⚜️️🔱मनुष्य ही विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है⚜️️🔱
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
आहा ,प्राचीन काल में हमारे देश में प्रार्थना कितनी सुन्दर थी ! जगत के प्रत्येक मनुष्य के लिए, ऋषि प्रार्थना करते हैं कि, सभी मनुष्य सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मनुष्य उसी वस्तु को देखें और श्रवण करे जो समस्त मनुष्यों के कल्याणकारी या मंगलमय हो, ताकि कोई भी दुःख का भागी न बने। कितनी सुंदर प्रार्थना है ! किन्तु हममें से कितने व्यक्ति यह प्रार्थना कर सकते हैं? हमारे ऋषि यह प्रार्थना किसके लिए कर रहे हैं ? मनुष्य के लिए कर रहे हैं। क्योंकि इस जगत में मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है ! बंगाली कवि चण्डीदास ने कहा था - " सबार ऊपरे मानुष सत्य , ताहार ऊपरे नाई।" अर्थात " सभी प्राणियों में मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ है, उससे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है!"
किसी किसी व्यक्ति के में मन में यह प्रश्न उठ सकता है , कि मनुष्य कैसे सभी प्राणियों से ऊपर हो सकता है ? मनुष्य से ऊपर और कुछ अवश्य है जिस पर मनुष्य विश्वास करता है, या कम से कम ऐसी कल्पना करता है, उसके विचार में यह भाव रहता अवश्य है। किन्तु कवि चण्डीदास जी ने कुछ कहा है , वही बात महाभरत में भी कही गयी है, और कवि की उक्ति उसकी ही प्रतिध्वनि प्रतीत होती है। महर्षि वेदव्यास जी ने महाभारत में कहा है - न हिं मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचितः।- "इस संसार में मनुष्य- जन्म से श्रेष्ठ और कुछ नही है।
मनुष्य-जन्म के सम्बन्ध में बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" Man-manifestation is the highest in the phenomenal world. "(Vol-5:284) " इस प्रपंचमय जगत में मानव-योनि में जन्म सबसे ऊँचा है। "(९/७३-वेदान्त दर्शन) 'मनुष्य शरीर में जन्म मिलना दुर्लभ है '- इस विषय में कोई संदेह नहीं है। (1:56) किन्तु वही मनुष्य आज किस अवस्था में पहुँच गया है ? (पशु अवस्था में) क्यों पहुँच गया है ? इस पर हमें विचार करना चाहिए। वेदांत अमृत की बात तो हम लोग करते हैं। किन्तु अमृत कहाँ है ? सब तो मानो विष हो गया है। इसलिए हमें युवाकाल से ही विवेक-विचार पूर्वक जीवन यापन करना चाहिए। [अर्थात विवेक -दृष्टि (जीव ब्रह्म ही है, भिन्न नहीं ) में प्रतिष्ठित होकर जगत को ब्रह्ममय देखकर शिव ज्ञान से जीव सेवा करना चाहिए।]
हमलोगों के देश में जिस प्रकार प्राचीन काल से ही महाभारत के उपदेशों की बात होती आ रही है, मध्य युग के कवि चण्डीदास की उक्तियों का उल्लेख होता रहा है, (1200 साल पहले शंकराचार्यजी भी यही कहते थे - 'जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम्।' ) आधुनिक युग में स्वामी विवेकानन्द भी यही कहते हैं कि, " Man-manifestation is the highest" मनुष्य-जन्म ही सबसे ऊँचा है। किन्तु रवीन्द्रनाथ टैगोर के मुख से यही भाव एक अन्य तरीके से व्यक्त हुई है। उन्हों अपनी बंगला भाषा में लिखित कविता - "मैं" , आमि ( ami) या "I" में इस प्रकार कहा है -
'आमि'
( ami)
आमारई चेतनार रँगे पान्ना होलो सबुज , चुनि उठलो रांगा होय।
आमि चोख मेललूम आकाशे, ज्वले उठलो आलो, पूबे पश्चिमे।
मेरे चैतन्य के रंग से ही पन्ना (emerald) हरा हो गया,
(और) माणिक (ruby) लाल रंग में रंग गया !
मैंने अपनी आँखों से आकाश की ओर देखा, और पूर्व से पश्चिम तक प्रकाश चमक रहा था !
गोलापेर दिके चेये बललूम 'सुन्दर' ! सुन्दर हल से।
गुलाब की ओर देखकर मैंने कहा - 'सुन्दर'! और वो सुन्दर हो गया !
तुमि बलबे, ए जे तत्वकथा, ए कविर वाणी नय।
आमि बलब , ए सत्य , ताई ए काव्य।
आप कहोगे, ये सैद्धान्तिक बातें हैं, किसी कवि के शब्द नहीं।
मैं कहूंगा, यही सत्य है, इसीलिए यह कविता है।
ए आमार अहंकार , अहंकार समस्त मानुषेर हये।
मानुषेर अहंकारेर चित्र पटेई, विश्वकर्मार विश्वशिल्प।
हाँ, यह मेरा 'अहं' है ! लेकिन यह 'अहं' तो सभी मनुष्यों में होता है।
मनुष्यों के "अहं" ('मैं') के भीतर और पीछे ही तो,
विश्वकर्मा की विश्वप्रपंच कला छिपी/अन्तर्निहित है!
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আমি
(ami)
আমারই চেতনার রঙে পান্না হল সবুজ, চুনি উঠল রাঙা হয়ে।
আমি চোখ মেললুম আকাশে, জ্বলে উঠল আলো, পুবে পশ্চিমে।
গোলাপের দিকে চেয়ে বললুম "সুন্দর', সুন্দর হল সে।
তুমি বলবে, এ যে তত্ত্বকথা, এ কবির বাণী নয়।
আমি বলব, এ সত্য, তাই এ কাব্য।
এ আমার অহংকার, অহংকার সমস্ত মানুষের হয়ে।
মানুষের অহংকার-চিত্র পটেই, বিশ্বকর্মার বিশ্বশিল্প।
(3:03) (साभार -https://www.tagoreweb.in/Verses/shyamali-108/ami-770)
"I"
(ego)
In the colour of my consciousness,
the emerald turned green, the ruby rose red.
I looked up at the sky with my eyes,
and light shone from east to west.
Looking at the rose, I said, "Beautiful,"
and it became beautiful!
You will say, this is a theory, not the words of a poet.
I will say, this is the Truth , therefore this is poetry.
This is my 'ego' ('I'), but this 'ego'
(I) is present in all human beings.
Within and behind the "I" (ego) of humans,
lies the art of Vishwakarma's cosmic creation.
इस कविता में कवि रवीन्द्रनाथ ने मानव-मन की महिमा (बुद्धि, चित्त और या अहंकार की महिमा) को बहुत आश्चर्यजनक तरीके से अभिव्यक्त किया है। (क्योंकि मनोलय के बिना अद्वैत ज्ञान संभव ही नहीं है, इसलिए) हमारे शास्त्रों में भी ठीक यही बात कही गयी है-
"मनो जन्मो जगत् जन्मो, मनोलयः जगन्नाशः।"
' मन का जन्म होने से जगत का जन्म हुआ' तो किसके 'मन' का जन्म होने से -जगत का जन्म हुआ ? मनुष्य के मन का जन्म होने से सृष्टि की उत्पत्ति हुई ! यदि मनुष्य ही जगत में नहीं रहे , तो इस जगत का मूल्य ही क्या है ? यदि मनुष्य ही न हो तो , इस विश्वप्रपंच या जगत को देखेगा कौन ? इस जगत के साथ व्यवहार कौन करेगा ? इस जीव -जगत के पीछे कोई सत्य है या नहीं ? इस सृष्टि को देखकर इसका सृष्टिकर्ता, कोई ईश्वर है या नहीं? परिवर्तनशील जगत के पीछे कोई इस शाश्वत सत्य या ईश्वर है या नहीं इसका आविष्कार मनुष्य के सिवा और कौन करेगा? [मनुष्य के अतरिक्त अन्य कोई जीव सत्य की खोज या आत्मानुसंधान नहीं कर सकता है।] इसलिए इस सृष्टि का वर्णन करते हुए हमारे देश के शास्त्र श्रीमद्भागवत (११.९.२८) में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है -
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽत्मशक्त्या ।
वृक्षान्- सरीसृप- पशून्- खग-दंश-मत्स्यान् ।
तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ।
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥
(श्रीमद्भागवत -11.9.28)
सृष्टिकर्ता अर्थात् परमेश्वर, ब्रह्म या भगवान (श्रीरामकृष्ण) जब जगत की सृष्टि करने लगे तब उन्होंने अपनी अजया 'माया शक्ति' या आत्मशक्ति के द्वारा - 'सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या' अनेकों प्रकार पुराणि (पुर या शरीर) वृक्षान्- सरीसृप- पशून्- खग-दंश-मत्स्यान् को रचा । बिल्कुल जिस प्रकार 'biological evolution' में जीवों के क्रम-विकास का वर्णन होता है, उसी प्रकार सृष्टिकर्ता ने क्रमशःजड़ सृष्टि- वृक्षादि तथा चेतन सृष्टि में -सरीसृप या पेट से रेंगने वाले सर्पादि, पैर से चलने वाले पशु आदि पंखों के सहारे उड़ने वाले पक्षी, डंक मारने वाले जीवजंतु, तैरने वाले मछली आदि का निर्माण किया। क्रमशः ऐसे जीवों की सृष्टि रची गयी जिसमें आत्मा की सत्ता (विवेक-क्षमता) अधिकाधिक अभिव्यक्त हो रही थी। इसप्रकार सृष्टिकर्ता ने सृष्टि के आरंभ में कई प्रकार की योनियों की रचना की, लेकिन फिर भी सृष्टिकर्ता पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुआ। 'तैस्तैर अतुष्ट हृदयः' उनसे असंतुष्ट हृदय वाला" उससे उनके मन में सृष्टि करने का आनंद नहीं हुआ। तब सब से अन्त में -'पुरुषं विधाय' तब उन्होंने मनुष्य को बनाया। किस तरह के मनुष्य को बनाया ?- 'ब्रह्म अवलोक धिषणं' वैसे मनुष्य को बनाया जो 'विवेक' की योग्यता (या विवेक-दृष्टि) से युक्त था इसलिए वह इस जगत के मूल कारण ईश्वर या ब्रह्म को भी जान सकता है। यह केवल मनुष्य का वैशिष्ट्य है कि वह सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच का स्रोत (ईश्वर ,ब्रह्म या परमात्मा) है , जहाँ से सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न हुई है, उसको भी जान लेने में समर्थ है । तब अपनी ऐसी श्रेष्ठ रचना -'मनुष्य' (विवेकी) को देखकर 'मुदमाप देवः!' तब उस सृष्टिकर्ता या ईश्वर को बहुत आनन्द हुआ। (4:53)
सृष्टि -रचना की कथा केवल हमारे देश के श्रीमद्भागवत महापुराण में ही कही गयी हो , ऐसा नहीं है। स्वामी विवेकानन्द ने पाश्चात्य देशो में दिए गए अपने एक भाषण में कहा था कि , ईस्लाम तथा ईसाई धर्म के ग्रंथों में भी सृष्टि के सम्बन्ध लगभग एक जैसी कहानी पायी जाती है। ईश्वर ने अनेक प्रकार के देवदूतों (फरिश्तों) और जीव-जंतुओं की सृष्टि की। किन्तु इससे उनको सन्तुष्टि नहीं हुई। तब अंत में उन्होंने मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य की रचना करने के बाद ईश्वर ने कहा - " समस्त देवदूतों (एन्जिल्स) को बुलाकर ले आओ ! वे लोग आकरके देखें कि मैंने कितने अद्भुत जीव की रचना की है।" जब वे लोग आये ईश्वर ने देवदूतों से कहा कि, देखो यह 'मनुष्य' मेरी सर्वश्रेष्ठ रचना है, तुम लोग अपना सिर झुका कर मनुष्य प्रणाम और अभिनंदन करो! इबलीस को छोड़कर बाकी सब ने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने उसको कहा - दूर हटो शैतान, इससे वह शैतान बन गया।' इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य- जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। " (१/५३) जो 'मनुष्य' के सामने श्रद्धा से अपना सिर नहीं झुकाता, वह मनुष्य तो नहीं ही है, वह 'शैतान जैसा मनुष्य' बन जाता है। (5:58)
>>'मान+हूँश' या चैतन्य-लाभ सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण :
श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव मनुष्य के वैशिष्ट्य को बिल्कुल नये तरीके से बंगला भाषा में परिभाषित करते हुए कहते हैं -" मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-'मानुष' और 'मानहूँश।' एक हैं साधारण मनुष्य जो 'कामिनी-कांचन' के पीछे पागल बने रहते हैं - वैसे केवल नाम मात्र के मनुष्य अर्थात-'मानुष' और दूसरा वैसे मनुष्य जिन्हें चैतन्य लाभ हुआ है-'मानहूँश।' बहुत से लोग कई बार 'मान' और 'हूँश' को दो अलग-अलग चीज समझ लेते हैं। लेकिन ये दोनों अलग-अलग चीजें नहीं है। यहाँ श्री रामकृष्ण जो विवेक-क्षमता मनुष्य के आलावा अन्य किसी प्राणी के पास नहीं है; उसी मानव-गरिमा (human dignity) के सम्बन्ध में होश की बात कह रहे हैं। यहाँ 'मनुष्य' के 'मान' का अर्थ है - उसका 'वैशिष्ट्य', उसका विशेष गुण, धर्म, उसकी पहचान या विशेष योग्यता (characteristic) है -उसका विवेक ! जिसकी विवेक-दृष्टि जागृत है या जो व्यक्ति जगत को ब्रह्ममय देखने की क्षमता के प्रति सचेतन हैं, उसी को बंगला भाषा में 'मानहूँश' या हिन्दी में विवेकी -मनुष्य कहा जाता है। स्वामी अभेदानन्द जी ने श्रीरामकृष्ण देव की उपरोक्त उक्तियों को अंग्रेजी में इस प्रकार लिखा है -
188. Men are of two classes — men in name only (Manush) and the awakened men (Man-hush). Those who thirst after God alone belong to the latter class; those who are mad after 'woman and gold' are all ordinary men — men in name only.
