About Me

My photo
Active worker of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal.

Thursday, June 14, 2012

"हरिजन का हुक्का पीया " [9]कहानियों में वेदान्त/

दो 
"हरिजन का हुक्का पीया " 
 स्वामी विवेकानन्द के जीवन में भी इसीप्रकार अचानक मोहनिद्रा टूटने का उदहारण मिलता है। 1886 ई0 में जब श्रीरामकृष्ण देव का शरीर छूट गया, तो नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द ) परिव्राजक के वेश में सम्पूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण करने निकले थे। वे भरत की आत्मा को नजदीक से देखना चाहते थे। 
एक दिन किसी गाँव के रस्ते से गुजर रहे थे; देखे कि कोई व्यक्ति हुक्का पी (या धूम्र पान कर ) रहा है। उन्होंने बहुत दिनों से हुक्का नहीं पीया था ; उस व्यक्ति को देखकर हुक्का पीने की तबियत ( मन या इच्छा ) हो गयी। उस व्यक्ति पास जाकर अपमे मन की बात बोले। वह व्यक्ति यहाँ-वहाँ देखने के बाद बोला- " आपको धुम्रपान कराने में मुझे कोई आपत्ति तो नहीं है, किन्तु मैं जात का मेहतर (अपमार्जक) हूँ, मैं अपना हुक्का आपको कैसे दे सकता हूँ ? "
यह बात सुनकर विवेकानन्द वापस जाने लगे। कुछ ही दूर जाने के बाद उनके मन में यह विचार
कौंधा- " ज्ञानी व्यक्ति भी क्या जाती-भेद देख सकता है ? जो शाश्वत चैतन्य सत्ता इस मेहतर के भीतर है, मेरे भीतर भी तो हूबहू वही चैतन्य है ! जाती-भेद शरीर के आधार पर किया जाता है, शरीर किस वंश में जन्मा है, उसके उपर निर्भर करता है। किन्तु आत्मा तो देह से निर्लिप्त (अलग-थलग) है, जिस आत्मा ने मेरे शरीर का चोला पहना है, उसी आत्मा ने इस मेहतर के शरीर का भी चोला पहना है। "
वे लौटे, और मेहतर के पास जाकर बैठ गये, उसकी कोई आपत्ति स्वीकार किये बिना-एक प्रकार से बलपूर्वक उसके हाथ से हुक्का छीन कर धुम्रपान करने लगे। थोड़ी देर तक बातचीत करने के बाद ही उन दोनों के बीच गहरी आत्मीयता हो गयी।
तीन 
" धूनी की अग्नि लेने पर तोतापूरीजी  की प्रतिक्रिया  "
श्रीरामकृष्ण के गुरु तोतापूरी के जीवन भी इसी प्रकार की एक घटना का उल्लेख है। श्रीरामकृष्ण तोतापूरीजी के द्वारा ही संन्यास-व्रत में दीक्षित हुए थे।
 
 एक दिन श्रीरामकृष्ण और वे दक्षिणेश्वर में पञ्चवटी के नीचे बैठे हुए थे। 
सामने से गंगा बहती चली जा रही थी। पूरीजी धूनी प्रज्वलित करके बैठे थे। धूनी के आमने-सामने दोनों बैठे हुए थे; वेदान्त की चर्चा चल रही थी। इसी समय एक व्यक्ति वहाँ आया। तम्बाकू सुलगाने के लिये उसने धूनी से एक लकड़ी खींच कर आग लेने की चेष्टा की। 
सन्यासी लोग धूनी की अग्नि को अत्यन्त पवित्र मानते हैं। इसीलिए जब वह व्यक्ति धूनी से उस प्रकार आग लेने की चेष्टा करने लगा तो पूरीजी बड़े क्रोधित हुए। चिमटा उठा कर उसके उपर प्रहार करने को उद्दत हो गये। यह देखकर श्रीरामकृष्ण की हँसी निकल गयी; उनकी हँसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। यह देख कर तोतापूरीजी अचम्भित होकर पूछे- " इतना हँस क्यों रहे हो ? " 
श्रीरामकृष्ण बोले- " यही आपका ब्रह्मज्ञान है ! क्या आप यह नहीं कहते, कि सबकुछ आत्मा है ? तब किसी व्यक्ति के द्वारा अग्नि छू जाने से धूनी के अपवित्र हो जाने का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है ? "
पूरीजी ने अपना हाथ नीचे कर लिया। उनकी मोहनिद्रा टूट गयी।
  विचार करने लगे, " बिल्कुल ठीक बात है, समस्त प्राणियों (चाहे कोई जीव-शरीर में हो या प्रेत-शरीर में हो ) में उस ब्रह्म के आलावा और तो कुछ भी नहीं है। क्रोध के वशीभूत हो जाने से ही भेदबुद्धि (थोड़ी देर के लिए विवेक मोहनिद्रा में सो गया था ?) आ गयी थी; और मैं क्या करने जा रहा था ! " 
श्रीरामकृष्ण के सामने तोतापूरीजी ने संकल्प लिया -" अब जीवन में कभी क्रोध नहीं करूँगा ! "   



No comments: