(ii) अनुभव वाक्य (Experience Sentence): 'अहं ब्रह्मास्मि ' -- मै ब्रह्म हूँ। (I am Brahman) दूसरा महावाक्य यजुर्वेद के वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। दूसरे महावाक्य की खासियत यह है कि इसमें हमें अपने अनुभव से यह जान लेने की प्रेरणा दी जा रही है, कि इस जगत में उपस्थित सभी मनुष्य ब्रह्म ही हैं। इस महावाक्य के मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है।
(iv) अनुसंधान वाक्य (self-research sentence) : "अयं आत्मा ब्रह्म" - अर्थात 'यह आत्मा स्वयं ब्रह्म है।' यह महावाक्य ही आत्मा और ब्रह्म के अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। और हमें अपने यथार्थ स्वरूप का (larger reality,बृहद या शाश्वत सत्य, या ब्रह्म) का अनुसन्धान करने के लिये अनुप्रेरित करता है। इसलिए इसे 'अनुसंधान वाक्य' या आत्मानुसाधन -वाक्य 'भी कहा जाता है। इस में ऋषि कहते हैं कि - " सूक्ष्म 'अहंकार' से लेकर स्थूल 'शरीर' तक को जीवित रखने वाली एक मात्र अप्रत्यक्ष शक्ति 'ब्रह्म' ही है। उसी स्व-प्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। [It prompts us to explore Brahman (big reality, large or eternal truth), hence it is also called 'research sentence'. अर्थात यह महावाक्य ही हमें व्यष्टि आत्मा (तुच्छ अहं-बोध) को समष्टि आत्मा (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध) में रूपान्तरण करने करने के लिए अनुप्रेरित करता है। अथवा कच्चा 'मैं' -बोध को पक्का 'मैं' -बोध या बृहद अथवा परिवर्तनशील सत्य (मिथ्या) और 'larger reality 'निरपेक्ष सत्य' में अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है! वह 'परब्रह्म' (परमात्मा, ईश्वर या भगवान ) ही 'आत्मा' के रूप में सभी जीवों में विद्यमान है। नीतिज्ञानरहित (unscrupulous) या मूढ़ व्यक्ति आत्मा और परमात्मा, जो प्रत्येक शरीर में स्थित हैं, के बीच अंतर नहीं करते। आत्मा जीव है और परमात्मा भगवान है। [ब्रह्म अर्थात सच्चिदानन्द (Infinite-Existence-Consciousness-Bliss) और जीव जगत और ईश्वर सच्चिदानन्द की शक्ति ही है।]
वेदों के चार महावाक्य
मैं कौन हूँ ? (अपने 'स्व' सत्यस्वरुप की खोज के चार महावाक्य) : वेदों में ऐसे तो कई महावाक्य हैं, किन्तु 'स्व' से पहचान के ' चार वाक्य' कहे गए हैं। प्रत्येक वेद से एक-एक महावाक्य (सिद्धान्त) को लेकर 4 महावाक्य कहे गए हैं।
(i) लक्षणा वाक्य (Defining Sentence): 'प्रज्ञानं ब्रह्म' -(consciousness is Brahman) प्रज्ञा रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है ! पहला महावाक्य ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद से उद्धृत किया गया है। इस महावाक्य में ब्रह्म को चैतन्य (शाश्वत स्पंदन) के जैसा साक्षात् अनुभव करने वाले ऋषि, उस अनन्त ब्रह्म को परिभाषित करने की चेष्टा करते हुए कहते हैं कि- ब्रह्म प्रज्ञा [अनुभूत-ज्ञान Consciousness] है।
(ii) अनुभव वाक्य (Experience Sentence): 'अहं ब्रह्मास्मि ' -- मै ब्रह्म हूँ। (I am Brahman) दूसरा महावाक्य यजुर्वेद के वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। दूसरे महावाक्य की खासियत यह है कि इसमें हमें अपने अनुभव से यह जान लेने की प्रेरणा दी जा रही है, कि इस जगत में उपस्थित सभी मनुष्य ब्रह्म ही हैं। इस महावाक्य के मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है।
