Tuesday, December 9, 2025

"अद्वैत ही रामकृष्ण मिशन और रामकृष्ण मठ की मूल विचारधारा है !"

 


" अद्वैत ही रामकृष्ण मिशन और रामकृष्ण मठ की मूल विचारधारा है !" 

" This Advaita was never allowed to come to the people. At first some monks got hold of it and took it to the forests, and so it came to be called the "Forest Philosophy". By the mercy of the Lord, the Buddha came and preached it to the masses, and the whole nation became Buddhists. Long after that, when atheists and agnostics had destroyed the nation again, it was found out that Advaita was the only way to save India from materialism. Thus has Advaita twice saved India from materialism ! " -Swami Vivekananda : (The Absolute and Manifestation/ Volume-2/Jnana-Yoga/page -138)  

"अद्वैतवाद का प्रचार साधारण लोगों में कभी होने नहीं दिया गया। संन्यासी लोग ही अरण्य (जंगलों) में उसकी साधना करते थे , इसी कारण वेदान्त का एक नाम 'आरण्यक' ("Forest Philosophy") भी हो गया। अन्त में भगवान की कृपा से बुद्धदेव ने आकर जब सर्वसाधारण के बीच इसका प्रचार किया , तब सारा देश बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया। फिर बहुत समय बाद नास्तिकों (atheists-ईश्वर को न मानने वाले) और अज्ञेयवादियों (agnostics) ने जब सारे देश को ध्वंश करने की चेष्टा की, तब उस भौतिकवाद से भारत की रक्षा करने में पुनः एक बार अद्वैतवाद ही एकमात्र उपाय सिद्ध हुआ। इस प्रकार अद्वैत ने  दो बार भौतिवाद से भारत की रक्षाकी है।"  - स्वामी विवेकानन्द  ('ब्रह्म एवं जगत' : वि ० सा० /खंड-२./पृष्ठ- ९३) 


Sunday, November 30, 2025

⚜️️🔱ब्रह्म ही वस्तु है और सब अवस्तु⚜️️🔱श्रीरामकृष्ण तथा ईश्वर प्राप्ति के लिए व्याकुलता ⚜️️🔱 स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज; अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती | ⚜️️🔱( “Sri Ramakrishna and longing for God”) Bhakta Sammelan || Speech by Swami Shuddhidananda/(Ramakrishna Mission, New Delhi/ 2023)

⚜️️🔱ब्रह्म ही वस्तु है और सब अवस्तु⚜️️🔱

"श्री रामकृष्ण तथा  जीवनमुक्ति की यात्रा "  

[Sri Ramakrishna and Journey towards Jivanmukti] 

[Bhakta Sammelan || Speech by Swami Shuddhidananda. 

Ramakrishna Mission, New Delhi


ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे । 
अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ॥

आज यहाँ हम सभी लोग भक्तसम्मेलन के उपलक्ष्य में एकत्रित हुए हैं। जब हम किसी ऐसे समूह के विषय में सोचते हैं , जो एक ही उद्देश्य के लिए एकत्रित हुए हों, तो वह समूह बहुत विशेष और विलक्षण हो जाता है। जब भक्त लोग परपस्पर मिलते हैं , तो वे आपस में क्या चर्चा करते हैं?  ऐसे भक्तों के विषय में भगवान श्रीकृष्ण भगवत गीता में (10/9) में कहते हैं , 
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।
   मुझमें ही चित्त को स्थिर करने वाले और मुझमें ही प्राणों (इन्द्रियों) को अर्पित करने वाले भक्तजन  जब एक जगह सम्मलित होते हैं , मेरे सत्यस्वरूप के बारे में  विवेक-विचार करते हैं , वे परस्पर चर्चा करके एक दूसरे को मेरे परम तत्व  (भगवान-अवतार-आत्मा-ईश्वर के एकत्व-Oneness ) के विषय में ज्ञान देते हैं और ऐसा करके वे तुष्यन्ति तथा रमन्ति महान संतोष प्राप्त करते हैं, अर्थात उसमें आनन्दित होते हैं। 
    और आज की यह विचारगोष्ठी (symposium या भक्त सम्मलेन) भी इसी उद्देश्य को सामने रखकर आयोजित किया जा रहा है, ताकि जिस सत्य को आप कोई विशेष नाम-रूप धारी व्यक्ति समझते हों या अरूप समझते हों, आपका मन अपनी स्वाभाविक मानसिक रुझान के अनुसार निरंतर उसी परम सत्य पर केंद्रित रहे। लेकिन सच्चाई यही है कि हम सभी उसी परम सत्य के खोजी , अन्वेषक या सत्यार्थी (seekers of truth) हैं। यह एक ऐसी विचारगोष्ठी है , जहाँ हमलोग यह जानने के लिए एकत्र हुए हैं कि जीवन में सत्य क्या है ? और हमारे समक्ष 'सत्यम" क्या है इसके एक जीवन्त उदाहरण और अनुकरणीय आदर्श हैं भगवान श्रीरामकृष्ण ! उनके व्यक्तित्व के विषय में स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, " श्री रामकृष्ण वह सर्चलाइट हैं, जिनकी रोशनी में हम हिंदू वैदिक सनातन धर्म के सभी पहलू को, समस्त विस्तार को समझ सकते हैं!" तो प्रश्न यह उठता है कि हिन्दू धर्म की मुख्य शिक्षा क्या है? "What is the central teaching of Hindu dharma ?" (5:23)
   हिन्दू धर्म की शिक्षा का मूल बिन्दु (Crux) केवल इतना बता देना है कि मनुष्य का वास्तविक स्वरुप क्या है ? हिन्दू धर्म को इतना ही कहना है कि मनुष्य अनित्य (नश्वर) शरीर नहीं है, वह नित्य (अविनाशी) आत्मा है। और यही हम सभी का, हममें से प्रत्येक मनुष्य का सच्चा स्वरुप है, तथा इस सत्य की अनुभूति कर लेना ही मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है।
    उपनिषदों की शिक्षा है - "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः"  - अर्थात ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म से अलग नहीं है।' और यही परम सत्य का पूर्ण चित्रण है।  (this is the complete picturisation of ultimate reality.) 
     परम सत्य क्या है ? एकमात्र ब्रह्म या आत्मा ही सत्य है। और अपनी इन्द्रियों के माध्यम से  जिस जगत के जिन विषयों का अनुभव हमलोग जिस रूप में कर रहे हैं , उसके सम्बन्ध में हमारे हिन्दू वैदिक धर्म के विचार यही कि यह जगत मिथ्या है। और जीव का वास्तविक स्वरूप क्या है ? यह जीव भी ब्रह्म (आत्मा या ईश्वर) के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। तथा जिस जगत को हम देख रहे हैं , यह जगत भी स्वरूपतः  ब्रह्म या ईश्वर ही है। अस्तित्व में एकमात्र ब्रह्म ही है। ब्रह्म से भिन्न और पृथक किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। उपनिषदों की यही मुख्य शिक्षा है। (7:15
     लेकिन ब्रह्म से भिन्न और पृथक यह मिथ्या जगत  हमको जिस रूप में और जैसा प्रतीत हो रहा है, यह भ्रांत धारणा अज्ञान (Ignorance-अविद्या-अस्मिता -रागद्वेष -अभिनिवेश -पंचक्लेश) में आधारित है। इसीलिए हमारे उपनिषदों के ऋषि भगवान से एक अद्भुत प्रार्थना करते हैं -

"ॐ असतो मा सद्गमय, 
तमसो मा ज्योतिर्गमय, 
मृत्योर्मा अमृतं गमय।"
    
