१९.' ईमानदारी ' ( Honesty):
चरित्र  के गुणों को अध्यवसाय के साथ निष्ठापूर्वक धीरे धीरे आत्मसात करते रहने से मनुष्य सचमुच में सत् और पवित्र हो जाता है। उसके जीवन के सभी  क्रियाकलापों में पवित्रता बिल्कुल स्पष्ट रूप में झलकने लगती है।किन्तु, सत्  या  सच्चा मनुष्य वही हो सकता है, जो 'सत्यनिष्ठ' हो। जिस में सत्य की  प्रति निष्ठा ही न हो वह व्यक्ति ईमानदार कैसे बन सकता है ? जो व्यक्ति निरन्तर सत्य में ही स्थित रहता हो,  उसके सभी कर्मो, वाणी तथा  विचारों में पवित्रता का भाव सदा अक्षुण्ण  बना रहता है। सत्य से थोड़ा भी  दूर हट जाने पर विचार,वाणी और कर्म में असत् भाव प्रविष्ट हो जाता है। और  एक बार भी वैसा हो जाने पर ह धीरे धीरे 'सत्य-वस्तु' से इतने अधिक  दूर हो जाते हैं  कि सच्चरित्रता  रूपी स्तम्भ का उन्नत  शिखर ही टूट कर बिखर जाता है। चरित्र  कि चट्टानी नींव पर ही, मानव-जीवन ऐश्वर्य कि गरिमा के साथ खड़ा रह सकता  है। ऐसा न होने से पग-पग पर मिलने वाली पराजय की  ग्लानी से जीवन अन्ततः  एक ऐसे गहन अँधकार में घिर जाता है  जहाँ से पुनः 'आलोक के आनन्दमय राज्य' को प्राप्त करने  का कोई उपाय ही शेष नही रह जाता। 
इसीलिए
  सच्चरित्रता के स्तम्भ को खूब ऊँचा उठाये रखना होगा, ताकि हमारा जीवन  
व्यर्थ न हो जाय। जीवन को सुंदर ढंग से गठित कर ही सत् या 'साधू-युवा' बना 
जा सकता है। हम लोग 'साधु' का अर्थ संन्यासी समझते  हैं। किन्तु क्या 
सांसारिक लोगों को भी साधु  अर्थात पवित्र नहीं होना चाहिये ? स्वामीजी 
कहते थे -" हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्म हैं! प्रत्येक आत्मा मानो 
अज्ञान के बादल से ढँके हुए सूर्य के सामान है और एक मनुष्य से दूसरे का 
अन्तर केवल यही है कि कहीं सूर्य के ऊपर बादलों का घना आवरण है और कहीं कुछ
 पतला। यही वेदों का सार है, हर एक मनुष्य को चाहिये कि वह दूसरे मनुष्य को
 इसी तरह अर्थात ईश्वर दृष्टि (जीवशिव वाद) से बर्ताव करे,
उससे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे और न उसकी निन्दा ही करे। किसी तरह से उसे हानि भी पहुँचाने की चेष्टा न करे। (ऐसा साधु-युवा बन जाना ) केवल सन्यासियों का ही नहीं वरन सभी नर -नारियों का कर्त्तव्य है! " (२/३२६)
इस सत्य को नहीं जानने के कारण ही कुछ लोग सोचते हैं कि केवल संन्यासी लोग ही साधु हो सकते हैं जबकि हम तो सांसारिक मनुष्य हैं। हम यदि असत् या असाधु भी रहें तो क्या हर्ज है - ऐसी भावना भी मन में नहीं लानी चाहिए। स्वामीजी ने गृहस्थ एवं संन्यासी दोनों को अपने-अपने क्षेत्र में महान होने का उपदेश दिया है। किन्तु, हम गृहस्थों में से बहुत से लोग असत् या 'असाधु' (बेईमान) हैं- इसीलिए आज भी देश के अनगिनत देशवासीयों की इतनी दुर्दशा है।
उससे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे और न उसकी निन्दा ही करे। किसी तरह से उसे हानि भी पहुँचाने की चेष्टा न करे। (ऐसा साधु-युवा बन जाना ) केवल सन्यासियों का ही नहीं वरन सभी नर -नारियों का कर्त्तव्य है! " (२/३२६)
