परिच्छेद २
वराहनगर मठ
(१)
नरेन्द्रादि भक्तों की साधना। नरेन्द्र की पूर्वकथा
आज शुक्रवार है, २५ मार्च, १८८७ ई.। मास्टर मठ के भाइयों को देखने के लिए आये हैं। साथ देवेन्द्र भी हैं। मास्टर प्राय: आया करते हैं और कभी कभी रह भी जाते हैं। गत शनिवार को वे आये थे, शनि, रवि और सोम, तीन दिन रहे थे। मठ के भाइयों में, खासकर नरेन्द्र में, इस समय तीव्र वैराग्य है। इसीलिए मास्टर उत्सुकतापूर्वक उन्हें देखने के लिए आते हैं।
रात हो गयी है। आज रात को मास्टर मठ में ही रहेंगे ।
सन्ध्या हो जाने पर शशी ने ईश्वर के मधुर नाम का उच्चारण करते हुए ठाकुरघर में दीपक जलाया और धूप-धूना सुलगाने लगे। धुपदान लेकर कमरे में जितने चित्र हैं, सब के पास गये और प्रणाम किया।
फिर आरती होने लगी। आरती वे ही कर रहे हैं। मठ के सब भाई, मास्टर तथा देवेन्द्र, सब लोग हाथ जोड़कर आरती देख रहे हैं, साथ ही साथ आरती गा रहे हैं - “जय शिव ओंकार, भज शिव ओंकार! ब्रह्मा विष्णु सदाशिव! हर हर हर महादेव!”
नरेन्द्र और मास्टर बातचीत कर रहे हैं। नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के पास जाने के समय की बहुतसी बातें कह रहे हैं। नरेन्द्र की उम्र इस समय २४ साल २ महीने की होगी।
नरेन्द्र - पहले-पहल जब मैं गया, तब एक दिन भावावेश मे उन्होंने कहा, “तू आया है!'
“मैने सोचा, यह कैसा आश्चर्य है! ये मानो मुझे बहुत दिनों से पहचानते हैं। फिर उन्होंने कहा, 'क्या तू कोई ज्योति देखता है?'
“मैने कहा, 'जी हाँ। सोने से पहले, दोनों भौहों के बीच की जगह के ठीक सामने एक ज्योति घूमती रहती है।'
मास्टर - क्या अब भी देखते हो?
नरेन्द्र - पहले बहुत देखा करता था। यदु मल्लिक के भोजनागार में मुझे छूकर न जाने उन्होंने मन ही मन क्या कहा, मैं अचेत हो गया था। उसी नशे में मै एक महीने तक रहा था।
“मेरे विवाह की बात सुनकर माँ काली के पैर पकड़कर वे रोये थे। रोते हुए कहा था, माँ, वह सब फेर दे - माँ, नरेन्द्र कहीं डूब न जाय!”
“जब पिताजी का देहान्त हो गया, और माँ और भाइयों को भोजन तक की कठिनाई हो गयी तब मैं एक दिन अन्नदा गुहा के साथ उनके पास गया था।
“उन्होंने अन्नदा गुहा से कहा, 'नरेन्द्र के पिताजी का देहान्त हो गया है, घरवालों को बड़ा कष्ट हो रहा है, इस समय अगर इष्टमित्र उसकी सहायता करें तो बड़ा अच्छा हो।'
“अन्नदा गुहा के चले जाने पर मैं उनसे कुछ रुष्टता से कहने लगा, क्यों आपने उनसे ये बातें कहीं ?” यह सुनकर वे रोने लगे थे। कहा, “अरे! तेरे लिए मैं द्वार-द्वार भीख भी माँग सकता हूँ!'
“उन्होंने प्यार करके हम लोगों को वशीभूत कर लिया था। आप क्या कहते हैं ?”
मास्टर - इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। उनके स्नेह का कोई कारण नहीं था।
नरेन्द्र - मुझसे एक दिन अकेले में उन्होंने एक बात कही। उस समय और कोई न था। यह बात आप और किसी से न कहियेगा।
मास्टर - नहीं। हाँ, क्या कहा था?
