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Friday, July 26, 2019

वेदों के चार महावाक्य : अनुसंधान वाक्य : "अयं आत्मा ब्रह्म !"

वेदों के चार महावाक्य 

मैं कौन हूँ ?  (अपने 'स्व' सत्यस्वरुप की खोज के चार महावाक्य) : वेदों में ऐसे तो कई महावाक्य हैं, किन्तु 'स्व' से पहचान के ' चार वाक्य' (4 great sentences) कहे गए हैं। प्रत्येक वेद से एक-एक महावाक्य (सिद्धान्त) को लेकर 4 महावाक्य कहे गए हैं।
(i) लक्षणा वाक्य  (Defining Sentence): 'प्रज्ञानं ब्रह्म' -(consciousness is Brahman) प्रज्ञा रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है ! पहला महावाक्य ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद से उद्धृत किया गया है। इस महावाक्य में ब्रह्म को चैतन्य (शाश्वत स्पंदन) के जैसा साक्षात् अनुभव करने वाले ऋषि, उस अनन्त ब्रह्म को परिभाषित करने की चेष्टा करते हुए कहते हैं कि- ब्रह्म प्रज्ञा [अनुभूत-ज्ञान Consciousness] है।
(ii) अनुभव वाक्य (Experience Sentence): 'अहं ब्रह्मास्मि ' -- मै ब्रह्म हूँ। (I am Brahman) दूसरा महावाक्य यजुर्वेद के वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। दूसरे महावाक्य की 
खासियत यह है कि इसमें हमें अपने अनुभव से यह जान लेने की प्रेरणा दी जा रही है, कि इस जगत में उपस्थित सभी मनुष्य ब्रह्म ही हैं। इस महावाक्य के मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है।
(iii) उपदेश वाक्य (sermon sentence) :  'तत्वमसि' - तत त्वम असि - वह पूर्ण ब्रह्म तू है... (You are That ) तीसरा महावाक्य - सामवेद के छांदोग्य उपनिषद से लिया गया है।  इसे   या भी कहा जाता है। इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , तुम भी ब्रह्म हो , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है।  उपदेश वाक्य इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही, परस्पर व्यवहार में दूसरों के प्रति आदर और श्रद्धा की भावना को भी पैदा करते हैं। 
(iv) अनुसंधान वाक्य  (self-research sentence) : "अयं आत्मा ब्रह्म" - अर्थात 'यह आत्मा स्वयं ब्रह्म है।' 
 यह महावाक्य ही आत्मा और ब्रह्म के अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। और हमें अपने यथार्थ स्वरूप का (larger reality,बृहद या शाश्वत सत्य, या ब्रह्म) का अनुसन्धान करने के लिये अनुप्रेरित करता है। इसलिए इसे 'अनुसंधान वाक्य' या आत्मानुसाधन -वाक्य 'भी कहा जाता है। इस में ऋषि कहते हैं कि - " सूक्ष्म 'अहंकार' से लेकर स्थूल 'शरीर' तक को जीवित रखने वाली एक मात्र अप्रत्यक्ष शक्ति 'ब्रह्म' ही है। उसी स्व-प्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। [It prompts us to explore Brahman (big reality, large or eternal truth), hence it is also called 'research sentence'. अर्थात यह महावाक्य ही हमें व्यष्टि आत्मा (तुच्छ अहं-बोध) को समष्टि आत्मा (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध) में रूपान्तरण करने करने के लिए अनुप्रेरित करता है। अथवा कच्चा 'मैं' -बोध को पक्का 'मैं' -बोध  या बृहद अथवा परिवर्तनशील सत्य (मिथ्या) और 'larger reality 'निरपेक्ष सत्य' में अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है!  वह 'परब्रह्म' (परमात्मा, ईश्वर या भगवान ) ही 'आत्मा' के रूप में सभी जीवों में विद्यमान है। नीतिज्ञानरहित (unscrupulous) या  मूढ़ व्यक्ति आत्मा और परमात्मा, जो प्रत्येक शरीर में स्थित हैं, के बीच अंतर नहीं करते। आत्मा जीव है और परमात्मा भगवान है। [ब्रह्म अर्थात सच्चिदानन्द (Infinite-Existence-Consciousness-Bliss) और जीव जगत और ईश्वर सच्चिदानन्द की शक्ति ही है।] 
पहला महावाक्य ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद में उद्धृत किया गया है , जिसे ' लक्षणा वाक्य ' भी कहा गया है। इसका संबंध ब्रह्म की चैतन्यता से है , क्योंकि इसमें ब्रह्म को चैतन्य रूप में रखा गया है। दूसरा महावाक्य यजुर्वेद के वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। इसकी खासियत यह है कि इसमें यह जताने की कोशिश की गई है कि हम सभी ब्रह्म (अहं ब्रह्मास्मि) हैं। इसे ' अनुभव वाक्य ' भी कहते हैं और इसके मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है। तीसरा महावाक्य सामवेद के छांदोग्य उपनिषद से लिया गया है। इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , आप भी ब्रह्म है , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है। इसे उपदेश वाक्य भी कहा जाता है। यह उपदेश वाक्य इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही , वह दूसरों के प्रति आदर की भावना को भी पैदा करते हैं। चौथा महावाक्य है 'अयम् आत्मा ब्रह्म' यह महावाक्य माण्डूक्य उपनिषद  से लिया गया है, जो सबसे छोटा किन्तु सबसे शक्तिशाली है। यह उपनिषद इतना महत्वपूर्ण है कि आदि शंकराचार्यजी के गुरु के गुरु गौड़पाद ने इसके ऊपर 'माण्डूक्य- कारिका ' के नाम से भाष्य लिखा है। बाद में माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका-  इन दोनों के ऊपर आचार्य शंकर ने भाष्य लिखा है। इस चौथे महावाक्य को अनुसन्धान वाक्य भी कहते हैं। जिसका शाब्दिक अर्थ है 'यह आत्मा (अव्यक्त) ब्रह्म है'।  अर्थात् 'ब्रह्म', सच्चिदानन्द, परमात्मा या ईश्वर ही प्रत्येक जीव में 'आत्मा' (की अव्यक्त दिव्यता) के रूप में अवस्थित हैं! 
किन्तु प्रत्येक जीवात्मा के लिए उसमें अंतर्निहित दिव्यता, ईश्वरत्व या ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति में तारतम्य होता है। इसलिए चार प्रकार के मनुष्यों- सत्पुरुष, सामान्य पुरुष, मानव-राक्षस तथा चौथा प्रकार का मनुष्य-जिसको क्या नाम दें -ये भृतृहरि भी जानते थे; वैसे दुष्ट जो अकारण किसी की प्राणहानि से लेकर हर तरह की हानि पहुँचा सकता है। इसीलिए चार प्रकार के मनुष्यों में प्रत्येक मनुष्य को पूर्ण ब्रह्म, 'हरि' या ईश्वर या ब्रह्म नहीं समझना चाहिए। लेकिन पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में रहती है। इसलिए श्रीरामकृष्ण सावधानी बरतने के प्रति सचेत करते हुए अपने भक्तों को दो कहानी कहते थे पहला -" अगर हाथी नारायण है , तो महावत भी नारायण है।" दूसरा " काटना मत लेकिन फुँफकारना जरूर !अतएव इसी अनुसंधान वाक्य की व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मन:संयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान – पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया – कलाप तो उसके गौण ब्यौरे मात्र है।"  (वि.सा.-१ : राजयोग : पातंजल योगसूत्र : साधनपाद) दरअसल , यह अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और परम सत्य के बड़े स्वरूप की जानकारी देता है , इसलिए इसे ' अनुसंधान वाक्य ' भी कहा जाता है। 
क्योंकि आत्मानुसंधान करते समय प्रत्येक मनुष्य (M/F) में ब्रह्मत्व, दिव्यता या मनुष्यत्व (विवेक-दृष्टि या ज्ञानमयी दृष्टि) की अभिव्यक्ति में तारतम्य रहता है। इसी बात उल्लेख करते हुए हनुमान जी कहते हैं -  
 
