१४.
' अविचलता ' (Poise) 
 "
  चरित्र के गुण " का तात्पर्य वैसे सद्गुणों से है  जिनके रहने पर ही   
चरित्र को प्रत्येक दृष्टि से  उन्नत कहा जा सकता है। जिसका चरित्र इन 
सद्गुणों से विभूषित हो गया  है, वही तो  ' यथार्थ मनुष्य' कहलाने के योग्य
 है।  मनुष्य शरीर में जन्म लेकर भी यदि  पशुओं जैसा जीवन व्यतीत कर ही जगत
 से विदा हो जाना पड़े, तो इससे अधिक दुःख  की बात और क्या हो सकती है ? जब 
 यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जाती है कि, चरित्र गठन का कार्य मैं केवल 
 दूसरों कि प्रशंसा पाने के लिए नहीं कर रहा हूँ बल्कि इसलिए कर रहा हूँ कि
  चरित्र गठन करने से ही वह कर्मकुशलता प्राप्त होती है जिससे जीवन के  हर 
क्षेत्र में सफलता पाई जा सकती है। तब हमारे अन्दर अपना चरित्र गढ़ लेने के लिए एक (Burning desire) ज्वलंत इच्छा  उत्पन्न हो जाती है।  इस
 प्रकार चरित्र गढ़ने का यथार्थ उद्देश्य जानकर अपने अन्दर चरित्र गठन की  
अदंम्य इच्छा उत्पन्न कर लेनी चाहिए। किन्तु, निरन्तर  प्रयासरत रहने के 
लिए  उद्यम (Initiative) भी होना चाहिये   एक वाक्य में कहें तो- ' चरित्र 
गठन करने के लिए पौरुष  चाहिए '। स्वामी विवेकानन्द कहते थे- " पौरुष ही 
मेरा नया सुसमाचार है "  (Manliness is my new Gospel!)  यही बात विवेक 
चूड़ामणि में आचार्य शंकर भी अत्यन्त सुंदर ढंग  से कहते हैं-
इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्ति स्वार्थे प्रमाद्यति |
दुर्लभम् मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषं ||
( इतः कः  नु अस्ति मूढात्मा  यः  तु स्वार्थे प्रमाद्यति,  दुर्लभं मानुषं  देहं प्राप्य तत्र अपि पौरुषम् ) दुर्लभम् मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषं ||
-अर्थात दुर्लभ मनुष्य देह और उसमें भी पुरुषत्वको पाकर जो स्वार्थ साधनमें प्रमाद करता है उससे अधिक और मूढ कौन होगा ....जो मनुष्य चरित्र निर्माण का कौशल सीखकर अपने को पशुमानव से देवमानव में रूपान्तरित करने की कोई चेष्टा नहीं करता वही तो सबसे अधिक मूर्ख या मोहित व्यक्ति है ! क्योंकि इस देवदुर्लभ मानव-शरीर, उसके भी उपर पौरुष- साहसिकता या यौवन का तेज प्राप्त करके भी जो व्यक्ति आलस्यवश स्वयं के यथार्थ स्वार्थ या सर्वोत्तम हित 'चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' की साधना की उपेक्षा करता है, उस व्यक्ति से बड़ा मूर्ख (मोहग्रस्त मनुष्य) कौन हो सकता है ?