नरेन्द्र - उन्होंने कहा, 'सिद्धियों के प्रयोग करने का अधिकार मैंने तो छोड़ दिया है, परन्तु तेरे भीतर से उनका प्रयोग करूँगा - क्यों, तेरा क्या कहना है?' मैंने कहा, “नहीं, ऐसा तो न होगा।'
“उनकी बात मैं उड़ा देता था। आपने उनसे सुना होगा। वे ईश्वर के रूपों के दर्शन करते थे, इस बात पर मैंने कहा था, यह सब मन की भूल है।'
“उन्होंने कहा, अरे मैं कोठी पर चढ़कर जोर जोर से पुकारकर कहा करता था - अरे, कहाँ है कौन भक्त, चले आओ, तुम्हें न देखकर मेरे प्राण निकल रहे हैं। माँ ने कहा था, - अब भक्त आयेंगे,” अब देख, सब बातें मिल रही है।'
“तब मैं और क्या कहता, चुप हो रहा।
नरेन्द्र की उच्च अवस्था
“एक दिन कमरे के दरवाजे बन्द करके उन्होंने देवेन्द्रबाबू और गिरीशबाबू से मेरे सम्बन्ध में कहा था, 'उसके घर का पता अगर उसे बता दिया जायगा, तो फिर वह देह नहीं रख सकता।'
मास्टर - हाँ, यह तो हमने सुना है। हम लोगों से भी यह बात उन्होंने कई बार कही है। काशीपुर में रहते हुए एक बार तुम्हारी वही अवस्था हुई थी, क्यों?
नरेन्द्र - उस अवस्था में मुझे ऐसा जान पड़ा कि मेरे शरीर है ही नहीं; केवल मुँह देख रहा हूँ। श्रीरामकृष्ण ऊपर के कमरे में थे। मुझे नीचे यह अवस्था हुई। उस अवस्था के होते ही मैं रोने लगा - यह मुझे क्या हो गया? बूढ़े गोपाल ने ऊपर आकर उनसे कहा, 'नरेन्द्र रो रहा है।'
“जब उनसे मेरी मुलाकात हुई तब उन्होंने कहा, “अब तेरी समझ में आया। पर कुंजी मेरे पास रहेगी।” मैंने कहा, 'मुझे यह क्या हुआ?'
“दूसरे भक्तों की ओर देखकर उन्होंने कहा, 'जब वह अपने को जान लेगा, तब देह नहीं रखेगा। मैंने उसे भुला रखा है।” एक दिन उन्होंने कहा था, 'तू अगर चाहे तो हृदय में तुझे कृष्ण दिखायी दें।” मैने कहा, “मैं कृष्ण-विष्ण नहीं मानता।'
(नरेन्द्र और मास्टर हँसते हैं)
“एक अनुभव मुझे और हुआ है। किसी किसी स्थान पर वस्तु या मनुष्य को देखने पर ऐसा जान पड़ता है जैसे पहले मैंने उन्हें कभी देखा हो, पहचाने हुए-से दीख पड़ते हैं। अमहर्स्ट स्ट्रीट में जब मैं शरद के घर गया, शरद से मैंने कहा, उस घर का सर्वांश जैसे मैं पहचानता हूँ, ऐसा भाव पैदा हो रहा है। घर के भीतर के रास्ते, कमरे, जैसे बहुत दिनों के पहचाने हुए है।
“मैं अपनी इच्छानुसार काम करता था, वे कुछ कहते न थे। मैं साधारण ब्राह्मसमाज का मेम्बर बना था, आप जानते हैं न?”
मास्टर - हाँ, मै जानता हूँ।
नरेन्द्र - वे जानते थे कि वहाँ स्त्रियाँ भी जाया करती हैं। स्त्रियों को सामने रखकर ध्यान हो नहीं सकता। इसलिए इस प्रथा की वे निन्दा किया करते थे। परन्तु मुझे वे कुछ न कहते थे। एक दिन सिर्फ इतना ही कहा कि राखाल से ये सब बातें न कहना कि तु मेम्बर बन गया है, नहीं तो फिर उसे भी जाने की इच्छा होगी।
मास्टर - तुम्हारा मन ज्यादा जोरदार है, इसीलिए उन्होंने तुम्हें मना नहीं किया।
नरेन्द्र - बड़े दुःख और कष्टों के झेलने के बाद यह अवस्था हुई है। मास्टर महाशय, आपको दु:ख-कष्ट नहीं मिला - मैं मानता हूँ कि बिना दु:ख-कष्ट के हुए कोई ईश्वर को आत्मसमर्पण नहीं करता -
“अच्छा, अमुक व्यक्ति कितना नम्र और निरहंकार है! उसमें कितनी विनय है! क्या आप मुझे बता सकते हैं कि मुझमें किस तरह विनय आये ?”
