No idea here is an out-flow of any particular individual human brain.Every idea is borrowed from Swami Vivekananda and their linking has only one purpose:Regeneration or ushering in a new India.If use of a new coinage is allowed,it may be said:Here is an attempt to study "Applied Vivekananda" in the national context.
"If you like something, leave a comment!"
--Bijay Kumar Singh, Jhumritelaiya Vivekananda Yuva Mahamandal .
Saturday, October 11, 2025
⚜️️🔱सत्यान्वेषण के तीन चरण -श्रवण, मनन और निदिध्यासन⚜️️🔱 स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज', अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम , मायावती |
1.
आत्म-अनुसन्धान
(self enquiry)
The Essence of Vivekachudamani | Session 1
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः
विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ के सार पर चर्चा या अध्यन के लिए हमारे पास दो विकल्प हैं। एक यह है कि हम इस ग्रन्थ का अध्यन अपनी विद्वत्ता या संस्कृत भाषा में पाण्डित्य का प्रदर्शन का दृष्टिकोण रखते हुए करें। और दूसरा विकल्प जो हमारे पास है, वह यह है कि हम संस्कृत भाषा के तकनीकी विवरणों, पांडित्य और विद्वत्ता के बारे में बहुत अधिक विचार न करते हुए, इस अध्यन के द्वारा अद्वैत -अमृत प्राप्त करने के अनिवार्य तकनीक को सीखने पर ही अपना अपना पूरा ध्यान केन्द्रित करें।
ये दो तरीके हैं जिनसे हम इस शास्त्र का अध्यन कर सकते हैं। अतएव विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ पर मंथन करते समय हमारा पूरा ध्यान इस विषय पर केंद्रित होगा कि हम इस अद्वैत-अमृत प्राप्त करने की तकनीक को कैसे क्या सीख सकते हैं ? सिर्फ पाण्डित्य प्राप्त कर लेने से जीवन में कुछ परिवर्तन नहीं आएगा। अर्थात हमलोग यदि अपनी विद्वत्ता या पाण्डित्य का दिखावा करने के लिए इस ग्रंथ का अध्यन करेंगे , तो उससे हमारे जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आएगा। We should approach the subject in such a way, that is how it is going to matter in your life ,and in my life ? अतएव हमें इस विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ के सार काअध्यन (श्रवण-मनन -निदिध्यासन) इस प्रकार करना चाहिए जिससे 'अद्वैत अमृत' के पान कर लेने का प्रभाव वक्ता और श्रोता दोनों के, आपके और मेरे दोनों के जीवन तथा आचरण में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगे। इस शास्त्र (चरित्र के गुण पुस्तिका) के अध्यन से मेरे जीवन में क्या बदलाव आयेगा? अगर यह अध्ययन मेरे जीवन को प्रभावित नहीं करे, इस अध्यन में निहित ज्ञान यदि मेरे विचारों को प्रभावित नहीं करे, अगर यह मेरे व्यवहार और चरित्र को प्रभावित नहीं करे, तो इस पुस्तिका का अध्ययन करना व्यर्थ है। और इस तरह के अध्यन की भी कोई सार्थकता नहीं है। इस विवेक-चूड़ामणि शास्त्र के अध्ययन का स्पष्ट प्रभाव मेरे और आपके जीवन तथा व्यवहार में परिलक्षित होना चाहिए। इस शास्त्र के अध्यन से हमारे चरित्र और आचरण में परिवर्तन हो , वही सबसे महत्वपूर्ण बात है ।
अब जब आप इस शास्त्र का अध्ययन करने जा रहे हैं, तो यह समझ लेना चाहिए कि इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य क्या है? वस्तुतः इस शास्त्र के अध्ययन का मूल उद्देश्य आत्म-अनुसन्धान (self enquiry) करना है। हम मनुष्य जीवन के एक ऐसे गहन पहलू (dimension /अद्वैत का आयाम) के बारे में जानने जा रहे हैं, जिसके बारे में हमारी पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति की पढाई के कारण हममें से अधिकांश लोगों को अभी तक परिचय भी नहीं कराया गया है। जैसा कि मैं देखता हूं, हममें से अधिकांश लोग इस अद्वैत वेदान्त के क्षेत्र में बिल्कुल नए हैं। और अद्वैत वेदांत मूलतः सत्य की खोज है। What is the ultimate reality ? वह परम सत्य क्या है? (इन्द्रियातीत सत्य -त्रिकाल अबाधित सत्य क्या है ? What is actually existing ?And who I am ? मेरे इस नाम-रूप में यहाँ कौन विद्यमान है?) वास्तव में क्या विद्यमान है? और मैं कौन हूँ ? (4:46)
हमारा सारा अध्यन अंततः इसी बिंदु पर आकर रुकेगा कि वास्तव में मैं कौन हूं? अब कृपया मुझे बताइये कि क्या हमारे वास्तविक स्वरूप से परिचय कराने वाले विषय से भी अधिक रोचक और आकर्षक कोई अन्य विषय हो सकता है क्या ?
इस अध्यन के द्वारा हमें अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित कराया जाएगा। आप भौतिकी का अध्ययन कर सकते हो, आप जीव विज्ञान का अध्ययन कर सकते हो, आप एआई का अध्ययन कर सकते हो । ये सभी चीजें आपके 'स्व' से (आपके सच्चे स्वरुप से) अलग हैं। हमारी स्कूल और कॉलेज की शिक्षा, हमें हमारे 'स्व' (सत्य स्वरुप) के अलावा हर चीज़ के बारे में बताती है। 'अद्वैत वेदांत' वह अध्यन है जो हमारे अपने सच्चे स्वरूप से जुडी हुई है।तो यहाँ मूलतः प्रश्न यह है कि, जानने की एक मात्र वस्तु यही है कि मूलतः ज्ञान यहाँ एक ही चीज़ के इर्द-गिर्द घूम रहा है, -मैं कौन हूँ? यही सृष्टि का सबसे बड़ा रहस्य है। आप सब कुछ जानते होंगे लेकिन यदि आप स्वयं को नहीं जानते तो आपने कुछ भी नहीं जाना। वस्तुतः आत्मज्ञान के अतिरिक्त शेष सब कुछ अज्ञान की श्रेणी में आता है। यह एक बहुत ही व्यापक अवलोकन और कथन है, 'आत्म' के ज्ञान के अलावा, जब मैं आत्म शब्द का प्रयोग करता हूँ, तो मैं आत्मज्ञान की बात कर रहा हूँ। अपने स्वयं के सच्चे स्व का ज्ञान.तो यह महान ऋषियों द्वारा हमें दी गई महान ज्ञान है। अतएव आत्मज्ञान ही ज्ञान है , बाकि सब अज्ञान है। (7:12)
यह सुनकर के थोड़ा कष्ट होता होगा हमें, हम तो ज्ञान अर्जन करने के लिए स्कूल और कॉलेज में जाते हैं। वहाँ जो भौतिक ज्ञान प्राप्त होता है , उसका भी जीवन में स्थान है। उसका महत्व भी है। लेकिन भौतिक ज्ञान प्राप्त करने से ही मनुष्य के समस्त समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। जिन विषयों का अनुभवजन्य ज्ञान हम अपने पंचेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करते हैं , केवल उन इन्द्रिय गोचर भौतिक वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर लेने मात्र से ही मनुष्य या जीव की समस्त समस्याओं का समाधान कभी नहीं हो सकता।Only by acquiring empirical knowledge, or the knowledge of this , what we are seeing through our sense organs .the problems of the human being or the living soul, is never going to be solved . (7:50) और जब आप यह जान जाते हो , कि आप स्वरूपतः क्या हो ? तभी आप समस्त समस्याओं से परे उठ जाते हो। किन्तु यह ज्ञान पुस्तक पढ़कर प्राप्त नहीं किया जा सकता है। हम लोग यहाँ जो अध्यन करने जा रहे हैं - वह किसी किताबी ज्ञान का अध्यन करने नहीं जा रहे हैं। यह बात को समझ लेना बहुत महत्वपूर्ण है। हमारा अध्यन अपने स्वरुप की अनुभूति में समाप्त होनी चाहिए। इस आत्मानुसन्धान को बहुत बुनियादी स्तर से प्रारम्भ करते समय हमलोग, हम विवेक-चूड़ामणि तथा अन्य शास्त्रों की सहायता लेंगे। प्रारम्भ में । किन्तु इस अध्यन की परिसमाप्ति अपने आत्मस्वरूप की अनुभूति में होनी चाहिए। हमारी समस्त समस्याओं का समाधान उसी से प्राप्त होगा। शंकराचार्यजी ने बहुत अच्छे ढंग से हर बिन्दु पर चर्चा की है।
'मैं' की खोज के तीन चरण या आत्मानुसन्धान के तीन चरण : यदि आप यह जानना चाहते हों कि आपका वास्तविक स्वरुप क्या है, तो उसकी एक सनातन पद्धति है। जिसकी सहायता से हम जान सकते हैं कि - मैं कौन हूँ? आत्मानुसंधान के वे तीन चरण है - श्रवण, मनन , निदिध्यासन। इन तीनों चरणों का विधिवत अनुपालन करने से हम निश्चित रूप से यह अनुभव का सकते हैं कि हमारा सच्चा स्वरुप क्या है ? हमारे ऋषियों द्वारा आविष्कृत आत्मनुसन्धान की ये पद्धति सम्पूर्ण मानवता के लिए उपलब्ध है। यह पद्धति हमारे उपनिषदों में बताई गयी है। समस्त आध्यात्मिक ज्ञान के स्रोत उपनिषद ही हैं। हमारे उपनिषद उन ऋषियों की अनुभूतियों के कोष हैं, जिन्होंने परम् सत्य का साक्षात्कार किया है। ऋषि लोग जानते हैं कि परम् सत्य तक पहुँचा कैसे जाता है। प्रत्येक सत्यान्वेषी ने इस पद्धति का परीक्षण करके देखा है, उन्हें अपने सत्य स्वरुप की अनुभूति हुई है। यह हमारे 'मैं' की खोज है। हम सभी इस 'मैं' का अनुभव करते हैं। हमारे व्यक्तित्व और पहचान का आधार यह 'मैं' ही है। हम जो कुछ भी करते या सोचते हैं सभी इस 'मैं' में ही आधारित होते हैं। हम अक्सर कहते मैं ये करूँगा , मैं वहाँ जाऊंगा। मैं अद्वैत आश्रम मायावती के आध्यात्मिक प्रवास में भाग लेने जाऊँगा। आप लोग यहाँ पहुँचे कैसे हैं ?
