(घ)
परिच्छेद १
भक्तों के संग में श्रीरामकृष्ण
एक पत्र
(श्री अश्विनी दत्त द्वारा श्री “म' को लिखित)
प्रिय प्राणों के भाई श्री 'म', तुम्हारा भेजा हुआ श्रीरामकृष्ण वचनामृत, चतुर्थ खण्ड, शरद-पूर्णिमा के दिन मिला। आज द्वितीया को मैने उसे पढ़कर समाप्त किया। तुम धन्य हो, इतना अमृत तुमने देश भर में सींचा! ... खैर, बहुत दिन हुए, तुमने यह जानना चाहा था कि श्रीरामकृष्ण के साथ मेरी क्या बातचीत हुई थी। इसलिए तुम्हें उस सम्बन्ध में कुछ लिखने की चेष्टा कर रहा हूँ। मुझे कुछ श्री 'म' की तरह भाग्य तो मिला नहीं कि उन श्रीचरणों के दर्शन का दिन, तारीख, मुहूर्त, और उनके श्रीमुख से निकली हुई सब बातें बिलकुल ठीक ठीक लिख रखता; जहाँ तक मुझे याद है, लिख रहा हूँ; सम्भव है एक दिन की बात को दूसरे दिन की कहकर लिख डालूँ। और बहुतसी बातें तो भूल ही गया हूँ।
शायद सन् १८८१ की पूजा की छुट्टियों के समय पहले-पहल मुझे उनके दर्शन हुए थे। उस दिन केशवबाबू के आने की बात थी। नाव से दक्षिणेश्वर पहुँच, घाट से चढ़कर मैंने एक आदमी से पूछा - “परमहंस कहाँ हैं ?” उस मनुष्य ने उत्तर की ओर के बरामदे में तकिये के सहारे बैठे हुए एक व्यक्ति की ओर इशारा करके बतलाया - “ये ही परमहंस हैं।” परन्तु मैंने देखा, दोनों पैर ऊपर उठाये और उन्हें अपने हाथों से घेरकर बाँधे हुए अध-चित होकर वे तकिये का सहारा लिए बेठे हैं। मेरे मन में आया, इन्हें कभी बाबुओं की तरह तकिये के सहारे बैठने या लेटने की आदत नहीं है; सम्भव है, ये ही परमहंस हों। तकिये के बिलकुल पास ही उनके दाहिनी ओर एक बाबू बैठे थे। मैंने सुना, वे राजेन्द्र मित्र हैं। बंगाल सरकार के सहायक सेक्रेटरी रह चुके हैं। उनके दाहिनी ओर कुछ और सज्जन बैठे हुए थे। परमहंसदेव ने कुछ देर बाद राजेन्द्रबाबू से कहा - जरा देखो तो सही, केशव आयां है या नहीं।' एक ने जरा बढ़कर देखा, लौटकर उसने कहा - “नहीं आये।” थोड़ी देर मे कुछ शब्द हुआ तब उन्होने फिर कहा - 'देखो, जरा फिर तो देखो। इस बार भी एक ने देखकर कहा - "नही आये।” साथ हां परमहंसदेव ने हँसते हुए कहा - “पत्तो के झड़ने का शब्द हो रहा था, राधा सोचती थी - मेरे प्राणनाथ तो नही आ रहे है! क्यों जी, क्या केशव की सदा की यही रीति है? आते ही आते रुक जाता है।'” कुछ देर बाद, सन्ध्या हो ही रही थी कि दलबलसमेत केशव आ गये।
आते ही जब केशव ने भूमिष्ठ होकर उन्हे प्रणाम किया, तब उन्होंने भी ठीक वैसे ही भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया और कुछ देर बाद सिर उठाया। उस समय वे समाधिमग्न थे - कह रहे थे -
“कलककत्ते भर के आदमी इकट्टे कर लाये है। इसलिए कि मै व्याख्यान दूँगा! व्याख्यान-आख्यान मे कुछ न दे सकूँगा। देना हो तो तुम दो। यह सब मुझसे न होगा।”'
उसी अवस्था मे दिव्य भाव से जरा मुस्कराकर कह रहे है -
“में बस भोजन-पान करूँगा और पड़ा रहूँगा। मे भोजन करूँगा और सोऊँगा -बस। यह सब में न कर सकूँगा। करना हो तो तुम करो। मुझसे यह सब न होगा।”
केशवबाबू देख रहे हैं और श्रीरामकृष्ण भाव से भरपूर हो रहे हैं। एक-एक बार भावावेश मे 'अ: अ:” कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण की उस अवस्था को देखकर मैं सोच रहा था - यह ढोंग तो नहीं है ? ऐसा तो मैने और कभी देखा ही नही।” और मै जैसा विश्वासी हूँ, यह तो तुम जानते ही हो!
समाधि-भंग के पश्चात् केशवबाबू से उन्होने कहा - “केशव, एक दिन मै तुम्हारे यहाँ गया था, मैने सुना, तुम कह रहे हो, 'भक्ति की यदी मे गोता लगाकर हम लोग सच्चिदानन्द-सागर मे जाकर गिरेगे।” तब मैने ऊपर देखा, (जहाँ केशवबाबू और ब्राह्मसमाज की स्त्रियां बैठी थी) और सोचा, तो फिर इनकी क्या दशा होगी ? तुम लोग गृहस्थ हो, एकदम किस तरह सच्चिदानन्द-सागर मे जाकर गिरोगे ? तुम लोग तो उस नेवले की तरह हो जिसकी दुम में कंकड़ बाँध दिया गया हो; कुछ हुआ नही कि झट वह ताक पर जा बैठता है; परन्तु वहाँ रहे किस तरह ? कंकड़ नोचे की ओर खीचता है और उसे कूदकर नीचे आना पड़ता है। तुम लोग इसी तरह कुछ काल के लिए जप-ध्यान कर सकते हो, परन्तु दारा और सुतरूपी कंकड़ जो पीछे लटका हुआ नीचे की ओर खीच रहा है, वह नीचे उतारकर ही छोड़ता है। तुम लोगो को तो चाहिए भक्ति की नदी में एक बार डबकी लगाकर निकलो, फिर डुबकी लगाओ और फिर निकलो। इसी तरह करते रहो।एकदम तुम लोग कैसे डूब सकते हो ?'
