन्हें मानवीय सम्भावना का विकास और अभिव्यक्ति के लिये आंतरिक प्रेरणा प्राप्त होगी। इस मार्ग पर चलने का एकमात्र संबल है, विवेकानन्द निर्देशित मनुष्यत्व उन्मेषक चरित्र निर्माणकारी शिक्षा।  " 
              चरित्र ही इस इन्कलाब का एकमात्र हथियार है और इस क्रांति का आघात पूरी निर्दयता के साथ इंकलाबियों को दूसरों पर नहीं अपने आप पर करना चाहिए। वे यदि अपने चरित्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकें, तभी उनके द्वारा समाज में परिवर्तन ला पाना संभव होगा। नहीं तो जड़वादी इन्कलाब की भोथरी तलवार निष्फल होकर किसी न किसी दिन वापस लौट आएगी। जो लोग 'त्याग और सेवा' के माध्यम चरित्र का गठन करते हैं, वे ही लोग अध्यात्मिक क्रांति की पताका उठाकर संगठित हो सकते हैं। आज भारत को जिस चीज की आवश्यकता है, वह है चरित्र। चरित्र ही समाज के पतन और वैषम्य को दूर कर सकता है, विशेषाधिकार और शोषण को समाप्त कर सकता है, साम्य, न्याय और परस्पर सौहार्द को स्थापित कर सकता है। 
          आज भारत की स्वाधीनता के 27 वर्षों बाद (यह लेख 1974 में  प्रकाशित हुआ था) टॉयनबी उल्लेखित पुराने ढंग की  क्रांति का प्रयोजन समाप्त हो गया है। आज आवश्यकता है एक नये ढंग की क्रांति की। मन की चंचलता को संयमित कर अपने जीवन को गढ़ते हुए देश को गढ़ने का कार्य करना, वर्त्तमान परिस्थितियों से उत्पन्न निराशा की विभीषिका से बचने की चेष्टा में मर जाने से भी कठिनतर है। 
  
सत्य है कठिन, बोलो  - 
कठिनतर से किया प्रेम !  
 मृत्युपर्यन्त जीवन है दुःख की तपस्या मात्र !   

  " विषयी को परिवर्तित करो, विषय भी परिवर्तित हो जायेगा। स्वयं को परिवर्तित करो, तो जगत भी परिवर्तित होने को बाध्य हो जायेगा। हमलोग उत्तरोत्तर अपने पड़ोसियों को लेकर व्यस्त होते जाते हैं, अपने बारे में हमारी व्यस्तता क्रमशः कम होती जाती है। यदि हमलोग बदल  जाएँ तो जगत भी बदल  जायेगा। विवेकानन्द के इन विचारों में 'नये इंकलाब की योजना' सन्निहित है।  इस नई क्रांति की रण-गर्जना को अपने हृदय से श्रवण करो- 
' उठो उठो, महातरंग आ रहा है !
जागो वीर ! छोड़ो सपने, तोड़ो भ्रमजाल, 
भय क्या तुम्हें  देगा शोभा ?
 सदा घोर संग्राम छेड़ना 
उनकी पूजा के उपचार, वीर ! 
डराये कभी न, आये पराजय सौ सौ बार।।

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Thursday, October 27, 2016

🕊🏹1.7 " स्वामीजी का आदर्श -अन्तर्निहित शक्ति का उद्घाटन " 🕊🏹[ प्रथम अध्याय -1.7 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.7/old book 1.8]

7.

