Wednesday, September 12, 2012

'"युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द का मार्गदर्शन " (যুব সমস্যা ও স্বামী বিবেকানন্দ) 'ओजस ही मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व है !' [ SVHS- 3.4 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : खण्ड 3 -स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ]*

युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द का मार्गदर्शन "

"Youth problems and guidance of Swami Vivekananda"
 
॥ १।।

 'मनुष्य बनने के लिए श्रद्धा अनिवार्य है !' 
        
       एक दिन बलराम मन्दिर के एक कमरे में एकत्रित बहुत से श्रोताओं के समक्ष स्वामीजी कह रहे थे, " आज हमें श्रद्धा की आवश्यकता है, आत्मविश्वास की आवश्यकता है। अब हमें पुनः एक बार सच्ची श्रद्धा का भाव जाग्रत करना होगा, हमारे सोये हुए आत्मविश्वास को जगाना होगा, तभी आज देश के सामने जो समस्यायें हैं, उनका समाधान स्वयं हमारे द्वारा ही हो सकेगा।"
      किन्तु, इस उत्तर से संतुष्ट न हो एक व्यक्ति ने प्रश्न किया, " केवल श्रद्धा से ही हमारे समाज के असंख्य दोष कैसे दूर होंगे? देश में जो बुराइयाँ और कुरीतियाँ हैं,उन्हें दूर करने के लिये कांग्रेस तथा अन्य देशभक्त संस्थायें प्रचार और आन्दोलन कर रही हैं, अंग्रेज सरकार से प्रार्थना भी कर रही हैं, क्या इससे  भी अच्छा कोई मार्ग है ? श्रद्धा भला इन सब कमियों को कैसे पूर्ण कर देगी ?  
स्वामीजी बोले - " भिखमंगों की माँगे कभी पूरी नहीं होती। माना की अंग्रेज सरकार तुमको तुम्हारी आवश्यकता की वस्तुएँ देने को एकबार राजी भी हो जाये , पर प्राप्त होने पर उन्हें सुरक्षित और संभालकर रखनेवाले मनुष्य कहाँ हैं ? इसलिए पहले -'मनुष्य' उत्पन्न करो। हमें अभी 'मनुष्यों' की  आवश्यकता है , और बिना श्रद्धा के कोई व्यक्ति 'मनुष्य' कैसे बन सकता है ?  
प्रश्नकर्ता ने कहा - " आप जो बात कर रहे हैं, बहुसंख्यक लोग ऐसा नहीं मानते। " 
       इस पर स्वामीजी का निर्भीक उत्तर मिला- " जिसे तुम बहुसंख्या कहते हो, वह मूर्खों की और अति साधारण बुद्धि रखने वालों की जमात है। सभी देशों में, जिनके पास विचार करने के लिए मस्तिष्क है, ऐसे व्यक्ति कम होते हैं। ये ही कुछ मेघावी और विचारशील व्यक्ति सर्वत्र अग्रणी होते हैं , और बहुसंख्या सदैव उनका अनुसरण करती है। " (वि० सा० ख० ८-२६९-७०)
    स्वामीजी की इन बातों को स्मरण रखने की विशेष आवश्यकता है। हम अपने ज्ञान या पद को लेकर चाहे जितना भी गर्व क्यों न करें, किन्तु हममें से अधिकांश व्यक्ति भ्रमित (Hypnotized) हैं, इसलिए हममें से अधिकांश लोगों में इस 'श्रद्धा'- नामक वस्तु का नितान्त आभाव है। आज जब हम समस्याओं से बोझिल युग में वास कर रहे हैं, तब हमें इस सच्चाई पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिये।
        अभी देश के सामने असंख्य समस्यायें सुरसा के समान मुँह फैलाये खड़ी हैं। गरीबी, अशिक्षा, बढ़ती जनसंख्या, साम्प्रदायिकता, दलित-पिछड़े समुदाय,  कानून-व्यवस्था, राष्ट्रिय एकता एवं अखण्डता, देश की सीमाओं की सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण तथा कृषि योग्य भूमि में सिंचाई, उत्पादन दर में वृद्धि, जल और वायु प्रदुषण, व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के सामने अपना कोई स्पष्ट दर्शन और किसी राष्ट्रीय आदर्श का न होना, भ्रष्टाचार, काला धन, नारी शक्ति का अपमान, परस्पर सौहार्द की कमी आदि और भी कई समस्यायें हमारे देश के सामने हैं। वर्तमान में एक नई समस्या हमारे देश में उत्पन्न हुई है , वह है --वयोवृद्ध (बड़े -बुजुर्ग) लोगों की समस्या।
       जीवन और समस्यायें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हम जब तक जीवित हैं, समस्यायें रहेंगी ही। जहाँ जीवन नहीं है, वहाँ कोई समस्या भी नहीं है यदि सूर्य के तापमान का हमारे जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, तो हम इस बात को लेकर कभी चिंतित नहीं होते कि उसका तापमान घट रहा है कि नहीं? जीवन को विकसित तथा प्रकाशित होने में जो बाधक होता हो, जीवन-प्रस्फुटन (विकास -या जीवनगठन) की संभावना को जो संकुचित करता हो, जिसके कारण जीवन पथ पर गतिशील रहने में बाधाएँ आती हैं-उसी को समस्या कहते हैं। इसके अतिरिक्त जहाँ जीवन है, वहाँ समस्याएं भी जुड़ी रहती हैं। जीवन (Life) को परिभाषित करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-  "एक अन्तर्निहित शक्ति (पूर्णता)अपने को अभिव्यक्त करना चाह रही है; किन्तु बाहरी परिवेश तथा परिस्थितियाँ मानो उसको दबाये रखना चाहती हैं। उन समस्त परिवेश के दबाव का अतिक्रम करके आत्मविकास करने और अन्तर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity) को प्रस्फुटित करने का नाम ही जीवन है।" 
[पिता की मृत्यु के बाद स्वामी विवेकानंद को जिन घोर आर्थिक कष्टों का सामना करना पड़ा था , उन्हें याद करते हुए उन्होंने कहा था -those dark days helped him to grow and gain strength. “Life is the unfoldment and development of a being under circumstances tending to press it down.”  "He only lives who lives for others, the rest are more dead than alive.  Expansion is life, contraction is death. Love is life, and hatred is death. Strength is life, weakness is death.] 


॥ २।।

बचपन से ही यथार्थ शिक्षा पर जोर देना होगा !

         सामान्यतः सार्वजनिक समस्या के ऊपर ही हमलोग चर्चा करते हैं, जैसे जनसंख्या वृद्धि या वायु प्रदुषण की समस्या आदि। कुछ समस्याएं धीरे- धीरे एक कुनबे की समस्या (वंशवाद) में परिणत हो जाती है। जैसे परिवार विशेष की गरीबी, साम्प्रदायिकता, पिछड़े एवं दलितों की समस्या आदि। ततपश्चात यही समस्या सम्पूर्ण समाज को प्रभावित करने लगती हैं। इसीलिये जब हम किसी समुदाय-विशेष को ध्यान में रखते हुए समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करते हैं तो उस समुदाय विशेष की समस्या का समाधान तो होता नहीं उल्टे, नई समस्यायें उत्पन्न हो जाती है।इसीलिये छोटे-छोटे समुदाय-विशेष या क्षेत्र-विशेष में व्याप्त समस्याओं का हल ढूँढने की अपेक्षा वृहत्तर मानव-समुदाय की समस्या के प्रतिकार की चेष्टा करना अधिक वैज्ञानिक तथा तर्कसंगत है। स्वामी विवेकानन्द इसी पद्धति के पक्षधर थे।
         पूर्वोक्त समुदाय-विशेष के समस्याओं की तुलना में वयोवृद्ध लोगों की समस्या में थोड़ी नई -नई है। वयोवृद्ध (बड़ेबुजुर्ग,सेवानिवृत्त) लोग समाज में कोई स्थायी समूह नहीं है। जो पहले शिशु थे वे ही तरुण हुए, युवा हुए, प्रौढ़ हुए तथा अंत में वृद्ध हुए हैं। उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच कर उन्हें कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। किन्तु यह समस्या संपन्न उपभोक्तावादी (Affluent consumerist) समाज की देन है। 
[इस -'श्रवनकुमार'  के देश में पहले यह समस्या नहीं थी।] ऐसी सामाजिक व्यवस्था का अनुकरण करने के परिणाम स्वरूप यह समस्या आज हमारे समाज में भी प्रविष्ट हो गयी है। जिस प्रकार, विशेष रूप से यूरोप में बाल्यावस्था और किशोरावस्था की समस्या अभी गंभीर रूप धारण करने लगी है। वहाँ के शिक्षाशास्त्री इस समस्या के समाधान के प्रति काफी सजग तथा प्रयत्नशील हैं। पाश्चात्य देशों में जो समस्या किशोरों के लिए आम बन चुकी है वह हमारे देश में अभीतक केवल अनाथ  बच्चों में ही पाई जाती थी। किन्तु,अब, हमारे देश में भी इस आयुवर्ग पर भोगवादी संस्कृति का प्रभाव पड़ने लगा है। फिर भी हम अभी तक इस समस्या को लेकर जागरूक नहीं हुए हैं। यदि बालकों और युवाओं की समस्या का समाधान का समुचित ढंग से नहीं किया गया तो वयोवृद्ध लोगों की समस्या भी वैसी -की वैसी ही बनी रहेगी। 
उसी प्रकार बच्चों में भी आधुनिक समस्या दिख रही है। जिसके बारे में स्वामीजी ने जोर देकर कहा है, बचपन में यथार्थ शिक्षा नहीं मिल पाने के कारण ही शिशुओं और किशोरों में आधुनिक समस्या जो पहले विदेशों में दिखाई देती थी, अब अपने देश में भी दिखाई देने लगी है। यहाँ के नाबालिग लड़के भी जघन्य अपराध कर रहे हैं ! (और इसका हल हमारे राजनेता व्यस्क होने की उम्र 14 वर्ष कर करना चाहते हैं।) पहले माता-पिता या अभिभावक अपनी संतानों को यथार्थ मनुष्य (माँ -बहनों को सम्मान देने वाला मनुष्य) बनाने के प्रति सचेष्ट रहते थे, किन्तु धन कमाने में व्यस्त आज के माता -पिता [मम्मी-डैडी]  उस प्रकार की यथार्थ शिक्षा देने के प्रति घोर उदासीन हैं। इस समस्या का यदि समय रहते समाधान नहीं ढूंढा गया तो यह समस्या विकराल होती जाएगी और हम युवाओं की समस्या की जड़ तक कभी नहीं पहुँच पाएंगे।  
        किसी समस्या को हल करने के दो उपाय हैं, पहला तरीका है - 'उपचारात्मक' (Curative) और दूसरा है निरोधात्मक (Preventive)। किन्तु, रोग हो जाने के बाद उसका उपचार करने की अपेक्षा रोग हो ही नहीं इसका प्रयास करना ज्यादा उत्तम तरीका है। जो समाज किसी समस्या के दिखाई पड़ने के पहले ही उसका  पूर्वानुमान कर लेता है और उसके रोकथाम में समर्थ होता है वह कई दुर्दमनीय समस्यायों से बच जाता है। वर्तमान समय में हमारे देश (संगठन) में जितनी भी समस्यायें दृष्टिगोचर हो रही हैं उनमें से अधिकांश का कारण हमारे समाज या उसके संचालकों (नेताओं, शिक्षकों) में दूर दृष्टि का अभाव ही है। 
          समस्या तो जीवन के साथ जुड़ी वस्तु है। और जीवन का प्रारंभ शैशवकाल से ही हो जाता है। यदि उसी समय से संभावित  समस्याओं के समाधान का निरोधात्मक उपाय (बचपन से ही मनुष्य-निर्माण और जीवन-गठन की शिक्षा) को नहीं अपनाया गया, तो बड़े हो जाने के बाद कई समस्याओं का समाधान सम्भव नहीं हो पाता। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द जिस प्रकार वृहत्तर मानव-समुदाय की समग्र समस्यायों (overall problems) के समाधान पर ध्यान केन्द्रित रखने के पक्षधर थे, उसी प्रकार वे उपचारात्मक व्यवस्था की अपेक्षा निरोधात्मक उपाय लागु करने के पक्षधर भी थे। क्योंकि, उपचारात्मक पद्धति में कोई समस्या, या बुराई जो बढ़ कर दिखाई दे रही  हो, या कोई घाव का जो नासूर बन चुका हो, उसका ऑपरेशन करना पड़ता है, काटना या तोडना पड़ता है। किन्तु निरोधात्मक पद्धति में किसी चीज को तोड़ना नहीं पड़ता बल्कि निर्माण करना होता है। 
       स्वामीजी ने कभी भंजन करने पर नहीं , हमेशा निर्माण करने पर ही बल दिया है। समस्या (गाँठ) को काटना या तोडना नहीं है बल्कि, बालक, किशोर या युवा- जिस किसी के जीवन से जुड़ी हुई समस्या है- उस जीवन को ही उचित तरीके से गढ़ देना समस्या का स्थायी समाधान है। और स्वामीजी द्वारा प्रदत्त समस्त समस्याओं के समाधान का मूल सूत्र भी यही है।
    स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " यदि मेरी कोई संतान होती तो मैं उसे जन्म से ही सुनाता- 'तत्वमसि निरंजनः।' तुमने अवश्य ही पुराणों में रानी मदालसा की वह सुन्दर कहानी पढ़ी होगी। उसके संतान होते ही वह उसको अपने हाथ से झूले पर रखकर उसको लोरी सुनाते हुए गाती थी- 'तुम हो मेरे लाल निरंजन अतिपावन निष्पाप, तुम हो सर्व-शक्तिमान, तेरा है अमित प्रताप।' इस कहानी में एक महान सत्य छिपा हुआ है- 'अपने को बचपन से ही महान समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे!" (५/१३८) 
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        [दादा यह कहानी अवश्य सुनाया करते थे कि भारत की मातायें प्राचीन काल अपनी सन्तानों को बचपन से ही आत्मश्रद्धा जागृत करने की कथायें सुनकर उन्हें, आत्मवेत्ता या  ब्रह्मविद मनुष्य बनने की शिक्षा देती थीं। इतिहास में इसका एकमात्र उदाहरण है- रानी मदालसा। इन्होंने अपने पुत्रों को परम ज्ञान का उपदेश देकर जीवन जीने की दिशा दिखाई थी। पुत्र से मां का मोह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन रानी मदालसा ने इस मोह से हटकर अपने चारों पुत्रों को ऎसी शिक्षा दी जिससे उनके कर्म के आधार पर उनकी पहचान हो। 
          वे मानतीं थी कि संसार में नाम की महिमा कुछ नहीं है। व्यक्ति को उसके नाम से नहीं बल्कि उसके कर्मो से पहचाना जाता है। जब राजा ऋतध्वज अपने पुत्रों का नामकरण करते थे तो मदालसा को हंसी आती थी। पहले तीन पुत्रों के जन्म के बाद राजा ने उनका नामकरण किया तो वे हर बार हंसी।
      अपने तीनों पुत्रों को मदालसा ने यही सिखाया। उन्हें नश्वर शरीर व भौतिक सुखों से मोह नहीं करने की शिक्षा दी। उन्होंने बताया कि विद्वान वही है जो सुखों को भी दुख समझकर जीवनयापन करें। उनके तीन पुत्र हुए। बड़े का नाम विक्रांत, दूसरे का नाम सुबाहु और तीसरे का नाम शत्रुमर्दन था। मदालसा ने उन्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दी। अपने लड़के को पालने में रख कर, झुलाते झुलाते यह लोरी गा कर सुनाती थीं-