मास्टर - उन्होंने तुम्हारे अहंकार के सम्बन्ध में बतलाया था कि यह किसका अहंकार है।
नरेन्द्र - इसका क्या अर्थ है?
मास्टर - राधिका से एक सखी कह रही थी, 'तुझे अहंकार हो गया है, इसीलिए तूने कृष्ण का अपमान किया है।” इसका उत्तर एक दूसरी सखी ने दिया। उसने कहा, ' हाँ, राधिका को अहंकार तो हुआ है परन्तु यह अहंकार है किसका ?' - अर्थात्, श्रीकृष्ण मेरे पति हैं - यह अहंकार है, - इस “अहं' भाव को श्रीकृष्ण ने ही उसमें रखा है। श्रीरामकृष्ण के कहने का अर्थ यह है कि ईश्वर ने ही तुम्हारे भीतर यह अहंकार भर रखा है, अपना बहुतसा कार्य करायेंगे, इसलिए।
नरेन्द्र - परन्तु मेरा 'अहं' पुकारकर कहता है कि मुझे कोई क्लेश नहीं है।
मास्टर - (सहास्य) - हाँ, तुम्हारी इच्छा की बात है।
(दोनों हँसते हैं)
अब दूसरे दूसरे भक्तों की बात होने लगी - विजय गोस्वामी आदि की।
नरेन्द्र - विजय गोस्वामी की बात पर उन्होंने कहा था, 'यह दरवाजा ठेल रहा है।'
मास्टर - अर्थात् अभी तक घर के भीतर घुस नहीं सके।
“परन्तु श्यामपुकुरवाले घर में विजय गोस्वामी ने श्रीरामकृष्ण से कहा था, 'मैंने आपको ढाके में इसी तरह देखा था, इसी शरीर में! ' उस समय तुम भी वहाँ थे।
नरेन्द्र - देवेन्द्रबाबू, रामबाबू ये लोग भी संसार छोड़ेंगे। बड़ी चेष्टा कर रहे हैं । रामबाबू ने छिपे तौर पर कहा है, दो साल बाद संसार छोड़ेंगे।
मास्टर - दो साल बाद? शायद लड़के-बच्चों का बन्दोबस्त हो जाने पर?
नरेन्द्र - और यह भी है कि घर भाड़े से उठा देंगे और एक छोटासा मकान खरीद लेंगे। उनकी लड़की के विवाह की व्यवस्था अन्य सम्बन्धी कर लेंगे।
मास्टर - नित्यगोपाल की अच्छी अवस्था है - क्यों?
नरेन्द्र - क्या अवस्था है?
मास्टर - कितना भाव होता है! - ईश्वर का नाम लेते ही आँसू बह चलते हैं - रोमांच होने लगता है!
नरेन्द्र - क्या भाव होने से ही बड़ा आदमी हो गया ?
“काली, शरद, शशी, सारदा - ये सब नित्यगोपाल से बहुत बड़े आदमी हैं। इनमे कितना त्याग है! नित्यगोपाल उनको (श्रीरामकृष्ण को) मानता कहाँ है ?”
मास्टर - उन्होंने कहा भी है कि वह यहाँ का आदमी नहीं है। परन्तु श्रीरामकृष्ण पर भक्ति तो वह खूब करता था, मैंने अपनी आँखो से देखा है।
नरेन्द्र - क्या देखा है आपने ?
