[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
(१)
🔱🕊नरेन्द्र (भावी नेता) को ज्ञानयोग तथा भक्तियोग में समन्वय का उपदेश 🔱🕊
[নরেন্দ্রকে জ্ঞানযোগ ও ভক্তিযোগের সমন্বয় উপদেশ]
श्रीरामकृष्ण काशीपुर के बगीचे में भक्तों के साथ बड़े कमरे में रहते हैं । रात के आठ बजे का समय होगा । कमरे में नरेन्द्र, शशि, मास्टर, बूढ़े गोपाल और शरद हैं । आज बृहस्पतिवार है, फाल्गुन की शुक्ला षष्ठी, 11 मार्च, 1886 ।
श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं, जरा लेटे हुए हैं । पास ही भक्तगण बैठे हैं । शरद खड़े हुए पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण बीमारी की बातें कह रहे हैं ।
It was eight o'clock in the evening. Sri Ramakrishna was in the big hall on the second floor. Narendra, Sashi, M., Sarat, and the elder Gopal were in the room. Sri Ramakrishna was lying down. Sarat stood by his bed and fanned him. The Master was speaking about his illness.
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কাশীপুরের বাগানে হলঘরে ভক্তসঙ্গে অবস্থান করিতেছেন। রাত্রি প্রায় আটটা। ঘরে নরেন্দ্র, শশী, মাস্টার, বুড়োগোপাল শরৎ। আজ বৃসস্পতিবার — ২৮শে ফাল্গুন, ১২৯২ সাল; ফাল্গুন মাসের শুক্লা ষষ্ঠী তিথি; ১১ই মার্চ, ১৮৮৬ খ্রীষ্টাব্দ। ঠাকুর অসুস্থ — একটু শুইয়া আছেন। ভক্তেরা কাছে বসিয়া। শরৎ দাঁড়াইয়া পাখা করিতেছেন। ঠাকুর অসুখের কথা বলিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - दक्षिणेश्वर में भोलानाथ के पास जाना, वह तेल देगा; और किस तरह लगाया जाय, यह भी बतला देगा ।
MASTER: "If some of you go to Dakshineswar and see Bholanath, he will give you a medicinal oil and also tell you how to apply it."
শ্রীরামকৃষ্ণ — ভোলানাথের কাছে গেলে তেল দেবে। আর সে বলে দেবে, কি-রকম করে লাগাতে হবে।
बूढ़े गोपाल - तो कल सबेरे हम लोग जाकर ले आयेंगे ।
THE ELDER GOPAL: "Then we shall go for the oil tomorrow morning."
বুড়োগোপাল — তাহলে কাল সকালে আমরা গিয়ে আনব।
मास्टर - यदि कोई आज शाम को जाय तो वही ले आयगा ।
M: "If someone goes this evening he can bring the oil."
মাস্টার — আজ কেউ গেলে বলে দিতে পারে।
शशि - मैं जा सकता हूँ ।
[शशि (शशिभूषण चक्तवर्ती ) - स्वामी रामकृष्णानन्द (1863 - 1911) - हुगली जिले के मयाल-इच्छापुर गांव में पैदा हुए। पिता ईश्वरचंद्र एक तांत्रिक साधक और पाइकपारा के राजा इंद्रनारायण सिंह के राजपण्डित थे। अपने छात्र जीवन के दौरान, वह ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित हुए और केशव सेन से मिलने जाते थे। लेकिन श्री रामकृष्ण का नाम सुनने के बाद, बड़े चचेरे भाई शरत के साथ दक्षिणेश्वर गए और श्री रामकृष्ण के दर्शन किए।]
SASHI: "I can go."
শশী — আমি যেতে পারি।
श्रीरामकृष्ण - (शरद की ओर दिखाकर ) - वह जा सकता है ।
[शरत (शरतचंद्र चक्रवर्ती) - स्वामी सारदानन्द : (1865 - 1927) - शरतचंद्र का जन्म एमहर्स्ट स्ट्रीट, कलकत्ता में हुआ था। पिता का नाम गिरीशचंद्र और माता का नीलमणि देवी था । छात्र जीवन में केशव चन्द्र के प्रभाव से वे ब्रह्म समाज के सदस्य बन गये। लेकिन छोटे भाई शशिभूषण (बाद में स्वामी रामकृष्णानंद) अन्य लोगों के साथ श्री रामकृष्ण के दर्शन के लिए दक्षिणेश्वर गए। ]
MASTER (pointing to Sarat): "He may go."
শ্রীরামকৃষ্ণ (শরৎকে দেখাইয়া) — ও যেতে পারে।
शरद कुछ देर बाद दक्षिणेश्वर काली मन्दिर के मुहर्रिर (बड़ाबाबू ?) श्रीयुत भोलानाथ मुखोपाध्याय के पास से तेल लाने के लिए गये ।
[भोलानाथ मुखोपाध्याय - बाद में कालीबाड़ी के खजांची बने। वह ठाकुरदेव के बहुत बड़े भक्त थे। बीच-बीच में ठाकुरदेव उनसे महाभारत का पाठ सुना करते थे।]
After a time Sarat set out for Dakshineswar to get the oil from Bholanath.
শরৎ কিয়ৎক্ষণ পরে দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে মুহুরী শ্রীযুক্ত ভোলানাথ মুখোপাধ্যায়ের নিকট হইতে তেল আনিতে যাত্রা করিলেন।
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
🔱🕊'आत्मा' 🕊शरीर और मन (सूक्ष्म शरीर) से निर्लिप्त है🔱🕊
श्रीरामकृष्ण लेटे हुए हैं । भक्तगण चुपचाप बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण एकाएक उठकर बैठे गये । नरेन्द्र के साथ वार्तालाप करने लगे ।
The devotees, sitting around Sri Ramakrishna's bed, were silent. Suddenly the Master sat up. He spoke to Narendranath.
ঠাকুর শুইয়া আছেন। ভক্তেরা নিঃসব্দে বসিয়া আছেন। ঠাকুর হঠাৎ উঠিয়া বসিলেন। নরেন্দ্রকে সম্বোধন করিয়া কথা কহিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - ब्रह्म अलेप हैं । उनमें तीनों गुण विद्यमान हैं; किन्तु फिर भी वे उन गुणों से निर्लिप्त हैं ।
MASTER: "Brahman is without taint. The three gunas are in Brahman, but It is Itself untainted by them.
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — ব্রহ্ম অলেপ। তিন গুণ তাঁতে আছে, কিন্তু তিনি নির্লিপ্ত।
"जैसे वायु में सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों मिलती हैं, परन्तु वायु निर्लिप्त है ।
"You may find both good and bad smells in the air; but the air itself is unaffected.
“যেমন বায়ুতে সুগন্ধ-দুর্গন্ধ দুই-ই পাওয়া যায়, কিন্তু বায়ু নির্লিপ্ত।
"काशी में रास्ते से शंकराचार्य जा रहे थे । उधर से माँस का भार लेकर चाण्डाल आया और एकाएक उसने इन्हें छू लिया । शंकर ने कहा, 'छू लिया !' चाण्डाल ने कहा,‘ भगवन्, न आपने मुझे छुआ और न मैंने आपको। आत्मा निर्लिप्त है। आप वही शुद्ध आत्मा हैं ।’
"Sankaracharya was going along a street in Benares. An outcaste carrying a load of meat suddenly touched him. 'What!' said Sankara. 'You have touched me!' 'Revered sir,' said the outcaste, 'I have not touched you nor have you touched me. The Atman is above all contamination, and you are that Pure Atman.'
কাশীতে শঙ্করাচার্য পথ দিয়ে যাচ্ছিলেন! চণ্ডাল মাংসের ভার নিয়ে যাচ্ছিল — হঠাৎ ছুঁয়ে ফেললে। শঙ্কর বললেন — ছুঁয়ে ফেললি! চণ্ডাল বললে, — ঠাকুর, তুমিও আমায় ছোঁও নাই! আমিও তোমায় ছুঁই নাই! আত্মা নির্লিপ্ত। তুমি সেই শুদ্ধ আত্মা।
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
🔱🕊शरीर रहने तक 'मैं' नहीं जायेगा-माँ दुर्गा (महामाया) की शरण लो 🔱🕊
“ 'ब्रह्म' और 'माया' । ज्ञानी माया को अलग कर देता है ।
"Of Brahman and maya , the jnani rejects maya.
“ব্রহ্ম আর মায়া। জ্ঞানী মায়া ফেলে দেয়।
"माया पर्दे की तरह है । यह देखो, इस अँगौछे की आड़ कर देता हूँ । अब तुम दीपक की लौ नहीं देख सकते ।"
"Maya is like a veil. You see, I hold this towel between you and the lamp. You no longer see the light of the lamp."
“মায়া আবরণস্বরূপ। এই দেখ, এই গামছা আড়াল করলাম — আর প্রদীপের আলো দেখা যাচ্ছে না।
श्रीरामकृष्ण ने अपने तथा भक्तों के बीच अंगौछे की आड़ करके कहा, "यह देखो, अब तुम मेरा मुँह नहीं देख सकते । "रामप्रसाद सेन (कवी रंजन) ने जैसा कहा है, 'मसहरी उठाकर देखो –’
["रामप्रसाद बोले मशारि तुले देख रे आपनार मुख- ('पर्दा है पर्दा), मसहरी (मच्छरदानी) उठाकर अपना ही मुख देखो –’
मायार ऐ परम कौतूक।
मायाबद्ध जने धावति, अबद्ध जने लूटे सुख।।
आमि एई आमार एई, एभावे भावे मूर्ख सेई।
मनरे, ओरे मिछामिछि सार भेवे, साहस बाँधिछो बूक,
आमि केवा आमार केवा, आमि भिन्न आछे केवा।
मनरे, ओरे के करे काहार सेवा, मिछा भावो दुःख सुख,
दीप ज्वले आँधार घरे, द्रव्य यदि पाय करे।
मनरे, ओरे तखनि निर्वाण करे, ना राखे रे एकटूक।।
प्राज्ञ अट्टालिकाय थाको, आपनि आपन देख।
रामप्रसाद बोले मशारि तुले देख रे आपनार मुख।।
Sri Ramakrishna put the towel between himself and the devotees.
MASTER: "Now you cannot see my face any more. As Ramprasad said, 'Raise the curtain, and behold!'
ঠাকুর গামছাটি আপনার ও ভক্তদের মাঝখানে ধরিলেন। বলিতেছেন, “এই দেখ, আমার মুখ আর দেখা যাচ্ছে না।“রামপ্রসাদ যেমন বলেছে — ‘মশারি তুলিয়া দেখ —’
[মায়ার এ পরম কৌতুক।
মায়াবদ্ধ জনে ধাবতি, অবদ্ধ জনে লুটে সুখ॥
আমি এই আমার এই, এভাব ভাবে মূর্খ সেই।
মনরে, ওরে মিছামিছি সার ভেবে, সাহসে বাঁধিছ বুক
আমি কেবা আমার কেবা, আমি ভিন্ন আছে কেবা।
মনরে, ওরে কে করে কাহার সেবা, মিছা ভাব দুখ সুখ
দীপ জ্বেলে আঁধার ঘরে, দ্রব্য যদি পায় করে।
মনরে, ওরে তখনি নির্বাণ করে, না রাখে রে একটুক্॥
প্রাজ্ঞ অট্টালিকায় থাক, আপনি আপন দেখ।
রামপ্রসাদ বলে মশারি তুলে দেখ রে আপনার মুখ॥
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
🕊🏹ज्ञानी (सिद्धार्थ गौतम ?) जग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति को अस्तित्वहीन ? कहके हटा देते हैं,
भक्त (गौतम बुद्ध-जागृत मनुष्य ?) जानता है चाण्डाल भी वे ही बने हैं ! 🕊🏹
(The foolishness of the wise)
[ जब तक भक्त का 'मैं' है, तब तक भक्त माँ दुर्गा के राज्य में है ! मातृजाति की पूजा करना सीखना ही होगा (माँ काली -महामाया-जिसके भय से सूर्य, तपता है) सीखकर, अर्थात सिर्फ विद्या-माया का 'मैं ' (दासोऽहं) का भाव रखते हुए ही कामिनी-कांचन से निरासक्त हुआ जा सकता है ?]
"परन्तु भक्त माया को नहीं छोड़ता । वह महामाया की पूजा करता है । शरणागत होकर कहता है, 'माँ, रास्ता छोड़ दो, तुम जब रास्ता छोड़ोगी, तभी मुझे ब्रह्मज्ञान होगा !' जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति - इन तीनों अवस्थाओं को ज्ञानी अस्तित्वहीन कहकर हटा देते हैं । भक्त इन सब अवस्थाओं को लेते हैं - जब तक 'मैं' है, तब तक ये सब हैं । " जब तक 'मैं' है, तब तक भक्त देखता है, जीव-जगत्, माया और चौबीस तत्त्व, सब कुछ वे ही हुए हैं ।"
"The bhakta, however, does not ignore maya. He worships Mahamaya. Taking refuge in Her, he says: 'O Mother, please stand aside from my path. Only if You step out of my way shall I have the Knowledge of Brahman.' The jnanis explain away all three states — waking, dream, and deep sleep. But the bhaktas accept them all. As long as there is the ego, everything else exists. So long as the 'I' exists, the bhakta sees that it is God who has become maya, the universe, the living beings, and the twenty-four cosmic principles."
“ভক্ত কিন্তু মায়া ছেড়ে দেয় না। মহামায়ার পূজা করে। শরণাগত হয়ে বলে, ‘মা, পথ ছেড়ে দাও! তুমি পথ ছেড়ে দিলে তবে ব্রহ্মজ্ঞান হবে।’ জাগ্রৎ, স্বপ্ন, সুষুপ্তি, — এই তিন অবস্থা জ্ঞানীরা উড়িয়ে দেয় ! ভক্তেরা এ-সব অবস্থাই লয় — যতক্ষণ আমি আছে ততক্ষণ সবই আছে। “ যতক্ষণ আমি আছে, ততক্ষণ দেখে যে, তিনিই মায়া, জীব-জগৎ, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব, সব হয়েছেন!
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
🕊🏹नरेन्द्र बाहर से ज्ञानी भीतर से भक्त हैं 🕊🏹
नरेन्द्र तथा अन्य भक्त चुपचाप सुन रहे हैं ।
Narendra and the other devotees sat silently listening.
[নরেন্দ্র প্রভৃতি চুপ করিয়া আছেন।]
श्रीरामकृष्ण - "पर मायावाद (माया का सिद्धांत) शुष्क है ।" (नरेन्द्र से) मैंने क्या कहा, बतलाओ।
MASTER: "But the theory of maya is dry. (To Narendra) Repeat what I said."
“মায়াবাদ শুকনো। কি বললাম, বল দেখি।”
नरेन्द्र - माया शुष्क है ।
NARENDRA: "Maya is dry."
নরেন্দ্র — শুকনো।
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के हाथ और मुख का स्पर्श करके कहने लगे - "ये सब भक्तों के लक्षण हैं। ज्ञानियों के लक्षण और हैं - मुखाकृति में रूखापन रहता है ।
Sri Ramakrishna affectionately stroked Narendra's face and hands, and said: "Your face and hands show that you are a bhakta. But the jnani has different features; they are dry.
ঠাকুর নরেন্দ্রের হাত-মুখ স্পর্শ করিতে লাগিলেন। আবার কথা কহিতেছেন — “এ-সব (নরেন্দ্রের সব) ভক্তের লক্ষণ। জ্ঞানীর সে আলাদা লক্ষণ, — মুখ, চেহারা শুকনো হয়।
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
🔱राजर्षि जनक जैसा ज्ञानी- भक्त अनासक्त होकर परिवार में भी रह सकता है 🔱
"ज्ञान लाभ करने के बाद भी ज्ञानी विद्या-माया को लेकर रह सकता है - भक्ति, दया, वैराग्य, इन सब को लेकर रह सकता है । इसके दो उद्देश्य हैं । पहला, इससे लोक-शिक्षा होती है; दूसरा, रसास्वादन के लिए ।
[अर्थात 'दादा के पितामह श्री श्रीशचन्द्र मुखोपाध्याय ' जैसा 'ज्ञानि-भक्त' अभिभावक (नेता) कामिनी-कांचन में अनासक्त होकर घर-परिवार के बीच भी रह सकता है।]
"Even after attaining jnana, the jnani can live in the world, retaining vidyamaya, that is to say, bhakti, compassion, renunciation, and such virtues. This serves him two purposes: first, the teaching of men, and second, the enjoyment of divine bliss.
“জ্ঞানী জ্ঞানলাভ করবার পরও বিদ্যামায়া নিয়ে থাকতে পারে — ভক্তি, দয়া, বৈরাগ্য — এই সব নিয়ে থাকতে পারে। এর দুটি উদ্দেশ্য। প্রথম, লোকশিক্ষা হয়, তারপর রসাস্বাদনের জন্য।
"ज्ञानी अगर समाधि लगाकर चुप हो जाय (चित्तवृत्ति निरोध योग के बाद चुप हो जाये), तो लोक-शिक्षा नहीं होती । इसीलिए शंकराचार्य ने ‘विद्या का मैं’ रखा था ।
If a jnani remains silent, merged in samadhi, then men's hearts will not be illumined. Therefore Sankaracharya kept the 'ego of Knowledge'.
“জ্ঞানী যদি সমাধিস্থ হয়ে চুপ করে থাকে, তাহলে লোকশিক্ষা হয় না। তাই শঙ্করাচার্য ‘বিদ্যার আমি’ রেখেছিলেন।
और ईश्वरानन्द का भोग करने के लिए, (ज्ञानी भी) भगवान के भक्त- भक्ति को लेकर रहता है ।
And further, a jnani lives as a devotee, in the company of bhaktas, in order to enjoy and drink deep of the Bliss of God.
“আর ঈশ্বরের আনন্দ ভোগ করবার জন্য — সম্ভোগ করবার জন্য — ভক্তি-ভক্ত নিয়ে থাকে!
[There is no flaw in the 'I' of the child, like the reflection of the face in the mirror. He cannot abuse people. अर्थात "इसके अलावा, 'ज्ञानी' भी भगवान के आनन्द (जगतगुरु -युग अवतार वरिष्ठ-ठाकुरदेव के आनन्द) का रसपान करने के लिए, पाठचक्र और Be and Make आंदोलन में उनके भक्तों (ठाकुर देव के भक्त -माँ सारदा और स्वामीजी) की संगति में स्वयं एक भक्त बनकर रहता है !]
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
8 🔱'विद्या के मैं' और 'भक्ति का मैं' में दोष नहीं; दोष 'बदमाश मैं' में है 🔱
'इस 'विद्या के मैं' में या 'भक्ति के मैं' में दोष नहीं है । दोष तो 'बदमाश मैं' में है । उनके दर्शन करने के बाद बालक-जैसा स्वभाव हो जाता है । 'बालक के मैं' में कोई दोष नहीं है, जैसे दर्पण में चेहरे का प्रतिबिम्ब । वह लोगों को गालियाँ नहीं दे सकता । जली रस्सी देखने ही में रस्सी की तरह है । फूँकने से वह उड़ जाती है । इसी तरह ज्ञानी और भक्त का अहंकार ज्ञानाग्नि में जल गया है । अब वह किसी की क्षति नहीं कर सकता । वह 'मैं' नाममात्र के लिए है ।
"The 'ego of Knowledge' and the 'ego of Devotion' can do no harm; it is the 'wicked I' that is harmful. After realizing God a man becomes like a child. There is no harm in the 'ego of a child'. It is like the reflection of a face in a mirror: the reflection cannot call names. Or it is like a burnt rope, which appears to be a rope but disappears at the slightest puff. The ego that has been burnt in the fire of Knowledge cannot injure anybody. It is an ego only in name.
“এই ‘বিদ্যার আমি’, ‘ভক্তের আমি’ — এতে দোষ নাই। ‘বজ্জাৎ আমি’তে দোষ হয়। তাঁকে দর্শন করবার পর বালকের স্বভাব হয়। ‘বালকের আমি’তে কোন দোষ নাই। যেমন আরশির মুখ — লোককে গালাগাল দেয় না। পোড়া দড়ি দেখতেই দড়ির আকার, ফুঁ দিলে উড়ে যায়। জ্ঞানাগ্নিতে অহংকার পুড়ে গেছে। এখন আর কারও অনিষ্ট করে না। নামমাত্র ‘আমি’।
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
9 🏹नेता को नित्य में 'उस पार' पहुँचकर, लीला में 'इस पार' लौटना ही पड़ता है ! 🕊🏹
"नित्य में पहुँचकर फिर लीला में रहना । जैसे 'उस पार' जाकर फिर 'इस पार' लौटना । लोक-शिक्षा और विलास के लिए - उनकी लीला में सहयोग देने के लिए ।"
"Returning to the relative plane after reaching the Absolute is like coming back to this shore of a river after going to the other side. Such a return to the relative plane is for the teaching of men and for enjoyment — participation in the divine sport in the world."
“নিত্যতে পৌঁছে আবার লীলায় থাকা। যেমন ওপারে গিয়ে আবার এপারে আসা। লোকশিক্ষা আর বিলাসের জন্য — আমোদের জন্য।”
श्रीरामकृष्ण बड़े धीमे स्वर में वार्तालाप कर रहे हैं । वे कुछ देर चुप ही रहे । भक्तों से फिर कहने लगे –" शरीर को यह रोग है, परन्तु उसने (माता ने) अविद्यामाया नहीं रखी । देखो न, रामलाल, घर या स्त्री, इनकी मुझे याद भी नहीं आती । हाँ, यदि कोई चिन्ता है तो उसी पूर्ण नामक कायस्थ बालक की - उसी के लिए सोच रहा हूँ । औरों के बारे में तो मुझे कोई चिन्ता नहीं।
Sri Ramakrishna was talking in a very low voice. Addressing the devotees, he said: " The body is so ill, but the mind is free from avidyamaya (मैं -M/F ?). Let me tell you, there is no thought in my mind of Ramlal or home or wife. But I have been worrying about Purna, that kayastha boy. I am not in the least anxious about the others.
ঠাকুর অতি মৃদুস্বরে কথা কহিতেছেন। একটু চুপ করিলেন। আবার ভক্তদের বলিতেছেন — “শরীরের এই রোগ — কিন্তু অবিদ্যা মায়া রাখে না! এই দেখো, রামলাল, কি বাড়ি, কি পরিবার, আমার মনে নাই! — কে না পূর্ণ কায়েত তার জন্য ভাবছি। — ওদের জন্য তো ভাবনা হয় না!
