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Friday, October 28, 2011

' राष्ट्रीय एकता ' और स्वामी विवेकानन्द [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना]


( পুজ্য় শ্রীনবনীহরন মুখোপাধ্যায় লিখিত মহামন্ডল পুস্তিকা " জাতীয় সংহতি ও স্বামী বিবেকানন্দ " হিংদী  অনুবাদ )
हाल के दिनों से  ' राष्ट्रीय-एकता ' शब्द का व्यवहार होने लगा है। पहले बहुधा ' राष्ट्रीय-अखण्डता ' या  ' राष्ट्र निर्माण ' की बात होती थी। किन्तु राष्ट्र की साधारण जनता के बीच अनेको विभिन्नतायें रहने पर भी उनमें एकत्व का अनुसन्धान करना अथवा देश की सामान्य जनता में राष्ट्रीय एकता की चेतना को जाग्रत करना ही ' राष्ट्र-निर्माण ' का भी मूल उद्देश्य था। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " साधारण जनता ( जो अपने को ' We the people of India ' समझती है ) सारी शक्ति का आधार रहने पर भी उसने आपस में इतना भेद कर रखा है कि वह अपने सब अधिकारों से वंचित है, और जब तक ऐसा भाव रहेगा तब तक उसकी यही दशा रहेगी।" (९/२२२)
इसी आपसी मतभेद को कम करने के लिए इन दिनों राष्ट्रीय अखंडता 
' National Unity 'या  ' Nation Building ' कहने के बदले ' National Integration 'या ' राष्ट्रीय एकता ' कहा जाने लगा है। पुराने शब्दों के बदले इस नये शब्द का व्यवहार करने के पीछे लगता है कुछ तात्पर्य है. हो सकता है कि ' विविधता में एकता ' का बोध हमेशा बहुत कार्यकारी नहीं रही हो. किन्तु हाल के दिनों में पृथकता (विभिन्नता) को आधार बना कर
' राष्ट्र की एकता ' को कमजोर करने के लिये कुछ  'Centrifugal Forces  ' केन्द्रापसारी शक्तियों  को भारत में कार्यरत देखा जा रहा है.        
यह केन्द्रापसारी शक्ति राष्ट्र में विघटन (Disintegration) लाने का कार्य करती है इसीलिए जो शक्ति इस विघटन को रोकने का प्रयास करती है, उसे Integrating Force या एकीकरण की शक्ति कह कर इसका वर्णन करना जरुरी हो जाता है. वर्तमान समय में यह विषय और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है.
पहले यह समझने की चेष्टा की जाये कि भारतवर्ष में जाति या राष्ट्रीयता कहने से क्या समझा जाता है. छोटी छोटी जातियाँ आसानी से जातिराष्ट्र (Nation -State) के रूप में स्थापित हो सकतीं हैं. किन्तु भारतवर्ष की भौगोलिक सीमारेखा के भीतर किसी एक ही जाति (Race) का निवासस्थान कभी नहीं रहा था।
यहाँ बहुत प्राचीन जाति के लोग पीढ़ीयों से रहते थे, आर्य लोग थे, आर्यों के समाज में भी बहुत सी उपजातियाँ भी थीं, फिर बाहर के देशों से भी कई जातियों ने यहाँ शरण लिया और यहीं के हो कर रह गये. तथापि इस उप-महादेश में, इसके उत्तर-दिशा में उत्तुंग  हिमालय और बाकी तीन दिशाओं में समुद्र से घिरे इस भूखण्ड में बाह्यजगत के साथ अपर्याप्त सम्पर्क के बीच समस्त जातियों  में अनेक भाषा, अनेक अनुभाग, अनेको प्रकार का रहन-सहन, शारीरिक गठन में अनेकों विविधता रहने के वावजूद एक प्रकार का एक्य प्रतिष्ठित हुआ था. 
आखिर एकीकरण का वह रसायन क्या था ? इतनी विविधताओं के रहने पर भी, आखिर एकत्व का वह वास्तविक सूत्र क्या था, जिसने इतनी विविधताओं के रहने पर भी भारितीय जनसाधारण  को विभिन्न फूलों की माला के समान बाँधे रखा था ? वह सूत्र, वह पारद-रंजन रसायन था- इस देश का वेदान्ती -धर्म !
 " अति प्राचीन युग में एक महापुरुष प्रकट हुए और उन्होंने घोषित किया-
 ' एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ' अर्थात वास्तव में संसार में एक ही वस्तु (ईश्वर) है; ज्ञानी लोग उसी एक वस्तु का नाना रूपों में वर्णन करते हैं...ऐसा महान सत्य इसके पहले कभी आविष्कृत नहीं हुआ था. और यही महान सत्य हमारे हिन्दू राष्ट्र के राष्ट्रिय जीवन का मेरुदण्डस्वरुप हो गया है.
सैकड़ों सदियों तक इस तत्व-  ' एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ' का हमारे यहाँ प्रचार होते होते हमारा राष्ट्रिय जीवन उससे ओतप्रोत हो गया है. यह सत्य सिद्धान्त हमारे खून के साथ मिल गया है, हमलोग इस महान सत्य को बहुत पसन्द करते हैं, इसीसे हमारा देश धर्मसहिष्णुता का एक उज्जवल दृष्टान्त बन गया है !..समग्र संसार हमसे इस धर्मसहिष्णुता की शिक्षा ग्रहण करने के इन्तजार में बैठा हुआ है...आधुनिक सभ्यता के अन्दर यह भाव प्रवेश करने पर उसका विशेष कल्याण होगा. वास्तव में उस भाव का समावेश हुए बिना कोई भी सभ्यता स्थायी नहीं हो सकती।
जब तक धर्मोन्माद, खून-खराबी और पाशविक अत्याचारों का अन्त नहीं होता तब तक किसी सभ्यता का विकास ही नहीं हो सकता. जब तक हम लोग एक दूसरे के साथ सद्भाव रखना नहीं सीखते, तब तक कोई भी सभ्यता सिर नहीं उठा सकती !..हमारे धार्मिक भावों तथा विश्वासों में चाहे जितना ही अन्तर क्यों न हो, हमें परस्पर एक दूसरे की सहायता करनी होगी।
हमलोग भारतवर्ष में यही किया करते हैं, इसी भारतवर्ष में हिन्दुओं ने ईसाईयों के लिए गिर्जे और मुसलमानों के लिए मस्जिदें बनवायी हैं और अब भी बनवा रहे हैं...हम तब तक यह काम न बन्द करें ..जब तक हम संसार के सम्मुख यह प्रमाणित न कर दें कि घृणा और विद्वेष की अपेक्षा प्रेम के द्वारा ही राष्ट्रिय जीवन (एकता) स्थायी हो सकता है. केवल पशुता और शारीरिक शक्ति विजय नहीं प्राप्त कर सकती, क्षमा और नम्रता (निरहंकारीता) ही संसार-संग्राम में विजय दिला सकती है." (५/८३-84)   
 हमारे वैदिक - धर्म के भी वाह्य रूपों में अनेकों प्रकार की विविधताएँ  थीं, किन्तु उसके अन्तस्तल में एक महाऐक्य का महीन स्वर सदैव ध्वनित होता रहता था. इसीने हजारों-हजार वर्षों से भारतवर्ष को एकता के सूत्र में बाँधे रखा था. अन्य कोई भी वस्तु ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं थी. क्योंकि उस युग में,इस विराट देश में सामाजिक, राजनैतिक या राष्ट्रिय एकत्व की भावना को सर्वजन स्वीकृत होने का अवसर किसी भी समय प्राप्त नहीं हुआ था. धर्म के अलावा अन्य सभी दृष्टिकोण (भाषा,रंग-रूप, आचार-व्यवहार आदि की दृष्टि ) से यह देश अनेकों प्रकार से विभक्त था।
किन्तु समय के प्रवाह में, भिन्न भिन्न धर्म बाहरी देशों से आकर इस देश में अपना प्रचार और प्रभाव बढ़ाने में जुट गये, जिसके कारण प्राचीन धर्म के प्रभाव से जो राष्ट्रिय एकता गठित हुई थी, वह बंधन सूत्र धीरे धीरे ढीला पड़ने लगा। और जैसा कि सदैव होता आया है, किसी भी शक्तिहीन, ऐक्यहीन राष्ट्र को दूसरे किसी ऐक्य-बद्ध राष्ट्र के कदमों में झुक जाना पड़ता है। किन्तु भारतवर्ष में अपनी खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने की ईच्छा से, संभाव्य एकीकरण को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिये, कई प्रकार की कोशिशें होने लगीं।