(iii) उपदेश वाक्य (sermon sentence) : 'तत्वमसि' - तत त्वम असि - वह पूर्ण ब्रह्म तू है... (You are That ) तीसरा महावाक्य - सामवेद के छांदोग्य उपनिषद से लिया गया है। इसे या भी कहा जाता है। इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , तुम भी ब्रह्म हो , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है। उपदेश वाक्य इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही, परस्पर व्यवहार में दूसरों के प्रति आदर और श्रद्धा की भावना को भी पैदा करते हैं।
(iv) अनुसंधान वाक्य : "अयं आत्मा ब्रह्म" - अर्थात 'यह आत्मा (अव्यक्त) ब्रह्म है।' यह महावाक्य ही आत्मा और ब्रह्म के अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है।
इसलिए व्यावहारिक जगत में सावधानी बरतने के प्रति सचेत करते हुए, भगवान श्रीरामकृष्ण अपने भक्तों को दो कहानी कहते थे पहला -" अगर हाथी नारायण है , तो महावत भी नारायण है।" दूसरा " काटना मत लेकिन फुँफकारना जरूर !" अतएव इसी अनुसंधान वाक्य की व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मन:संयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान – पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया – कलाप तो उसके गौण ब्यौरे मात्र है।" (वि.सा.-१ : राजयोग : पातंजल योगसूत्र : साधनपाद) दरअसल , यह अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और परम सत्य के बड़े स्वरूप की जानकारी देता है , इसलिए इसे ' अनुसंधान वाक्य ' भी कहा जाता है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है!' और शंकराचार्य जी कहते हैं - दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद् ब्रह्ममयं जगत्। क्योंकि आत्मानुसंधान करते समय प्रत्येक मनुष्य में ब्रह्मत्व, दिव्यता या मनुष्यत्व (विवेक-दृष्टि या ज्ञानमयी दृष्टि) की अभिव्यक्ति में तारतम्य रहता है। इसी बात उल्लेख करते हुए हनुमान जी कहते हैं -
देहबुद्ध्या तु दासोऽस्मि जीवबुद्ध्या त्वदंशकः।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः ।।
(वाल्मीकिरामायणम् )
हनुमानजी बोले, 'हे प्रभो ! देहबुद्धि अर्थात देह की दृष्टि से या देह के साथ तादात्म्य होते ही मैं आपका दास हूँ ! जीवबुद्धि (जीवात्मा बुद्धि) से मैं आपका (परमात्मा का या ईश्वर का) एक अंश हूँ। आत्मा के दृष्टिकोण से (या उस अवस्था में) मैं भी आप ही हूँ -अर्थात सच्चिदानन्द-स्वरुप ही हूँ। यही मेरी निश्चित मति है।
अहं देहबुद्ध्या तवैवास्मि दासो ह्यहं
जीवबुद्ध्याऽस्मि तेंऽशैकदेशः ।
त्वमेवास्म्यहं त्वात्मबुद्ध्या तथापि
प्रसीदान्वहं देहबुद्ध्या नमस्ते ॥
(श्रीगुरुभुजङ्गस्तोत्रम्-१०६॥)
देहबुद्धि अर्थात देह के साथ तादात्म्य हो जाने पर (M/F शरीर में देहध्यास की अवस्थामें) - मैं आपका दास हूँ। जीव बुद्धि से मैं आपका एक अंश हूँ ; आत्मा के दृष्टिकोण से मैं आपसे थोड़ा भी भिन्न नहीं हूँ, अर्थात सच्चिदानन्द-स्वरुप ही हूँ। फिर भी, देहबुद्धि से मैं, सच्चिदानन्द-स्वरुप आपको नमस्कार करता हूँ।
दासस्तेऽहं देहदृष्ट्याऽस्मि शंभो
जातस्तेंऽशो जीवदृष्ट्या त्रिदृष्टे।
सर्वस्याऽऽत्मन्नात्मदृष्ट्या त्वमेवे- त्येवं
मे धीर्निश्चिता सर्वशास्त्रैः॥
(श्रीशंकराचार्य कृत मनीषापञ्चकम्)
हे शम्भो ! देहदृष्टि से (देह के विचार से) मैं आपका दास हूँ; और हे (त्रिदृष्टे) त्रिलोचन ! जीव-दृष्टि से मैं आपका अंश हूँ। शुद्ध आत्मदृष्टि से विचार करने पर तो सबकी आत्मा आप ही हैं। (सबकी आत्मा आप =ब्रह्म, परमात्मा, शिव ही हैं।) उस अवस्था में मैं आपसे किसी प्रकार भिन्न नहीं हूँ। सब शास्त्रों के द्वारा निश्चित की गयी यही मेरी बुद्धि है।