[Panacea: महामाया, योगमाया और अविद्या माया में क्या अंतर है ? माँ सारदा की कृपा से योग, चित्तवृत्ति निरोध या समाधी हो जाने के बाद भी पुनः शरीर में क्यों लौटना पड़ाता है ?🕊🏹दादा ने कहा था -तुम्हारी ही इच्छा रही होगी। एकदम ठाकुर के शरीर में कैंसर रोग है, परन्तु 'उसने'- माँ भवतारिणी (महामाया/ योगमाया) ने ठाकुर में 'अविद्यामाया' नहीं रखी है। मेरे साजन हैं 'उस पार ' नित्य में ; मैं मन मार, हूँ 'इस पार' लीला में ( तुरीयावस्था- इन्द्रियातीत सत्य और - सापेक्षिक सत्य।) में हूँ। ]
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
10.🔱🕊🏹ज्ञानियों का लक्ष्य मुक्ति है ;
अवतार और भक्त (प्रह्लाद-नरेंद्र-दादा) अपनी मुक्ति नहीं चाहते🔱🕊🏹
"विद्या-माया उन्हीं ने रख दी है - लोगों के लिए, भक्तों के लिए ।
"It is God alone who has kept this vidyamaya in me, for the good of men, for the welfare of the devotees.
“তিনিই বিদ্যামায়া রেখে দিয়েছেন — লোকের জন্য — ভক্তের জন্য।
"परन्तु विद्या-माया के रहते फिर आना पड़ता है । अवतार आदि विद्या-माया रख छोड़ते हैं । जरासी वासना के रहने पर फिर आना पड़ता है - बार बार आना पड़ता है । सब वासनाओं के मिट जाने पर मुक्ति होती है । भक्त मुक्ति नहीं चाहता ।
"But if one retains vidyamaya one comes back to this world. The Avatars keep this vidyamaya. So long as a man has even the slightest desire, he must be born again and again. When he gets rid of all desires, then he is liberated. But the bhaktas do not seek liberation.
“কিন্তু বিদ্যমায়া থাকলে আবার আসতে হবে। অবতারাদি বিদ্যামায়া রাখে! একটু বাসনা থাকলেই আসতে হয়, ফিরে ফিরে আসতে হয়। সব বাসনা গেলে মুক্তি। ভক্তরা কিন্তু মুক্তি চায় না।
"यदि काशी में किसी का देहान्त हो तो मुक्ति होती है; फिर उसे आना नहीं पड़ता । ज्ञानियों का लक्ष्य मुक्ति है ।"
"If a person dies in Benares he attains liberation; he is not born again. Liberation is the goal of the jnanis."
“যদি কাশীতে কারু দেহত্যাগ হয় তাহলে মুক্তি হয় — আর আসতে হয় না। জ্ঞানীদের মুক্তি।”
[ (11 मार्च, 1886)श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
[🔱नरेन्द्रनाथ द्वारा स्थापित बेलूरमठ और स्वामी अभेदानन्द का वेदान्तमठ?]
11.🔱🕊🏹 शुष्क ज्ञानी महिमाचरण चक्रवर्ती का घर 100 न ० काशीपुर रोड🔱🕊🏹
नरेन्द्र - उस दिन हम लोग महिम चक्रवर्ती के यहाँ गये थे ।
NARENDRA: "The other day we went to visit Mahimacharan."
নরেন্দ্র — সেদিন মহিম চক্রবর্তীর বাড়িতে আমরা গিছলাম।
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) – फिर ?
MASTER (smiling): "Well?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তারপর?
नरेन्द्र - उसकी तरह का शुष्क ज्ञानी मैंने नहीं देखा ।
NARENDRA: "I have never before met such a dry jnani."
নরেন্দ্র — ওর মতো এমন শুষ্ক জ্ঞানী দেখি নাই!
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - क्या हुआ ?
MASTER (smiling): "What was the matter?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কি হয়েছিল?
नरेन्द्र - हम लोगों से गाने के लिए कहा । गंगाधर ने गाया - कृष्णगीत (तमाल वृक्ष या काले कृष्ण (माँ काली) का श्यामा संगीत)...
"श्याम नामे प्राण पेये इति उती चाय,
सम्मुखे तमालवृक्ष देखिबारे पाय।
अर्थात "कृष्ण का नाम सुनकर राधा के मन में पुनः चेतना आ जाती है। वह इधर-उधर देखती है; उसके सामने एक तमाल वृक्ष दिखाई देता है।"।
NARENDRA: "He asked us to sing. Gangadhar sang: "Radha is restored to life by hearing her Krishna's name. She looks about; in front of her she sees a tamala tree."
নরেন্দ্র — আমাদের গান গাইতে বললে। গঙ্গাধর গাইলে —শ্যামনামে প্রাণ পেয়ে ইতি উতি চায়,সম্মুখে তমালবৃক্ষ দেখিবারে পায়।
गाना सुनकर उसने ('शुष्क ज्ञानी' महिमाचरण जिनके घर में दादा का जन्म हुआ था ?) कहा, ‘इस तरह का गाना क्यों गाते हो ? प्रेम-प्रेम अच्छा नहीं लगता। इसके अलावा बीबी-बच्चों को लेकर यहाँ रहता हूँ, यहाँ इस तरह के गाने क्यों ?’
"On hearing this song, Mahimacharan said: 'Why such songs here? I don't care for love and all that nonsense. Besides, I live here with my wife and children. Why all these songs here?'"
“গান শুনে বললে — ও-সব গান কেন? প্রেম-ট্রেম ভাল লাগে না। তা ছাড়া, মাগছেলে নিয়ে থাকি, এ-সব গান এখানে কেন?”
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - देखा, उसे कितना भय है !
MASTER (to M.): "Do you see how afraid he is?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — ভয় দেখেছ!
[🏹🔱"द्वितीयाद् वै भयं भवति । "(बृहदारण्यक, उ-1/4/2) अभयं =अद्वैत आत्मज्ञान होने से निर्भय हो जाना- जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, सब कुछ आत्मीय है। "तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् " (तै.उ. 2।6) , इस संसार की रचना करके,वह परमात्मा सभी जड-चेतन प्राणियों में प्रवेश कर गया। ये संसार भगवान् ने बनाया। और फिर, इस संसार में सर्वव्यापक भी हो गया—इसका मतलब है कि,इस हमारे पिण्डभूत शरीर में और इसके बाहर भी सब दृश्यमान जगत् परमात्मा में परमात्मा का और परममात्मभाव से विद्यमान है। अतः हमें किसी को अपने से भिन्न नहीं मानना चाहिए। यदि हम अपने से भिन्न दृष्टि रखते हैं, तब नाना सांसारिक भयों में रहेंगे ही। जब सभी में वही है, तब भय कैसा? और क्यों? भेद देखना मनुष्य की दुर्बलता और सारी समस्या,की जड़ है। 'तत्र को मोहः को शोकः एकत्वम् अनुपश्यतः। (ईशोपनिषद् -7) जिस अवस्था में किसी व्यक्ति को ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है - कि आत्मा (या परमात्मा-भगवान श्रीरामकृष्णदेव) ही सभी प्राणियों के रूप में प्रकटित हुए हैं; तब सर्वत्र एकत्व देख रहे उस व्यक्ति के लिए न कोई मोह और न ही शोक रह जाता है॥७॥ तब फंला प्राणी से घृणा, परहेज या विद्वेष कैसा? घृणा करना अपने आप से घृणा करना नहीं हो जाएगा?” इस प्रकार का चिंतन - 'मोक्षार्थी' मोक्ष की दिशा में बढ़ रहे व्यक्ति के आचरण का हिस्सा बन जाता है। सभी में अपना आत्मस्वरूप वह एक ही परमात्मा देख लेने पर कोई अज्ञान नहीं,कोई दुःख नहीं और कोई भय नहीं। इसीलिये परमात्मद्रष्टा ऋषियों ने इस मन्त्र का दर्शन किया-“द्वितीयाद् वै भयं भवति।”इस देववाणी और वेदवाणी का सार समझो। जीवन धन्यधन्य होगा। "विश्व-प्रपंचलीन सर्वाधिष्ठान परात्पर प्रभु के अनुसन्धान में प्रवृत्त होने पर क्रमशः अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोष का अनुभव होता है। आनन्दमय कोष में ही सर्वाधिष्ठान, सच्चिदानन्दघन, स्वप्रकाश, शुद्ध ब्रह्म प्रतिष्ठित है। जगत् के सम्पूर्ण आनन्द, मोद-प्रमोद सविशेष हैं अतः उनमें वैषम्य है, वैविध्य है तथापि उन सबका अधिष्ठान एकमात्र स्वप्रकाश, विशुद्ध परब्रह्म ही है। ]
(२)
Sunday, March 14, 1886
[ (रविवार, 14 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
12.🔱🕊🏹श्रीरामकृष्ण के देह-धारण का अर्थ🔱🕊🏹
[श्री रामकृष्ण का अवतार भक्तों के लिए]
श्रीरामकृष्ण काशीपुर के बगीचे में हैं । शाम हो गयी है, वे अस्वस्थ हैं । ऊपरवाले बड़े कमरे में उत्तर की ओर मुँह किये बैठे हैं । नरेन्द्र और राखाल दोनों पैर दबा रहे हैं । पास ही मणि बैठे हैं। श्रीरामकृष्ण ने इशारे से उन्हें पैर दबाने के लिए कहा । मणि चरण सेवा करने लगे ।
Sri Ramakrishna sat facing the north in the large room upstairs. It was evening. He was very ill. Narendra and Rakhal were gently massaging his feet. M; sat near by. The Master, by a sign, asked him, too, to stroke his feet. M. obeyed.
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কাশীপুরের বাগানে রহিয়াছেন। সন্ধ্যা হইয়া গিয়াছে। ঠাকুর অসুস্থ। উপরের হলঘরে উত্তরাস্য হইয়া বসিয়া আছেন। নরেন্দ্র ও রাখাল দুইজনে পদসেবা করিতেছেন, মণি কাছে বসিয়া আছেন। ঠাকুর ইঙ্গিত করিয়া তাহাকে পদসেবা করিতে বলিলেন। মণি পদসেবা করিতেছেন।
आज रविवार है, 14 मार्च, 1886 फागुन की शुक्ला नवमी। गत रविवार को श्रीरामकृष्ण की जन्म-तिथि की पूजा बगीचे में हो गयी है। गत वर्ष दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में बड़े समारोह के साथ जन्म-महोत्सव मनाया गया था । इस वर्ष वे अस्वस्थ हैं। भक्तों के हृदय में विषाद छाया है। इसलिए (फाल्गुन शुक्ल द्वितीया को) पूजा और उत्सव नाममात्र के लिए हुए ।
The previous Sunday the devotees had observed Sri Ramakrishna's birthday with worship and prayer. His birthday the year before had been observed at Dakshineswar with great pomp; but this year, on account of his illness, the devotees were very sad and there was no festivity at all.
আজ রবিবার, ১৪ই মার্চ, ১৮৮৬; ২রা চৈত্র, ফাল্গুন শুক্লা নবমী। গত রবিবারে ঠাকুরের জন্মতিথি উপলক্ষে বাগানে পূজা হইয়া গিয়াছে। গত বর্ষে জন্মমহোৎসব দক্ষিণেশ্বর-কালীবাড়িতে খুব ঘটা করিয়া হইয়াছিল। এবার তিনি অসুস্থ। ভক্তেরা বিষাদসাগরে ডুবিয়া আছেন। পূজা হইল। নামমাত্র উৎসব হইল।
भक्तगण सदा ही बगीचे में उपस्थित रहकर श्रीरामकृष्ण की सेवा किया करते हैं । श्रीमाताजी दिनरात उनकी सेवा में लगी रहती हैं । किशोर भक्तों में से बहुतेरे सदा ही वहाँ उपस्थित रहते हैं - नरेन्द्र, राखाल, निरंजन, शरद, शशि, बाबूराम, योगीन, काली, लाटू आदि । जो कुछ अधिक उम्रवाले भक्त हैं, वे प्राय: नित्य आकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर जाते हैं । कभी कभी वे रह भी जाते हैं । तारक, सींती के गोपाल भी वहाँ हर समय रहते हैं तथा छोटे गोपाल भी।
The Holy Mother busied herself day and night in the Master's service. Among the young disciples, Narendra, Rakhal, Niranjan, Sarat, Sashi, Baburam, Jogin, Latu, and Kali had been staying with him at the garden house. The older devotees visited him daily, and some of them occasionally spent the night there.
ভক্তেরা সর্বদাই বাগানে উপস্থিত আছেন ও ঠাকুরের সেবা করিতেছেন। শ্রীশ্রীমা ওই সেবায় নিশিদিন নিযুক্ত। ছোকরা ভক্তেরা অনেকেই সর্বদা থাকেন, নরেন্দ্র, রাখাল, নিরঞ্জন, শরৎ, বাবুরাম, যোগীন, কালী, লাটু প্রভৃতি।বয়স্ক ভক্তেরা মাঝে মাঝে থাকেন ও প্রায় প্রত্যহ আসিয়া ঠাকুরকে দর্শন করেন বা তাঁহাঁর সংবাদ লইয়া যান। তারক, সিঁথির গোপাল, ইঁহারা সর্বদা থাকেন। ছোট গোপালও থাকেন।
श्रीरामकृष्ण आज बहुत अस्वस्थ हैं । आधी रात का समय है । ( चांदनी बगीचे में छिटकी हुई है, लेकिन भक्तों के दिलों में कोई प्रतिक्रिया नहीं जगा सकी। वे दुःख के सागर में डूबे हुए थे। उन्हें लग रहा था कि वे एक ऐसे खूबसूरत शहर में रह रहे हैं, जो एक शत्रु सेना से घिरा हुआ है। हर जगह एकदम शांति छाई हुई थी। प्रकृति शांत थी, केवल दक्षिणी हवा के स्पर्श से पत्तों की हल्की सरसराहट की आवाज़ आ रही थी। ऊपर के हाल में श्रीरामकृष्ण लेटे हुए हैं ।
तबीयत बहुत खराब है - आँख नहीं लगती । दो-एक भक्त चुपचाप पास बैठे हुए हैं - इसलिए कि कब कैसी जरूरत हो । एक आध बार झपकी आती है, और श्रीरामकृष्ण सोते हुए से जान पड़ते हैं। ये नींद है या महायोग की अवस्था ?
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।।"
जिस लाभ की प्राप्ति होने पर (निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति होने पर-26 जनवरी, 2024 की अवस्था।) उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता, और जिसमें स्थित होने पर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है।।" यह क्या योग की वही अवस्था है ?
That day Sri Ramakrishna was feeling very ill. At midnight the moonlight flooded the garden, but it could wake no response in the devotees' hearts. They were drowned in a sea of grief. They felt that they were living in a beautiful city besieged by a hostile army. Perfect silence reigned everywhere. Nature was still, except for the gentle rustling of the leaves at the touch of the south wind. Sri Ramakrishna lay awake. One or two devotees sat near him in silence. At times he seemed to doze.
ঠাকুর আজও বিশেষ অসুস্থ। রাত্রি দুই প্রহর। আজ শুক্ল পক্ষের নবমী তিথি, চাঁদের আলোয় উদ্যানভূমি যেন আনন্দময় হইয়া রহিয়াছে। ঠাকুরের কঠিন পীড়া, — চন্দ্রের বিমলকিরণ দর্শনে ভক্তহৃদয়ে আনন্দ নাই। যেমন একটি নগরীর মধ্যে সকলই সুন্দর, কিন্তু শত্রুসৈন্য অবরোধ করিয়াছে। চতুর্দিক নিস্তব্ধ, কেবল বসন্তানিলস্পর্শে বৃক্ষপত্রের শব্দ হইতেছে। উপরের হলঘরে ঠাকুর শুইয়া আছেন। ভারী অসুস্থ, — নিদ্রা নাই। দু-একটি ভক্ত নিঃশব্দে কাছে বসিয়া আছেন — কখন কি প্রয়োজন হয়। এক-একবার তন্দ্রা আসিতেছে ও ঠাকুরকে নিদ্রাগতপ্রায় বোধ হইতেছে। এ কি নিদ্রা না মহাযোগ? ‘যস্মিন্ স্থিতো ন দুঃখেন গুরুণাপি বিচাল্যতে!’ এ কি সেই যোগাবস্থা?
मास्टर पास बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण इशारा करके और भी पास आने के लिए कह रहे हैं । उन्हें इतना कष्ट है कि पत्थर का हृदय भी पानी-पानी हो जाय । वे धीरे धीरे बड़े कष्ट के साथ मास्टर से कह रहे हैं - "तुम लोग रोओगे, इसलिए इतना दुःख भोग कर रहा हूँ । सब लोग अगर कहो कि इतने कष्ट से तो देह का नाश हो जाना ही अच्छा है, तो देह नष्ट हो जाय ।"
M. was seated by his side. Sri Ramakrishna asked him by a sign to come nearer. The sight of his suffering was unbearable. In a very soft voice and with, great difficulty he said to M.: "I have gone on suffering so much for fear of making you all weep. But if you all say: 'Oh, there is so much suffering! Let the body die', then I may give up the body."
মাস্টার কাছে বসিয়া আছেন। ঠাকুর ইঙ্গিত করিয়া আরও কাছে আসিতে বলিতেছেন। ঠাকুরের কষ্ট দেখিলে পাষাণ বিগলিত হয়! মাস্টারকে আস্তে আস্তে অতি কষ্টে বলিতেছেন — “তোমরা কাঁদবে বলে এত ভোগ করছি — সব্বাই যদি বল যে — ‘এত কষ্ট, তবে দেহ যাক’ — তাহলে দেহ যায়!”
श्रीरामकृष्ण की इन बातों को सुनकर भक्तों का हृदय टूकटूक हो रहा है । वे भक्तों के माता-पिता और रक्षक हैं । वे ऐसी बातें कह रहे हैं ! सब लोग चुप हो रहे । कुछ लोगों ने सोचा, "क्या यह एक दूसरा क्रूसीकरण है (ईसा का सूली पर चढ़ना है?) - भक्तों के लिए शरीर का बलिदान?"
These words pierced the devotees' hearts. And he who was their father, mother, and protector had uttered these words! What could they say? All sat in silence. Some thought, "Is this another crucifixion — the sacrifice of the body for the sake of the devotees?"
কথা শুনিয়া ভক্তদের হৃদয় বিদীর্ণ হইতেছে। যিনি তাঁহাদের পিতা মাতা রক্ষাকর্তা তিনি এই কথা বলিতেছেন! — সকলে চুপ করিয়া আছেন। কেহ ভাবিতেছেন, এরই নাম কি Crucifixation! ভক্তের জন্য দেহ বিসর্জন!
गम्भीर रात्रि है । श्रीरामकृष्ण की बीमारी मानो और बढ़ रही है । अब क्या किया जाय ? बहुत सोचकर, भक्तों ने एक आदमी को कलकत्ता भेजा । उसी गम्भीर रात्रि में श्रीयुत उपेन्द्र डाक्टर तथा श्रीयुत नवगोपाल कविराज को लेकर गिरीश काशीपुर के घर में आये ।
It was the dead of night. Sri Ramakrishna's illness was taking a turn for the worse. The devotees wondered what was to be done. One of them left for Calcutta. That very night Girish came to the garden house with two physicians, Upendra and Navagopal.
গভীর রাত্রি। ঠাকুরের অসুখ আরও যেন বাড়িতেছে! কি উপায় করা যায়? কলিকাতায় লোক পাঠানো হইল। শ্রীযুক্ত উপেন্দ্র ডাক্তার আর শ্রীযুক্ত নবগোপাল কবিরাজকে সঙ্গে করিয়া গিরিশ সেই গভীর রাত্রে আসিলেন।
भक्तगण पास बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण जरा स्वस्थ हो रहे हैं - कह रहे हैं - "देह अस्वस्थ है, पंचभूतों से बना शरीर, - ऐसा तो होगा ही !"
The devotees sat near the Master. He felt a little better and said to them: "The illness is of the body. That is as it should be; I see that the body is made of the five elements."
ভক্তেরা কাছে বসিয়া আছেন। ঠাকুর একটু সুস্থ হইতেছেন। বলিতেছেন, “দেহের অসুখ, তা হবে, দেখছি পঞ্চভূতের দেহ!”
गिरीश की ओर देखकर कह रहे हैं, "बहुत से ईश्वरीय रूपों को देख रहा हूँ । उनमें एक यह रूप भी (अपने रूप को) देख रहा हूँ ।"
Turning to Girish, he said: "I am seeing many forms of God. Among them I find this one also [meaning his own form]."
গিরিশের দিকে তাকাইয়া বলিতেছেন, “অনেক ঈশ্বরীয় রূপ দেখেছি! তার মধ্যে এই রূপটিও (নিজের মূর্তি) দেখছি!”
(३)
Monday, March 15, 1886
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
13.🏹श्रीरामकृष्ण के दर्शन- ईश्वर, जीव, जगत ~ मोम का बना है ?🏹🔱
आज चैत्र तृतीया है, सोमवार, 15 मार्च 1886। सबेरे 7-8 बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण कुछ अच्छे हैं, भक्तों के साथ धीरे-धीरे, कभी इशारे से, बातचीत कर रहे हैं । पास में नरेन्द्र, राखाल, मास्टर, लाटू, सींती के गोपाल आदि बैठे हुए हैं । भक्तमण्डली मौन है । पिछली रात की अवस्था सोचकर भक्तों के चेहरे पर विषाद की गम्भीरता छायी हुई है । सब चुपचाप बैठे हैं ।
About seven o'clock in the morning Sri Ramakrishna felt a little better. He talked to the devotees, sometimes in a whisper, sometimes by signs. Narendra, Rakhal, Latu, M., Gopal of Sinthi, and others were in the room. They sat speechless and looked grave, thinking of the Master's suffering of the previous night.
পরদিন সকাল বেলা। আজ সোমবার, ৩রা চৈত্র; ১৫ই মার্চ, (১৮৮৬)। বেলা ৭টা-৮টা হইবে। ঠাকুর একটু সামলাইয়াছেন ও ভক্তদের সহিত আস্তে আস্তে, কখনও ইশারা করিয়া কথা কহিতেছেন। কাছে নরেন্দ্র, রাখাল, মাস্টার, লাটু, সিঁথির গোপাল প্রভৃতি। ভক্তদের মুখে কথা নাই, ঠাকুরের পূর্বরাত্রির দেহের অবস্থা স্মরণ করিয়া তাঁহারা বিষাদগম্ভীর মুখে চুপ করিয়া বসিয়া আছেন।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर की ओर देखकर, भक्तों से) - क्या देख रहा हूँ ? - सुनो, ईश्वर ही सब कुछ बने हुए हैं । मनुष्य और जिस-जिस जीव को मैं देख रहा हूँ, मानो सब चमड़े के बने हुए हैं, उनके भीतर से वे ही हाथ, पैर और सिर हिला रहे हैं । जैसा एक बार मैंने देखा था - मोम का मकान, बगीचा, रास्ता, आदमी, बैल - सब मोम के - सब एक ही चीज के बने हुए थे ।(कुम्भ मेला 14 अप्रैल,1986?)
MASTER (to the devotees): "Do you know what I see right now? I see that it is God Himself who has become all this. It seems to me that men and other living beings are made of leather, and that it is God Himself who, dwelling inside these leather cases, moves the hands, the feet, the heads. I had a similar vision once before, when I saw houses, gardens, roads, men, cattle — all made of One Substance; it was as if they were all made of wax.