  शास्त्रों में आप हर जगह पायेंगे कि- मनुष्य का जीवन एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक पहुँचने की यात्रा हैयहाँ ऋषि प्रार्थना कर रहे हैं कि- ॐ असतो मा सद्गमय, हे भगवान ! मुझे मिथ्या जगत से सत्यं की ओर ले चलो ! मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।" 
    इस प्रकार हम देख सकते हैं कि मनुष्य केवल एक नश्वर शरीर मात्र ही नहीं है , बल्कि विवेकी मनुष्य का जीवन तो बंधन से मुक्ति की अवस्था में तथा मृत्यु से अमरत्व की अवस्था में पहुँचने की यात्रा है। और यदि कोई ऐसा सर्वोत्तम विवेक-सम्पन्न व्यक्तित्व खोजना हो, जिसके जीवन और चरित्र में जगत के मिथ्या (नश्वर) पहलू का एक भी चिन्ह दिखाई नहीं देता हो तो सनातन 'सत्यम' में आधारित वैदिक हिन्दू धर्म के वैसे ही सर्वश्रेष्ठ मूर्तरूप हैं श्रीरामकृष्णदेव। जब हम श्रीरामकृष्ण-देव की छवि या प्रतिमा की ओर देखते हैं, तो हमें उनके एक विशेष रूप का दर्शन होता है।लेकिन उनका वह विशेष रूप किस बात का द्योतक है ? एक वाक्य में कहना हो तो कहना पड़ेगा कि -श्रीरामकृष्णदेव की यह छवि , इस जगत में जो वस्तु है 'सत्यं' (आत्मा, ईश्वर, भगवान या ब्रह्म) है उसको पाने की तीव्र आकांक्षा और प्रबल प्रेम, लेकिन जगत जो 'मिथ्या' पहलु है (कामिनी -कांचन, नामयश) उसके प्रति उतना ही तीव्र वैराग्य और घोर अनासक्ति की द्योतक है। यही श्रीरामकृष्णदेव के व्यक्तित्व और जीवन का ज्वलंत सन्देश है जिसका दूसरा उदाहरण शायद मानवजाति के इतिहास में हमें खोजने से भी नहीं मिलेगा ! (10:31)
       श्रीश्री 'माँ सारदा देवी , श्री रामकृष्णदेव की विशेषता के बारे में बतलाते हुए कहती हैं, मैं उनके सर्वधर्म समन्वय (Harmony of Religion) आदि विशेषता के बारे में नहीं जानती , किन्तु  श्रीरामकृष्ण के बारे में एक बात मैं कह सकती हूँ कि क्या आज तक जगत में त्याग और वैराग्य की पराकाष्ठा का ऐसा दूसरा उदाहरण कहीं और देखने को मिलता है क्या? यही वह ज्वलंत सन्देश है, जो श्रीरामकृष्णदेव के जीवन से हमें प्राप्त होता है। अतः भगवान श्री रामकृष्ण के एक भक्त के रूप में हमें यह सदा याद रखना चाहिए कि श्री रामकृष्ण उस परम 'त्याग' और वैराग्य की पराकाष्ठा के प्रतीक हैं। 
   उपनिषद के ऋषि जिस अमरत्व की बात कह रहे हैं उस अमरत्व को हमलोग प्राप्त कैसे करेंगे ? साधारणतः हमलोग अमरत्व (Immortality) के लिए ईश्वर-लाभ, आत्म-ज्ञान, आत्म-साक्षात्कार या आत्मनुभूति जैसे विभिन्न शब्दों का प्रयोग करते हैं।  लेकिन इन सभी शब्दों का केवल एक अर्थ है और वह है मनुष्य का अपना ही "सत्य स्वरुप" , 'मैं कौन हूँ ?' अपने ही सत्य-स्वरुप से या आत्म से साक्षात्कार या आत्मानुभूति जिसे अभी हमें प्राप्त करनी है। और यह आत्म-ज्ञान प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। लेकिन यह आत्मज्ञान, आत्मानुभूति या अमरत्व के लक्ष्य की प्राप्ति तभी सम्भव है जब, पहले इसके अनिवार्य शर्तों को पूरा किया जाये। आज के भाषण का विषय है -' ईश्वरलाभ के लिए व्याकुलता।' किन्तु आत्म-ज्ञान के लिए व्याकुलता अथवा ईश्वर-लाभ के लिए तीव्र व्याकुलता कोई अपने आप उत्पन्न होने वाली चीज नहीं है। उसके लिए कुछ अनिवार्य शर्तों को पूरा करना जरुरी होता है, उसको पूरा किये बिना ईश्वर दर्शन के तीव्र व्याकुलता होना सम्भव नहीं है।
      जरा सोंच कर देखिये क्या किसी साधारण मनुष्य के लिए, या किसी राह चलते व्यक्ति के लिए एक ही झटके में, अभी तुरंत ईश्वर-लाभ के लिए या आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए अचानक तीव्र रूप से व्याकुल हो जाना सम्भव हो सकता है ? क्या आप अपने बच्चों से अचानक ईश्वर- लाभ के लिए व्याकुल हो जाने की अपेक्षा कर सकते हैं ? हम किसी भी व्यक्ति के ऊपर ईश्वर- लाभ की आकांक्षा को या आत्मज्ञान प्राप्त की तीव्र इच्छा को जबरन थोप नहीं सकते हैं ।कुछ आधारभूत शर्तों को पूरा कर लेने के बाद जब 'आत्मा' इस 'साक्षात्कार' के लिए तैयार हो जाती है, तब आपके लिए वह आपका 'सत्य-स्वरुप' हो जाती है।  जैसे श्री रामकृष्णदेव के व्यक्तित्व में, या उनके जीवन और चरित्र में हमलोग क्या देखते हैं ? जब हम श्रीरामकृष्णदेव के चित्र या प्रतिमा पर ध्यान करने का अभ्यास करते हैं, तो उनका जीवन हमें एक अवस्था से वापस  मुड़ने और दूसरी अवस्था में पहुँचने की यात्रा का द्योतक दिखाई देता है। श्रीराकृष्णदेव के सम्पूर्ण जीवन में हमें (3K) 'कामिनी-कांचन और कीर्ति ' आदि अनित्य सांसारिक वस्तुओं के प्रति तीव्र वैराग्य और घोर अनासक्ति तथा जो 'सत्यम' नित्य वस्तु (अर्थात आत्मा, ईश्वर , भगवान या ब्रह्म) है उसको पाने के प्रति उतना ही तीव्र आकर्षण और असीम प्रेम दिखाई देता है !   
        वेदान्त कहता है, "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' और श्रीरामकृष्णदेव अपनी सरल बंगाली भाषा में ठीक यही बात बार बार कहते हैं -ईश्वर ही वस्तु है और सब अवस्तु हैं।" (ঈশ্বরই বস্তু, আর সব অবস্তু।) दोनों कथन एक ही लक्ष्य की ओर इंगित करते हैं। अतएव हमलोगों को यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि जब हमलोग इस ब्रह्म, ईश्वर या भगवान शब्द का उपयोग करते हैं, तो ये सभी शब्द और कुछ नहीं केवल उसी एक आत्मा के संदर्भ में ही कहा जा रहा है जो हममें से प्रत्येक मनुष्य का सच्चा स्वरुप है। 
    और भगवान श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं - इस जगत में वह आत्मा ही एक मात्र सार वस्तु (substantial) है, और बाकि जो कुछ है सब असार वस्तु है, insubstantial या काल्पनिक पदार्थ है उसमें कुछ भी सार नहीं है। अतएव इस जगत की  अनित्य वस्तुओं में (कामिनी-कांचन और कीर्ति 3K में) कुछ भी सार नहीं है, जो काल्पनिक पदार्थ है उससे अनासक्त या वैराग्य और जो इस जगत में एकमात्र नित्य वस्तु या 'सत्यम' (आत्मा , ईश्वर, ब्रह्म या भगवान) हैं उससे तीव्र अनुराग का सम्बन्ध बनाने की दिशा में अग्रसर हो जाना ही परम सत्य का खोज या आध्यात्मिक अन्वेषण (Spiritual pursuit) की  की सम्पूर्ण पद्धति है! 
[दूसरे शब्दों में स्वामी विवेकानंद की (Be and Make: चरैवेति,चरैवेति ) 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा!' की सम्पूर्ण पद्धति है! " So this turning away from that which is insubstantial towards that-substance which is the real in this creation , that is the whole process of Spiritual Pursuit !  (or 'Be and Make' :Man-making and Character Building Education" of Swami Vivekananda ! So, as I said before when we stand in front of Sri Ramakrishna's Portrait - what does he stand for?  
        अतएव जैसा मैंने पहले कहा था कि जब हम श्री रामकृष्ण के चित्र या प्रतिमा के समक्ष बैठकर उन पर ध्यान लगाते हैं या खड़े होकर उन्हें निहारते हैं तो हमें वे किन महान गुणों के द्योतक प्रतीत होते हैं ? वे हमें इस अनित्य जगत के मिथ्या, क्षणभंगुर, आसार सांसारिक वस्तु 'कामिनी-कांचन और कीर्ति ' उसके प्रति घोर त्याग और वैराग्य की पराकाष्ठा और जो नित्य-वस्तु, आत्मा, ब्रह्म या ईश्वर हैं उनके प्रति उतना ही तीव्र अनुराग, अतिशय प्रेम (Intense Love ) के मूर्तमान रूप प्रतीत होते हैं। (14:10
      हमें इस भक्त सम्मेलन से क्या सीखना है ? जब हम इस सम्मेलन से वापस लौटेंगे , तो अपने साथ क्या लेकर लौटेंगे ? हमलोग जब यहाँ से लौटेंगे तो अपने साथ अनित्य सांसारिक विषयों (3K) के प्रति त्याग की भावना, अनासक्ति की भावना को लेकर लौटेंगे जो हमारे जीवन और व्यवहार के द्वारा परिलक्षित होंगे। यदि हमारे व्यवहार में सांसारिक भोगों के प्रति त्याग और अनासक्ति का भाव परिलक्षित नहीं हो रहा है, तो इसका अर्थ यह होगा कि हमने अभी तक श्रीरामकृष्णदेव के ऊपर सही ढंग से  ध्यान ही नहीं किया है। जब हम श्री राकृष्णदेव पर ठीक -ठीक ध्यान करते हैं, तो हमारे आसन से उठने के बाद उनके व्यक्तित्व में ये जो दो गुण हैं, संसार की अनित्य वस्तु के प्रति वैराग्य या अनासक्ति के भाव में थोड़ी वृद्धि और नित्य आत्मा या ईश्वर के प्रति तीव्र अनुराग या प्रेम में यदि थोड़ी सी भी वृद्धि होती हो , तब कहा जायेगा कि हमने सही ढंग से श्रीरामकृष्ण पर ध्यान किया है।  
    श्रीरामकृष्ण पर ध्यान करने का अर्थ केवल अपने मन को किसी एक विशेष आकृति या रूप पर सिर्फ केंद्रित करना ही नहीं है। 'It is not the question of just focusing the mind on a certain form.बल्कि जब आप ध्यान के आसन से उठते हैं, तो उनके इन दोनों गुण- अनित्य सांसारिक वस्तुओं के प्रति वैराग्य और अनासक्ति के भाव में और अधिक वृद्धि, तथा अपने ह्रदय में ही विद्यमान नित्य 'सत्य वस्तु' (आत्मा, ईश्वर, भगवान) के प्रति तीव्र अनुराग या प्रेम में थोड़ी और वृद्धि अपने जीवन में आत्मसात करने के बाद उठे तब कहा जायेगा कि आपका ध्यान सही हुआ।  और यदि यह नहीं हुआ तो श्रीरामकृष्ण पर ध्यान करने का कोई अर्थ नहीं हैं। क्योंकि वे स्वयं इसी अद्भुत घटना का प्रतिनिधित्व करते हैं। (15:19
    त्याग की भावना को उनके जीवन में ध्यान पूर्वक देखिये। और जैसा मैंने पहले कहा था कुछ  तथाकथित 'सेक्यूलर' लोग श्री रामकृष्ण के बारे में अक्सर कहते रहते हैं कि वे 'सर्वधर्म समन्वय' या धार्मिक सौहार्द जैसे धर्म-निरपेक्ष विचारों का प्रचार करने के लिए ही वे अवतरित हुए थे। किन्तु श्री माँ ने स्वयं कहा था - " उन्होंने अपने जीवन के माध्यम से जिस त्याग और वैराग्य की पराकाष्ठा का उदाहरण उन्होंने प्रस्तुत किया है, वैसा त्याग जगत ने अभी तक देखा ही नहीं था !" और उनका यह पर्यवेक्षण कितना आश्चर्यजनक है ! श्री माँ ने कहा हैं - " मेरे मन को यह ठीक नहीं जँचता कि 'श्रीरामकृष्ण ने Harmony of Religion या सर्वधर्म समन्वय-भाव का प्रचार करने के उद्देश्य से ही विभिन्न धर्मों का साधन किया था। इस युग में उनका त्याग ही उनकी विशेषता है। इस प्रकार का स्वाभाविक त्याग कभी किसी ने देखा है क्या ?  इस अवतार में उन्होंने त्याग और वैराग्य के महत्व को दिखाया है। वस्तुतः त्याग में प्रतिष्ठित न होने से ईश्वर-लाभ (आत्म-ज्ञान या आत्मानुभूति) की बात तो दूर रही जन-सेवा भी ठीक -ठीक नहीं हो सकती मनुष्य तो भगवान को भूला हुआ ही है। इसलिए जब जब आवश्यकता पड़ती है, तब तब वे स्वयं आकर साधन के द्वारा मार्ग दिखा जाते हैं।" (श्रीमाँ सारदा देवी' श्रीमाँ और श्रीरामकृष्ण -पेज ५५६) 
       वास्तव में भगवान श्रीरामकृष्णदेव अपने जीवन, चरित्र या व्यक्तित्व के माध्यम से जगत को ईश्वर-लाभ या अमरत्व प्राप्त करने हेतु 'त्याग और वैराग्य' के गौरव को दिखाने के लिये आये थे, वे केवल सर्वधर्म समन्वय या सांप्रदायिक सौहार्द का प्रचार करने के उद्देश्य से ही जगत में नहीं आये थे। (What He actually has come to show to the world the importance of Tyaga, Renunciation.) इसलिए भगवान श्रीरामकृष्णदेव के सभी भक्तों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वे 'सत्यम' के साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं। और 'सत्यम' क्या है ? यह सत्यम या परम सत्य वही आत्मा,ईश्वर, भगवान या ब्रह्म है, जो हममें से प्रत्येक के भीतर , हमारे ह्रदय में, पहले से विद्यमान रहते हुए स्पंदनशील है, धड़क रहा (throbbing) है ! और यह एक ऐसा अद्भुत कारण-शरीर है जिसकी खोज, सत्यापन या आत्मानुभूति हमें स्वयं करनी होगी(16:19
      हम सभी साधारण मनुष्य हैं, और हम अपनी इंद्रियों माध्यम से जिस सुंदर स्त्री-पुरुष शरीर या महँगा सोना और जमीन-जायदाद देखते हैं, उसी को सत्य समझ लेते हैं , और उसके प्रति हमारे मन में एक प्रकार की दीवानगी या घोर आसक्ति उत्पन्न हो जाती है। स्त्री-पुरुष शरीर और धन-सम्पत्ति के प्रति ऐसा तीव्र सम्मोहन और आकर्षण उत्पन्न हो जाता जो हमारे मन-बुद्धि को अपने वश में  कर लेता है-This actually possessing us श्रीरामकृष्ण संसार के इन्द्रियग्राह्य मिथ्या विषयों में घोर आसक्ति,   के लिए दो शब्दों का प्रयोग करते हैं - काम और कांचन। इन्द्रिय जगत की समस्त मिथ्या वस्तुओं के प्रति पागल मोह को 'The mad infatuation for that greed and that lust' को आसान भाषा में  'कामिनी और कांचन ' के प्रति (infatuation) या घोर  आसक्ति के रूप में इंगित किया जा सकता है। और इन दो चीजों (या 3K) के प्रति घोर आसक्ति या 'infatuation' दीवानगी वाले सम्मोहन में फँसकर मनुष्य अपने-आपको को इतना दीन, हीन और लाचार बना लेता है।