189. As one mask may be worn by various persons, so also various kinds of creatures have donned the garb of humanity. Some are tearing wolves, others are ferocious bears, and some again are cunning foxes or venomous snakes, though they all look like men.
[The Sayings of Sri Ramakrishna- Written by : Swami Abhedananda.- Ashok Chakraborty's post. Sri Ramakrishna Bhab Prochar Sangha (শ্রী শ্রী রামকৃষ্ণ ভাব প্রচার সঙ্ঘ) ]
१८८. मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - मानुष (अविवेकी) और 'मन-होश' (विवेकी)। जो मनुष्य भगवान के लिए व्याकुल होते हैं वे 'मन -होश' हैं; और जो 'कामिनी-कांचन' के पीछे पागल बने रहते हैं वे साधारण मानुष हैं। (वैसे अविवेकी मनुष्य केवल नाम मात्र के मनुष्य हैं - अर्थात आहार, निद्रा, भय, मैथुन में पशुओं के ही समान हैं।)
१८९. जिस प्रकार एक ही किस्म का मुखौटा लगाकर कई तरह के लोग घूम सकते हैं, उसी प्रकार 'मनुष्य' का चोला धारण कर घूमने वाले तरह-तरह के प्राणी पाए जाते हैं। ऊपर से सभी मनुष्य (मानहूँश) जैसा दिखाई देते हैं, पर कोई खतरनाक चीता है, तो कोई भयंकर रीछ; कोई धूर्त लोमड़ी है, तो कोई जहरीला साँप।"
[अमृतवाणी- श्री रामकृष्ण के उपदेश : लेखक- स्वामी अभेदानन्द। (साभार श्री रामकृष्ण भाव प्रचार संघ :শ্রী শ্রী রামকৃষ্ণ ভাব প্রচার সঙ্ঘ !)]
लेकिन सुप्त विवेक को जागृत करके ('गुरु-शिष्य परम्परा' या '3H विवेक-विकास के 'Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग द्वारा) अविवेकी से विवेकी मनुष्य (मानहूँश) बन जाने की संभावना प्रत्येक मनुष्य में होती है, इसलिए मनुष्य ही विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है। किन्तु आज का मनुष्य तो प्राचीन काल के ऋषियों (ब्रह्मविद) के जैसा 'सर्वे भवन्तु सुखिनः की प्रार्थना' तो नहीं कर पा रहा है। आज का मनुष्य तो ऐसी प्रार्थना नहीं कर पा रहा है कि," संसार के सभी मनुष्य सुखी हों, सभी शांति और आनंद में रहें, सबों को ईश्वर की प्राप्ति हो !" सभी मनुष्यों का शरीर स्वस्थ और शक्तिशाली हो, सभी का मंगल या कल्याण हो ! किसी भी मनुष्य को दुःख का भागी नहीं बनना पड़े ! आज का मनुष्य यह प्रार्थना नहीं कर पा रहा है कि " किसी व्यक्ति का दोष मत देखो, उसमें जो अच्छा मंगलमय है उसी को देखो, जो अच्छा है वही सुनो ! " (6: 50)
आज विश्व के विभिन्न देशों में तथा अपने देश में भी कई प्रकार के मनुष्य दिखाई देते हैं। किन्तु आज से लगभग 1500 वर्ष पहले या पाँचवीं शताब्दी में भारत के दार्शनिक कवि हुए थे -भर्तृहरि! उन्होंने एक श्लोक में बताया है कि 'जगत में कई श्रेणी के मनुष्य पाये जाते हैं !' उन्होंने मनुष्यों को चार प्रकार की श्रेणी में विभक्त करते हुए कहा था -
एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थ परित्यज्यये।
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये।।
तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये।
येनिघ्नन्ति निरर्थकं पराहितं ते के न जानीमहे।।
इस दार्शनिक कवि ने मनुष्यों की चार प्रकार की श्रेणी में वर्गीकृत करने का कितना अद्भुत प्रयास आज से 1500 वर्ष पहले किया था। कवि कहता है कि वह तीन श्रेणी के मनुष्यों का वर्गीकरण आसानी से कर लेता है। 'एके' माने कुछ लोग ऐसे ‘सत्पुरुष’ होते हैं जो - 'परार्थघटकाः' हैं अर्थात जो अपने स्वार्थ को त्याग करके भी दूसरों का स्वार्थ सिद्ध करते हैं, दूसरों का मंगल करते हैं, दूसरों का उपकार करते हैं।
दूसरे श्रेणी में वैसे ‘सामान्य’ जन आते हैं - 'स्वार्थ अविरोधेन ये' जो लोग अपने स्वार्थ की रक्षा करते हुए, अपने स्वार्थ को चोट पहुँचाये बिना दूसरों की भलाई करते है, दूसरों का मंगल करते हैं। सामान्य श्रेणी के मनुष्य भी दूसरों का उपकार करते हैं, लेकिन, अपने स्वार्थ को त्यागकर दूसरों का उपकार नहीं करते।
और तृतीय श्रेणी के मनुष्य वैसे लोग होते हैं जो अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए, दूसरों के जीवन की हानि से लेकर के सभी प्रकार की हानि पहुँचा सकते हैं । वैसे मनुष्यों को भर्तृहरि 'मानव-राक्षस' या मनुष्यों में राक्षस की संज्ञा देते हैं।
और चौथे श्रेणी के मनुष्य के वे हैं -'येनिघ्नन्ति निरर्थकं पराहितं' - जो 'निरर्थकं' बिना किसी कारण के ही, दूसरों की हानि करते रहते हैं, दूसरों का अहित करते रहते हैं, जिनकी प्रवृत्ति ही परहित के विरुद्ध कार्य करने की रहती है; भले ही इससे उनका कोई स्वार्थ सिद्ध न हो रहा हो। ऐसा देखा जाता है कि कोई बिल्कुल निर्दोष व्यक्ति था, लेकिन उसके जीवन को किसी ने अकारण ही नष्ट कर दिया। कवि कहता है कि - ते के न जानीम हे' उन चतुर्थ श्रेणी के मनुष्यों को वह किस नाम से पुकारे? यह कवि भी नहीं जानता, क्योंकि ऐसे लोगों में अधमता की पराकाष्ठा है क्योंकि वे अकारण ही दूसरों के कार्य को बिगाड़ते हैं । 1500 वर्ष पहले दार्शनिक कवि भर्तृहरि ने ऐसे चतुर्थ श्रेणी के मनुष्यों को सचमुच देखा था या उन्होंने ऐसी मनुष्यों की कल्पना थी; इसके बारे में निश्चयपूर्वक अभी कुछ कहना सम्भव नहीं है। किन्तु 1500 वर्ष पहले जिस प्रकार के चतुर्थ श्रेणी के मनुष्य के बारे में कहा था, ऐसे मनुष्य आज भी दिखाई अवश्य देते हैं। (9:56)
लेकिन इसमें आशाजनक बात यह है कि कोई मनुष्य जन्मजात रूप से चाहे किसी भी श्रेणी में क्यों न जन्म लिया हो, लेकिन मनुष्य का जो वैशिष्ट्य है , मनुष्यमात्र में जो विवेक-क्षमता या 'divinity' अन्तर्निहित है, उस विवेक-दृष्टि के जाग्रत हो जाने पर उसके विकास की असीम सम्भावना अवश्य रहती है। अन्य पशुओं से मनुष्य का अन्तर उसकी इसी योग्यता (विवेक-दृष्टि) के कारण है। पशु जैसा होकर आता है, पशु अवस्था में ही उसकी मृत्यु हो जाती है। लेकिन मनुष्य अपूर्ण होकर आता है, असम्पूर्ण होकर आता है, लेकिन अपने को पूर्ण बना लेना ही उसका कर्तव्य है। यह अद्भुत सिद्धांत हमारे देश के सनातन धर्म में प्राचीन समय से चला आ रहा है।
किन्तु यह देखकर आश्चर्य होता है कि एक अंग्रेज कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग -(Robert Browning) इस प्राचीन भारतीय सिद्धांत (महावाक्य) को किसी प्रकार समझ लिया था। इसलिए उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं हमेशा ध्यान में आ जाती हैं- “Progress, man’s distinctive mark alone, Not God’s, and not the beasts’: God 'is', they 'are', Man partly is and wholly hopes to be” - Progress अर्थात प्रगति, उन्नति ,उत्थान या विकास यह मनुष्य का एक विशिष्ट चिन्ह है। यह भगवान में भी नहीं है , पशु में भी नहीं है। ईश्वर पूर्ण है -वे जैसे हैं , वैसे ही रहेंगे। पशु लोग जैसे आये हैं, वैसे ही रहेंगे , पशु अवस्था में ही जगत से चले जायेंगे। लेकिन " Man partly is and wholly hopes to be” अपूर्ण मनुष्य पूर्ण (ईश्वर-100 % निःस्वार्थी) होना चाहता है।
इसलिए स्वामी विवेकानन्द ने मनुष्य के ऊपर बहुत अच्छी बात कही है -" First, let us be Gods, and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto." पहले हमें पूर्ण (ईश्वर) बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को पूर्ण (ईश्वर) बनाने में सहायता देंगे। 'बनो और बनाओ' यही हमारा मूल-मंत्र रहे। हम यही कहें -"We are" and "God is" and "We are God !" " हम हैं" और "ईश्वर हैं" और " हम ईश्वर हैं !" चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ कहते हुए आगे बढ़ते चलो। आत्मा की शक्ति का विकास करो, और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो और जिस स्थिति की आवश्यकता है, वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी।"
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है जो व्यक्ति यह काम करता है -पूर्णतर मनुष्य बनने और पूर्णतर मनुष्य बनाने "Be and make." आंदोलन के प्रचार-प्रसार में लगा रहता है, वही है मनुष्य। हम जितने भी लोग इस काम को करने में लगे हैं , स्वामी जी के इस उपदेश का मूलसिद्धांत (keynote-मुख्य बात, प्रधान- राग) हमारे ह्रदय में प्रवेश नहीं करता है। अर्थात इस सिद्धांत का आत्मसातीकरण नहीं हो पाता है। इसीलिए इस सिद्धांत को अपने जीवन में धारण करने के लिए जितने उद्यम की आवश्यकता होती है , उतना उद्यम, उतना प्रयत्न हम नहीं कर पाते हैं। यदि हम सभी लोग निष्ठा के साथ स्वयं पूर्ण मनुष्य बनने और दूसरों को पूर्ण मनुष्य बनाने के कार्य में लगे रहें तो निश्चित रूप से मानवजाति का उत्थान होगा। मनुष्यों के बीच परस्पर -कलह (Brawl) झगड़ा, लड़ाई (fight) विवाद (altercation) समाप्त हो जाएगी। (11:59 )
हमारे देश की सनातन विचारधारा में यह आस्था है कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर देवता हैं, ईश्वर हैं, ब्रह्म हैं, लेकिन उस देवत्व, ब्रह्मत्व या पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करना अभी बाकी है । इसीलिए स्वामी जी ने कहा है - 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' - यही हमारा दृढ़ विश्वास है ! हमारे उपनिषदों में जिस सत्य का अनुभव किया है, और उसकी घोषणा की है , ऋषियों की वाणी को हमलोग महावाक्य कहते हैं। ऐसे अनेको महावाक्य हैं , उनमें से केवल कुछ को संग्रहित करके व्याससूत्र या ब्रह्मसूत्र की रचना हुई है। किन्तु ऐसे अनेकों महावाक्य हैं। ये महावाक्य बिल्कुल सरल हैं , किन्तु अत्यंत आश्चर्यजनक हैं ! उसके मर्म को आसानी से समझ नहीं पाते हैं। जैसे एक महावाक्य है - 'अहं ब्रह्मास्मि !' स्वरूपतः 'मैं कौन हूँ ?' मैं ही ब्रह्म हूँ। जैसा कि श्रीमद्भागवत (11.9.28) श्लोक पर चर्चा करते हुए हमने सुना था - 'ब्रह्मावलोकधिषणं' मनुष्य में जो एक विशिष्ट योग्यता 'विवेक' है उसके द्वारा ब्रह्म को भी समझ सकता है। लेकिन ब्रह्म को तर्क (reasoning) के द्वारा न तो खुद समझा जा सकता है , न तर्क के द्वारा दूसरों को समझाया जा सकता है। श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ईश्वरचंद्र विद्यासागर से मिलने के लिए गए थे। वे अपने समकालीन प्रसिद्द लोगों से मिलने के लिए दौड़ पड़ते थे। उनसे मिलने के बाद विद्यासागर महाशय ने ठाकुर देव से कहा कि मुझे ब्रह्म के विषय में बताइये। तब ठाकुर रामकृष्णदेव बोले - ब्रह्म के विषय में मुख से तो कहा नहीं जा सकता है। समस्त शास्त्र मुँह से कहकर के जूठा हो गए हैं। किन्तु ब्रह्म क्या है ? यह आज तक कोई मुख से उच्चारित नहीं कर सका है। उच्चारण करने से जूठा हो जायेंगे। (क्योंकि 'तम अगोचरं' -आत्मा या ब्रह्म को इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता) तब विद्यासागर महाशय ने कहा -आज यह नई बात मैंने सुनी है !