यह 'मैं' क्या है ? हर कार्य का आरम्भ 'मैं' से ही होता है। हमलोग इस 'मैं' को लेकर भ्रांत हैं। यह एक बड़ी समस्या है। यह 'मैं' है क्या ? इसको जानने की चेष्टा हम कभी नहीं करते। क्या यह 'मैं' मेरा वास्तविक मैं है या प्रातिभासिक मैं है ? अभी हमलोग 'मैं' मतलब सिर्फ यह 'स्थूल शरीर' ही समझते हैं। यह समझ हमने सोंच- विचार कर भी विकसित नहीं किया है। ऐसा जन्मजात हमारी मान्यता है। कि ऐनक में जो स्थूल शरीर दीखता है - मैं वही हूँ। और जब स्थूल शरीर की बात होगी, तो कोई पुरुष शरीर है , कोई स्त्री शरीर है। फिर उस M/F शरीर का जाल शुरू हो जाता है। हमारे अस्तित्व का जड़ इस 'मैं' को जानने पर निर्भर है। हम हम इसी 'मैं' गहन खोज करने जा रहे हैं कि यह 'मैं ' क्या है ? क्या मैं केवल इस शरीर में ही सीमित हूँ ? या इससे भिन्न भी मेरा कोई दूसरा आयाम (पहलू) भी है; जिसको मैं इस समय नहीं समझ पा रहा हूँ ? यही प्रश्न है।(14:42)
हमलोग 'मैं' की खोज करने वाले सत्यार्थी 'Seekers of Truth' हैं : हमें एक बात स्मरण रखनी होगी हम सभी जो यहाँ शिविर/P.C. में भाग ले रहे हैं, सभी हम सभी लोग यथार्थ 'मैं' की खोज करने वालेसत्यार्थी हैं ! जब आप यथार्थ 'मैं' की खोज शुरू करते हो, तो मन की अवस्था किसी सत्य-शोधक वैज्ञानिक के जैसी होनी चाहिए। जैसे कोई वैज्ञानिक यह जानना चाहता है कि किसी घटना का कारण क्या है ? (सेव नीचे क्यों गिरा , ऊपर क्यों नहीं गया ? इसका सत्य क्या है?) हम लोग भी उसी तरह के 'वैज्ञानिक मन' -The 'scientific mind' के साथ इस 'मैं' की खोज करेंगे। इस प्रकार वैज्ञानिक मन लेकर ही 'मैं' की खोज में आगे बढ़ना बहुत महत्वपूर्ण है। हम लोग सब यहाँ पर सत्यान्वेषी हैं ! (15:28) सत्य का अन्वेषण करने के लिए हम लोग यहाँ पर एकत्रित हुए हैं। यदि हमे यह जानना है कि वास्तव में 'मैं' कौन हूँ ? तो इस 'मैं' की खोज के तीन चरण हैं -श्रवण , मनन और निदिध्यासन। इस प्रक्रिया का अनुशीलन करने से हमें अपने सत्य-स्वरुप की नई जानकारी मिलेगी। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में एक आश्चर्यजनक विकास घटित होने की प्रतीक्षा में है। यह केवल समय सापेक्ष है। प्रत्येक मनुष्य के भीतर किसी न किसी दिन ये विकास अवश्य घटित होकर ही रहेगा। जो व्यक्ति इस 'मैं' की खोज शुरू करेगा , उसके जीवन में , मेरे जीवन में या आपके जीवन में वह आश्चर्यजनक विकास घटित होने की प्रतीक्षा में है। और जिस दिन यह घटित होगा वह मनुष्य जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि होगी।
सुनना और श्रवणं :तो इस मैं कौन हूँ ? के खोज की शुरुआत हम श्रवण -मनन से करने जा रहे हैं। उसकी विस्तारित परिभाषा हमलोग आगे देखेंगे। अभी श्रवण का साधारण अर्थ है -सुनना। लेकिन श्रवणं - का अर्थ है केवल शास्त्र और गुरु के मुख से निकले शब्दों को सुनना। शास्त्र-वाक्य और गुरु-वाक्य का श्रवण करना। तथा ऐसा श्रवण सत्य-शोधक वैज्ञानिक मन को लेकर ही करना होगा। इसको हमलोग आगे समझेंगे। जब आप शास्त्र के शब्दों या महावाक्यों (चार महावाक्य) का श्रवण करेंगे तो आपको उसका अर्थ समझने के लिए उस पर गहराई से चिंतन-मनन करना पड़ेगा। जब आप शास्त्र और गुरु के मुख से सुने महावाक्यों पर गहराई से मंथन करना शुरू कर देते हैं , तो आपके व्यक्तित्व में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन दिखाई पड़ता है। आगे हमलोग इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे। इसलिए श्रवण करने के बाद मनन की एक प्रक्रिया चलनी चाहिए।
मननम : इस लिए इस पाठचक्र में हमलोग जो कुछ अध्यन कर रहे हैं , आप इन चीजों को बहुत 'attentively' ध्यान से सुन रहे हैं। आप इसके मूल विचारों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। और आपके मन में एक नए प्रकार का 'मानस व्यापार' शुरू हो जाता है। जब आप ध्यान से शास्त्र और गुरु के महावाक्यों का श्रवण करने के बाद मनन करते हैं , तो उस मानस -व्यापार की एक स्पष्ट दिशा होती है। वर्तमान में हमारे मानस -व्यापार (Mental activity) कोई स्पष्ट निश्चित दिशा है क्या ? हमारे दैनंदिन जीवन में जैसा हो रहा है , हम उसी की चर्चा कर रहे हैं। आप यदि मनुष्यों के मन तथा उसकी मानसिक -व्यापार पर गौर करें , तो आप पायेंगे कि मनुष्य के मन में चलने वाले विचारों की कोई स्पष्ट दिशा नहीं होती है। [बब्लू का छः महीने बाद मन बदला और जमीन लिख दिया।] उसके मन का चिंतन एक साथ कई दिशाओं में चल रहा होता है। सुबह कुछ , शाम को कुछ अलग दिशा में सोचता रहता है। बिना किसी निश्चित लक्ष्य के हमारा मन विभिन्न दिशाओं में भटकता रहता है। तो 'मननम' मानस -व्यापार की वह अनूठी प्रक्रिया है, जो शास्त्र और गुरु मुख से श्रवणं करने के बाद 'generate' उत्पन्न होती है। जिसमें आपके चिंतन की दिशा केवल एक लक्ष्य पर टिकी होती है। और मानसिक व्यापार की वह दिशा किस लक्ष्य की ओर होती है ? वह केवल एक लक्ष्य - मैं कौन हूँ ? को जानने की दिशा में होती है। यहाँ मननम में मन की एकाग्रता पूर्णतया केवल एक लक्ष्य - मैं कौन हूँ ? को जानने पर केंद्रित रहती है। जब मन की एकाग्रता केवल अपने सत्यस्वरूप को जानने पर, केंद्रित रहने लगती है तब उसको 'मननं ' कहते हैं। (19:42) इसलिए अपने दैनंदिन जीवन में भी स्वाध्याय के बाद मनन करने में थोड़ा समय देना चाहिए। [हर क्लास के बाद आपको -1 घंटा मनन के लिए दिया जायेगा।]
मौन का अभ्यास (Practicing of Silence-योगस्य प्रथमद्वारं): आप सभी युवा हो और अपनी इच्छा से यहाँ आये हो। इसलिए यहाँ के अनुशासन का पालन प्रसन्नता पूर्वक करेंगे। अनुशासन आप पर थोपा नहीं जा रहा है। मौन का पालन आप स्वतः करेंगे, अनावश्यक बातचीत में अपनी ऊर्जा का क्षय नहीं करेंगे। आत्मानुसन्धान में , सत्यार्थी के लिए इस मौन-पालन का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। मौन पालन का अर्थ है -अनावश्यक बातचीत से विरत हो जाना। कभी कभी कुछ बातचीत करना जरुरी हो जाता है , पर केवल तभी बोलें जब वह सचमुच जरुरी हो। इसलिए बेहतर होगा की एक घंटा मौन रहें यथा सम्भव कम से कम बोलने की चेष्टा करें। विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ के एक श्लोक में भगवान शंकराचार्य जी स्वयं कहते हैं -
योगस्य प्रथमद्वारं वाङ्निरोधोऽपरिग्रहः ।
निराशा च निरीहा च नित्यमेकान्तशीलता ॥ ३६८ ॥
वाणी पर संयम , द्रव्य का संग्रह न करना , लौकिक पदार्थों की आशा छोड़ना , कामनाओं का त्याग करना और नित्य एकान्त में रहना - ये सब योग का पहला द्वार है।
368. The first steps to Yoga are control of speech, non-receiving of gifts, entertaining of no expectations, freedom from activity, and always living in a retired place. Notes: Gifts—i. e. superfluous gifts. (अनावश्यक उपहार नहीं लेना।)*
यदि आप इस मौन का पालन निष्ठापूर्वक करोगे , तो देखोगे आपके जीवन में इसका परिणाम बहुत सुंदर होगा। जीवन में गुणात्मक परिवर्तन होगा। हमलोग यहाँ जो कुछ अध्यन कर रहे हैं , वह पाण्डित्य ये विद्व्ता के लिए नहीं है। academic accomplishments' शैक्षणिक उपलब्धियाँ , उच्च डिग्री प्राप्त करना हमे कहीं नहीं पहुँचा सकता। आश्रम या महामण्डल का प्रशिक्षण academics शैक्षणिक नहीं है, यह 5 Practices अभ्यास (साधन चतुष्टय का अभ्यास) करने के लिए है। ये साधन चतुष्टय जीवन में परिवर्तन लाने वाले सूत्र हैं। यह सूत्र एक ऐसा बीज है जिसको जीवन में बुआई कर देने से - जीवन बदल जायेगा। जो कोई भी इनका अभ्यास करेगा , प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन घटित होगा। इसलिए हम इस ग्रंथ का अध्यन जीवन में उनका अभ्यास करने के लिए करेंगे , पाण्डित्य के लिए नहीं करेंगे। इस लिए मौनं का अभ्यास आध्यात्मिक जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ज्यादा बोलते रहने से आपकी समस्त ऊर्जा असंयमित वाणी में खर्च हो जाती है। वाणी का अर्थ क्या है ? हमारे मन में जो विचार चलते हैं, उन्हीं को हम अपनी वाणी के द्वारा प्रकट करते हैं। आपकी भावनाएं वाणी में अभिव्यक्त होती हैं। वाणी पर संयम करने, या शांत रहने से मन को भी वश में किया जा सकता है। यदि अनाप-शनाप बोलते रहे , तो मन को वश में कैसे करोगे ? अपने मन को बहिर्मुखी विषयों में जाने से खींचकर -अन्तर्मुखी करके प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास कैसे करोगे ? यदि वाणी और मन पर संयम नहीं होगा , तो उसको अपने सत्य स्वरूप पर एकाग्र करके , मैं कौन हूँ ? यह जानोगे कैसे ? आत्मानुसन्धान कैसे करोगे ? इसलिए महान ऋषि शंकराचार्यजी कहते हैं - योग का प्रथम द्वार है मौनं ! योग का क्या अर्थ है ? योंग का अर्थ है - अपने सच्चे स्वरुप के साथ जुड़ जाना ! हमारा यथार्थ स्वरुप क्या है ? वही आत्मानुसंधान है। मैं कौन हूँ ? यह जानने का उपाय ही योग है। अपने स्वरुप में प्रतिष्ठित हो जाना ही योग है। और योग का उल्टा क्या है ? भोग ! जब हमारी सारी ऊर्जा 5 इन्द्रियों के द्वारा बहिर्मुखी हो जाती है , वो हमें कहीं नहीं पहुँचातीं और हम बिना तली वाले गड्ढे में गिरते चले जाते हैं। यदि इन इन्द्रियों की दिशा को अन्तर्मुखी नहीं बनाया जाये तो हम कभी अपने सच्चे स्वरुप को- मैं कौन हूँ ? को जान नहीं पाएंगे। तो शंकराचार्यजी कहते हैं -मैं कौन हूँ ? यह जानकर अपने सत्य स्वरुप में प्रतिष्ठित हो जाने पहला द्वार है -मौनं ! इसलिए मौनं के अभ्यास को बहुत गंभीरता से ग्रहण करना चाहिए। शिविर प्रवास में यह मौन का अभ्यास आपके दैनंदिन जीवन का अभिन्न अंग होना चाहिए। मैं सभी प्रशिक्षणार्थियों से कहता हूँ , यहाँ जब तक हो मौन का अभ्यास करने का अवसर है; यहाँ मौन रहने से कोई व्यक्ति मना नहीं करेगा।पर यहाँ से वापस घर लौटने पर यदि मौन रहोगे , तो आप जानते हो परिवार वालों की क्या और कैसी प्रतिक्रिया होगी ! घर में रहकर भी मौन का अभ्यास करने में सफल हो पाना बहुत बड़ी चुनौती है। यहाँ रहते समय आप 100 % मौन का पालन कर सकते हो। यहाँ इस मौन का प्रयोग करके देखो। (25:35)
और फिर इस अद्वैत आश्रम, मायावती की शांति का अनुभव करो ; यहाँ की शान्ति तो इतनी जोरदार है कि, यह अनुभव करने लायक बात है। The silence of Mayawati is so loud that, it is something to be experienced. जैसे जैसे आपका मन इस मौन में डूबता है, उसका अनुभव करो। मैं कौन हूँ ? यह विषय सैद्धान्तिक रूप से नहीं प्रयोग करके अनुभव करो, कि भीतर में क्या चल रहा है ? जैसे जैसे तुम्हारा मन मौन के जल में डूबता जाता है , उसको डूबने दो , और डूबने दो। जितनी मौन की गहराई में डूबोगे उतना ही अपने सत्य स्वरुप के निकट पहुँचते जाओगे। अगले 10 दिनों तक यह प्रयोग करके देखो। इसलिए श्रवणं , मननं और निदिध्यासनं के लिए वाणी का संयम का अभ्यास सबसे महत्वपूर्ण है। मौन का अभ्यास कोई दबाव से नहीं करना है , स्वेच्छा से करना है। आशा है एक ईमानदार सत्यार्थी की तरह आप स्वयं मौनं का अभ्यास करोगे। ऐसा करने से आपको ही बहुत लाभ होने वाला है। यदि यहाँ भी बातचीत में समय बिता दिया तो कोई लाभ नहीं होगा। इस शास्त्र में इन सभी विषय पर चर्चा की गयी है। 5 -6 दिन के बाद से ही आप अनुभव करोगे हम कहाँ पहुँच गए हैं ? जैसे कोई माँ अपने बच्चे की ऊँगली पकड़ कर उसे चलना सिखाती है , उसी प्रकार ये महान ऋषि भगवान शंकराचार्यजी हमारा हाथ पकड़ कर उस परम सत्य के सम्मुख खड़ा करा देते हैं, जो हमारा वास्तविक स्वरूप है। आप स्वयं इसका अनुभव करोगे -यदि अभ्यास करोगे। इसलिए मौन का अभ्यास और व्यर्थ के विचार मन को मन में नहीं उठने देना -ये दो अभ्यास अनिवार्य है। आशा करते हैं कि अगले 10 दिनों तक कोई भी सदस्य अपने मोबाईल को अपने रूम से बाहर नहीं निकालोगे।
प्रार्थना : " So we pray to the supreme divinity to shower his grace - 'Anugraha' on every member of this retreat so that 'he', 'she' can uplift 'himself', 'herself' and rediscover 'oneself' in a new light.Om Tatsat !"