देहबुद्ध्या तु दासोऽस्मि जीवबुद्ध्या त्वदंशकः।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः ।।
                                       (वाल्मीकिरामायणम् )

हनुमानजी बोले, 'हे प्रभो ! देहबुद्धि अर्थात देह की दृष्टि से या देह के साथ तादात्म्य होते ही मैं आपका दास हूँ ! जीवबुद्धि (जीवात्मा बुद्धि) से मैं आपका (परमात्मा का या ईश्वर का) एक अंश हूँ। आत्मा के दृष्टिकोण से (या उस अवस्था में) मैं भी आप ही हूँ -अर्थात सच्चिदानन्द-स्वरुप ही हूँ। यही मेरी निश्चित मति है। 
अहं देहबुद्ध्या तवैवास्मि दासो ह्यहं
 जीवबुद्ध्याऽस्मि तेंऽशैकदेशः ।
त्वमेवास्म्यहं त्वात्मबुद्ध्या तथापि
 प्रसीदान्वहं देहबुद्ध्या नमस्ते ॥
(श्रीगुरुभुजङ्गस्तोत्रम्-१०६॥)

देहबुद्धि अर्थात देह (M/F शरीर) के साथ तादात्म्य हो जाने पर मैं आपका दास हूँ। जीव बुद्धि से मैं आपका एक अंश हूँ ; आत्मा के दृष्टिकोण से मैं आपसे थोड़ा भी भिन्न नहीं हूँ, अर्थात सच्चिदानन्द-स्वरुप ही हूँ। फिर भी, देहबुद्धि से मैं, सच्चिदानन्द-स्वरुप आपको नमस्कार करता हूँ।    
दासस्तेऽहं देहदृष्ट्याऽस्मि शंभो
 जातस्तेंऽशो जीवदृष्ट्या त्रिदृष्टे।
सर्वस्याऽऽत्मन्नात्मदृष्ट्या त्वमेवे- त्येवं
 मे धीर्निश्चिता सर्वशास्त्रैः॥

(श्रीशंकराचार्य कृत मनीषापञ्चकम्)

हे शम्भो ! देहदृष्टि से (देह के विचार से) मैं आपका दास हूँ; और हे (त्रिदृष्टे) त्रिलोचन ! जीव-दृष्टि से मैं आपका अंश हूँ। शुद्ध आत्मदृष्टि से विचार करने पर तो सबकी आत्मा आप ही हैं। उस अवस्था में मैं आपसे किसी प्रकार भिन्न नहीं हूँ। सब शास्त्रों के द्वारा निश्चित की गयी यही मेरी बुद्धि है।  

विलक्षणं यदा देहाज्जानात्यात्मानमात्मना । 

तदा कः कस्य वा बन्धुर्भाता माता पिता सुहृत् ॥ २३ ॥

(अध्यात्मरामायण युद्धकाण्ड द्वादश सर्ग)

माता, पिता, भ्राता, सुहृद और स्नेही-स्वजन तो देह-बुद्धि से (स्वयं को देह समझने से) ही होते हैं। जिस समय अपने विशुद्ध अन्तःकरण (साक्षी) द्वारा 'मनुष्य'  आत्मा को देह से पृथक् जान लेता है उस अवस्था में कौन किसका माता, पिता, भाई, बन्धु अथवा सुहृद् है ? ॥ २३ ॥

शंकराचार्य ने चार महावाक्यों के एक-एक वाक्य की व्याख्या करने के लिए ही मनीषा-पंचक की रचना की  है। इन 5 श्लोकों में ही सम्पूर्ण अद्वैत वेदान्त की, चार महावाक्यों- के सार की व्याख्या की गयी है। वेदों के ये चार महावाक्य संम्पूर्ण मानव जाति को पुनरुज्जीवित (revivify) करने के लिये रामबाण दवा  या संजीवनी बूटी के समान हैं। चारों महावाक्य - 'यह जगत भी ब्रह्म ही है ' इसी महासत्य का प्रतिपादन करते हैं।  जिन्हें हृदयंगम कर लेने पर प्रत्येक मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है,और  देहाध्यास के भ्रम से (disenchanted) मुक्त होकर मृत्यु के भय को सदा के लिए समाप्त कर सकता है!     
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वेदों के चार महावाक्य 

मैं कौन हूँ ?  (अपने 'स्व' सत्यस्वरुप की खोज के चार महावाक्य) : वेदों में ऐसे तो कई महावाक्य हैं, किन्तु 'स्व' से पहचान के ' चार वाक्य' कहे गए हैं। प्रत्येक वेद से एक-एक महावाक्य (सिद्धान्त) को लेकर 4 महावाक्य कहे गए हैं।

(i) लक्षणा वाक्य  (Defining Sentence): 'प्रज्ञानं ब्रह्म' -(consciousness is Brahman) प्रज्ञा रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है ! पहला महावाक्य ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद से उद्धृत किया गया है। इस महावाक्य में ब्रह्म को चैतन्य (शाश्वत स्पंदन) के जैसा साक्षात् अनुभव करने वाले ऋषि, उस अनन्त ब्रह्म को परिभाषित करने की चेष्टा करते हुए कहते हैं कि- ब्रह्म प्रज्ञा [अनुभूत-ज्ञान Consciousness] है।

(ii) अनुभव वाक्य (Experience Sentence): 'अहं ब्रह्मास्मि ' -- मै ब्रह्म हूँ। (I am Brahman) दूसरा महावाक्य यजुर्वेद के वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। दूसरे महावाक्य की खासियत यह है कि इसमें हमें अपने अनुभव से यह जान लेने की प्रेरणा दी जा रही है, कि इस जगत में उपस्थित सभी मनुष्य ब्रह्म ही हैं। इस महावाक्य के मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है।

(iii) उपदेश वाक्य (sermon sentence) :  'तत्वमसि' - तत त्वम असि - वह पूर्ण ब्रह्म तू है... (You are That ) तीसरा महावाक्य - सामवेद के छांदोग्य उपनिषद से लिया गया है।  इसे   या भी कहा जाता है। इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , तुम भी ब्रह्म हो , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है।  उपदेश वाक्य इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही, परस्पर व्यवहार में दूसरों के प्रति आदर और श्रद्धा की भावना को भी पैदा करते हैं। 

(iv) अनुसंधान वाक्य : "अयं आत्मा ब्रह्म" - अर्थात 'यह आत्मा (अव्यक्त) ब्रह्म है।'  यह महावाक्य ही आत्मा और ब्रह्म के अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। 

      इसलिए व्यावहारिक जगत में सावधानी बरतने के प्रति सचेत करते हुए, भगवान श्रीरामकृष्ण अपने भक्तों को दो कहानी कहते थे पहला -" अगर हाथी नारायण है , तो महावत भी नारायण है।" दूसरा " काटना मत लेकिन फुँफकारना जरूर !"  अतएव इसी अनुसंधान वाक्य की व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मन:संयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान – पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया – कलाप तो उसके गौण ब्यौरे मात्र है।"  (वि.सा.-१ : राजयोग : पातंजल योगसूत्र : साधनपाद) दरअसल , यह अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और परम सत्य के बड़े स्वरूप की जानकारी देता है , इसलिए इसे ' अनुसंधान वाक्य ' भी कहा जाता है। 

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है!' और शंकराचार्य जी कहते हैं - दृष्टिं ज्ञानमयीं  कृत्वा पश्येद्  ब्रह्ममयं जगत्। क्योंकि आत्मानुसंधान करते समय प्रत्येक मनुष्य  में ब्रह्मत्व, दिव्यता या मनुष्यत्व (विवेक-दृष्टि या ज्ञानमयी दृष्टि) की अभिव्यक्ति में तारतम्य रहता है। इसी बात उल्लेख करते हुए हनुमान जी कहते हैं -   