विलक्षणं यदा देहाज्जानात्यात्मानमात्मना ।
तदा कः कस्य वा बन्धुर्भाता माता पिता सुहृत् ॥ २३ ॥
(अध्यात्मरामायण युद्धकाण्ड द्वादश सर्ग)
माता, पिता, भ्राता, सुहृद और स्नेही-स्वजन तो देह-बुद्धि से (स्वयं को देह समझने से) ही होते हैं। जिस समय अपने विशुद्ध अन्तःकरण द्वारा 'मनुष्य' आत्मा को देह से पृथक् जान लेता है उस अवस्था में कौन किसका माता, पिता, भाई, बन्धु अथवा सुहृद् है ? ॥ २३ ॥
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आदमी की तरक़्क़ी
(मनुष्य का क्रमविकास:evolution of man)
बेजान खनिजों से मर गया, पौधा बन गया
फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया
हैवानों से मर गया और आदमी हो गया
डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?
अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ
ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ
और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना
कि सिवा उस के हर शै को फ़ना हो जाना
एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा
फिर जो सोच में नहीं आता, वो हो जाऊँगा
[Education is the manifestation of the perfection already in man. Religion is the manifestation of the Divinity already in man. Therefore the only duty of the teacher in both cases is to remove all obstructions from the way. Hands off! as I always say, and everything will be right. That is, our duty is to clear the way. The Lord does the rest. (Letter Written to “Kidi” on March 3, 1894)
[मनोलय के बिना अद्वैत ज्ञान संभव नहीं। मन का प्राण में लय होना और -'सर्वं खलु इदं ब्रह्म' के बोध में जीवन का सहज स्थिर होना ही मुक्ति है। (लेकिन जब तक शरीर है, यह शक्ति का राज्य है , यहाँ निरंतर शक्ति की प्रार्थना और शरण में ही रहना है।]
19 वीं सदी के अन्त में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - "मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये! शेष सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान , तेजस्वी, अंतर्निहित दिव्यता में दृढ-विश्वासी, निष्कपट- नवयुवकों की ! ऐसे सौ मिल जायें तो संसार का कायाकल्प हो जाय। " (मेरी क्रन्तिकारी योजना : ५/११८)
" Men, men, these are wanted: everything else will be ready, but strong, vigorous, believing young men, sincere to the backbone, are wanted. A hundred such and the world becomes revolutionized." vol/3/223 ]
स्वामी विवेकानन्द 125 साल पहले जिस प्रकार के 100 'देहाध्यास रहित ब्रह्मविद मनुष्य' मनुष्यों के निर्माण की आवश्यकता का उल्लेख करते थे, वैसे क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न ' मानहूँश-मनुष्यों ' की आवश्यकता आज भी है बनी हुई है। इसीलिए महामण्डल विगत 58 वर्षों से स्वामी विवेकानन्द की 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा" (महामण्डल के 3H विकास के 5 अभ्यास वाली-'Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग) के द्वारा इसी "मनुष्य-निर्माण आन्दोलन" का प्रचार-प्रसार करता चला आ रहा है। ऐसे 'नेता' (विष्णु सहस्रनाम-मार्गदर्शक, पैगम्बर या जीवनमुक्त शिक्षक नवनी दा) कहते थे जो व्यक्ति इस " मानहूँश~मनुष्यों का निर्माण सूत्र है ~ Be and Make ! " अर्थात 'मानहूँश -मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन' से जुड़ा रहेगा वह स्वतः मुक्त हो जायेगा, उसे अलग से अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी। इसके लिए पहले 3H विकास के 5 अभ्यास वाली-'Be and Make लीडरशिप-प्रशिक्षण' देने में समर्थ 'नेताओं' - (जीवनमुक्त -शिक्षकों) के जीवन का निर्माण करना होगा। तब कहीं काम होगा। ... Arise, awake, and stop not till the goal is reached! यही 'सर्वतोकृष्ट' समाज सेवा है, और यही महामण्डल का उद्देश्य तथा कार्यक्रम भी है।