इसके लिए ईश्वर (supreme divinity:परम दिव्यता) से हम प्रार्थना करते हैं कि वे आध्यात्मिक प्रवास में उपस्थित सभी सदस्यों पर अपनी कृपा और अनुग्रह की वर्षा करें ! ताकि सभी युवक -युवती ,स्त्री या पुरुष सभी (सत्यार्थीयों) अपने को देह-मन से ऊपर उठाकर नए प्रकाश में 'स्वयं' को (अपने सच्चे स्वरुप को) पुनःअविष्कृत कर सकें। ॐ तत्सत ! (29 :03)
>>अद्वैत आश्रम, मायावती~एक परिचय :
स्वामी विवेकानन्द ने इस अद्वैत आश्रम की शुरुआत 1899 में की थी। स्वामी विवेकानन्द की जीवनी आप सबों नेपढ़ ली होगी ? बहुत अच्छा, सब ने पढ़ ली है ! भगवान शंकराचार्यजी ने जिस कार्य को 1200 वर्ष पहले किया था, ठीक वही कार्य स्वामी विवेकानन्द ने इस समय, आधुनिक युग में किया है। आप ऐसा कह सकते हो कि स्वामी विवेकानन्द वर्तमान युग के शंकराचार्य हैं। Both these great masters, their mission was to give this 'Nectar of Advaita' to the entire humanity . इन दोनों महान गुरुओं के जीवन का ध्येय (mission)था इस अद्वैत अमृत को सम्पूर्ण मानवजाति में वितरित कर देना। "Because this Advaita is the only thing which can save humanity." क्योंकि इस अद्वैत वेदान्त (दृष्टि) का प्रचार-प्रसार करना ही एक मात्र उपाय है,जो सम्पूर्ण मानवता की रक्षा कर सकता है।It may sound a bit fanatic and dogmatic when I make this statement. But this is not an exaggeration ! यह बात सुनने में आपको थोड़ा धर्मान्धता (fanatic) कट्टरता (dogmatic) जैसा प्रतीत हो सकता है, लेकिन इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है। लेकिन यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है, अद्वैत दृष्टि के आलावा, अन्य कोई भी प्रणाली सम्पूर्ण मानवता की रक्षा नहीं कर सकती।Especially the way people practice the different religion in the world they cannot do. Why?-विशेषकर दुनिया में लोग जिस तरह से विभिन्न धर्मों का पालन करते हैं, वे ऐसा नहीं कर सकते। यही अद्वैत ही एक मात्र प्रणाली है जो सम्पूर्ण मानवता की रक्षा कर सकती है। क्यों? क्योंकि अद्वैत वेदान्त कोई मतवाद नहीं है, यह विशुद्ध विज्ञान है। All the religions of the world , as they are practiced today, mostly they are all belief systems. दुनिया के सभी नाम वाले धर्म (छाप या ट्रेडमार्क वाले धर्म), जैसा कि आज प्रचलित हैं, अधिकांशतः वे विश्वास प्रणालियाँ 'Belief system' हैं।You are asked to believe something , some God who is existing up in the sky, beyond the clouds, beyond the heaven, and he is ruling the world from there . आपसे किसी वस्तु या ईश्वर पर विश्वास करने के लिए कहा जाता है, जो बादलों के पार, स्वर्ग से भी परे आकाश में विद्यमान है, और वह वहीं से दुनिया पर शासन कर रहा है। इसी तरह के विचार समाज में देखे जा सकते हैं। मरने के बाद हमलोग वहां पेश किये जायेंगे। Then the God sitting there, a bearded man who will be casting you either into the hell or to the heaven . उनका विश्वास है कि वहां बैठा भगवान, एक दाढ़ी वाला आदमी है, जो आपको नरक में या स्वर्ग में डाल देगा। स्वामी विवेकानन्द कहते है कि ऐसे विचार किंडरगार्टन के बच्चों के लिए अच्छे हैं। -'These are good for kindergarten children!' ये सब विचार बड़े असाधारण विचार हैं 'fantastic ideas' हैं, किन्तु ये सब विचार स्कूल के बच्चों के लिए हैं, परिपक्व (Mature) और वयस्क लोगों के लिए नहीं। कोई भी परिपक्व व्यक्ति (Mature human being) किसी भी बात पर ऐसे ही- झट से विश्वास नहीं कर लेता है। If what you are believing in, if it is not verifiable then it is a big question ! यदि आप किसी ऐसे सिद्धांत में विश्वास कर लेते हो , जो सत्यापन योग्य 'verifiable' ही नहीं हो, तो उस पर विश्वास कैसे करें ? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न वाचक चिन्ह है ! Can we verify the God sitting up in the sky beyond the heavens and all these things ? It is not verifiable .क्या हम इस बात को सत्यापित करके देख सकते हैं कि, ऊपर बादलों और स्वर्ग से भी परे कोई एक ईश्वर है, जो आसमान में बैठा है ? नहीं, यह केवल एक विश्वास है, जिसे सत्यापित नहीं किया जा सकता है।वहीं अद्वैत वेदान्त एक ऐसे परम् सत्य की बात करता है केवल एक कल्पना नहीं है , वेदांत के चारो महावाक्य [अद्वैत (Be and Make)] किसी भी मनुष्य के द्वारा सत्यापित करके परखे जा सकते हैं। (31:33)
तो अब आप समझ सकते हैं कि हमलोग किस प्रकार के आध्यात्मिक विज्ञान का अध्यन करने जा रहे हैं ? इस महान गुरु के द्वारा जो भी विचार या जो कोई उपदेश जो आगे चलकर हमारे समक्ष रखे जायेंगे , उनकी शिक्षा के प्रत्येक कथन को हमलोग स्वयं सत्यापित करके देख सकते हैं। उनकी शिक्षाओं को आप सत्यापित (verify) करके देख सकते हो, मैं सत्यापित करके देख सकता हूँ। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयाई हो , या किसी भी देश का वासी हो सत्यापित करके देख सकता है। एक हिन्दू वेदान्त के महावाक्यों को सत्यापित कर सकता है , कोई मुसलमान उसको सत्यापित कर सकता है , कोई ईसाई इसे सत्यापित कर के देख सकता है। कोई अमेरिकन इसे सत्यापित कर सकता है , कोई चाइनीज इसको जाँच करके (verify) करके देख सकता है। कोई भी मनुष्य इसको सत्यापित करके देख सकता है। क्योंकि यह 'स्व' को जानने का, 'Pure science of the self है, आत्मा को जानने का ,'मैं' कौन हूँ ? यह जानने का यह एक विशुद्ध विज्ञान है।
यह वेदांत एक ऐसे 'Existential reality' ऐसे 'अस्तित्वगत वास्तविकता', ('Inherent Divinity' अंतर्निहित दिव्यता, या ब्रह्मत्व) की बात करता है, जो प्रत्येक प्राणी के ह्रदय में बैठकर -धड़क रहा है -स्फूर्त हो रहा है, throbbed हो रहा है। और यही वह परम् सत्य है जो सचमुच विद्यमान है।
Now we are going to come to some very essential and profound ideas. अब हम कुछ बहुत ही आवश्यक और गहन विचारों पर आएंगे। यह हमें एक ऐसे सत्य से परिचय कराता है , जो सचमुच में विद्यमान है। वह सत्य किसी कल्पना पर आधारित नहीं है , वह अनुभव-गम्य है , उसका अनुभव किया जा सकता , प्रत्येक मनुष्य के द्वारा इसका अनुभव किया जा सकता है। इस सत्य को जाँच-परख कर देखा जा सकता है। That's why Vivekananda had said this Advaita is the only system of the future generations, इसीलिए विवेकानंद ने कहा था कि यह अद्वैत ही भावी पीढ़ियों के लिए सत्य को जानने की एकमात्र प्रणाली होगी। आज हम जब वैज्ञानिक युग में वास कर रहे हैं , तो हमारे धर्म को भी विज्ञान सम्मत होना होगा। और जो धर्म विज्ञान की कसौटी पर परखने योग्य नहीं होगा, आधुनिक मानव उसको स्वीकार नहीं करेगा। स्वामी विवेकानन्द ने भविष्य वाणी करते हुए कहा था - " Advaita is the only system which is going to be future religion of humanity." " अद्वैत (दृष्टि-"Be and Make") ही एकमात्र ऐसी प्रणाली है जो सम्पूर्ण मानवता का भावी धर्म बनने जा रही है। " यह स्वामी विवेकानन्द द्वारा की गयी एक बहुत बड़ी भविष्यवाणी है। (33:07)
