परिच्छेद- 131
*कालीपूजा तथा श्रीरामकृष्ण*
(1)
[ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]🔱🕊
*कालीपूजा के दिन भक्तों के संग में*
[৺কালীপূজার দিবসে শ্যামপুকুর বাটীতে ভক্তসঙ্গে]
श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुरवाले मकान के ऊपर दक्षिण के कमरे में खड़े हुए हैं । दिन के 9 बजे का समय होगा । आप शुद्ध वस्त्र पहने ललाट में चन्दन की बिन्दी लगाये हुए हैं । मास्टर आपकी आज्ञा पाकर सिद्धेश्वरी काली (ठनठनिया, झामापुकुर ?) का प्रसाद ले आये हैं । प्रसाद को हाथ में ले, बड़े भक्ति-भाव से श्रीरामकृष्ण खड़े हुए उसका कुछ अंश ग्रहण कर रहे हैं और कुछ मस्तक पर धारण कर रहे हैं । प्रसाद ग्रहण करते समय आपने पादुकाओं को पैरों से उतार दिया । मास्टर से कह रहे हैं- "बहुत अच्छा प्रसाद है ।" आज शुक्रवार है, आश्विन की अमावस्या, 6 नवम्बर 1885 । आज कालीपूजा का दिन है ।
It was the day of the Kali Puja. the worship of the Divine Mother, Sri Ramakrishna's Chosen Ideal. At about nine o'clock in the morning the Master, clad in a new cloth, stood in the south room on the second floor of his temporary residence at Syampukur. He had asked M. to offer worship to Siddhesvari at Thanthania, in the central part of Calcutta, with flowers, green coconut, sugar, and other sweets. After bathing in the Ganges, M. had offered the worship and come barefoot to Syampukur. He had brought the prasad with him. Sri Ramakrishna took off his shoes and with great reverence ate a little of the prasad and placed a little on his head.
শ্রীরামকৃষ্ণ শ্যামপুকুরে বাটীর উপরের দক্ষিণের ঘরে দাঁড়াইয়া আছেন। বেলা ৯টা। ঠাকুরের পরিধানে শুদ্ধবস্ত্র এবং কপালে চন্দনের ফোঁটা। মাস্টার ঠাকুরের আদেশে ৺সিদ্ধেশ্বরী কালীর প্রসাদ আনিয়াছেন; প্রসাদ হস্তে ঠাকুর অতি ভক্তিভাবে দাঁড়াইয়া কিঞ্চিৎ মস্তকে ধারণ করিতেছেন। গ্রহণ করিবার সময় পাদুকা খুলিয়াছেন। মাস্টারকে বলিতেছেন, “বেশ প্রসাদ।”
श्रीरामकृष्ण ने मास्टर को आदेश दिया था ठनठनिया की सिद्धेश्वरी काली मूर्ति की पुष्प, डाब (कच्चा नारियल), शक्कर और सन्देश चढ़ाकर पूजा करने के लिए । मास्टर स्नान करके नंगे पैर सबेरे पूजा समाप्त करके नंगे पैर ही श्रीरामकृष्ण के लिए प्रसाद लेकर आये हैं ।
আজ শুক্রবার (২২শে কার্তিক, ১২৯২); আশ্বিন অমাবস্যা, ৬ই নভেম্বর, ১৮৮৫। আজ ৺কালীপূজা। ঠাকুর মাস্টারকে আদেশ করিয়াছিলেন ঠনঠনের ৺সিদ্ধেশ্বরী কালীমাতাকে পুষ্প, ডাব, চিনি, সন্দেশ দিয়ে আজ সকালে পূজা দিবে। মাস্টার স্নান করিয়া নগ্নপদে সকালে পূজা দিয়া আবার নগ্নপদে ঠাকুরের কাছে প্রসাদ আনিয়াছেন।
[ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]🔱🕊
🏹साधारण जनों में रामप्रसाद और कमलाकान्त द्वारा रचित
श्यामासंगीत के भावों को भरना होगा। 🏹
श्रीरामकृष्ण ने मास्टर को रामप्रसाद और कमलाकान्त की संगीत-पुस्तकें खरीद लाने के लिए कहा था । वे डाक्टर सरकार को ये पुस्तकें देना चाहते थे । मास्टर कह रहे है - "ये पुस्तकें भी लाया हूँ - रामप्रसाद और कमलाकान्त #के गाने की पुस्तकें ।"
[तंत्र साधक रामप्रसाद सेन (1718-1775) और कमलाकांत भट्टाचार्य (1769-1821)]
At the Master's request, M. had purchased two books of songs by Ramprasad and Kamalakanta for Dr. Sarkar. M: "Here are the books of songs by Ramprasad and Kamalakanta."
ঠাকুরের আর একটি আদেশ — ‘রামপ্রসাদের ও কমলাকান্তের গানের বই কিনিয়া আনিবে।’ ডাক্তার সরকারকে দিতে হইবে। মাস্টার বলিতেছেন, “এই বই আনিয়াছি। রামপ্রসাদ আর কমলাকান্তের গানের বই।”
श्रीरामकृष्ण ने कहा, “डाक्टर के भीतर इन गीतों का भाव संचारित कर देना होगा ।"
MASTER: "Force songs like these on the doctor:
শ্রীরামকৃষ্ণ বলিলেন, “এই গান সব (ডাক্তারের ভিতর) ঢুকিয়ে দেবে।”
कविरंजन रामप्रसाद सेन द्वारा रचित श्यामा संगीत (काली भजन) के बोल -
(1)
प्रसादी धुन : एक ताल
मन कि तत्व कोरो तांरे, जेनो उन्मत्त आँधार घरे।
से जे भावेर बिषय , भाव ब्यतीत अभावे कि धरते पारे।।
गाना - ऐ मेरे मन ! ईश्वर (माँ काली -माँ तारा भवतारिणी) का स्वरूप जानने के लिए तुम यह कैसी चेष्टा कर रहे हो ? जगतजननी माँ तारा के मातृ हृदय का सर्वव्यापी विराट 'मैं ' केवल भाव से समझने की वस्तु हैं, उनके भाव में भावित हुए बिना, क्या कोई ईश्वर (सच्चीदानंद ब्रह्म की शक्ति राधा या माँ काली) को अपने ह्रदय में बैठाकर उनका ध्यान कर सकता है ? तुम तो मानो अँधेरे कमरे में बन्द पागल की तरह भटक रहे हो ...[मन तुम केवल प्राण, आकाश और कल्प (देश-काल-निमित्त) के सीमा के भीतर ही भटक रहे हो, तुरीयावस्था में गए बिना अपने यथार्थ स्वरुप (मिथ्या अहं के परे स्वरुप) को नहीं समझ सकते।]
मन अग्रे शशि वशीभूत कर, तोमार शक्ति सारे।
ओरे कोठार भीतर चोर-कूठरी, भोर होले से लूकाबे रे।।
मन पहले तुम अपनी शक्ति (विवेक-प्रयोग शक्ति द्वारा एक ही मन को द्रष्टामन और दृश्यमन में बाँटने की शक्ति) की सहायता से उसके उद्भव स्थान चन्द्रमा को वश में करो ! अरे मन अंश (quota) के भीतर एक चोर कमरा है, सुबह होते ही वह उसमें छुप जायेगा !
षड्दर्शने दर्शन पेले ना, आगम -निगम -तन्त्रसारे।
से जे भक्ति-रसेर रसिक, सदानन्दे विराज करे पूरे।।
उसका दर्शन षड्दर्शन में खोजने से भी नहीं मिलेगा, आगम-निगम और तन्त्र की समस्त पुस्तकों में भी खोजने से नहीं मिलेगा। क्योंकि माँ काली (राधा -माँ सारदा) तो भक्ति रस की रसिक (प्रेमिक) हैं, वे ह्रदय गुहा में सदैव आनन्द में विराज करती हैं !
से भाव लोभे परम् योगी, योग करे युगयुगान्तरे।
होले भावेर उदय -लय से जेमन, लोहाके चुम्बके धरे।।
प्रसाद बोले मातृभावे आमि तत्व करि जारे।
सेटा चातरे कि भांगबो हाँड़ी, बूझ रे मन ठारे ठारे।।
রামপ্রসাদ সেন (কবিরঞ্জন
প্রসাদী সুর - একতালা।
মন কি কর তত্ত্ব তাঁরে।
ওরে উন্মত্ত, আঁধার ঘরে॥
সে যে ভাবের বিষয় ভাব ব্যতীত, অভাবে কি ধরতে পারে॥
মন অগ্রে শশী বশীভূত, কর তোমার শক্তি সারে।
ওরে কোঠার ভিতর চোরকুঠারী,
ভোর হলে সে লুকাবে রে।
ষড়্দর্শনে দর্শন পেলে না, আগম-নিগম-তন্ত্রসারে।
সে যে ভক্তিরসের রসিক, সদানন্দে বিরাজ করে পুরে॥
সে ভাবলোভে পরম যোগী যোগ করে যুগযুগান্তরে।
হলে ভাবের উদয় লয় সে যেমন, লোহাকে চুম্বকে ধরে॥
প্রসাদ বলে মাতৃভাবে আমি তত্ত্ব করি যাঁরে।
সেটা চাতরে কি ভাঙবো হাঁড়ি বুঝরে মন ঠারেঠোরে॥
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(2)
के जाने काली केमन ?
षड्दर्शन ना पाये दर्शन।
मूलाधारे सहस्ररारे सदा योगी करे मनन।।
गाना - कौन कह सकता है कि माँ काली कैसी हैं ? षड्दर्शनों को भी जिसके दर्शन नहीं हो पाते..? [जबकि 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' Be and Make ' में प्रशिक्षित योगी अपने मूलाधार-चक्र और सहस्रार-चक्र पर माँ काली के उस स्वरूप का (ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं का) चिन्तन -मनन सदैव करते रहते हैं।]
मूलाधारे सहस्रारे सदा योगी करे मनन।
काली पद्मवने हँस -सने, हंसीरुपे करे रमन।
आत्मारामेर (आत्माराम=अवतारवरिष्ठ की)
आत्मा काली प्रमाण प्रणवेर मतन।
तिनि घटे घटे विराज करेन, इच्छामयीर इच्छा जेमन।।
मायेर उदरे ब्रह्माण्ड भाण्ड, प्रकाण्ड ता जानो केमन।
महाकाल जेनेछेन कालीर मर्म, अन्य केवा जाने तेमन ?
प्रसाद भाषे लोके हासे, संतरणे सिन्धु -तरण।
आमार मन बूझेछे प्राण बूझे ना धरबे शशि होय वामन।।
গান —
কে জানে কালী কেমন। ষড়্দর্শনে না পায় দরশন।
কে জানে কালী কেমন?
ষড় দর্শনে না পায় দরশন ৷৷
মূলাধারে সহস্রারে সদা যোগী করে মনন ।
কালী পদ্মবনে হংস-সনে, হংসীরূপে করে রমণ ৷৷
আত্মারামের আত্মা কালী প্রমাণ প্রণবের মতন ।
তিনি ঘটে ঘটে বিরাজ করেন, ইচ্ছাময়ীর ইচ্ছা যেমন ৷৷
মায়ের উদরে ব্রহ্মাণ্ড ভাণ্ড, প্রকাণ্ড তা জানো কেমন ।
মহাকাল জেনেছেন কালীর মর্ম, অন্য কেবা জানে তেমন ৷৷
প্রসাদ ভাষে লোকে হাসে, সন্তরণে সিন্ধু-তরণ ।
আমার মন বুঝেছে প্রাণ বুঝে না ধরবে শশী হয়ে বামন ৷৷
(3)
मन रे कृषि-काज जानो ना ?
एमोन मानव-जमीन रोइलो पतित,
आबाद कोरले फोलतो सोना।।
गाना - ऐ मन ! तू खेती करना (अर्थात त्रैय दुर्लभं के महत्व को) नहीं जानता । यह देवदुर्लभ मनुष्य-जन्म परती जमीन की तरह पड़ा रह गया ! अगर तू खेती करता तो इसमें सोना फल सकता था !......दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसश्रयः।। मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व, और सत्पुरुषों का सहवास – ईश्वरानुग्रह कराने वाले ये तीन मिलना, अति दुर्लभ है । सामान्य भाषा मे कहे तो , मनुष्य जन्म, मुक्ति की इच्छा तथा किसी महापुरूष/जैसे C-IN-C नवनीदा का आश्रय ये तीन दुर्लभ चीजें युवावस्था में ही प्राप्त होना/ या युवावस्था में ही महामण्डल का (जीवनमुक्त शिक्षक/नेताओं/पैगम्बरों का संगठन) का साप्ताहिक सत्संग- परमेश्वर की कृपा पर निर्भर है। (इसलिए दादा कहते थे - महामण्डल का आविर्भाव, श्रीरामकृष्ण देव की इच्छा, और माँ सारदा देवी के आशीर्वाद और स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से हुआ है।)
कालीर नामे देओ रे बेड़ा, फसले तछरूप होबे ना।
से जे मुक्तकेशीर (मन रे आमार) शक्त बेड़ा,तार काछेते यम घेंसे ना।।
अद्य अब्द -शतान्ते वा वाजाप्त होबे जानो ना।
एखन आपन भेवे , (मन रे आमार) जतन कोरे ,
चुटीये फसल केटे ने ना।।
गुरु रोपण करेछेन बीज, भक्ति -वारि ताय सेंच ना।
ओरे एका यदि (मन रे आमार) ना पारिस मन,
रामप्रसाद के डेके ने ना।।
গান — মন রে কৃষি কাজ জান না।
এমন মানব জমিন রইল পতিত,
আবাদ করলে ফলতো সোনা ॥
কালীর নামে দেও রে বেড়া, ফসলে তছরুপ হবে না।
সে যে মুক্তকেশীর (মন রে আমার) শক্ত বেড়া,
তার কাছেতে যম ঘেঁসে না॥
অদ্য অব্দ-শতান্তে বা বাজাপ্ত হবে জান না।
এখন আপন ভেবে, (মন রে আমার) যতন ক'রে,
চুটিয়ে ফসল কেটে নে না॥
গুরু রোপণ করেছেন বীজ, ভক্তি-বারি তায় সেঁচ না।
ওরে একা যদি (মন রে আমার) না পারিস্ মন,
রামপ্রসাদকে ডেকে নে না॥
(4)
आय मन, बेड़ाते जाबी।
काली -कल्पतरु -तले गिया चारि फल कूड़ाये खाबि।।
गाना - आ मन, चल, टहलने चलें । काली-कल्पतरु के नीचे तुझे चारों फल पड़े मिल जायेंगे ।.....
प्रवृत्ति निवृत्ति जाया, तार निवृत्तिरे सङ्गे ल'बी।
ओरे विवेक-नामे ज्येष्ठ पुत्र, तत्व -कथा ताय सूधाबि।।
अशुचि -शुचिके ल'ये, दिव्य घरे कवे शुबि।
जखन दूई सतीने प्रीति होबे, तखन श्यामा माँ के पाबि।।
अहङ्कार अविद्या तोर, पितमाताये ताड़ाये दिबि।
यदि मोह -गर्ते टेने ल'य, धैर्य -खोंटा ध'रे र'बि।।
धर्माधर्म दूटो अजा, तूच्छ हाड़े बैंधे खूबि।
यदि ना माने निषेध, तबे ज्ञान -खड्गे बलि दिबि।।
प्रथम भार्यार सन्तानेर दूरे र'इते बूझाइबि।
यदि ना माने प्रबोध, ज्ञान -सिन्धूमाझे डूबाइबि।।
प्रसाद बोले, एमन ह'ले , कालेर काछे जवाब दिबि।
तबे बापू बाछा बापेर ठाकुर, मनेर मतन मन ह'बि।।
গান —
আয় মন বেড়াতে যাবি।
কালী কল্পতরু মূলে রে মন চারি ফল কুড়ায়ে পাবি ॥
প্রবৃত্তি নিবৃত্তি জায়া, তার নিবৃত্তিরে সঙ্গে ল'বি।
ওরে বিবেক-নামে জ্যেষ্ঠ পুত্র, তত্ত্ব-কথা তায় সুধাবি॥
অশুচি-শুচিকে ল'য়ে, দিব্য ঘরে কবে শুবি।
যখন দুই সতীনে প্রীতি হবে, তখন শ্যামা মাকে পাবি॥
অহঙ্কার অবিদ্যা তোর, পিতামাতায় তাড়ায়ে দিবি।
যদি মোহ-গর্তে টেনে লয়, ধৈর্য-খোঁটা ধ'রে র'বি॥
ধর্মাধর্ম দুটো অজা, তুচ্ছ হাড়ে বেঁধে থুবি।
যদি না মানে নিষেধ, তবে জ্ঞান-খড়্গে বলি দিবি॥
প্রথম ভার্যার সন্তানেরে দূরে র'ইতে বুঝাইবি।
যদি না মানে প্রবোধ, জ্ঞান-সিন্ধুমাঝে ডুবাইবি॥
প্রসাদ বলে, এমন হ'লে, কালের কাছে জবাব দিবি।
তবে বাপু বাছা বাপের ঠাকুর, মনের মতন মন হ'বি॥
(1.) How are you trying, O my mind, to know the nature of God? . . .
(2.)Who is there that can understand what Mother Kali is? . . .
(3.) O mind, you do not know how to farm! Fallow lies the field of your life. . . .
(4.) Come, let us go for a walk, O mind, to Kali, the Wish-fulfilling Tree.
मास्टर ने कहा, 'जी हाँ ।' श्रीरामकृष्ण मास्टर के साथ कमरे में टहल रहे हैं - पैरों में चट्टी जूता है। इस तरह की कठिन बीमारी, परन्तु फिर भी श्रीरामकृष्ण सदा ही प्रसन्न रहते हैं ।
Sri Ramakrishna was pacing the room with M. He had put on his slippers. Despite his painful illness, his face beamed with joy.
মাস্টার বলিলেন, আজ্ঞা হাঁ। ঠাকুর মাস্টারের সহিত ঘরে পায়চারি করিতেছেন — চটিজুতা পায়ে। অত অসুখ — সহাস্যবদন।
श्रीरामकृष्ण - और वह गाना भी अच्छा है । 'यह संसार धोखे की टट्टी है ।'
एई संसार धोंकार टोटी। ओ भाई आनन्दबाजारे लूटी।।
ओरे, क्षिति जल वह्नि वायु , शून्य पाँच परिपाटी।
प्रथमे प्रकृति श्रृंखला, अहँकारे लक्ष कोटि।
जेमन सरार जले सूर्य -छाया , अभावेते स्वभाव जेटी।।
गर्भे जखन योगी तखन , भूमे पड़े खेलेम माटी।
ओरे धात्रीते केटेछे नाड़ी, मायार बेड़ी किसे काटी।।
रमणी-वचने सूधा, सूधा नोय से बिषेर बाटी।
आगे, इच्छा -सूखे पान कोरे, विषयेर ज्वालाय छटफटी।।
आनन्दे रामप्रसाद बोले, आदि पुरुषेर आदि मेयेटि।
ओमा जाहा इच्छा ताहाई कोरो माँ, तुमि गो पाषानेर बेटी।।
MASTER: "And this song is also very good: This world is a framework of illusion.'"
শ্রীরামকৃষ্ণ — আর ও গানটাও বেশ! — ‘এ সংসার ধোঁকার টাটি’। আর ‘এ সংসার মজার কুটি! ও ভাই আনন্দ বাজারে লুটি।’
বিষয়: রামপ্রসাদের গান/ কালী-কীর্তন
এই সংসার ধোঁকার টাটি ।
ও ভাই আনন্দবাজারে লুটি ॥
ওরে, ক্ষিতি জল বহ্নি বায়ু, শূন্যে পাঁচে পরিপাটি
প্রথমে প্রকৃতি স্থূলা, অহংকারে লক্ষ কোটি ।
যেমন সরার জলে সূর্য-ছায়া,
অভাবেতে স্বভাব যেটি ॥
গর্ভে যখন যোগী তখন, ভূমে পড়ে খেলেম মাটি
ওরে ধাত্রীতে কেটেছে নাড়ি,
মায়ার বেড়ি কীসে কাটি ॥
রমণী-বচনে সুধা, সুধা নয় সে বিষের বাটি ।
আগে, ইচ্ছা-সুখে পান করে,
বিষের জ্বালায় ছটফটি ॥
আনন্দে রামপ্রসাদ বলে,
আদি পুরুষের আদি মেয়েটি ।
ওমা যাহা ইচ্ছা তাহাই করো মা,
তুমি গো পাষাণের বেটি ॥
मास्टर - जी हाँ ।
M: "Yes, sir."
মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ।
श्रीरामकृष्ण एकाएक चौंक पड़े। पादुकाओं को निकालकर वे स्थिर भाव से खड़े हो गये और गम्भीर समाधि में मग्न हो गये । आज जगन्माता की पूजा का दिन है, शायद इसीलिए बारम्बार उन्हें रोमांच हो रहा है और समाधि में मग्न हो रहे हैं । बड़ी देर बाद एक लम्बी साँस छोड़ मानो बड़े कष्ट से उन्होंने अपना भाव संवरण किया ।
Suddenly Sri Ramakrishna gave a start. He put aside his slippers and stood still. He was in deep samadhi. It was the day of the Divine Mother's worship. Was that why he frequently went into samadhi? After a long while he sighed and restrained his emotion as if with great difficulty.
ঠাকুর হঠাৎ চমকিত হইতেছেন। অমনি পাদুকা ত্যাগ করিয়া স্থিরভাবে দাঁড়াইলেন। একেবারে সমাধিস্থ। আজ জগন্মাতার পূজা, তাই কি মুহুর্মুহুঃ চমকিত এবং সমাধিস্থ! অনেকক্ষণ পরে দীর্ঘনিঃশ্বাস ফেলিয়া যেন অতি কষ্টে ভাব সম্বরণ করিলেন।
(२)
[ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]🔱🕊
🏹कालीपूजा के दिन भजनानन्द में 🏹
With devotees on the day of Kali Puja
কালী পূজার দিবসে ভক্তসঙ্গে
श्रीरामकृष्ण उसी ऊपरवाले कमरे में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के दस बजे का समय होगा। बिस्तरे पर तकिये के सहारे बैठे हुए हैं, चारों ओर भक्तगण हैं । राम, राखाल, निरंजन, कालीपद, मास्टर आदि बहुतसे भक्त हैं । श्रीरामकृष्ण के भाँजे हृदय मुखर्जी की बात चल रही है।
It was about ten o'clock. Sri Ramakrishna was seated on his bed, leaning against the pillow. The devotees sat around him. Ram, Rakhal, Niranjan, Kalipada, M., and many others were present. Sri Ramakrishna was talking about his nephew Hriday.
ঠাকুর সেই উপরের ঘরে ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন; বেলা ১০টা। বিছানার উপর বালিশে ঠেসান দিয়া আছেন, ভক্তেরা চতুর্দিকে বসিয়া। রাম, রাখাল, নিরঞ্জন, কালীপদ, মাস্টার প্রভৃতি অনেকগুলি ভক্ত আছেন। ঠাকুরের ভাগিনেয় হৃদয় মুখুজ্জের কথা হইতেছে।
श्रीरामकृष्ण - (राम आदि से) - हृदय अभी भी जमीन जमीन रट रहा है ! जब वह दक्षिणेश्वर में था, तब उसने कहा था, 'दुशाला दो, नहीं तो मैं नालिश कर दूँगा ।'
MASTER: "Hriday is even now clamouring for land. He said to me one day while he was living with me at Dakshineswar, 'Give me a shawl, or I will sue you.'
শ্রীরামকৃষ্ণ (রাম প্রভৃতিকে) — হৃদে এখনও জমি জমি করছে। যখন দক্ষিণেশ্বরে তখন বলেছিল, শাল দাও, না হলে নালিশ করব।
"माँ ने उसे दक्षिणेश्वर से हटा दिया । आदमी जब आते थे, तब बस रुपया-रुपया करता था । वह अगर रहता तो ये सब आदमी न आते । इसीलिए माँ ने उसे हटा दिया ।
The Divine Mother removed him from Dakshineswar. He pestered the visitors for money. If he had stayed with me all these people could not have come. That is why the Mother removed him.
“মা তাকে সরিয়ে দিলেন। লোকজন গেলে কেবল টাকা টাকা করত। সে যদি থাকত এ-সব লোক যেত না। মা সরিয়ে দিলেন।
“गो०, भी पहले पहले उसी तरह किया करता था। नाकभौं सिकोड़ता था । मेरे साथ गाड़ी में कहीं जाना पड़ता था तो देर करने लगता था । दूसरे लड़के अगर मेरे पास आते, तो उसे रंज होता था । उन्हें देखने के लिए अगर मैं कलकत्ते जाता था, तो मुझसे कहता था, 'क्या वे संसार छोड़कर आयेंगे जो उन्हें देखने के लिए जाइयेगा ?'
R— also began to act that way. He became querulous. When he was asked to accompany me in a carriage he would hold back. He would be annoyed if the other youngsters came to me. If I went to Calcutta to see them, he would say: 'Why should you bother about them? Will they renounce the world?'
“গো — অমনি আরম্ভ করেছিল। খুঁতখুঁত করত। গাড়িতে আমার সঙ্গে যাবে তা দেরি করত। অন্য ছোকরারা আমার কাছে এলে বিরক্ত হত। তাদের যদি আমি কলকাতায় দেখতে যেতাম — আমায় বলত, ওরা কি সংসার ছেড়ে আসবে তাই দেখতে যাবেন!
उन लड़कों को मिठाई आदि देने से पहले मैं उससे डरकर कहता था, 'तू भी खा और उन्हें भी दे।' अन्त में मालूम हो गया कि वह यहाँ न रहेगा ।
' If I wanted to offer refreshments to the other young boys, I would be afraid of R— and say to him, 'Take some yourself and then give it to them.' I came to know that he would not stay with me.
জল-খাবার ছোকরাদের দেওয়া আগে ভয়ে বলতুম, তুই খা আর ওদের দে। জানতে পারলুম ও থাকবে না।
"तब मैंने माँ से कहा, 'माँ, उसे हृदय की तरह बिलकुल न हटा देना ।' फिर मैंने सुना वह वृन्दावन जायेगा ।
Thereupon I said to the Divine Mother, 'Mother, don't remove him altogether, like Hriday.' Then I came to know that he was going to Vrindavan.
"गो. अगर रहता तो इन सब लड़कों का कुछ न होता । वह वृन्दावन चला गया, इसीलिए वे सब लड़के आने-जाने लगे ।"
If R— had stayed with me at that time, all these youngsters could not have mixed with me. He left for Vrindavan and these young boys began to visit me frequently."
“গো — যদি থাকত এই-সব ছোকরাদের হত না। ও বৃন্দাবনে চলে গেল তাই এই-সব ছোকরারা আসতে যেতে লাগল।”
गो. - (विनयपूर्वक) - पर वैसी कोई बात मेरे मन में नहीं थी, आप सच जानिये ।
R— (humbly): "Sir, that wasn't really in my mind."
গো (বিনীতভাবে) — আজ্ঞে, আমার তা মনে ছিল না।
राम दत्त - तुम्हारे मन के सम्बन्ध में वे जितना समझेंगे, उतना क्या तुम समझ सकोगे ?
RAM (to R—): "Do you think you understand your mind as well as he understands it?"
রাম (দত্ত) — তোমার মন উনি যা বুঝবেন তা তুমি বুঝবে?
गो. चुप हो रहे ।
R— remained silent.
(গো) — চুপ করিয়া রহিলেন।
श्रीरामकृष्ण - (गो. से) - तू क्यों ऐसा सोचता है ? मैं तुझे पुत्र से भी अधिक प्यार करता हूँ !...."अब तू चुप रह ।... अब तुझमें वह भाव नहीं रह गया ।"
MASTER (to R—): "Why should you feel that way? I love you more than a father loves his son. . . . Now please keep quiet. . . . You no longer have that attitude."
শ্রীরামকৃষ্ণ (গো প্রতি) তুই কেন অমন করছিস — আমি তোকে সন্তান অপেক্ষা ভালবাসি!“তুই চুপ কর না ...... এখন তোর সে ভাব নাই।”
भक्तों के साथ बातचीत होने के पश्चात्, उन लोगों के दूसरे कमरे में चले जाने पर श्रीरामकृष्ण ने गो. को बुलवाया और पूछा - 'तूने कुछ और तो नहीं सोच लिया ? गो. ने कहा - 'जी नहीं ।'
After a time the devotees went to another room. Sri Ramakrishna sent for R— and said to him, "Did you mind what I said?" R—: "No, sir."
ভক্তদের সহিত কথাবার্তার পর তাঁহারা কক্ষান্তরে চলিয়া গেলে ঠাকুর গো - কে ডাকাইলেন ও বলিলেন, তুই কি কিছু মনে করেছিস। গো — আজ্ঞে না।
श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा, 'आज कालीपूजा है, पूजा के लिए कुछ आयोजन किया जाय तो अच्छा हो । उन लोगों से एक बार कह आओ ।'
Sri Ramakrishna said to M.: "It is the day of the Kali Puja. It is good to make some arrangements for the worship. Please speak to the devotees about it."
ঠাকুর মাস্টারকে বলিলেন, আজ কালীপূজা, কিছু পূজার আয়োজন করা ভাল। ওদের একবার বলে এস। পাঁকাটি এনেছে কিনা জিজ্ঞাসা করো দেখি।
मास्टर ने बैठकखाने में जाकर भक्तों से कहा । कालीपद तथा दूसरे भक्त पूजा के लिए प्रबन्ध करने लगे ।
M. went to the drawing-room and told the devotees what the Master had said. Kalipada and others busied themselves with the arrangements.
মাস্টার বৈঠকখানায় গিয়া ভক্তদের সমস্ত জানাইলেন। কালীপদ ও অন্যান্য ভক্তেরা পূজার উদ্যোগ করিতে লাগিলেন।
दिन के दो बजे के लगभग डाक्टर श्रीरामकृष्ण को देखने आये; साथ में अध्यापक नीलमणि भी हैं । श्रीरामकृष्ण के पास बहुत से भक्त बैठे हुए हैं । गिरीश, कालीपद, निरंजन, राखाल, खोखा (मणीन्द्र), लाटू, मास्टर, आदि बहुतसे भक्त हैं ।श्रीराम प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए हैं । डाक्टर से पहले बीमारी और दवा की बातें हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'तुम्हारे लिए ये पुस्तकें मँगवायी गयी हैं ।' डाक्टर को मास्टर ने दोनों पुस्तकें दे दीं ।
About two o'clock in the afternoon Dr. Sarkar arrived, accompanied by Professor Nilmani. The doctor listened to the report of the illness and prescribed medicine. Sri Ramakrishna said to him, "These two books have been purchased for you." M. handed him the books.
বেলা আন্দাজ ২টার সময় ডাক্তার ঠাকুরকে দেখিতে আসিলেন। সঙ্গে অধ্যাপক নীলমণি। ঠাকুরের কাছে অনেকগুলি ভক্ত বসিয়া আছেন। গিরিশ, কালীপদ, নিরঞ্জন, রাখাল, খোকা (মণীন্দ্র), লাটু, মাস্টার অনেকে। ঠাকুর সহাস্যবদন, ডাক্তারের সঙ্গে অসুখের কথা ও ঔষধাদির কথা একটু হইলে পর বলিতেছেন, “তোমার জন্য এই বই এসেছে।” ডাক্তারের হাতে মাস্টার সেই দুখানি বই দিলেন।
डाक्टर ने गाना सुनना चाहा । श्रीरामकृष्ण की आज्ञा पा मास्टर और एक भक्त रामप्रसाद का गाना गा रहे हैं –
गाना - ऐ मेरे मन ! ईश्वर का स्वरूप जानने के लिए तुम यह कैसी चेष्टा कर रहे हो ! तुम तो अँधेरे कमरे में बन्द पागल की तरह भटक रहे हो...।
गाना - कौन जानता है कि काली कैसी है ? षड्दर्शनों को भी जिनके दर्शन नहीं हो पाते । ....
गाना - ऐ मन, तू खेती करना नहीं जानता । .....
गाना - आ मन, चल घूमने चलें । ...
The doctor wanted to hear some songs. At the Master's bidding, M. and another devotee sang:How are you trying, O my mind, to know the nature of God?You are groping like a madman locked in a dark room. . . .
Then they sang:Who is there that can understand what Mother Kali is?
Even the six darsanas are powerless to reveal Her. It is She, the scriptures say, that is the Inner Self Of the yogi, who in Self discovers all his joy; She that, of Her own sweet will, inhabits every living thing. The macrocosm and microcosm rest in the Mother's womb; Now do you see how vast it is? In the Muladhara The yogi meditates on Her, and in the Sahasrara: Who but Siva has beheld Her as She really is? Within the lotus wilderness She sports beside Her Mate, the Swan. When man aspires to understand Her, Ramprasad must smile; To think of knowing Her, he says, is quite as laughable As to imagine one can swim across the boundless sea. But while my mind has understood, alas! my heart has not; Though but a dwarf, it still would strive to make a captive of the moon.
Again they sang: O mind, you do not know how to farm! Fallow lies the field of your life. If you had only worked it well,How rich a harvest you might reap! . . .
Then: Come, let us go for a walk, O mind, to Kali, the Wish-fulfilling Tree,And there beneath It gather the four fruits of life. . . .
ডাক্তার গান শুনিতে চাইলেন। ঠাকুরের আদেশক্রমে মাস্টার ও একটি ভক্ত রামপ্রসাদের গান গাইতেছেন:
গান — মন কর কি তত্ত্ব তাঁরে, যেন উন্মত্ত আঁধার ঘরে।
গান — কে জানে কালী কেমন ষড়দর্শনে না পায় দরশন।
গান — মন রে কৃষি কাজ জান না।
গান — আয় মন বেড়াতে যাবি।
[ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]🔱🕊
🔱गिरीश के बुद्ध-चरित नाटक के वीणा-गीत से डाक्टर के विवेक-श्रोत का उद्घाटन🔱
[Initiation of the doctor's source of wisdom
with Veena-song from Girish's Buddha-Charita drama!]
ডাক্তারের জ্ঞানের উৎসের দীক্ষা
গিরিশের বুদ্ধ-চরিত নাটকের বীণা-গানের সঙ্গে!
डाक्टर गिरीश से कह रहे हैं - 'तुम्हारा वह गाना बड़ा सुन्दर है - वीणावाला - बुद्धचरित का गाना ।' श्रीरामकृष्ण का इशारा पाकर गिरीश और काली दोनों मिलकर गाना सुना रहे हैं –
(1)
आमार एई साधेर विणे, यत्ने गाँथा तारेर हार।
जे यत्न जाने बाजाय विणे उठे सुधा अनिबार।।
ताने माने बाँधले डूरि, शत धारे बोय माधुरी।
बाजे ना आलगा तारे, टाने छिंड़ कोमल तार।।
गाना - मेरी यह बड़ी ही साध को वीणा है, बड़े यत्नपूर्वक इसके तारों का हार गूँथा गया है । ...
