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Tuesday, October 28, 2025

" जागृत अवस्था भी एक सपना है, इसको पहचानना ही उस सपने का टूटना है ! "स्वामी शुद्धिदानंद द्वारा भगवद गीता का पन्द्रहवाँ अध्याय : पुरूषोत्तम योग (सत्र-1): https://www.sadhanapath.in/search?updated-max=2025-06-02T06:00:00%2B05:30&max-results=7&start=133&by-date=false// https://shlokam.org/texts/vivekachudamani-4-7/

" जागृत अवस्था भी एक सपना है, इसको पहचानना ही उस सपने का टूटना है ! 


Purushottama Yoga of Bhagavad Gita by Swami Shuddhidananda (Session-1)

 पन्द्रहवें अध्याय का महत्व या भूमिका

पन्द्रहवें अध्याय का मुख्य विषय क्या है ? इस अध्याय का मुख्य विषय है 'भगवत तत्व' का ज्ञान। भगवान या ईश्वर का तात्विक ज्ञान। देखिये जब भी हम ईश्वर की बात करते हैं , हमारे मन में कई प्रकार की कल्पनायें आती हैं। हर व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार भगवान के विभिन्न रूपों की कल्पना करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन भगवान का एक तात्विक स्वरुप है -जो हमारी कल्पना के परे है। आप ईश्वर को इस रूप (देवी रूप) में देखिये या उस रूप (देव रूप) में देखिये , ये ठीक है। लेकिन ईश्वर तात्त्विक दृष्टि से जैसा है, वैसा उसका ज्ञान या समझ प्रदान करना ही गीता के इस पन्द्रहवें अध्याय का मुख्य उद्देश्य है। गीता पर लिखित पन्द्रहवें अध्याय के भाष्य में भगवान शंकराचार्यजी में कहते हैं -इस 15 वें अध्याय का उद्देश्य है 'भगवत तत्व ज्ञानं', और उस ज्ञान का फल है -मोक्ष! [भगवत तत्व ज्ञानं मोक्ष फलं।] ईश्वर तत्व का ज्ञान होने से जीव मुक्ति को प्राप्त करता है, मोक्ष को प्राप्त करता है। सम्पूर्ण भगवत गीता को शास्त्र कहा गया है , मोक्ष शास्त्र कहा गया है। 

     और 'शास्त्र' शब्द का अर्थ क्या होता है ? गीता -स्वाध्याय का आरम्भ करने से पहले अध्यात्म विज्ञान के कुछ टेक्निकल शब्दों का अर्थ समझ लेना अच्छा होगा। हमें ज्ञान कैसे होता है? हम अपनी पाँच इन्द्रियों के द्वारा जगत की वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इन आँखों से मैं आपको देख रहा हूँ आप मुझे देख रहे हैं। इस विश्वप्रपंच को हम आँखों से देख रहे हैं। यह एक प्रकार का ज्ञान है , जिसको हमलोग इन्द्रिय ज्ञान कहते हैं। ये पूरा विश्वप्रपंच इन्द्रियगोचर है। लेकिन यहाँ पर हम जिस तात्विक ज्ञान की बात कर रहे हैं -वह ईश्वर का तात्विक ज्ञान इन्द्रियगोचर नहीं है। तो शास्त्र उसको कहते हैं , जो हमें उस अतीन्द्रिय सत्ता का ज्ञान प्रदान करती है। शास्त्र की परिभाषा है -'अज्ञात ज्ञापकं शास्त्रम्।'  भगवान शंकराचार्यजी एक दूसरे परिभाषा में कहते हैं - "प्रत्यक्ष अनुमानाभ्यां अनवगत इष्ट-प्राप्ति -अनिष्ट-परिहारयोः अलौकिकं उपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः।" अर्थात् इष्ट वस्तु की प्राप्ति और अनिष्ट वस्तु के त्याग करने का अलौकिक उपाय जो ग्रन्थ सिखलाता है, उसको वेद कहते हैं। अर्थात जिस तत्व को हम प्रत्यक्ष और अनुमान से भी समझ नहीं सकते, प्रत्यक्ष यानि जिस वस्तु को हम इन्द्रियों से समझ नहीं सकते; या अनुमान के द्वारा भी समझ नहीं सकते, उस वस्तु का जो हमें ज्ञान करा दे उसको हम शास्त्र या वेद (शास्त्र) कहते हैं। [ और 'वेद सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व उत्पन्न हुए', इससे यह भी नितान्त स्पष्ट हो जाता है कि परमात्मा का मनुष्य जाति पर कितना अनुग्रह है। मनुष्य शब्द की व्युत्पत्ति यह है कि 'मननात् मनुष्यः' अर्थात् जो मनन कर सकता है उसे मनुष्य कहते हैं। यद्यपि मनुष्य विचारवान् होने से तथा उन्नत अन्तःकरण या विवेक-युक्त होने से श्रवण-मनन -निदिध्यासन करने का सामर्थ्य रखता है, तथापि यदि उसे किसी निर्जन वन में रख दिया जाय जहां मृत्यु-पर्यन्त उसका किसी भी  'मनुष्य'  (विवेकी-ब्रह्म सत्य-जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मैव का बोध रखने वाले सद्गुरु से ) से सम्बन्ध न हो तो वह केवल अपनी बुद्धि के आधार पर कभी भी उन्नति न कर सकेगा और सर्वथा ज्ञान-शून्य रहेगा। यदि परमात्मा सृष्टि के प्रारम्भ में वेद का ज्ञान न देता तो अभी तक सब मनुष्य पशु के समान बने रहते। क्या हमलोगों को कोई क-ख -ग़ -घ लिखना बोलना नहीं सिखाता तो हम पढ़-लिख सकते थे ?]

तो गीता भी एक शास्त्र है, और जो हमें उस अतीन्द्रिय वस्तु, जो मन और इन्द्रियों के परे जो भगवत तत्व है, उस भगवत तत्त्व का ज्ञान करा देने वाला जो साधन है, उस साधन को शास्त्र (या गुरु) कहते हैं। आप सभी लोग जानते हैं कि गीता में 18 अध्याय हैं, और अपने आप में यह एक मोक्ष शास्त्र है। यह हमें उस अविनाशी तत्व का ज्ञान करा देती है , जिस ज्ञान के प्राप्ति के फलस्वरूप व्यक्ति मुक्त हो जाता है, मोक्ष को प्राप्त करता है। शास्त्र की एक अन्य परिभाषा यह भी है कि किसी 'एक विषय' के बारे में जो सब कुछ बता देती है, उसको शास्त्र कहते हैं। और गीता को हमलोग मोक्ष शास्त्र कहते हैं। तो मोक्ष के सम्बन्ध में जो कुछ भी हमें जानना हो , जो हमें यह बता देती हो , उसे शास्त्र कहते हैं। अब शंकराचार्यजी कहते हैं कि गीता का यह पन्द्रहवाँ अध्याय अपने आप में ही एक शास्त्र है। इस एक अध्याय के अन्दर मोक्ष से सम्बन्धित और भगवत तत्त्व-ज्ञान से सम्बन्धित सब कुछ बताया गया है। यह जो गीता के पन्द्रहवें अध्याय को मोक्षशास्त्र का दर्जा दिया गया है , वह गीता के अन्य किसी भी अध्याय को नहीं दिया गया है। तो 15 वे अध्याय की यह विशेषता है कि यह अपनेआप में ही एक शास्त्र है। और यह बात सिर्फ शंकरा-चार्यजी ही नहीं कह रहे हैं , स्वयं श्रीकृष्ण भी पन्द्रहवें अध्याय के अंतिम श्लोक में यही बात कह रहे हैं। 

इति गुह्यतमम् शास्त्रम् इदम् उक्तम् मया अनघ।

               एतत्  बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यः च  भारत।।15.20।।

 हे अर्जुन ! मेरे द्वारा तुम्हारे सम्मुख यह  'गुह्यतम शास्त्र' बताया गया। पन्द्रवें अध्याय को भगवान श्रीकृष्ण भी शास्त्र कह रहे हैं। ये दर्जा भगवतगीता के किसी भी अध्याय को नहीं दिया गया है। और जो शास्त्र मेंने तुम्हें बतलाया वो कैसा शास्त्र है ? यह गुह्यतम है - यानि यह ऐसा शास्त्र है-जो अत्यंत गुप्त है जो अत्यंत गंभीर बात है, जो सब किसी को पता नहीं है। कुछ लोग ही इसको जानते हैं। इसको यदि अंग्रेजी में कहें तो "secret or that which is extremely profound, that which is not known to everyone." क्योंकि जो बात सबको पता हो जाएगी फिर वो 'secret' या गुप्त नहीं होगी। तो इस सृष्टि के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न हैं - जिसमें से यह जो भगवत-तत्त्व ज्ञान को या ईश्वर के तात्त्विक स्वरुप को कितने लोग जानते हैं ? तो ईश्वर का ज्ञान ही वह ज्ञान है, जो इस संसार में सबसे रहस्यपूर्ण है, जो सबसे गुह्यतमं ज्ञान है। It is a greatest mystery it is not known to anyone ! ईश्वर क्या है ? कौन है ? इस बारे में हम सभी लोग भ्रमित हैं। हम ईश्वर के बारे में बात कर सकते हैं , भगवान के बारे में बात कर सकते हैं, विभिन्न रूपों में उसकी कल्पना कर सकते हैं। लेकिन ईश्वर जैसा है , वैसा उसका ज्ञान किसको पता है ? कल्पना अपनी जगह है, हर व्यक्ति अपनी समझ के हिसाब से उसकी कल्पना कर सकता है। लेकिन ईश्वर जैसा है, वैसा तात्त्विक ज्ञान किसके पास है ? किसीके पास नहीं है। इसलिए यह गुह्यतमं है, अर्थात यह सबसे गुह्यतं है, ऐसा एक ज्ञान है। तो कृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं -देखो मैंने तुम्हें गुह्यतं शास्त्र बता दिया है ! और ये ज्ञान कैसा है ? एतत्  बुद्ध्वा" -इस ज्ञान को जो जानेगा -वह व्यक्ति क्या होगा ? वह ठीक-ठीक बुद्धिमान-स्यात् होगा, और क्या होगा? जो ईश्वर को तत्त्वतः जान जायेगा, उसका जीवन कृतार्थ हो जायेगा, वह कृतकृत्य भी हो जायेगा। ये कृत्य -कृर्त्य बड़ा सुन्दर शब्द है - कृतः कृत्य ! (कृत्-कृत्य) का अर्थ है -मनुष्य शरीर को प्राप्त करके जो हमारे लिए करणीय है, जो करणीय है -वो है कृत्य। कृत -मतलब कर दिया। मनुष्य शरीर में जन्म लेने के बाद जो सबसे प्राथमिक करणीय चीज है - वो क्या है ? भगवत-तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना ! 'अपने बनाने वाले सृष्टिकर्ता को जान लेना।' और जो यह करणीय प्राथमिक कार्य कर लेता है वह 'कृत्-कृत्य' हो जाता है। वह कृतार्थ हो जाता है। (कृतार्थ - अर्थात वह व्यक्ति जिसने अपना काम पूरा कर लिया हो और वह संतुष्ट हो। यह एक ऐसा व्यक्ति है जिसने अपने उद्देश्य को पूरा कर लिया है और सफल हो गया है।) तो भगवान श्रीकृष्ण हमें यह बतलाते हैं कि यह जो पन्द्रहवाँ अध्याय है, वह अपनेआप में एक शास्त्र है, जो इस भगवत-तत्त्व ज्ञान को हमारे सामने रखते हैं , जिसका फल है मोक्ष। "भगवत-तत्व ज्ञानं मोक्ष फलं !" [तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।उस- (तत्त्वज्ञान-) को (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ। उनको साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे।]  तो देखिये हमलोग अभी जिस शास्त्र को पड़ने जा रहे हैं , उसका मुख्य विषय क्या है ? उसका विषय यही होगा कि- 'ईश्वर का तात्त्विक स्वरुप क्या है ? तथा ईश्वर के इस तात्त्विक स्वरुप को प्राप्त करने के लिए हमारे पास साधन क्या है ? हमें क्या करना चाहिए वो सारी चीजें हमें गीता के इस पन्द्रहवें अध्याय में हमें देखने की मिलता है। और गीता का ये पन्द्रहवाँ अध्याय भी 20 श्लोकों वाला गीता का बारहवाँ अध्याय के समान ये दूसरा सबसे छोटा अध्याय है। लेकिन सम्पूर्ण गीता में केवल इस पन्द्रहवाँ अध्याय को ही मोक्ष शास्त्र कहा गया है। तो ये इस पन्द्रहवें अध्याय की भूमिका है, इसका गौरव है- वो इस प्रकार का है। (12:00)   

तो भगवतगीता में जितने भी अध्याय हैं ,  प्रथम अध्याय से, द्वितीय अध्याय, द्वितीय अध्याय से फिर तृतीय अध्याय, ऐसा करते हुए आगे बढ़ने से उन सभी अध्यायों में शुरुआत से लेकर अठारहवें अध्याय तक  आपको विचारों का एक बहुत सुन्दर सा प्रवाह चलता हुआ नजर आएगा। उसी प्रकार चौदहवें अध्याय के अंतिम भाग में भगवान कृष्ण एक बात बताते हैं। चौदहवें अध्याय का नाम है - गुणत्रय विभाग योग। इस अध्याय में तीनों गुणों का वर्णन किया गया है। जब हम इन तीनों गुणों के परे चले जाते हैं, तब जाकर के सत्य की अनुभूति होती है। क्योंकि यह जो हमलोग विश्वप्रपंच अपने सामने देख रहे हैं , वो त्रिगुणात्मिक है। ये तीन गुणों का खेल चल रहा है, यहाँ पर। हम सब त्रिगुणात्मिक हैं। जो भी हमको दिखाई देता है। ये सब त्रिगुणात्मिक है। ये तीन गुणों का खेल चल रहा है। इन तीन गुणों को हमलोग माया भी कहते हैं। माया त्रिगुणात्मिक है , और यहाँ जो भी हमको दिखाई दे रहा है , ये सब तीन गुणों का ही खेल चल रहा है। और ये तीन गुण ही हैं जिसने सत्य को (विवेकज-ज्ञान को) मानो आच्छादित करके - ढँक करके रख दिया है। तो इन तीन गुणों के पार जाने की जो विधि है, जो प्रक्रिया है, वह हमको चौदहवें अध्याय में बताया गया है। चौदहवें अध्याय के अंतिम भाग में - 26 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- 

माम् च यो अव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते।
  सः  गुणान्  समतीत्य एतान्  ब्रह्मभूयाय कल्पते।।14.26।। 

यहाँ दो शब्द अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं। भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - जो कोई भी पुरुष मेरा भजन करेगा, मुझ भगवान का भजन किस प्रकार करेगा ? 'अव्यभिचारी भक्तियोग द्वारा' मेरा भजन करेगा। ईश्वर के साथ सम्बन्ध बनाना, भगवान के साथ सम्बन्ध बनाना ये मनुष्यजीवन का प्रथम और अंतिम लक्ष्य है। इससे बढ़कर और कुछ नहीं है। ईश्वर से सम्बन्ध बनाये बगैर मनुष्य जीवन अपूर्ण था, अपूर्ण ही रहेगा। यहाँ भगवान कह रहे हैं - 'माम् च यो अव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते।' ईश्वर के साथ ऐसा सम्बन्ध जो एक क्षण के लिए भी न टूटता हो। भक्ति योग के द्वारा ईश्वर के साथ ऐसा अविछन्न -अखंड प्रेम का सम्बन्ध जब बनेगा, अटूट भक्ति भाव से भगवान का जो भजन करेगा, तो क्या होगा ? भगवान बहुत ही महत्व की बात बता रहे हैं -  सः  गुणान्  समतीत्य एतान्' -वह इन तीनों गुणों के पार जाकर के, उन तीनों गुणों से ऊपर उठ कर के - " ब्रह्मभूयाय कल्पते। " अब इस ब्रह्मभूयाय कल्पते का मतलब क्या है ? शंकराचार्य जी अपने भाष्य में-ब्रह्म भूयाय का अर्थ कहते हैं - ' ब्रह्म भव नाय ' - वह ब्रह्म होने के योग्य हो जाता है। उसके अंदर योग्यता आती है। जब ठीक-ठीक भक्ति - अव्यभिचारी भक्ति जब हमारे अंदर होगी, जब हम एकमेवाद्वितीय ईश्वर को ही हम सभी प्राणियों के ह्रदय में देखना शुरू कर देंगे , जब हम यह जानेंगे कि यहाँ पर ईश्वर से अतिरिक्त कोई द्वितीय वस्तु है ही नहीं। तब हमारी भक्ति अव्यभिचारी भक्ति होगी। 
      हमारी भक्ति में व्यभिचार आता क्यों है ? (16:51) हमको ऐसा लगता है कि, भगवान वहाँ अमुक मन्दिर में हैं, और मेरे सामने जो दिख रहा है- यह जगत है। हमलोग अब बहुत महत्वपूर्ण बात को समझने जा रहे हैं। हम जैसे सामान्य मनुष्यों की धारणा है कि ईश्वर कहाँ हैं ? अमुक स्थान पर या अमुक मंदिर में बैठे हुए हैं। तो यहाँ क्या है ? ये क्या ईश्वर से बाहर है ? ये एक बहुत बड़ा प्रश्न है। पहले हमको इस भ्रान्ति से ऊपर उठना होगा। ईश्वर कोई स्थान-विशिष्ट व्यक्ति नहीं है। ईश्वर कोई काल-विशिष्ट व्यक्ति नहीं है। (अर्थात ईश्वर कोई देश-काल विशिष्ट व्यक्ति नहीं है।) उसको हम अपने कल्पना-दोष से , अपने बुद्धि दोष से उसको हम काल-विशिष्ट बना देते हैं , उसको हम स्थान विशिष्ट बना देते हैं। इसके कारण होता क्या है ? हमारी भक्ति सब- समय (तैल -धारवत) बनी नहीं रहती है, वो खण्डित हो जाती है। आप मंदिर में जाते हो, तो आपको भक्ति-भाव लगता है, और मंदिर से बाहर निकलते ही आपकी भक्ति कहाँ गायब हो जाती है ? क्योंकि आपको (वॉट्सऐप ग्रुप आदि देखकर) लगता है - ये तो जगत है। भगवान वहाँ हैं और यह जगत है। यह एक बहुत बड़ी भ्रान्ति है। यह बुद्धि का दोष है। बुद्धि के इसी दोष को हटाने के लिए शास्त्र और गुरु का प्रयोजन होता है। गुरु और शास्त्र ही हमें धीरे -धीरे इस बात से अवगत कराते हैं कि हम जिस अविनाशी सत्य या ईश्वर को खोज रहे हैं - वह ईश्वर ही जीव-जगत बन गया है। ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं है। ये हमको आज तक समझ में नहीं आया कि हम जिसको देख रहे हैं , यह ईश्वर का ही रूप है। यहाँ हमको जीव-जगत के रूप में जो भी दिख रहा है -ये सगुण ब्रह्म है। ये विश्वप्रपंच ईश्वर का ही अपना एक रूप है। (18:33
     सबसमय भक्ति भाव में रहने का उपाय : गीता के पन्द्रहवें अध्याय के अध्यन द्वारा हम इसी विवेक-दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) की ओर बढ़ रहे हैं। ये बहुत महत्वपूर्ण बात है। जो कुछ आपको दिख रहा है - धजाधारी पहाड़, ये जंगल जो आपको दिख रहा है , ये पूरा विश्व प्रपंच ये ब्रह्माण्ड जो आपको दिख रहा है - ये क्या है ? जब तक हमारे अंदर बुद्धि-दोष है या दृष्टि-दोष है , तब तक हम यही समझते हैं कि - ये जगत है , ये सबकुछ जगत है। ये जगत है। शास्त्र हमें बताती है कि आप जिसको जगत कह रहे हो , ये एक भ्रान्ति मात्र है। ये जगत नहीं है , ये ईश्वर का अपना ही एक रूप है। आपकी दृष्टि जब ऐसी विवेक-दृष्टि या ज्ञानमयी दृष्टि बन जाएगी तब क्या होगा ? अब आपकी भक्ति कभी खण्डित नहीं हो सकती। आप सब समय, भक्तिभाव में ही रहोगे। 
(परिवार के सदस्यों - हित , मित्रों से बातचीत करते समय भी आप मन-ही-मन भक्ति भाव में ही रहोगे !) क्योंकि आप जानते हो कि ये जो भी दिखाई दे रहा है, ये सब ईश्वर का ही रूप है। इस प्रकार अव्यभिचारी भक्ति योग से जब कोई भक्त भगवान की भजन करेगा , तब क्या होगा ?  उस भक्तियोगके द्वारा जो मेरी सेवा करता है -- वह ब्रह्मभूयाय कल्पते, नहीं- शंकराचार्य जी कहते हैं - 'ब्रह्म भव नाय '  वह  तीनों गुणों को पार कर के ब्रह्म को पाने के लिये  योग्य हो जाता है। तो यहाँ पर एक प्रश्न उठता है ; तो क्या हम भी ब्रह्म होने वाले हैं ? क्या अभी,  इस समय हम ब्रह्म नहीं हैं क्या ? ऐसी बात नहीं है। भगवान शंकराचार्यजी कहते हैं - ब्रह्मभूयाय कल्पते का मतलब है  'ब्रह्म भव नाय ' कल्पते।  आप ब्रह्म होने के लिए योग्य हो जाते हो , काबिल हो जाते हो। तो इसका मतलब क्या है ? क्या हमलोग इस समय ब्रह्म नहीं हैं ? हम सभी लोग स्वरूपतः ब्रह्म से अतिरिक्त और कुछ हैं ही नहीं। हम सब , प्रत्येक जीव जो भी है - उसका ब्रह्म से अतिरिक्त कोई अस्तित्व है ही नहीं। कभी भी नहीं था, अभी भी नहीं है , और कभी भी नहीं रहेगा। आज हम इस गुप्त बात को जानते नहीं हैं , इसलिए लगता हैं कि हम उससे कुछ भिन्न हैं। आप ब्रह्म बनोगे' यह कहने का तात्पर्य है - आप ब्रह्म को जानोगे। अज्ञान की निवृत्ति होगी- आप अपने स्वरुप को जानोगे। (निवृत्ति अस्तु महा फला) आप अपने भगवत स्वरुप को जानोगे। उसको जानने की योग्यता आपके अंदर आ जाएगी। किस प्रकार आएगी ? 'अव्यभिचारी भक्ति के द्वारा' आप में अपने स्वरुप को जानने की योग्यता आपके अंदर सृष्ट हो जाती है। भगवान कृष्ण कहते हैं। तो यहाँ तक पन्द्रहवें अध्याय की भूमिका है।  पन्द्रहवें अध्याय में जाने से पहले, चौदहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - इस प्रकार जब हम ठीक ठीक अखण्ड भाव से ईश्वर की भजना करते जायेंगे , तो हमारी जो बुद्धिदोष या दृष्टिदोष है , यह दूर होकरके हम उस ईश्वर के तात्त्विक-ज्ञान को प्राप्त करने के योग्य हो जायेंगे , ईश्वर के तात्त्विक-ज्ञान को प्राप्त करने की योग्यता हमारे अंदर उत्पन्न हो जाएगी।(21:44
      अब आगे हमलोग पन्द्रहवें अध्याय में प्रवेश करते हैं। पन्द्रहवें अध्याय के प्रारम्भ में जो पहले तीन श्लोक हैं , उसमें भगवान श्रीकृष्ण बहुत ही सुन्दर चित्र हमारे सामने रखते हैं। वो चित्र है इस पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड का, पूरे विश्व-प्रपंच का। हमको लगता है कि जो कुछ दिख रहा है - सब जगत है। तो इस जगत का स्वरुप क्या है ? आज हम सभी लोग इस जगत से इतने मोहित हैं - जो कुछ हम पंचेन्द्रियों से अनुभव कर रहे हैं , उससे हम इतने मोहित हैं , इतने प्रभावित हैं , जैसे कि हम उसके गुलाम हो गए हैं। क्यों ? क्योंकि हमको ये विश्व-प्रपंच सत्य सा लगता है। जगत के प्रति हमारी एक सत्यत्व बुद्धि है। हमने कभी प्रश्न ही नहीं किया कि क्या ये जगत सत्य अलग कुछ दूसरा भी हो सकता क्या ? साधारण व्यक्ति से -रस्ते पर चलने वाले व्यक्ति से आप पूछ लीजिये -जगत सत्य है या नहीं ? पूछिए उसको। वो तो कहेगा बिल्कुल सत्य है। वो तो हमको मूर्ख कहेगा - ऐसा प्रश्न आप करते हैं -आप मूर्ख हैं। साधारण मनुष्य यह मानकर ही चलता है कि ये जीव -जगत जैसा दिख रहा है -बिल्कुल सत्य है। और जबतक आपकी इस जगत के प्रति सत्यत्व बुद्धि है, आप अपने मन को इसके ऊपर उठा नहीं पाओगे, मन को इन्द्रिय विषयों से खींच नहीं पाओगे, और ईश्वर में लगा नहीं पाओगे। यह एक बहुत बड़ी समस्या है। अक्सर विद्यार्थी लोग प्रश्न करते हैं - मनःसंयोग करते समय भगवान में (या युवा आदर्श में) मन लग नहीं रहा है। और ये किसी एक व्यक्ति का प्रॉब्लम नहीं है - विश्व के सभी मनुष्यों की समस्या है। सार्वभौमिक समस्या है -हर जीव की समस्या है। इस समस्या के मूल में है - हमको जो भी दिखाई दे रहा है , उसके प्रति सत्यत्व बुद्धि। (हमें घड़ा-सुराही तो दीखता है 'मिट्टी' नहीं दिखती ?) जब तक आपको ऐसा लगता है कि नाम-रूप सत्य है (घड़ा-सुराही सत्य है) तो मन का ऐसा स्वभाव है कि वो जिस वस्तु को सत्य मानेगा , वो उसी वस्तु में जाकर चिपकेगा। और इसी लिए हमारा मन इस जगत की वस्तुओं से चिपका हुआ है , कि ये विश्व-प्रपंच हमको सत्य सा प्रतीत होता है। क्या हम जिस रूप में जगत को सत्य समझते हैं , वह उसी रूप में सत्य है क्या ? भगवत्तत्व ज्ञान की उतपत्ति में सबसे बड़ा बाधक क्या है ?
    पन्द्रहवें अध्याय का मुख्य विषय है - भगवत तत्व का ज्ञान। और जिसका फल क्या है ? मोक्ष ! भगवत तत्त्व ज्ञानं मोक्ष फलं ! ठीक है , लेकिन ये भगवत तत्त्व ज्ञान आएगा कहाँ से ? ईश्वर का जो यथार्थ स्वरुप है , उस स्वरूप का ज्ञान आयेगा कहाँ से।  भगवत्तत्व ज्ञान की उतपत्ति में सबसे बड़ा बाधक क्या है ? बाधक केवल एक ही है - वैराग्य का अभाव। तो भगवान श्री कृष्ण 15 वें अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में विश्वप्रपंच का चित्र इसलिए अंकित कर रहे हैं , ताकि हमारे अंदर इसके प्रति वैराग्य उत्पन्न हो। कामिनी-कांचन से अनासक्ति का भाव उत्पन्न हो। जब तक हम इस विश्वप्रपंच से आसक्त हैं , इससे चिपके हुए हैं , तब तक आप धर्म-या शिक्षा के नाम पर कुछ भी करते जाइये; हम सत्य तक पहुँच नहीं सकते हैं। क्योंकि हम जगत से चिपके हुए हैं। चिपकने का मतलब है वैराग्य का अभाव। आध्यात्मिक साधना का सबसे बड़ा बाधक है - वैराग्य का अभाव। जब वैराग्य उत्पन्न होगा , तभी आप ईश्वराभिमुख होंगे। जगत से अनासक्त हुए बगैर ईश्वर से आसक्ति या प्रेम होगा ही नहीं। इसी बात को श्रीरामकृष्ण बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं - ईश्वर के प्रति अनुराग और जगत के प्रति विराग ! अगर आपको पश्चिम की तरफ जाना हो , तो आपको पूरब की तरफ से मुख तो मोड़ना ही पड़ेगा। आप पूरब में ही चिपके रहोगे , तो पश्चिम में पहुँचोगे कैसे ? जब तक जगत के विषयों से (तीनो ऐषणाओं से) वैराग्य नहीं हो , आप कुछ भी कर लीजिये जन्म -पर जन्म बीतता जायेगा , 1000 जन्म भी बीत जायेगा , लेकिन ईश्वर का ज्ञान नहीं होगा। इसीलिए सभी महापुरुषों की वाणी में वैराग्य और त्याग का इतना महत्व है। त्याग और वैराग्य के अभाव में ही व्यक्ति अपने स्वरुप का और भगवत तत्त्व स्वरुप का ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाता है। इसी वैराग्य के महत्व को बताने के लिए पन्द्रहवें अध्याय के शुरुआत में बहुत सुंदर चित्र अंकित कर रहे हैं। इस विश्वप्रपंच का सिर्फ बौद्धिक ज्ञान भी होने से आपको जगत का मिथ्यत्व  महसूस होने लगता है, तभी आपका मन भगवान में लगना शुरू होगा। जबतक जगत से चिपके हुए भी हैं और जप-ध्यान भी करते हैं , तब तक आध्यात्मिक जीवन में प्रगति नहीं हो पाती है। ठाकुर एक बहुत सुंदर उदाहरण देते हैं - आप नाव में बैठे हों, लेकिन लंगर से बंधे नाव को आप चला रहे हो , पर जब तक उस लंगर से नाव को निकालोगे नहीं, नाव क्या आगे बढ़ेगा ? हमारी दशा बिल्कुल उसी प्रकार की है। मंत्र-दीक्षा लेने मात्र से क्या होगा ? यदि यम-नियम और वैराग्य नहीं रहे। मंत्र की अपनी शक्ति है , मंत्र-दीक्षा लेने का प्रयोजन है , लेकिन साथ-साथ विवेक और वैराग्य का अनुष्ठान हमारे जीवन में नहीं हुआ , तो हमारी हालत उसी नाविक की तरह होगी जो लंगर डालकर नाव खेता रहता हो। आसक्ति के द्वारा, मोह के द्वारा हमने जो जगत के प्रति सम्बन्ध बना लिया , वो लंगर डालकर नाव खेने जैसा है। सुंदर सुंदर रूप देखकर हमलोग मोहित हो जाते हैं, लेकिन ये जगत वैसा है क्या ? वही मोह हमारे जीवन में दुःख का कारण बन जाता है। विषयों में सुख का आभास होता है , किन्तु वो दुःख रूप ही है। दुःख और बंधन ये दो चीजें साथ-साथ चलती रहती हैं। 

ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्, अश्वत्थम्  प्राहुः अव्ययम्। 
 छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।। 
(15.1) 
यह विश्वप्रपंच कैसा है ? (35:09) - ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्' अश्वत्थम्  प्राहुः अव्ययम्' इसका हर शब्द महत्वपूर्ण है। ये विश्व कैसा है ? इसको 'अश्वत्थम्' कहा गया है - पीपल या बरगद के पेड़ को हमने देखा है। इस विश्व प्रपंच की तुलना उस उस पेड़ से हो रही है। वृक्ष की उत्पत्ति जिस प्रकार बीज से होती है, उसी प्रकार इस विश्वप्रपंच का भी एक बीज है। और शास्त्र की परिभाषा में हमने देखा था , जो वस्तु हमको इन्द्रियों से दिखाई नहीं देती, उस वस्तु से अवगत कराने वाले साधन को शास्त्र कहते हैं। 
इस 'सृष्टि के बीज' को कोई भी मनुष्य इन्द्रियों से देखा है क्या ? सृष्टि के बीज को आज तक किसी ने इन्द्रियों से देखा है क्या ? सृष्टि का बीज क्या इन्द्रिय गम्य है क्या ? उस सृष्टि के बीज का ज्ञान जिसके माध्यम से प्राप्त होता है , उसी को गुरु और शास्त्र कहा जाता है। बीज से उत्पन्न हुआ जो बरगद / पीपल का वृक्ष है -वो हमको आँखों से दिखाई देता है। हम अश्वत्थ वृक्ष को देख रहे हैं। बीज दिखाई देता है क्या ? बीज छुपा हुआ है। इसी प्रकार यह विश्व-प्रपंच हमको आँखों से सामने दिखाई दे रहा है। लेकिन इसका बीज अव्यक्त, अदृश्य है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - ये विश्वप्रपंच बिल्कुल अश्वत्थ वृक्ष के समान है। शंकराचार्य जी कहते हैं - अश्वत्थ वह है जो कल अर्थात् अगले क्षण भी पूर्ववत् स्थित नहीं रहने वाला है। जो अभी है , लेकिन अगले क्षण जो बदल गया। और इस अश्वत्थ का जो उल्टा है वो क्या है ? वो शाश्वत है ! शाश्वत का मतलब है - वह जो अविनाशी है , जो हर समय रहता है। शास्त्र में आपको हमेशा इसी शाश्वत और नश्वर का वर्णन मिलेगा। आध्यात्मिक जीवन क्या है - अश्वत्थ से शाश्वत तक की यात्रा है। आपने बृहदारण्यक उपनिषद का वो प्रसिद्द श्लोक सुना होगा - 
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय॥
(बृहदारण्यक उपनिषद् 1.3.28) सुना होगा।  हे ईश्वर! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले जाओ, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाओ, और मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाओ । तो आपको हमारे सभी शास्त्रों में ये दो चीज देखने को अवश्य मिलेगा , एक जो शाश्वत है और दूसरा जो अविनाशी है। एक नित्य है और एक अनित्य है। एक सत्य है , दूसरा सत्य सा प्रतीत होता है। हमको जगत जिस रूप में दिखाई दे रहा है , वो सत्य सा प्रतीत होता है , लेकिन वो सत्य नहीं है। सत्य न होते हुए भी जो सत्य सत्य सा प्रतीत होता है , उसीको हमलोग मिथ्या कहते हैं। लेकिन जब तक हम इसको (स्थूल देह को) सत्य समझते हैं।  तबतक हम इससे ऊपर उठ नहीं पाते हैं। यही मनुष्य जीवन की विडंबना है। 
यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये संसार बिल्कुल अश्वत्थ वृक्ष की तरह है, अर्थात शंकराचार्यजी कहते हैं कि- प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभावं। अर्थात इन्द्रियगोचर हर वस्तु हर क्षण परिवर्तित हो रहा है या नहीं?  आपका अपना शरीर , आपका अपना मन कुछ भी स्थाई है क्या ? तो वह वस्तु कहाँ है -जो इस जगत में हर समय उपस्थित है ? हम जो कुछ अनुभव कर रहे हैं वह प्रतिक्षण चला जा रहा है। इसको शंकराचार्यजी 'दृष्ट नष्ट स्वभाव' कहते हैं। हमलोग अभी एक दूसरे को देख रहे हैं , लेकिन इस देखने की प्रक्रिया में ही वो वस्तु नाश को प्राप्त हो रहा है। दर्शन क्रिया में ही , जिस चीज का दर्शन हो रहा है , वो नाश को प्राप्त हो रहा है। मोह के कारण, मिथ्या जगत में सत्यत्व बुद्धि के कारण , हम जिसको भी मेरा मानकर पकड़े हैं , वो सब चला जा रहा है। जो क्षणभंगुर है , उसी को हम सत्य समझकर पकड़े हुए हैं। जो की नाश को प्राप्त हो रहा है , आप उसको छोड़ना नहीं चाहते हो। और जब चला जाता है , तब हम रोते हैं। प्रश्न करते हैं -ईश्वर ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया ? प्रतिक्षण बदलते रहना इस 'माया सृष्टि ' का स्वभाव है। यहाँ सबकुछ जाने वाला है , इसको आप जितना पकड़ोगे , उतना दुःख पाओगे। 
अब ऐसा जो नश्वर विश्व-प्रपंच है , इसके प्रति 'राग' होना चाहिए या 'विराग' होना चाहिए ? (43: 29) थोड़ा तो राग होना चाहिए ? थोड़ा राग होना चाहिए या बिल्कुल नहीं होना चाहिए ? इस नश्वर संसार से यदि राग करोगे , उससे चिपको गे तो उसका फल एक ही है - दुःख ! पूरे भगवत गीता का भाव एक ही है। इसलिए इसको अनासक्ति योग भी कहते हैं। [ ठाकुर के शब्दों में गीता = तागी।] भगवत गीता में भगवान कृष्ण एक ही बात को बार बार दोहराते रहते हैं। संगम त्यक्त्वा,- संगम त्यक्त्वा , संगम त्यक्त्वा। हर अध्याय में यह आपको मिलेगा - हे अर्जुन , इस विश्वप्रपंच के साथ आपको कैसे व्यवहार करना है ?  संगम त्यक्त्वा,  संगम त्यक्त्वा,  संगम त्यक्त्वा -योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। 2.48।। सङ्गं त्यक्त्वा' मतलब है - अनासक्ति पूर्वक कर्म करो , चिपके बगैर। भगवत गीता का मूल सन्देश यही -है आसक्त होना मना है ! चिपकना मना है। यदि चिपकोगे तो गए ! [पहले बसों- ट्रकों में लिखा होता था - लटकले तो गेले बेटा।] यहाँ सबके साथ रहना है - किसी भी परिचित वॉट्सऐप ग्रुप में रहना है, सबके साथ डीलिंग करना है , लेकिन किसी व्यक्ति या वस्तु को पकड़ के मत रखिये। आप जितना चिपकोगे उतना कष्ट ही आपको प्राप्त होगा। इसलिए गीता का मुख्य सन्देश यही है कि इस मिथ्या जगत से चिपकना मना है। चिपकना सख्त मना है। 
      हम इस मिथ्या जगत (3K) में चिपके हुए हैं , इसलिए भगवान में मन नहीं लगता है। सभी विद्यार्थी प्रश्न करते हैं , मन पढ़ाई में एकाग्र नहीं होता है। पढ़ाई में मन नहीं लगता है।  तो कारण क्या है ? कारण एक ही है - इस मिथ्या जगत से आपका मन चिपका हुआ है। जब तक सत्य सा भासित होने वाला जगत के वस्तु और व्यक्ति में चिपक करके , मोहित होकर बैठे हुए हैं, तबतक आपका मन आपके इष्ट की ओर आपका मन जायेगा कैसे ? इसलिए व्यक्ति के जीवन में संघर्ष चलता ही रहता है। हम ध्यान के लिए नहीं बैठते हैं , हम युद्ध के लिए बैठते हैं। मन के साथ युद्ध करके हार जाते हैं , और हार करके उठ जाते हैं। रहस्य ये है कि मन जितना अनासक्त होगा , उतना सहज भाव से आपका मन ईश्वर में जाता है या नहीं ? जिस परिमाण में आपका मन अनासक्त होगा , उतने ही परिमाण में ईश्वर में मग्न होगा। अगर मन 3k में पूर्ण अनासक्त हो तो आपको समाधि से कोई रोक नहीं सकता है। मन जितना इस मिथ्या जगत से अनासक्त होगा , उतना ही मन ईश्वर में ऐसा डूबेगा , जैसे नमक का पुतला समुद्र की गहराई नापने गया था। मन विलीन हो जायेगा। यह अनुभूति की बात है। देखिये अध्यात्म कोई theory नहीं है , ऋषि वाक्यों की परीक्षा करके हम देख सकते हैं। ये सब महावाक्य अपने जीवन में Verifiable है। लेकिन मिथ्या जगत से अनासक्त होना इसकी पूर्व शर्त है। तो जबतक विषयों से वैराग्य नहीं होगा , तबतक कोई प्रगति नहीं होगी। 
      इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण पन्द्रहवें अध्याय के शुरू में ही हमारे अंदर वैराग्य उत्पन्न कर रहे हैं। क्योंकि वैराग्य के बगैर भगवत तत्त्व का ज्ञान नहीं होगा। और भगवत तत्त्व ज्ञान के बगैर मोक्ष रूपी फल प्राप्त नहीं होगा। तो मोक्ष की शुरुआत कहाँ से है ? -वैराग्य ,वैराग्य ,वैराग्य ! तो ये विश्वप्रपंच कैसा है ? ये क्षणभंगुर है -अश्वत्थ है ! ये शाश्वत नहीं है। ये जैसा दीखता है, सत्य जैसा दीखता है - वैसा नहीं है। इसका मूल उर्ध्व में है -ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्। इस विश्वप्रपंच का बीज ऊपर है। तो क्या दिशा की दृष्टि से इस संसार का मूल ऊपर की दिशा में है ? नहीं ! उस अर्थ में यहाँ नहीं कहा गया है। उर्ध्व का मतलब विश्वप्रपंच का मूल जो है , वो अदृश्य है। वह कारणात्मक मूल है , वह अव्यक्त है। इस विश्वप्रपंच की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? इस जगत का कारण क्या है ? इसका कारण है - अव्यक्त माया युक्त जो ब्रह्म है, वही इस विश्वप्रपंच का बीज है।
 
        >>इस विश्वप्रपंच का मूल बीज हमारे भीतर है !! 