" स्वामीजी का आदर्श - अन्तर्निहित शक्ति का उद्घाटन " 

       स्वामी विवेकानन्द के महान व्यक्तित्व-सम्पन्न जीवन एवं संदेशों के विशाल भण्डार को देखने से मन में स्वतः यह प्रश्न उठता है कि आखिर स्वामीजी ने हमलोगों के समक्ष कौन सा आदर्श प्रस्तुत किया है? महापुरुषों के विचार, वचन एवं कर्म में एकरूपता होती है। इसीलिए 
स्वामीजी के आदर्श को समझने के लिये हमें उनके संदेशों तथा कर्ममय जीवन को समानरूप से विश्लेषण करना होगा। स्वामीजी के सन्देश मनुष्य जीवन के समस्त पक्षों को आलोकित कर सकते हैं। यथार्थ 'विवेकज-ज्ञान' के फलस्वरूप उनकी दृष्टि के समक्ष मनुष्य जीवन की पूर्णता अनावृत हो उठी थी, जिन्हें उन्होंने मानव जीवन की समग्रता का अनुसन्धान कर सार्वजनिक कल्याण के लिए वितरित किया था। उन्होंने अपने जीवन से यही दिखाने का प्रयत्न किया है कि व्यक्ति किस प्रकार उस समग्रता की अभिव्यक्ति को संभव बना सकता है। इसीलिये उनके दिव्य संदेशों के समान उनका जीवन भी हमलोगों के लिये एक आदर्श है।
     स्वामी जी ने किसी नए आदर्श को उद्घाटित करने , अन्य आदर्श की उपेक्षा या अनादर करने या उसकी प्रयोगात्मकता की क्षमता पर शंका करने तथा अपने ही आदर्श को अधिष्ठापित करने के मोह में पड़े बिना ही मानव जीवन के लिए सर्वथा उचित आदर्श का निर्भय और निःसंकोच होकर प्रचार किया है। उनका मानना है कि- " आदर्श समाज के सामने अपना सिर नहीं झुकाएगा, बल्कि समाज को ही आदर्श के सम्मुख अपना सिर झुकाना होगा।" और उस आदर्श को ढूँढ़कर जो समाज जितनी जल्दी वैसा करने लगेगा, उस समाज का उतना ही कल्याण होगा। स्वामीजी की यह धारणा थी कि- " जिस समाज में श्रेष्ठ आदर्श को कार्यरूप देना संभव है, वही श्रेष्ठ समाज है। " उनके इस महान आदर्श को उन्हीं के शब्दों में बहुत थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है, " बनो और बनाओ।अर्थात "मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ।" यह 'बनना और 'बनाना' परस्पर अभिन्न और अविभक्त हैं। स्वामीजी कहते हैं," मेरे आदर्श को सचुमच थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है, वह है मनुष्य में अन्तर्निहित देवत्व का प्रचार करना तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे कैसे व्यक्त किया जाता है, उसका मार्ग बता देना।" उनके इस आदर्श पर मनन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामीजी केवल एक तात्विक आदर्श को उद्घाटित करके ही थम नहीं जाते बल्कि उस ज्ञान का व्यावहारिक जीवन में कैसे उपयोग किया जा सकता है उसके ऊपर भी साथ-साथ विचार करते हैं। क्योंकि किसी आदर्श को यदि व्यावहारिक जीवन में अपनाना संभव न हो तो उसे 'आदर्श' नहीं कहा जा सकता है।  
    स्वामीजी ने जिस आदर्श को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है वह जीवन के किसी क्षेत्र विशेष का आदर्श नहीं है बल्कि समग्र जीवन का आदर्श है। वैयक्तिक जीवन, सामाजिक जीवन, राष्ट्रिय जीवन एवं अन्तर्राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में- अर्थात मानवता के प्रत्येक क्षेत्र में यह आदर्श व्यवहारोपयोगी है। अक्सर लोग धर्म, राजनीति, आर्थिक नीति, कानून आदि के पारस्परिक सम्बन्ध को अनदेखा कर विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग- अलग आदर्श की चर्चा करते हैं। किन्तु, जब जीवन के इन विभिन्न क्षेत्रों के आदर्श किसी महत्तर मूल आदर्श के अनुरूप नहीं होते तो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों  में अन्तर्विरोध दिखने लगता है, एवं एक ही मनुष्य जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के साथ, विभिन्न रूपों में संयुक्त रहता है , उसका जीवन आदर्शों में समन्वय के अभाव में संकटों में घिर जाता है।  
     इसीलिये व्यक्ति हो या समाज उसकी निर्विघ्न उन्नति के लिये एक मौलिक आदर्श का रहना आवश्यक हो जाता है। यदि वह मौलिक आदर्श किसी ऐसे सत्य पर प्रतिष्ठित हो जो जीवन का केन्द्रबिन्दु है , तब वह आदर्श जीवन का सर्वांगीन कल्याण करने में सक्षम होता है। स्वामीजी ने उसी प्रकार के एक केन्द्रीय सत्य या तत्व की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं तथा उसी समस्त क्षेत्र-विशेष के आदर्श के नियंत्रक रूप में ग्रहण करने के लिए कहते हैं। और , वह तत्व है - अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति- जो जाति,धर्म, वर्ण,लिंग आदि भेद के दृष्टिगोचर होने के बावजूद भी प्रत्येक मनुष्य में अंतर्निहित है ! 