(2)
जुड़ाइते चाई, कोथाय जुड़ाई, कोथा होते आसि, कोथा भेसे जाई।
फिरे फिरे आसि, कोतो कांदी हासी, कोथा जाई सदा भाबी गो ताई।।
के खेलाय, आमि खेली बा केनो ? जागिये घुमाई कूहके जेनो।
ए केमन घोर, होबे नाकि भोर, अधीर -अधीर जेमति समीर,अविराम गति नियत धाई।।
जानि ना केवा, ऐसेछि कोथाय ? केन वा ऐसेछि, कोथा निये जाय,
जाई भेसे भेसे कोतो कोतो देशे , चारिदिके गोल उठे नाना रोल,
कोतो आसे जाय, हासे कांदे गाय, एई आछे आर तोखनि नाई !!
कि काजे ऐसेछि, कि काजे गेलो, के जाने केमन कि खेला होलो ?
प्रवाहेर वारि, रहिते कि पारी, जाई जाई कोथा कूल कि नाई ?
करो हे चेतन, के आछे चेतन, कतोदिने आर भांगीबे स्वपन ?
के आछे चेतन घुमाइयो ना आर, दारुण ए -घोर निविड़ आंधार।
कोरो तमः नाश, होउ हे प्रकाश, तोमा बिना आर नाहिको उपाय,
तव पदे ताई शरण चाई।।
गाना - मैं शान्ति पाने के लिए व्याकुल हूँ, पर वह मिलती कहाँ है ? न जाने कहाँ से आकर कहाँ बहा जा रहा हूँ ।...
(3)
आमाय धोरो निताई,
आमार प्राण जेनो आक कोरे रे केमन।।
निताई, जीवके हरि नाम विलाते,
उठलो गो ढेउ प्रेम-नदी ते,
(एखन) सेई तरँगे एखन आमि भासिये जाई।
निताई जे दुःख आमार अन्तरे, दुःखेर कथा कोईबो कारे ?
जीवेर दुःखे एखन आमि भासिये जाई।
गाना - ऐ निताई, मुझे पकड़ो ! मेरे प्राणो में आज न जाने यह क्या हो रहा है !...
(4)
प्रणभरे आये हरि बोली, नेचे आय जगाई -मधाई !
मेरेछो बेश कोरेछो, हरि बोले नाचो भाई।।
बोलरे हरि बोल; प्रेमिक हरि प्रेमे दिबे कोल।
तोल रे तोल हरिनामेर बोल।।
पाउनि प्रेमेर स्वाद, ओरे हरि बोले काँद, हेरबी ह्रदय चाँद।
ओरे प्रेमे तोदेर नाम बिलाबो, प्रेमे निताई डाके ताई।।
गाना - आओ, आओ, ऐ जगाई माधाई, प्राण भरकर, आओ, हरि का नाम लो !...
(5)
किशोरीर प्रेम निबी आय, प्रेमेर जुयारे बोये जाय।
बहिछे रे प्रेम शतधारे, जे जोतो चाय तत पाय।।
प्रेमेर किशोरी प्रेम बिलाय साध कोरि , राधार प्रेमे बोलो रे हरि।
प्रेमे प्राण मत्त कोरे, प्रेम तरँगे प्राण नाचाय,
राधार प्रेमे हरि बोले, आय आय आय आय।।
गाना - यदि तुझे किशोरी राधा का प्रेम लेना है तो चला आ, प्रेम की ज्वार बही जा रही है ।...
Dr. Sarkar said to Girish, "That song of yours is very nice — the one about the vina, in the Life of Buddha." At a hint from the Master, Girish and Kalipada sang together:
Behold my vina, my dearly beloved, My lute of sweetest tone; If tenderly you play on it, The strings will waken, at your touch, To rarest melodies. . . .
They continued: We moan for rest, alas! but rest can never find; We know not whence we come, nor where we float away. Time and again we tread this round of smiles and tears;In vain we pine to know whither our pathway leads, And why we play this empty play. . . .
They sang again: Hold me fast, O Nitai! I feel as if I shall pass away! Bestowing Hari's name on men, I raised high waves in the river of my love, And now upon its raging stream I am carried helplessly. With grief my heart is laden down; Alas! Nitai, to whom shall I speak of it?Behold, I am swiftly borne away by the current of man's deep woe.
Then they sang: Jagai! Madhai! Oh, come and dance, Chanting Hari's name with fervour! . . .
And finally: Come one and all! Take Radha's love! The high tide of her love flows by; It will not last for very long. Oh. come then! Come ye, one and all! . . .
ডাক্তার গিরিশকে বলিতেছেন, “তোমার ওই গানটি বেশ — বীণের গান — বুদ্ধ চরিতের।” ঠাকুরের ইঙ্গিতে গিরিশ ও কালীপদ দুইজনে মিলিয়া গান শুনাইতেছেন:
আমার এই সাধের বীণে, যত্নে গাঁথা তারের হার।
যে যত্ন জানে বাজায় বিণে উঠে সুধা অনিবার ॥
তানে মানে বাঁধলে ডুরি, শত ধারে বয় মাধুরী।
বাজে না আলগা তারে, টানে ছিঁড়ে কোমল তার ॥
গান —
জুড়াইতে চাই, কোথায় জুড়াই, কোথা হতে আসি, কোথা ভেসে যাই।
ফিরে ফিরে আসি, কত কাঁদি হাসি, কোথা যাই সদা ভাবি গো তাই ॥
কে খেলায়, আমি খেলি বা কেন,
জাগিয়ে ঘুমাই কুহকে যেন।
এ কেমন ঘোর, হবে নাকি ভোর,
অধীর-অধীর যেমতি সমীর, অবিরাম গতি নিয়ত ধাই ॥
জানি না কেবা, এসেছি কোথায়, কেন বা এসেছি, কোথা নিয়ে যায়|
যাই ভেসে ভেসে কত কত দেশে, চারিদিকে গোল ওঠে নানা রোল।
কত আসে যায়, হাসে কাঁদে গায়, এই আছে আর তখনি নাই ॥
কি কাজে এসেছি কি কাজে গেল, কে জানে কেমন কি খেলা হল।
প্রবাহের বারি, রহিতে কি পারি, যাই যাই কোথা কূল কি নাই?
কর হে চেতন, কে আছ চেতন, কতদিনে আর ভাঙিবে স্বপন?
কে আছ চেতন ঘুমাইও না আর, দারুণ এ-ঘোর নিবিড় আঁধার।
কর তমঃ নাশ, হও হে প্রকাশ, তোমা বিনা আর নাহিক উপায়,
তব পদে তাই শরণ চাই ॥
গান —
আমায় ধর নিতাই
আমার প্রাণ যেন আক করে রে কেমন ॥
নিতাই, জীবকে হরি নাম বিলাতে,
উঠল গো ঢেউ প্রেম-নদীতে,
(এখন) সেই তরঙ্গে এখন আমি ভাসিয়ে যাই।
নিতাই যে দুঃখ আমার অন্তরে, দুঃখের কথা কইব কারে,
জীবের দুঃখে এখন আমি ভাসিয়ে যাই।
গান —
প্রাণ ভরে আয় হরি বলি, নেচে আয় জগাই মাধাই।
মেরেছ বেশ করেছ, হরি বলে নাচ ভাই ॥
বলরে হরিবোল; প্রেমিক হরি প্রেমে দিবে কোল।
তোল রে তোল হরিনামের রোল ॥
পাওনি প্রেমের স্বাদ, ওরে হরি বলে কাঁদ, হেরবি হৃদয় চাঁদ।
ওরে প্রেমে তোদের নাম বিলাব, প্রেমে নিতাই ডাকে তাই ॥
গান —
কিশোরীর প্রেম নিবি আয়, প্রেমের জুয়ারে বয়ে যায়।
বহিছে রে প্রেম শতধারে, যে যত চায় তত পায় ॥
প্রেমের কিশোরী প্রেম বিলায় সাধ করি,
রাধার প্রেমে বল রে হরি।
প্রেমে প্রাণ মত্ত করে, প্রেম তরঙ্গে প্রাণ নাচায়,
রাধার প্রেমে হরি বলে, আয় আয় আয় আয় ॥
गाना सुनते सुनते दो-तीन भक्तों को- (मणिंद्र और लाटू को ) भावावेश हो गया । गाना हो जाने पर श्रीरामकृष्ण के साथ डाक्टर फिर बातचीत करने लगे । कल डा. प्रताप मजूमदार ने श्रीरामकृष्ण को नक्स वोमिका (Nux Vomica) दी थी । डाक्टर सरकार को यह सुनकर क्षोभ हो रहा है ।
Listening to these songs, two or three of the devotees — among them, Manindra and Latu — went into a spiritual mood. Latu was seated by Niranjan's side. When the singing was over, the Master spoke with the doctor. The previous day Dr. Pratap Mazumdar had prescribed nux vomica for the Master. Dr. Sarkar was annoyed to hear of it.
গান শুনিতে শুনিতে দুই-তিনটি ভক্তের ভাব হইয়া গেল, — খোকার (মণীন্দ্রের), লাটুর! লাটু নিরঞ্জনের পার্শ্বে বসিয়াছিলেন। গান হইয়া গেলে ঠাকুরের সহিত ডাক্তার আবার কথা কহিতেছেন। গতকল্য প্রতাপ (মজুমদার) ঠাকুরকে ‘নাক্স্ ভমিকা’ ঔষধ দিয়াছিলেন। ডাক্তার সরকার শুনিয়া বিরক্ত হইয়াছেন।
डाक्टर - मैं मर तो गया नहीं था ! फिर नक्स वोमिका कैसे दी गयी !
DOCTOR: "To give him nux vomica! Why, I am not dead yet!"
ডাক্তার — আমি তো মরি নাই, নাক্স্ ভমিকা দেওয়া।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - तुम क्यों मरोगे ? तुम्हारी अविद्या की मृत्यु हो !
MASTER (smiling) : "Why should you die? God forbid! May your avidya die."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তোমার অবিদ্যা মরুক!
डाक्टर - मेरे किसी समय अविद्या नहीं थी !
DOCTOR: "I never have any avidya!"
ডাক্তার — আমার কোনকালে অবিদ্যা নাই।
डाक्टर ने अविद्या का अर्थ भ्रष्ट-स्त्री (Mistress, बारात में नाचने वाली पटना सिटी की गुरुवाइन, रखनी, प्रेमिका, अध्यापिका) समझ लिया था ।
Dr. Sarkar understood avidya to mean "mistress".
ডাক্তার অবিদ্যা মানে নষ্টা স্ত্রীলোক বুঝিয়াছেন।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं जी, संन्यासी की अविद्या-माँ मर जाती है, और विवेक-पुत्र हो जाता है (अर्थात विवेकदर्शन के अभ्यास से विवेक-स्रोत उद्घाटित हो जाता है)। अविद्या-मां के मर जाने पर अशौच होता है, इसीलिए कहते हैं - संन्यासी को छूना नहीं चाहिए ।
MASTER (smiling): "Oh, no! I don't mean that! In the case of a sannyasi, his mother, Avidya, Ignorance, dies giving birth to a child, Viveka, Discrimination."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — না গো! সন্ন্যাসীর অবিদ্যা মরে যায় আর বিবেক সন্তান হয়। অবিদ্যা মা মরে গেলে অশৌচ হয়, — তাই বলে সন্ন্যাসীকে ছুঁতে নাই।
हरिवल्लभ आये हुए हैं । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, ‘तुम्हें देखकर आनन्द होता है ।’ हरिवल्लभ बड़े विनयशील हैं । चटाई से अलग जमीन पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण को झल रहे हैं । हरिवल्लभ कटक के सब से बड़े वकील हैं । पास ही अध्यापक नीलमणि बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण उनकी मान-रक्षा करते हुए कह रहे हैं, 'आज मेरा शुभ दिन है ।' कुछ देर बाद डाक्टर और उनके मित्र नीलमणि बिदा हो गये । हरिवल्लभ भी उठे । चलते समय उन्होंने कहा, 'मैं फिर आऊँगा ।'
Hariballav arrived. Sri Ramakrishna said, "I feel very happy when I see you." Hariballav was a man of very humble nature; he sat on the bare floor and not on the mat. He began to fan the Master. He was the government lawyer at Cuttack. Professor Nilmani sat near them. Sri Ramakrishna did not want to offend him; casting his glance on the professor, he said, "Oh, what a grand day it is for me!"A few minutes later Dr. Sarkar and Professor Nilmani took their leave. Hariballav also departed, saying that he would come again.
হরিবল্লভ আসিয়াছেন। ঠাকুর বলিতেছেন, “তোমায় দেখলে আনন্দ হয়।” হরিবল্লভ অতি বিনীত। মাদুরের নিচে মাটির উপর বসিয়া ঠাকুরকে পাখা করিতেছেন। হরিবল্লভ কটকের বড় উকিল।কাছে অধ্যাপক নীলমণি বসিয়া আছেন। ঠাকুর তাঁহার মান রাখিতেছেন ও বলিতেছেন, আজ আমার খুব দিন। কিয়ৎক্ষণ পরে ডাক্তার ও তাঁহার বন্ধু নীলমণি বিদায় গ্রহণ করিলেন। হরিবল্লভও আসিলেন। আসিবার সময় বলিলেন, আমি আবার আসব।
(३)
[ (6 नवंबर, 1885), श्री रामकृष्ण वचनामृत-131]
🔱🕊*जगतजननी माँ श्रीकालीपूजा*🔱🕊
Jaganmata Kali Puja
জগন্মাতা ৺কালীপূজা
शरद ऋतु की अमावस्या है, - रात के आठ बजे होंगे । उसी ऊपर वाले कमरे में पूजा का सारा प्रबन्ध किया गया है । अनेक प्रकार के पुष्प, चन्दन, बिल्वपत्र, जवापुष्प, खीर तथा अनेक प्रकार की मिठाइयाँ भक्तगण ले आये हैं ।
श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । चारों ओर से भक्त-मण्डली घेरे हुए बैठी है । शरद, राम, गिरीश, चुन्नीलाल, मास्टर, राखाल, निरंजन, छोटे नरेन्द्र, बिहारी आदि बहुत से भक्त हैं । श्रीरामकृष्ण ने कहा - 'धूना ले आओ ।' कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने जगन्माता को सब कुछ निवेदित कर दिया । मास्टर पास बैठे हुए हैं । मास्टर की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - 'सब लोग थोड़ी देर ध्यान करो ।' भक्तगण ध्यान करने लगे ।
It is the dark night of the new moon. At seven o'clock the devotees make arrangements for the worship of Kali in Sri Ramakrishna's room on the second floor. Flowers, sandal-paste, vilwa-leaves, red hibiscus, rice pudding, and various sweets and other articles of worship are placed in front of the Master. The devotees are sitting around him. There are present, among others, Sarat, Sashi, Ram, Girish, Chunilal, M., Rakhal, Niranjan, and the younger Naren.
Sri Ramakrishna asks a devotee to bring some incense. A few minutes later he offers all the articles to the Divine Mother. M. is seated close to him. Looking at M., he says to the devotees, "Meditate a little." The devotees close their eyes.
শরৎকাল, অমাবস্যা, রাত্রি ৭টা। সেই উপরের ঘরেই পূজার সমস্ত আয়োজন হইয়াছে। নানাবিধ পুষ্প, চন্দন, বিল্বপত্র, জবা; পায়স ও নানাবিধ মিষ্টান্ন ঠাকুরের সম্মুখে ভক্তেরা আনিয়াছেন। ঠাকুর বসিয়া আছেন। ভক্তেরা চতুর্দিকে ঘেরিয়া বসিয়া আছেন। শরৎ, শশী, রাম, গিরিশ, চুনিলাল, মাস্টার, রাখাল, নিরঞ্জন, ছোট নরেন, বিহারী প্রভৃতি অনেকগুলি ভক্ত।
ঠাকুর বলিতেছেন, “ধুনা আন”। কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর জগন্মাতাকে সমস্ত নিবেদন করিলেন। মাস্টার কাছে বসিয়া আছেন। মাস্টারের দিকে তাকাইয়া ঠাকুর বলিতেছেন, “একটু সবাই ধ্যান করো”। ভক্তেরা সকলে একটু ধ্যান করিতেছেন।
क्या श्रीरामकृष्ण के भीतर साक्षात् जगन्माता आविर्भूत हुई हैं ?
पहले गिरीश ने श्रीरामकृष्ण के श्रीचरणों में माला चढ़ायी, फिर मास्टर ने गन्ध-पुष्प चढ़ाये । तत्पश्चात् राखाल ने, फिर राम ने । इसी तरह सब भक्त श्रीचरणों में पुष्प-दल चढ़ाने लगे ।
Presently Girish offers a garland of flowers at Sri Ramakrishna's feet. M. offers flowers and sandal paste. Rakhal, Ram, and the other devotees follow hint.
দেখিতে দেখিতে গিরিশ ঠাকুরের পাদপদ্মে মালা দিলেন। মাস্টারও গন্ধপুষ্প দিলেন। তারপরেই রাখাল। তারপর রাম প্রভৃতি সকল ভক্তেরা চরণে ফুল দিতে লাগিলেন।
श्रीचरणों में फूल चढ़ाकर निरंजन 'ब्रह्ममयी' कहकर भूमिष्ठ हो प्रणाम करने लगे । भक्तगण 'जय माँ, जय माँ' कह रहे हैं ।
Niranjan offers a flower at Sri Ramakrishna's feet, crying: "Brahmamayi! Brahmamayi!" and prostrates himself before him, touching the Master's feet with his head. The devotees cry out, "Jai Ma!", "Hail to the Mother!"
নিরঞ্জন পায়ে ফুল দিয়া ব্রহ্মময়ী ব্রহ্মময়ী বলিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া, পায়ে মাথা দিয়া প্রণাম করিতেছেন। ভক্তেরা সকলে ‘জয় মা! জয় মা!’ ধ্বনি করিতেছেন।
देखते ही देखते श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । भक्तों की आँखों के सामने ही श्रीरामकृष्ण में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया । उन लोगों ने उनके मुख-मण्डल पर दैवी ज्योति का अवलोकन किया । उनके दोनों हाथ इस प्रकार उठे हुए थे जैसे कि वे भक्तों को वरदान तथा अभय-दान दे रहे हों । उनका शरीर निश्चल है, बाह्य संसार का उन्हें बिलकुल ज्ञान नहीं । वे उत्तर की ओर मुँह किये हुए बैठे हैं । क्या श्रीरामकृष्ण के भीतर साक्षात् जगन्माता आविर्भूत हुई हैं ? सभी अवाक् हो, एकटक दृष्टि से इस अद्भुत वराभयदायिनी जगन्माता की जीवन्त मूर्ति का दर्शन कर रहे हैं ।
In the twinkling of an eye So Ramakrishna goes into deep samadhi. An amazing transformation takes place in the Master before the very eyes of the devotees.. His face shines with a heavenly light. His two hands are raised in the posture of granting boons and giving assurance to the devotees; it is the posture one sees in images or the Divine Mother.
His body is motionless; he has no consciousness of the outer world. He sits facing the north. Is the Divine Mother of the Universe manifesting Herself through his person? Speechless with wonder, the devotees look intently at Sri Ramakrishna, who appears to them to be the embodiment of the Divine Mother Herself.
দেখিতে দেখিতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ সমাধিস্থ হইয়াছেন। কি আশ্চর্য! ভক্তেরা অদ্ভুত রূপান্তর দেখিতেছেন। ঠাকুরের জ্যোতির্ময় বদনমণ্ডল! দুই হস্তে বরাভয়! ঠাকুর নিস্পন্দ বাহ্যশূন্য! উত্তরাস্য হইয়া বসিয়া আছেন। সাক্ষাৎ জগন্মাতা কি ঠাকুরের ভিতর আবিভূর্তা হইলেন! সকলে অবাক্ হইয়া এই অদ্ভুত বরাভয়দায়িনী জগন্মাতার মূর্তি দর্শন করিতেছেন।
भक्तगण स्तुतिपाठ कर रहे हैं । पहले एक भक्त गाता है, उसके पीछे सब एक ही स्वर में उसी पद की आवृत्ति करते हैं ।
गिरीश गा रहे हैं –
के रे निविड़ नील कादम्बिनी सुरसमाजे।
के रे रक्तोत्तपल चरण युगल हर उरसे विराजे।।
के रे रजनीकर नखरे वास, दिनकर कत पदे प्रकाश।
मृदु मृदु हास भास ,घन घन घन गरजे।।
(भावार्थ) - देवताओं के बीच वह कौन रमणी चमक रही है, जिसके घने काले केश मेघ-श्रेणी के समान जान पड़ते हैं ? वह कौन है, जिसके रक्तोत्पल युगलचरण शिव की छाती पर विराजमान हैं ? वह कौन है, जिसके नखों में रजनीकर का वास है और जिसके पैरों की दीप्ति सूर्य को भी मात कर रही है ? वह कौन है, जिसके मुख पर मधुर हास्य शोभायमान है ओर जिसका विकट अट्टाहास रह-रहकर दसों दिशाओं को गुँजा दे रहा है ?
उन्होंने फिर गाया –
दीनतारिणी, दुरितहारिणी, सत्त्व-रजस्तम-त्रिगुणधारिणी ।
सृजन-पालन-निधन-कारिणी, सगुणा निर्गुण सर्वस्वरूपिणी ।
त्वंहि काली तारा परमाप्रकृति, त्वंहि व्योमे व्योमकेश प्रसविनी।
त्वंहि स्थल जल अनिल अनल,त्वंहि व्योमे व्योमकेश प्रसविनी।
सांख्य पातंजल मीमांसक न्याय, तन्न तन्न ज्ञाने ध्याने सदा ध्याय ,
वैशेषिक वेदान्ते भ्रमे होय भ्रान्त, तथापि अद्यापि जानिते पारेनि।।
निरुपाधि आदि अन्तर्हित, करिते साधक जनार हित,
गणेशादि पंचरूपे कालवञ्च भवभयहरा त्रिकालवर्तिनी।
साकार साधके तुमि से साकार, निराकार उपासके निराकार ,
केह केहो कोय ब्रह्म ज्योतिर्मय, सेउ तुमि नगतनया जननी।
से अवधि जार अभिसन्धि होय, से अवधि से परब्रह्म कोय,
तत्परे तुरीय अनिवर्चनीय, सकलि माँ तारा त्रिलोकव्यापिनी।
बिहारी गा रहे हैं -
मनेरि वासना श्यामा शवासना शोन माँ बोली,
ह्रदय माझे उदय होइयो माँ, जखन होबे अन्तर्जली।
तखन आमि मने मने, तुलबो जवा वने वने,
मिशाईये भक्ति चन्दन माँ, पदे दिबो पुष्पांजलि।
(भावार्थ) –"ऐ श्यामा ! शवारूढ़ा माँ सुनो, मैं तुम्हारे पास अपने हृदय की आन्तरिक कामना व्यक्त करता हूँ । जब मेरी अन्तिम साँस इस देह को छोड़ चलेगी तब, ऐ शिवे, तुम मेरे हृदय में प्रकाशित होना । उस समय, माँ, मैं मन-मन वन-वन घूमकर सुन्दर जवा-कुसुम चुनकर ले आऊँगा, और उसमे भक्ति-चन्दन मिलाकर तुम्हारे श्रीचरणों में पुष्पांजलि दूँगा ।"
भक्तों के साथ मणि गा रहे हैं -
सकलि तोमारी इच्छा माँ इच्छामयी तारा तुमि ,
तोमार कर्म तुमि कोरो माँ, लोके बोले करि आमि।
पंके बद्ध करो करी, पंगूरे लंघाओ गिरी,
कारो दाओ माँ इन्द्रत्वपद कारे कोरो अधोगामी।
आमि यन्त्र तुमि यन्त्री, आमि घर तुमि घरनी,
आमि रथ तुमि रथी जेमन चालाओ तेमनी चली।
(भावार्थ) –“ओ माँ ! सब कुछ तुम्हारी ही इच्छा से होता है । ऐ तारा ! तुम इच्छामयी हो ! तुम अपने कर्म आप ही करती हो, पर लोग बोलते हैं 'मैं करता हूँ ।' माँ, तुम हाथी को कीचड़ में फँसा देती हो, पंगु को गिरि लाँघने में समर्थ कर देती हो, किसी को तुम इन्द्रत्वपद दे देती हो, तो किसी को अधोगामी बना देती हो । अम्बे ! मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो; मैं गृह हूँ, तुम गृहिणी हो; मैं रथ हूँ, तुम रथी हो । माँ, तुम मुझे जैसा चलाती हो, वैसा ही चलता हूँ ।"
पुनः –
तोमारी करुणाय माँ सकलि होईते पारे।
अलघ्य पर्वत सम विघ्न बाधा जाय दूरे।।
तुमि मंगल निधान, कोरीछो मंगल विधान।
तोबे केनो वृथा मरि फलाफल चिन्ता करे।।
"ऐ माँ, तुम्हारी करुणा से सभी कुछ सम्भव हो सकता है । अलंघ्य पर्वत के समान विघ्न-बाधा भी तुम्हारी कृपा से दूर हो जाती है । तुम मंगलनिधान हो, तुम सभी का मंगल करती हो - सभी को सुख और शान्ति प्रदान करती हो । तो फिर माँ, अपने फलाफल की चिन्ता करके मैं ही क्यों ही क्यों व्यर्थ जला जा रहा हूँ ?"
पुनः –
गो आनन्दमयी होय माँ आमाय निरानन्द करो ना।
"ओ माँ आनन्दमयी, मुझे निरानन्द न कर देना !....”
पुनः –
निविड़ आंधारे माँ तोर चमके ओ रूपराशि।
"निबिड़ अंधकार में, ऐ माँ, तेरी अरूप-राशि चमक उठती है ।...”
श्रीरामकृष्ण अब प्रकृतिस्थ हो गये हैं । उन्होंने इस गीत को गाने को कहा -
कखनो कि रंगे थाको माँ श्यामा सुधातरंगिनि।
"ऐ श्यामा ! सुधातरंगिणी ! नहीं मालूम, तुम कब किस रंग में रहती हो ।"
इस गाने के समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण-
शिव संगे सदा रंगे आनन्दे मगना।
'शिव के साथ सदा ही रंग में रंगी हुई तुम आनन्द में मग्न हो' इस गीत को गाने के लिए आदेश कर रहे हैं ।
The devotees begin to sing hymns, one of them leading and the rest following in chorus.
Girish sings:
Who is this Woman with the thick black hair, Shining amidst the assembly of the gods? Who is She, whose feet are like crimson lotuses Planted on Siva's chest? Who is She, whose toe-nails shine like the full moon, Whose legs burn with the brightness of the sun? Who is She, who now speaks soft and smiles on us, And now fills all the quarters of the sky With shouts of terrible laughter?
Again
O Mother, Saviour of the helpless. Thou the Slayer of sin! In Thee do the three gunas dwell — sattva, rajas, and tamas. Thou dost create the world; Thou dost sustain it and destroy it; Binding Thyself with attributes. Thou yet transcendest them; For Thou, 0 Mother, art the All. . . .
Behari sings:
O Syama, Thou who dost sit upon a corpse! I beg Thee, hear my heart's most fervent prayer: As my last breath forsakes this mortal flesh, Reveal Thyself within my heart! Then, in my mind, from forest and from grove I shall gather Thee red hibiscus flowers, And, scenting them with the sandal-paste of Love, Shall lay them at Thy Lotus Feet.
M. sings with the other devotees:
O Mother, all is done after Thine own sweet will; Thou art in truth self-willed. Redeemer of mankind! Thou workest Thine own work; men only call it theirs. . . .
They sing again:
All things are possible, O Mother, through Thy grace; Obstacles mountain high Thou makest to melt away. Thou Home of Bliss! To all Thou givest peace and joy; Why then should I be made to suffer fruitlessly, Brooding on the success or failure of my deeds?
And again:
O Mother, ever blissful as Thou art,Do not deprive Thy worthless child of bliss! My mind knows nothing but Thy Lotus Feet. The King of Death scowls at me terribly;Tell me, Mother, what shall I say to him? . . .
They conclude:
In dense darkness, O Mother, Thy formless beauty sparkles; Therefore the yogis meditate in a dark mountain cave. . . .Gradually Sri Ramakrishna came back to the consciousness of the outer world. He asked the devotees to sing "O Mother Syama, full of the waves of drunkenness divine".
They sang:
O Mother Syama, full of the waves of drunkenness divine! Who knows how Thou dost sport in the world?Thy fun and frolic and Thy glances put to shame the god of love. . . .
When this song was over, Sri Ramakrishna asked the devotees to sing "Behold my Mother playing with Siva". The devotees sang: Behold my Mother playing with Siva, lost in an ecstasy of joy! Drunk with a draught of celestial wine. She reels, and yet She does not fall. . . .
এইবারে ভক্তেরা স্তব করিতেছেন। আর একজন গান গাহিয়া স্তব করিতেছেন ও সকলে যোগদান করিয়া সমস্বরে গাইতেছেন।
গিরিশ স্তব করিতেছেন:
কে রে নিবিড় নীল কাদম্বিনী সুরসমাজে।
কে রে রক্তোৎপল চরণ যুগল হর উরসে বিরাজে ॥
কে রে রজনীকর নখরে বাস, দিনকর কত পদে প্রকাশ।
মৃদু মৃদু হাস ভাস, ঘন ঘন ঘন গরজে ॥
আবার গাইতেছেন:
দীনতারিণী, দূরিতহারিনী, সত্ত্বরজস্তম ত্রিগুণধারিণী,
সৃজন-পালন-নিধনকারিণী, সগুণা নির্গুণা সর্বস্বরূপিণী।
ত্বংহি কালী তারা পরমাপ্রকৃতি, ত্বংহি ব্যোম ব্যোমকেশ প্রসবিনী।
ত্বংহি স্থল জল অনিল অনল, ত্বংহি ব্যোম ব্যোমকেশ প্রসবিনী।
সাংখ্য পাতঞ্জল মীমাংসক ন্যায়, তন্ন তন্ন জ্ঞানে ধ্যানে সদা ধ্যায়,
বৈশেষিক বেদান্তে ভ্রমে হয়ে ভ্রান্ত, তথাপি অদ্যাপি জানিতে পারেনি ॥
নিরুপাধি আদি অন্তরহিত, করিতে সাধক জনার হিত,
গণেশাদি পঞ্চরূপে কালবঞ্চ ভবভয়হরা ত্রিকালবর্তিনী।
সাকার সাধকে তুমি সে সাকার, নিরাকার উপাসকে নিরাকার,
কেহ কেহ কয় ব্রহ্ম জ্যোতির্ময়, সেও তুমি নগতনয়া জননী।
যে অবধি যার অভিসন্ধি হয়, সে অবধি সে পরব্রহ্ম কয়,
তৎপরে তুরীয় অনির্বচনীয়, সকলি মা তারা ত্রিলোকব্যাপিনী।
বিহারী স্তব করিতেছেন:
মনেরি বাসনা শ্যামা শবাসনা শোন মা বলি,
হৃদয় মাঝে উদয় হইও মা, যখন হবে অন্তর্জলি।
তখন আমি মনে মনে, তুলব জবা বনে বনে,
মিশাইয়ে ভক্তি চন্দন মা, পদে দিব পুষ্পাঞ্জলি।
মণি গাহিতেছেন ভক্তসঙ্গে:
সকলি তোমারি ইচ্ছা মা ইচ্ছাময়ী তারা তুমি,
তোমার কর্ম তুমি কর মা, লোকে বলে করি আমি।
পঙ্কে বদ্ধ কর করী পঙ্গুরে লঙ্ঘাও গিরি,
কারে দাও মা ইন্দ্রত্বপদ কারে কর অধোগামী।
আমি যন্ত্র তুমি যন্ত্রী, আমি ঘর তুমি ঘরণী,
আমি রথ তুমি রথী যেমন চালাও তেমনি চলি।
গান — তোমারি করুণায় মা সকলি হইতে পারে।
অলঙ্ঘ্য পর্বত সম বিঘ্ন বাধা যায় দূরে ॥
তুমি মঙ্গল নিধান, করিছ মঙ্গল বিধান।
তবে কেন বৃথা মরি ফলাফল চিন্তা করে ॥
গান — গো আনন্দময়ী হয়ে মা আমায় নিরানন্দ করো না।
গান — নিবিড় আঁধারে মা তোর চমকে ও রূপরাশি।
ঠাকুর প্রকৃতিস্থ হইয়াছেন। আদেশ করিতেছেন, এই গানটি গাইতে —
গান — কখন কি রঙ্গে থাক মা শ্যামা সুধাতরঙ্গিণী।
গান সমাপ্ত হইলে ঠাকুর আবার আদেশ করিতেছেন —
গান — শিব সঙ্গে সদা রঙ্গে আনন্দে মগনা।
भक्तों के आनन्द के लिए श्रीरामकृष्ण कुछ खीर अपने मुख में लगा रहे हैं, परन्तु उसी समय भाव में विभोर हो बिलकुल बाह्य संज्ञाशून्य हो गये ।
Sri Ramakrishna tasted a little pudding to make the devotees happy, but immediately went into deep ecstasy.
ঠাকুর ভক্তবৃন্দের আনন্দের জন্য একটু পায়স মুখে দিতেছেন। কিন্তু একেবারে ভাবে বিভোর, বাহ্যশূন্য হইলেন!
कुछ देर बाद भक्तगण श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके प्रसाद लेकर बैठकखाने में चले गये । सब एक साथ आनन्दपूर्वक प्रसाद पाने लगे ।
A few minutes later the devotees prostrated themselves before the Master and went into the drawing-room. There they enjoyed the prasad.
रात के नौ बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण ने कहला भेजा, ‘रात हो गयी है, सुरेन्द्र के यहाँ आज कालीपूजा है, तुम लोगों का न्योता है, तुम लोग जाओ ।’भक्तगण आनन्द करते हुए सिमला में सुरेन्द्र के यहाँ पहुँचे । सुरेन्द्र ने आदरपूर्वक उन्हें ऊपरवाले बैठकखाने में ले जाकर बैठाया । घर में उत्सव है, सब लोग गीत और वाद्य के द्वारा आनन्द मना रहे हैं ।
It was nine o'clock in the evening. Sri Ramakrishna sent word to the devotees, asking them to go to Surendra's house to participate in the worship of Kali.
They arrived at Surendra's house on Simla Street and were received very cordially. Surendra conducted them to the drawing-room on the second floor. The house was filled with a festive atmosphere and a veritable mart of joy was created with the songs and music of the devotees.
কিয়ৎক্ষণ পরে ভক্তেরা সকলে ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া প্রসাদ লইয়া বৈঠকখানা ঘরে গেলেন ও সকলে মিলিয়া আনন্দ করিতে করিতে সেই প্রসাদ পাইলেন। রাত ৯টা। ঠাকুর বলিয়া পাঠাইলেন — রাত হইয়াছে, সুরেন্দ্রের বাড়িতে আজ ৺কালীপূজা হবে, তোমরা সকলে নিমন্ত্রণে যাও।
सुरेन्द्र के यहाँ से प्रसाद पाकर लौटते हुए भक्तों को आधी रात से अधिक हो गयी ।
It was very late at night when they returned to their homes after enjoying the sumptuous feast given by Surendra, the Master's beloved disciple.