इस शक्तिहीनता और एकत्व के आभाव का सारा दोष प्रचलित-धर्म (सनातन धर्म ) के मत्थे मढ़ कर, नूतन धर्म संस्थापन का आन्दोलन के साथ-साथ धर्म-रहित पन्थों का अनुसन्धान भी चलने लगा। अपनी प्राचीन जीवन्त धर्म-वृक्ष में  नये नये शाखा-पल्लव-मंजरी खिलाने के कार्य की उपेक्षा करके,यहाँ वहाँ से प्राणहीन धार्मिक भाव समूह को संकलन करने की चेष्टा में शुष्क- विदेशी फूलों की डालियों को रोपने की चेष्टा होने लगी।  विदेशी 'क्षद्म-धर्मनिरपेक्षता ' के आधार पर हमारी राष्ट्रिय-एकता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास जैसे-जैसे  किया जाने लगा, तो उन तथाकथित समाज-सुधार आंदोलनों से आहत होकर, हमने अपने प्राचीन जीवन्त धर्म की बुनियाद- 'विविधता में एकता ' को देखने की दृष्टि को ही दिया। और जब मनुष्य एक धर्म-भाव रहित 'क्षद्म-धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति'   बन जाता है, वह केवल एक 'सामाजिक-आर्थिक जन्तु ' मात्र बन कर रह जाता है। इसीलिये दीर्घ काल तक ऐसी बुद्धि से युक्त राजनैतिक राष्ट्रिय संगठनों द्वारा चलाये जाने वाले तथाकथित समाज-सुधार आन्दोलनों का अनुसरण करने पर भी राष्ट्रिय एकता को ठोस आधार नहीं प्राप्त हो सका है।
हमलोगों का प्रस्ताव यह है कि 'राष्ट्रिय-एकता ' जैसे महत्वपूर्ण प्रश्न  के समाधान के विषय में स्वामी विवेकानन्द का दृष्टि-कोण क्या था ?  उनके परामर्श पर ध्यान देने तथा उनका अनुसरण करने की थोड़ी चेष्टा करनी चाहिये। राष्ट्र, समाज या सभ्यता के विषय में स्वामी विवेकानन्द का मूल सूत्र इस प्रकार है- " মনে রাখিও, মানব সভ্যতার মূলে ধর্ম. ইহা যদি অক্ষত থাকে, তবে সমাজ দেহের সকল অঙ্গগুলিই সুস্থ ও শোভন থাকিবে." अर्थात - " स्मरण रखना, मानव-सभ्यता की नींव धर्म है. यह यदि अक्षत रहता है, तभी समाज-शरीर के समस्त अंग स्वस्थ और मर्यादित रहेंगे ! "
हमलोगों ने पहले ही देखा है, भारतीय जाति की राष्ट्रीय एकता का मूल धर्म था। इस ऐक्य का जन्म सामाजिक, राजनैतिक या राष्ट्रिय प्रयास के द्वारा (कड़े कानून बनाकर) नहीं हुआ था। किन्तु भारत में प्रशासनिक व्यवस्था के आधार पर बलपूर्वक या चालाकी द्वारा (धर्म-परिवर्तन कराकर) 'राष्ट्रिय-एकता ' को स्थापित करने का सूत्रपात मुग़ल काल या मुसलमानी सत्ता के दौरान हुआ था. 
किन्तु अंग्रेजों के शासन काल में राष्ट्रिय या 'प्रशासनिक-एकता' सुव्यवस्थित रूप धारण कर चुकी थी। और अंग्रेजों की ' फूट डालो और राज करो की नीति ' के अंतर्गत 'क्षद्म-धर्मनिरपेक्षता ' स्थापित हो चुकी थी।इसके फलस्वरूप भारतीय जातीय एकता का मूलाधार, धर्म नामक वस्तु थी, उसका क्रमशः पतन होने लगा. स्वामीजी ने कहा है- " মানুষের সততার উপর, ধর্মের উপর প্রতিষ্ঠিত না হইলে কোন প্রকার রাষ্ট্রীয় ব্যবস্থাই বেশি দিন টিকিয়া থাকিতে পারে না. "
- अर्थात " मनुष्य की पवित्रता के उपर, धर्म के उपर प्रतिष्ठित नहीं होने से किसी भी तरह की राष्ट्रिय व्यवस्था अधिक दिनों तक टिकाऊ नहीं हो सकती।"
 अतः स्वामी विवेकानन्द का सुझाव था कि भारत में किसी प्रकार का सुधार (जन लोकपाल बिल आदि) या उन्नति की चेष्टा (मनरेगा आदि) की चेष्टा करने के पहले धर्म-प्रचार (वेदान्त-प्रचार ' एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ' का प्रचार) करना आवश्यक है. भारत को समाजवादी अथवा राजनीतिक विचारों से प्लावित करने के पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाय.
" सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें इन सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकाल कर, मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर,  वनों की निर्जनता से खीँच कर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें- हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें. " (५/११६)    
" इसीलिए स्वामी विवेकानन्द का स्पष्ट विचार है- " हमारे पास एकमात्र सम्मिलन भूमि है, हमारी पवित्र परम्परा, हमारा धर्म. एकमात्र सामान्य आधार वही है, अतः धर्म को ही आधार बना कर, धर्म की बुनियाद पर ही हमें भविष्य के भारत का पुनर्निर्माण करना होगा. यूरोप में राजनितिक विचार ही राष्ट्रिय एकता का कारण है. किन्तु एशिया में राष्ट्रिय ऐक्य का आधार धर्म ही है, अतः नया भारत गढ़ने की पहली शर्त के तौर पर उसी धार्मिक एकता की आवश्यकता है. सम्पूर्ण देश में एक ही धर्म सबको स्वीकार करना होगा। एक ही धर्म - कहने से मेरा अभिप्राय क्या है ?  यह उस तरह का (हिन्दू-मुसलमान या ईसाई धर्म) लेबल वाला कोई एक ही धर्म (या साम्प्रदायिकता ) नहीं जिसका ईसाईयों, मुसलमानों या बौद्धों में प्रचार है। हम जानते हैं कि, भारत के विभिन्न सम्प्रदायों के सिद्धान्त तथा दावे- देखने में चाहे कितने भी अलग अलग क्यों न हों, हमारे धर्म में कुछ ऐसे सिद्धान्त ऐसे हैं जो सभी सम्प्रदायों द्वारा मान्य हैं...उनको स्वीकार करने पर हमारे ' राष्ट्रिय-धर्म ' में अद्भुत विविधता के लिए गुंजाइश हो जाति है, और साथ ही अपनी मान्यताओं को बनाये रखते हुए अपनी रूचि के अनुसार जीवन निर्वाह करने की हमें सम्पूर्ण स्वाधीनता भी प्राप्त हो जाति है. 
अपने धर्म के ये जीवनप्रद सामान्य तत्व हम सबके सामने लायें और देश के सभी स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, उन्हें जानें-समझें तथा जीवन में उतारें- यही हमारे लिए आवश्यक है. सर्वप्रथम यही हमारा कार्य है...हम देखते हैं कि भारत में जाति, भाषा, समाज सम्बन्धी सभी बाधाएँ- धर्म की इस एकीकरण शक्ति- " सर्वजन हित की प्रार्थना " 
- सर्वे भवन्तु सुखिनःसर्वे शन्तु निरामयाःसर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् शान्तिः शान्तिः शान्तिः|) 
के सामने उड़  जाती हैं. हम जानते हैं कि भारतीय मन के लिए (इस) धार्मिक आदर्श से बड़ा और कुछ भी नहीं है...पहले उस पथ को सुदृढ़ किये बिना, दूसरे मार्ग (क्षद्म-धर्मनिरपेक्षता या तुष्टिकरण की राजनीती, संसद -भवन में सामूहिक ' वन्दे-मातरम ' गान के समय बसपा के मुस्लिम सांसद द्वारा अपमान को बर्दास्त करने या आर्थिक- उदारीकरण,धार्मिक और जातीय आरक्षण  आदि ) के आधार पर भारत के नवनिर्माण की चेष्टा का फल घातक होगा.