शुद्धोsसि रे तात न तेsस्ति नाम,

  कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।

पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति,

 नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥

 हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है? 
बचपन से ही वेदान्त सुनकर तीनों पुत्रों को वैराग्य हो गया और वे जंगल में तपस्या करने चले गए। तब मदालसा का चौथा पुत्र हुआ। तब राजा ने मदालसा से कहा कि कम से कम इस पुत्र को तो सांसारिक-ज्ञान की शिक्षा दो जिससे हमारा राजपाट चल सके।  
       रानी मदालसा ने अपने चौथे पुत्र नाम अलर्क (पगला कुत्ता ) रखा।  मदालसा की शिक्षा से वह बहुत ही शूरवीर, पराक्रमी राजा हुआ।  कुछ समय बाद राजा ऋतुध्वज अपनी पत्नी मदालसा के साथ अलर्क को राज्य सौंपकर जंगल में तपस्या करने चले गए। हालांकि राजा के कहने पर चौथे पुत्र को धर्म, अर्थ और काम शास्त्रों की भी शिक्षा दी। लेकिन तपस्या के लिए वन में जाते समय उसे भी यही उपदेश दिया कि आत्मा निराकार है। अंतत: मां की दी हुई यही शिक्षा पाकर चौथे पुत्र को भी आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई कि तू शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। इस प्रकार यह रानी मदालसा की ही शिक्षा थी कि जिससे सुबाहु, विक्रांत और शत्रुमर्दन जैसे ब्रह्मज्ञानी और अलर्क जैसे प्रतापी राजा हुए। मदालसा भारत की एक गौरवमयी माँ थीं।
माँ बनो तो आदर्श माता मदालसा जैसी
मदालसा देवी कहती हैं- "एक बार जो मेरे उदर से गुजरा वह यदि दूसरी स्त्री के उदर में जाय, मुक्त न होकर दूसरा जन्म ले,  तो मेरे गर्भधारण को धिक्कार है !वे जब अपने पुत्रों को पालने में सुलाती थीं, तब उनको आध्यात्मिक ज्ञान की लोरियाँ सुनाती थीं। जैसेः

शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसारमायापरिवर्जितोऽसि ।

संसार-स्वपनं त्यज मोहनिद्रां,  मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् ।।

'हे पुत्र, तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है, तूँ तो संसार की माया से रहित है। यह संसार स्वपनमात्र है। उठ, जाग, मोहनिद्रा का त्याग कर ! तू सच्चिदानंद स्वरुप आत्मा है।'
इन आर्य महिला ने, आदर्श माता ने अपने सभी पुत्रों को आत्मज्ञान से सम्पन्न बनाकर संसार-सागर से पार करा दिया।
माँ (महिला) बनो तो ऐसी बनो। बच्चों को आत्मज्ञान की लोरियाँ सुनाओ। घर में भी आत्मज्ञान की चर्चा करो। सुख-दुःख आये तो आत्मज्ञान की निगाहों से निहारो। इस संसार से कभी प्रभावित मत होओ। अपने परमात्मा की मस्ती में मस्त रहो। 

राजकुमारी मदालसा एक पौराणिक चरित्र है, जिसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। वह गन्धर्वराज विश्वावसु की पुत्री थी। कालांतर में उसका विवाह राजकुमार ऋतुध्वज के साथ हुआ।
राजा ऋतुध्वज एक बार असुरों से युद्ध करने गए। इनकी सेना असुर पक्ष पर भारी पड़ रही थी। ऋतुध्वज की सेना का मनोबल टूट जाये इसलिये मायावी असुरों ने ये अफवाह फैला दी कि ऋतुध्वज मारे गये। यह सूचना रानी मदालसा तक पहुँची तो वह इस गम को सह नहीं कर सकी और उसने अपने प्राण त्याग दिए।
असुरों पर विजय प्राप्तकर जब ऋतुध्वज राजमहल लौटे तो वहां मदालसा को नहीं पाया। मदालसा के वियोग से राजा को बड़ा सदमा लगा और वे राज-काज छोड़कर विक्षिप्तों की तरह व्यवहार करने लगे।
मदालसा का पुनर्जीवन
ऋतुध्वज के प्रिय मित्र नागराज से अपने मित्र की ये अवस्था देखी न गई और वे हिमालय में तपस्या करने चले गए ताकि भगवान शिव को प्रसन्न कर सके। शिव प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा तो नागराज ने उनसे अपने लिए कुछ न मांगकर मित्र ऋतुध्वज के लिये मदालसा को पुनर्जीवित करने की मांग रख दी। शिवजी के वरदान से मदालसा अपनी उसी आयु के साथ मानव-जीवन में लौट आई और पुनः ऋतुध्वज को प्राप्त हुई।
मृत्यु के पश्चात मिले पुनर्जीवन ने मदालसा को मानव शरीर की नश्वरता और जीवन के सार-तत्व का ज्ञान करा दिया। अब वह पहले वाली मदालसा नहीं रही। विषय-भोग में उसकी रूचि समाप्त हो गई और वह आध्यात्मिक चिंतन में मग्न में रहने लगी। पति ने जब संतान प्राप्ति की इच्छा प्रकट की तो मदालसा ने कहा कि मैं संतान नहीं चाहती हूं। पति ने जब इसका कारण पूछा तो मदालसा बोली कि यदि संतान कुसंस्कारी या कुल का कलंक निकल जाए तो मैं उसे नहीं झेल सकती। पति ने कहा--"मैं और तुम दोनों ही धर्म के रास्ते पर चलनेवाले हैं तो हमारी संतान कुसंस्कारी क्यों होगी?" मदालसा ने उत्तर दिया--"कभी-कभी अच्छे मां-बाप की संतान भी बुरी हो जाती है और बुरे मां-बाप की संतान भी अच्छी हो जाती है। यह आवश्यक नहीं है कि अच्छे मां-बाप की संतान अच्छी ही हो।"
संतान प्राप्ति
बड़ी मुश्किल से मदालसा ने संतान उत्पन्न करना स्वीकार किया। पर, पति से वचन ले लिया कि होने वाली संतानों के लालन-पालन का दायित्व उसके ऊपर होगा और पति उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगें।
मदालसा गर्भवती हुई तो वह उपासना में अधिक समय देने लगी। समय पाकर संस्कारी पुत्र हुआ, जिसका पवित्रता के साथ वह लालन-पालन करने लगी। शिशु जब रोता था तो उसे वेदांत ज्ञान से पूर्ण लोरी सुनाते हुए कहती थी-- तू शुद्ध है तू बुद्ध है, तू है निरंजन सर्वदा। संसार माया से रहित, तू स्वरूप स्थित सर्वदा।।
पुत्रों का वैराग्य
समय बीतता गया, एक के बाद एक तीन पुत्र हुए-- विक्रांत, सुबाहू और शत्रुमर्दन। तीनों पुत्र मदालसा से संस्कारित थे। मदालसा ने उन्हें माया से निर्लिप्त निवृतिमार्ग का साधक बनाया था, इसलिये सबने राजमहल का त्यागकर संन्यास ले लिया। पिता ऋतुध्वज यह सोचकर दु:खी रहने लगे कि हमारा वंश कैसे चलेगा।
एक बार किसी सहेली ने रानी मदालसा से पूछा कि तुम कैसी मां हो, क्या तेरे अंदर ममता नहीं है? तुम कैसे अपने छोटे-छोटे बच्चे को संन्यासी बनाकर जंगल भेज देती हो? मदालसा ने उत्तर दिया--"जो जीव एक बार मेरी कोख में आ गया अगर दोबारा वह किसी दूसरी स्त्री के गंदे कोख में जाए तो यह मेरे जीवन के लिए धिक्कार है। मैं अपनी संतानों को जन्म-मरण रूपी महादुख में नहीं जाने देना चाहती।"
मदालसा फिर से गर्भवती हुई तो पति ने अनुरोध किया कि हमारी सभी संतानें अगर निवृतिमार्ग की पथिक बन गई तो ये विराट राज-पाट को कौन संभालेगा। इसलिये कम से कम इस पुत्र को तो राजकाज की शिक्षा दो। मदालसा ने पति की आज्ञा मान ली। जब चौथा पुत्र पैदा हुआ तो मदालसा ने उसका नाम अलर्क रखा और उसे राजधर्म और क्षत्रियधर्म की शिक्षा दी।
प्रतापी राजा अलर्क
अलर्क माता के दिव्य ज्ञान से संस्कारित होकर सर्वगुणसंपन्न हो गया। उसकी गिनती श्रेष्ठ राजाओं में होने लगी। उन्हें राजकाज की शिक्षा के साथ माँ ने न्याय, करुणा, दान इन सबकी भी शिक्षा दी थी। वाल्मीकि रामायण में आख्यान मिलता है कि एक नेत्रहीन ब्राह्मण राजा अलर्क के पास आया और अलर्क ने उसे अपने दोनों नेत्र दान कर दिये। इस तरह अलर्क विश्व के पहले नेत्रदानी हुए। इस अद्भुत त्याग की शिक्षा अलर्क को माँ मदालसा के संस्कारों से ही मिली थी।
माना जाता है कि बालक क्षत्रिय कुल में जन्मा हो तो ब्रह्मज्ञानी की जगह रणकौशल से युक्त होगा। नाम शूरवीरों जैसे होंगें तो उसी के अनुरूप आचरण करेगा। इन सब स्थापित मान्यताओं को मदालसा ने एक साथ ध्वस्त करते हुए दिखा दिया कि माँ अगर चाहे तो अपने बालक को शूरवीर और शत्रुंजय बना दे और वो अगर चाहे तो उसे धीर-गंभीर, महात्मा, ब्रह्मज्ञानी और तपस्वी बना दे। अपने पुत्र को एक साथ साधक और शासक दोनों गुणों से युक्त करने का दुर्लभ काम केवल माँ का संस्कार कर सकता है।
स्वामी विवेकानंद ने मदालसा के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर कहा था, "अगर मेरी कोई संतान होती तो मैं जन्म से ही उसे मदालसा की तरह लोरी सुनाते हुए कहता-- शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि। संसार माया परिवर्जितोऽसि। संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्रां।।"
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॥ ३।।

युवा समस्या का मूल कारण उनकी प्राण ऊर्जा है 
   
     जिस प्रकार सार्वजनिक और कुनबे की समस्याओं (सामाजिक न्याय) से बालकों, किशोरों और वयोवृद्ध की समस्या में अंतर है उसी प्रकार इन दोनों समस्याओं की तुलना में युवा- समस्या का भी अपना एक वैशिष्ट है। युवा- समस्या के दो पहलु बिल्कुल स्पष्ट हैं। बालक और किशोर अपनी समस्याओं को लेकर स्वयं परेशान रहते हैं। वयोवृद्ध लोग भी अपनी ही समस्याओं से  पीड़ित रहते हैं। किन्तु, युवावर्ग की समस्याओं का बोझ केवल युवावर्ग को ही वहन नहीं करना पड़ता बल्कि  कई बार उसकी पीड़ा  समाज को भी सहनी पड़ती है। 
     इसीलिये इसके समाधान की चिन्ता सबों के मन में उठती रहती है। सभी लोग ऐसा कहते हैं कि उन्हें युवा-समस्या के अस्तित्व का पता है किन्तु, बहुत थोड़े से लोग ही इस समस्या के मूल कारण को समझते हैं; और इसका समाधान ढूँढ़ पाना तो खैर अधिकांश लोगो की क्षमता से बाहर है ही। युवाओं के मन में भी इस समस्या के मूल कारण, उसके  गुण-धर्म और समाधान के प्रति जो विचार होता है वह अन्य वर्ग विचारों के साथ मेल नहीं खाता।  दृष्टिकोण में अंतर रहने के कारण ही  समाज और युवा मिलकर समस्या का समाधान नहीं निकाल पाते जिसके फलस्वरूप  विचारों का संघर्ष प्रत्यक्ष रूप में दिखाई पड़ने लगता है। 
          समस्या तो जीवन के साथ जुड़ी हुई चीज है। और युवावस्था में जीवन की गति सर्वाधिक तीव्र रहती है। इसीलिये युवाकाल में बाधाएँ भी अधिक आती हैं। जीवन की अभिव्यक्ति में आने वाली बाधा को ही समस्या कहते हैं। इसलिये युवा जीवन की समस्या यदि सर्वाधिक ध्यान आकर्षित करे तो इसमें आश्चर्य क्या है ? यौन की प्राणउर्जा का प्राचुर्य युवाओं को स्वाभाविक रूप से विशिष्टता प्रदान करता है, किन्तु उसका आक्रोश समाज को शंकित कर देता है। इसीलिए समाज के सभी लोग चाहते हैं कि युवा समस्या का समाधान जल्द से जल्द हो।
         युवा-समस्या कहने से, खुद युवावर्ग क्या समझता है ? युवावर्ग स्वच्छंदता (freedom)  चाहता है -खुली छूट चाहता हैं। किन्तु, वह पाता है  कि समाज हर कदम पर उनकी स्वच्छंदता में बाधा डाल रहा है। (वेलेन्टाईन डे नहीं मानाने देता है।) मनमानी नहीं कर पाने के कारण उसके मन में  पूरी दुनिया के प्रति क्रोध जाग उठता है। युवा जीवन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति की प्रेरणा के साथ, जो अक्सर अभिव्यक्त होता है, वह उनका आक्रोश ही होता है। लेकिन उस आक्रोश की अभिव्यक्ति अक्सर विनाशक हो जाती है। अपने आक्रोश को प्रकट करने के लिये वह जो कुछ सामने दीखता है , उसी को तोड़-फोड़ डालना चाहता है।
     युवा आदर्शवादी होता है, उसके समक्ष आदर्श का एक असपष्ट सा मॉडल रहता है। किन्तु, समाज में वह हर स्तर पर गैर-बराबरी और अन्याय को देखता है। वह देखता है कि  कुछ व्यक्ति जहाँ निश्चिन्त होकर अपना जीवन बिता रहे हैं, वहीँ उसके जीवन में अनिश्चितता है,  जिसे वह  प्राप्त करना चाहता हैं, प्राप्त  नहीं कर पाता और दुःखी हो जाता है; तथा इन सबके लिए वह वयोबृद्ध (बड़े-बुजुर्गों) को ही जिम्मेदार  मानने लगता है। इसीलिये वह उनका सम्मान भी नहीं करता है । युवा समुदाय यही सोचता है कि समाज की सारी व्यवस्था इन बड़े-बुजुर्गों ने ही बनाई हैं, इसलिये उनका आक्रोश समाज की हर व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने पर उतारू हो जाता है।  
       किन्तु, यह युवा समस्या नवीन नहीं है बल्कि शाश्वत है। हाँ,  इसमें कुछ नए आयाम  अवश्य जुड़ गए  हैं। वे देखते हैं कि घर का आभाव है, शिक्षा का समान अवसर उपलब्ध नहीं है, प्रतियोगिता है, नौकरी का अवसर भी कम होता जा रहा है, पैसा कमाना कठिन हो गया है, खेल-कूद या मनोरंजन के साधन भी सुलभ नहीं हैं।  (खुला -मैदान,पार्क, तालाब आदि पर भूमाफियाओं ने कब्जा जमा लिया है। ) इन सब परिस्थितियों को देखकर उनके मन में निराशा उत्पन्न होती है, जिसके फलस्वरूप क्रोध उनके मन को आछन्न कर लेता  है। यह आक्रोश फट पड़ने के लिये किसी परीक्षण की प्रतीक्षा नहीं करता जैसे ही कोई निहित स्वार्थी व्यक्ति या दल उनकी मनोव्यथा या अभिलाषा के प्रति थोड़ी सी भी सहानभूति दिखाता है, वे विवेक-विचार किये बिना ही उसके पीछे पागल हो जाते हैं। इससे  स्वार्थी तत्वों का स्वार्थ तो सिद्ध हो जाता है किन्तु, युवाओं की प्राण ऊर्जा कहीं रेगिस्तान में दफन हो जाती है।   
           युवा-समस्या कहने से दूसरे लोग (बड़े-बुजुर्ग) क्या सोचते हैं वे समझते हैं कि ये लड़के तो बड़े उदण्ड हो गये हैं, थोड़ी  भी विनम्रता इनमें नहीं बची है, बिल्कुल असंयमी और विध्वंशक बन गए हैं। ऐसी सोंच रखने वालों का एक समूह तो युवा वर्ग  की निन्दा करके ही चुप बैठ जाता है।  वहीँ कुछ अन्य लोग  इनके उपर बाहर से अनुशासन थोप कर इन्हें बन्धनों में जकड़ना चाहते हैं। अपने जीवन को उपद्रव से बचाने के स्वार्थवश वे युवाओं को प्रलोभन देकर या दबाव डालकर शिक्षित करना चाहते हैं।  या उपर से प्रलेप चढ़ा कर शिक्षा को  सुरुचिपूर्ण बनाने की चेष्टा करते हैं, या किसी प्रकार से उनके क्रोध को हल्का करना चाहते हैं युवाओ की समस्या का समाधान करने के लिये वे अपनी आधुनिक उदारता का प्रदर्शन करते हुए, बहुत हुआ तो इनके लिये आमोद-प्रमोद और खेल-कूद के लिये अधिक अवसर देने की चेष्टा (20 -20 क्रिकेट मैच आदि) करते हैं, परीक्षा में आसानी से उत्तीर्ण करवा देते हैं, उपयुक्त शिक्षा और दक्षता अर्जित किये बिना ही नौकरी लगवा देते  हैं, विवाह करने की बाध्यता को समाप्त कर, free mixing, बे-रोक-टोक मिलन को संवैधानिक मान्यता देने को तैयार हो जाते हैं।  