ভক্তেরা আনন্দ করিতে করিতে সিমলা স্ট্রীটে সুরেন্দ্রের বাটীতে উপস্থিত হইলেন। সুরেন্দ্র অতি যত্নসহকারে তাঁহাদিগকে উপরের বৈঠকখানা ঘরে লইয়া গিয়া বসাইলেন। বাটীতে উৎসব। সকলেই গীতবাদ্য ইত্যাদি লইয়া আনন্দ করিতেছেন।
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तन्त्रोक्त पशु, वीर तथा दिव्यभाव : [लीलाप्रसंग -2/217] : तंत्रों में पशु, वीर तथा दिव्य इन तीन भावों से ईश्वर -साधना के मार्ग का निर्देश किया गया है-
>>पशुभाव के साधकों के भीतर काम-क्रोध आदि पशुभावों का आधिक्य होता है। इसलिए उन्हें सब प्रकार के प्रलोभन की वस्तुओं (तीन ऐषणा ?) से दूर रहकर तथा बाह्य शौच के प्रति विशेष ध्यान रखते हुए -नामजप , पुश्चरण में व्यस्त रहने की शिक्षा दी गयी है।
>>वीरभाव के साधकों के भीतर पशुभाव की अपेक्षा ईश्वर (सत्य) से अनुराग ही प्रबल होता है। कामिनी-कांचन तथा रूप-रस -गंध, शब्द और स्पर्श आदि इन्द्रिय विषय भी उनको ईश्वर का ही स्मरण करा देती हैं - जिसकी रचना इतनी सुन्दर वो कितना सुन्दर होगा -(तुझे देख कर जग वाले पर यकीन नहीं क्यूं कर होगा, जिसकी रचना इतनी सुन्दर वो कितना सुन्दर होगा ?? का स्मरण बना रहता है।) इसलिए उनको कामिनी-कांचन , नाम-यश के प्रलोभन के अन्दर रहकर भी (या गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी ) -उनके घात-प्रतिघातों से अविचल -अनासक्त रहते हुए [मन का साक्षी बनकर] ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) में अपने समग्र मन-प्राण को अर्पण करने का प्रयास करते रहना चाहिए।
>>दिव्यभाव (गुरुभाव, जीवनमुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता का भाव) के साधक केवल वैसे व्यक्ति ही हो सकते हैं, जिनके काम-क्रोध का आवेग ईश्वर के प्रति अनुराग (सत्य की खोज) के प्रबल आकर्षण में सदा के लिए दूर हो चुके हैं। तथा जिनमें क्षमा, सरलता, दया, करुणा, सन्तोष तथा सत्यनिष्ठा आदि सद्गुणों का अनुष्ठान स्वाभाविक हो गया है। अर्थात श्रद्धा, विवेक,भद्रता, विनय आदि चरित्र के गुण स्वाभाव या व्यवहार में दिखाई पड़ने लगे हों। वेदोक्त उत्तम अधिकारी ही तंत्रोक्त दिव्यभाव का साधक होता है, एवं मध्यम अधिकारी वीरभाव का तथा अधम अधिकारी ही पशुभाव के साधक होते हैं।
>>वीरसाधिका ब्राह्मणी वीरभाव की साधना में बहुत दूर तक अग्रसर होने पर भी तब-तक अखण्ड सच्चिदानन्द की प्राप्ति के द्वारा स्वयं पूर्णत्व को प्राप्त नहीं हो पायी थीं, इसलिए वे स्वयं दिव्यभाव की अधिकारिणी नहीं हो पायी थीं। श्रीरामकृष्ण देव के जीवन को देखकर - उनकी सहायता से दिव्यभाव को प्राप्त करने की आकांक्षा ब्राह्मणी में उदित हुई थी। जब ब्राह्मणी ने देखा कि 'सिद्धि' अर्थात भाँग या 'कारण' (मन्त्रपूत मदिरा) को ग्रहण करना तो दूर -नाम सुनते ही जगत्कारण ईश्वर [जगतजननी जगदम्बा] के भाव में विह्वल हो जाते थे। स्त्री -शरीर चाहे सती का हो या नटी का - स्त्रीमूर्ति देखने मात्र से ही उनके ह्रदय में जगदम्बा की आह्लादिनी तथा सन्धिनी -शक्ति की बात उदित होकर , उनके अन्दर सन्तानभाव जाग्रत हो उठता था। यही देखकर ब्राह्मणी के भीतर भी श्रीरामकृष्ण जैसा दिव्यभाव (या गुरुभाव -मार्गदर्शक नेता का भाव) विकसित हुआ।
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वीर भाव, सन्तान भाव (दिव्य भाव) का हेतु है !
‘आत्मज्ञान प्राप्त करने की साधना‘ में पूर्व की कक्षा को छोड़कर आगे की कक्षा में छलांग नहीं लगाई जाती है। अर्थात् क्रमवार (step wise) आगे बढ़ा जाता है अन्यथा साधक पतनोन्मुखी हो जाता है तथा स्वयं व अन्यों हेतु घातक सिद्ध होता है।
यदि कोई कहे कि ‘आसन‘ पर बैठकर दो बार मनःसंयोग करता हूँ, पर लाभ नहीं हो रहा है , तो इसका अर्थ हुआ कि "यम -नियम 24 X 7" के शर्त की अनदेखी की गई है। ‘ध्यान’ नहीं लगता अर्थात् यम, नियम, आसन, और प्रत्याहार-धारणा में साधक परिपक्व नहीं हुआ है।
अधिकार निर्णय में शैथिल्य के कारण तांत्रिक साधनाओं को कालांतर में आपाततः निन्दित होना पड़ता है। दिव्य भाव (सन्तान भाव ) का साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है।
दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव दिव्य भाव [ठाकुर का सन्तान भाव] का हेतु है, जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है…अपने को जो व्यक्ति जैसा समझता है, वह वैसा ही बन जाता है। मन में बार-बार आने वाली बात विश्वास के रूप में बदल जाती है और अपने मन और शरीर के संबंध में जैसा जिसका विश्वास होता है, उसके लक्षण भी वैसे ही प्रकट होते हैं।
जैसी जिसकी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है। जो भी भावना हमारे मन में आती है, उसको यदि हमारे अंतर्मन की अवचेतन वृत्ति ग्रहण कर लेती है तो वह सत्वस्थ होकर हमारे जीवन की एक स्थायी वृत्ति हो जाती है। इसलिए भावना का महत्व बहुत अधिक होता है। भावना एक ठोस वास्तविकता है और उसका प्रभाव व परिणाम भी ठोस होता है। भावना को छूकर नहीं देखा जा सकता या आंखों से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। इस कारण बहुत से लोगों के लिए भावना मात्र एहसास है। अवश्य ही भाव का उदय और लय मन में होता है। भाव के बिना यंत्र-तंत्र निष्फल हैं। वास्तव में तंत्रशास्त्र भावना के अभ्यास का मार्ग है। न्यास, भूतशुद्धि, अंतर्याग, कुंडलिनी योग, मंत्रजप आदि भावना का ही तो अभ्यास है। दान, गुरु पूजा, देव पूजा, नाम संकीर्तन, श्रवण, ध्यान, समाधि, योग, जप, तप, स्वाध्याय, सब का लक्ष्य मन को ही तो वश में करना है। तंत्र की यह विशेषता है कि वह भोग-प्रवण मन को बलपूर्वक अकस्मात धक्का देकर त्याग के मार्ग पर नहीं ठेलता, अपितु भोग के अंदर से ही मन को स्वाभाविक गति से मुख मोड़ देता है।
यंत्रराज की साधना हो या पंचदशी की उपासना अथवा कुंडलिनी साधना, भावना की वहां मुख्य भूमिका है। इसलिए ‘पद्धति’ में सर्वत्र ‘भावयेत’ शब्द आता है। भावना के द्वारा ही भगवती सहज सुलभ हो सकती है। ‘भगवति भावना गम्या’ ***, ललितासहस्रनाम का यह वचन है।साधना (योगमार्ग) पर चिंतन के समय भावना पर सोच-विचार करना परम आवश्यक है। वास्तव में भावना के बिना साधना संभव ही नहीं है।
कामाख्या तंत्र, कुब्जिका तंत्र तथा रुद्रयामल इत्यादि तन्त्र -ग्रंथों में तीन प्रकार के भाव बताए गए हैं। प्रथम भाव है सन्तान भाव या दिव्य भाव। इस भाव में स्थित साधक विश्व और अपने इष्ट देवता " [अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव-माँ काली] में भेद नहीं देखता। सन्तान भाव (दिव्य भाव) में स्थित साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है। वह अपने को देवतात्मक समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है।
दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक सन्तान भाव या दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव (प्रवृत्ति धर्म) सन्तान भाव (दिव्य भाव या निवृत्ति धर्म) का हेतु है। जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है, सर्वदा सब जीवों के हित में रत रहता है, जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद पर विजय प्राप्त कर ली है, जो जितेंद्रीय है, वह वीर साधक है।
तीसरा भाव पशु भाव (दासीभाव) है। इस भाव के साधक को अहिंसा-परायण तथा निरामिष भोजी होना होगा। ऋतुकाल के अलावा वह स्त्री का स्पर्श नहीं करता। लक्ष-लक्ष वीर-साधनाओं से क्या लाभ? भाव के बिना पीठ-पूजन का क्या मूल्य है? कन्या-भोजन आदि से क्या होने वाला है? जितेंद्रीय भाव और कुलाचार कर्म का महत्व ही क्या है? यदि कुल परायण व्यक्ति भाव-विशुद्ध नहीं है, तो भाव से ही उसे मुक्ति मिलती है।
[साभार https://www.divyahimachal.com/2017/08/]
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श्रीविद्या साधना अंतर्गत पशुभाव से दिव्यभाव में आरोहण > श्रीविद्या अंतर्गत ‘ पशुभाव ‘ …… ओर उससे ऊपर उठ कर "पशुपति” बनना, इस क्रिया को साध्य करना है । इसके विषय मे शिवपुराण में कहा गया है 'पशुभाव' (animal spirit) वाला व्यक्ति सहज भाव से मूलवेग-जन्य (instinctively) प्रतिक्रिया करता है। उसे कोई गाली देगा तो वह गाली देगा और हाथ मारो तो पलटकर वार करेगा । श्री विद्या साधना के अंतर्गत ऐसा व्यक्ति जिसका पुंसत्व (masculinity) उसके परिवेश (environment) ने कुचल डाला हो वह ऐसी पशु भाव वाली क्रिया नही करेंगा।श्री कृष्ण जब अर्जुन को कहते हैं कि भविष्य (power of attorney) ईश्वर के हाथ में छोड़ दो। तुम बस सामने आ गए कर्म को करो फल ईश्वर (तुम्हारे गुरुदेव या इष्टदेव) के हाथ में है। यही सहज कृत्य लीला बन जाता है। यही समझने में अर्जुन को कठिनाई होती है, क्योंकि वह सोचता है कि यदि यह सब लीला ही है।…… तो हत्या क्यों करें? युद्ध क्यों करें? …अर्जुन यह समझ सकता है कि कार्य क्या है, पर वह यह नहीं समझ सकता कि लीला क्या है। और श्री कृष्ण का पूरा जीवन ही एक लीला है।
आप कृष्ण जैसा इतना गैर-गंभीर व्यक्ति (non-serious person) कहीं नहीं ढूंढ सकते। उनका पूरा जीवन ही एक लीला (pastime) है, एक खेल है, एक अभिनय है।वे सब चीजों का आनंद ले रहे है। लेकिन उनके प्रति गंभीर नहीं है। वे सघनता से सब चीजों का आनंद ले रहे है। पर परिणाम (result) के विषय में बिलकुल भी चिंतित नहीं है। जो होगा वह असंगत है।
अर्जुन के लिए कृष्ण को समझना कठिन है। क्योंकि वह हिसाब लगाता है, वह परिणाम की भाषा में सोचता है। वह गीता के आरंभ में कहता है, ‘यह सब असार लगता है। दोनों और मेरे मित्र तथा संबंधी लड़ रहे है। कोई भी जीते, नुकसान ही होगा क्योंकि मेरा परिवार मेरे संबंधी, मेरे मित्र ही नष्ट होंगे।यदि मैं जीत भी जाऊं तो भी कोई अर्थ नहीं होगा। क्योंकि अपनी विजय मैं किसे दिखलाऊंगा? विजय का अर्थ ही तभी होता है, जब मित्र,संबंधी, परिजन उसका आनंद लें।लेकिन कोई भी न होगा,केवल लाशों के ऊपर विजय होगी। कौन उसकी प्रशंसा करेगा।कौन कहेगा कि अर्जुन, तुमने बड़ा काम किया है।
मनुष्य भी साधना में ज्यादातर व्यवहार ही देखता है । मुझे इतनी साधना से देवी माँ क्यों प्रसन्न नही हुई ? ये भी व्यवहार है । …… क्या देवी माँ ने आपके साथ कोई कॉन्ट्रेक्ट किया है ? … जो किसीको पंचदशी मंत्र अथवा अनेको स्तोत्र के उच्चारण के बाद आपके पास अवतरित हो ।वो आ भी सकती है , पर अपने आपको बदलो ।पशुभाव से दिव्यभाव की ओर चलो । श्रीविद्या साधक को अपने बुद्धि-मन के भाव को प्राणी रूप पशु भाव से ऊपर उठने की चेष्टा करनी चाहिए।(अब वह-कालीसाधक पहले जैसा प्रतिक्रियात्मक आवेग से कोई काम नहीं करेगा- पहले किसी को मत मारना, कोई यदि बिना गलती के मारे तो उसका हाथ तोड़ देना / घर में घुसकर मरना।)
दिव्य हिमाचल :
तंत्र की यह विशेषता है कि वह भोग-प्रवण मन को बलपूर्वक अकस्मात धक्का देकर त्याग के मार्ग पर नहीं ठेलता, अपितु भोग के अंदर से ही मन को स्वाभाविक गति से मुख मोड़ देता है। अपने को जो व्यक्ति जैसा समझता है, वह वैसा ही बन जाता है। मन में बार-बार आने वाली बात विश्वास के रूप में बदल जाती है और अपने मन और शरीर के संबंध में जैसा जिसका विश्वास होता है, उसके लक्षण भी वैसे ही प्रकट होते हैं। जैसी जिसकी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है। जो भी भावना हमारे मन में आती है, उसको यदि हमारे अंतर्मन की अवचेतन वृत्ति ग्रहण कर लेती है तो वह सत्वस्थ होकर हमारे जीवन की एक स्थायी वृत्ति हो जाती है। इसलिए भावना का महत्व बहुत अधिक होता है। भावना एक ठोस वास्तविकता है और उसका प्रभाव व परिणाम भी ठोस होता है। भावना को छूकर नहीं देखा जा सकता या आंखों से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। इस कारण बहुत से लोगों के लिए भावना मात्र एहसास है। अवश्य ही भाव का उदय और लय मन में होता है। भाव के बिना यंत्र-तंत्र निष्फल हैं। लक्ष-लक्ष वीर-साधनाओं से क्या लाभ? भाव के बिना पीठ-पूजन का क्या मूल्य है? भाव के बिना कन्या-भोजन आदि से क्या होने वाला है? जितेंद्रीय भाव और कुलाचार कर्म का महत्व ही क्या है? यदि कुल परायण व्यक्ति भाव-विशुद्ध नहीं है, तो भाव से ही उसे मुक्ति मिलती है।
साधना पर चिंतन के समय भावना पर सोच-विचार करना परम आवश्यक है। वास्तव में भावना के बिना साधना संभव ही नहीं है। भावचूड़ामणि, कामाख्या तंत्र, तंत्र तथा रुद्रयामल इत्यादि ग्रंथों में तीन प्रकार के भाव बताए गए हैं। प्रथम भाव है दिव्य भाव। इस भाव में स्थित साधक विश्व और देवता में भेद नहीं देखता। दिव्य भाव का साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है। वह अपने को देवतात्मक समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है।
दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव दिव्य भाव का हेतु है। जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है, सर्वदा सब जीवों के हित में रत रहता है, जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद पर विजय प्राप्त कर ली है, जो जितेंद्रीय है, वह वीर साधक है।
तीसरा भाव पशु भाव है। इस भाव के साधक को अहिंसा-परायण तथा निरामिष भोजी होना होगा। ऋतुकाल के अलावा वह स्त्री का स्पर्श नहीं करता। यंत्रराज की साधना हो या पंचदशी की उपासना अथवा कुंडलिनी साधना, भावना की वहां मुख्य भूमिका है। इसलिए ‘पद्धति’ में सर्वत्र ‘भावयेत’ शब्द आता है। ललिता-सहस्रनाम का वचन है- ‘भगवति भावना गम्या’। भावना के द्वारा ही भगवती सहज सुलभ हो सकती है। वास्तव में तंत्रशास्त्र भावना के अभ्यास का मार्ग है।
इस कारण बहुत से लोगों के लिए भावना मात्र एहसास है। अवश्य ही भाव का उदय और लय मन में होता है। भाव के बिना यंत्र-तंत्र निष्फल हैं। लक्ष-लक्ष वीर-साधनाओं से क्या लाभ? भाव के बिना पीठ-पूजन का क्या मूल्य है? कन्या-भोजन आदि से क्या होने वाला है? जितेंद्रीय भाव और कुलाचार कर्म का महत्व ही क्या है? यदि कुल परायण व्यक्ति भाव-विशुद्ध नहीं है, तो भाव से ही उसे मुक्ति मिलती है। दान, गुरु पूजा, देव पूजा, नाम संकीर्तन, श्रवण, ध्यान, समाधि, योग, जप, तप, स्वाध्याय, सबका लक्ष्य मन को ही तो वश में करना है।
नारी (स्त्री) ही शक्ति है, उनके प्रति श्रद्धा-सम्मान का भाव रखे बिना कोई सिद्धि नहीं -
जगतजननी माँ काली की पूजा 'देवि' की आराधना के लिए होती है। नारी स्वयं देवि है क्योंकि वो जन्म देती है। बुरी संगत में पड़ जाने के कारण यदि घर-परिवार में, मंदिरों में दर्शन से गरबों में आराधना तक, अगर नारी के लिए मन में अच्छे भाव (सम्मान का भाव) नहीं हैं तो कालीपूजा या शक्ति - साधना के कठिन नियमों के पालन के बावजूद भी बेकार है। शास्त्र कहते हैं.....
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः, स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्, का ते स्तुतिः स्तव्यपरापरोत्किः।।
(अ॰११, श्लो॰६)
अर्थ :- देवि ! जगत की सम्पूर्ण विद्याएँ (परा, अपरा व चतुर्दश) भगवती शक्ति (माँ काली) के ही भेद हैं और जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे एवं परा वाणी हो।
शिव अगर प्रथम पुरुष हैं तो देवि प्रकृति हैं। पुरुष और प्रकृति ने ही सारी सृष्टि की रचना की है। इसलिए, शक्ति को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो महिलाओं के लिए मन से हीन और खेदजनक भावनाएं निकाल दें। तभी देवी की कृपा मिल सकती है। अगर तुम्हारे मन में अपनी स्त्री के प्रति और सम्पूर्ण नारी जाति के प्रति श्रद्धा -सम्मान नहीं है, तो कठिन से कठिन कोई भी जप-तप उन्हें प्रसन्न नहीं कर सकता।
श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति हैं श्रीराधा ! राधा तत्त्व > राधा में 'रा' राम का बोध कराता है, अग्नि का बीज मन्त्र 'र'है । अग्नि ही पदार्थो में नित्य है । 'रा' का अर्थ सर्वत्र रमा हुआ परब्रह्म । धा का अर्थ धारणा , धर्म । जिस शक्ति से व्यापक सर्वत्र रमण आनन्दमय लीलामय परब्रह्म कृष्ण (श्रीरामकृष्ण) की धारणा हो वही "राधा" (माँ सारदा) है।
कृष्ण नित्य आनन्दित है जीवन के किसी भी समय उन्हें संग ले नाच लो , खेल लो , झूम लो । जीव निष्काम प्रीति से जड़ सुख से सदा के सुख की ओर बढ़ता है । कृष्ण नित्य आनन्दित है परन्तु जीव नित्य रसमय रहे अतः अवतरण काल में व्यवहारिकी लीलायें की गई । और नित्य लीला ईश्वर के नित्य उत्कर्ष (आनन्द) के वर्धन के लिए ही है जहाँ नायक नहीं नायिका प्रधान है वहीँ आह्लादिनी शक्ति श्री राधा जो कृष्ण के भीतरी कृष्णत्व की कारिणी है ।
अविद्या (माया) को सरल भाषा में कहें तो अपने को इष्टदेव से भिन्न (अहं M/F) शरीर -द्वैत देखना ही अविद्या है। व्यापक ईश्वर (आत्मा) के अतिरिक्त अन्य तत्व (देह +मन) को देखना, मानना अविद्या है। आत्म प्रज्ञा चक्षु से केवल ईश्वर ही नाना रूप आदि में निहित होते दिख सकते है। प्रज्ञा चक्षु के खुलने की अपील में किये साधन को मानना या न मानना, ईश्वरिय ईच्छा है। चुंकि जीव ईश्वरिय रूप-अंश है अत: साधन आत्मिय तत्व से प्रगट और जुडा है तो निश्चित् दिव्य चक्षु खुलने ही है। अधिकतर साधन से प्राप्त दृष्टि से भी अद्वैत नहीं हटता अपितु गहरा जाता है। यहाँ साधन अपूर्ण स्थिति में है , और उसे पूर्ण समझ लिया गया है।
अविद्या में दो (द्वैत) होना ही अविद्या है । परन्तु लीला में रस वर्धन आनन्दघन के आनन्द वर्धन हेतु दो हुआ जाता है । अर्थात् जीव की उत्पति भगवान का रस वर्धन हेतु ही है। जीव की भगवत् प्राप्ति में भगवदियानन्द की भी वृद्धि निहित है । परन्तु जीव भगवत् आनन्द रस को जब ही बढ़ा सकता है जब पूर्ण निष्काम भाव से सेवा , लीला , भजन में लगा रहे। अगर साधक को ईश्वरीय निक्षिप्त शक्ति प्राप्त है तो वह सहज निष्काम होगा, क्योंकी वहाँ आह्लादिनी शक्ति निहित है जो रस देने हेतु ही है । वहाँ भोक्ता केवल श्री कृष्ण (भगवान) और शेष सब उन्ही की शक्ति से लीला रस में उन्ही के रूप-अंश में भोग्य है । अर्थात् पात्र उनका व्यंजन उनका पकाया उन्होंने भोजन भी वहीँ ही करें । एक कृष्ण रूपी ईश्वर ही , राधा , गोपी और वृन्दावन रूप में प्रगट होते है । कारण विभिन्न उपादानों से रस वर्धन । आनन्दवर्धन ।
आह्लादिनी का अर्थ है आनंद प्रदान करने वाली शक्ति.....जो भगवान को उनकी लीला में आनंद प्रदान करे वो आह्लादिनी है....श्री राधिका जी उस आनंदकारिणी शक्ति की भी जननी है....जिससे योगेश्वर भगवान आनंदित होते हैं......रसिकता की दृष्टि से स्वामिनी जू ...सर्वप्रधान हैं, रस और आनंद उनसे ही उत्पन्न होते हैं.......श्रीकृष्ण के प्राणों की अदिष्ठात्री, उनकी परम आराध्या सर्वेश्वरी श्री राधिका जी ही हैं...जब श्रीकृष्ण और श्री राधिका जी में पूर्ण-साम्य है, दोनों नित्य एक स्वरुप हैं, दोनों ही सच्चिदानंद स्वरुप हैं......फिर यूँ कहना की श्री राधिका जी केवल आनंदशक्ति का विस्तार हैं, ये सिद्धांत मान्य नहीं है.....सत-चिद-आनंद ही श्री राधिका जी हैं....Shri Radhey !!!!!
सर्वेश्वर श्री कृष्ण की आह्लादिनी, सन्धिनी, ज्ञान इच्छा, क्रिया आदि अनेक शक्तियां हैं। उनमें आह्लादिनी सबसे प्रमुख है। वह श्री कृष्ण की अंतरंगभूता 'श्री राधा' के नाम से जानी जाती हैं। श्री राधा जी की कृपा जिस पर होती हैं, उसे सहज ही परम धाम प्राप्त हो जाता है।
जोइ राधा सोई कृष्ण हैं,इनमें भेद न मान!
इक हैं ह्लादिनी शक्ति अरू, शक्तिमान इक जान!!
भावार्थ:- श्री राधा ही का अपर अभिन्न स्वरूप श्रीकृष्ण हैं एवं श्रीकृष्ण का ही अपर स्वरूप श्रीराधा हैं। क्योंकि राधा शक्ति हैं एवं श्रीकृष्ण शक्तिमान् हैं।
भगवान श्रीकृष्ण सत्-चित्-आनन्दपूर्ण हैं। उनके ‘सत्’ अंश की शक्ति का नाम है ‘संधिनी’, चिदंश की शक्ति का नाम है ‘संवित्’ और आनन्दांश की शक्ति का नाम है ‘ह्लादिनी’।
श्रीकृष्ण स्वयं परमाह्लाद स्वरूप होकर भी जिसके द्वारा स्वयं आह्लादित होते और दूसरों को आह्लादित करते हैं, उसका नाम है ‘ह्लादिनी’; स्वयं ज्ञान स्वरूप होकर भी जिसके द्वारा वे जान सकते और दूसरों को जना सकते हैं- उसका नाम है ‘संवित्’ (चैतन्य) और स्वयं नित्य सत्ता स्वरूप होकर भी जिसके द्वारा अपनी तथा दूसरों की सत्ता धारण करते हैं, उसका नाम ‘संधिनी’ है।
व्यापक ईश्वर ही रूप-पररूप-विभिन्न रूप में सर्वत्र है ! सत्य ही ईश्वर और ईश्वर ही सत्य है। किसी भी दृश्य-अदृश्य तत्व के सत्य स्वरूप ( नित्य चेतन - सनातन - अविनाशी आदि ) को मान और जान लिया जाय तो वही वहाँ अप्रगट ईश्वर रूप है। जैसे जीव में - आत्मा !
सत् चित् आनन्द और आह्लादिनी : एक ही तत्व व्यापक और नित्य है ... सच्चिदानन्द ! ईश्वर का सत् रूप का ही अर्थ व्यापक-नित्य-सर्वत्र। ईश्वर को ज्ञानमय और ज्ञानरूप संधिनी शक्ति बनाती है जो सत् रूप की शक्ति है। अर्थात् संधिनी के द्वारा ही ईश्वर बोध और प्रकाश में आते है ... सर्व प्रकारेण ज्ञान संधिनी से ही रक्षित और पोषित है। ईश्वर के नित्य-व्यापक- सत्य रूप को जानना , दर्शन करना ही पूर्णज्ञान है।
संधिनी शक्ति -स्वरूप शक्ति और अह्लादिनी में अह्लादिनी का कार्य कठिन है ....... ईश्वर के आनन्द की नित्यता और वर्धन करना। जीव स्वयं सोचे आनन्द को नित्य धारण करना कितना आसान और कितना दुरह है। यहाँ लगता है कि जीव नाना प्रकार से आनन्द तो प्राप्त कर ही लेता है। किसी भी एंटरटेनमेंट से ... परन्तु वस्तु जड़ से प्राप्त रस में भी ईश्वरिय अनुभुती तो है पर नित्य नहीं ! जैसे सारा दिन की भुख के बाद मिला भोजन करते समय आनन्द अनुभुत् होता है। कारण चित् का ठहरना .... मन का व्याकुल होने से मन एकाग्र होता है जिससे ईश्वरिय रस प्रगट होता है ... और लगता है भोजन से सुख मिला। जबकि सुख तो मिला मन की एकाग्रता से ... वस्तु का सुख नित्य नहीं ! सदा रहने वाला नहीं ! कभी सुख देने वाली वस्तु भी परिस्थिति अनुरूप दुख का कारण होती है .... जैसे दिसम्बर जनवरी में कोई कुलर चला दें तो कष्ट होगा और मई-जुन में कोई बन्द कर दें तो कष्ट होगा।संतों ने बार-बार कहा .... सुखी राम का दास ! क्योंकि ईश्वर का रस नित्य है , सनातन है , यहाँ पूर्णविराम नहीं। परन्तु जीव की प्रबल ईच्छा से ही अह्लाद उत्पन्न होता है। जितना अह्लाद उतना आनन्द !
पूर्ण अह्लाद अर्थात् पूर्ण राधाभाव तब पूर्ण आनन्द अर्थात् पूर्ण माधुर्य कृष्ण मिलन !भक्ति ही आह्लाद है ... भक्त होना प्राप्ति नहीं ! पूर्णभाव कृपा प्रसाद है ! भक्ति के या प्रीति के प्रयासों को भक्ति नहीं कहते .... प्रयास पूर्ण निष्काम भाव से आत्मा की गहराई से हो तब ही हरि कृपा अनुभुत् होती है। कोई भक्त हो और कहे मैं राधा अनुगामी नहीँ , अगर भक्ति है तो वहीँ स्वयं राधा है , भले स्वीकार्य न हो । राधा नेत्र है आनन्द रूपी कृष्ण के दर्शन के लिए । निष्काम प्रीति से ईश्वर दर्शन देते है । कामना ईश्वर की जीव से मुक्ति है । निष्काम प्रीति से सत चित् को आह्लाद मिलता है और आनन्द नित्य हो उठता है । वास्तव में आनन्द सम्पुटित है अर्थात् करुणा से दोनों और से ढका हुआ है। आनन्द के प्रारम्भ और पूर्णता में करुणा निहित है । प्रेम जब नदी बन जाये तो करुणा प्रगट होती है। अर्थात् भावों की वह स्थिति जहाँ कृष्ण के होने न होने पर भी कृष्ण का ही होना हो और ऐसे भावावेश में रस को न सम्भाल पाने पर करुणा खिलने लगती है । जित देखु तित लाल की स्थिति करुणा है । बाह्य जगत को रस और करुणा प्रेम आनन्द एक पागलपन ही प्रतीत होता है ।
चित् अर्थात् चेतना ... आत्मा नित्य-चेतन है। चित् या स्वरूप शक्ति से आत्मा और माया प्रगट है।आह्लादिनी शक्ति से आनन्द रूप निहित है। आह्लाद से ही आनन्द रूपी अनुभुतियाँ और आनन्द रूप ईश्वर से मिलन होता है। अविद्या अर्थात् माया के प्रभाव से जीव नित्य आनन्द से भटक गया है। जीव के सम्पुर्ण प्रयास आनन्द की ओर है क्यों ? सत्-चित् की और क्यों नहीं ?अविद्या अर्थात् माया के प्रभाव से जीव नित्य आनन्द से भटक गया है। रसिक आचार्य कहते है जीव में सत् और चित् दोनों है ... आनन्द से वंचित है। अत: आत्मा अपनी पूर्णता को पाने के लिये ही आनन्द ते लिये प्रयास करती है , उत्सर्जन करती है। वस्तुत: जीव जब तक माया या अविद्या के प्रभाव में है अथवा सत् और चित् से दूर है ... जब तक ये ना माने कि ईश्वर सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है ! अपने चेतन रूप का दर्शन ना करें , नाशवान् -क्षणभंगुर वस्तुओं की जड़ता से अपरिचित हो, उनमें ही आनन्द तलाशे तब तक आनन्द नित्य न होगा।
अर्थात् पहले स्व का बोध, अपने यथार्थ स्वरुप का बोध, फिर परम् सत्ता का बोध तब नित्य आनन्द रस ! पूर्ण अद्वैत - पूर्ण ज्ञान - पूर्ण प्रेम एक ही अवस्था है। परन्तु आनन्द , अह्लादिनी शक्ति से प्रगट होना कहा गया है। रसिक आचार्य कहे है कि ईश्वर ही अपनी अह्लादिनी शक्ति हृदय में निक्षिप्त (छोडते) है। आह्लादिनी शक्ति ही राधा है। यहीं ईश्वर का मूल रस , आनन्द की नित्यता के लिये नित्य आह्लाद वर्धन चाहिये …… ईश्वर स्वयं आनन्द है परन्तु आनन्दित होने का कारण आह्लादिनी में है .... हमारे उपास्य अवतरवरिष्ठ भी नित्य आनन्दित है ! परन्तु क्यों और कैसे ? उत्तर ....राधा ! राधा ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में आह्लाद उत्पन्न कर जैजै को नित्य आनन्दित करती है। ईश्वर सर्वत्र है .... और व्यापक ईश्वर का आनन्द छिपा है .... आह्लादिनी शक्ति में। जैसे माखन के लिये बिलौनी चाहिये वैसे ही आनन्द के लिये अह्लादिनी।
दुष्प्रवृत्तियाँ (बुरा चरित्र) और शक्ति -साधना का स्वरुप
दुष्प्रवृत्तियां (बुरा चरित्र) ही बंधन हैं। भव बंधनों की चर्चा जहां होती है वहां उसका तात्पर्य कषाय-कल्मषों से है। कषाय का अर्थ है पूर्व जन्मों के अभ्यस्त बुरे संस्कार, जो आत्मा के चारित्रिक गुणों का घात करे, उसे कषाय कहते हैं। कषाय शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। ‘कष+आय'। कष का अर्थ संसार है क्योंकि इसमें प्राणी अनेक दु:खों के द्वारा कष्ट पाते हैं और आय का अर्थ है ‘लाभ'। इस प्रकार कषाय का अर्थ हुआ कि जिसके द्वारा संसार (तीन ऐषणाएँ या जन्म-मरण) की प्राप्ति हो, वह कषाय है। कषाय अर्थात पूर्व जन्मों के अभ्यस्त संस्कार, और कल्मष का अर्थ है ऐसा कार्य जिससे किसी पवित्र या शुभ कार्य का महत्त्व नष्ट हो जाय। कषाय -कल्मषों से छुटकारा अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा -'Be and Make' द्वारा कामिनी -कांचन और नाम यश की ललक -लिप्साओं में आकर्षण वश किये बुरे कार्य (बुरी प्रवृत्ति, बुरे चरित्र या दुरित) से छुटकारा पाने का नाम मोक्ष है। यह मान्यता सही नहीं है कि जन्म-मरण से छूट जाने का नाम मोक्ष है।
जन्म, जरा और मृत्यु यह प्रकृति का नियम है। ईश्वर की सत्ता इस प्रकृति क्रम को इसी निमित्त बनाती है। जीव जंतु, वृक्ष वनस्पति से लेकर मानव शरीर धारियों तक, प्रत्येक को इस चक्र में अनिवार्यतः भ्रमण करना पड़ता है। अवतारी महामानव भी बार-बार जन्म लेते और मरते हैं। अवतारों की संख्या अब दस या चौबीस हो चुकी है। इनमें से सभी को अपने-अपने ढंग से जन्म लेना और मरना पड़ा है। सृष्टि चक्र में जो भी बंधा है उसे जन्म (उत्पादन), जरा (अभिवर्धन) और परिवर्तन (मृत्यु -देहान्तर) के क्रम में घूमना ही पड़ता है। सूक्ष्म शरीर धारियों को भी एक अवधि के लिए नियत उत्तरदायित्व संभालने के लिए भेजा जाता है उसे पूरा करने के उपरांत वे भी वापस लौट जाते हैं और आवश्यकतानुसार उसी क्रम की पुनरावृत्ति करते रहते हैं। जब अवतारों और देवताओं को आवागमन की प्रक्रिया पूर्ण करनी पड़ती है, तो भक्तजनों के लिए ही उसका अपवाद कैसे हो सकता है। मोक्ष का तात्पर्य कषाय-कल्मषों से छुटकारा पाना है।
इसी को ईश्वर की प्राप्ति कहते हैं। यह इस जीवन की सर्वोपरि परिस्थिति है, जिसमें निरंतर सत का, चित्त का और आनंद का अनुभव होता रहता है। ईश्वर का स्वरूप भक्त के लिए सच्चिदानंद स्वरूप ही है। इसी में उसे कषाय-कल्मषों से छुटकारा मिलता है। कर्म बंधन से बलात बंधकर (पूर्वजन्मों के संस्कार वश) जन्म-मरण के चक्र में फंसना और बंदी की तरह संसार में आना कष्टकारक भी हो सकता है। पर जो ईश्वर की इच्छा से उसकी व्यवस्था/जमींदारी संभालने के लिए जेलर की तरह आता- जाता रहता है उसके लिए, ईश्वर के इस स्वर्गोपम उद्यान का आनंद लेने के लिए जेलर की तरह बार-बार आने-जाने का अवसर प्राप्त करना सुख भी है और सौभाग्य भरा भी।
इसलिए मरने के बाद मोक्ष मिलने की कल्पना निरर्थक है उसे भावनाशील जीवित स्थिति में भी प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर प्राप्ति के लिए मरने तक का इंतजार करना व्यर्थ है। सगुण भक्तों ने भी जीवित स्थिति में भगवान को पाया है। निराकार वादियों के लिए तो वह और भी सरल है। उसे सबसे निकट देखना हो, सबसे सरलता पूर्वक देखना हो, तो अपने शुद्ध अंतःकरण में ही उसकी झांकी करनी चाहिए अर्थात अपने ह्रदय में ही विवेकदर्शन का अभ्यास करना चाहिए।
The end is God-100% Unselfishness. साध्य ईश्वर (100 % निःस्वार्थपरता) है। साध्य को समझ लेने के बाद साधना (Be and Make) का स्वरूप समझने की आवश्यकता है। साधना ही ईश्वर तक आपको ले जा सकती है। साध्य (Heart) , साधना (Head) और साधक (Hand) इन तीनों की संगति है। तीनों '3H' के समन्वय से एक पूरी बात बनती है। साधना (मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा) में साध्य एक ही है, ईश्वर प्राप्ति। ईश्वर (100 % निःस्वार्थपरता) अर्थात सत्प्रवृत्तियों का (चरित्र के 24 गुणों का) समुच्चय। मोक्ष की भी इसी में गिनती होती है। इसी को मोक्ष (de -hypnotized होना ) कहना हो, तो भी कुछ हर्ज नहीं। इसे प्राप्त करते ही साधक अज्ञान, अभाव और अशक्ति जन्म (Born weak) आदि समस्त प्रकार के दुःख दरिद्रों से छूट जाता है। सच्चिदानंद के साथ एकीभूत हो जाता है। अपनी और ईश्वर की स्थिति में भिन्नता नहीं रहती।
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🔆🙏आत्मसाक्षात्कार की अवस्था से भी ऊँची अवस्था है -आत्मवत् सर्वभूतेषु🔆🙏
सन्दर्भ - [ (4 जनवरी, 1886), श्री रामकृष्ण वचनामृत-133 ] > Sri Ramakrishna and the Vedanta — নিত্যলীলা দুই গ্রহণ ) > श्री रामकृष्ण और वेदांत का सार - जो कुछ है सो तूँ ही है !/"हर देश में तूँ हर भेष में तूँ -तेरे नाम अनेक तूँ एक ही है !"