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের দিকে তাকাইয়া, ভক্তদের প্রতি) — কি দেখছি জানো? তিনি সব হয়েছেন! মানুষ আর যা জীব দেখছি, যেন চামড়ার সব তয়েরি — তার ভিতর থেকে তিনিই হাত পা মাথা নাড়ছেন! যেমন একবার দেখেছিলাম — মোমের বাড়ি, বাগান, রাস্তা, মানুষ গরু সব মোমের — সব এক জিনিসে তয়েরি।
"देखता हूँ, वे ही बलि (sacrifice) हैं, वे हो बलि देनेवाले (executioner) हैं तथा वे ही बलि का खम्भा (block) हैं ।"
"I see that it is God Himself who has become the block, the executioner, and the victim for the sacrifice."
“দেখছি — সে-ই কামার, সে-ই বলি, সে-ই হাড়িকাট হয়েছে!”
यह कहते कहते श्रीरामकृष्ण भाव में विभोर हो रहे हैं । वे ईश्वर की उस व्यापकता का अनुभव करते हुए कह रहे हैं - 'अहा ! अहा !'
As he describes this staggering experience, in which he realizes in full the identity of all within the One Being, he is overwhelmed with emotion and exclaims, "Ah! What a vision!"
ঈশ্বরই কামার, বলি, হাড়িকাট হইয়াছেন। এই কথা বলিতে বলিতে ঠাকুর ভাবে বিভোর হইয়া বলিতেছেন — “আহা! আহা!”
फिर वही भावावस्था हो गयी । श्रीरामकृष्ण का बाह्यज्ञान चला जा रहा है । भक्तगण किंकर्तव्य-विमूढ़ हो चुपचाप बैठे हुए हैं ।
Immediately Sri Ramakrishna goes into samadhi. He completely forgets his body and the outer world. The devotees are bewildered. Not knowing what to do, they sit still.
श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ होकर कह रहे हैं - "अब मुझे कोई कष्ट नहीं है । बिलकुल पहले जैसी अवस्था है। "
Presently the Master regains partial consciousness of the world and says: "Now I have no pain at all. I am my old self again."
ঠাকুর একটু প্রকৃতিস্থ হইয়া বলিতেছেন — “এখন আমার কোনও কষ্ট নাই, ঠিক পূর্বাবস্থা।”
श्रीरामकृष्ण की इस दुःख और सुख से अतीत अवस्था को देखकर भक्तों को आश्चर्य हो रहा है ।लाटू की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "यह लाटू है । सिर पर हाथ रखे बैठा है । मैं देख रहा हूँ, वे ही (ईश्वर ही) सिर पर हाथ रखे बैठे हुए हैं ।"
The devotees are amazed to watch this state of the Master, beyond pleasure and pain, weal and woe. He casts his glance on Latu and says: "There is Loto. He bends his head, resting it on the palm of his hand. I see that it is God Himself who rests His head on His hand."
ঠাকুরের এই সুখ-দুঃখের অতীত অবস্থা দেখিয়া ভক্তেরা অবাক্ হইয়া রহিয়াছেন। লাটুর দিকে তাকাইয়া আবার বলিতেছেন —“ওই লোটো — মাথায় হাত দিয়ে বসে রয়েছে, — তিনিই (ঈশ্বরই) মাথায় হাত দিয়ে যেন রয়েছেন!”
श्रीरामकृष्ण भक्तों की ओर देख रहे हैं और स्नेहाद्र हो रहे हैं । शिशु को जिस तरह प्यार किया जाता है, उसी तरह वे राखाल और नरेन्द्र के प्रति स्नेह-भाव दिखला रहे हैं - उनके मुख पर हाथ फेर रहे हैं ।
Sri Ramakrishna looks at the devotees and his love for them wells up in a thousand streams. Like a mother showing her tenderness to her children he touches the faces and chins of Rakhal and Narendra.
ঠাকুর ভক্তদের দেখিতেছেন ও স্নেহে যেন বিগলিত হইতেছেন। যেমন শিশুকে আদর করে, সেইরূপ রাখাল ও নরেন্দ্রকে আদর করিতেছেন! তাঁহাদের মুখে হাত বুলাইয়া আদর করিতেছেন!
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
लीला संवरण क्यों ?
14. 🏹🔱🕊गौरांग रूप में मैं (कृष्ण) और माँ (राधा-सारदा) एक हो गए हैं।🏹🔱🕊
[I and the Mother have become one.]
कुछ देर बार मास्टर से कहते हैं - "शरीर अगर कुछ दिन और रहता तो बहुत से लोगों को चैतन्य हो जाता ; उनकी आध्यात्मिकता की जागृति हो जाती ।” इतना कहकर वे चुपचाप हो रहे ।
A few minutes later he says to M., "If the body were to be preserved a few days more, many people would have their spirituality awakened." He pauses a few minutes.
কিয়ৎপরে মাস্টারকে বলিতেছেন, “শরীরটা কিছুদিন থাকত, লোকদের চৈতন্য হত।” ঠাকুর আবার চুপ করিয়া আছেন।
श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं - "पर अब यह न होगा - अब यह शरीर नहीं रहेगा ।" भक्त सोच रहे हैं कि श्रीरामकृष्ण और क्या कहेंगे ।
"But this is not to be. This time the body will not be preserved." The devotees eagerly await the Master's next words.
ঠাকুর আবার বলিতেছেন — “তা রাখবে না।” ভক্তেরা ভাবিতেছেন, ঠাকুর আবার কি বলিবেন।
श्रीरामकृष्ण - इस शरीर को अब वे (ईश्वर) न रहने देंगे, इसलिए कि मुझे सरल और मूर्ख समझकर कहीं सब लोग घेर न ले, और मैं सरल और मूर्ख कहीं सभी को सब कुछ दे न डालूँ ।कलिकाल में लोग तो ध्यान और जप से घृणा करते हैं ।
"Such is not the will of God. This time the body will not be preserved, lest, finding me guileless and foolish, people should take advantage of me, and lest I, guileless and foolish as I am, should give away everything to everybody. In this Kaliyuga, you see, people are averse to meditation and japa."
— সরল মূর্খ দেখে পাছে লোকে সব ধরে পড়ে। সরল মূর্খ পাছে সব দিয়ে ফেলে! একে কলিতে ধ্যান-জপ নাই।”
राखाल - (सस्नेह) - आप उनसे कहिये जिससे आपका शरीर रहे ।
RAKHAL (tenderly): "Please speak to God that He may preserve your body some time more."
রাখাল (সস্নেহে) — আপনি বলুন — যাতে আপনার দেহ থাকে।
श्रीरामकृष्ण - वह ईश्वर की इच्छा ।
MASTER: "That depends on God's will."
শ্রীরামকৃষ্ণ — সে ঈশ্বরের ইচ্ছা।
नरेन्द्र - आपकी इच्छा और ईश्वर की इच्छा दोनों एक हो गयी है ।
NARENDRA: "Your will and God's will have become one."
নরেন্দ্র — আপনার ইচ্ছা আর ঈশ্বরের ইচ্ছা এক হয়ে গেছে।
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप हैं, मानो कुछ सोच रहे हैं ।
Sri Ramakrishna remains silent. He appears to be thinking about something.
ঠাকুর একটু চুপ করিয়া আছেন — যেন কি ভাবিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र और राखाल आदि से) - और कहने से भी क्या होगा ? "अब देखता हूँ, एक हो गया है । ननद के भय से राधिका ने श्रीकृष्ण से कहा, 'तुम हृदय के भीतर रहो ।'^ जब फिर व्याकुल होकर श्रीकृष्ण को उन्होंने देखना चाहा – ऐसी व्याकुलता कि कलेजे में जैसे बिल्ली खरोंच रही हो - तब श्रीकृष्ण हृदय से बाहर निकले ही नहीं !"
[^वैष्णव धर्म के बंगाली शाखा के अनुसार श्री कृष्ण राधा की तरह अपनी मधुरता का आनन्द और स्वाद स्वयं चखकर देखना चाहते थे। लेकिन यह तब तक पूरी तरह से संभव नहीं था जब तक कि कृष्ण स्वयं राधा की तरह खुद पर मोहित न हो जाएं। तदनुसार उन्होंने एक ऐसा रूप धारण किया जिसमें वृंदावन के कृष्ण और राधा के सभी पहलू एक साथ मौजूद थे; और इस रूप में कृष्ण ने अपने आकर्षण और मधुरता का आनंद लिया। इस रूप को श्री गौरांग के नाम से जाना जाता है, जो राधा और कृष्ण का मिश्रण था।
‘गौरांङ्ग’ बलिते ह’बे पुलक-शरीर।
‘हरि हरि’बलिते नयने ब’बे नीर॥
वह दिन कब आयेगा कि केवल ‘श्रीगौरांङ्ग’ नाम के उच्चारण मात्र से मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? कब, ‘हरि हरि’ के उच्चारण से मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह निकलेंगे?
[^According to the Bengal school of Vaishnavism Sri Krishna wanted to taste and enjoy His own sweetness as Radha did. But this could not be done to the fullest extent unless Krishna were infatuated with Himself, as Radha had been. Accordingly He assumed a form in which all the aspects of the Krishna of Vrindavan and those of Radha coexisted; and in this aspect Krishna enjoyed His own charm and sweetness. This form is known as Sri Gauranga, who was a blending of Radha and Krishna.]
MASTER (to Narendra, Rakhal, and the others): "And nothing will happen if I speak to God. Now I see that I and the Mother have become one. For fear of her sister-in-law, Radha said to Krishna, 'Please dwell in my heart.' But when, later on; she became very eager for a vision of Krishna — so eager that her heart pined and panted for her Beloved — He would not come out."
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্র, রাখালাদি ভক্তের প্রতি) — আর বললে কই হয়? “এখন দেখছি এক হয়ে গেছে। ননদিনীর ভয়ে কৃষ্ণকে শ্রীমতী বললেন, ‘তুমি হৃদয়ের ভিতর থাকো’। যখন আবার ব্যাকুল হয়ে কৃষ্ণকে দর্শন করিতে চাইলেন; — এমনি ব্যাকুলতা — খেমন বেড়াল আঁচড় পাঁচড় করে, — তখন কিন্তু আর বেরয় না!”
राखाल - (भक्तों से, धीमे स्वर से) - यह बात इन्होंने श्रीगौरांगवतार के सम्बन्ध में कही है ।
RAKHAL (in a low voice, to the devotees): "He is referring to God's Incarnation as Gauranga."5
রাখাল (ভক্তদের প্রতি, মৃদুস্বরে) — গৌর অবতারের কথা বলছেন।
(४)
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
15.🏹🔱🕊दिव्य चरित्र (Legend) : श्रीरामकृष्ण कौन हैं 🏹🔱🕊
"द्वा सुपर्णा -भक्त और भगवान "
[परमहंसदेव और उनके लीलापार्षद]
[जीव (भक्त-SV) और ईश्वर (भगवान-'T') दोनों एक ही वृक्ष पर साथ-साथ रहने वाले सखा और सुपर्ण-पक्षी हैं। उनमें एक तो-जीव स्वादिष्ट पिप्पल-कर्मफल का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता रहता है।]
भक्तगण चुपचाप बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण भक्तों को स्नेहभरी दृष्टि से देख रहे हैं । कुछ कहने के लिए उन्होंने अपनी छाती पर हाथ रखा ।
The devotees sit silently in the room. Sri Ramakrishna looks at them tenderly. Then he places his hand on his heart. He is about to speak.
ভক্তেরা নিস্তব্ধ হইয়া বসিয়া আছেন। ঠাকুর ভক্তদের সস্নেহে দেখিতেছেন, নিজের হৃদয়ে হাত রাখিলেন — কি বলিবেন —
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्रादि से) - इसके भीतर दो व्यक्ति हैं । एक हैं जगन्माता-भक्त उनकी ओर उत्सुक होकर देख रहे हैं, सोच रहे हैं, अब वे क्या कहेंगे .......? श्रीरामकृष्ण - हाँ एक वे हैं, और दूसरा है उनका भक्त, जिसका हाथ टूट गया था । वही अब बीमार है । समझते हो भाई?
MASTER (to Narendra and the others): "There are two persons in this. One, the Divine Mother—"He pauses. The devotees eagerly look at him to hear what he will say next...... ? MASTER: "Yes, one is She. And the other is Her devotee. It is the devotee who broke his arm, and it is the devotee who is now ill. Do you understand?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রাদিকে) — এর ভিতর দুটি আছেন। একটি তিনি।ভক্তেরা অপেক্ষা করিতেছেন আবার কি বলেন....? শ্রীরামকৃষ্ণ — একটি তিনি — আর একটি ভক্ত হয়ে আছে। তারই হাত ভেঙে ছিল — তারই এই অসুখ করেছে। বুঝেছ?
भक्तगण चुपचाप सुन रहे हैं ।
The devotees sit without uttering a word.
ভক্তেরা চুপ করিয়া আছেন।
श्रीरामकृष्ण - किससे कहूँ, और समझेगा भी कौन ?
MASTER: "Alas! To whom shall I say all this? Who will understand me?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কারেই বা বলব কেই বা বুঝবে।
कुछ देर बाद फिर बोले –
"वे मनुष्य का आकार धारण करके, अवतार लेकर, भक्तों के साथ आया करते हैं । उन्हीं के साथ फिर भक्तगण चले भी जाते हैं ।"
Pausing a few moments, He says: "God becomes man, an Avatar, and comes to earth with His devotees. And the devotees leave the world with Him."
কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর আবার কথা কহিতেছেন —“তিনি মানুষ হয়ে — অবতার হয়ে — ভক্তদের সঙ্গে আসেন। ভক্তেরা তাঁরই সঙ্গে আবার চলে যায়।”
राखाल - इसीलिए कहता हूँ आप हम लोगों को छोड़कर चले मत जाइयेगा ।
RAKHAL: "Therefore we pray that you may not go away and leave us behind."
রাখাল — তাই আমাদের আপনি যেন ফেলে না যান।
श्रीरामकृष्ण मुस्करा रहे हैं, कहते हैं - "बाउल गवैयों का दल एकाएक आया, नाच-कूदकर गाया-बजाया और एकाएक चला गया । आया और गया, परन्तु किसी ने पहचाना नहीं।" श्री रामकृष्ण और दूसरे भक्त मन्द मन्द मुस्करा रहे हैं ।
Sri Ramakrishna smiles and says: "A band of minstrels suddenly appears, dances, and sings, and it departs in the same sudden manner. They come and they return, but none recognizes them."
ঠাকুর মৃদু মৃদু হাসিতেছেন। বলিতেছেন, “বাউলের দল হঠাৎ এল, — নাচলে, গান গাইলে; আবার হঠাৎ চলে গেল! এল — গেল, কেউ চিনলে না। (ঠাকুরের ও সকলের ঈষৎ হাস্য)
कुछ देर चुप रहकर श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं –"देह धारण करने पर कष्ट तो है ही ।"कभी कभी कहता हूँ, अब जैसे इस संसार में न आना पड़े ।"परन्तु एक बात है - निमन्त्रण में भोजन करते करते अब घर की बनी मटर की दाल अच्छी नहीं लगती, न घर के चावल ही अच्छे लगते हैं।"और देह-धारण भक्तों के लिए है ।"
[यहाँ ठाकुर/नवनीदा क्या अपने भक्तों को नैवेद्य (offering)-रूप से आने का निमंत्रण दे रहे हैं -क्या अपने भक्तों के साथ विहार करना, बार-बार आना उन्हें पसन्द है -यही कहना चाह रहे है ?]
After a few minutes, he says: "Suffering is inevitable when one assumes a human body. "Every now and then I say to myself, 'May I not have to come back to earth again!' But there is something else. After enjoying sumptuous feasts outside, one does not relish cheap home cooking."
Besides, this assuming of a human body is for the sake of the devotees."
কিয়ৎক্ষণ চুপ করিয়া ঠাকুর আবার বলিতেছেন, —“দেহধারণ করলে কষ্ট আছেই।“এক-একবার বলি, আর যেন আসতে না হয়। “তবে কি, — একটা কথা আছে। নিমন্ত্রণ খেয়ে খেয়ে আর বাড়ির কড়াই-এর ডাল-ভাত ভাল লাগে না।“আর যে দেহধারণ করা, — এটি ভক্তের জন্য।”
[ঠাকুর ভক্তের নৈবেদ্য — ভক্তের নিমন্ত্রণ — ভক্তসঙ্গে বিহার ভালবাসেন, এই কথা কি বলিতেছেন?]
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
[नरेंद्र की ज्ञान-भक्ति - नरेंद्र और परिवार का त्याग]
[নরেন্দ্রের জ্ঞান-ভক্তি — নরেন্দ্র ও সংসারত্যাগ ]
16.🔱🕊विचार करो तुम क्या हो ? देह हो, मन हो या बुद्धि हो ?🔱🕊
[Think about what you are? Are you body, mind or intellect?]
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को स्नेह-भरी दृष्टि से देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - चाण्डाल माँस का भार लिये हुए जा रहा था । उधर से नहा-धोकर शंकराचार्य आ रहे थे, वे उसके पास से होकर निकले । एकाएक चाण्डाल ने उन्हें छू लिया । शंकर ने विरक्ति-भाव से कहा - 'तूने मुझे छू लिया!' उसने कहा, 'भगवन्, न मैंने आपको छुआ और न आपने मुझे । विचार कीजिये, विचार कीजिये, क्या आप देह हैं, मन हैं या बुद्धि हैं ? आप क्या हैं - विचार कीजिये । शुद्ध आत्मा निर्लिप्त है - सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों में से किसी में लिप्त नहीं है ।'
Sri Ramakrishna looks at Narendra very tenderly. MASTER (to Narendra): "An outcaste was carrying a load of meat. Sankaracharya, after bathing in the Ganges, was passing by. Suddenly the outcaste touched him. Sankara said sharply: 'What! You touched me!' 'Revered sir,' he replied, 'I have not touched you nor have you touched me. Reason with me: Are you the body, the mind, or the buddhi? Analyze what you are. You are the Pure Atman, unattached and free, unaffected by the three gunas — sattva, rajas, and tamas.'
ঠাকুর নরেন্দ্রকে সস্নেহে দেখিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — চণ্ডাল মাংসের ভার নিয়ে যাচ্ছিল। শঙ্করাচার্য গঙ্গা নেয়ে কাছ দিয়ে যাচ্ছিলেন। চণ্ডাল হঠাৎ তাঁকে ছুঁয়ে ফেলেছিল। শঙ্কর বিরক্ত হয়ে বললেন, তুই আমায় ছুঁয়ে ফেললি! সে বললে, ‘ঠাকুর তুমিও আমায় ছোঁও নাই, আমিও তোমায় ছুঁই নাই! তুমি বিচার-কর! তুমি কি দেহ, তুমি কি মন, তুমি কি বুদ্ধি; কি তুমি, বিচার কর! শুদ্ধ আত্মা নির্লিপ্ত — সত্ত্ব, রজঃ, তমঃ; তিনগুণ; — কোন গুণে লিপ্ত নয়।’
"ब्रह्म कैसा है, जानता है ? - जैसे वायु । वायु में सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों है, परन्तु वायु निर्लिप्त है।"
"Do you know what Brahman is like? It is like air. Good and bad smells are carried by the air, but the air itself is unaffected."
“ব্রহ্ম কিরূপ জানিস। যেমন বায়ু। দুর্গন্ধ, ভাল গন্ধ — সব বায়ুতে আসছে, কিন্তু বায়ু নির্লিপ্ত।”
नरेन्द्र - जी हाँ ।
NARENDRA: "Yes, sir."
নরেন্দ্র — আজ্ঞা হাঁ।
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
16.🔱🕊ठाकुर के देह के बारे में सोचना एकाग्रता का अभ्यास करना विद्या माया है🔱🕊
श्रीरामकृष्ण - वे गुणातीत हैं, माया से परे हैं । अविद्या-माया और विद्या-माया इन दोनों से परे हैं । कामिनी और कांचन अविद्या है; ज्ञान, भक्ति, वैराग्य ये सब विद्या के ऐश्वर्य हैं । शंकराचार्य ने विद्या का ऐश्वर्य रखा था । तुम सब लोग जो मेरे लिए सोच रहे हो, यह चिन्ता विद्या-माया है ।
MASTER: "He is beyond the gunas and maya — beyond both the 'maya of knowledge' and the 'maya of ignorance'. 'Woman and gold' is the 'maya of ignorance'. Knowledge, renunciation, devotion, and other spiritual qualities are the splendors of the 'maya of knowledge'. Sankaracharya kept this 'maya of knowledge'; and that you and these others feel concerned about me is also due to this 'maya of knowledge'.
শ্রীরামকৃষ্ণ — গুণাতীত। মায়াতীত। অবিদ্যামায়া বিদ্যামায়া দুয়েরই আতীত। কামিনী-কাঞ্চন অবিদ্যা। জ্ঞান বৈরাগ্য ভক্তি — এ-সব বিদ্যার ঐশ্বর্য। শঙ্করাচার্য বিদ্যামায়া রেখেছিলেন। তুমি আর এরা যে আমার জন্যে ভাবছ, এই ভাবনা বিদ্যামায়া!
“विद्या-माया के सहारे (Be and Make-कैम्प के सहारे) चलते रहने पर ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है । जैसे ऊपरवाली सीढ़ी, उसके बाद ही छत । कोई कोई छत पर पहुँचने के बाद भी सीढ़ियों से चढ़ते-उतरते रहते हैं - ज्ञानप्राप्ति के बाद भी 'विद्या का मैं' रख छोड़ते हैं - लोकशिक्षा के लिए और भक्ति का स्वाद लेने तथा भक्तों के साथ विलास करने के लिए भी ।”
[नरेंद्र आदि भक्त चुप हैं, सोच रहे हैं क्या ठाकुर इन बातों से अपनी अवस्था का उल्लेख कर रहे हैं ? ]
"Following the 'maya of knowledge' step by step, one attains the Knowledge of Brahman. This 'maya of knowledge' may be likened to the last few steps of the stairs. Next is the roof. Some, even after reaching the roof, go up and down the stairs; that is to say, some, even after realizing God, retain the 'ego of Knowledge'. They retain this in order to teach others, taste divine bliss, and sport with the devotees of God."
“বিদ্যামায়া ধরে ধরে সেই ব্রহ্মজ্ঞান লাভ হয়। যেমন সিঁড়ির উপরের পইটে — তারপরে ছাদ। কেউ কেউ ছাদে পৌঁছানোর পরও সিঁড়িতে আনাগোনা করে — জ্ঞানলাভের পরও বিদ্যার আমি রাখে। লোকশিক্ষার জন্য। আবার ভক্তি আস্বাদ করবার জন্য — ভক্তের সঙ্গে বিলাস করবার জন্য।”
নরেন্দ্রাদি ভক্তেরা চুপ করিয়া আছেন। ঠাকুর কি এ-সমস্ত নিজের অবস্থা বলিতেছেন?
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
नरेन्द्र - त्याग करने की बात चलाने से कोई कोई मुझसे नाराज हो जाते हैं ।
NARENDRA: "Some people get angry with me when I speak of renunciation."