देहबुद्ध्या तु दासोऽस्मि जीवबुद्ध्या त्वदंशकः।

आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः ।।

                                       (वाल्मीकिरामायणम् )

हनुमानजी बोले, 'हे प्रभो ! देहबुद्धि अर्थात देह की दृष्टि से या देह के साथ तादात्म्य होते ही मैं आपका दास हूँ ! जीवबुद्धि (जीवात्मा बुद्धि) से मैं आपका (परमात्मा का या ईश्वर का) एक अंश हूँ। आत्मा के दृष्टिकोण से (या उस अवस्था में) मैं भी आप ही हूँ -अर्थात सच्चिदानन्द-स्वरुप ही हूँ। यही मेरी निश्चित मति है।  

अहं देहबुद्ध्या तवैवास्मि दासो ह्यहं

 जीवबुद्ध्याऽस्मि तेंऽशैकदेशः ।

त्वमेवास्म्यहं त्वात्मबुद्ध्या तथापि

 प्रसीदान्वहं देहबुद्ध्या नमस्ते ॥

(श्रीगुरुभुजङ्गस्तोत्रम्-१०६॥)

देहबुद्धि अर्थात देह के साथ तादात्म्य हो जाने पर (M/F शरीर में देहध्यास की अवस्थामें) - मैं आपका दास हूँ। जीव बुद्धि से मैं आपका एक अंश हूँ ; आत्मा के दृष्टिकोण से मैं आपसे थोड़ा भी भिन्न नहीं हूँ, अर्थात सच्चिदानन्द-स्वरुप ही हूँ। फिर भी, देहबुद्धि से मैं, सच्चिदानन्द-स्वरुप आपको नमस्कार करता हूँ।    

दासस्तेऽहं देहदृष्ट्याऽस्मि शंभो

 जातस्तेंऽशो जीवदृष्ट्या त्रिदृष्टे।

सर्वस्याऽऽत्मन्नात्मदृष्ट्या त्वमेवे- त्येवं

 मे धीर्निश्चिता सर्वशास्त्रैः॥

(श्रीशंकराचार्य कृत मनीषापञ्चकम्)

हे शम्भो ! देहदृष्टि से (देह के विचार से) मैं आपका दास हूँ; और हे (त्रिदृष्टे) त्रिलोचन ! जीव-दृष्टि से मैं आपका अंश हूँ। शुद्ध आत्मदृष्टि से विचार करने पर तो सबकी आत्मा आप ही हैं। (सबकी आत्मा आप =ब्रह्म, परमात्मा, शिव ही हैं।) उस अवस्था में मैं आपसे किसी प्रकार भिन्न नहीं हूँ। सब शास्त्रों के द्वारा निश्चित की गयी यही मेरी बुद्धि है।  

विलक्षणं यदा देहाज्जानात्यात्मानमात्मना । 

तदा कः कस्य वा बन्धुर्भाता माता पिता सुहृत् ॥ २३ ॥

(अध्यात्मरामायण युद्धकाण्ड द्वादश सर्ग)

माता, पिता, भ्राता, सुहृद और स्नेही-स्वजन तो देह-बुद्धि से (स्वयं को देह समझने से) ही होते हैं। जिस समय अपने विशुद्ध अन्तःकरण द्वारा 'मनुष्य'  आत्मा को देह से पृथक् जान लेता है उस अवस्था में कौन किसका माता, पिता, भाई, बन्धु अथवा सुहृद् है ? ॥ २३ ॥

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आदमी की तरक़्क़ी 

(मनुष्य का क्रमविकास:evolution of man

बेजान खनिजों से मर गया, पौधा बन गया

फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया

हैवानों से मर गया और आदमी हो गया

डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?

अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ

ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ

और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना

कि सिवा उस के हर शै को फ़ना हो जाना

एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा

फिर जो सोच में नहीं आता, वो हो जाऊँगा

[Education is the manifestation of the perfection already in man. Religion is the manifestation of the Divinity already in man. Therefore the only duty of the teacher in both cases is to remove all obstructions from the way. Hands off! as I always say, and everything will be right. That is, our duty is to clear the way. The Lord does the rest. (Letter Written to “Kidi” on March 3, 1894)  

[मनोलय के बिना अद्वैत ज्ञान संभव नहीं। मन का प्राण में लय होना और -'सर्वं खलु इदं ब्रह्म' के बोध में जीवन का सहज स्थिर होना ही मुक्ति है। (लेकिन जब तक शरीर है, यह शक्ति का राज्य है , यहाँ निरंतर शक्ति की प्रार्थना और शरण में ही रहना है।

19 वीं सदी के अन्त में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - "मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये! शेष सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान , तेजस्वी, अंतर्निहित दिव्यता में दृढ-विश्वासी, निष्कपट- नवयुवकों की ! ऐसे सौ मिल जायें तो संसार का कायाकल्प हो जाय। " (मेरी क्रन्तिकारी योजना : ५/११८)

" Men, men, these are wanted: everything else will be ready, but strong, vigorous, believing young men, sincere to the backbone, are wanted. A hundred such and the world becomes revolutionized."  vol/3/223 ] 

स्वामी विवेकानन्द 125 साल पहले जिस प्रकार के 100 'देहाध्यास रहित ब्रह्मविद मनुष्य' मनुष्यों के निर्माण की आवश्यकता का उल्लेख करते थे, वैसे क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न ' मानहूँश-मनुष्यों ' की आवश्यकता आज भी है बनी हुई है। इसीलिए महामण्डल विगत 58 वर्षों से स्वामी विवेकानन्द की 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा" (महामण्डल के 3H विकास के 5 अभ्यास वाली-'Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग) के द्वारा इसी "मनुष्य-निर्माण आन्दोलन" का प्रचार-प्रसार करता चला आ रहा है। ऐसे 'नेता' (विष्णु सहस्रनाम-मार्गदर्शक, पैगम्बर या जीवनमुक्त शिक्षक नवनी दा) कहते थे जो व्यक्ति इस " मानहूँश~मनुष्यों का निर्माण सूत्र है ~ Be and Make ! " अर्थात 'मानहूँश -मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन' से जुड़ा रहेगा वह स्वतः मुक्त हो जायेगा, उसे अलग से अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी। इसके लिए पहले 3H विकास के 5 अभ्यास वाली-'Be and Make लीडरशिप-प्रशिक्षण' देने में समर्थ 'नेताओं' - (जीवनमुक्त -शिक्षकों) के जीवन का निर्माण करना होगा। तब कहीं काम होगा। ...  Arise, awake, and stop not till the goal is reached! यही 'सर्वतोकृष्ट' समाज सेवा है, और यही महामण्डल का उद्देश्य तथा कार्यक्रम भी है।

["इस प्रपंचमय जगत में मनुष्य-योनि उच्चतम है। वेदान्ती कहता है मानव देवता से भी ऊँचा है। समस्त देवताओं को एक न एक दिन मरना ही होगा और पुनः मनुष्य शरीर में जन्म लेना होगा - केवल मनुष्य शरीर में ही वे पूर्णत्व लाभ कर सकेंगे। (वेदान्त दर्शन-2, पेज -73, खण्ड -9) Man-manifestation is the highest in the phenomenal world. The Vedantist says he is higher than the Devas. The gods will all have to die and will become men again, and in the man-body alone they will become perfect." (On The Vedanta Philosophy/ Volume -5, page - 284) )] 

जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता 

तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता  विद्वत्त्वमस्मात्परम्। 

आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति- 

र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते।। 2 ।।

जीवों को प्रथम तो नरजन्म ही दुर्लभ है, उससे भी पुरुषत्व और उससे भी ब्राह्मणत्वका मिलना कठिन है; ब्राह्मण होने से भी वैदिक धर्मका अनुगामी होना और उससे भी विद्वत्ताका होना कठिन है। (यह सब कुछ होने पर भी) आत्मा और अनात्माका विवेक सम्यक् अनुभव –ब्रह्मात्मभाव से स्थिति और मुक्ति-ये तो करोड़ों जन्मों में किये हुए शुभ कर्मों के परिपाकके बिना प्राप्त हो ही नहीं सकते। 