किन्तु, जब तक हमें इस अंतर्निहित पूर्णता में विश्वास नहीं होता, तब तक भले ही हम किसी क्षेत्र-विशेष के आदर्श का आविष्कार  और अनुसरण करते रहें और थोड़ी बहुत सफलता भी हासिल कर लें, लेकिन  कभी भी हम अपनी पूर्णता या महिमा में प्रतिष्ठित नहीं हो सकते। अर्थात तब तक हम यह नहीं कह सकते कि हमने किसी सच्चे आदर्श का अनुसरण कर लिया है। अतः हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य होना चाहिये जीवन के इस मुख्य तत्व को, मौलिक सत्य को अपने जीवन की प्रत्येक अभिव्यक्ति में प्रत्येक कर्म में, प्रत्येक दृष्टिकोण में प्रक्षेपित करना। यह तत्व- 'अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति ' मनुष्य की शाश्वत सत्ता के उपर प्रतिष्ठित है, तथा यह देश-काल के भेद से परिवर्तित हो जाने वाली वस्तु नहीं है।
        मनुष्य सत्ता जैसी पहले थी, वैसी ही आज भी है। पूर्वी गोलार्ध और पश्चमी गोलार्ध के मनुष्यों में मूलतः कोई अन्तर नहीं है। अतः यह प्रश्न उठाना कि स्वामीजी  कथित यह आदर्श आज के युग में उपयोगी है या नहीं, बिलकुल असंगत है। इस प्रकार के आदर्श के साथ संयुक्त विभिन्न क्षेत्रों के छोटे -छोटे आदर्श अनन्त न होने के बावजूद भी दीर्घ काल तक प्रभावी रह सकते हैं। क्योंकि देश- काल की आवश्यकता के अनुरूप साधारण परिवर्तन सापेक्ष आदर्श रखने के बाद हमें ध्यान रखना होगा कि उसका मुख्य लक्ष्य मनुष्य में अन्तर्निहित 'पूर्णत्व ' (अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति ' 100 %निःस्वार्थपरता) को प्रकट करने में सहायता करना ही रहे । ऐसा होने पर ही विभिन्न क्षेत्रों के आदर्शों में यथार्थ सामजंस्य बना रहेगा एवं पारस्परिक परिपूरक के रूप में कार्य करते हुए, प्रत्येक क्षेत्र से जीवन को समग्रता की ओर ले जायेगा।  तथा, स्वविरोध का भाव नहीं रहने से क्षेत्र-विशेष के आदर्श भी विफल नहीं होंगे। इस मूल आदर्श -अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति का परिचय करवाने वाला सरलतम वाक्य है - ' स्वयं मनुष्य बनने की चेष्टा करना और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करना।' क्योंकि सृष्टि और मानव-समाज के आधारीय (Basal)  एकत्व के कारण मनुष्य अकेले ही ऊँचा नहीं उठ सकता। मनुष्य बनने का अर्थ है- अपनी अंतर्निहित सत्य या सत्ता (अनन्त ज्ञान, और अनन्त शक्ति या दिव्यत्व) का प्रकटीकरण या वह अभिव्यक्ति जिससे जीवन में पूर्णता (100 % निःस्वार्थपरता) आती हो
       इसी लक्ष्य को सामने रखते हुए यदि कोई अपने व्यक्तित्व का गठन करे, चरित्र-निर्माण करे, शिक्षा अर्जित करे तथा साथ- ही -साथ परिवार चलाने के लिये आवश्यक भोग-सामग्रियों का संग्रह भी करे, तभी वह धीरे- धीरे अपने यथार्थ आदर्श की ओर अग्रसर हो सकता है। इसीलिये स्वामीजी इसी को मूल आदर्श कहते हैं। यहाँ पर मनुष्य का दैनन्दिन लौकिक जीवन  भी उपेक्षित नहीं होता है। किन्तु, यदि व्यक्ति का जीवन असंयमित हो ,लक्ष्यहीन हो तो जीवन की महान हानि हो जाती है, एक सम्भावना का अन्त हो जाता है। इसीलिए इस जीवन-लक्ष्य को संयमपूर्वक  