নরেন্দ্র — কেউ কেউ রাগে আমার উপর, ত্যাগ করবার কথায়।
श्रीरामकृष्ण - (धीमे स्वर से) - त्याग आवश्यक है ।
MASTER (in a whisper): "Renunciation is necessary.
শ্রীরামকৃষ্ণ (মৃদুস্বরে) — ত্যাগ দরকার।
श्रीरामकृष्ण अपने शरीर के अंगों को दिखलाकर कह रहे हैं - " एक वस्तु के ऊपर अगर दूसरी वस्तु हो, तो एक को बिना हटाये दूसरी वस्तु कैसे मिल सकती है ?"
[आत्मा पर देह और मन आरोपित है ? एक को हटाए बिना, दूसरा कैसे पाया जा सकता है ?]
(Pointing to his different limbs) "If one thing is placed upon another, you must remove the one to get the other. Can you get the second thing without removing the first?"
ঠাকুর নিজের শরীরের অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ দেখাইয়া বলিতেছেন, “একটা জিনিসের পার যদি আর-একটা জিনিস থাকে, প্রথম জিনিসটা (ब्रह्म) পেতে গেলে, ও জিনিসটা (जगत) সরাতে হবে না? একটা না সরালে আর একটা কি পাওয়া যায়?”
नरेन्द्र - जी हाँ ।
NARENDRA: "True, sir."
নরেন্দ্র — আজ্ঞা হাঁ।
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
19.🔱🕊सर्वं ब्रह्ममयं रे रे🔱🕊
(Sarvam seE myam rE rE)
['सेई' मय देखले आर किछु कि देखा जाय ?]
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से, धीमे स्वर में) - ईश्वरमय देखते रहने पर क्या फिर कोई दूसरी चीज दिखलायी पड़ सकती है ?
MASTER (in a whisper, to Narendra): "When one sees everything filled with God alone, does one see anything else?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রকে, মৃদুস্বরে) — সেই-ময় দেখলে আর কিছু কি দেখা যায়?
नरेन्द्र - संसार का त्याग करना ही होगा ?
NARENDRA: "Must one renounce the world?"
নরেন্দ্র — সংসারত্যাগ করতে হবেই?
श्रीरामकृष्ण - जैसा मैंने अभी कहा, ईश्वरमय देखते रहने पर फिर क्या दूसरी वस्तु दीख पड़ती है? संसार आदि क्या कुछ दिखलायी पड़ सकता है ?
MASTER: "Didn't I say just now: 'When one sees everything filled with God alone, does one see anything else?' Does one then see any such thing as the world?
শ্রীরামকৃষ্ণ — যা বললুম সেই-ময় দেখলে কি আর কিছু দেখা যায়? সংসার-ফংসার আর কিছু দেখা যায়?
“परन्तु त्याग मन से होना चाहिए । यहाँ जो लोग आते हैं, उनमें संसारी कोई नहीं है । किसी किसी की इच्छा थी – स्त्री के साथ रहने की - (राखाल और मास्टर का हँसना) वह भी पूरी हो गयी ।"
"I mean mental renunciation. Not one of those who have come here is a worldly person. Some of them had a slight desire — for instance, a fancy for women. (Rakhal and M. smile.) And that desire has been fulfilled."
“তবে মনে ত্যাগ। এখানে যারা আসে, কেউ সংসারী নয়। কারু কারু একটু ইচ্ছা ছিল — মেয়েমানুষের সঙ্গে থাকা। (রাখাল, মাস্টার প্রভৃতির ঈষৎ হাস্য) সেই ইচ্ছাটুকু হয়ে গেল।
[ (11 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
20.🔱🕊 नरेंद्र और वीरभाव-Attitude of a hero! Be Heros 🔱🕊
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को स्नेहपूर्ण दृष्टि से देख रहे हैं । देखते ही देखते मानो आनन्द से पूर्ण हो गये । भक्तों की ओर देखकर कहने लगे - "खूब हुआ ।" नरेन्द्र ने हँसकर पूछा - "क्या खूब हुआ ?"
The Master looks at Narendra tenderly and becomes filled with love. Looking, at the devotees, he says, "Grand!" With a smile Narendra asks the Master, "What is grand?"
ঠাকুর নরেন্দ্রকে সস্নেহে দেখিতেছেন। দেখিতে দেখিতে যেন আনন্দে পরিপূর্ণ হইতেছেন। ভক্তদের দিকে তাকাইয়া বলিতেছেন — ‘খুব’! নরেন্দ্র ঠাকুরকে সহাস্যে বলিতেছেন, ‘খুব’ কি?
श्रीरामकृष्ण - (मुस्कराते हुए) - मैं देख रहा हूँ कि महान् त्याग के लिए तैयारी हो रही है ।
MASTER (smiling): "I see that preparations are going on for a grand renunciation."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — খুব ত্যাগ আসছে।
नरेन्द्र और भक्तगण चुप हैं। सब के सब श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं।
अब राखाल बातचीत करने लगे।
Narendra and the devotees look silently at the Master. Rakhal resumes the conversation.
নরেন্দ্র ও ভক্তেরা চুপ করিয়া আছেন ও ঠাকুরকে দেখিতেছেন। এইবার রাখাল কথা কহিতেছেন।
राखाल -(श्री रामकृष्ण से, सहास्य) -नरेन्द्र ने आपको खूब समझ लिया है।
RAKHAL (smiling, to the Master): "Narendra is now beginning to understand you rather well."
রাখাল (ঠাকুরকে, সহাস্যে) — নরেন্দ্র আপনাকে খুব বুঝছে।
श्रीरामकृष्ण हँसकर कह रहे हैं - " हाँ। और देखता हूँ , बहुतों ने समझ लिया है। (मास्टर से) क्यों जी?
Sri Ramakrishna laughs and says: "Yes, that is so. I see that many others, too, are beginning to understand. (To M.) Isn't that so?"
ঠাকুর হাসিতেছেন ও বলিতেছেন, “হাঁ, আবার দেখছি অনেকে বুঝেছে! (মাস্টারের প্রতি) — না গা?”
मास्टर - जी हाँ।
M: "Yes, sir."
মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ।
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र और मणि को देख रहे हैं और हाथ के इशारे से राखाल आदि भक्तों को दिखा रहे हैं। पहले नरेन्द्र की ओर इशारा करके दिखलाया, फिर मास्टर की ओर। राखाल श्रीरामकृष्ण का इशारा समझ गए। उन्होंने कहा - " आप कहते हैं, नरेन्द्र का वीर -भाव (attitude of a hero) है और इनका (मास्टर का) सखी -भाव। " (श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं )
Sri Ramakrishna turns his eyes to Narendra and M. and by a sign of his finger draws the attention of the devotees to them. He first points out Narendra and then M. Rakhal understands the Master's hint and says to him with a smile, "Don't you mean that Narendra has the attitude of a hero, and he [meaning M.] that of a handmaid (दासी) of God?" Sri Ramakrishna laughs.
ঠাকুর নরেন্দ্র ও মণিকে দেখিতেছেন ও হস্তের দ্বারা ইঙ্গিত করিয়া রাখালাদি ভক্তদিগকে দেখাইতেছেন। প্রথন ইঙ্গিত করিয়া নরেন্দ্রকে দেখাইলেন — তারপর মণিকে দেখাইলেন! রাখাল ইঙ্গিত বুঝিয়াছেন ও কথা কহিতেছেন।রাখাল (সহাস্যে, শ্রীরামকৃষ্ণর প্রতি) — আপনি বলছেন নরেন্দ্রের বীরভাব? আর এঁর সখীভাব? [ঠাকুর হাসিতেছেন]
नरेन्द्र - (सहास्य) - ये अधिक बोलते नहीं, और स्वभाव के लजीले हैं। शायद इसीलिए आप ऐसा कहते हैं।
NARENDRA (smiling, to Rakhal): "He [meaning M.] doesn't talk much and is bashful. Is that why you say he is a handmaid of God?"
নরেন্দ্র (সহাস্যে) — ইনি বেশি কথা কন না, আর লাজুক; তাই বুঝি বলছেন।
[ (11 /15 मार्च, 1886) श्री रामकृष्ण वचनामृत-134]
(सोमवार, 15 मार्च, 1886)
21.🏹🔱🕊हमारा 3'H's क्या ठाकुरदेव के भीतर से आया है ?🏹🔱🕊
[ Thakur Sri Ramakrishna — Who is he? ]
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ — কে তিনি? ]
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से, हँसकर) - अच्छा, मेरा क्या भाव है ?
MASTER (smiling, to Narendra): "Well, what do you think of me?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে নরেন্দ্রকে) — আচ্ছা, আমার কি ভাব?
नरेन्द्र - वीरभाव, सखीभाव -सब भाव।
NARENDRA: "You are a hero, a handmaid of God, and everything else."
নরেন্দ্র — বীরভাব, সখীভাব, — সবভাব।
यह सुनकर मानो श्रीरामकृष्ण को 'भावावेश ' (divine emotion-दिव्य भाव) हो गया । हृदय पर हाथ रखकर कुछ कहने वाले हैं ।
These words fill Sri Ramakrishna with divine emotion. He places his hand on his heart and is about to say something.
ঠাকুর এই কথা শুনিয়া যেন ভাবে পূর্ণ হইলেন, হৃদয়ে হাত রাখিয়া কি বলিতেছেন!
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्रादि भक्तों से) - देखता हूँ, जो कुछ है (3H's?), सब इसी के भीतर से आया है ।
He says to Narendra and the other devotees: "I see that all things — everything that exists —(3H's?) have come from this."
শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রাদি ভক্তদিগকে) — দেখছি এর ভিতর থেকেই যা কিছু (3H's?)।
नरेन्द्र से इशारा करके श्रीरामकृष्ण पूछ रहे हैं, “क्या समझे ?”
He asks Narendra by a sign, "What did you understand?"
নরেন্দ্রকে ইঙ্গিত করিয়া জিজ্ঞাসা করিতেছেন, “কি বুঝলি?”
नरेन्द्र - जो कुछ है, अर्थात् सृष्टि में जो कुछ पदार्थ हैं (3H's?), सब आपके भीतर से आया है ।ऑ॥॥
NARENDRA: "All created objects (3H's?) have come from you."
श्रीरामकृष्ण - (राखाल से, आनन्दपूर्वक) – देखा ?
The Master's face beams with joy. He says to Rakhal, "Did you hear what" he said?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (রাখালের প্রতি, আনন্দে) — দেখছিস!
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से जरा गाने के लिए कह रहे हैं । नरेन्द्र स्वर अलापकर गा रहे हैं । नरेन्द्र का त्याग-भाव है । वे गा रहे हैं –
"नलिनीदलगतजलमतितरलम् ।तद्वज्जीवनमतिशयचपलम् ॥
क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका । भवति भवार्णवतरणे नौका ॥”
....अर्थात "जिस प्रकार कमल की पंखुड़ी पर पानी की बूँदें क्षणभंगुर हैं ; ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर है। साधु (गुरुदेव-नेता-जीवनमुक्त शिक्षक) के साथ (सत्संग) में बिताया गया एक भी पल वह 'नाव' है जो, मनुष्य को इस संसार सागर से (जन्म-मृत्यु के चक्र से) पार ले जाती है"।
Oh deluded man ! Why do you worry about your wealth and wife? Is there no one to take care of them? Only the company of saints can act as a boat in three worlds to take you out from this ocean of rebirths. ॥13॥]
Sri Ramakrishna asks Narendra to sing. Narendra intones a hymn. His mind is full of renunciation. He sings: "Unsteady is water on the lotus petal; Just as unsteady is the life of man. One moment with a sadhu is the boat That takes one across the ocean of this world". . . .
ঠাকুর নরেন্দ্রকে একটু গান গাইতে বলিতেছেন। নরেন্দ্র সুর করিয়া গাহিতেছেন। নরেন্দ্রের ত্যাগের ভাব, — গাহিতেছেন: “নলিনীদলগতজলমতিতরলম্ তদ্বজ্জীবনমতিশয়চপলম্, ক্ষণমিহ সজ্জনসঙ্গতিরেকা, ভবতি ভবার্ণবতরণে নৌকা।”
दो-एक पद गाने के बाद ही श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से इशारे से कह रहे हैं, "यह क्या है ? यह तो बहुत छोटा भाव है !"
Narendra has hardly finished one or two lines, when Sri Ramakrishna says to him by a sign: "What are you singing? That is a very insignificant attitude, a very commonplace thing."
দুই-এক চরণ গানের পরই ঠাকুর নরেন্দ্রকে ইঙ্গিত করিয়া বলিতেছেন, “ও কি! ও-সব ভাব অতি সামান্য!”
नरेन्द्र अब सखी-भाव का एक सुन्दर गीत गा रहे हैं –
काहे सई, जियत मरत कि विधान !
व्रजकि किशोर सई, काँहा गेल भागई, वज्रजन टूटल परान।।
मिलि सई नागरी, भूली गेयी माधव, रूपविहीन गोपकुगांरी।
को जाने पिय सई, रसमय प्रेमिक, हेन बन्धु रूप कि भिखारी।।
आगे नाही बूझूनू, रूप हरि भूलनू , हृदि केनू चरण यूगल।
यमूना सलिले सई, अब तनू डारब, आनो सखि भखिबो गरल।।
(किवा) कानन वल्लरी, गल बेढ़ी बाँधई, नवीन तमाल दिव फाँस।
नहे श्याम श्याम श्याम श्याम श्याम श्याम नाम -जपई, छार तनू करिबो बिनाश।।
(भावार्थ) - "अरी सखि ! जीवन और मृत्यु का यह कैसा विधान है ! व्रज-किशोर कहाँ भाग गये ? इस ब्रज-गोपी के तो प्राणों पर आ गयी है । सखि, माधव तो सुन्दर कन्याओं के प्रेम में बँधे हुए हैं । हाय ! इस रूपविहीन गोप-कन्या को उन्होंने भुला दिया है । अरी, कौन जानता था कि वे रसमय प्रेमिक रूप के भिखारी होंगे ?
मैं मूर्ख थी जो पहले मैंने यह नहीं समझा; रूप देखकर भूल गयी, और उनके युगलचरणों को हृदय में स्थापित किया । री सखि, अब तो जी यह चाहता है कि यमुना में डूबकर मर जाऊँ या जहर लाकर खा लूँ, अथवा कुंजों की लताओं से गला फाँसकर किसी नये तमाल में लटककर प्राण दे दूँ, या श्याम-श्याम जपते-जपते इस अधम शरीर का नाश कर डालूँ ।"
Now Narendra sings about the love of Krishna, impersonating one of His handmaids:
"How strange, O friend, are the rules of life and death! The Youth of Braja has fled away, And this poor maid of Braja soon will die. Madhava is in love with other maids More beautiful than I. Alas! He has forgotten the milkman's artless daughter. Who would ever have guessed, dear friend, that He, A Lover so tender, so divine, Could be a beggar simply for outward charm! I was a fool not to have seen it before; But carried away by His beauty, I yearned alone to hold His two feet to my breast. Now I shall drown myself in the Jamuna's stream, Or take a draught of poison, friend! Or I shall bind a creeper round my neck, Or hang myself from a young tamala tree; Or, failing all of these, Destroy my wretched self by chanting Krishna's name.
নরেন্দ্র এইবার সখী ভাবের গান গাহিতেছেন:
কাহে সই, জিয়ত মরত কি বিধান!
ব্রজকি কিশোর সই, কাঁহা গেল ভাগই, ব্রজজন টুটায়ল পরাণ ॥
মিলি সই নাগরী, ভুলিগেই মাধব, রূপবিহীন গোপকুঙারী।
কো জানে পিয় সই, রসময় প্রেমিক, হেন বঁধু রূপ কি ভিখারি ॥
আগে নাহি বুঝুনু, রূপ হেরি ভুলনু, হৃদি কৈনু চরণ যুগল।
যমুনা সলিলে সই, অব তনু ডারব, আন সখি ভখিব গরল ॥
(কিবা) কানন বল্লরী, গল বেঢ়ি বাঁধই, নবীন তমালে দিব ফাঁস।
নহে শ্যাম শ্যাম শ্যাম শ্যাম শ্যাম নাম-জপই, ছার তনু করিব বিনাশ ॥
गाना सुनकर श्रीरामकृष्ण और भक्तगण मुग्ध हो गये । श्रीरामकृष्ण और राखाल की आँखों से आँसू बह चले । नरेन्द्र व्रज की गोपियों के भाव में मस्त होकर फिर गा रहे हैं -
तुमि आमार, आमार बँधु, कि बोली (कि बोली तोमाय बोलि नाथ),
(कि जानि कि बोली आमि अभागिनी नारीजाति)।
तुमि हातो कि दर्पण, माखोकि फूल,
(तोमाय फूल करे केशे पोरबो बँधु। )
(तोमाय कबरीर सने लुकाये लूकाये राखबो बँधु)।
(श्यामफूल परिले केउ नखते नारबे)।
तुमि नयनेर अंजन, बयानेर ताम्बूल,
(तोमाय श्याम अंजन करे आँखे परबो बन्धु)
(श्याम अंजन परेछि बले केउ नखते नारबे)।
तुमि अङ्गकी मृगमद गिमकी हार।
(श्यामचन्दन माखि शीतल होबो बँधु)
तोमार हार कण्ठे परबो बँधु। तुमि देहकि सर्वस्व गेहकि सार।।
पाखिको पाख मीनको पानि। तेयसे हम बन्धू तुया मानि।।
(भावार्थ) –
“हे कृष्ण ! प्रियतम ! तुम मेरे हो । तुमसे मैं क्या कहूँ, मेरे नाथ, तुमसे मैं क्या बोलूँ ? मैं नारी हूँ, अभागिनी हूँ, समझ नहीं पा रही हूँ कि मैं तुमसे क्या कहूँ । तुम मेरे हाथ के दर्पण हो, सिर के फूल हो । सखे, मैं तुम्हें फूल बनाकर केशों में खोंच लूँगी और खोपे में छिपा रखूँगी । श्याम-फूल खोंचने से तुम्हें कोई देख न पायेगा । तुम मेरी आँखों के अंजन हो, मुख के ताम्बूल हो ।
हे श्याम ! हे कृष्ण ! तुम्हें अंजन बनाकर आँखों में लगा लूँगी । श्याम-अंजन होने के कारण तुम्हें वहाँ कोई देख न सकेगा । तुम अंग की कस्तूरी हो, गले के हार हो । सखे, शरीर में श्यामचन्दन लेपकर मैं अपने प्राण शीतल करूँगी । प्रियतम, तुम्हें मैं हार बनाकर कण्ठ में पहनूँगी । तुम देह के सर्वस्व हो, गेह के सार हो । पक्षी के लिए जिस तरह पंख हैं, और मछली के लिए जिस तरह पानी है, उसी तरह, हे नाथ, तुम मेरे लिए हो ।"
Sri Ramakrishna and the devotees are greatly moved by the song. The Master and Rakhal shed tears of love. Narendra is intoxicated with the love of the gopis of Braja for their Sweetheart, Sri Krishna, and sings:
"O Krishna! Beloved! You are mine. What shall I say to You, O Lord? What shall I ever say to You? Only a woman am I, And never fortune's favourite; I do not know what to say. You are the mirror for the hand, And You are the flower for the hair. O Friend, I shall make a flower of You , And wear You in my hair; Under my braids I shall hide You, Friend! No one will see You there . You are the betel-leaf for the lips, The sweet collyrium for the eyes; O Friend, with You I shall stain my lips, With You I shall paint my eyes. You are the sandal-paste for the body; You are the necklace for the neck. I shall anoint myself with You, My fragrant Sandal-paste, And soothe my body and my soul. I shall wear You, my lovely Necklace, Here about my neck, And You will lie upon my bosom, Close to my throbbing heart. You are the Treasure in my body; You are the Dweller in my house. You are to me, O Lord, What wings are to the flying bird, What water is to the fish.