इसी जन्म में "मनुष्यत्व" का उन्मेष कर लेना यथार्थ स्वार्थ है। मनुष्यत्व का उन्मेष कर लेने से मनुष्य अपने बनाने वाले को, अर्थात ब्रह्म को भी जान सकता है और ब्रह्म को जानकर स्वयं ब्रह्म बन सकता है। इस स्वार्थ को पुरा करना निन्दनीय नहीं है। क्योंकि 'मनुष्यत्व' का उन्मेष करने, अपने सच्चे स्वरुप को जान लेने से अथवा 'आत्मसाक्षात्कार' कर लेने से भेद-बुद्धि दूर हो जाती है। अपने-पराये का भेद मिट जाता है, वह व्यक्ति सभी को अपना ही समझने लगता है। अब, उसके लिए दूसरों की भलाई करना या परार्थ ही अपना अन्तिम स्वार्थ बन जाता है। ऐसा मनुष्य ही यथार्थ 'मनुष्य' है। किसी प्राचीन कवि ने बड़े ही सुंदर ढंग से कहा है-
 क्षुद्राः सन्ति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोन्मुखाः । 
 स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः ।।  
- अर्थात ऐसे क्षुद्र मनुष्य तो हजारों 
हैं, जो निरन्तर अपने भरण-पोषण को  लेकर ही व्यस्त रहते हैं, किन्तु जिस 
पुरूष के लिए दूसरों की भलाई करना; या  परार्थ ही एकमात्र स्वार्थ बन जाता 
है, वही सैंकड़ों में 'अग्रणी  मनुष्य' या मानव जाति का 'नेता' कहलाता है।  'क्या दूसरा मनुष्य अपना हित स्वयं नहीं जानता है ? ' ऐसा विचार करके दूसरों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। परोपकार करने (Be and Make) का कार्य करना ही चाहिए। देखो स्वामी विवेकानन्द जैसे मानव-जाति के नेता विदेशी लोगों को उपदेश देनेके लिए ही पाश्चात्य देशों में गये थे। परोपकारके कार्यमें कमर-कसना यही बड़प्पन है। कहा भी है- "जगत् में अपना कार्य करनेमें ही तत्पर रहनेवाले मनुष्य तो हजारों हैं, परन्तु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है, ऐसा सत्पुरुषोंमें अग्रणी पुरुष एकाध ही है। बड़वानल अपना दुर्भर पेट भरनेके लिए समुद्रका सदा पान करता है, क्योंकि वह क्षुद्र मनुष्यके समान स्वार्थी है। किन्तु मेघ ग्रीष्मकालकी उष्णतासे पीडित समस्त प्राणियों का संताप मिटानेके लिए समुद्रका पान करता है। मेघ परोपकारी है और बड़वानल स्वार्थी है। मुमुक्षु पुरुष अपने दुःखोंकों दूर करनेके लिए अधिक प्रयत्न नहीं करते, किन्तु दूसरोंके दुःखोंको देखकर अधिक दुःखी होते हैं। और इसलिए वे किसी भी प्रकारकी अपेक्षा न रखकर परोपकार करने में दृढ़ताके साथ सदा तत्पर रहते हैं।
यदि
  वैसा ही मनुष्य 'मानवजाति का सच्चा नेता' -  हम भी बनना चाहते हों, तो 
सर्वदा उसी लक्ष्य पर अपनी दृष्टि  रखनी होगी, अर्थात सर्वदा उसी लक्ष्य के
 प्रति सजग रहना  होगा। लक्ष्य के प्रति सर्वदा सतर्क दृष्टि रखने की 
चेष्टा करने के बावजूद  हमारे जीवन में कभी कभी कोई न कोई घटना ऐसी घटित हो  जाती है कि वह लक्ष्य ही  हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता  है। उसी
 घटना को लेकर मन इतना व्यस्त हो जाता है  कि, अपने सच्चे स्वरुप को जानकर 