अतः भविष्य के भारत निर्माण का पहला कार्य, वह पहला सोपान, जिसे युगों के उस महाचल पर खोद कर बनाना होगा, भारत की यह धार्मिक एकता ही है. उसी मूल एकत्व की ओर लक्ष्य रख कर अपने एवं राष्ट्रिय कल्याण के लिये ( द्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी, अद्वैतवादी अथवा शैव, वैष्णव, पाशुपत आदि भिन्न भिन्न मतों के होते हुए भी आपस में सर्वजन हित की कामना कर सकते हैं. ) परस्पर सभी प्रकार के मतभेद और छोटे-मोटे झगड़ों को मिटा देने का समय आ गया है. अनेको दिशाओं में विकीर्ण आध्यात्मिक शक्ति समूह के सम्मिलन द्वारा ही भारत में राष्ट्रिय एकता को स्थापित करना होगा. " (५/१८०-८१)
दूसरे जातियों की तुलना में भारतीय जाति का जो पार्थक्य है, उसकी ओर इशारा करते हुए स्वामीजी कहते हैं - " किसी भी दूसरे देश की अपेक्षा भारत की समस्याएँ अधिक जटिल और गुरुतर हैं. जाति, धर्म, भाषा, शासन-प्रणाली - ये ही एक साथ मिलकर किसी राष्ट्र का सृजन करते हैं. यदि एक जाति को लेकर हमारे राष्ट्र की तुलना की जाय तो हम देखेंगे कि जिन उपादानों से संसार के दूसरे राष्ट्र संगठित हुए हैं, वे संख्या में यहाँ के उपादानों से कम हैं. यहाँ आर्य हैं, द्रविड़ हैं, तातार हैं, तुर्क हैं, मुग़ल हैं, यूरोपीय हैं, - मानो संसार की सभी जातियाँ इस भूमि में अपना खून मिला रही हैं. भाषा का यहाँ एक विचित्र जमावड़ा है, आचार-व्यवहारों के सम्बन्ध में दो भारतीय जातियों में जितना अन्तर है, उतना पूर्वी और यूरोपीय जातियों में भी नहीं है." (५/१८०) 
इसी कारण इस जाति में एकत्व स्थापित करना ज्यादा कठिन है. कठिनतर होने के कारण ही इस एकत्व को स्थापित करने की चेष्टा की प्रणली दोष रहित होना आवश्यक है.एवं अनुकरण प्रिय यह जाति गम्भीरता से विचार किये बिना ही, अन्यान्य जातियों का दृष्टान्त अनुसरण करने से ही राष्ट्रिय एकता अनेकत्व की ओर ही बढ़ी है.
सभी को इन सब शास्त्रों में निहित उपदेश सुनाने होंगे, क्योंकि उपनिषदों में कहा है- ' आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो ' (बृहदारण्यक ४/५/६) " पहले इसे सुनना होगा, फिर मनन करना होगा और उसके बाद निदिध्यासन ". पहले लोग इन सत्यों को सुनें. और जो भी व्यक्ति अपने शास्त्र के इन महान सत्यों को दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचायेगा, वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान कोई दूसरा कर्म है ही नहीं.   
महर्षि व्यास ने कहा है, ' इस कलियुग में मनुष्यों के लिए एक ही कर्म शेष रह गया है. आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं से कोई फल नहीं होता. इस समय दान ही एकमात्र कर्म है.' और दानों में धर्मदान, अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है. दूसरा दान है विद्यादान, तीसरा प्राणदान और चौथा अन्नदान. 
इस दानशील देश में हमें पहले प्रकार के दान के लिए अर्थात आध्यातिक ज्ञान विस्तार ( या चरित्र-निर्माण शिविर) के लिए साहसपूर्वक ( बंगाल से बिहार-झारखंड, यूपी, दिल्ली, पंजाब, कश्मीर, लाहौर तक) अग्रसर होना होगा. और यह ज्ञान-विस्तार (3H आधारित चरित्र-निर्माण कारी शिविर ) भारतवर्ष की सीमा में ही आबद्ध नहीं रहेगा, इसका विस्तार तो सारे संसार भर में करना होगा...
मैं जो अमेरिका गया, वह मेरी या तुम्हारी इच्छा से नहीं हुआ, वरन भारत के भाग्य-विधाता भगवान (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव) ने मुझे अमेरिका भेजा, और वे ही इसी भाँति सैकड़ों मनुष्यों को अन्य सब देशों में भेजेंगे. इसे दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती. अतएव तुमको भारत के बाहर ( जाने से पहले अब सम्पूर्ण भारत में मनुष्य-निर्माण कारी शिविर लगाने होंगे ) भी धर्म-प्रचार के लिए जाना होगा...
इसीलिए, मेरे मित्रो, मेरा विचार है कि मैं भारत में ऐसे कुछ शिक्षालय स्थापित करूँ, जहाँ हमारे नवयुवक अपने शास्त्रों के ज्ञान में शिक्षित ( महामण्डल के लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षित ) होकर  भारत में तथा भारत के बाहर अपने धर्म ( (वेदान्त-प्रचार ' एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ' का प्रचार) का प्रचार कर सकें. 
मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिए. बाकी सबकुछ अपने आप ही हो जायगा. आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धा-सम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की. ऐसे सौ मिल जायें, तो संसार का कायाकल्प हो जायेगा. " (५/११६-१८)          
स्वामीजी ने स्पष्ट कहा है-  ' हमारे पास एकमात्र सम्मिलन भूमि है, हमारी पवित्र परम्परा, हमारा धर्म. एकमात्र सामान्य आधार वही है, और इसी बुनियाद पर हमारा राष्ट्रिय जीवन गठित करना होगा. यूरोप में राजनीतिक विचार ही राष्ट्रिय एकता का कारण है. किन्तु एशिया में राष्ट्रिय एकता आधार धर्म ही है. '  (५/१८०)
अत्यन्त तात्पर्यपूर्ण इस मूल विषय के बारे में कही गयी इस उक्ति का गहरा अर्थ है " समाज के जड़ तक पहुँच कर वहाँ आग लगा देना होगा, और यह देखना होगा कि वह आग ऊपर के स्तरों को भेद करते हुए समस्त कूड़ा-करकट को भष्मीभूत करने में सक्षम हो. सुधार करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुँचना होता है. इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ. आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः उपर उठने दो एवं एक अखंड भारतीय राष्ट्र संगठित करो. " (५/१११)  
पहले अनेकों भिन्नताएँ रहने पर भी राष्ट्रिय सांस्कृतिक एकता सुप्रतिष्ठित थी. राजनैतिक या राष्ट्रिय एकता का आभाव था. राष्ट्र के दुर्भाग्य और दूर्दशा के भीतर भी यह राजनैतिक या प्रशासनिक ऐक्य पर्याप्त रूप मेंमुसलमान और अंग्रेज शासन काल में सार्विक रूप से भारतियों ने प्राप्त किया था. समय के प्रवाह में धीरे धीरे विशाल भारत छोटा होने लगा, और अंग्रेजी शासन काल में ही राष्ट्र के रूप में यह देश जिस आकर में परिणत होकर स्वाधीनता प्राप्त करने के साथ ही साथ हिंसा, द्वेष, विरोध, कलह को आधार बना कर यह दो भागों में विभक्त हो गया. बाद में यह तीन टुकड़ों में बँट गया,परन्तु यह विघटनकारी शक्ति इस समय भी क्रियाशील है.इस समय भारत नाम से परिचित देश के जनसाधारण के भीतर भी हिंसा, कलह का अन्त नहीं हुआ है. धर्म को अनावश्यक मान कर राजनीती को प्रधानता प्रदान करके राष्ट्रिय एकता की स्थापना सम्भव नहीं हो सकी है, इस बात को सीद्ध करने के लिये किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है.