গান শুনিয়া ঠাকুর ও ভক্তেরা মুগ্ধ হইয়াছেন। ঠাকুর ও রাখালের নয়ন দিয়ে প্রেমাশ্রু পড়িতেছে। নরেন্দ্র আবার ব্রজগোপীর ভাবে মাতোয়ারা হইয়া কীর্তনের সুরে গাহিতেছেন:
তুমি আমার, আমার বঁধু, কি বলি (কি বলি তোমায় বলি নাথ)।
(কি জানি কি বলি আমি অভাগিনী নারীজাতি)।
তুমি হাতোকি দর্পণ, মাথোকি ফুল
(তোমায় ফুল করে কেশে পরব বঁধু)।
(তোমায় কবরীর সনে লুকায়ে লুকায়ে রাখব বঁধু)
(শ্যামফুল পরিলে কেউ নখতে নারবে)।
তুমি নয়নের অঞ্জন, বয়ানের তাম্বুল
(তোমায় শ্যাম অঞ্জন করে এঁখে পরবো বঁধু)
(শ্যাম অঞ্জন পরেছি বলে কেউ নখতে নারবে)
তুমি অঙ্গকি মৃগমদ গিমকি হার।
(শ্যামচন্দন মাখি শীতল হব বঁধু)
তোমার হার কণ্ঠে পরব বঁধু। তুমি দেহকি সর্বস্ব গেহকি সার ॥
পাখিকো পাখ মীনকো পানি। তেয়সে হাম বঁধু তুয়া মানি ॥
===================
#विद्या और अविद्या
अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में होता है। भ्रान्ति एवं अज्ञान भी इसके पर्याय है। इस अवस्था में चेतनता की स्थिति तो हो सकती है, लेकिन इसमें जिस वस्तु का ज्ञान होता है, वह मिथ्या होती है। सांसारिक जीव 'अहंकार' (M/F देहाध्यास) या अविद्याग्रस्त होने के कारण अपने परिवर्तनशील शरीर (या नश्वरजगत्) को सत्य मान लेता है और अपने अविनाशी वास्तविक रूप, ब्रह्म या आत्मा का अनुभव नहीं कर पाता।
एक सत्य (सच्चिदानन्द) को अनेक रूपों में देखना एवं 'मैं','मेरा', 'तू', 'तेरा', यह, वह, इत्यादि का भ्रम उसे अविद्या के कारण होता है। आचार्य शंकर के अनुसार प्रथम देखी हुई वस्तु की स्मृतिछाया को दूसरी वस्तु पर आरोपित करना भ्रम या अध्यास है। रस्सी में साँप का भ्रम इसी अविद्या के कारण होता है। इसी प्रकार माया या अविद्या आत्मा में अनात्म वस्तु का आरोप करती है। आचार्य शंकर के अनुसार इस तरह के अध्यास को अविद्या कहते हैं। संसार के सारा आचार व्यवहार एवं संबंध [सास-बहू, साला -जीजा, बेटा-पुतोह, आदि सम्बन्ध] अविद्याग्रस्त संसार में ही संभव है। अत: संसार व्यवहारतः (practically) ही सत्य है, परमार्थत: (Ultimately) वह मिथ्या है, माया है। [यह संसार यानि हमारा स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर यानि ज्ञानिन्द्रियों के साथ मन, बुद्धि, चीत्त, अहंकार (M/F आदि भाव)~ व्यावहारिक दृष्टि से ही सत्य है, अन्ततोगत्वा (eventually-मूलभूत रूप में, अन्ततः) मिथ्या (false) है, माया (illusion) है।]
माया की कल्पना ऋग्वेद में मिलती है। यह इंद्र की शक्ति मानी गई है, जिससे वह विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। उपनिषदों में इन्हें ब्रह्म की शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। किंतु इन्हें ईश्वर की शक्ति के रूप में अद्वैत वेदान्त में भी स्वीकार किया गया है। [ब्रह्म और शक्ति अभेद है - जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति !] माया अचितद्य (infallible-अमोघ, अभ्रान्त) तत्व है, इसलिए ब्रह्म से उसका संबंध नहीं हो सकता। अविद्या भी माया की समानधर्मिणी है। यदि माया सर्वदेशीय भ्रम (universal illusion) का कारण है तो अविद्या व्यक्तिगत भ्रम (individual illusion) का करण है। दूसरे शब्दों में समष्टि रूप में अविद्या माया है और माया व्यष्टि रूप में अविद्या है।
रस्सी में साँप का भ्रम, या शुक्ति में रजत का आभास उत्पन्न होने पर हम अधिष्ठान के मूल रूप को नहीं देख पाते। अविद्या दो प्रकार से अधिष्ठान का "आवरण" करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह अधिष्ठान के वास्तविक रूप को ढँक देती है। द्वितीय, विक्षेप कर देती है, अर्थात् उसपर दूसरी वस्तु का आरोप कर देती है। अविद्या के कारण ही हम एक अद्वैत ब्रह्म (सच्चिदा-नन्द) के स्थान पर नामरूप (M/F) से परिपूर्ण जगत् का दर्शन करते हैं।
इसीलिए अविद्या को "भावरूप" कहा गया है, क्योंकि वह अपनी विक्षेप शक्ति (power of distraction) के कारण ब्रह्म के स्थान पर नानात्य (diversity) को आभासित करती है। अनिर्वचनीय ख्याति के अनुसार अविद्या न तो सत् है और न असत्। वह सद्सद्विलक्षण है। अविद्या को अनादि तत्व माना गया है। अविद्या ही बंधन का कारण है, क्योंकि इसी के प्रभाव से अहंकार की उत्पत्ति होती है।
वास्तविकता एवं भ्रम को अपने अनुभव से ठीक ठीक जान लेने को ही वेदान्त में ज्ञान कहा गया है। फलत: ब्रह्म और अविद्या (ignorance) का ज्ञान ही विद्या कहा जाता है। अद्वैत वेदान्त में ज्ञान ही मोक्ष (salvation) का साधन माना गया है, अतएव विद्या इस साधन का एक अनिवार्य अंग है। विद्या का मूल अर्थ है, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति से परे तुरीय (चतुर्थ) या परम सत्य (ultimate truth) का ज्ञान, परमार्थ तत्व का ज्ञान या आत्मज्ञान (self-knowledge)। अद्वैत वेदांत में परमार्थ तत्व या सत्य मात्र ब्रह्म को स्वीकार किया गया है। ब्रह्म एव आत्मा में कोई अंतर नहीं है। यह आत्मा ही ब्रह्म है। अस्तु, विद्या को विशिष्ट रूप से आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कह सकते हैं।
विद्या के दो रूप कहे गए हैं - अपरा विद्या, जो निम्न केटि की विद्या मानी गई है, सगुण ज्ञान से सम्बन्ध रखती है। इससे मोक्ष नहीं प्राप्त किया जा सकता। मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन पराविद्या है। इसी को आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कहते हैं। अविद्याग्रसत जीवन से मुक्ति पाने के लिए एवं अपने रूप का साक्षात्कार करने के लिए परा विद्या के अंग हैं। यदि अपरा विद्या प्रथम सोपान है, तो परा विद्या द्वितीय सोपान है। साधन चतुष्टय से प्रारंभ करके, मुमुक्षु श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, इन त्रिविध मानसिक क्रियाओं का क्रमिक नियमन करता है। वह "तत्वमसि" वाक्य का श्रवण करने के बाद, मनन की प्रक्रिया से गुजरते हुए, ध्यान या समाधि अवस्था में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसे "मैं ही ब्रह्म हूँ" का बोध हो उठता है। यही ज्ञान परा विद्या कहलाता है।
भौतिक जगत के जिस ज्ञान को आजकल 'विज्ञान' कहते हैं उसी को उपनिषद में अपरा विद्या के नाम से कहा गया है। अभ्युदय और भौतिकता, अविद्या के पर्याय हैं। इसी प्रकार निःश्रेयस और आध्यात्मिकता विद्या के पर्याय हैं। ईशोपनिषद् में उपलब्ध एक मंत्र का अंतिम वाक्यांश निम्नलिखित है :
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥
इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव = देवत्व) प्राप्त कर लेता है। उस अवस्था का वर्णन करते हुए गीता में कहा गया है -
" यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।।"
BG 6.22: ऐसी अवस्था प्राप्त कर कोई और कुछ श्रेष्ठ पाने की इच्छा नहीं करता। ऐसी सिद्धि प्राप्त कर कोई मनुष्य बड़ी से बड़ी आपदाओं में विचलित नहीं होता।
क्या जीवन में आनेवाली कठिन परिस्थितियों में जैसे प्रिय का वियोग हानि रुग्णता दरिद्रता भुखमरी आदि में धर्म के द्वारा आश्वासित पूर्णत्व अविचलित रह सकता है ? क्या उस योगी को सामान्य जनों को अनुभव होने वाले दुख कभी नहीं होंगे ? क्या उसमें संसारी मनुष्यों के समान अधिक से अधिक वस्तुओं को संग्रह करने की इच्छा नहीं होगी ? क्या वह लोगों से प्रेम करने के साथ उनसे उसकी अपेक्षा नहीं रखेगा ? लोगों के मन में उठने वाली इस शंका का असंदिग्ध उत्तर देते हुए यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जिसमें स्थित हो जाने पर पर्वताकार दुखों से भी वह योगी विचलित नहीं होता।
भौतिक जीवन में [अर्थात स्वयं को केवल शरीर M/F मानकर] किसी भी सीमा तक प्राप्त हुई उपलब्धियों से कोई भी प्राणी पूर्णतः संतुष्ट नहीं हो पाता। निर्धन व्यक्ति धनवान बनने के लिए कड़ा परिश्रम करता है और जब वह लखपति हो जाता है तब स्वयं को संतुष्ट मानने लगता है। किन्तु जब वह करोड़पति को देखता है तब पुनः दुखी हो जाता है। करोड़पति भी अपने से अधिक धनवान को देखकर असंतोष प्रकट करता है। चाहे हम कितने भी सुखी हों जब हम उच्चावस्था वाले सुखों की ओर देखते हैं तब हमें अपने सुख बोने दिखाई देने लगते हैं और हमारे भीतर अतृप्ति की भावना जागृत हो जाती है। लेकिन योग की अवस्था से प्राप्त होने वाला सुख भगवान का असीम सुख है क्योंकि इससे श्रेष्ठ कुछ नहीं है। इस सुख की अनुभूति से आत्मा को स्वाभाविक रूप से यह बोध हो जाता है कि उसने अपने चरम लक्ष्य को पा लिया है। भगवान का दिव्य आनन्द भी शाश्वत है और जो योगी इसे पा लेता है। तब फिर उससे यह दिव्य आनंद छिन नहीं सकता। ऐसी भगवद्प्राप्त आत्माएँ (राजर्षि जनक) भौतिक शरीर में रहते हुए भी दिव्य चेतना की अवस्था में स्थित रहती हैं।
कभी-कभी बाहर से देखने पर प्रतीत होता कि ऐसे सिद्ध संत भी अस्वस्थता, विरोधी लोगों और कष्टदायी परिवेश के रूप में संकट का सामना कर रहे हैं। किन्तु आंतरिक दृष्टि से ऐसे संत दिव्य चेतना में लीन रहते हैं और निरन्तर भगवान के दिव्य सुख का आस्वादन करते रहते हैं। इस प्रकार बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ भी ऐसे संतों को विचलित नहीं कर सकतीं। भगवान के साथ संबंध स्थापित कर (या अपनी आत्मा की अनुभूति करने के बाद) ऐसे संत शारीरिक चेतना से ऊपर उठ जाते हैं (अपने को नश्वर, परिवर्तनशील शरीर नहीं समझते हैं) और इसलिए वे शारीरिक कष्टों से होने वाली क्षति से प्रभावित नहीं होते। तदानुसार हमने पुराणों में यह सुना है कि प्रह्लाद को कैसे गड्ढे में डाला गया, हथियारों से (लोसार) यातना दी गयी, अग्नि में बिठाया गया, पहाड़ से गिराया गया आदि। किन्तु कोई भी विपत्ति प्रह्लाद को भगवान की भक्ति से विलग नहीं कर पायी।
3H विकास के 5 अभ्यास के फलस्वरूप जब चित्त पूर्णतया शान्त हो जाता है, तब उस शान्त चित्त में आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में नहीं वरन् अपने आत्मस्वरूप से।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।
(पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश पंचभूत तथा मन (चित्त, बुद्धि और अहंकार) - यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है। यहाँ मन से उसके कारण भूत अहंकार का कारण महत्तत्त्व और अहंकार अर्थात् अविद्यायुक्त अव्यक्त मूलप्रकृति। जैसे विषयुक्त अन्न भी विष ही कहा जाता है, वैसे ही अहंकार और वासना से युक्त अव्यक्त मूलप्रकृति भी अहंकार नाम से कही जाती है। इस प्रकार यह उपर्युक्त प्रकृति -अष्टधा प्रकृति 'अपरा' जड़ है। अर्थात् मुझ ईश्वर की मायाशक्ति आठ प्रकार से भिन्न विभाग को प्राप्त हुई है।
आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी वे पंच-महाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार यह है अष्टधा प्रकृति जो परम सत्य के अज्ञान के कारण उस पर अध्यस्त (कल्पित) है। व्यष्टि (एक व्यक्ति ) में स्थूल पंचमहाभूत का रूप है, उसका स्थूल शरीर तथा उनके सूक्ष्म भाव का रूप पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, जिनके द्वारा मनुष्य बाह्य जगत् का अनुभव करता है। ज्ञानेन्द्रियाँ ही वे कारण हैं जिनके द्वारा विषयों की संवेदनाएं मन तक पहुँचती हैं। इन प्राप्त संवेदनाओं का वर्गीकरण तथा उनका ज्ञान और निश्चय करना बुद्धि का कार्य है। इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण मन के द्वारा उनका एकत्रीकरण तथा बुद्धि के द्वारा उनका निश्चय इन तीनों स्तरों पर एक अहं वृत्ति सदा बनी रहती है जिसे अहंकार कहते हैं। ये जड़ उपाधियाँ हैं जो चैतन्य का स्पर्श पाकर चेतनवत् व्यवहार करने में समर्थ होती हैं।
इसके पश्चात् अपनी परा प्रकृति बताने के लिए भगवान् कहते हैं
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।7.5।।
अष्टधा प्रकृति अपरा जड़ है। उसे बताने के पश्चात् उससे भिन्न अपनी परा प्रकृति को भगवान् बताते हैं। हे महाबाहो ! इससे भिन्न मेरी जीव (चैतन्य-Consciousness) रूपी परा-प्रकृति को जानो, जिससे यह जगत् धारण किया जाता है।। अविनाशी चैतन्य ऊर्जा ही जगत् का अधिष्ठान है।
वेदान्ती कहते है जिस प्रकार मकड़ी अपने द्वारा निर्मित तंतुजाल का उपादान कारण एवं निमित्त कारण होती है; उसी प्रकार ब्रह्म इस सृष्टि का उभयरूप (उपादान और निमित्त ) कारण है। जैसे मकड़ी ( Like Spider web ) अपने ही शरीर से तन्तु उत्पन्न करती है और फिर उन्हें ही समेटकर ग्रहण कर लेती है। उसी प्रकार अविनाशी चैतन्य उर्जा से , अक्षर ब्रह्म से यह विश्व उत्पन्न होता है ! इस प्रकार प्रकृति का आदि स्त्रोत वह चिन्मय सत्ता ही है किन्तु स्वयं यह चिन्मय सत्ता , अचिन्त्य , अज्ञेय , अनिर्देश्य है इसलिए प्रकृति का आविर्भाव काल भी अज्ञेय है ! इसी कारण उसे अनादि कहा जाता है ! उसका आदिकाल जानना असम्भव है !
जो माया का स्वरुप है, वही प्रकृति ( Nature ) का स्वरुप है ! माया और प्रकृति दोनों त्रिगुणा-त्मक हैं ! वस्तुतः माया और प्रकृति में कोई भेद नहीं मानना चाहिए ! माया उस चित्-शक्ति का नाम है, जो प्रकृति का बोध कराती है ! वस्तु जगत की आदिरूपा एवं समष्टिरूपा प्रकृति है ! उसी प्रकार मनोजगत या विज्ञानजगत की आदिरूपा एवं समष्टिरूपा 'माया' है ! जीव-सत्ता को प्रकृति का बोध माया की ही शक्ति से होता है , इसलिए जीवमात्र को माया के स्वरुप के ही अनुसार प्रकृति का बोध होना सम्भव है ! इसी कारण व्यष्टि-चेतना की दृष्टि से माया एवं प्रकृति में भी कोई भेद नहीं !
जो लोग विष्णु की माया को कोई कौतुक चेष्टा समझते हैं , उन्हें न तो शास्त्र का ज्ञान है , न ही सत् का ! माया किसी नियम-मर्यादाविहीन कलाबाजी का नाम नहीं है और न ही मायापति का अर्थ कोई शरारती जादूगर नहीं होता है ! सामान्य जादूगर भी जादू का खेल तभी दिखा पाता है जब वह जादू के नियमों को जाने तथा उनका पालन करे ! सर्वव्यापक चेतन-सत्ता तो स्वयं ही सृष्टि संचालक नियमों (Rules of Nature) की सृजक है, अतः वह उन नियमों की अवहेलना कैसे सहन कर सकती है ?
मायाशक्ति स्वयं ही नियमबद्ध है, नियमों की प्रतिष्ठापिका , शासिका है वह प्रकृति से अभिन्न है ! प्रकृति जिन नियमों से संचालित होती है, वे मायाशक्ति के ही नियम हैं ! जो प्रकृति की शक्तियों को नियमों को जितना अधिक जानता है, वह माया के लीला नियमों का उतना ही अधिक ज्ञाता है! प्रकृति के सम्पूर्ण स्वरुप को , उसके वास्तविक आधार ( Eternal foundation ) को जानना ही माया को जानना है !
जगत् को सत्य न मानने का कारण, मनीषी पूर्वजों की सत्य की भिन्न परिभाषा थी ! सत्य की शास्त्रीय परिभाषा यह है कि - " त्रिकालाबाध्यम् सत्यम्" भूत (Past), वर्तमान (Present) और भविष्य (Future) इन तीनों कालों में , जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों दशाओं में जो एक ही रूप में अवस्थित रहे , जिसका रूप बाधित न हो वह सत्य है ! त्रिकालवाधित निरपेक्ष सत्य एक ही है सर्वव्यापी भूमा प्राण , चैतन्य-उर्जा , परम-सत्य विष्णु ! वही एक अद्वितीय है ! शेष सब सापेक्ष सत्य ( Relative truth ) है ! इस सापेक्ष सत्य का बोध कराने वाली शक्ति माया है !
इस प्रकार सापेक्षसत्य को स्थिर सत्य मान बैठने की प्रवृत्ति ही माया बन्धन है ! जगत की सत्ता है ही नहीं , ऐसा वेदान्तविद् कभी नहीं कहते ! वे मात्र यही कहते हैं कि जगत सत्य नहीं है , न ही असत्य है अपितु वह मिथ्या ( illusion ) है ! यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वेदान्त में ( In Vedanta ) मिथ्या का अर्थ असत् नहीं,अपितु अनिर्वचनीय होता है ! त्रिकालवाधित सत्य एक ही है - ब्रह्म या विष्णु ! जगत मिथ्या या अनिर्वचनीय है ! उसकी स्वयं में सत्ता तो वास्तविक है ! किन्तु वह सत्ता परिवर्तनशील ( changeable ) है , परिणामशील है ! व्यक्ति जब इस परिवर्तनशील जगत के किसी अनुभव विशेष को परम सत्य मान बैठता है , तो वह भ्रम में होता है , माया-पाश से बंधा होता है ! सपष्ट है कि यह प्रतिपादन आधुनिक विज्ञान के अन्वेषणों से भी खरा उतरता है !!
ज्ञान-विज्ञान योग अध्याय के श्लोक 7.4 और 7.5 में अपनी दो शक्तियों- अपरा और परा शक्ति/प्रकृति का वर्णन करने के पश्चात अब [ गीता 7.25 में ] श्रीकृष्ण अपनी तीसरी अतरंग शक्ति 'योगमाया' का उल्लेख करते हैं। यह भगवान की परम शक्ति है। भगवान संसार में समय समय पर अवतार लेते हैं और पृथ्वी लोक पर अपनी लीलाओं को उसी प्रकार से प्रकट करते हैं। इसी योगमाया की शक्ति द्वारा वे स्वयं को आच्छादित रखते हैं।
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।
[(ज्ञान-विज्ञान योग- 7.25)]
अर्थात्—अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके सामने प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ, इसलिए यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित, अविनाशी परमात्मा को तत्त्व से नहीं जानता है, अर्थात् मुझे जन्मने-मरने वाला मानता है।
भगवान की यह योगमाया उनकी अत्यन्त प्रभावशाली वैष्णवी ऐश्वर्यशक्ति है जिसके वश में सम्पूर्ण जगत रहता है । उसी योगमाया को अपने वश में करके भगवान लीला के लिए दिव्य गुणों के साथ मनुष्य जन्म धारण करते हैं और साधारण मनुष्य से ही प्रतीत होते हैं । इसी मायाशक्ति का नाम योगमाया है ।
गीता (४।६) में भगवान श्रीकृष्ण का कथन है—
अजोऽपि सन अव्यय आत्मा भूतानां ईश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वं अधिष्ठाय सम्भवम्यात्मा-मायाया।।
BG 4.6 : यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तथा अविनाशी हूँ, फिर भी मैं अपनी दिव्य शक्ति योगमाया के बल पर इस संसार में प्रकट होता हूँ।
मायाधिपति श्रीकृष्ण और माया
सृष्टि के आरम्भ में परमब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ने माया को अपने पास बुलाकर कहा कि मैंने संसार की रचना कर ली है अब इस संसार को चलाना तेरा काम है । माया ने कहा–‘भगवन् ! मुझे स्वीकार है, किन्तु एक प्रार्थना है ।’ भगवान ने कहा–‘कहो, क्या प्रार्थना है?’
माया ने कहा–’प्रभु ! इस संसार को चलाने के लिए जिन आकर्षणों की आवश्यकता है, वह तो सब-के-सब आपके पास हैं, उनमें से एक-आध मुझे भी दें ताकि मैं जीवों को अपने जाल में फंसाकर रख सकूं ।’
भगवान ने कहा–‘बोलो क्या चाहिए ?’ माया ने कहा–‘प्रभु ! आप आनन्द के सागर हैं, मेरे पास दु:ख के सिवाय क्या है ? कृपया आप उस आनन्द के सागर की एक बूंद मुझे भी दे दें ताकि मैं उस एक बूंद का रस संसार के इन समस्त जीवों में बांटकर उन्हें अपने वश में रख सकूं, अन्यथा वे मेरी बात नहीं मानेंगे और सीधे आपके दरबार में पहुंच जाएंगे ।’
भगवान ने अपने आनन्द के सागर की एक बूंद माया को देकर कहा—‘जा, इस बूंद को पांच भागों में विभक्त करके मनुष्यों में बांट देना ।’ प्रसन्न होकर माया ने भगवान से कहा–‘प्रभु ! आप निश्चिन्त रहें, आपके द्वारा सौंपे गए कार्य में कोई विघ्न नहीं आने दूंगी ।’
माया ने आनन्द रूपी सागर की बूंद को पांच भागों–रूप, रस गन्ध, शब्द और स्पर्श में विभक्त कर संसार में फैला दिया । इसलिए संसार में सुख और आनन्द प्राप्ति का इन पांच स्थानों के अलावा और कोई स्थान नहीं है । ये पांच गुण–रूप, रस गन्ध, शब्द और स्पर्श क्रमश: हमें अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश और वायु से प्राप्त होते हैं ।
माया के पांच स्थान हैं पांच ज्ञानेन्द्रियां
इन्हीं पांच तत्त्वों से इस शरीर की रचना हुई है । इन्हीं पांच तत्त्वों को ग्रहण करने के लिए भगवान ने हमें आंख, नाक, कान, जिह्वा और त्वचा—ये पांच ज्ञानेन्द्रियां दे रखी हैं । नासिका के द्वारा हम पृथ्वी के गन्धरूपी गुण को, जिह्वा के द्वारा जल के रसरूपी गुण को, कानों के द्वारा आकाश के शब्दरूपी गुण को और आंखों के द्वारा अग्नि के रूप गुण अर्थात् सुन्दरता को और त्वचा द्वारा वायु के स्पर्श गुण को ग्रहण करते हैं ।
माया के द्वारा फेंके गए मायाजाल में मनुष्य बहुत बुरी तरह जकड़ा हुआ है । मायापति श्रीकृष्ण की माया से मनुष्य ही नहीं वरन् बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी भ्रमित हो जाते हैं ।
मायाधिपति श्रीकृष्ण का दुर्वासा ऋषि/नारद को ? को अपनी माया का दर्शन कराना
कृष्णावतार में एक दिन दुर्वासा ऋषि परमात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए व्रज में आए । उन्होंने महावन के निकट कालिन्दी के तट पर श्रीकृष्ण को गोपसखाओं के साथ बालु में लोटते और आपस में मल्लयुद्ध करते हुए देखा—‘धूलिधूसर सर्वांगं वक्रकेशं दिगम्बरम् ।’
श्रीकृष्ण का सारा शरीर धूल से भरा था, बाल टेढ़े-मेढ़े बिखरे हुए, नंग-धडंग—शरीर पर कोई वस्त्र नहीं और वे गोपबालकों के पीछे दौड़े चले जा रहे थे । परब्रह्म श्रीकृष्ण इस रूप में ! ऋषि आए थे परमात्मा के दर्शन की अभिलाषा से, परन्तु ब्रह्म को जिस वेष में देखा, वह आश्चर्य में पड़ गए। परब्रह्म के जो लक्षण उनके हृदय में बैठे हुए थे वे तो श्रीकृष्ण से मिलते नहीं थे । भगवान की माया ने उनके मन में एक शंका और पैदा कर दी—‘क्या ये ईश्वर हैं ? भगवान हैं तो फिर साधारण बालक की तरह भूमि पर क्यों लोट रहे हैं ? नहीं, ये परमात्मा श्रीकृष्ण नहीं हैं । ये तो नन्दबाबा के पुत्रमात्र हैं, ये ईश्वर नहीं हैं !!’