हमें यथार्थ 'मनुष्य' बनना है- यह संकल्प ही मन से विलुप्त हो जाता है। कोई
  भारी समस्या, विपत्ति, दुःख या कोई सुखद घटना भी हमपर अपने लक्ष्य  को 
भूल जाने के लिए दबाव बना सकती है। किन्तु हम यदि  परिस्थितियों के दबाव 
में आकर  अपने लक्ष्य को ही भूल गए तो समझो सबकुछ चला  गया।  
श्री रामकृष्ण देव और स्वामी विवेकानन्द दोनों ही एक कहानी सुनाया करते थे। वर्णन शैली में थोड़ी भिन्नता के बावजूद भी मूल घटना में कोई अन्तर नहीं था।' इस कहानी को कहते समय ठाकुर (श्री रामकृष्ण) कहते थे कि बाघ का बच्चा भेड़ों के झुंड में मिल गया था, जबकि स्वामी विवेकानन्द बाघ के स्थान पर 'सिंह शिशु' की कहानी कहते थे।
खैर, जो भी हो नारद एक बहुत बड़े भक्त हैं। हमेशा नारायण ! नारायण ! का उच्चार करते रहते हैं। एक दिन नारायण के सामने जिद कर बैठे कि, " प्रभो, माया कैसी है, मैं देखना चाहता हूँ। " नारायण नारद को लेकर एक मरुस्थल कि ओर चले। बहुत दूर जाने के बाद नारायण ने नारद से कहा, " नारद, मुझे बड़ी प्यास लगी है। क्या कहीं से थोड़ा सा जल ला सकते हो ?" नारद बोले, " प्रभो, ठहरिये, मैं अभी जल लिए आया।"
यह कह कर नारद चले गए। कुछ दूर पर एक गाँव था, नारद वहीं जल कि खोज में गये। एक मकान में जा कर उन्होंने दरवाजा खटखटाया। द्वार खुला और एक परम सुन्दरी कन्या उनके सम्मुख आकर खड़ी हुई। उसे देखते ही नारद सब कुछ भूल गए। नारायण मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, वे प्यासे होंगे, हो सकता है, प्यास से उनके प्राण भी निकल जाएँ- ये सारी बातें नारद भूल गए। सब कुछ भूल कर वे उस कन्या के साथ बात-चीत करने लगे। उस दिन वे प्रभु के पास लौटे ही नहीं। दुसरे दिन वे फ़िर से उस लड़की के घर आ उपस्थित हुए और उससे बातचीत कने लगे।
धीरे धीरे बातचीत ने प्रणय का रूप धारण कर लिया। तब नारद उस कन्या के पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने कि अनुमति माँगने लगे। विवाह हो गया। नव दम्पति उसी गाँव में रहने लगे। धीरे धीरे उनके संतानें भी हुईं। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गये। इस बीच, नारद के ससुर मर गये और वे उनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हो गए। पुत्र-कलत्र, भूमि, पशु, सम्पत्ति, गृह आदि को लेकर नारद बड़े सुख-चैन से दिन बिताने लगे। कम से कम उन्हें तो यही लगने लगा कि वे बड़े सुखी हैं। इतने में उस देश में बाढ़ आई। रात के समय नदी दोनों कगारों को तोड़कर बहने लगी और सारा गाँव डूब गया। मकान गिरने लगे; मनुष्य और पशु बह बह कर डूबने लगे, नदी कि धार में सब कुछ बहने लगा। नारद को भी भागना पड़ा।
श्री रामकृष्ण देव और स्वामी विवेकानन्द दोनों ही एक कहानी सुनाया करते थे। वर्णन शैली में थोड़ी भिन्नता के बावजूद भी मूल घटना में कोई अन्तर नहीं था।' इस कहानी को कहते समय ठाकुर (श्री रामकृष्ण) कहते थे कि बाघ का बच्चा भेड़ों के झुंड में मिल गया था, जबकि स्वामी विवेकानन्द बाघ के स्थान पर 'सिंह शिशु' की कहानी कहते थे।