लेकिन ये कोई नई बात नहीं है। एक महान पण्डित (महिमाचरण-चक्रवर्ती) ने श्री रामकृष्ण देव से कहा था, आप जो भी बोलते थे वह सब शास्त्रों में लिखा हुआ है, तो भी मैं आपके पास क्यों आता हूँ, जानते हैं ? आपके मुख से सुनने में बहुत अच्छा लगता हैं। विद्यासागर महाशय से श्री रामकृष्ण देव ने जो कहा था , वह शास्त्र में इस प्रकार लिखा है -
"उच्छिष्ठ सर्व शास्त्राणि सर्व विद्या मुखे मुखे।
न उच्छिष्ट ब्रह्मणो ज्ञानं अव्यक्तं चेतनामयं।"
वेद, तंत्र, पुराण आदि सभी शास्त्र मुख से उच्चारित होने के कारण जूठे हो चुके हैं, क्योंकि उन्हें पढ़ा गया है। केवल एक वस्तु जूठी नहीं हो पाई, वह है ब्रह्म। ब्रह्म क्या है ? यह आज तक कोई बता नहीं पाया। ब्रह्म क्या है यह मुख से कहा नहीं जा सकता। (जिसने कभी समुद्र नहीं देखा, ऐसे व्यक्ति को यदि समुद्र कैसा होता है- यह समझाना पड़े तो इतना ही कहा जा सकता है, 'ओह ! यह बहुत विशाल जलाशय है, चारों ओर पानी ही पानी है!)
ब्रह्म के विषय में श्रीरामकृष्ण देव कितने प्रकार से उदाहरण देते थे - " तीन व्यक्ति ब्रह्म सागर को देखने गए थे!" एक व्यक्ति ब्रह्मसागर को दूर से देखकर और आवाज सुनकर ही अचेतावस्था में चला गया। दूसरा व्यक्ति जल के निकट पहुँचा और उसको स्पर्श करते ही वह भी बेहोशी के हालत में चला गया। और तीसरा व्यक्ति ब्रह्मसागर के जल में डुबकी लगाया था, फिर भी अचेतावस्था में नहीं गया। इसलिए वापस आकर देवर्षि नारद कुछ संकेत बता सके थे। जैसा साधक कवि रामप्रसाद ने एक गाना में कहा है -ब्रह्म को चरण बद्ध तरीके से धीरे-धीरे (श्रवण, मनन, निदिध्यासन द्वारा, ঠারে ঠোরে বুঝে নিয়ে যায়) समझा जा सकता है, किन्तु मुख से बोला नहीं जा सकता है। ब्रह्म के बारे में बोला नहीं जा सकता है , ब्रह्म हुआ जा सकता है। “ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति” जो व्यक्ति ब्रह्म हो जाता है , वही समझ सकता है कि, ब्रह्म वस्तु क्या है !?? किन्तु वह ऋषि (सत्यद्रष्टा-ब्रह्मविद) भी अपने मुख से बोल नहीं सकता कि ब्रह्म क्या है ? परन्तु स्वयं उसका अनुभव कर सकता है। (14:46) उस समय उस ऋषि (देवर्षि नारद) को अनुभव होता है-'अहं ब्रह्मास्मि'! उसे यह अनुभव होता है कि- ब्रह्म उससे भिन्न नहीं हैं। वह ब्रह्मविद जब दूसरों को देखता है, तब कहता है -तत्त्वमसि -'तत् त्वम् असि' (वही तू है !) उसके बाद जब वो अपने चारों ओर देखता है , तब देखता है कि 'ब्रह्म से भिन्न तो कुछ है ही नहीं !' समस्त जगत ब्रह्म ही है, तब कहता है -"सर्वं खलु इदं ब्रह्म" -(छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१) "यह सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच ब्रह्म ही है"।
[भागदौड़ भरी ज़िंदगी, भौतिकता की चाहत और (चेतन , अवचेतन , अचेतन मन की) अंतहीन भटकावों से भरी इस दुनिया में, भारत के प्राचीन ग्रंथ हमारे वेद उपनिषद जो शाश्वत ज्ञान के अनंत भंडार हैं , मनुष्य के वास्तविक स्वरुप और मनुष्य जीवन के उद्देश्य के बारे में गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। चार वेद हैं, जिनमें से प्रत्येक में महावाक्य (महान वचन) नामक शक्तिशाली कथन हैं, जो वैदिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करते हैं। हमें उन चारो महावाक्यों के अर्थों पर गहराई से विचार करना चाहिए तथा उन के ज्ञान के अनुरूप अपना जीवन-गठन करके हम अपने दैनंदिन जीवन में उस ज्ञान को कैसे शामिल कर सकते हैं, उन महावाक्यों के व्यावहारिक उदाहरण, अपने जीवन द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयत्न करना चाहिए।
(i) लक्षणा वाक्य : 'प्रज्ञानं ब्रह्म' - प्रज्ञान ही ब्रह्म है।" यह महावाक्य ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद से उद्धृत किया गया है। "Pure Consciousness" is Brahman! प्रज्ञान: शुद्ध चेतना, वह जो स्वयं से प्रकाशित है और सबको प्रकाशित करता है। ब्रह्म: परम सत्य, निराकार, असीम, अनंत, अद्वितीय तत्त्व है।) वह परमात्मा या ब्रह्म सभी प्राणियों में साक्षी, आत्मा या जीव-रूप में विद्यमान है।
व्यावहारिक संदेश - शरीर, मन, बुद्धि बदलते रहते हैं; लेकिन साक्षी चेतना (screen?) कभी नहीं बदलती। बाहर खोजने की बजाय, अपने भीतर झाँककर उस चैतन्य का अनुभव करो। हर क्षण साक्षी भाव से रहो — मैं देख रहा हूँ, यह देखने वाला कौन है? वही चेतना। यही अनुभव मोक्ष (मुक्ति) की ओर ले जाता है।
(ii) अनुभव वाक्य : 'अहं ब्रह्मास्मि ' -- मै ब्रह्म हूँ। (I am Brahman) (बृहदारण्यक उपनिषद् १/४/१०), आत्मबोध का चरम सूत्र है। यह वाक्य केवल स्वयं को परमात्म स्वरूप मानने का संकेत नहीं देता, अपितु सीमित, संकुचित और बन्धित अस्मिता से ऊपर उठकर ब्रह्मतत्त्व में स्वयं की सर्वव्यापी सत्ता की अनुभूति कराता है।
व्यावहारिक संदेश - यह आज के मानव को आत्मगौरव, आत्मनिर्भरता और अपने जीवन में उत्तरदायित्व बोध की शक्ति देता है। अहंकार के स्थूल स्तर से ऊपर उठकर जब व्यक्ति अहं को 'ब्रह्म' में विलीन कर देता है, तब उसके जीवन में अवसाद, चिन्ता और असफलताओं का संकट नहीं रहता।
(iii) उपदेश वाक्य : 'तत्वमसि' - तत त्वम असि - वह पूर्ण ब्रह्म तू है ! (छान्दोग्य उपनिषद् ६/८/७) इस महावाक्य का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , तुम भी ब्रह्म हो , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है। मनुष्य को यह स्मरण दिलाता है कि जिस परम सत्य को (ब्रह्माण्डीय सत्ता को) वह अपने से बाहर खोजता रहा, वही वास्तव में वह स्वयं है। उपदेश वाक्य इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही, परस्पर व्यवहार में दूसरों के प्रति आदर और श्रद्धा की भावना को भी पैदा करते हैं।
व्यावहारिक संदेश - आज व्यक्ति जब बाह्य जगत् में सुख, सफलता, प्रसिद्धि और उपलब्धि के पीछे दौड़ता है, तब यह वाक्य उसे भीतर देखने की प्रेरणा देता है। यह सूत्र कहता है कि जीवन की पूर्णता बाह्य पदार्थों की उपलब्धि में नहीं, अपितु उस अनन्त तत्त्व की अनुभूति में है, जो बाह्य नहीं, अन्तर्जगत् का प्रकाश है। यही आत्मा के अखण्ड सत्य का दर्शन है, जो मनुष्य को आधुनिक युग की अन्तहीन प्रतिस्पर्धा और अधीरता से मुक्त करने की शक्ति रखता है।
(iv) अनुसंधान वाक्य : 'अयम् आत्मा ब्रह्म' (माण्डूक्य उपनिषद् १/२) - अर्थात 'यह आत्मा ब्रह्म है।' यह महावाक्य ही आत्मा और ब्रह्म के अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। और हमें अपने यथार्थ स्वरूप का (larger reality, बृहद या शाश्वत सत्य, या ब्रह्म) का अनुसन्धान करने के लिए, तथा अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व या दिव्यता को अभिव्यक्त करने के लिये अनुप्रेरित करता है। इसलिए इसे 'अनुसंधान वाक्य' या आत्मानुसाधन -वाक्य 'भी कहा जाता है।
व्यावहारिक संदेश -'अयम् आत्मा ब्रह्म' अर्थात् 'ब्रह्म', सच्चिदानन्द, परमात्मा ही प्रत्येक जीव में 'आत्मा' (की अव्यक्त दिव्यता) के रूप में अवस्थित हैं! तथापि आत्मानुसाधन की अभिव्यक्ति में तारतम्य तो रहता ही है। इसलिए व्यावहारिक जगत में सावधानी बरतने के प्रति सचेत करते हुए, भगवान श्रीरामकृष्ण अपने भक्तों को दो कहानी कहते थे पहला -" हाथी नारायण तो महावत भी नारायण।" दूसरा " काटना मत लेकिन फुँफकारना जरूर !"