[26/5/2024 -अपूर्व दास टाटा - নিত্যলীলা দুই গ্রহণ]
सन्दर्भ ->[(21 सितंबर,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-92 * भक्तों के साथ स्टार थियेटर में चैतन्यलीला-दर्शन * स्टार थियेटर की वैश्या अभिनेत्रीयों में माँ आनन्दमयी का रूप दर्शन *
वैष्णवी मुद्रा-आत्मवत सर्वभूतेषु * स्वामी विवेकानन्द का शिकागो पोज़ *
अन्तर्लक्ष्यं बहिर्दृष्टिर्निमेषोन्मेषवर्जिता।
एषा सा वैष्णवी मुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥
( शाण्डिल्योपनिषद् 1.14)
बाहर की ओर निर्निमेष दृष्टि (निमेष-उन्मेष) अर्थात् पलक झपकने से विहीन या स्थिर दृष्टि हो , और भीतर की तरफ लक्ष्य (आत्मोन्मुख दृष्टि) हो, उसको सब तंत्रों में गुप्त वैष्णवीमुद्रा कहते हैं, जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ।]
13 फरवरी, 1896 को ई.टी. स्टर्डी को लिखित पत्र में स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं - अमेरिकन समाज के सर्वोच्च (प्रबुद्ध) वर्ग को वेदान्त अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है। सेराह बर्नहार्ट नामक फ्रेंच अभिनेत्री यहाँ 'इजिल' नाटक में अभिनय कर रही हैं। यह नाटक बुद्धदेव का जीवन-चरित है , जिसमें "इज़ील" नामक एक वेश्या पीपल वृक्ष के नीचे बैठे बुद्धदेव को लुभाना चाहती है। किन्तु जैसे ही वो उनकी गोद में बैठती है, उसी समय बुद्धदेव उसको संसार की असारता का उपदेश देते हैं। 'अन्त भला तो सब भला' - अन्त में वह वेश्या असफल होती है। (However, all is well that ends well — the courtesan fails.) श्रीमती बर्नहार्ट वेश्या का अभिनय करती है।
मैं इस 'बुद्ध-चरित' नाटक को देखने गया था, और श्रीमती सेराह बर्नहार्ट ने जब मुझे दर्शक-दीर्घा में आगे बैठा हुआ देखा तो मुझसे भेंट करने की इच्छा प्रकट की। मेरे एक परिचित तथा प्रतिष्ठित परिवार ने मिलने की व्यवस्था की। इनके अलावा वहाँ पर श्रीमती मौरेल (Madame M. Morrel) तथा महान विद्युत् विज्ञानी श्री निकोला टेस्ला (Tesla) भी उस बैठक में उपस्थित थे। श्रीमती जी एक विदुषी (ब्रह्मवादिनी) स्त्री हैं।
सेराह बर्नहार्ट ने आध्यात्मिकता का अच्छा अध्यन किया है। श्रीमती मौरेल की इस 'परा विद्या' के प्रति रूचि बढ़ रही है। तथा वैज्ञानिक श्री निकोला टेस्ला भी वेदान्त के प्राण, आकाश और कल्प (aeon#-अनन्त काल या युग) के सिद्धान्त को सुनकर अचम्भित हुए हैं, तथा उनका विश्वास है कि आधुनिक विज्ञान केवल इस- "प्राण और आकाश के साथ कल्प के सिद्धांत" को ही स्वीकार कर सकता है।
[बुद्ध-चरित नाटक की सेराह बर्नहार्ट नामक फ्रेंच अभिनेत्री ]
🕊🏹कॉस्मोलॉजी और एस्कैटोलॉजी (Cosmology and Eschatology) :ब्रह्माण्ड विज्ञान (Cosmology) 'कल्प' (एस्कैटोलॉजी-या चतुर्युगी का सिद्धान्त) का सिद्धान्त क्या है ?
["ब्रह्माण्ड विज्ञान और प्रलय का दिन" (एस्कैटोलॉजी-धर्मशास्त्र की वह शाखा जो स्वर्ग और नरक; की अंतिम नियति..मृत्यु, अंतिम न्याय, या 'Doomsday' प्रलय जैसी अंतिम चीजों से संबंधित है। "Prâna and Âkâsha and the Kalpas"#'कल्प' (या चतुर्युगी का सिद्धान्त) के सिद्धान्त सृष्टिक्रम और विकास की गणना के लिए कल्प हिन्दुओं का एक परम प्रसिद्ध मापदंड है। जैसे मानव की साधारण आयु सौ वर्ष है, वैसे ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की भी आयु सौ वर्ष मानी गई है, परंतु दोनों गणनाओं में बड़ा अन्तर है। ब्रह्मा का एक दिन 'कल्प' कहलाता है, उसके बाद प्रलय होता है। प्रलय ब्रह्मा की एक रात है जिसके पश्चात् फिर नई सृष्टि होती है। कल्प हिन्दू समय चक्र (वैदिक गणित में काल को मापने की) की बहुत लम्बी मापन इकाई है। Kalpa is a very long measurement unit of Hindu time cycle. मानव वर्ष गणित के अनुसार 360 दिन का एक दिव्य अहोरात्र ( divine night) होता है। According to mathematics, the human year is a divine night of 360 days. इसी हिसाब से 12000 दिव्य वर्ष का एक चतुर्युगी होता है। 71 चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है और 14 मन्वन्तर/ या 1000 चतुरयुगी का एक कल्प होता है। कल्प (चतर्युगी समयचक्र) के सिद्धान्त को समझने के बाद अब ये प्रश्न उठेगा कि आकाश और प्राण फिर कहाँ से उत्पन्न हुए ?
Now both Akasha and Prana again are produced from the cosmic Mahat, the Universal Mind, the Brahmâ or Ishvara. Mr. Tesla thinks he can demonstrate mathematically that force (=Energy) and Matter are reducible to potential energy. ]
अब आकाश और प्राण भी उसी (ब्रह्माण्डीय महत (cosmic Mahat), समष्टि मन (the Universal Mind), ब्रह्म, ईश्वर से उत्पन्न होते हैं। {अर्थात आकाश और प्राण (देह और मन) उसी माँ काली से (उनके अवतार श्रीरामकृष्ण से) उत्पन्न होते हैं जो समय, काल या मृत्यु को भी खा जाती है।} श्री टेस्ला समझते हैं कि जड़ पदार्थ (Matter-पंचभूतात्मक शरीर) और शक्ति (Energy-ऊर्जा) दोनों को अव्यक्त शक्ति (potential energy-माँ काली) में रूपान्तरित किया जा सकता है।
[....I am working a good deal now upon the cosmology and eschatology (एस्कैटोलॉजी- धर्मशास्त्र की वह शाखा जो मृत्यु और अंतिम न्याय जैसी अंतिम चीजों से संबंधित है; स्वर्ग और नरक; की अंतिम नियति...) of the Vedanta. मैं आजकल ब्रह्माण्ड -विज्ञान (cosmology) और वेदांती प्रलय का दिन (Vedantic- Dooms -day-भेंड़त्व के भ्रम से मुक्ति -dehypnotization) पर गहन शोध कर रहा हूँ। आधुनिक विज्ञान के साथ उनका पूर्ण सामंजस्य मैं स्पष्ट रूप से देखता हूँ , और एक (भौतिक विज्ञान) के स्पष्टीकरण से दूसरे (आध्यात्मिक विज्ञान) की व्यख्या भी हो जाएगी। [I clearly see their perfect unison with modern science, and the elucidation (स्पष्टीकरण) of the one will be followed by that of the other. ]
>> वेदांतिक सिद्धांतों और आधुनिक विज्ञान के बीच सामंजस्य। (Harmony between Vedantic theories and Modern science.)
एस्कैटोलॉजी की व्याख्या केवल अद्वैत के दृष्टिकोण से होगी। अर्थात द्वैतवादी कहते हैं कि मृत्यु के बाद जीवात्मा सूर्यलोक में जाता है, वहां से चंद्रलोक में और वहाँ से विद्युत् ( Electric sphere) में। वहाँ से किसी पुरुष (अवतार वरिष्ठ) के साथ वह ब्रह्मलोक [श्रीरामकृष्ण लोक ] जाता है। अद्वैतवादी कहता है वहाँ से वह निर्वाण प्राप्त करता है। अद्वैतवाद के अनुसार जीव (M/F का मिथ्या अहं) न कहीं आता है, न जाता है और ये सब लोक या जगत के स्तर आकाश और प्राण के रूपान्तरित परिणाम मात्र हैं।
ऐसा माना जाता है कि इज़ेल नाटक आम्रपाली और बुद्ध की कथा पर आधारित था, लेकिन कथानक के लिहाज से यह काफी कमजोर संबंध था।
The fourth and last scene of the drama shows the place of execution, in the city. Izeyl has been submitted to all forms of torture, and is dying of hunger and pain. By her side stands her master, the Prince [Siddhartha], whom she cannot see as her eyes have been torn out. No wonder Swamiji called it "Frenchified Buddha business."
[साभार @@@@@@/https://vivekanandaabroad.blogspot.com/2018/01/new-york-ny-5-february-1896.html]
प्राण (life?) और आकाश (space) की निर्मिति है ब्रह्मांड : The universe is the projection of life (Time) and space (दिक् और काल ?)
स्टीफेन हाकिंस एक असाधारण ब्रह्माण्ड विज्ञानी (cosmologist) थे। सृष्टि रहस्यों की खोज में उन जैसे तमाम वैज्ञानिक संलग्न हैं। बीसवीं सदी में विज्ञान पंख लगाकर उड़ा है। इक्कीसवीं सदी के डेढ़ दशक के भीतर ही वैज्ञानिक ईश्वरीय कण-गाड पार्टिकल तक उड़े हैं। किन्तु स्वामी विवेकानंद के उपरोक्त पत्र और व्याख्यानों का समय 13 फरवरी, 1896 का है , अलबर्ट आईंस्टीन के सापेक्षता का सिद्धांत (theory of relativity-1905) के पहले (1893-1897) का है। [अद्वैत आश्रम से प्रकाशित विवेकानंद साहित्य (खंड 5 पृष्ठ 22-23, जाफना में दिया गया 'वेदान्त' विषय पर व्याख्यान 1897 का है। ] उस व्याख्यान में स्वामी जी कहते हैं - “पहला प्रश्न सृष्टि का है, यह संसार, यह प्रकृति या माया अनादि और अनंत हैं, जगत् किसी एक विशेष दिन नहीं रचा गया। एक ईश्वर ने आकर इस जगत् की सृष्टि की और बाद में वह सोता रहा, यह हो नहीं सकता।”
ऋग्वेद में ‘असत् से सत्’ प्रकट होने का उल्लेख है, लेकिन इसके पहले भी एक समय ऐसा है ‘जब न सत् था, न असत्। आकाश के पार भी जो कुछ है, वह नहीं था-नो व्योमा परे यत्। (ऋ0 10.129) वायु भी नहीं थी-अवातं, लेकिन वह अपनी शक्ति से प्राण ले रहा था-स्वध्या आनीत। ब्रह्मांड सदा रहता है, लेकिन हमेशा एक जैसा नहीं रहता। जब वह अतिसूक्ष्म स्थिति में होता है, तब अव्यक्त कहा जाता है और जब स्थूल दृश्यमान होता है तो व्यक्त। अव्यक्त ही असत् है। असत् का अर्थ शून्य नहीं है। शून्य से सृष्टि का उद्भव नहीं हो सकता। ऋग्वेद के सृष्टि सर्जन में एक समय वायु भी नहीं है, लेकिन प्राण हैं।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है-“असत् से सत् की उत्पत्ति अभाव से भाव का उद्भव, शून्य से संसार का उदय युक्तिसंगत नहीं है, सारी प्रकृति सदा विद्यमान रहती है, केवल प्रलय के समय वह क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्म होती जाती है और अंत में एक दम अव्यक्त हो जाती है।”
(वही) असत् से सत् आने का अर्थ है- अतिसूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल और लगातार स्थूल होने का क्रम। आकाश सूक्ष्मतम है। वायु इसके बाद हैं, वायु का अनुभव स्पर्श से मिलता है, लेकिन वायु दिखाई नहीं पड़ती। फिर तेज पूर्ण अग्नि है। फिर जल है, फिर पृथ्वी और फिर पृथ्वी परिवार।
स्वामीजी ने कहा-“हमारी संस्कृति के सृष्टि शब्द का अंग्रजी में ठीक अनुवाद किया जाए तो शब्द होना चाहिए ‘प्रोजेक्शन’ (projection-प्रक्षेपण), क्रिएशन नहीं।” सृष्टि प्राण और पदार्थ की प्रतिच्छाया है - प्रोजेक्शन मात्र। विवेकानंद ने बताया-“यह सृष्टि ब्रह्मांड का ही प्रक्षेपण है। यह प्रक्षेपण प्राण शक्ति के स्पंदन में होता है।” विज्ञान ने ब्रह्मांड को ऊर्जा (energy) और पदार्थ (matter) से निर्मित माना है। विवेकानंद ने इसे प्राण (life?) और आकाश (space) की संज्ञा दी है। प्राण की महत्ता उपनिषदों में है। प्राण (काली?) ज्ञेय हैं और आराध्य भी। आकाश सूक्ष्मतम तत्व है ही।
विवेकानंद ने प्राण को ऊर्जा बताया। ऊर्जा वैज्ञानिक शब्दावली है। प्राण अनुभूति से आया शब्द है। विवेकानंद ने प्राण-ऊर्जा को किताबों से नहीं, अनुभूति से जाना था। उन्होंने उपनिषद पढ़े थे, लेकिन उपनिषद तत्व को अनुभूति से भी पाया था। कठोपनिषद् के उद्धरण उन्होंने बहुधा दिए हैं। कठोपनिषद् (2.13) में यम नचिकेता से कहते हैं-“शब्द, रूप, रस, गंध आदि की अनुभूति करने वाली ज्ञान शक्ति से ही इनकी क्षण भंगुरता भी समझ में आ जाती है।”
विवेकानंद में यह बोध अपने चरम तक खिला था। व्यक्तिगत सांसारिक सुख उनके लिए क्षणभंगुर थे। जो जाना था, उसे आजीवन बताते रहने का ऋषि संकल्प उन्होंने पूरा किया था। अनुभूति बड़ी गहन थी उनकी। कठोपनिषद् (2.1.7) में अदिति-सृष्टि के बारे में ऋषि अनुभूति है ‘जो देव अदिति प्राण सहित उत्पन्न हैं, वे हृदय गुहा में हैं, हे नचिकेता यह वही हैं, जिनके संबंध में तुमने पूछा है।” विवेकानंद ने प्राण को ठीक ही ऊर्जा बताया है। विज्ञान भी जगत् को ऊर्जा और पदार्थ का योग मानता है। विवेकानंद ने इसे प्राण और आकाश कहा है-“ब्रह्मांड के सभी पदार्थ उस एक प्रारंभिक पदार्थ का परिणाम हैं, जिसे आकाश कहते हैं। इसी तरह सभी बल, चाहे वह गुरूत्वाकर्षण हों, आकर्षण विकर्षण हों या जीवन हो, वे सब एक ही प्राथमिक बल के परिणाम हैं, जिसे हम प्राण कहते हैं।”
आकाश और प्राण की यह जोड़ी बड़ी रम्य है। प्राण ऊर्जा ही गतिशील होकर आकाश में सृष्टि रचती है। यहां आकाश का अर्थ ऊपर नहीं है। चक्रीय गतिशीलता के पहले सृष्टि का आदि तत्व आकाश निष्क्रिय है। प्राण में स्पंदन हुआ, गतिशील हुआ, उसकी ऊर्जा के कारण ही सूक्ष्म से स्थूल का विकास हुआ। पृथ्वी आदि अस्तित्व में आए। भारतीय अनुभूति में एक निर्धारित समय के बाद यही गतिविधि उल्टी दिशा में चलती है। सृष्टि के चरम विकास के बाद प्रलय। सर्जन से विसर्जन। विवेकानंद ने कहा है पदार्थों को मूल आकार देने की प्रक्रिया शुरू होती है। तब सब कुछ सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अपने मूल आकाश और प्राण में समाहित हो जाते हैं। सारे पदार्थ आकाश में और सारी ऊर्जा प्राण में। प्रश्न है कि अंतरिक्ष में निर्वात है? शून्य है? स्वामी जी ने कहा है-“क्या आपके और सूर्य के बीच कोई अंतर है? यह लगातार व्यापक पदार्थ है, इसका एक हिस्सा सूर्य है और दूसरा हिस्सा आप।
क्या आप बहती नदी का एक हिस्सा दूसरे से अलग कर सकते हैं?” (रामकृष्ण मिशन कलकत्ता के स्वामी सुनिर्मलानंद के आलेख में उद्धृत) छांदोग्य उपनिषद् में प्रीतिकर कथा है-“देव और असुर संघर्षरत थे। देवों ने ‘उद्गीथ’ (ओम्) का अनुष्ठान किया। नासिका में प्राण के रूप में प्रवाहित ओम् की उपासना की। असुरों ने उसे पापविद्ध कर दिया। पापविद्ध होने के कारण ही वह सुगंध और दुर्गंध दोनों को सूंघता है। देवों ने वाणी रूप प्राण की उपासना की, असुरों ने उसे भी पापविद्ध कर दिया। इसीलिए वाणी सत्य और असत्य दोनो बोलती है। देवों ने श्रोत्र (सुनने वाला प्राण) प्राण की उपासना की। असुरों ने उसे भी पापविद्ध कर दिया। सो हमें प्रिय अप्रिय दोनों को सुनता है। देवों ने मन-प्राण की उपासना की, असुरों ने फिर वही किया। मन अच्छे बुरे दोनो संकल्प करता है, तब देवों ने मुख्य प्राण की उपासना की-एवायं मुख्य प्राण स्त। असुरगण ध्वस्त हो गए।”
उपनिषद् का ऋषि इतिहास बताता है-“अंगिरा ने भी मुख्य प्राण की उपासना की, इसलिए मुख्य प्राण को आंगिरस कहते हैं। बृहस्पति ने भी मुख्य प्राण की उपासना की, इसे बृहस्पति भी कहते हैं। वाक् वृहती है, प्राण उसका पति है। दल्भ के पुत्र बक ने प्राणोपासना की। वह नैमिषारण्य के यज्ञ का मुख्य उद्गाता हुआ।” भारत में एक दीर्घ परंपरा है-प्राण उपासना की। विवेकानंद ने भी प्राणोपासना की। उन्हें विश्वात्मा की अनुभूति हुई। उपासना का अर्थ पूजा नहीं ‘उप-आसन’ है। यहां प्राणोपासना का अर्थ प्राण की आत्मीय निकटता है। विवेकानंद ने अनुभूति में प्राण ऊर्जा का साक्षात्कार किया था। ‘प्राण और आकाश’ ये दो आधारभूत तत्व हैं। स्वामीजी ने कहा है कि कुछ तो है, जो इनसे भी परे है। ये दोनों एक तीसरी सत्ता महत् चेतना में समाहित हो जाते हैं। यह ‘कास्मिक माइंड’ आकाश और प्राण का सृजन नहीं करता, स्वयं को उसमें परिवर्तित कर लेता है।” अर्थात ‘वह’ महत चेतन प्राण आकाश से बने विश्व के प्रत्येक हिस्से में उपस्थित रहता है।
केनोपनिषद् (1.8) में प्राण संबंधी प्रश्न पूछा गया है। ऋषि का उत्तर है “यत् प्राणेन न प्राणति येन प्राणः प्रणीयते-जो प्राण के द्वारा स्पंदित-सक्रिय नहीं होता, बल्कि जिससे प्राण ही सक्रिय होता है, वही परम सत्ता है।” प्राण का स्पंदन एक बात है, इस स्पंदन को सक्रिय करने वाला भी कोई होना चाहिए, फिर प्राण के स्पंदन से आकाश तत्व से आगे का विकास करने की प्रेरक शक्ति भी। स्वामीजी को इसकी अनुभूति थी, लेकिन वे इसकी वैज्ञानिक सिद्धि भी चाहते थे। स्वामी जी इस संदर्भ में निकोलस टैक्सला के संपर्क में थे। टैक्सला इस संबंध में वैज्ञानिक प्रयोगों की ओर सक्रिय भी थे। स्वामी जी में वेदान्त की अनुभूति थी। अनुभूति हस्तांतरणीय नहीं होती। वे वेदांत को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाने का प्रयास कर रहे थे।स्वामीजी को गए 100 बरस से ज्यादा बीत चुके हैं। तबसे ब्रह्मांड विज्ञान ने काफी उन्नति की है। स्टीफेन हाकिंस के प्रयोगों और निष्कर्षों ने सारी दुनिया को चौंकाया है, लेकिन विज्ञान की तेज रफ्तार यात्रा में प्राचीन वैदिक अनुभूति और विवेकानंद का निष्कर्ष कहीं भी काटा नहीं जा सका।
[साभार -हृदयनारायण दीक्षित/https://www.swatantraawaz.com/headline/491.htm
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वेदान्त दर्शन
[रामकृष्ण परमहंस > "कल्पतरु की उत्सव लीला ",-लेखक कृष्ण बिहारी मिश्र। प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ ! ]
🔱🕊माँ काली तत्व और श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द की काली साधना🔱🕊
(কালী তত্ত্ব ও শ্রীরামকৃষ্ণ-বিবেকানন্দের কালী সাধনা)
श्री रामकृष्ण ने अपनी साधना से यह सिद्ध कर दिया कि मातृ साधना (शक्ति साधना या अन्नपूर्णा साधना) के पंच 'म' कार या स्त्री-ग्रहण विराचार तंत्र साधना का आवश्यक अंग नहीं है। संयम रहित साधक अपने दुर्बल स्वभाव के वशीभूत होकर उस प्रकार का आचरण किया करता है। तंत्रके निम्नाधिकारी साधकों द्वारा इस प्रकार किये जाने पर भी तंत्र ने उसे अभयदान किया है तथा पुनः पुनः अभ्यास के फलस्वरूप वह व्यक्ति भी समय आने पर दिव्यभाव में प्रतिष्ठित होगा ऐसा आश्वासन से तंत्रशास्त्र की करुणा प्रकट होती है। इसलिए साधकों के संयम तथा समस्त भूतों में ईश्वर- दृष्टि के तारतम्य को ध्यान में रखकर ही तंत्रों में पशु, वीर तथा दिव्य भावों का उल्लेख किया गया है। ताकि साधक प्रथम भाव-पशुभाव की साधना से अपने शरीर भ्रम को दूर करे, द्वितीय भाव वीरभाव की साधना का अवलंबन कर मन के (M/F) होने के मिथ्या अहंकार को त्यागकर -ह्रदय में विद्यमान ईश्वर की उपासना में अग्रसर हो सके। स्त्री/रमणी मात्र के प्रति मातृज्ञान को सब प्रकार से अक्षुण्ण रखकर, बिन्दुमात्र कारण ग्रहण नहीं करने वाला वीरभाव का तंत्रसाधक द्वारा वीरभाव के साधनों का अनुष्ठान करने की बात श्री रामकृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी साधक के द्वारा हमने नहीं सुनी है। (१/२९६) श्री रामकृष्ण सूरा और सुन्दरी का साहचर्य किये बिना पूरी पवित्रता और तन्मयता के साथ साधना में इसीलिए अग्रसर हो सके थे, कि उनकी तंत्रसाधना का केंद्रबिंदु ही सन्तान भाव था।
सारदानन्द जी ने इसके बाद लिखा है - " श्रीरामकृष्ण ने आजन्म स्वप्न में भी स्त्री का ग्रहण नहीं किया। अतः आजन्म मातृभाव में आरूढ़ श्रीरामकृष्ण को वीरभाव की साधना में प्रवृत्त कराने के पीछे श्री जगदम्बा (माँ अन्नपूर्णा -भवतारिणी काली माता ) का कोई गूढ़ अभिप्राय विद्यमान था, यह स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है। .....और स्त्रीग्रहण किये बिना वीरभाव की साधना में इस प्रकार अल्प समय के अन्दर उनकी सफलता से स्पष्टतया यह प्रमाणित होता है कि पंच'म'कार या स्त्रीग्रहण तंत्र मार्ग का अनिवार्य अंग नहीं है।"
श्री रामकृष्ण की काली साधना का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि माँ काली के मंदिर में माँ काली के पुजारी की भूमिका से उनकी औपचारिक साधना का प्रारम्भ हुआ था। और अपने जीवन लीला के अंतिम दिनों तक वे उन्हीं माँ के सानिध्य में आनन्दपूर्वक वास किये थे। लेकिन उन्होंने एक बार भी किसी से यह नहीं कहा कि '' तुम मां काली की पूजा करो।''
श्री रामकृष्ण और माँ काली दोनों में से एक की कहानी दूसरे के बिना कभी पूरी नहीं हो सकती। क्योंकि श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा से परिचित भक्त लोग यह जानते हैं कि ठाकुर देव अक्सर अपनी ओर संकेत करते हुए कहते थे - " यह तो माँ ही हैं, जो इसके भीतर भक्त बनकर लीला कर रही हैं। "
मथुरबाबू को श्रीरामकृष्ण में शिव-शक्ति रूप का दर्शन
बात केवल इतनी सी नहीं है कि ठाकुर देव के शरीर का आश्रय लेकर माँ काली ने भक्त बनकर लीला की थी। बल्कि अपने किसी -किसी भक्त के लिए, जैसे मथुर बाबू के लिए स्वयं श्रीरामकृष्ण ने भी खुद को काली के रूप में प्रकट किया था।..... एक दिन श्रीरामकृष्ण देव अपने कमरे के बाहर वाले बरामदे में अपनी धुन में मग्न हो टहल रहे थे। उस समय मथुर बाबू कालीमन्दिर तथा पंचवटी के बीच जो 'बाबुओं की कोठी ' है उसके एक कमरे में मथुरबाबू अकेले बैठे हुए थे। वहाँ से बरामदे में टहलते हुए श्रीरामकृष्णदेव को वे अच्छीतरह से देख पा रहे थे। ...अचानक मथुरबाबू को कुछ ऐसा दिखा कि उन्होंने अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। आँखों को मलते हुए उन्होंने जब दुबारा देखा तो, उन्हें स्पष्ट रूप से श्रीरामकृष्ण देव की जगह एक घोर काली आकृति दिखाई दी जिसके एक हाथ में कटार और दूसरे में कटा हुआ सिर था। रोमांचित होकर आँखों को मीचकर जब दुबारा देखा तो -बदन पर भष्म लपेटे जटाजूटधारी शिव दिखाई दिए जिनकी हाथों में त्रिशूल भी था। बाह्य चेतना लौटने पर पुनः देखा तो पाया की श्री राकृष्ण देव ही बरामदे में टहल रहे थे। सामने से आते तो ऐसा दिखता की वे नहीं साक्षात् जगतजननी ही आ रही हैं , जब वे पीछे मुड़कर जाने लगते तो साक्षात् महादेव ही दिखते थे। (२/१६०)काली पूजा की रात को श्यामपुकुर में, श्रीरामकृष्ण ने स्वयं माँ काली के रूप में भक्तों की पूजा को स्वीकार किया था। फिर श्रीरामकृष्ण की महासमाधि के बाद जब माँ सारदा देवी रो रही थीं, तब उन्होंने कहा था - " माँ काली, तुम कहाँ चली गयीं ? " श्री रामकृष्ण ने अपने संतानों से कहा था - " तुमलोग इस बात को अच्छी तरह से समझ लो कि मैं कौन हूं और तुम कौन हो, और तुम्हारा मेरे साथ क्या रिश्ता है।"शक्ति साधना (तंत्र साधना-'Modus operandi of Energy' ऊर्जा की कार्यप्रणाली-energy cultivation) में सात आचार और तीन भाव का महत्व :
शाक्तमत के अनुसार साधनाक्षेत्र में तीन भावों तथा सात प्रकार के आचारों की विशिष्ट स्थिति होती है। पशुभाव, वीरभाव और दिव्यभाव - ये तो तीन भावों के संकेत हैं। वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणचार, वामाचार, सिद्धांताचार और कौलाचार ये पूर्वोल्लिखित भावत्रय से संबद्ध सात प्रकार के आचार (अर्थात संस्कार या प्रवृत्ति) हैं। इनमें दिव्यभाव के साधक का संबंध कौलाचार से है। (पहले चार जो है वह पशुभाव के साधक को लिए है। अगले दो वीरभाव साधको के लिए , तथा अंतिम दिव्यभाव वाले साधको के लिए ।)
सात आचारों या संस्कारों में पांचवां संस्कार है 'वामाचार' यानी असाधारण (Exceptional) या प्रतिकूल (hostile) संस्कार। वाम (बाएँ हाथ की तरफ चलना) का तात्पर्य लेफ्टिस्ट या 'वामपंथी' मानसिकता से है। यह एक ऐसी तान्त्रिक साधना है जो न केवल नास्तिक है बल्कि अतिवादी भी है। वामाचार का विलोम 'दक्षिणाचार' होता है। अच्छा और शुद्ध आचरण। सदाचार। अनुकूल आचार (अर्थात चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायक आचार) है 'दक्षिणाचार' है।
संस्कृत भाषा में वामाचार शब्द की उत्पत्ति वामा और आचार दो शब्दों के मेल से हुई है, लेकिन जो लोग इसमें वामा का तात्पर्य 'स्त्री ' समझते हैं, वे सही तत्वज्ञ नहीं हैं। स्वामीजी 28 दिसंबर, 1893 को लिखित एक पत्र में एक युवक को स्पष्ट रूप से समझाते हुए कहा था, "क्या तुम जानते हो कि वास्तविक शाक्त या शक्ति का पुजारी (Shakti-worshipper) कौन है ? शाक्त होने का अर्थ शराब, भंग का (पंचमकार का) सेवन नहीं। जो यह जानता है कि जगत में सर्व-व्यापक महाशक्ति ईश्वर ही है, (अर्थात ईश्वर ही जगत बन गया है) और जो जगत की समस्त स्त्रियों को इसी शक्ति की अभिव्यक्ति समझता है, वह शक्ति का पुजारी है, वही शाक्त है ! " (বাবাজি শাক্ত শব্দের অর্থ জান? শাক্ত মানে মদ ভাং নয়, শাক্ত মানে যিনি ঈশ্বরকে সমস্ত জগতে বিরাজিত মহাশক্তি বলে জানেন এবং সমগ্র স্ত্রীজাতিতে সেই মহাশক্তির বিকাশ দেখেন।)
वाम मार्ग की साधना
तांत्रिक साधना में जो अन्तिम तीन आचार हैं - वामाचार, सिद्धाचार और कौलाचार उन्हीं को वाम मार्ग की साधना कहते हैं। साधना की दो मुख्य धाराएँ हैं - प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग। प्रवृत्ति मार्ग (दक्षिण मार्ग) सामान्य जनों के लिए उपयोगी है। किन्तु निवृत्ति मार्ग धारा के बिपरीत चलने वालों का आन्दोलन है। लेकिन महानिर्वाण तंत्र के अनुसार वामाचार कलियुग के शिश्नोदरपरायण-लोगों (जो पेट और शिश्न की बुभुक्षा तृप्ति की ही सब कुछ मानता हो- कामी और पेटू) के लिए अर्थात इन्द्रिय विषयों (रूप,रस, शब्द,गंध और स्पर्श) भोगों में घोर रूप से आसक्त-लालची लोगों के लिए नहीं है। क्योंकि इस आचार (संस्कार) की बुनियाद गहरे निवृत्ति बोध (भोग त्याग) में है, यथार्थ वाम मार्गी साधक साधना के नाम पर भोग-वृत्ति को अपना अभीष्ट नहीं बनाते। किन्तु वाम मार्गी साधक प्रवृत्ति से होकर - निवृत्ति अस्तु महाफला में अवस्थित होना इस मार्ग की विशेषता समझते हैं। परंतु सभी मतों और मार्गों के प्रति सहानुभूति रखने वाले तथा उदार दृष्टि वाले भगवान रामकृष्ण देव ने बार -बार इस वामाचार मार्ग पर चलने से सावधान किया है - क्योंकि कलियुग में यह पथ इतना दुर्गम है - कि इस मार्ग पर चलते हुए गिर पड़ना लगभग अनिवार्य है। यदि यह खतरा नहीं होता तो ठाकुरदेव ने इस पर चलने से मना नहीं किया होता।
शक्ति साधना में अधिकारीभेद के अनुसार तीन प्रकार के भाव से साधना की बात कही गयी है - पशुभाव, वीरभाव और दिव्यभाव आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है।पशु-भाव को व्यंग्यात्मक या निंदनीय नहीं समझना चाहिए। तंत्र के अनुसार जो कोई भी मनुष्य अष्ट-पाशों में बँधा हुआ है वह -पशु है। इस दृष्टि सभी सामान्य लोग पशु हैं। जो लोग साधारण अधिकारी हैं, उनके लिए जिस प्रवृत्ति मार्ग को उपयुक्त बताया गया है, आत्मसंयम के बिना उस पथ पर चलना भी आज के युग के भोगपरायण मनुष्यों के असम्भव है।
विरभाव शक्ति साधना का उच्चतम स्तर है। शव-साधना, पंच 'म'कार युक्त साधना मुख्य रूप से वीर साधना ही है। वीर -साधक के लिए Hero शब्द का प्रयोग भी एक अंग्रेजी परिवर्णी (acronym) शब्द की तरह संकेतात्मक (symbolic) है। कुलार्णव तंत्र (17 वें पटल) के अनुसार Hero या वीर उसे कहा जाता है जिसके मन से काम क्रोध आदि विशेष रूप से दूर हो चुके हों, और जिसके मन से तमो और रजोगुण दूर हो कर सत्त्वगुण प्रबल हो गए हों। वीर भाव की साधना के अंत में जब वीर साधक का द्वैत भाव समाप्त हो जाता है, तब वे दिव्य भाव के साधक में रूपान्तरित हो जाते हैं।
काली पूजा की विधि
काली की पूजा की जो विधि इनदिनों अपनाई जाती है और काली की जिस मूर्ति की पूजा की जाती है, उसके बारे में कहा जाता है कि इसकी शुरुआत चैतन्यमहप्रभु के समकालीन प्रसिद्द तंत्रसाधक कृष्णानंद आगमवागीश ने की थी। लेकिन यह बात निश्चित है कि काली की पूजा उससे पहले भी होती थी। क्योंकि कम से कम एक हजार साल पहले, आज के कलकत्ता के कालीघाट में, उस समय के कालीक्षेत्र में, मेघवर्ण उलूलायित कुंतला, लंबी जीभ, दिगवसना वराभायकरा देवी कालिका की पूजा की जाती थी। हालाँकि बंगाल में शक्ति साधना की परंपरा बहुत पुरानी है, लेकिन मुख्य रूप से पंद्रहवीं शताब्दी के बाद से इस साधना ने एक अलग दर्शन का रूप ले लिया और लोकप्रिय हो गई। उससे पहले शक्ति-साधना एक विशेष गूढ़ या रहस्यमय साधना के रूप में प्रचलित थी, जिसके लिए इस साधना के साथ कई विकृत गतिविधियाँ जुड़ी हुई थीं। हालाँकि, यह ध्यान देने योग्य बात है कि हिंदू धर्म में ईश्वर के साकार और निराकार भाव परस्पर विरोधाभासी नहीं हैं।
सर्वशक्तिमयी देवी का उल्लेख वेद उपनिषद काल में भी किया गया है। केनोपनिषद - इंद्र और उमा हैमवती की कहानी में हम देखते हैं कि देवी उमा हैमवती सभी देवताओं को परास्त कर रही हैं। वैदिक साहित्य में 'काली' नाम सबसे पहले हमें मुण्डक उपनिषद में मिलता है। किन्तु वहाँ 'काली' किसी देवी का नाम नहीं है - यज्ञाग्नि की सात जिह्वाओं में से एक जिह्वा को काली कराली कहा गया है । लपलपाती हुई जिह्वा, रक्तनयना, भयंकरी शत्रुविनाशिनी देवी काली का प्रथम उल्लेख महाभारत में ही पाया जाता है। फिर मार्कण्डेय पुराण के अंतर्गत दुर्गाशप्तशती (चण्डी) में कराल वदना काली या देवी कालिका का उल्लेख हुआ है। वहां के बाद कालिका पुराण, देवी भागवत, तंत्र सार, महानिर्वाण तंत्र, आदि माँ काली का उल्लेख हुआ है।
श्री रामकृष्ण की शक्ति साधना
यद्यपि भगवान श्री रामकृष्ण स्वयं अवतार वरिष्ठ थ, फिर भी उन्हें माँ काली की इच्छा से शक्ति साधना करनी पड़ी थी। उनकी औपचारिक साधना दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में शक्ति साधना से शुरू हुई। माँ काली को जानने की उनकी अद्भुत साधना ने आध्यात्मिक साधना की एक नई धारा को क्रमशः विकसित किया है, उसका गवाह हमारा समकालीन इतिहास है। यद्यपि उनकी साधना केवल उपास्य और उपासक तक ही सीमित नहीं थी, किन्तु इस बात को समझने में जगत को लम्बे समय तक प्रतीक्षा करना पड़ा है। हम जानते हैं कि उन्होंने केवल भाववश और ईश्वर (सत्य) को जानने की व्याकुलता से अनुप्रेरित होकर अपनी साधना शुरू की थी, और उन्हें जगतजननी माँ काली के दर्शन प्राप्त हुए थे। उसके बाद से ही वे अपने को माँ जगदम्बा की सन्तान समझते थे, अपना सारा भार माँ को सौंप दिया था, उनका सबकुछ माँ की इच्छा पर निर्भर था। वे खायेंगे या नहीं, सोयेंगे या नहीं , विभिन्न धर्मों की साधना करेंगे या नहीं - सबकुछ उनकी चिन्मयी माँ काली ही जानती थीं !