प्रजातंत्र के नाम पर राजनैतिक मतभेद या झगड़ा, दलगत स्वार्थ और व्यक्तिगत स्वार्थ ही धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का घटिया अभिदान या सहयोग बन कर खड़ा हो गया है. जिसके फलस्वरूप जनसाधारण या आमआदमी का दुःख-दूर्दशा दूर होना तो दूर की बात रही, इसमें बढ़ोत्तरी ही हुई है. इसीलिए इसके जड़ में आग लगाना अब अत्यंत आवश्यक हो गया है. इन समस्त कूड़ा-करकट को जला कर राख कर देना होगा. सभी प्रकार की विघटनकारी शक्तियों को भष्मीभूत कर देना होगा.
एक ओर है धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का स्वार्थ, लोभ, अपहरण, शोषण, कलह, हिंसा, नाम-यश-प्रतिष्ठा पाने का मोह, नितिहिनता या भ्रष्टाचार और दूसरी ओर है, धर्म के नाम पर अंध-विश्वास, कूप्रथा, कूसंस्कार, सामाजिक अत्याचार, घृणा और समस्त भेदबुद्धि को जड़ से ही मिटा देना होगा. तभी यथार्थ राष्ट्रिय एकता को प्रतिष्ठित करना सम्भव होगा. 
स्वामीजी कहते हैं- " यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्जवल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की, शक्ति-संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की. अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गयी - ' संगच्छ्ध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम ' जिसमें कहा गया है, तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ, क्योंकि प्राचीन काल में एक मन होने के कारण ही देवताओं ने बली पायी है.
देवता मनुष्य के द्वारा इसीलिए पूजे गये कि वे एकचित्त थे, एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है. और यदि तुम ' बैकवर्ड ' और 'फारवर्ड ', हिन्दू-मुसलमान जैसे तुच्छ विषयों को लेकर ' तू तू मैं मैं ' करोगे, झगड़े और पारस्परिक विरोधभाव को बढाओगे- तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है. ..बस, इच्छा-शक्ति का संचय और और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही वह सारा रहस्य है. " (५/१९२)     
एक अन्तःकरण विशिष्ट हो जाना, एकचित्त बन जाना, ईच्छाशक्ति समूह का एकत्र सम्मिलन राजनीती या लोकसभा में बिल पास करा देने से सीद्ध नहीं होता. हमलोग स्वाधीन देश बन जाने के बाद से धर्मनिरपेक्षता के नाम पर केवल यही प्रयास कर रहे हैं, इसीलिए राष्टीय एकता अभी तक हकीकत न बनकर केवल एक  वादविवाद का विषय बना हुआ है. एकमात्र धर्म के पथ से ही यह आतंरिक एकता स्थापित हो सकती है एवं यही एक मात्र उपाय है.
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " भारत के पतन और दारिद्र्य-दुःख का प्रधान कारण यह है कि..उसने अपना कार्यक्षेत्र संकुचित कर लिया था तथा आर्येतर दूसरी मानव जातियों के लिए, जिन्हें सत्य की तृष्णा थी, अपने जीवनप्रद सत्य-रत्नों का भण्डार नहीं खोला था. हमारे पतन का एक और प्रधान कारण यह भी है कि हमलोगों ने बाहर जाकर दूसरे राष्ट्रों से अपनी तुलना नहीं की; और तुम लोग जानते हो, जिस दिन से राजा राममोहन राय ने संकीर्णता की वह दीवार तोड़ी, उसी दिन से भारत में थोड़ा सा जीवन दिखायी देने लगा, जिसे तुम आज देख रहे हो. " (५/२१०)   
राममोहन के समय में जिस नये भारत का विचार दिखाई दिया था, उस विचार के पुरोधाओं की दृष्टि केवल समाज के ऊपर के स्तर पर रहने वाले लोगों के लिये थी. ' राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है '- यह बात सर्व प्रथम स्वामीजी के विचारों में ही प्राप्त होता है. [ " रामनाड़ के महाराज ! अपने धर्म और मातृभूमि के लिए पाश्चात्य देशों में इस नगण्य व्यक्ति के द्वारा यदि कोई कार्य हुआ है, अपने ही घर में अज्ञात किन्तु गुप्तरूप से परिरक्षित अमूल्य रत्नसमूह के प्रति अपने देशवासियों में कुछ कौतुहल और उन्हें प्राप्त करने का आग्रह यदि जाग्रत हुआ है, अज्ञानरुपी अन्धेपन के कारण प्यासे मरने अथवा दूसरी जगह के गन्दे गड्ढे का पानी पीने की अपेक्षा यदि अपने घर के निकट से बहनेवाले झरने के निर्मल जल को पीने के लिए यदि वे आकृष्ट हुए हैं,..मेरे इस दिशा में ओ कुछ कार्य सम्पन्न हुआ है, तो उसका सारा श्रेय आपको जाता है. क्योंकि आपने ही पहले मेरे ह्रदय में ये भाव भरे. "  (५/४३)  
स्वामीजी क्षोभ प्रकट करते हुए कहते हैं- " यह जाति डूब रही है, लाखों प्राणियों का शाप हमारे सिर पर है, अमृत नदी (वेदान्त) के समीप रहने पर भी, प्यास लगने पर हमने जिन्हें गन्दे गड्ढे का पानी पीने (धर्मपरिवर्तन करके ईसाई,मुसलमान या बौद्ध बन जाने ) को मजबूर किया, उन अगणित लाखों मनुष्यों का, जिनके सामने भोजन का भण्डार रहते हुए भी जिन्हें हमने भूखों मार डाला, जिन्हें हमने अद्वैवाद का तत्व सुनाया और जिनसे हमने तीव्र घृणा की, जिनके विरोध में हमने लोकाचार का आविष्कार किया, जिनसे ज़बानी तो यह कहा कि सब बराबर हैं, सभी मनुष्य एक ही ब्रह्म का विकास हैं, परन्तु इस उक्ति को काम में लाने का तिल मात्र भी प्रयत्न नहीं किया..अपने चरित्र से यह दाग़ मिटा दो. उठो, जागो, और सम्पूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ. भारत में घोर कपट समा गया है. चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल जिससे मनुष्य आजीवन दृढव्रत बन सके. 
निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मिः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम |
अद्यैव वा मरणंस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ||
' नीतिनिपुण मनुष्य चाहे निन्दा करें चाहे स्तुति, लक्ष्मी आये या चली जाय, मृत्यु आज ही हो चाहे शताब्दी के पश्चात्, जो धीर हैं वे न्यायमार्ग से एक पग भी नहीं हिलते.' उठो, जागो, समय बीता जा रहा है और व्यर्थ के वितंडावाद में हमारी सम्पूर्ण शक्ति का क्षय होता जा रहा है. उठो, जागो, छोटे छोटे विषयों और मत-मतान्तरों को लेकर व्यर्थ का विवाद मत करो. तुम्हारे सामने सबसे महान कार्य पड़ा हुआ है- लाखों आदमी डूब रहे हैं, उनका उद्धार करो.
  इस बात पर अच्छी तरह ध्यान दो कि मुसलमान जब भारत में पहले पहल आये थे, तब भारत में कितने अधिक हिन्दू रहते थे. आज उनकी संख्या कितनी घट गयी है. इसका कोई प्रतिकार हुए बिना यह दिन दिन और घटती जायगी; अन्ततः वे पूर्ण विलुप्त हो जायेंगे...अब तक वे जिन जिन महान भावों के प्रतिनिधि स्वरुप हैं, वे भी लुप्त हो जायेंगे. और उनके लोप के साथ साथ सारे आध्यात्म ज्ञान का शिरोभूषण अपूर्व अद्वैत तत्व भी लुप्त हो जायेगा. अतएव उठो, जागो, संसार की आध्यात्मिकता की रक्षा के लिए हाथ बढाओ...