आधुनिक सन्दर्भ में यह सूत्र आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और आत्मशक्ति का उद्घोष बन सकता है। व्यक्ति यदि आत्मा को (अव्यक्त) ब्रह्म समझकर जीता है , तो वह संसार के दबाव, प्रलोभन और भयों के बीच भी स्वतन्त्र, निडर और दृढ़ रहता है। यह सूत्र आत्मबल, नैतिक साहस और आन्तरिक स्पष्टता (विवेक दृष्टि) प्रदान करता है, जो वर्तमान युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
इस अनुसन्धान वाक्य - 'अयम् आत्मा ब्रह्म' - यह आत्मा ब्रह्म है।' सूत्र के आंतरिक स्पष्टता की व्याख्या ('यह आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है।) करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मन:संयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान – पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया – कलाप तो उसके गौण ब्यौरे मात्र है।" (वि.सा.-१ : राजयोग : पातंजल योगसूत्र : साधनपाद)
इसी अंतर्निहित ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति के तारतम्य (sequence या अनुक्रम) का उल्लेख करते हुए हनुमान जी कहते हैं -
देहबुद्ध्या तु दासोऽस्मि जीवबुद्ध्या त्वदंशकः।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः ।।
(वाल्मीकिरामायणम् )
हनुमानजी बोले, 'हे प्रभो ! देहबुद्धि अर्थात देह की दृष्टि से या देह के साथ तादात्म्य होते ही मैं आपका दास हूँ ! जीवबुद्धि (जीवात्मा बुद्धि) से मैं आपका (परमात्मा का या ईश्वर का) एक अंश हूँ। आत्मा के दृष्टिकोण से (या उस अवस्था में) मैं भी आप ही हूँ -अर्थात सच्चिदानन्द-स्वरुप ही हूँ। यही मेरी निश्चित मति है।]
हमलोग शंकराचार्य जी को अद्वैतवादी के रूप में जानते हैं। किन्तु शंकराचार्य जी ने अद्वैत वेदांत को तो प्रतिष्ठित किया ही है, लेकिन अपने भाष्यादि तथा अन्य ग्रंथों में कई व्यावहारिक बातों का उल्लेख किया है -
दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत।
सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रावलोकिनी।।
हमारे योग-शास्त्रों में ध्यान करते समय अपनी दृष्टि को नासिका के अग्रभाग में निबद्ध रखने का उपदेश दिया गया है। और इसके ऊपर विवाद भी हुआ है - नासिका अग्रभाग किसको माना जायेगा , जहाँ से नासिका शुरू होती है , वहाँ या जहाँ समाप्त होती है वहाँ -दृष्टि को निबद्ध रखनी है ? वह दृष्टि नहीं, यहाँ ज्ञामनमयी दृष्टि से -'पश्येद ब्रह्ममयं जगत।' जगत को ब्रह्ममय देखने की बात कही जा रही है। 'सा दृष्टिः परमोदारा' ऐसी दृष्टि ही -परम् उदार दृष्टि है। समस्त जगत एक है , जगत के सभी जीव-जगत या वृक्ष या पर्वत जिसे हम जड़ सृष्टि कहते है, कुछ भी जड़ नहीं है, सब कुछ चैतन्य है। 'चैतन्यात् सर्वं उत्पन्नं !' (16:22) सब कुछ चैतन्य से उत्पन्न हुआ है।
चैतन्यात्सर्वमुत्पन्नं जगदेतच्चराचरम्।
तस्मात्सर्वं परित्यज्य चैतन्यं तं समाश्रयेत्॥
(शिवसंहिता)
यह सब चराचर जगत् चैतन्य से उत्पन्न हुआ हैं। इसलिए अन्य सब भौतिक चीजों (स्थूल शरीर के साथ तादाम्य) को अनुचित महत्व ना देकर चैतन्य का ही आश्रय लेना चाहिए। जो कुछ विश्वप्रपंच दिख रहा है, पत्थल, पहाड़, पेड़-पौधा सब कुछ चैतन्य (ईश्वर) है। श्रीमद्भागवत (११-२-४१) में भी कहा गया है -
खं वायुमग्निं सलिलं महीं च ,ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित समुद्रान् च हरेः शरीरं यत्किं च भूतं प्रणमेदनन्यः ।।
(विवेक-दृष्टि सम्पन्न) भक्त को किसी भी वस्तु को भगवान श्रीहरि से पृथक नहीं देखना चाहिए। आकाश, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, सूर्य तथा अन्य ज्योतियाँ, सभी जीव, दिशाएँ, वृक्ष और अन्य वनस्पतियाँ, नदियाँ और समुद्र - भक्त को जो भी अनुभव हो, उसे परमात्मा का ही अंश समझना चाहिए। इस प्रकार सृष्टि में विद्यमान प्रत्येक वस्तु को भगवान हरि का शरीर मानकर, भक्त को भगवान के शरीर के सम्पूर्ण विस्तार के प्रति अपना सच्चा सम्मान अर्पित करना चाहिए।
जो कुछ आप देखते हो, सब कुछ हरि का शरीर है, भगवान का शरीर है। कहने का तात्पर्य हुआ,सब कुछ ब्रह्म ही हैं। इसलिए जिस किसी वस्तु , प्राणी या मनुष्य को देखो उन सब को मन ही मन प्रणाम करो! इसीको विवेक-दृष्टि में या ज्ञान-मयी दृष्टि में प्रतिष्ठित होना कहते हैं। मनुष्य की विशेष योग्यता या मनुष्य का वैशिष्ट्य यही है कि वह मननशील है- "मननशीलो मनुष्यः"! मनुष्य का वैशिष्ट्य यही है कि वह विवेक-विचार कर सकता है, आत्मविश्लेषण कर सकता है, आत्मानुसंधान कर सकता है; और जगत पीछे और भीतर अवस्थित सत्य को आविष्कृत भी कर सकता है। यह योग्यता मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी प्राणी के पास नहीं है। यदि मनुष्य इन महावाक्यों के 'श्रवण, मनन और निदिध्यासन' की शिक्षा को प्राप्त कर सके, और उन्हें धीरे धीरे अपने जीवन में धारण कर सके तो मनुष्य इतना अधिक उन्नत हो सकता है कि वह देवता से भी आगे निकल सकता है। (17:13)
फ़ारसी के कवि जलालुद्दीन रूमी अपनी एक कविता में बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं — खनिज (mineral) के रूप में 'मैं' मरा और पौधा बन गया, पौधे के रूप में मैं मरा और पशु बनकर उभरा, पशु के रूप में मैं मरा और मनुष्य बन गया, मुझे भय क्यों हो? मरने से मुझमें कमी कब आई है? मनुष्य के रूप में मैं अभी एक बार और मरूँगा, जिससे कि देवता से भी उन्नत हो सकूँ!" लेकिन देवता या देवदूत बन जाना भी उन्नति का अंत नहीं है। मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र से परे, देवत्व से भी परे अनन्त आलोक (ब्रह्म) के साथ एकत्व की अनुभूति में प्रतिष्ठित हो जाना चाहिए। (17:31)
मनुष्य की उन्नति
(मनुष्य का क्रमविकास:evolution of man)
बेजान खनिजों से मर गया, पौधा बन गया,
फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया।
हैवानों से मर गया और आदमी हो गया
डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?
अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ,
ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ।
और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना,
कि सिवा उस के हर शै को फ़ना हो जाना।
एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा,
फिर जो सोच में नहीं आता, वो हो जाऊँगा।
शंकराचार्यजी ने विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ में कहा है -
इतः को न्वस्ति मूढ़ात्मा, यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति।
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम्।। ५।।
जो व्यक्ति दुर्लभ मनुष्य शरीर तथा 'पौरुष' को प्राप्त करके भी अपने स्वार्थ साधन में अर्थात विवेकी मनुष्य बनने, अपने सत्य-स्वरूप को जानने, आत्मान्वेषण करने में या 'मैं कौन हूँ ?'- यह जानने में आलस्य करता है, उससे अधिक मूढ़ और कौन हो सकता है?
स्वामी विवेकानन्द ने शंकराचार्य जी के इसी कथन से 'पौरुष' शब्द को आत्मसात करते हुए कहा था-" पौरुष मेरा नया महावाक्य है !" My new gospel is Manliness ! तो पौरुष 'Manliness' किसे कहते हैं ? पौरुष या 'Manliness' को ही 'मनुष्यत्व' मनुष्य की विशेष योग्यता या यानि विवेक को ही मनुष्य का वैशिष्ट्य कहते हैं। मनुष्यत्व का अर्थ है मनुष्य का कार्य करने की शक्ति, स्वयं को उन्नत (विवेकी) मनुष्य बनाने की शक्ति। विवेकी मनुष्य बनने में दूसरों को सहायता करने की शक्ति।
[इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है, उतना ही अधिक मुझे लगता है कि 'पौरुष'-इस एक शब्द में समस्त शक्तियाँ निहित हैं। यह मेरा नया महावाक्य है !" (८/१३०) “The older I grow, the more everything seems to me to lie in manliness. This is my new gospel." ]
इसी लिए शंकराचार्य जी खेद प्रकट करते हुए कहते हैं - 'दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम्' -अर्थात एक तो मानव-शरीर मिलना दुर्लभ है, उसके साथ -साथ किसी व्यक्ति को 'पौरुष' या विवेक-दृष्टि भी प्राप्त हो, यदि फिर भी वह अपने को उन्नततर मनुष्य बनाने का प्रयत्न नहीं करता (अर्थात जगत को ब्रह्ममय देखकर भी उसकी, निःस्वार्थ सेवा करने का प्रयत्न नहीं करता) तो उस व्यक्ति से अधिक मूढ़, मूर्ख या अभागा (unlucky) व्यक्ति और कौन होगा?इसीलिए स्वामी विवेकानन्द हमलोगों को सही अर्थों में धार्मिक या विवेकी मनुष्य बनने के लिए उत्साहित करते हुए कहते हैं - "It is good to be born in a church or in a temple, but it is bad to die there ."