मास्टर - जब मैं पहले-पहल दक्षिणेश्वर जाने लगा था, तब श्रीरामकृष्ण के कमरे से भक्तों का दरबार जाने पर, एक दिन बाहर आकर मैंने देखा - नित्यगोपाल घुटने टेककर बगीचे की लाल सुरखीवाली राह पर श्रीरामकृष्ण के सामने हाथ जोड़े हुए था श्रीरामकृष्ण खड़े थे। चाँदनी बड़ी साफ थी। श्रीरामकृष्ण के कमरे के ठीक उत्तर तरफ जो बरामदा है उसी के उत्तर ओर लाल सुरखीवाला रास्ता है। उस समय वहाँ और कोई न था। जान पड़ा, नित्यगोपाल शरणागत हुआ है, और श्रीरामकृष्ण उसे आश्वासन दे रहे हैं।
नरेन्द्र - मैंने नहीं देखा।
मास्टर - और बीच बीच मे श्रीरामकृष्ण कहते थे, उसकी परमहंस अवस्था है। परन्तु यह भी मुझे खूब याद है, श्रीरामकृष्ण ने उसे स्त्री भक्तों के पास जाने की मनाही की थी। बहुत बार उसे सावधान कर दिया था।
नरेन्द्र - और उन्होंने मुझसे कहा था, उसकी अगर परमहंस अवस्था है तो धन के पीछे क्यो भटकता है ?' और उन्होने यह भी कहा था, 'वह यहाँ का आदमी नहीं है। जो हमारे अपने आदमी हैं, वे यहाँ सदा आते रहेगे।'
“इसीलिए तो वे X -बाबू पर नाराज होते थे। इसलिए कि वह सदा नित्यगोपाल के साथ रहता था, और उनके पास ज्यादा आता न था।
“मुझसे उन्होने कहा था, “नित्यगोपाल सिद्ध है - वह एकाएक सिद्ध हो गया है - आवश्यक तैयारी के बिना। वह यहाँ का आदमी नहीं है, अगर अपना होता तो उसे देखने के लिए मैं कुछ भी तो रोता, परन्तु उसके लिए मैं नहीं रोया।'
“कोई-कोई उसे नित्यानन्द कहकर प्रचार कर रहे हैं। परन्तु उन्होने (श्रीरामकृष्ण ने) कितनी ही बार कहा है, 'मैं ही अद्वैत, चैतन्य और नित्यानन्द हूँ। एक ही आधार मे मैं उन तीनों का समष्टि-रूप हूँ।”
(२)
नरेन्द्र की पूर्वकथा
मठ में काली तपस्वी के कमरे मे दो भक्त बैठे हैं। उनमें एक त्यागी हैं, एक गृही। दोनो २४-२५ साल की उम्र के हैं। दोनों में बातचीत हो रही है, इसी समय मास्टर भी आ गये। वे मठ मे तीन दिन रहेंगे।
आज 'गुड फ्रायडे' है, ८ अप्रैल १८८७, शुक्रवार। इस समय दिन के आठ बजे होगे।
मास्टर ने आते ही ठाकुर-घर में, जाकर श्रीरामकृष्ण के चित्र को प्रणाम किया। फिर नरेन्द्र और राखाल आदि भक्तों से मिलकर उसी कमरे मे आकर बैठे, और उन दोनों भक्तों से प्रीति-सम्भाषण के अनन्तर उनकी बातचीत सुनने लगे। गृही भक्त की इच्छा संसार त्याग करने की है। मठ के भाई उन्हे समझा रहे है कि वे संसार न छोड़ें।
त्यागी भक्त - कर्म जो कुछ है, कर डालो। करने से फिर सब समाप्त हो जायेगे।
“एक ने सुना था कि उसे नरक जाना होगा। उसने एक मित्र से पूछा कि नरक कैसा है। मित्र एक मिट्टी का ढेला लेकर नरक का नक्शा खींचने लगा। नरक का नक्शा उसने खींचा नहीं कि वह आदमी तुरन्त उस पर लोटने लगा, और बोला, 'चलों, मेरा नरक का भोग हो गया।! ”
गृही भक्त - मुझे संसार अच्छा नहीं लगता। अहा! तुम लोगों की कैसी सुन्दर अवस्था है!