इस सत्य को नहीं जानने के कारण ही कुछ लोग सोचते हैं कि केवल संन्यासी लोग ही साधु हो सकते हैं जबकि हम तो सांसारिक मनुष्य हैं। हम यदि असत् या असाधु भी रहें तो क्या हर्ज है - ऐसी भावना भी मन में नहीं लानी चाहिए। स्वामीजी ने गृहस्थ एवं संन्यासी दोनों को अपने-अपने क्षेत्र में महान होने का उपदेश दिया है। किन्तु, हम गृहस्थों में से बहुत से लोग असत् या 'असाधु' (बेईमान) हैं- इसीलिए आज भी देश के अनगिनत देशवासीयों की इतनी दुर्दशा है।
चरित्र में ईमानदारी  के आभाव से जितनी क्षति दूसरों को होती है, उससे अधिक क्षति हमें स्वयं उठानी पड़ती है।  जो ईमानदार नहीं हैं उनको जीवन के अन्त में पराजय का मुख देखना पड़ता है। कुछ लोग तर्क देतें हैं कि बहुत सारे लोग तो  भ्रष्ट या बेईमान होकर भी  धन-दौलत का अम्बार खड़ा कर ले रहे हैं तथा पुरा जीवन सुख-भोग  में ही व्यतीत करते  हैं, वे लोग  अन्त में कहाँ कष्ट पाते हैं  ? हाँ, यह ठीक है कि उनको सुख-भोग प्राप्त हो जाता है, किन्तु, उसके साथ-साथ दुःखभोग   भी कम नहीं होता है। दुश्चिन्ता से  रातों कि नींद उड़ी रहती  है।   सर्वदा अनागत विपत्ति कि आशंका (निगरानी-विभाग) से मन भयभीत रहता है। ऊपर से  अनेकों तरह की बिमारियाँ उन्हें  जीवन सुख-शान्ति से वंचित  कर देती हैं। वहीँ जीवन के पूर्ण विकसित होने पर जो अनिवर्चनीय आनन्द  प्राप्त होता है, जीवन के जिस सौरभ से चारो दिशाएँ सुरभित हो उठतीं हैं- यह सब उनके जीवन में कभी घटित नहीं हो पाता। फिर जीवन का जो यथार्थ मूल्य  है- वह उन्हें कभी प्राप्त  नहीं हो पाता । यही सच्चाई है।
इसीलिए अपने जीवन को सार्थक करने के लिये ईमानदार होना अत्यंत आवश्यक है। बहुतों सारे लोगों में ऐसी धारणा है कि व्यापार एवं उद्दोग के क्षेत्र में तो 
 बेईमान बनना ही पड़ता है। यह  धारणा ठीक नहीं है। फोर्ड, कार्नेगी जैसे 
धनी-मानी उद्दोगपतियों ने  ईमानदारी को ही अपना मूल धन बताया था। और उनका परामर्श यही है कि यदि प्रचुर धन अर्जित करना चाहते हो तो व्यवसाय में ईमानदारी आवश्यक है। हमलोग सफलतम उद्दमियों के जीवन का गहराई से विश्लेष्ण नहीं करते, कुछ गलत उदाहरणों के आधार पर  ही कार्य-कारण का आविष्कार कर यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि धन अर्जित कर सुख-भोग करने के लिये  ईमानदारी को तिलांजली देना आवश्यक है। हो सकता है कि ईमानदारी से जीवन व्यतीत करने में  समय-समय पर कठिनाइयों का सामना करना पड़े किन्तु, 
 अगर ईमानदारी को  विसर्जित कर दिया जाय तो भविष्य में कष्ट भोगना ही 
पड़ेगा,  इसमे कुछ संदेह  नहीं है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " तुम चाहे 
हजारों समितियाँ गढ़ लो, चाहे बीस हजार राजनैतिक सम्मलेन करो, चाहे पचास 
हजार संस्थायें स्थापित करो, इसका कोई फल न होगा, जबतक तुम्हारे भीतर वह 