केशवबाबू ने कहा - “क्या गृहस्थों के लिए यह बात असम्भव है? महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर?”
परमहंसदेव ने दो-तीन बार 'देवेन्द्रनाथ ठाकुर, देवेन्द्र, देवेन्द्र! ' कहकर उन्हें लक्ष्य करके कई बार प्रणाम किया, फिर कहा -
“सुनो, एक के यहाँ देवी-पूजा के समय उत्सव मनाया जाता था, सूर्योदय के समय भी बलि चढ़ती थी और अस्त के समय भी। कई साल बाद फिर वह धूम न रह गयी। एक दूसरे ने पूछा - 'क्यों महाशय, आजकल आपके यहाँ वैसी बलि क्यों नही चढ़ायी जाती?” उसने कहा, 'अजी, अब तो दाँत ही गिर गये!” देवेन्द्र भी अब ध्यान-धारणा करता है - करेगा ही! परन्तु बड़ी शान का आदमी है - खूब मनुष्यता है उसमें।
“देखो, जितने दिन माया रहती है, उतने दिन आदमी कच्चे नारियल की तरह रहता है। नारियल जब तक कच्चा रहता है, तब तक यदि उसका गूदा निकालना चाहो तो गूदे के साथ खोपड़े का कुछ अंश छिलकर जरूर निकल आयगा। और जब माया निकल जाती है तब वह सूख जाता है, - नारियल का गोला खोपड़े से छूट जाता है, तब वह भीतर खड़खड़ाता रहता है, आत्मा अलग और शरीर अलग हो जाता है, फिर शरीर के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता।
“यह जो 'मैं' है, यह बड़ी बड़ी कठिनाईयाँ लाकर खड़ी कर देता है। क्या यह “में दूर होगा ही नहीं? देखा कि उस टूटे हुए मकान पर पीपल का पेड़ पनप रहा है, उसे काट दो, फिर दूसरे दिन देखो, उसमें कोंपल निकल रही है, - यह “मैं” भी इसी तरह का है। प्याज का कटोरा सात बार धोओ, परन्तु उसकी बू जाती ही नहीं!”
न जाने क्या कहते हुए उन्होंने केशवबाबू से कहा - “क्यों केशव, तुम्हारे कलकत्ते में, सुना, बाबू लोग कहते हैं, 'ईश्वर नहीं है।” क्या यह सच है ? बाबूसाहब जीने पर चढ़ रहे हैं, एक सीढ़ी पर पैर रखा नहीं कि 'इधर क्या हुआ' कहकर गिरे अचेत, फिर पड़ी डाक्टर की पुकार, जब तक डाक्टर आवे-आवे तब तक बन्दे कूच कर गये! और ये ही लोग कहते हैं कि ईश्वर नहीं हैं!”
घण्टे-डेढ़-घण्टे बाद कीर्तन शुरू हुआ। उस समय मैंने जो कुछ देखा, वह शायद जन्म-जन्मान्तर में भी न भूलूँगा। सब के सब नाचने लगे। केशव को भी मैंने नाचते हुए देखा, बीच में थे श्रीरमकृष्ण, और बाकी सब लोग उन्हें घेरकर नाच रहे थे। नाचते ही नाचते बिलकुल स्थिर हो गये - समाधिमग्न। बड़ी देर तक उनकी यह अवस्था रही। इस तरह देखते और सुनते हुए मैं समझा, ये यथार्थ ही परमहंस हैं।
एक दिन और, शायद १८८३ ई. में, श्रीरामपुर के कुछ युवकों को मैं साथ लेकर गया था। उस दिन उन युवकों को देखकर परमहंसदेव ने कहा था, “ये लोग क्यों आये हैं?”
मैंने कहा, आपको देखने के लिए।'
श्रीरामकृष्ण - मुझे ये क्या देखेंगे ? ये सब लोग बिल्डिंग (इमारत) क्यों नहीं देखते जाकर ?
मैं - ये लोग यह सब देखने नहीं आये। ये आपको देखने के लिए आये है।
श्रीरामकृष्ण - तो शायद ये चकमक पत्थर हैं। आग भीतर है। हजार साल तक चाहे उसे पानी में डाल रखो, परन्तु घिसने के साथ ही उससे आग निकलेगी। ये लोग शायद उसी जाति के कोई जीव हैं ? हम लोगों को घिसने पर आग कहाँ निकलती है?
यह अन्त की बात सुनकर हम लोग हँसे। उसके बाद और भी कौन-कौनसी बाते हुई, मुझे याद नहीं। परन्तु जहाँ तक स्मरण है, शायद 'कामिनीकांचन-त्याग' और 'मैं की बू नहीं जाती” इन पर भी बातचीत हुई थी।
मैं एक दिन और गया, प्रणाम करके बैठा कि उन्होंने कहा - “वही जिसकी डाट खोलने पर जोर से 'फस्-फस' करने लगता है, कुछ खट्टा कुछ मीठा होता है - एक वही ले आओगे ?” मैंने पूछा - 'लेमोनेड ?' श्रीरामकृष्ण ने कहा - “ले आओ न।” जहाँ तक मुझे याद है शायद मैं एक लेमोनेड ले आया। इस दिन शायद और कोई न था। मैंने कई प्रश्न किये थे - “आपमें क्या जाति-भेद हैं?”
श्रीरामकृष्ण - कहाँ है अब? केशव सेन के यहाँ की तरकारी खायी। अच्छा, एक दिन की बात कहता हूँ। एक आदमी बर्फ ले आया, उसकी दाढ़ी खूब लम्बी थी, पहले तो खाने की इच्छा न जाने क्यों नहीं हुई, फिर कुछ देर बाद एक दूसरा आदमी उसी के पास से बर्फ ले आया तो में दाँतो से चबाकर सब बर्फ खा गया। यह समझो कि जाति-भेद आप ही छूट जाता है। जैसे, नारियल और ताड़ के पेड़ जब बड़े होते हैं तब उनके बड़े बड़ डण्ठलदार पत्ते पेड़ से आप ही ट्टकर गिर जाते हैं। इसी तरह जाति-भेद आप ही छूट जाता है। झटका मारकर न छुड़ाना, उन सालों की तरह!