॥ ४।।

 'कच्चा मैं  को पक्का मैं' में रूपांतरित करने चेष्टा को ह्रदय का विकास कहते हैं' 
   
      दोनों पक्षों में से कोई भी पक्ष युवा-समस्या को  समझने को तैयार नहीं है, शायद इस समस्या का मुख्य पहलु भी यही है। युवा-समस्या भी प्राण-उर्जा के प्रस्फुटन की समस्या है, इस काल की असीम प्राण ऊर्जा ही समस्या का रूप धारण कर लेती है। स्वामी विवेकानन्द की परिभाषा के अनुसार, 'जीवन' का अर्थ है- अन्तर्निहित शक्ति को प्रस्फुटित और विकसित करना ! हमने यह देखा है कि जीवन को विकसित करने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को ही समस्या कहते हैं, इसलिये समस्या का अनुसन्धान भी जीवन के प्रस्फुटन और विकास को ध्यान में रखते हुए करना होगा। 
         पिछले अध्याय में हमने देखा है कि युवा समुदाय से भिन्न अन्य वयोवृद्ध लोग या तो उनकी निन्दा करते हैं या कुछ चतुर-स्वार्थी लोग उन्हें भोग-सुख का प्रलोभन देकर उनकी शिकायत और क्रोध को शांत करने की चेष्टा करते हैं। यह प्रलोभन देने की चेष्टा जीवन-पुष्प के प्रस्फुटित होने में बाधा ही पहुँचाती है। इसलिये यह कभी समाधान का पथ नहीं हो सकता। फिर युवावर्ग जिस सत्ता को प्रकट करना चाह रहा होता है, वह उसकी वास्तविक सत्ता (आत्मा)- उसका ' पक्का मैं' नहीं, उसका 'कच्चा मैं' (मिथ्या अहं-देहाध्यास) है। वास्तविक सत्ता के द्वारा 'कच्चा मैं' को 'पक्का मैं ' रूपान्तरित करने की चेष्टा (प्रशिक्षण) को ही विकास कहते हैं। इस विकसित सत्ता को अभिव्यक्त कर पाने पर ही वे सच्चा जीवन प्राप्त कर सकते हैं। और  युवावर्ग की समस्या का सही समाधान भी यही हो सकता है।
       कच्चा 'मैं' (व्यष्टि अहं) का सर्वगत अहं, विराट 'मैं'-बोध में विकसित होना बीज के अंकुरित होने जैसी प्रक्रिया है। छोटा सा बरगद का बीज जिस प्रकार अंकुरित होते समय कड़ी मिट्टी का भेदन करके पौधे के रूप में अपने को प्रकट करता है। वह बीज जिस प्रकार अपने प्रस्फुटन की बाधा को जैसे आसानी से लाँघ जाता है , उसी प्रकार युवाओं का जीवन-पुष्प भी समाज के कठोर वातावरण को आसानी से भेदते हुए विकसित विकसित हो जायेगा।  अतः हमें यह समझना होगा कि युवा समस्या की जड़ जीवन-पुष्प के प्रस्फुटित होने की समस्या में (कच्चा मैं को पक्का मैं रूपान्तरित करने में) ही निहित है और स्वामीजी समस्याओं के इसी पहलु (लीडरशिप ट्रेनिंग के प्रचार-प्रसार) की ओर हमलोगों का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं। [दादा के मुख से सुना था, स्वामीजी से एकबार किसी ने पूछा था-" Swamiji, r u a Buddhist ? तो उन्होंने थोड़ा व्यंगात्मक रूप से कहा था -"No, I am a bud-dist." अर्थात मैं बौद्ध तो नहीं हूँ, लेकिन जीवन-पुष्प खिलाने में, "व्यष्टि अहं को सर्वगत अहं में रूपांतरित करने में सक्षम  एक प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त माली (शिक्षक या नेता) अवश्य हूँ !
    युवाओं के भीतर चंचलता, अस्थिरता, बड़े-बुजुर्ग लोगों के कथनी- करनी  में आत्मीयता के अभाव के कारण (पोलिटिक्स करने से) उत्पन्न असहिष्णुता, बुद्धि की अपरिपक्वता के साथ कुछ कर दिखाने की आतुरता, असीम उत्साह, जोश, समाज के समस्त दोषों, अन्यायपूर्ण कार्यों को दूर करने की इच्छा के साथ किसी अनिश्चित आदर्श  के प्रति आस्था आदि बातें युवाओं में देखी जा सकती हैं। युवा समुदाय स्वाभाव से अतिवादी होता है, जीवन के किसी भी क्षेत्र में जहाँ बल-प्रयोग करने की आवश्यकता पड़ती हो वहाँ आवश्यकता से अधिक बल लगा देना उनका स्वाभाव होता है। वह जो कुछ करता है, उसे अती तक पहुँचा कर दम लेता है। जिससे प्रेम करता है अत्यधिक प्रेम करता है, जिस बात से घृणा करता हैअत्यधिक घृणा करता है। यही उनका वैशिष्ट है क्योंकि उनके भीतर असीम प्राण-उर्जा [जीवनीशक्ति] होती है। किन्तु यही अतिवाद उसकी दुर्बलता का कारण भी है
       तन्दूर (oven) में आँच देते समय जब धुआँ से आँख जल रहा होता है, उस समय भोजन नहीं पकाया जा सकता। अग्नि जल जाने पर धुआँ निकलना बन्द हो जाता है, तभी खाना पकाया जा सकता है। जीवन का यह पड़ाव, यौवन का समय ही वास्तव में  कार्य करने का सही  समय है।  किन्तु, युवावस्था में धुआँ निकलने की अवधि का अतिक्रमण कर लेना ही तो समस्या है। और इस समस्या के समाधान का अर्थ है- कर्म करने में सक्षम जीवन को उपयुक्त तरीके से गठित कर लेना। ऐसा सुगठित और उपयुक्त युवा जीवन ही समाज के सभी समुदायों के समस्त प्रकार के आहार को पकाने वाला ईन्धन है। इस ऊर्जावान युवावर्ग अपने को अलग रखने से हमारा समाज  निश्चल और गतिशून्य हो जायेगा। 
          'आहार ' का अर्थ केवल खाद्द्य पदार्थ ही नहीं है। जिस वस्तु को ग्रहण नहीं करने से जीवन चल ही नहीं सकता, उसी को आहार कहते हैं ! कच्चे खाद्य-पदार्थ को ग्रहणीय बनाने के लिये अग्नि आवश्यक होती है। इसीलिये वेदों में अग्नि को अन्न पालक कहा गया है। पर किस प्रकार की अग्नि होनी चाहिये ? वेदों में प्रार्थना है - "सदा युवा रहने वाले हे अग्निदेव! आप सर्वोत्तम होता  (यज्ञ सम्पन्न कर्ता) के रूप मे यज्ञकुण्ड मे स्थापित होकर हमारे (यजमान के) स्तुति वचनो (महावाक्यों) का श्रवण करें॥
नि नो होता वरेणय: सदा यविष्ठ मन्मभि:। अग्ने दिवित्मता वच:॥ २। "
     अर्थात सर्वदा यविष्ठ (युवा श्रेष्ठ), वरणीय और तेज संपन्न अग्नि होनी चाहिये ! युवा समुदाय ही समाज का सभी प्रकार से अन्नपालक, अग्निस्वरूप, तेजःसंपन्न और  वरणीय हैं।  यह अग्नि विध्वंश करने वाली अग्नि नहीं है। कुशलता पूर्वक कर्म का निष्पादन करने के लिये इसी अग्नि (ब्रह्मतेज के साथ क्षात्रवीर्य) की आवश्यकता है।  चंचलता और अस्थिरता रहने पर कार्य का निष्पादन सफलतापूर्वक नहीं हो सकता है। जिस प्रकार युवाओं का जीवन चंचल और जोशीला होता है, उसी प्रकार अग्नि की लहराती हुई शिखा भी सर्वग्रासी होती है।  इसीलिए ऋग्वेद संहिता में अग्नि का आह्वान करते हुए कहा जाता है - 
त्वं होता॒ मनु॑र्हि॒तोऽग्ने॑ य॒ज्ञेषु॑ सीदसि। सेमं नो॑ अध्व॒रं य॑ज
 -हे मनुष्यों के हितैषी अग्निदेव ! आप होता के रूप में यज्ञ में प्रतिष्ठित हों और हमारे इस हिंसा रहित यज्ञ को सम्पन्न करें। क्योंकि नियंत्रण में नहीं रखने से कोई भी शक्ति (ऊर्जा) कार्यकर नहीं होती, विध्वंशक रूप भी धारण कर सकती है। इसलिए झूठी प्रशंसा या चाटुकारिता के द्वारा युवाजीवन के क्रोध को शान्त करने की चेष्टा से काम नहीं होगा। यज्ञ का अर्थ होता है त्याग के द्वारा सम्पादित कर्म।  दीप्तिमान (ओजस्वी) वचनों के द्वारा अग्निस्वरूप युवा समुदाय को, उनकी अन्तर्निहित शक्ति (दिव्यता, पूर्णता, ब्रह्मत्व, Oneness) के संबन्ध में जाग्रत करना होगा

॥ 5 ।।

 'आत्म्वैही प्रभवते न जडः  कदाचित'
 
     स्वामी विवेकानन्द युवाओं के प्रति अपने ओजस्वी सन्देश में कहते हैं -" किन्नाम रोदिसि सखे त्वयि सर्वशक्तिः ! अर्थात, हे सखे ! तुम क्यों रो रहे हो ? तुम्हारे भीतर ही सारी शक्तियाँ निहित हैं। (Inherent Divinity-प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है) इस सच्चाई को जान लो फिर  उस अनन्त शक्ति (पूर्णता) को अभिव्यक्त करो। "लोग कहते हैं- इस पर विश्वास करो,उस पर विश्वास करो, मैं कहता हूँ पहले अपने आप पर विश्वास करो। कहो मैं सब कुछ कर सकता हूँ।"
'आत्म्वैही प्रभवते न जडः कदाचित'--अपनी शक्ति के बल पर ही सारे काम किये जा सकते हैं! जड़  की कोई शक्ति नहीं -प्रबल शक्ति आत्मा की ही है। " स्वामी जी कहते हैं - "समस्त वेद यही शिक्षा देते हैं।  निराश मत होना, मार्ग बड़ा कठिन है-छुरे की धार पर चलने के समान दुर्गम है; फिर भी निराश न होना, उठो ! जागो ! और अपने उद्देश्य को प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो! "
      किन्तु, हम लोग क्या कर रहे हैं ? युवाओं के प्रति इस प्रकार के ओजस्वी सन्देश हम लोगों के मुख से कहाँ निकलते हैं ? उनके चंचल चित्त को और भी अधिक चंचल कर देने के लिये उनके समक्ष फेस बुक और यूट्यूब पर अश्लील गाने, अश्लील साहित्य, हानिकारक वीडियो और टी.वी-धारावाहिक प्रस्तुत कर रहे हैं। हम 'श्रव्य-दृश्य ' (audio -video) के माध्यम से जितने भी दुर्बल करने वाले भाव हो सकते हैं उन सबको  युवावर्ग के सामने परोसने की चेष्टा कर रहे हैं।
           युवाओं की समस्या ही यह है कि, उनके पास जो प्रचुर मात्रा में है - सतेज इन्द्रिय, प्राण उर्जा, जीवनी-शक्ति,  सबल शरीर, मन, बुद्धि, आवेग, इच्छा,आकांक्षा आदि, उन्हें नियंत्रित करके उनका सदुपयोग करना वे नहीं जानते हैं, उल्टे उसका दुरूपयोग ही कर बैठते हैं। शिक्षा इन सभी शक्तियों का सदुपयोग करना सिखाती है। शिक्षा वह है जो मन को संयमित करना सिखाती है। यह शिक्षा तो हम उन्हें देते ही नहीं हैं और जो शिक्षा देते हैं, उससे वे अपनी प्राणउर्जा का दुरूपयोग करना ही अधिक सीखते हैं। उसके परिणाम स्वरूप हम जीवन पर्यन्त - " शरीर के दास, मन के दास, जगत के दास, एक प्रशंसा के दास, एक अपमान जनक वचन के दास, जीवन के दास, मृत्यु के दास--- हर वस्तु के दास बने रहते हैं।"
       दूसरों के उपर आरोप मढ़ कर हम इसके विषमय परिणाम से बच नहीं सकते। स्वामीजी कहते हैं- " कहो कि (अपने देहाध्यास जनित अहं में लिपटे होने के कारण) जिन कष्टों को हम अभी झेल रहे हैं , वे हमारे ही किये हुए कर्मों के फल हैं। यदि यह मान लिया जाय, तो यह भी प्रमाणित हो जाता है कि वे फिर हमारे द्वारा नष्ट भी किये जा सकते हैं। जो कुछ हमने सृष्ट किया है , उसका हम ध्वंस भी कर सकते हैं , जो कुछ दूसरे ने किया है, उसका नाश हमसे नहीं हो सकता। अतएव उठो साहसी बनो वीर्यवान होओ। सब उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लो - यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो। तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो, सब तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है। अपने हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो। 'गतस्य शोचना नास्ति' -अनन्त भविष्य तुम्हारे सामने पड़ा है। तुम सदैव यह बात स्मरण रखो कि तुम्हारा प्रत्येक विचार, प्रत्येक कार्य संचित रहेगा (चित्त-गुप्त उसका कार्बन कॉपी रख लेगा।); और यह भी याद रखो कि जिस प्रकार तुम्हारे असत -विचार और असत- कार्य  शेरों की तरह तुम पर कूद पड़ने की ताक में हैं, उसी प्रकार सत-विचार और सत-कार्य भी हजारों देवताओं की शक्ति लेकर सर्वदा तुम्हारी रक्षा के लिए तैयार खड़े हैं। "
   उपाय क्या निकला ? " साधू (सत्) युवा बनो ! ["युवा स्यात् साधु युवाध्यायकः। आशिष्ठो दृढिष्ठो बलिष्ठः॥ (-तैत्तिरीयोपनिषद्-2.7)तुम साधु (पवित्र) बनो वैसा बन पाने से तुम्हारे समस्त असाधु भाव (अपवित्र विचार) बिल्कुल दूर हो जायेंगे। और इसी प्रकार सम्पूर्ण जगत परिवर्तित हो जायेगा। यही समाज के लिए बहुत बड़ा लाभ होगा।  सम्पूर्ण मानवजाति के लिए यही सबसे बड़ा लाभ होगा। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " दुनिया तभी पवित्र और अच्छी हो सकती है , जब हम स्वयं पवित्र और अच्छे हों। वह है कार्य और हम हैं उसके कारण। इसलिए आओ , हम अपने को पवित्र बना लें। आओ, हम अपने आप को पूर्ण बना लें ! "   

|| 6 |

 'कठोपनिषद में श्रद्धा जागरण की शिक्षा'  
           
    शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण अंग है- ब्रह्मचर्य, संयम, सदुपयोग-बुद्धि (मनीषा -wit),और अनुशासन आदि। लेकिन, इन समस्त चारित्रिक गुणों की बुनियाद -'श्रद्धा' या अद्भुत विश्वास पर ही टिकी हुई है।  इसीलिये स्वामीजी ने श्रद्धा को ही जीवन की समस्त समस्याओं के समाधान की कुंजी कहा है। वे कहते हैं-"इस श्रद्धा या (आत्मा के प्रति) यथार्थ विश्वास का प्रचार करना ही मेरा जीवनोद्देश्य है (जीवन का व्रत है)। (५/३३४) 
    " तुममें से जिन लोगों ने उपनिषदों में सबसे अधिक सुन्दर -'कठोपनिषद ' का अध्यन किया है, उन्हें स्मरण होगा कि किस तरह एक राजर्षि (बाजश्रवा) एक महायज्ञ का अनुष्ठान करने चले थे, और दक्षिणा में अच्छी चीजें न देकर अनुपयोगी गौओं का दान कर रहे थे।" (५/२१२) यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि वर्तमान समय में बड़े-बुजुर्गों को अनुचित कार्य करते हुए देखकर, अभी के युवा अपनी शक्ति का सदुपयोग करने ( चरित्रनिर्माण,जीवन-गठन या ब्रह्मविद्या अर्जन आदि) के बजाय आपा खोकर अपने 'बुजुर्ग माँ-बाप' पर ही आक्रोश व्यक्त करने लगते हैं। 
     लेकिन स्वामी जी आगे कहते हैं, " कथा के अनुसार उसी समय उनके पुत्र नचिकेता के हृदय में श्रद्धा का आविर्भाव हुआ। मैं तुम्हारे लिए इस 'श्रद्धा' शब्द का अंग्रेजी अनुवाद नहीं करूँगा, क्योंकि यह गलत होगा। इस अद्भुत शब्द - 'श्रद्धा' का वास्तविक अर्थ समझ लेना, बहुत कठिन है। संस्कृत के इस श्रद्धा शब्द का प्रभाव और कार्यकारिता (efficiency) अति आश्चर्यजनक है। हम देखेंगे कि यह किस तरह शीघ्र फल देने वाली है। जैसे ही नचिकेता के हृदय में 'श्रद्धा' आविर्भूत होती है, उसके मन में विचार उठता है- " मैं बहुतों से श्रेष्ठ हूँ, कुछ लोगों से छोटा भी हूँ, परन्तु कहीं भी ऐसा नहीं हूँ कि सबसे छोटा होऊं, अतः मैं भी कुछ कर सकता हूँ। " उसका यह आत्मविश्वास और साहस बढ़ता गया, और जो समस्या उसके मन में थी, उस बालक ने हल करना चाहा - वह समस्या मृत्यु की समस्या थी। इसकी सच्चाई का पता तो यम के घर जाने पर  ही हो सकती थी, अतः वह बालक वहीं गया।  निर्भीक नचिकेता यम के यहाँ पहुँचकर तीन दिन तक प्रतीक्षा करता रहा और तुम जानते हो कि किस तरह उसने अपना अभीप्सित (मृत्यु की समस्या का हल) प्राप्त  किया। हमें जिस चीज की आवश्यकता है, वह यह श्रद्धा ही है। दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है और हमारी वर्तमान दुर्दशा का कारण भी यही है। एकमात्र इस श्रद्धा के भेद से ही मनुष्य -मनुष्य अन्तर पाया जाता है। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा (आत्माबृहद या ब्रह्म) और दूसरे को कमजोर और छोटा (नश्वर शरीर) बनाती है। मैं यही चाहता हूँ की ऐसी ही श्रद्धा तुम्हारे हृदय में भी प्रविष्ट हो जाये। वह आत्मा अनन्त शक्ति का आधार है, कोई उसका नाश नहीं कर सकता, उसकी वह अनन्त शक्ति प्रकट होने के लिए केवल आह्वान की प्रतीक्षा कर रही है। इसके लिए हमें श्रद्धा की ही जरूरत है, हमें, यहाँ जितने भी मनुष्य हैं, सभी को इसकी आवश्यकता है। इसी श्रद्धा को प्राप्त करने का महान कार्य तुम्हारे सामने पड़ा हुआ है।"इसके साथ ही साथ जो मनोभाव युवाओं की श्रद्धा और आत्मविश्वास में कमी की समस्या को और गंभीर बना देता है, उसकी ओर संकेत करते हुए स्वामी जी कहते हैं- " हमारे जातीय खून में एक प्रकार के भयानक रोग का बीज समा रहा है, और वह है प्रत्येक विषय को हँसकर उड़ा देना, गाम्भीर्य का आभाव, इस दोष का सम्पूर्ण रूप से त्याग करो। वीर बनो, श्रद्धा सम्पन्न होओ, और सब कुछ तो इसके बाद आ ही जायेगा। मुझे अपने देश पर विश्वास है- विशेषतः अपने देश के युवकों पर।" (कलकत्ता अभिनंदन का उत्तर- ५/२१२-१३) 
         स्वामीजी से किसी ने पूछा  था- " हमारे देश से इस श्रद्धा का लोप कैसे हो गया ? " स्वामीजी ने उत्तर देते हुए कहा था- " बचपन से ही हमलोगों को नकारात्मक शिक्षा (negative education ) दी जाती रही है। हमने यही तो सीखा है कि हम नगण्य हैं, नाचीज हैं। हमें कभी यह नहीं बताया गया कि हमारे देश में भी बड़े बड़े महापुरुषों का जन्म हुआ है। कोई भी सकारात्मक आशावादी (positive) विचार हमें सिखलाये नहीं जाते। सीना तान कर, सिर उठा-कर के एक साथ हाथ पैर हिलाना (घास -माटी, घास-माटी करते हुए चलना) भी नहीं आता। हमें अंग्रेजों (या मुसलमानों के?)  पूर्वजों की तो एक एक घटना और तिथि याद हो जाती है, परन्तु अफ़सोस अपने ही देश के गौरवपूर्ण अतीत से हम अनभिज्ञ रहते हैं। हम केवल निर्बलता का पाठ पढ़ते हैं। अतः श्रद्धा नष्ट न हो तो क्या हो ? " (८/२६९)
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|| 7 ||

 ओजस ही मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व है ! 

 (Ojas is the real man)

           केवल  युवा समुदाय ही सम्पूर्ण समाज को उन्नति के शिखर तक ले जाने में समर्थ है ! किसी युवक की सम्पत्ति उसकी युवा ऊर्जा ही है। किन्तु उसकी समस्या का मूल कारण भी यही है। क्योंकि व्यावहारिक बुद्धि की शक्ति और संयम के दुरूपयोग से वे दुर्बल हो गए हैं। तथापि, ऊर्जा (बल) ही कार्य का संपादन कर्ता (executor) है। जिस प्रकार जलशक्ति के तीक्ष्ण-धार को नियंत्रित कर खनन कार्य सम्पादित किया जा सकता है, या नदी की तीव्र धारा पर बाँध बनाकर विद्युत् उत्पादन किया जा सकता है, तथा  सिंचाई की जा सकती है;  ठीक उसी प्रकार युवा-शक्ति को उपयोगी बनाने के लिये, युवाकाल में ब्रह्मचर्य और संयम की आवश्यकता होती है। 
          स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " तुम्हें यदि कोई गाली (अभिशाप) दे तो उसके प्रति कृतज्ञ होओ। क्योंकि गाली या अभिशाप क्या है, यह देखने के लिए उसने तुम्हारे सामने मानो एक दर्पण रखा है और वह तुम्हारे लिए आत्मसंयम के अभ्यास करने का अवसर दे रहा है। अभ्यास करना का अवसर मिले बिना व्यक्ति का विकास नहीं हो सकता, और दर्पण सामने रखे बिना हम अपना मुख नहीं देख सकते। " (७/८२)       
           शक्ति का दुरूपयोग करना समस्या है और शक्ति का सदुपयोग करना समाधान है। युवा-शक्ति का दुरूपयोग होने की सम्भावना का बने रहना ही समस्या है और इस शक्ति का सदुपयोग  ही समस्या का समाधान है। आत्मसंयम, अनुशासन, ब्रह्मचर्य आदि गुणों ही वह दे सकते हैं।  किसी प्रश्न के उत्तर में स्वामीजी कहते हैं- " कोई वस्तु अच्छी है या बुरी यह उसके उपयोग पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए इस दीपज्योति को ही लो। इसके प्रकाश में हम पढ़ते हैं और कई अन्य उपयोगी काम भी करते हैं। यह उसके उपयोग का एक प्रकार है। अच्छा, अब यदि उसमें कोई अपनी ऊँगली रखे, तो वह जल जायगा। यह इसके उपयोग का दूसरा प्रकार है। इस तरह, कोई वस्तु जिस प्रकार उपयोग में लायी जाती है, उसीसे उसके भले -बुरे का निर्णय होता है। इसी तरह से सद्गुण और दुर्गुण , पाप और पुण्य हैं। हमारी मानसिक एवं शारीरिक प्रवृत्तियों का उचित उपयोग ही पुण्य है, और उनका अनुचित उपयोग एवं बर्बादी (waste) ही पाप है। " [(So we should know that a thing becomes ‘good’ or ‘bad’ according to the way we use it. Similarly with ‘virtue’ and ‘vice’. Broadly speaking, the proper use of any of the faculties of our mind and body is termed ‘virtue’, and its improper application or waste is called ‘vice’.वार्ता एवं संलाप, श्री सुरेन्द्र नाथ सेन,८/२७३-७४)]            
स्वामी विवेकानन्द ने २५ जुलाई,१८९५ थाउजेंड आइलैंड पार्क की 'देववाणी' में कहा था -"कामुक कल्पना उतनी ही बुरी है , जितनी कामुक क्रिया। कामेच्छा को संयमित करने पर उससे उच्तम फल लाभ होता है। कामशक्ति को आध्यात्मिक शक्ति में परिणत करो, किन्तु अपने को पुरुषत्वहीन (emasculate-बधिया) मत बनाओ, क्योंकि उससे शक्ति का क्षय होगा। यह शक्ति जितनी प्रबल होगी, इसके द्वारा उतना ही अधिक कार्य हो सकेगा। तीब्र जलधारा मिलने पर ही उसकी सहायता से खान खोदने का कार्य किया जा सकता है। " ७/८२ 
 "ब्रह्मचर्यवान व्यक्ति के मस्तिष्क में प्रबल शक्ति, असाधारण ईच्छाशक्ति संचित रहती है।"  
[Unchaste imagination is as bad as unchaste action. Controlled desire leads to the highest result. Transform the sexual energy into spiritual energy, but do not emasculate, because that is throwing away the power. Only or powerful current of water can do hydraulic mining.]  
 [কাম-শক্তিকে আধ্যাত্মিক শক্তিতে পরিণত কর, কিন্তু নিজেকে পুরুষত্বহীন কর না, কারণ তাতে কেবল শক্তির অপচয় হয়। এই শক্তি যত প্রবল থাকবে, এর দ্বারা তত অধিক কাজ সম্পন্ন হতে পারবে। প্রবল জলের স্রোত পেলে তবেই জলশক্তির সাহায্যে খনির কাজ করা যেতে পারে।] 
[पशु और मनुष्य में भेद क्या है ? ... आहार, निद्रा, भय और प्रजनन (वंशविस्तार) आदि समान रूप से दोनों में पाये जाते हैं। भेद इतना ही है कि मनुष्य इन सबका नियंत्रण कर सकता है और वह ईश्वर - प्रभु बन सकता है। पशु यह नहीं कर पाते। पशु भी परोपकार कर सकते हैं। चीटियाँ परोपकार करती हैं, कुत्ते भी करते हैं। ऐसी दशा में फिर भेद कहाँ ? मनुष्य अपना प्रभु स्वयं हो सकता है। वह वासनाजन्य किसी भी विकार को रोक सकता है। .... यह बात पशु के वश की नहीं रहती। पशु चारों ओर से स्वभाव की श्रृंखला से जकड़ा है। इतना ही अन्तर है -एक अपने स्वाभाव का स्वामी है और दूसरा अपने स्वभाव का दास। स्वभाव क्या है ? पाँचो इन्द्रियाँ ही स्वभाव हैं। " (४/१६३)            

   " जो श्रद्धा वेद -वेदान्त का मूल मन्त्र है, जिस श्रद्धा ने नचिकेता को प्रत्यक्ष यम के पास जाकर प्रश्न करने का साहस दिया, जिस श्रद्धा के बल से यह संसार चल रहा है - उसी श्रद्धा का लोप?" जबकि श्रद्धा के साथ ही ब्रह्मचर्य और शिक्षा भी अन्तरंग रूप से जुड़ा हुआ है। " अब उपाय है -शिक्षा का प्रसार। पहले आत्मज्ञान। ...जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संसार-बंधन तक से छुटकारा पा जाता है, उससे क्या तुच्छ भौतिक उन्नति नहीं हो सकेगी ? अवश्य ही हो सकेगी। प्रत्येक जीवात्मा में अनंत शक्ति अव्यक्त भाव से निहित है।  वह (अविनाशी) आत्मा चींटी से लेकर ऊँचे से ऊँचे सिद्ध पुरुष तक सभी में  विराजमान है , अन्तर केवल उसके प्रकटीकरण के भेद में हैंवरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत्। किसान जैसे खेतों की मेंड़ तोड़ देता है और एक खेत का पानी दूसरे खेत में चला जाता है, वैसे ही आवरण टूटते ही (मिथ्या अहं का आवरण टूटते ही) आत्मा भी प्रकट हो जाती है। इस शक्ति को सर्वत्र जा जा कर जगाना होगा। (कैवल्य पाद-४.३) (24 अप्रैल, 1897 को सरला घोषाल को लिखा पत्र 6/312)
> मनुष्य और ईसा (अवतार) में अन्तर : अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणी के रूप में तुम ईसा कभी नहीं हो सकते। मिट्टी से एक मिट्टी का हाथी बना लो , उसी मिट्टी से एक मिट्टी का चूहा बना लो। उन्हें पानी में डालदो - वे एक बन जाते हैं। मिट्टी के रूप में वे निरंतर एक हैं , गढ़ी हुई वस्तुओं के रूप में निरंतर भिन्न हैं। ब्रह्म ही ईश्वर (भगवान-अवतार वरिष्ठ) तथा मनुष्य दोनों का उपादान है। पूर्ण सर्वव्यापी सत्ता के रूप में हम सब एक हैं, परन्तु वैयक्तिक प्राणियों के रूप में ईश्वर (भगवान) शाश्वत स्वामी हैं और हम शाश्वत सेवक हैं।
    "तुम्हारे पास तीन चीजें '3H'  हैं- 1. शरीर, 2. मन 3. आत्मा! आत्मा इन्द्रियातीत है मन (मिथ्या अहं) जन्म और मृत्यु का पात्र है और वही दशा शरीर की है। तुम वही (अजर-अमर-अविनाशी) आत्मा हो, पर बहुधा तुम सोचते हो की तुम (नश्वर) शरीर हो। जब मनुष्य कहता है- 'मैं यहाँ हूँ',  तो उस समय वह शरीर की बात सोचता है। फिर एक दूसरा क्षण आता है , जब तुम उच्चतम भूमिका में होते हो, तब तुम यह नहीं कहते - " मैं यहाँ हूँ ! (अभी मजा चखाता हूँ!)" किन्तु जब कोई तुम्हें गाली देता है, या तुम्हारा अपमान करता है, और तुम भीतर से क्रोधित नहीं हो जाते, तब तुम आत्मा हो "(खंड 10. पृष्ठ 40)
 
दृष्टिं ज्ञानमयीं  कृत्वा पश्येद्  ब्रह्ममयं जगत्।  
देहबुद्धया तु दासोऽहं  जीवबुद्धया त्वदंशक। 
आत्मबुद्धया  त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥

  ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए।  देहबुद्धि से तो मैं आपका दास हूँ, बताइये आपके लिए क्या कर सकता हूँ ?  जीवबुद्धि से आपका अंश ही हूँ और  आत्मबुद्धि से में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥ 
"जब मैं सोचता हूँ कि मैं शरीर (M/F) हूँ, तब उस देहबुद्धि से मैं आपका दास (भक्त) हूँ, बताइये आपके लिए मैं क्या कर सकता हूँ ? जब मैं सोचता हूँ कि मैं मन (अहं)हूँ, उस जीव बुध्दि से आपका अंश हूँ, या मैं उस अनंत अग्नि की एक स्फुलिंग हूँ , जो तुम हो। जब मैं यह अनुभव करता हूँ कि मैं हूँ , तुम और मैं एक हूँ - यह प्रभु के एक शाश्वत भक्त (हनुमान) का कथन हैक्या मन (जीवभाव) आत्मा से बढ़कर है ?         
[१०/४० ]
          श्रद्धा के बिना संसार का कोई भी कार्य उत्कृष्ट रूप से निष्पादित नहीं हो सकता। ऋग्वेद के एक सूक्त के देवता ही श्रद्धा हैं। अथर्ववेद (अथर्व. ६।१३३।४) में एक ऋषि प्रार्थना करते हैं-
 