खैर, जो भी हो नारद एक बहुत बड़े भक्त हैं। हमेशा नारायण ! नारायण ! का उच्चार करते रहते हैं। एक दिन नारायण के सामने जिद कर बैठे कि, " प्रभो, माया कैसी है, मैं देखना चाहता हूँ। " नारायण नारद को लेकर एक मरुस्थल कि ओर चले। बहुत दूर जाने के बाद नारायण ने नारद से कहा, " नारद, मुझे बड़ी प्यास लगी है। क्या कहीं से थोड़ा सा जल ला सकते हो ?" नारद बोले, " प्रभो, ठहरिये, मैं अभी जल लिए आया।"
यह कह कर नारद चले गए। कुछ दूर पर एक गाँव था, नारद वहीं जल कि खोज में गये। एक मकान में जा कर उन्होंने दरवाजा खटखटाया। द्वार खुला और एक परम सुन्दरी कन्या उनके सम्मुख आकर खड़ी हुई। उसे देखते ही नारद सब कुछ भूल गए। नारायण मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, वे प्यासे होंगे, हो सकता है, प्यास से उनके प्राण भी निकल जाएँ- ये सारी बातें नारद भूल गए। सब कुछ भूल कर वे उस कन्या के साथ बात-चीत करने लगे। उस दिन वे प्रभु के पास लौटे ही नहीं। दुसरे दिन वे फ़िर से उस लड़की के घर आ उपस्थित हुए और उससे बातचीत कने लगे।
धीरे धीरे बातचीत ने प्रणय का रूप धारण कर लिया। तब नारद उस कन्या के पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने कि अनुमति माँगने लगे। विवाह हो गया। नव दम्पति उसी गाँव में रहने लगे। धीरे धीरे उनके संतानें भी हुईं। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गये। इस बीच, नारद के ससुर मर गये और वे उनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हो गए। पुत्र-कलत्र, भूमि, पशु, सम्पत्ति, गृह आदि को लेकर नारद बड़े सुख-चैन से दिन बिताने लगे। कम से कम उन्हें तो यही लगने लगा कि वे बड़े सुखी हैं। इतने में उस देश में बाढ़ आई। रात के समय नदी दोनों कगारों को तोड़कर बहने लगी और सारा गाँव डूब गया। मकान गिरने लगे; मनुष्य और पशु बह बह कर डूबने लगे, नदी कि धार में सब कुछ बहने लगा। नारद को भी भागना पड़ा।
एक
  हाथ में उन्होंने स्त्री को पकड़ा, दुसरे हाथ से दो बच्चों को, और एक बालक
  को कंधे पर बिठाकर वे उस भयंकर बाढ़ से बचने का प्रयत्न करने लगे। कुछ ही
  दूर जाने के बाद उन्हें लहरों का वेग अत्यन्त तीव्र प्रतीत होने लगा। 
कंधे  पर बैठे हुए शिशु कि नारद किसी प्रकार रक्षा न कर सके; वह गिरकर 
तरंगों में  बह गया। उसकी रक्षा करने के प्रयास में एक और बालक, जिसका हाथ 
वे पकड़े हुए  थे, गिरकर डूब गया। निराशा और दुःख से नारद आर्तनाद करने लगे। 
अपनी पत्नी को वे अपने शरीर की सारी शक्ति लगाकर पकड़े हुए थे, अन्त में तरंगों के वेग से पत्नी भी उनके हाथ से छुट गई; और वे स्वयं तट पर जा गिरे एवं मिट्टी में लोटपोट हो बड़े कातर स्वर से विलाप करने लगे।इसी समय मानो किसी ने उनकी पीठ पर कोमल हाथ रखा और कहा, " वत्स जल कहाँ है ? तुम जल लेने गए थे न, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में खड़ा हूँ। तुम्हें गए आधा घन्टा बीत चुका है। "