मैने पूछा - केशवबाबू कैसे आदमी हैं?
श्रीरामकृष्ण - अजी, वह दैवी आदमी है।
मैं - ओर त्रैलोक्यबाबू ?
श्रीरामकृष्ण - अच्छा आदमी है, बहुत सुन्दर गाता है।
मैं - और शिवनाथबाबू ?
श्रीरामकृष्ण - आदमी अच्छा है, परन्तु तर्क जो करता है -?
मैं - हिन्दू और ब्राह्म में अन्तर क्या हैं ?
श्रीरामकृष्ण - अन्तर और क्या है ? यहाँ शहनाई बजती है। एक आदमी स्वर साधे रहता है, और दूसरा तरह तरह की रागिनियों की करामत दिखाता है। ब्राह्मसमाजवाले ब्रह्म का स्वर साधे हुए हैं और हिन्दू उसी स्वर के अन्दर तरह तरह की रागिनियों की करामत दिखाते हें। ।
“पानी और बर्फ। निराकार और साकार। जो चीज पानी है, वही जमकर बर्फ बनती है। भक्ति की शीतलता से पानी बर्फ बन जाता है!
“वस्तु एक ही है, अनेक मनुष्य उसे अनेक नाम देते हैं। जैसे तालाब के चारों ओर चार घाट हों। इस घाट में जो लोग पानी भर रहे हैं, उनसे पूछो तो कहेंगे, जल है। उधर के घाट में जो लोग हैं वे पानी कहेंगे। तीसरे घाटवाले कहेंगे, वाटर और चौथे घाट के लोग कहेंगे, एकुआ। परन्तु पानी एक ही है।”
मेरे यह कहने पर कि बरीशाल में अचलानन्द अवधूत के साथ मेरी मुलाकात हुई थी, उन्होंने कहा - “वही कोतरंग का रामकुमार न?” मैंने कहा, 'जी हाँ।'
श्रीरामकृष्ण - उसे तुम क्या समझे ?
मैं - जी, वे बहुत अच्छे हैं।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, वह अच्छा हे या मैं?
मैं - आपकी तुलना उनके साथ? वे पण्डित हैं, विद्वान् हैं, आप पण्डित और ज्ञानी थोड़े ही हैं ?
उत्तर सुनकर कुछ आश्चर्य में आकर वे चुप हो गये। एक मिनट बाद मैंने कहा - “हाँ, वे पण्डित हो सकते हैं, परन्तु आप बड़े मजेदार आदमी हैं। आपके पास मौज खूब है।''
अब हँसकर उन्होंने कहा - “खूब कहा, अच्छा कहा।”
मुझसे उन्होंने पूछा - “क्या मेरी पंचवटी तुमने देखी है?
मैंने कहा, “जी हाँ।” वहाँ वे क्या करते थे, यह भी कहा - अनेक तरह की साधनाओं की बातें। मैंने पूछा - “उन्हें किस तरह हम पायें ?”
श्रीरामकृष्ण - अजी, चुम्बक जिस तरह लोहे को खींचता है, उसी तरह वे हम लोगों को खींच ही रहे हैं। लोहे में कीच लगा रहने से चुम्बक से वह चिपक नहीं सकता। रोते रोते जब कीच धुल जाता है, तब लोहा आप ही चुम्बक के साथ जुड़ जाता है।
मैं श्रीरामकृष्ण की उक्तियों को सुनकर लिख रहा था, उन्होंने कहा - “हाँ देखो, भंग-भंग रट लगाने से कुछ न होगा। भंग ले आओ, उसे घोंटो और पीओ।” इसके बाद उन्होंने मुझसे कहा - “तुम्हें तो संसार में रहना है, अतएव ऐसा करो कि नशे का गुलाबी रंग रहा करे। काम-काज भी करते रहो और इधर जरा सुखी भी रहो। तुम लोग शुकदेव की तरह तो कुछ हो नहीं सकोगे कि नशा पीते ही पीते अन्त में अपने तन की खबर भी न रहे - जहाँ-तहाँ बेहोश पड़े रहो।
“संसार में रहोगे तो एक आम-मुखतारनामा लिख दो। उनकी जो इच्छा, करें। तुम बस बड़े आदमियों के घर की नौकरानी की तरह रहो। बाबू के लड़के-बच्चों का वह आदर तो खूब करती है, नहलाती-धुलाती है, खिलाती-पिलाती है, मानो वह उसी का लड़का हो; परन्तु मन ही मन खूब समझती है कि यह मेरा नहीं है। वहाँ से उसकी नौकरी छूटी नहीं कि बस फिर कोई सम्बन्ध नहीं।
“जैसे कटहल काटते समय हाथ में तेल लगा लिया जाता है, उसी तरह (भक्तिरूपी) तेल लगा लेने से संसार में फिर न फँसोगे, लिप्त न होओगे।”
अब तक जमीन पर बैठे हुए बातें हो रही थी। अब उन्होने खाट पर चढ़कर लेटे लेटे मुझसे कहा - “पंखा झलो।” मैं पंखा झलने लगा। वे चुपचाप लेटे रहे। कुछ देर बाद कहा, “अजी, बड़ी गरमी है, पंखा जरा पानी मे भिगा लो।” मैंने कहा, “इधर शौक भी देखता हूँ कम नहीं है!”' हँसकर उन्होंने कहा, “क्यों शौक नहीं रहेगा? - शौक रहेगा क्यों नहीं ?” मैंने कहा - “अच्छा, तो रहे, रहे, खूब रहे।” उस दिन पास बैठकर मुझे जो सुख मिला वह अकथनीय है।
अन्तिम बार - जिस समय की बात तुमने तीसरे खण्ड में लिखी है - मै अपने स्कूल के हेडमास्टर को ले गया था, उनके बी. ए. पास करने के कुछ ही समय बाद। अभी थोड़े ही दिन हुए उनसे तुम्हारी मुलाकात हुई थी।
उन्हें देखते ही श्रीरामकृष्णदेव ने मुझसे कहा - “क्यो जी, तुम इन्हें कहाँ पा गये ? ये तो बड़े सुन्दर व्यक्ति हैं।
“क्यों जी, तुम तो वकील हो। बड़ी तेज बुद्धि है! मुझे कुछ बुद्धि दे सकते हो ? तुम्हारे पिताजी अभी उस दिन यहाँ आये थे, आकर तीन दिन रह भी गये हैं।'
मैंने पूछा - “उन्हें आपने कैसा देखा?”