श्रद्धया दुहिता तपसोऽधिजाता स्वसा ऋषिणां भूतकृतां बभूव ।
 
सा नो मेखले मतिमा धेहि मेधामथो ने धेहि तप इन्द्रियं च ।। 

-अर्थात ब्रह्मचारियों के आध्यात्मिक साधना के फलस्वरूप श्रद्धा की दुहिता इस 'मेखला' #की उत्पत्ति हुई है।  वास्तव में मेखला ही ऋषियों की भगिनी हैं। मेखला धारण करने से उनको उत्कृष्ट मौलिक विचार , इन्द्रियों की विशुद्धता, वैश्विक समाज को अपने  अपने परिवार के रूप में देखने की दृष्टि - ' वसुधैव -कुटुम्बकम'  की ज्ञानमयी दृष्टि प्राप्त होती है। अतएव, हे मेखले ! हमलोगों को मौलिक सत्य के विषय में चिन्तन-शक्ति दो, हमलोगों को मेधा (श्रुतिधारण-समर्थ बुद्धि) प्रदान करो, हमलोगों को तप करने ( कष्ट सहने ) की शक्ति दो, हमलोगों को इन्द्रिय-संयम से उत्पन ओजस शक्ति दो !"
[मेखला # - मूँज की बनी कमरधनी को मेखला कहते हैं। इसको ब्रह्मचारी उपनयन के समय और तपस्वी सदा साधारण करते हैं। यह ऋत अथवा नैतिकता की रक्षिका मानी गयी है। प्राकृतिक वातावरण में रहने वाले बटुक और तपस्वियों को स्फूर्ति देने और रोगों से बचाने में मेखला अद्भुत समर्थ होती है। इसीलिए इसे मन्त्र में ऋषियों की बहिन (स्वसा देवी सुभगा मेखलेयम्) कहा गया है। यज्ञोपवीत लेते समय कमर पर मेखला बाँधनी होती है। यज्ञोपवीत धारण करने के बाद गुरु के पास जाने वाले को कर्तव्य की दीक्षा और जीवन की दृष्टि प्राप्त होती है। इस अर्थ में उपनयन में उपनयन का अर्थ दूसरी आँख या नई दृष्टि ऐसा भी हो सकता है।] 
      स्वामीजी कहते हैं- " मनुष्य में जो शक्ति काम-क्रिया, काम-चिन्तन आदि रूपों में प्रकाशित हो रही है, उसको संयमित करने पर वह सहज ही 'ओज' में परिणत हो जाती है। कामजयी स्त्री-पुरुष ही इस ओज को मस्तिष्क में संचित कर सकते हैं। इसलिए ब्रह्मचर्य ही सदैव सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया है। (१/८२) " योगी दावा करते हैं कि मनुष्य-देह में जितनी शक्तियाँ हैं, उनमें ओज  सबसे उत्कृष्ट कोटि की शक्ति है। ओजसशक्ति-सम्पन्न पुरुष जो कुछ कार्य करता है, उसीमें अलौकिक-शक्ति का आविर्भाव देखा जाता है। (१/८१)
    "महान यौन ऊर्जा या काम-शक्ति जब पशुसुलभ क्रिया से ऊपर उठकर मानव-प्रणाली के महान डाइनेमो (dynamo) मस्तिष्क (सहस्रार?) तक पहुँचती है, वहाँ संचित होने पर वह ओजस अर्थात महान आध्यात्मिक शक्ति बन जाती है। यह ओजस ही मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व है, और केवल मनुष्य शरीर में ही इस ओज -शक्ति का संग्रह सम्भव है। जिसकी समस्त पशुसुलभ काम-शक्ति ओजस में परिणत हो गयी है, वही देवता है। उसकी वाणी में शक्ति होती है और उसके वचन जगत को पुनरुज्जीवित करते हैं।  (४/८९)               
>>>No force can be created; it can only be directed.
"कोई भी शक्ति उत्पन्न नहीं की जा सकती; उसे केवल एक दिशा में परिचालित किया जा सकता है। अतः हमें चाहिए कि हम अपनी कामशक्ति को अपने वश में करना सीखें और अपनी इच्छा-शक्ति से उन्हें पशुवत रखने (निम्नकेन्द्रों) के बजाय (उर्ध्वमुखी) आध्यात्मिक बना दें।   
" जब तक मनुष्य अपनी सर्वोच्च शक्ति -' कामशक्ति ' को ओज में परिणत नहीं कर लेता, कोई भी स्त्री या पुरुष, वास्तविक रूप में अध्यात्मिक  (शिक्षक) नहीं हो सकता। अतः हमें चाहिये कि हम अपनी महती शक्तियों को अपने वश में करना सीखें और अपनी ' अदम्य इच्छाशक्ति ' के बल पर उन्हें पशुवत रखने के बजाय आध्यात्मिक बना दें। अतः यह स्पष्ट है कि पवित्रता ही समस्त धर्म और नीति की आधारशिला है ! 
इतिहास बताता है कि सभी युगों में बड़े- बड़े आध्यात्मिक शिक्षक (नेता, पैगम्बर) या तो संन्यासी थे और तपस्वी थे अथवा विवाहित जीवन का परित्याग कर देने वाले थे।  केवल पवित्र जीवन जीने वाले ही भगवान का दर्शन कर सकते हैं।"४/८९
[" The great sexual force, raised from animal action and sent upward to the great dynamo of the human system, the brain, and there stored up, becomes Ojas or spiritual force."
 This Ojas is the real man and in human beings alone is it possible for this storage of Ojas to be accomplished. One in whom the whole animal sex force has been transformed into Ojas is a god. He speaks with power, and his words regenerate the world. No force can be created; it can only be directed. Therefore we must learn to control the grand powers that are already in our hands and by will power make them spiritual instead of merely animal.
All history teaches us that the great seers of all ages were either monks and ascetics or those who had given up married life; only the pure in life can see God.
श्री रामकृष्ण कहा करते थे : “ किसी सुंदर स्त्री पर नजर पड़ जाए तो उसमें माँ जगदम्बा के दर्शन करो। ऐसा विचार करो कि यह अवश्य देवी का अवतार है, तभी तो इसमें इतना सौंदर्य है।  माँ प्रसन्न होकर इस रूप में दर्शन दे रही है, ऐसा समझकर सामने खड़ी स्त्री को मन-ही-मन प्रणाम करो। इससे तुम्हारे भीतर काम विकार नहीं उठ सकेगा। भगवान श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण को जब सीताजी के गहने पहचानने को कहा गया तो लक्ष्मण जी बोले : हे तात ! मैं तो सीता माता के पैरों के गहने और नूपुर ही पहचानता हूँ, जो मुझे उनकी चरणवन्दना के समय दृष्टिगोचर होते रहते थे। केयूर-कुण्डल आदि दूसरे गहनों को मैं नहीं जानता। " पवित्र मातृभाव द्वारा वीर्यरक्षण का यह अनुपम उदाहरण है जो ब्रह्मचर्य की महत्ता भी प्रकट करता है।}
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[शिक्षा /https://estudantedavedanta.net/My-Idea-of-Education.pdf]

॥ 8 ।। 

 " आचार्यो: ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणम् इच्छते ॥"
                  
        आस्तिक्य बुद्धि  को ही श्रद्धा कहते हैं। 'श्रद्धा' रहने से ही ब्रह्मचर्य और संयम की शक्ति प्राप्त होती है, उससे सोचने-समझने की शक्ति,'मेधा' अर्थात 'श्रुतिधारण समर्थबुद्धि, तपःशक्ति (प्रयत्न-क्षमता), वीर्य और ओजस प्राप्त होते हैं। जिस शिक्षा से ये सब प्राप्त नहीं होते हों , उसे शिक्षा कहना सम्भव नहीं है। विद्याहीनता (Illiteracy) ही समस्त समस्यायों की जननी है। अतएव समस्त समस्याओं का समाधान भी केवल उपयुक्त शिक्षा के बल पर ही संभव हो सकता है। स्वामीजी कहते थे " ऐसी कोई भी समस्या नहीं है जिसका समाधान शिक्षा मन्त्र के बल पर न किया जा सकता हो ! " इन सब का मूल है ' श्रद्धा'। इसीलिए श्रद्धा ही समस्त समस्याओं के समाधान की मूल कुंजी है। युवा जीवन (ब्रह्मचर्य आश्रम) ही शिक्षा अर्जित करने का सबसे उपयुक्त समय है शिक्षा के फलस्वरूप ही हमलोगों को एकाग्रता की शक्ति, संयम, जीवंतता और कार्यक्षमता (efficiency) प्राप्त होती है। वैसी शिक्षा यदि नहीं मिल सकी तो यौवन की शक्ति ही समस्या बन कर खड़ी हो जाती है। इस शिक्षा को अर्जित करने के लिए (रटना नहीं)   'प्रयत्न' करना आवश्यक होता है। स्वामीजी ने कहा है- " प्रयत्न करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।"  जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य, सम्भावना (अन्तर्निहित दिव्यता की अभिव्यक्ति), समस्या और समाधान आदि बातों को समझने के लिए हममें विचार करने की क्षमता रहनी चाहिए।
यह क्षमता भी शिक्षा के द्वारा ही प्राप्त होती है। स्वामीजी ने कहा है-" शिक्षा देते समय और भी एक महत्वपूर्ण विषय को हमें याद रखना होगा, कि विद्यार्थियों को किसी प्रश्न का उत्तर स्वयं खोजने के लिए गहन चिंतन करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। शिक्षा इस प्रकार दी जानी चाहिए ताकि वे स्वयं चिन्तन-मनन करना सीख जायें। इस मौलिक चिन्तन करने की क्षमता का आभाव ही भारत के वर्तमान पतनावस्था का कारण है। यदि लडकों को ऐसी शिक्षा दी जाये जिससे वे मौलिक चिंतन करना सीख सकें तभी वे लोग मनुष्य बन सकेंगे एवं जीवन संग्राम में आने वाली किसी भी समस्या को स्वयं ही हल करने में समर्थ हो जायेंगे। 
      प्रचलित शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी जी कहते हैं- " जो शिक्षा तुम अभी पा रहे हो , उसमें कुछ अच्छा अंश भी है और बुराइयाँ बहुत हैं। इसलिए ये बुराइयाँ उसके भले अंश को दबा देती हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि यह शिक्षा मनुष्य बनानेवाली नहीं कही जा सकती। यह शिक्षा केवल तथा सम्पूर्णतः निषेधात्मक है। निषेधात्मक शिक्षा की बुनियाद पर आधारित शिक्षा मृत्यु से भी भयानक है। कोमल मति बालक पाठशाला में भर्ती होता है, और सबसे पहली बात, जो उसे सिखाई जाती है, वह यह कि तुम्हारा बाप मूर्ख है। दूसरी बात जो वह सीखता है, वह यह है कि तुम्हारा दादा पागल है। और चौथी बात यह कि तुम्हारे जितने शिक्षक और आचार्य हैं , वे पाखण्डी हैं। और चौथी बात यह कि तुम्हारे जितने पवित्र धर्म ग्रन्थ हैं (गीता, श्रीमद्भागवत, वेद, उपनिषद आदि) उनमें झूठी और कपोलकल्पित बातें भरी हुई हैं। इस प्रकार की निषेधात्मक बातें सीखते सीखते जब बालक सोलह वर्ष की अवस्था को पहुँचता है , तब वह निषेधों की खान बन जाता है -उसमें न जान रहती है और न रीढ़। " (५/१९४-९५) 
    इस प्रकार की शिक्षा को प्राप्त करने से यदि युवा-समस्या उत्पन्न होती हो और दिन प्रतिदिन बढती जाती हो, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? स्वामीजी कहते हैं - " शिक्षा का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूँस दी जायें कि अन्तर्द्वन्द्व होने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर पचा न सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन-गठन कर सकें, मनुष्य बन सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को पचाकर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो, तो तुम्हरो शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कंठस्थ कर रखा है।" (५/१९५)            
      यदि हमलोग भी इस प्रकार की शिक्षा पाने के इक्षुक हों, केवल युवा समस्या ही नहीं समाज में व्याप्त अनेकों प्रकार की समस्यायों का समाधान करने के इक्षुक हों, तो आत्मसातीकरण करने के लिए स्वामीजी द्वारा बारम्बार उल्लिखित महान विचारों में से निम्नोक्त केवल पाँच विचारों का चयन कर सकते हैं, यथा -1.श्रद्धा (आत्मविश्वास, ब्रह्मचर्य, सत्यवादिता), 2. भयशून्यता। 3. निःस्वार्थ-परता। 4त्याग। 5सेवा। 
       किन्तु शिक्षा केवल शिक्षार्थी (trainee) के ऊपर ही निर्भर नहीं करता । " मेरे गुरुदेव किसी (शिक्षार्थी) को ढूँढ़ने नहीं गए। उनका सिद्धान्त था कि मनुष्य को प्रथम चरित्रवान होना चाहिए तथा आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए और उसके बाद फल स्वयं ही मिल जाता है। मनुष्य में ज्ञान (शीक्षा) का प्रसार केवल वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके पास देने को कुछ हो, क्योंकि शिक्षा देना केवल व्याख्यान देना नहीं है और न सिद्धान्तों को प्रदान करना ही - इसका अर्थ है सम्प्रेषण। "(मेरे गुरुदेव७/२५८) " जो व्यक्ति अपने शब्दों में अपने व्यक्तित्व का प्रभाव डाल सकता है, उसके शब्द प्रभावशाली होते हैं। सब प्रकार की शिक्षा (प्रशिक्षण) में सदा कुछ देना तथा लेना रहता है - शिक्षक (आचार्य) देता है तथा शिष्य ग्रहण करता है। परन्तु शिक्षक के पास कुछ देने योग्य वस्तु होनी चाहिए, तथा शिष्य के लिए ग्रहणशील होना आवश्यक है। " अतः प्रथम हमें (आत्मसाक्षात्कार करके) चरित्रवान होना चाहिये और यही सबसे बड़ा कर्तव्य है, जो हमारे सामने है। (७/२५९) 
किन्तु, आचार्य के भीतर वह शक्ति (जो छात्र के दिलो-दिमाग को झंकृत कर दे, सूखे ह्रदय को प्रेमरस से सराबोर कर दे)  कहाँ से आयेगी ? अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्त में कहा गया है- " आचार्यो: ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणम् इच्छते ॥ (अथर्ववेद - ११-५-१७)  - अर्थात  आचार्य [अङ्गों, उपाङ्गों और रहस्य सहित वेदों का अध्यापक] (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य से [वेदविद्या और इन्द्रियदमन रूपी आध्यात्मिक आचरण (Spiritual behavior से] (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचारी [वेद विचारनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष] को (इच्छते) चाहता है ॥१७॥" वर्तमान शिक्षा प्रणाली में इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है। कारण के बिना कार्य नहीं होता। अतएव युवा-समस्या भी कोई आकस्मिक घटना नहीं है। 
      शिक्षा के विषय पर बोलते हुए, स्वामीजी शिक्षा के अन्य एक विशेष पहलु, जो युवा वर्ग को आत्मश्रद्धा में प्रतिष्ठित करने में सहायक हो सकती है , उसकी तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट करते हुए कहते हैं - " मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की एकाग्रता प्राप्त करना है। " " शिक्षा का आदर्श है साधन (मन) को योग्य बनाना और अपने मन पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना। एकाग्रता के साथ साथ अनासक्ति की क्षमता का विकास हमें करना होगा।  जो समान रूप से प्रवृत्ति -निवृत्ति में शक्तिशाली है, वही सच्चा पौरुष प्राप्त कर सकता है। सारा विश्व डगमगा जाये, तो भी तुम उसे चिन्तातुर नहीं पाओगे। " (४/श्वास-प्रश्वास -क्रिया ४/१५७-५८) 
    " जिस मनः संयम की शिक्षा के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। " " स्वामी जी अतीन्द्रिय सत्य की अपरोक्षानुभूति (Realization : कठोपनिषद) नामक व्याख्यान में कहते हैं -  " आत्मा (अविनाशी इन्द्रियातीत सत्य) के सम्बन्ध में एक सुन्दर उपमा दी गयी है। [Picture the Self to be the rider and this body the chariot  स्वयं (=आत्मा) को सवार (रथी)  और इस शरीर को रथ समझो, the intellect to be the charioteer, mind the reins, and the senses the horses.] आत्मा को रथी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी , मन को लगाम और इन्द्रियों को अश्वों की उपमा दी गयी है। जिस रथ के घोड़े अच्छी तरह प्रशिक्षित हैं , जिस रथ की लगाम मजबूत है और सारथी (बुद्धि)  के द्वारा दृढ़ रूप से पकड़ी हुई है, वह रथी (अपरिवर्तनीय आत्मा) विष्णु के (state of Him, the Omnipresent.अवतार वरिष्ठ के) उस परम पद को पहुँच सकता है। किन्तु जिस रथ के इन्द्रियरूपी घोड़े दृढ़ भाव से संयत नहीं हैं, तथा सारथी ने मनरूपी लगाम मजबूती से पकड़ी हुई नहीं है, वह रथी अन्त में विनाश को प्राप्त होता है। सभी प्राणियों में अवस्थित यह आत्मा स्वयं को चक्षु या किसी अन्य इन्द्रिय के समक्ष स्वयं को प्रकट नहीं करता अपितु जिनका मन शुद्ध और परिष्कृत हो गया है, वे ही उसे अनुभव (realize) करते हैं। जो पॉँचो इन्द्रियों- शब्द, स्पर्श, रूप,रस, और गंध से अतीत है (इन्द्रियातीत है), अपरिवर्तनीय है, जिसका आदि-अंत नहीं है, जो सिनेमा के पर्दे जैसा अपरिणामी है,  उसको जो प्राप्त करते हैं, वे मृत्यु मुख से मुक्त हो जाते हैं। "he who realises Him, frees himself from the jaws of death." किन्तु उसे पाना बहुत कठिन है; यह मार्ग तेज छुरी की धार पर चलने के समान अत्यन्त दुर्गम है। यह मार्ग बहुत लम्बा और जोखिम का है, किन्तु निराश मत होओ, ढृढ़तापूर्वक बढ़े चलो, Awake, arise, and stop not till the goal is reached. 'जागो, उठो और लक्ष पर पहुँचे बिना विश्राम मत लो। 
 (2/172) 
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॥ 9 ।।