मायायै सिद्धयोगिन्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः।

 सारायै सारदायै च परादेव्यै नमो नमः॥६१॥

बालाधिष्ठातृदेव्यै च षष्ठीदेव्यै नमो नमः। 

कल्याणदायै कल्याण्यै फलदायै च कर्मणाम्॥६२॥

परमेश शक्ति माया, सिद्धयोगिनी षष्ठी देवी, सारा (सार तत्त्व), सारदा (सार देने वाली), परादेवी, बालकों की अधिष्ठात्री, कल्याणी, कल्याण देने वाली, कर्मों का फल देने वाली माँ सारदा देवी को बारम्बार नमस्कार है। (श्रीमद् देवी भागवत पुराण, स्कन्ध ९, अध्याय ३८)

    यदि कोई व्यक्ति "स्वामी विवेकानन्द की चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा- Be and Make " का प्रशिक्षण ( अर्थात विवेक-दृष्टि  सम्पन्न मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा) प्राप्त करके धीरे -धीरे सम्पूर्ण जगत को ब्रह्ममय देखने में सक्षम बन सके तो वह देवता से भी आगे निकल सकता है। (दादा ने कहा था - " तुम देखना एक दिन 'Be and Make ' ही वैश्विक धर्म बनेगा और जो व्यक्ति इस "विवेकी-मनुष्य बनने और बनाने वाले आन्दोलन' के प्रचार-प्रसार में आजीवन लगा रह सकेगा वह बिना कोई अन्य साधना किये ही मुक्त हो जायेगा।)

[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " मेरा मतलब उस भावुकतापूर्ण कथन से नहीं है कि - 'सभी मनुष्य भाई भाई हैं' बल्कि मनुष्य जीवन की एकत्वानुभूति की आवश्यकता से है। " (आत्मा,ईश्वर और धर्म /खंड २/२३५) [Love and charity for the whole human race, that is the test of true religiousness. I do not mean the sentimental statement that all men are brothers, but that one must feel the oneness of human life.]

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Friday, July 19, 2019

दृग-दृश्य विवेक- अध्याय 6 (Final- श्लोक 42 to 46) )


हमें मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो !
Lead us from death to immortality'  दृग-दृश्य विवेक नामक वेदान्त परिचय ग्रंथ का प्रमुख भाग हमलोगों ने सुन लिया है। अब 42 श्लोक देखें - 
पारमार्थिकजीवस्तु ब्रह्मैक्यं पारमार्थिकम् । प्रत्येति वीक्षते नान्यद्वीक्षते त्वनृतात्मना ॥ ४२॥
पारमार्थिक-जीवः तु [जीव-]ब्रह्म-ऐक्यं पारमार्थिकं प्रत्येति। [सः ज्ञानी] अन्यद् [भेद-वस्तु] न [सत्यतया] वीक्षते (मन्यते), अन्-ऋत-आत्मना [अ-सत्यतया] तु वीक्षते॥
42. When Awareness is realized to be the underling Reality behind all states, the world of objects are realized to be merely reflections of Awareness.