इसी भविष्यवाणी को कार्यान्वित करने के लिए, स्वामी विवेकानन्द ने इस अद्वैत आश्रम की शुरुआत 1899 में की थी। आप सभी जानते हैं कि 1893 में वे अमेरिका गए थे। क्या आप बता सकते हो कि अमेरिका जाकर उन्होंनेक्या किया था ? (33:17) जी , विश्व धर्म-महासभा में भाग लेकर उन्होंने सनातन हिन्दू धर्म पर व्याख्यान दिए थे। बिल्कुल ठीक ! तो देखिये ये स्वामी विवेकानन्द ही थे जिन्होंनेआधुनिक युग में ' Glory of Sanatan dharma and glory of Bharat' सनातन धर्म के गैरव तथा भारत के गौरव को सर्वप्रथम सम्पूर्ण जगत के सामने रखा था। प्यारे भाइयो , आप इन दो बातों को हमेशा याद रखिये। प्रत्येक भारतवासी को अपनी पुण्यभूमि , मातृभूमि के गौरव को सदैव याद रखना चाहिये। 'हमारी मातृभूमि इस पृथ्वीलोक पर सबसे अनुपम (unique-अद्वितीय)देश है ! 'Our This Motherland is the most unique country on the planet ! ' हमें इस पर गर्व होना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें अपने भारतीय होने पर गर्व था , और अपने सनातन धर्म पर गर्व था। His only one mission was to place this great ideas of Sanatan Dharma before the entire humanity .' उनका एकमात्र मिशन सनातन धर्म के महान सिद्धान्तों को संपूर्ण मानवता के समक्ष रखना था। हम भारतीय लोगों ने अपना आत्मविश्वास खो दिया था , हमने आत्मश्रद्धा या अपने सत्य स्वरुप पर श्रद्धा को खो दिया था। हम लोग वास्तव में कौन हैं, यह भूल जाने के कारण हम लोगो ने अपने आप गर्व करने और स्वयं को सम्मान देने की भावना खो दी थी। ये स्वामी विवेकानन्द ही थे ,जिन्होंने हमारे आत्मविश्वास को वापस लौटा दिया। स्वामीजी ने अमेरिका जाकर भारत को उसकी मोहनिद्रा से जगा दिया। यह एक अलग कहानी है , अभी उसको छोड़ता हूँ। स्वामी जी 1897 में भारत लौटे , लेकिन 1896 में जब वे भारत लौटने की राह में थे , तो यूरोप के भ्रमण पर स्विट्जरलैंडगए थे। स्विट्जरलैंड में आल्प्स पर्वत के बर्फ से ढँकी हुई शृंखला को देखकर स्वामी विवेकानन्द ने खुली आँखों से स्वप्न देखा ,'visualize' किया कि इसी प्रकार बर्फ से ढँके हिमालय की गोद में उनका एक अद्वैत आश्रम होगा। आल्प्स पर्वत श्रेणी को देखकर उन्हें हिमालय पर्वत याद आ गया। और उन्होंने अपने शिष्यों से अपनी इच्छा व्यक्त की -He expressed his wish to his disciples, कि मुझे हिमालय की गोद में एक आश्रम बनाने की इच्छा है। मैं उस कहानी के विस्तार में नहीं जाऊँगा। अन्ततोगत्वा स्वामीजी द्वारा 1896 में देखा गया स्वप्न 1899 में साकार हो गया। 1896 में उन्होंने अपने शिष्यों से अपनी इच्छा व्यक्त की थी, और अगले तीन वर्षों में -1899 में (मार्च 1899 में) हिमालय की गोद में इस आश्रम की शुरुआत हो गयी। यहाँ से बैठकर 380 KM क्षेत्र में फैले बर्फ से ढंके अद्भुत हिमालय श्रृंखला को आप देख सकते हैं। And Swami Vivekananda dedicated this Ashrama completely to the practice and preaching of Advaita Vedanta alone !और स्वामी विवेकानंद ने इस आश्रम को पूरी तरह से अद्वैत वेदांत के अभ्यास और प्रचार के लिए समर्पित कर दिया! Exclusively this Ashrama is dedicated to the practice and preaching of Advaita and Advaita alone ! यह आश्रम विशेष रूप से अद्वैत और केवल अद्वैत-दृष्टि के अभ्यास और प्रचार के लिए समर्पित है! Here no dualistic method is allowed or permitted , he was very emphatic in his vision, very clear in his vision . यहां किसी द्वैतवादी पद्धति से पूजा अनुष्ठान आदि करने की आज्ञा या या अनुमति नहीं है, स्वामी जी अपनी अद्वैत -दृष्टि के प्रति बहुत दृढ़ थे, उनकी दृष्टि बहुत स्पष्ट थी। इसलिए आपने देखा होगा कि यहाँ इस आश्रम में कोई साकार मूर्ति नहीं है , कोई मंदिर नहीं है। कोई अचार-अनुष्ठान नहीं होते हैं। 'No ceremonies' यहाँ कोई समारोह आदि नहीं होते हैं।यहाँ सिर्फ ॐ हैं ! इस ॐ का अर्थ क्या है ? हमलोग देखेंगे। The entire reality is pact in this one sound ! इस एक मात्र शब्द - ॐ कार में सृष्टि का सम्पूर्ण सत्य समाहित है। सम्पूर्ण वास्तविकता इस एक ध्वनि में समाहित है! This Advaita Ashram was started by Swami Vivekananda , with the intention that this ashram is dedicated to the practice and preaching of Advaita and Advaita alone ! and this has been going on for the last 127 years . इस अद्वैत आश्रम की शुरुआत स्वामी विवेकानंद ने इस उद्देश्य से की थी कि यह आश्रम केवल अद्वैत के अभ्यास और प्रचार के लिए समर्पित हो! और यह पिछले 127 वर्षों से इसी प्रकार चल रहा है। विगत 127 वर्षों से यहाँ केवल ॐ की उपासना हो रही है। कल्पना कीजिये आप जिस अद्वैत आश्रम, मायावती में बैठे हो, यह 127 वर्ष पहले का बना हुआ है। और यह अद्वैत आश्रम अपना कार्य 'silently' मौन रहकर ही करता चला आ रहा है। तो यह हो गयी इस आश्रम का संक्षिप्त विवरण।
'3H' Development (विशेष नोट्स) :
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु (Hand :स्थूल शरीर) पर होने से भौतिक उन्नति होती है , विचार पर होने से (Head :मन पर) होने से बुद्धि का विकास होता है , और 'अपने स्व '(Heart) पर ही होने से मनुष्य का (3H विकसित होकर ) ईश्वर बन जाता है।" पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे। 'बनो और बनाओ' यही हमारा मूल-मंत्र रहे।" First, let us be Gods, and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto."ऐसा न कहो कि मनुष्य पापी है। उसे यह बताओ कि तू ब्रह्म है। यदि कोई शैतान हो, तो भी हमारा कर्तव्य यही है कि हम ब्रह्म का ही स्मरण करें, शैतान का नहीं। हमें यह समझ लेना चाहिए कि जो कुछ भी नकारात्मक (negative) है, विध्वंशकारक (destructive) है और जो केवल छिद्रान्वेषण (criticism) है, उसका अंत अवश्यम्भावी है; और जो सकारात्मक, सत्यात्मक (affirmative) और रचनात्मक है, वही अमर है और वही सदा रहेगा। हम यही कहें -"We are" and "God is" and "We are God !"" हम हैं" और "ईश्वर हैं" और " हम ईश्वर हैं !"चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ कहते हुए आगे बढ़ते चलो।आत्मा की शक्ति का विकास करो, और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो और जिस स्थिति की आवश्यकता है, वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी। (Bring forth the power of the spirit, and pour it over the length and breadth of India; and all that is necessary will come by itself. )अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को प्रकट करो, उसके चारों ओर सब कुछ समन्वित होकर विन्यस्त हो जायेगा। वेदों में बताये हुए इन्द्र और विरोचन के उदाहरण को स्मरण रखो। दोनों को अपने ब्रह्मत्व का बोध कराया गया था, परन्तु असुर विरोचन अपनी देह को ही ब्रह्म मान बैठा। इन्द्र तो देवता थे, वे समझ गए कि वास्तव में आत्मा ही ब्रह्म है। तुम तो इन्द्र की सन्तान हो। तुम देवताओं के वंशज हो। जड़ पदार्थ (शरीर) तुम्हारा ईश्वर कदापि नहीं हो सकता; शरीर तुम्हारा ईश्वर कभी नहीं हो सकता। ऐसा मत कहो कि हम दुर्बल हैं, कमजोर हैं। आत्मा सर्वशक्तिमान है। श्री रामकृष्ण के चरणों के दैवी स्पर्श से जिनका अभ्युदय हुआ है, उन मुट्ठी भर नवयुवकों की ओर देखो। उन्होंने उनके उपदेशों का प्रचार आसाम से सिंध तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक कर डाला।" (९/३७९-३८०)
"This infinite power of the spirit, brought to bear upon matter evolves material development, made to act upon thought evolves intellectuality, and made to act upon itself makes of man a God.
First, let us be Gods, and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto. Let us know that all that is negative, all that is destructive, all that is mere criticism, is bound to pass away; it is the positive, the affirmative, the constructive that is immortal, that will remain for ever. Let us say, "We are" and "God is" and "We are God", "Shivoham, Shivoham", and march on.Bring forth the power of the spirit, and pour it over the length and breadth of India; and all that is necessary will come by itself. Manifest the divinity within you, and everything will be harmoniously arranged around it.
Remember the illustration of Indra and Virochana in the Vedas; both were taught their divinity. But the Asura, Virochana, took his body for his God. Indra, being a Deva, understood that the Atman was meant. You are the children of India. You are the descendants of the Devas. Matter can never be your God; body can never be your God.
[ "ज्ञानदायिनी माँ सारदा की अद्वैत दृष्टि "कोई पराया नहीं , सभी अपने हैं " के अनुरूपस्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर "Be and Make चरित्र-निर्माण पद्धति का प्रचार -प्रसार सम्पूर्ण विश्व में करना ही एक मात्र उपाय है जो सम्पूर्ण मानवता की रक्षा कर सकता है। नवनीदा कहते थे "Be and Make" ही एक दिन सार्वभौमिक धर्म होगा ! 'चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा।' के अनुरूप चरित्र-निर्माण होने के बाद ही आत्मज्ञान में प्रतिष्ठित हुआ जा सकता है।
Maya is not a theory; it is simply a statement of facts about the universe as it exists ! ]
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2.