त्यागी भक्त - तू इतना बकता क्यों है ? अगर निकलना है तो निकल आ; नहीं तो मजे से एक बार भोग कर ले।
नौ बजने के बाद शशी ने श्रीठाकुरघर में पूजा की।
ग्यारह का समय हुआ। मठ के भाई क्रमश: गंगा-स्नान करके आ गये। स्नान के पश्चात् दूसरा शुद्ध वस्त्र धारण कर, हरएक संन्यासी श्रीठाकरघर मे श्रीरामकृष्ण के चित्र को प्रणाम करके ध्यान करने लगा।
भोग के पश्चात् मठ के भाइयों ने प्रसाद पाया। साथ में मास्टर ने भी प्रसाद पाया।
सन्ध्या हो गयी। धूनी देने के पश्चात् आरती हुई। 'दानवों के कमरे' में राखाल, शशी, बूढ़े गोपाल और हरीश बैठे हुए हैं। मास्टर भी हैं। राखाल श्रीरामकृष्ण का भोग सावधानी से रखने के लिए कह रहे हैं।
राखाल - (शशी आदि से) - एक दिन मैंने उनके जलपान करने से पहले कुछ खा लिया था। उन्होंने मेरी ओर देखकर कहा - 'तेरी ओर मुझसे देखा नहीं जाता। क्यों तूने ऐसा काम किया? - मैं रोने लगा।
बूढ़े गोपाल - मैंने काशीपुर में उनके भोजन पर जोर से साँस छोड़ी थी, तब उन्होंने कहा, 'यह भोजन रहने दो।'
बरामदे में मास्टर नरेन्द्र के साथ टहल रहे हैं। दोनों में तरह तरह की बातचीत हो रही है। नरेन्द्र ने कहा, 'मैं तो कुछ भी न मानता था।'
मास्टर - क्या? ईश्वर के रूप?
नरेन्द्र - वे जो कुछ कहते थे, पहले-पहल मैं बहुतसी बातें न मानता था। एक दिन उन्होंने कहा था, 'तो फिर तू आता क्यों है।'
“मैंने कहा, “आपको देखने लिए, आपकी बातें सुनने के लिए नहीं।'
मास्टर - उन्होंने क्या कहा था?
नरेन्द्र - वे बहुत प्रसन्न हुए थे।
दूसरे दिन शनिवार था, ९ अप्रैल १८८७ श्रीरामकृष्ण के भोग के पश्चात् मठ के भाइयों ने भोजन किया, फिर वे जरा विश्राम करने लगे। नरेन्द्र और मास्टर, मठ से सटा हुआ पश्चिम ओर जो बगीचा है, वहीं एक पेड़ के नीचे एकान्त में बैठे हुए बातचीत कर रहे हैं। नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में अपने अनुभव बता रहे हैं। नरेन्द्र की आयु २४ वर्ष की है और मास्टर की ३२ वर्ष की।
मास्टर - पहले-पहल जिस दिन उनसे तुम्हारी मुलाकात हुई थी, वह दिन तुम्हें अच्छी तरह याद है?
नरेन्द्र - मुलाकात दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में हुई थी, उन्हीं के कमरे में। उस दिन मैंने दो गाने गाये थे।
गाना - (भावार्थ) - ऐ मन, अपने स्थान में लौट चलो। संसार में विदेशी की तरह अकारण क्यों घूम रहे हो? ...
गाना - (भावार्थ) - क्या मेरे दिन व्यर्थ ही बीत जायेंगे? हे नाथ, मैं दिन-रात आशा-पथ पर आँख गड़ाये हुए हूँ।... मास्टर - गाना सुनकर उन्होंने क्या कहा?
नरेन्द्र - उन्हे भावावेश हो गया था। रामबाबू आदि और और लोगों से उन्होंने पूछा, यह लड़का कौन है? अहा, कितना सुन्दर गाता है” मुझसे उन्होंने फिर आने के लिए कहा।
मास्टर - फिर कहाँ मुलाकात हुई ?
नरेन्द्र - फिर राजमोहन के यहाँ मुलाकात हुई थी। इसके बाद दक्षिणेश्वर में; उस समय मुझे देखकर भावावेश में मेरी स्तुति करने लगे थे। स्तुति करते हुए कहने लगे, "नारायण! तुम मेरे लिए शरीर धारण करके आये हो।'
“परन्तु ये बातें किसी से कहियेगा नहीं।”
मास्टर - और उन्होंने क्या कहा?