       और ये बीज कहाँ है ? ये बीज हमारे भीतर है। (50:05) इस विश्वप्रपंच का जो मूल बीज है, वो आपके ह्रदय में उपस्थित है। इस विश्वप्रपंच का बीज प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में ही है, कहीं और नहीं है ! अगर इस विश्वप्रपंच के बीज को खोजना हो तो, उसको हमारे ह्रदय में ही खोजना होगा। जब आपके ह्रदय में जो कारण शरीर है, आप जब वहाँ पहुँचोगे , तो आप पूरे विश्वब्रह्माण्ड के मूल में पहुँच जाओगे। यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है , किन्तु आध्यात्मिक सच्चाई को या इस सत्य को धीरे -धीरे साधना करके ही समझा जा सकता है। यहाँ कहा गया विश्वप्रपंच का मूल उर्ध्व है। उर्ध्व का मतलब अव्यक्त है। 
     मायायुक्त ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण) जो हैं - इसका मूल बीज है , जहाँ से ये पूरे विश्वप्रपंच की उत्पत्ति होती है। वो अदृश्य है , इसलिए उसको उर्ध्व कहा गया है। बीज में से जैसे एक छोटा सा पौधा पहले अंकुरित होता है फिर तना और शाखायें निकलती हैं , उसी प्रकार यह विश्वप्रपंच भी उस बीज से अंकुरित हुआ जो अदृश्य है। और इस संसार -वृक्ष की शाखायें अधः है, अधः का मतलब है -जो व्यक्त है।  
 उर्ध्व का मतलब जो अव्यक्त है , और अधः का मतलब है जो व्यक्त है। विश्वप्रपंच व्यक्त है , इसका बीज जो है वो अव्यक्त है। अव्यक्त से इस व्यक्त विश्वप्रपंच की उत्पत्ति हुई हैं। और जो अव्यक्त होगा , जो बीज होगा वो हर समय श्रेष्ठ होगा।
      बीज श्रेष्ठ है या पेड़ श्रेष्ठ है ? क्योंकि बीज के बगैर पेड़ हो ही नहीं सकता। उर्ध्व है मतलब श्रेष्ठ है। वो पर है और जो दिखाई दे रहा है -वो अवर है। इस विश्वप्रपंच का जड़ जो है वो अव्यक्त माया युक्त ब्रह्म जो है, वो उसका बीज है। उस बीज में से पूरा ये विश्वप्रपंच अंकुरित हुआ है। अतएव इस विश्वप्रपंच का जो बीज है, जो मूल या जड़ है वो उर्ध्व है - उर्ध्व का मतलब है - जो अव्यक्त है, और शाखायें अधः हैं। तो यहाँ उर्ध्व और अधः का मतलब दिशा की दृष्टि से ऊपर ,नीचे , दाहिने , बायें कहते हैं वैसा नहीं समझना है। बीज उर्ध्व है - अर्थात अव्यक्त है और शाखायें अधः हैं - अर्थात व्यक्त हैं। यह विश्वप्रपंच व्यक्त है, लेकिन इसका बीज जो है -वो अव्यक्त है। अव्यक्त बीज से व्यक्त विश्वप्रपंच की उत्पत्ति को यहाँ बताया गया है। जो अव्यक्त होगा, जो बीज होगा - जो कारण होगा, वो कार्य से सब समय श्रेष्ठ होगा। बीज श्रेष्ठ है या पेड़ श्रेष्ठ है ? क्योंकि बीज के बगैर पेड़ हो ही नहीं सकता। इसी कारण बीज को उर्ध्व कहा गया कि वो बीज श्रेष्ठ है ,वो पर है और जो दिखाई दे रहा है -वृक्ष वो अवर है।  पेड़ जो दिखाई देता है वो निकृष्ट है, बीज जो अदृश्य है वो उत्कृष्ट है। तो उर्ध्व और अधः कहने के तात्पर्य को हमें ठीक से समझ लेना चाहिए। उर्ध्व का मतलब क्या है ? बीज उत्कृष्ट है, श्रेष्ठ है और जो पेड़ दिखाई देता है , वो निकृष्ट है, या अपकृष्ट है। भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - मायायुक्त जो अव्यक्त ब्रह्म है, वो इस विश्वप्रपंच का बीज है। और उस अव्यक्त में से निकला हुआ जो अधः शाखायें हैं, यह दृष्टिगोचर जगत व्यक्त है, जो हमको दिखाई दे रहा है। तो "ऊर्ध्व मूलम् अधः शाखम्' अश्वत्थम्" - ऐसा जो विश्वप्रपंच है -वह अश्वत्थम् है। 
   अश्वत्थम् का मतलब जो शाश्वत नहीं है। यह जगत जो दीखता है लेकिन नहीं है ! इस रहस्य को समझाने के लिए शंकराचार्यजी अपने भाष्य में चार उदाहरण देते हैं। पहला - जैसे स्वप्न ! स्वप्न वास्तविक में है क्या ? लेकिन जब तक सपना चलता है , तब तक तो है। स्वप्न देखते समय, थोड़ी देर के लिए सपना सच जैसा लगता है कि नहीं ? लेकिन सपना जब सत्य सा भाषित होता हैं, उस समय भी वास्तविक रूप में वो सत्य है क्या ? जैसे स्वप्न मिथ्या है, वैसे ही यह जाग्रत भी मिथ्या ही है।  उसी प्रकार अभी, इस समय, इस क्षण, यहाँ पर अल्मोड़ा में , इस कमरा में जो यह पाठचक्र चल रहा है, यह भी एक सपना ही चल रहा है। जितना जल्दी ये सपना टूटे तो अच्छा है। जागृत अवस्था भी एक सपना है, इसको पहचानना ही उस सपने का टूटना है। (53:53) अगर आप पहचान जाओगे कि ये सपना है , तो सपना टूट जायेगा। फिर आप इस जगत्प्रपंच रूपी सपने में फँसोगे नहीं। यह बहुत बड़ी सच्चाई है। सपना जब चलता है, तो सपना सत्य सा लगता है, लेकिन जिस वक्त वो सत्य सा लगता है ,उस वक्त भी वो सत्य नहीं है। 'वो' कुछ और है। क्रमशः हमलोग वहाँ भी आएंगे। तो शंकराचार्यजी कहते हैं - ये विश्वप्रपंच जो है, वो अश्वत्थ है - कैसे ? स्वप्नवत है -बिल्कुल सपने के समान है। सत्य सा दीखता है , लेकिन सत्य नहीं है। फिर और एक उदाहरण देते हैं। जगत मरू-मरीचिकावत है। गर्मी के दिनों में मरुभूमि में - रेगिस्तान में जिस प्रकार हमको पानी दिखाई देता है। तो रेगिस्तान में जो पानी दिखाई देता है , वहाँ पर सचमुच में पानी है क्या ? दीखता है , लेकिन है नहीं। उसी प्रकार यहाँ पर जो विश्वप्रपंच दीखता है, लेकिन है नहीं ! जैसा दीखता है, वैसा है नहीं। 
     देखिये इसी महत्वपूर्ण बिन्दु पर हमें गहराई से विचार करना है। ये हर रोज हमारे साथ होता है। हमलोग अभी जगे हुए हैं, थोड़ी देर बाद जब रात को आप नींद में सो जायेंगे तो ये सारा विश्वप्रपंच गायब हो जायेगा। कुछ और शुरू हो जायेगा, सपना में जो दिखाई देगा वो नये तरीके का विश्वब्रह्माण्ड होगा। ये हमारे साथ हर रोज चल रहा है। हमने कभी इसके बारे में सोचा नहीं है। हमने कभी इसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया है। हम लोग इसीको सत्य जैसा पकड़कर निश्चिन्त बैठे हुए हैं। स्वप्न में हमें जो जगत दिखाई देता है, थोड़ी देर के लिए वो सत्य हो जाता है। अब प्रश्न है कि इस समय जो पाठचक्र चल रहा है, ये सत्य है ? या जो स्वप्न में सम्मेलन चल रहा था -वह सत्य है ? यह जागृत अवस्था भी सत्य सा दीखता है, लेकिन जैसा दीखता है, वैसा नहीं है। इसके लिए शंकराचार्य जी अपने भाष्य में बहुत सुन्दर शब्द use करते हैं - 'महाद्भुतम अनिर्वचनीयं !' जागृत अवस्था में हम जिस विश्वप्रपंच को देख रहे हैं , ये क्या है ? हम केवल इतना ही कह सकते हैं -  'महाद्भुतम अनिर्वचनीयं !'  इस जगत के बारे में- 'महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं' इसके आलावा हम और कुछ भी नहीं कह सकते। तो जैसे ब्रह्म क्या है ? यह मुख से नहीं बताया जा सकता। उसी प्रकार इस जगत का वर्णन भी हम शब्दों में नहीं कर सकते। माया द्वारा की गयी ऐसी एक अद्भुत सृष्टि है, जिसे देखकर, जिससे सभी लोग मोहित (Hypnotized) हैं। यह माया मय जगत मृगतृष्णा, mirage, मृगमरीचिका की तरह है। जगत किस प्रकार का है ? उसका पहला उदाहरण हुआ स्वप्न के समान, दूसरा है मृग-मरीचिका के समान। चौथी तुलना में शंकराचार्य जी इस जगत को जादूगर के जादू के समान- 'माया' कहते हैं। जादूगर जब जादू दिखाता है , तब बताइये वो जादू सत्य है या मिथ्या है ? लेकिन जादू देखते समय तो थोड़ी देर के लिए तो बिल्कुल ऐसा ही दीखता है , जैसे की सत्य है। जादूगर अपनी कला के द्वारा बहुत कुछ बनाता है। उसी प्रकार जिस विश्वप्रपंच को हमलोग देख रहे हैं, यह भी एक जादूगर की जादूगरी है। 
      वो जादूगर कौन है ? यह एक प्रश्न है। वही खोज है यहाँ पर। (57:29) यह खोज है कि वह जादूगर कौन है ? और वह रहता कहाँ है ? यहाँ है , वहाँ है , या वहाँ मंदिर में है ? यह सब कल्पना है। देखिये हमलोग बहुत सूक्ष्म या सटीक 'precise' चर्चा करने जा रहे हैं। हम जिस जादूगर को ढूँढ रहे हैं, वो हमारे भीतर ही बैठे हुए हैं। वो अपना ही सत्यस्वरूप है। जब तक हम अपने सत्यस्वरूप तक नहीं पहुँचेंगे, हम यहाँ -वहाँ भटकते रहेंगे। जाइये, तीर्थाटन आदि शुरुआती दौर के लिए ठीक है। लेकिन आप जिसको ढूँढ रहे हो वो आपके हृदय के अंदर ही बैठे हुए हैं। आपके साँसों में हैं, आपसे जरा सा भी अलग नहीं हैं। जरा सा भी भिन्न नहीं है। आप यह सोच सकते हो ? हम जिसको ढूँढ रहे हैं, वो हमसे अलग नहीं है। यह क्या खेल है? बड़ा विचित्र परिस्थिति है या नहीं ?
एक अज्ञान (अविद्या-अस्मिता) का परदा है, जिसके कारण हम 'सत्य' को समझ नहीं पा रहे हैं। और हम भटक रहे हैं, यही हो रहा है। तो शंकराचार्यजी कहते हैं - स्वप्नवत, मरु-मरीचिकावत, और माया मतलब जादू के समान ! और चौथा उदाहरण देते हैं -गन्धर्वनगरी वत। वर्षा के मौसम आकाश के ऊपर बादल आ जाते हैं। और इस प्रकार से एकत्र हो जाते हैं , जिससे लगता है कि पूरा एक शहर हो वहाँ पर। ये विश्वप्रपंच भी उसी प्रकार का एक गन्धर्वनगर है, और जो अश्वत्थ है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, इस जगत-प्रपंच का मूल जो है -वो उर्ध्व है, मतलब कहीं ऊपर नहीं है। उर्ध्व का मतलब है -जो अव्यक्त है, जो दिखाई नहीं दे रहा है, जो श्रेष्ठ है। और शाखायें जो हैं वो अधः हैं।  अधः का मतलब जो नीचे हो ऐसा नहीं , अधः वो है जो व्यक्त है। जब अव्यक्त से व्यक्त की अभिव्यक्ति होती है , जैसे बीज से जब पेड़ की उत्पत्ति होती है; तो पेड़ हमें दिखाई देता है लेकिन बीज हमें दिखाई नहीं देती। इसलिए बीज श्रेष्ठ है पेड़ निकृष्ट है। बीज उत्कृष्ट है , बीज से उत्पन्न हुआ, फलस्वरूप जो विश्वप्रपंच (पेड़) है वह निकृष्ट है। क्योंकि उस बीज (कारण)  के बगैर इस विश्वप्रपंच (कार्य) का अपना कोई अस्तित्व सम्भव नहीं है। तो ये बीज के फलस्वरूप उत्पन्न जो विश्वप्रपंच वो कैसा है ?  प्राहुः अव्ययम् ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्, अश्वत्थम्  प्राहुः अव्ययम् ' कहने से मतलब है यह जगत प्रपंच अव्यय है ! अव्यय का मतलब क्या है ? जो कभी भी खत्म नहीं होगा(1:00:29
>> जब भागवत तत्व का ज्ञान होगा, तब ये सपना खत्म हो जायेगा।
     यहाँ कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पर हमलोग विचार करने जा रहे हैं। अव्यय का मतलब ये है कि ये विश्वप्रपंच चलता ही रहेगा। ये सपना तबतक चलता ही रहेगा , जब तक आपको ईश्वर-तत्व ज्ञान या, भगवत-तत्व ज्ञान जबतक आपको नहीं होगा , तब-तक यह चलता ही रहेगा। हाँ, लेकिन जिसदिन आपको भगवत तत्वज्ञान होगा , उस दिन ये सपना खत्म हो जायेगा। जबतक भगवत तत्त्व का ज्ञान नहीं होता , तब तक यह जगत (घड़ा में सत्यतत्व बुद्धि),अनवरत,अखण्ड रूप से चलता ही रहता है। ये अनादि है , अनंत चलता रहता है। 

पुनरपि जननं ,पुनरपि मरणं ,पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे खलु दुस्तारे,  कृपया पारे पाहि मुरारे॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते मरने , न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥

 ये जो जन्म-मृत्यु का चक्र है, ये अनवरत चलता ही रहेगा, जब तक आप भगवत तत्व ज्ञान को प्राप्त नहीं कर लेते हो, इसीलिए भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्। इसीलिए ईश्वरतत्त्व को जानने का प्रयास कीजिये। यही मनुष्यजीवन का मुख्य उद्देश्य है। इस ईश्वरतत्त्व को प्राप्त किये बगैर मनुष्य की गति उसी चक्र के समान होती है , जो अनवरत बस घूम रहा है , घूम रहा है ,केवल घूम रहा है। हम एक शरीर से दूसरे शरीर में, दूसरे से फिर तीसरे - इस प्रकार ये जो जन्म-मृत्यु का चक्र है - ये अनवरत अखंड रूप से चलता रहेगा। क्योंकि ये विश्वप्रपंच अव्यय है। यह संसरणं - ये संसार जो है ये अव्यय है, जब तक ईश्वर का ज्ञान नहीं हो जाता। इसके बाद वाली पंक्ति,' छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।' पर अगले सत्र में विचार करेंगे। 
अभी आप कोई प्रश्न पूछ सकते हैं। 
     प्राहु का मतलब क्या है ? प्राहु का मतलब इसको - ऐसा , अव्यय कहते हैं। महापुरुषों ने इस अश्वत्थ विश्वप्रपंच को अव्यय कहा है। अव्यय का मतलब ये तबतक अनवरत चलता रहेगा, जब तक हमें भगवत तत्त्व-ज्ञान नहीं हो जाता। उर्ध्व का मतलब है- बीज जो दिखाई नहीं देता है। उसी बीज को तो खोजना है। हम लोग तो बस पेड़ में व्यस्त हैं। हमलोग इस पेड़ में लगे हुए फलों को खाने में व्यस्त है। (1:03:49)  
      मुण्डक उपनिषद में आपने दो पक्षियों का वर्णन पढ़ा होगा ? -द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । दो सुन्दर पक्षी एक ही वृक्ष पर रहते हैं। आप कल्पना कीजिये कि वृक्ष के एकदम ऊपरी स्तर पर, एक पक्षी बैठा हुआ है -जो बिल्कुल अपने आनंद में मग्न होकर बैठा है। अर्थात आनंदविभोर होकर बैठा है , उसके अंदर कोई चंचलता नहीं है , बिल्कुल शान्त होकर के बैठा है। और उसी वृक्ष में, बिल्कुल नीचे एक दूसरा पक्षी है , जो कि अत्यंत ही चंचल है, जैसे कि हमलोग हैं। जो पाँच मिनट भी चुप नहीं बैठ सकते हैं। पाँच मिनट तो बहुत दूर की बात है, एक मिनट भी चुप नहीं बैठ सकते हैं। क्यों ? क्योंकि चंचलता हमारा स्वभाव है। इस देह-इन्द्रिय संघात * का स्वभाव ही चंचलता है। (cluster/fascicule/ फैसक्यूल संघात : गुच्छा या समुच्य) एक मिनट हम चुप नहीं बैठ सकते हैं। क्यों नहीं बैठ सकते हैं ? उसके मूल में है यही अज्ञान (अविद्या-अस्मिता) है। अज्ञान से उत्पन्न कामनायें हैं। (1:05:08) जब तक अज्ञान से उत्पन्न कामनायें हमारे अंदर हैं, तब तक कोई भी व्यक्ति चुप नहीं बैठ सकता। तो जो नीचे बैठा पक्षी है -वो क्या कर रहा है ? वह कभी इस डाल पर जाता है , वहां एक फल खाता है। उस डाल से उड़करके दूसरे डाल पर जाता है , वहाँ कुछ फल खाता है। इस प्रकार वो फल खाने में ही मग्न है। कभी कुछ मीठा फल खा लिया तो उसको बड़ा अच्छा लगता है। फिर कुछ कड़वे फल खा लिए तो दुःखी हो जाता है। जैसे ही उसको दुःख होता है तो वो ऊपर की ओर देखता है। तो देखता है कि वो (साक्षी -ब्रह्म) तो बड़े आनंद में बैठा हुआ है। तब वह उस ऊपर बैठे हुए पक्षी के पास जाने का प्रयास करता है। ये बिल्कुल हमारी कहानी है , हमारे जीवन में भी ऐसे ही होता है कि नहीं ? जब भी थोड़ा दुःख हो गया , कुछ चोट लग गया हम तुरंत भगवान के पास भागते हैं। जब तक हम मीठा फल खाते रहते हैं , तब तक भगवान याद नहीं आते हैं। तबतक हम व्यस्त हैं। यहाँ पर इस संसार से मोहित होकर के, यहाँ दीखने वाले विभिन्न फलों को खाने में हमलोग मग्न हैं।  हैं कि नहीं ? बाहर दृष्टि डालिये तो सभी लोग दौड़ रहे हैं। छोटे कस्बों में उतनी भागदौड़ नहीं हो, लेकिन मेट्रो शहरों में -आप दिल्ली जाइये , बम्बई जाइये सभी लोग दौड़ रहे हैं। कभी कभी मन में आता है , इनसे पूछूँ भाई तुम कहाँ दौड़ रहे हो ? बस लगे हुए हैं -दौड़ रहे हैं ,दौड़ रहे हैं , दौड़ रहे हैं, दिन-रात दौड़ रहे हैं।  दौड़ -दौड़ के थक जाते हैं , सो जाते हैं। नींद से उठते ही दौड़ना शुरू कर देते हैं। फिर से वही क्रम चलता रहता है। इसी प्रकार जन्म-जन्मान्तर चलता रहता है। क्यों ? क्योंकि व्यक्ति जबतक अपने सत्य स्वरूप को नहीं जानेगा, तबतक व्यक्ति की गति यही होती है। हम इस बात को समझते नहीं हैं। तो इसी प्रकार संसार का जो मूल है - संसार का जो कारण है , संसार का जो बीज है - वो खोज का विषय है। ये पाठचक्र और कुछ नहीं है , ये सत्य की खोज है।  उसी ईश्वर -तत्व को खोजने के लिए है। इसको आप भावुक होकर के देख सकते हो। या  भावुकता के साथ थोड़ा सा विवेक को लाना जरुरी है। ये सत्य की खोज है। याद रखिये। आध्यात्मिक जीवन जो है , वो सत्य की खोज है। सत्यान्वेषण है , ये सत्य का अन्वेषण है। यहाँ पर सत्य का अन्वेषण ही चल रहा है।  आप भावुक होकरके ईश्वर को इस रूप में देखिये , उस रूप में देखिये, अच्छी बात है। लेकिन सच्चाई में है कि हम जिस ईश्वर की कल्पना कर रहे हैं, वो आपका ही सत्य स्वरुप है। आप वही हो , आप उससे भिन्न नहीं हो। हम सब वही हैं। यह सत्य की खोज है। आप देखिएगा भगवत गीता में भगवान कृष्ण हमें धीरे धीरे उसी ओर ले जायेंगे। उसके पहले हमें वे इस विश्वप्रपंच से विमुख करवा रहे हैं। वैराग्य हेतु है। ताकि हमारे अंदर थोड़ा सा वैराग्य उत्पन्न हो। क्योंकि जब तक वैराग्य उत्पन्न नहीं होगा , तब तक हमारा मन कभी ईश्वराभिमुख नहीं होगा। ईश्वर की ओर कभी वो बढ़ नहीं पायेगा। (1:08:01) इसलिए हमारे भीतर वैराग्य उत्पन्न करने हेतु भगवान ने हमारे सामने विश्व-प्रपंच का - ऐसा दृश्य- ऊर्ध्व मूलम् अधः शाखम्, अश्वत्थम् प्राहुः अव्ययम् ' अंकित किया है। 
बीज और फल, बीज और वृक्ष में पहले कौन हुआ ? इसी को माया कहते हैं। इसकी शुरुआत कहाँ से है ? आप कहोगे पेड़ के बगैर बीज नहीं होगा। तो बीज के बगैर पेड़ भी नहीं होगा। यही महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं माया है। Maya is mysterious- माया रहस्यमय है-महा अद्भुतं अनिर्वचनीयं ! इसके बारे में कुछ कह नहीं सकते , लेकिन एक ऐसी शक्ति है , जो इस अद्भुत दृश्य को खड़ी कर देती ही। (चंद्रग्रहण -सुर्यग्रगण नियत तिथि और समय पर ही होगा।) और ये शक्ति किसकी शक्ति है ? ब्रह्म की अपनी ही शक्ति है। इसको शकराचार्य जी परमेश शक्ति कहते हैं। परमेश्वर की शक्ति है -इस माया शक्ति की हम क्या वर्णन कर सकते हैं। ये सत्य है -ऐसा भी नहीं कह सकते , तो यह झूठ है ? ऐसा भी नहीं कह सकते। ये ब्रह्म से भिन्न है , ऐसा भी नहीं कह सकते। ये ब्रह्म से अभिन्न है ? ऐसा भी नहीं कह सकते। तो हम इसके बारे में क्या कह सकते हैं ? महाद्भुतम -अनिर्वचनीयं। इसके बारे में हम इतना ही कह सकते हैं कि, महा अद्भुत माया का एक खेल चल रहा है, जो न होते हुए भी होता हुआ सा दिखाई देता है। लेकिन ये सारी बातें बुद्धि से समझने वाली बात नहीं है। आप कितना भी बुद्धि लगा लीजिये। कहीं नहीं पहुँचोगे आप। यहाँ पर समर्पण और भक्ति आनी चाहिए ! (1:09:59) ईश्वर के चरणों में जब हम समर्पित (Dedicated) होते हैं। यह माया शक्ति किसकी शक्ति है ? उसी परब्रह्म की अपनी शक्ति है। उसमें जब तक हम अपने आप को परिपूर्ण रूप से समर्पित नहीं करते , तब तक बुद्धि से आप कितना भी समझने का प्रयास कर लीजिये, नहीं जान पाएंगे। इसीलिए इसको अतीन्द्रिय कहा गया है न । शास्त्र की परिभाषा में ही हमने देखा था - शास्त्र वो है , जो हमको इन्द्रियों से समझ में नहीं आता, उसको जो हमें समझा देती है , उसको शास्त्र कहते हैं। हमको कहीं न कहीं बुद्धि के दायरे से हटकर के , सपर्पण - अहंकार का समर्पण ! (1:10:33) अहंकार का समर्पण यही हमारी प्राथमिक साधना हो जाती है ! तत्व क्या है ? तत्त्व वो है -एक चीज जो जैसा है - उसका जो असली स्वरुप है। उस असली स्वरुप में ही उसका ज्ञान प्राप्त करना। (जैसे घड़ा क्या है ? मिट्टी के सिवा कुछ नहीं है।) वो तत्वज्ञान हुआ। आप उस वस्तु के बारे में कुछ कल्पना कर सकते हो। उस वस्तु की कल्पना एक रूप में कर सकते हो , या दूसरे रूप में कर सकते हो। या अनंत रूपों में उसकी कल्पना हो सकती है। कल्पना तो कल्पना ही होती है, लेकिन जो तत्त्व है -वो कल्पनाओं के परे वह वस्तु जैसा है, ठीक वैसा ही उसका ज्ञान प्राप्त करवा देना- यही सभी शास्त्रों का लक्ष्य है। उपनिषद के महावाक्य तत्वज्ञान की बात करते हैं। भगवतगीता भी तत्वज्ञान की बात करती है। 'ईश्वर को तत्वतः जान लेना' यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण यही बात कई बार कहते हैं। जो मुझे तत्वतः जानता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता , वो मुझे ही प्राप्त हो जाता है।  
जन्म कर्म  च मे दिव्यम् एवम् यः वेत्ति तत्त्वतः। 
 त्यक्त्वा देहम् पुनः जन्म नः एति माम् एति सः अर्जुन।।
(4:9) 

हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है, इस प्रकार जो पुरुष तत्त्वत:  जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता;  वह मुझे ही प्राप्त होता है, अर्थात मुक्त हो जाता है।। 
तत्वतः शब्द भगवत गीता में कितनी ही बार आया है। भगवान श्री कृष्ण सब समय अपनी बात कहते हैं - तुम मेरी शरण में आओ ! तुम मेरे पास आओ। यह सुनते ही हम तुरंत उनका रूप क्या सोच लेते हैं - वही बाँसुरी , मोरमुकुट धारी ! लेकिन भगवान श्री कृष्ण गीता में जब भी अपनी बात कर रहे हैं - मामेकं शरणं व्रज ! तो वे देह नहीं आत्मा की बात कर रहे हैं, परब्रह्म की बात कर रहे हैं। (1:12:35) उस तत्व की बात कर रहे हैं , जो हमारा भी सत्य स्वरुप है। " ईश्वर का तात्विक ज्ञान और आपका जो सत्य स्वरुप है" - यह दो अलग अलग चीजें नहीं है। इस बात को हमें ठीक से समझ लेनी चाहिए। हमारा जो अपना सत्य-स्वरुप है वह ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) के स्वरुप के साथ एक ही है। लेकिन यह सच्चाई भी हमें साधना से ही समझ में आती है। राग और वैराग्य क्या है ? राग का मतलब क्या है ? आप किसी शरीर पर मोहित हो जाते हो। राग कहते हैं किसी शरीर के प्रति आसक्ति को , किसी भी बच्चा -जवान के शरीर में आकर्षण या  attachment राग है। राग के विपरीत है विराग। वैराग्य शब्द की उत्पत्ति विराग शब्द से हुई है। सरल भाषा में राग का मतलब है - किसी भी शरीर में चिपक जाना। राग को कल्पना में नहीं  व्यवहार में देखिये कि आप कैसे किसी में चिपक जाते हैं। अपने बच्चों से , पति पत्नी से , पत्नी पति से , संसार के धन सम्पत्ति से, नाम-यश से - इन सभी चीजों से कैसे हम चिपक जाते हैं ? चिपक गए तो उससे फिर हम अलग नहीं हो पाते हैं। इसी चिपकाओ को राग कहते हैं। हम उस चीज को छोड़ना नहीं चाहते हैं। अब इसका उल्टा है विराग। 'Absence of Rag' - राग का बिल्कुल अभाव। आप सभी के साथ हो लेकिन कहीं भी चिपके नहीं हो। यही सुंदर ढंग से जीवन जीने की कला है। This is the art of living !
 अब वैराग्य का मतलब क्या है ? क्या आप अपनी पत्नी को छोड़ दोगे ? (1:14:38) ऐसी गल्ती नहीं कीजियेगा। बच्चों को छोड़ देना है क्या ? वैराग्य का अर्थ यह नहीं है। सबके साथ रहना है , लेकिन किसी के भी साथ चिपकना नहीं है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही 'art of living' सिखा रहे हैं। अर्जुन तो सब कुछ छोड़ करके जाना चाहता था। भागना चाहता था। कृष्ण कहते हैं -मूर्ख है ? कहाँ भागेगा तू ? सबके साथ रहना है , लेकिन कहीं चिपकना नहीं है। और वहाँ पर भगवान कृष्ण कितनी सुंदर बात कहते हैं ? 

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।।

।।5.10।। जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है,  वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता।। 
जैसे कमल का जो फूल है , उसके जो पत्ते हैं , वो बिल्कुल पानी में हैं। पानी से भाग नहीं रहा है। लेकिन वो पानी जो है वो पत्तों से चिपक नहीं सकता। न वो पत्ता पानी से चिपकता है। थोड़ा सा उठा लीजिये सारा पानी गिर जायेगा। यही जीने की कला है। इसलिए कहीं भागना नहीं है , कहीं दौड़ना नहीं है। लेकिन चिपकना नहीं है , सबके साथ रहना है। सबकी सेवा करनी है। सबकी देखभाल करनी है। लेकिन जानना है कि ये सब दीखता है , लेकिन वास्तविक में है नहीं। सत्य वस्तु एक ही है और वो है ईश्वर। ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी सत्य नहीं है। और उस ईश्वर की खोज में हम अपने जीवन को लगाएं। यह हमारे जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए। एक बहुत सुंदर प्रश्न आया - क्या बीज और वृक्ष दो अलग अलग चीजें हैं ? आप जिसको विश्वप्रपंच कह रहे हो, इसका बीज क्या है ? ईश्वर ही है ! तो ये विश्वप्रपंच क्या है ? इसके सत्य स्वरुप में देखो तो ईश्वर ही है। आप जिसको पेड़ कह रहे हो।  वो पेड़ क्या है ? बीज ही है। बीज का जो व्यक्त रूप है , वो वृक्ष है। और वृक्ष का जो अव्यक्त रूप है , वो बीज है। बीज के व्यक्त रूप को हमलोग वृक्ष कहते हैं। और वृक्ष का जो अव्यक्त रूप है, उसको बीज कहते हैं। बीज और वृक्ष दो अलग चीजें हैं क्या ? वृक्ष के रूप में बीज ही है। (जगत के रूप में ब्रह्म ही है।) वह बीजात्मक ईश्वर ही है इस विश्वप्रपंच के रूप में। यह ज्ञान जिस दिन हो जायेगा हम मुक्त हो जायेंगे। विश्वप्रपंच कहाँ  है? अज्ञान में हमको लगता है कि जैसे विश्वप्रपंच है , जगत है। जिस दिन आप जान जाओगे वो ईश्वर ही बीजात्मक है , वही इस विश्वप्रपंच के रूप में है। जिस दिन हमें यह ज्ञान प्राप्त होगा , उस दिन हम मुक्त हो जायेंगे। तो यही रुक जाते हैं। ॐ शांति ! 
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   आचार्य शंकर का अद्वैत वेदांत : माया

आचार्य शंकर ने परमेश शक्ति - माया के लिए अव्यक्त, अविद्या , अध्यास , अध्यारोप , भ्रान्ति, विवर्त, भ्रम, नाम-रूप, मूल-प्रकृति आदि शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ मे किया है। 

>>माया रहती कहाँ है ? ( माया का आश्रय स्थान ):

     आचार्य शंकर के अनुसार माया ब्रम्ह में निवास करती है। माया का आश्रय ब्रह्म है फिर भी  ब्रह्म माया से प्रभावित नहीं होता। (जिस प्रकार जादूगर जादू की प्रवीणता से स्वयं प्रभावित नहीं होता।) ब्रह्म अनादि है उसी प्रकार उसमे निवास करने वाली माया भी अनादि है। दोनो में तादात्म्य सम्बन्ध है। माया ब्रह्म की शक्ति है जिसके आधार पर वह विश्व का निर्माण करता है। माया के कारण हि निष्क्रीय ब्रह्म सक्रीय हो जाता है। माया सहित ब्रह्म हि ईश्वर है। 
सांख्य दर्शन की प्रकृति के समान हि माया भी त्रिगुणात्मक, भौतिक ,अचेतन एवँ जड़ है। माया मोक्ष प्राप्ति मे बाधक है। आचार्य शंकर के अनुसार मोक्ष प्राप्ति तभी संभव हो सकती है जब अविद्या (अस्मिता) का जो कि माया का हि रूप है अंत हो जाए।  आत्मा मुक्त है पर वह अविद्या के कारण वह खुद को बंधन ग्रस्त पाती है। बंधन ग्रस्त हो जाती है,माया परतंत्र है। ( जबकी सांख्य की प्रकृति स्वतंत्र है।)

माया के कार्य:  माया के दो कार्य हैं ..

१.आवरण (concealment ): माया के कारण वस्तु पर आवरण / पर्दा पड़ जाता है। माया (काली माता) वस्तु (शिव) के वास्तविक स्वरुप को ढँक देती है। जिस प्रकार रस्सी मे सर्प का भ्रम होने पर, सर्प रस्सी के स्वरुप पर पर्दा डालने का कार्य करता है। यह माया का निषेधात्मक कार्य है। 

२. विक्षेप (projection) : माया सत्य के स्थान पर दूसरी वस्तु को उपस्थित करती है। माया का यह भावात्मक कार्य विक्षेप कहलाता है। जैसे रस्सी के स्थान पर सर्प को लाना। माया अपने आवरण शक्ति की वजह से ब्रह्म को ढँक लेती है। और प्रक्षेप शक्ति के कारण उसके स्थान पर नाना रूपात्मक जगत की प्रतीति कराती है। सत्य पर पर्दा डालना और असत्य को प्रस्थापित करना माया के दो मुख्य कार्य हैं। 

माया की विशेषताएं :

1. माया अध्यास ( superimposition) रूप है। जहाँ जो वस्तु नहीं है वहाँ उस वस्तु को कल्पित करना अध्यास कहा जाता है। जिस प्रकार रस्सी मे साँप का आरोपण होता है ..उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म (परदा) में जगत अध्यसित हो जाता है। 

2. माया ब्रह्म का विवर्त मात्र है, जो व्यावहारिक जगत रूप में दिख पड़ता है। 

3. माया ब्रह्म की शक्ति है जिसके आधार पर वह नाना रूपात्मक जगत का खेल प्रदर्शन करता है। 

4.माया महाद्भुत और अनिर्वचनीय है (क्योकि  माया ना हि सत् है ना हि असत् ना हि दोनो !)