⚜️️🔱सत्यान्वेषण के तीन चरण -श्रवण, मनन और निदिध्यासन⚜️️🔱
The Essence of Vivekachudamani | Session 2|
पाठचक्र (स्वाध्याय) में मन की भूमिका :
हम जितने भी सदस्य महामण्डल के साप्ताहिक पाठचक्र में नियमित रूप से भाग लेते हैं,
पाठचक्र में भाग लेते समय हमारे मन की भूमिका यहाँ पर ये होनी चाहिए कि हम सभी लोग 'सत्य की खोज' में हैं। हम सभी सत्यार्थी लोग हैं यहाँ पर इस सत्य की खोज के लिए एकत्रित हुए हैं कि ये जो मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव -3'H' Hand (शरीर), Head (मन) and Heart (ह्रदय)है, इन तीनों में सत्य क्या है? दूसरे शब्दों में जिसको हम 'जीव, जगत और ईश्वर' कहते हैं इनके पीछे की सच्चाई क्या है ? यही हमको जानना है, और यह बड़ा ही रोचक विषय है। इसमें Hand और Head तो हमलोग जानते हैं, लेकिन 'Heart' ह्रदय ,आत्मा, ब्रह्म, या ईश्वर एक ऐसा शब्द है जो प्रचण्ड आस्था का विषय है।
लेकिन ये ईश्वर है क्या? हम ईश्वर के विषय में कल्पना कर सकते हैं। लेकिन सच्चाई में ये ईश्वर है क्या ? ईश्वर कोई व्यक्ति है क्या? ईश्वर कहाँ है ? कई कल्पनायें हैं। जब भी हम ईश्वर के विषय में बात करते हैं , हमारे दैनंदिन जीवन का एक अभिन्न अंग है - ईश्वर ! किसी सर्वसाधारण व्यक्ति के जीवन का एक अभिन्न अंग है। जो भी व्यक्ति आस्तिक होगा , जिसको ईश्वर पर विश्वास है, आस्था है । लेकिन ईश्वर है क्या ? हर व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार ईश्वर की कल्पना करता है। कोई ईश्वर को देवी रूपों में देखता है , कोई देव रूप में देखता है। अनगिणत रूपों में ईश्वर की धारणा होती है। लेकिन सच्चाई में ईश्वर क्या है? ये एक प्रश्न है। यह एक खोज का विषय है। (2:31)
दूसरा,इन्द्रियों से यह जो जगत दिखाई दे रहा है, इतना सुन्दर ऐसा विस्मयकारी जो यह विश्वप्रपंच जैसा दिख रहा है, इसके पीछे की सच्चाई क्या है ? यह जगत जो इन्द्रिय-गोचर है, हमारे इन्द्रियों के द्वारा जो हमें गम्य हो रहा है, इसके पीछे की सच्चाई क्या है ? प्रश्न है। आज हमारे मन इसके प्रति एक सत्यत्व बुद्धि है। है कि नहीं ? हम जब से इस शरीर में जन्मे हैं, कभी भी हमारे मन में यह प्रश्न नहीं उठा कि ये जीव-जगत जैसा हमको दिखाई दे रहा है, यह वैसा ही है क्या ? इसके पीछे की सच्चाई क्या है ? क्या यह अपनेआप में सच है क्या ? प्रश्न है। अभी इसी की खोज है। हमारी इन्द्रियों के द्वारा ये जगत जैसा दिखाई दे रहा है , वास्तव में यह वैसा ही है , या इसके पीछे कुछ और है ? यह दूसरा प्रश्न है। (3:43)
>>Three dots (तीन बिन्दु): हम जब सृष्टि को देखते हैं - तो सृष्टिकर्ता की कल्पना होती है। किसी ने तो इसको बनाया होगा ?और जगत के साथ ईश्वर का अटूट सम्बन्ध है,तो ईश्वर एक मुद्दा है। लेकिन हम जिस प्रकार के ईश्वर की कल्पना करते हैं, क्या ईश्वर उतना ही है? या उस ईश्वर का अपना स्वरुप क्या है ? और जिस ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया , विश्व-प्रपंच को बनाया ; उसका अपना स्वरुप क्या है ? ये खोज का या जानने का दूसरा विषय है। (4:32) तीसरा मुद्दा है - यह जो व्यक्ति है , जो जीव है, यह मैं , हम सब , जो स्त्री-पुरुष हैं , जितने भी जीव-जंतु हैं, उसमें भी विशेष रूप से जो मनुष्य हैं -उस मनुष्य के पीछे की सच्चाई क्या है ?इस 'मैं' शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है ?These are the 3 dots , which we have to connect . One is God (Heart) , other is world (Hand) , and the 3rd is 'I' (Head).ये तीन बिंदु हैं, जिन्हें हमें जोड़ना है- एक है ईश्वर, दूसरा है संसार, और तीसरा है 'मैं'। इन तीनों के विषय में हमारी जो आज की समझ है , यह ठीक है क्या ? या हमारी समझ में कोई भूल है ? हम जब इस मुद्दे का खोज करना शुरू कर देंगे तब आप देखोगे कि हम आज तक ईश्वर को जैसा समझते थे , वो ईश्वर वैसा नहीं है। हमारी पहले वाली समझ तो केवल एक कल्पना मात्र थी। और व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार ईश्वर की कल्पना जैसा चाहे वैसा कर सकता है। हम जगत को आज जैसा समझ रहे हैं, यह वैसा नहीं है। इसके पीछे कुछ और है। व्यक्ति ईश्वर की कल्पना करता है , और इस सृष्ट जगत को अपने आप सत्य समझ लेता है। ऐसी समझ रखने वाले व्यक्ति की अपनी सच्चाई क्या है ? वह तो आज अपनेआप को एक देहधारी मनुष्य समझता है। देहधारी मनुष्य समझ लिया तो फिर वो स्त्री हो गया , कोई पुरुष हो गया। अब इस देहधारी मनुष्य (स्त्री-पुरुष) के पीछे की सच्चाई क्या है ? क्या हमारी पहचान केवल स्त्री-पुरुष होने तक ही सीमित है क्या ? यह एक बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है।Is our identity limited to just being a human being in the form of a man and the women ?क्या हमारी पहचान सिर्फ स्त्री-पुरुष की देह आकृति वाले मानव होने तक ही सीमित है? यह एक अत्यंत विचारणीय प्रश्न है कि नहीं ? इस लिए ईश्वर, जगत और जीव वास्तव में क्या हैं; इन तीनों बिन्दुओं को जोड़ना है - यानि ये वास्तव में क्या हैं , इनके बीच परस्पर क्या संबंध है, इससे जानना है। अर्थात ये तीन ऐसे dots हैं, जिसके विषय में हमें इसी जीवन में स्पष्टता अवश्य प्राप्त कर लेनी चाहिए। तो यह तीन बिंदुओं का उत्तर ही सत्य की खोज है। (6:48)
>> हिन्दूसनातन धर्म खोज प्रणाली है या विश्वास प्रणाली ? : सनातन धर्म का जो सार है , वह वेदान्त है ! इसीलिए हम जिसको सनातन धर्म कहते हैं उसे वेदान्त भी कहा जाता कहते है। वेदान्त शब्द से क्या समझना है ? -उपनिषद ! तो वेदांत का मतलब क्या है ? उपनिषद। उपनिषद ही वेदान्त है, जो चारो वेदों का सार है। "Vedanta or Sanatan dharma is not a Belief system, it is a Seeking system !"वेदांत या सनातन धर्म कोई विश्वास प्रणाली नहीं है, यह एक खोज प्रणाली है!वेदांत का मुख्य तात्पर्य केवल सत्य की खोज ही है। हमलोग सिर्फ किसी चीज पर विश्वास करके उसे छोड़ नहीं देते। दूसरे सम्प्रदायों में क्या विश्वास है ? हाँ , कोई एक भगवान है जो इस सृष्टि के बाहर है। सृष्टि के बाहर से सृष्टि का नियंत्रण करने वाला कोई एक व्यक्ति बादलों से परे सातवें आसमान में बैठा हुआ है , कहीं स्वर्ग में बैठकर वह भगवान इस सृष्टि का नियमन कर रहा है। अन्य सम्प्रदायों में हमें इसी प्रकार की कल्पनायें दिखाई देती हैं। ये सिर्फ विश्वास की बात है। लेकिन जिस विश्वास को हम परख नहीं सकते, जिस विश्वास को हम जाँच कर देख नहीं सकते कि वो सच है , या झूठ है- तो उसी को अन्धविश्वास (superstition)कहा जाता है। और वह अंधविश्वासी व्यक्ति अपना सारा जीवन अन्धविश्वास पूर्वक जीने में ही समाप्त कर देता है।
सनातन धर्म में भी विश्वास का एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। महावाक्यों पर आस्था और विश्वास सनातन धर्म में भी है, लेकिन यह ऐसी चीजों पर विश्वास है , जिसको परखा जा सकता है। इस विश्वास को आप verify करके देख सकते हो ,या सत्यापित कर सकते हो। सनातनी विश्वास दूसरे सम्प्रदायों या मतों के विश्वास जैसा नहीं है, महावाक्यों पर विश्वास को सत्यापित करके देखा जा सकता है। सनातन धर्म या वैदिक धर्म हमें जो मार्ग दिखाता है , वह केवल विश्वास करने की बात नहीं है। वो विश्वास आगे चलकर के 'verification' में या जाँच-पड़ताल में बदल जाती है। आप जिस किसी चीज पर (मूर्ति या शब्द पर) विश्वास करते हो , जिस वस्तु पर आस्था रखते हो - वह अनुभवगम्य हो जाता है ,अनुभव का विषय हो जाता है। हम उसका स्वयं अनुभव कर सकते हैं। और जिस चीज को आप अनुभव करके परख नहीं सकते हो , वो तो सिर्फ अंधविश्वास हो गया। जिस विश्वास को आप परख ही नहीं सकते , वही तो अन्धविश्वास है। तो यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है। तो ये हमारे सनातन धर्म की विशेषता है। (10:00)
>>सत्य के खोज की सनातन प्रणाली (The eternal method of seeking truth) : प्रश्न है सत्य की खोज कैसे की जाये ? तो हमारे ऋषियों ने सत्य को जानने की एक प्रक्रिया बनाई है। वह प्रक्रिया क्या है ? उस सत्य को को जानने की प्रक्रिया के तीन चरणों में सम्पन्न होती है। पहला कदम है - श्रवण। दूसरा कदम है - मनन। तीसरा जो कदम है -वो है निदिध्यासन। यह बहुत ही 'Powerful method' है , इसको अंग्रेजी में Time Tested Method, समय-परीक्षित पद्धति कहते हैं। हमें इसी (जीवन में) इस तीन चरणों की प्रणाली से अपने अंतर्न्हित सत्य को या अंतर्निहित दिव्यता(Inherent Divinity) को ढूंढ़ निकालना है। इसी मनोभूमिका (संकल्प) को लेकर शास्त्र और गुरु के वचनों का श्रवण करना चाहिए। With this mindset (पूर्वाग्रह), one should listen to the scriptures and the words of the Guru. हमें (एथेंस के सत्यार्थी को) अपने मन में यह ठान लेना चाहिए कि सत्य को खोजने के लिए हमें जिस सीमा तक जाना होगा हम जायेंगे, सत्य को जानने के लिए जो कुछ भी करना होगा , हम करेंगे। सत्य को खोजने का काम आसान नहीं है , यह बहुत ही साहसी लोगों का काम है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- "वेदान्त, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत सबसे साहसी और श्रेष्ठतम मस्तिष्कों के लिए बनाया गया है! "Vedanta, especially Advaita Vedanta is made for the boldest and the best minds!" सत्य को खोजने के लिए साहसी होना क्यों आवश्यक है ? अक्सर मनुष्य अपने मनोराज्य में ही डूबा रहना चाहता है , सत्य को देखना नहीं चाहता। कोई भी प्राणी हमेशा अपने 'सुखद और सुविधाजनक दायरे ' के भीतर ही डूबे रहना चाहता है। We want to be just submerged in our cosy comfort zone. (सूकर अवतार?) हम अपने सुखद दायरे से बाहर नहीं आना चाहते, हम सच का सामना नहीं करना चाहते!We don't want to come out of it, we don't want to see the truth face to face ! सत्य को जानना या देखना , सिर्फ साहसी व्यक्तियों का ही काम है। अद्वैत वेदांत के पथ पर आगे बढ़ने के लिए जो कुछ छोड़ना पड़ता है , उसके लिए जिस तैयारी की आवश्यकता होती है, और वही अपने-आप में साहस दर्शाता है। अगर मुझे यहाँ से बेलुड़ मठ पहुँचना हो , तो मुझे झुमरीतिलैया छोड़नी पड़ेगी। यदि मैं झुमरीतिलैया में ही बैठा रहूँगा , घर की सुख -सुविधाओं से चिपका रहूँगा तो कभी बेलुड़ मठ पहुँच पाउँगा ? लेकिन 'comfort zone ' से बाहर निकलने की तैयारी हमारी होती ही नहीं है। मनुष्य की एक बहुत बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपने आरामदायक स्थिति, सुखद विचार हैं उनको छोड़ना नहीं चाहता , उससे चिपक कर रहना चाहता है। आरामदायक स्थिति में रहना 'comfort zone ' में रहना एक बात है , और सत्य को जानना दूसरी बात है। आप अंधकार में भी आराम से रह सकते हो। लेकिन अंधकार में रहने का फल अंत में दुःख ही होगा। लेकिन अंधकार में से जो बाहर निकलना चाहता है , वो छोड़ने के लिए भी तैयार होता है। और छोड़ने के लिए साहस की आवश्यकता होती है !(अर्थात जीवन से मोह छोड़ने के लिए- अगर मैं अविनाशी आत्मा हूँ तो देखता हूँ अगले क्षण मरता कौन है? यह जानने के लिए अदम्य साहस की आवश्यकता होती है।)