नरेंद्र - उन्होंने कहा, “तुम मेरे लिए ही शरीर धारण करके आये हो। मैंने माँ से कहा था, 'माँ, काम-कांचन का त्याग करनेवाले शुद्धात्मा भक्तों के बिना संसार में कैसे रहूँगा!” ” उन्होंने फिर मुझसे कहा, “तूने रात को मुझे आकर उठाया, और कहा, 'मै आ गया।” ” परन्तु मैं यह सब कुछ नही जानता था, मैं तो कलकत्ते के मकान में खूब खर्राटे ले रहा था।
मास्टर - अर्थात्, तुम एक ही समय Present (हाजिर) भी हो और Absent- (गैरहाजिर) भी हो, जैसे ईश्वर साकार भी हैं और निराकार भी।
नरेन्द्र के प्रति लोक-शिक्षा का आदेश
नरेन्द्र - परन्तु यह बात किसी दूसरे से न कहियेगा।
“काशीपुर में उन्होंने मेरे भीतर शक्ति का संचार किया।”
मास्टर - जिस समय तुम काशीपुर में पेड़ के नीचे धूनी जलाकर बैठते थे, क्यों?
नरेन्द्र - हाँ। काली से मैंने कहा, 'जरा मेरा हाथ पकड़ तो सही।” काली ने कहा 'न जाने तुम्हारी देह छूते ही कैसा एक धक्का मुझे लगा।'
“यह बात हम लोगो मे किसी से आप न कहेगे - प्रतिज्ञा कीजिये।”
मास्टर - तुम्हारे भीतर शक्ति-संचार करने का उनका खास मतलब है। तुम्हारे द्वारा उनके बहुतसे कार्य होंगे। एक दिन एक कागज में लिखकर उन्होने कहा था, “नरेन्द्र शिक्षा देगा।'
नरेन्द्र - परन्तु मैने कहा था, यह सब मुझसे न होगा।'
“इस पर उन्होंने कहा, तेरे हाड़ करेगे।' शरद का भार उन्होने मुझे सौपा है। वह व्याकुल है। उसकी कुण्डलिनी जाग्रत हो गयी है।”
मास्टर - इस समय चाहिए कि सड़े पत्ते न जमने पाये। श्रीरामकृष्ण कहते थे, शायद तुम्हे याद हो, कि तालाब मे मछलियो के बिल रहते है, वहाँ मछलियाँ आकर दिश्राम करती है। जिस बिल में सड़े पत्ते आकर जम जाते है, उसमे फिर मछली नही आती।
नरेन्द्र - मुझे नारायण कहते थे।
मास्टर - तुम्हे नारायण कहते थे, यह मैं जानता हूँ।
नरेन्द्र - जब वे बीमार थे, तब शौच का पानी मुझसे नही लेते थे।
“काशीपुर में उन्होंने कहा था, “अब कुंजी मेरे हाथों में है। वह अपने को जान लेगा. तो छोड़ देगा। ”
मास्टर - जिस दिन तम्हारी निर्विकल्प समाधि की अवस्था हुई थी - क्यों?
नरेन्द्र - हाँ। उस समय मुझे जान पड़ा था कि मेरे शरीर नहीं है, केवल मुँह भर है। घर में मै कानून पढ़ रहा था परीक्षा देने के लिए। तब एकाएक याद आया कि यह मैं क्या कर रहा हूँ ?
मास्टर - जब श्रीरामकृष्ण काशीपुर में थे?
नरेन्द्र - हाँ। पागल की तरह मैं घर से निकल आया। उन्होने पूछा, 'तू क्या चाहता है?” मेने कहा, 'में समाधिमग्न होकर रहूँगा।' उन्होंने कहा, 'तेरी बुद्धि तो बड़ी हीन हैं। समाधि के पार जा, समाधि ता तुच्छ चीज है।'
मास्टर - हाँ, वे कहते थे ज्ञान के बाद विज्ञान है। छत पर चढ़कर सीढ़ियों से फिर आना-जाना।
नरेन्द्र - काली ज्ञान-ज्ञान चिल्लाता है। मै उसे डाँटता हूँ। ज्ञान क्या इतना सहज है? पहले भक्ति तो पके।
“उन्होने (श्रीरामकृष्ण ने) तारकबाबू से दक्षिणेश्वर मे कहा था, 'भाव और भक्ति को ही इति न समझ लेना।”
” मास्टर - तुम्हारे सम्बन्ध मे उन्होंने और क्या क्या कहा था, बताओ तो।
नरेन्द्र - मेरी बात पर वे इतना विश्वास करते थे कि जब मैंने कहा, “आप रूप आदि जो कुछ देखते हैं, यह सब मन की भूल है, 'तब माँ (जगन्माता काली) के पास जाकर उन्होने पूछा है, 'माँ , नरेन्द्र इस तरह कह रहा है, तो क्या यह सब भूल है ?' फिर उन्होने मुझसे कहा, “माँ ने कहा है, यह सब सत्य है।'
“वे कहते थे, शायद आपको याद हो, 'तेरा गाना सुनने पर (छाती पर हाथ रखकर) इसके भीतर जो है, वे साँप की तरह फन खोलकर स्थिर भाव से सुनते रहते हैं।'
“परन्तु मास्टर महाशय, उन्होंने इतना तो कहा, परन्तु मेरा बतलाइये क्या हुआ? ”
मास्टर - इस समय तुम शिव बने हुए हो, पैसे लेने का अधिकार तो है ही नहीं। श्रीरामकृष्ण की कहानी याद है न?