 इसीलिए श्रीरामकृष्ण ने अपनी साधना के दौरान क्या किया था ? आइए उनके जीवन से जुडी हुई ज्वलंत त्याग और वैराग्य की घटनाओं पर नजर डालते हैं । उनके जीवन से जुडी कुछ घटनाओं ऐसी जो इस तथ्य  को बहुत स्पष्ट कर देती हैं । अपने ह्रदय या चित्त से महँगी वस्तुओं में आसक्ति को या एक शब्द में 'कांचन- आसक्ति' को निर्मूल करने के उद्देश्य से एक दिन उन्होंने अपने एक मुट्ठी में मिट्टी को लिया और दूसरी मुट्ठी में कुछ चाँदी की मुद्राओं को लिया। फिर कहा - 'रे मन ! 'टाका -माटी, माटी -टाका ' अर्थात रे मन यह समझ ले कि ' रुपया मिट्टी है, मिट्टी रुपया' है, यानि दोनों एक समान निरर्थक वस्तुएँ हैं। यह रुपया भी उतनी ही व्यर्थ की वस्तु है जितनी यह मिट्टी है; फिरभी सारी दुनिया तो पैसे के पीछे ही पागल है। धन-दौलत के लिये कभी न समाप्त होनेवाली लालच और  जगत की मिथ्या वस्तुओं या अनित्य वस्तुओ के प्रति ऐसा सम्मोहन - देखकर दोनों को एक साथ लेकर गंगाजी में विसर्जित कर दिया। इस घटना के बाद श्रीरामकृष्ण के जीवन में कांचन के प्रति तीव्र वैराग्य का यह भाव इतनी गहराई से आत्मसात हो गया कि बाद में वे किसी भी धातु से बनी वस्तु को छूने में भी असमर्थ हो गएऔर यह त्याग का भाव उनके लिए मानो 'Reflex action'  बन गया !  क्या हमलोग इस अनित्य जगत के मिथ्या वस्तुओं के प्रती इतने तीव्र वैराग्य की कल्पना भी कर सकते हैं ? लेकिन श्रीरामकृष्णदेव लिए यह इतना स्वाभाविक था कि वे चाँदी का सिक्का को छूने में भी असमर्थ हो गए थे।
      एक बार लक्ष्मीनारायण मारवाड़ी ने श्रीरामकृष्ण को 10,000 रूपये दिए , और हम जानते हैं कि उसका फल क्या हुआ? वे वस्तुतः मूर्छित हो गए। जब उनकी चेतना लौटी तो, उन्होंने कहा -मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई व्यक्ति तलवार से मेरा गला काट रहा है। यह घटना यही दर्शाता है कि 'सत्यम' (आत्मा या ईश्वर) के प्रति उनका तीव्र प्रेम और आकर्षण इतनी गहराई से समाया हुआ था (ingrained) था कि वे इस अनित्य जगत के मिथ्या पहलु को बिल्कुल ही सहन नहीं कर सकते थे। 
      एक तीसरे दृष्टान्त में हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति श्रीरामकृष्ण को महँगा शॉल भेंट करता है। ऐसा कहा जाता है कि उस महँगे शॉल की कीमत उस ज़माने में  1000 रूपये थी। शरू में श्रीरामकृष्ण उसको ग्रहण कर लेते हैं और कुछ मिनटों के लिए उसको शरीर पर ओढ़ लेते हैं। फिर जब वह महँगा शॉल उन्हें दिया गया तो श्रीरामकृष्ण विवेक-विचार करने लगते हैंसोंचने लगते हैं   - यह शॉल किस चीज का बना हुआ है ?  यह शॉल किसी पशु के बालों से बना हुआ है, और बहुत महँगा है। यह बात ठीक है यह शॉल मेरे शरीर को कुछ गर्म रखेगा। किन्तु जब मैं इस मँहगे शॉल को ओढूँगा तो इससे मेरा अहंभाव बढ़ जायेगा, और मैं यह सोंचने लगूँगा की मैं दूसरों की अपेक्षा श्रेष्ठ हूँ। औयह अहंकार ऐसी चीज है जो मुझे 'सत्यम' से (आत्मा या ईश्वर से) विमुख कर देगाऔर जो कोई भी चीज (3K) मुझे 'आत्मा' (ईश्वर, भगवान या सच्चिदानन्द) से विमुख करता हो , वह मेरे लिए अत्यंत तुच्छ वस्तु है। और तुरंत उन्होंने उस शाल को थू -थू कहते हुए भूमि पर पटक दिया और रौन्दने लगे तथा अंत में आग लगाकर उसे जलाने की चेष्टा भी की। उसी समय कोई व्यक्ति वहाँ आ पहुँचा तथा उसने उनके हाथों से उसे ले लिया।" (लीलाप्रसंग -२/१६६)  
हमलोगों को भी श्रीरामकृष्ण के जीवन से यही प्रेरणा लेनी है, यही सीखना है कि जगत के अनित्य या मिथ्या पहलु से आसक्ति को त्याग कर 'सत्यम' की दिशा में (ह्रदय में विद्यमान आत्मा या ईश्वर) की दिशा में अग्रसर होने के लिए 'विवेक-विचार' के द्वारा वापस कैसे मुड़ा जाता है ? क्योंकि पहले इस अनित्य जगत के मिथ्या पहलु से वापस मुड़े बिना , हमारे जीवन में इस 'सत्यम' को पाने की व्याकुलता (longing, तड़प , लालसा) कभी उत्पन्न ही नहीं हो सकती। यह असम्भव है। हम इस जगत के दोनों पहलुओं से - सत्य और मिथ्या (नित्य और अनित्य) से एक साथ मित्रता नहीं कर सकते। ठीक है -25 से 50 साल के गृहस्थ आश्रम तक आपने जितना धनसम्पत्ति अर्जित कर लिए उतना यथेष्ट है। लेकिन अब वानप्रस्थ आश्रम, या कमसेकम संयासाश्रम की अवस्था (75) में पहुँचकर आपको नित्य और अनित्य में विवेक करके इस मिथ्या जगत के एक पहलू से अनासक्त होना ही होगा या वापस मुड़ना ही होगा। श्रीरामकृष्ण कहते हैं - यदि आपको पश्चिम की तरफ जाना है , तो आपको पूरब को छोड़ना ही होगा। आप दोनों तरफ पैर जमाकर खड़े नहीं रह सकते। 
     अगर आप किसी दिशा में जाना चाहते हों , तो आपको दूसरी दिशा को छोड़ना ही पड़ेगा। इसी बात को हम श्रीरामकृष्ण के जीवन प्रत्येक घटना में देख सकते हैं। और अनित्य जगत के मिथ्या वस्तुओं के प्रति ऐसा तीव्र त्याग और वैराग्य की भावना ही उनके जीवन और चरित्र के महान गुण का द्योतक है। और हमें अपने इष्टदेव भगवान श्रीरामकृष्ण की साधक-अवस्था के जीवन से यही शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि जिस अवस्था में वे स्वयं इस अनित्य जगत के मिथ्या -पहलू (3K) कामिनी -कांचन से निर्लिप्त रहने की साधना कर रहे थे तो उस समय उनकी प्रतिक्रिया कैसी होती है? श्रीरामकृष्ण ने हमारे समक्ष जगत के क्षणभंगुर, अनित्य विषयों (3K) के प्रति उनका पूर्ण त्याग और सत्यम और सिर्फ सत्यम के प्रति उनका प्रबल अनुराग का कितना ज्वलंत दृष्टान्त रखा है। हमारे लिए श्रीरामकृष्ण के साधक-अवस्था के दृष्टान्तों से वही शिक्षा ग्रहण करने की चीज है।इसके अतिरिक्त एक और दृष्टान्त मिलता है -जब मथुर बाबू श्रीरामकृष्ण को बहुत बड़ी जमीन का टुकड़ा दान देना चाहते हैं , यह सुनकर श्रीरामकृष्ण सचमुच उनको पीटने के लिए उतारू हो गए थे। तो श्रीरामकृष्ण के जीवन में ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो कांचन के प्रति उनकी घोर अनासक्ति के द्योतक हैं। (21:33)
  जिस काम-वासना के पीछे सारा संसार इतना सम्मोहित है कि पागल बना हुआ है, श्री रामकृष्ण के जीवन में उस काम-वासना (lust) का लेश मात्र भी नहीं दीखता। काम के प्रति अनासक्ति का दृष्टान्त भी अद्भुत है। उनके विवाह के उपरान्त जब श्री श्री माँ 19 वर्ष की आयु में पहली बार दक्षिणेश्वर पहुँची तब श्री रामकृष्ण और माँ श्री सारदा देवी दोनों ने कई महीनों तक एक वर्ष से भी अधिक समय तक एक ही कमरे में निवास किया था किन्तु उनके संयम का बाँध नहीं टूटा। यह एक ऐसा प्रयोग था जो जगत आध्यात्मिक इतिहास में और किसी महापुरुष के बारे में सुनने को नहीं मिलती हैं। फलतः मुग्ध होकर मानवहृदय स्वतः ही इनके अवतार होने के प्रति विश्वासी हो उठता है तथा अपने ह्रदय की भक्ति-श्रद्धा इनके श्री चरणों अर्पण करने के लिए विवश हो जाता है। (लीलाप्रसंग -१/४२९)  श्रीरामकृष्णदेव और श्री माँ सारदा देवी के जीवन का यह  दृष्टान्त हमे यह शिक्षा देता है कि आध्यात्म मार्ग में प्रतिष्ठित होने या अपने 'सत्य-स्वरूप' में प्रतिष्ठित रहने में  जो सबसे बड़ी बाधा है वह काम-वासना ही है तथा उस बाधा हम कैसे ऊपर उठ सकते हैं ?
 भगवत गीता (3.37) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - आध्यात्मिक खोज (spiritual pursuit) परम सत्य या इन्द्रियातीत सत्य की खोज (मेरा सत्यस्वरूप क्या है ? की खोज) में सबसे बड़ी बाधा और आध्यात्म मार्ग का सबसे बड़ा शत्रु काम-वासना (Lust) के प्रति हमारा सम्मोहन और तीव्र आकर्षण ही है।  The biggest enemy of the spiritual pursuit is this bad infatuation for lust 

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धि एनम् इह वैरिणम्।।3.37।। 

श्रीभगवान् ने कहा -- रजोगुण में उत्पन्न हुई इस 'काम' (Lust) के प्रति तीव्र जो आसक्ति है ,  यही क्रोध बन जाता है ; यह महाशना (जिसकी भूख बड़ी हो) और महापापी है, इसे ही तुम अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित रहने में या आध्यात्मिक मार्ग में सबसे बड़ा शत्रु जानो।।
(22:41) 
      श्रीरामकृष्ण के जीवन की काम और कांचन के प्रति त्याग और अनासक्ति के कई सुंदर उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं। श्रीरामकृष्ण की साधना के समय रानी रासमणि तथा उनके दामाद मथुरा- मोहन विश्वास ने ऐसा सोचा था की अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन के फलस्वरूप शायद उनका मस्तिष्क विकृत हो गया होगा, इसी कारण उनमें इतनी अधिक आध्यात्मिक व्याकुलता (ईश्वर ,आत्मा को) जानने की व्याकुलता प्रकट होने लगी है। अतएव किसी उपाय से यदि उनके ब्रह्मचर्य को भंग करवा दिया जाये उन्हें शारीरिक स्वस्थता पुनः प्राप्त हो सकती है। ऐसा सोंचकर श्रीरामकृष्ण को प्रलोभित (seduce) करके उनके ब्रह्मचर्य को खण्डित करने के उद्देश्य से कुछ वेश्याओं  की व्यवस्था की। उनलोगों ने दो- तीन बार श्रीरामकृष्ण देव को विभिन्न तरीकों से प्रलोभित करने का प्रयास किया; किन्तु श्रीरामकृष्ण ने उन नारियों में श्री जगन्माता का दर्शन प्राप्त किया और समाधि में चले गए। यह देखकर तथा उनके बालक जैसे आचरण से मुग्ध होकर उन नारियों के ह्रदय में वात्सल्य का संचार हो गया। और जो नारियाँ श्रीरामकृष्णदेव को प्रलोभित करने आयी थीं, वे खुद रूपांतरित हो गयीं और अपने-आप को सचुमच में श्रीरामकृष्णदेव की माँ समझने लगीं। और उन्हें प्रलोभित करने में प्रवृत्त होकर उन्होंने महान अपराध किया है , यह सोचकर भयभीत हो उनके समीप क्षमायाचना की तथा श्रीरामकृष्णदेव को अश्रुपूर्ण नेत्रों से बारम्बार प्रणाम कर वे चली गयीं।" यह अमोघ शक्ति श्रीरामकृष्णदेव की ज्वलंत पवित्रता का अनोखा दृष्टान्त हैं ।  (लीलाप्रसंग १/२६१) (23:57 )  
श्रीरामकृष्णदेव के जीवन में कई ऐसी घटनायें हैं , जिसमें सत्यम के प्रति प्रेम और जगत के अनित्य या मिथ्या पहलू के प्रति त्याग और अनासक्ति की भावना का ज्वलंत दृष्टान्त दिखाई देता है। इसलिए श्रीरामकृष्ण के चित्र या उनकी प्रतिमा के ऊपर ध्यान करने के फलस्वरूप हमारे जीवन में भी जगत के अनित्य विषयो में अनासक्ति तथा अपने सत्यस्वरूप (आत्मा या ईश्वर) को जानने के प्रति आकर्षण में धीरे-धीरे वृद्धि करने की चेष्टा अनवरत चलनी चाहिए। क्योंकि 'It is not going to happen all of a sudden ! हमारे जैसे साधारण मनुष्य के एक ही झटके में सांसारिक विषयों से वैराग्य और आत्माज्ञान (या ईश्वर) के लिए श्रीरामकृष्ण के जैसा तीव्र अनुराग में प्रतिष्ठित हो जाना सम्भव नहीं होगा। इसलिए हमें 'बड़े धैर्य के साथ अपने अंदर धीरे-धीरे और क्रमशः कामिनी-कंचन में आसक्ति को दूर करके 'Longing for that which is satyam को धारण की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास चलाते रहना होगा। (24:32
          आज की चर्चा का मुख्य विषय है -'श्री रामकृष्ण और ईश्वरलाभ के लिए व्याकुलता' जो एक बहुत महत्वपूर्ण और सुन्दर विषय है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि अपने सत्य स्वरुप का जानने, ईश्वरलाभ या  आत्मज्ञान प्राप्त करने की आध्यात्मिक व्याकुलता है वह हमारे भीतर कैसे जाग्रत होगी ? तो जैसा हमने पहले देखा था कि जब तक मनुष्य-जीवन की कुछ आवश्यक शर्तें पूरी नहीं हो जातीं, और अन्तरात्मा उसके लिए तैयार न हो जाये, तब तक किसी व्यक्ति में वैसी आध्यात्मिक व्याकुलता उत्पन्न ही नहीं हो सकती। ईश्वरलाभ के लिए व्याकुल होने का अर्थ है, आत्मज्ञान आत्मानुभूति प्राप्त करने की तीव्र इच्छा। ईश्वर का नाम सुनने से ही हम कई रूपों की कल्पना करने लगते हैं, लेकिन वेद और उपनिषद हमें उसी एकमेवाद्वितीय अविनाशी आत्म तत्व की शिक्षा देते हैं, जो हममें से प्रत्येक मनुष्य का सत्य-स्वरुप है। हममें से प्रत्येक पुरुष और प्रत्येक स्त्री अपने सत्य स्वरुप में आत्मा (ईश्वर, भगवान या ब्रह्म) ही है। ईश्वर (भगवान, या ब्रह्म) कहीं दूर स्वर्ग या सातवें आसमान में  बैठकर , वहाँ से इस सृष्टि का संचालन नहीं कर रहे हैं। 
हमारा हिन्दू वैदिक सनातन धर्म ईश्वर के बारे में 'Semitic idea of God' सेमिटिक (यहूदी) विचार) में आधारित नहीं है। और यह आत्मा ही हमारी एकमात्र सच्ची पहचान (true identity) है। इसके अतिरिक्त  हमारे अपने बारे में अन्य कोई भी विचार कोरी कल्पना #मात्र है! हमारे उपनिषद हमें यही शिक्षा देते हैं। [Every other ideas about ourselves - based upon worldly relation is just an imagination.]