(14 :08) सनातन हिन्दू धर्म : हिन्दू शब्द की जगह हमें सनातन धर्म कहना चाहिए। हमारे धर्म का सही नाम है -सनातन धर्म ! सनातन धर्म कहने का तात्पर्य हुआ यह अनादि है , अनादि काल से है, और अनादि काल तक रहेगा। इसीलिए इसको सनातन कहते हैं। क्योंकि यह काल बद्ध नहीं है। किसी विशिष्ट समय पर इसकी उत्पत्ति नहीं हुई है। किसी व्यक्ति ने उसको उत्पन्न नहीं किया है। जैसे ईसाई धर्म Jesus Christ के जन्म से ही शुरू हुआ। या फिर बौद्ध धर्म की बात कहें तो फिर बुद्ध से शुरू हुआ। लेकिन सनातन इस प्रकार का कोई सम्प्रदाय नहीं है। किसी व्यक्ति विशेष के आने मात्र से इसकी उत्पत्ति नहीं हुई है। सच्चाई यह है कि सनातन धर्म में जितने भी महापुरुष हुए हैं , वे सब गौण हैं। अब ये चाहे राम हो , कृष्ण हो ,या शंकराचार्यजी हो , विवेकानन्द जी हो , या रामकृष्ण परमहंस हो ! ये सब गौण हैं। ये व्यक्ति यदि नहीं भी होते , तब भी हमारा सनातन धर्म है। 'हमारा' सनातन धर्म कहना भी गलत है। क्योंकि सनातन धर्म सबका है। वह कहीं भी सीमित नहीं होता। ये हमारा सनातन धर्म है , हम ऐसा नहीं कह सकते। हमारा सनातन धर्म केवल इसी दृष्टिकोण से कह सकते हैं , कि हमलोग इसमें जन्मे हैं। भारत की मूल संस्कृति सनातन धर्म वाली है। अनादि काल से चलता रहा है। तथा भारत और सनातन धर्म का अटूट सम्बन्ध है।
सनातन धर्म या वेद क्या है ? (16 :49) सनातन धर्म यानि वेद ! वेद क्या है ? वेद कोई ग्रन्थ नहीं है। वेद कोई किताब नहीं है। ये सब हमारी विशेषताएं हैं। दूसरे धर्मों में बाइबल कहो , या कुरान कहिये -यह एक पवित्र ग्रन्थ है। किसी ने रचा है। वेद किसी व्यक्ति के द्वारा रचा गया कोई ग्रन्थ नहीं है। तो वेद क्या है ? वेद अनंत ज्ञानराशि है , अनंत शब्दराशि है। अच्छा ये ज्ञान क्या है ? हम लोग जो इस सृष्टि को देख रहे हैं , इस सृष्टि की उत्पत्ति जिस ब्रह्म वस्तु से हुई है ,और जिस प्रकार से वह ब्रह्म वस्तु जहाँ से इस पूरे सृष्टि की उत्पत्ति होती है, या जिसके रहने मात्र से सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन होता है। ये सारी जो सच्चाई है उसी को हमलोग वेद कहते हैं।वेद कोई किताब नहीं है-वेद उन शाश्वत आध्यात्मिक सत्यों, नियमों और सिद्धान्तों का खजाना है,जो सम्पूर्ण सृष्टि को नियंत्रित करता है !It Is a treasure of eternally existing spiritual truths, and laws and principles, Which governs the entire creation ! सृष्टि अनादि और अनंत है, तो सृष्टि के संचालन में जो नियम हैं , जो rhythm (लय) है , जो सिद्धांत हैं , वो भी अनादि अनंत है। वो सारे सिद्धांत और नियम तत्व हैं , उन तत्वों को ही हमलोग वेद कहते हैं। वेद कोई ग्रन्थ नहीं हैं वे शाश्वत सच्चाइयाँ हैं। जिसके रहने से ही ये अद्भुत विस्मयकारी जगत-ब्रह्माण्ड संचालित होता है। यह वेद ही सनातन धर्म है। यह सनातन धर्म किसी व्यक्ति विशिष्ट के द्वारा , किसी कालविशिष्ट में रचा गया नहीं है। सृष्टि जब से है , और जब तक रहेगा , तब तक वेद रहेगा। सनातन धर्म किसी व्यक्ति या ग्रन्थ पर नहीं शाश्वत नियमों , सिद्धांतों और सत्यों में आधारित है। लेकिन कुछ ऐसे महापुरुष समय समय पर आते है जो इन तत्वों को अनुभव करते हैं। उन इन्द्रियातीत सत्यों को अनुभव करते हैं , वैसे महापुरुषों को हमलोग ऋषि कहते हैं। जिसने उस सत्य का अनुभव किया है जिसके रहने से इस सृष्टि का परिचालन -संचालन चलता रहता है। जिसने उस सत्य (सच्चिदानन्द) का अनुभव किया है , उसको हम ऋषि कहते हैं। उन ऋषिओं ने उन सत्यों का, शाश्वत नियमों का अनुभव करके पूरे मानवसमाज के सामने उन्हें रखा है। ऋषियों की अनुभूति को ही हमलोग उपनिषद कहते हैं। और ये सत्यानुभूति ऐसी है, जो सनातन है। ऋषियों की यह अनुभूति जाति , धर्म या राष्ट्र की सीमाओं में आबद्ध नहीं है। ये पूरे मानव-समाज के लिए है , ये सबके लिए है। हिन्दू सनातन धर्म की यह विशषताएँ हैं। हिन्दू सनातन धर्म उपनिषदों के द्वारा पूरे मानव-समाज को ज्ञान बताती है, उसके सारे सत्य और नियम सार्वभौमिक हैं , विज्ञानसम्मत हैं। उन सभी सत्यों, नियमों और सिद्धांतों को परखा जा सकता है। ये महावाक्य सिर्फ विश्वास पर आधारित नहीं है , विश्वास का स्थान है , लेकिन उसे कोई भी मनुष्य-चाहे किसी मजहब का हो , किसी भी राष्ट्र का हो, सत्यापित करके परख सकता है। सनातन धर्म सभी प्रकार के विभाजन कारी नियमों से परे है। यह धर्म मनुष्य को सिर्फ मनुष्य की दृष्टि से देखता है -जाती, मजहब , राष्ट्र के आधार पर भेद नहीं करता है। सारी मानवजाति एक है, परन्तु यह बात केवल सनातन धर्म ही बताती है। तो हमने देखा सनातन धर्म वेद आधारित है।
और वेद क्या है ? वेद अनंत ज्ञानराशि है। कैसा ज्ञान ? उन तत्वों और नियमों सिद्धांतों का ज्ञान जिन तत्वों के माध्यम से इस सृष्टि का संचालन होता है, उसी प्रकार का ज्ञान । और वह ज्ञान सार्वभौमिक है और अनुभवगम्य है। कोई भी उसको अनुभव करके देख सकता है। समय समय पर ऐसे कुछ महापुरुष या ऋषि आते है, जिन्होंने उन सत्यों को देखा है - उनको नेता कहिये , भगवान कहिये , अवतार कहिये या ऋषि कहिये - हमलोग अभी जो विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ पढ़ने जा रहे है -वह ऐसे ही महापुरुष की वाणी है , जिन्होंने सच्चाई को देखा है। हम उस सत्य-द्रष्टा ऋषि के शब्दों को पढ़ने जा रहे हैं , जिसने उस सत्य को देखा है, जाना है। उपनिषदों के ऋषियों के शब्दों को हम पढ़ने जा रहे हैं। जिसने बेलुड़ मठ देखा है , वो हमें बता सकता है - बेलुड़ मठ कैसा है ? वहाँ तक हम पहुँचेंगे कैसे ? रास्ता किसको पता है ? सत्य को ऋषि लोग जानते हैं। और वहां तक पहुँचने के सुगम मार्ग को भी जानते हैं , गलत रास्ते पर जाने से मना करते हैं। उनके बताये मार्ग पर चलकर के हम इस रहस्य पूर्ण विश्वप्रपंच या सृष्टि के पीछे की सच्चाई को हम जान सकते हैं। मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य यही है - जगत प्रपंच के पीछे की सच्चाई को जान लेना। मनुष्य शरीर में जन्म लेकर भी यदि हम मैं कौन हूँ ? जगत क्या है ? ईश्वर क्या है कि खोज नहीं करते हैं , तो यही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। यह आत्मानुसाधन केवल मनुष्य ही कर सकता है , शंकराचार्यजी इस बात को ग्रन्थ के शुरुआत में ही बता देते हैं। उनके बताये हुए मार्ग पर चलकर के हम भी सत्य को जान सकते हैं।
श्रवण की परिभाषा : तो सनातन धर्म और वेद की चर्चा इसलिए की गयी कि हमें श्रवण के महत्व को समझना है। श्रवण का मतलब है सुनना। हम किनके शब्दों को सुन रहे हैं ? ऐसे एक ऋषि के शब्दों को सुन रहे हैं, ऐसे गुरु के शब्दों को सुन रहे हैं , जिन्होंने सत्य को देखा है। वो सत्य जो इस सृष्टि के पीछे छिपा हुआ है, जो आज हमें पता नहीं है। वह परमसत्य अभी तक हमारे लिए बोध-गम्य तो नहीं ही हुआ है , वो आज हमारे लिए बुद्धिगम्य भी नहीं है। लेकिन इस ग्रन्थ के निर्देशानुसार श्रवण-मनन -निदिध्यासन के साधन-मार्ग पर चलते हुए हम भी धीरे धीरे उस सत्य तक पहुँच जायेंगे। तो उन सत्यद्रष्टा ऋषियों या महापुरुषों, अवतारों नेताओं के शब्दों को सुनने की भी एक प्रक्रिया है। शास्त्र, ऋषि या गुरु के शब्दों को सुनना सामान्य ढंग से सुनना नहीं है। इसलिए हमारी देवभाषा संस्कृत में इसको 'श्रवणं' कहा जाता है, तथा इस श्रवणं की एक विशेष परिभाषा (Technical Definition) संस्कृत में शंकराचार्य जी द्वारा ही दी गयी है।
हम जो पढ़ रहे हैं , पाण्डित्य के लिए नहीं पढ़ रहे है। हमें इन शिक्षाओं को अपने जीवन में धारण करने के लिए पढ़ रहे हैं। इसके अध्यन से हमारे जीवन में यदि बदलाव आ जाये , तभी इस अध्यन की सार्थकता है। विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ के स्वाध्याय से यदि हमारे जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया तो ऐसा स्वाध्याय व्यर्थ है। इसके अध्यन का प्रभाव हमारे चरित्र द्वारा परिलक्षित होना चाहिए। तो संस्कृत में ये श्रवणं, मननं , निदिध्यासनं क्या है ? (31:49) यही समझेंगे।
" श्रवणं नाम षड्विध-लिङ्गैः अशेष-वेदान्तानाम् अद्वितीय-वस्तुनि तात्पर्य-अवधारणम्।।"
श्रवण का मतलब सिर्फ सुनना मात्र नहीं है।तात्पर्य-अवधारणम् ! You are coming to a conclusion , you are coming to a conviction, शास्त्र और गुरु के शब्दों के विषय में उसका जो असली तात्पर्य है , आप एक निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं, आप एक दृढ़ विश्वास पर पहुँच रहे हैं। उस तात्पर्य का आप अवधारण कर रहे हैं , उसे आप 'ascertain' कर रहे हैं - उन शब्दों के मर्म के विषय में निश्चयपूर्वक जान कर अपने ह्रदय में धारण कर रहे हैं। किसके विषय में सुनकर के हमें अवधारण करना है ? तो कहते हैं - अशेष-वेदान्तानाम् अद्वितीय-वस्तुनि !