नरेन्द्र - कौनसी कहानी? जरा कहिये।
मास्टर - कोई बहुरूपिया शिव बना था। जिनके यहाँ वह गया था, वे एक रुपया देने लगे। उसने रुपया नहीं लिया, घर लौटकर हाथ-पैर धोकर उसने बाबू के यहाँ आकर रुपया माँगा। बाबू के घरवालो ने कहा, 'उस समय तुमने रुपया क्यों नहीं लिया ?' उसने कहा, 'तब तो मैं शिव बना था - संन्यासी था - रुपया कैसे छूता?'
यह बात सुनकर नरेन्द्र खूब हँसे।
मास्टर - इस समय तुम मानो एक वैद्य हो। सब भार तुम्हीं पर है। मठ के भाइयों को तुम मनुष्य बनाओगे।
नरेन्द्र - हम लोग जो साधन-भजन कर रहे हैं, यह उन्हीं की आज्ञा से। परन्तु आश्चर्य है, रामबाबू साधना की बात पर हम लोगों को ताना मारते हैं। वे कहते हैं, 'जब उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर लिए तब साधना कैसी ?'
मास्टर - जिसका जैसा विश्वास, वह वैसा ही करे।
नरेन्द्र - हम लोगों को तो उन्होंने साधना करने की आज्ञा दी है।
नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के प्यार की बातें करने लगे।
नरेन्द्र - मेरे लिए माँ काली से उन्होंने न जाने कितनी बातें कही। जब मुझे खाने को नहीं मिल रहा था, पिताजी का देहान्त हो गया था - घरवाले बड़े कष्ट में थे, तब मेरे लिए माँ काली से उन्होने रुपयों की प्रार्थना की थी।
मास्टर - यह मुझे मालूम है।
नरेन्द्र - रुपये नहीं मिले। उन्होने कहा, 'माँ ने कहा है, मोटा कपड़ा और रूखा- सूखा भोजन मिल सकता है - रोटी-दाल मिल सकती है।'
“मुझे इतना प्यार तो करते थे, परन्तु जब कोई अपवित्र भाव मुझमें आता था तब उसे वे तुरन्त ताड़ जाते थे। जब मै अन्नदा के साथ घूमता था - कभी कभी बुरे आदमियों के साथ पड़ जाता था - और तब यदि उनके पास मैं आता था तो मेरे हाथ का वे कुछ न खाते थे। मुझे स्मरण है, एक बार उनका हाथ कुछ उठा था, परन्तु फिर आगे न बढ़ा।
उनकी बीमारी के समय एक दिन ऐसा होने पर उनका हाथ मुँह तक गया और फिर रुक गया। उन्होंने कहा, 'अब भी तेरा समय नहीं आया।'
“कभी-कभी मुझे बड़ा अविश्वास होता है। रामबाबू के यहाँ मुझे जान पड़ा कि कहीं कुछ नहीं है। मानो ईश्वर-फीश्वर कहीं कुछ नहीं ।”
मास्टर - वे कहते थे कि कभी कभी उन्हें भी ऐसा ही होता था।
दोनों चुप है। मास्टर कहने लगे - “तुम लोग धन्य हो! दिन-रात उनके चिन्तन में रहते हो।”” नरेन्द्र ने कहा - “कहाँ? हममें इतनी व्याकुलता कहाँ कि ईश्वरदर्शन न होने के दु:ख से शरीर-त्याग कर सकें?”