' तूच्छं ब्रह्मपदं '

(पहले उत्तम भोग करना सिखा दो , फिर भोग-बंधनों से मुक्त होने का उपाय बता दो  ) 
          
      स्वामी विवेकानन्द एक युवक से कह रहे हैं-  " यथार्थ जिज्ञासु के पास लगातार दो रात तक बोलते रहने से भी मुझे श्रम का बोध नहीं होता। मैं आहार, निद्रा आदि छोड़कर लगातार बोल सकता हूँ, और चाहूँ तो मैं हिमालय की गुफा में समाधिमग्न होकर भी बैठा रह सकता हूँ। देश की दशा देखकर और परिणाम की चिन्ता करके स्थिर नहीं रह सकता ! समाधी-वमाधि तूच्छ लगती  है,- 'तूच्छं ब्रह्मपदं ' हो जाता है। तुम लोगों के कल्याण की कामना ही मेरे जीवन का व्रत है।" (६/१५०-१५१) सुकरात से लेकर अभी तक जितने भी मनीषी हुए हैं, युवा-वर्ग के लिये सभी के मुख से निन्दा के शब्द निकले हैं। किन्तु, स्वामीजी के मुख से युवाओं के प्रति  एक भी निन्दनीय बात नहीं निकली है। युवाओं के लिये  केवल उत्साहवर्धक, प्रेरणादायी, दीप्तिमान वाक्य ही निकले हैं। इस युवा वर्ग के प्रति उनमें गहरी सहनुभूति थी।  " मेरा कार्य है, तुम लोगों के भीतर महान विचारों को जाग्रत कर देना, यदि एक मनुष्य का निर्माण करने के लिये मुझे एक लाख बार भी जन्म लेना पड़े तो मैं उसके लिये भी तैयार हूँ। " आहा ! कैसी लोक-कल्याण की भावना है !   
      "First make the people of the country stand on their legs by rousing their inner power, first let them learn to have good food and clothes and plenty of enjoyment — then tell them how to be free from this bondage of enjoyment." 
 " पहले भीतर की शक्ति को जाग्रत करके देश के लोगों को अपने पैरों पर खड़ा कर, अच्छे भोजन-वस्त्र तथा उत्तम भोग आदि करना वे पहले सीखें। इसके बाद उन्हें उपाय (3H) बता दे कि किस प्रकार सब प्रकार के भोग-बन्धनों वे मुक्त हो सकेंगे। " (६/१५५) 
     "निष्क्रियता, हीन बुद्धि और कपट से देश भर गया है। क्या बुद्धिमान लोग यह देख कर स्थिर रह सकते हैं ? रोना नहीं आता? मद्रास, बम्बई, पंजाब, बंगाल- कहीं भी तो जीवनी शक्ति का चिन्ह दिखाई नहीं देता. तुम लोग सोच रहे हो- ' हम शिक्षित हैं ! ' क्या खाक सीखा है ? दूसरों कि कुछ बातों को दूसरी भाषा में रट कर मस्तिष्क में भरकर, परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सोच रहे हो- हम शिक्षित हो गये ! धिक्, इसका नाम कहीं शिक्षा है, तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है ? या तो क्लर्क बनना या एक दुष्ट-वकील बनना, और बहुत हुआ तो क्लर्की का ही दूसरा रूप एक डिप्टी मजिस्ट्रेट की नौकरी-यही न? इससे तुम्हें या देश को क्या लाभ हुआ ? एक बार आँखें खोलकर देख- सोना पैदा करनेवाली भारत-भूमि में अन्न के लिये हाहाकार मचा है!..पाश्चात्य विज्ञान की सहायता से जमीन खोदने लग जा, अन्न की व्यवस्था कर- नौकरी करके नहीं-अपनी चेष्टा द्वारा पाश्चात्य विज्ञान की सहायता से नित्य नवीन उपाय का आविष्कार करके ! इसी अन्न-वस्त्र की व्यवस्था करने के लिये मैं लोगों को रजोगुण की वृद्धि करने का उपदेश देता हूँ।" (6/155) 
   हमलोग क्या कर रहे हैं ? बेरोजगारी की समस्या को मिटाने के लिये सबों के लिए छोटी-मोटी नौकरी का उपाय, नहीं हुआ तो बेरोजगारी भत्ता देने की व्यवस्था कर रहे हैं। जिसके कारण समस्या का समाधान तो होता नहीं, बल्कि इस प्रकार की शिक्षा में पढ़े-लिखे लड़के भी अब ट्रेन डकैती तक कर रहे हैं, और जितने प्रकार का समाज विरोधी कार्य हो सकते हैं, उन समस्त अनैतिक कार्यों को कर रहे है।"
         [  " लेक्चर से इस देश में कुछ भी न होगा, भाईलोग सुनेंगे, वाह-वाह करेंगे, ताली पीटेंगे, बस और उसके बाद घर जा कर भात के साथ सब हजम कर जायेंगे।  पुराने जंग खाए लोहे को ...पहले आग में लाल करना करना होगा, तब कहीं हथौड़ी से पीट कर कोई वस्तु ( मनुष्य) बनाई जा सकेगी। इस देश में ज्वलन्त जीवन्त से उदाहरण दिखाये बिना कुछ भी न होगा। अनेक लडकों की आवश्यकता है, जो सारे इन्द्रिय भोगों को छोड़-छाड़ कर देश के लिये जिवनोत्सर्ग करें। पहले उनका जीवन-गठन (चरित्र - निर्माण) करना होगा, तब कहीं काम होगा। ' 8/252) ]
" इच्छाशक्ति ही जगत में अमोघ शक्ति है। प्रबल इच्छाशक्ति का अधिकारी मनुष्य एक ऐसी ज्योतिर्मयी प्रभा अपने चारों ओर फैला देते हैं कि दूसरे लोग स्वतः उस प्रभा से प्रभावित होकर उसके भाव में भावित हो जाते हैं। " ५/१९१    
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॥ 10।।

 नचिकेता जैसी 'मृत्युंजयी-श्रद्धा' ही समस्त समस्याओं के निराकरण का उपाय है 

          स्वामीजी की दृष्टि में युवावर्ग समस्या नहीं अपितु राष्ट्रिय-संपदा है। इसीलिए युवावर्ग को तोड़ने, कमजोर करने की बात वे सोच भी नहीं सकते थे। बल्कि देश की उन्नति और निर्माणकारी योजनाओं में उन्होंने युवाशक्ति को नियोजित करना चाहा था। वास्तव में युवा-समस्या के समाधान का यही सबसे उत्कृष्ट मार्ग है। 
           जैसा श्रीरामकृष्ण कहा करते थे- ' कोलकाता से दूर जाना हो तो काशी की ओर अग्रसर होना पड़ता है, काशी की ओर अग्रसर रहने से कोलकाता स्वयं ही दूर होता जाता है।इसीलिए स्वामीजी युवावर्ग का आह्वान करते हैं- " तुम्हारे 
भविष्य को निश्चित करने का यही समय है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि अभी इस भरी जवानी में, इस नये जोश के जमाने में ही काम करो, जीर्ण शीर्ण हो जाने पर काम नहीं होगा। काम करो, क्योंकि काम करने का यही समय है। "( भारत का भविष्य ५/१९७)     
      "भारत को पुनरुज्जीवित करने  के लिये आप क्या करना चाहते हैं ?" इस प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वामीजी कहते हैं-" यदि हम भारत को पुनरुज्जीवित करना या जाग्रत करना चाहते हैं, तो हमें उसके लिए काम करना होगा। मेरी आशा , मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा। वे सिंहविक्रम से देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्या का समाधान करेंगे। " स्वामी विवेकानन्द केवल इतना ही नहीं मानते थे कि, 'युवा-समुदाय राष्ट्र के लिए समस्या नहीं वरन राष्ट्र की सम्पदा हैं',  बल्कि वे यह विश्वास भी करते थे कि देश की समस्त समस्याओं का समाधान केवल युवाओं के द्वारा ही सम्भव होगा। 
       विराट समाज की किसी समस्या का कोई अकेला समाधान संभव नहीं है।  राष्ट्रिय पुनरुत्थान रूपी अतिविशाल समस्या ने ही स्वामी विवेकानन्द की समस्त विचारों और प्रयास को अपना ग्रास बना लिया था- अपनी तरफ ध्यान खींच लिया था। वास्तव में उनका लक्ष्य था राष्ट्रीय अभ्युदय। युवा समस्या का समाधान तथाकथित युवा-कल्याण के लिये गठित छद्म राजनितिक संगठनों (नेहरू युवा केन्द्र ?) द्वारा आयोजित युवा महोत्स्वों आदि से नहीं हो सकता। राष्ट्रिय समस्या (राष्ट्रीय चरित्र का पुनर्निर्माण) के प्रति युवाओं में लगाव पैदा कर के ही इसका समाधान हो सकता है।  इसीलिए स्वामीजी ने उस श्रद्धा सम्पन्न प्रश्न-कर्ता युवक से इसके आगे जो कहा था, उसे आज का समस्याग्रस्त युवा-समुदाय भी सुन सकता  है- " मैं तो कहता हूँ, जो कुछ भी हो तू कुछ कर अवश्य ! या तो किसी व्यापार के लिए चेष्टाकर , या तो हमलोगों की तरह - 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत हिताय च। ' (अपने  मोक्ष के लिए तथा जगत के कल्याण के लिए)-यथार्थ संन्यास के पथ का अनुसरण कर। दूसरों के लिये अपने जीवन का बलिदान कर,  लोगों के द्वार -द्वार जाकर यह अभय-वाणी सुना- 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! " (6/109)   
            " क्या तुम देख नहीं पाते पूर्व के आकाश पर अरुणोदय हो गया है, सूर्य के निकलने में अब और अधिक विलम्ब नहीं है। तुमलोग इस समय कमर कस कर काम में लग जाओ, घर-गृहस्ती  में फंसने से क्या होगा ? इस समय तुमलोगों का कार्य है- सम्पूर्ण देश के कोने कोने में, गाँव गाँव तक जा कर सभी लोगों यह समझा देना कि अब और आलस्य से बैठे रहने से काम नहीं चलेगा, शिक्षाहीन, धर्महीन, वर्तमान पतन के कारणों को उन्हें समझा दो और कहो- ' भाई लोग, उठो ! जागो ! और कितने दिनों तक सोते रहोगे ?' और उनलोगों को सरल भाषा में  व्यवसाय- बाणिज्य, कृषि-कुटीर उद्योग आदि गृहस्थ जीवन के लिये अत्यावश्यक विषयों की जानकारी दो। यदि ऐसा नहीं करते तो तुम्हारे पढने-लिखने को धिक्कार है, तुम्हारे वेद-वेदान्त पढने को भी धिक्कार है। दूसरों के लिये थोडा सा भी कार्य करने से, भीतर की शक्ति जाग उठती है,  ह्रदय में सिंह जैसा बल आ जाता है, तुम लोगों को मैं इतना प्रेम करता हूँ, किन्तु मेरी इच्छा होती है, कि तुमलोग दूसरों के लिये काम करते हुए मर जाओ, मैं यह देख कर खुश हो जाऊं। "     
     प्रश्न- महाराज, ऐसे शिक्षक कहाँ से आयेंगे जो लड़कपन से ही इन बातों को  सुनाता और समझता रहे ? '
     स्वामीजी - " इसीलिए हम आये हैं, तुम सब इस तत्व को हमसे सीखो, समझो और अनुभव करो ! फिर इस भाव को नगर नगर, गाँव गाँव, पुरवे- पुरवे में फैला दो, और सबके पास जाकर कहो, ' उठो, जागो और सोओ मत। सारे अभाव और दुःख (गरीबी की मानसिकता) नष्ट करने कि शक्ति तुम्हीं में है, इस बात पर विश्वास करते ही वह शक्ति जाग उठेगी। '( 6/14)  (इसीलिए हम आये हैं जो 22 वर्ष के उम्र से चश्मा का खोल' बनाने का कुटीर उद्द्योग
एक पत्र में स्वामीजी कहते हैं- " मान हो अपमान, मैंने तो इन नवयुवकों का संगठन करने के लिये ही जन्म लिया है। यहीं क्या, प्रत्येक नगर में सैकड़ों मेरे साथ सम्मिलित होने के लिये तैयार हैं, औमैं यह चाहता हूँ इन्हें अबाध्य गतिशील तरंगों के समान मैं भारत में सब ओर भेजूँ ; और जो दीन , हीन , एवं पददलित हैं, उनके द्वार पर सुख स्वाच्छन्द्य , नीति, धर्म एवं शिक्षा पहुंचाऊं। और यह कार्य मैं करूँगा या मरूँगा। " (पत्रावली )       
          जिस श्रद्धा अर्थात अद्भुत आत्मविश्वास के बल पर नचिकेता मृत्यु के सामने जाकर, साक्षात् यमराज के सामने खड़े हो गए थे, उसी अपूर्व श्रद्धा के बल से ही स्वामी विवेकानन्द ने भी देश-कल्याण के लिये युवक संप्रदाय को गढ़ने के लिये मृत्यु का आलिंगन किया था, और भारत माता की सेवा में मृत्यु-वरण करने का अनुपम आशीर्वाद युवा-समुदाय के मस्तक पर वर्षित किया था। ऐसी ' मृत्युंजयी- श्रद्धा '  के सामने कोई भी समस्या हल हुए बिना रह ही नहीं सकती।
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" क्या यह कभी सम्भव है कि सृष्टि आदि काल से जिस देश की सन्तान अखिल विश्व को शिक्षा देती आ रही है, केवल इसीलिए मूर्ख बन जायगी कि ( भारत के तत्कालीन वाइसराय लार्ड कर्जन  उच्च शिक्षा को इतना महँगा कर देना चाहते थे मध्यम वर्ग उस शिक्षा से वंचित रह जाये ) लार्ड कर्जन उच्च शिक्षा बन्द कर रहे हैं ? क्या उच्च शिक्षा का अर्थ केवल भौतिक शास्त्रों का अध्यन, और दैनिक उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन कर लेना भर है?  उच्च शिक्षा का उद्देश्य है - जीवन की समस्याओं को सुलझा लेने में समर्थ व्यक्ति बन जाना। और आज के तथा कथित सभ्य देश आज भी जिन समस्याओं में उलझा हुआ है (जीव-ईश्वर-माया) उन्ही पर गहन चिन्तन कर रहा है, किन्तु हमारे देश में सहस्रों वर्ष पूर्व ही ये गुत्थियाँ सुलझा ली गयीं हैं। ' ईश्वर रूप में सबकी उपासना करो- सारे आकार उसके मन्दिर हैं।  बाकी सब कुछ भ्रम है। ' अन्तर्भेदी-दृष्टि प्राप्त कर लो '- हमेशा भीतर की ओर देखो, बाहर (शरीर) की ओर कदापि नहीं।  '(9/89 ) 
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२३ दिसंबर १९०० को श्रीमती मृणालिनी बसु को लिखित एक पत्र में कहते हैं -" विशालकाय रेल के इंजन को दूर से आते देखकर, नन्हा सा कीड़ा अपने जीवन की रक्षा के लिये रेल की पटरी से हट गया- क्योंकि वह बुद्धिमान है ? मशीन में इच्छाशक्ति का कोई प्रकाश नहीं है। यन्त्र कभी नियम को उल्लंघन करने की कोई इच्छा नहीं रखता। कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता (स्वयं को डी -हिप्नोटाइज्ड करना चाहता है), और नियम के विरुद्ध जाता है, चाहे उस प्रयत्न में वह सिद्धि लाभ करे या असिद्धि; इसलिए वह बुद्धिमान है। जिस परिमाण में इच्छाशक्ति के प्रकट होने में सफलता होती है, उसी अंश में सुख अधिक होता है और जीव उतना ही ऊँचा होता है। परमात्मा की इच्छाशक्ति पूर्ण रूप से सफल होती है इसलिए वह उच्चतम है।  जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। " २९ अक्टूबर १८९६ को लन्दन में अपरोक्षानुभूति (कठोपनिषद) पर व्याख्यान देते हुए कहते हैं -यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और इसमें मेरा वश चले, तो मैं तथ्यों का अध्ययन कदापि न करूँ। मैं मन की एकाग्रता और अनासक्ति का सामर्थ्य बढ़ाता और उपकरण के तैयार होने पर इच्छानुसार तथ्यों का संकलन करता। " (4.108) 
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11.