सहानुभूति, वह प्रेम न आयेगा जब तक तुम्हारे भीतर वह ह्रदय न आयेगा जो सबके लिये सोचता है। " (५/३१९)
२०." सत्यनिष्ठा " ( Truthfulness)
ईमानदार व्यक्ति को  सत्यनिष्ठ होना होना पड़ता है। यदि सत्य से प्रेम करना सीख लिया जाय तभी सत्यनिष्ठ बना जा सकता है।  किया जाता है ? किन्तु, सत्य अर्थात "ध्रुव-सत्य" है क्या वस्तु ? (जिसे देख लेने के बाद देवकुलिश अँधा हो गया था ?)  सत्य वह वस्तु है जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होता।  
पहले तो यही बात समझ में नहीं आती। इसीलिए कहना पड़ता है कि, " सत्य को  
जानना तो अत्यन्त कठिन है !" किन्तु, जो भारत माता से प्रेम करते हैं उनमें
 तो   यह कहने का साहस होना ही चाहिए कि, " हाँ, मैंने कठिनाई से प्रेम 
किया  है !" "सत्य के लिए  सबकुछ को छोड़ा जा सकता है, किन्तु किसी भी वस्तु
 के लिए 'सत्य' को नहीं  छोड़ा जा सकता।" क्योंकि सत्य से अधिक मूल्यवान 
अन्य कोई वस्तु नहीं है।  सत्य पर अटल रहने से सब कुछ प्राप्त हो सकता है, 
सत्य को छोड़ देने से सब  कुछ चला जाता है। इसीलिए श्री रामकृष्ण ने जब 'माँ
 भवतारिणी' को अपना सब  कुछ समर्पित कर दिया तथा अन्त में जब उनके पास केवल सत्य ही बचा रह गया तब कहा  था- " माँ सत्य को नहीं दे सकूँगा, वही दे दिया तो और क्या लेकर रहूँगा ? "
सत्य  दो प्रकार का होता है। एक है, वाचिक सत्य : जो घटना घटित हुई है, या जो  जानता हूँ उसी को सच- सच कह देना। दूसरा है -  अपनी 'सत्ता' (या सच्चे स्वरुप) को  सत्य के रूप में  जान लेना, या कहना। हमारे भीतर जो सत्य या वास्तविक सत्ता है, जो अजर-अमर-  अविनाशी है, (जिसको हम आत्मा या ब्रह्म कहते है) उसको भी  सत्य कहा जाता है। हम अपने दैनन्दिन जीवन में सत्य का पालन कर अपनी यथार्थ सत्ता  के निकट होते जाते हैं। तथा वैसा नहीं कर हम स्वयं ही अपनी यथार्थ  सत्ता या सत्य से दूर चले जाते हैं। वास्तविक सत्ता से दूर हट जाने पर  हमारे पास केवल एक मिथ्या आवरण (नाम-रूप का) ही बचा रह जाता है। इसीलिए श्री रामकृष्ण देव ने कहा था, 'सबकुछ दे सकता हूँ किन्तु, सत्य  को नहीं दे सकूँगा।' किसी भी वस्तु के लिए सत्य को नहीं छोड़ा जा सकता  क्योंकि सत्य से अधिक मूल्यवान कुछ भी नहीं  है। वही तो हमारी  सत्ता या 'अस्तित्व' है ! भला कोई अपने 'अस्तित्व' को  कैसे दे सकता है ? अब सोचिये, भला  किस वस्तु को पाने के लिए कोई व्यक्ति अपने 'अस्तित्व' को  खोना चाहेगा? इसीलिये उसी सत्य से दूर होने से बचने के लिए हमे अपने दैनन्दिन जीवन  में भी  सत्य का पालन करते रहना चाहिए। सत्यनिष्ठा का अर्थ है- उसी 'यथार्थ-सत्ता'  के प्रति निष्ठा तथा अपने दैनिक जीवन  में भी सत्य बोलना- कभी उससे दूर न होना।
{स्वामी विवेकानन्द कहते  है- " यह आत्मा ही ब्रह्म (सत्य) है, जो नाम-रूप कि उपाधि  (मिथ्या आवरण) के कारण अनेक प्रतीत हो रहे हैं। समुद्र की तरंगों की ओर  देखो; एक भी तरंग समुद्र से पृथक् नहीं है। फ़िर भी तरंगें समुद्र से पृथक् क्यों प्रतीत  होती हैं ?