"किसी गिर्जा या मंदिर में जन्म लेना अर्थात किसी सम्प्रदाय में पैदा होना अच्छा है, पर उसकी सीमाओं के भीतर ही मर जाना बुरा है। बच्चा पैदा होना अच्छा है, पर सदा के लिए बच्चा ही रह जाना बुरा है। सम्प्रदाय, नियम और प्रतीक बच्चों के लिए तो ठीक है, पर जब बच्चा सायना हो जाये तो, उसे चाहिए कि या तो वह सम्प्रदाय को ही अतिशय विस्तृत बना दे या स्वयं उससे बाहर चला जाये। हमें सदा ही शिशु नहीं रहना है। यह बात तो कुछ वैसी ही लगती है जैसे बचपन के कोट को ही हर अवस्था में पहनने की कोशिश की जाये। " (आत्मा, ईश्वर और धर्म/२/२३५)
[It is good to be born a child, but bad to remain a child. Churches, ceremonies, and symbols are good for children, but when the child is grown, he must burst the church or himself. We must not remain children for ever. It is like trying to fit one coat to all sizes and growths. Volume (1):Soul, God and Religion]- (18:29)
मनुष्य का धर्म क्या है ? विवेक ही मनुष्य का विशेष गुण है, या विवेकी होना ही मनुष्य की पहचान है - इसलिए विवेक ही मनुष्य का धर्म है, मनुष्य का मनुष्यत्व है। अभी हमलोग यह समझ बैठे हैं कि, मंदिर, मस्जिद या गिर्जा जाना और वहाँ कुछ कर्मकाण्डी अनुष्ठान आदि में भाग लेना ही धर्म है। उसको धर्म नहीं कहते हैं। प्रत्येक मनुष्य में जो ब्रह्मत्व, दिव्यता या विवेक अंतर्निहित है, उसको जाग्रत का लेना ही मनुष्य का धर्म (कर्तव्य) है। महाभारत में कहा गया है - " धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः।" धर्म (विवेक) वह वस्तु है जो सभी मनुष्यों को या समस्त प्रजा वर्ग को धारण करता है ! मनुष्य धर्म के वास्तविक अर्थ विवेक को (जगत को ब्रह्ममय देखने और और उसकी सेवा करने की क्षमता को) यदि हम समझ सकें और उसके साथ-साथ 'पौरुष' अर्थात हमारे कार्य करने की शक्ति, और उद्यम, मनोबल या संकल्प की दृढ़ता के साथ अपने को यदि उन्नत मनुष्य बनाने के प्रयत्न करने में जुटे रहें, तो मनुष्य -जाति में एक नई श्रेणी के मनुष्यों की उत्पत्ति होगी जो साधारण मनुष्यों के स्तर से ऊपर के स्तर के मनुष्य होंगे। और इसी प्रकार के उन्नत स्तर के मनुष्य बनने और बनाने के लिए हमें युवाओं का आह्वान करना चाहिए। (19: 17) क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी है कि जिसे हम वेदांत अमृत कहते हैं, मंगलमय, कल्याणकारी विचार, उच्च जीवनदायी विचार, शक्तिदायी विचार कहते हैं उन अच्छे भावों को हमारी नई पीढ़ी प्राप्त नहीं कर पा रही है।
आजकल मनुष्य होकर भी पशु जैसे कार्य कर देने वाले मनुष्यों की संख्या भी कम नहीं है; क्या इस अवस्था में परिवर्तन लाने का कोई उपाय नहीं है? इस अवस्था परिवर्तन का उपाय हमारे देश में पर्याप्त है। जिस समय भारतवर्ष अंग्रेजों का गुलाम था, उस समय स्वामी विवेकानन्द से कुछ लोग पूछते थे -कि स्वामीजी आप देश की स्वतन्त्रता के लिए क्या कर रहे हैं ? इसके उत्तर में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - मैं तीन दिनों में देश को स्वाधीन करा सकता हूँ, लेकिन जो इस स्वाधीनता रक्षा करने में सक्षम हों, तुम्हारे पास ऐसे मनुष्य कहाँ हैं? स्वाधीनता को बचाये रखने के लिए, देश की उन्नति के लिए जो प्रथम आवश्यक वस्तु है, उसकी पहली सीढ़ी है वो है -शिक्षा ! उस शिक्षा की आज क्या अवस्था है ? देश को स्वाधीनता प्राप्त किये लगभग 57-58 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन आज भी हमारे देश की शिक्षा का स्तर क्या है ? (20:20)
सभी के सामने वर्तमान शिक्षा के विषय में बोलने से भी संकोच होता है; फिर भी कहना पड़ेगा कि शिक्षा अत्यंत निम्न-स्तर में पहुँच चुकी है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने देश की सर्वांगिण उन्नति के उपाय पर बोलते हुए कहा था - "पहले मनुष्य निर्माण करो !"
"मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये! शेष सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, (अंतर्निहित दिव्यता में) दृढ-विश्वासी, निष्कपट- नवयुवकों की ! ऐसे सौ मिल जायें तो संसार का कायाकल्प हो जाय। " (मेरी क्रन्तिकारी योजना : ५/११८)
" Men, men, these are wanted: everything else will be ready, but strong, vigorous, believing young men, sincere to the backbone, are wanted. A hundred such and the world becomes revolutionized." vol/3/223 ]
लेकिन 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' या विवेकी मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा का प्रचार-प्रसार कहाँ हो रहा है ? स्वामी जी ने कहा था -" सम्पूर्ण शिक्षा-व्यवस्था को हमें अपने हाथ में लेना होगा" अर्थात भारतीय शिक्षण परम्परा के अनुरूप बनना होगा । लेकिन वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था किस तरह के लोगों के हाथों में है ? भारतीय संस्कृति की महत्व को समझने वाले विवेकी- मनुष्यों के हाथों में तो देश की शिक्षा व्यवस्था नहीं है। सरकार ने ऐसी आशा की थी कि विद्यालय में यदि दोपहर के भोजन की व्यवस्था की जाए तो, तो छोटे-छोटे बच्चे स्कूल आने लगेंगे। लेकिन इस दोपहर भोजन-व्यवस्था आधारित शिक्षा में कितने तरह के काण्ड हुए यह सभी लोग जानते हैं। अभी हाल में बंगाल के अख़बार में छपा है कि स्कूल में फिल्म दिखाने की व्यवस्था होगी , ताकि फिल्म देखने के बहाने लड़के स्कूल आएंगे।
क्या इसको शिक्षा कह सकते हैं? क्या इस प्रकार शिक्षा दी जाती है ? शिक्षा वास्तविक उद्देश्य है 'मनुष्यत्व' को विकसित कर देना, अंतर्निहित दिव्यता (विवेक-दृष्टि) को जागृत कर देना! अर्थात मनुष्यों के भीतर वह जो पशुत्व या पशुभाव 'Animality' रहता है, उसको (3H निर्माण के 5 अभ्यास द्वारा) दूर करना होगा। छात्रों में विद्यमान पशुभाव (यानि घोर स्वार्थपरता) को हटाकर पहले उन्हें मनुष्य भाव में (50%निःस्वार्थ या सामान्य मनुष्य की श्रेणी में) प्रतिष्ठित करना होगा। मनुष्य भाव में प्रतिष्ठित हो जाने के बाद, उससे भी उच्चतर भाव - मनुष्य भीतर जो 'Divinity' (विवेक-दृष्टि) अन्तर्निहित है, उसको जाग्रत और व्यक्त करने की चेष्टा करनी होगी। (21:33) इसलिए स्वामीजी ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा था - "Education is the manifestation of the perfection already in man." (मनुष्य के भीतर जो सम्पूर्णता पहले से है, उसको अभिव्यक्त करने की चेष्टा का नाम है शिक्षा।) "शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। " (खंड २/३२८) किन्तु हमारे देश में ऐसी शिक्षा- अन्तर्निहित पूर्णता (दिव्यता, ब्रह्मत्व) को व्यक्त करने वाली शिक्षा कहाँ दी जाती है? स्वाधीनता के 78 वर्ष बीत जाने के बाद भी हमारे विद्यालयों में ऐसी शिक्षा कहाँ दी जाती है ? अपनी भावी पीढ़ी को इस अंतर्न्हित देवत्व (या Divinity) को व्यक्त करने वाली शिक्षा की ओर ले जाने की थोड़ी सी चेष्टा भी कहाँ हो रही है? (21:55) स्वाधीनता के बाद कई 'शिक्षा-आयोग'(Education Commission) भी गठित हुए थे। उन शिक्षा आयोगों ने साकार को जो प्रस्ताव दिए थे, जो अनुशंषायें (Recommendations) की थी क्या सरकार ने उन प्रस्तावों का क्रियान्वन किया है ? तीन शिक्षा आयोगों का गठन तो हुआ किन्तु उनकी प्रस्तावों का क्रियान्वन नहीं हुआ, उनके परामर्श को कार्य में रूपायित नहीं किया जा सका।
>>मनुष्य के 3'H' या तीन प्रमुख अवयव : मनुष्य निर्माण (या 3H निर्माण कारी) शिक्षा यदि सरकारी स्तर पर देना सम्भव नहीं है , तो हम लोगों को स्वयं उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। हमलोग स्वयं किस प्रकार 'मनुष्यत्व' को जाग्रत में उन्नत मनुष्य (विवेक-दृष्टि सम्पन्न मनुष्य) बना सकते हैं ? उसके लिए हमें यह समझना होगा कि मनुष्य के प्रमुख अवयव या उपादान क्या हैं? मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं -जिससे मनुष्य निर्मित हुआ है। एक है मनुष्य का 'शरीर' (Hand), दूसरा है 'मन' (Head) और तीसरा है 'हृदय' (Heart) ! हमारे देश की प्राचीन विचारधारा में (सनातन धर्म में) मनुष्य के तीन प्रमुख उपादानों को 'देह , मन और आत्मा' कहा गया है। किन्तु आश्चर्य की बात है कि स्वामी विवेकानन्द ने 'देह , मन और आत्मा' नहीं कहकर, उसे बहुत सुंदर ढंग से 'देह , मन और हृदय' कहा है।
"हृदय" एक संस्कृत शब्द है, जो किसी भी चीज़ के सार, मूल या आंतरिक भाग को दर्शाता है। (23:00) किन्तु यहाँ उस अर्थ में स्वामीजी ने 'हृदय' शब्द का प्रयोग नहीं किया है। यहाँ हृदय शब्द का व्यवहार हृदयवत्ता (Heartiness-सौहार्द) के लिए किया गया है। अर्थात दूसरे मनुष्यों के प्रति सहानुभूति रखना, उनके सुख -दुःख को अपने हृदय में अनुभव करना। सिर्फ अपने दुःख-कष्ट का ही अनुभव नहीं करना, या केवल अपने आनंद का ही अनुभव नहीं करना। बल्कि दूसरों के दुःख-कष्ट और आनंद को बिल्कुल अपने ही दुःख-कष्ट और आनंद की तरह अनुभव करना। दूसरों की उन्नति , दूसरों का मंगल, दूसरों के कल्याण को भी बिल्कुल अपना मंगल, अपना कल्याण जैसा अनुभव करना उचित है। जिसको सहधर्मिता कहा जाता है, या जिसको अंग्रेजी में 'Empathy' समानुभूति (Oneness) कहा जाता है। और दूसरा है Sympathy' सहानुभूति-या भ्रातृभाव (Brotherhood) इसमें केवल दूसरों के दुःख-कष्ट को अपने दुःख-कष्ट जैसा अनुभव किया जाता है। लेकिन मनुष्य को दूसरों के दुःख-कष्ट को अपना दुःख-कष्ट जैसा अनुभव करने के साथ -साथ दूसरों के आनंद को भी बिल्कुल अपने आनंद के जैसा अनुभव करना चाहिए। यही गुण मनुष्य चरित्र का एक अपरिहार्य (Very necessary) वस्तु है। ऐसी समानुभूति (Empathy) या एकत्वबोध हमारे पुराणों में श्रीमद्भागवत में वर्णित 'भक्त प्रह्लाद' के चरित्र में देखा जा सकता है। (23:55) जो श्रीहरि का आदर्श भक्त होगा , वह समस्त सद्गुणों का भण्डार होगा; भगवान नृसिंह देव के आदर्श भक्त प्रह्लाद महाराज में सभी मानवीय गुण विद्यमान थे।
हृष्ट: परर्द्ध्या व्यथितो दु:खितेषु ।
( 3.14.49)
श्रीहरि के आदर्श भक्त प्रह्लाद- 'व्यथितो दु:खितेषु' दूसरों के दुःख में व्यथित होते थे, और हृष्टः -परर्द्ध्या (पर ऋद्धिया) ऐश्वर्य, मंगल को देखकर अत्यंत आनन्द का अनभुव करते थे और दूसरों के सुख में देखकर बहुत प्रसन्न होते थे। मनुष्य को अपना चरित्र इस प्रकार का बनाना चाहिए।
[अलम्पटः शीलधरो गुणाकरो
हृष्टः परर्द्ध्या व्यथितो दुःखितेषु।
अभूतशत्रुर्जगतः शोकहर्ता
नैदाघिकं तापमिवोडुराजः ॥
3.14.49॥
श्रीहरि का जो आदर्श भक्त होगा वह विषयों में अनासक्त, शीलवान, चरित्र के समस्त गुणों का भण्डार, तथा दूसरों की समृद्धि में सुख और दुःखों में दुःख मानने वाला होगा। उसका कोई शत्रु नहीं होगा, और चन्द्रमा जैसे ग्रीष्म ऋतु के ताप को हर लेता है, वैसे ही संसार के शोक को शान्त करने वाला होगा।
He will be a virtuously qualified reservoir of all good qualities; he will be jolly and happy in others’ happiness, distressed in others’ distress, and will have no enemies. He will be a destroyer of the lamentation of all the universes, like the pleasant moon after the summer sun.]