यदि हमें अपने अंदर इन्द्रियातीत सत्य,  परम सत्य , आत्मा , ईश्वर या भगवान को जानने के लिए , ईश्वर से सम्बन्ध बनाने , उनसे जुड़ने के लिए तीव्र अभिलाषा उत्पन्न करनी हो,  तो हमें उसके लिए ज्ञानमार्ग अच्छा होगा कि, हमारे लिए  भक्तिमार्ग से वढ़ना अच्छा होगा ; इस प्रकार की बहस में पड़ना अच्छा नहीं होगा। यह कहना कि वह ज्ञान का मार्ग है , और यह भक्ति का मार्ग है ! इस प्रकार का वर्गीकरण - 'these  compartmentalisation' केवल सतह पर ही दीखता है। (You see here we all are bhaktas, but as I said let us not make big fuss about Bhakti and Jnana.)  किस मार्ग से चलकर हम ईश्वर से सम्बन्ध बना सकेंगे या आत्मानुभूति प्राप्त कर सकते हैं, इसके ऊपर वाद-विवाद सदैव केवल सतह पर ही दिखाई देते हैं, मुख्य बात तो जिस प्रकार भी हो ईश्वर-लाभ या आत्मानुभूति प्राप्त करना ही है।  वास्तव में यह आत्मा द्वारा अपने ही सत्यस्वरूप की खोज मात्र है - बस इतना ही! वास्तव में यह मनुष्य की आत्मा ही है, जो निरंतर अपने सत्य-स्वरूप में प्रतिष्ठित होने की चेष्टा कर रही है। (Essentially it is nothing but the soul's, the human soul striving to understand and experience that which is real!) तो आत्मज्ञान प्राप्त करने या ईश्वर-लाभ की वे आवश्यक शर्तें क्या हैं, जिनको पूरा किये बिना हम अपने सत्यस्वरूप  में प्रतिष्ठित ही नहीं हो सकते?  (26:45
  पहली शर्त (First condition): सर्वप्रथम तो हमें इस अनित्य जगत की क्षणभंगुर प्रकृति को समझना होगा। जब तक हम इस अनित्य जगत के सांसारिक विषयों (3K) को ही अपने जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण और बहुमूल्य (Valuable) वस्तु समझते रहेंगे, तब तक हमारा मन ईश्वरलाभ या आत्मज्ञान प्राप्त करने की दिशा में जाना ही नहीं चाहेगा- यह असम्भव है।(As long as we continue to consider this material world to be the most important and valuable thing, our mind will not want to seek or search for God or the soul; this is impossible.) अतएव हमारे लिए सबसे पहले इस अनित्य जगत की क्षणभंगुर प्रकृति को समझ लेना अनिवार्य है। हमें अपने जीवन में कामिनी-कांचन और कीर्ति आदि  में आसक्ति का  दिन-प्रतिदिन सामना करना पड़ता है, उनकी क्षणभंगुरता को समझ लेना,यह आत्मज्ञान या ईश्वरलाभ की पहली शर्त। (27:23)
      दूसरी शर्त यह समझना है कि मानव जीवन में केवल एक ही चीज़ मूल्यवान है, वह है आत्मा, ईश्वर या भगवान की प्राप्ति। इस अनित्य जगत में एक मात्र आत्मा ही सबसे मूल्यवान वस्तु है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ ? मनुष्य के मन की मनोवृत्ति (साइकोलॉजी) यह है कि वह एक बार जिस वस्तु को सबसे मूल्यवान या सबसे महत्वपूर्ण वस्तु मान लेगा, वह उसी वस्तु को प्राप्त करने की तरफ दौड़ेगा। मन का स्वभाव ही ऐसा है, कि जिसे वह एकबार मूल्यवान समझ लेता है, उसी दिशा में प्रवाहित होने लगता है। (The psychology of human mind is that, it will always move towards that thing which it considers to be valuable . It is natural for the mind to flow towards that which it considers to be valuable . 
 यदि किसी व्यक्ति का मन पूरी तरह से इस विचार में डूबा हुआ है कि कामिनी-कांचन ही दुनिया की सबसे बहुमूल्य और सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है, यदि उसका मन इस अनित्य जगत के क्षणिक मिथ्या आयाम को ही सबसे मूल्यवान वस्तु समझ रहा हो और उसीके साथ- साथ यदि वह ईश्वरलाभ या आत्मज्ञान प्राप्त करने की दिशा में भी आगे बढ़ने की चेष्टा करेगा, तो उसके जीवन में यह एक प्रकार का विरोधाभास (contradiction) उत्पन्न कर देगा। अतएव अपनी इन्द्रियों के माध्यम से हम जिस अनित्य पंचभौतिक का अनुभव कर रहे हैं , इस इन्द्रियगोचर अनित्य जगत के क्षणभंगुर (ephemeral) या मिथ्या आयाम को समझ लेना होगा। इस सच्चाई को समझना होगा कि चाहे अपने कितनी जमीन-जायदाद खड़ी कर ली हो लेकिन एक न एक दिन वे सभी वस्तुएं चली जाएँगी, या आप उठ जाओगे । यह अनित्य जगत 'प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभाव' है, जगत हर क्षण बदलता रहता है।  अंत में हमारे हाथों में कुछ नहीं आयेगा। अतएव ईश्वरलाभ या आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सबसे पहली शर्त यह है कि हम अपनी पंचेन्द्रियों के द्वारा जिस जगत ब्रह्माण्ड का अनुभव कर रहे हैं, वे दीखते हैं लेकिन परिवर्तनशील होने के कारण क्षणभंगुर और मिथ्या हैं, इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना! और दूसरी शर्त यह समझ उत्पन्न करनी है वास्तव में मनुष्य जीवन में सबसे बहुमूल्य और सबसे महत्वपूर्ण वस्तु आत्मा, ईश्वर, भगवान या ब्रह्म ही है।

        श्रीरामकृष्ण कहते हैं - "भगवान ही एक मात्र वस्तु हैं , और बाकि सब अवस्तु है।" यदि हमारा मन रात-दिन श्रीरामकृष्णदेव के इसी उपदेश का श्रवण, मनन -निदिध्यासन करता रहे और इसी भाव में डूबा रहे , तो स्वाभाविक रूप से हमारा मन उस एकमात्र वस्तु को पाने की दिशा में आगे बढ़ने लगेगा। क्योंकि मन का यह स्वभाव है कि वह जिस वस्तु को बहुत महत्वपूर्ण और मूल्यवान समझता है , उसे पाने की दिशा में ही अग्रसर होता है। 

वर्तमान अवस्था में हमारा मन भ्रान्त है, उसकी उसकी यह गलत समझ अज्ञान (अविद्या-अस्मिता) आदि आधारित है, इसीलिए वह इस समय अनित्य जगत की मिथ्या वस्तुओं को, 3K 'अवस्तु' को ही एकमात्र 'वस्तु' समझ रहा है। और मूल समस्या ही यह है हमारा हमारा मन एक बार जिस किसी वस्तु को अत्यंत महत्वपूर्ण और अत्यंत मूलयवान 'वस्तु' मान लेगा  वह हमेशा उसी से चिपका रहेगा।-it will always stick to it' वहाँ से मुड़ना ही नहीं चाहेगा। अतएव हमलोग अपने मन को 'अवस्तु' (3K) से वापस घुमाकर और 'वस्तु' (ईश्वर, आत्मा या भगवान)  पर लगाना चाहते हों , तो सबसे पहले हमारे जीवन में नित्य-अनित्य विवेक का जागरण होना चाहिए। हमारी विवेक-सम्पन्न बुद्धि में यह स्पष्टता  आनी चाहिए कि नित्य क्या है ? और अनित्य क्या है ? शाश्वत क्या है , और नश्वर क्या है ? और जब हमारा मन सत्य-असत्य और मिथ्या वस्तुओं नित्य-अनित्य की स्पष्ट समझ में प्रतिष्ठित रहने के लिए पूरी तरह से प्रशिक्षित हो जायेगा तब वह अपनेआप , स्वतः ही सत्य की खोज , ईश्वरलाभ या आत्मज्ञान प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने लगेगा। जब इस बात को हम स्पष्ट रूप से समझ लेंगे कि इस अनित्य जगत में एक बून्द सुख पाने के पीछे दस बून्द दुःख उठाना पड़ता है, सुख का प्रत्येक अनुभव दुःखों से भरा हुआ है, तब ईश्वरलाभ या आत्मानुभूति की व्याकुलता स्वतः प्रारम्भ हो जाएगी। इसीलिए गीता ९/३३ में भगवान कृष्ण कहते हैं - having come to this impermanent and unhappy world, do thou worship Me. यह जगत अनित्य है , और इसमेँ कोई सुख नहीं है। 

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा

अनित्यम् असुखम् लोकम् इमम् प्राप्य भजस्व माम्।
(9.33)

 [किम् पुनः ब्राह्मणाः पुण्याः भक्ताः राजर्षयः तथा। अनित्यम् असुखम् लोकम् इमम्  प्राप्य भजस्व माम्।। यदि पूर्व श्लोक में वर्णित गुणहीन और साधन हीन लोग भी भक्ति के द्वारा ईश्वर को प्राप्त हो सकते हैं,  तो फिर साधन सम्पन्न व्यक्तियों के लिए परमार्थ की प्राप्ति कितनी सरल होगी,  यह कहने की आवश्यकता नहीं है। 
ये साधनसम्पन्न लोग हैं ब्राह्मण अर्थात् शुद्धान्तकरण का व्यक्ति,  तथा  जिस राजा ने ऋषि जैसी बुद्धिमत्ता पूर्वक अपनी राजसत्ता एवं धनवैभव का उपयोग किया हो,  वह ईश्वरलाभ आत्मानुसंधान के द्वारा वास्तविक शान्ति का अनुभव प्राप्त करता है। ऐसे राजा को ही राजर्षि कहते हैं।

।।9.33।। फिर जो पवित्र आचरण वाले  ब्राह्मण और जो राजर्षि भक्त  - अर्थात जो राजा भी हों और गुरु-शिष्य (भगवान-भक्त) परम्परा में 'अवतार वरिष्ठ' के भक्त भी हों , तब उनका फिर  कहना ही क्या है? इसलिये इस अनित्य, क्षणभङ्गुर और सुखरहित मनुष्य-लोक,या दुर्लभ मनुष्य-शरीर को पाकर परम पुरुषार्थ (नित्य-अनित्य विवेक जागरण) के साधनरूप मुझ ईश्वर का (आत्मा, ब्रह्म या अवतार वरिष्ठ का) ही भजन कर -- मेरी ही सेवा कर।
(30:15
    भगवान श्रीशंकराचार्यजी ईशावास्योपनिषद के भाष्य में कहते हैं - इह संसारे सुखस्य गंध मात्र न अस्ति। इस संसार में लेशमात्र भी सुख नहीं है। यह जो इन्द्रियों से दिखने वाला जगत है वह मृगमरीचिका की तरह है , इस अनित्य जगत में सुख की एक बून्द भी नहीं है, फिर भी इसके प्रति हम इतने अधिक आसक्त और सम्मोहित क्यों हैं ? यही माया है कि-
 " अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं,
 दशनविहीनं जातं तुण्डम् । 

वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं ,
     तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम्॥६॥ " 

कामिनी-कांचन और नामयश  (3K) के प्रति  हमारी  कामनायें , हमारी आशायें कभी समाप्त होने का नाम नहीं लेतीं। क्योंकि हमारा विवेक अभी सोया हुआ है। अतएव अपने सोये हुए नित्य-अनित्य विवेक को जगा कर, पहले स्पष्ट रूप से अपने मन में पहले यह बैठा लेना होगा कि यह जगत वास्तव में क्षणभंगुर है,अनित्य है और इसमें एक मात्र मूल्यवान वस्तु आत्मा, ईश्वर या भगवान हैं, जो हमारे ह्रदय में ही विद्ययमान हैं ! जब हमारी समझ , हमारी बुद्धि इस नित्य-अनित्य विवेक में प्रतिष्ठित हो जाती है , तब हमारा मन स्वतः (automatically-खुद ब खुद) उस वस्तु की ओर प्रवाहित होने लगता है जो नित्य है , सत्य है, आत्मा , ईश्वर, ब्रह्म या सच्चिदानन्द है !इसी को विवेक कहते हैं। इस विवेक के जाग्रत हुए बिना आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत भी नहीं होती है। (31:16
         जिस व्यक्ति को यह विवेक नहीं होगा, जो अविवेकी होगा उसको स्पष्ट रूप यह धारणा ही नहीं होगी कि इस जगत में सबसे महत्वपूर्ण और सबसे मूल्यवान 'वस्तु' क्या है ? और 'अवस्तु' क्या है ? तब तक तो उसके आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत भी नहीं होगी। आप कल्पना करके देखिये जो अविवेकी है, जो मनुष्य अभी इस अनित्य दृश्यमान जगत को ही परम सत्य मानकर चल रहा हो , उसके लिए ईश्वर प्राप्ति के लिए व्याकुल होने का प्रश्न भी उठेगा क्या ? जो व्यक्ति इस मिथ्या जगत की नश्वर वस्तुओं में ही घोर रूप से डूबा हुआ है, उसके लिए आध्यात्मिक व्याकुलता का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? बिल्कुल असम्भव है। 
     अतएव पहली शर्त, जिस पर हमें सर्वाधिक ध्यान देने की जरूरत है , वह यही है कि हमें पहले इस सुप्त विवेक को जाग्रत करने की चेष्टा करनी चाहिए। क्योंकि जैसे ही किसी व्यक्ति जीवन में विवेक जाग्रत हो जाता है, तब उसके जीवन में (3K के प्रति) वैराग्य या अनासक्ति का भाव भी अपने-आप चला आता है। जैसे ही इस अनित्य जगत के मिथ्या आयाम के प्रति मन में वैराग्य आता है, वैसे आत्मा, ईश्वर या भगवान के प्रति तीव्र अनुराग उत्पन्न हो जाता है। विवेक के जाग्रत होते ही, जगत के प्रति वैराग्य और आत्मज्ञान, ईश्वरलाभ या सच्चिदानन्द ब्रह्म के लिए तीव्र प्रेम भी उत्पन्न हो जाता है। यह ईश्वर-प्रेम स्वाभाविक हो जाता है। यही वह उपाय है जिसके द्वारा हम सत्य वस्तु को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हो सकेंगे। 
         अब यह प्रश्न उठता है कि इस विवेक को जाग्रत कैसे किया जाये ? क्या इस  विवेक को आसानी से जाग्रत करना सम्भव है ? शंकराचार्यजी कहते हैं सभी जीवों में सबसे विशेष और 'केवल 'मनुष्य ' के पास देवदुर्लभ योग्यता' यह है कि वह - 'सत्संग' के माध्यम से अपनी  अंतर्निहित लेकिन सुप्त 'नित्य-अनित्य 'विवेकप्रयोग-शक्ति' को जाग्रत कर सकता है। और  इस अनित्य जगत के मिथ्या वस्तुओं- (3K) के प्रति घोर वैराग्य और अनासक्ति उत्पन्न करके ईश्वर-लाभ, आत्माज्ञान या भगवान (अवतार वरिष्ठ)  के प्रति उतना ही तीव्र अनुराग और प्रेम की भावना में प्रतिष्ठित हो सकता है। अतएव मनुष्यमात्र में अंतर्निहित विवेक-प्रयोग शक्ति को जागृत करने का एकमात्र उपाय - सत्संग  इसीकिये भगवान भाष्यकार शंकराचार्यजी ने कहा हैं ...... 

  " सत्संगत्वे निःसंगत्वं,

    निःसंगत्वे निर्मोहत्त्वं

       निर्मोहत्वे निश्चलत्त्वं

             निश्चलत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥"  

जीवन के एक छोर पर जीवनमुक्ति, ईश्वरलाभ या आत्मज्ञान (God realization)  है , किंतु उस जीवनमुक्ति या अमरत्व प्राप्त करने की दिशा में हमारी यात्रा का शुभारम्भ या उस दिशा में हमारी यात्रा की शुरुआत सत्संग से ही होती है। सत्संग अर्थात ऐसे व्यक्ति का निकट सानिध्य जो अपने जीवन में स्वयं अनित्य जगत की मिथ्या वस्तुओं के प्रति अत्यंत वैराग्य और अनासक्ति तथा नित्य , शाश्वत या अविनाशी आत्मा, ईश्वर (अवतार-वरिष्ठ या C-IN-C) के प्रति तीव्र अनुराग और परम प्रेम का अभ्यासी हो। मनुष्य जीवन मुख्य का उद्देश्य है ईश्वरलाभ या आत्मज्ञान प्राप्त करना। और उसके लिए केवल 'स्वाध्याय ' करते रहना ही पर्याप्त नहीं होगा, सत्संग प्राप्त करना अनिवार्य है[Our Journey towards this God realization (Jivanmukti)  starts from Satsang ! What we are doing here, merely reading of the books (स्वाध्याय) won't serve the purpose .] (33:16
उसी प्रकार संत तुलसीदास जी ने भी सत्संग की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए  कहा है -

बिनु सतसंग बिबेक न होई। 
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

सतसंगत मुद मंगल मूला।
 सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
भावार्थ-
सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥गोस्वामी तुलसीदास इस चौपाई के अंतर्गत श्रीराम की महिमा का उल्लेख कर रहे हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि सत्संग के बिना ज्ञान (विवेकज ज्ञान)  जागृत नहीं होता और भगवान (अवतार वरिष्ठ) की कृपा के बिना सदगुरुदेव या मानवजाति के किसी मार्गदर्शक नेता के सानिध्य में रहकर उनके मुख से 'सत्संग' सुनना या यानि श्रवण -मनन और निदिध्यासन करना भी संभव नहीं है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि सत्संग में रहे बिना अर्थात सदगुरुदेव या पूज्य नवनीदा जैसे 'C-IN-C नेता' के निकट सानिध्य में रहे बिना , कोई भी मनुष्य अपने जीवन में अनित्य जगत की मिथ्या वस्तुओं के प्रति घोर वैराग या तीव्र अनासक्ति का भाव तथा नित्य ईश्वर (अवतार वरिष्ठ,श्रीमाँ, औरस्वामीजी) के प्रति के प्रति उतना ही तीव्र अनुराग या भक्तिभाव प्राप्त नहीं कर सकता। और 'पवित्र त्रयमुर्ति में तीव्र अनुराग' हुए बिना किसी व्यक्ति को ऐसा विवेक कि "ब्रह्म ही वस्तु है और सब अवस्तु " ऐसा 'प्रबल विवेकप्रयोग शक्ति' प्राप्त भी नहीं हो सकता।  और जिस व्यक्ति में यह  विवेक जागृत नहीं होता, उसे कभी ईश्वर (आत्मा , ब्रह्म ) नहीं मिल पाता....जब तक वह ईश्वर के सानिध्य में नहीं जाएगा तब तक उसका विवेक जागृत नहीं होगा...और श्री रामजी, श्रीकृष्ण जी या अवतार वरिष्ठ  की कृपा के बिना वह सत्संग (विवेकानन्द का संग) सहज में मिलता नहीं।  इसीलिए हमलोगों को 5 दैनन्दिन अभ्यासों को करने के साथ-साथ इस साप्तहिक पाठचक्र (भक्तसम्मेलन) में नियमित रूप से भाग लेने का प्रयास करना चाहिए। ] 
क्योंकि, केवल  स्वाध्याय करने  सदग्रन्थों का पाठ करने से ही हम मनुष्य जीवन के मुख्य लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर  सकते। शुरुआत में, आध्यात्म मार्ग का प्राथमिक सोपान 'चरित्र-निर्माण' करने के लिए सदग्रन्थों का पाठ या स्वाध्याय करना अच्छा है, लेकिन यदि 'संसार-बंधन' की अवस्था से 'जीवन-मुक्ति' की अवस्था (जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति) में पहुँचना हो , अर्थात या ईश्वरलाभ या आत्मज्ञान प्राप्त प्राप्त करना हो , तो इसके लिए पहली शर्त  है शारीरिक तौर पर सत्संग करना। अर्थात ऐसे पवित्र-जीवन जीने वाले सद्गुरु (या C-IN-C नवनीदा जैसे मार्गदर्शक नेता) के निकट सानिध्य में रहना जो सांसारिक विषयों -(कामिनी, कांचन और कीर्ति 3K) प्रति त्याग, वैराग्य या अनासक्ति तथा ईश्वर (आत्मा या भगवान, 'सत्यम') के प्रति उतना ही तीव्र अनुराग और प्रेम का जीवन जी रहे हैं!  (33:31) [This Swadhayaya (स्वाध्याय) is  good for the beginning, but what really more important is to be in the physical company (सत्संग) of those people who are leading a life of  Vairagya for the world and Anuraga (Love) for the God ! ]
 जब आप ऐसे ईश्वर में तीव्र -अनुरागी और ईश्वर-प्रेमी लोगों (C-IN-C नवनीदा जैसे गृहस्थ होकर भी अविवाहित मार्गदर्शक नेता) के संगति और सानिध्य में रहने लगते हैं, जो 'सद्गृहस्थ' होकर भी एक छोर विषय-भोग (3K) में आसक्ति से मुँह मोड़कर, दूसरा छोर ईश्वर-लाभ (सत्यम, आत्मा, भगवान या ब्रह्म प्राप्ति) की दिशा में निरंतर अग्रसर रहने का जीवन जीने का अभ्यास कर  रहे हों, तो ऐसे ईश्वरा-नुरागि और संसार से अनासक्त लोगों की (C-IN-C नवनीदा जैसे लोगों की) संगति अत्यंत संक्रामक या छुतहा होती (contagious) है।  यदि आप ऐसे लोगों के निकट सानिध्य में रहेंगे,  (C-IN-C नवनीदा के पितामह जैसे (विवाहित होकर भी) बिना गेरुआ पहने गृहत्यागी या संन्यासी का जीवन जीने वाले सत्यम प्रेमी व्यक्ति के निकट सानिध्य में रहेंगे) तो उनकी संगति इतनी संक्रामक होगी कि केवल उनका सत्संग ही आप को अनित्य जगत के मिथ्या वस्तुओं से वैराग्य तथा ईश्वर (आत्मा या भगवान) के प्रति तीव्र अनुराग और प्रेम होने के महान गुणों से भरपूर कर देगी। (इसलिए नवनीदा ने एक बार कहा था -' Be and Make ' लीडरशिप ट्रेनिंग कैम्प का प्रचार-प्रसार अविवाहित संयासिओं नहीं होगा तुम लोग जैसे विषयभोग-त्यागी या अनासक्त हो चुके सद्गृहस्थ द्वारा ही सम्भव होगा।] 
      इसीलिए  ईश्वरलाभ, सत्य का खोजी बनने या आत्मानुसंधान में सत्संग कितना प्रभावकारी है इसके विषय में बोलते हुए प्रवृत्तिमार्गी सद्गृहस्थ भक्तों (आचार्य केशवसेन, श्रीरामचंद्र दत्त,गिरीश घोष, महिमाचरण चक्रवर्ती आदि) और निवृत्तिमार्गी संन्यासियों (स्वामी विवेकानन्द प्रमुख -12 त्यागी भक्तों) दोनों मार्ग के भावी लीडर्स के लिए एक समान प्रखर 'lighthouse ' या मार्गदर्शक ज्योति स्तम्भ नेता, ये प्रेरणा श्रोत अवतार-वरिष्ठ प्रभु श्रीरामकृष्णदेव बारम्बार कहते हैं कि विवेक को जागृत करने का उपाय है -प्रभु की महिमा का गुणगान, और साधुसंग!  
[Sing the glories of the God and Sadhu-sanga !  [(28 नवम्बर, 1883) परिच्छेद ~ 59, श्रीरामकृष्ण वचनामृत* ईश्वरलाभ का  उपाय :  या तो निर्जन में रहो या सत्संग करो ।*  *হয় নির্জনে বাস, নয় সাধুসঙ্গ। * साधुओं का संग, उनका नामगुण-कीर्तनসাধুসঙ্গ, তাঁর নামগুণগান,  (You must live either in solitude or in the company of holy men.  repeating the name of God and singing His glories, and unceasing prayer. Sri Ramakrishna stands for this tremendous phenomenon of turning away from the mithya dimensions and moving towards that which is satyam.  (34:24