रात हो गयी है। निरंजन को पुरीधाम से लौटे कुछ ही समय हुआ है। उन्हे देखकर मठ के भाई और मास्टर प्रसन्न हो रहे हैं। वे पुरीयात्रा का हाल कहने लगे। निरंजन की उम्र इस समय २५-२६ साल की होगी। सन्ध्या-आरती के हो जानेपर कोई ध्यान करने लगे। निरंजन के लौटने पर बहुतसे भाई बड़े घर में आकर बैठे। सत्प्रसंग होने लगा। रात के नौ बजे के बाद शशी ने श्रीरामकृष्ण को भोगार्पण करके उन्हें शयन कराया।
मठ के भाई निरंजन को साथ लेकर भोजन करने बैठे। उस दिन भोजन में रोटियोँ थी, एक तरकारी, जरासा गुड़ और श्रीरामकृष्ण के नैवेद्य की थोड़ीसी खीर।
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[ गंगाधर सदा मठ में आया-जाया करते थे। नरेन्द्र को बिना देखे वे रह न सकते थे। बनारस के शिवमन्दिर मे गाया जानेवाला 'जय शिव ओंकार' स्तोत्र उन्होंने मठ के भाइयों को सिखलाया था। मठ के भाई “वाह गुरु की फतह” कहकर बीच-बीच मे जो जयध्वनि करते थे, यह भी उन्हीं की सिखलायी हुई थी।]
ओम जय शिव ओंकारा – शिव आरती
यह आरती अक्सर शिव मंदिरों में,– साथ ही घरों में भी शिव की दैनिक पूजा के दौरान गाई जाती है, – खासकर सावन के महीने में और महाशिवरात्रि जैसे विशेष अवसरों पर। इसके भावपूर्ण शब्द और सरल धुन भक्तों को भगवान शिव के करीब लाते हैं– और उनके मन में भक्ति भावना जागृत करते हैं। शिव को “ओंकार” कहा गया है, जो ब्रह्मांड की मूल ध्वनि और ऊर्जा का प्रतीक है। इस आरती के गायन से भगवान शिव के ओमकार स्वरूप का बोध होता है जो उनकी व्यापकता को दर्शाता है। इस आरती के माध्यम से– भक्त शिवजी का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, और– भक्तों को शांति, सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है ऐसा माना जाता है।।
शिवजी की आरती | Shiv ji Ki Aarti Lyrics in Hindi:
ॐ जय शिव ओंकारा, स्वामी जय शिव ओंकारा।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी धारा॥ ओम जय शिव ओंकारा॥
एकानन चतुरानन पञ्चानन राजे।
हंसासन गरूड़ासन वृषवाहन साजे॥ ओम जय शिव ओंकारा॥
दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे।
त्रिगुण रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे॥ ओम जय शिव ओंकारा॥
अक्षमाला वनमाला मुण्डमालाधारी।
त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी॥ ओम जय शिव ओंकारा॥
श्वेताम्बर पीताम्बर बाघंबर अंगे।
सनकादिक गरुड़ादिक भूतादिक संगे॥ ओम जय शिव ओंकारा॥
कर के मध्य कमण्डल चक्र त्रिशूलधारी।
जगकर्ता जगभर्ता जगसंहारकर्ता॥ ओम जय शिव ओंकारा॥
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका॥ ओम जय शिव ओंकारा॥
पर्वत सोहैं पार्वती, शंकर कैलासा।
भांग धतूरे का भोजन, भस्मी में वासा॥ ओम जय शिव ओंकारा॥
जटा में गंग बहत है, गल मुण्डन माला।
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला॥ ओम जय शिव ओंकारा॥
काशी में विराजे विश्वनाथ, नन्दी ब्रह्मचारी।
नित उठ दर्शन पावत, महिमा अति भारी॥ ओम जय शिव ओंकारा॥
त्रिगुणस्वामी जी की आरति जो कोइ नर गावे।
कहत शिवानन्द स्वामी, मनवान्छित फल पावे॥
ओम जय शिव ओंकारा॥ स्वामी ओम जय शिव ओंकारा॥
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