वस्तुतः विभिन्न मतों की साधना करने के लिए उनको न केवल माँ काली से अनुमति प्राप्त थी, बल्कि कई बार तो वे स्वयं उन्हें पहले ही बता देती थीं कि अब उन्हें कौन सी साधना करनी है, और इस विषय में कौन उनका मार्गदर्शन करेगा। इसी तरह उन्होंने माँ काली के आदेशानुसार ही तंत्र शास्त्र के नियमानुसार योग्य गुरु के निर्देशन में तंत्र मत की विभिन्न साधनायें आरम्भ की थीं। किन्तु उनके अद्भुत साधना पर चर्चा करने से पहले, आइये श्रीरामकृष्ण के साथ माँ काली का सम्बन्ध पहले से ही था इसके बारे में कुछ तथ्यों को देखा जाय -
1849 ई. में रानी रासमणि श्री काशीधाम की यात्रा के लिए तैयारी करने लगीं। निर्धारित दिवस की रात्रि में माँ काली ने रानी रासमणि को स्वप्न में आदेश दिया कि उनके दर्शन के लिए काशी जाने की आवश्यकता नहीं है, गंगा नदी के तात पर किसी मनोरम स्थान में मेरी मूर्ति प्रतिष्ठित कर तुम मेरे नित्य पूजन तथा भोग आदि की व्यवस्था करो।
1850 ई. में रामकुमारजी ने झामापुकुर, कोलकाता में एक संस्कृत टोल स्थापित किया था।
1853 में 17 वर्षीय गदाधर , अपने दादा रामकुमार के पास झामापुकुर, कोलकाता में रहने के लिए आये।
1855 ई. में रामकुमार का टोल (संस्कृत पाठशाला) इतना प्रसिद्ध हो चुका था, कि जब दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में दैनिक पूजा और अन्नभोग चढ़ाने की समस्या का कोई शास्त्रीय समाधान ढूँढना था , तब रानी रासमणि ने इसके लिए उनकी ही सलाह माँगी गयी थी। उनके द्वारा जो व्यवस्था-पत्र दिया गया था, उसके अनुसार " प्राण -प्रतिष्ठा के पूर्व रानी यदि किसी ब्राह्मण के लिए उस सम्पत्ति का दान करदे, और वह ब्राह्मण उस मंदिर में अन्नभोग लगाने की व्यवस्था करे तो उच्चवर्ण के लोग उस देवालय में प्रसाद लेने पर किसी प्रकार शास्त्रमर्यादा की हानि नहीं होगी।" और इस व्यवस्था का खंडन करना किसी के लिए सम्भव नहीं था।
इसके तुरन्त बाद वहाँ माँ काली के पुजारी पद को स्वीकार करने से सम्बन्धित अनुरोध प्राप्त हुआ। ...क्योंकि श्रीरामकृष्ण देव की बहन श्रीमती हेमांगनी देवी मुखोपाध्याय ? का मकान कामारपुकुर के नजदीक सिहड़ ग्राम में था। [तिलैया में एक कैम्प के बाद , गया में नवनीदा दादा मेरे और प्रमोद दा के साथ जब श्राद्ध करने गए थे -तब इनका नाम लेकर भी उन्होंने श्राद्ध किया था !] उस गाँव के महेशचन्द्र नामक व्यक्ति रानी के दफ्तर में नौकरी करते थे। वे जानते थे कि रामकुमारजी ने स्वेच्छापूर्वक शक्ति मंत्र ग्रहण किया है। क्या वे केवट जाति में उत्पन्न रानी के देवालय में पुजारी का कार्य करना स्वीकार करेंगे ? पद की खोज में उनकी दृष्टि रामकुमारजी की ओर गयी। रानी के अनुरोधपत्र लेकर महेशजी स्वयं रामकुमारजी के पास पहुँचे।
श्रीजगदम्बा की इच्छा से ही संसार के छोटे-बड़े सारे कार्य सम्पन्न होते हैं, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वंशानुक्रम से एक श्री रामचन्द्र के पुजारी के लिए, उस युग के हिसाब से काफी उदार होने के बावजूद इस कार्य को स्वीकार करना आसान नहीं रहा होगा। ज्ञात होता है कि भक्त गदाधर मूर्ति के प्राणप्रतिष्ठा होने वाले दिन पूजनोत्स्व में प्रसन्नता से शामिल हुए थे, किन्तु बाजार से 'मुड़मुड़ी' (भूँजा हुआ चूड़ा) खरीदकर ग्रहण किया था। फिर धीरे धीरे ठाकुर को वह जगह अच्छी लगने लगी। और केवट का अन्न ग्रहण करने के प्रति तीव्र संकोच कब खत्म हुआ, यह स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है। मन्दिर में प्राण-प्रतिष्ठा के तीन महीने बाद एक दिन उन्होंने माँ के सजावट कर्ता पुजारी के कार्य को स्वीकार कर लिया। इसी बीच केनराम भट्टाचार्य से शक्ति मंत्र की दीक्षा लेकर कुछ दिनों तक माँ की पूजा भी किये थे। फिर वे राधा-गोविंद के पुजारी बन गये।
1857 ई. में रामकुमार का देहत्याग हो गया। उसके पहले ही श्री रामकृष्ण देव माँ काली के पुजारी बन चुके थे। इस प्रकार जगदीश्वरी जगन्माता काली/या बनारस की माँ अन्नपूर्णा ने एक नई तंत्र-उपासना की लीला प्रारम्भ की। भैरवी ब्राह्मणी के निर्देशन में वीरभाव के सभी प्रकार की तंत्रसाधना को सफलता पूर्वक पूरा करके, श्रीरामकृष्ण दिव्यभाव में आरूढ़ हो चुके थे। 'श्री रामकृष्ण लीला प्रसंग' के लेखक ने वीरभाव की साधना के अन्त्तिम चरण के कठिन साधना का बहुत संक्षेप में वर्णन किया है। लेकिन साधना का वह सोपान कितनी कठिन है, उसका भैरवी ब्राह्मणी के इन शब्दों से स्पष्ट समझ में आता है, "बाबा, साक्षात् जगतजननी ज्ञान से इनकी गोद में बैठकर तन्मय हो जप करो। ... जब मुझे बाह्य चेतना आयी, तब ब्राह्मणी बोली, "बाबा, क्रिया पूर्ण हो चुकी है ; दूसरे लोग इस अवस्था प्रयत्न-पूर्वक धैर्य धारण कर कुछ देर तक केवल जप करने के बाद ही विरत हो जाते हैं, तुम एकदम शरीर की सुध भूलकर सम्धिस्थ हो गए। " (लीलाप्रसंग १/२९३) .... जिस दिन सुरत-क्रिया में मग्न नरनारी के सम्भोगानन्द को देखकर, उसे शिव-शक्ति का लीला विलास समझता हुआ मैं मुग्ध तथा समाधिस्थ हो गया था , उस दिन मेरी बाह्य चेतना के उदय होने पर ब्राह्मणी ने कहा था - " तेरी पूजा पूरी हुई बाबा ! अब तुम आनन्दासन में सिद्ध होकर दिव्यभाव में प्रतिष्ठित हो चुके हो, यही इस मत का (वीरभाव का) अन्तिम साधन है ! बाबा (बेटे) ,दिव्यभाव ही अब तुम्हारा सहज भाव (instinct) है, माँ काली तुम्हें इसी भाव का राजा (त्यागियों का बादशाह) बनाना चाहती थीं ! और माँ की आज्ञा से 'मास्टर' भैरवी को सवा रुपये की दक्षिणा मैंने दिलवायी थी। अनुष्ठान को पूरा करने के लिए विधिवत 'कुलागार' पूजन भी कालीमन्दिर के सामने वाले मण्डप में किया, जिसे मेरी माँ (काली) बिल्कुल सामने से पुलकित नेत्रों से देख रही थी। मगर तुझे सच कहता हूँ मास्टर - उस साधनाकाल में मैंने एक बूँद भी 'कारण' मैंने ग्रहण नहीं किया। जिस प्रकार तंत्रोक्त साधना करते समय स्त्रीजाति के प्रति मेरा मातृभाव अक्षुण्ण था, उसी प्रकार -'कारण ' (तांत्रिक क्रियाओं में व्यवहृत मद्य) के केवल नाम या गन्ध से ही जगत्कारण की उपलब्धि कर मैं विह्वल हो जाता था। तथा 'योनि' शब्द को सुनते ही 'जगत-योनि' का उद्दीपन होने के कारण मैं महाभाव में प्रवेश कर जाता था। बड़ी विचित्र दशा थी रे मास्टर ! पर तुझसे अपने मन की बात बताऊँ , ब्राह्मणी जिस दिव्यभाव की बात कहती थी, उसका असली स्वाद मुझे विजय (ब्रह्मसमाज के महात्मा विजय कृष्ण गोस्वामी (वैष्णव) के साथ माँ के आंगन में कीर्तन करते हुए नाचने में ही मिलता है। मेरा मातृभाव है मास्टर ! राधा भाव ही रुचता है ! रस (आनन्द) का मार्ग ही अच्छा लगता है। सहज का रस ही कुछ और है रे मास्टर ! और तुझसे सच कहूं, कभी कभी तो अपनी माँ पर बड़ी खीज होती थी कि अपने बालक को भावमुखी बनाकर किन विकट रास्तों में दौड़ा कर माया जाल में फँसा रही है ? पर उसकी माया वही जाने ! "
स्वामी विवेकानन्द की काली साधना
स्वामी विवेकानन्द अपने प्रारंभिक जीवन में जब नरेन्द्रनाथ थे, उस समय ब्रह्मसमाज से प्रभावित होकर मूर्ति पूजा नहीं करना चाहते थे। लेकिन जब पिता की मृत्यु के बाद उनको गंभीर आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा, वे अपनी माँ और भाई -बहनों को भूखा नहीं देख सके, तो एक दिन दक्षिणेश्वर पहुँचकर -हठपूर्वक ठाकुर के चरण पकड़कर कहा, " माँ- भाइयों का कष्ट दूर करने के लिए आपको माँ जगदम्बा से प्रार्थना करनी ही होगी। श्रीरामकृष्ण ने कहा - " तूँ तो माँ को मानता नहीं, इसलिए माँ नहीं सुनतीं। " रामकृष्ण ने नरेंद्र को माँ काली के बारे में भी बताया कि वे पूर्ण ज्ञान हैं, ब्रम्हांड की सर्वोच्च शक्ति हैं और अपनी इच्छा मात्र से उन्होंने इस जगत को जन्म दिया है। वे अपने भक्तों को सब कुछ दे सकती हैं, सबकुछ देना ही उनकी शक्ति है। अच्छा, आज मंगलवार है, मैं कहता हूँ, आज रात को काली मन्दिर में जाकर माँ को प्रणाम कर तू जो कुछ माँगेगा, माँ तुझे वही देंगी।"" तब नरेंद्र ने अपने गुरु के शब्दों पर विश्वास किया और माँ काली के पास जाने और उनसे अपनी वित्तीय समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए प्रार्थना करने का फैसला किया। किन्तु जब उनको वहाँ माँ का साक्षात् दर्शन हुआ तो अपने अभाव की बात नहीं कह सके, कहने लगे - " माँ, मुझे भक्ति दो, विवेक दो , वैराग्य दो , ज्ञान दो, ; ऐसा वर दो जिससे मैं नित्य अबाध रूप से तुम्हारा दर्शन प्राप्त कर सकूँ। " तीन बार माँ के पास जाकर भी माँ से कुछ कह नहीं सके। तब श्रीरामकृष्ण ने ही कहा- ' अच्छा जा, मोटे अन्न-वस्त्र का अभाव नहीं रहेगा। ' आज उनको ईश्वर के मातृभाव तथा प्रतिमा में उनकी उपासना का सम्यक रहस्य उजागर हुआ और उनका आध्यात्मिक जीवन अधिकतर पूर्ण और व्यापक हो गया। श्री रामकृष्ण से नरेंद्र ने कहा मुझे माँ का गाना- श्यामा संगीत सिखा दीजिये। ठाकुर ने - 'माँ त्वं हि तारा ' यह गाना सिखा दिया।
मा त्वं हि तारा, तुमि त्रिगुणधरा परात्परा ।
आमि जानि गो ओ दीनदयामयी, तुमि दुर्गमेते दुःखहरा ।।
तुमि जले, तुमि स्थले, तुमि आद्यमूले गो मा ।
आछो सर्वघटे अक्षपुटे, साकार आकार निराकारा ।।
तुमि संध्या, तुमि गायत्री, तुमि जगदधात्री गो मा ।
अकूलेर त्राणकत्री सदाशिवेर मनोहरा ।।
भावानुवाद (भैरवी-एकताल )
माँ तू ही तारा, तू त्रिगुणधरा परात्परा । मैं जानूँ तू दीनदयामयी दुरूह दुःखहरा ।।
जल में तू स्थल में तू सब के मूल में तू ही माँ ।
घट-घट में, आँखों की पुतली में - तू ही विराजे, साकार आकार निराकारा ।।
तू ही संध्या तू गायत्री तू ही जगदधात्री है माँ । भवसागर की पारकर्त्री सदाशिव की मनोहरा ।।
Lyrics Source:-http://vivek-jivan.blogspot.in/2012/03/8.html
17 जून 1900 को मेरी हेल को लिखे एक पत्र में स्वामीजी लिखते हैं, "Kali worship is my special fad" - काली-पूजा मेरी अपनी धुन (fad-प्रिय सिद्धान्त) है। तुमने कभी भी उसके विषय में मुझे प्रवचन करते या भारत में उसकी शिक्षा देते नहीं सुना होगा। मैं केवल उन्हीं चीजों की शिक्षा देता हूँ, जो विश्व-मानवता के लिए हितकर हैं। काली-पूजा किसी भी धर्म का अनिवार्य साधन नहीं है। धर्म के विषय में जितना कुछ भी जानने योग्य है, उपनिषद उसकी शिक्षा देते हैं। धर्म (=शिक्षा, 3H विकास के 5 अभ्यास) वह है जो धर्मग्रन्थों, उपदेष्टाओं अथवा किसी विशेष पैगम्बर या जाति-धर्मविशेष नेता पर निर्भर नहीं रहता, और जो हमें इस जीवन में या किसी अन्य जीवन में दूसरों पर आश्रित नहीं बनाता। इस दृष्टि से उपनिषदों का अद्वैतवाद ही एकमात्र धर्म है। तथापि, धर्मग्रंथों, पैगम्बरों, अनुष्ठानों आदि का अपना स्थान है। वे बहुतों की सहायता कर सकते हैं , जैसे कि काली-पूजा यदि 'secular work' (चरित्रवान मनुष्य बनने में या पढ़ाई-बिजनेस आदि करने) में मेरी सहायता करती है, तो उन सबका स्वागत है। " पर गुरु-भाव (जीवनमुक्त शिक्षक) होना दूसरी बात है। "It is the relation between the transmitter and the receiver of force — psychic power and knowledge." यह आध्यात्मिक शक्ति का संचार तथा आत्मज्ञान को सम्प्रेषित करने में समर्थ गुरु तथा उसे ग्रहण करने के लिए उपयुक्त शिष्य के बीच का सम्बन्ध है। [अतएव गुरु (CINC) -शिष्य (Dy C-IN-C) वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में 'Be and Make ' मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा का अपना महत्व है।] भगिनी निवेदिता को एक पत्र में स्वामी जी ने लिखा था - "श्रीरामकृष्ण जिसे 'काली' , 'काली' कहते थे उनके लीला संवरण से दो-तीन दिन पहले ,उन्हीं को मेरे शरीर में प्रविष्ट करा दिया है।" स्वामी विवेकानन्द की जीवनी के पाठक लोग जानते हैं कि उस दिन क्या हुआ था। ठाकुर ने नरेन्द्रनाथ को अपने सामने बैठाया और उनपर अपनी दृष्टि निबद्ध रखते हुए (विवेक-दर्शन करते हुए ?) वे समाधिस्थ होगये। नरेन्द्रनाथ को अनुभव हुआ कि श्रीरामकृष्ण के शरीर से तेज विद्युत् तरंग की भाँति एक शक्ति निकलकर उनके शरीर में प्रविष्ट हो रही है। धीरे धीरे उनका बाह्यज्ञान भी चला गया। बाद में ठाकुर ने कहा था - " आज तुझे सर्वस्व देकर मैं फकीर हो गया हूँ। इस शक्ति के द्वारा तू संसार का बहुत कार्य करेगा। कार्य समाप्त होने पर तू लौट जायेगा।" श्रीरामकृष्ण कहते थे, " महाशक्ति की सहायता से ही अवतार (ईश्वरकोटि ?) लीला करते हैं।" देहत्याग करने से दो-तीन दिन पहले ही श्रीरामकृष्ण ने महाशक्ति की सहायता से अपने भावों (विचारधारा-Be and Make) के संवाहक नरेन्द्रनाथ में शक्ति संचारित कर दी थी। [जमशेदपुर कैम्प में दादा ने -यह कहकर स्त्री-जाति के प्रति तुममें मातृ दृष्टि कैसे नहीं आएगी? are you a beast ? अंतिम दिन दोनों हाथों से आशीर्वाद दिया। ] उस शक्ति से शक्तिशाली होकर परवर्तीकाल में नरेंद्र ने भारत कल्याण के माध्यम से विश्वकल्याण के कार्य में एक प्रचण्ड हलचल मचा दी थी।]
विवेकानंद ने अपने देहांत से करीब 5 साल पहले 1898 ई. में बाबा अमरनाथ के दर्शन किए थे । यह उनका दूसरा कश्मीर प्रवास था। इससे पहले भी एक बार वह कश्मीर गए थे, लेकिन तब भ्रमण कुछ ख़ास ऐतिहासिक स्थलों तक ही सीमित रहा। लेकिन, दूसरी कश्मीर यात्रा ने उनके जीवन की दिशा और दशा बदल दी। इसने विवेकानंद को उस मुकाम पर पहुंचाया, जहां आत्मा और परमात्मा के बीच कोई भेद नहीं रहता।
सितंबर, 1899 में स्वामी विवेकानंद कश्मीर में अमरनाथ जी के दर्शन के बाद श्रीनगर के क्षीर भवानी मंदिर में पहुंचे। वहां उन्होंने मां काली का स्मरण कर समाधि लगा ली। उन्होंने नवरात्रि पर्व पर एक सप्ताह तक निर्जन वास में साधना की। वे प्रतिदिन एक बालिका में साक्षात काली मां के दर्शन कर उसकी पूजा करते थे।
श्री अमरनाथ और माता खीर भवानी की यात्राएँ बहुत अनोखी साबित हुईं और दोनों स्थानों पर उन्हें जो दर्शन हुए वे हमेशा उनके साथ रहे। इन स्थानों पर स्वामी विवेकानन्द का आध्यात्मिक अनुभव ऐसा था जिसे शब्दों में बयां करना बहुत मुश्किल है लेकिन स्वामी विवेकानन्द के वास्तविक शब्दों से ही महसूस किया जा सकता है। यह कश्मीर की घाटी में ईश्वर की उपस्थिति से आरोपित इन दोनों ऊर्जा केंद्रों के सार को भी दर्शाता है। ऐसी मान्यता है कि इस गुफा में शंकर ने पार्वती को अमरकथा सुनाई थी, जिसे कबूतरों के एक जोड़े ने सुन लिया था. गुफा में आज भी कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई देता है, जिन्हें अमर पक्षी माना जाता है. ऐसी मान्यता है कि जिन श्रद्धालुओं को कबूतरों का जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव-पार्वती दर्शन देते हैं और मोक्ष प्रदान करते हैं।
विवेकानंद ने अपने देहांत से करीब 5 साल पहले 1898 ई. में बाबा अमरनाथ के दर्शन किए थे । यह उनका दूसरा कश्मीर प्रवास था। इससे पहले भी एक बार वह कश्मीर गए थे, लेकिन तब भ्रमण कुछ ख़ास ऐतिहासिक स्थलों तक ही सीमित रहा। लेकिन, दूसरी कश्मीर यात्रा ने उनके जीवन की दिशा और दशा बदल दी। इसने विवेकानंद को उस मुकाम पर पहुंचाया, जहां आत्मा और परमात्मा के बीच कोई भेद नहीं रहता। इतिहासविदों के अनुसार स्वामी विवेकानंद जुलाई माह के अंतिम सप्ताह में अमरनाथ यात्रा के लिए रवाना हुए। इस दौरान श्रीनगर से अनंतनाग होते हुए पहलगाम पहुंचे। वहां से चंदनबाड़ी, शेषनाग और पंचतरणी होते हुए 2 अगस्त को अमरनाथ गुफा पहुंचे। वह वहां एकवस्त्र में गुफा में अकेले गए। बताया जाता है कि गुफा से निकलने के बाद वह एकदम नए रूप में थे। उन्होंने स्वयं सिस्टर निवेदिता को बताया कि उन्हें साक्षात शिव के दर्शन हुए हैं, और उन्होंने इच्छामृत्यु का वरदान दिया है। वापसी पर स्वामी नौका से अनंतनाग से श्रीनगर पहुंचे। स्वामी विवेकानंद ने श्रीनगर में रहते हुए चार साल की मुस्लिम नाव चलाने वाले की कन्या के चरण पखारे। वह वहां हाउसबोट में ठहरे थे। उनके अनुसार उसमें उन्हें देवी उमा का स्वरूप दिखता था। स्वामीजी का अध्यात्म किसी धर्म की परिधि में नहीं बंधा था बल्कि एक राष्ट्र की भावना पर केंद्रित था। यही वजह है कि कन्या पूजन के लिए उस छोटी कन्या को चुना। उसमें ही उन्हें देवी का स्वरूप दिखा।
एक दिन उन्होंने श्रद्धालु जनों के बीच प्रवचन में कहा, काली सृष्टि और विनाश, जीवन-मृत्यु, भले और बुरे, सुख और दुख से युक्त संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनका दूर से उनका वर्ण काला दिखता है, पर अंतरंग द्रष्टा के लिए वह वर्णहीन हैं। स्वामी जी ने कहा, अत्याचारियों-दुर्जनों का संहार करते समय गले में मुंडमाल पहने, शस्त्र धारण किए, जिह्वा से टपकते रुधिर को देखकर अनायास आभास होता है कि वह आतंक की प्रतिमूर्ति हैं, जबकि वह भक्तों के लिए सौम्य और कृपामयी हैं। उन्होंने कहा, ब्रह्म और काली, ईश्वर और उनकी क्रियाशक्ति-अग्नि और उसका दाहिका शक्ति के समान एक और अभेद हैं। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने मृत्यु से पूर्व कहा था, नरेन, माँ काली तेरा पग-पग पर साक्षात मार्गदर्शन करती रहेंगी। जीवन के अंतिम दिनों में स्वामी जी जिधर भी जाते, उन्हें मां काली की उपस्थिति का बोध होता। उन्होंने कालीः द मदर कविता भी लिखी, जिसका निराला जी ने हिंदी में अनुवाद किया।
' स्वामीजी की अँग्रेज़ी कविता, 'Kali the Mother' का अनुवाद है - "काली माता।"
छिप गये तारे गगन के, बादलों पर चढ़े बादल।
काँपकर गहरा अंधेरा, गरजते तूफान में, शत ;
लक्ष पागल प्राण छूटे, जल्द कारागार से--द्रुम,
जड़ समेत उखाड़कर, हर बला पथ की साफ़ करके ।
शोर से आ मिला सागर,शिखर लहरों के पलटते;
उठ रहे हैं कृष्ण नभ का,स्पर्श करने के लिए द्रुत।
किरण जैसे अमंगल की,हर तरफ से खोलती है ;
मृत्यु-छायाएँ सहस्रों,देहवाली घनी काली ।
आधिन्याधि बिखेग्ती, ऐ नाचती पागल हुलसकर,
आ, जननि, आ जननि, आ, आ! -नाम है आतंक तेरा,
मृत्यु-तेरे श्वास में है,चरण उठकर सर्वदा को।
विश्व एक मिटा रहा है, समय तू है, सर्वनाशिनि,
आ, जननि, आ, जननि, आ, आ!
साहसी, जो चाहता है-दुःख, मिल जाना मरण से।
नाश की गति नाचता है, माँ उसीके पास आयी ।
- स्वामी विवेकानन्द
The stars are blotted out, The clouds are covering clouds.
It is darkness vibrant, sonant.
In the roaring, whirling wind, Are the souls of a million lunatics
Just loosed from the prison-house, Wrenching trees by the roots,
Sweeping all from the path.
The sea has joined the fray, And swirled up mountain-waves,
To reach the pitchy sky. The flash of lurid light, Reveals on every side,
A thousand, thousand shades, Of Death begrimed and black-
Scattering plagues and sorrows, Dancing mad with joy,
Come, Mother, come!
For terror is Thy name, Death is in thy breath,
And every shaking step, Destoys a world for e'er.
Thou Time, the All-destroyer! Come, O Mother, come!
Who dares misery love, And hug the form of Death,
Dance in destruction's dance, To him the Mother comes.
- Swami Vivekananda
उन्होंने कलाकार और चित्रकार रणदा बाबू से उनकी कविता काली दी माँ के वर्णन के आधार पर माँ काली का चित्र बनाने को कहा था । रणदा बाबू पेंटिंग बनाना शुरू तो किया था, पर उसे पूरा नहीं कर सके।
निष्कर्ष
शक्ति साधना का मुख्य उद्देश्य साधक की आंतरिक शक्ति को जागृत करना है। और माँ जगदम्बा की पूजा करने से तात्पर्य है - दानव मानव (या घोर स्वार्थी पशुमानव ) की अवस्था से शिवमानव-(पूर्ण निःस्वार्थी '100 % Unselfish' देवमानव) में उन्नत होने का महान संघर्ष। इसीलिए उन्होंने अपनी एक बंगला कविता -"नाचुक ताहाते श्यामा" (नाचे उस पर श्यामा) में लिखा था,
पूजा तार संग्राम अपार,
सदा पराजय ताहा डराक तोमा।
चूर्ण होक स्वार्थ साध मान, हृदय श्मशान,
नाचुक ताहाते श्यामा
जिसका निराला जी ने हिंदी में अनुवाद करते हुए कहा है -
सदा घोर संग्राम छेड़ना उनकी पूजा के उपचार।
वीर ! डराये कभी न, आये पराजय सौ सौ बार।।
चूर-चूर हो स्वार्थ ,साध , सब मान, ह्रदय हो महाश्मशान।
नाचे उस पर श्यामा, लेकर घन रण में निज भीम कृपाण।।
পূজা তার সংগ্রাম অপার,
সদা পরাজয় তাহা না ডরাক তোমা।
চূর্ণ হোক স্বার্থ সাধ মান , হৃদয় শ্মশান,
নাচুক তাহাতে শ্যামা।
इस कविता का शीर्षक यही कहता है कि - स्त्री शक्ति का कोमल भाव सभी देखना चाहते हैं, परन्तु कोई उनको कठोर भाव में नहीं देखना चाहता है। सब उस उग्र रूप से दूर रहना चाहते हैं। लेकिन यदि साधक अपने जीवन में दुःख-दारिद्र, आधि -व्याधि, मृत्यु को सामने देखकर भय से विह्वल हो जाता है, तो कोमलता-प्रेम वास्तव में दुर्बलता और कापुरुषता है। उस कापुरुषता को दूर कर सदैव 'मृत्यु' का सामना करने को तैयार रहना -द्रष्टामन से यह देखना कि -'यदि मैं अविनाशी आत्मा हूँ, देखता हूँ कि अभी आसन्न ऐक्सिडेन्ट में/ मरता कौन है ? " दुर्गम परिस्थितियों में भी निरन्तर साक्षी भाव स्थित रहना ही वीरत्व और मनुष्यत्व का उन्मेष होना है। और इस वीरभाव के साधकों के श्मशान बन चुके हृदय में ही 'माँ श्यामा का नृत्य' होता है।
मृत्यु -स्वरूपे माँ ! है तू ही सत्यस्वरूपा सत्यधार।
काली ! सुख-वनमाली तेरी माया -छाया का संसार।।
अये कालिके ! माँ करालिके ! शीघ्र मर्म का कर उच्छेद।
इस शरीर पर प्रेम भाव, यह सुख-सपना माया कर भेद।।
तुझे मुण्डमाला पहनाते, फिर भय खाते तकते लोग।
जागो वीर ! सदा ही सिर पर काट रहा है चक्कर काल।
छोड़ो अपने सपने, भय क्यों ? काटो -काटो यह भ्र्मजाल।।
সত্য তুমি মৃত্যরূপা কালী, সুখবনমালী তোমার মায়ার ছায়া।
করালিনি, কর মর্মচ্ছেদ, হোক মায়াভেদ, সুখস্বপ্ন দেহে দয়া॥
মুণ্ডমালা পরায়ে তোমায়, ভয়ে ফিরে চায়, নাম দেয় দয়াময়ী।
सूर्य की प्रचण्ड किरणें ही जैसे सत्य हैं, स्निग्ध चंद्र-किरणे जैसे उसीकी छाया मात्र है, माँ काली का यह रूद्र भाव भी वैसे ही यथार्थ सत्यस्वरुप है, प्राण स्वरुप है और कोमलभाव (सुख वनमाली ) उस रूद्र भाव की छाया मात्र है। चन्द्रमा की चाँदनी उसकी अपनी नहीं सूर्य की है, लेकिन सबको कोमल भाव इतना प्रिय है कि सूर्य को छोड़कर सबको चन्द्र ही अच्छा लगता है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, '' पूजा तार संग्राम अपार " - माँ काली की पूजा अनन्त काल व्यापी संघर्ष है ! यानि मिथ्या अहं (M/F शरीर) समझने के विरुद्ध मन की आसक्ति के साथ , "सदा घोर संग्राम छेड़ना उनकी पूजा के उपचार।"
काली -तत्व के मूल में वेदांत का अद्वैतवाद (non-dualism) है, साथ ही साथ सांख्य योग का पुरुष-प्रकृति का सिद्धांत भी है, फिर अष्टांग योग (राजयोग) में वर्णित कुंडलिनी -योग सिद्धांत का सरलीकृत संस्करण के साथ और भक्ति-योग तत्व और कर्म-योग तत्व भी सन्निहित हैं। माँ भवतारिणी काली के इसी सगुन साकार रूप में जो अद्वैत -तत्व (ब्रह्म और शक्ति की अभिन्नता) प्रकट होती है उसी को विद्वान् लोग 'शाक्त-अद्वैत' के नाम से पुकारते हैं, किन्तु नाम में क्या रखा है !