["इस प्रपंचमय जगत में मनुष्य-योनि उच्चतम है। वेदान्ती कहता है मानव देवता से भी ऊँचा है। समस्त देवताओं को एक न एक दिन मरना ही होगा और पुनः मनुष्य शरीर में जन्म लेना होगा - केवल मनुष्य शरीर में ही वे पूर्णत्व लाभ कर सकेंगे। (वेदान्त दर्शन-2, पेज -73, खण्ड -9) " Man-manifestation is the highest in the phenomenal world. The Vedantist says he is higher than the Devas. The gods will all have to die and will become men again, and in the man-body alone they will become perfect." (On The Vedanta Philosophy/ Volume -5, page - 284) )]
जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता
तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता विद्वत्त्वमस्मात्परम्।
आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति-
र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते।। 2 ।।
जीवों को प्रथम तो नरजन्म ही दुर्लभ है, उससे भी पुरुषत्व और उससे भी ब्राह्मणत्वका मिलना कठिन है; ब्राह्मण होने से भी वैदिक धर्मका अनुगामी होना और उससे भी विद्वत्ताका होना कठिन है। (यह सब कुछ होने पर भी) आत्मा और अनात्माका विवेक सम्यक् अनुभव –ब्रह्मात्मभाव से स्थिति और मुक्ति-ये तो करोड़ों जन्मों में किये हुए शुभ कर्मों के परिपाकके बिना प्राप्त हो ही नहीं सकते।
मायायै सिद्धयोगिन्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः।
सारायै सारदायै च परादेव्यै नमो नमः॥६१॥
बालाधिष्ठातृदेव्यै च षष्ठीदेव्यै नमो नमः।
कल्याणदायै कल्याण्यै फलदायै च कर्मणाम्॥६२॥
परमेश शक्ति माया, सिद्धयोगिनी षष्ठी देवी, सारा (सार तत्त्व), सारदा (सार देने वाली), परादेवी, बालकों की अधिष्ठात्री, कल्याणी, कल्याण देने वाली, कर्मों का फल देने वाली माँ सारदा देवी को बारम्बार नमस्कार है। (श्रीमद् देवी भागवत पुराण, स्कन्ध ९, अध्याय ३८)
यदि कोई व्यक्ति "स्वामी विवेकानन्द की चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा- Be and Make " का प्रशिक्षण ( अर्थात विवेक-दृष्टि सम्पन्न मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा) प्राप्त करके धीरे -धीरे सम्पूर्ण जगत को ब्रह्ममय देखने में सक्षम बन सके तो वह देवता से भी आगे निकल सकता है। (दादा ने कहा था - " तुम देखना एक दिन 'Be and Make ' ही वैश्विक धर्म बनेगा और जो व्यक्ति इस "विवेकी-मनुष्य बनने और बनाने वाले आन्दोलन' के प्रचार-प्रसार में आजीवन लगा रह सकेगा वह बिना कोई अन्य साधना किये ही मुक्त हो जायेगा।)
[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " मेरा मतलब उस भावुकतापूर्ण कथन से नहीं है कि - 'सभी मनुष्य भाई भाई हैं' बल्कि मनुष्य जीवन की एकत्वानुभूति की आवश्यकता से है। " (आत्मा,ईश्वर और धर्म /खंड २/२३५) [Love and charity for the whole human race, that is the test of true religiousness. I do not mean the sentimental statement that all men are brothers, but that one must feel the oneness of human life.]
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