उन्होंने कहा - “बहुत अच्छा आदमी है, परन्तु बीच बीच में बहुत ऊल-जलूल भी बकता है।”
मैंने कहा - “अब की बार मुलाकात हो तो ऊल-जलूल बकना छुड़ा दीजियेगा।”
वे इस पर जरा मुस्कराये। मैंने कहा - “मुझे कुछ बातें सुनाइये।”
उन्होंने कहा - “हृदय को पहचानते हो?
मैंने कहा - “आपका भाँजा न? मुझसे उनका परिचय नहीं है।
श्रीरामकृष्ण - हृदय कहता था, 'मामा, तुम अपनी बातें सब एक साथ न कह डाला करो। हर बार उन्ही उन्हीं बातों को क्यों कहते हो?” इस पर मैं कहता था, " तो तेरा क्या, बोल मेरा है, में लाख बार अपना एक ही बोल सुनाऊँगा।'
मैंने हँसते हुए कहा, बेशक, आपने ठीक ही तो कहा है।'
कुछ देर बाद बेठे ही बेठे ॐ ॐ कहकर वे गाने लगे - 'ऐ मन, तू रूप के समुद्र में डूब जा।..."
दो-एक पद गाते ही गाते सचमुच वे डूब गये। - समाधि के सागर में निमग्न हो गये।
समाधि छूटी। वे टहलने लगे। जो धोती पहने हुए थे, उसे दोनों हाथों से समेटते-समेटते बिलकुल कमर के ऊपर चढ़ा ले गये। एक तरफ से लटकती हुई धोती जमीन को बुहारती जा रही थी। मैं और मेरे मित्र, दोनों एक दूसरे को टोंच रहे थे और धीरे धीरे कह रहे थे, 'देखो, धोती सुन्दर ढंग से पहनी गयी है।” कुछ देर बाद ही 'हत्तेरे की धोती' कहकर, उसे उन्होंने फेंक दिया। फिर दिगम्बर होकर टहलने लगे। उत्तर तरफ से न जाने किसका छाता और छड़ी हमारे सामने लाकर उन्होंने पूछा, क्या यह छाता और छड़ी तुम्हारी है?” मैंने कहा, 'नहीं।' साथ ही उन्होंने कहा, “मैं पहले ही समझ गया था कि यह छाता और छड़ी तुम्हारी नहीं है। में छाता और छड़ी देखकर ही आदमी को पहचान लेता हूँ। अभी जो एक आदमी आया था, ऊल-जलूल बहुत-कुछ बक गया, ये चीजें निस्सन्देह उसी की हैं।''
कुछ देर बाद उसी हालत में चारपाई पर वायव्य की तरफ मुँह करके बेठे गये। बेठ ही बेठे उन्होंने पूछा, “क्यों जी, क्या तुम मुझे असभ्य समझ रहे हो ?”
मैंने कहा, “नही, आप बड़े सभ्य हैं। इस विषय का प्रश्न आप करते ही क्यों हैं ? ''
श्रीरामकृष्ण - अजी, शिवनाथ आदि मुझे असभ्य समझते हैं। उनके आने पर धोती किसी न किसी तरह लपेटकर बैठना ही पड़ता है। क्या गिरीश घोष से तुम्हारी पहचान है ?
मैं - कौन गिरीश घोष? वही जो थियेटर करता है?
श्रीरामकृष्ण - हाँ।
मैं - कभी देखा तो नहीं, पर नाम सुना है।
श्रीरमकृष्ण - वह अच्छा आदमी है।
में - सुना है, वह शराब भी पीता है!
श्रीरामकृष्ण - पिये, पिये न, कितने दिन पियेगा ?
फिर उन्होंने कहा, 'क्या तुम नरेन्द्र को पहचानते हो ?'
मैं - जी नहीं।
श्रीरामकृष्ण - मेरी बड़ी इच्छा है कि उसके साथ तुम्हारी जान-पहचान हो जाय। वह बी. ए. पास कर चुका है, विवाह नहीं किया।
मैं - जी, तो उनसे परिचय अवश्य करूँगा।
श्रीरामकृष्ण - आज राम दत्त के यहाँ कीर्तन होगा। वहाँ मुलाकात हो जायगी। शाम को वहाँ जाना।
मैं - जी हाँ, जाऊँगा।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, जाना, जरूर जाना।
मैं - आपका आदेश मिला और मैं न जाऊँ - अवश्य जाऊँगा।
फिर वे कमरे की तस्वीरे दिखाते रहे। पूछा - ' क्या बुद्धदेव की तस्वीर बाजार मे मिलती है?