व्यावहारिक साम्यभाव (practical equality) के वर्तमान युग के लिए भी, तांत्रिक काली पूजा में महासाम्य का संदेश प्राप्त होता है। तंत्र- मार्ग ने संन्यासी, गृहस्थ, स्त्री, पुरुष, अमीर, गरीब, सभी को माँ जगदम्बा की पूजा करने का समान अधिकार दिया है। जहाँ प्राचीन समाज उच्च वर्ण के पुरुषों को छोड़कर अन्य किसी को वेदान्त साधना का अधिकारी नहीं देता था, वहीँ यह काली-तत्व एक ऐसा सिद्धान्त है जो समाज के वैसे लोग, जिनका जन्म उच्च वर्ण में या हिन्दू धर्म में नहीं हुआ है, ऐसे लोगों की आध्यात्मिक क्षुधा को भी मिटा सकता है। जैसे ईसाई सम्प्रदाय में जन्मे हैंस एंटोनी की कालीभक्ति का साक्षी है कोलकाता का फिरंगी काली मन्दिर। [बऊबाजार फिरंगी काली मंदिर (ফিরিঙ্গী কালী বাড়ি) : कोलकाता सेंट्रल मेट्रो स्टेशन के निकट माँ फिरंगी काली मंदिर की पहचान एक पुर्तगीज से जुड़ी है और वह व्यक्ति ऐसा जिसने ईसाई धर्म से होने के बावजूद हिन्दू धर्म को गहनता से समझा…हम बात कर रहे हैं हेंसमेन एन्थनी फिरंगी की। इस मंदिर का नाम इनसे ही जुड़ा है जो मूल रूप से फरासडांगा यानी आज के चन्दननगर में रहते थे। कहते हैं कि इसी मंदिर प्रांगण में माँ काली की भक्ति में कई गीत उन्होंने रचे। माँ काली का ऐसा भक्त कि उसकी भक्ति रूढ़िवादी समाज को खटकने लगी और कवि ऐसा कि बड़े -बड़े कवियों पर को टक्कर दे डाली। 60 के दशक में भी इन पर फिल्म बनी जिसमें उत्तम कुमार ने मुख्य भूमिका निभाई थी। मंदिर के निकट एंथनी फिरंगी के मामा का घर था और वे यहां से आया – जाया करते थे। सौदामिनी देवी नामक हिंदू विधवा महिला से विवाह करने वाले फिरंगी मां काली से काफी प्रभावित थे और इस मंदिर में गाया भी करते थे। मंदिर की सामने की दीवार पर पट्टिका में लिखा है, “ओम श्री श्री सिद्धेश्वरी कालीमाता ठकुरानी / स्थापित बंगाब्द 905, फ़िरंगी काली मंदिर”।] एंटोनी फिरंगी की तरह ही मुसलमानों में भी माँ काली की साधना के प्रसिद्ध कवि थे 'काजी नजरूल इस्लाम', जिनका भावपूर्ण मातृ संगीत जाति और धर्म की परवाह किए बिना समस्त साधकों आध्यात्मिक क्षेत्र के उच्चतम शिखर तक ले जाता है।
आज हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब आध्यात्मिक शक्ति के अभाव में कमजोर, कायर और स्वार्थी समाज गरीब और पिछड़ों के ऊपर दबंग और सबल लोगों के अत्याचार को भी सिरोधार्य करने में लगा हुआ है। पराये क्या अपने लोगों की भी निःस्वार्थ सेवा -सहायता करने की मानसिकता लगभग पूरीतरह समाप्त होने पर है। इसके साथ साथ जाति के नाम पर झगड़ा, सार्वजनिक स्थानों पर माँ के नाम पर गाली,अपमानजनक भाषा का प्रयोगम, धर्म के नाम दंगा-जिहाद, धर्म के नामपर कर्मकाण्डी अनुष्ठान, थीम पूजा और कार्निवाल आदि चल रहे हैं। जबकि कालीपूजा के माध्यम से आत्मत्याग अर्थात स्वार्थ त्याग करना है, और मातृ शक्ति की पूजा के माध्यम से मातृ जाति को सम्मान और श्रद्धा अर्पित करने का, और माँ का पुत्र बनकर शक्तिवान होने होने का सुनहरा अवसर प्राप्त होता है। इस लेख के लेखक बेलुड़ मठ के स्वामी। ..... जी चर्चा समाप्त करने से पहले यह बताना चाहते हैं कि भगवान श्री रामकृष्ण की काली पूजा का वैशिष्ट्य इस बात में है कि उन्होंने अपनी साधना के द्वारा ब्रह्माण्ड की कुण्डलिनी / ब्रह्म-कुण्डलिनी को जागृत करके हमलोगों की साधना के मार्ग को सरल बना दिया है।
श्री रामकृष्ण के लिए माँ काली केवल एक मूर्ति नहीं थीं, वह सगुण ब्रह्म का चिन्मयी, स्नेहमयी माता स्वरूप थीं। सिर्फ ठाकुर ने ही कहा है - " उनको माँ कहकर पुकारने से तत्काल भक्ति मिलती है। " माँ काली का वह स्नेहमयी माता वाला स्वरूप मन को अद्भुत शांति से भर देता है। इसीलिए साधक कवि काजी नजरुल इस्लाम का यह भजन सार्थक हो जाता है -
श्मशाने जागीछे श्यामा, अन्तिमे सन्ताने निते कोले।
जननी शान्तिमयी बोसिया आछे, एई चितार आगुन ढेके स्नेह -आँचले।।
सन्ताने दिते कोल छाड़ी' सुख कैलाश, वराभय रुपे माँ श्मशाने करेन वास।
कि भय श्मशाने शान्तिते जेखाने, घुमाबी जननीर चरण-तले।।
ज्वलिया मरिली के संसार ज्वालाय, ताहारे डाकिचे माँ- कोले आय, कोले आय।
जीवने श्रान्त ओरे घूम पाड़ाइते तोरे, कोले तुले नेय माँ मरनेरी छेले।।
हे भारत ! मत मत भूलना की जन्म से ही तुम माता के लिए बलिस्वरूप रखे गए हो। काली तत्व की व्याख्या और श्री रामकृष्ण-विवेकानंद की काली साधना का विवरण, अब समाप्त हुआ - 🙏🙏 साभार कृतज्ञता ज्ञापन -पूज्य श्रीमत स्वामी प्रियव्रतानन्द जी महाराज! बेलूर मठ से..
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"आत्मेच्छा व्यवसीयतामं।" आत्मज्ञान की ईच्छा करो।
वैराग्य पूर्वक गृहत्याग नहीं करने पर कहीं भी शांति नहीं मिलती। यदि राग है तो बंधन में पडोगे और यदि राग न हो तो उसके लिए घर ही तपोवन है। राग के निर्मूलन के लिए गृहस्थ को आज्ञा दी - घर बसाओ, उसमें प्रचुर सामग्री रखो। क्यों? राग रहित होने के लिए। फिर भी मन अशांत रहता है। इसमें आप का दोष नहीं है क्योंकि यह माया है। जीवन का संचालन महामाया करती है। वह महामाया कल्याणी है, काम पोषणी है और सारे संसार को राग से विमुक्त करने वाली भी वही है। "सैषा प्रसन्नावरदां ऋणां विमुक्तये" ।अतः उस माया के द्वारा भुक्ति और मुक्ति दोनों प्राप्त करो। इसके लिए भगवती की आराधना करो। "आत्मेच्छा व्यवसीयतामं।" आत्मज्ञान की ईच्छा करो।
" निराहारौ यथा हारौ तन्मनस्को समाहितो। " आहार क्या है? केवल भोजन ही नहीं वरन् जो अंदर जाता है वह सब आहार है - मुख से, आँख से, कान से, त्वचा से आदि। इन सबको हम कामना से खाते हैं। अतः निराहार का अर्थ है - सर्वथा काम त्याग और सिमित काम का ग्रहण। निजगात्र - अर्थात् शरीर में निजत्व। इसे छोडो। अपने मन से शरीर से शरीर का सम्बंध छोडना बडा कठिन है।
आगमों में कहा -"भावनैकं बलिप्रियाम्", "भवानी भावना गम्या।" भगवती को भावना की बलि प्रिय है, वह भावना से ही प्राप्त होती है। मैं शरीर (M/F) हूँ, यह एक दृढ भावना है उसकी बलि देनी होगी और मैं चैतन्य मात्र हूँ इस आत्मभावना को स्थिर करना है।
इस संसार में तुम्हारा क्या है? तुम्हारी तो चेतना है, चेतना। उसे पकडो, घर को छोडो। घर विश्राम वृक्ष जैसा है। जैसे पक्षी का घर - आसमान। वह उसी में उत्पन्न होता है, धूमता है और वायु से ही विलीन हो जाता है। हाँ, टिकने के लिए एक वृक्ष ले लो। "विश्राम वृक्ष सदृशः खलु जीव लोकः"। जीव लोक अर्थात यह शरीर विश्राम वृक्ष सदृश है। ऐसा समझ कर कहीं भी/सिटी ऑफिस में ? टिक जाओ।
{साभार पूज्य श्रीश्री ईश्वरानन्द गिरि जी महाराज https://es-la.facebook.com/samvitsamvad/posts/981400442070838/ } $वीर भाव/परिच्छेद ~ 25,[( 9 मार्च 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
"अपने आत्म स्वरूप का साक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है। आत्म-स्वरूप निश्चय हो जाने के बाद गंभीर साधना प्रारम्भ होती है। इसके बाद तो एकाग्र केन्द्रित साधना शुरू हो जाती है।"
गंगा-जल (ब्रह्म-वारि) - "ये ब्रह्म द्रव है। ब्रह्म पिघल कर आ रहा है। संन्यासी के लिए ये निवृत्ति की धारा है। निवृत्ति के पूरक है, ये प्रवाह।" [(https://www.facebook.com/samvitsamvad)
उपासना केवल सगुण ब्रह्म की ही हो सकती है। क्योंकि जब तक द्वैत भाव है तभी तक उपासना सम्भव है। द्वित्व समाप्त हो जाने पर तो जीव स्वयं ब्रह्म हो जाता – अहम् ब्रह्मास्मि की भावना आ जाने पर व्यक्ति समस्त प्रकार की उपासना आदि से ऊपर उठ जाता है। द्वैत भाव का आधार सगुण तत्व है। तथा भगवत्शक्ति को आश्रय मानकर की गई उपासना शक्ति उपासना कहलाती है। यह सृष्टि ब्रह्मानन्द की विलास दशा है। इसमें ब्रह्म पद से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले पाँच तत्व हैं – चित्, सत्, तेज, बुद्धि और शक्ति। इनमें चित् सत्ता जगत् को दृश्यमान बनाती है। सत् सत्ता इस दृश्यमान जगत् के अस्तित्व का अनुभव कराती है। तेज सत्ता के द्वारा जगत् का ब्रह्म की ओर आकर्षण होता है। बुद्धि सत्ता ज्ञान प्रदान करके इस भेद को बताती है कि ब्रह्म सत् है और जगत् असत् अथवा मिथ्या है। और शक्ति सत्ता जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा लय कराती हुई जीव को बद्ध भी कराती है और मुक्त भी। उपासक इन्हीं पाँचों का अवलम्बन लेकर ब्रह्मसान्निध्य प्राप्त करता हुआ अन्त में ब्रह्मरूप को प्राप्त हो जाता है।
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साधनपञ्चकम् -
(स्वामिश्रीशङ्कराचार्यस्य )
(अनुवाद के साथ)
वेदो नित्यमधीयताम्,
तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां,
तेनेशस्य विधीयताम-
पचितिकाम्ये मतिस्त्यज्यताम्।
पापौघः परिधूयतां
भवसुखे दोषोsनुसंधीयतां,
आत्मेच्छा व्यवसीयतां
निज गृहात्तूर्णं विनिर्गम्यताम्॥१॥
*वेदों का नियमितअध्ययन करें, उनमें निर्देशित (कहे गए) कर्मों का पालन करें, उस परम प्रभु के विधानों (नियमों) का पालन करें, व्यर्थ के कर्मों में बुद्धि को न लगायें। समग्र पापों को जला दें, इस संसार के सुखों में छिपे हुए दुखों को देखें, आत्म-ज्ञान के लिए प्रयत्नशील रहें, अपने घर की आसक्ति को शीघ्र त्याग दें ॥१॥*
संगः सत्सु विधीयतां
भगवतो भक्ति: दृढाऽऽधीयतां,
शान्त्यादिः परिचीयतां
दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।
सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं
तत्पादुका सेव्यतां,
ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां
श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्॥२॥
*सज्जनों का साथ करें, प्रभु में भक्ति को दृढ़ करें, शांति आदि गुणों का सेवन करें, कठोर कर्मों का परित्याग करें, सत्य को जानने वाले विद्वानों की शरण लें, प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें, ब्रह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ के अर्थ पर विचार करें, उपनिषदों के महावाक्यों को सुनें ॥२॥*
वाक्यार्थश्च विचार्यतां
श्रुतिशिरःपक्षः समाश्रीयतां,
दुस्तर्कात् सुविरम्यतां
श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसंधीयताम्।
ब्रम्हास्मीति विभाव्यता-
महरहर्गर्वः परित्यज्यताम्
देहेऽहंमति रुझ्यतां
बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम्॥३॥
*वाक्यों के अर्थ पर विचार करें, श्रुति के प्रधान पक्ष का अनुसरण करें, कुतर्कों से दूर रहें, श्रुति पक्ष के तर्कों का विश्लेषण करें, मैं ब्रह्म हूँ ऐसा विचार करते हुए मैं रुपी अभिमान का त्याग करें, मैं शरीर (M/F) हूँ, इस भाव का त्याग करें, बुद्धिमानों से वाद-विवाद न करें ॥३॥*
क्षुद्व्याधिश्च चिकित्स्यतां
प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां,
स्वाद्वन्नं न तु याच्यतां
विधिवशात् प्राप्तेनसंतुष्यताम्।
शीतोष्णादि विषह्यतां
न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यतां औदासीन्यमभीप्स्यतां
जनकृपानैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम्॥४॥
*भूख को रोग समझते हुए प्रतिदिन भिक्षा रूपी औषधि का सेवन करें, स्वाद के लिए अन्न की याचना न करें, भाग्यवश जो भी प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहें। सर्दी-गर्मी आदि विषमताओं को सहन करें, व्यर्थ वाक्य न बोलें, निरपेक्षता की इच्छा करें, लोगों की कृपा और निष्ठुरता से दूर रहें ॥४॥*
एकान्ते सुखमास्यतां
परतरे चेतः समाधीयतां
पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां
जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम्।
प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां
चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिश्यतां
प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ
परब्रह्मात्मना स्थीयताम्॥५॥
*एकांत के सुख का सेवन करें, परब्रह्म में चित्त को लगायें, परब्रह्म की खोज करें, इस विश्व को उससे व्याप्त देखें, पूर्व कर्मों का नाश करें, मानसिक बल से भविष्य में आनेवाले कर्मों का आलिंगन करें, प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परब्रह्म में स्थित हो जाएँ ॥५॥*
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>>>कौन है ब्रह्मांड की मूल शक्ति ? दस महाविद्या (परा -विद्या :10 Aspects of Great Knowledge) की साधना उपासना कैसे की जाती है?
दशमहाविद्या (परा विद्या के 10 मातृ -रूप) : ( Maha Vidyas-10 Aspects of Great Knowledge) :
महाविद्या या परा विद्या के स्त्री रूप का विचार, शाक्त सम्प्रदाय के विकास के इतिहास में एक नया अध्याय बना जिसने इस विश्वास को पोषित किया कि सर्व शक्तिमान् परमात्मा एक नारी है। जैसे की दुर्गा और उसके 10 रूप।
प्रकृति /सृष्टि /प्रक्षेपण = 'माया' की सभी शक्तियों में सारे ब्रह्मांड के मूल में ये दस महाविद्या ही हैं। ये दस महाविद्या है जो प्रकृति के कण कण में समाहित हैं और इनकी साधना से मनुष्य इहलोक ही नहीं परलोक भी सुधार सकता है। ये दसों महाविद्याएं आदि शक्ति माता पार्वती की ही रूप मानी जाती हैं। दस का सबसे ज्यादा महत्व है। संसार में दस दिशाएं स्पष्ट हैं ही, इसी तरह 1 से 10 तक के बिना अंकों की गणना संभव नहीं है।
दश-महाविद्या परा विद्या के रूप में देवी दुर्गा के दस रूप हैं, जो अधिकांश तान्त्रिक साधकों द्वारा पूजे जाते हैं, परन्तु साधारण भक्तों को भी अचूक सिद्धि प्रदान करने वाली है। इन्हें दस महाविद्या के नाम से भी जाना जाता है।बस इसके लिए कठिन परिश्रम और एक योग्य गुरु की आवशकता हैं।
शाक्त भक्तों के अनुसार - माँ जगदम्बा के दस रूपों में एक ही सत्य 'परा विद्या ' या महाविद्या की दस लौकिक व्यक्तित्वों की व्याख्या हो जाती है। श्री देवीभागवत पुराण के अनुसार महाविद्याओं की उत्पत्ति भगवान शिव और उनकी पत्नी सती, जो कि पार्वती का पूर्वजन्म थीं, के बीच एक विवाद के कारण हुई। जब शिव और सती का विवाह हुआ तो सती के पिता दक्ष प्रजापति दोनों के विवाह से खुश नहीं थे। उन्होंने शिव का अपमान करने के उद्देश्य से एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने सभी देवी-देवताओं को आमन्त्रित किया, द्वेष वश उन्होंने अपने जामाता भगवान शंकर और अपनी पुत्री सती को निमन्त्रित नहीं किया। सती पिता के द्वार आयोजित यज्ञ में जाने की जिद करने लगीं जिसे शिव ने अनसुना कर दिया, जब तक कि सती ने स्वयं को एक भयानक रूप मे परिवर्तित (महाकाली का अवतार) कर लिया। उनके विकराल रूप को देखकर भगवान शिव भागने को उद्यत हुए। अपने पति को डरा हुआ जानकर माता सती उन्हें रोकने लगी। तो शिव जिस -जिस दिशा में गए उस-उस दिशा में माँ का विग्रह रोकता है। इस प्रकार दशो दिशाओं में माँ ने जो -जो रूप लिए थे, वो ही दस महाविद्या कहलाई। तत्पश्चात् देवी दस रूपों में विभाजित हो गयी जिनसे वह शिव के विरोध को हराकर यज्ञ में भाग लेने गयीं। वहाँ पहुँचने के बाद माता सती एवं उनके पिता के बीच विवाद हुआ।
प्रथम महाविद्या – काली माता (काली कुल)
काली देवी – हिन्दू धर्म की एक प्रमुख देवी हैं। वो असल में सुन्दरीरूप भगवती दुर्गा का काला और डरावना रूप हैं, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों को मारने के लिये हुई थी। उनको ख़ासतौर पर बंगाल और असम में पूजा जाता है। काली की व्युत्पत्ति काल अथवा समय से हुई है जो सबको ग्रास बना लेता है। माँ का यह विद्वंश रूप है जो नाश करने वाला है पर यह रूप सिर्फ उनके लिए है जो दानवीय प्रकति के है जिनमे कोई दयाभाव नहीं है। यह रूप बुराई को ख़तम करके अच्छाई को जीत दिलवाने वाला रूप है अत: माँ काली अच्छे मनुष्यों की शुभेछु है और पूजनीय है।…
द्वितीय महाविद्या – माँ तारा देवी
तांत्रिकों की प्रमुख देवी तारा। भव से तारने वाली होने के कारण माता को माँ तारा भी कहा जाता है। सबसे पहले महर्षि वशिष्ठ ने तारा की आराधना की थी। शत्रुओं का नाश करने वाली सौन्दर्य और रूप ऐश्वर्य की देवी.आर्थिक उन्नति और भोग दान और मोक्ष प्रदान करने वाली हैं। भगवती तारा के तीन स्वरूप हैं:- तारा , एकजटा और नील सरस्वती। तारापीठ में देवी सती के नेत्र गिरे थे, इसलिए इस स्थान को नयन तारा भी कहा जाता यह पीठ पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिला में स्थित है। इसलिए यह स्थान तारापीठ के नाम से विख्यात है। प्राचीन काल में महर्षि वशिष्ठ ने इस स्थान पर देवी तारा की उपासना करके सिद्धियां प्राप्त की थीं। चैत्र मास की नवमी तिथि और शुक्ल पक्ष के दिन तारा रूपी देवी की साधना करना तंत्र साधकों के लिए सर्वसिद्धिकारक माना गया है। जो भी साधक या भक्त माता की मन से प्रार्धना करता है उसकी कैसी भी मनोकामना हो वह तत्काल पूर्ण हो जाती हैं
तृतीया महाविद्या – त्रिपुर सुंदरी (श्री कुल)
त्रिपुरासुन्दरी दस महाविद्याओं (दस देवियों) में से एक हैं। इन्हें ‘महात्रिपुरसुन्दरी’, षोडशी, ललिता, लीलावती, लीलामती, ललिताम्बिका, लीलेशी, लीलेश्वरी, तथा राजराजेश्वरी भी कहते हैं।षोडशी माहेश्वरी शक्ति की विग्रह वाली शक्ति है। इनकी चार भुजा और तीन नेत्र हैं। वे दस महाविद्याओं में सबसे प्रमुख देवी हैं। त्रिपुरसुन्दरी के चार कर दर्शाए गए हैं। चारों हाथों में पाश, अंकुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं।
देवीभागवत में ये कहा गया है वर देने के लिए सदा-सर्वदा तत्पर भगवती मां का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से पूर्ण है। जो इनका आश्रय लेते है, उन्हें इनका आशीर्वाद प्राप्त होता है। इनकी महिमा अवर्णनीय है। संसार के समस्त तंत्र-मंत्र इनकी आराधना करते हैं। प्रसन्न होने पर ये भक्तों को अमूल्य निधियां प्रदान कर देती हैं। चार दिशाओं में चार और एक ऊपर की ओर मुख होने से इन्हें तंत्र शास्त्रों में ‘पंचवक्त्र’ अर्थात् पांच मुखों वाली कहा गया है।
आप सोलह कलाओं से परिपूर्ण हैं, इसलिए इनका नाम ‘षोडशी’ भी है। एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवजी से पूछा, ‘भगवन! आपके द्वारा वर्णित तंत्र शास्त्र की साधना से जीव के आधि-व्याधि, शोक संताप, दीनता-हीनता तो दूर हो जाएगी, किन्तु गर्भवास और मरण के असह्य दुख की निवृत्ति और मोक्ष पद की प्राप्ति का कोई सरल उपाय बताइये।’ तब पार्वती जी के अनुरोध पर भगवान शिव ने त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या साधना-प्रणाली को प्रकट किया।”भैरवयामल और शक्तिलहरी’’ में त्रिपुर सुन्दरी उपासना का विस्तृत वर्णन मिलता है । ऋषि दुर्वासा आपके परम आराधक थे। इनकी उपासना ‘‘श्री चक्र’’ में होती है।
आदिगुरू शंकरचार्य ने भी अपने ग्रन्थ सौन्दर्यलहरी में त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या की बड़ी सरस स्तुति की है। कहा जाता है- भगवती त्रिपुर सुन्दरी के आशीर्वाद से साधक को भोग और मोक्ष दोनों सहज उपलब्ध हो जाते हैं।।
चतृर्थ महाविद्या – भुवनेश्वरी
भुवनेश्वरी को आदिशक्ति और मूल प्रकृति भी कहा गया है। भुवनेश्वरी ही शताक्षी और शाकम्भरी नाम से प्रसिद्ध हुई। पुत्र प्राप्ती के लिए लोग इनकी आराधना करते हैं। आदि शक्ति भुवनेश्वरी मां का आशीर्वाद मिलने से धनप्राप्त होता है और संसार के सभी शक्ति स्वरूप महाबली उसका चरणस्पर्श करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं। भुवनेश्वरी अर्थात संसार भर के ऐश्वर्य की स्वामिनी। वैभव-पदार्थों के माध्यम से मिलने वाले सुख-साधनों को कहते हैं। ऐश्वर्य-ईश्वरीय गुण है- वह आंतरिक आनंद के रूप में उपलब्ध होता है। ऐश्वर्य की परिधि छोटी भी है और बड़ी भी। छोटा ऐश्वर्य छोटी-छोटी सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने पर उनके चरितार्थ होते समय सामयिक रूप से मिलता रहता है। यह स्वउपार्जित, सीमित आनंद देने वाला और सीमित समय तक रहने वाला ऐश्वर्य है। इसमें भी स्वल्प कालीन अनुभूति होती है और उसका रस कितना मधुर है यह अनुभव करने पर अधिक उपार्जन का उत्साह बढ़ता है।
भुवनेश्वरी इससे ऊँची स्थिति है। उसमें सृष्टि भर का ऐश्वर्य अपने अधिकार में आया प्रतीत होता है। स्वामी रामतीर्थ अपने को ‘राम बादशाह’ कहते थे। उनको विश्व का अधिपति होने की अनुभूति होती थी, फलतः उस स्तर का आनंद लेते थे, जो समस्त विश्व के अधिपति होने वाले को मिल सकता है। छोटे-छोटे पद पाने वाले-सीमित पदार्थों के स्वामी बनने वाले, जब अहंता को तृप्त करते और गौरवान्वित होते हैं तो समस्त विश्व का अधिपति होने की अनुभूति कितनी उत्साहवर्धक होती होगी, इसकी कल्पना भर से मन आनंद विभोर हो जाता है। राजा छोटे से राज्य के मालिक होते हैं, वे अपने को कितना श्रेयाधिकारी, सम्मानास्पद एवं सौभाग्यवान् अनुभव करते हैं, इसे सभी जानते हैं। छोटे-बडे़ राजपद पाने की प्रतिस्पर्धा इसीलिए रहती है कि अधिपत्य का अपना गौरव और आनन्द हैं।
यह वैभव का प्रसंग चल रहा है। यह मानवी एवं भौतिक है। ऐश्वर्य दैवी, आध्यात्मिक, भावनात्मक है। इसलिए उसके आनन्द की अनुभूति उसी अनुपात से अधिक होती है। भुवन भर की चेतनात्मक आनन्दानुभूति का आनन्द जिसमें भरा हो उसे भुवनेश्वरी कहते है। गायत्री की यह दिव्यधारा जिस पर अवतरित होती है, उसे निरन्तर यही लगता है कि उसे विश्व भर के ऐश्वर्य का अधिपति बनने का सौभाग्य मिल गया है। वैभव की तुलना में ऐश्वयर् का आनन्द असंख्य गुणा बड़ा है। ऐसी दशा में सांसारिक दृष्टि से सुसम्पन्न समझे जाने की तुलना में भुवनेश्वरी की भूमिका में पहुँचा हुआ साधक भी लगभग उसी स्तर की भाव संवेदनाओं से भरा रहता है, जैसा कि भुवनेश्वर भगवान को स्वयं अनुभव होता होगा।
भावना की दृष्टि से यह स्थिति परिपूर्ण आत्म/गौरव-आत्मश्रद्धा की अनुभूति है। वस्तु स्थिति की दृष्टि से इस स्तर का साधक ब्रह्मभूत होता है, ब्राह्मी स्थिति में रहता है। इसलिए उसकी व्यापकता और समर्थता भी प्रायः परब्रह्म के स्तर की बन जाती है। वह भुवन भर में बिखरे पड़े विभिन्न प्रकार के पदार्थों का नियन्त्रण कर सकता है। पदार्थों और परिस्थितियों के माध्यम से जो आनन्द मिलता है उसे अपने संकल्प बल से अभीष्ट परिमाण में आकषिर्त-उपलब्ध कर सकता है।
भुवनेश्वरी मनः स्थिति में विश्वभर की अन्तः चेतना अपने दायित्व के अन्तगर्त मानती है। उसकी सुव्यवस्था का प्रयास करती है। शरीर और परिवार का स्वामित्व अनुभव करने वाले इन्हीं के लिए कुछ करते रहते हैं। विश्वभर को अपना ही परिकर मानने वाले का ध्यान निरन्तर विश्वहित में ही लगा रहता है। जैसे अपने परिवार के सुख के लिए शरीर सुख की परवाह न करके प्रबल पुरुषार्थ किया जाता है। उसी प्रकार जो पूरे विश्व को अपना परिवार समझता है। वह जीवन-जगत् से आत्मीयता साधता है। उनकी पीड़ा और पतन को निवारण करने के लिए पूरा-पूरा प्रयास करता है। अपनी सभी सामर्थ्य को निजी सुविधा के लिए उपयोग न करके व्यापक विश्व की सुख शान्ति के लिए, नियोजित रखता है।
वैभव उपाजर्न के लिए भौतिक पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। ऐश्वर्य की उपलब्धि भी आत्मिक पुरुषार्थ से ही संभव है। व्यापक ऐश्वर्य की अनुभूति तथा सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए साधनात्मक पुरुषार्थ करने पड़ते है। गायत्री उपासना में इस स्तर की साधना जिस विधि-विधान के अन्तगर्त की जाती है उसे ‘भुवनेश्वरी’ कहते है। भुवनेश्वरी के स्वरूप, आयुध, आसन आदि का संक्षेप में-विवेचन इस तरह है-भुवनेश्वरी के एक मुख, चार हाथ हैं। चार हाथों में गदा-शक्ति का एवं राजंदंड-व्यवस्था का प्रतीक है। माला-नियमितता एवं आशीर्वाद मुद्रा-प्रजापालन की भावना का प्रतीक है। आसन-शासनपीठ-सवोर्च्च सत्ता की प्रतीक है।
पंचम महाविद्या – छिन्नमस्ता
दस महाविद्याओं में छिन्नमस्तिका देवी को ही "मां चिंतपूर्णी" के नाम से भी जाना जाता है। मां छिन्नमस्ता भावुकता तथा भौतिक सुखों,शक्ति,ओज एवं पराक्रम प्रदाता देवी हैं। : मार्कंडेय पुराण व शिव पुराण आदि में देवी के इस रूप का विशद वर्णन किया गया है। इनके अनुसार, जब देवी ने चंडी का रूप धरकर राक्षसों का संहार किया तथा दैत्यों को परास्त करके देवों को विजय दिलायी तो चहुं ओर उनका जय घोष होने लगा,परंतु देवी की सहायक योगिनियाँ अजया और विजया की रुधिर पिपासा शांत नहीं हो पाई थी। इस पर उनकी रक्त पिपासा को शांत करने के लिए माँ ने अपना मस्तक काटकर अपने रक्त से उनकी रक्त पिपासा को शांत किया।इसी कारण माता को छिन्नमस्तिका नाम से पुकारा जाने लगा। कामाख्या धाम के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात मां छिन्नमस्तिका मंदिर काफी लोकप्रिय है। झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 79 किमी. की दूरी रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित मां छिन्नमस्तिके का यह मंदिर है। रजरप्पा की छिन्नमस्ता को 52 शक्तिपीठों में सम्मिलित किया जाता है।
इस पविवर्तन शील जगत का अधिपति कबंध है और उसकी शक्ति छिन्नमस्ता है। इनका सिर कटा हुआ और इनके कबंध से रक्त की तीन धाराएं बह रही है। इनकी तीन आंखें हैं और ये मदन और रति पर आसीन है। देवी के गले में…हड्डियों की माला तथा कंधे पर यज्ञोपवीत है। इसलिए शांत भाव से इनकी उपासना करने पर यह अपने शांत स्वरूप को प्रकट करती हैं। उग्र रूप में उपासना करने पर यह उग्र रूप में दर्शन देती हैं जिससे साधक के उच्चाटन होने का भय रहता है।
माता का स्वरूप अतयंत गोपनीय है। चतुर्थ संध्याकाल में मां छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती की सिद्ध प्राप्त हो जाती है। कृष्ण और रक्त गुणों की देवियां इनकी सहचरी हैं। पलास और बेलपत्रों से छिन्नमस्ता महाविद्या की सिद्धि की जाती है। इससे प्राप्त सिद्धियां मिलने से लेखन बुद्धि ज्ञान बढ़ जाता है। शरीर रोग मुक्त होता हैं। सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शत्रु परास्त होते हैं। यदि साधक योग, ध्यान और शास्त्रार्थ में साधक पारंगत होकर विख्यात हो जाता है।दिशाएं ही इनके वस्त्र हैं। इनकी नाभि में योनि चक्र है। छिन्नमस्ता की साधना दीपावली से शुरू करनी चाहिए। इस के कुछ हजार जप करने पर देवी सिद्ध होकर कृपा करती हैं। जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश और कन्या भोजन करना अनिवार्य हैं।
षष्ठम महाविद्या – त्रिपुर भैरवी
त्रिपुर भैरवी की उपासना से सभी बंधन दूर हो जाते हैं। यह बंदीछोड़ माता है। भैरवी के नाना प्रकार के भेद बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर संपदाप्रद भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी तथा षटकुटा भैरवी आदि। त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता हैं। माता की चार भुजाएं और तीन नेत्र इन्हें षोडशी भी कहा जाता है। षोडशी को श्रीविद्या भी माना जाता है। यह साधक को युक्ति और मुक्ति दोनों ही प्रदान करती है। इसकी साधना से षोडश कला निपुण सन्तान की प्राप्ति होती है। जल, थल और नभ में उसका।में उसका वर्चस्व कायम होता है। आजीविका और व्यापार में इतनी वृद्धि होती है कि व्यक्ति संसार भर में धन श्रेष्ठ यानि सर्वाधिक धनी बनकर सुख भोग करता है।जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ आरोग्य सिद्धि के लिए इस देवी की आराधना की जाती है। इसकी साधना से धन सम्पदा की प्राप्ति होती है, मनोवांछित वर या कन्या से विवाह होता है। षोडशी का भक्त कभी दुखी नहीं रहता है।
सप्तम महाविद्या – धूमावती
धूमावती का कोई स्वामी नहीं है। इसलिए यह विधवा माता मानी गई है। इनकी साधना से जीवन में निडरता और निश्चंतता आती है। इनकी साधना या प्रार्थना से आत्मबल का विकास होता है। इस महाविद्या के फल से देवी धूमावती सूकरी के रूप में प्रत्यक्ष प्रकट होकर साधक के सभी रोग अरिष्ट और शत्रुओं का नाश कर देती है। प्रबल महाप्रतापी तथा सिद्ध पुरूष के रूप में उस साधक की ख्याति हो जाती है।
मां धूमावती महाशक्ति स्वयं नियंत्रिका हैं। ऋग्वेद में रात्रिसूक्त में इन्हें ‘सुतरा’ कहा गया है। अर्थात ये सुखपूर्वक तारने योग्य हैं। इन्हें अभाव और संकट को दूर करने वाली मां कहा गया है।
इस महाविद्या की सिद्धि के लिए तिल मिश्रित घी से होम किया जाता है। धूमावती महाविद्या के लिए यह भी जरूरी है कि व्यक्ति सात्विक और नियम संयम और सत्यनिष्ठा को पालन करने वाला लोभ-लालच से दूर रहें। शराब और मांस को छूए तक नहीं।
अष्टम महाविद्या- बगलामुखी
माता बगलामुखी स्थम्भन की देवी हैं । माता बगलामुखी की साधना युद्ध में विजय होने और शत्रुओं के नाश के लिए की जाती है। बगला मुखी के देश में तीन ही स्थान है। कृष्ण और अर्जुन ने महाभातर के युद्ध के पूर्व माता बगलामुखी की पूजा की पूजा अर्चना की थी। इनकी साधना शत्रु भय से मुक्ति और वाक् सिद्धि के लिए की जाती है। जिसकी साधना सप्तऋषियों ने वैदिक काल में समय समय पर की है। इसकी साधना से जहां घोर शत्रु अपने ही विनाश बुद्धि से। पराजित हो जाते हैं वहां साधक का जीवन निष्कंटक तथा लोकप्रिय बन जाता है।
नवम महाविद्या – मातंगी
मतंग शिव का नाम है। शिव की यह शक्ति असुरों को मोहित करने वाली और साधकों को अभिष्ट फल देने वाली है। गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए लोग इनकी पूजा करते हैं। अक्षय तृतीया अर्थात वैशाख शुक्ल की तृतीया को इनकी जयंती आती है।यह श्याम वर्ण और चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करती हैं। यह पूर्णतया वाग्देवी की ही पूर्ति हैं। चार भुजाएं चार वेद हैं। मां मातंगी वैदिकों की सरस्वती हैं।पलास और मल्लिका पुष्पों से युक्त बेलपत्रों की पूजा करने से व्यक्ति के अंदर आकर्षण और स्तम्भन शक्ति का विकास होता है। ऐसा व्यक्ति जो मातंगी महाविद्या की सिद्धि प्राप्त करेगा, वह अपने क्रीड़ा कौशल से या कला संगीत से दुनिया को अपने वश में कर लेता है। वशीकरण में भी यह महाविद्या कारगर होती है।
दशम महाविद्या- कमला देवी
दरिद्रता, संकट, गृहकलह और अशांति को दूर करती है कमलारानी। इनकी सेवा और भक्ति से व्यक्ति सुख और समृद्धि पूर्ण रहकर शांतिमय जीवन बिताता है।श्वेत वर्ण के चार हाथी सूंड में सुवर्ण कलश लेकर सुवर्ण कलश लेकर सुवर्ण के समान कांति लिए हुए मां को स्नान करा रहे हैं। कमल पर आसीन कमल पुष्प धारण किए हुए मां सुशोभित होती हैं। समृद्धि, धन, नारी, पुत्रादि के लिए इनकी साधना की जाती है। इस महाविद्या की साधना नदी तालाब या समुद्र में गिरने वाले जल में आकंठ डूब कर की जाती है। इसकी पूजा करने से व्यक्ति साक्षात कुबेर के समान धनी और विद्यावान होता है। व्यक्ति का यश और व्यापार या प्रभुत्व संसांर भर में प्रचारित हो जाता है।
https://aishwaryanand.org/2018/02/13/lalita-sahasranama-1000-names-of-divine-mother/
ललिता सहस्रनाम - (देवी भगवती के हज़ार नाम) आदि शंकराचार्य के द्वारा नहीं लिखा गया था। इसकी रचना स्वयं देवी ललिता के आदेश पर वाशिनियादि वाग् देवताओं ने की थी। इसे भगवान हयग्रीव (महाविष्णु के अवतार ) ने ऋषि अगस्त्य को सिखाया । और उन्हीं के माध्यम से दुनिया के सामने प्रकट किया था। ललिता सहस्रनाम 'ब्रह्माण्ड पुराण' से लिया गया है। ललिता सहस्त्रनाम तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है -पूर्व भाग - जिसमें सहस्रनाम के उत्पत्ति के बारे में बताया है। स्तोत्र - इसमें देवी माँ के 1000 नाम आते हैं। उत्तर भाग - इसमें फलश्रुति या सहस्रनाम पठन के लाभ बताये गए है। श्री भास्करराय ने ललिता सहस्रनाम पर एक टिप्पणी लिखी है जिसमें देवी के 1000 नामों के विस्तृत आंतरिक अर्थ हैं।
ललिता आत्मा की उल्लासपूर्ण, क्रियाशील और प्रकाशमय अभिव्यक्ति है। मुक्त चेतना जिसमे कोई राग द्वेष नहीं, जो आत्मस्थित है वो स्वतः ही उल्लासपूर्ण, उत्साह से भरी, खिली हुई होती है। ये ललितकाश है।`ललिता सहस्रनाम में हम देवी माँ के एक हजार नाम जपते हैं। नाम का एक अपना महत्त्व होता है। यदि हम चन्दन के पेड़ को याद करते हैं तो हम उसके इत्र की स्मृति को साथ ले जाते हैं। सहस्रनाम में देवी के प्रत्येक नाम से देवी का कोई गुण या विशेषता बताई जाती है
ललिता सहस्रनाम के जप से क्या लाभ होता है ?