" आधा घन्टा !" नारद चिल्ला पड़े। उनके मन में तो बारह वर्ष बीत चुके थे, और आध घंटे के भीतर ही ये सब दृश्य उनके मन से होकर निकल गए ! और यही माया है ! नारद समझ गए थे।" (वि० सा० ख० २: ७५-७६)
ऐसी ही परिस्थितियां कई बार आ जातीं हैं, जब मनुष्य अपने जीवन का लक्ष्य, महान उद्देश्य सब कुछ भूल जाता है। चरित्र में जिस गुण के रहने पर यह नहीं होता, वह गुण है - ' अविचलता' (Poise)। एक बार विवेक-विचार कर हमने जिसे अपना जीवन लक्ष्य बना लिया उस पर हर हाल में अविचल दृष्टि रखनी होगी। अपने सूचिन्तित और निर्दिष्ट मार्ग पर चलते समय चाहे कैसी भी बाधा क्यों न आए मैं अपने लक्ष्य से विच्युत नहीं होऊंगा। मन की इसी दृढ़ता (या पौरुष) को अविचलता कहते हैं।
अपनी पत्नी को वे अपने शरीर की सारी शक्ति लगाकर पकड़े हुए थे, अन्त में तरंगों के वेग से पत्नी भी उनके हाथ से छुट गई; और वे स्वयं तट पर जा गिरे एवं मिट्टी में लोटपोट हो बड़े कातर स्वर से विलाप करने लगे।इसी समय मानो किसी ने उनकी पीठ पर कोमल हाथ रखा और कहा, " वत्स जल कहाँ है ? तुम जल लेने गए थे न, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में खड़ा हूँ। तुम्हें गए आधा घन्टा बीत चुका है। "
" आधा घन्टा !" नारद चिल्ला पड़े। उनके मन में तो बारह वर्ष बीत चुके थे, और आध घंटे के भीतर ही ये सब दृश्य उनके मन से होकर निकल गए ! और यही माया है ! नारद समझ गए थे।" (वि० सा० ख० २: ७५-७६)
ऐसी ही परिस्थितियां कई बार आ जातीं हैं, जब मनुष्य अपने जीवन का लक्ष्य, महान उद्देश्य सब कुछ भूल जाता है। चरित्र में जिस गुण के रहने पर यह नहीं होता, वह गुण है - ' अविचलता' (Poise)। एक बार विवेक-विचार कर हमने जिसे अपना जीवन लक्ष्य बना लिया उस पर हर हाल में अविचल दृष्टि रखनी होगी। अपने सूचिन्तित और निर्दिष्ट मार्ग पर चलते समय चाहे कैसी भी बाधा क्यों न आए मैं अपने लक्ष्य से विच्युत नहीं होऊंगा। मन की इसी दृढ़ता (या पौरुष) को अविचलता कहते हैं।
मानव-
  जीवन में समस्याएँ तो आती ही रहतीं हैं, ये समस्यायें कई प्रकार  की हो 
सकती हैं और  जब कभी भी  आ  सकतीं हैं। एक के बाद एक, निरन्तर केवल दुःख ही
 मिले ऐसा भले ही न होता हो किन्तु,  सुख-दुःख का घूम-फ़िर कर आना-जाना तो 
लगा ही रहेगा। पगडंडियों के  किनारे उगी हुई  कँटीली  झाड़ियों के समान ही  
जीवन-पथ पर भी लोभ सुख-भोग के प्रलोभन रूपी कँटीली झाड़ियाँ खड़ी रहती हैं। 
वे मानो  जीवन पथ पर आगे बढ़ रहे पथिकों के वस्त्रों को बड़े प्यार से 
खींचकर कहतीं  हों, " थोड़ा रुको, मुझसे दो बातें कर लो, मेरे शरीर पर  
काँटे अवश्य हैं,  किन्तु इसमें रंग-बिरंगे फूल भी खिलते हैं। भले ही मैं 
पूर्व-परिचित  सुगन्धयुक्त कोई नामी फूल न भी होऊँ किन्तु फ़िर भी रुक कर 