साक्षी आत्मा (the witness self) स्वयं को ब्रह्म के साथ एकात्म होने का अनुभव करती है। साक्षी अपने ब्रह्मस्वरूप को जानता है , और वह ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी अस्तित्व को नहीं जानता। या साक्षी ,ब्रह्म के अतरिक्त अन्य किसी अस्तित्व (नाम-रूप वाले जगत) के प्रति जागरूक (Aware) नहीं रहता। यदि वह नमरूपमय जगत के प्रति जागरूक भी रहता है, तो उसे हमेशा यह बोध बना रहता है कि यह जगत मिथ्या (false-अवास्तविक) है। 
इस बिंदु तक पहुँचने के बाद हमलोगों ने वेदान्त प्रकरण ग्रंथ -'दृग-दृश्य विवेक' के प्रमुख हिस्से को समाप्त कर लिया है। इस ग्रंथ के अंतिम भाग में लेखक ने एक ही प्रश्न का हल खोजने के लिए -appended a section, एक अनुभाग को जोड़ा है। प्रश्न यह है कि लीडरशिप क्लास का सम्पूर्ण प्रशिक्षण समाप्त हो जाने के बाद - यह समझ में आया कि 'मैं' -'existence-consciousness-bliss - 'सच्चिदानन्द हूँ !' इस महावाक्य की शिक्षा पर थोड़ी देर तक अनुध्यान करने पर एक प्रश्न का उठना बहुत स्वाभाविक है। यदि मैं ब्रह्म हूँ ; तो यह व्यक्ति [B.K.S] कौन है ? वह कौन व्यक्ति है जो अज्ञान में फंसा हुआ है,यदि मैं ब्रह्म हूँ तो वह व्यक्ति कौन है -जो वेदान्त सीखने के लिए क्लास में बैठा है ? [" विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त -शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में  "Be and Make -vedanta Leadership Training" का क्लास करने आया है ?] क्योंकि ब्रह्म तो never under ignorance- कभी अविद्या माया के जाल में फंस नहीं सकते। तो ब्रह्म को वेदान्त सीखने की क्या आवश्यकता है ? आप कह रहे हैं कि मैं ब्रह्म हूँ , तो मुक्त होने का प्रयास कौन कर रहा है ? ब्रह्म को मुक्ति पाने का प्रयास क्यों करना चाहिए ?  तब इस जिज्ञासु (सत्यार्थी) व्यक्ति का स्वरूप क्या है ? what is the nature of this individual self ? यह अपरिहार्य प्रश्न है, अवश्य उठेगा ! 
इसके उत्तर में लेखक कहते हैं कि तुम स्वयं यह जानने की चेष्टा करो कि तुम अपनेआप को एक व्यक्ति के रूप में क्या समझते हो ? think of how you experience yourself as an individual? यहाँ वे स्वयं तीन प्रकार से अनुभव करने वाले के व्यक्ति की उपमा देते हैं। जब हमलोग सोने जाते हैं, तब हमलोग स्वप्न देखते हैं, और जब हमलोग स्वप्न देख रहे होते हैं, उस समय अपने स्वप्न-व्यक्ति (dream  individual) के रूप में देखते हैं। अपने उस स्वप्न-व्यक्तित्व के प्रति जागरूक (Aware) भी रहते हैं! उस समय हम लोग यह नहीं सोचते कि हम स्वप्न देख रहे हैं ; स्वप्न देखते समय कोई भी सपना सच्चा ही लगता है ! हमलोग निश्चित रूप से स्वप्नहैं  का एक हिस्सा रहते हैं, हमलोग स्वप्न देखते समय वहां अवश्य होते हैं।तब हम स्वप्न जगत का अनुभव करने वाला एक व्यक्ति होते हैं। 
जब हम स्वप्न से जाग उठते हैं, तब हम इस व्यावहारिक जगत, दृष्टिगोचर विश्व-ब्रह्माण्ड के प्रति जागरूक हो जाते हैं। हर दिन हमलोग सोने जाते हैं, स्वप्न देखते है, सुबह में जब जागते हैं, तब इसी जाग्रत जगत को देखते हैं। और अपने को व्यावहारिक संसार या जाग्रत जगत (waking world) में रहने वाले एक व्यक्ति के रूप में अनुभव करते हैं। इन दोनों प्रकार के व्यक्ति के अस्तित्व को हम सभी लोग जानते हैं, भले हमलोग वेदांत-शिक्षक -प्रशिक्षण शिविर में आये या नहीं आएं !
किन्तु इस पूरे ग्रन्थ में हमने यही पढ़ा है कि हमलोग वास्तव में साक्षी है - साक्षी आत्मा (witness self) है। हमलोग यह व्यक्ति नहीं जो अपने को देह-मन संयुक्त (M/F) होने का अनुभव करता है। यह व्यक्ति जो अपने को श्री/श्रीमती चिदाभास Bh समझता है, यह व्यक्ति भी हमारे लिए एक "object of our awareness " रहता है। हम अपनी आत्मा को एक व्यक्ति के रूप में जानते हैं जो यहाँ वेदांत सीखने आया है - we are aware of our-self as a person who has come to learn Vedanta, जिसका एक अपना एक माजि है -जिसका एक अपना एक (life history) जीवन-इतिहास है। यह व्यक्ति जिसकी कुछ आशा और आकांक्षायें हैं, जीवन का उद्देश्य है, सपने हैं। इस व्यक्ति को भी कोई देख रहा है, कोई 'observe' कर रहा है ! वह कौन है -या क्या है ? who or what is observing this person  ....वह चेतना जो beyond the body beyond the mind,  the witness of body and mind  देह -मन से परे रहते हुए भी इस इस व्यक्ति के पूरे जीवन-इतिहास को जान रहा होता है ? वह कौन सी चेतना है - जो इस जीव (M/F) की प्रत्येक गतिविधियों का निरीक्षण कर रही होती है ? उस चेतना या pure consciousness को इस पुस्तक में साक्षी कहा गया है। यह दूसरे प्रकार के व्यक्ति का अनुभव हमें होता है। हम अपने उसी witness self को जानने के लिए यहाँ आये हैं।
यह व्यक्ति कौन है -हर रात जो स्वप्न देखता है ---वह है dream -self,/ the waking self - जो स्वप्न से जाग उठता है और जगत के साथ व्यव्हार करता है -empirical-self/ तथा वेदांत की सहायता से [वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित किसी नेतावरिष्ठ (C-in-C) की सहायता से] हमें यह सीखना पड़ता है कि हम वास्तव में साक्षी-चेतना( witness self) हैं ! इन तीनो प्रकार के जीव के लिए 3 नाम दिए जा रहे हैं।  
स्वप्न देखने वाले व्यक्ति को -'प्रातिकभातिक जीव' (the illusory self) कहा गया है। जाग्रत अवस्था में रहने वाले व्यक्ति को 'व्यावहारिक जीव' (empirical-self) तथा साक्षी (witness or pure consciousness) जिसके बारे में इस पुस्तक में महावाक्यों की सहायता से समझाया गया है, उसको लेखक 'पारमार्थिक जीव ' (The Absolute self); इस श्लोक में लेखक इसी पारमार्थिक जीव की व्याख्या करते हुए कहते हैं -यह पारमार्थिक जीव ही अपने को ब्रह्म के साथ एक होने का अनुभव करता है। वास्तव में हम अपनी आत्मा का अनुभव तभी कर पाते हैं, जब हम अपने को ब्रह्म के साथ एक होने का अनुभव करते हैं। शुद्ध चेतना , जो मन की साक्षी है, वही अनुभव करती है कि वह ब्रह्म के साथ अभिन्न है !( the pure consciousness, the witness of the mind knows that it is one with Brahman) वेदान्त में स्वरूप की पहचान के -great statements of identity' के चार महावाक्य कहे गए है-अहं ब्रह्मास्मि , तत्त्वमसि, अयं आत्मा ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म ! सभी में एक ही बात कहा जा रहा है- कि "तुम ब्रह्म हो ! " यहाँ चारो महावाक्यों में जिस 'तुम' के ब्रह्म होने की बात कही रही है, उस 'तुम' का तात्पर्य 'साक्षी तुम' से है। जाग्रत अवस्था के जीव या स्वप्नावस्था के जीव के 'तुम' का यहाँ कोई सन्दर्भ नहीं है। स्वप्न देखने वाला -प्रातिभासिक जीव ब्रह्म के साथ एक नहीं है। व्यावहारिक जीव भी ब्रह्म के साथ एक नहीं है। व्यावहारिक जीव तो अपने को देह-मन से जुड़ा हुआ समझता है। पारमार्थिक जीव ही ब्रह्म के साथ एक है।