धारण करने की आवश्यकता है। क्योंकि जो वस्तु हमारे जीवन को लक्ष्याभिमुखी बनाती है, उसे समग्र रूप से धारण करती है, नियमित करती है- वही धर्म है। इसीलिये स्वामीजी हमें धर्म के विषय में बहुत प्रकार से समझाने की चेष्टा करते हैं। किन्तु, धर्म के आचार-अनुष्ठान को ही वे धर्म का मूल बात मानने से इंकार करते हैं।  हमलोग भी कहीं कर्मकाण्ड को ही धर्म का मूल न समझ लें इसीलिये स्वामीजी धर्म के बजाय आध्यात्मिकता शब्द का प्रयोग करते हैं ।
      वैसे, आध्यात्मिकता है क्या ? जब हमलोग मनुष्य की आत्मा को, मूल तत्व या मूल सत्य (अतीन्द्रिय सत्य) को व्यवहार में प्रकट करने की चेष्टा करते हैं तो उसी को आध्यात्मिकता कहते हैं।  इसीलिये स्वामीजी जब समग्र राष्ट्र की बात करते हैं, तो वे सबसे पहले देश को इसी आध्यात्मिकता की बाढ़ में प्लावित कर देने की बात करते  हैं
      स्वामीजी के मन में मानव मात्र के लिये सर्वदा एक आदर्श भाव विद्यमान रहता था।  इसीलिये अनन्त शक्ति सम्पन्न मनुष्य को दुर्बल,असहाय, निराश, दुःख-कष्ट में गिरा देखने पर स्वामीजी को व्यथा होती थी। मनुष्य मात्र के प्रति अथाह करुणा एवं सहानुभूति से भरे होने के कारण लोगों की दुर्बल अवस्था देखकर स्वामीजी की आँखों से आँसू गिरने लगते थे। इन्द्रिय और प्रकृति के दास मनुष्य द्वारा कल्पित किसी आदर्श मूर्ति की पूजा में स्वामी विवेकानन्द का विश्वास नहीं था। स्वराज्यच्युत, धूल-धूसरित जीवंत शरीर और मन के आधार सत्ता की पूजा - [मानवदेह में विद्यमान ईश्वर की पूजा ] करना ही स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में मानवता है। जो मनुष्य अपनी सत्ता के सम्बन्ध में सोया हुआ है, जो अपनी गरिमा के प्रति सचेत नहीं है, अनन्त सम्भावना की खोज नहीं करता, वह स्वाभाविक रूप से स्वयं को दुर्बल तथा  तुच्छ समझता है। और ऐसा ही अज्ञानी मनुष्य असहाय भाव का अतिक्रमण कर पाने असमर्थ रहने के कारण स्वार्थ को ही परमार्थ समझ लेता है और दिनों-दिन स्वयं को गहरे अंधकार में निमग्न करता चला जाता है। 
    इस स्वार्थ का त्याग कर हम परमार्थ आदर्श एवं अनन्त शक्ति को उद्घाटित करने के पथ पर आगे बढ़ सकते हैं। इसीलिये स्वामीजी के अनुसार  निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है। हम अपनी पूर्णता या वृहत सत्ता की ओर अग्रसर होने के पथ पर स्वार्थ, संकीर्णता एवं हीन भावनाओं का जो बहिष्कार करते हैं, वही हमलोगों का यथार्थ त्याग है। 
     और इसी मार्ग पर आगे बढ़ने में दूसरों की सहायता करना ही सेवा है। हमलोग जैसे- जैसे वृहत, पूर्णता,  स्वार्थहीनता, अन्तर्निहित सत्ता तथा परायों को भी अपना बना लेने की ओर अग्रसर होते जाते हैं, उतना ही हम निर्भय होते जाते हैं, उतना ही हम ज्ञानालोक पाते रहते हैं एवं शक्तिशाली होते जाते हैं। तथा हमारे समस्त कार्यों में हमारी अन्तर्निहित निष्कलंक सुन्दरता, पवित्रता, ज्ञान और शक्ति उतना ही अधिक प्रस्फुटित होती जाती है। ऐसे मनुष्य के लिये कुछ भी असंभव नहीं है, अलभ्य नहीं है। निराशा और विषाद उसके पास भी नहीं फटकते
   स्वामीजी की इच्छा थी कि यह सरल किन्तु सबल विचारधारा,  ऊँच-नीच का भेद किये बिना सामान्य जनता के बीच उदारता के साथ वितरित की जाय। और " एक नवीन भारत निकल पड़े- निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुआ, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से। निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। "
स्वामीजी ने चाहा था कि  ऐसी शिक्षा शुरू की जाये जिससे प्रत्येक मनुष्य अपनी  सम्भावना को अभिव्यक्त करने में सक्षम हो सके। ऐसी राजनीति शुरू हो जिसमें सभी मनुष्य को अपनी अन्तर्निहित शक्ति को जाग्रत करने का अवसर प्राप्त हो सके। ऐसी सामाजिक नीति प्रचलित हो जाये जिससे ऊँच-नीच, धनी-दरिद्र, विद्वान-मूर्ख के भेद एवं समस्त प्रकार के विशेषाधिकार के दावों का अवसान हो जाये। अर्थिक नीति में ऐसा परिवर्तन हो, जिसमें शोषण,ठगी, लूट एवं घोटाला समाप्त हो जाय तथा सभी के लिये दोनों वक्त के भोजन का प्रबंध हो जाये।
" एक ही आदमी सदा सुख या दुःख भोगता रहे , उससे अच्छा है कि सुख-दुःख बारी -बारी से सबों में विभक्त किया जा सके। "  [कुमारी मेरी हेल को १ नवम्बर १८९६ को लिखित एक पत्र में स्वामीजी कहते हैं, " एक ही वर्ग का व्यक्ति सदा सुख या दुःख भोगता रहे, उससे तो अच्छा है कि सुख-दुःख बारी बारी से सबों में विभक्त किया जाये। इस दुःखी संसार में सबको सुख-भोग का अवसर दो, जिससे इस तथाकथित सुख का अनुभव कर लेने के बाद,वे संसार, शासन-विधि और अन्य सब झंझटों को छोड़ कर परमात्मा के पास आ सकें। " ५/३८७ ]
      ऐसी धर्म-नीति का पालन हो जिससे सारे कूसंस्कार दूर हो सके, धार्मिक कट्टरता समाप्त हो जाय, एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ प्रेम बढ़े, भोग में संयम रहे, परार्थता में स्वार्थ-बुद्धि हो, त्याग के महत्व का प्रचार हो, सेवा में प्रेम हो तथा हृदय का प्रसार हो।
स्वामीजी के आदर्श में निद्रा एवं आलस्य का स्थान नहीं है। " कायर और मूर्ख लोग ही भाग्य की दुहाई देते हैं। वीर तो सिर ऊँचा करके बोलता है- "अपना भाग्य मैं स्वयं गढ़ूँगा। " स्वामीजी का आदर्श- शक्ति के उद्घाटन का आदर्श है। " शक्ति ही सुख और आनन्द है, शक्ति ही अनन्त और अविनाशी जीवन है।" हमलोगों का आदर्श समुज्ज्वल हो, जीवन विकसित हो, हमारी शक्ति उद्घाटित हो तथा शक्ति-आराधना सार्थक हो ! 
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