मैं - सुना हैं कि मिलती है।
श्रीरमकृष्ण - एक तस्वीर मेरे लिए ले आना।
मैं - जी हाँ, अब की बार जब आऊंगा, साथ लेता आऊँगा।
फिर दक्षिणेश्वर मे उन श्रीचरणों के समीप बैठने का सौभाग्य मुझे कभी नही मिला।
उस दिन शाम को रामबाबू के यहाँ गया। नरेन्द्र को देखा। श्रीरामकृष्ण एक कमरे में तकिये के सहारे बेठे हुए थे, उनके दाहिनी ओर नरेन्द्र थे। मै सामने था। उन्होने नरेन्द्र से मेरे साथ बातचीत करने के लिए कहा।
नरेन्द्र ने कहा, “आज में सिर मे बडा दर्द हो ग्हा है। बोलने की इच्छा ही नही होती।'
मैं - रहने दीजिये, किसी दूसरे दिन बातचीत होगी।
उसके बाद उनसे बातचीत हुई थी, अलमोड़े में, शायद १८९७ की मई या जून के महीने मे।
श्रीरामकृष्ण की इच्छा पूरी तो हाने की ही थी, इसीलिए बारह साल बाद वह इच्छा पूरी हुई। अहा! स्वामी विवेकानन्दजी के साथ अलमोड़े में वे उतने दिन कैसे आनन्द मे कटे थे। कभी उनके यहाँ, कभी मेरे यहाँ, और कभी निर्जन मे पहाड़ की चोटी पर। उसके बाद फिर उनसे मुलाकात नही हुई। श्रींरामकृष्ण की इच्छा-पृर्ति के लिए ही उस बार उनसे मुलाकात हुई थी। श्रीरामकृष्ण के साथ भी सिर्फ चार-पाँच दिन की मुलाकात है, परन्तु उतने ही समय में ऐसा हो गया था कि उन्हें देखकर जी में आता था जैसे हम दोनों एक ही दर्जे के पढे हुए विद्यार्थी हों। उनके पास हो आने पर जब दिमाग ठिकाने आता था, तब जान पड़ता था कि बाप रे! किसके सामने गये थे ! उतने ही दिनो में जो कुछ मैंने देखा है - जो कुछ मुझे मिला है, उसी से जी मधुमय हो रहा है। उस दिव्यामृतवर्षा हास्य को यत्नपूर्वक मैंने ह्रदय में बन्द कर रखा है। अजी, वह आश्रयहीनों का आश्रय है। और उसी हास्य से बिखरे हुए अमृत-कणों के द्वारा अमरीका तक में संजीवनी का संचार हो रहा है और यही सोचकर ' हृष्यामि च मुहुर्मुहुः - , हृष्यामि च पुनः पुन ” - मुझे रह-रहकर आनन्द हो रहा है।
["हृष्यामि च मुहुर्मुहुः, हृष्यामि च पुनः पुनः" -यह वाक्यांश गीता के उपसंहार में आता है। इसका का अर्थ है "मैं बार-बार हर्षित होता हूँ, मैं बार-बार प्रसन्न होता हूँ।" यह वाक्यांश श्रीमद्भगवद्गीता के १८वें अध्याय के ७६वें श्लोक में आता है, जहाँ संजय धृतराष्ट्र को गीता के ज्ञान के प्रभाव और कृष्ण-अर्जुन संवाद के महत्व के बारे में बता रहे हैं। धृतराष्ट्र से कहते हैं कि "हे राजन! भगवान कृष्ण और अर्जुन के इस अद्भुत और कल्याणकारी संवाद को बार-बार याद करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।"
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राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।18.76।।
।।18.76।। हे राजन् धृतराष्ट्र , केशव और अर्जुन के इस ( परम ) पवित्र -- सुनने मात्र से पापों का नाश करनेवाले अद्भुत संवाद, को सुनकर और बारम्बार स्मरण करके मैं प्रतिक्षण बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ।
श्री शंकराचार्य द्वारा संस्कृत भाष्य : हे राजन् धृतराष्ट्र ! संस्मृत्य संस्मृत्य प्रतिक्षणं संवादम् इमम् अद्भुतं केशवार्जुनयोः पुण्यम् इमं श्रवणेनापि पापहरं श्रुत्वा हृष्यामि च मुहुर्मुहुः प्रतिक्षणम्।।
श्री मधुसूदन सरस्वती द्वारा लिखित संस्कृत टीका - राजन्निति।। पुण्यं श्रवणेनापि सर्वपापहरं केशवार्जुन्योरिमं संवादमद्भुतं न केवलं श्रुतवानस्मि साहित्य संस्मृति संस्मृति। संभ्रमे द्वेषुक्ति:। मुहुर्मुहुर्वारं हृष्यामि च हर्षं प्राप्नोमि च। प्रतिक्षणं रोमाञ्चितो भवामिति वा।
हिन्दी टीका स्वामी रामसुखदास द्वारा -
व्याख्या -- राजन्संस्मृत्य , मुहुर्मुहुः -- सञ्जय धृतराष्ट्र से कहते हैं; कि हे महाराज ! भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन का यह बहुत अलौकिक विलक्षण संवाद हुआ है। इसमें कितना रहस्य भरा हुआ है कि घोर-से-घोर युद्धरूप क्रिया करते हुए भी ऊँची-से-ऊँची पारमार्थिक सिद्धि हो सकती है। मनुष्य-मात्र हरेक परिस्थिति में अपना उद्धार कर सकता है। इस प्रकार के संवाद को याद कर-कर के मैं बड़ा हर्षित हो रहा हूँ, प्रसन्न हो रहा हूँ।
श्रीभगवान् और अर्जुन के इस अद्भुत संवाद की महिमा भी बहुत विलक्षण है। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन सदा साथ में रहने पर भी इन दोनों का ऐसा संवाद कभी नहीं हुआ। युद्ध के समय अर्जुन घबड़ा गये। क्योंकि एक तरफ तो उनको कुटुम्ब का मोह तंग कर रहा था , और दूसरी तरफ वे क्षात्र-धर्म की दृष्टि से युद्ध करना अवश्य कर्तव्य समझते थे। मनुष्य की मति (बुद्धि) जब किसी एक सिद्धान्त पर 'एक मत पर' स्थिति नहीं होती, तब उसकी व्याकुलता बड़ी विचित्र होती है।