5.माया का आश्रय स्थल ब्रह्म है। परन्तु ब्रह्म माया की अपूर्णता से अछूता रहता है। 

6. माया अस्थायी है ..इसका अंत ज्ञान से हो जाता है जैसे ज्ञान होते हि / प्रकाश आते हि ..सर्प का अंत हो जाता है और मात्र रस्सी शेष रह जाता है। 

7. माया अव्यक्त और भौतिक है। 

8. माया अनादि है। उसी से जगत की सृष्टि होती है। ईश्वर की शक्ति होने से माया ईश्वर के समान अनादि है।  
9. माया भावरूप है (निषेधात्मक नहीं ) क्योकि माया के द्वारा हि ब्रह्म सम्पूर्ण विश्व का प्रदर्शन करता है। माया हि विश्व को प्रस्थापित करती है।
    
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी/ 
https://pandyamasters.blogspot.com/2012/07/blog-post_05.html
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द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥
          - मुण्डकोपनिषद् ३.१.१
यह मंत्र उपनिषद् के सबसे सुन्दर और गूढ़ प्रतीकों में से एक है। इसमें दो पक्षियों के माध्यम से जीव और ईश्वर — आत्मा और परमात्मा — के सम्बन्ध की व्याख्या की गई है। वृक्ष पर बैठे दो समान, सखा-सदृश पक्षी, वस्तुतः प्रतीक हैं — एक भोगी जीव का, दूसरा साक्षी ब्रह्म का। भगवान शंकराचार्य इस मंत्र की व्याख्या करते हुए दिखाते हैं कि यह द्वैत केवल प्रतीत है; तात्त्विक रूप में दोनों एक ही ब्रह्मस्वरूप हैं।

आदिगुरु शंकराचार्य कहते हैं कि “द्वा सुपर्णा” — ये दो पक्षी एक ही चेतन तत्त्व के दो उपाधिसंवलित रूप हैं। एक जीव है, जो वृक्ष रूपी शरीर में कर्मफल का पिप्पल (स्वाद) लेता है — “पिप्पलं स्वाद्वत्ति”; दूसरा ईश्वर है, जो साक्षीभाव से देखते भर हैं — “अनश्नन् अभिचाकशीति”।

ईश्वर भोग में लिप्त नहीं, केवल ज्ञानमात्र स्वरूप हैं; जीव अविद्या के कारण भोग में रत है, और सुख-दु:ख में फँसा हुआ है। किन्तु शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि यह भिन्नता भी माया-जन्म है। वास्तव में यह जीव भी वही ब्रह्म है, जो अज्ञानवश अपने सत्य स्वरूप को भूलकर देहात्मबुद्धि में फँस गया है।

इस मंत्र में वृक्ष है — शरीर, एक पक्षी है जीव, दूसरा ईश्वर या साक्षी आत्मा। किन्तु यह द्वैत प्रतीत मात्र है। अद्वैत वेदान्त कहता है — जब अज्ञान हटता है, तब ज्ञानी देखता है कि जो साक्षी था, वही मैं हूँ — सोऽहम्।

ईश्वर और जीव के बीच कोई वस्तुगत भिन्नता नहीं है — केवल उपाधिभेद है। एक ही सूर्य जल में अनेक रूपों में प्रतिबिम्बित हो, ऐसा प्रतीत होता है, पर वह सूर्य तो एक ही है — यही शंकर भाष्य का निष्कर्ष है।

“द्वा सुपर्णा” मंत्र द्वैत के अनुभव से अद्वैत की यात्रा का संकेत है। जो पहले भोगी और भोक्ता प्रतीत होता है, वही ज्ञान होने पर ज्ञाता और ब्रह्म रूप में स्थित हो जाता है। शंकराचार्य की दृष्टि में यह उपनिषद् का प्रतीकात्मक वर्णन आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया है — अविद्या से विद्या की ओर, जीवभाव से ब्रह्मभाव की ओर।

[Swami Avdheshanand
@AvdheshanandG ] 
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'मैं कौन हूँ- का विवेक' जाग्रत करना , अर्थात 'मुझ' अमुक नाम-रूप वाले जीव का परमेश्वर, परब्रह्म के साथ क्या सम्बन्ध है , इसको अनुभव करना :

(Session-2)


Purushottama Yoga of Bhagavad Gita by Swami Shuddhidananda (Session-2)

जीते जी (while alive) - 'अर्थात इसी शरीर में रहते हुए', इस बात अपने अनुभव से जान लेना कि 'मुझ' अमुक नाम -रूप वाले जीव का परमेश्वर , परब्रह्म (सच्चिदानन्द) के साथ क्या सम्बन्ध है ? वास्तव में मैं कौन हूँ ? Who am I? यदि यह प्रयत्न हम नहीं करते हैं , तो हमारे शास्त्रों के अनुसार यह दुर्भाग्य पूर्ण है। क्योंकि सभी प्राणियों में मनुष्य ही एक मात्र ऐसा जीव है, जो इसको (इस नित्य-अनित्य विवेक को) कर सकता है।  


लब्ध्वा कथञ्चिन्नरजन्म दुर्लभं, 
तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम् ।
यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढधीः,
           स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसङ्ग्रहात् ॥4॥

{लब्ध्वा कथञ्चित् नर-जन्म दुर्लभम्, 
तत्र अपि पुंस्त्वम् श्रुति-पार-दर्शनम्। 
 यः स्व आत्म -मुक्तौ  न यतेत मूढ-धीः,
सः हि आत्म-हा स्वम् विनिहन्ति असद्-संग ग्रहात् ।

इतः को न्वस्ति मूढात्मा,
 यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति ।
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य,
 तत्रापि पौरुषम् ॥5॥ 

{इतः को नु अस्ति मूढात्मा, 
यः तु  स्वार्थे प्रमाद्यति। 
दुर्लभम् मानुषम् देहम् प्राप्य,
तत्र अपि पौरुषम्।।}   

देव दुर्लभ मनुष्य शरीर में जन्म लेने के बाद भी अगर कोई व्यक्ति इस सत्य को, कि ~ " वास्तव में मैं कौन हूँ ?  Who am I? अमुक नाम-रूप वाले 'मुझ' विवेकी 'जीव' (मनुष्य) का परमेश्वर, परब्रह्म (सच्चिदानन्द) के साथ (मेरा) क्या सम्बन्ध है ? " अगर कोई व्यक्ति इस 'सत्य' को खोजने में अपने जीवन को समर्पित न करे; तो यह आत्महत्या करने के समान है। [देव दुर्लभ मनुष्य शरीर, उसके साथ पौरुष अर्थात 'Manliness' - अर्थात इन्द्रियातीत सत्य को जानने का साहस, दृढ़ संकल्प और धैर्य, पुंस्त्वम् -पुरुषत्व या पौरुषम्; 'पौरुष'-Manliness : अर्थात इन्द्रियातीत सत्य को जानने का साहस, दृढ़ संकल्प और धैर्य ! इसके साथ - साथ ही, श्रीरामकृष्ण- विवेकानन्द (गुरु-शिष्य परम्परा) में गुरु और शास्त्र (वेदों और उपनिषदों) में प्रतिपादित आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध की शास्त्रीय समझ भी यदि मिल जाए तो यह अत्यंत दुर्लभ संयोग है। ये तीनों दुर्लभ संयोग मिल जाने के बाद भी यदि कोई व्यक्ति- परमेश्वर, परब्रह्म (सच्चिदानन्द) के साथ (मेरा) क्या सम्बन्ध है ? "~  इस 'सत्य' को खोजने में अपने जीवन को समर्पित न करे; तो यह आत्महत्या करने के समान है। इसलिए विवेकचूड़ामणि के 5 वें श्लोक में शंकराचार्यजी कहते हैं -"दुर्लभम् मानुषम् देहम् प्राप्य,तत्र अपि पौरुषम् " अर्थात देव दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पौरुष Manliness, अर्थात इन्द्रियातीत सत्य को जानने का साहस, दृढ़संकल्प और धैर्य  को पाकर भी अगर कोई व्यक्ति स्वार्थ-साधन में (ईश्वर के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है , इसे जान लेने में) प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ माने मूर्ख व्यक्ति और कौन होगा ? दादा कहते थे - स्वामी विवेकानन्द ने यह महावाक्य- " पौरुष मेरा नया महावाक्य है!" 'Manliness is my new gospel!' विवेक-चूड़ामणि के इसी श्लोक से लिया था! यह दोनों श्लोक विवेकचूडामणि शास्त्र  (शंकराचार्य कृत) का चौथा और पाँचवाँ श्लोक है, जो मनुष्य जन्म की महत्ता और मैं कौन हूँ ? यानि अपने 'सत्य' स्वरूप को जानने के प्रयास की अनिवार्यता को स्पष्ट करता है। इसमें आदि शंकराचार्य मनुष्य को चेतावनी देते हैं कि यह जीवन अत्यंत दुर्लभ अवसर है, जिसे व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए।] 
ऐसे विवेक चूड़ामणि में कहा गया है। आत्महत्या का मतलब क्या है ? (2:07) 'शरीर का मर जाना '- यह मृत्यु नहीं है ! इन्द्रियातीत सत्य को न जानना ही मृत्यु है ! जब तक हम 'उस सत्य को' नहीं जानते हैं , तब-तक हम सब मृत्यु ग्रस्त हैं। और यह जो संसार में जीवन-मरण का चक्र है , ये अनवरत चलता रहेगा। इसलिए भगवान श्री कृष्ण गीता के पन्द्रहवें अध्याय के शुरुआती श्लोकों में हमारे अंदर 'विवेक' और 'वैराग्य' को उत्पन्न करने के लिए , इस विश्वप्रपंच का स्वरुप क्या है , यह हमें समझा रहे हैं। हमको ये समझना यह है कि यह जो विश्व-ब्रह्माण्ड है, अश्वत्थ वृक्ष के समान है, और यह शाश्वत नहीं है। ये विश्व-ब्रह्माण्ड हमको सत्य सा प्रतीत हो रहा है -लेकिन सत्य नहीं है। (सूर्योदय-सूर्यास्त, चंद्र-ग्रहण , सूर्य -ग्रहण निश्चित समय और तिथि पर हो रहे हों तब भी ये सत्य नहीं हैं !!???) ये विद्यमान सा लग रहा है , किन्तु वास्तव में विद्यमान नहीं है। जगत के रूप में कुछ और ही यहाँ पर विद्यमान है। क्या विद्यमान है ? यही खोज का विषय है(3:14) हमको लगता है यहाँ पर विश्व-ब्रह्माण्ड विद्यमान है , शास्त्र (और गुरु) कहते हैं, कि ईश्वर मात्र ही विद्यमान हैजगत को देखने के दो पक्ष हैं। हमको लगता है -यहाँ जीव है, विश्वब्रह्माण्ड है। शास्त्र और गुरु कहते हैं - कहाँ जीव है ? कहाँ विश्व-ब्रह्माण्ड है ? यहाँ एक ईश्वर से अतिरिक्त दूसरा कुछ है ही नहीं। तो हम समझ सकते हैं कि इस जीव-जगत के बारे में हमारा जो आज का बोध है, वो सत्य से कितना विपरीत है ? दुबारा सुन लीजिये। अपने विषय में - मैं कौन हूँ ? इस विषय में -(अनित्य ,नश्वर, M/F शरीर मात्र हम हैं?) हमारा जो आज का बोध है -और सामने इस विश्व-ब्रह्माण्ड को जैसा देख रहे हैं, इस विश्व-ब्रह्माण्ड के विषय में आज हमारी जो धारणा है। ये सच्चाई से कितना कोसों-कोस दूर है। यही मनुष्य जीवन की विडंबना है, और हम मिथ्या जगत में फँसे हुए हैं। इस जगत के (इन्द्रिय विषयों) प्रति सत्यत्व बुद्धि से ऊपर उठे बगैर कोई व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता।  
     इसीलिए हमारे भीतर विवेक-वैराग्य जाग्रत करने हेतु भगवान श्रीकृष्ण पहले इस सत्य जैसा प्रतीत होने वाले विश्व-प्रपंच के बारे में हमें यह बता रहे हैं, बच्चों जान लो कि, यह जो विश्व-ब्रह्माण्ड दिख रहा है, यह शाश्वत नहीं है - ये अश्वत्थ है ! यह 'प्रतिक्षण अन्यथा स्वभाव' - बदलने वाला है। आपके देखते -देखते ही हर वस्तु नाश को प्राप्त हो रही है। कुछ भी आप पकड़ के नहीं रख सकते हो। कोई आज तक जगत को प्राप्त करके तृप्त नहीं हो सका है। तो पन्द्रहवें अध्याय प्रथम श्लोक के प्रथम पंक्ति में हमने देखा था कि , ये जगत  -"ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्, अश्वत्थम्  प्राहुः अव्ययम्।"  छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।। (15.1) 
    'ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम् ' में 'ऊर्ध्वमूलम् कहने का तात्पर्य' दिशा की दृष्टि से ऊपर नहीं,बल्कि  जो परब्रह्म हमारे ह्रदय में 'अव्यक्त' रूप से बैठा है। वो अव्यक्त है, वो बीज है, वो श्रेष्ठ है। इस विश्व-ब्रह्माण्ड रूपी वृक्ष का जो बीज है, वह अव्यक्त है। और जो अव्यक्त होगा वो श्रेष्ठ होगा। जो व्यक्त है वो अपकृष्ट है। जो पेड़ दीखता है , वह उस बीज में से उत्पन्न हुआ है जो नहीं दीखता है। तो ऐसा यह ऊर्ध्वमूल और अधः शाख रूपी यह विश्व-प्रपंच है। और अश्वत्थ है - मतलब शाश्वत नहीं है। और इसको 'प्राहुः अव्ययम्' - अव्ययं इसलिए कहा गया है, कि ये तब तक ये अनवरत चलता ही रहेगा जब तक जीव ईश्वर को या परब्रह्म के तत्वज्ञान को अनुभव नहीं करता। -इसीलिए अव्ययं - तब तक ये खत्म नहीं होगा। 
अब दूसरी पंक्ति में कहते हैं - " छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।" कोई भी वृक्ष जीवित कैसे रहता है ? वृक्ष अपने पत्तों के कारण जीवित रहता है। ये 'pure science' है , हम जानते हैं कि वृक्ष अपने पत्तों के द्वारा ही साँसे लेता है। इसको हमलोग विज्ञान में प्रकाश-संश्लेषण या 'Photo-synthesis' कहते हैं। वृक्ष पत्तो से साँसे लेता है और वो जीवित रहता है। उसी प्रकार ये विश्व-ब्रह्माण्ड रूपी वृक्ष , ये कैसे जीवित है ? इसके पत्ते कौन से हैं ? छन्द- छन्दांसि यस्य पर्णानि। इसके 'पर्ण ' यानि पत्ते कौन से हैं ? छन्द का मतलब यहाँ क्या है ? वेद ! आप सोचेंगे  इस जगत्प्रपंच के पत्ते 'वेद' कैसे हुए ? यहाँ पर वेद का मतलब है कर्म, कर्मकाण्ड ! यहाँ पर जीव जैसे कर्म करता है , वो कर्म उसी पत्ते के समान है, जिस पत्ते के कारण वृक्ष जीवित रहता है। उसी प्रकार हमारा जो कर्म है, वही इस संसार गति को चलाये रखता है। व्यक्ति जैसे कर्म करता है, वैसे फल पाता है। उस फल को पाने के लिए दुबारा और कर्म करता है। और फल पाता है , तो यह जो कर्म और उस कर्म का फल पाने जो चक्र है, इसी के कारण यह संसार-वृक्ष  जीवित है। यह प्रतिष्ठित है। यह चलता रहता है। जिसप्रकार वृक्ष जीवित रहता है और फलता है , फूलता है। उसी प्रकार यह विश्वप्रपंच भी तब- तक फलता फूलता रहेगा, जब तक ये कर्म और कर्मफल का चक्र चलता रहेगा(7:38) और इस कर्म और कर्मफल के पीछे है - "अविद्या" (अज्ञान -अस्मिता) जो हमारे 'विवेक' को ढँक देती है। अज्ञान/अविद्या /माया ? के कारण व्यक्ति अपने-आप को एक सीमित जीव (M/Fशरीर) समझ लेता है। और अपने को सीमित जीव समझ कर के अपने सामने इस विश्व-प्रपंच को पाता है। और इस विश्व-प्रपंच की चीजों के पीछे (3K के पीछे) दौड़ता रहता है। दौड़ता रहता है। दौड़ता रहता है। चीजों (कामिनी-कांचन) को पाता है , और पाने की इच्छा करता है। वो व्यक्तियों से (M/F) जुड़ना चाहता है। सोचता है 'अमुक' व्यक्ति सम्बन्ध बन जाये तो मैं जीवन में सुखी हो जाऊँगा। बड़ी चिंतनीय बात है। हम सोचते हैं कि 'अमुक' (M/F) से मैं सम्बन्ध बना लूँ , तो मैं सुखी हो जाऊँगा। आजतक कोई हुआ है क्या ? हम सोचते हैं -अमुक वस्तु हमको प्राप्त हो जाये , तो मैं तृप्त हो जाऊँगा। आज तक कोई हुआ है क्या? बहुत से लोग यहाँ व्यस्क और बुजुर्ग लोग भी हैं। अपने जीवन की अनुभूतियों को थोड़ा टटोल करके देखिये। कौन सी वस्तु ने आपको आज तक जीवन में परितृप्त किया है। इन्द्रिय भोग की वस्तुएं हमारे भूख को और भी बढ़ाती है। कामनायें बढ़ती जाती हैं। इस प्रकार व्यक्ति कर्म करता जाता है। व्यक्ति कर्म करता जाता है, करता जाता है और इसी प्रकार यह संसार वृक्ष -अनवरत चलते जा रहा है। इसलिए इस संसार वृक्ष के पर्ण क्या हैं ? कर्म ! कर्म ही इसके पर्ण हैं। 'छन्दांसि ' का मतलब यहाँ लेना चाहिए - कर्म ! सकाम कर्म। फल की इच्छा से किया जाने वाला सकाम कर्म। सकाम कर्म ही वह पत्ता है जो इस संसार वृक्ष को गतिमान रखता है। और यह विश्वप्रपंच चलता ही रहेगा। छन्दांसि यस्य पर्णानि,  यः तम् वेद सः वेदवित्।। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं , जो व्यक्ति इस संसार वृक्ष को इस प्रकार जानेगा वो वेदविद हो गया ! अर्थात वह वेद के सार को समझ रहा है। यह बहुत महत्वपूर्ण घोषणा है। क्या संसार को हमने कभी इस दृष्टि से देखा है क्या ? आज हमलोग इस चर्चा को सुन रहे हैं , तब थोड़ा सा अनुमान हो रहा है , लेकिन जो सर्वसाधारण व्यक्ति है-क्या उसकी दृष्टि संसार के विषय में इस प्रकार है ? तो शास्त्र के अनुसार जो इस विश्वप्रपंच को जानेगा उसको वेदविद - अर्थात विद्वान व्यक्ति कहा गया है। तो हमें अपने अंदर शास्त्र दृष्टि को उत्पन्न करके विवेक-दृष्टि से इस विश्वप्रपंच को देखेंगे , तभी हमारे अंदर वैराग्य की उत्पत्ति होगी। और वैराग्य की उत्पत्ति के बगैर -भगवत तत्व का ज्ञान कभी नहीं होने वाला है, लिख लीजिये । वैराग्य के बगैर हृदय में विद्यमान ईश्वर का जो तात्त्विक ज्ञान है, वह असम्भव है। कभी भी नहीं हुआ , कभी भी नहीं होगा। और उस भगवततत्व-ज्ञान के बिना व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। (11:07) ये एक श्रृंखला है - एक चीज दूसरे से बँधी हुई है -संबन्धित है। इसलिए मुक्ति/ मोक्ष की शुरुआत होती है विवेक और वैराग्य से। उस विवेक और वैराग्य को उत्पन्न करने के लिए ही पन्द्रहवें अध्याय के शुरुआत में विश्व-प्रपंच का एक सुंदर चित्र हमारे सामने अंकित करते हैं। 
>>इस सृष्टि का और विश्वप्रपंच का दो प्रकार के बीज हैं - सृष्टि का एक मूल बीज है, और दूसरा एक निचले स्तर का बीज है। तो इस श्लोक के प्रथम पंक्ति में जो कहा गया - ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम्, 'अश्वत्थम्' - इस सृष्टि का बीज कहाँ है ? ऊर्ध्वमूलम् - मतलब एक दम हमारे ह्रदय में ही है। हमारे ह्रदय में बैठा हुए माया-युक्त जो ब्रह्म है, वही इस पूरे विश्वप्रपंच का प्रधान बीज है, विश्व-ब्रह्माण्ड का मूल है। यही प्रधान बीज है। अब एक बार ईश्वरीय सृष्टि हो जाने के बाद, जीव की स्तर पर जीव (अस्मिता?) स्वयं एक द्वितीय बीज बन जाता है। जहाँ से सृष्टि फैलती है। एक ईश्वर स्वयं जो बीज है , वो मूल बीज है। वो प्रधान बीज है , वहाँ से जब सृष्टि निर्मित हो जाती है, तब इस जीव के स्तर पर - आपके और मेरे स्तर पर, हम स्वयं एक बीज बन जाते हैं। हमारे स्तर पर - यहाँ से सृष्टि की शाखायें और भी प्रसृत होती हैं। पहले तो मूल शाखा, यह विश्व-ब्रह्माण्ड मूल बीज से निकली। और फिर जीव के स्तर पर हम स्वयं (अविद्या -अस्मिता) एक द्वितीय स्तर के बीज वन जाते हैं। जहाँ से शाखायें और भी चारों ओर फैलने लगती है। कैसे ? अविवेकी जीव जब कर्म करेगा तो कामना से युक्त कर्म ही करेगा। सकाम कर्म करेगा, तो फल पायेगा। उस फल के फल को पाने की इच्छा से वो और भी कर्म करेगा। इस प्रकार जीव (अस्मिता) स्वयं सृष्टि का बीज बन जाता है। यहाँ से सृष्टि और भी फैलती है। तो इसी द्वितीय बीज की बात अगले श्लोक भगवान कहते हैं - 
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा, 