भगवान की लीला का आयोजन योगमाया ही करती है
दुर्वासा ऋषि को भगवान श्रीकृष्ण का मायावैभव प्रकट कराने के लिए योगमाया प्रकट हुईं । योगमाया सारे खेल का आयोजन करती है । सबके सामने भगवान योगमाया से ढके रहते हैं परन्तु प्रेमीभक्तों के सामने भगवान योगमाया से अनावृत (प्रकट रूप में) रहते हैं ।
श्रीकृष्ण नन्हीं-नन्हीं भुजाओं को उठाये हुए, दौड़ते हुए ऋषि की गोद में आकर बैठ गए और जोर से हंसने लगे । भगवान हंसकर ही तो जीवों को फंसा लेते हैं । यही तो उनका जादू है ।
खिलखिलाकर हंसते श्रीकृष्ण के मुख में श्वास के साथ योगमाया दुर्वासा ऋषि को खींच लेती है और होंठों के कपाट बंद कर देती है। अब योगमाया ने दुर्वासा ऋषि को भगवान का वैभव दिखाना शुरु किया। भगवान के मुख में दुर्वासा ऋषि ने सातों लोकों का, पाताल सहित सारे ब्रह्माण्ड का, प्रलय का और अंत में गोलोक का दर्शन किया जहां दिव्य कमल पर साक्षात् गोलोकबिहारी श्रीराधाकृष्ण बैठे हुए थे ।
गोलोकबिहारी श्रीकृष्ण दुर्वासा ऋषि को देखकर हंसने लगे । उनका मुंह खुला और श्वास के साथ ऋषि बाहर आ गए । ऋषि ने आंख खोलकर देखा तो वे गोलोक में नहीं व्रज में उसी कालिन्दीतट पर बालु में खड़े हुए हैं, श्रीकृष्ण सखाओं के साथ वैसे ही खेल रहे हैं और वैसे ही हंस रहे हैं ।
दुर्वासा ऋषि का सारा संशय दूर हो गया और वे समझ गए कि श्रीकृष्ण (अवतार वरिष्ठ) ही परब्रह्म परमात्मा हैं । अश्रुपूरित नेत्रों से वे भूमि पर लोट गए और वहां की धूल उठा-उठाकर अपने ऊपर डालनी शुरु कर दी । दुर्वासा ऋषि ने ‘नन्दनन्दन स्तोत्र’ के द्वारा भगवान की स्तुति की और ‘कृष्ण-कृष्ण’ रटते हुए बदरिकाश्रम की ओर चले गए ताकि एकान्त में प्यारे श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्न रह सकें ।
श्री नन्दनन्दन-स्तोत्र
श्री मुनिरुवाच
बालं नवीनशतपत्रविशालनेत्रं बिम्बाधरं सजलमेघरुचिं मनोज्ञम् ।
मन्दस्मितं मधुरसुन्दरमन्दयानं श्रीनन्दनन्दमहं मनसां नमामि ॥१॥
‘श्री नन्दनन्दन के नेत्र नवीन कमल के समान विशाल हैं, पके हुए बिम्बफल के समान लाल-लाल ओठ हैं, जल से भरे हुए मेघ की सी अंग-कान्ति है। मंद-मंद मुस्कराते हुए वे अत्यंत मनोहर जान पड़ते हैं। उनकी धीमी-धीमी चाल भी अत्यंत आकर्षक और सुन्दर है; उन बालगोपाल को मैं मनसे प्रणाम करता हूँ।
मञ्जीरनूपुररणन्नवरत्नकाञ्जीश्रीहारकेसरिनखप्रतयन्त्नसंघम् ।
दृष्टयार्तिहारिमषिबिन्दुविराजमानं वन्दे कलिन्दतनुजातटबालकेलिम् ॥२॥
उनके चरणों में पायजेब और नूपुर सुशोभित हैं। नवीन रत्ननिर्मित करधनी खन-खन शब्द कर रही है। वक्षःस्थल पर सुनहरी रेखा के रूप में लक्ष्मी जी, मुक्ताहार, बघनखों की पंक्ति तथा यंत्रों का समूह शोभा दे रहा है। ललाट पर दृष्टिदोषजनित पीड़ा का निवारण करने वाला काजल का डिठौना विशेष सुन्दर लग रहा है। कलिंदतनया श्रीयमुना जी के तटपर बालोचित क्रीड़ा करते हुए श्रीकृष्ण की मैं वंदना करता हूँ।
पुर्णेन्दुसुन्दरमुखोपरि कुञ्चिताग्रा: केशा नवीनघननीलनिभा: स्फरन्त: ।
राजन्त आनतशिर: कुमुदस्य यस्य नन्दामत्मजाय सबलाय नमो नमस्ते ॥३॥
नीचे की ओर झुका हुआ जिनका शिरोभाग प्रफुल्ल कुमुद की सी शोभा धारण करता है, पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति सुशोभित परम सुन्दर श्रीमुख पर नवीन मेघ के समान नीले रंग की घुँघरारी अलकें लहरा रही हैं। बलदाऊ भैया के सहित उन नन्द के लाडिले! आपको मेरा बार-बार प्रणाम। ’
श्रीनन्दनन्दस्तोत्रं प्रातरुत्थाय य: पठेत् ।
तत्रेत्रगोचरं याति सानन्दं नन्दनन्दन: ॥४॥
प्रातःकाल उठकर जो इस नन्दनन्दन-स्तोत्र का पाठ करता है, आनंदमूर्ति श्री नन्दनन्दन उसके नेत्रों के आगे नाचने लगते हैं। (- गर्ग संहिता, गोलोक, २० । २४-२७)
सभी को प्रातःकाल शय्या से उठते ही हाथ-मुँह धोकर श्री श्यामसुन्दर नन्दनन्दन के उपर्युक्त बालरूप का नित्य नियमपूर्वक प्रेम सहित ध्यान करना चाहिए। इससे सारी विपत्तियों का विनाश होकर भगवान श्री बालकृष्ण के दर्शन प्राप्त होते हैं।
भगवान जब मनुष्य के रूप में (अनपढ़ ठाकुरदेव, ग्रामीण-अनपढ़ महिला माँ सारदा और स्वामी विवेकानन्द के रूप में) अवतरित होते हैं तब जैसे बहुरूपिया किसी दूसरे स्वांग में लोगों के सामने आता है, उस समय अपना असली रूप छिपा लेता है; वैसे ही भगवान अपनी योगमाया को चारों ओर फैलाकर स्वयं उसमें छिपे रहते हैं । साधारण मनुष्यों की दृष्टि उस माया के परदे से पार नहीं जा सकती; इसलिए अधिकांश लोग उन्हें अपने जैसा ही साधारण मनुष्य मानते हैं । जो भगवान के प्रेमी भक्त होते हैं, जिन्हें भगवान अपने स्वरूप, गुण, लीला का परिचय देना चाहते हैं, (गिरीश घोष-या स्वामी जी की कृपा जिनको प्राप्त हो) केवल उन्हीं के सामने वे प्रत्यक्ष होते हैं।
[ BG 7.25: मैं सभी के लिए प्रकट नहीं हूँ क्योंकि सब मेरी अंतरंग शक्ति 'योगमाया' [अवतार वरिष्ठ की इच्छाधीन माया - ज्ञानविज्ञान दायिनी माँ सारदा] द्वारा आच्छादित रहते हैं इसलिए मूर्ख और अज्ञानी लोग यह नहीं जानते कि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ।]
यदि समस्त जगत् के अधिष्ठान के रूप में कोई दिव्य तत्त्व (ब्रह्म या आत्मा) विद्यमान है तो फिर क्या कारण है कि सब लोगों के द्वारा सर्वत्र सदा वह अनुभव नहीं किया जाता ? क्यों हम परिच्छिन्न जीव (M/F) के समान व्यवहार करते हैं और अपने अनन्त स्वरूप को पहचान नहीं पाते ? संक्षेप में मुझमें और मेरे स्वरूप के मध्य कौन सा आवरण पड़ा हुआ है ? जब जिज्ञासु साधकगण वेदान्त प्रतिपादित सिद्धांतों का अध्ययन करते हैं तो स्वाभाविक ही उनके मन में इस प्रकार के प्रश्न उठते हैं।
जब वेदान्त के प्रारम्भिक विद्यार्थी माया को एक बाह्य वस्तु के रूप में समझने का प्रयत्न करते हैं तब उसे समझने में अत्यन्त कठिनाई होती है। परन्तु जब वे अध्यात्म दृष्टि से, आत्मा की शक्ति के रूप में विचार करते हैं अर्थात् अपने ही अन्तकरण में माया किस प्रकार कार्य करती है ऐसा विचार करते हैं तो माया का सिद्धांत स्पष्ट हो जाता है। व्यष्टि (एक व्यक्ति) में कार्य कर रही माया (व्यष्टि अहं ) को ही अविद्या कहते हैं, जो कि जीव के सब दुखों का कारण है। ऋषियों ने इस अविद्या का सूक्ष्म अध्ययन किया और यह उद्घाटित किया कि यह तीन गुणों से युक्त है जो मनुष्य को प्रभावित करते हैं। ये तीन गुण हैं सत्त्व, रज और तम जो एक Prism का सा काम करते हैं और जिनके माध्यम से हमें इस बहुविधि सृष्टि का अनुभव होता है।
माया महा ठगनी हम जानी ।
तिरगुन फांस लिए कर डोले, बोले मधुरे बानी ।।
केसव के कमला वे बैठी, शिव के भवन भवानी ।
पंडा के मूरत वे बैठीं, तीरथ में भई पानी ।।
योगी के योगन वे बैठी, राजा के घर रानी ।
काहू के हीरा वे बैठी, काहू के कौड़ी कानी ।।
भगतन की भगतिन वे बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्माणी ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अकथ कहानी ।। (कबीर)
अर्थात हम माया को बहुत बड़ी ठगनी समझते हैं, उसके हाथ में त्रिगुण की फाँसी का फंदा है और होंठों पर मीठे बोल। केशव (विष्णु) के यहाँ कमला (लक्ष्मी) बन बैठी और शिव के यहाँ भवानी। पांडे घर मूर्ति बनी बैठी है और तीर्थ में पानी। जोगी के घर में जोगन हो गई और राजा के घर रानी। किसी के यहाँ हीरा बनकर आई और किसी के यहाँ कानी कौड़ी। भक्तों के यहाँ भक्तिन हो गई और ब्रह्मा के घर ब्रह्मानी। सुनो भाई साधु, कबीर कहते हैं कि यह अकथनीय कथा है। कबीरदासजी का कहना है कि माया महा ठगिनी है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । यह सत्व, रज, तम—इन तीन गुणों की फांसी लेकर और मीठी वाणी बोलकर जीव को बंधन में जकड़ देती है ।
जैसे किसी ग्रामीण अनपढ़ व्यक्ति को बल्ब में करेंट का अभाव प्रतीत होता है , क्योंकि वह अव्यक्त होती है। करेंट के प्रवाह को प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए सैद्धांतिक ज्ञान तथा प्रत्यक्ष प्रयोग की अपेक्षा होती है। एक बार विद्युत शक्ति के गुणधर्म का ज्ञान हो जाने पर यदि वह मनुष्य उसी बल्ब में प्रकाश देखे तो उसे अव्यक्त विद्युत का ज्ञान तत्काल हो जाता है। इसी प्रकार, गुरु-शिष्य परम्परा में श्रवण मनन और निदिध्यासन और आत्मसंयम (यम,नियम, आसन, प्रत्याहार -धारणा का) नियमित अभ्यास के द्वारा जब साधक का क्षुब्ध मन प्रशान्त हो जाता है। तब आवरण के अभाव में वह मुझ अजन्मा अविनाशी स्वरूप को पहचान लेता है।
माया की दो शक्ति है - आवरण और विक्षेप। तमोगुण का कार्य बुद्धि पर पड़ा आवरण है, और रजोगुण का कार्य है विक्षेप ।
(१) आवरण शक्ति:– तुच्छ अज्ञान सर्वव्यापी परमात्मा (आत्मा) को आच्छादित नही करता, अपितु अपनी आवरण शक्ति से वह मानव की बुद्धि को आच्छादित करता है। अतः मेघावरण के कारण नेत्रों को जैसे सूर्य का दर्शन नही होता, वैसा ही माया की आवरण शक्ति के कारण बुद्धि (अहं) को परब्रह्म (या आत्मा =चैतन्य स्वरूप) का आकलन नही होता।
(२) विक्षेप शक्ति:– अविद्या माया या अज्ञान आवरण शक्ति के कारण रज्जु (आत्मा) आच्छादित होती है और फिर जिस शक्ति के कारण उसी स्थान पर सर्प (M/F) उद्भासित होता है उसे विक्षेप शक्ति कहते है।
त्रिगुणों के विकारों से मोहित और (भेंड़त्व से) भ्रान्त पुरुष (Hypnotized सिंह-शावक) को आत्मा का साक्षात् ज्ञान नहीं होता। उस आत्मज्ञान के लिए गुरु के उपदेश तथा स्वयं की साधना की आवश्यकता होती है।
मानो नाम और रूप (M/F) की इस सृष्टि ने आत्मा को आवृत्त कर दिया है। यह आवरण उसी प्रकार का है जैसे प्रेत स्तम्भ को, मृगमरीचिका रेत को, और तरंगे समुद्र को आच्छादित कर देती हैं। अज्ञानी जीव विषय-भोगों में (कामिनी-कंचन या आहार, निद्रा, और मैथुन में) नित्य सुख की खोज तभी तक करता है जब तक आवरण और विक्षेप की निवृत्ति नहीं हो जाती।
यद्यपि भगवान (अवतार वरिष्ठ -ठाकुर, माँ, स्वामीजी ) हमारे हृदय में विराजमान हैं किन्तु हमें उनकी उपस्थिति का कोई बोध नहीं होता। जब तक योगमाया (माँ सारदा की कृपा से चित्तवृत्ति निरिध होने के बाद भी ?) उनकी दिव्यता को हमसे दुरूह या गुप्त रखती है, तब तक (अर्थात कामिनी-कांचन में आकर्षण रहने तक) हम उनके दिव्य दर्शन करने में समर्थ नहीं हो सकते। इसलिए यदि हम वर्तमान में भगवान को साकार रूप में (M/F दृष्टि से) भी देखते हैं तब भी हम उन्हें ( श्रीरामकृष्ण को /माँ काली के रूप में ) भगवान के रूप में पहचानने में समर्थ नहीं हो सकते। जब भगवान की योगमाया शक्ति (श्रीश्री माँ सारदा देवी) हम पर कृपा करती है केवल तभी हम भगवान के दिव्य रूप (सच्चिदानन्द) को देख सकते हैं और उन्हें (श्रीरामकृष्ण परमहंस देव को) भगवान के रूप में पहचानने लगते हैं।
चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥3॥
(रामचरितमानस-अयोध्याकाण्ड)
"हे भगवान श्रीरामकृष्ण ठाकुरदेव , आपकी देह चिदानन्दमय है (यह प्रकृतिजन्य पंच महाभूतों की बनी हुई कर्म बंधनयुक्त, त्रिदेह विशिष्ट मायिक नहीं है) और (उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय आदि) सब विकारों से रहित है, इस रहस्य को अधिकारी पुरुष ही जानते हैं। आपने देवता और संतों के कार्य के लिए (आपने सतयुग स्थापित करने के लिए दिव्य) नर शरीर धारण किया है और प्राकृत (प्रकृति के तत्वों से निर्मित देह वाले, साधारण) राजाओं की तरह से कहते और करते हैं॥3॥
भगवान की योगमाया शक्ति निराकार और साकार दोनों रूपों में प्रकट होती है जैसे कि काली, लक्ष्मी, पार्वती, राधा, सीता, आधुनिक युग में माँ श्री सारदा देवी ! आदि। ये सब योगमाया शक्ति के दिव्य रूप हैं। और वैदिक संस्कृति में इन सबको ब्रह्माण्ड की माँ के रूप में चित्रित किया गया है। और ये अपनी उदारता, करूणा, क्षमा, और अकारण प्रेम जैसे मातृत्व गुणों से प्रकाशित हैं। हमारे लिए यह जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि ये जीवात्मा पर अपनी दिव्य कृपा बरसाते हुए उन्हें अलौकिक ज्ञान प्रदान करती हैं जिसके द्वारा वह भगवान को जान सके। इसलिए वृंदावन के भक्त 'राधे राधे श्याम मिला दे' गाते रहते है अर्थात 'हे राधे! अपनी अनुकम्पा प्रदान कर कृष्ण से मिलने में मेरी सहायता करो।'
इस प्रकार योगमाया दोनों कार्य करती है। वह भगवान को उन जीवात्माओं से आच्छादित रखती है जिनमें भगवान को जानने की पात्रता नहीं होती और शरणागत जीवात्माओं पर कृपा करती है ताकि वे भगवान को जान सके। वे लोग जिन्होंने भगवान की ओर अपनी पीठ मोड़ रखी है अर्थात भगवान से विमुख रहते हैं, वे माया से आच्छादित हो जाते हैं और योगमाया की कृपा से वंचित रहते हैं। जो भगवान की ओर अपना मुख कर लेते हैं वे योगमाया की शरण में आते हैं और माया के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।
=======
🏹🔱🕊ठाकुरदेव [माँ काली ] का सगुण स्वरूप और भक्ति 🏹🔱🕊
एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि धावापृथिव्यौ विधृते तिष्ठत....। (बृहदारण्यक॰ ३ । ८ । ९)
‘हे गार्गि ! इस अक्षरके ही प्रशासनमें सूर्य और चन्द्रमा विशेषरूपसे धारण किये हुए स्थित रहते हैं । हे गार्गि ! इस अक्षर के ही प्रशासन में द्युलोक और पृथ्वी विशेषरूप से धारण किये हुए स्थित रहते हैं.... ।’
भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्य: ।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम: ॥
(कठ॰ २ । ३ । ३)
‘इसीके भय से अग्नि तपता है इसी के भयसे सूर्य तपता है तथा इसीके भय से भयभीत होकर इन्द्र, चंद्र, वायु , वरुण और पाँचवें मृत्यु देवता अपने-अपने काम में प्रवृत्त हो रहे हैं ।’
"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः "[ मुण्ड . 3.2.4] - अर्थात शरीर और मन में दृढ़ता न रहने से कोई भी व्यक्ति इस आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। प्रथम पौष्टिक आहार और व्यायाम से शरीर को बलिष्ठ करना होगा, तभी तो मन का बल - {एकाग्रता-शक्ति} बढ़ेगा। मन क्या है ? मन तो शरीर का ही सूक्ष्म अंश है ! (The mind is but the subtle part of the body. शरीर के सूक्ष्म अंश को ही मन कहते हैं - सूक्ष्म शरीर वो होता है जिसमे ज्ञानेंद्रिय के साथ चित्त, बुद्धि, मनस और अहंकार आदि सब गुण होते है।) मन और वचन में खूब दृढ़ता लाओ ! (वाणी को बहुत ओजस्वी बनाओ- मैं श्रीरामकृष्ण का दास हूँ ! यह न कहकर) - 'मैं दीन हूँ ', मैं हीन हूँ ' ऐसा कहते कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं -सब मन का खेल है - (भाव के घर में चोरी मत करना !)मुक्ताभिमानी मुक्तो हि, बद्धो बद्धाभिमान्यपि।किम्वदन्तीह् सत्येयं या मति: सा गतिर्भवेत्॥ (अष्टावक्र संहिता, I.11)जिसके ह्रदय में यह भाव सदा जाग्रत रहता है कि -मैं मरणधर्मा शरीर नहीं, नित्यमुक्त आत्मा हूँ ; अर्थात जिसके ह्रदय में मुक्ताभिमान सर्वदा जाग्रत रहता है , वह मुक्त हो जाता है। और जो 'मैं बद्ध हूँ' ऐसी भावना रखता है, समझलो कि उसकी जन्म-जन्मांतर तक बद्ध दशा ही रहेगी! >>The Brave Shall Inherit the Earth : वीरभोग्या वसुंधरा- अर्थात वीर लोग ही वसुन्धरा का भोग करते हैं -यह वचन /सुभाषित नितान्त सत्य है। वीर बनो , सर्वदा कहो -अभीः', अभीः - मैं भयशून्य हूँ , मैं भयशून्य हूँ। सबको सुनाओ, 'माभैः', 'माभैः' -भय न करो, भय न करो। भय ही मृत्यु है , भय ही पाप , भय ही नरक, भय ही अधर्म तथा भय ही व्यभिचार है। इस भय ने ही सूर्य के सूर्यत्व को , वायु के वायुत्व को, यम के यमत्व को अपने स्थान पर स्थिर रख छोड़ा है, अपनी अपनी सीमा से किसी को बाहर नहीं जाने देता। इसलिए श्रुति कहती है -यदिदं किं च जगत्सर्वं प्राण एजति निःसृतम्। महद् भयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।। (कठोपनिषद, अध्याय 2, वल्ली 3, श्लोक 2) ये जो कुछ सारा जगत है प्राण—ब्रह्म में, उदित होकर उसी से, चेष्टा कर रहा है। वो ब्रह्म महान भय रूप और उठे हुए वज्र के समान है। जो इसे जानते हैं वो अमर हो जाते हैं। "भयादस्याग्निपति भयात्तपति सूर्य:।भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम:॥(कठोपनिषद, II.iii,3) इन दो श्लोकों में पहला कहता है कि परमात्मा दयालु, करुणावान तो है ही, भयमय है, भय स्वरूप भी है। दूसरा कहता है कि भला ही है कि परमात्मा भय स्वरूप है। भय से ही तो अग्नि है, धरती है, इंद्रियां हैं, ध्वनि है, प्रकाश है, समस्त देवतागण है। ‘इसी' के भय से = (मेरी माँ जगदम्बा काली - श्रीश्री रामकृष्णदेव के भय से) अग्नि तपता है इसी के भयसे सूर्य तपता है तथा इसी के भय से भयभीत होकर इन्द्र, चन्द्र, वायु , वरुण और पाँचवें मृत्यु देवता अपने-अपने काम में प्रवृत्त हो रहे हैं ।’ जिस दिन ये भयशून्य हो जायेंगे , उसी दिन सब ब्रह्म में लीन हो जायेंगे -सृष्टिरूप अध्यास का लय हो जायेगा। इसीलिए कहता हूँ , 'अभीः ', 'अभीः।'
"The Math is still situated in Nilambar Babu's garden house at Belur. It is the month of November. Swamiji is now much engaged in the study and discussion of Sanskrit scriptures. The couplet beginning with "Achandala - pratihatarayah ", he composed about this time. Today Swamiji composed the hymn, "Om Hring Ritam " etc., and handing it over to the disciple said, "See if there is any metrical defect in these stanzas." The disciple made a copy of the poem for this purpose.
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किम्वदन्तीह् सत्येयं या मति: सा गतिर्भवेत्॥
--He who thinks himself free, free he becomes; he who thinks himself bound, bound he remains -- this popular saying is true: 'As one thinks, so one becomes'." He alone who is always awake to the idea of freedom, becomes free; he who thinks he is bound, endures life after life in the state of bondage. It is a fact.