हमारे जीवन के विभिन्न पड़ावों में बालपन से किशोरावस्था, किशोरावस्था से युवावस्था और इसी तरह .. हमारी आवश्यकताएं और इच्छाएं बदलती रहती है। इस सब के साथ हमारी चेतना की अवस्था में भी महती बदलाव होते हैं। जब हम प्रत्येक नाम का जप करते हैं, तब वे गुण हमारी चेतना में जागृत होते हैं और जीवन में आवश्यकतानुसार प्रकट होते हैं।
देवी माँ के नाम के जप से हम अपने भीतर विभिन्न गुणों को जागृत करके उन गुणों को अपने चारों ओर के संसार में प्रकट होते देख और समझ पाने की शक्ति भी पाते हैं। हम सभी अपने प्राचीन ऋषियों के आभारी है जिन्होंने दिव्यता का आराधन उसके संपूर्ण वैविध्य गुणों के साथ किया जिसने हमारे लिए जीवन को पूर्णता से जीने का मार्ग प्रशस्त किया।
सहस्रनाम का जप अपने में ही एक पूजा विधि है। ये मन को शुद्ध करके चेतना का उत्थान करता है। इस जप से हमारा चंचल मन शांत होता है। भले ही आधे घंटे/ 5-10 मिनट के लिए ही सही मन ईश्वर से एक रूप और उनके गुणों के प्रति एकाग्र होता है और भटकना रुक जाता है। (घबड़ाहट मन को होता है -मुझे नहीं !>मन के साक्षी को नहीं ! माँ काली, अवतार वरिष्ठ या विवेकानन्द के नाम-रूप पर मन को एकाग्र करने से घबड़ाने वाला मन शांत होता है।) ये विश्राम का सामान्य रूप है।
ललिता सहस्रनाम की भाषा में क्या विशेष है ?
सहस्रनाम में भाषा का सौंदर्य अद्भुत है। भाषा बहुत मोहक है और सामान्य और गहरे अर्थ दोनों ही चित्ताकर्षक हैं। उदहारण के लिए कमलनयन का अर्थ सुन्दर और पवित्र दृष्टि है। कमल कीचड़ में खिलता है। फिर भी ये सुन्दर और पवित्र रहता है। कमलनयन व्यक्ति इस संसार में रहता है और सभी परिस्थितियों में इसकी सुंदरता और पवित्रता को देखता है।
ललिता, पाठक को सहस्रनाम में वर्णित विभिन्न गुणों से पहचान कराकर उनके दोनों प्रकार के (गूढ़ और सामान्य) अर्थों की झलक भी देने के उद्देश्य को पूरा करती है। किसी विशिष्ट गुण के विभिन्न सन्दर्भ को बहुत सुंदर तरीके से पिरोया गया है। जो साथ ही एक ही गुण के विभिन आयाम प्रस्तुत कर देती है।
हमें ये जानना चाहिए कि हम इस धरा पर एक बहुत ही सुन्दर और महान लक्ष्य के लिए आये हैं। [त्रय दुर्लभं को पाने के लिए ?] जब श्रद्धा और जाग्रति के साथ पाठ किया जाता है, ललिता हमारी चेतना में शुध्दि लाकर हमें सकारात्मकता, क्रियाशीलता और उल्लास का भंडार बना देती है। इसलिए आइये आनंद मय हों और संसार के लिए उल्लास रूप हो जाये।
भवानी, भावनागम्या, भवारण्य कुठारिका ।
भद्रप्रिया, भद्रमूर्ति, र्भक्तसौभाग्य दायिनी ॥ 41 ॥
(श्री ललिता सहस्र नाम स्तोत्रम्)
ललिता सहस्रनाम पाठ करने के अधिकारी : मुख्यतः श्री विद्या मंत्र दीक्षित व्यक्ति इस ललिता सहस्रनाम पाठ करने के अधिकारी हैं लेकिन योग्य श्री विद्या गुरु के आदेश पर जो मंत्र दीक्षित ना हो वे भी कर सकते हैं। इस ललिता सहस्रनाम का पाठ कोई भी माँ का भक्त बेटा कर सकता है , क्योंकि यह 'ब्रह्माण्ड पुराण' का एक हिस्सा है। और हमारे धर्म में हर किसी को पुराण का पाठ करने की अनुमति है। यह सामान्य नियम इस विशिष्ट सहस्रनाम के मामले में भी लागू होना चाहिए।
'शाक्त-अद्वैत' परम्परा क्या है ?
अघटितघटनापटीयसी माया अद्वैत वेदान्त का ऐसा तत्व है जिस पर उस दार्शनिक सम्प्रदाय का पूरा वितान खड़ा है । सामान्य व्युत्पत्तिजन्य अर्थ के द्वारा मा न् या , अर्थात् जो नहीं , इस अर्थ को अभिव्यक्त करने वाली माया वास्तव में कुछ नहीं है, फिर भी वही इस संसार चक्र के भ्रामण में एक मात्र तत्त्व है । मात्यस्यां विश्वमिति माया इस अर्थ की बोधिका माया अद्वैत वेदान्त के अनुसार सत् तथा असत् से विलक्षण होने के कारण अनिर्वचनीय है । अनिर्वचनीय होने के कारण यह स्वप्न, गन्धर्व नगर अथवा शशप्राङ्ग आदि कल्पनाओं से भी भिन्न है । इस माया तत्त्व से युक्त होकर ही परमेश्वर सृष्टिकर्त्ता बनता है । इसी कारण अद्वैत वेदान्त का ब्रह्म जगत् का उपादान कारण भी है और निमित्त कारण भी ।ब्रह्म और जगत् में जो प्रार्थक्य हमारे मन में प्रतीत होता है, उस अविद्या रूप बीज शक्ति का विनाश विद्या के उदय से हो जाता है । जीवात्मा की यह स्वरूपस्थिति ब्रह्मत्व की प्राप्ति है । जीव पर जब तक अविद्या का साम्राज्य रहता है तब तक वह इस नामरूपात्मक जगत् को सत्य समझते रहता है । शंकराचार्य के अनुसार यह अविद्या ही जगत् की उत्पन्नकर्त्री बीजशक्ति है ।
साधक रामप्रसाद सेन (1718-1775)
अठारहवीं सदी में बंगाल में ऐसे ही संत हुए हैं जिनका नाम था राम प्रसाद सेन। मां काली की भक्ति को लेकर उनके भजन आज भी पूरे बंगाल और असम में ‘रामप्रसादी’ के नाम से गाये जाते हैं। हम सभी ने स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में पढ़ा और सुना है कि मां काली उन्हें प्रतिदिन दर्शन देती थीं। उनसे बातें करती थीं और उन्हें कौन सी सधना करनी है या नहीं - इसका आदेश भी देती थीं। लेकिन बंगाल में श्री रामकृष्ण परमहंस के पहले एक ऐसे संत राम प्रसाद सेन हुए हैं, जिनके भजनों को सुनकर श्री रामकृष्ण परमहंस भी मां काली की भक्ति में ऐसे डूब जाते थे कि उनको समाधि हो जाती थी।
राम प्रसाद सेन जी का जन्म बंगाल के 24 परगना जिले के हलिशहर गांव में एक तांत्रिक वैद्य परिवार में लगभग 1718 ईसवी के करीब हुआ था। तांत्रिक परिवार में जन्म लेने की वजह से बचपन से ही उनकी मां काली में भक्ति रही थीं। रामप्रसाद के परिवार वाले उन्हें अपने पारिवारिक चिकित्सा के व्यवसाय में लाना चाहते थे लेकिन वो बचपन से ही मां काली की भक्ति में इतने डूबे रहते थे कि उन्हें इस व्यवसाय में कोई रुचि नहीं थी। परिवार वालों ने सोचा कि अगर उनका विवाह करा दिया जाए तो वो सांसारिक मामलों में रुचि लेने लगेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं , दरअसल विवाह उनके जीवन में एक ऐसा मोड़ लेकर आ गया जिसने उनकी जिंदगी मां काली के चरणों में ही समर्पित कर दी। विवाह के बाद जब उन्हें उनके पारिवारिक गुरु माधवाचार्य जी से आशीर्वाद लेने के लिए भेजा गया तो गुरु ने उन्हें मां का ऐसा मंत्र दिया जिसके बाद उनकी सासांरिक गतिविधियों से रुचि खत्म सी हो गई। कुछ वर्षो बाद जब उनके गुरु ने महासमाधि ले ली तब राम प्रसाद सेन ने एक दूसरे तांत्रिक गुरु कृष्णानंद अगमवागिश जी से दीक्षा ली । कृष्णानंद जी स्वयं भी मां काली के बड़े भक्त थें और उन्होंने रामप्रसाद जी को मां की भक्ति के रहस्यों से परिचित करवा दिया।
हालांकि राम प्रसाद सेन के जीवन का अधिकांश भाग साधना में ही बीतता था लेकिन उनके पिता की मृत्यु के बाद गृहस्थी का भार संभालने के लिए उन्हें कोलकाता आना पड़ा। यहां उन्होंने दुर्गाचरण मित्र के यहां अकाउंटेट की नौकरी कर ली । लेकिन राम प्रसाद सेन यहां भी मां की भक्ति में इतने डूब गए कि बही खातों पर हिसाब-किताब लिखने की जगह मां के भजन ही लिखने लगे। एक बार जब दुर्गाचरण जी ने बही खातों की जांच की और देखा कि उस पर मां के भजन लिखे हुए हैं। तब उन्होंने राम प्रसाद जी की भक्ति को देख कर उन्हें नौकरी से निवृत कर दिया और कहा कि मां काली के भजन लिखने के लिए वो पूरी जिंदगी राम प्रसाद जी को वेतन देते रहेंगे। इसके बाद फिर क्या था राम प्रसाद जी इन सब झंझटों से मुक्त हो कर मां की भक्ति में रम गए।
कहा जाता है कि रामप्रसाद गंगा में अक्सर गले तक डूबकर मां के गीत गाते रहते थे और आने जाने वाले नाविक और सवार उनके भजन सुनने के लिए अपनी नावों को रोक देते थे।धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि इतनी फैल गई कि बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला भी उनके भजनों के मुरीद हो गए। नवाब के इलाके नदिया के एक जमींदार राजा कृष्ण चंद्र ने राम प्रसाद सेन जी को अपने दरबार में राज कवि के रुप में नियुक्त किया। राम प्रसाद जी ने विद्यासुंदर, काली कीर्तन, शक्तिगीति और कृष्ण कीर्तन जैसे भक्ति पुस्तकों की रचना की।
विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता ने राम प्रसाद जी की तुलना अंग्रेजी के महान कवि विलियम बेक से की है। राम प्रसाद जी को पारंपरिक बाउल गीतों और कीर्तन को मिलाकर एक नए प्रकार के भक्ति संगीत के सृजन का भी श्रेय जाता है । राम प्रसाद जी शाक्त संप्रदाय के पहले कवि थे जिनके गीतों को श्यामा संगीत के धुनों में सजा कर आज भी गाया जाता है।
रामप्रसाद सेन की मां काली को लेकर ऐसी भक्ति थी जिसकी कथाएं आज भी पूरे बंगाल में सुनाई जाती हैं एक ऐसी ही कथा है कि एक बार रामप्रसाद जी अपने घर के बगीचे के बाड़े को ठीक करने के लिए उसे बांस के खंभो से बांध रहे थे। इसमें उनकी बेटी उनकी सहायता कर रही थी।रामप्रसाद जी मां की भक्ति के भजन गाने में मगन थे। तभी उनकी बेटी को किसी नेबुला लिया और वो चली गई। लेकिन तभी मां काली उनकी बेटी के रुप में आई और रामप्रसाद की सहायता करने लगी। बाद में जब रामप्रसाद की बेटी ने बताया कि वो वहां थी ही नहीं और किसी और ने उनकी सहायता की थी। तब रामप्रसाद को यकीन हो गया कि वो मां काली ही थीं, जिन्होंने उनकी बेटी का रुप धरकर उनकी सहायता की थी।
ऐसी ही एक कथा है बनारस की अन्नपूर्णा माता (जो मां काली का ही एक अन्य रुप हैं) का राम प्रसाद को भजन सुनाने के लिए अनुरोध करना । कहा जाता है कि एक दिन राम प्रसाद गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तभी एक स्त्री ने उनका रास्ता रोक दिया और उनसे मां काली के भजन सुनाने के लिए अनुरोध किया। राम प्रसाद जी ने उन्हें तब तक इंतजार करने के लिए कहा जब तक वो गंगा स्नान कर के वापस नहीं लौट जाते । राम प्रसाद जी जब वापस लौटे तब वो स्त्री गायब थी। राम प्रसाद जब पूजा पर बैठें तो उनके ध्यान में माता अन्नपूर्णा आईं और कहा कि मैं तुम्हारा भजन सुनने आई थी। राम प्रसाद को बहुत पश्चाताप होने लगा । वो वाराणसी की तरफ चल पड़े। रास्ते में जब वो इलाहाबाद के संगम के पास थकान मिटाने के लिए एक पेड़ के नीचे सो गए तो माता सपने में आईं और कहा कि तुम्हें बनारस आने की जरुरत नहीं है।तुम यहीं से अपना भजन मुझे सुना सकतेहो।
राम प्रसाद जी के महासमाधि की कथा भी बड़ी अनोखी है। दीपावली की रात काली पूजा का वक्त होता है । रामप्रसाद जी रात भर मां काली की पूजा करते रहे जब दूसरी सुबह मां काली की मूर्ति का विसर्जन हो रहा था तब वो भी गंगा नदी में मां के भजन गाते हुए उतर पड़े और जैसे ही मां काली की मूर्ति का विसर्जन हुआ वैसे ही रामप्रसाद जी ने भी अपने प्राणत्याग दिए।
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Chida Nanda : क्या है पञ्च मकार ?
10 FACTS;-
1-तंत्र का नाम सुनते ही जादू-टोना, काला जादू, झाड़-फूँक, खोपड़ी, मुर्दा, श्मशान, बलि, आदि के विचार स्वतः ही मस्तिष्क में आने लगते हैं और मन अजीब-सी अरुचि से भर जाता है। दर असल यह सब विचार या धारणा तन्त्र के बारे में समाज में फैले हुए हुए नाना प्रकार के भ्रम के परिणाम स्वरुप है।तंत्र एक उच्चकोटि की विद्या है , एक प्रकृष्ट विज्ञान है जिसे कुछ भ्रष्ट और स्वार्थी तांत्रिकों ने अपने निहित स्वार्थ के चलते बदनाम कर दिया है। हमें तंत्र की वास्तविकता और उसमें आये हुए ‘पञ्च मकार' (मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन) का वास्तविक आशय समझने का प्रयास करना चाहिए ।
2- लेकिन इस पञ्च मकार और उससे जुड़ी हुई सभी बातें और वस्तुएं जानने से पहले तांत्रिक साधना में प्रचलित ‘कौलमत’ को भी जानना हैं। कौलमत मुख्यतया दो भागों में विभक्त है–पूर्वकौल और उत्तरकौल। पूर्वकौल समायाचारी साधना मार्ग है और उत्तरकौल है वामाचारी साधनामार्ग। दोनों मार्गों में शक्ति की प्रतीक ‘योनि’ की पूजा है।योनिपूजा के बिना की गयी कोई भी पूजा, पूजा ही नहीं है।लेकिन पूर्वकौल मतावलम्बी और अनुयायी श्रीयंत्र योनि की पूजा करते हैं। उत्तरकौल के मत के अनुयायी प्रत्यक्ष योनि के उपासक होते हैं। दोनों मार्ग की साधना का आधार ‘पञ्चमकार’ है। पहले में वह प्रतीक रूप में है और दूसरे में है प्रत्यक्ष रूप में।
3-वामाचारी साधनामार्ग अत्यन्त कठिन है और दुरूह है। इस पर चलना सभी के वश की बात नहीं है। यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो वामाचारी साधना मार्ग भी प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर ले जाता है। बाह्य क्रियाओं का सहारा लेकर यह साधना की आतंरिक भूमि में प्रवेश कराता है। कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग, आदि जितने भी योग हैं, उन सबका ‘कुण्डलिनी योग’ में समावेश है। कुण्डलिनी जागरण का अभ्यास सद्गुरु के सानिध्य और निर्देशन में ही सम्भव है।
4- ‘कौलमत’ के अनुसार मनुष्य के भीतर रहस्यमयी अलौकिक शक्तियां छिपी हुई हैं।सृष्टि के प्राक्काल में वही ‘परमतत्व’ दो भागों में विभक्त होकर ‘शिव’ और ‘शक्ति’ के रूप में जाना गया।‘शिव’ क्या है, ‘शक्ति’ क्या है ?यदि वैज्ञानिक दृष्टि से इस पर विचार करें तो ये दोनों ही ब्रह्मांडीय मौलिक ऊर्जा से संबद्ध हैं। एक है विधायिका शक्ति और दूसरी है निषेधात्मिका शक्ति। दोनों का मूल स्रोत वास्तव में वह ‘परमतत्व’ है।
5- शिव कामेश्वर है तो शक्ति कामेश्वरी है। सभी पुरुष परमेश्वर और सभी स्त्रियां परमेश्वरी हैं और हैं कामेश्वर और कामेश्वरी। इन दोनों का मिथुनात्मक सम्बन्ध ही मूल है। वही मूल आकर्षण है या काम है। जैसे ‘शिव’ और ‘शक्ति’ के संयोग से सृष्टि हुई है, वैसी ही यदि देखा जाय तो ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ की भी उत्पत्ति हुई है और निवृत्तिशक्ति और प्रवृत्तिशक्ति भी निष्पन्न हुई है।
6-मानव शरीर ब्रह्माण्ड का एक संक्षिप्त संस्करण है।ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु किसी न किसी रूप में मानव पिण्ड में विद्यमान है। इसीलिये मानव शरीर को दुर्लभ बतलाया गया है। उनका कहना है कि उस भगवान् को बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है। उसका वास्तविक निवास तो एकमात्र मानव शरीर है।
7-कौल मत की इस धारणा को और अधिक बल उस समय मिला जब यह बतलाया गया कि मानव शरीर के दो हिस्से हैं। कंठ स्थान से ऊपर का हिस्सा ‘ज्ञानखण्ड’ और नीचे का हिस्सा ‘कर्मखण्ड’ है। ज्ञानखण्ड में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मखण्ड में कर्मेन्द्रियाँ हैं। ज्ञानखण्ड का मूलकेंद्र सहस्रार चक्र है और कर्मखण्ड का मूलकेंद्र है–मूलाधार चक्र। सहस्रार चक्र में शिव का वास है और मूलाधार चक्र में वास है शक्ति का। पहला परमेश्वर है और दूसरी परमेश्वरी है।
8-तांत्रिक साधना अत्यन्त गम्भीर और उच्च आध्यात्मिक साधना है। तन्त्र साधक को आदिभौतिक, आदिदैविक और आध्यात्मिक– तीनों प्रकार के तापों से मुक्ति दिलाता है। वह भय मुक्त करता है।
9-तंत्रविज्ञान में कौलमत का मुख्य लक्ष्य है–अद्वैत लाभ जिसका आशय है–जीवभाव से मुक्ति और परम निर्वाण ! जो शरीर में स्थित शिव और शक्ति के मिलन से ही सम्भव है। यहाँ जिस मिलन या योग की बात की गयी है, वह है–कुण्डलिनी योग। बाहरी स्तर पर - शरीर और पोशाक की दृष्टि से हम हिन्दू हैं, मुस्लमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं ..भीतर तो हम सभी एक हैं, समान हैं–वही क्रोध, वही घृणा, वही द्वेष, वही ईर्ष्या, वही हिन्सा, वही कामुकता और वही आक्रामकता ।जो वास्तविकता है, वह सभी जाति में, सभी धर्म में समान है; कहीं कोई अन्तर नहीं। तंत्र के लिए जाति, धर्म, संप्रदाय केवल एक आवरण है। आवरण को वह कोई महत्त्व नहीं देता।
10- समस्त तंत्र भगवान शंकर और माँ पार्वती के बीच संवाद है।माँ पार्वती का प्रश्न और भगवान शंकर का उत्तर है। शिष्य के लिए स्त्री का होना आवश्यक नहीं लेकिन उसमें स्त्रैण ग्राहकता का भाव अवश्य होना चाहिए।माँ पार्वती के प्रश्न का अर्थ ही है कि स्त्रैण भाव प्रश्न कर रहा है। स्त्रैण भाव का मतलब ही है ग्राहकता और समर्पण। पुरुष और स्त्री के अस्तित्व पर यदि हम वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों है। कोई भी मनुष्य न मात्र पुरुष है और न तो मात्र स्त्री है। वह उभयलिंगी है।इसीलिए भगवान शंकर का एक स्वरुप ‘अर्धनारीश्वर’ है।जब तक हम ऐसा नहीं बनेंगे तब तक कोई सार्थक लाभ नहीं।
🏹क्या है तंत्र योग की साधना ?-
05 FACTS;
1. क्या है कुलाचार?
-03 POINTS;-
1-कौलाचार— ‘कौल’ कुल शब्द से बना हुआ है। ‘कुल’ का अर्थ है–कुण्डलिनी शक्ति। तथा ‘अकुल’ का अर्थ है–‘शिव’। दोनों का सामरस्य कराने वाला कौल है। जो व्यक्ति योगविद्या के सहारे कुण्डलिनी का उत्थान कर सहस्रार में स्थित ‘शिव’ के साथ संयोग करा देता है, उसे ही ‘कौल’ कहते हैं। कुण्डलिनी के साथ जो आचार किया जाता है, उसको ‘कुलाचार’ कहते हैं। यह आचार मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन–इन पञ्च मकारों के सहयोग से अनुष्ठित होता है। ‘कुलाचार’ ही ‘कौलाचार’ या ‘वामाचार’ के नाम से प्रसिद्ध है।पंचमकार का रहस्य नितान्त गूढ़ है। उसे ठीक-ठीक न जानने के कारण लोगों में अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैली हुई हैं। पंचतत्व को मुद्रा समझना चाहिये। वास्तव में ये पञ्चमकार योगी की पञ्चमुद्रा हैं जो उसे मुक्ति देने वाले हैं–
‘मद्यम् मासं व मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च।
मकारपंचकं प्राहुर्योगिन: मुक्ति दायिकम्।''
अर्थात्–मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन–ये पंचमकार योगी को मुक्ति देने वाले कहे गए हैं।
2-कुछ आचार्यों के अनुसार समयाचार ही श्रेष्ठ, विशुद्ध तांत्रिक आचार है तथा कौलाचार उससे भिन्न तांत्रिक मार्ग है। शंकराचार्य तथा उनके अनुयायी समयाचार के अनुयायी थे। समयमार्ग में अंतर्योग (हृदयस्थ उपासना) का महत्व है, तो कौल मत में बहिर्योग का। पंच मकार- मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन दोनों में ही उपासना के मुख्य साधन हैं। अंतर केवल यह है कि समय मार्गी इन पदार्थों का प्रत्यक्ष प्रयोग न करके इनके स्थान पर इनके प्रतिनिधिभूत अन्य वस्तुओं (जिन्हें तांत्रिक ग्रथों में अनुकल्प कहा जाता है) का प्रयोग करता है; कौल इन वस्तुओं का ही अपनी पूजा में उपयोग करता है।
3-सौंदर्य लहरी के भाष्यकार लक्ष्मीधर ने 41वें श्लोक की व्याख्या में कौलों के दो अवांतर भेदों का निर्देश किया है। उनके अनुसार पूर्वकौल श्री चक्र के भीतर स्थित योनि की पूजा करते हैं; उत्तरकौल प्रत्यक्ष योनि के पूजक हैं और अन्य मकारों का भी प्रत्यक्ष प्रयोग करते हैं। उत्तरकौलों के इन कुत्सापूर्ण अनुष्ठानों के कारण कौलाचार वामाचार के नाम से अभिहित होने लगा और जनसाधारण की विरक्ति तथा अवहेलना का भाजन बना।
4-कौल काली के उपासक होते है। उनके अनुष्ठान गुप्त होते है। इन अनुष्ठानों में मद्य, मांस, मीन, मुद्रा एवं मैथुन वर्जित नहीं हैं। शाक्तों के समयाचारी संप्रदाय में श्रीचक्र का पूजन होता है। उनकी आस्था षट्चक्रों में है। दक्षिण भारत में समयाचारी साधना का प्रचलन रहा है। आदि शंकराचार्य जैसे योगियों ने इसी प्रकार की साधना को अपनाया है और उसे आश्रय प्रदान किया है। कौल सम्प्रदाय में दो मत हैं ~ उत्तर कौल मत और पूर्व कौल मत ! इनके अपने ~अपने आचार हैं उत्तर कौल मत के आचार को कौलाचार और पूर्व मत के आचार को समयाचार कहते हैं ! उत्तर कौल मत और उसका आचार कौलाचार रजोगुणी और तमोगुणी मिश्रित है , जबकि पूर्व कॉल और उसका आचार समयाचार पूर्णत: सात्विक है !
