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Tuesday, December 4, 2012

$$$'प्रत्येक कार्य महान है ' (প্রতিটি কাজই বড়)] (योगः कर्मसु कौशलम्) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [47] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

'प्रत्येक कार्य महान है '

कोई भी कर्म छोटा नहीं है !

(योगः कर्मसु कौशलम्) 
जो व्यक्ति जैसा कर्म अधिक पसन्द करता हो, उसे वही कार्य सौंप दिया जाय तो, वह उस कार्य को बहुत आसानी से और बहुत आनन्द पूर्वक पूरा कर सकता है। हो सकता है, उस कार्य में मानव-शक्ति का सर्वोत्तम व्यवहार भी देखने को मिले। किन्तु जिस व्यक्ति को इस प्रकार उसके मन-मुताबिक कार्य सौंपा जायेगा, वह सही रूप से अपने जीवन को गठित नहीं कर पायेगा। इसीलिये हमलोगों का उद्देश्य रहना चाहिये -कर्म की रूचि जिस दिशा में हो, उसमें परिवर्तन करना, - ताकि मौका पड़ने से कोई भी कार्य नीरस या मुश्किल नहीं प्रतीत हो। हमलोगों को किसी बुद्धिमान मनुष्य जैसा समस्त कर्मों को ही,अपने पसन्द के कार्य में रूपान्तरित कर लेने का कौशल सीखना होगा।
जिस कार्य को हमें करना पड़ रहा है, उसके साथ हमें अपने कर्म करने के उद्देश्य के योग को भी आविष्कृत करना होगा। गीता २. ५० में कहा गया है -
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
 तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।। 
 - अर्थात समत्वबुद्धि-युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों (में कर्तापन के अभिमान) को त्याग देता है। इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। र्म में कौशल को योग कहते हैं।कर्मों में कुशलता योग है।।
 कर्म में कौशल का तात्पर्य क्या है ? यही कि सामने आ गये कर्म को मैं किस दृष्टि से देखूँगा ? यदि सामने आ गये कर्म को बोझ, भार या सजा समझ लें, तो कर्म में कौशल नहीं होगा। यदि उसी कर्म को मनचाहा या दिलपसन्द मान कर किया जाये तो वही कर्म आनन्द बन जायेगा। उस प्रकार कर्म करने से कोई भी कार्य नीरस या बोझिल नहीं प्रतीत होगा। इस बात को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। 
मैं एक अच्छा चरित्रवान मनुष्य बनना चाहता हूँ। इस उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये मुझे कई कार्य करने पड़ सकते हैं। और हो सकता है, शुरू शुरू में वे सभी कार्य (विवेक-प्रयोग, मनःसंयोग, व्यायाम।..आदि), मुझे रुचिकर न लगें। किन्तु यदि हम ऐसा सोचें कि उन्हीं कार्यों को करने से मेरा और साथ-साथ अन्य चार मनुष्यों का भी मंगल हो जायेगा, तो उन कार्यों के प्रति हमारी दृष्टि बदल जाएगी। धीरे धीरे उन कार्यों में मेरी निष्ठा हो जाएगी, और उन्हें करने में आनन्द मिलने लगेगा। 
छात्रों को पढ़ाने का कार्य हो, या खेत में कुदाल चलाना हो, या किसी ऑफिस-अदालत का कोई कार्य क्यों न हो, उसे सही तरीके से करने पर आत्मोन्नति अवश्य होगी- यह तो हम कार्य के फल को देखकर ही समझ लेंगे! 'कार्य को अच्छे ढंग से पूरा करने पर उसका फल लोगों के कल्याण में लगेगा'- इसी मनोभाव से कर्म करने से उसका लाभ हमलोग पायेंगे। 'कार्य का सीधा फल दूसरे लोगों को मिलेगा' --इसी उद्देश्य को सामने रखकर कार्य करने से, हमलोगों को उस कार्य के बदले एक दूसरा फल अवश्य प्राप्त होगा। और वह अद्भुत फल है- आनन्द, तृप्ति, आत्मोन्नति। यह जान कर कार्य करने से कि हमारे द्वारा किये गये कार्य का फल अन्य मनुष्यों को मिलेगा, तो हमारा कर्म त्याग बन जायेगा। ऐसा होने से ही हमलोग कुछ उच्चतर वस्तु प्राप्त करेंगे-वह है तृप्ति या आनन्द।
जो व्यक्ति कर्म में कौशल का प्रयोग कर सकता है, अर्थात जो व्यक्ति लौकिक कर्म भी आध्यात्मिक दृष्टि से  कर सकता हो, सचमुच में वही बुद्धिमान है- क्योंकि उसके कार्यों के द्वारा बंधन की उत्पत्ति नहीं होती। इसीलिए, कर्म के फल को स्वयं अपने को अर्पित न करके दूसरे मनुष्यों के सुख के लिये करना पड़ेगा। ऐसा होने से ही वह कर्म अध्यात्मिक कर्म बन जायेगा, तथा उस कर्म के द्वारा मेरी आत्मोन्नति होगी।
इसीलिये कोई भी कर्म छोटा नहीं हो सकता है। हो सकता है कि बाहर से देखने पर कार्य छोटा प्रतीत हो सके, और उसको पूरा करने में कम समय भी लग सकता है। किन्तु कर्म के पीछे उद्देश्य ठीक रहने से उसीके द्वारा परम-पद की प्राप्ति हो सकती है। बरगद के वृक्ष का बीज बहुत छोटा होता है, किन्तु उसीके भीतर बरगद का विराट वृक्ष सुप्त रहता है। यदि उसको ठीक तरीके से जाग्रत किया जाय, तो कौशल का फल देखा जा सकेगा। इसीलिये बुद्धिमान के लिये समस्त कर्म एक समान महान हैं, और महत्वपूर्ण हैं। 
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