Proclaim the glory of the Atman with the roar of a lion, and impart fearlessness unto all beings by saying, "Arise, awake, and stop not till the goal is reached."
"The earth is enjoyed by heroes"-- this is the unfailing truth. Be a hero. Always say, "I have no fear." Tell this to everybody --"Have no fear". Fear is death, fear is sin, fear is hell, fear is unrighteousness, fear is wrong life. All the negative thoughts and ideas that are in this world have proceeded from this evil spirit of fear. This fear alone has kept the sun, air and death in their respective places and functions, allowing none to escape from their bounds. Therefore the Shruti says (Katha Upanishad, II.iii,3) says:
"भयादस्याग्निपति भयात्तपति सूर्य:।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम:॥
-- Through fear of this, fire burns, the sun heats; through fear Indra and Vayu are carrying on their functions, and Death stalks upon this earth." When the gods Indra, Chandra, Vayu, Varuna will attain to fearlessness, then will they be one with Brahman, and all this phantasm of the world will vanish. Therefore I say, "Be fearless, be fearless."
[Volume 7, Conversations And Dialogues: "शिष्य से वार्तालाप" शिष्य शरत चंद्र चक्रवर्ती हैं। खंड ६/पेज ९३ ]
गीता में भगवान कहते हैं - अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ 16.1॥अहिंसा सत्यमक्रोधास्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥ 16.2॥तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता ।भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥16.3॥[अभयं =अद्वैत आत्मज्ञान होने से निर्भय हो जाना-"द्वितीयाद् वै भयं भवति । "(बृहदारण्यक, उ-1/4/2) जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, सब कुछ आत्मीय है। तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् , इस संसार की रचना करके,वह परमात्मा सभी जड-चेतन प्राणियों में प्रवेश कर गया। इसका मतलब है कि,इस हमारे पिण्डभूत शरीर में और इसके बाहर भी सब दृश्यमान जगत् परमात्मा में परमात्मा का और परममात्मभाव से विद्यमान है। हमें अपने से भिन्न किसी को नहीं मानना चाहिए। यदि हम अपने से भिन्न दृष्टि रखते हैं, तब नाना सांसारिक भयों में रहेंगे ही। जब सभी में वही है, तब भय कैसा? और क्यों?भेद देखना मनुष्य की दुर्बलता और सारी समस्या,की जड़ है। तत्र को मोहः को शोकः एकत्वम् अनुपश्यतः। (ईशोपनिषद् -7)सभी में अपना आत्मस्वरूप वह एक ही परमात्मा देख लेने पर कोई अज्ञान नहीं,कोई दुःख नहीं और कोई भय नहीं।इसीलिये परमात्मद्रष्टा ऋषियों ने इस मन्त्र का दर्शन किया-“द्वितीयाद् वै भयं भवति।”इस देववाणी और वेदवाणी का सार समझो।जीवन धन्यधन्य होगा।
/ सत्त्व-संशुद्धि =चित्तशुद्धि / ज्ञान-आचार्य और शास्त्रों से ब्रह्मवस्तु की उपलब्धि या परम् सत्य का ज्ञान/योग=चित्तवृत्तियों का निरोध / व्यवस्थिति: = एकान्तिक निष्ठा या एकाग्रता / दानं -पाँच प्रकार के दान - अन्न, भूमि, विद्या , अभय और मुक्ति का दान /दमः =इन्द्रियों पर नियंत्रण/ च-और यज्ञः =यज्ञ का अनुष्ठान/ च-और; स्वाध्यायः-धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन/तपः-तपस्या; आर्जवम्-निष्कपटता। ]अपने व्यावहारिक जीवन में उन 24 गुणों को जीना ही आध्यात्मिक जीवन कहलाता है। भगवान् श्रीकृष्ण इन दैवी गुणों की गणना करते समय प्रथम स्थान अभय को देते हैं। भय अविद्या का लक्षण है। जहाँ विद्या है- अर्थात अद्वैत आत्मज्ञान है - वहाँ निर्भयता है। गुणों की इस सूची में अभय को प्रथम स्थान देकर गीताचार्य़ यह इंगित करते हैं कि किसी साधक की नैतिक पूर्णता उसके आध्यात्मिक विकास के समान अनुपात में होती है। ज्ञानयोगव्यवस्थिति ---अत्यन्त देहासक्त पुरुष को उपर्युक्त अन्तकरण की शुद्धि ( चित्त-शुद्धि) प्राप्त नहीं हो सकती। ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति ही मन को निम्नस्तर के प्रलोभनों से निवृत्त करने का निश्चयात्मक उपाय है। आत्मा के आनन्द को अनुभव करने वाले पुरुष इन्द्रियों के विषयों तथा तज्जनित क्षणिक सुखों में स्वभावत आसक्त नहीं होता। ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति प्राप्त करने के ये तीन साधन हैं - दान, दम (इन्द्रिय संयम) और यज्ञ जिनके द्वारा एक साधक अन्तकरण की योग्यता (चित्त-शुद्धि)प्राप्त कर सकता है। स्वाध्याय इस शब्द का पारम्परिक अर्थ है वेदों का नित्य पठन तथा यथासंभव उसका अध्ययन भी करना। वेदों के (महावाक्यों के ) नित्य नियमित अध्ययन से हमें अपने व्याव-हारिक जीवन में दैवी गुणों को जीने की प्रेरणा मिलती है। परन्तु स्वाध्याय से मात्र वेदपठन या बौद्धिक स्तर पर उसके अर्थ को समझना ही पर्याप्त नहीं है। संस्कृत के इस शब्द -स्वाध्याय का आशय है स्वयं का अध्ययन अर्थात् आत्मनिरीक्षण। वेद-प्रतिपादित सत्यों को समझकर उनका स्वानुभवकरण, उन गुणों को चरित्रगत कर लेना ही वास्तविक स्वाध्याय है। इसलिए 'आत्ममूल्यांकन तालिका' में साप्ताहिक या मासिक रूप से अपने गुणों का मूल्यांकन करना अनिवार्य है। स्वाध्याय और यज्ञ से हमें आत्मसंयम का जीवन जीने का साहस प्राप्त होगा ; जो हमें अपने मनःसंयोग का अभ्यास में (मन को एकाग्र करने का अभ्यास में) चित्त की स्थिरता प्रदान करेगा। तप शारीरिक स्तर पर पालन किये जाने वाले व्रत, उपवास आदि 'तप' कहलाते हैं। तपा करने से (एकादशी आदि) से बाह्यजगत् के भोगों में व्यर्थ ही नष्ट होने वाली हमारी शक्ति का संचय होता है, जिसके सदुपयोग आत्मविकास के लिए किया जा सकता है। आर्जवम् इसका अर्थ है सरलता। मन की भावनाओं और कर्मों में बुद्धि की कुटिलता का साधक के व्यक्तित्व पर आत्मघातक परिणाम होता है। जो व्यक्ति इस प्रकार का व्यक्तित्व जीता है उसका जीवन दो भागों में विभाजित हो जाता है। और शीघ्र ही वह अपनी कार्य-कुशलता की आभा को खो देता है और व्यक्तिगत दृढ़ता की शक्ति की दृष्टि से भी दुर्बल हो जाता है। इस श्लोक में यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रत्येक उत्तरोत्तर गुण अपने पूर्व के गुण से किस प्रकार संबद्ध है। इस प्रकार इस अध्याय के प्रथम श्लोक में ही दैवीगुणों का उल्लेख करते हुए उनके परस्पर संबंधों को भी दर्शाया गया है। हिन्दू धर्ण में वर्णित नैतिक मूल्य और सदाचार के नियम किसी कल्पनाकुशल सन्त या उदास देवदूत की स्वैच्छिक घोषणाएं नहीं हैं। विवेक और अनुभवों की दृढ़ चट्टानों की नींव पर उनका निर्माण हुआ है। निष्ठापूर्वक उनका पालन करने और सजगतापूर्वक उन्हें जीने पर वे हमारी प्राय सुप्त दैवी क्षमताओं को व्यक्त करने में अपना योगदान देते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार ये दैवी गुण अपने आप में स्वर्ग प्रवेश का अधिकार प्रदान नहीं कर सकते परन्तु मनुष्य के हृदय में स्थित दिव्य आत्मतत्त्व को पूर्णतया उजागर करने में वे पूर्ण तैयारी के रूप में सहायक होते हैं।======কুমারী পূজা : অষ্টমীর দিন ভোর না হতেই বেলুড় মঠের দরজায় ভিড় জমান ভক্তরা। কুমারী পূজার সাক্ষী হতে। দেবী দুর্গার প্রতীক হিসেবেই একটি কুমারী কন্যাকে সেদিন পুজো করা হয় বেলুড় মঠে। জানেন কি, বেলুড় মঠে প্রথম কাকে দুর্গা বলে পুজো করা হয়েছিল?
দুর্গাপূজার মহাষ্টমী বললেই চোখে ভেসে ওঠে সালংকারা একটি শিশুকন্যার ছবি। কুমারী পূজা। আর কুমারী পূজার নামে বাঙালির স্বভাবতই মনে পড়ে বেলুড় মঠের কথা। যেখানে দেবী দুর্গা হিসেবে পুজো করা হয় একটি কুমারী কন্যাকে। অষ্টমীর দিন ভোর না হতেই টিভির পর্দায় চোখ রাখেন ভক্তরা, বেলুড় মঠের এই সাড়ম্বর পূজার্চনার সাক্ষী হতে। আর যাঁরা স্বচক্ষে এই পূজা দেখতে পান, নিজেদের ভাগ্যবান বলে মনে করেন তাঁরা। এই পূজার জন্য বিভিন্ন লক্ষণ দেখে নির্বাচন করা হয় কোনও শিশুকন্যাকে। সাত-আট বছর বয়সও পেরোয়নি, সাধারণত এমন কোনও মেয়েকেই বেছে নেওয়া হয়। কিন্তু জানেন কি, মঠে প্রথম যাঁকে দুর্গা হিসেবে পুজো করা হয়েছিল, তিনি কোনও কিশোরী ছিলেন না। বরং বৃদ্ধাই বলা চলে তাঁকে। জানেন কি, কে ছিলেন তিনি?
শ্রীরামকৃষ্ণের দেহান্ত হয়েছে ততদিনে। তাঁর সরাসরি দীক্ষিত বারোজন মন্ত্রশিষ্য বেছে নিয়েছেন সন্ন্যাসীর জীবন। সুতরাং প্রয়োজন পড়ল একটি মঠ স্থাপনের। যা তাঁদের এবং তাঁদের অনুগামী আরও নতুন সন্ন্যাসীদের আশ্রয় দেবে। যা তাঁদের কর্মসাধনার সুযোগ দেবে। শ্রীরামকৃষ্ণ পরমহংস দেবের বাণী প্রচারের কেন্দ্র হবে সেই মঠ। তিল তিল করে গড়ে উঠল তাঁদের নেতা, স্বামী বিবেকানন্দের কল্পনায় দেখা সেই বেলুড় মঠ। আর বিবেকানন্দ যেমন সব কাজের পরিকল্পনা করেন, তেমন করেই একদিন বিরাট বড় একটা পরিকল্পনা করে ফেললেন তিনি। প্রস্তাব দিলেন মহিষাসুরমর্দিনীর পূজার আয়োজন করা হোক মঠে। সন্ন্যাসীরা সকল রিপুকে জয় করার লক্ষ্যেই চলেছেন, সুতরাং রিপুস্বরূপ অসুরকে যিনি বধ করেন সেই দেবী দুর্গার আরাধনা করার প্রস্তাবে তাঁদের অসম্মত হওয়ারও কারণ ছিল না। ১৯০১ সালে বেলুড় মঠে প্রথমবার দুর্গাপূজার সূচনা করলেন স্বামী বিবেকানন্দ।
কিন্তু দেখা গেল দুর্গাপুজো করার ক্ষেত্রে সমস্যা রয়েছে একটি। সন্ন্যাসীরা সে পূজায় পৌরোহিত্য করতে পারবেন, কিন্তু পূজার সংকল্প তো তাঁদের নামে হতে পারে না। সবাই যে ঘরছাড়া সন্ন্যাসী। তাহলে কী করা যায়? উপায় বের করলেন সেই বিবেকানন্দই। তাঁরা নাহয় সন্ন্যাসী, কিন্তু মঠের সঙ্গে তো এমন একজন জড়িয়ে আছেন যিনি সন্ন্যাস নেননি। শ্রীমা সারদা দেবী। যিনি তাঁদের সকলের মাতৃস্বরূপা। মায়ের পুজোয় মায়ের নামে সংকল্প হবে, এর চেয়ে ভালো আর কী হতে পারে? সকলে সমস্বরে সায় দিলেন বিবেকানন্দের কথায়। সারদা দেবীও কোনও আপত্তি করলেন না এ প্রস্তাবে। সুতরাং পুজোয় আর কোনও বাধা রইল না।
কিন্তু দুর্গাপুজো শুরুর আগে আরেকটি অভিনব কাজ করলেন স্বামী বিবেকানন্দ। তাঁর মনে হল, পূজার আসনে রাখা মৃন্ময়ী প্রতিমাকে আগমন জানাতে যেমন বলা হয়, ‘'या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता',(ইয়া দেবী সর্বভূতেষু মাতৃরূপেণ সংস্থিতা), সেই মাতৃরূপটিই তো সশরীরে উপস্থিত তাঁদের সামনে। তাঁদের সকলের মা। সারদা দেবীর মুখ আর দুর্গাপ্রতিমার মুখ যেন মিলে গেল তাঁর চোখে। ঠিক করলেন, এই মাকে আক্ষরিক অর্থেই পুজো করবেন তিনি। সেই ভাবনামতোই অষ্টমীতে ১০৮টি পদ্মফুল নিবেদন করে সারদা দেবীকে পূজা করেছিলেন স্বামী বিবেকানন্দ। মৃন্ময়ী দেবীর সঙ্গে পূজা হয়েছিল তাঁর চোখে দেখা জীবন্ত দুর্গারও।
>>>First Durga Puja at Belur Math, 1901
If the Swami [Vivekananda] preached liberal ideas in social matters, he was orthodox enough in religious matters. In the latter part of 1901 he had all the religious festivals observed. Several months before the Durga Puja in 1901, which fell that year in October, he secured from his disciple Sharatchandra a copy of Raghunandan's "Twenty-eight Tattvas", otherwise called Raghunandan's Smriti". This he consulted so that the Durga Puja could that year be observed in strict conformity with its injunctions. He did not speak of his intention to anyone at the [Belur] Math till a few days before the festival.
Four or five days before the Durga Puja, Swami Brahmananda had a vision while he was sitting in the Math compound facing the Ganga. He saw Mother Durga come over the Ganga from the Dakshineswar side and stop near the Bilva tree in the Math compound. Just then the Swami came by boat from Calcutta and asked, "Where is Raja [Brahmananda] ? " On seeing Swami Brahmananda he said to him, "This time make all arrangements for the Durga Puja by bringing the Pratima (image) to the Math." Swami Brahmananda replied, "I shall let you know after a day or two. It will have to be seen whether there is a Pratima available now. There is not much time left. Just give me two days' time." Then the Swami told him of the vision that he had had. He had seen the Durga Puja being celebrated at the Math, and the Mother being worshipped in a Pratima. On hearing this, Swami Brahmananda told the Swami of his own vision. The news of these visions caused a great sensation at the Math, and Brahmachari Krishnalal was immediately sent to search for a Pratima at Kumartuly. Luckily, one Pratima was available, since the customer who had placed an order for it had not come to collect it on the day arranged. When the Swami was informed, he and Swami Premananda went to Calcutta to ask the Holy Mother's [Sri Sarada Devi's] permission about certain observances connected with the Puja. The Holy Mother gave her approval; so the Swami at once ordered the image to be brought, and returned to the Math. The news that the Puja was to be done in the image spread all over the city, and the householder disciples gladly joined with the sannyasis to make the celebration a success.
>>Swami Vivekananda invoked ‘Living Durga’ at Belur Math by institutionalizing Durga Puja :
Swami Vivekananda’s initiation of Durga Puja at Belur Math in the year 1901 marked a significant departure from traditional Hindu Sanyasin practices. As a rule, Hindu Sanyasins do not conduct ritualistic worship. This decision can be attributed to several compelling reasons, as recounted by authoritative sources from the Belur Math.
Firstly, Swamiji aimed to institutionalize respect for the divine aspects of motherhood and the sanctity of womanhood. During his time in the West, he observed that the elevation of women had contributed significantly to Western progress, while the neglect of women’s roles hindered the development of Bharata. Worship of the Divine Mother, particularly through Kumari Puja, aimed to raise awareness of women’s potential divinity and promote a more respectful attitude toward them.
Secondly, Swamiji sought to gain the acceptance and understanding of the local community for the unconventional way of life he and his monastic brothers were leading. At the time, many in Calcutta were skeptical of Swami Vivekananda’s Western travels and the unorthodox practices at Belur Math, including the disregard for caste norms and interaction with Western individuals. Celebrating Durga Puja helped dispel misunderstandings and misgivings, fostering goodwill among the local people.
Thirdly, Swami Vivekananda’s decision had a spiritual dimension, driven by his vision. A few days before Durga Puja in 1901, he had a vision of the Puja being performed at Belur Math. Simultaneously, Swami Brahmanandaji has experienced a similar vision, seeing Mother Durga crossing the Ganga from Dakshineshwar to Belur Math. Responding to these visions, Swamiji instructed Raja Maharaj to make preparations for Durga Puja, even though there were only a few days left before its commencement.
Obtaining a clay image for the worship posed a challenge, but eventually, a beautiful image of Durga was secured from an artisan’s studio in Kamartuli. Under the able guidance of Swami Brahmanandaji, all necessary arrangements were made on a short notice.
The inaugural Durga Puja at Belur Math was held in a grand Pandal on the open ground north of the old shrine. The invocatory worship began on Shashthi, the 6th day of the lunar month, on October 18, 1901. The Pujari of the first Durga Puja at Belur Math was Brahmachari Krishnalal, and the Tantradharak was Isvar Chandra Chakravarty, the father of Shashi Maharaj (Swami Ramakrishnananda). Sitting under the Bel tree, which now stands in front of his temple, Swami Vivekananda himself sang the Agamani songs welcoming the Divine Mother.
The event attracted householder disciples of Sri Ramakrishna and orthodox Brahmins from the vicinity. Thousands of people, regardless of caste or religion, attended the three-day festival. On Navami night, Swamiji sang several songs in praise of the Divine Mother, some of which were sung by Sri Ramakrishna.
Before initiating Durga Puja at Belur Math, Swamiji sought the approval of Holy Mother Sarada Devi, residing in Baghbazar, Kolkata. Mother wholeheartedly endorsed the proposal and even attended the Puja on Shashthi day with other women devotees, staying at Nilambar Babu’s nearby garden house. Swamiji decreed that the Puja be performed in the name of the Holy Mother, a tradition that continues to this day, viewing Sri Sarada Devi as the divine counterpart of Sri Ramakrishna, born to awaken womankind in the modern world.
In a letter to his brother disciple Swami Shivananda written in the year 1894 from America, Swamiji had given expression to his conviction about the Divinity of the Holy Mother as follows, “Brother, I shall show how to worship the living Durga (Jivanta Durga), and then only shall I be worthy of my name. I shall be relieved when you have purchased a plot of land and established there the living Durga, the Mother (i.e. Sri Sarada Devi).”
The presence of the Holy Mother, the Living Durga, during the Puja, must have given boundless joy and satisfaction to Swamiji and the other disciples of Sri Ramakrishna. Holy Mother attended the Durga Puja at Belur Math in 1912, 1916, and possibly other years, blessing her monastic and lay children.
Today, the Durga Puja at Belur Math remains a global attraction. On Asthami Day, Kumari Puja is conducted annually, where the living Durga is worshiped with utmost devotion, following all the rituals.
>>> On Sasthi, the rites connected with Adhivasa, Bodhana and Amantrana were performed under the Vilva tree (the spot in front of the place where Swamiji's Temple now stands). The rite of 'sacrifice' (bali) of an animal was dropped on the advice of the Holy Mother. As a substitute, sugar and sweets were heaped on either side of Mother Durga. On the night of Saptami, Swamiji had an attack of fever. So he could not join the worship the next morning. But he came down to the pandal at the time of Sandhi Puja and offered Puspanjali three times.
The Sandhi Puja began at 6.17 A.M. and ended at 7.05 A.M. on 20 October.17 On Astami, the Kumari Puja was performed. At Swamiji's request, Gauri Ma, a lady disciple of Sri Ramakrishna, made the necessary arrangements.
Swamiji himself worshipped nine little girls as Kumaris with Asana, Arghya, Sankha, clothes etc. He placed flowers at the feet of the Kumaris and offered sweets and Daksina in their hands. He then prostrated before them. One of the Kumaris was a very small girl and Swamiji was so absorbed in the thought of the Divine Mother that, when he put red sandal-paste on her forehead, he exclaimed, 'Ah! Have I hurt the third eye of the Mother?' Sri Ramakrishna's nephew Ramlal Dada's youngest daughter, Radharani, was one of the Kumaris.