पूरे वेद का जो सार है - वही उपनिषद है। वेद को ही हम सनातन धर्म कहते हैं। सनातन धर्म को इतना मात्र ही कहना है। उपनिषदों को इतना मात्र ही कहना है कि बच्चों -आज हमको इन्द्रियों से जो दिखाई देता है। कि ये विश्वप्रपंच है , जो मुझसे अलग है। मैं विश्वप्रपंच से अलग हूँ। मुझसे ईश्वर अलग है। हमारी बुद्धि आज भेद-बुद्धि है। आज हमारी जो बुद्धि या अवधारणा है वह सब द्वैत में ही चलता है। वो सब 'मैं'- 'तुम ' भेदभाव में ही चलता है।
लकिन उपनिषदों को या सनातन धर्म को सिर्फ इतना ही कहना है - कि बच्चो जीव , जगत और ईश्वर में वस्तुतः कोई भेद है ही नहीं ! एकमेवाद्वितीयं -आत्मा या परब्रह्म से भिन्न या अतिरिक्त यहाँ कुछ भी अस्तित्व में नहीं है। पूरे मानवसमाज के सामने सनातन धर्म को केवल इतना ही कहना है कि-अद्वितीय वस्तुनि तात्पर्य अवधारणम्' -एकमेवाद्वितीयं -परब्रह्म से भिन्न या अतिरिक्त यहाँ कुछ भी अस्तित्व में है ही नहीं। हमलोगों को भी यही अवधारणा करनी है, इसी निश्चय में प्रतिष्ठित होना है कि - सचमुच यहाँ ब्रह्म , आत्मा या ईश्वर से भिन्न कुछ है ही नहीं। तो श्रवणं का अर्थ हुआ शास्त्र और गुरु के शब्दों को सुनकर आप किसी सत्य सिद्धान्त में प्रतिष्ठित होने जा रहे हो कि एकमेवाद्वितीयं -परब्रह्म से भिन्न या अतिरिक्त यहाँ कुछ भी अस्तित्व में है ही नहीं। और हमारे समस्त उपनिषदों का निष्कर्ष भी यही है। आगे भी इसी विषय पर चर्चा होगी। और हम इसलिए सुनेंगे कि सुनकर के इस सत्य की अवधारणा कर लेंगे। क्या अवधारण करने के लिए हम लोग सुन रहे हैं ? शास्त्र-वाक्य , ऋषि वाक्य को सुनकरके , गुरुवाक्य के सुनकरके , उपनिषदों के महावाक्य को सुनकर के हमें यही अवधारणा करनी है कि "एकमेवाद्वितीयं पर ब्रह्म से भिन्न यहाँ कुछ है ही नहीं"। इसी अवधारणा तक पहुँचने की प्रक्रिया ही श्रवण है। सनातन धर्म का जो मूल उपदेश है , सनातन धर्म को सम्पूर्ण मानवजाति के समक्ष जिस सत्य को रखना है -वो क्या है ? "एकमेवाद्वितीयं आत्मा या ब्रह्म से भिन्न यहाँ कुछ है ही नहीं"।
अब हमारे लिए यह विकट समस्या है। ऋषि कहते हैं ब्रह्म से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। और हमको ब्रह्म ही नहीं दिखाई दे रहा बाकी सब दिखाई दे रहा है। इस अवधारणा-'ब्रह्म से भिन्न यहाँ कुछ है ही नहीं" पर पहुँचना इतना आसान नहीं है। बहुत सी कठिनाइयाँ हैं। इतना आसान नहीं होने वाला है। ऋषियों की अनुभूति ये है कि -"एकमेवाद्वितीयं पर ब्रह्म से भिन्न यहाँ कुछ है ही नहीं"! लेकिन आज हमारी जो दशा है उसमें हमको तो ब्रह्म दीखता ही नहीं है। ब्रह्म से अतिरक्त सब कुछ हमको दिखाई दे रहा है। सत्य क्या है ? ऋषियों की वाणी सत्य है या आज हमको ये विश्व-प्रपंच जैसा अनुभव हो रहा है , वह सत्य है ? सत्य कौन सा है ? (38:45)
मनुष्य अपनी अनुभूति को बड़ा प्रमाण मानता है। जीव अपनी अनुभूति को ही बड़ा प्रमाण मानता है। उसको तो अनेकत्व - अनेकता ही सत्य अनुभव हो रहा है। लेकिन इन्द्रियों से दिखाई देने वाले सत्य को प्रमाण माना जा सकता है क्या ? अब यही खोज है। हमलोग धीरे धीरे इसी दिशा में आगे बढ़ेंगे और देखेंगे कि हम जो अनुभव कर रहे हैं , सिर्फ अनुभव होने मात्र से वो सच होगा ? ऐसा नहीं है। तो जो जीव अनुभूति को ही बड़ा प्रमाण मानते है, उस पर बहुत बड़ा प्रश्न उठ खड़ा होता है। तो श्रवण से हमको किस विषय में तात्पर्य निर्धारण करना है ? सुन कर के हमारी अवधारणा यह होनी चाहिए कि हाँ ; विश्वप्रपंच भी ब्रह्म ही है! ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं है। भिन्न शब्द महत्वपूर्ण है। ब्रह्म से 'भिन्न' -माइक मुझसे भिन्न है, आप मुझसे भिन्न हो। ये कमरा -पेड़-पौधा , हिमालय सब मुझसे भिन्न नजर आता है। लेकिन उपनिषदों को ये कहना है , ऋषियों की ये अनुभूति है - कि एकमेवाद्वितीय जो आत्मतत्व है , या ब्रह्मतत्व है, उससे भिन्न यहाँ कुछ भी नहीं है। यह अवधारण हमको श्रवण के माध्यम से करना है। जब ये अवधारणा होती है , तब श्रवण की प्रक्रिया पूरी होती है। तो श्रवण सिर्फ सुनना मात्र नहीं है, सुन कर के हमें इस चीज की अवधारणा करनी होगी कि आत्मा या ब्रह्म से भिन्न अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। (41:18)
मननं : अब परम् सत्य को जानने का दूसरा चरण है - मनन। एक बार हमने शास्त्र और गुरु के माध्यम से सुन करके हम यह अवधारणा कर लेते हैं , कि (देह, मन) आत्मा या ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं है। यह निश्चय कर लेने के बाद क्या करना है ? फिर मनन करना है। मनन की परिभाषा इस प्रकार है -
तो मनन क्या है ? 'श्रुतस्य अद्वितीय वस्तु नो' ! जिस आद्वितीय ब्रह्म के विषय में आपने अवधारणा कर लिया। श्रवण कर लिया अर्थात आपने अवधारण कर लिया। क्या अवधारण कर लिया ? ब्रह्म से भिन्न सच्चाई में कुछ है ही नहीं। आज भले मेरे लिए वो बोधगम्य या अनुभवगम्य नहीं हो , लेकिन आपके अंदर एक अवधारणा हो जाती है। एक बौद्धिक अवधारणा हो जाती है। शास्त्र और गुरु के शब्द को सुनकरके हमारे अंतःकरण में , हमारी बुद्धि में एक बौद्धिक अवधारणा हो जाती है कि हाँ ये सत्य है। ऐसा ही होगा।
मननं क्या है ? जिस विषय में आपने अवधारण कर लिया उस विषय में अवधारणा क्या है ? कि ब्रह्म से भिन्न कुछ भी, नहीं है। अबवेदान्तानुगुणयुक्तिभिःअनवरतम् अनुचिन्तनम्' श्रवण करने पश्चात् आपके मन का एक नया प्रकार का व्यापार शुरू होगा। अगर आप सत्य की खोज में हो तो, आपके मन का व्यापार इस प्रकार का होगा कि जिस चीज की अवधारणा आपने कर ली है , उस चीज के अनुकूल ही आपके मन का व्यापार होगा। उसके प्रतिकूल नहीं होगा। अब आपके मन के अंदर जो चिंतन चलेगा , आपके मन के अंदर जो युक्ति है ,जिसको तर्क-शक्ति या reasoning कहा जाता है , वह युक्ति उस अवधारणा के अनुरूप ही होगी , जिसकी अवधारणा आपने श्रवण के माध्यम से बना ली है। Now the reasoning which is a very powerful function of the human mind; Now the reasoning will be completely in alignment with what you have ascertained through Shravanam .
आपने जब यह सुनिश्चित कर लिया था कि आत्मा या ब्रह्म से भिन्न कुछ है ही नहीं, तो अब आपके मन के अंदर जो युक्ति (reasoning)चलती रहती है , वो आपके निष्कर्ष या निश्चय के अनुकूल ही होगा। मन में उठने वाले विचार इस निश्चय के प्रतिकूल नहीं होनी चाहिए, और अनवरत चलते रहना चाहिए - 'अनवरतम् अनुचिन्तनम्'! जब आप गुरु शब्दों का श्रवण करके आप इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि ब्रह्म के अलावा कुछ भी अस्तित्व में नहीं है। तो अब यह श्रवण आपकी उस मानसिक गतिविधि को Initiate कर देता है, जो पूर्णतया उसी अवधारणा के अनुरूप होगी जो आपने श्रवण के माध्यम से प्राप्त किया है। और मन का यह व्यापार अनवरत चलते रहना चाहिए। इस चिंतन में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं आने देना चाहिए, आत्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है - ये विचार अखंड भाव से चलते रहना चाहिए। इसलिए प्रथम अध्याय कहा गया था कि - योग का प्रथम द्वार है मौनं। मौन हुए बिना आप अनवरत चिंतन कैसे कर पाएंगे ? या अगर मोबाइल में व्यस्त रहोगे , तो अंतर्न्हित ब्रह्मत्व का अनवरत अनुचिंतनम कैसे कर पाओगे? मौन का मतलब क्या है ? अनावश्यक अपनी वाणी को कष्ट नहीं देना चाहिए। वाणी को कष्ट देना पड़ता है , जब उसकी आवश्यकता हो। यदि हम चाहते हों कि मन में अनवरत ब्रह्म का चिंतन चलता रहे तो , मौन रहना आवश्यक है।
अब जैसे जैसे हम श्रवणं और मननं का अर्थ समझ में आने लगता है तो हमारे भीतर एक बदलाव आने लगता है। हमारे मनोराज्य के अंदर एक अद्भुत परिवर्तन आना शुरू हो जायेगा। बाहर का जगत तो अलग प्रकार का है , सही में विश्व-प्रपंच तो मन में है। मन से अतिरिक्त कोई जगत है ही नहीं। हमको जो बाहर दिखाई दे रहा है , ये जगत मन से अतिरिक्त कुछ है क्या ? यही प्रश्न है, खोज है। मनुष्य होने के नाते हम सभी को इसका उत्तर खोजना है। इन सब प्रश्नों के समाधान में ही जीवन की सफलता है , सार्थकता है। तो एकमेवाद्वित्य ब्रह्म ही है ऐसी अवधारणा है श्रवण। और मन का सारा विचार उसी के अनुकूल चलना है मनन। सब समय मन में ब्रह्मचिन्तन ही चलेगा -और यही ब्रह्मचिन्तन और गहरा होने से निदिध्यासन हो जायेगा। तो निदिध्यासन एक प्रकार का ध्यान है। निदिध्यासन की परिभाषा इस प्रकार है - "विजातीय-देहादि-प्रत्यय-रहित-अद्वितीय-वस्तु-सजातीय प्रत्यय-प्रवाहो निदिध्यासनम्।।"
जब आपने यह अवधारणा कर ली कि आत्मा से ब्रह्म से भिन्न कुछ है नहीं ! (49:47) अब आपके मन में सब समय आत्मचिंतन ही चलता रहेगा। आगे चलकर वह आत्मचिंतन की जब सतत धारा जैसे बह रही हो , लगातार एक ही विचार मन चल रहा है - मैं ब्रह्म हूँ ! मैं आत्मा हूँ ! मैं ब्रह्म हूँ ! मैं आत्मा हूँ ! मैं ब्रह्म हूँ ! मैं आत्मा हूँ ! यह मैं कौन हूँ प्रश्न में? 'मैं ' का मतलब आत्मा ही है। मैं का मतलब ब्रह्म ही है। मैं देह नहीं हूँ , मैं आत्मा हूँ। 'मैं देह हूँ' हमारे आज का बोध यही है कि नहीं ? हम उसी बोध में जी रहे हैं कि मैं शरीर हूँ ! अब निदिध्यासन में क्या होगा ? अब मेरे मन में -यह धारा नहीं चलेगी , कि मैं यह शरीर हूँ। अब मन में सिर्फ एक ही प्रत्यय (आत्म-विश्वास)का प्रवाह चलेगा। उस प्रत्यय का प्रवाह ऐसा रहेगा कि -मैं ब्रह्म हूँ ! मैं आत्मा हूँ ! मैं ब्रह्म हूँ ! मैं आत्मा हूँ ! मैं ब्रह्म हूँ ! मैं आत्मा हूँ ! ये आत्मविश्वास जब अत्यंत एकाग्रता के साथ अनवरत चलेगा , तो उसको हम निदिध्यासन कहते हैं।