थोड़ी सी तारीफ़ तो कर  ही सकते हो। " परिणामस्वरूप कँटीली  झाड़ियों के इस 
नाटकीय आकर्षण ने हमारे मन को इतना आकर्षित कर लिया कि हम अपने लक्ष्य की 
प्राप्ति के  पथ पर बढ़ना छोड़ कर वहीं रुक गए, तथा काँटो से  छीलकर हांथों 
के क्षत-विक्षत होते रहने पर भी उस सौरभहीन किन्तु रंगीन  जंगली फूल के 
आकर्षण में ऐसे बंधे कि फिर अपने जीवन लक्ष्य  तक  पहुँच ही न सके । 
इसको ही कहते हैं- दृष्टि का 'विचलन', या लक्ष्य से दृष्टि का हट जाना। किन्तु अगर मेरी बुद्धि 'विवेक' के द्वारा संचालित होते हुऐ 'लुहार की नेहाई के समान- "कूटस्थ" बुद्धि बन चुकी हो अर्थात मेरे चरित्र में अविचलता (Poise) का गुण समाहित हो चुका हो, तो अपने पूर्व निर्दिष्ट जीवन पथ अग्रसर होते रहने से कोई भी वस्तु मुझे रोक नहीं सकती। जब तक मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक रुक ही नहीं सकता। क्योंकि मेरी दृष्टि, पथ के किनारे बिखरी हुई सभी रंगीन दृश्यों की उपेक्षा कर सदैव अविचल भाव से अपने लक्ष्य पर ही टिकी रहेगी। ऐसा होने पर ही यथार्थ मनुष्य बना जा सकता है, तभी जीवन में सफलता प्राप्त होती है, तभी चरित्र भी गठित हो पाता है। लक्ष्य के प्रति अविचलता का गुण, जीवन गठन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। चाहे सुख आए या दुःख- किसी भी परिस्थिति में लक्ष्य से विचलित न होना चरित्र का एक महान गुण है। यदि हम जीवन के अवश्यम्भावी घात-प्रतिघातों से विचलित हो गए तो लक्ष्य हमसे दूर ही रह जाएगा, फ़िर हम जीवन-लक्ष्य तक पहुँच भी नही पायेंगे। इसीलिए 'अविचलता' एक अति मूल्यवान गुण है।
 
इसको ही कहते हैं- दृष्टि का 'विचलन', या लक्ष्य से दृष्टि का हट जाना। किन्तु अगर मेरी बुद्धि 'विवेक' के द्वारा संचालित होते हुऐ 'लुहार की नेहाई के समान- "कूटस्थ" बुद्धि बन चुकी हो अर्थात मेरे चरित्र में अविचलता (Poise) का गुण समाहित हो चुका हो, तो अपने पूर्व निर्दिष्ट जीवन पथ अग्रसर होते रहने से कोई भी वस्तु मुझे रोक नहीं सकती। जब तक मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक रुक ही नहीं सकता। क्योंकि मेरी दृष्टि, पथ के किनारे बिखरी हुई सभी रंगीन दृश्यों की उपेक्षा कर सदैव अविचल भाव से अपने लक्ष्य पर ही टिकी रहेगी। ऐसा होने पर ही यथार्थ मनुष्य बना जा सकता है, तभी जीवन में सफलता प्राप्त होती है, तभी चरित्र भी गठित हो पाता है। लक्ष्य के प्रति अविचलता का गुण, जीवन गठन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। चाहे सुख आए या दुःख- किसी भी परिस्थिति में लक्ष्य से विचलित न होना चरित्र का एक महान गुण है। यदि हम जीवन के अवश्यम्भावी घात-प्रतिघातों से विचलित हो गए तो लक्ष्य हमसे दूर ही रह जाएगा, फ़िर हम जीवन-लक्ष्य तक पहुँच भी नही पायेंगे। इसीलिए 'अविचलता' एक अति मूल्यवान गुण है।
===================
१५.
' आत्मनिर्भरता' 
( Self- Reliance) : 
 {ब्रह्म को जान लेने के बाद या आत्मानुभूति कर लेने के बाद} मनुष्य का   चरित्र जब चट्टानी-दृढ़ता प्राप्त कर लेता  है, य़ा जब उसका जीवन पूर्णतया गठित हो जाता है तो 
 वह  स्व-निर्भर हो जाता है। इसीलिए स्वामीजी कहते थे, " यथार्थ शिक्षा 
प्राप्त  करने से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीख जाता है।" यहाँ अपने  पैरों पर खड़े होने का क्या अर्थ है ?  क्या केवल इतना ही कि पैरों के ऊपर अपने   शरीर का पूरा भार डाल कर खड़े हो जाना ?  नहीं, इसका सही अर्थ है -विवेकपूर्ण निर्णय  से अपने जीवन-लक्ष्य को निर्धारित कर उसी  दिशा में अग्रसर रखने का सामर्थ्य प्राप्त  कर लेना, जीवन को सार्थक बना लेने कि क्षमता प्राप्त कर लेना। 
मनुष्य जैसे-जैसे आत्म-निर्भर होता चला जाता  है, उसके दुःख-भोग की सम्भावना भी उतनी ही कम होती जाती है। हम जितना ही अधिक दूसरों पर निर्भर  रहेंगे, अपेक्षाएँ पूरी न होने पर  दुःख  पाने कि सम्भावना भी उतनी ही बनीं रहेगी। मनु महाराज ने बड़े ही सुन्दर ढंग से सुख और दुःख का लक्षण बताया है- 
" सर्वम्  परवशं दुःखम् सर्वम् आत्मवशं सुखम्। 
इति विद्यात् समासेन लक्षणम् सुखदुःखयोः ॥"
- अर्थात परवश या दूसरों पर निर्भर रहना ही समस्त दुखों का कारण है तथा आत्मा के वश  में रहना या आत्म-निर्भरता ही समस्त सुखों का मूल है। संक्षेप में सुख और  दुःख के लक्ष्ण भी यही हैं। 
जिस  व्यक्ति में, स्पष्ट-धारणा, सामान्य बुद्धि, अविचलता, धैर्य, 
आत्मसंयम,  सहनशीलता, उद्यम, अध्यवसाय, दृढ़ संकल्प, आदि सद्-गुण हों उसको  कभी भी परवश नहीं रहना पड़ता। इसीलिये उसके दुःखी होने के बजाय सुखी होने की आशा अधिक रहती है।  क्योंकि यही सब  गुण उसको आत्मनिर्भरता के गुण से भी अलंकृत कर  देते हैं।
 
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१६.
" आत्म-विश्वास "
(Self-Confidence)
" आत्म-विश्वास "
(Self-Confidence)
जो
  व्यक्ति आत्मनिर्भर हो कर जीवन-पथ पर चलना सीख लेता है उसके मन में  
स्वतः ही 'आत्मविश्वास' जागृत हो जाता है। (अर्थात वह स्वयं को केवल एक मरण-धर्मा शरीर नहीं बल्कि सर्वशक्ति शाली आत्मा द्वारा संचालित यंत्र समझता है।)  आत्मविश्वास का अर्थ है अपनी  
क्षमता, अपने सामर्थ्य में विश्वास या आस्था। आत्मविश्वासी व्यक्ति यह  जान  रहा होता है कि " मैं अपनी स्पष्ट-धारणा शक्ति से विवेक-विचार कर यदि किसी  कार्य को सम्पन्न करने का  संकल्प लूँ, तो उसे 
अवश्य पूरा कर  सकता हूँ।" इस प्रकार आत्मविश्वास का अर्थ हुआ, अपने-आप पर 
विश्वास। स्वामीजी  कहते थे- " पहले अपने-आप पर विश्वास, उसके बाद ईश्वर पर
 विश्वास। तुम यदि  तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं पर तथा बीच-बीच में घुसा दिए 
गए विदेशी देवताओं  के ऊपर भी विश्वास करो, पर यदि तुम्हे अपने-आप विश्वास 
नहीं हो, तो  तुम्हारी मुक्ति सम्भव नहीं ।" उनकी इस उक्ति से हम यह समझ 
सकते  हैं कि, स्वामीजी ' आत्मविश्वास ' को कितना महत्व देते  थे। उनमे  स्वयं अद्भुत 'आत्मविश्वास' था तभी तो उन्होंने  प्रतिकूलता के बीच रहते हुए भी पूरे विश्व को झकझोर कर रख दिया था ! 

 
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