यौवन की स्वाभाविक चित्त-वृत्तियों के भंवर में फंसे मन का संयम

             युवा समस्या कोई क्षणिक या अल्पकालिक समस्या नहीं है। जब तक समाज रहेगा, युवा समस्या भी रहेगी। एक समय का युवा समुदाय, दूसरे समय के युवा समुदाय भिन्न होता है।   इसीलिए युवा समस्या का स्थायी समाधान  कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार यह समस्या सर्वकालिक (eternal) है, इसके समाधान की प्रक्रिया (Be and Make) भी निरन्तर चलती रहेगी।
       युवा समस्या के दो पहलु हैं। चूँकि यह युवाओं  की समस्या है इसलिए  उन लोगों को ही भोगना चाहिए। किन्तु, उनकी समस्या से समाज बिल्कुल अछूता नहीं रह सकता। यौवन का जोश और अतिउत्साह के साथ बुद्धि की अपरिपक्क्वता के  कारण समाज में भी कुछ समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। 
           युवाओं की समस्याओं को और भी दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। मौलिक या आन्तरिक समस्या तथा  गौण और बाह्य समस्या। बाह्य समस्या के अन्तर्गत शिक्षा, अर्थोपा-र्जन, सामाजिक प्रतिष्ठा इत्यादि आते हैं। जबकि आन्तरिक समस्या स्वयं यौवन की असीम प्राण-उर्जा है। जीवन के इस काल-खण्ड में असीम  प्राण-उर्जा, आवेग, भावाभिव्यक्ति, कर्म, आशा-आकांक्षा इत्यादि अनेक विषयों  के साथ-साथ बुद्धि की अपरिप्क्क्वता के कारण संयम और नियन्त्रण (विवेक-प्रयोग) का आभाव रहता है। आन्तरिक समग्रता (internal integrity-सत्यनिष्ठा ,सदाचार, ईमानदारी आदि), निश्चित उद्देश्य तथा स्पष्ट आदर्श का अभाव रहता है। यौवन की स्वाभाविक चित्त -वृत्तियों के भंवर में फँसे हुआ मन और इन्द्रियों की विवशता ही आन्तरिक समस्या के उपादान हैं।
       गौण समस्या अस्थायी है तथा विभिन्न काल में, विभिन्न देशों में वह विभिन्न रूपों में (हिप्पी आन्दोलन आदि द्वारा) प्रकट होती रहती है। लेकिन, इसका समाधान अपेक्षाकृत सहज है और निष्ठा के साथ सामूहिक सामाजिक प्रयत्न  करने से यह संभव भी हो जाता है। जबकि देश-काल की दृष्टि से विचार करने पर युवा समुदाय की मौलिक समस्या चिरन्तन और सर्वत्र समान है पर इसका समाधान उतना सहज नहीं, किन्तु अधिक महत्वपूर्ण है। जहाँ बाह्य या गौण समस्याएं समाज के सामूहिक प्रयास से समाधान होने योग्य हैं, वहीँ मौलिक समस्या [अर्थात आंतरिक समस्या - जिसका समाधान किये बिना युवा समस्या का समूल समाधान नहीं हो पाता, एवं  सार्वजनिक उन्नति तथा समस्याओं के सार्वजनिक निराकरण में युवा-शक्ति का सदुपयोग भी नहीं हो पाता है।] का समाधान सामूहिक सामाजिक प्रचेष्टा (collective social effort) से हो पाना सम्भव नहीं है।  सामूहिक प्रचेष्टा (ऐनुअल कैम्प-पाठचक्र आदि) इस विषय में सहायक तो हो सकता है, किन्तु इसका (मौलिक समस्या-अविद्या आदि पंचक्लेश का) समाधान व्यक्तिगत प्रयास (individual effort :3H विकास के 5 अभ्यास ) के उपर ही निर्भर करता है। 
       स्वामी विवेकानन्द (युवाओं के बड़े भैया) तो युवा-वर्ग द्वारा सृष्ट समस्या # की ओर दृष्टिपात करने की जरुरत भी नहीं समझते थे।  इसीलिए उन्होंने गौण समस्याओं के समाधान की ओर समय समय पर केवल कुछ कुछ संकेत भर किया है।  किन्तु, युवा समस्या के मौलिक, आंतरिक और चिरन्तन रहस्य (प्रत्येक युवा अव्यक्त ब्रह्म है ,अविद्या के चलते  अस्मिता आदि पंचक्लेश में फँसा हुआ है। ) को उन्होंने न केवल उद्घाटित किया है, अपितु युवाओं को इसका समाधान  (Be and Make) भी बतलाया है।  जिससे वे अपने जीवन की सम्भावना  को प्रस्फुटित कर सकें (व्यष्टि अहं को सर्वगत अहं में रूपांतरित कर, अंतर्निहित दिव्यत्व या  पूर्णत्व  को प्रस्फुटित कर सकें)  और अपनी यौवन ऊर्जा को सार्वजनिक समस्याओं के समाधान में लगा कर, सर्व जनों का कल्याण साधन करते हुए अपने जीवन को सार्थक कर सकें, स्वामीजीने उसी का पथ दिखालाया है। 
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"मनुष्य में धर्म और परमेश्वर के प्रति उत्कट श्रद्धा रहनी चाहिये ..एक कमरे में चोर घुस आया और उसे पता लग गया कि दूसरे कमरे में सोने का ढेर रखा है, और वह उस ढेर तक पहुँच भी सकता है, तो क्या वह वहां पहुँचने के लिये पागल न हो जायेगा ? (अन्तर्निहित दिव्यता या) 'ईश्वर में अटूट विश्वास और फलस्वरूप उसे पाने की तीव्र उत्सुकता का ही नाम है 'श्रद्धा।' (आत्मानुभूति के सोपान - ३/१०१)   

" इन सब मूर्ति-पूजा जप, ध्यान  आदि की जड़ कहाँ है ?  [22 जनवरी 2024 को अयोध्या में राम लला की प्राण-प्रतिष्ठा, जप, ध्यान  आदि की जड़ कहाँ है ?] यह जड़ है श्रद्धा। संस्कृत भाषा के श्रद्धा शब्द को समझाने योग्य कोई शब्द हमारी भाषा में नहीं है। मेरे मत से संस्कृत शब्द श्रद्धा का निकटतम अर्थ 'एकाग्र-निष्ठा' शब्द द्वारा व्यक्त हो सकता है। "६/१३७

    " अरे ये जो नशाखोर लोग आकर गाना-बजाना करके चले गये,  (होली में भांग पीकर मस्त रहने वाले ? उनमें से 7 लोगों को तो मैं जानता हूँ) ठाकुर की इच्छा होने पर उनमें से हर एक व्यक्ति विवेकानन्द हो सकता है। आवश्यकता होने पर विवेकानन्द का आभाव न रहेगा। कहाँ से कोटि कोटि विवेकानन्द आकर उपस्थित हो जायेंगे, यह कौन जनता है ? यह (श्रीरामकृष्ण मठ-मिशन, सारदा मठ , महामण्डल, नारी संगठन, या विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर) विवेकानन्द (नवनी दा का?)  का काम नहीं है रे; यह तो उनका काम है-ठाकुर का स्वयं प्रभु का। एक गवर्नर जनरल के जाने के बाद उसके स्थान पर दूसरा आएगा ही! " ८/२५५
      "मेरी इच्छा है -तुम लोगों के भीतर भी इसी श्रद्धा का आविर्भाव हो, तुममें से हर एक आदमी खड़ा होकर इशारे से संसार को हिला देनेवाला प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष हो, हर प्रकार से अनन्त ईश्वरतुल्य हो। मैं तुम लोगों को ऐसा ही देखना चाहता हूँ। उपनिषदों से तुमको ऐसी ही शक्ति प्राप्त होगी। और वहीं से तुमको ऐसा विश्वास प्राप्त होगा। गृही मनुष्य भी उपनिषदों का अध्यन कर सकते हैं,इससे उनका कल्याण ही होगा, कोई अनिष्ट न होगा। वेदान्त के इन सब महान तत्वों का प्रचार अवश्यक है, ये केवल अरण्य मे अथवा गिरि-गुहाओं मे आबद्ध नहीं रहेंगे। कीलों और न्यायधीशों मे, प्रार्थना-मंदिरों मे, दरिद्रों की कुटियों में, मछुओं के घरों में, छत्रों के अध्यन स्थानों में -सर्वत्र ही इन तत्वों की चर्चा होगी और ये काम मे लाये जायेंगे।" 
कठोपनिषद का आरंभ कितने मनोहर रीति से किया गया है ! उस छोटे से बालक नचिकेता के हृदय में श्रद्धा का अविर्भाव, उसकी यमदर्शन की अभिलाषा और और सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि यम स्वयं उसे जीवन और मृत्यु का महान पाठ पढ़ा रहे हैं। और वह बालक उनसे क्या जानना चाहता है ? -मृत्यु का रहस्य। " ५/२२४
" ऐसा दृढ़ संकल्प हरेक भारतीय बालक को करना चाहिए।  मैं चाहता हूँ कि तूँ कठोपनिषद को कंठस्थ कर ले ! उपनिषदों में ऐसा सुन्दर ग्रन्थ और कोई नहीं है। नचिकेता के समान श्रद्धा, साहस, विवेक और वैराग्य अपने जीवन में लाने की चेष्टा कर, केवल पढ़ने से क्या होगा ? "६/१५
 " इस जीवात्मा में अनन्त शक्ति अव्यक्त भाव से निहित है; चींटी से लेकर ऊँचे से ऊँचे सिद्ध पुरुष तक, सभी में वह आत्मा विराजमान है, अंतर केवल उसके प्रत्यक्षीकरण के भेद में  है। वरण भेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत -(कैवल्य पाद)-किसान जैसे खेतों की मेंड़ तोड़ देता है और एक खेत का पानी दुसरे खेत में चला जाता है। वैसे ही आत्मा भी आवरण टूटते ही प्रकट हो जाती है। 
परन्तु चाहे विकसित हुई हो या नहीं, वह शक्ति प्रत्येक जीव -ब्रह्मा से लेकर घास तक में -विद्द्यमान है। इसीलिये आत्मानुभूति करने का एक अवसर सभी को मिलता है, सभी ब्रह्म जो हैं।  इस शक्ति को सर्वत्र जा जाकर जगाना होगा। " ६/३१२  
" हम श्र्द्धा खो बैठे हैं, इसीलिये तुम्हारा रक्त पानी जैसा हो गया है, मस्तिष्क मुर्दार ओर शरीर दुर्बल! इस शरीर को बदलना होगा। शारीरिक दुर्बलता ही सब अनिष्टों की जड़ है और कुछ नहीं। तुम्हारा शरीर दुर्बल है, मन दुर्बल है, और अपने पर आत्मश्र्द्धा भी बिल्कुल नहीं है। ...जब काम करने का समय आता है तब तुम्हारा पता ही नहीं मिलता। 
"मनुष्य में धर्म और परमेश्वर के प्रति उत्कट श्रद्धा रहनी चाहिये ..एक कमरे में चोर घुस आया और उसे पता लग गया कि दूसरे कमरे में सोने का ढेर रखा है,और वह उस ढेर तक पहुँच भी सकता है, तो क्या वह वहां पहुँचने के लिये पागल न हो जायेगा ? (अन्तर्निहित दिव्यता या) 'ईश्वर में अटूट विश्वास और फलस्वरूप उसे पाने की तीव्र उत्सुकता का ही नाम है 'श्रद्धा।'.३/१०१
" मैं तुम लोगों से फिर एक बार कहना चाहता हूँ कि यह श्रद्धा ही मानव जाति के जीवन का और संसार के सब धर्मों का महत्वपूर्ण अंग है। सबसे पहले अपने आप पर विश्वास करने का अभ्यास करो। ऐ गरीब बंगालियों (तब बिहार-बंगाल एक था), उठो और काम में लग जाओ, तुम लोगों के द्वारा ही भारत का उद्धार होनेवाला है!"५/३३५
>>>Autosuggestion: आत्मसुझाव या संकल्प-ग्रहण द्वारा श्रद्धा जागरण :  “मैं ॠषि-मुनियों की संतान हूँ। भीष्म पितामह जैसे दृढ़प्रतिज्ञ पुरुषों की परम्परा में मेरा जन्म हुआ है।  गंगा को पृथ्वी पर उतारनेवाले राजा भगीरथ जैसे दृढ़निश्चयी महापुरुष का रक्त मुझमें बह रहा है। समुद्र को भी चुल्लू में पी जानेवाले अगस्त्य ॠषि का मैं वंशज हूँ।  श्री राम, श्रीकृष्ण, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण  की अवतरण -भूमि भारत में, जहाँ देवता भी जन्म लेने को तरसते हैं वहाँ मेरा जन्म हुआ है, फिर मैं ऐसा दीन-हीन क्यों रहूँगा ? मैं जो चाहूँ सो कर सकता हूँ।  आत्मा की अमरता का, दिव्य ज्ञान का, परम निर्भयता का संदेश सारे संसार को जिन ॠषियों ने दिया, उनका वंशज होकर मैं दीन-हीन नहीं रह सकता। -मैं अपने रक्त के निर्भयता के संस्कारों को जगाकर रहूँगा। मैं वीर्यवान् बनकर रहूँगा। ”  
"सिर्फ इच्छा होने से ही कोई बड़ा (नेता/ प्रेसिडेन्ट/ ) नहीं बन जाता, जिसे वे (ठाकुर, माँ, स्वामीजी) उठाते हैं वही उठता है, --जिसे वे गिराते हैं वह गिर जाता है। हमलोग सार्वभौमिक धर्म का प्रचार कर रहे हैं -गुट्टबाजी करके ? ईर्ष्या गुलाम जाति का स्वभाव है, उसे उखाड़ फेंकने  चेष्टा करनी चाहिये। मुझे नाम की आवश्यकता नहीं- I want to be a voice without form! मैं निराकार की वाणी हो जाना चाहता हूँ । " (पत्रावली /स्वामी ब्रह्मानन्द/सितंबर १८९४)
>> 'मृत्युंजयी- श्रद्धा ' :   स्वामी जी 'मृत्युंजयी- श्रद्धा '  का अद्भुत उदाहरण, 'कमल और सूर्य'-से प्रस्तुत करते हुए कहते हैं - 'मृत्यु की समस्या का ही समाधान' -सर्वप्रथम भारत के ऋषि -मुनियों ने ही  आविष्कृत कर दिखाया था। प्राचीन युग के हमारे पूर्वज ऋषियों के मन में विचार उठा - वे जिन्होंने मेरे बचपन में मुझे पाल-पोस कर बड़ा किया, जिन्होंने  जीवनभर केवल मेरे लिये सबकुछ किया- मेरे माता-पिता; वे भी चले गये- कहाँ ? हर कोई, हर चीज चली गयी, जा रही है, और चली जायेगी। वे कहाँ चले जाते हैं ? प्रातः कालीन सूर्य जगत के लिये प्रकाश, ताप और हर्ष लाता है। वह मन्द गति से यात्रा करता है, शाम को नीचे गहराई में विलुप्त हो जाता है।  किन्तु कमल के अद्भुत पुष्प की श्रद्धा को देखो ! उसे दृढ़ -विश्वास है, उसमें आस्तिक्य-बुद्धि है कि यही सूर्य अगले दीन पुनः प्रकट होगा !  उतना ही गरिमामय, और सुन्दर ! और दूसरे दिन सुबह, जब सूर्य की किरणें उसकी बन्द पंखुड़ीयों को स्पर्श करती हैं, तो वह प्रस्फुटित हो जाता है, खुल जाता है और सूर्य ढलने पर पुनः बन्द हो जाता है। तात्पर्य  यह निकला गया कि जो लोग आते, और चले जाते हैं उनका पुनर्जन्म होता है यह पहला समाधान था। और इसीलिए सूर्य तथा कमल धर्म के प्रथम प्रतीक हुए। 'मृत्युंजयी- श्रद्धा '  का अद्भुत उदाहरण है - 'कमल और सूर्य'! 
         श्रद्धावान मनुष्य (हमारे पूर्वज ऋषियों) के मन में पुनः प्रश्न उठा - 'रात्री में भी चाँद-तारे अपना प्रकाश फैलाते रहते हैं, तब वे जिनसे मैं स्नेह करता हूँ, कहाँ चले जाते हैं? निश्चय ही नीचे तमसाच्छन्न स्थान को नहीं, वरन ऊपर, शाश्वत प्रकाश के राज्य में। ' यहाँ श्रद्धा के नये प्रतीक अग्नि हैंजो अपनी ज्वालाओं की अद्भुत भास्वर जिह्वाओं से युक्त है- पूरे वन को अल्प समय में खा सकते हैं, भोजन पकाने वाली, गर्मी देने वाली, और वन्य पशुओं को दूर भगा देने वाली अग्नि की ज्वाला- यह प्राण दायक, प्राणरक्षक अग्नि और उसकी लपटें - जो सब की सब ऊपर जाती हैं, नीचे कभी नहीं। यह अग्नि ही है जो उन्हें ज्योति के स्थलों में ऊपर ले जाने वाली है।
    आपके (मने युवाओं के) सामने है जनसमुदाय को उसका अधिकार देने की समस्या। आपके पास संसार का महानतम धर्म (चार महावाक्य) है, और आप जनसमुदाय को (गीता, उपनिषद)  सुनाने के बजाय सारहीन और निरर्थक बातों पर पालते हैं। आपके पास वेद-उपनिषद का चिरन्तन बहता हुआ स्रोत है, और आप उन्हें गन्दी नाली का पानी पिलाते हैं। विश्वास कीजिये की आत्मा अमर है, अनंत है और सर्वशक्तिमान है। मैं शिक्षा को गुरु (परमहंस) के साथ सम्पर्क -'गुरुगृह वास'- (कैम्प का प्रशिक्षण) समझता हूँ। गुरु  के व्यक्तिगत जीवन के अभाव में शिक्षा नहीं हो सकती। अपने विश्वविद्यालयों को लीजिये। उन्होंने एक भी मौलिक व्यक्ति पैदा नहीं किया। वे केवल परीक्षा लेने की संस्थायें हैं। सबके कल्याण के लिये अपने जीवन को न्योछावर कर देने की भावना का अभी हमारे राष्ट्र में विकास नहीं हुआ है।(4/261-62)]
[ #युवाओं द्वारा पैदा की गई समस्या:  "Problems created by youth एवं  C-IN-C दादा का उपदेश ": सबको बताओ धर्म क्या है ? श्रद्धा क्या है ? विवेक-और बुद्धि में क्या अन्तर है ? पशुता से मनुष्यत्व , और मनुष्यत्व से देवत्व में कैसे उन्नत हुआ जाता है ? दादा (नवनी दा) युवाओं द्वारा पैदा की गई समस्याओं की ओर, यथा सीटी बजाना, हल्ला करना, तोड़फोड़ करना, रेल-बस का सीट फाड़ना, कुर्ता-फाड़ होली में भांग खाना आदि पर दृष्टिपात करने की जरुरत भी नहीं समझते थे। 
"श्रद्धा सामान्य नारी नहीं वे तो विश्व मंगला मातृ-मूर्ति हैं !"   
 