 जब उपनिषद कहते हैं -श्रुति कहती है, शिविरार्थी भाइयो -" तत्त्वमसि" तुम 'वह' हो ! उस समय वे इसी साक्षी व्यक्ति -पारमार्थिक जीव को ब्रह्म के साथ एक होने की बात कहते हैं। फिर कहते हैं यह पारमार्थिक जीव ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी अस्तित्व को नहीं जानता, यदि नमरूपमय जगत के प्रति जागरूक होता भी है तो उसे प्रातिभासिक या अवास्तविक (illusory) मानता है। इसका क्या अर्थ हुआ ? इसकी व्याख्या (interpretation) दो प्रकार से की जा सकती है। जब हम अपने स्वरुप 'सच्चिदानन्द' (existence-consciousness-bliss) की अनुभूति करते हैं, यह श्लोक कहता है ---उस समय निर्विकल्प समाधि (in state of mystic absorption) में रहने वाला व्यक्ति ब्रह्म के सिवा अन्य किसी अस्तित्व का अनुभव नहीं करता। उस अवस्था में बाह्य जगत की कोई अनुभूति नहीं हो सकती। इसके कई उदाहरण हमलोग 'श्री रामकृष्ण वचनामृत ' में देख सकते हैं। उनको मुहुर्मुहुः समाधि होती थी , जब वे समाधी में चले जाते थे, तब उनको बाह्य-जगत की कोई प्रतीति नहीं होती थी। यहाँ तक कि वे अपने शरीर के प्रति भी बेखबर (unaware-बेसुध) हो जाते थे। वहाँ एक डॉक्टर (सरकार बाबू) भी आते थे। उन्होंने लिखा है -श्रीरामकृष्ण मानो एक चित्र के जैसे खड़े हैं। और डॉक्टर अपनी उँगलियों से उनके आँखों की पुतली को छू कर देखते थे कि उसमें कोई हलचल होती है या नहीं ? नाड़ी परीक्षण करते हैं, नाड़ी भी नहीं चलती है। इतनी गहन समाधि थी,  लिखते हैं -यह व्यक्ति गहरी समाधि में हैं, इसलिए उन्हें देह-मन की कोई अनुभूति नहीं हो रही है। 
इसका एक और गहरा अर्थ भी है, केवल समाधि की अवस्था में ही नहीं; जब कोई व्यक्ति समाधि में पहुंचकर अपने ब्रह्मस्वरूप की अनुभूति कर लेता है, या ब्रह्मवेत्ता हो जाता है तब वह जगत की प्रत्येक वस्तु को ब्रह्म के रूप में ही अनुभव करता है। इसीलिए वह किसी भी जीव को अपने से भिन्न नहीं देखता। आँखें खोल कर बात-व्यवहार करते समय भी नमरूपमय जगत के जिस किसी वस्तु या विषय का अनुभव करता है, उसको ब्रह्म के रूप में ही अनुभव होता है। ब्रह्म से भिन्न वह अन्य किसी को नहीं देखता।
 इस प्रकार इस श्लोक में पारमार्थिक जीव की दोनों व्याख्या के सटीक बैठती है। साक्षी या पारमार्थिक जीव (Absolute self) ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी अस्तित्व को नहीं जानता।-'ब्रह्म से भिन्न अन्य किसी वस्तु को नहीं जानता ' --- इसकी व्याख्या दो प्रकार से की जा सकती है, जब वह पारमार्थिक जीव समाधि में तल्लीन रहता है, उस समय उसका मन समाधि में तल्लीन रहता है, इसलिये उस अवस्था में ब्रह्म के सिवा और कुछ जानना सम्भव ही नहीं है। अद्वैतिक व्याख्या यह होगी कि ब्रह्मविद मनुष्य हर वस्तु में अपनी  आत्मा को ही ब्रह्म के रूप में देखता है। उसको भी नामरूप दीखते हैं, किन्तु वह उनको पराया नहीं समझता; जगत उसका अपना हो जाता है। यदि वह नमरूपमय जगत के प्रति अन्यता में जागरूक भी रहता है, तो उसे हमेशा यह बोध बना रहता है कि यह जगत मिथ्या (false-अवास्तविक) है। जैसे रज्जु है जो सर्प के रूप में भास रहा है , या Bh मृग-मरीचिका के जल के रूप में भास रही है, वहाँ जल नहीं है। कि तुम अपनी प्यास बुझा सकोगे ? जब तुमको यह अनुभव हो जाता है कि रेगिस्तान के मृगमरीचिका में जल नहीं है, आगे बढ़ जाते हैं। किन्तु जैसे ही पीछे मुड़कर देखते हैं -हमें वहाँ फिर से जल दिखाई देता है। किन्तु अब हमलोग जानते हैं कि वहां जल नहीं है, यह मिथ्या है। आत्मज्ञानी व्यक्ति जगत को अन्य रूप में देखता भी है तो उसे मिथ्या -दूसरा समझता है। वास्तव में सबको अपना ही मानता है। ब्रह्म ही वस्तु है और सब अवस्तु है !! 
अब लेखक इस ग्रंथ का समापन भी एक सुंदर उदाहरण से करते हैं - तीन प्रकार के जीव हमें याद है -प्रातिभासिक जीव, व्यावहारिक जीव और साक्षी, इन तीनों की तुलना लेखक जल, तरंग और फेन से करते हैं। शांत स्थिर जल, तरंगायित कर दिया जाता है, तब तरंगों के ऊपर फेन (foam -झाग) दिखाई देता है। जो फेन है वह हमारे Dream Self, प्रातिभासिक जीव की उपमा है, जो 'मैं' स्वप्न देखते समय होता हूँ , उस मैं यह नहीं सोच रहा होता कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ। जितनी देर तक स्वप्न चलता रहता है मैं एक स्वप्न-जीव की अवस्था में रहता हूँ। फेन के नीचे तरंग रहता है, नामरूप वाला 'मैं ' व्यावहारिक जीव की अवस्था है, जो हमलोग अभी इस समय हैं। empirical self का यह सुंदर उदाहरण है। और जब तरंग नीचे बैठ जाती है -subside कर जाती है तब क्या बचता है ? underneath the wave लहर के नीचे क्या है -शांत जल ! शांत जल की उपमा पारमार्थिक जीव से दी गयी है। यहाँ समझने की बात यह है कि जब तक तरंग की अवस्था है -वह जल है या नहीं ? निश्चित ही जल ही तरंग का आकार में दिख रहा है। तरंग ऊपरी सतह पर जो फेन दिख रहा है, वह जल है या नहीं ? हाँ -है ! जब झाग तरंग में लीन हो जाती है, तब भी वही जल होता है। जब तरंग समुद्र के शांत जल में बैठ जाती है, उस समय भी वह जल ही रहती है। शांत जल , तरंगें , झाग सभी अवस्थाएं समुद्र के शांत जल की ही हैं।  
ठीक उसी प्रकार जब हम प्रातिभासिक जीव (dream self) होने का अनुभव कर रहे होते हैं, या हमलोग इस समय जो जाग्रत जीव (waking self) का अनुभव करते हैं, या जब हम अपनी सच्चिदानन्द स्वरूप (existence-consciousness-bliss)  अवस्था का  (Absolute self ) का अनुभव करते हैं। [हाथ को जल-तरंग-झाग के तरह नीचे से ऊपर की ओर उठाते हुए] --- ऊपर वह हमेशा  (existence-consciousness-bliss) सच्चिदानन्द या (Absolute self ) ही रहता है। इस बात को हर समय याद रखना चाहिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि अभी तो (waking self) या व्यावहारिक जीव की अवस्था में हूँ -इसलिए मैं इस समय अभी सच्चिदानन्द या (Absolute self ) नहीं हूँ। [.... अभी तो मैं व्यावहारिक जीव हूँ, इसलिए toffee -milk -Bh आदि निषिद्ध कर्म भी कर सकता हूँ। इसी अवस्था से बचने के लिए हिन्दु-बालकों के सारे नाम सच्चिदानन्द या (Absolute self ) के नाम पर ही रखे जाते हैं ?] या मैं अभी -अभी तो प्रातिभासिक जीव (dream self) जो डरावने या लुभावने स्वप्न देख रहा था ? अभी जब जाग गया , तब मैं भला कैसे सच्चिदानन्द (Absolute self ) हो सकता हूँ ?
 नहीं 'हमारा कोट-शर्ट चाहे जितनी बार भी चोरी हो जाये' -(हमारा आवरण-नामरूप- चाहे जितनी बार भी क्यों बदल जाये) हमलोग सदैव वही सच्चिदानन्द या (Absolute self ) रहते हैं !! लेखक इसी बात को उदाहरण देकर यहाँ समझा रहे हैं -
माधुर्यद्रवशैत्यानि नीरधर्मास्तरङ्गके ।अनुगम्याथ तन्निष्ठे फेनेऽप्यनुगता यथा ॥ ४३॥
साक्षिस्थाः सच्चिदानन्दाः सम्बन्धाद्व्यावहारिके । तद्द्वारेणानुगच्छन्ति तथैव प्रातिभासिके ॥ ४४॥
यथा माधुर्य-द्रव-शैत्यानि नीर-धर्माः (जल-धर्माः) तरम्-गके (तरम्-गे) अनुगम्य (अन्तर् स्थित्वा), अथ (इत्था च) तद्-निष्ठे [जल-निष्ठे] फेने अपि अनुगताः, तथा एव सत्-चित्-आनन्दाः [लक्षणानि] साक्षि-स्थाः सम्बन्धात् [स्व-अधिष्ठानेन नाम-रूप-दृश्यस्य मिथ्या-विवर्त-सम्बन्धात् नाम-धेयतया], [न सत्य-परिणाम-सम्बन्धात्] व्यावहारिके अनुगच्छन्ति, तद्-द्वारेण [व्यावहारिक-सम्बन्धेन च] प्रातिभासिके (अनुगच्छन्ति)॥
43-44. The qualities of water such as wetness, fluidity, coldness, sweetness, wave and foam are inherent in water and are not separate from water except as conceptual names and forms. So also Being, Consciousness, Peace and Bliss, which are the natural characteristics of Awareness, appear to be inherent in the so-called separate selves that reside in the waking and dream states.
 जल के कुछ गुण होते हैं। यह द्रव या तरल रूप में होता है, यह ठंढा होता है, यह मीठा जल होता है। जल का स्वाभाविक गुण - 'coolness -fluidity- sweetness'  शीतलता-तरलता या प्रवाहिता और मीठापन उस  में सदैव बने रहते हैं। when the water is whipped up into a wave, जब जल में थपेड़े मारकर उसे तरंगायित कर दिया जाता है, (जैसे शांत सरोवर में ढेला फेंकने से या चित्त मनवस्तु में विषयों का ढेला गिरने से वह तरंगायित होकर मन बन जाता है और क्या है ? क्या है ? करने वाला मन बन जाता है। तब भी चित्त ही रहता है।) तब तरंग को चखने से उसका स्वाद मीठा ही लगता है, हाँ वह सरोवर का fresh water ही होना चाहिए, समुद्र का जल तो खारा ही लगेगा। यह शीतल होगा और तरल भी रहेगा। तरंग को भी थपेड़ा लगने से वह झाग बन जायेगा , तब भी उसमें जल के सारे गुण रहेंगे। उसी प्रकार ब्रह्म का existence,consciousness and bliss ही हमारे इस वर्तमान जाग्रत अवस्था (waking state ), और हमारे स्वप्न अवस्था के माध्यम से अभिव्यक्त, shine through या प्रकाशित होता है। जैसे जल में तरलता -fluidity बनी रहती है, उसी प्रकार हमलोग इस समय जिस  चेतनता  consciousness अनुभव कर रहे हैं, वह ब्रह्म के चेतनता के सिवा और कुछ नहीं है। यह चेतनता ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है, यह ब्रह्म ही है, किन्तु 'नाम-रूप ' के आवरण से ढँकी हुई है। अर्थात इसने नाम-रूप के साथ अपना तादाम्य कर लिया है। अपने भीतर और इन्द्रियग्राह्य बाह्य जगत में जिस अस्तित्व existence का अनुभव हमलोग इस समय कर रहे हैं, वह सबकुछ ब्रह्म ही हैं। जिस विभन्न प्रकार के bliss का अनुभव हमें joy या आनंदोल्लास का अनुभव होता है, चाहे worldly joy  सांसारिक आनन्द हो, या spiritual ecstasy आध्यात्मिक परमानंद की अनुभूति होती हो, वह भी ब्रह्म के आनंद -ब्रह्मानन्द का reflection या परछाई ही है।  
From the relative standpoint wetness, foam, waves, fluidity, coldness and sweetness appear as separate qualities of water; so, too, do I-selves and objects appear to be separate qualities of Awareness. From the standpoint of Awareness there are no waking or dream selves that are separate from Awareness. The characteristics of a separate self and a separate world are merely superimpositions upon undifferentiated Awareness.
इसलिए जो अस्तित्व हमें स्वप्न में अनुभव होता है ,स्वप्न की अवस्था में जिस Awareness या जागरूकता consciousness का भान हमें होता है, या स्वप्न यदि हमें कुछ आनंद के लुभावने दृश्य के अनुभव होते हैं तो वह ब्रह्म का ही आनंद है। जाग्रत अवस्था में हमलोग जिस अस्तित्व-चेतनता और आनंद का अनुभव होता है, वह सब ब्रह्म को ही belong करते हैं। 
जल के जितने ---'fluidity, coldness and sweetness' आदि  सारे गुण उतनी ही स्पष्टता से तरंग में भी होते हैं, उतनी ही स्पष्टता से झाग में भी रहते हैं। ये सारे गुण जल से ही संचारित हुए हैं। तरंग ने उन्हें जल से उधार लिया है,और झाग ने उन्हें तरंग से उधार लिया है। ठीक उसी प्रकार हमलोग इस समय जो जाग्रत अवस्था के व्यावहारिक जीव हैं, हमलोगों ने भी अपने अस्तित्व, चेतनता और आनंद को अपने सच्चे स्वरूप से ब्रह्म से उधार लिया है। उसी प्रकार जब हम स्वप्ना वस्था में होते हैं, उस समय हमलोग existence,consciousness and bliss को सीधा ब्रह्म से उधार नहीं लेते, बल्कि जाग्रत अवस्था में हमलोग जो व्यावहारिक जीव बनकर करते हैं, उससे उधार लेते हैं ! जाग्रत अवस्था के अनुभव ही स्वप्नावस्था में प्रकाशित होते हैं। जब हम जाग उठते हैं, तब क्या होता है ? स्वप्न -जीव , जाग्रत जीव में विलीन हो जाता है। हमलोग कहते हैं -अरे वो सच नहीं था , हमलोग स्वप्न देख रहे थे। मैं ही नींद में सोया हुआ था और स्वप्न देख रहा था। 
ठीक उसी प्रकार जब हमलोगों को बुद्धत्व प्राप्त होता है, तब हमें अनुभव होता है कि वही  existence, consciousness and bliss, इस व्यावहारिक जीव के माध्यम से प्रकाशित हो रहा था। जिस आनन्द को हम बाहर खोज रहे थे वही मेरा यथार्थ स्वरूप है। जब हमलोग अपने witness consciousness या पारमार्थिक जीव भाव के प्रति जाग्रत हो जाते हैं, तब समझ जाते हैं कि पारमार्थिक जीव ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है। जब हम अपने सच्चिदानन्द स्वरूप के प्रति जाग्रत हो जाते हैं, उस समय जैसे तरंग जल में लीन हो जाती है, उसी प्रकार क्या व्यावहारिक जीव भी सच्चिदानन्द में जाकर संविलीन (merged ) हो जाता है ? नहीं उस अवस्था में वह तरंग /व्यावहारिक जीव यह अनुभव करता है कि वह ब्रह्म के साथ -परत्मार्थिक जीव/जल  के साथ एक है। उस समय भी हमें अपना और जगत का विभिन्न नामरूप दिखेगा , अनुभव भी होगा, किन्तु तब हम पूरे ब्रह्मांड के साथ स्पष्ट रूप से अपने एकत्व का अनुभव करेंगे। we will distinctly realize the oneness of the whole universe कोई पराया नहीं लगेगा , सभी अपने लगेंगे। विश्व-ब्रह्माण्ड के साथ एकत्व की स्पष्ट अनुभूति ही ब्रह्म है। 
इस बुद्धत्व की अवस्था की अनुभूति करने वाला व्यावहारिक जीव मुक्त नहीं होगा, या मोक्ष को प्राप्त नहीं होगा। this person will not get free, freedom or moksha is not for the person , the moksha is from the person; यह व्यक्ति मुक्त नहीं होगा, मुक्ति या मोक्ष (de-hypnotaized हो जाना) उस व्यक्ति के लिए नहीं है, बल्कि अपने को व्यक्ति (M/F) मानने वाले व्यष्टि अहं के तादात्म्य से मोक्ष मिल जाता है। ऐसा नहीं होगा कि अब-तक,पहले मै श्रीमान/श्रीमती Bh अमुक था और अब आत्मसाक्षात्कार हो जाने के बाद मैं 'Mr ब्रह्म' हो गया हूँ ! साक्षी जीव (ब्रह्म) यह अनुभव करेगा कि ओह ! अभी तक-I was appearing as that person? मैं स्वयं को एक व्यावहारिक जीव (M/F देह वाला अस्तित्व मात्र) समझ रहा था; किन्तु वास्तव में मैं - existence,consciousness and bliss ' -सच्चिदानन्द हूँ ! जिसे उस तथाकथित व्यावहारिक जीव ने मुझसे उधार लिया था। श्लोक 45 -
लये फेनस्य तद्धर्मा द्रवाद्याः स्युस्तरङ्गके । तस्यापि विलये नीरे तिष्ठन्त्येते यथा पुरा ॥ ४५॥
यथा पुरा (पूर्वं) [विपर्यासेन], फेनस्य लये [प्रकृत्या ज्ञानेन वा सति], द्रव-आद्याः तद्-धर्माः [फेन-अधिष्ठान-धर्माः] तरम्-गके स्युः (तिष्ठेयुः)। तस्य [तरम्-गस्य] अपि विलये, एते [अधिष्ठान-धर्माः] नीरे (जले) तिष्ठन्ति॥
45. All differences like, wetness, foam, wave, coldness, fluidity and sweetness are non-separate characteristics of the underlying essence of water. The characteristics of water have no existence separate from the water from which they arise. All these characteristics appear and disappear in water. All characteristics of water are only aspects of their essential nature, water.