 नाम और रूप के कारण- तरंग की आकृति और उसे हमने जो 'तरंग' नाम  दिया है, 
बस, इन दोनों ने उसे समुद्र से पृथक् कर दिया है। नाम-रूप के नष्ट हो जाने 
पर वह समुद्र की समुद्र ही रह जाती है। तरंग और  समुद्र के बीच भला कौन भेद कर सकता है ?
 अतएव यह समुदय जगत् एकस्वरूप है।  जो भी पार्थक्य दीखता है, वह सब नाम-रूप
 के ही कारण है। जिस प्रकार सूर्य  लाखों जलकणों पर पतिबिम्बित हो कर, 
प्रत्येक जलकण में अपनी एक सम्पूर्ण  प्रतिकृति सृष्ट कर देता है, उसी 
प्रकार वही एक आत्मा वही एक 'सत्ता'-  विभिन्न वस्तुओं में प्रतिबिम्बित 
होकर नाना रूपों में दिखाई पड़ती है। किन्तु  वास्तव में वह एक ही है। 
वास्तव में 'मैं' अथवा 'तुम' कुछ नहीं है (अर्थात  अलग-अलग नहीं है)- सब एक
 ही है। चाहे कह लो- ' सभी मैं हूँ ', या कह लो  -'सभी तुम हो'। यह द्वैत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है,
 और सारा जगत् इसी द्वैत  ज्ञान का फल है। जब विवेक के उदय होने पर मनुष्य 
देखता है कि दो वस्तुएँ  नहीं हैं, एक ही वस्तु है, तब उसे यह बोध होता है 
कि वह स्वयं यह अनन्त  ब्रह्माण्डस्वरूप है।" (वि० सा० ख० २: ३०) 
स्वामी
  विवेकानन्द आगे कहते हैं, " जिन्होंने सत्य को प्रत्यक्ष कर लिया है,  
उन्हें फिर सत्य को समझने के लिए न्याय-युक्ति, तर्क- वितर्क आदि बौद्धिक  
व्यायामों कि आवश्यकता नहीं रह जाती। उनके लिए तो 'सत्य' जीवन  का जीवन, प्रत्यक्ष से भी प्रत्यक्ष हो जाता है। वेदान्तियों कि भाषा में,  वह मानो उनके लिए हस्तामलकवत
 हो गया है। प्रत्यक्ष उपलब्धी करनेवाले लोग  निःसंकोच भाव से कह सकते 
हैं-' यही आत्मा है '। तुम उनके साथ कितना ही तर्क  क्यों न करो, वे 
तुम्हारी बात पर केवल हँसेंगे,वे उसे बच्चे की अंड-बंड  बकवास ही समझेंगे; 
और उन्हें बकने देंगे। उन्होंने सत्य का साक्षात्कार  किया और पूर्ण हो गये।" (वि० सा० ख० २:३९)
21.' विश्वसनीयता ' (Reliability)
 ईमानदार पर सभी लोग विश्वास करते हैं, क्योंकि वह किसी भी परिस्थिति में  सत्य का साथ  नहीं छोड़ता।  भला, इस तरह के व्यक्ति से अधिक विश्वास योग्य कौन हो सकता है ? इसी गुण को कहा जाता है- विश्वसनीयता। यथार्थ ईमानदार व्यक्ति कभी किसी का विश्वास भंग नही करता।  तो आखिर किस व्यक्ति को अविश्वासी या धोखेबाज समझा जाता है ? वैसे व्यक्ति को अविश्वासी समझा जाता है, जिसमें सत्य के प्रति कोई आकर्षण नहीं होता एवं वैसा  धोखेबाज मनुष्य  किसी के भी विश्वास को भंग  कर सकता है। किन्तु जो व्यक्ति  ईमानदार है, जो सत्यनिष्ठ है, वह कभी  धोखाधड़ी नहीं कर सकता। ऐसे ही मनुष्य को ' विश्वसनीय' कहा जाता है। 

 
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