हमारे दो दोष बड़े ही प्रबल हैं; पहला दोष हमारी दुर्बलता है, दूसरा है घृणा करना, हृदयहीनता. तुम लाखों मत-मतान्तरों की बात कह सकते हो, करोड़ों संप्रदाय संगठित कर सकते हो, परन्तु जब तक उनके दुःख का अपने ह्रदय में अनुभव नहीं करते, वैदिक उपदेशों (विशिष्टाद्वैत) के अनुसार जब तक स्वयं नहीं समझते कि वे तुम्हारे ही शरीर के अंश हैं, जब तक तुम और वे - धनी और दरिद्र, साधु और असाधु सभी उसी एक अनन्त पूर्ण के जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश नहीं हो जाते, तब तक कुछ न होगा. " (५/३२१-२२)
" ' नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ' (कठ१/२/२३) 
' आत्मा ज्यादा बातें बनाने से प्राप्त नहीं होती, न वह अत्यन्त बुद्धिमत्ता से ही सुलभ होती है और न वह वेदों के पठन से ही मिल सकती है.' वेद स्वयं यह चेतावनी देते हैं. क्या तुम किसी अन्य शास्त्रों में इस प्रकार की निर्भीक वाणी पाते हो कि शास्त्र-पाठ द्वारा भी आत्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती?..तुम्हारे लिए हृदय को मुक्त करना आवश्यक है. धर्म का अर्थ न गिरजे में जाना है, न ललाट रंगना है, न विचित्र ढंग का भेष धारण करना है...धर्म वही है, जो हमें उस अक्षर पुरुष का साक्षात्कार कराता है, और हर एक के लिए धर्म यही है. जिसने इस इन्द्रियातीत सत्ता का साक्षात्कार कर लिया, जिसने आत्मसाक्षात्कार कर लिया, जिसने भगवान को प्रत्यक्ष देखा- फिर हर मनुष्य (वस्तु) में देखा, वही ऋषि हो गया. 
 और तब तक तुम्हारा जीवन धर्मजीवन नहीं, जब तक तुम ऋषि नहीं हो जाते. हमें इस ऋषित्व का लाभ करना होगा, मन्त्रद्रष्टा होना होगा, ईश्वर का साक्षात्कार करना होगा...प्राचीन भारत में सैकड़ों ऋषि थे, और अब हमारे बीच लाखों होंगे-निश्चय ही होंगे. इस बात पर तुममें से हर एक जितनी जल्दी विश्वास करेगा, भारत का और समग्र संसार का उतना ही अधिक हित होगा. तुम जो कुछ विश्वास करोगे, तुम वही हो जाओगे. " (५/१७६-७७) ]   
" आधुनिक विज्ञान के लोहे के मुद्गरों की चोट खाकर द्वैतात्मक धर्मों की मजबूत दीवार चूर चूर हो रही है...ये द्वैतवादी सम्प्रदाय आत्मरक्षा के लिए अँधेरे के किसी कोने में छिपने की चेष्टा कर रहे हैं; यूरोप और अमेरिका में तो यह प्रयत्न और भी ज्यादा है.
पश्चिमी देशों में एक नया ढंग - पारस्परिक प्रतियोगिता और कांचन की पूजा के रूप में शैतान की पूजा प्रवर्तित हुई है. कोई भी राष्ट्र, ऐसी बुनियाद पर कभी टिक नहीं सकता...भारत में कांचन-पूजा की यह तरंग न आ सके, उसकी ओर पहले से ही नजर रखनी होगी. अतएव सबमें यह अद्वैतवाद प्रचारित करो, जिससे धर्म आधुनिक विज्ञान के प्रबल आघातों से भी अक्षत बना रहे...इसके लिए व्यवहारिक कार्य की आवश्यकता है; उसका प्रथम सोपान यह है कि घोर से घोरतम दारिद्र्य और अज्ञान-तिमिर में डूबे हुए साधारण लाखों भारतियों की उन्नति-साधना के लिए उनके समीप जाओ. और उनको अपने हाथ का सहारा दो." (५/३२३) 
 हम अज्ञान के ही कारण बँधे हुए हैं. ज्ञान से अज्ञान दूर होगा, यही ज्ञान हमें उस पार ले जायगा. तो इस ज्ञान-प्राप्ति का उपाय क्या है ? - प्रेम और भक्ति से, इश्वाराधन द्वारा और सर्वभूतों को परमात्मा का मन्दिर (देहो देवालय प्रोक्तः) समझ कर प्रेम करने से ज्ञान होता है...हमारे शास्त्रों में परमात्मा के दो रूप कहे गये हैं- सगुण और निर्गुण. सगुण ईश्वर के अर्थ से वह सर्वव्यापी है, संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय का करता है, ..उसके साथ हमारा नित्य भेद है और मुक्ति का अर्थ - उसके सामीप्य और सालोक्य की प्राप्ति. सगुण ब्रह्म के ये सब विशेषण निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में अनावश्यक और अतार्किक मान कर त्याग दिए गये हैं...वेदों में उसके लिए ' सः ' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया; ' सः ' शब्द के द्वारा निर्देश न करके निर्गुण भाव समझाने के लिए ' तत ' शब्द के द्वारा उसका निर्देश किया गया है. ' सः ' शब्द के कहे जाने से वह व्यक्तिविशेष ( राम, कृष्ण. बुद्ध, ईसा, मूसा ) हो जाता, इससे जिव-जगत के साथ उसका सम्पूर्ण पार्थक्य सूचित हो जाता है. इसीलिए निर्गुणवाचक ' तत ' शब्द का प्रयोग किया गया है और ' तत ' शब्द से निर्गुण ब्रह्म का प्रचार हुआ है. इसीको अद्वैतवाद कहते हैं.
इस निर्गुण पुरुष के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है ? यह कि हम उससे अभिन्न हैं, वह और हम एक हैं. हर एक मनुष्य  उसी सब प्राणियों के मूल कारण रूप निर्गुण पुरुष (ब्रह्म -अल्ला या गौड )  की अलग अलग अभिव्यक्ति है. जब हम इस अनन्त और निर्गुण पुरुष से अपने को पृथक सोचते हैं तभी हमारे दुःख की उत्पत्ति होती है और इस अनिर्वचनीय (प्रेमस्वरूप ठाकुर) की निर्गुण सत्ता के साथ अभेद ज्ञान ही मुक्ति है.
यहाँ यह कहना आवश्यक है कि निर्गुण ब्रह्मवाद की भावना के माध्यम से ही किसी प्रकार के आचरण-शास्त्र के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जा सकता है.
अति प्राचीन काल से ही प्रत्येक धर्म में यह सत्य प्रचारित किया गया है कि  अपने सह-जीवों को अपने समान प्यार करो, सभी मनुष्यों को आत्मवत प्यार करना चाहिए...भारत में उपदेश दिया गया- 'आत्मवत सर्वभूतेषु ' सभी को आत्मवत प्यार करने का उपदेश दिया गया है, परन्तु अन्य प्राणियों को भी आत्मवत प्यार करने से क्यों कल्याण होगा, इसका कारण किसी ने नहीं बताया. एकमात्र निर्गुण ब्रह्मवाद (अद्वैतवाद) ही इसका कारण बतलाने में समर्थ है. 
यह तुम तभी समझोगे, जब तुम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकात्मकता, विश्व की एकता और जीवन के अखण्डत्व का अनुभव करोगे- जब तुम समझोगे कि दूसरे को प्यार करना अपने ही को प्यार करना है- दूसरों को हानी पहुँचाना अपनी ही हानी करना है. तभी हम समझेंगे कि दूसरों का अहित करना (भ्रष्टाचार करना) क्यों अनुचित है. अतएव, यह निर्गुण ब्रह्मवाद ही आचरण-शास्त्र का मूल कारण मन जा सकता है...मैं अच्छी तरह समझता हूँ कि सगुण ब्रह्म पर विश्वास हो तो ह्रदय में कैसा अपूर्व प्रेम उमड़ता है..परन्तु हमारे देश में अब रोने का समय नहीं है, कुछ वीरता की आवश्यकता है.