अतएव हमलोगों को अपना शरीर स्वस्थ और शक्तिशाली, निरोग, कार्यसक्षम बनाये रखने के लिए जिस प्रकार के पौष्टिक आहार और नियमित व्यायाम आदि करने की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार के दिनचर्या को जीवन में अपना लेने का प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ-निरोग रखने के लिए आहार और व्यायाम आदि हैं। ठीक उसी प्रकार मन को भी शक्ति-शाली और प्रबल इच्छाशक्ति-सम्पन्न बनाने के लिए पौष्टिक आहार और नियमित रूप से व्यायाम करने का प्रयास किया जाता है। मन का व्यायाम है मन को एकाग्र करने की चेष्टा करना। अर्थात मन को किसी आदर्श पर या प्रयोजनीय विषय में नियोजित कर देना, युक्त करना या लगा देना; तथा उसीके साथ-साथ हमें किसी अप्रयोजनीय वस्तु या विषय से मन को हटा लेने, खींच लेने या किसी विषय से मन को बिल्कुल वियुक्त कर लेने में भी सक्षम होना चाहिए। इसीके साथ मन को बाह्य विषयों जाने से खींचकर - प्रत्याहार द्वारा उसको अपने हृदय में विद्यमान अपने निर्धारित आदर्श या इष्टदेव की धारणा करने या मन को एकाग्र करने का अभ्यास भी करते रहना चाहिए। और मन का आहार क्या है ? मन का पौष्टिक आहार है निरंतर पवित्र विचार, शुभविचार, सकारात्मक सोच, मानवीय सद्गुण, जहाँ से प्राप्त होते हों उसको पढ़ना या सुनना। अर्थात शास्त्र और गुरु के उपदेशों के तात्पर्य की अवधारणा करने के लिए समझने केलिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना।
उसी प्रकार हमारे हृदय को या आत्मा को भी परमात्मा के ह्रदय की तरह सर्वव्यापी या बहुत विशाल होना चाहिए। इसलिए हमलोगों को अपने ह्रदय को प्रसारित करने का प्रयत्न करना होगा। आत्मा या ह्रदय का पौष्टिक आहार है - परमात्मा (अवतार वरिष्ठ) के नाम-रूप, लीला-धाम का स्मरण। प्रभु के अनुग्रह के प्रति कृतग्यता का भाव, उसकी हर इच्छा में राज़ी रहना। स्वामी जी ने मनुष्य को परिभाषित करते हुए एक, जगह कहा है - " मनुष्य एक ऐसा वृत है जिसकी परिधि कहीं नहीं है , किन्तु उसका केंद्र एक बिन्दु में स्थापित है।" वह बिन्दु क्या है ? वह केंद्र बिन्दु है -हमलोगों का 'मैं'-बोध; हमें अपने 'मैं' केंद्र बनाकर उसके चारों ओर अनंत त्रिज्या का वृत बनाना होगा , जिसके घेरे में सम्पूर्ण विश्व-जगत का स्थान होगा। जो मनुष्य इतना उन्नत हो जाता है, उसकी को यथार्थ मनुष्य कहा जाता है। अतएव हमलोगों को भी अपने हृदय का विस्तार करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। (25:30)
यह जो अपने देश तथा अन्य कई देशों में एक के बाद दूसरा आकस्मिक विपदा (disaster)-घटित होता दिखाई दे रहा है। कहीं बादल फट रहा है , कहीं बाढ़ आ रहा है , कहीं भूकंप आ रहे हैं। जिसके चलते बिना किसी कारण के निर्दोष लोगों की जान जा रही है। बाढ़ आने से, चक्रवाती तूफान (Cyclone) आने से, हिमाचल प्रदेश, आदि पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्ख्लन (landslides) से कितने ही निर्दोष लोगों की जान जा रही है ! इन सब आपदाओं को देखकर हृदय में बहुत वेदना का अनुभव होता है। कुछ वर्षों पूर्व एक नई आकस्मिक त्रासदी 'tsunamis' #या सुनामी आयी थी, यह नाम हमलोगों ने पहलर कभी नहीं सुना था। उसमें अचानक 100 फिट ऊँचा समुद्र का विशाल आकर का लहर उठ गया, जिसमें समुद्री तटवर्ती इलाकों में रहने वाले कितने ही देशों के हजारों- हजार मनुष्यों की जान चली गयी थी। (#सुनामी एक विशाल जल तरंग है जिसमें पूरा जल स्तंभ गतिमान होता है। यह लहर पानी की भारी मात्रा के अचानक विस्थापन से उत्पन्न होती है। समुद्र तल में जो शक्तिशाली भूकंप आया उससे भारत वर्ष तथा पूर्वी एशिया के टेक्टोनिक पठार (tectonic plates) हैं उनमें विशाल विस्थापन हुआ और समुद्र तल में दरारें पैदा हो गयीं जो सुनामी की शुरुआत का कारण बन गयीं।) इस प्रकार के आकस्मिक विपदाओं में किसी मनुष्य की जान नहीं जाये, इसके लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं , वैज्ञानिकों को इस पर विचार करना चाहिए। और जिन मनुष्यों का परिवार उसमें नष्ट हो गया उनको पुनरास्थिप्त करने के लिए हमलोग क्या करेंगे , इस पर विचार करना होगा। इसी प्रकार के मनुष्योचित संवेदना को हृदयवत्ता (Heartiness-सौहार्द) कहा जाता है।
हमलोगों के देश की प्राचीन सनातन शिक्षा/धर्म परम्परा में मनुष्य के तीन प्रमुख उपादानों को देह, मन और आत्मा को विकसित करने की शिक्षा दी जाती थी। यही सुन-सुन कर किसी व्यक्ति ने स्वामी विवेकानन्द से प्रश्न किया था कि, हमारे धर्म में जो यह कहा जाता है कि शरीर में आत्मा रहती है, तो यह आत्मा देह में रहती कहाँ है ? स्वामी जी विज्ञान में भी दक्ष (Proficient) थे। विज्ञान में जिसको निष्कासन प्रणाली (elimination method ) कहा जाता है, उसी तरह शरीर के किस भाग में आत्मा है ? क्या हाथ में आत्मा है ? क्या पैरों में आत्मा है ? क्या सिर में आत्मा है ? इस प्रकार आत्मा का निवास-स्थान होने की एक -एक सम्भावना को निष्काषित करते हुए, अंत में उन्होंने कहा - 'जानते हो हमारे देह में आत्मा कहाँ रहती है ? हमारे शरीर के भीतर-'Sympathetic Ganglion' (सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि) नामक एक चेतना-केंद्र (ganglion) हैं आत्मा उसी में रहती है। यह पढ़कर मुझे # भी आश्चर्य हुआ। मैंने (नवनी दा - श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय, संस्थापक सचिव, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ने ) कई डॉक्टर्स इसके विषय पूछा , लेकिन कोई बता नहीं पाए। अंत में एक ऐसा डॉक्टर से पूछा जिसने हाल ही में डॉक्टरी पास किया था, और यूनिवर्सिटी में टॉप किया था। उसने तुरंत 'Physiology' (शरीर क्रिया विज्ञान) की पुस्तक निकाल कर चित्र-सहित दिखलाते हुए कहा कि इसीको 'सिम्पैथेटिक गैंग्लियन' कहा जाता है। (27:46) मैंने देखा कि हमारा जो ह्रदय यंत्र (Heart) है उसके वहुत ही नजदीक वह नाड़ीग्रन्थि अवस्थित है। मैंने उसके विषय में जो पुस्तक में लिखा था , उसको पूरा पढ़ लिया। वहाँ लिखा हुआ था कि 'सिम्पैथेटिक गैंग्लियन' के कई function हैं उसमें से एक है , हमारे ह्रदय यंत्र में कितना रक्त संचालित होगा उसकी गति को control या नियंत्रित करता है। तो यह कितने आश्चर्य की बात है कि जिस स्नायु-केंद्र (गैंग्लियन) में कई नाड़ियाँ आकर मिलती हैं, उस नाड़ीग्रंथि के विषय में स्वामी जी कहते हैं-आत्मा का यही निवास है। तो स्वामी विवेकानन्द ऐसा क्यों कहते हैं कि -'आत्मा उसी 'सिम्पैथेटिक गैंग्लियन' में रहती है।' क्योंकि यही 'ganglion' हमारे ह्रदय मशीन से कितना खून बहेगा या नहीं बहेगा , उसकी गति को यह गैंग्लियन (चेतना -केंद्र) ही नियंत्रित करता है। हमलोग हृदय शब्द दो चीज समझते हैं, एक तो सम्पूर्ण शरीर में रक्त-संचारित करने वाले यंत्र (Blood Pumping machine) को ह्रदय कहते हैं, उसी प्रकार हमारे शरीर के भीतर अवस्थित अनुभूति केंद्र (Oneness-Feeling centre) को भी हृदय कहते हैं। अतएव सभी मनुष्य को अपने साथ एक और अभिन्न अनुभव करना चाहिए। सभी के सुख-दुःख को यदि हम अपना सुख-दुःख जैसा अनुभव करने की क्षमता को हृदयवत्ता कहते हैं। स्वामी जी ने एक जगह कहा है - सभी धर्मों में सार्वभौमिक भ्रातृत्व-भाव (universal brotherhood) की घोषणा की जाती है ,किन्तु हमारे भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में इस भ्रातृत्व-भाव से संतुष्ट न होकर 'सार्वभौमिक एकत्व' (Universal Oneness) स्थापित करना चाहते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण मानव-जाती (Humanity) एक ही है। (29:08) इस अनुभूति में सभी मनुष्य को प्रतिष्ठित होना चाहिए। इस नए युग की आवश्यकता यही है। आज के युग में विज्ञान ने काफी प्रगति कर ली है। अंतरिक्ष में रॉकेट भेज कर किस ग्रह पर क्या-क्या वस्तु है , इसकी अच्छीतरह से खोजबीन की जा रही है। किन्तु हमारे मन के भीतर का सत्य क्या है, 'मैं' -कौन हूँ ?, स्वरूपतः हमलोग क्या हैं ? इसकी खोजबीन करने की तरफ हमारी दृष्टि नहीं जा रही है। इसलिए दृष्टि को केवल बहिर्मुखी ही बनाये नहीं रखकर अपने ह्रदय के भीतर ही सत्य को खोजने की चेष्टा करना उचित है। यदि हम अपने विद्यमान सत्य को देखने की चेष्टा करें , तब हम जान जायेंगे कि हमलोग केवल पशु ही नहीं हैं, हमलोग अपने सत्यस्वरुप में ब्रह्म ही हैं , इसकी अनुभूति हमें प्राप्त हो सकती है। हमलोग इस जीव, जगत और ईश्वर के समस्त रहस्यों का भेदन करके , सत्य को आविष्कृत कर सकते हैं। और अपने उसी सत्य-स्वरुप के अनुरूप जीवन व्यतीत करने से , हम केवल स्वयं उन्नत मनुष्य (विवेकी मनुष्य) नहीं बन कर दूसरों भी उन्नत मनुष्य (विवेकी) बनने में सहायता करने में सक्षम हो जायेंगे। जब तक यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा सम्पूर्ण भारत में नहीं दी जाएगी , तब तक समाज में आमूलचूल परिवर्तन नहीं लाया जा सकेगा।
इसीलिए आधुनिक युग के प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नोल्ड टॉयनबी-(Arnold Toynbee) बहुत सुंदर कहा है - " सामाजिक अवस्था में परिवर्तन केवल Creative Minority के द्वारा ही लाया जा सकता है। और यह जो 'रचनात्मक अल्पसंख्यक' श्रेणी के व्यक्ति होंगे या 'Creative Minority Category' के लोग होंगे इनकी संख्या कभी भी हजारो-हजार और लाखों में नहीं होगी। खूनी क्रांति या सत्ता-परिवर्तन की सम्पूर्ण -क्रांति करने के लिए जिस प्रकार हजारों -हजार लोगों की आवश्यकता होती है , उतने लोग नहीं होंगे - बल्कि 'Creative Minority' (विवेकी -ब्रह्मविद देवतुल्य मनुष्य) होंगे । किन्तु हमारे देश में धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों (मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन) के हितों की रक्षा और संरक्षण के लिए जो राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (National Commission for Minorities - NCM) बनाई गयी है।उसके विषय में कहने पर संकोच हो रहा है कि उसमें श्रीरामकृष्ण मिशन के स्कूल को भी अल्प-संख्यक वर्ग का स्कूल कहा गया था। (30:41)
जबकि श्रीरामकृष्ण तो हमारे युग में आये हैं। मैंने ऐसे लोगों को देखा है, जिन्होंने श्रीरामकृष्ण को देखा है। जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द को देखा है, ऐसे मनुष्य को मैंने देखा है। जिन्होंने श्री श्री सारदा देवी को देखा है , ऐसे मनुष्य को देखा हूँ। वे लोग भी तो हम जैसे साधारण लोग ही थे , और बहुत ज्यादा शिक्षा भी प्राप्त नहीं किये थे। स्वामी विवेकानंद जी ने B.A. पास किया था किन्तु कोई बहुत उच्च डिग्री प्राप्त नहीं थी। लेकिन सुंदर जीवन कैसा होता है ? जीवन-गठन कैसे किया जाता है ? मनुष्य जीवन को सार्थक कैसे किया जाता है ? उनके आदर्श जीवन को हमलोग यदि मन ही मन थोड़ा स्मरण करें, थोड़ा -थोड़ा भी अनुसरण करने की चेष्टा करें , तो हमलोगों का जीवन भी अत्यंत सुंदर ढंग से गठित हो जायेगा।
श्रीरामकृष्ण देव की विवेक-दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) में जीव-जगत और ईश्वर को लेकर कोई भेद-बुद्धि नहीं थी। इसी भेदबुद्धि को मिटाने के लिए श्रीरामकृष्ण देव ने अपने सिर के बालों से एक मेहतर के घर के पैखाना साफ़ कर दिया था। स्वामी जी बड़े आनंद के साथ कहा करते थे कि श्रीरामकृष्ण के जीवन में दूसरों मनुष्यों के साथ ही नहीं, जड़ सृष्टि घास के साथ भी बिल्कुल अभिन्न -बोध करने के उदाहरण देखे जा सकते हैं। एक बार कोई व्यक्ति उनके कमरे के सामने वाले हरी -हरी घांस को रौंदता हुआ चला गया , तो उस घांस की यंत्रणा का अनुभव कर उनकी छाती 6 घंटों तक लाल हो गयी थी। श्रीरामकृष्ण समस्त जीव-जगत और ईश्वर के साथ एकत्व की अनुभूति कर सकते थे। इस सार्वभौमिक एकत्व की अनुभूति की बात हम कोई पुस्तक पढ़कर नहीं बोल रहे हैं , कोई शास्त्र की बात नहीं पढ़ रहे हैं , ये महापुरुष हमारी आँखों के समक्ष हुए थे , ऐसा कहा जा सकता है।
उसी प्रकार स्वामी जी के जीवन में हम क्या देखते हैं ? उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन मानवता के कल्याण में न्योछावर कर दिया था। हमारे देश के अत्यंत प्राचीन ग्रन्थ में , वेद में इस बात का उल्लेख देखने को मिलता है। किन्तु हमलोग वेदों -उपनिषदों के उन श्लोकों को नहीं जानते हैं। (31:57) वेदों में कहा गया है 'अमृतम् न वृणीत', इस उक्ति को स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन से दिखाया था। विश्व के इतिहास में बहुत से लोग ऐसे हुए हैं जो सत्य को जानने के लिए या ईश्वर-लाभ करने के लिए मृत्यु का वरण करने के लिए भी प्रस्तुत रहते थे। किन्तु कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो -'प्रजा एकं अमृतम् ना वृणीत' जो प्रजा वर्ग के लिए अर्थात मानव-समाज के कल्याण के लिए अपने अमृतत्व को यानि अपनी मुक्ति या मोक्ष तक इच्छा को भी तुच्छ समझकर त्याग कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था मेरी मुक्ति की इच्छा 14 जन्मों तक के लिए मर चुकी है। ऐसी बात और कौन कह सकता है ?
ठीक यही बात - अपनी मुक्ति की कामना त्याग देने की बात, भक्त प्रह्लाद ने भी कही थी। नारायण ने जब नृसिंह अवतार लेकर हिरण्य कशिपु का वध कर दिया। तब हिरण्यकशिपु के वध के बाद भी भगवान अत्यंत क्रोधित ही रहे। उनका क्रोध शांत ही नहीं हो रहा था। तो देवता लोग बड़े भयभीत हो गये। उन्होंने उनको शांत करने का बहुत प्रयत्न किया पर जब वे शांत नहीं तो उन्होंने लक्ष्मी देवी से कहा माँ आप उनके क्रोध को शांत कर दीजिये। किन्तु वे भी भगवान नृसिंहदेव के समक्ष जाने का साहस नहीं कर सकीं।
तब ब्रह्माजी ने बालक प्रह्लाद से कहा कि वे आगे बढ़कर भगवान का क्रोध शांत करें। प्रह्लाद महाराज अपने स्वामी भगवान नृसिंहदेव के स्नेह में पूर्णतः आश्वस्त थे, इसलिए उन्हें तनिक भी भय नहीं हुआ। वे अत्यंत गंभीर भाव से भगवान के चरणकमलों के समक्ष प्रकट हुए और उन्हें सादर प्रणाम किया। भगवान नृसिंहदेव ने भक्त प्रह्लाद से वर माँगने के लिए कहा। उसके उत्तर में प्रह्लाद ने 40 श्लोकों में जो कहा है , वो पूरे वेदांत का सार है। भगवान ने बहुत जिद किया तुम कुछ मांगों मैं तुम्हें सब कुछ दूंगा। भक्त प्रह्लाद ने कहा मेरी कुछ पाने की इच्छा ही नहीं है। तब भगवान ने कहा तुम मुक्ति -मोक्ष माँग लो। प्रह्लाद जी ने कहा छिः मुक्ति मैं मुक्ति माँगूगा ? मेरा मन आपकी उन लीलाओं के गान में मग्न रहता है, जो स्वर्गीय अमृत को भी तिरस्कृत करनेवाली -परम् अमृत स्वरुप है। (साभार https://vedabase.io/en/library/sb/7/9/44/)
प्रायेण देव मुनय: स्वविमुक्तिकामा
मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा: ।
नैतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्ष एको
नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ॥ ४४ ॥
हे भगवान नृसिंहदेव, मैं देखता हूँ कि वास्तव में अनेक साधु-सन्त हैं, किन्तु वे केवल अपनी मुक्ति में ही रुचि रखते हैं। बड़े शहरों या कस्बों में रहने वाले मनुष्यों की परवाह न करते हुए, ध्यान करने के लिए, मौन व्रत धारण करके वे हिमालय पहाड़ पर या वन में चले जाते हैं- मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा:'! उनमें 'परार्थ- निष्ठा' नहीं होती , वे दूसरों की मुक्ति के लिए कोई प्रयत्न नहीं करते। लेकिन दूसरों की मुक्ति के लिए प्रयत्न करते रहना सबसे बड़ी बात है।
इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने एक अद्भुत बात कही थी - " यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। शेष तो मृत से भी अधम हैं। " (23 जून, 1894 को मैसूर के राजा को लिखित पत्र) (This life is short, the vanities of the world are transient, but they alone live who live for others, the rest are more dead than alive.)-(34:01)
स्वामी जी के कहने का तात्पर्य है कि यह जीवन बहुत छोटा है, सीमित है। और भोगों के जितने विषय हैं वे पहाड़ से ऊँचे हैं। परन्तु वे सब इस नश्वर शरीर के साथ नष्ट हो जायेंगे। यथार्थ जीवन के अधिकारी वे ही हैं जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। और जो लोग दूसरों के कल्याण की कोई परवाह नहीं करके केवल अपने लिए ही जीते है, वे मृत से भी अधम हैं। (विवेकी मनुष्य बनने और बनाने वाले आंदोलन के प्रचार-प्रसार की कोई परवाह नहीं करके केवल अपने लिए ही जीते है, वे मृत से भी अधम हैं।) तो क्या हमलोग मृत से भी अधम बने रहेंगे ? किसी के बारे में विचार नहीं करेंगे ? किसी के भी दुःख को अपने दुःख के जैसा अनुभव नहीं करेंगे ? कितने शिशु अपोषण का शिकार हो रहे हैं। ग्रामीण लोग अपने गाँव में कितने कष्ट का जीवन बिता रहे हैं। डॉक्टर लोग कहते हैं अस्पताल में उचित चिकित्सा सेवा की व्यवस्था नहीं है। डॉक्टर लोग रोगी के परिचारकों को सलाह देते हैं कि आप घर में रखकर ही इनकी सेवा कीजिये। हमलोग दूसरों के बारे में कुछ सोचना नहीं चाहते हैं , केवल अपने स्वार्थ को पूरा करने में जुटे रहते हैं। हमलोगो को जीवन गठन के उच्च विचारों को सुनना होगा, सुनकर के मनन करना होगा, फिर ग्रहण करना होगा, उन्हें अपने जीवन में रूपायित करना होगा। (35 :36) यदि हमारे शास्त्रों या वेदों उपनिषदों के चारो महावाक्य जीवन में रूपातीत नहीं हुए , उन विचारों को दैनंदिन जीवन के व्यवहार में नहीं ला सके, हम यदि विवेक-दृष्टि से जगत को ब्रह्ममय देखकर इसकी सेवा नहीं कर सके, तो केवल शास्त्रों के अध्यन से कोई लाभ नहीं होगा।
कहा गया है -"शास्त्र सुचिंतित अपि प्रतिचिन्तनीयं।" भली भांति अध्ययन किये हुये शास्त्रो को भी बार बार अध्ययन करते रहना चाहिये । केवल शास्त्र (और गुरु) के शब्दों को पढ़ना (श्रवण करना) ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनमें वर्णित ज्ञान को आचरण उतार लेना (जगत को ब्रह्ममय देखकर उसकी सेवा करना) भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
"यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान्" का अर्थ है कि केवल शास्त्र का अध्यन करना ही पर्याप्त नहीं है; जो व्यक्ति ज्ञान को व्यवहार में लाता है, वही वास्तव में विद्वान है। शास्त्र को पढ़कर बार बार उसका मनन और निदिध्यासन करना होता है , तब वह ज्ञान जीवन में रूपायित होता है। यदि शास्त्र ज्ञान दैनंदिन जीवन के व्यवहार में नहीं उतरा , तो उस ज्ञान का क्या लाभ ? जिस प्रकार केवल औषधि का नाम जानना ही रोगी को ठीक नहीं कर सकता, बल्कि उसका सेवन करना आवश्यक है।
यदि किसी व्यक्ति ने बहुत से शास्त्रों का अध्यन तो कर लिया है, किन्तु शास्त्र ज्ञान यदि उसके आचरण में नहीं दिखाई देता , शास्त्र के ज्ञान का प्रयोग अगर जीवन में नहीं दिखाई देता हो उस अध्यन का क्या लाभ?
शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः
यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् ।
सुचिन्तितं चौषधामातुराणाम्
न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ।।
शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी लोग मूर्ख रह जाते हैं, लेकिन जो शास्त्रों को पढ़ कर अपने जीवन में उनका अनुकरण करते हैं वही विद्वान हैं । जैसे रोग दूर करने के लिए दवा की अच्छी जानकारी होना या दवा का नाम ले लेना पर्याप्त नही अपितु दवा का नियमित सेवन करना आवश्यक एवम् लाभदायक होता है।
वेद उपनिषदों में बहुत सी अच्छी बातें कही गयीं हैं , किन्तु ज्ञान यदि जीवन में नहीं उतरा तो क्या लाभ ? इसलिए श्रीरामकृष्ण कहा करते थे - " पंचांग में लिखा हुआ है, 20 आना वृष्टि होगी, किन्तु पंचांग को निचोड़ने से एक बून्द जल भी नहीं गिरेगा। " शास्त्रों में बहुत अच्छी अच्छी बातें लिखी हैं, उनको पढ़कर हम लेख लिखते हैं , पुस्तक लिख देते हैं ,चारों ओर भाषण देते हैं। किन्तु हमारे जीवन को देखने से, यही दिखाई देता है कि भाषण में जो बातें कहता हूँ वे हमारे आचरण में दिखाई नहीं पड़ते। (37:00) इसलिए हमलोगों जीवन-गठन पर सबसे अधिक ध्यान देना होगा। सुंदर जीवन कैसे गठित किया जा सकता है ? हम अपने शरीर को स्वस्थ , शक्तिशाली , निरोग और कर्मठ कैसे बनाएंगे -इसका प्रयत्न करना होगा। उसी के साथ-साथ मन में कैसे पवित्र विचार, सुंदर भाव , कल्याण कारी विचार, मंगलदायी भाव , अपने मन में बनाये रखने का प्रयास करना होगा। हमारे देश पहले सतशास्त्रों का ज्ञान (रामायण -महाभारत का ज्ञान घर में) बचपन से ही दिया जाता था। आजकल यह बंद हो गया है। रूस का नाम जब USSR था उस समय वहाँ मॉस्को के Children's theatre' में 25 वर्षों तक लगातार रामायण , महाभारत का मंचन किया जाता था। जो संस्था यह मंचन किया करता था , उससे पूछा गया आपलोग इसका मंचन वहां क्यों कर रहे हैं ? उन्होंने कहा था क्या रामायण -महाभारत सिर्फ भारत के लिए है ? ये पूरे विश्व की , सम्पूर्ण मानवजाति की विरासत है। और यदि बच्चों को यह शिक्षा न दी जाये तो , वे मनुष्य कैसे बनेंगे ? ये बात कम्युनिस्ट रूस के एक अधिकारी ने कहा था। किन्तु हमारे देश में रामायण , गीता, महाभारत स्कूल -कॉलेज में पढ़ाने की कोई व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में जो दुरावस्था शिक्षा की हुई है , वही संगीत की हुई है , वही भारतीय नृत्य आदि की भी हुई है। कला के नाम पर जो प्रस्तुत किया जाता है , उसे देखना -सुनना असम्भव हो गया है। हमलोग शास्त्रीय संगीत-नृत्य कला की गहराई को नहीं समझते हैं। एक समय हमारे यहाँ की कला-संस्कृति बहुत उन्नत हुई थी। शास्त्र , संगीत और शिक्षा -विद्या की एक ही दुरावस्था हो गयी है।
इनदिनों अंग्रेजी भाषा को लेकर विशेष कर बंगाल में, तथा भारत के अन्य स्थानों पर जहाँ कहीं भी मैं जाता हूँ , विश्वविद्यालय में भी कहते हैं कि अंग्रेजी में कहने से कोई नहीं समझेगा , आप हिंदी में बोलिये। अन्य स्थानों में भी अंग्रेजी की अवस्था अच्छी नहीं है , किंतु विशेषकर कोलकाता विश्वविद्यालय लेकर जितनी भी नई नई संस्थाएं खुली हैं, कल ही एक संस्था खुली है वैसे छात्रों के लिए जिन्होंने डॉक्टरी या इंजीनियरिंग पास की है, वे उनको अंग्रेजी बोलना सिखाएंगे। (39:05) -कोलकाता में वैसे अंग्रेजी शिक्षा देने वाले अनेकों संस्थाएं हैं। किसी जानकार व्यक्ति ने बताया कि वहाँ जो लोग सिखाते हैं वे स्वयं ही अंग्रेजी नहीं जानते तो सिखायेंगे क्या ? कोलकाता या अन्य स्थानों में शिक्षा की ऐसी दुरावस्था क्यों हो गयी है ? पहले तो ऐसी अवस्था नहीं थी। किन्तु अंग्रेजी सीखना होगा क्योंकि अब ऐसी मान्यता हो गयी है कि अंग्रेजी International language बन गया है। अंग्रेजी कभी भी भारत के आम जनों की भाषा नहीं थी। अभी जापान में भी अंग्रेजी सीखने की तीव्र चेष्टा हो रही है। लेकिन जो चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा अत्यंत प्रयोजनीय है ,उसकी शिक्षा देने का प्रयास नहीं हो रहा है। अभी हाल में केंद्रीय विश्व-विद्यालय से प्रोफेर्स और psychologist का एक Team वे लोग 4 वर्षों से 50 से अधिक स्कूल -कॉलेजों में अन्वेषण करके देखे हैं कि लड़के-लड़कियों को एक साथ पढ़ाने में कठिनाई पर कहे हैं , उनको क्लास में एक-साथ बैठाने से जैसी पढ़ाई होनी चाहिए वैसी हो नहीं पाती है। देश की राजधानी दिल्ली तो है ही किन्तु दूसरी राजधानी के जैसा कोलकाता का अलग नियम चल रहा है। हाल में जापान में भी ट्रेन में ladies compartment' बनाना पड़ा है। वहाँ भी देखा गया है कि नारी और पुरुषों को एक साथ बैठकर यात्रा करना सुरक्षित नहीं है। ऐसा क्यों हो रहा है ? हमारे देश में मनु सहिंता में तथा अन्य शास्त्रों में भी लड़के- लड़कियों को एक समान नहीं माना गया है। लेकिन पाश्चात्य देशों में एक सामान नहीं बल्कि 'Women Lib' की बात की जाती है, अर्थात स्त्रियों को liberated कर देना होगा , उनको मुक्त करना होगा। स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका गए थे तो वहाँ स्त्रियों की स्वंत्रता अच्छी प्रतीत हुई थी, और सोंचे थे कि अपने देश में भी स्त्रियों को पुरुषों के सामान बनाना चाहिए। (40:59) किन्तु हमारे देश में लड़कियों को एक समान बनाने की बात नहीं करके लड़कियों को मानों उच्छृंखल (licentious) बनने की छूट दी गयी हो । ऐसा क्यों हो रहा है ? यथार्थ शिक्षा (मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा) के अभाव में ऐसा हो रहा है। जहाँ तक मुझे बोध है , उसके अनुसार भारत में कभी भी, किसी भी युग में स्त्री -पुरुष को एक समान नहीं कहा गया है। हमारे यहाँ स्त्रियों का स्थान पुरुष से ऊपर माना गया है। स्त्रियाँ पूर्ण पूज्या हैं। पुरुष ने हमेशा अपूर्णता का ही दिग्दर्शन किया है। (41:28) श्री रामकृष्ण की विवाहिता पत्नी सारदा देवी उस समय 19 वर्ष की थीं वे श्रीरामकृष्ण के साथ एक कमरे में एक महीने तक रही थीं। किसी तरह की सम्पर्क नहीं देखि गयी , बीच -बीच में श्री रामकृष्ण को समाधि हो जाती थी तो उनको भय होता था। एक दिन ऐसा होने पर माँ ने कहा जब आपकी अवस्था ऐसी हो तू तुम ये शब्द उच्चारित करना डरना नहीं। और भारतीय इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता जब ज्येष्ठ मास की फलहारिणी काली पूजा के रात्रि में अपने भगना ह्रदय को बोले कि आज मेरे कमरे में काली पूजा की व्यवस्था कर देना। पूजा का सब इंतजाम करने के बाद ह्रदय ने कहा पूजा के लिए एक प्रतिमा की लाने की आवश्यकता तो होगी ही। ठाकुरदेव ने कहा नहीं प्रतिमा की आवश्यकता नहीं है , प्रतिमा बैठाने के लिए एक पीढ़ी मँगा लेना। पूजा करने का समय हुआ तब श्री सारदा देवी पीढ़ी पर बैठाकर जगतजननी, जगन्माता बोलकर पूजा किये। जप की माला अर्पित कर पूजा किये। और स्तवपाठ किये -
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
ॐ शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
(श्री दुर्गासप्तशती एकादश अध्याय:१०,११, १२श्लोक)
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स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु (Hand :स्थूल शरीर) पर होने से भौतिक उन्नति होती है , विचार पर होने से (Head :मन पर) होने से बुद्धि का विकास होता है , और 'अपने स्व '(Heart) पर ही होने से मनुष्य का (3H विकसित होकर ) ईश्वर बन जाता है।"
[First, let us be Gods, and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto. Say not man is a sinner. Tell him that he is a God. Even if there were a devil, it would be our duty to remember God always, and not the devil.]
पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे। 'बनो और बनाओ' यही हमारा मूल-मंत्र रहे। " First, let us be Gods, and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto." ऐसा न कहो कि मनुष्य पापी है। उसे यह बताओ कि तू ब्रह्म है। यदि कोई शैतान हो, तो भी हमारा कर्तव्य यही है कि हम ब्रह्म का ही स्मरण करें, शैतान का नहीं। हमें यह समझ लेना चाहिए कि जो कुछ भी नकारात्मक (negative) है, विध्वंशकारक (destructive) है और जो केवल छिद्रान्वेषण (criticism) है, उसका अंत अवश्यम्भावी है; और जो सकारात्मक, सत्यात्मक (affirmative) और रचनात्मक है, वही अमर है और वही सदा रहेगा।
हम यही कहें -" हम हैं" और "ईश्वर हैं" और " हम ईश्वर हैं !""We are" and "God is" and "We are God !" चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ कहते हुए आगे बढ़ते चलो। आत्मा की शक्ति का विकास करो, और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो और जिस स्थिति की आवश्यकता है, वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी। (Bring forth the power of the spirit, and pour it over the length and breadth of India; and all that is necessary will come by itself. ) अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को प्रकट करो, उसके चारों ओर सब कुछ समन्वित होकर विन्यस्त हो जायेगा। वेदों में बताये हुए इन्द्र और विरोचन के उदाहरण को स्मरण रखो। दोनों को अपने ब्रह्मत्व का बोध कराया गया था, परन्तु असुर विरोचन अपनी देह को ही ब्रह्म मान बैठा। इन्द्र तो देवता थे, वे समझ गए कि वास्तव में आत्मा ही ब्रह्म है। तुम तो इन्द्र की सन्तान हो। तुम देवताओं के वंशज हो। जड़ पदार्थ (शरीर) तुम्हारा ईश्वर कदापि नहीं हो सकता; शरीर तुम्हारा ईश्वर कभी नहीं हो सकता। ऐसा मत कहो कि हम दुर्बल हैं, कमजोर हैं। आत्मा सर्वशक्तिमान है। श्री रामकृष्ण के चरणों के दैवी स्पर्श से जिनका अभ्युदय हुआ है, उन मुट्ठी भर नवयुवकों की ओर देखो। उन्होंने उनके उपदेशों का प्रचार आसाम से सिंध तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक कर डाला।" (९/३७९-३८०)
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