गुण-प्रवृद्धा विषय-प्रवालाः।

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि

कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।

(15.2)

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते

नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलं ,

असङ्ग-शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।

(15.3) 

भगवान श्रीकृष्ण इन तीन श्लोकों में पूरे आध्यात्मिक जीवन की बात अतुलनीय सुंदर शब्दों में हमारे सामने रख रहे हैं - कह रहे हैं -" अधः च  ऊर्ध्वम् प्रसृताः तस्य शाखाः, गुणप्रवृद्धाः विषयप्रवालाः। अधः च मूलानि अनुसन्ततानि, कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।। " अब यहाँ से इस जीव के स्तर से शाखायें दो दिशाओं में और भी फ़ैल रही हैं। एक ऊपर की और दूसरी नीचे की ओर। इसका क्या मतलब है ? जीव जैसा कर्म करेगा , वैसा फल पायेगा। शास्त्रों में कहा गया है -* पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन* -व्यक्ति जब पुण्य कर्म करता है, तो उसको पुण्य फल मिलता है। और पाप कर्म का फल पाप ही होता है। कर्म के अनुसार व्यक्ति फल पाता है। कोई व्यक्ति अच्छा कर्म करता है , तो उसकी गति उर्ध्व गति होती है। जो बुरे कर्म करते हैं -मनुष्य शरीर में रहकर पशुतुल्य कार्य करते हैं -जो हम सोंच भी नहीं सकते हैं। इसके बारे में भृतृहरि ने कहा है -मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ! 
 
येषां न विद्या न तपो न दानं,
 ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।

ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, 
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।

अर्थ : जिसके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं वह मनुष्य ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक पशु । उनकी दुर्गति होती है। दुर्गति क्या है ? इस शरीर के पश्चात् जो अगला शरीर वो प्राप्त करता है , निम्न योनियों का शरीर प्राप्त करता है। जब व्यक्ति कुछ अच्छा कर्म करता है , निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा करता है। उसकी गति उर्ध्व गति होती है। वह ऊँचे योनियों को प्राप्त करता है। वह देव शरीर को प्राप्त करता है। तो कर्म के अनुसार जीव की गति होगी। तो इस प्रकार जीव के स्तर से भी शाखायें फैलती हैं , और दो दिशाओं में फैलती हैं। या तो ऊर्ध्वगति संभव है या फिर अधोगति सम्भव है। भगवान कृष्ण कहते हैं -गुण-प्रवृद्धा विषय-प्रवालाः। ये गति गुण से और भी सशक्त होती है। कैसे सशक्त होती है ? गुणों के द्वारा। गुण क्या हैं ? सत्व, रजस और तमस ये तीन गुण हैं। पूरी सृष्टि तीन गुणों का खेल है। गुण इस प्रवृत्ति को और भी सुदृढ़ बनाती है। ये हमें बाँध लेती है। रस्सी को भी संस्कृत में गुण कहते हैं। तमोगुण और रजोगुण हमें बांध देती है,लेकिन सतोगुण मोक्षकारी है। संसार में बंध जाने पर शाखायें और भी फैलती जाती हैं। और विषय टहनियों के समान हैं, जिसके पीछे- विषयों के पीछे अविवेकी जीव दौड़ता रहता है। और 'अधः च मूलानि अनुसन्ततानि' इस संसार वृक्ष का मूल भी बहुत फैला हुआ है। बरगद के पेड़ का जड़ कितने जगहों से निकलता है ? उसी प्रकार यह जो अज्ञान रूपी बीज है-अविद्या रूपी जो बीज है वो फैला हुआ है। और - इस मनुष्य लोक में ' कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।' इस मनुष्य लोक में बीज के साथ-साथ ही कर्म भी चलता है। बीज (मैं -अस्मिता) के रहने से ही कर्म हो रहा है। और अगर बीज का नाश हो गया तो फिर सकाम कर्म सम्भव नहीं है। सकाम कर्म इस बीज (अहं -अस्मिता) के रहने पर ही सम्भव होता है। इसलिए ये कर्म अनुबन्धिनी है। बीज के साथ -साथ कर्म भी चल रहा है , और ये संसार वृक्ष भी फल-फूल रहा है, और फ़ैल रहा है। ये तब तक चलता रहेगा जबतक कि हम इस संसार वृक्ष के मूल में जाकर के अपने सत्य-स्वरूप का अनुभव नहीं करलें। जब तक हम इन्द्रियातीत सत्य को अनुभव नहीं -करते हैं , तब तक इस संसार-वृक्ष का नाश सम्भव नहीं। (21 :33)
अब पन्द्रहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कह रहे हैं- न रूपम् अस्य इह तथा उपलभ्यते, न अन्तः न  च आदिः न च संप्रतिष्ठा अश्वत्थम्  एनम् सुविरूढमूलम् असङ्ग शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा। इस संसार को क्या हम इस प्रकार जान रहे हैं , जिस प्रकार भगवान हमारे सामने रख रहे हैं। भगवान कृष्ण ने जिस रूप में हमारे सामने इस संसार वृक्ष को रखा है , कोई साधारण व्यक्ति इस दृष्टि कभी संसार को देख पाता है ? हमारी जो भी उम्र हो रही हो - क्या हमने आज तक संसार वृक्ष को कभी इस विवेक-दृष्टि से देखा है ? कोई भी साधारण व्यक्ति संसार वृक्ष को इस प्रकार उपलब्धि नहीं कर पाता है। और "न अन्तः न  च आदिः न च संप्रतिष्ठा।" इस न संसार वृक्ष के आदि और अंत को ही आप देख सकते हो। इसका मध्य क्या है ? ये आपको समझ में नहीं आ रहा है। 
इस सृष्टि की शुरुआत कहाँ से हुई ? किसी scientist को पता है scientist लोग कितना भी अपना सिर फोड़ लें, भौतिक विज्ञानी (Physicist) लोग चाहे कितना भी साहसी, दृढ़संकल्प और धैर्य रखने वाले क्यों हों, big-bang या और कुछ भी कहें, जब तक आप सत्य की खोज इन्द्रियों के द्वारा कर रहे हैं, तब तक आप LHC (लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर) में atoms को कितना भी तोड़ते जाइये , आप कभी भी सत्य को इन्द्रियों से नहीं पहचान पाओगे ! (23:35) जब तक व्यक्ति इन्द्रियों से ऊपर उठकर के सत्य का अन्वेषण (आत्मानुसंधान - मैं कौन हूँ ? जानने की चेष्टा ) नहीं करेगा , तब तक वह सत्य का अनुभव नहीं कर पायेगा। यह हमारे ऋषियों का सिद्धान्त है -महावाक्य है ! (अनुसन्धान वाक्य है -अयं आत्मा ब्रह्म !) यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - इस सृष्टि की शुरुआत कब हुई ? किसको पता है ? इसका अंत किसको दिखाई दे रहा है ? मध्य में क्या है ? किसको समझ में आ रहा है ? किसी भी साधारण आदमी को समझ में नहीं आ रहा है। इसकी जो प्रतिष्ठा है - इसके विषय में किसी को क्या पता है ? हम तो इस विश्व-ब्रह्माण्ड को सत्य मान करके ही चल रहे हैं। संसार सत्य है -इस विषय में हमको कोई संशय है ही नहीं ! क्या कॉन्फिडेंस है हमलोग का ? और यही कॉन्फिडेंस हमारी दुर्गति का कारण हो जाता है। हमलोग एकदम निश्चित मानकर चल रहे हैं कि ये जगत जैसा दिख रहा है - ठीक वैसा ही तो है? हमारी दिनचर्या , हमारा सारा व्यवहार - पारस्परिक सम्बन्ध , स्त्री, पुरुष,बच्चे सब कुछ के बारे में हमें एक सत्यत्व बुद्धि है , जिसके कारण हमको लगता है कि यही सत्य है। और इसी संसार में (3K) में हम सब डूबे हुए हैं। आज तक ऐसे ही हमारा जीवन चलता चला आ रहा है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - अश्वत्थम्  एनम् ! मेरे बच्चों जान लो आप जिसको शाश्वत सत्य समझके बैठे हो - ये तो अश्वत्थम् है, अनित्य है। आप इस जगत को (स्थूल शरीर) को सत्य समझकर बैठे हो, ये तो अश्वत्थ है। जो अगले क्षण नहीं रहता उसको हमलोग अश्वत्थ कहते हैं। ये पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड शाश्वत नहीं है। जो शाश्वत नहीं है - उस संसार वृक्ष के साथ हमें करना क्या है ? इस संसार-वृक्ष को जड़ सहित काटकर या उखाड़ कर फेंक देना है(25:53) शब्द बड़े सुंदर हैं - भगवान कह रहे हैं - अश्वत्थम्  एनम् सुविरूढ़ मूलम् असङ्ग शस्त्रेण दृढ़ेन छित्त्वा। इस संसार वृक्ष का मूल यानि जड़ 'सुविरूढ़' है। ये इतना सशक्त है कि इसको काटना बहुत कठिन है। देखिये कैसे हमलोग इस संसार चक्र में फँसे हुए हैं ? पीपल या बरगद के पेड़ का जड़ कितना strong होता है ? तूफान भी उसको हिला नहीं पाता है। क्यों ? उसके जो बीज हैं - जड़ हैं वे अत्यंत सुदृढ़ हैं -अत्यंत strong हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं - यह जो अश्वत्थ रूपी यह संसार वृक्ष का जड़ है वो - सुविरूढ़ है। तो अब इस संसार वृक्ष के साथ क्या करना है ? क्या इस संसार-वृक्ष को पालना -पोसना है ? या काट -फेंकना है ? ये निर्णय हमलोगों को स्वयं करना है। हमलोग कैम्प में आने तक इसीको पाल-पोस रहे थे। अब विवेक जग जाने के बाद क्या करना है ? अब इसको करना है? इस (अविद्या -अस्मिता) को पालोगे , पोसोगे तो दुःख ही मिलेगा। अब इसको और आगे पालना -पोसना नहीं है, "असङ्ग शस्त्रेण दृढ़ेन छित्त्वा " इस संसार वृक्ष का छेदन करना है , इसको काटना है।  शंकराचार्य जी इस जड़ को काटने के विषय में बहुत सुंदर बात कहते हैं - आप अगर किसी पेड़ की एक टहनी को काटिये तो पेड़ मरेगा क्या ? उसके तने को बीच में से भी काटिये वो नहीं मरेगा। फिर उसमें से फुनगी फेंक देगा। इसको काटने का मतलब क्या है ? इसको जड़-सहित उखाड़ फेंकना। (3K : कामिनी- कांचन-कीर्ति Fame, celebrity, यश, ख्याति) शंकराचार्य जी अपने भाष्य में कहते हैं -'संसारवृक्षं सबीजम् उद्धृत्य।' मतलब संसार वृक्ष को सबीज उखाड़ना पड़ेगा। अगर आप बीज को (माने 3K - पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोक- ऐषणा को) छोड़ देते हैं, तब पेड़ दुबारा आएगा। तो इस वृक्ष को  ('3K') को काटेंगे कैसे ? वृक्ष को काटने के लिए हमको किसी औजार की जरूरत होती है। बड़ी -बड़ी आरी होती है। या कुल्हाड़ी से भी पेड़ कटता है। लेकिन कुल्हाड़ी को भी एक दम पजा हुआ और मजबूत होना चाहिए। कुल्हाड़ी का धार एक दम पैना होना चाहिए। धार अगर भोथर हो तो क्या वो पेड़ कटेगा? पेड़ नहीं कटेगा तो , यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं - "असङ्ग शस्त्रेण दृढ़ेन छित्त्वा। असंग शस्त्र से काटना है। असंगता ही शस्त्र है -औजार है , इस असंगता रूपी शस्त्र के द्वारा ये जो अश्वत्थ वृक्ष के सामान जो विश्व-प्रपंच है ,इसको उखाड़ कर फेंकना होगा। "असङ्ग शस्त्रेण दृढ़ेन छित्त्वा।  यहाँ पर शंकराचार्य जी बहुत सुंदर ढंग से एक बात कहते हैं - वे कहते हैं इस संसार-वृक्ष को काटने के लिए आपके पास कोई तेज धार वाली मजबूत कुल्हाड़ी होनी चाहिए , या  तेज आरी के ब्लेड्स होने चाहिए। उसका धार तीक्ष्ण होना तेज धार होना अनिवार्य है। उसी प्रकार ये जो 'असंग रूपी शस्त्र' की बात भगवान कह रहे हैं , इसका भी धार तीक्ष्ण होना 'Sharp edge' होना जरुरी है। ये अगर पैना नहीं है, अगर 'Sharp edge' नहीं है तो पेड़ कटेगा क्या ? उसी प्रकार हमारे अंदर जो असंगता है - इसको भी Sharp बनाना पड़ेगा। अब इसको शार्प बनायेंगे कैसे ? तो बचपन हमलोग देखे है - कुल्हाड़ी -छुरी को धार चढ़ाने वाला व्यक्ति पत्थल का पर रगड़ कर उसको तीक्ष्ण बना देता था। पत्थल पर घिस-घिस कर उसको पैना बना देता है। असंग यानि अनासक्ति -detachment रूपी शस्त्र को पैना बनाने के लिए जो रहस्य की बात शंकराचार्य जी बता रहे हैं - यही जीने की कला भी है। भगवत गीता के एकमात्र सन्देश यही है - असंगता, अनासक्ति -detachment रूपी शस्त्र को हम पैना कैसे बनाएंगे ? तो शंकराचार्य जी कहते हैं -इस असंग रूपी शस्त्र को विवेक रूपी पत्थर के ऊपर उसी प्रकार बारम्बार घिसना होगा, जिस प्रकार हम कुल्हाड़ी या चाकू को पत्थल पर घिस-घिस कर पैना बना लेते हैं। जो इतना पैना असंग शस्त्र होगा उसके माध्यम से आप इस संसार-वृक्ष को समूल उखाड़ फेंकने में सक्षम हो जायेंगे। [असङ्ग शस्त्र से छेदन करना है यानी (3K) पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणादि से उपराम हो जाना ही असङ्ग होना है।  ऐसे असङ्ग शस्त्र से जो कि परमात्मा के सम्मुख होना रूप निश्चय से दृढ़ किया हुआ है, और बारंबार  विवेक अभ्यास रूप पत्थर पर घिसकर पैना किया हुआ है ,  इस संसार वृक्ष को बीज सहित काटकर उखाड़ फेंकना है।] 
(33:03)  श्री कृष्ण ने हमको अध्यात्म जीवन के नाम पर क्या करना है- उसका सार ये सब कुछ यहाँ इन तीन श्लोकों में बता दिया है। आप जप- ध्यान प्रार्थना सब कुछ कीजिये , वो ठीक है। लेकिन जब तक आप इस (3K : पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणादि) में चिपके हुए हैं - कामिनी-कांचन से अनासक्त नहीं हुए हैं। तब तक आप मन (अस्मिता या 3K) के गुलाम ही बने रहेंगे। तो इस शास्त्र का मूल सन्देश क्या है ? चिपकना या आसक्त होना मना है ? नहीं ! -चिपकना सख्त मना है। Sticking is strictly prohibited ! इसमें 'strictly' शब्द बहुत बहुत महत्वपूर्ण है। 'strictly' is very important ! 3K में चिपकने के प्रति थोड़ी सी भी ढिलाई मत कीजिये। थोड़ा भी जगह मत दीजिये। अच्छा कम से कम अपने बच्चों से तो मैं चिपक सकता हूँ। नहीं ! बच्चे को भी विवेक पूर्वक हैंडल कीजिये। (आप कौन हैं ? जगत क्या है ? नित्य -अनित्य विवेक करते हुए लोक -व्यवहार निभाते रहिये।) अगर आप विवेक पूर्वक 'सत्य'(-असत्य -मिथ्या) को नहीं जानते हो , और अगर जगत के साथ (3K के साथ) 'deal' समझौता करते हो , तो निश्चित है कि आप कहीं न कहीं चिपक जाओगे। और बहुत बड़े संकट में घिर जाओगे। (अविद्या -अस्मिता - राग-द्वेष -अभिनिवेश-पंचक्लेश !) क्योंकि जिससे (M/F) आप चिपक रहे हो , वो वास्तविक रूप में वैसा नहीं है। इस बात को समझने में हमारा सारा जीवन चला जाता है। लेकिन जिस दिन हम अपने सत्य स्वरूप को जान जायेंगे हमारा सारा जीवन परिवर्तित हो जायेगा। जिस दिन किसी भी जीव को इस विश्व-प्रपंच के पीछे का सत्य समझ में आ जायेगा उसका थोड़ा सा भी झलक मिल जायेगा , तो अब उस विश्व-प्रपंच के साथ deal करने का, किसी अन्य जीव के साथ लेन-देन करने का जो उसका तरीका है , वही बदल जायेगा। कितना सुंदर जीवन होगा ? यही जीने की कला है - Art of living है। So beautiful! हर व्यक्ति के साथ रहना है , सब किसी की सेवा करना है - सभी का देखभाल करना है , आप को जो भूमिका मिली है - पति या पत्नी , मित्र-पिता -मामा -भैया का वो सारा Role आप play कीजिये। अपना duty आप पूरा कर लीजिये ; पर कहीं भी किसी भी Role से आप चिपकिये मत
      हमारा चरित्र वैसा निर्लिप्त होना चाहिए ? भगवान श्रीकृष्ण गीता 5-10 में कहते है -  जैसे कमल के पत्ते जल में रहते हैं लेकिन पत्तों पर एक बून्द जल नहीं रहता - उस प्रकार का हमारा जीवन होना चाहिए। 
ब्रह्मणि आधाय कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा करोति यः। 

लिप्यते न सः पापेन पद्मपत्रम् इव अम्भसा ।। 

( 5.10)

जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है,  वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से कभी लिप्त नहीं होता।। 
   कितनी सुंदर बात है - संसार छोड़कर कहीं भागना नहीं है। यहाँ -वहां दौड़ना नहीं है। तो इसलिए भगवान श्री कृष्ण हमारे अंदर विवेक-वैराग्य उत्पन्न करने की इच्छा से पहले हमें इस विश्व-प्रपंच की सच्चाई को समझा रहे हैं कि बच्चो जान लो , यह विश्व-प्रपंच जैसा दिख रहा है , वैसा यह नहीं है। यह (स्थूल शरीर) सत्य सा दीखता है , सत्य सा भासित हो रहा है, लेकिन अपने आप में ये सत्य नहीं है। यहाँ जो सत्य वस्तु वो कुछ और है। उस सत्य वस्तु के खोज, "सर्वमंगल मांगल्ये , शिवे सर्वार्थसाधिके" की खोज में ही -  में ही हमें अपने जीवन को समर्पित करना है। अगर हम वो नहीं कर रहे हैं तो हम एक बहुत बड़ा अवसर खो रहे हैं। (35:41) वो अवसर क्या है ? मनुष्य जन्म! इस मनुष्य शरीर में जन्म लेकर भी यदि हमने अपने जीवन को सत्य की खोज में समर्पित नहीं किया, तो हम बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं। समय चला जा रहा है, दिन बीत रहा है

 दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।

कालः क्रीड़ति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः॥1॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्... 