इस निर्गुण ब्रह्म पर विश्वास कर सब प्रकार के कुसंस्कारों से मुक्त हो ' मैं ही वह निर्गुण ब्रह्म हूँ '- इस ज्ञान के सहारे अपने ही पैरों पर खड़े होने से हृदय में कैसी अद्भुत शक्ति भर जाती है...मनुष्य तब अपनी उस आत्मा की महिमा में प्रतिष्ठित हो जाता है, जो असीम अनन्त है, अविनाशी है, जिसे कोई शस्त्र छेद नहीं सकता, आग जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता, वायु सुखा नहीं सकती.(गीता २/२३)
हमें इसी महामहिम आत्मा पर विश्वास करना होगा, इसी इच्छा से शक्ति प्राप्त होगी. तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे;..यदि तुम अपने को अपवित्र सोचोगे तो तुम अपवित्र हो जाओगे; अपने को शुद्ध सोचोगे तो शुद्ध हो जाओगे...निर्गुण ब्रह्मवाद से हमें यही शिक्षा मिलती है. बिल्कुल बचपन से ही बच्चों को बलवान बनाओ- उन्हें दुर्बलता अथवा किसी बाहरी अनुष्ठान की शिक्षा न दी जाय. वे तेजस्वी हों, अपने ही पैरों पर खड़े हो सकें- साहसी, सर्वविजयी, सब कुछ सहने वाले हों; परन्तु सबसे पहले उन्हें आत्मा की महिमा शिक्षा मिलनी चाहिए. यह शिक्षा वेदान्त में -केवल वेदान्त में प्राप्त होगी. " (५/२८-३०)                      
  " हमारे समाज सुधारक लोग खोज नहीं पा रहे हैं कि भूल कहाँ है. वे नहीं जानते कि जाति का भविष्य जनसाधारण की अवस्था के उपर निर्भर करता है. याद रहना चाहिए कि गरीबों की झोपड़ियों में ही हमारा राष्ट्रिय जीवन स्पंदित हो रहा है. झोपड़ियों में रहने वाले वे सच्ची जाति हैं, उनका व्यक्तित्व और मनुष्यत्व खो गया है. " इसीलिए स्वामीजी का प्रस्ताव है इस यथार्थ जाति के भीतर इनका खोया हुआ व्यक्तित्व और मनुष्यत्व  पुनः प्रतिष्ठित करा देना होगा." जातीय संस्कृति का वैशिष्ठ अक्षुण रखते हुए भारतीय समाज का पुष्टि साधन, क्रमोनत्ति और सम्प्रासन ही हमारा लक्ष्य है. ..इसीलिए मनुष्य को पहले अपना वर्तमान स्तर से संतर्पण में एक सोपान उन्नत करना प्रयोजनीय है. " 
साधारण व्यक्ति का व्यक्तित्व और मनुष्यत्व के साँचे में धर्म ही ढाल सकता है. स्वामीजी कहते हैं- धर्म का अर्थ है चरित्र. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- ' धर्म का अर्थ है अच्छा बनना और अच्छा करना.' साधारण मनुष्य जब तक चरित्रवान नहीं बन जाता, अच्छा नहीं बन जाता, अच्छा करने की क्षमता अर्जित नहीं कर लेता, जातीयता का बोध नहीं उत्पन्न हो सकता. सबों के भीतर राष्ट्रीयता का बोध उत्पन्न न होने से राष्ट्रिय एकता भी सम्भव नहीं है. धर्म के ताप से इस प्रकार के साँचे में ढला मनुष्य यह उपलब्धी कर सकता है और कह सकता है- " गर्व से बोलो कि मैं भारतवासी हूँ, और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है...भारतवासी मेरे प्राण हैं, .. भारत की मिटटी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है." 
इस उपलब्धी के द्वारा ही जनसमुदाय यथार्थ एकता बद्ध हो सकते हैं. समस्त जाति का व्यक्तित्व संयुक्त होकर एक जातीय सत्ता या व्यक्तित्व का रूप धारण करती है. इटली के क्रांतिकारी और विचारक-नेता मैजिनी (Mazzini, 1805-72 ) ने कहा था - 
 " Nationality is the personality of peoples. " 
स्वामीजी इस रूप में राष्ट्रिय व्यक्तित्व (Personality) में विश्वास करते थे. स्वामीजी की दृष्टि में यह व्यक्तित्व एक आध्यात्मिक सत्ता थी. इसीलिए वे सिंह नाद की वाणी में कहतेहैं- " मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया कि छाया (प्रतिबिम्ब) मात्र है. " उनकी वाणी और भी स्पष्ट हो उठती है, " आगामी पचास वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारत माता ही मानो हमारी अराध्य देवी बन जाय. तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानी नहीं है. अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, तुम्हारी स्वजाति (nation) -हमारा देश ही हमारा जाग्रत देवता है. सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं. समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं, जिन व्यर्थ के देवी-देवताओं को हम देख नहीं पाते, उनके पीछे तो हम बेकार दौड़ें और जिस विराट देवता को हम अपने चारों ओर देख रहे हैं, उसकी पूजा (सेवा) ही न करें ? " (५/१९३) 
 " सबके समक्ष अपने धर्म (चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माण कारी शिक्षा ) के महान सत्यों (3H निर्माण ) का प्रचार करो, संसार इनकी प्रतीक्षा कर रहा है. संसार भर में सर्वत्र जनसाधारण को (हिप्नोटाइज किया गया है ), उनसे कहा गया है कि तुम लोग मनुष्य ही नहीं हो. शताब्दियों से इस प्रकार डराये जाने के कारण वे बेचारे सचमुच ही करीब करीब पशुत्व को प्राप्त हो गये हैं. 
उन्हें कभी आत्मतत्व के विषय में सुनने का मौका नहीं दिया गया. अब उनको आत्मतत्व सुनने दो, यह जान लेने दो कि उनमें से नीच से नीच (भ्रष्टाचारी, कालाधन विदेशों में जमा करने वालों या कसाब जैसे आतंकवादियों) में भी आत्मा विद्यमान है- वह आत्मा, जो न कभी मरती है, न जन्म लेती है, जिसे न तलवार काट सकती है न आग जला सकती है और न हवा सुखा सकती है, जो अमर है, अनादी और अनन्त है, जो शुद्धस्वरूप, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है. उन्हें अपने आप के ऊपर विश्वास करने दो. " (५/११८-१९)]  
जाति उनकी दृष्टि में क्या अपूर्व महनीय प्राणवन्त रूप धारण कर लेता है. एकमात्र यथार्थ धर्म के प्रभाव से आत्मविकास घटित होने पर ही जाति के व्यक्ति मनुष्य को जो आत्मरक्षा में व्यस्त हैं, स्वार्थ सिद्धि में मत्त प्रातियोगिता में व्यप्रित पृथक पृथक सत्ता के रूप में न देख कर, समग्र जाति को एक अखण्ड सत्ता, जिनके सहस्त्र शीर्ष, सहस्राक्ष हैं, सहस्रपत, सह्स्र्पनी, पुरुष के जैसा समस्त भूमि को व्यापे हुए हैं ऐसा कह कर देखा जा सकता है. जिस जाति में ऐसी दृष्टिसंपन्न मनुष्यों की संख्या धर्म बल से अधिकाधिक बढती जाति है, वहीँ पर यथार्थ राष्ट्रिय एकता संभव है, अन्यत्र या अन्य किसी प्रकार से यह कभी सम्भव नहीं है. 
स्वामीजी की राष्ट्रिय-एकता सम्बन्धी इस प्रस्ताव (या विचारधारा ) का एक वैशिष्ट यह भी है कि, जहाँ राष्ट्रिय एकता स्थापित करने के लिये, इसका प्रयोग करना सम्भव और प्रयोजनीय है, वहीँ विश्व-एकता स्थापित करने में भी पूरी तरह से सक्षम है. 
अन्तर्राष्ट्रीय कोई संगठन स्थापित करने या वैसी कोई अवधारणा के जन्म-लाभ होने के बहुत पहले ही स्वामीजी ने कहा है- " अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय संघ, अन्तर्राष्ट्रीय विधान, ये ही आजकल के मूल मन्त्रस्वरुप हैं." (५/१३६ ) उसी विश्व-एकत्व की प्राप्ति के लिये, उसके प्रथम सोपान के रूप में स्वामीजी की पहले राष्ट्रिय-एकता स्थापित करने का विचार या प्रस्ताव रखा है.