तो हम देखते हैं कि ये तीन steps हैं , जो एक स्टेप है वो दूसरे में प्रवेश कर जाता है। दूसरा तीसरे में। और तीसरा चरण -निदिध्यासन फिर समाधि में समाप्त हो जाती है। आत्मज्ञान में उसकी समाप्ति हो जाती है। इस प्रकार हम सभी मनुष्य (जीव) जान पाएंगे कि हम अपने सत्य-स्वरुप में हैं क्या ? और इस सृष्टि के पीछे , इस जगत के पीछे क्या है ? या 3H के पीछे क्या है ? इसको जानने की प्रक्रिया है श्रवण, मनन , निदिध्यासन।
संक्षेप में कहें तो वेदांत को, उपनिषदों को या सनातन धर्म को सम्पूर्ण मानवजाति के समक्ष यही बताना है कि श्रवण का अर्थ सिर्फ सुनना मात्र नहीं , बल्कि सुन करके यह अवधारणा कर लेना कि - ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं है। जब यह अवधारणा हो जाती है , तब उससे मन में विशिष्ट प्रकार का चिंतन उत्पन्न होता है , जो अवधारणा के (आत्मनिश्चय के) अनुकूल होगा, प्रतिकूल नहीं होगा। अनवरत मन में सत्य चिंतन चलेगा। जो युक्ति चलेगी वो इस अवधारणा के अनुकूल होगी।
[ मानलो अपने गुरुदेव (श्रीरामकृष्ण -स्वामी विवेकानन्द परम्परा) के मुख से विधिवत मंत्र-श्रवण करने तथा अभ्यास -वैराग्य के साथ साधना करने से भी अधिक ईश्वर के अनुग्रह से (ठाकुर देव की इच्छा, स्वामी विवेकानन्द की कृपा और ज्ञानदायनी माँ सारदा देवी के अनुग्रह से) मेरे अंतःकरण में यह अवधारणा हो गयी कि मैं स्वरूपतः सच्चिदानन्द ब्रह्म या आत्मा ही हूँ। तो अब मेरी जो युक्ति चलेगी वह इसी अवधारणा के अनुकूल होगी इसके प्रतिकूल नहीं होगी। हम जानते है कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं, जिसको स्वामीजी '3H' कहते हैं।
'3H' का पहला 'H' है (Hand) या शरीर ! हमारे शास्त्रों में कहा गया है - "शरीरं आद्यं खलु धर्म साधनम्" अर्थात शरीर ही धर्म (कर्तव्य) का पहला साधन है, अतएव अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए एक स्वस्थ और बलवान शरीर का होना अत्यंत आवश्यक है। मुण्डक उपनिषद में भी कहा गया है -"न अयम् आत्मा बलहीनेन लभ्यः" :— यह आत्मा दुर्बल पुरुष द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती । तो 'मनुष्य' (अर्थात विवेकी मनुष्य) बनने और बनाने के लिए अपने 3'H' को शरीर और मन और ह्रदय को नियमित पौष्टिक आहार और व्यायाम के द्वारा हमें स्वस्थ और बलवान बनाना होगा। इसके लिए फिर निदिध्यासन इस चिंतन-प्रवाह को और भी तीव्र बनाना है।
फिर गहरे ध्यान में सिर्फ एक ही प्रत्यय चलेगा कि मेरे दो पहचान हैं। एक मेरे 'नाम-रूप' वाला व्यावहारिक मैं है, और दूसरा मेरा अपरिवर्तनीय सत्य स्वरुप ! 'मैं आत्मा हूँ , मैं शरीर नहीं हूँ !' मैं आत्मा हूँ , मैं शरीर नहीं हूँ ! मैं आत्मा हूँ , मैं शरीर नहीं हूँ !'मैं केवल शरीर और मन हूँ ' ऐसा सोचना, 'मैं ब्रह्म हूँ ! मैं आत्मा हूँ!'-'इस 3'H' प्रत्यय के प्रतिकूल हो जाता है। तो गंभीर ध्यान में -भी यही विचार अनवरत चलता रहेगा, मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ ! "मैं ब्रह्म हूँ !मैं ब्रह्म हूँ !मैं ब्रह्म हूँ !" ऐसे प्रत्यय प्रवाह को (आत्मनिश्चय प्रवाह को) ध्यान कहते हैं। इसको निदिध्यासन कहते हैं। ऐसी परिस्थिति में पहुँचकर व्यक्ति अपने स्वरुप को अनुभव कर लेता है। किन्तु यह आत्मानुभूति एक-दो दिन में होने वाली बात नहीं है। बहुत धैर्य पूर्वक वर्षों तक , कई जन्मों की तपस्या के बाद ये अनुभूति होती है। वैसे ईश्वर के अनुग्रह से (ज्ञानदायनी माँ सारदा के अनुग्रह से) कुछ भी हो सकता है। इसके पीछे बहुत वैराग्य और अभ्यास की आवश्यकता है। यह कोई अल्प समय में होने वाला , साल-दोसाल या छः महीने में होने वाला कोई जादू नहीं है। इसके पीछे बहुत साधना की आवश्यकता है।
अब आगे विवेक-चूड़ामणि में जिन 50 -60 श्लोकों का पाठ होगा उसका मुख्य मुद्दा यही होगा कि भाई - जीव, जगत , ईश्वर (3H) ब्रह्म ही है , ब्रह्म से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। और 'तत्त्वमसि ' और आप वही हो। वेद उपनिषद को इतना ही बताना है। क्या बताना है ?-- तत्त्वमसि , तत्त्वमसि, तत्त्वमसि। तुम जो अपने को शरीर समझ रहे हो, यह तुम नहीं हो। तुम कुछ और हो। वह क्या है ? उसी की खोज है। और उस सत्य का खोज करने की प्रक्रिया है -श्रवण, मनन , निदिध्यासन।
विवेक- चूड़ामणि ग्रन्थ का परिचय :
विवेक क्या है, उसी को समझने का यह ग्रन्थ है विवेक- चूड़ामणि। ऐसी मान्यता है कि भगवान शंकराचार्य की यह अंतिम रचना है। शंकराचार्य जी की अद्भुत जीवनी से आप अवश्य परिचित होंगे। इस अद्भुत महापुरुष के विषय में स्वामी विवेकानन्द बहुत अद्भुत बात कहते हैं -
स्वामी विवेकानन्द भगवान शंकराचार्य जी को boy शंकर या बालक शंकर कह कर सम्बोधित करते हैं। क्योंकि उन्होंने अपनी सारी रचनायें 16 वर्ष की आयु में ही लिख डाली थीं। पूरे मानव-इतिहास में ऐसा दूसरा उदाहरण देखने को नहीं मिलता है। उनकी रचनाएँ ज्ञानबर्धक और भक्तिरस में डूबी हुई हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने आदि शंकराचार्य के बारे में कहा था - " जिसके बारे में यह घोषित किया गया है कि उसने सोलह वर्ष की उम्र में अपनी समस्त ग्रंथों की रचना समाप्त कर ली थी, उसी अद्भुत प्रतिभाशाली बालक शंकराचार्य का अभ्युदय हुआ। और जिस 16 वर्ष के बालक की रचनाओं को पढ़कर सभ्य जगत आश्चर्य-चकित (विस्मित) हो रहा है, वह बालक भी उतना ही अद्भुत था। उसने संकल्प किया था कि समग्र भारत को उसके प्राचीन विशुद्ध मार्ग में ले जाऊँगा। " (भारत के महापुरुष/ऋषि -खंड 5, पेज -159/बालक शंकराचार्यजी भारतीय जगत को पुनः उसकी प्राचीन शुद्धता पर वापस लाना चाहते थे।)
["The greatest teacher of the Vedanta philosophy was Shankaracharya. India has to live, and the spirit of the Lord descended again. He who declared, “I will come whenever virtue subsides, came again and this time the manifestation was in the South, and up rose that young Brahmin Adi Shankara- of whom " It has been declared that at the age of sixteen he had completed all his writings; the marvelous boy Shankaracharya arose.The writings of this boy of sixteen are the wonders (marvels-चमत्कार ) of the modern world, and so was the boy. He wanted to bring back the Indian world to its pristine purity."(The Sages Of India) ]
विवेक चूड़ामणि में 580 श्लोक हैं , जो प्रिंटआउट आपको दिया गया है उसमे 50 -60 श्लोकों को इस प्रकार चुना गया है कि आपको उसमें पूरे ग्रंथ का सार मिल जायेगा। क्योंकि यह अध्यन सिर्फ पाण्डित्य के लिए नहीं है , इस ग्रन्थ के अध्यन से यदि हमारे जीवन में परिवर्तन नहीं आता , तो यह अध्यन विफल है। हम इसका अध्यन अपने अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करने तथा जीवन को आनंदमय बनाने के लिए पढ़ रहे हैं। सभी लोग जीवन में सुख के लिए प्रयत्न कर रहे है। हर जीव सुखी होना चाहता है। लेकिन सुखी होने का मार्ग किसको पता है ? अत्यंत आनंद-प्राप्ति और दुःख निवृत्ति - सभी मनुष्यों का प्रयत्न इसीके लिए तो है। लेकिन सुख कहाँ है ? ये किसको पता है ? सारा जीव-जगत भ्रमित है। हम सुख को वहाँ (विषयों में?) ढूँढ रहे हैं -जहाँ सुख का एक बून्द भी नहीं है। वहाँ आपको एक बून्द सुख नहीं मिलेगा , आपका यौवन समाप्त हो जायेगा। जीवन समाप्त हो जायेगा। और दुबारा एक नया जीवन शुरू हो जायेगा।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्, गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते मरणे, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥
उपनिषद कहते हैं - " दरवाजे पर मृत्यु खड़ी है। 'डुकृञ् करण' का क्या मतलब -पाण्डित्य। संस्कृत व्याकरण के नियमों को जानने से हमलोग मृत्यु के चपेट से मुक्त होने वाले नहीं हैं । इस बात को समझ लेना चाहिए कि मृत्यु दरवाजे पर दस्तक दे रही है। और हमलोग क्या लेकर के बैठे हैं ? केवल संसार के विषयों को पाने की तरफ नहीं दौड़ना चाहिए। तो करना क्या चाहिए ? -भज गोविन्दं !भज गोविन्दं !भज गोविन्दं ! मतलब क्या ? पूजा करते रहना चाहिए ? भज गोविन्दं का मतलब और कुछ नहीं -सत्य को जानो ! सत्य को जानो ! सत्य को जानो ! भज गोविन्दं !भज गोविन्दं का अर्थ क्या यह समझो की 'इसकी' पूजा करो , 'उसकी ' पूजा करो ? नहीं इसका मूल या सार अर्थ यही है 'सत्य को जानो (3H में सत्य क्या है ?), 'सत्य को जानो' सत्य को जानो ! सत्य को जानेंगे कैसे ? जब हम महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग पद्धति का श्रवण-मनन -निदिध्यासन द्वारा (गुरु-शिष्य परम्परा में)मन को एकाग्र करने का विवेक-वैराग्य के साथ विधिवत अभ्यास द्वारा धैर्य पूर्वक दीर्घ काल तक याठाकुर, माँ , स्वामीजी के अनुग्रह से किसी भी समय जब हम सत्य को जान लेंगे तो वही हमको, इस जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त कर देगी । इस प्रकार 16 वर्ष से भी कम उम्र वाले बालक , भगवान शंकराचार्य जी द्वारा रचित यह ग्रथ हमें बताती है , कि मनुष्य शरीर में जन्म लेने के बाद हमें करना क्या है ? इस बालक शंकराचार्यजी द्वारा रचित रचनाओं के 1200 वर्ष बीत चुके हैं। आज भी पूरे मानसमाज को ये प्रकाश प्रदान कर रही हैं। ऐसी अद्भुत इनकी रचनाएँ है जो आज भी ज्ञान का आलोक प्रदान कर रही हैं।
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