प्रभु श्रीरामकृष्ण का जीवन किन महत्वपूर्ण गुणों के द्योतक हैं ? यदि उनके समस्त उपदेशों  को संक्षेप में कहा जाये तो, श्री रामकृष्ण का जीवन अनित्य जगत के 'मिथ्या' आयामों (3K) से मुँह मोड़कर होकर 'सत्यम' (आत्मा , ईश्वर, भगवान या ब्रह्म) प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने की जबरदस्त घटना के प्रतीक हैं। श्रीरामकृष्णदेव के फोटो को देखने, या उनकी प्रतिमा को देखने से उनके भक्तों के मन में विश्वास दृढ़ जाता है कि नित्य-अनित्य विवेक की स्पष्ट धारणा हो जाने के बाद मनुष्य का मन स्वतः अनित्य पदार्थों (3K) से दूर हटने लगेगा और जो नित्य वस्तु (ईश्वर, आत्मा, भगवान, परमात्मा, परब्रह्म या सच्चिदानन्द) है उसकी ओर अग्रसर होने लगेगा।  उदाहरण के मान लीजिये कि भगवान स्वयं आते हैं और हमसे से  यह कहते हैं कि आज 5 बजे शाम को तुम मरने वाले हो, आज संध्या 5 बजे तुम अपनी अंतिम साँस लेने वाले हो। यह सुनने के बाद हमारा सबसे प्राथमिक कार्य या (priorities) क्या होगी ? तब क्या आप आजके Share Market प्राइस की चिंता करेंगे ? या कौन -कौन से विवाह-समारोह में जाना है , यह सब सोंचोगे?  तब आपके लिए हर कार्यक्रम की प्राथमिकता परिवर्तित हो जाएगी।  किन्तु इस समय संसार में अधिकांश लोग (मैं या आप भी) ऐसी मानसिकता के साथ जी रहे हैं , कि जैसे हमें कभी मरना ही नहीं हो ? और यही मौलिक समस्या है। जबकि मृत्यु तो किसी भी क्षण आ सकती है ! शास्त्रों में कहा गया है - मृत्यु ठीक हमारी छाया जैसी है और यह हम में से प्रत्येक के पीछे खड़ी हुई है। 
 गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥

 अतएव विवेकी मनुष्य (सूझबूझ वाला मनुष्य) धर्माचरण भी यूं करे जैसे कि काल उसके बाल पकड़ कर बैठा हो और कभी भी उसे इहलोक से उठा सकता हो । लेकिन हमलोग इस बात से बिल्कुल बेखबर और निश्चिन्त हैं। लेकिन हमारे जीवन का अंत तो किसी भी क्षण हो सकता है। अतएव हमें क्या करना चाहिए ?  
भज गोविन्दं, भज गोविन्दं,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥

कितना सुंदर और अनोखा सत्योपदेश (exotic exhortation) है ! भगवान शंकराचार्य जी कहते हैं -तुम चाहे जितने व्यर्थ के कामों में , जैसे व्याकरण के सूत्रों को रटते रहने में अपने को  व्यस्त कर लो , किन्तु मेरे बच्चे मृत्यु से तुम्हारी रक्षा नहीं हो सकती। इसलिए भज गोविन्दं, भज गोविन्दं का अर्थ क्या हुआ ? सत्य को जानो, सत्य को जानो ! अपने सत्य स्वरुप (आत्मा)  का अन्वेषण करो! मृत्यु आने से पहले अपने सत्यस्वरूप का अनुभव कर लो !(आत्मा, ईश्वर, भगवान, ब्रह्म सच्चिदानन्द को जानो।)  हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है ॥१॥(site/vedicscripturesinc/home/srishankaracharya/bhajagovindam)  
        श्रीमद्भागवत में राजा परीक्षित की कहानी में  इसका बहुत सुंदर दृष्टान्त देखने को मिलता है। राजा परीक्षित, अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र और अर्जुन के पोते थे, जो महाभारत युद्ध के बाद कुरुवंश के राजा बने। उनको यह पता चलता है कि उनकी सिर्फ 7 दिनों की आयु बची हुई है। अब उस राजा की 'priorities' या प्राथमिकतायें बदल जाती हैं।   Parikshit goes to Shukdev and from the mouth of Shukdev he listens  to That wonderful discourse on the Leela of Divine in a certain form !
अगर आप यह जान जाओ कि सात दिनों के बाद आपकी मृत्यु होने वाली है, तो उन्होंने क्या खोजना शुरू किया ? जब उनको यह ज्ञात हुआ कि उनके पास बहुत ही कम समय बचा हुआ है; तब उन्होंने सत्य को खोजना शुरू किया। और शुकदेव मुनि के पास पहुँचे और उनके मुख से उन्होंने एक विशेष नाम-रूप में अवतार की लीला कथा का श्रवण किया। इसी को संस्कृत में लीला -चिन्तनं कहते हैं - यही कार्य हमलोग अभी यहाँ पर कर रहे हैं। परीक्षित के द्वारा जब लीला-चिन्तनं या आत्म-चिन्तनं किया जाता है , तब परीक्षित इस संसार सागर से (जन्म-मृत्यु के चक्र से) पार चले जाते हैं। 
      To windup the whole talk ' सार रूप से मैं यही कहना चाहता हूँ कि, So we should understand, जब हम श्रीरामकृष्ण देव के चित्र या प्रतिमा पर ध्यान करते हैं , उस समय हमें यह याद रखना चाहिये कि श्रीरामकृष्ण देव एक अद्भुत लीलाधर हैं जो इस जगत के मिथ्या आयाम या संसार अनित्य पदार्थों (3K) के प्रति  तीव्र अनासक्ति और घोर त्याग का भाव तथा जो सत्यं है, (नित्य,आत्मा, ईश्वर या ब्रह्म-हमारा ही सत्यस्वरूप है) उसके प्रति उतना ही तीव्र आकर्षण, प्रेम या ईश्वर-लाभ की तीव्र लालसा के एक आश्चर्यजनक प्रतिक हैं ! 
(This wonderful phenomenon of extreme revulsion for that which is mithya dimension and equally intense love, intense longing for that which is satyam.) जब हम श्रीरामकृष्ण पर ध्यान कर रहे होते हैं, या ध्यान के बाद जब आसन से उठते हैं , तब  श्रीरामकृष्ण के व्यक्तित्व में यही वो दो गुण हैं, जिन्हें हमें अपने जीवन में विकसित करना है। धन्यवाद
===========  

      (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

(6) 

⚜️️🔱जीवन का उद्देश्य - कर्म अथवा ईश्वरलाभ ? ⚜️️🔱

एकमात्र ईश्वर वस्तु है, और सब अवस्तु ।
God alone is real and all else unreal.
 ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু।

🔆'Be and Make उद्देश्य नहीं ईश्वरलाभ या आत्मज्ञान  का उपाय है  🔆

[कहानी :- ब्रह्मचारी ने लकड़हारे (wood-cutter) को आगे बढ़ने के लिए क्यों कहा ?] 

एक भक्त - विलायत के आदमी 'कर्म करो - कर्म करो' कहा करते हैं, तो क्या कर्म जीवन का उद्देश्य नहीं है ?

[একজন ভক্ত — বিলেতের লোকেরা কেবল “কর্ম কর” করে। কর্ম তবে জীবনের উদ্দেশ্য নয়?

A DEVOTEE: "The English people always exhort us to be active. Isn't action the aim of life then?"

श्रीरामकृष्ण - जीवन का उद्देश्य है ईश्वर-लाभ । कर्म तो आदिकाण्ड है (चित्त-शुद्धि का उपाय है) है, वह जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता । निष्काम कर्म ('Be and Make' भी ) एक उपाय हो सकता है, परन्तु वह भी उद्देश्य नहीं हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — জীবনের উদ্দেশ্য ঈশ্বরলাভ। কর্ম তো আদিকাণ্ড; জীবনের উদ্দেশ্য হতে পারে না। তবে নিষ্কামকর্ম একটি উপায়, — উদ্দেশ্য নয়।

MASTER: "The aim of life is the attainment of God. Work is only a preliminary step; it can never be the end. Even unselfish work is only a means; it is not the end.

"शम्भू कहता था, अब ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि जो रुपये हैं, उनका सदव्यय कर सकूँ । अस्पताल, दवाखाना, रास्ताघाट, कुआँ इनके तैयार करने में लग जाय । मैंने कहा, यह सब काम अनासक्त होकर कर सको तो अच्छा है, परन्तु है यह बड़ा कठिन । और चाहे जो हो, कम से कम इतना याद रहे कि तुम्हारे मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है ईश्वर-लाभ - अस्पताल और दवाखाना बनाना नहीं ।

[“শম্ভু বললে, এখন এই আশীর্বাদ করুন যে, টাকা আছে, সেগুলি সদ্ব্যয়ে যায়, — হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি করা, রাস্তা-ঘাট করা, কুয়ো করা এই সবে। আমি বললাম, এ-সব কর্ম অনাসক্ত হয়ে করতে পারলে ভাল, কিন্তু তা বড় কঠিন। আর যাই হোক এটি যেন মনে থাকে যে, তোমার মানবজন্মের উদ্দেশ্য ঈশ্বরলাভ। হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি করা নয়!

"Sambhu Mallick once said to me, 'Please bless me, sir, that I may spend all my money for good purposes, such as building hospitals and dispensaries, making roads, and digging wells.' I said to him: 'It will be good if you can do these things in a spirit of detachment. But that is very difficult. Whatever you may do, you must always remember that the aim of this life of yours is the attainment of God and not the building of hospitals and dispensaries.

सोचो कि ईश्वर तुम्हारे सामने आये, आकर तुमसे कहा, कोई वर माँगो । तो क्या तुम उनसे कहोगे, मेरे लिए कुछ अस्पताल और दवाखाने बनवा दो या यह कहोगे, 'हे भगवन्, तुम्हारे पादपद्मों में मेरी शुद्धा भक्ति हो - मैं तुम्हें सब समय देख सकूँ ।'

[ মনে কর ঈশ্বর তোমার সামনে এলেন; এসে বললেন, তুমি বর লওতাহলে তুমি কি বলবে, আমায় কতকগুলো হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি করে দাও, না বলবে — হে ভগবান, তোমার পাদপদ্মে যেন শুদ্ধাভক্তি হয়, আর যেন তোমাকে আমি সর্বদা দেখতে পাই।

 Suppose God appeared before you and said to you, "Accept a boon from Me." Would you then ask Him, "O God, build me some hospitals and dispensaries"? Or would you not rather pray to Him: "O God, may I have pure love at Your Lotus Feet! May I have Your uninterrupted vision!"? 

अस्पताल, दवाखाना ये सब अनित्य वस्तुएँ हैं  एकमात्र ईश्वर वस्तु है, और सब अवस्तु । उन्हें प्राप्त कर लेने पर जान पड़ता है, कर्ता वे ही हैं, हम लोग अकर्ता हैं । तो फिर क्यों उन्हें छोड़कर इतने काम इकट्ठे कर हम अपनी जान दें? उन्हें पा लेने पर उनकी इच्छा से कितने ही अस्पताल और दवाखाने हो जायँगे

 Hospitals, dispensaries, and all such things are unreal. God alone is real and all else unreal. Furthermore, after realizing God one feels that He alone is the Doer and we are but His instruments. Then why should we forget Him and destroy ourselves by being involved in too many activities? After realizing Him, one may, through His grace, become His instrument in building many hospitals and dispensaries.' 

[ হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি — এ-সব অনিত্য বস্তু। ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু। তাঁকে লাভ হলে আবার বোধ হয়, তিনিই কর্তা আমরা অকর্তা। তবে কেন তাঁকে ছেড়ে নানা কাজ বাড়িয়ে মরি? তাঁকে লাভ হলে তাঁর ইচ্ছায় অনেক হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি হতে পারে  

"इसीलिए कहता हूँ, कर्म तो आदिकाण्ड है, कर्म जीवन का उद्देश्य नहीं, साधना करके और भी आगे बढ़ जाओ । साधना करते हुए जब और आगे बढ़ जाओगे, तब अन्त में समझोगे, ईश्वर ही एकमात्र वस्तु है, और सब अवस्तु, ईश्वरलाभ ही जीवन का उद्देश्य है

"Therefore I say again that work is only the first step. It can never be the goal of life. Devote yourself to spiritual practice and go forward. Through practice you will advance more and more in the path of God. At last you will come to know that God alone is real and all else is illusory, and that the goal of life is the attainment of God.]

[তাই বলছি, কর্ম আদিকাণ্ড। কর্ম জীবনের উদ্দেশ্য নয়। সাধন করে আরও এগিয়ে পড়। সাধন করতে করতে আরও এগিয়ে পড়লে শেষে জানতে পারবে যে ঈশ্বরই বস্তু, আর সব অবস্তু, ঈশ্বরলাভই জীবনের উদ্দেশ্য।

एक लकड़हारा जंगल में लकड़ी काटने गया था । एकाएक किसी ब्रह्मचारी (नेता,जीवनमुक्त शिक्षक) से उसकी भेंट हो गयी । ब्रह्मचारी ने कहा, 'सुनो जी, आगे बढ़ो '। लकड़हारा घर लौटकर सोचने लगा, ब्रह्मचारी ने आगे बढ़ने के लिए क्यों कहा ?

“इसी तरह कुछ दिन बीत गये । एक दिन वह बैठा हुआ था, एकाएक ब्रह्मचारी की बात याद आ गयी । तब उसने मन ही मन कहा, मैं आज और भी आगे बढ़ जाऊँगा । वन में और भी आगे चलकर उसने देखा, चन्दन के हजारों पेड़ थे । तब मारे आनन्द के लोटपोट हो गया । चन्दन की लकड़ी उस दिन घर ले आया । बाजार में बेचकर (वीरप्पन?) खूब धनी हो गया ।

Once upon a time a wood-cutter went into a forest to chop wood. There suddenly he met a brahmachari. The holy man said to him, 'My good man, go forward.' On returning home the wood-cutter asked himself, 'Why did the brahmachari tell me to go forward?' Some time passed. One day he remembered the brahmachari's words. He said to himself, 'Today I shall go deeper into the forest.' Going deep into the forest, he discovered innumerable sandal-wood trees. He was very happy and returned with cart-loads of sandal-wood.(वीरप्पन)  He sold them in the market and became very rich.

[“একজন কাঠুরে বনে কাঠ কাটতে গিছিল। হঠাৎ এক ব্রহ্মচারীর সঙ্গে দেখা হল। ব্রহ্মচারী বললেন, ‘ওহে, এগিয়ে পড়ো।’ কাঠুরে বাড়িতে ফিরে এসে ভাবতে লাগল ব্রহ্মচারী এগিয়ে যেতে বললেন কেন?"“এইরকমে কিছুদিন যায়। একদিন সে বসে আছে, এমন সময় এই ব্রহ্মচারীর কথাগুলি মনে পড়ল। তখন সে মনে মনে বললে, আজ আমি আরও এগিয়ে যাব। বনে গিয়ে আরও এগিয়ে দেখে যে, অসংখ্য চন্দনের গাছ। তখন আনন্দে গাড়ি গাড়ি চন্দনের কাঠ নিয়ে এল, আর বাজারে বেচে খুব বড়মানুষ হয়ে গেল।

"कुछ दिनों बाद उसे फिर से  ब्रह्मचारी के आगे बढ़ने के उपदेश की याद हो आई। वह जंगल में और भीतर गया तो उसने नदी के किनारे एक चांदी की खदान देखी ! यह बात उसने सपनों में भी नहीं सोची थी। तब वह खदान से चाँदी निकाल-निकाल कर बाजार में बेचने लगा; इससे  वह इतना अधिक दौलतमन्द (आण्डिल wealthy) हो गया कि उसे खुद पता नहीं था ,उसके पास सचमुच कितना धन है !!"

"A few days later he again remembered the words of the holy man to go forward. He went deeper into the forest and discovered a silver-mine near a river. This was even beyond his dreams. He dug out silver from the mine and sold it in the market. He got so much money that he didn't even know how much he had.

[“এইরকমে কিছুদিন যায়। আর-একদিন মনে পড়ল ব্রহ্মচারী বলেছেন, ‘এগিয়ে পড়।’ তখন আবার বনে গিয়ে এগিয়ে দেখে নদীর ধারে রূপোর খনি। এ-কথা সে স্বপ্নেও ভাবে নাই। তখন খনি থেকে কেবল রূপো নিয়ে গিয়ে বিক্রি করতে লাগল। ত টাকা হল যে আণ্ডিল হয়ে গেল।

🔱🙏सुनो भाई, और आगे बढ़ जाओ और 'देश-काल-निमित्त' को भी पार कर जाओ!🔱🙏 

"कुछ दिन और बीत गए। एक दिन बैठे -बैठे उसने सोचा कि ब्रह्मचारी जी ने तो मुझे चाँदी की खदान पर ही पहुँच कर रुक जाने की सीख तो नहीं दी थी ? उन्होंने तो मुझे और आगे बढ़ने के लिए कहा था!" इस बार वह नदी के भी उस पार चला गया , वहाँ जाकर देखा तो एक सोने की खान मिली। फिर उसने कहा: 'आह, देखो! इसलिए ब्रह्मचारी जी मुझे आगे बढ़ने के लिए कहा था।'

"A few more days passed. One day he thought: The brahmachari didn't ask me to stop at the silver-mine; he told me to go forward.' This time he went to the other side of the river and found a gold-mine. Then he exclaimed: 'Ah, just see! This is why he asked me to go forward.'

[“আবার কিছুদিন যায়। একদিন বসে ভাবছে ব্রহ্মচারী তো আমাকে রূপোর খনি পর্যন্ত যেতে বলেন নাই — তিনি যে এগিয়ে যেতে বলেছেন। এবার নদীর পারে গিয়ে দেখে, সোনার খনি! তখন সে ভাবলে, ওহো! তাই ব্রহ্মচারী বলেছিলেন, এগিয়ে পড়।

"फिर, कुछ दिनों के बाद, वह और भी गहरे जंगल में गया , और वहाँ उसने देखा की हीरे और अन्य कीमती रत्नों के ढेर पड़े हुए हैं । उसने इन्हें भी एकत्र कर लिया और स्वयं धन के देवता - 'कुबेर ' के समान अमीर बन गया।

["Again, a few days afterwards, he went still deeper into the forest and found heaps of diamonds and other precious gems. He took these also and became as rich as the god of wealth - KUBER ' himself.

[“আবার কিছুদিন পরে এগিয়ে দেখে, হীরে মাণিক রাশিকৃত পড়ে আছে। তখন তার কুবেরের মতো ঐশ্বর্য হল।

"इसलिए कहता हूं कि तुम जिस कार्य में भी क्यों न लगे हुए हो , यदि थोड़ा और आगे बढ़ते हो तो और भी उत्कृष्ट वस्तुयें प्राप्त होंगी ! थोड़ा जप करने के फलस्वरूप कुछ  आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति हो गयी हो , किन्तु इससे यह निष्कर्ष मत निकाल लेना कि तुमने आध्यात्मिक साधना के चरमोत्कर्ष  को प्राप्त कर लिया है।  कर्म किन्तु जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता। और आगे बढ़ो , घर-गृहस्थी ,बिजनेस-व्यापार, जप-ध्यान भी निःस्वार्थ -निष्काम होकर करने में सक्षम हो जाओगे ! लेकिन 'निःस्वार्थ कर्म' कर पाना- सबसे कठिन है, इसीलिए ईश्वर के प्रति ह्रदय में भक्ति रखते हुए , व्याकुलता के साथ उनसे प्रार्थना करो, ‘हे ईश्वर , अपने चरण-कमलों में मुझे भक्ति दो और मेरे घर-गृहस्थी के कर्मों को घटा दो; और जो कुछ कर्म मेरे लिए रखना, (ऐसी कृपा करना कि) उसको मैं निःस्वार्थ भाव से करने में सक्षम हो सकूँ !              

"Therefore I say that, whatever you may do, you will find better and better things if only you go forward. You may feel a little ecstasy as the result of japa, but don't conclude from this that you have achieved everything in spiritual life. Work is by no means the goal of life. Go forward, and then you will be able to perform unselfish work. But again I say that it is most difficult to perform unselfish work. Therefore with love and longing in your heart pray to God: 'O God, grant me devotion at Thy Lotus Feet and reduce my worldly duties. Please grant me the boon that the few duties I must do may be done in a detached spirit.' 

“তাই বলছি যে, যা কিছু কর না কেন, এগিয়ে গেলে আরও ভাল জিনিস পাবে। একটু জপ করে উদ্দীপন হয়েছে বলে মনে করো না, যা হবার তা হয়ে গেছে। কর্ম কিন্তু জীবনের উদ্দেশ্য নয়। আরও এগোও, কর্ম নিষ্কাম করতে পারবে। তবে, নিষ্কামকর্ম বড় কঠিন, তাই ভক্তি করে ব্যাকুল হয়ে তাঁকে প্রার্থনা কর, ‘হে ঈশ্বর, তোমার পাদপদ্মে ভক্তি দাও, আর কর্ম কমিয়ে দাও; আর যেটুকু রাখবে, সেটুকু কর্ম যেন নিষ্কাম হয়ে করতে পারি’

“और भी बढ़ने पर ईश्वर की प्राप्ति होगी, उनके दर्शन होंगे । क्रमशः उनके साथ मुलाकात और बातचीत होगी ।”

 If you go still farther you will realize God. You will see Him. In time you will converse with Him."

[“আরও এগিয়ে গেলে ঈশ্বরকে লাভ হবে। তাঁকে দর্শন হবে। ক্রমে তাঁর সঙ্গে আলাপ কথাবার্তা হবে।”

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                           ⚜️️🔱ब्रह्म ही वस्तु है और सब अवस्तु⚜️️🔱

[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ] 

रामानुज एवं विशिष्टाद्वैतवाद 

[রামানুজ ও বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ ]

श्रीरामकृष्ण - दो श्रेणी बिना उतरे मुख से बोला नहीं जाता।

শ্রীরামকৃষ্ণ — আবার দু-থাক না নামলে কথা কইতে পারি না।

“वेदान्त - शंकर #ने जो कुछ समझाया है, वह भी है और रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद भी है।"

[#शंकराचार्यजी ने समझाया है - "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" - अर्थात ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म से अलग नहीं है।' परम सत्य का पूर्ण चित्रण यही है।  this is the complete picturisation of ultimate reality.] 

“বেদান্ত — শঙ্কর যা বুঝিয়েছেন, তাও আছে; আবার রামানুজের বিশিষ্টাদ্বৈতবাদও আছে।

नरेन्द्र - विशिष्टाद्वैतवाद क्या है ?

নরেন্দ্র — বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ কি?

श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - विशिष्टाद्वैतवाद रामानुज का मत है । अर्थात् जीव, जगत्-विशिष्ट ब्रह्म सब मिलकर एक । 

শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রকে) — বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ আছে — রামানুজের মত। কিনা, জীব-জগৎ-বিশিষ্ট ব্রহ্ম। সব জড়িয়ে একটি বেল। 

"जैसे एक बेल । एक ने उसके खोपड़े को अलग, बीजों को अलग और गूदे को अलग कर लिया था । 

খোলা আলাদা, বীজ আলাদা, আর শাঁস আলাদা একজন করেছিল। 

फिर यह समझने की जरूरत हुई कि बेल वजन में कितना था ? 