अब प्रश्न यह है कि, किस प्रकार का धर्म इस राष्ट्रिय-एकता को स्थापित करने में सक्षम है ? जिस देश में विभिन्न सम्प्रदाय, विभिन्न धर्म बिल्कुल पास पास रहते हों, उस देश में किसी एक ही धर्म के उपर जोर देकर, उसी के आधार पर सबों को एकीकृत करने का प्रयास किया जाय तो वह कभी सफल नहीं हो सकेगा. स्वामीजी कहते हैं- " इसको हमलोग वेदान्त का नाम दें, या अन्य कोई नाम दें- मूल बात यह है कि, ' अद्वैतवाद ' ही धर्म का और चिन्तन का अन्तिम बात है, एवं केवल अद्वैत-भूमि पर आरूढ़ मनुष्य ही समस्त धर्म और सम्प्रदाय को प्रेम-पूर्ण दृष्टि से देख सकता है. मेरा अपना विश्वास तो यह है कि, यही भविष्य के शिक्षित मानव-समाज का धर्म होगा. हिन्दू लोग अन्यान्य जातियों की अपेक्षा शीघ्रातिशीघ्र इस तत्व में पहुँचने का गौरव प्राप्त कर सकते हैं. "
वे कहते हैं - " हमलोग मनुष्य जाति को उस स्थान में ले जाना चाहते हैं- जहाँ वेद भी नहीं हो, बाइबिल भी नहीं हो, कुरान भी नहीं हो; तथापि वेद, बाइबिल और कुरान के बीच समन्वय लाने के द्वारा ही इसे करना होगा. मनुष्य को यह सिखाना होगा कि, समस्त धर्म ' एकत्व रूप उसी एक धर्म के ही विविध अभिव्यक्तियाँ हैं, इसीलिए जिसमें जितना भाग सर्वापेक्षा उपयोगी है, उतना ही चुन लेना होगा." 
इसी समन्वय का अर्थ यत्र तत्र वर्णित विभिन्न धर्मभाव-समूह की प्राणहीन संकलन भी नहीं है ( जिसकी व्यर्थता के उपर हमलोगों ने पूर्व में परिचर्चा की है, दूसरी ओर धर्मान्तरण करने का भी कोई गुप्त प्रस्ताव नहीं है. अन्यत्र अनेको बार स्वामीजी ने तो स्पष्ट घोषित किया है- राष्ट्रिय-एकता लाने के लिये हिन्दू को मुसलमान, ईसाई या बौद्ध को हिन्दू बना देने की कोई आवश्यकता नहीं है, केवल इतना ही नहीं, वह व्यक्ति और राष्ट्र के लिये भी हानिकारक होगी. 
" किन्तु समस्त धर्म - एकत्व रूपी उसी एक धर्म का ही विविध अभिव्यक्ति मात्र है. " - यह भाव मनुष्य को किस प्रकार सिखाया जा सकता है ? स्वामीजी अन्यत्र कहते हैं- " अहा, संसार के किसी भी देश में सार्वभौम  धर्म और विभिन्न सम्प्रदायों में भ्रातृत्व के उत्थापित और पर्यालोचित होने के बहुत पहले ही,  इस महानगर (कोलकाता) के पास एक ऐसे महापुरुष थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन एक आदर्श धर्म-महासभा का स्वरुप था. " (५/२०८)
उस व्यक्ति का नाम था- श्रीरामकृष्ण परमहंस. स्वामीजी कहते है- " ईश्वर की इच्छा से यदि यदि सभी निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त कर सकते, तब तो बात ही कुछ और थी, परन्तु चूँकि ऐसा नहीं हो सकता, इसीलिए सगुण आदर्श का रहना मनुष्य जाति के बहु-संख्यक वर्ग के लिए बहुत आवश्यक है. इस तरह के किसी महान आदर्श पुरुष पर हार्दिक अनुराग रखते हुए, उनकी पताका के नीचे आश्रय लिए बिना न कोई जाति उठ सकती है, न बढ़ सकती है, न कुछ कर सकती है. " (५/१३६)   
इसलिए धर्मान्तरण करने में अपनी शक्ति को नष्ट और दूसरों का अनिष्ट किये बिना श्रीरामकृष्ण के जीवन को सभी के समक्ष उदाहरण स्वरुप प्रस्तुत करना होगा. उसीसे यह तत्व मनुष्य के ह्रदय में प्रविष्ट हो सकेगा, एवं धर्म और सम्प्रदाय के बीच टकराहट एक समय में दूर हो जाएगी.
  स्वामीजी कहते हैं-" मुसलमान अच्छे अच्छे पीरों-फकीरों की पूजा करते हैं और नमाज के समय काबे की ओर मुँह करते हैं. यह सब देख कर जान पड़ता है कि प्रथमावस्था में मनुष्यों को कुछ बाह्य अवलम्बनों की आवश्यकता पड़ती है. जिस समय मन खूब शुद्ध हो जाता है, उस समय सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों में चित्त एकाग्र करना सम्भव हो सकता है.
उत्तमो ब्रह्मसदभावो ध्यानभावस्तु मध्यमः |
स्तुतिर्जपोअधमो भावो बाह्यपूजाअधमाधमा ||
(महानिर्वाण तन्त्र १४/१२२) 
-' जब जीव ब्रह्म से एकत्व का प्रयत्न करता है, यह सर्वोत्तम है; जब ध्यान का अभ्यास किया जाता है, यह मध्यम कोटि है, जब नाम का जप किया जाता है, यह निम्न कोटि है और बाह्य पूजा निम्नातिनिम्न है.' किन्तु बाह्यपूजा के निम्नातिनिम्न होने पर भी उसमें कोई पाप नहीं है. जो व्यक्ति जैसी उपासना कर सकता है, उसके लिए वही ठीक है...इसलिए जो मूर्ति-पूजा करते हैं, उनकी निन्दा करना उचित नहीं है...ज्ञानी जनों को इन सब व्यक्तियों को अग्रसर होने में सहायता करने का प्रयत्न करना चाहिए; किन्तु उपासना-प्रणाली को लेकर झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं है. " (५/२५३-५४)   
अद्वैतवाद को भविष्य का धर्म कहने से भी, उसको कर्म में परिणत करने में जो कठिनाई या आभाव है वह स्वामीजी की दृष्टि से छुपी नहीं थी. वे कहते हैं- " कर्म में परिणत वेदान्त - जो समग्र मानवजाति को अपनी ही आत्मा के रूप में देखता है, एवं उसी के अनुरूप व्यव्हार करता है- वह भाव अभी तक तो सार्वजनिक रूप वह हिन्दू लोगों में देखने को नहीं मिलता है.  ' दूसरे शब्दों में हमलोगों की अभिज्ञता तो यही है कि, यदि किसी धर्म के अनुयायियों के दैनंदिन व्यावहारिक जीवन में इस साम्य के आस-पास पहुंचा है तो वह एकमात्र इस्लाम धर्म के अनुयायी ही पहुँच सके हैं. इस प्रकार के आचरण का जो गम्भीर अर्थ है, एवं इसका बुनियाद रूपी जो समस्त तत्व विद्यमान है, उस सम्बन्ध में हिन्दुओं की धारणा स्पष्ट है, एवं मुसलमान लोग इस विषय में आम तौर से सचेतन नहीं हैं. "
  " इसीलिए हमारी यह दृढ धारणा है कि, वेदान्त का मतवाद जितना भी सूक्ष्म और आश्चर्यजनक क्यों न हो, कर्म में परिणत इस्लाम धर्म की सहायता के बिना वह साधारण मनुष्यों में से अधिकांश के लिये निरर्थक ही होगा. " 
(गौरतलब है कि 'इस्लाम' शब्द अरबी भाषा के 'सलाम' शब्द से निकला है, जिसका मतलब है सलामती, अमन। ऐसी हालत में आखिर किस बिनाह पर कहा जा सकता है कि इस्लाम दहशतगर्दों को पनाह देता है।पैगम्बर हज़रत मुहम्मद सल0 को संबोधित करते हुए कहा गया है कि  ''ऐ मुहम्मद! हमने तुम्हें दुनिया के लिए दयालुता ही बनाकर भेजा है।'' (क़ुरान 21:07)
''बुराई को भलाई से दूर करो'' (क़ुरान 28 :54)''और 
"जो शख्स सब्र से काम ले और दूसरे के कसूर को माफ कर दे तो बेशक यह बड़ी हिम्मत का काम है।'' (क़ुरान 42 :43)''
 " भलाई और बुराई बराबर नहीं है। अगर कोई बुराई करे तो उसका जवाब भलाई से दो। फिर तुम देखोगे कि तुम्हारा दुश्मन ही तुम्हारा गहरा दोस्त बन गया है। और यह गुण उन्हीं को मिलता है जो सब्र करने वाले हैं और जो बेहद खुशनसीबहैं। अगर इस बाबत शैतान के उकसाने से तुम्हारे अंदर कोई उकसाहट पैदा हो जाए तो अल्लाह की पनाह तलाश करो। बेशक वही सब कुछ सुनने वाला और जानने वाला है।'' (क़ुरान 41 : 34-36)
मोहम्मद आरिफ कहते हैं-इस्लाम त़कवा का धर्म है, फतवा का नहीं| तक़वा का अर्थ है, ईश्वरीय चेतना और फतवा का अर्थ है, कानूनी फरमान ! जो लोग कहते है कि इस्लाम को तलवार के जोर पर दुनिया में फैलाना जायज है, वे कृपया कुरान शरीफ की इस आयत को पढ़ें –
 ‘तुझे तेरा धर्म मुबारक और मुझे मेरा’ (18.29). 