दिन रात में बदल जाता है , रात दिन में बदल जाती है। सुबह के बाद शाम हो जाती है , शाम के बाद सुबह हो जाती है। इस प्रकार एक दिन के बाद दूसरा दिन , दूसरे दिन के बाद तीसरा दिन। दिनों के बाद एक पक्ष हो जाता है, द्वितीय पक्ष हो जाता है। एक मास हो गया। तीन मास हो गया तो एक ऋतू बन जाती है। चार ऋतुओं से एक वर्ष बन जाता है। एक वर्ष के बाद , दूसरा वर्ष -इस प्रकार आपका जीवन -यानि काल का चक्र, 'कालः क्रीड़ति' - ये जो काल का चक्र है वो अनवरत चल रहा है। फिर भी हमारे ह्रदय के अंदर जो आशायें हैं , जो वासनायें हैं , जो कामनायें हैं , यह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। 'कालः क्रीड़ति गच्छति आयुः तत् अपि मुञ्चति न आशावायुः।' तो ऐसी परिस्थिति में हमें करना क्या है ? 

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते। 

संप्राप्ते सन्निहिते मरने , न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे 

 ये भगवान शंकराचार्यजी की अमृत वाणी है, वे कह रहे हैं कि मृत्यु आपके बिल्कुल दरवाजे पर खड़ी है, और आप इस जगत के विषय-भोगों से एकदम चिपक कर - आसक्त हुए बैठे हैं।  मृत्यु दरवाजे पर दस्तक दे रही है -'संप्राप्ते सन्निहिते मरणे' ! मृत्यु बिल्कुल हमारी छाया है, हम समझ नहीं रहे हैं। मृत्यु बिल्कुल परछाईं की तरह हमारे पीछे ही खड़ी है। वो कब हमें दबोच लेगी, ये किसी को पता नहीं है। हम निश्चिन्त होकर यहाँ बैठे है -सब कुछ ठीक चल रहा है। लेकन कल सवेरे मैं यहाँ रहूँगा या नहीं ? - कोई बता सकता है क्या ? कोई गारंटी है क्या? मैं कोई ज्योतिष या भविष्य-वक्ता नहीं हूँ, पर एक भविष्यवाणी कर सकता हूँ -जो कभी गलत नहीं होगा। एक भविष्य वाणी मैं कर सकता हूँ - आप सभी मरने वाले हो ! और उसमें मैं भी हूँ! मैं अपनेआप को हटा नहीं रहा हूँ। ये भविष्यवाणी कभी गलत साबित नहीं होगी, आप भी कर सकते हो। मृत्यु हमारी परछाईं है , ये सिर्फ एक समय की बात है। किसी के लिए आज होगा, किसी के लिए कल होगा। किसी के लिए एक घंटे के बाद भी हो सकता है। लेकिन हमलोग यहाँ पर इस अश्वत्थ वृक्ष से चिपके हुए बैठे हैं। इसी लिए शंकराचार्यजी हमारे विवेक को जगाने के लिए कहते हैं - 'न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणेमेरे बच्चों संस्कृत के व्याकरण को कंठस्थ करने से भी तुम मृत्यु के जाल से तुम बच नहीं पाओगे! संस्कृत के व्याकरण रटने' का मतलब है - हम जिन सांसारिक चीजों में -3K में डूबे हुए हैं, यह भी आपको मृत्यु के जाल से बचाने वाली नहीं है। इस मृत्यु के जाल से अगर व्यक्ति को ऊपर उठना है , तो क्या करना होगा ? भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते। अर्थात सत्य को जानो , सत्य को जानो, सत्य को जानो- और सत्य को जानने के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दो। यही एक मात्र चीज है  जो मनुष्य जीवन में करणीय है,और यही मनुष्य की विशेष योग्यता है। बाकि सारी चीजें (3K) secondary- हैं दूसरे दर्जे की हैं। उनकी प्राथमिकता नहीं है। 
इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं इस अश्वत्थ संसार -वृक्ष से आसक्त मत रहो। हमारे इस आसक्ति को काटने का जो शस्त्र है वो केवल असंगता -यानि अनासक्ति ही है। और ये असंगता रूप शस्त्र कैसा होना चाहिए ? ये एकदम पैना होना चाहिए। sharp होना चाहिए। इस असंगता के शस्त्र को sharp बनाओगे कैसे? विवेक-रूपी पत्थर पर इसको बारम्बार घिसना होगा। कितनी सुंदर बात है। अब विवेक क्या है नित्य-अनित्य वस्तु विवेक है। एक ही वस्तु नित्य है , उससे अतिरिक्त जो भी है, वो अनित्य है। अनित्य से चिपकना नहीं है , और नित्य को जानना है। नित्य को पहचानना है - नित्य को अनुभव करना है। जो नित्य वस्तु है - वही हमारा भी स्वरुप है। आध्यात्मिक जीवन का जो गूढ़ कर्तव्य है , जो रहस्य है उसको गीता के पन्द्रहवें अध्याय के शुरू में ही भगवान श्रीकृष्ण ने हमें बता दिया है, कि असंगता या अनासक्ति रूपी गुण को चरित्र में धारण किये बिना इस संसार-वृक्ष को काटकर इससे बाहर नहीं निकल पाओगे। 3K से अनासक्त हुए बिना आध्यात्मिक प्रगति उसी प्रकार सम्भव नहीं है, जैसे लंगर डालकर नाव चलाते रहने से भी एक इंच आगे नहीं बढ़ सकते हो। (41:19
>>ईश्वर की ओर आगे बढ़ने की प्रक्रिया :अब गीता 15-4 श्लोक में भगवान बता रहे हैं, असंगता यानि अनासक्ति के शस्त्र से अश्वत्थ रूपी संसार वृक्ष को- असङ्ग-शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।। मूल सहित काट देने के बाद -क्या करना है? इस अश्वत्थ रूपी विश्वप्रपंच को जड़ समेत उखाड़ फेंकने के बाद ही, हमारा आध्यात्मिक जीवन या  इन्द्रियातीत सत्य की खोज तब से शुरू होती है। 

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।15.4।।

 [ततः पदम् तत् परिमार्गितव्यम्  यस्मिन् गताः न निवर्तन्ति भूयः। तम् एव च आद्यम्  पुरुषम् प्रपद्ये, यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।] असङ्ग-शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा',  ततः पदम् तत् परि मार्गि तव्यम्। मिथ्या जगत को मूल सहित उखाड़ फेंकने के बाद वहाँ से हमें उस सत्य वस्तु की ओर चल पड़ना है।  उस सत्य वस्तु की खोज में या आत्मानुसंधान करने की यात्रा हमें स्वयं लगा देना है। भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं - पहले आप इस मिथ्या जगत से मुँह तो मोड़िये। यदि पहले आप इन्द्रिय विषयों से (3K की आसक्ति से ) मुँह मोड़ोगे ही नहीं तो उस इन्द्रियातीत सत्य की ओर जाओगे कैसे ? इस लिए पहले 3K से अनासक्त तो हो जाइये , ततः पदम् तत् परि मार्गि तव्यम्। ततः -उस 3K में आसक्ति को काट देने के बाद,  जो ईश्वर रूपी परम पद है, परब्रह्म परमेश्वर रूपी जो परम पद है, उसकी खोज हमें शुरू करनी चाहिए।
पहले आप अपनी सुप्त विवेक दृष्टि को जाग्रत कर के एक दम सत्य (नित्य) जैसी प्रतीत होने वाली मिथ्या (अनित्य) इन्द्रिय-भोग विषयों से पूर्णतः अनासक्त (detached) तो हो जाइये। और तब जगत-प्रपंच के अनित्य विषयों से विरक्त हो जाने के बाद, आप उस परम् सत्य का अनुसन्धान, इन्द्रियातीत सत्य की खोज या आत्मानुसंधान की यात्रा शुरू कर सकते हैं।       
[First you become detached from the so called world, which appears to be real ! First you become detached , and then you can start your journey towards the attainment of that supreme reality.(43:15)] 
यहाँ भगवान श्री कृष्ण सत्यान्वेषण की कितना सुंदर पद्धति का चित्रण कर रहे है। इन्द्रिय-विषय भोगों की तरफ से मुँह मोड़ लेने के बाद ही हम ईश्वराभिमुख हो सकते हैं। विश्वप्रपंच की आसक्ति से मुंह मोड़कर के ही हम ईश्वराभिमुख हो सकते हैं। ये ईश्वर की ओर आगे बढ़ने की प्रक्रिया है। 
इसके बाद कहते हैं -यस्मिन् गताः !  ईश्वर रूपी जो परमपद है, परब्रह्म परमेश्वर का जो परम पद है -वो हमारा स्वरुप है, जो हम सभी लोगों का स्वरुप है। जो व्यक्ति उस परम् पद को प्राप्त कर लेगा, उस परम् पद को पा लेने के बाद- न निवर्तन्ति भूयः' -वह व्यक्ति फिर दुबारा इस, 'संसार-चक्र' में बंध नहीं सकता। वो दुबारा फिर इस संसार में नहीं आएगा - वो मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। भगवान श्रीरामकृष्ण की आरती शुरू होती है - 'खण्डन- भव- बन्धन ' इन तीन शब्दों से। जो ठाकुर देव के भक्त हैं वे, अनासक्ति शस्त्र के द्वारा हम लोग- विश्वप्रपंच में आसक्ति को खण्डन कर देते हैं। 'भव-बन्धन का खण्डन ' खण्डन शब्द बड़ा प्रभावशाली है। खण्डन शब्द सुनने में भी मधुर नहीं लगता। उनकी आरती ही जगत-प्रपंच में आसक्ति को काटने की बात से होती है। उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण भी - असङ्ग-शस्त्रेण दृढेन छित्त्वा', अनासक्ति के शस्त्र से संसार-वृक्ष को 'छित्त्वा' छेदन करना है। हमें यहाँ संसार वृक्ष में आसक्ति का खण्डन करना है, और अपने ब्रह्मस्वरूप को, अन्तर्निहित पूर्णता या दिव्यता को (Inherent Divinity) को अभिव्यक्त करना है। यही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। फिर वो व्यक्ति दुबारा इस संसार-चक्र में नहीं आता है। अपने सत्य स्वरुप को जान करके वो मुक्त हो जाता है। 
>>उस ईश्वर को प्राप्त कैसे करें ? (उस प्रक्रिया का नाम है -शरणागति): हमलोग जानते हैं कि गीता को पूरे वेदों का सार कहा जाता है। लेकिन शंकराचार्यजी कहते है कि गीता का केवल पन्द्रहवाँ अध्याय ही अपनेआप में पूरे वेदों का सार है। अगर कोई यह प्रश्न करे कि मैं हिन्दू सनातन धर्म /शिक्षा को समझना चाहता हूँ। आप बताइये हिन्दू धर्म/ शिक्षा की सारभूत बात क्या है ? तो गीता का पन्द्रहवाँ अध्याय ही इस सृष्टि के परम रहस्य को उद्घाटित कर देता है। हम अपनेआप को एक जीव के रूप में देखते हैं , सामने इस विश्व-प्रपंच को देखते हैं -इन सबके पीछे एकमात्र सत्य वस्तु ईश्वर ही है। उस परब्रह्म परमेश्वर के अतिरिक्त यहाँ द्वितीय और कुछ भी नहीं है। यही पूरे वेदों का सार है , पूरे गीता का भी यही सार है , और इस पन्द्रहवाँ अध्याय का भी यही सार है- एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति। ठीक है अब मुझे इस विश्व-प्रपंच में कोई आसक्ति नहीं है, लेकिन उस परमेश्वर के परम पद को हम प्राप्त कैसे करेंगे ? कल्पना कीजिये - ठीक है मुझे इस विश्वप्रपंच में कोई आसक्ति नहीं है, पुत्र का मोह नहीं है, धन का मोह नहीं है,स्त्री-पुरुष (M/F) का मोह नहीं है। कल्पना कीजिये कि हम इस 3K में  आसक्ति से ऊपर उठ गए हैं। लेकिन उस परम तत्व की अनुभूति तो नहीं हुई है? उसके लिए क्या करना होगा ? भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - " तम् एव च आद्यम्  पुरुषम् प्रपद्ये,  यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।' (49:57
       असंगता रूपी शस्त्र के द्वारा अपने इस विश्वप्रपंच का छेदन कर दिया। अब उस परम पद का अन्वेषण करना है। क्योंकि अगर परम सत्य की खोज करना छोड़ दिया जाये तो , जीवन का कोई मतलब है ? केवल शरीर के स्तर पर जीवन क्या है ? खाना-पीना -सोना, खाना-पीना -सोना, खाना-पीना -सोना, और कुछ इन्द्रिय-विषयों का भोग। खाना-पीना -सोना, और कुछ इन्द्रिय-विषयों का भोग। करते -करते एक दिन हम मर जाते हैं। क्या मनुष्य-जीवन का यही लक्ष्य है ? शरीर और मन को स्वस्थ सबल बनाये रखने के लिए पौष्टिक आहार और व्यायाम करने की आवश्यकता है। लेकिन इतना मात्र ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। सार्थक जीवन , यानि अर्थपूर्ण जीवन कैसे होगा ? यह केवल सत्य की खोज ही है जो मनुष्य जीवन को सार्थक बना देता है। अर्थपूर्ण बना देता है। हम हर सुबह नींद से उठते हैं -किस लिए ? क्या केवल भोजन करने के लिए ? हम नींद से उठते हैं - सत्य की खोज के लिए, या अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने के लिए जिसमें भोजन की आवश्यकता है। लेकिन केवल भोजन करने के लिए ही हम जीवित नहीं हैं। मनुष्य जीवन का उद्देश्य है सत्य की खोज। कैसे खोजें ?  " तम् एव च आद्यम्  पुरुषम् प्रपद्ये' वो जो परम पुरुष है , ईश्वर है जो सच्चिदानन्द परब्रह्म परमेश्वर है -उसकी प्रपत्ति का मतलब है  उसकी शरणागति। उस परम सत्य ईश्वर की शरण में जाना होगा। (53:09) संसार-वृक्ष से अनासक्त हो जाने के बाद उस प्रभु-परमेश्वर के चरणों में शरणागत होना होगा। यही सत्य को जानने की प्रक्रिया है। हमारा जो यह मिथ्या अहंकार है , इस मिथ्या अहंकार को पूरी तरह से से ईश्वर के चरणों में समर्पित करना होगा। इन्द्रियातीत सत्य को बुद्धि के द्वारा नहीं जाना जा सकता है। आध्यात्मिक जीवन में ईश्वर के शरणापन्न होने से, ईश्वर के अनुग्रह से ही उस परम सत्य को  या ईश्वर को जीव भी स्वयं समझने लगता हैं। वो एक प्रकार की अनुभूति है , एक दूसरे स्तर की अनुभूति है। जो शरणापन्न होने के बाद हर जीव के जीवन में आती है। भगवान कृष्ण स्वयं बता रहे हैं - उस प्रभु परमेश्वर को हम प्राप्त कैसे करेंगे ? उसके शरण में जाकर के। तम् एव च उस ईश्वर के अतिरिक्त और कोई दूसरा स्थान नहीं है -जहाँ पर जाकर के आप शरण ले सकते हो। इस जगत में शरण लेने के लिए एक ही स्थान है - प्रभु, परमेश्वर।  'यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी' जहाँ से यह सारा विश्वप्रपंच निकलती है। ऊर्ध्वमूलं -विश्वप्रपंच का मूल बीज हमारे ह्रदय में बैठे परमेश्वर ही हैं। उस मूल बीज में अपने मिथ्या अहं (बुद्धि-मैं-पन) को समर्पित करना है। तभी उस परब्रह्म परमेश्वर की असीम कृपा की अनुभूति हम स्वयं कर पाएंगे। सर्पण करने का अर्थ क्या है ? जैसे मंदिर में जाकर हम भगवान श्रीरामकृष्ण को साष्टांग प्रणाम करते हैं - तो समर्पण का बाह्य प्रतीक है। यह प्रतीक है - हे प्रभु ! मैं नहीं हूँ , ये तूँ ही है ! हम स्वयं को सृष्टि के मूल के प्रति समर्पित कर रहे हैं।  मैं नहीं हूँ , ये तूँ ही है !  मैं नहीं हूँ , ये तूँ ही है ! क्योंकि हमारा जो यह सीमित अहंकार है (आधारकार्ड वाला,नाम-रूप) इसका कोई अस्तित्व है ही नहीं। ये जो BKS नाम का व्यक्ति है। या कोई अमुक अमुक नाम वाला व्यक्ति है। मैं यह हूँ। या वह हूँ। मेरा अपना नाम है। ये नहीं है, 'ये' ईश्वर ही है। यह अभी हमको समझ में नहीं आ रहा है। चाहे आज या अन्य किसी दिन हमको यह समझ में आयेगा कि, 'शुद्धिदानन्द' नाम का व्यक्ति पहले भी नहीं था, अभी भी नहीं है। ये नाम-रूप दिख जरूर रहा है, पर यहाँ पर प्रभु परमेश्वर ही हैं। यह सुनकर थोड़ा आश्चर्य लगेगा आपको। पर यहाँ पर इतने जो लोग बैठे हुए हैं , ये प्रभु परमेश्वर ही इतने रूपों में बैठे हुए हैं। यहाँ अलग-अलग जितने नाम-रूप दिख रहे हैं , सब प्रभु परमेश्वर ही हैं, ईश्वर से भिन्न या अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है। इस अनुभूति तक हम तभी पहुँच सकते हैं जब हम अपने मिथ्या अहंकार को ईश्वर के चरणों में समर्पित नहीं कर देते। 
हम स्वयं को ही एक 'नमक का ढेला' के रूप में कल्पना कर सकते हैं। नमक का ढेला को पानी में छोड़ देने से वो बिल्कुल उसमें घुल जाता है , विलीन हो जाता है। यही समर्पण है यही शरणागति है। मुँह से समर्पित हूँ बोलना आसान है , समर्पित होने पर आप नहीं रह जाते हो। तब आपके साथ कुछ भी -ईश्वर से कोई शिकायत कर नहीं पाओगे। जीव जब परम् सत्य के साथ  एकत्व की अवस्था में चला जाता है, तब उस अवस्था में उसका मिथ्या अहं भी विलीन हो जाता है।' वहाँ तक पहुँचना हमारा लक्ष्य है। यही आध्यात्मिक जीवन है। अपने मिथ्या अहंकार को ईश्वर में समर्पित करना, विलीन करना यही आध्यात्मिक जीवन है। यही शरणागति है। (1:00:07
गीता में अर्जुन को 17 अध्यायों में सब उपदेश देने के बाद 18 वें अध्याय में अंतिम उपदेश क्या है ? 'सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।' ध्यान देना है -माम् एकं। 'एक' कोई दूसरा नहीं। भगवान के चरणों में ही स्वयं को समर्पित करना होगा। और यह समर्पण की भावना 'विवेक-वैराग्य ' से ही उत्पन्न होती है। जब हम जगत की वासनाओं से (3K से) विरक्त होते हैं -कोई व्यक्ति विरक्त कैसे होता है ? विवेक से ही विरक्त होता है। विवेक से वैराग्य की उत्पत्ति होती है , वैराग्य से हम इस नश्वर संसार से जब हम विमुख हो जाते हैं , और जो एक मात्र सत्य वस्तु ईश्वर है, उसके चरणों में जब हम अपने अहं को समर्पित करते हैं। तब ईश्वर की अनुभूति होती है। यहाँ तक पहुँचने के लिए सारा जीवन अभ्यास करना होगा। 
शरणागति के साथ साथ कुछ और साधन भी करने होंगे ; 