अर्जुन भी युद्ध करना श्रेष्ठ है या युद्ध न करना श्रेष्ठ है -- इन दोनों में से एक निश्चित निर्णय नहीं कर सके। इसी व्याकुलता के कारण अर्जुन भगवान की तरफ खिंच गये- उनके सम्मुख हो गये। सम्मुख होने से भगवान की कृपा उनको विशेषता से प्राप्त हुई। अर्जुन की अनन्य भावना उत्कण्ठा के कारण भगवान् योग में स्थित हो गये अर्थात् ऐश्वर्य आदि में स्थित न रहकर केवल अपने प्रेमतत्त्व में सराबोर हो गये और उसी स्थिति में अर्जुनको समझाया। इस प्रकार उत्कट अभिलषा-सम्पन्न अर्जुन और अलौकिक अटलयोग में स्थित भगवान के संवाद का क्या महिमा कहें उसकी महिमा को कहने में कोई भी समर्थ नहीं है।
स्वामी चिन्मयानन्द द्वारा हिन्दी टिप्पणी -
ईश्वरीय काव्य गीता (श्रीरामकृष्ण वचनामृत) को श्रवण करके संजय इस श्लोक में अपनी स्पष्ट प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहता है, कि भगवान् केशव और मानव अर्जुन, 'सम्पूर्ण' एवं 'अपूर्ण' # - 'उच्च एवं निम्न' के मध्य यह संवाद अद्भुत और पुण्य - पवित्र है।
[# Progress, man’s distinctive mark alone, Not God’s, and not the beasts’: God is, they are, Man partly is and wholly hopes to be”
– Robert Browning’s “A Death in the Desert”]
संजय (श्री 'म' और श्री अश्विनी कुमार दत्त) द्वारा श्रवण किया गया गीता का ज्ञान (श्रीरामकृष्ण वचनामृत का ज्ञान) इतना गम्भीर और आकर्षक रूप से बोधगम्य था कि वह उसे पुनः पुनः स्मरण करके अपने हृदय में बारम्बार हर्षित हो रहा था। गीता (श्रीरामकृष्ण वचनामृत) जीवन जीने की कला को बताने वाली सूचनाओं की निर्देशिका है,अत यहाँ भी महर्षि व्यास जी अप्रत्यक्ष रूप से हमें साधनमार्ग का संकेत करते हैं।
'संस्मृत्य' (स्मरण करके) शब्द के द्वारा वे यह दर्शाते हैं कि साधक को श्रवण करने के पश्चात् बारम्बार मनन अर्थात् प्राप्त ज्ञान पर चिन्तन करना चाहिए। सम्यक् ज्ञान का फल हर्ष होगा।
गर्भ से स्वर्ग तक की निरर्थक जीवन यात्रा में जब मनुष्य कोई निश्चित दिव्य लक्ष्य देख लेता है तब वह प्रसन्न हो जाता है। गीता का अध्ययन न केवल हमारे दैनिक जीवन को ही अर्थवन्त बना देता है, वरन् सम्पूर्ण जगत् को एक सुनिश्चित आशा और आनन्द का सन्देश भी देता है। गीता (श्रीरामकृष्ण वचनामृत और लीलाप्रसंग) हमें जीवन की अन्धेरी गलियों से उठाकर अपने आन्तरिक साम्राज्य के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर देती है। वह मनुष्य को अपनी आन्तरिक परिस्थितियों का सम्राट बना देती है।
अज्ञान की दशा में मनुष्य के लिए जीवन का अर्थ केवल वस्तुओं और प्राणियों के आविर्भाव और तिरोभाव रूपी मृत्यु का विक्षिप्त नृत्य ही होता है। परन्तु गीताज्ञान (श्रीरामकृष्ण वचनामृत) से शिक्षित पुरुष उसी दिन प्रतिदिन के सामान्य जीवन में एक लय को पहचानता है सुन्दरता का अवलोकन करता है और मधुर संगीत का श्रवण करता है। वह क्या है ?
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।18.77।।
।।18.77।। तथा हे राजन् हरि के उस अति अद्भुत विश्वरूप को भी बारम्बार याद करके मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है, और मैं बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ।
स्वामी रामसुखदास द्वारा हिंदी टीका -
व्याख्या-- तच्च संस्मृत्य ৷৷ पुनः पुनः-- सञ्जय ने पीछे के श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद को तोअद्भुत बताया था। पर यहाँ भगवान के विराट् रूप को अत्यन्त अद्भुत बताते हैं। इसका तात्पर्य है कि संवाद को तो अब भी पढ़ सकते हैं, उसपर विचार कर सकते हैं, पर उस विराट् रूप के दर्शन अब नहीं हो सकते। अतः वह रूप अत्यन्त अद्भुत है।
ग्यारहवें अध्याय के नवें श्लोक में सञ्जय ने भगवान को महायोगेश्वरः कहा था। यहाँ विस्मयो मे महान् पदों से कहते हैं कि ऐसे महायोगेश्वर भगवान के रूप को याद करने से महान् विस्मय होगा ही। दूसरी बात अर्जुन को तो भगवान ने कृपा से द्रवित होकर विश्वरूप दिखाया। पर मेरे को तो व्यासजी की कृपा से देखने को मिल गया यद्यपि भगवान ने रामावतार में कौसल्या अम्बा को भी विराट् रूप दिखाया था और कृष्णावतार में यशोदा मैया को तथा कौरवसभा में दुर्योधन आदि को विराट् रूप दिखाया था; तथापि वह रूप ऐसा अद्भुत नहीं था कि जिसकी दाढ़ों में बड़ेबड़े योद्धा लोग फँसे हुए हैं और दोनों सेनाओँ का महान् संहार हो रहा है। इस प्रकार के अत्यन्त अद्भुत रूप को याद करके सञ्जय कहते हैं कि राजन् यह सब जो व्यास जी महाराज की कृपा से ही मेरे को देखने को मिला है। नहीं तो ऐसा रूप मेरे जैसे को कहाँ देखने को मिलता ?