5-उत्तर कौल मत के अनुयायिओं का प्रमुख साधना केंद्र कामख्या ( असम ) है और पूर्व कौल के मानने वालों का साधना केंद्र श्रीनगर है ! इन दोनों सिद्धांतों को मिलाकर बाद में एक नया सिद्धांत प्रकाश में आया जिसे ”योगिनी कौल ” कहते हैं ! योगिनी कौल सम्प्रदाय के केंद्र की स्थापना कामख्या में हुई ! कहा भी गया है ~ कामरूप इदं शास्त्रं योगिनीनं गृहे गृहे ! सुप्रसिद्ध चौरासी सिद्ध इस सम्प्रदाय से सम्बंधित थे ! इस देश में 8वीं से 11वीं सदी मध्य तक सिद्ध और नाथ नाम के मुख्य तांत्रिक संप्रदायों का बहुत प्रभाव रहा है। आज भी इन दोनों संप्रदायों के अनेक स्थानों पर बड़े-बड़े सिद्ध पीठ हैं।इन दोनों संप्रदायों में अनेक प्रकार की साधनाओं का प्रचलन है। सिद्धों में पंचमकार वर्जित नहीं है लेकिन नाथ संप्रदाय में वर्जित है।
2-क्या है आगम?-03 POINTS;-
1-तन्त्र का ही दूसरा नाम ‘आगम’ है। जिससे अभ्युदय, लौकिक कल्याण तथा निःश्रेयस (मोक्ष) के उपायों का प्रतिपादन हो, वह शास्त्र ही ‘आगम’ है। आगम का मुख्य लक्ष्य है साधना और उपदेश। तंत्र के दो रूप हैं–बहिरंग रूप और अंतरंग रूप। बहिरंग साधना का एकमात्र मुख्य विषय है-मन्त्र, यंत्र और देव प्रतिमा। इन तीनों की सिद्धि और साधना के मूल में ‘ध्यानयोग’ है। देवता के गुण, कर्म, स्वभाव, स्वरुप के चिन्तन के आधार पर मन्त्रों का ‘उद्धार’ एवम् ‘सिध्दि’ की जाती है तब उन मन्त्रों को यज्ञ से संयोजित कर देवता का ध्यान और उपासना का वर्णन किया जाता है।तंत्र की विशेषता उसकी ‘क्रिया’ है। अर्थात् तंत्र की बहिरंग साधना और उपासना क्रिया प्रधान है। ज्ञान को क्रिया रूप में न बदलने से वह ज्ञान भार बन जाता है।' 'ज्ञानसंपन्न साधक जब तक उस ज्ञान को जीवन में परिणत कर उसे क्रियात्मक नहीं बनाता, तबतक वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। तंत्र के जितने लक्ष्य हैं, उनमें एक यह भी है–ज्ञान को कर्म में बदलना और फिर उक्त कर्म को ज्ञान में परिवर्तित करना''।
2-तंत्र साहित्य का क्षेत्र बहुत विस्तृत है जिसे मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया गया है–विष्णुक्रान्ता, रथक्रान्ता और अश्वक्रान्ता। प्रत्येक के 64 तंत्र हैं।इन 64 तंत्र के साहित्य की विचारधाराओं को भी तीन अलग-अलग भागों में विभक्त किया जा सकता है–ब्राह्मण तंत्र, बौद्ध तंत्र और जैन तंत्र। ब्राह्मण तंत्र की भी तीन विशिष्ट शाखाएं है–वैष्णवतंत्र, शैवतंत्र और शाक्ततन्त्र।इन तीनों तंत्रों का विशाल साहित्य उपलब्ध् है। फिर भी यह स्वीकार किया जाता है कि इनमें शाक्त तंत्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। शाक्त तंत्र में शक्ति की उपासना की जाती है। करीब दो हज़ार वर्ष पहले तांत्रिक साधना में सिद्धि लाभ के लिए चार मुख्य पीठों की स्थापना हुई–जालंधर पीठ, कामाख्या पीठ, पूर्णागिरि पीठ और उड्डयान पीठ।पीठ का अर्थ है–शक्ति केंद्र–एक ऐसा शक्ति केंद्र जिसका अगोचर सम्बन्ध दैवीय राज्य और भावराज्य से जुड़ा होता है। इनके विषय में और उनकी महत्ता के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है पर् वास्तविक ज्ञान तो गुरुमुख से उनके सान्निध्य में रहकर ही मिलता है।
3-सन्त दुर्लभ है भगवन्त दुर्लभ नहीं है लेकिन मुश्किल यह है कि सच्चे गुरु पहले तो मिलते ही नहीं हैं, यदि मिल भी जाएँ तो वे तंत्र के रहस्यों के बारे में चुप ही रहते हैं। आज के तथाकथित तांत्रिक जहाँ देखो , वहां इन पञ्च मकारों के नाम पर समाज में व्यभिचार, पापाचार फैलाते मिल जाते हैं। एक अभियान आदिगुरु शंकराचार्य ने समाज में सहस्राब्दियों पहले चलाया था और उन्होंने वास्तविक सनातन धर्म और वैदिक धर्म की स्थापना के लिए पूरे भारत वर्ष की पदयात्रा की थी और चार धामों की स्थापना की थी। आज फिर से एक और आदि शंकराचार्य की समाज को महती आवश्यकता है। तंत्र में दो प्रकार की साधनाएं शास्त्र सम्मत हैं- कुलाचार और समयाचार। कुलाचार साधना में बाह्य अनुष्ठान प्रधान है। इसका अभ्यास समहू बद्ध हाकेर किया जाता है। इसमें यज्ञाहुति, मंत्र-जप और कई प्रकार की पूजा-विधियों का प्रचलन है। समयाचार आंतरिक साधना है। यह रुद्र कमल पर ध्यान लगाकार की जाती है। बौद्धों की महायान शाखा में वज्रयान साधना-पद्धति इसी से विकसित हुई है। इसमें अनिवार्य गुरु दीक्षा के बाद साधक गुरु आज्ञा से एकांत में रहकर ध्यानावस्थित होता है। इस साधना में मानस-दर्शन मुख्य है।
3-क्या है बहिरंग और अंतरंग साधना?-बहिरंग और अंतरंग साधना का संधिकेंद्र है–ध्यान।बहिरंग साधना, उपासना, पूजा आदि जो कुछ है, वह सब ‘अपरा’ है। ध्यान की उपलब्धि होने पर अपरा ‘परा’ में बदल जाता है। यदि साधक की ध्यानयोग में गति और पूर्णता नहीं है तो सब कुछ व्यर्थ है। पूर्ण ध्यान की उपलब्धि ‘सहज समाधि’ है। इस अवस्था विशेष् में साधक का साध्य(इष्ट) से नित्य सम्बन्ध होता है। तंत्र की बहिरंग साधना भूमि में पंचमकार(मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन) साधन का कार्य करते हैं। इसमें जो मदिरा है, वह ध्यानयोग की सिद्धि के निमित्त है, न कि नशे के लिए।
4-क्या है बहिरंग साधना दीक्षा?–बहिरंग साधना तीन शरीरों द्वारा होती है–स्थूल शरीर, भाव शरीर और सूक्ष्म शरीर।स्थूल शरीर का केंद्र हृदय है। भाव शरीर का केंद्र नाभि है। ध्यान की सिद्धि और पूर्णता भाव शरीर में होती है तथा सहज समाधि की अवस्था प्राप्त होती है सूक्ष्म शरीर में। इन दोनों शरीरों का ज्ञान होना आवश्यक है। जो बहिरंग साधना मार्ग के उच्च साधक हैं, वे भूत-प्रेत, पिशाच, पिशाचिनी, यक्ष, यक्षिणी आदि सूक्ष्म शरीरधारी शक्ति संपन्न आत्माओं को मंत्रशक्ति के द्वारा बांधकर उनसे अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा ही कार्य लेते हैं। बहुत से साधक ऐसे होते हैं कि तांत्रिक क्रियाओं द्वारा स्थूल शरीर को कुछ समय के लिए त्यागकर भाव शरीर या सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और उनके द्वारा अगम्य स्थानों की यात्रा करते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरे के शरीर में प्रवेश कर उसके भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में पूरी जानकारी कर लेते हैं।यह तंत्र की बड़ी ऊँची क्रिया पद्धति मानी जाती है। किन्तु जरा-सी चूक होने पर इसमें जान भी जा सकती है ।
5-क्या है अंतरंग साधना में दीक्षा?–अंतरंग साधना में छः प्रकार की दीक्षा का क्रम है जिनमें प्रमुख है–शक्तिपात दीक्षा। साधक के बहिरंग साधना में पारंगत होने पर ही उसे अंतरंग साधना में प्रवेश मिलता है तभी वह शक्तिपात दीक्षा का अधिकारी बनता है। साधक के पूर्व संस्कार के अनुसार यथा समय सद्गुरु स्वयम् उपस्थित होकर यह दीक्षा प्रदान करते हैं। इसका सीधा सा तात्पर्य है कि सद्गुरु अपने अन्तर्चक्षुओं के माध्यम से अपने भावी शिष्य, उसके संस्कार और उसकी साधना प्रक्रिया पर दृष्टि रखे रहते हैं। शक्तिपात् दीक्षा के पूर्व सद्गुरु शिष्य के स्थूल शरीर को विशेष् तांत्रिक क्रिया द्वारा भाव शरीर और सूक्ष्म शरीर से अलग करते हैं। फिर दोनों के साथ अपने भाव शरीर और सूक्ष्म शरीर का सम्बन्ध स्थापित करते हैं। इस क्रिया के बाद क्रम से दोनों शरीरों का अतिक्रमण कर मनोमय शरीर से तादात्म्य स्थापित करते हैं और उसी मनोमय शरीर में शक्तिपात् दीक्षा प्रदान करते हैं। तांत्रिक साधना की परीक्षा अत्यन्त कठिन है। योग्य गुरु तरह-तरह से अपने शिष्य की परीक्षा लेता है और प्रत्येक दृष्टि से सफल होने पर ही उसे तंत्र की दीक्षा देता है।अंतरंग साधना यात्रा का प्रथम सोपान ‘सविकल्प समाधि’ है जो सहज समाधि का परिष्कृत रूप है। तंत्र ने अपना द्वार सबके लिए खोल रखा है। कोई भी वर्ण हो, कोई भी जाति हो, स्त्री हो या हो पुरुष , किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं। तंत्र की ओर बहुत-से लोगों के आकर्षित होने का यही एक मात्र कारण है। सच कहा जाय तो कलियुग में तंत्र साधना ही एकमात्र सफल होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी तंत्र साधना का अधिकारी बन सकता है। इस मार्ग में पात्रता होना सबसे महत्वपूर्ण है। यह कार्य गुरु का है कि वह योग्यतानुसार शिष्य की परीक्षा करे और उसके अनुसार तंत्र की दीक्षा देकर उसको इस मार्ग में प्रविष्टि दे।
6-क्या है सात प्रकार की साधना पद्धतियां ?
- तंत्र शास्त्र के अंतर्गत साधना क्षेत्र में तीन भावों तथा सात आचारों की विशिष्ट स्थिति होती है। पशुभाव, वीरभाव और दिव्यभाव ये तो तीन भावों के संकेत हैं। वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणचार, वामाचार, सिद्धांताचार और कौलाचार ये पूर्वोल्लिखित भावत्रय से संबद्ध सात आचार हैं। इनमें दिव्यभाव के साधक का संबंध कौलाचार से है.... जब सम्पूर्ण प्रकार सिद्धि के पश्चात साधक स्वयं शिव तथा शक्ति के समान हो जाते हैं। जो साधक द्वैतभावना (M/F) का सर्वथा निराकरण कर देता है और उपास्य देवता की सत्ता में अपनी सत्ता डुबा कर अद्वैतानंद का आस्वादन करता है, वह तांत्रिक भाषा में दिव्य कहलाता है। और उसकी मानसिक दशा को दिव्यभाव कहते हैं। कौलाचार तांत्रिक आचारों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि यह पूर्ण अद्वैत भावना में रमने वाले दिव्य साधक के द्वारा ही पूर्णत: गम्य और अनुसरणीय होता है। संप्रदाय भेद से तंत्र जगत के संबंध में अनेक प्रकार के मत प्रचलित हैं। इनमें वेदमार्गी, बौद्ध मार्गी, दक्षिणाचारी मंत्रमार्गी, भक्तिमार्गी और ज्ञानमार्गी प्रमुख हैं। भिन्न-भिन्न तंत्रों में दक्षिणा-चार, वीरा-चार तथा कुला-चार, इन तीन प्रकार के पद्धति या आचारों से शक्ति साधना करने का वर्णन प्राप्त होता हैं। शैव तथा शक्ति संप्रदाय के क्रमानुसार साधन मार्ग निम्नलिखित हैं -
6-1-दक्षिणा-चार या पशु भाव ;-
03 POINTS;-1-साधना का आरंभ पशु भाव से शुरू होता हैं, तत्पश्चात शनै-शनै साधक सिद्धि की ओर बढ़ता हैं। मनुष्य पशुओं में सर्वश्रेष्ठ तथा सोचने-समझने या बुद्धि युक्त है। जब तक मनुष्य के बुद्धि का पूर्ण रूप से विकास ना हो, वह पशु के ही श्रेणी में आता है। जिसकी जितनी बुद्धि होगी उसका ज्ञान भी उतना ही श्रेष्ठ होगा। इसके अंतर्गत, वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार के कर्म निहित हैं जैसे, दिन में पूजन, प्रातः स्नान, शुद्ध तथा सात्विक आचार-विचार तथा आहर। त्रि-संध्या जप तथा पूजन, रात्रि पूजन का पूर्ण रूप से त्याग, रुद्राक्ष माला का प्रयोग, ब्रह्मचर्य इत्यादि नियम सम्मिलित हैं। मांस-मत्स्यादी से पूजन निषिद्ध हैं। ब्रह्मचर्य का पालन अत्यंत आवश्यक हैं, अथवा एक पत्नीव्रत रहने या अपनी स्त्री में ही रत रहना भी ब्रह्मचर्य पालन ही समझा जाता हैं। पंच-मकार से पूजन सर्वथा निषिद्ध हैं, यदि कही आवश्यकता पड़ जाये तो उनके प्रतिनिधि प्रयुक्त हो सकते हैं।
2- यहां पशु भाव से ही साधन प्रारंभ करने का विधान है, यह प्रारंभिक साधन का क्रम है, आत्म तथा सर्व समर्पण भाव उदय का प्रथम कारक पशु भाव क्रम से साधना करना है। यह भाव निम्न कोटि का माना गया है, स्वयं त्रिपुर-सुंदरी, श्री देवी ने अपने मुखारविंद से भाव चूड़ामणि तंत्र में पशु भाव को सर्व-निन्दित तथा सर्व-निम्न श्रेणी का बताया है। अपनी साधना द्वारा प्राप्त ज्ञान द्वारा जब अज्ञान का अन्धकार समाप्त हो जाता है, पशु भाव स्वतः ही लुप्त हो जाता है। शास्त्रों के अनुसार आठ प्रकार के पशुत्व लक्षण (अष्टपाश) से युक्त मानव स्वभाव लक्षणों या पाशों से है; 1. घृणा 2. शंका, 3. भय, 4. लज्जा, 5. जुगुप्सा, 6. कुल, 7. शील तथा 8. जाति। यही अष्टपाश युक्त मानव लक्षण सर्वदा ही मनुष्य के आध्यात्मिक उन्नति हेतु बाधक माने गए हैं, तथा साधना पथ में त्याज्य हैं। पशु भाव साधना क्रम के अनुसार साधक इन्हीं लक्षणों या पाशों पर विजय पाने का प्रयास करता है। जो इन अष्ट-पाशों में से किसी एक से भी ग्रस्त है, मनोविकार युक्त है, वह सर्वदा, सर्व-काल तथा सर्व-व्यवस्था में साधना करने में समर्थ नहीं हो सकता। वस्तुतः पशु भाव युक्त साधना कर साधक इन अष्ट-पाशों या विकारों से मुक्त होने का प्रयास करता है। चित्त को निर्मल निर्विकार करने हेतु पशु भाव का त्याग अत्यंत आवश्यक है। यम -नियम और मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा चित्त निर्मल हुए बिना, समदर्शिता तथा त्याग की भावना का उदय होना , और विवेक -प्रयोग करना अत्यंत कठिन है। पशु भाव से साधना प्रारंभ कर अष्ट पाशों, मनोविकार पर विजय पाकर ही साधक वीर-भाव में उन्नत होने का अधिकारी बनता है।
3-पशु भाव के अंतर्गत चार प्रकार के साधन पद्धतियों को समाहित किया गया हैं जो निम्नलिखित हैं।1-वेदाचार 2-वैष्णवाचार 3-शैवाचार 4-दक्षिणाचार।1-वेदाचार : तंत्र के अनुसार सर्व निम्न कोटि की उपासना पद्धति वेदाचार हैं, जिसके तहत वैदिक याग-यज्ञादि कर्म विहित हैं।2-वैष्णवाचार : सत्व गुण से सम्बद्ध, सात्विक आहार तथा विहार, निरामिष भोजन, पवित्रता, व्रत, ब्रह्मचर्य, भजन-कीर्तन इत्यादि कर्म विहित हैं।3- शैवाचार : शिव तथा शक्ति की उपासना, यम-नियम, ध्यान, समाधि कर्म विहित हैं।4-दक्षिणाचार : उपर्युक्त तीनों पद्धतियों का एक साथ पालन करते हुए, मादक द्रव्यों का प्रयोग विहित हैं।
6- 2- वामा-चार या वीर भाव ;-03 POINTS;- साधक स्वयं को शक्ति या वामा कल्पना कर साधना करता हैं। इस भाव तक आते-आते साधक! अष्ट-पाशों के कारण होने वाले दुष्परिणामों को समझने लगता है। परन्तु उनका पूर्ण रूप से वह त्याग नहीं कर पाता है, परन्तु करना चाहता है। इसी प्रकार पशु भाव से अपने देह तथा मन की शुद्धि करने के प्रयासरत साधक, वीर-भाव से साधना कर पाता है। वीर-भाव का मुख्य आधार केवल यह है कि साधक स्वयं में तथा अपने इष्ट देवता में कोई अंतर न समझे, तथा साधना में रत रहा कर अपने इष्ट देव के समान ही गुण-स्वभाव वाला बने।
2-वीर-भाव बहुत ही कठिन मार्ग है, बिना गुरु आज्ञा तथा मार्गदर्शन के यह साधन हानिकारक ही होता है, इस मार्ग को कुल, वाम, कौल, वीराचार मार्ग नाम से भी जाना जाता है। साथ ही वीरमार्ग के साधक का दृढ़ निश्चयी भी होना अत्यंत आवश्यक है, किसी भी कारण इस मार्ग का मध्य में त्याग करना उचित नहीं है, अन्यथा दुष्परिणाम अवश्य प्रकट होते हैं। जिस साधक में किसी भी प्रकार से कोई शंका नहीं है, वह भय मुक्त है, निर्भीक है। जो साधक निर्भय हो कर किसी भी समय कहीं (दादा के पितामह रात के 12 बजे श्मशान घाट) पर भी चला जाये। जो लज्जा व कुतूहल से रहित है, वेद तथा शास्त्रों के अध्ययन में सर्वदा रत रहता है, वह वीर साधन करने का अधिकारी है।
वीर-साधना या शक्ति साधना का मुख्य उद्देश्य शिव तथा समस्त जीवों में ऐक्य प्राप्त करना है। यहाँ मानव देह देवालय है तथा आत्म स्वरूप में शिव इसी देह रूपी देवालय में विराजमान है, अष्ट पाशों से मुक्त हुए बिना देह में व्याप्त सदा-शिव का अनुभव संभव नहीं है। शक्ति साधना के अंतर्गत पशु भाव, वीर-भाव जैसे साधन कर्मों का पालन कर मनुष्य सफल योगी बन पाता है।
साधन के इस क्रम में मूल पञ्च-तत्व के प्रतीक पञ्च-तत्वों से साधना करने का विधान है, जिसे पञ्च-मकार नाम से जाना जाता है। पंच-मकार मार्ग समस्त प्रकार के वैभव-भोगो में रत रहते हुए, धीरे-धीरे त्याग का मार्ग है।3-इसी मार्ग का अनुसरण कर महर्षि वशिष्ठ ने, नील वर्णा महा-विद्या तारा की सिद्धि प्राप्त की थी। सर्वप्रथम, अपने पिता ब्रह्मा जी की आज्ञा से महर्षि वशिष्ठ ने देवी तारा की वैदिक रीति से साधना प्रारंभ की परन्तु सहस्त्र वर्षों तक कठोर साधना करने पर भी मुनि-राज सफल न हो सके। परिणामस्वरूप क्रोध-वश उन्होंने तारा मंत्र को श्राप दे दिया। तदनंतर दैवीय आकाशवाणी के अनुसार, मुनि राज ने कौल या कुलागम मार्ग का ज्ञान प्राप्त किया, तथा देवी के प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त कर, सिद्धि प्राप्त की।
कुला-चार केवल साधन का एक मार्ग है, तथा इस मार्ग में प्रयोग किये जाने वाले इन पञ्च-तत्वों को केवल अष्ट-पाशों का भेदन कर, साधक को स्वतंत्र-उन्मुक्त बनाने हेतु प्रयोग किया जाता है। साधक इन समस्त तत्वों का प्रयोग अपनी आत्म-तृप्ति हेतु नहीं कर सकता, साधक केवल अपने इष्ट देवता को समर्पित कर ग्रहण करने का अधिकारी है, यह केवल उपासना की सामग्री है, उपभोग की नहीं। अति-प्रिय होने पर भी, इन तत्वों से साधक किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रख सकता है, यह ही साधक के साधना की चरम पराकाष्ठा है।
6-3-सिद्धान्ताचार या दिव्य भाव:-इसी पद्धति या आचार के साधन काल में 'शुद्ध बुद्धि' का उदय होता हैं । अपने अन्दर साधक शिव तथा शक्ति का साक्षात् अनुभव कर पाने में समर्थ होता हैं। संसार की प्रत्येक वस्तु या तत्व, साधक को शुद्ध तथा परमेश्वर या परमशिव से युक्त या सम्बंधित हैं, अहंकार, घृणा, लज्जा इत्यादि पाशों का पूर्ण रूप से त्याग कर देता हैं। अंतिम स्थान कौलाचार /राज-योग ही हैं। साधक साधना के सर्वोच्च स्थान को प्राप्त कर लेता हैं। इस स्तर तक पहुँचने पर साधक सोना और मिट्टी में, श्मशान तथा गृह में, प्रिय तथा शत्रु में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं रखता हैं, उनके निमित्त सब एक हैं, उसे अद्वैत ज्ञान की प्राप्ति हो जाती हैं।
>>क्या पञ्च मकारों जैसे भौतिक तत्वों का प्रयोग साधना में करना चाहिए ?-02 FACTS;-
1-अनेक प्राचीन तांत्रिक ग्रन्थों के अनुसार वशिष्ठ ने अनार्य तंत्रों (तिब्बत) से प्रभावित होकर पंचमकार की विशिष्ट पद्धति का प्रचार किया था। जिनमें पांच ऐसे तत्वों की गणना है जिनका प्रथम अक्षर ‘म’ है और इसीलिये इन्हें ‘मादितत्व’ भी कहा जाता है। कौलाचार के मूल ग्रन्थ ‘कुलार्णवतंत्र’ में इन पांचों को समझाया गया है–''हे देवि ! मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन –ये पांचों देवता को प्रसन्न करने वाले कारक हैं। ये उपासना के लिए परम आवश्यक हैं। यदि इनके बिना कोई साधना करता है तो उसकी साधना निष्फल जाती है।
श्रीविद्या के उपासक ‘समयाचार’ के मतावलंबी साधक इन पांचों तत्वों का प्रत्यक्ष प्रयोग न कर उनकी कल्पना कर लेते हैं अथवा उनके स्थान पर वे किसी अन्य वस्तु का प्रयोग प्रतीक के रूप में करते हैं। महानिर्वाण तंत्र, कुलार्णव तंत्र, योगिनी तंत्र, शक्ति-संगम तंत्र आदि तंत्रों में पंचमकार के विकल्प या रहस्यवादी अर्थ कर दिए हैं। जैसे मांस के लिए लवण, मत्स्य के लिए अदरक, मुद्रा के लिए चर्वनिय द्रव्य, मद्य के स्थान पर दूध, शहद, नारियल का पानी, मैथुन के स्थान पर साधक का समर्पण या कुंडलिनी शक्ति का सहस्त्रार में विराजित शिव से मिलन।
2-इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता है। यदि ये पांचों तत्व भौतिक ही हैं तो इनके प्रत्येक के साथ ‘गोपनीय’ और ‘रहस्यमय’ शब्द क्यों लगाये गए हैं और यदि इनका अर्थ सामान्य अर्थ में किया गया है तो इस मार्ग पर चलना अत्यन्त कठिन क्यों कहा गया है ? ‘कुलार्णव तंत्र’ कहा गया है ''यदि मदिरा पान करने से मनुष्य को सिद्धि प्राप्त होने लगे तो फिर मदिरा सेवन करने वाले सभी गवांर सिद्धि को प्राप्त कर ही लेंगे। यदि मांस भक्षण करने से ही लोगों की पुण्यगति हो जाये तो इस लोक में सभी मांसाहारी पुण्य के भागी हो जायेंगे। इसी प्रकार मैथुन से किसी को भी मोक्ष प्राप्त होता हो तो इस संसार में कोई ऐसा जीव या प्राणी नहीं रहेगा जिसको मोक्ष उपलब्ध् न हो जाये।इस प्रकार ‘कुलार्णव तंत्र’ में स्पष्ट उल्लेख होने के कारण हमें यह मानना पड़ेगा ये पञ्च मकार कोई भौतिक तत्व न होकर किसी आतंरिक तथ्य की ओर संकेत करते हैं।ये आतंरिक तथ्य पूर्णतया यौगिक और रहस्यमय हैं।
>>क्या है पंचमकार का यौगिक रूप?–05 FACTS;-
1-मद्य (मदिरा) का यौगिक रूप ;–
02 POINTS;-
1-इन पञ्च मकारों में सबसे पहले ‘मद्य’ का नाम् आता है जो साधारण मदिरा न होकर उससे करोड़ों गुना अधिक आनंद प्रदान करने वाला होता है। इसमें प्रत्यक्ष मदिरा का कोई स्थान नहीं है। ''इस मद्य (सुरा) का तात्पर्य ब्रह्मरंध्र में स्थित सहस्रदल कमल से अनवरत नि:स्यन्दमान अमृत से है। इस मद्य के सेवन की बात छोड़िए, मात्र दर्शन से ही सूर्य मण्डल का अवलोकन होता है और इसके सेवन करने से साधक के प्राणों का विस्तार हो जाता है और वह सूर्यलोक में संचरण करने लग जाता है। इसलिए साधक को इसी सुधारूपी मद्य से अपने पात्र को भरना चाहिए। यह मद्य गुरुकृपा से देवता को प्रसन्न करने के लिए साधक को प्राप्त होता है जिसका पान उसे अविचलित मन से करना चाहिए।इस मद्य के आनन्द में इच्छाशक्ति पाने में, ज्ञानशक्ति स्वाद में, क्रियाशक्ति उल्लास में पराशक्ति का निवास रहता है। यह मद्य मायाजाल का नाश करता है, मोक्षमार्ग का निरूपण करता है। सभी प्रकार के दुखों का शमन करता है। इस मद्य का पान योगी लोग ही कर सकते हैं।हमें चाहिए कि ऐसे योगी का हम उपहास न करें। साथ ही साधक को भी चाहिए कि वह अपने किसी भी चक्र के रहस्यमय आनंद को कभी बाहर प्रकट न करे।
2-संयमी साधक इस चक्र में स्थित होकर अपने कुल देवता/कुलदेवी ? का स्मरण करे। इस चक्र में स्थित आनंद का वर्णन कुलार्णव तंत्र करता है–''दिव्य मद्यपान करने में रत योगियों का आनंद निश्चय ही चक्रवर्ती सम्राट को भी उपलब्ध् नहीं हो पाता''।
मदिरा में तीन तत्वों का समावेश होता है। वे तीन तत्व हैं–‘पृथ्वीतत्व’, ‘जलतत्व’ और ‘अग्नितत्व’। इन तीनों तत्वों के गुणों को अपने में समेटने वाली मदिरा के सही और उचित ढंग से तंत्र क्रिया में साधन के रूप में उपयोग करने से साधक का सूक्ष्म शरीर उसके स्थूल शरीर से पृथक हो जाता है। सहज समाधि की अवस्था प्राप्त होने पर ‘साधनरूप मदिरा-ग्रहण’ समाप्त हो जाता है। उसके स्थान पर ‘योगमदिरा’ को स्वीकार कर अंतरंग भूमि में प्रवेश किया जाता है जिसका प्रवेश द्वार सहज समाधि की पूर्व अवस्था है। और यहीं से तंत्र की अंतरंग साधना शुरू हो जाती है जो पूर्णतया योगपरक और आध्यात्मिक है।
2-मांस;–
02 POINTS;-
1-तांत्रिक साधना में ‘मद्य’ की तरह ‘मांस’ का सेवन करने का विधान है। लेकिन यह ‘मांस’ क्या वही मांस है जिसका सेवन आमतौर पर लोग करते हैं ? नहीं, ये मांस अलग है। इसका अर्थ अलग है। इसका आशय है-प्रिय। कल्याणकारी होने के कारण, अमृत स्वरूप आनन्द प्रदान करने के कारण और सभी देवताओं का प्रिय होने के कारण उसका नाम ‘मांस’ है।क्या ये सारे गुण साधारण मांस में मिलते हैं ? नहीं, यद्यपि ‘पाशुपत’ मत के अनुसार ‘पशु’ शब्द का अर्थ जीव से लिया गया है, लेकिन यहाँ पशु का अर्थ ‘पाप-पुण्य भाव रूपी पशु’ से लिया गया है। हमारे ह्रदय में जो भी भाव होते हैं, तंत्र उन्हें पशुभाव मानता है। तंत्र में पुण्य और पाप को महत्त्व न देकर भाव रहित अवस्था को श्रेष्ठ माना गया है। जब तक साधक के मन में पाप या पुण्य के भाव का अस्तित्व है, तब तक वह पशु की श्रेणी में है। ऐसे ही अज्ञानरूपी पशु को ज्ञानरूपी खड्ग से मारकर मांस भक्षण करना मांसाहार के सामान है। कुलार्णव तंत्र में कहा गया है–हे देवि ! ज्ञानरूपी खड्ग के द्वारा पुण्य और पापरूपी पशुओं का हनन करने वाला और अपने मन को पर (ब्रह्म) में लीन करने वाला साधक ही वास्तव में मांसाहारी है। केवल वही योग के ज्ञाता साधक मांसाहारी कहे जा सकते हैं जो सभी इंद्रियों का मन के द्वारा संयोजन करके आत्मा में उन्हें प्रविष्ट करा देते हैं।
2-भगवान् शिव भगवती शक्ति को तन्त्र के रहस्य को समझाते हुए आगे कहते हैं ''हे प्रिये !–पूर्णरूपेण अर्थ समझें बिना इन पञ्च मकारों में मांस आदि का भौतिक रूप से सेवन करने वाले साधक बहुत बड़ी भूल करते हैं।'' हे प्रिये ! अपने प्रयोजन के लिए प्राणियों की हिन्सा की बात तो दूर, एक तिनके की नोक से छेदकर भी किसी को कष्ट नहीं देना चाहिए''। जहाँ हमारे तंत्र ग्रंथों में अहिंसा की इतनी उच्च भावना उल्लिखित हो, वहां मांस खाने के लिए पर जीव की हिंसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता।
फिर ये मद्य, मांस आदि की बात तांत्रिक परंपरा में कहाँ से प्रवेश कर गयी ? इसका सीधा सा उत्तर है कि जिस प्रकार से महर्षि वशिष्ठ ने तंत्र की तिब्बती विधा को अपनाया था लेकिन उन्होंने अपनी ऋषि परंपरा और उसकी मर्यादा का ध्यान रखकर उसमें आर्य तत्वों का समावेश कर सुधार कर लिया। लेकिन ऐसे कितने वशिष्ठ थे जो आर्य अनुकूल मार्ग पर चले ? शायद उनके अनेक समसामयिक साधकों ने उन्हीं अनार्य तांत्रिक क्रियाओं का पालन किया। वास्तव में, अच्छाई की तुलना में बुराई शीघ्र फैलती है, इसका भी वही परिणाम हुआ जो बाद के वर्षों में देखा गया।
3-मत्स्य;-तीसरा साधन है–‘मत्स्य’ या ‘मीन’ जिसका अर्थ है–मछली। तंत्रों में बहुत से संकेत अधिकांशतया रूपकों पर आधारित हैं। मत्स्य शब्द का भी यहाँ रूपक के अर्थ में ही प्रयोग हुआ है।''यहाँ गंगा और यमुना शरीर में स्थित ‘इड़ा’ और ‘पिंगला’ दोनों नाड़ियाँ हैं। उन मत्स्यों का सेवन करने वाला अर्थात् प्राणायाम के द्वारा श्वास-प्रश्वास को ‘सुषुम्ना’ नाड़ी के भीतर संचालित कर लेने वाला साधक ही वास्तव में मत्स्य सेवी है''।
4-मुद्रा;-02 POINTS;-
1-मादितत्व के विचार क्रम में साधारणतया ‘मुद्रा’ से अभिप्राय एक विशिष्ट शारीरिक क्रिया से लिया जाता है। तंत्र में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत आदि चक्रों के साथ साथ ‘खेचरी’ आदि मुद्राएं तथा पूरक, कुम्भक ,रेचक आदि प्राणायामों की विवेचना है जो योगदर्शन की कर्तव्य मीमांसा में दिखाई देती है। परंतु यहाँ मुद्रा का एक दूसरा ही अर्थ है जिसका प्रमाण ‘विजय तंत्र’ के एक श्लोक से मिलता है–''संत्सगति के प्रभाव से मुक्ति प्राप्त होती है और कुसंगति के प्रभाव से नाना प्रकार के मोह-माया आदि बन्धन प्राप्त होता है। इसी कुसंगति के त्याग का नाम ‘मुद्रा’ है। इस प्रकार ‘मुद्रा’ से तात्पर्य ‘असत्संग का परित्याग’ है''।
लोग वेद, पुराण, शास्त्र, उपनिषद, दर्शन, इतिहास आदि सब कुछ पढ़ लेते हैं। गीता और रामायण कंठस्थ भी कर लेते हैं। संतुष्ट भी हो जाते हैं। अपने आप को परम ज्ञानी भी समझने लगते हैं। लेकिन रहते हैं पहले जैसे ही। उनका बाहरी व्यक्तित्व तो अवश्य बदल जाता है, लेकिन आतंरिक स्थिति पहले जैसी ही रहती है। उनका ज्ञान उनके आतंरिक स्वरूप को परिवर्तित नहीं कर पाता है।
2-लेकिन तंत्र ऐसा नहीं है। वह न वेद है, न शास्त्र है, न पुराण है, न उपनिषद है, न तो है कोई दर्शन ही। वह तो क्रियापरक विधि का प्रकृष्ट परम विज्ञान है। उसकी भाषा क्रिया और विधि की भाषा है। भौतिक विज्ञान की तरह देश-काल के अनुसार उसके नियम, सिद्धान्त, क्रिया और विधियां बदलती नहीं। हर युग में, हर काल में और हर अवस्था में एक सी रहती हैं। इसीलिए वह प्रकृष्ट विज्ञान है। वह सर्वव्यापिनी महाशक्ति का विज्ञान है। जिसकी उपयोगिता क्रिया में है, इसीलिए वह गुह्य और गोपनीय है।
वेद और तंत्र भारतीय साधना-संस्कृति के मूल तत्व हैं। वेद परम ज्ञान है और तंत्र है–गुह्य ज्ञान। यह योग्य और संस्कार संपन्न लोगों के लिए है। शुभ संस्कार के उदय होने पर तंत्र में रूचि जाग्रत होती है। उच्च संस्कारों के उदय होने पर सद्गुरु के दर्शन होते हैं। उच्चतम संस्कार के जागने पर सद्गुरु (भैरवी ब्राह्मणी ?) के मार्गदर्शन से सिद्धिलाभ होता है। फिर सिद्धिलाभ के परे है–महाशक्ति का करुणामय अनुग्रह का उपलब्ध् होना। यह [जगतजननी माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट 'मैं' बोध का ] करुणामय अनुग्रह ही साधक की सबसे बड़ी परम संपत्ति है और यह परम संपत्ति ही परम कल्याणकारी है।सच तो यह है कि तब साधक स्वयम् माँ महामाया जगज्जननी का साकार रूप हो जाता है।
5-मैथुन–तंत्र के कौलाचार में पांचवां और अंतिम मकार है–‘मैथुन’।भगवान शंकर माँ पार्वती से कह रहे है कि 'हे देवि ! तंत्र के अनुसार अत्यन्त मजबूत लोहे के पाशों से बद्ध मनुष्य भी मुक्त हो सकता है, परंतु स्त्री, धन आदि में आसक्त मनुष्य कभी मुक्त नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, जितनी भी स्त्रियां हैं, सभी कौलाचारियों के लिए माँ के समान हैं। उनके मन में जरा भी विषय विकार आने पर कुल योगिनियां उसका सर्वनाश कर देती हैं। मैथुन’ पञ्च मकार के रहस्य को समझाते हुए तंत्र कहता है कि आत्मा और पराशक्ति के संयोग से उत्पन्न आनन्द के आस्वादन का नाम ‘मैथुन’ है। इसके विपरीत अर्थ का प्रयोग करने वाले मात्र ‘स्त्री सेवक’ हैं, कौलाचारी नहीं। यह सिद्धि बिना विषयवासना पर विजय प्राप्त किये हो ही नहीं सकती। कामवासना को जीतना परम आवश्यक माना गया है।सहस्रार में स्थित शिव और कुण्डलिनी अथवा प्राण और सुषुम्ना का मिलन का नाम ही 'मैथुनं’ है। वह व्यक्ति जो विषयों में ही केवल आसक्त होता है, उसका पतन होता है, इसमें कोई संशय नहीं है'। जो कौलाचारी साधक अपने आचार का उल्लघन करता है, वह पतित हो जाता है। शास्त्रों के निर्देश को ताख पर रखकर जो साधक अनैतिक आचरण करता है, उसे सिद्धि तो दूर की बात रही, नरक गामी बनना पड़ता है।
NOTE;-
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कौलाचार के ये पांचों मकार अंतर्योग से सम्बंधित हैं। इनको भौतिक अर्थ में ग्रहण करना भारी भूल है।
[VIGYAN INDIA.COM (विज्ञान इंडिया डाट कॉम )प्रस्तुतकर्ता Vartabook सितंबर 20, 2021
क्या है आदि शंकर द्वारा लिखित ''श्री ललिता सहस्त्रनाम''की महिमा
.....SHIVOHAM....साभार Chida Nanda/ https://www.facebook.com/photo.php?fbid=228561539277929&id=100063722529518&set=a.205890331545050
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गणेश प्रतिमा का आध्यात्मिक रहस्य
कौन हैं गणेश?तन्त्र -ज्ञान की कुछ गहरी बातें : तंत्र में साधनाएं
- https://aishwaryanand.org/shri-vidya/page/3/
हरीश भिमानी ने शेक्सपियर के इसी उक्ति को आत्मसात किया है -"Mend your speech a little, lest it mar your fortunes," 'अपनी वाणी को थोड़ा सुधारें, ऐसा न हो कि यह आपके भाग्य को खराब कर दे।' from King Lear.'
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