झाग के गुण - शीतलता, द्रवता और मीठापन - coldness, fluidity and sweetness , जैसे फेन तरंग में वापस जाकर लीन हो जाता है। वे सारे गुण तरंग में जाकर मिल जाते हैं। जिस प्रकार तरंग भी जाकर जल में मिल जाती है, तब तरंग का गुण-- 'शीतलता, द्रवता और मीठापन' -वे सब जल में रहते हैं, जिसे उस तरंग ने जल से ही उधार लिया था ! ठीक वैसा ही हमलोगों के साथ तब होता है जब हम स्वप्न-अवस्था से जाग्रत अवस्था में आ जाते हैं, और फिर जब जाग्रत अवस्था से  "आत्मज्ञान की अवस्था" "state of enlightenment"--में आ जाते हैं--तब क्या होता है ? आइये 46 श्लोक देखें -
प्रातिभासिकजीवस्य लये स्युर्व्यावहारिके ।तल्लये सच्चिदानन्दाः पर्यवस्यन्ति साक्षिणि ॥ ४६॥
[तथा] प्रातिभासिक-जीवस्य [तद्-जगतः च] लये [प्रबोधनेन सति], सत्-चित्-आनन्दाः [लक्षणानि] व्यावहारिके स्युः (तिष्ठेयुः)। तद्-लये [व्यावहारिक-लये ज्ञानेन सति], [सत्-चित्-आनन्दाः लक्षणानि] साक्षिणि पर्यवस्यन्ति (निष्ठां प्राप्नुवन्ति) [एषा ब्राह्मी स्थितिः] (BhG.2.72); [तदा द्रष्टुः स्व-रूपे अवस्थानम् (YS.1.3)]॥
46. Upon waking up from the dream state, all characteristics of the dreamer, such as existence and consciousness, dissolve and are realized to be only projections of the dreaming mind. Just so, upon awakening, all separate characteristics of the self dissolve, and are realized to be only projections of nondual Awareness. As foam and wave have no existence separate from water, so also the entire universe consisting of the separate self and the objective world have no existence separate from nondual Awareness. In truth, all that exists is nondual Awareness.इति भारतीतीर्थ स्वामिना विरचितः दृग्दृश्यविवेकः समाप्तः ॥
साभार https://sanskritdocuments.org/
जब प्रातिभासिक जीव (Illusory self-ऐंद्रजालिक या मायावी जीव) जाग्रत या व्यावहारिक जीव में वापस जाकर मिल जाता है। तब हम कहते हैं -मैं स्वप्न से जाग गया ! और खड़े होकर कहते हैं -अभीतक मैं इसी बिस्तर पर सोया हुआ था और डरावना या लुभावना स्वप्न देख रहा था, वह तो टूट गया। ठीक उसी प्रकार जब मुझे आत्मज्ञान प्राप्त हो जायेगा; तो मेरा यह व्यष्टि अहं जिसे मैं अमुक नाम वाला M/F समझाता था , वह वापस जाकर सच्चिदानन्द में मिल जायेगा।  ऐसा मत सोचना की आत्मज्ञान प्राप्त होने के बाद व्यक्ति का शरीर पिघल कर किसी पोखर के जल से मिल जाता है। अन्तर सिर्फ ज्ञान में होता है। तुमको यह अनुभूति हो जाती है कि तुम सदा से अविनाशी अनंत आत्मा ही थे, ससीम, परिवर्तनशील नश्वर शरीर नहीं थे, तुम अनंत सच्चिदानन्द थे - infinite existence-consciousness and bliss थे। तब तुम्हारा भी 'व्यष्टि अहं' माँ जगदम्बा के मातृहृदय के  सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित हो जायेगा ! उसके बाद भी तुम्हारा यह शरीर और मन वाला ससीम व्यावहारिक जीव फिर भी जारी रहेगा, यह किसी flash of light, प्रकाश की चमक या धुएँ में विलीन नहीं हो जायेगा। और जगत की प्रत्येक वस्तु तुम्हारे साथ  existence-consciousness and bliss के रूप में एक हो जाएगी। 
एक प्रश्न उठता है -जब तक हम अज्ञान की अवस्था में रहते हैं, "not knowing is continued" इस अज्ञान की अवस्था में रहने को अद्वैत वेदांत में अविद्या या ignorance कहते हैं। तब तक हम यह अनुभव नहीं कर सकते की हमलोग infinite existence-consciousness and bliss हैं। तब तक हम अपने को दर्पण में दिखने वाला M/F व्यक्ति ही समझते रहेंगे। जो की एथेंस का सत्यार्थी है -और उस परमसत्य को खोज रहा है। किन्तु यह अनुभव नहीं कर पायेगा कि जिस सत्य की खोज में वह भटक रहा था -वह परमसत्य (ultimate reality) तो वह स्वयं है ! बल्कि वह अपने को एक ससीम व्यक्ति ही मानेगा। जब तक हम अपने को ससीम व्यक्ति (M/F) समझते रहेंगे तबतक हमलोग subject to desire , इच्छा के अधीन बने रहेंगे। 'कामिनी-कांचन और कीर्ति ' के गुलाम बने रहेंगे। क्योंकि हम अपने को तबतक unfulfilled या अपूर्ण समझते रहेंगे और पूर्ण होने के लिए अधिक सुख की कामना करेंगे तथा दुःख से पूर्णतः छुटकारा पाना चाहेंगे। 
कोई वस्तु यदि pleasant and unpleasant है तो किसके लिए है? उस व्यक्ति के लिए है जो अपने को केवल व्यावहारिक जीव ही मानता है। और जब हम इच्छाओं के वशीभूत होकर अपना जीवन बिताते हैं, और उन इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए कर्म करते हैं, निष्काम कर्म का रहस्य नहीं जानते हैं। फिर भी जाने-अनजाने अच्छा बुरा जो भी कर्म करते हैं, उसका फल होता है। हम कर्म के बंधन में बंध जाते हैं, good and bad कर्मों का परिणाम भी वैसा ही होता है, जो हमें भोगना पड़ता है। पुण्य-का फल सुख पुण्य , पाप-पाप का फल दुःख। जिसको भगोने के लिए एक जन्म के बाद दूसरा जन्म होता रहता है। जब हमें बुद्धत्व की प्राप्ति हो जाती है, तब हम पहले जैसा अज्ञान में फंसा hypnotized,व्यक्ति भेंड़ -मानव नहीं रहते सच्चे सिंह-शावक के स्वरुप में स्थित रहते हैं। इसीलिए अब इच्छा हम के अधीन भी नहीं रहते, इसीलिए अब बुरी इच्छा के वशीभूत होकर बुरे कर्म भी नहीं करते हैं -निषिद्ध कर्म नहीं करने से उसका बुरा फल भी नहीं भोगना पड़ता है। उसके फलस्वरूप जन-मृत्यु के चक्र में घूमना भी नहीं पड़ता। आचार्य शंकर ने सूत्र दिया है -ignorance-desire-action, "अविद्या -काम -कर्म !" पुनर्जन्म किसका होता है ? स्थूल शरीर मृत्यु के बाद समाप्त हो जाता है, सूक्ष्म शरीर का पुनर्जन्म होता रहता है। अद्वैत वेदांत में सत्य के तीन स्तर हैं -three levels of reality, --पारमार्थिक (Absolute Reality) व्यावहारिक (सापेक्षिक सत्य) और प्रातिभासिक सत्य (illusion dream and error) । कर्म का नियम व्यावहारिक जीव पर ही लागु होता है। कर्म का नियम क्या है ? यदि इस पर गहराई से विचार करें -तो पता चलेगा कि यह सिर्फ और सिर्फ Causality है -कार्य-कारण सम्बन्ध है। समस्त तर्क-संगत विचारों का -विवेक-प्रयोग साधना का भी यही आधार है। जब तुम पूछते हो -Why ? मुझे निषिद्ध कर्म क्यों नहीं करने चाहिए ? तब तुम वास्तव में इसी Causality को जानना चाहते हो। 
इस अंतिम श्लोक में लेखक कहते हैं - जब प्रातिभासिक जीव (Illusory self-ऐंद्रजालिक या मायावी जीव) जाग्रत या व्यावहारिक जीव में वापस जाकर मिल जाता है। तब हम कहते हैं -मैं स्वप्न से जाग गया ! और खड़े होकर कहते हैं -अभीतक मैं इसी बिस्तर पर सोया हुआ था और डरावना या लुभावना स्वप्न देख रहा था, वह तो टूट गया। ठीक उसी प्रकार जब मुझे आत्मज्ञान प्राप्त हो जायेगा; तो मेरा यह व्यष्टि अहं जिसे मैं अमुक नाम वाला M/F समझाता था , वह वापस जाकर सच्चिदानन्द में मिल जायेगा। इस प्रकार वेदांत-परिचय ग्रन्थ का अंत होता है। यहाँ अद्वैत वेदांत समाप्त नहीं होता है, वास्तव में यहीं से प्रारम्भ होता है। आगे हमलोग आचार्य शकंर की पुस्तक " अपरोक्षानुभूति " का अध्यन करेंगे -जिसका अंग्रेजी में ट्रांसलेट करें तो - Direct Realization of the Absolute' कहना होगा अर्थात निरपेक्ष का प्रत्यक्ष बोध!              
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