 इस्लाम को या धर्म को अरबी में ‘दीन’ कहते हैं| दीन का अर्थ है, जीवन-पद्घति | जीवन-पद्घति हमेशा एक-जैसी नहीं होती| विविधता ही उसकी प्राण है| इसीलिए कुरान यह कहीं नहीं कहती कि सारी दुनिया का ‘दीन’ एक ही होना चाहिए और उसके लिए दुनिया के लोगों को डंडे के जोर पर मजबूर किया जाना चाहिए|
 आम तौर से लोगों में यह धारणा है कि जो भी इस्लाम स्वीकार कर लेगा या मुसलमान बन जाएगा, उसे जन्नत जरूर नसीब होगी लेकिन अगर कुरान की आयत पढ़ें तो वह कहती है, ”न तो तुम्हारी मनोकामना और न ही पवित्र् ग्रंथ (कुरान) को माननेवालों की इच्छा बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के कर्म के अनुसार ही फैसला होगा|” (4.123) 
इस्लाम की सार्वभौमिकता और वैश्विकता इसी से सिद्घ होती है कि वह मनुष्यों के बीच ऊँच-नीच की श्रेणियॉं स्वीकार नहीं करता| मक्का के पतन पर पैगंबर ने दो-टूक शब्दों में कहा कि अब तुम लोग यह अच्छी तरह से जान लो कि सारी इंसानियत आदम की औलद है| कोई किसी से छोटा-बड़ा नहीं है| कोई अरब किसी गैर-अरब से बड़ा नहीं है और कोई गैर-अरब किसी अरब से बड़ा नहीं है| मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने इसे ही इस्लाम का मुश्तरक हक कहा है याने सत्य की व्यापकता !
मोहम्मद साहब की वाणी को पेश करते हुए आरिफजी ने कहा कि
  ”अल्लाह की इबादत 70 वर्ष तक करने की बजाय एक घंटे का आत्म-मंथन ज्यादा श्रेयस्कर है|” खुद पैगंबर ने कहा था कि ”पालने से कब्र तक ज्ञान की खोज में लगे रहो|” और ”ज्ञान की खोज में चीन भी जाना हो तो जाओ|”‘सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रति गच्छति’ 
अर्थात किसी भी देवता (अल्लाह, ईसा, मूसा, मार्क्स) को प्रणाम किया जाय, तो वह केवल केशव (विष्णु) को ही प्राप्त होगा, इनमेँ कोई अन्तर नहीँ।हिन्दू-मुस्लिम एकता पर लिखना चाहिए, क्योंकि प्रेम और शांति से बढ़कर विश्व में कोई भी विषय नहीं हो सकता है.
 मेरा भी यही मानना है, की सबसे पुराना धर्म सनातन धर्म ही है. यह धर्म आदम (अ.) के धरती पर पैदा होने के समय से चला आ रहा है. इस्लाम कोई नया धर्म नहीं अपितु वही पुराना सनातन धर्म ही है. स्वयं ईश्वर  ने कुरआन में फरमाया (अर्थ की व्याख्या): "ऐ रसूल-अल्लाह, फर्मा दीजिये, कि मैं कोई नया धर्म लेकर नहीं आया हूँ, बल्कि यह तो वही पुराना धर्म है, जो इस विश्व के आरम्भ से चाला आ रहा है." 
 (जिहाद के नाम पर चल रहे आतंकवाद को लेखक ने बहुत ही रोचक और प्रामाणिक ढंग से इस्लाम-विरोधी सिद्घ किया है| इस पुस्तक को पढ़ने पर हर किसी पाठक को इस्लाम की ऊँचाइयों और गहराइयों का नया बोध होगा|
 × आरिफ मोहम्मद खान, ”कुरान एंड कंटेम्पररी चेलेंजेस : टेक्स्ट और कॉंटेक्स्ट” (रूपा, 2010) आरिफ मोहम्मद खान को इस देश में शाह बानो मामले के ‘हीरो’ के तौर पर जाना जाता है| मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए राजीव गांधी सरकार के जिस मंत्री ने सदन की चलती बहस के दौरान ही अपना इस्तीफा लिखकर भेज दिया, उस शख्स का नाम है, आरिफ मोहम्मद खान ) )
स्वामी विवेकानन्द धारणा, कर्म और सत्य कहने में समान रूप से निर्भीक हैं. १८९८ में मोहम्मद सरफराज हुसैन को एक पत्र में उपसंहार में स्वामीजी राष्ट्रिय एकता और उन्नति का उपाय के बारे में उपरोक्त परिचर्चा के परिपेक्ष्य में सूत्र देते हैं- " हमलोगों की अपनी मातृभूमि के लिये हिन्दू और इस्लाम धर्म रूप दो महान मतों का समन्वय ही उपाय है- वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामिक शरीर. यही एक मात्र आशा है. " " मैं अपने मानस चक्षुओं से देख रहा हूँ, यह विवाद, विश्रीन्ख्ला भेद्पुर्व्क भविष्य में पूर्णांग भारत वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामी शरीर लेकर महा महिमा में और अपराजेय शक्ति में जाग्रत हो उठा है. " 
यह वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामी शरीर किसी हिन्दू या मुसलमान व्यक्ति विशेष का नहीं है. इस कथन का अर्थ है- १२० करोड़ भारत वासियों का एकीकृत जो विराट रूप हो, वह राष्ट्र पुरुष, उसका मस्तिष्क वेदान्त के अद्वैत या अभेद भाव से पूर्ण हो जाय. और उस विराट पुरुष का शरीर अर्थात राष्ट्रिय सामाजिक दैन्दिन व्यावहारिक जीवन में इस्लामिक सामाजिक साम्य का प्रयोग-कुशलता उसी वेदान्त के अभेद तत्व को कार्यकर करे. तभी राष्ट्रिय एकता कार्यकर हो सकती है. - अन्य कोई मार्ग नहीं है. राष्ट्रिय एकता के विषय में स्वामी विवेकानन्द की यही विचार है, और सिद्धांत है. जिसे आज भी प्रयोग करने से भारत का कल्याण तुरान्वित हो सकता है. 
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" मैं आमूल परिवर्तन का पक्षपाती हो गया हूँ. प्राचीन संस्कारों को त्याग कर नये शीरे से प्रारम्भ करूंगा. बिल्कुल नया, सरल किन्तु सबल, तुरंत जन्में शिशु जैसा नवीन और सतेज. संग्राम, संग्राम - जब तक प्रकाश की किरन नजर नहीं आती, तबतक संग्राम करो. आगे बढो. बारूद को धीरे धीरे भरना ओता है. उसके बाद आग की एक चिंगारी ही सबक्छ कुछ उद्भाषित हो उठता है. यदि नंगी तलवार लेकर सम्पूर्ण जगत तुम्हारे विरुद्ध क्यों न खड़ा हो जाय, जिसको सत्य समझते हो, वही करते रह सकोगे क्या ? - स्वामी विवेकानन्द.
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अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल
महामंडल का उद्देश्य है भारतीय संस्कृति अनुसारी मूल्यबोध को - जो स्वामी विवेकानन्द के ' मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र गठन कारी आदर्श में ग्रथित हैं, - विशेष रूप से किशोर और युवाओं के भीतर संचारित कर देना, एवं युवा शक्ति को सुश्रीन्ख्ल रूप से निःस्वार्थ देश सेवा के माध्यम से राष्ट्र निर्माण के कार्य में नियोजित कर देना. महामण्डल का एक द्विभाषिक मासिक मुखपत्र है- ' विवेक-जीवन '; इस आदर्श और संस्था के सम्वाद आदि को प्रचार करने के लिये प्रकाशित करता रहता है.                            


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