বেলটি কত ওজনের জানবার দরকার হয়েছিল।

तब सिर्फ गूदा तौलने पर बेल का वजन कैसे पूरा उतर सकता था ? क्यों कि पूरा वजन समझना है तो खोपड़ा, बीज और गूदा तीनों ही एक साथ लेने होंगे ।

 এখন শুধু শাঁস ওজন করলে কি বেলের ওজন পাওয়া যায়?  খোলা, বিচি, শাঁস সব একসঙ্গে ওজন করতে হবে। 

खोपड़े और बीजों को निकालकर गूदे को ही लोग असल चीज समझते हैं । फिर विचार करके देखो – जिस वस्तु का गूदा है, उसी का खोपड़ा भी है और उसी के बीज भी । 

প্রথমে খোলা নয়, বিচি নয়, শাঁসটিই সার পদার্থ বলে বোধ হয়। তারপর বিচার করে দেখে, — যেই বস্তুর শাঁস সেই বস্তুরই খোলা আর বিচি।

   पहले नेति नेति करके जाना पड़ता है; जीव नेति, जगत् (नेति,नेति)  इस तरह का विचार करना चाहिए, ब्रह्म ही वस्तु है और सब अवस्तु; फिर यह अनुभव होता है -(इति,इति)  जिसका गूदा है, खोपड़ा और बीज भी उसके हैं ! 

 আগে নেতি নেতি করে যেতে হয়। জীব নেতি, জগৎ নেতি এইরূপ বিচার করতে হয়; ব্রহ্মই বস্তু আর সব অবস্তু। তারপর অনুভব হয়, যার শাঁস তারই খোলা, বিচি।

जिसे ब्रह्म कहते हो, उसी से जीव और जगत् भी हुए हैं । जिसकी नित्यता है, लीला भी उसी की है । 

 যা থেকে ব্রহ্ম বলছো তাই থেকে জীবজগৎ।  যাঁরই নিত্য তাঁরই লীলা। 

इसीलिए रामानुज कहते थे, जीवनजगत्-विशिष्ट ब्रह्म । इसे ही विशिष्टाद्वैतवाद कहते हैं ।"

তাই রামানুজ বলতেন, জীবজগৎবিশিষ্ট ব্রহ্ম। এরই নাম বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ।”   
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[ (24 फरवरी, 1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-76]

   🔆जो देखता है, ईश्वर ही वस्तु है और सब अवस्तु हैं, वही चतुर है 🔆

“लक्ष्य-भेद के समय द्रोणाचार्य ने अर्जुन से पूछा था, ‘तुम क्या देख रहे हो ?’ – क्या तुम इन राजाओं को देख रहे हो ?’ अर्जुन ने कहा – ‘नहीं ।’ ‘मुझे देख रहे हो ?’ ‘नहीं ।’ ‘पेड़ देख रहे हो ?’ ‘नहीं ।’ ‘पेड़ पर पक्षी देख रहे हो ?’ ‘नहीं ।’ ‘तो क्या देख रहे हो ?’ ‘बस पक्षी की आँख, जिसे भेदना है ।’
[“লক্ষ্য ভেদের সময় দ্রোণাচার্য অর্জুনকে জিজ্ঞাসা করলেন, ‘তুমি কি কি দেখতে পাচ্ছ? এই রাজাদের কি তুমি দেখতে পাচ্ছ?’ অর্জুন বললেন, ‘না’। ‘আমাকে দেখতে পাচ্ছ?’ — ‘না’। ‘গাছ দেখতে পাচ্ছ?’ — ‘না’। ‘গাছের উপর পাখি দেখতে পাচ্ছ?’ — ‘না’। ‘তবে কি দেখতে পাচ্ছ?’ — ‘শুধু পাখির চোখ।’
"While Arjuna was aiming his arrow at the eye of the bird, Drona asked him: 'What do you see? Do you see these kings?' 'No, sir', replied Arjuna. 'Do you see me?' 'No.' 'The tree?' 'No.' 'The bird on the tree?' 'No.' 'What do you see then?' 'Only the eye of the bird.'“

जो केवल पक्षी की आँख देखता है, वही लक्ष्य-भेद कर सकता है ।

“जो देखता है, ईश्वर ही वस्तु है और सब अवस्तु हैं, वही चतुर है । अन्य खबरों से हमें क्या काम है ? हनुमान ने कहा था, ‘मैं तिथि और नक्षत्र, यह सब कुछ नहीं जानता । मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण किया करता हूँ ।’
[“যে শুধু পাখির চোখটি দেখতে পায় সেই লক্ষ্য বিঁধতে পারে।“যে কেবল দেখে, ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু, সেই চতুর। অন্য খবরে আমাদের কাজ কি? হনুমান বলেছিল, আমি তিথি নক্ষত্র অত জানি না, কেবল রাম চিন্তা করি।"
He who sees only the eye of the bird can hit the mark. He alone is clever who sees that God is real and all else is illusory. What need have I of other information? Hanuman once remarked: 'I don't know anything about the phase of the moon or the position of the stars. I only contemplate Rama.'
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आखिर ईश्वर लीलाएं क्यों रचाते हैं और इनका उद्देश्य क्या होता है ? लीला का अर्थ होता है दिव्य क्रीडा यानी दिव्य -खेल।  लीलाएं वास्तविक नहीं होती, परंतु एक सत्य घटना पर आधारित होती है।  भगवान ऐसी लीलाएं रचाते हैं और उनमें भक्तों को शामिल करते हैं।  जैसे मां यशोदा, देवकी, पिता वसुदेव आदि।  भगवान इन लीलाओं के माध्यम से अपना ज्ञान छोड़कर जाते हैं, जो हम सब ग्रंथ पुराणों में पढ़ा करते हैं। रामायण ग्रंथ में श्रीराम द्वारा माता सीता की खोज में वन में दर दर भटकने की कथा मिलती है।  जैसा कि सभी जानते हैं कि श्रीराम तो स्वयं भगवान रहे हैं और वो अंतर्यामी है।  तो वो अपनी माया से सीता को खोज कर सकते थे। परंतु, भगवान की लीला ऐसी ही है कि श्रीराम ने सामान्य पुरुष की तरह माता सीता की खोज की।  लीलाएं भगवान द्वारा रचित है और उनसे मनुष्यों को ज्ञान व सही मार्ग की प्राप्ति होती है। जैसे श्रीकृष्ण ने राधा से प्रेम करके दुनिया को प्रेम की सीख दी। श्रीराम ने शबरी के जूठे बेर खाकर भगवान और भक्त के बीच प्रेम भाव को दर्शाया है।  ऐसे में लीलाओं का उद्देश्य भगवान और भक्त के बीच एक संबंध स्थापित करना होता है।  इसलिए कहते हैं कि गीता, रामायण जैसे धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से हमारा मन शांत होता है और मानसिक विकास होता है। 
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#The Searchlight : Sri Ramakrishna
" श्रीरामकृष्ण का जीवन एक असाधारण ज्योतिर्मय खोजी दीपक है, जिसके प्रकाश में हिन्दूधर्म के विभिन्न अंग एवं आशय समझे जा सकते हैं। शास्त्रों में निहित सिद्धान्त-रूप ज्ञान  के वे प्रत्यक्ष उदाहरण स्वरुप थे। ऋषि और अवतार हमें जो वास्तविक शिक्षा देना चाहते थे, उसे उन्होंने अपने जीवन द्वारा द्वारा दिखा दिया है। शास्त्र (महावाक्यों) मतवाद मात्र हैं , रामकृष्ण उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति। उन्होंने 51 वर्ष की आयु में 5000 वर्ष का राष्ट्रीय आध्यात्मिक जीवन जिया और इस तरह वे भविष्य के सन्तानों के लिए अपने-आप को एक शिक्षाप्रद उदाहरण बना गए। " ३/३३९   

 " The life of Shri Ramakrishna was an extraordinary searchlight under whose illumination one is able to really understand the whole scope of Hindu religion. He was the object-lesson of all the theoretical knowledge given in the Shastras (scriptures). He showed by his life what the Rishis and Avataras really wanted to teach. The books were theories, he was the realisation. This man had in fifty-one years lived the five thousand years of national spiritual life and so raised himself to be an object-lesson for future generations. " (Letter To Alasinga Perumal, 30th November, 1894) 
" भगवान श्रीराकृष्णदेव का अध्यन किये बिना वेद-वेदान्त भागवत और अन्य पुराणों का महत्व समझना असम्भव है। उनका जीवन हिन्दू वैदिक सनातन धर्म के सारे पहलू (gamut विचार-समूह) पर एक अनन्त तेज रौशनी वाले खोज दीप का तीव्र प्रकाश है। श्रीरामकृष्णदेव वेदों तथा उनके उद्देश्य के जीवन्त भाष्य हैं , भारत के जातीय धार्मिक जीवन का एक समग्र कल्प उन्होंने एक जीवन में पूरा कर दिया था। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म जन्म हुआ था या नहीं , यह मुझे मालूम नहीं और बुद्ध और चैतन्य इत्यादि एक देशीय हैं; पर श्रीरामकृष्ण देव सबकी अपेक्षा आधुनिक (latest) और सबसे पूर्ण (most perfect) हैं - ज्ञान, भक्ति , वैराग्य , उदारता और लोकहितैषणा -इन सब गुणों के वे मूर्तस्वरूप हैं। जो उनके गुणों का आदर नहीं कर सकता है , उसका जीवन व्यर्थ है। मैं परम भाग्यशाली हूँ कि मैं जन्म-जन्मान्तर से उनका दास रहा हूँ। उनका एक भी शब्द मेरे लिए वेद-वेदान्त से अधिक मूल्यवान है। तस्य दासादासोअहं - अरे, मैं तो उनके दासों के दासों का दास हूँ। " (पत्रावली /२५८ )      

" Without studying Ramakrishna Paramahamsa first, one can never understand the real import of the Vedas, the Vedanta, of the Bhâgavata and the other Purânas. His life is a searchlight of infinite power thrown upon the whole mass of Indian religious thought. He was the living commentary to the Vedas and to their aim. He had lived in one life the whole cycle of the national religious existence in India. Whether Bhagavân Shri Krishna was born at all we are not sure; and Avataras like Buddha and Chaitanya are monotonous; Ramakrishna Paramahamsa is the latest and the most perfect — the concentrated embodiment of knowledge, love, renunciation, catholicity, and the desire to serve mankind. So where is anyone to compare with him? (U. S.A.,1894. Letter to  Swami Shivananda.) 
(The) books were theories, he (Ramakrishna) was the realization. 
CWSV Vol 5 p.53
Shri Ramakrishna was both a Jivanmukta and an Acharya. 
CWSV Vol 5 p.269
Shri Ramakrishna is a force. 
CWSV Vol 5 p.269
He (Ramakrishna) is a power, living even now in his disciples and working in the world. 
CWSV Vol 5 p.269
Never did come to this earth such an all-perfect man as Shri Ramakrishna.
CWSV Vol 6 p.480
Ramakrishna Paramahamsa came for the good of the world. 
CWSV Vol 6 p.266
India can only rise by sitting at the feet of Shri Ramakrishna.
CWSV Vol 6 p.281
It won’t do merely to call Shri Ramakrishna an Incarnation, you must manifest power. 
CWSV Vol 6 p.267
Ramakrishna has no peer; nowhere else in this world exists that unprecedented perfection, that wonderful kindness for all that does not stop to justify itself, that intense sympathy for man in bondage. 
CWSV Vol 6 p.231
His life is the living commentary to the Vedas of all nations. 
CWSV Vol 6 p.320
What the whole Hindu race has thought in ages, he lived in one life. 
CWSV Vol 6 p.320
He who will bow before him will be converted into purest gold that very moment.
CWSV Vol 6 p.266
From the day Shri Ramakrishna was born dates the growth of modern India and of the Golden Age.
CWSV Vol 6 p.318
He was the living commentary to the Vedas and to their aim. 
CWSV Vol 7 p.483
His life is a searchlight of infinite power thrown upon the whole mass of Indian religious thought. 
CWSV Vol 7 p.483/letter dated 1894/ to Swami Shivananda . 
Shri Ramakrishna was born to vivify all branches of art and culture in this country.
CWSV Vol 7 p.205
In Shri Ramakrishna Paramahamsa the man was all dead and only God remained.
CWSV Vol 7 p.85
Shri Ramakrishna’s purity was that of a baby.
CWSV Vol 7 p.85
He had lived in one life the whole cycle of the national religious existence in India.
CWSV Vol 7 p.483
Ramakrishna Paramahamsa is the latest and the most perfect—the concentrated embodiment of knowledge, love, renunciation, catholicity, and the desire to serve mankind.
CWSV Vol 7 p.483
Without studying Ramakrishna Paramahamsa first, one can never understand the real import of the Vedas, the Vedanta, of the Bhagavata and the other Puranas. 
CWSV Vol 7 p.483
One glance, one touch is enough.
CWSV Vol 7 p.8
Ramakrishna had given us one great gift, the desire, and the lifelong struggle not to talk alone, but to live the life.
CWSV Vol 8 p.348

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https://www.youtube.com/watch?v=Ms13fTm8q5o&list=PLOV__wO0b-s9A_VMhEGXaPkrOJWWu_ur5/RKMPUNE Bhakti Sangeet/

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