বেলুড় মঠে কুমারী পুজোকেই এক অন্য উচ্চতায় নিয়ে গিয়েছিলেন স্বামীজি। ১৯০১ সালে মঠেরই প্রিয় রামলালদাদার মেয়েকে কুমারীর আসনে বসানো হয়। স্বয়ং সারদামণি দেবীর সামনেই নিজের হাতে সেই কুমারীর পুজো করেন স্বামী বিবেকানন্দ। সেই যে শুরু হয়েছিল প্রথা, আজও সমান নিষ্ঠার সঙ্গে, সমান গুরুত্ব দিয়ে এই পূজা চলে আসছে।
=======
बिना आकार की आवाज़
"प्रत्येक देश की राष्ट्र-निर्माण के लिए कार्य करने की अलग अलग कार्यपद्धति (methodology) होती है। कोई कौम/जाति राजनीती, कोई समाज-सुधार और कोई किसी दूसरे विषय को अपना प्रधान आधार बनाकर कार्य करती है। हमारे लिए धर्म की पृष्ठभूमि लेकर कार्य करने के सिवा दूसरा उपाय नहीं है। राजनितिक, यहाँ तक कि सामाजिक या व्यापारिक आदर्शों का प्रतिनिधित्व करनेवाला कोई भी व्यक्ति (नेता) सर्वसाधारण भारतवासियों के ऊपर कभी भी अपना प्रभाव नहीं जमा सकते। हमें चाहिए आध्यात्मिक आदर्श। आध्यात्मिक महापुरुषों के नाम पर हमें सोत्साह एक हो जाना चाहिए। हमारे आदर्श पुरुष- हमारा नायक या नेता हमेशा आध्यात्मिक ही होने चाहिए। श्रीरामकृष्ण परमहंस हमें एक ऐसा ही आदर्श पुरुष मिला है। यदि भारत को एक विकसित या श्रेष्ठ राष्ट्र बनाना है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूंगा कि हमें इस-श्रीरामकृष्ण परमहंस के नाम के चारों ओर उत्साह के साथ एकत्र हो जाना चाहिए।
श्रीरामकृष्ण परमहंस के शिक्षाओं का प्रचार चाहे मैं करूँ, या तुम करो -अथवा चाहे जो कोई भी करे, इससे प्रयोजन नहीं। उनके तिरोभाव के दस वर्ष के भीतर ही इस शक्ति ने सम्पूर्ण संसार को घेर लिया है , यह तुम प्रत्यक्ष देख रहे हो। क्या तुम नहीं देखते, वह दरिद्र ब्राह्मण बालक जो एक दूर गाँव में - जिसके बारे में तुममें से बहुत कम लोगों ने सुना होगा -जन्मा था, इस समय सम्पूर्ण संसार में पूजा जा रहा है , और उसे वे पूजते हैं , जो शताब्दियों से मूर्तिपूजा के विरोध में आवाज उठाते आये हैं। यह किसकी शक्ति है ? यह तुम्हारी शक्ति है या मेरी ? जो शक्ति यहाँ श्रीरामकृष्ण परमहंस के रूप में आविर्भूत हुई थी , यह वही शक्ति है। इस समय हमलोग उस महाशक्ति की लीला का आरम्भ मात्र देख रहे हैं। भारत के पुनरुत्थान के लिए इस शक्ति का आविर्भाव ठीक ही समय पर हुआ है। तुम्हें और हमें रुचे या न रुचे , इससे प्रभु का कार्य - [Be and Make] रुक नहीं सकता। अपने कार्य के लिए वे धूलि से भी सैकड़ों और हजारों कर्मी पैदा कर सकते हैं। उनकी अधीनता में कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे परम सौभाग्य और गौरव की बात है।
हमें सम्पूर्ण संसार जीतना है। हाँ, यह हमें करना ही होगा। भारत को अवश्य ही संसार पर विजय प्राप्त करनी है। या तो हम सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त करेंगे या मिट जायेंगे। चिरकाल तक शिष्य रहने से हमारा काम न होगा, हमें आचार्य भी होना होगा। यदि अंग्रेज (यूरोपियन) और अमेरिकी जाति से समभाव रखने की तुम्हारी इच्छा हो , तो जिस तरह तुम्हें उनसे (विज्ञान) शिक्षा प्राप्त करनी है , उसी तरह उन्हें शिक्षा (अध्यात्म) देनी भी होगी। " ~ स्वामी विवेकानन्द (५/२०७-२०९)
========
" It is character that pays everywhere. It is the Lord who protects His children in the depths of the sea. Your country requires heroes; be heroes! God bless you! Where should you go to seek for God — are not all the poor, the miserable, the weak, Gods? Why not worship them first? "
(Letter dated 27th October, 1894. to Alasinga Perumal.)
A Voice without Form
"Each nation has its own peculiar method of work. Some work through politics, some through social reforms, and some through other lines. With us, religion is the only ground along which we can move. Political ideals, personages representing political ideals, even social ideals, and commercial ideals, would have no power in India. We want spiritual ideals before us, we want enthusiastically to gather around grand spiritual names. Our heroes must be spiritual. Such a hero has been given to us in the person of Ramakrishna Paramahamsa. If this nation wants to rise, take my word for it, it will have to rally enthusiastically around this name.
It does not matter who preaches Ramakrishna Paramahamsa, whether I, you, or anybody else. Within ten years of his passing away, this power has encircled the globe; that fact is before you. Ay, this boy born of poor Brahmin parents in an out-of-the-way village of which very few of you have even heard, is literally being worshipped in lands that have been fulminating against heathen worship for centuries. Whose power is it? Is it mine or yours? Whether we exert ourselves or not; The work of the Lord -['Be and Make'] does not wait for the like of you or me. He can raise His workers from the dust by hundreds and by thousands. It is a glory and a privilege that we are allowed to work at all under Him."
[ADDRESS OF WELCOME PRESENTED AT CALCUTTA AND REPLY]
========
काल (मृत्यु) शब्द , जिसका अर्थ है "काला", काले रंग का तमाल वृक्ष भी भगवान कृष्ण के परम व्यक्तित्व का प्रतीक है। भगवान कृष्ण और भगवान रामचन्द्र, जो दोनों काले दिखते हैं, अपने भक्तों को मुक्ति और दिव्य आनंद प्रदान करते हैं। भौतिक शरीर वाले व्यक्तियों में, कभी-कभी कोई अपनी इच्छा से मृत्यु को अधीन करने में सक्षम होता है। ऐसे व्यक्ति के लिए, मृत्यु लगभग असंभव है क्योंकि कोई भी मरना नहीं चाहता है। लेकिन यद्यपि भीष्मदेव के पास यह शक्ति थी, भीष्म, भगवान की परम इच्छा से, भगवान की उपस्थिति में बहुत आसानी से मर गए। ऐसे कई राक्षस भी हुए हैं जिन्हें मोक्ष की कोई आशा नहीं थी, फिर भी कंस ने भगवान की परम इच्छा से मोक्ष प्राप्त किया। कंस की तो बात ही छोड़िए, पूतना ने भी मोक्ष प्राप्त किया और भगवान की माँ के स्तर तक पहुँच गई। अतएव परीक्षित महाराज भगवान के विषय में सुनने के लिए बहुत उत्सुक थे, जिनमें अकल्पनीय गुण हैं, जिनसे वे किसी को भी मुक्ति प्रदान कर सकते हैं। परीक्षित महाराज अपनी मृत्यु के समय भी निश्चित रूप से अपनी मुक्ति (मोक्ष) के लिए इच्छुक थे।
भक्त "राधा व्यथित हो कृष्ण-विरह में प्राण त्याग देने की इच्छा प्रकट करती हैं। राधा की दशा देख विशाखा रोने लगती है। तब राधा कहती हैं- हे सखि! 'कृष्ण ने यदि मेरे प्रति निर्दयता की, तो इसमें तुम्हारा क्या अपराध? वृथा रोदन न करो। (मैं जैसे कहूँ वैसे करो) मैं मर जाऊं तो तमाल वृक्ष की शाखा से मेरी भुजाओं को बांध दो, जिससे (कृष्ण के समान काले रंग वाले) तमाल के देह को आलिंगन कर मेरा देह चिरकाल वृन्दावन में अवस्थान करे।'
कुरुक्षेत्र: राधा-कृष्ण के मिलन का प्रतीक है तमाल वृक्ष - ब्रह्मसरोवर के उत्तरी तट पर राधा कृष्ण मिलन मंदिर है. इस मंदिर में वृंदावन के निधिवन में पाए जाने वाला तमाल का वृक्ष आज भी मौजूद है. बताया जाता है कि यह वही वृक्ष है, जहां असरे बाद राधा रानी का श्रीकृष्ण से मिलन हुआ था.मान्यता के अनुसार, वृंदावन के निधिवन में तमाल के वृक्ष की छाया में भगवान श्री कृष्ण राधा रानी के साथ रासलीला करते थे. वही तमाल का वृक्ष कुरुक्षेत्र की पावन धरा पर भी स्थित है. तमाल का यह वृक्ष कृष्ण की लीलाओं को संजोये हुए है. कहा जाता है की तमाल का यह वृक्ष वृन्दावन के निधिवन के आलावा कहीं और नहीं पाया जाता.कुरुक्षेत्र में इस स्थान पर तमाल के वृक्ष का होना राधा कृष्ण के मिलन को दर्शाता है. इस वृक्ष की बनावट कुछ इस प्रकार है कि वृक्ष की हर टहनी दूसरी टहनी के साथ ऊपर जाकर मिल जाती है. इस वृक्ष की टहनियां जैसे-जैसे ऊपर की ओर बढ़ती हैं वो एक दूसरी के साथ लिपट जाती हैं।
========
।।श्रीः।।
भज गोविन्दं भज गोवन्दं, भज गोविन्दं मूढमते।
संप्राप्ते संनिहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ्करणे।।1।।
हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है ॥१॥
O deluded minded friend, chant Govinda, worship Govinda, love Govinda as memorizing the rules of grammar cannot save one at the time of death. ॥1॥
मूढ जहीहि धनागमतृष्णां,कुरु सद्वुद्धिं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं,वित्तं तेन विनोदय चित्तम्।।2।।
हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो ॥२॥
O deluded minded ! Give up your lust to amass wealth. Give up such desires from your mind and take up the path of righteousness. Keep your mind happy with the money which comes as the result of your hard work. ॥2॥
नारीस्तनभरनाभीदेशं, दृष्ट्वा मा गा मोहावशम्।
एतन्मांसवसादिविकारं, मनसि विचिन्तय वारं वारम्।।3।।
स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं ॥३॥
Do not get attracted on seeing the parts of woman’s anatomy under the influence of delusion, as these are made up of skin, flesh and similar substances. Deliberate on this again and again in your mind. ॥3॥
नलिनीदलगतजलमतितरलं, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोकं शोकहतं च समस्तम्।।4।।
जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है ॥४॥
Life is as ephemeral as water drops on a lotus leaf . Be aware that the whole world is troubled by disease, ego and grief. ॥4॥
यावद्वित्तोपार्जनसक्त, स्तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे, वार्त्तो कोऽपि न प़ृच्छति गेहे।।5।।
जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है ॥५॥
As long as a man is fit and capable to earn money, everyone in the family show affection towards him. But after wards, when the body becomes weak no one enquires about him even during the talks. ॥5॥
यावत्पवनो निवसति देहे, तावत्पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये।।6।।
जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है ॥६॥
Till one is alive, family members enquire kindly about his welfare . But when the vital air (Prana) departs from the body, even the wife fears from the corpse. ॥6॥
बालस्तावत्क्रीडासक्त,स्तरुणस्तावत्तरूणीसक्तः।
वृद्धस्तावञ्चिन्तासक्तः,परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः।।7।।
बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥
In childhood we are attached to sports, in youth, we are attached to woman . Old age goes in worrying over every thing . But there is no one who wants to be engrossed in Govind, the parabrahman at any stage. ॥7॥
का ते कान्ता कस्ते पुत्रः,संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं कः कुत आयात,स्तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रान्तः।।8।।
कौन तुम्हारी पत्नी है, कौन तुम्हारा पुत्र है, ये संसार अत्यंत विचित्र है, तुम कौन हो, कहाँ से आये हो, बन्धु ! इस बात पर तो पहले विचार कर लो ॥८॥
Who is your wife ? Who is your son? Indeed, strange is this world. O dear, think again and again who are you and from where have you come. ॥8॥
सत्सङ्गत्वे निःसङ्गत्वं, निःसङ्गत्वे निर्मोहत्वम्।
निर्मोहत्वे निश्चलितत्वं,निश्चलितत्वे जीवन्मुक्तिः।।9।।
सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥९॥
Association with saints brings non-attachment, non-attachment leads to right knowledge, right knowledge leads us to permanent awareness,to which liberation follows. ॥9॥
वयसि गते कः कामविकारः,शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारो, ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः।।10।।
आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ॥१०॥
As lust without youth, lake without water, the relatives without wealth are meaningless, similarly this world ceases to exist, when the Truth is revealed? ॥10॥
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वम्।
मायामयमिदमखिलं हित्वा, ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा।।11।।
धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो ॥११॥
Do not boast of wealth, friends (power), and youth, these can be taken away in a flash by Time . Knowing this whole world to be under the illusion of Maya, you try to attain the Absolute. ॥11॥
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः, शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्त्रीडति गच्छत्यायु, स्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः।।12।।
दिन और रात, शाम और सुबह, सर्दी और बसंत बार-बार आते-जाते रहते है काल की इस क्रीडा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है पर इच्छाओ का अंत कभी नहीं होता है ॥१२॥
Day and night, dusk and dawn, winter and spring come and go. In this sport of Time entire life goes away, but the storm of desire never departs or diminishes. ॥12॥
का ते कान्ताधनगतचिन्ता, वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसंगतिरेका, भवति भवार्णवतरणे नौका।।13।।
तुम्हें पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है, क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है| तीनों लोकों में केवल सज्जनों का साथ (अर्थात महामण्डल का Be and Make 'आन्दोलन) ही इस भवसागर से पार जाने की नौका है ॥१३॥
Oh deluded man ! Why do you worry about your wealth and wife? Is there no one to take care of them? Only the company of saints can act as a boat in three worlds to take you out from this ocean of rebirths. ॥13॥
जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः, काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढो, ह्युदरनिमित्तं बहुकृतवेषः।।14।।
बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरे बाल , काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति भांति के वेश ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो ॥१४॥
Matted and untidy hair, shaven heads, orange or variously colored cloths are all a way to earn livelihood . O deluded man why don’t you understand it even after seeing.॥14॥
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं,दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्।।15।।
क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दांतों से रहित मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश से बंधा रहता है ॥१५॥
Even an old man of weak limbs, hairless head, toothless mouth, who walks with a stick, cannot leave his desires. ॥15॥
अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू, रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षस्तरुतलवास, स्तदपि न मुंचत्याशापाशः।।16।।
सूर्यास्त के बाद, रात्रि में आग जला कर और घुटनों में सर छिपाकर सर्दी बचाने वाला, हाथ में भिक्षा का अन्न खाने वाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को छोड़ नहीं पाता है ॥१६॥
One who warms his body by fire after sunset, curls his body to his knees to avoid cold; eats the begged food and sleeps beneath the tree, he is also bound by desires, even in these difficult situations . ॥16॥
कुरुते गङ्गासागरगमनं, व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन, मुक्तिं न भजति जन्मशतेन।।17।।
किसी भी धर्म के अनुसार ज्ञान रहित रह कर गंगासागर जाने से, व्रत रखने से और दान देने से सौ जन्मों में भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है ॥१७॥
According to all religions, without knowledge one cannot get liberated in hundred births though he might visit Gangasagar or observe fasts or do charity. ॥17॥
सुरमन्दिरतरुमूलनिवासः, शय्या भूतलमजिनं वासः।
सर्वपरिग्रहभोगत्यागः, कस्य सुखं न करोति विरागः।।18।।
देव मंदिर या पेड़ के नीचे निवास, पृथ्वी जैसी शय्या, अकेले ही रहने वाले, सभी संग्रहों और सुखों का त्याग करने वाले वैराग्य से किसको आनंद की प्राप्ति नहीं होगी ॥१८॥
Reside in a temple or below a tree, sleep on mother earth as your bed, stay alone, leave all the belongings and comforts, such renunciation can give all the pleasures to anybody. ॥18॥
योगरतो वा भोगरतो वा, संगरतो वा संगविहीनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं, नन्दति नन्दति नन्दत्येव।।19।।
कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है ॥१९॥
One may like meditative practice or worldly pleasures , may be attached or detached. But only the one fixing his mind on God lovingly enjoys bliss, enjoys bliss, enjoys bliss. ॥19॥
भगवद्गीता किंचिदधीता, गङ्गाजललवकणिका पीता।
सकृदपि येन मुरारिसमर्चा, क्रियते तस्य यमेन न चर्चा।।20।।
जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है ॥२०॥
Those who study Gita, even a little, drink just a drop of water from the holy Ganga, worship Lord Krishna with love even once, Yama, the God of death has no control over them. ॥20॥
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननीजठरे शयनम्।
इह संसाहे बहुदुस्तारे, कृपयापारे पाहि मुरारे।।21।।
बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके मेरी इससे रक्षा करें ॥२१॥
Born again, die again, stay again in the mother’s womb, it is indeed difficult to cross this world. O Murari ! please help me through your mercy. ॥21॥
रथ्याकर्पटविरचितकन्थः, पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः।
योगी योगनियोजितचित्तो, रमते बालोन्मत्तवदेव।।22।।
जीवन्मुक्त शिक्षक (अवधूत) गलियों में पड़े चिथड़ों का शाल बनाकर, पाप और पुण्य रहित मार्ग पर चलता हुआ योग में अपने चित्त को लगाने वाले योगी, बालक के समान आनंद में रहते हैं ॥२२॥
One who wears cloths ragged due to chariots, move on the path free from virtue and sin,keeps his mind controlled through constant practice, enjoys like a carefree exuberant child. ॥22॥
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः, का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारं, विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम्।।23।।
तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी माँ कौन है, मेरा पिता कौन है? सब प्रकार से इस विश्व को असार समझ कर इसको एक स्वप्न के समान त्याग दो ॥२३॥
Who are you ? Who am I ? From where I have come ? Who is my mother, who is my father ? Ponder over these and after understanding, this world to be meaningless like a dream, relinquish it. ॥23॥
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णु, र्व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं, सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम्।।24।।
तुममें, मुझमें और अन्यत्र भी सर्वव्यापक विष्णु ही हैं, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो, यदि तुम शाश्वत विष्णु पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ ॥२४॥
Lord Vishnu resides in me, in you and in everything else, so your anger is meaningless . If you wish to attain the eternal status of Vishnu, practice equanimity all the time, in all the things. ॥24॥
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्रं विग्रहसन्धौ।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम्।।25।।
शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो, सबमें अपने आप को ही देखो, इस प्रकार सर्वत्र ही भेद रूपी अज्ञान को त्याग दो ॥२५॥
Try not to win the love of your friends, brothers, relatives and son(s) or to fight with your enemies. See yourself in everyone and give up ignorance of duality everywhere.॥25॥
कामं क्त्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वात्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञानविहीना मूढा, स्ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः।।26।।
काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वो बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं ॥२६॥
Give up desires, anger, greed and delusion. Ponder over your real nature . Those devoid of the knowledge of self come in this world, a hidden hell, endlessly. ॥26॥
गेयं गीतानामसहस्रं, ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं,देयं दीनजनाय च वित्तम्।।27।।
भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो, सज्जनों के संग में अपने मन को लगाओ और गरीबों की अपने धन से सेवा करो ॥२७॥
Sing thousand glories of Lord Vishnu, constantly remembering his form in your heart. Enjoy the company of noble people and do charity for the poor and the needy. ॥27॥
सुखतः क्त्रियते रामाभोगः,पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं, तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्।।28।।
सुख के लिए लोग आनंद-भोग करते हैं जिसके बाद इस शरीर में रोग हो जाते हैं। यद्यपि इस पृथ्वी पर सबका मरण सुनिश्चित है फिर भी लोग पापमय आचरण को नहीं छोड़ते हैं ॥२८॥
People use this body for pleasure which gets diseased in the end. Though in this world everything ends in death, man does not give up the sinful conduct. ॥28॥
अर्थमनर्थं भावय नित्यं, नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभाजां भीतिः, सर्वत्रैषा विहिता रीतिः।।29।।
अधिक धन हो जाना - अकल्याणकारी है और इससे जरा सा भी सुख नहीं मिल सकता है, ऐसा विचार प्रतिदिन करना चाहिए | धनवान व्यक्ति तो अपने पुत्रों से भी डरते हैं ऐसा सबको पता ही है ॥२९॥
Keep on thinking that money is cause of all troubles, it cannot give even a bit of happiness. A rich man fears even his own son . This is the law of riches everywhere. ॥29॥
प्राणायामं प्रत्याहारं, नित्यानित्यविवेकविचारम्।
जाप्यसमेतसमाधिविधानं, कुर्ववधानं महदवधानम्।।30।।
प्राणायाम, उचित आहार, नित्य इस संसार की अनित्यता का विवेक पूर्वक विचार करो, प्रेम से प्रभु-नाम का जाप करते हुए समाधि में ध्यान दो, बहुत ध्यान दो ॥३०॥
Do pranayam, the regulation of life forces, take proper food, constantly distinguish the permanent from the fleeting, Chant the holy names of God with love and meditate, with attention, with utmost attention. ॥30॥
गुरुचरणाम्बुजनिर्भरभक्तः, संसारदचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानसनियमादेवं, द्रक्ष्यसि निजहृदयस्थं देवम्।।31।।
गुरु के चरण कमलों का ही आश्रय मानने वाले भक्त बनकर सदैव के लिए इस संसार में आवागमन से मुक्त हो जाओ, इस प्रकार मन एवं इन्द्रियों का निग्रह कर अपने हृदय में विराजमान प्रभु के दर्शन करो ॥३१॥
Be dependent only on the lotus feet of your Guru and get salvation from this world. Through disciplined senses and mind, you can see the indwelling Lord of your heart !॥31॥
इति मोहमुद्गरः संपूर्णः।।
[ ॥ भज गोविन्दम् ॥
का ते कान्ता धन गतचिन्ता, वातुल किं तव नास्ति नियन्ता ।
त्रिजगति सज्जनसङ्गतिरैका, भवति भवार्णवतरणे नौका ॥१३॥
तुम्हें पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है, क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है| तीनों लोकों में केवल सज्जनों का साथ (अर्थात महामण्डल का Be and Make 'आन्दोलन) ही इस भवसागर से पार जाने की नौका है ॥१३॥
व्याख्या : किसी भी तरह की बात/या घटना की चिंता करने से जीवन में कुछ नहीं मिलता। चिंता करने का अर्थ है अपनी मानसिक ऊर्जा को बरबाद करना। चिंता करने का अर्थ यह भी है कि तुम अपनी मानसिक ऊर्जा का दुरुपयोग कर रहे हो । यदि किसी भी समस्या के बारे में मन में एकबार भी इन्द्रियगत विचार (sensuous thoughts) उमड़ पड़ते हैं, तो उस शक्तिहीन/दुर्बल मन में कोई भी उत्साह नहीं बचता, जिससे वह अपने जीवन में आनेवाली चुनौतियों का प्रभावी ढंग से सामना कर सके। स्त्री (Wife-पत्नी -कान्ता) को केवल इन्द्रियविषयक खिलौना (भोग की वस्तु) नहीं है। प्रत्येक स्त्री माँ जगदम्बा का स्वरुप है। उसे सिर्फ अपनी सम्पत्ति और इन्द्रिय तृप्ति की एक वस्तु समझना पारिवारिक व्यवस्था और मातृत्व की पवित्रता को खत्म करना है। संपूर्ण श्लोक भोगी मनुष्य को संबोधित है और आचार्य उसे मूर्खों में श्रेष्ठ कहते हैं, जो निरंतर इन्द्रियसुख के विचारों में अपने आपको नष्ट करते रहते हैं।
" To worry over anything will not pay in life. To worry means to waste our mental Energies. To worry also means that you are misusing your mental powers. When Once the mind is stormed with sensuous thoughts regarding any problem, I impoverished mind has no more any Vitality left in it, with which it may face effectively its challenges. Wife is something more than a mere sensuous convenience. To consider her as only a chattel for your pleasure and sense gratification is to pull down the institution of home and sanctity of the motherhood in her. The entire stanza is addressed to the sensuous man and the Acharya here calls him, the best among fools who constantly waste themselves in lascivious thoughts.
==================
>>सत्यमेव जयते (संस्कृत विस्तृत रूप: सत्यम् एव जयते) भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है।पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:
सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥
(मुण्डक-उ ० 3.1.6.)
अंततः सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) ऋषीगण जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।