सम्बन्ध-- गीता के आरम्भ में धृतराष्ट्र का गूढ़ाभिसन्धिरूप प्रश्न था कि युद्ध का परिणआम क्या होगा ? अर्थात् मेरे पुत्रोंकी विजय होगी या पाण्डुपुत्रों की ? आगे के श्लोक में सञ्जय धृतराष्ट्र के उसी प्रश्नका उत्तर देते हैं।
स्वामी चिन्मयानंद द्वारा हिंदी टिप्पणी- भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दर्शाया था जिसका यहाँ संजय स्मरण कर रहा है। सहृदय व्यक्ति के लिए यह विश्वरूप इतना ही प्रभावकारी है जितना कि गीता का ज्ञान एक बुद्धिमान व्यक्ति के लिए अविस्मरणीय है।
वेदों में वर्णित विराट् पुरुष का दर्शन चौंका देने वाला है और गीता में निसन्देह वह अति प्रभावशाली है। परन्तु कोई आवश्यक नहीं है कि यह महर्षि व्यास जी की केवल काव्यात्मक कल्पना ही हो दूसरे भी अनेक लोग हैं, जिनके अनुभव भी प्राय इसी के समान ही हैं।
यदि गीता का तत्त्वज्ञान मानव जीवन के गौरवशाली प्रयोजन को उद्घाटित करते हुए मनुष्य के बौद्धिक पक्ष को अनुप्राणित और हर्षित करता है, तो प्रत्येक नाम-रूप अनुभव और परिस्थिति में मन्दस्मित वृन्दावनबिहारी भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन प्रेमरस से मदोन्मत्त भक्तों के हृदयों को जीवन प्रदायक हर्ष से आह्लादित कर देता है। मेरा ऐसा विचार है कि यदि संजय को स्वतन्त्रता दी जाती तो उसने श्रीमद्भगवद्गीता पर एक सम्पूर्ण संजय गीता की रचना कर दी होती। जब ज्ञान के मौन से बुद्धि हर्षित होती है और प्रेम के आलिंगन में हृदय उन्मत्त होता है, तब मनुष्य अनुप्राणित कृतकृत्यता के भाव में आप्लावित हो जाता है।
कृतकृत्यता के सन्तोष का वर्णन करने में भाषा एक दुर्बल माध्यम है इसलिए अपनी मन की प्रबलतम भावना का और अधिक विस्तार किये बिना संजय अपने दृढ़विश्वास को गीता के इस अन्तिम एक श्लोक में सारांशत घोषित करता है -
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।
।।18.78।।जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीवधनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है -- ऐसा मेरा मत है।
सात सौ एक श्लोकों वाली श्रीमद्भगवद्गीता का यह अन्तिम श्लोक है। अधिकांश व्याख्याकारों ने इस श्लोक पर पर्याप्त विचार नहीं किया है और इसकी उपयुक्त व्याख्या भी नहीं की है। प्रथम दृष्टि में इसका शाब्दिक अर्थ किसी भी बुद्धिमान पुरुष को प्राय निष्प्राण और शुष्क प्रतीत होगा। आखिर इस श्लोक में संजय केवल अपने विश्वास और व्यक्तिगत मत को ही तो प्रदर्शित कर रहा है जिसे गीता के पाठक स्वीकार करे ही ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है।
संजय का कथन यह है कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन हैं वहाँ समृद्धि (श्री लक्ष्मी ), विजय, विस्तार और अचल नीति है यह मेरा मत है। यदि संजय का उद्देश्य अपने व्यक्तिगत मत को हम पर थोपने का होता और इस श्लोक में किसी विशेष सत्य का प्रतिपादन नहीं किया होता तो सार्वभौमिक शास्त्र के रूप में गीता को प्राप्त मान्यता समाप्त हो गयी होती। पूर्ण सिद्ध महर्षि व्यास इस प्रकार की त्रुटि कभी नहीं कर सकते थे इस श्लोक का गम्भीर आशय है जिसमें अकाट्य सत्य का प्रतिपादन किया गया है। योगेश्वर श्रीकृष्ण सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण चैतन्य स्वरूप आत्मा के ही प्रतीक हैं। यह आत्मतत्त्व ही वह अधिष्ठान है (सिनेमा का पर्दा है), जिस पर विश्व की घटनाओं का खेल हो रहा है। गीता में उपदिष्ट विविध प्रकार की योग विधियों में किसी भी विधि से अपने हृदय में उपस्थित उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है।
धनुर्धारी पार्थ इस ग्रन्थ में पृथापुत्र अर्जुन एक भ्रमित, परिच्छिन्न, असंख्य दोषों से युक्त जीव का प्रतीक है। जब वह अपने प्रयत्न और उपलब्धि के साधनों (धनुष बाण) का परित्याग करके शक्तिहीन आलस्य और प्रमाद में बैठ जाता है तो निसन्देह वह किसी प्रकार की सफलता या समृद्धि की आशा नहीं कर सकता। परन्तु जब वह धनुष् धारण करके अपने कार्य में तत्पर हो जाता है, तब हम उसमें धनुर्धारी पार्थ के दर्शन करते हैं, जो सभी चुनौतियों का सामना करने के लिए तत्पर है। इस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन के इस चित्र से आदर्श जीवन पद्धति का रूपक पूर्ण हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति से सम्पन्न कोई भी पुरुष जब अपने कार्यक्षेत्र में प्रयत्नशील हो जाता है, तो कोई भी शक्ति उसे सफलता से वंचित नहीं रख सकती।
संक्षेप में गीता का यह मत है कि आध्यात्मिकता को अपने व्यावहारिक जीवन में जिया जा सकता है और अध्यात्म का वास्तविक ज्ञान जीवन संघर्ष में रत मनुष्य के लिए अमूल्य सम्पदा है। आज समाज में सर्वत्र एक दुर्व्यवस्था और अशांति फैली हुई दृष्टिगोचर हो रही है। वैज्ञानिक उपलब्धियों और प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी आज का मानव जीवन की आक्रामक घटनाओं के समक्ष दीनहीन और असहाय हो गया है।