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा

अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै

र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।

(15.5) 

[निर्मानमोहाः  जितसङ्गदोषाः अध्यात्मनित्याः  विनिवृत्तकामाः। द्वन्द्वैः विमुक्ताः  सुख दुःख संज्ञैः गच्छन्ति अमूढाः पदम् अव्ययम्  तत्।। ] 
 जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं।  और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं।।
ये सब आध्यात्मिक अभ्यास की बातें हैं। जप -ध्यान के साथ साथ ये अभ्यास भी चलेगा। नहीं तो लंगर डालकर नौका चलाने जैसी बात होगी। तो क्या करना होगा ? निर्मान, मोहाः। अपना जो झूठा अहंकार है , उसको छोड़ देना होगा। 'मैं' कुछ हूँ ! 'मैं' उस पोस्ट पर हूँ ! ये 'मैं' 'मैं',  'मैं' 'मैं' करना राक्षस की तरह है। असुर और क्या है ? अहंकार ही असुर है। असुर और देव में क्या अन्तर है ? (1:03:21) जो व्यक्ति अहंकार या घमण्ड में एक दम अँधा हो गया हो, वह घमण्ड व्यक्ति को बर्बाद कर देता है। निर-मान या 'अभिमान' रहित होने का अभ्यास करना होगा। निर्मोह होने का मतलब क्या है ? शंकराचार्यजी कहते हैं, निर्मोह होने का मतलब है विवेक-युक्त होना। विवेक-युक्त होना ही मोह रहित होना है। हम मोहग्रस्त क्यों हैं ? विवेक के अभाव में ही हम मोहग्रस्त हो जाते हैं। अविवेक के कारण ही हम मोहग्रस्त हो जाते हैं। अविवेक का मतलब क्या है? मिथ्या को सत्य समझ लेना- ही अविवेक है। और विवेक क्या है ? नित्य -नित्य है , अनित्य -अनित्य है। सत्य -सत्य है , मिथ्या - मिथ्या है। दोनों को स्पष्ट रूप से पहचान लेना। दोनों को अलग-अलग समझ लेना। मिथ्या को सत्य समझ लेना - ये अविवेक है। जो सत्य नहीं है , सत्य सा भासित हो रहा है , उसी को सत्य समझ लेना। ये अविवेक है और यही मोह का कारण बन जाता है। निर्मोह होने के लिए हमें विवेकयुक्त होना होगा। निर मान और निर्मोह ये दोनों गुण हमें हमारे अंदर उत्पन्न करना होगा। झूठा अहंकार को खत्म कैसे करेंगे ? ईश्वर के चरणों में अभिमान को समर्पित करके। मैं -मेरा नहीं प्रभु , सब तूँ और तेरा है।  जित सङ्ग दोषाः माने 3K में आसक्ति से रहित होना। अध्यात्म नित्याः क्या है ? ज्ञानमयी दृष्टि को एकाग्र करके - जगत को ब्रह्ममय देखते रहना। ईश्वर को पाने की इच्छा के साथ -निरन्तर ईश्वर में अपनी दृष्टि को लगाए रखना। ऐसी मानसिकता बनाये रखना। और सबसे बड़ी बात - विनिवृत्त कामाः , मन को 3K की कामना से शून्य बना लेना। जब तक हमारे अंदर 3K की कामना है , तब तक ईश्वर की प्राप्ति असम्भव है। जहाँ राम हैं , वहाँ काम नहीं , और जहाँ काम है , वहाँ राम नहीं। ये दोनों अलग चीजें हैं। हमलोग अपने को श्री रामकृष्ण के भक्त कहते हैं। क्या श्रीरामकृष्ण के जीवन में , उनके चरित्र में, उनके व्यक्तित्व में इस मिथ्या जगत के प्रति थोड़ी सी भी आसक्ति दिखाई देती है क्या? श्रीरामकृष्ण के भक्त होने का मतलब है कि हम भी मिथ्या जगत के प्रति आसक्ति रहित होने का प्रयास करें। श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द के अंदर जो गुण हैं, उन गुणों का हमारे अंदर भी वर्धन होना चाहिए। श्रीरामकृष्ण के जीवन में हमको वैराग्य दीखता है ? या वैराग्य का अभाव दिखाई देता है ? सभी महापुरुषों के जीवन में वैराग्य ही दीखता है। श्रीकृष्ण स्वयं अपने उपदेशों के मूर्त  रूप हैं। श्रीरामकृष्ण तो अपने सबसे प्रिय शिष्य विवेकानन्द की सांसारिक समस्यायों का समाधान करने की प्रार्थना भी ईश्वर से नहीं कर पाए थे। ईश्वर से अपने लिए संसार की किसी वस्तु को पाने की कामना नहीं करनी है। भगवान से संसार की वस्तुओं को (3K) माँगते रहना आध्यात्मिकता नहीं है। ये तो सांसारिक बुद्धि है। भगवान से प्रार्थना क्या करना है ? मुझे भक्ति दो, विवेक दो , वैराग्य दो , ज्ञान दो। 
      नरेन्द्र के पिताश्री के निधन के बाद परिवार गरीब हो गया था। घर में खाने को नहीं था। नरेंद्र घर के बड़े लड़के थे , उनके कंधों पर परिवार को सँभालने की जिम्मेदारी थी। नौकरी नहीं मिली , कोई सहायता नहीं मिली। अपने परिवार को खाली पेट सोते हुए देखना पड़ा। नरेंद्र के जीवन का यह सबसे दर्दनाक अध्याय है। नरेन्द्र शक्ति को नहीं मानते थे। नरेंद्र काली को नहीं मानते थे। वहाँ मुख्य समस्या वो थी।  लेकिन श्रीरामकृष्ण के जीवन को देखते थे। काली क्या हैं ? उसी परब्रह्म के परमेश शक्ति की बात हो रही हैं। 'माया' युक्त जो ब्रह्म हैं , उन्हीं की माया शक्ति को हम काली कहते हैं। ब्रह्म को जो अपनी शक्ति है , उसको हमलोग काली कहते हैं। ब्रह्म ही काली है , काली ही ब्रह्म है। ब्रह्म और शक्ति अलग नहीं हैं। जैसे वट वृक्ष का जो बीज है , उसी के अंदर पूरे वट वृक्ष को उत्पन्न करने की शक्ति विद्यमान है। उसी प्रकार ब्रह्म के अंदर भी इस विश्वप्रपंच रूप दृश्य को खड़ी कर देने की शक्ति भी ब्रह्म के अंदर अनुस्यूत है। लेकिन नरेंद्र उस शक्ति को नहीं मानते थे। अंत में असहाय होकर के श्रीरामकृष्ण के पास जाकर कहते हैं। आप तो मेरे पूरे परिवार की दुर्गति जानते ही हैं। आपका तो इस काली के साथ , इस शक्ति के साथ, इस माया के साथ एक बहुत ही घनिष्ट संपर्क है। (1:12:22) आप कृपा कर के मेरे परिवार वालों के समस्यायों के समाधान के लिए, आप कुछ प्रार्थना कीजिये। श्रीरामकृष्ण ने कहा सांसारिक वस्तु को पाने की प्रार्थना मुझसे नहीं होगी। अपने प्रिय शिष्य के लिए भी प्रार्थना नहीं कर सके -ये आदर्श है। कहते हैं तूँ खुद जा माँ वहाँ पर बैठी हैं। आज तूँ जो भी प्रार्थना करेगा , तुझे मिल जायेगा। नरेंद्र तीन बार गए , लेकिन तीन बार नरेंद्र भी प्रार्थना नहीं कर पाए। सब समय माँ के सामने खड़े होते थे , लेकिन माँग नहीं पाते हैं। नरेंद्र से विवेकानन्द होने के बाद -उस घटना के विषय में कहते हैं ,कि उस दिन उन्होंने क्या प्रार्थना की थी। माँ  काली से अपने परिवार वालों की समस्या के समाधान के लिए प्रार्थना नहीं की थी। स्वामी जी माँ से कहते हैं -उनके मुख से निकले हुए शब्द हैं ; " हे माँ! मुझे विवेक दो ! मुझे वैराग्य दो ! मुझे भक्ति दो ! मुझे ज्ञान दो ! " उनके मुख से निकला पहला शब्द 'विवेक' है। समझे ? पहला शब्द विवेक है - विवेक से बढ़कर कुछ नहीं हैविवेक के बगैर तो आध्यात्मिक जीवन शुरू ही नहीं होती है ! (1:13:42) जब तक आप जो विश्वप्रपंच मिथ्या है , उसी को सत्य समझकर चल रहे हो , आपके आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत ही नहीं हुई है। आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ ही (नित्य-अनित्य) विवेक से ही होता है। जब विवेक होता है तभी वैराग्य भी उत्पन्न होता है। वैराग्य होने के बाद ही सत्य का अनुसन्धान शुरू होता है , वैराग्य होने के बाद ही आप उस परम पद को पाने की ओर प्रस्थान कर पाते हैं। मिथ्या विश्व-प्रपंच से वैराग्य उत्पन्न हुए बगैर आप ब्रह्म की ओर प्रस्थान कैसे करोगे ? जब तक आप इस मिथ्या जगत से ही चिपके हुए हो , तब तक उस परम पद की ओर प्रस्थान करना सम्भव है क्या ? ब्रह्म सत्यं -जगत मिथ्या , ये दोनों अलग चीजें हैं। तो देखिये परम् सत्य को खोजने की शुरुआत विवेक से होती है , जिससे वैराग्य की उत्पत्ति होती है। और जब व्यक्ति के अंदर वैराग्य होता है , तब उस परमपद की ओर प्रस्थान करने की योग्यता हमारे अंदर आती है। अन्यथा हमारे अंदर परम पद को पाने की दिशा में आगे बढ़ने की योग्यता ही सम्भव नहीं है। 
तो भगवान श्रीकृष्ण भी वही बात कह रहे हैं - निर्मानमोहाः  जितसङ्गदोषाः अध्यात्मनित्याः  विनिवृत्तकामाः। सांसारिक कामनाओं से रहित होना चाहिए। फिर क्या ? द्वन्द्वैः विमुक्ताः  सुख दुःख संज्ञैः , संसार में सुख -दुःख रूपी जो द्वंद्व हैं ,इससे ऊपर उठकर जीवन को जीना है।  भगवत प्राप्ति का साधन यही है। पन्द्रहवें अध्याय के शुरुआती 5 श्लोकों में ही इस संसार का मिथ्यत्व , इसके प्रति जो असंगता है , हमारे भीतर लानी होगी। असंग शस्त्र के द्वारा इस संसार वृक्ष का छेदन करने के बाद उस परमपद का अन्वेषण करना। उस आत्मानुसाधन को आप करोगे कैसे ? उस ईश्वर (काली) के शरणागत होना होगा। उनके चरणों में अपनेआप को समर्पित करना होगा। और उसके साथ-साथ मान , (मिथ्या अहंकार) से मुक्त , मोह -से मुक्त और विवेक से युक्त होना होगा। ईश्वर को प्राप्त करना ही है - इस दृष्टि को बनाये रखना। जीवन में सुख-दुःख आते ही रहेंगे। सुख में उछलना नहीं है, दुःख में हाय -हाय नहीं करना है। सुख आने पर हम उसका जश्न मनाने लगते है -Celebrate करते हैं। Celebration -समारोह करने का हमलोगों को बहुत शौख है। कुछ हो गया तो पार्टी देना होता है। थोड़ा सा कुछ बुरा हो गया तो 10 दिन उदास रहे। सुख-दुःख ये दोनों मिथ्या है -ये बीमारी है , इससे ऊपर उठना है। (1:16:41) इसमें सुख भी उसी प्रकार का है , दुःख भी उसी प्रकार का है। सुख -दुःख रूपी द्वंद्व से ऊपर उठकर के जीवन जीने का प्रयास करना। ऐसे व्यक्ति को भगवान श्री कृष्ण अमूढ़ कहते हैं अमूढ़ का मतलब जो की विद्वान् है, माने विवेकी है । दूसरे शब्दों में जिसके अंदर ये सभी गुण नहीं है - वे सब मूढ़ व्यक्ति है।  द्वन्द्वैः विमुक्ताः सुख दुःख संज्ञैः गच्छन्ति अमूढाः पदम् अव्ययम्  तत्।। इस प्रकार उस परमपद को कोई व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। इन पांच श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने आध्यात्मिक जीवन में हमें जो कच करना है -उसका बहुत सुंदर चित्रण किया है। एक बार पुनः इसको चैंट कर लेते हैं। भगवान श्रीरामकृष्ण किस चीज के मूर्त रूप हैं ? संसार को पोषित करना , या संसरण को खत्म करना ? इस प्रश्न का उत्तर आप स्वयं ढूँढ़ने का प्रयास कीजिये। तो आपको समझ में आएगा कि श्रीरामकृष्ण के भक्त होने का  मतलब क्या है ? क्या हम सांसारिक बुद्धि को पोषित करने के लिए उनके शिष्य -भक्त बने हैं ? या संसार वृक्ष का पूरी तरह से उच्छेदन करने के लिए-भवबंधन का खंडन करने के लिए हमरा जीवन है ? यह प्रश्न आपको स्वयं से पूछना होगा , और इसका उत्तर स्वयं ढूँढ कर लाना होगा। अगर हमारे जीवन में यह स्पष्ट विवेक आता है कि संसार -वृक्ष का खण्डन होना है , उसका जड़सहित छेदन होना है , तो उसके आदर्श हैं श्री रामकृष्ण। 
      अपने बच्चो पर विवेक का उपयोग करने के पहले अपने आप पर विवेक का उपयोग करें। विवेक मनुष्य की एक विशेष योग्यता है जो हर मनुष्य में होता है। लेकिन ये विवेक सोया रहता है। कोई व्यक्ति विवेक का उपयोग नहीं करता। विवेक एक ऐसी क्षमता है -जो हम सबके पास है , लेकिन हम उसका प्रयोग अपने जीवन में नहीं करते हैं। कुछ इने गिने लोगों को छोड़ कर के कोई इसका प्रयोग नहीं करता है। इस सृष्टि में कोई भी विवेक को use नहीं कर रहा है। क्योंकि विवेक-प्रयोग शुरू हो जायेगा तो आपका जीवन परिवर्तित होने ही वाला है। ये गारंटी है। हमारा जीवन में परिवर्तन नहीं हुआ तो उसका मूल यही है। अभी भी हमारा विवेक सोया हुआ हुआ है , जग नहीं सका है। जब विवेक को जगाने की बात करते हैं तो पहले उसको अपनेआप पर प्रयोग कीजिये। उसके बाद दूसरों पर कर सकने योग्य होंगे। जब आपके जीवन में विवेक का प्रयोग दिखाई देगा तो वो अपनेआप दूसरों पर प्रभाव डालेगा। विवेक-चूड़ामणि में विवेक की बहुत सुंदर व्याख्या है। अपने आप पर विवेक Apply करने का मतलब है - हमें अपने आप से प्रश्न पूछना चाहिए कि ये BKS कौन है ? (1:23:04) मैं कौन हूँ ? आप अपने विषय में जो समझकर बैठे हुए हो , ये अविवेक पर आधारित है। इसलिए स्वयं पर विवेक -प्रयोग करो अपने सत्यस्वरूप में क्या हो ? Who am I? मैं क्या  BKS हूँ ? हो ही नहीं सकता। असम्भव है , हम भ्रम में हैं। भ्रम में हम कहते हैं कि मैं BKS हूँ। यहाँ से विवेक की शुरुआत होती है। अपने आप पर विवेक Apply किये बगैर अपने बच्चे पर इसको Apply नहीं कर सकते हो। विवेक जीवन का उदात्ती -करण है दमन नहीं है। Viveka is sublimation not suppression ! विवेक ऐसी क्षमता है , जिसमें सबकुछ जल कर भस्म हो जाता है। आप अगर अपमानित होने का अनुभव कर रहे हो , तो विवेक वो अग्नि है उसमे अपमानित होने वाली जो अनुभूति है वो जलकरके भस्म हो जाती है। उसमें दमन नहीं होता , सबकुछ supplement या पूर्ण  हो जाता है। अगर विवेक-आधारित पहचान नहीं होगा , तब अवसाद आ सकता है। अवसाद का मूल कारण है -अविवेक ! 
विवेकी व्यक्ति को कोई डिप्रेस कर सकता है ? असम्भव ! यही विवेक की शक्ति है ! जब आप विवेक को जाग्रत करके जगत के साथ व्यवहार करेंगे तो आपके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन आने शुरू हो जायेंगे। जिन पाँच श्लोकों को हमने पढ़ा है -उसमे तो आध्यात्मिक जीवन का पूरा रहस्य बता दिया गया है। विश्वप्रपंच से हमें अनासक्त होना है , अनासक्त होने के बाद हमें ईश्वराभिमुख होना है। ईश्वराभिमुख होने के प्रयास में हमें ईश्वर के शरण में जाना है , या अपने आप को ईश्वर के चरणों  में समर्पित कर देना है। और उसके साथ में जो दूसरे अभ्यास है - निर्मानमोहा , जितसंग दोषा। निर्मानमोहाः  जितसङ्गदोषाः अध्यात्मनित्याः  विनिवृत्तकामाः। इन सबका मंथन कीजिये। आपके जीवन में स्पष्टता आने लगेगी। ॐ शांति,शांति, शांतिः हरिः ॐ तत्सत। 
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