इसका एकमात्र कारण यह है कि उसके हृदय का योगेश्वर उपेक्षित रहा है। मनुष्य की उन्नति का मार्ग है लौकिक सार्मथ्य और आध्यात्मिक ज्ञान का सुखद मिलन। यही गीता में उपदिष्ट मार्ग है। मनुष्य के सुखद जीवन के विषय में श्री वेद व्यास जी की यही कल्पना है। केवल भौतिक उन्नति से जीवन में गति और सम्पत्ति तो आ सकती है परन्तु मन में शांति नहीं। आन्तरिक शांति रहित समृद्धि एक निर्मम और घोर अनर्थ है; परन्तु यह श्लोक दूसरे अतिरेक को भी स्वीकार नहीं करता है। कुरुक्षेत्र के समरांगण में युद्ध के लिए तत्पर धनुर्धारी अर्जुन के बिना योगेश्वर श्रीकृष्ण कुछ नहीं कर सकते थे। केवल आध्यात्मिकता की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति से हमारा भौतिक जीवन गतिशील और शक्तिशाली नहीं हो सकता। सम्पूर्ण गीता में व्याप्त समाञ्जस्य के इस सिद्धांत को मैंने यथाशक्ति एवं यथासंभव सर्वत्र स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। मनुष्य के चिरस्थायी सुख का यही एक मार्ग है।
संजय इसी मत की पुष्टि करते हुए कहता है कि जिस (परिवार) समाज या राष्ट्र के लोग संगठित होकर कार्य करने विपत्तियों को सहने और लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तत्पर हैं , (धनुर्धारी अर्जुन); और इसी के साथ-साथ ये लोग अपने हृदय में स्थित आत्मतत्त्व के प्रति जागरूक भी हैं (योगेश्वर श्रीकृष्ण) तो ऐसे राष्ट्र (परिवार या संस्था) में समृद्धि, विजय, भूति (विस्तार) और दृढ़ नीति होना स्वाभाविक और निश्चित है।
समृद्धि, विजय, विस्तार और दृढ़ नीति का उल्लिखित क्रम भी तर्कसिद्ध है। विश्व इतिहास के समस्त विद्यार्थियों की इसकी युक्तियुक्तता स्पष्ट दिखाई देती है। अर्वाचीन काल और राजनीति के सन्दर्भ में हम यह जानते हैं कि किसी एक विवेकपूर्ण दृढ़ राजनीति के अभाव में कोई भी सरकार राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ा सकती। दृढ़ नीति के द्वारा ही राष्ट्र की प्रसुप्त क्षमताओं का विस्तार सम्भव होता है, और केवल तभी परस्पर सहयोग और बन्धुत्व की भावना से किसी प्रकार की उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है। दृढ़ नीति और क्षमताओं के विस्तार के साथ विजय कोई दूर नहीं रह जाती। और इन तीनों की उपस्थिति में राष्ट्र का समृद्धशाली होना निश्चित ही है। आधुनिक राजनीति के सिद्धांतों में भी इससे अधिक स्वस्थ सिद्धांत हमें देखने को नहीं मिलता है।अत यह स्पष्ट हो जाता है कि यह केवल संजय का ही व्यक्तिगत मत नहीं है, वरन् सभी आत्मसंयमी तत्त्वचिन्तकों का भी यह दृढ़ निश्चय है।
गीता के अनेक व्याख्याकार, हमारा ध्यान गीता के प्रारम्भिक श्लोक के प्रथम शब्द धर्म तथा इस अन्तिम श्लोक के अन्तिम शब्द मम की ओर आकर्षित करते हैं। इन दो शब्दों के मध्य सात सौ श्लोकों के सनातन सौन्दर्य की यह माला धारण की गई है। अत इन व्याख्याकारों का यह मत है कि गीता का प्रतिपाद्य विषय है मम धर्म अर्थात् मेरा धर्म। मम धर्म से तात्पर्य मनुष्य के तात्विक स्वरूप और उसके लौकिक कर्तव्यों से है। जब इन दोनों का गरिमामय समन्वय किसी एक पुरुष में हो जाता है तब उसका जीवन आदर्श बन जाता है। इसलिए गीता के अध्येताओं को चाहिए कि उनका जीवन आत्मज्ञान प्रेमपूर्ण जनसेवा एवं त्याग के समन्वय से युक्त हो। यही आदर्श जीवन है।
इस अन्तिम अध्याय का शार्षक मोक्षसंन्यासयोग है। यह नाम हमें वेदान्त के अस्पर्शयोग का स्मरण कराता है जिसकी परिभाषा भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में दी है। जीवन के असत् मूल्यों का परित्याग करने का अर्थ ही अपने स्वत सिद्ध सच्चिदानन्दस्वरूप का साक्षात्कार करना है। हममें स्थित पशु का त्याग (संन्यास) करना ही हममें स्थित दिव्य तत्त्व का मोक्ष है। मेरे सद्गुरु स्वामी तपोवनजी महाराज को समर्पित।।
[अस्पर्श योग की दुर्गमता
अस्पर्शयोगो वै नाम
दुर्दर्श: सर्वयोगिभि:।
योगिनो बिभ्यति
ह्यस्मादभये भयदर्शिन:।।३९।।
The Yoga that is familiarly referred to as ‘contactless’ is difficult to be comprehended by anyone of the Yogis. For those Yogis, who apprehend fear where there is no fear, are afraid of it.
[ सब प्रकार के स्पर्श से रहित ] यह अस्पर्शयोग निश्चय ही योगियों के लिये कठिनता से दिखायी देनेवाला है। इस अभय पद में भय देखनेवाले योगी लोग इससे भय मानते है।
[स्वामीजी ने दादा को बताया था - महामण्डल की एकमात्र संस्कृत पुस्तिका 'विवेकानन्द दर्शनम' में -यह जगत क्या है ?
नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम् |
एष वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते ||'
After all, this world is a series of pictures. ' This colorful conglomeration expresses one idea only.
२.
मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्त्ता तु वर्तते |
पश्यामः केवलं तद्धि नृनिर्माणं कथं भवेत् ||
Man is marching towards perfection. That is -- ' the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone.'
(आत्मा या ब्रह्म रूपी पर्दे पर) चलचित्रों के इस सतरंगी समुच्चय-छटा रूपी जगत द्वारा केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है कि -मनुष्य अपने मोह (भ्रमों-भूलों) को त्यागता हुआ -क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (आदर्श ) की ओर अग्रसर हो रहा है ! हम सभी लोग अभी तक (जगत रूपी चलचित्र के माध्यम से) केवल 'यथार्थ मनुष्य' (पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य) को निर्मित होता हुआ देख रहे थे ! "]
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