सहज विश्वास अथवा अन्धविश्वास का नाम श्रद्धा नहीं है। सत्य को निश्चय पूर्वक जानकर, उसे दृढ़ता के साथ हृदय में धारण कर लेना श्रद्धा है।  श्रद्धा=श्रत्+धा,  सत्य+धारणा,  सत्य+धारण,   आत्म+विश्वास। धर्ता"- सत्य धारणा अथवा निष्ठा के साथ, अभीष्ट की साधना में लगे रहना  श्रद्धा है। आत्मविश्वास के साथ साध्य की साधना में जुट जाना श्रद्धा है। हृदयसंकल्प के साथ लक्ष्य की ओर प्रवृत्त रहना श्रद्धा है। हृदय की गहन भावना के साथ साधना करना श्रद्धा है।          
      छन्दोबद्ध मन्त्रों को ऋक् या ऋचा कहते हैं। वेद शब्द विद् ज्ञाने (जानना) धातु से बना है , अतः वेद शब्द का अर्थ है---ज्ञान । संहिता शब्द का अर्थ संकलन होता है । इस प्रकार ऋग्वेद-संहिता का अर्थ हुआ---छन्दोबद्ध ज्ञान का संग्रह । ऋग्वेद के दशम मंडल के १५१ वें सूक्त को श्रद्धा सूक्त कहते है इसकी रिषिका श्रद्धा कामायनी है, इस सूक्त में श्रद्धा का आवाहन देवी के रूप में करते हुए कहा है कि वह हमारे हृदय में श्रद्धा उत्पन्न करे। ऋग्वेदः (१०-१५१-४) में कहा गया है -
श्रद्धां देवा यजमाना वायुगोपा उपासते।
श्रद्धा हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु।।
(देवाः) देवजन, (यजमानाः) यज्ञानुष्ठानी, यज्ञशील जन और (वायु-गोपाः) प्राणरक्षक जन (हृदय्यया आकूत्या) हृदय भावना द्वारा (श्रद्धाम् श्रद्धाम्) अभीष्ट को प्राप्त कराने वाली श्रद्धा को (उपासते) उपासते हैं। वे (श्रद्धया) श्रद्धा से ही (वसु) धन, अभीष्ट (विन्दते) प्राप्त करते हैं।
       देवजनों ने श्रद्धा के द्वारा ही देवत्व को प्राप्त किया था । यज्ञानुष्ठानी श्रद्धा द्वारा ही यज्ञफल {सुखैश्वर्य} प्राप्त करते हैं। यज्ञशील श्रद्धा द्वारा ही श्रेष्ठतम कर्मों की साध में निरत रहते हैं। वीर श्रद्धा द्वारा ही विजयलाभ  करते हैं। योगी भी श्रद्धा द्वारा ही योगसाधना में सिद्धि प्राप्त करते हैं। हृदय-संकल्प में ही श्रद्धा का निवास है। निस्सन्देह हृदय की भावना ही श्रद्धा है। श्रद्धा से प्रत्येक धन प्राप्त होता है। श्रद्धावान् व्यक्ति किसी भी ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकता है। श्रद्धा के साथ, दृढ़संकल्प और निश्चय के साथ योगपथ {महामण्डल द्वारा निर्देशित 3H विकास के 5 अभ्यास के पथ} पर आरूढ़ होइये। आप बहुत शीघ्र सफल होंगे। विश्वास रखिए और प्रसन्नता के साथ योगानुष्ठान प्रारम्भ कीजिए। 
[ साभार :स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'/
http://rishivichar.blogspot.com/2013/02/blog-post_5.html]

श्रद्धा का अर्थ है -आस्तिक्य बुद्धि, अर्थात आत्म-विश्वास और आत्म विश्वास का अर्थ है ईश्वर (ठाकुर) पर विश्वास। इसलिए  ऋग्वेद के दशम् मण्डल १/१२४ में श्द्धा की स्तुति देवता रूप में इस प्रकार की गई है-
श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यंदिनं परि ।
श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः ॥५॥

अर्थात 'हम प्रातः मध्याह्न और सांयकाल में श्रद्धा का आह्नान करते हैं, हे श्रद्धे! तू हमें इस लोक में भी श्रद्धायुक्त कर। 
छान्दोग्योपनिषद् ७/१९-२० में श्रद्धा की दो प्रमुख विशेषताएं वर्णित हैं - मनुष्य के हृदय में निष्ठा या आस्तिक्य बुद्धि जाग्रत कराना व मनन कराना। श्रद्धा हृदय की उच्च भावना का प्रतीक है। इससे मनुष्य का आध्यात्मिक जीवन सफल होता है और धन प्राप्त कर सुखी होता है। नारदपुराण में कहा गया है - 

श्रद्धावाल्लभते धर्मान् श्रद्धावानर्थमाप्नुयात्। 

श्रद्धया साध्यते कामः श्रद्धावान् मोक्षमाप्नुयात ॥ 

-नारदपुराण>पूर्वभाग 4/6 श्रद्धालु पुरुष को धर्म का लाभ होता है। श्रद्धालु ही धन पाता है, श्रद्धा से ही कामनाओं की सिद्धि होती है तथा श्रद्धालु ही मोक्ष पाता है। 

" श्रद्धया विन्दते वसु "

जयशंकर प्रसाद के ‘कामायनी’ की रचना 'ऋग्वेद' में वर्णित इसी सूक्त  श्रद्धां हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु ॥-ऋग्वेदः १०-१५१-४॥- के आधार पर हुई है-अर्थात सब लोग हृदय के दृढ़ संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं क्योंकि श्रद्धा से ही ‘वसु’ (भौतिक कल्याण -धन वैभव,या अभ्युदय ) और आध्यात्मिक कल्याण (अमरत्व या निःश्रेयस) दोनों प्रकार के ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। कामयानी महाकाव्य वस्तुतः अपूर्ण मानव (कच्चा मैं,द्वैत ) को परिपूर्णता (पक्का मैं-अद्वैत ) की ओर ले जाने वाली विकास-यात्रा की दिशा व अन्तिम पड़ाव दोनों ही है।

श्रद्धा वाले सूक्त में सायण ने श्रद्धा का परिचय देते हुए लिखा है-‘काम-गोत्रजा श्रद्धानपामर्षिका’ इसीलिए श्रद्धा नाम के साथ उसे कामायनी भी कहा जाता है।  श्रद्धा काम-गोत्रजा अथवा काम की संतति है, इसीलिए तो महाकाव्य का नाम ‘कामायनी’ पड़ा है। सृष्टि-रचना का मूल भी वह प्रबल ‘काम’ ही है।  नासदीय सूक्त में सृष्टि-व्युत्पत्ति की प्रक्रिया कुछ इस प्रकार वर्णित हैः 

"कामस्तदग्रे    समवर्तताधि   मनसो   रेतः प्रथमं यदासीत्। 

स  तो  बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि  प्रतीष्या  कवयो  मनीषा। "

सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व ‘काम’ विद्यमान था यहां ‘काम’ का अर्थ ‘सिसृक्षा’ अर्थात् सृजन की इच्छा से है। परमात्मा ने ‘ईक्षण’ (आलौकिक इच्छा) से ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ का संकल्प लिया। यह ‘काम’ अथवा कामना सृष्टिकर्ता ब्रह्म के मन में बीज रूप में पूर्व से ही विद्यमान थी। 
           इस काव्य की कथावस्तु वेद,  उपनिषद, पुराण आदि से प्रेरित है। कामायनीकार के अनुसार काम के दो स्वरुप हैं - 'संभोगात्मक (प्रवृत्ति) तथा प्रगतिशील (निवृत्ति)' और दोनों ही स्वरूप मांगलिक है। किन्तु अपने प्रथम रूप तक  ही सीमित रहने के कारण वह मनुष्य-जीवन को वात्याचक्र (बवंडर - Whirlwind cycle) के समान जीवन को भटकाता रहता है। भोगवादी काम का यही परिणाम है। देव सृष्टि के विनाश का भी यही कारण था। देवगण के उच्छृंखल स्वभाव, निर्बाध आत्मतुष्टि में अंतिम अध्याय लगा और मानवीय भाव अर्थात् श्रद्धा और मनन का समन्वय होकर प्राणी को नए युग की सूचना मिली। दूसरी ओर जो प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी हैं, उनके लिए काम के इस संभोगात्मक रूप का पूर्णतया परित्याग जीवन-शक्ति की इच्छा का विरोध है, विकास का बाधक है। उससे जीवन का सम्पूर्ण आनन्द समाप्त हो जाता है। इसीलिए कामायनी में राग-विराग समर्पित काम को (विवाह संस्कार को) स्वीकार किया गया है।“ 
कामायनी में ‘श्रद्धा’ के माध्यम से एक सन्तुलित जीवन जीने की प्रेरणा है जहाँ न तो घोर विलासितापूर्ण सतत वासनामय ऐहिक जीवन की तलाश है और न ही एकान्तिक वैराग्य धारण करना ही अभीष्ट है। एक समन्वय का मार्ग विदुषी ‘श्रद्धा’ से प्राप्त होता है। श्रद्धा मनु को निर्भयता का पाठ पढ़ाती है। मनु जो दृष्टा है, वह चेतन है। अतः जल एवं मनु दोनों ही एक हैं। लेकिन अभी इसमें श्रद्धा का प्रवेश नहीं हुआ है अतः वह समरसी भाव को प्राप्त नहीं हुआ है। वह दृश्य (हिम और जल) तो जड़  है, किन्तु उस दृश्य का द्रष्टा जो मनु है वह तो चेतन है। श्रद्धा मनु के भीतर के द्वैत को अद्वैत में बदलने में अपनी भूमिका निभाती है
          ‘कामायनी’ के नायक मनु और नायिका श्रद्धा हैं। कामायनी में मनु मन का प्रतीक है और श्रद्धा हृदय तथा इड़ा बुद्धि का प्रतीक है। अपने आंतरिक मनोविकारों से संघर्ष करता हुआ मनु श्रद्धा याने आस्तिक्यबुद्धि की सहायता से आनन्द लोक तक पहुँचता है। जीवन का अंतिम भाव आनंद है । आनंद की उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील मानव अनेक संघर्षों से गुजरता है। शैवदर्शन के अनुसार शिव आनंदस्वरूप हैं। कामायनी में श्रद्धा की शक्ति के रूप में परिकल्पना की गई।           ऋषि दयानन्द जी  लिखते हैं कि जब जीव शरीर से निकलता है उसी का नाम ‘मृत्यु’ और शरीर के साथ संयोग होने का नाम ‘जन्म’ है। जब शरीर छोड़ता है तब यमालय अर्थात् आकाशस्थ वायु में रहता है क्योंकि ‘यमेन वायुना’ वेद में लिखा है कि यम नाम वायु का है।  मृत्यु होने के साथ वा बाद शरीर से जो जीवात्मा निकलती है वह आकाशस्थ वायु में रहती है। इस जीवात्मा को धर्मराज अर्थात् परमेश्वर उसके पाप पुण्यानुसार जन्म देता है।  नाना प्रकार के जन्म मरण में तब तक जीव पड़ा रहता है  जब तक उत्तम कर्मोपासना ज्ञान को प्राप्त करके मुक्ति को नहीं पाता। क्योंकि उत्तम कर्मादि करने से मनुष्यों में उत्तम जन्म और मुक्ति में महाकल्प पर्यन्त जन्म मरण दुःखों से रहित होकर आनन्द में रहता है
     यह जगत्‌ कल्याणभूमि है, यही श्रद्धा की मूल स्थापना है। इस कल्याणभूमि में एकमात्र प्रेम ही  श्रेय और प्रेय दोनों है। प्रेम मानव और केवल मानव की विभूति है। मानवेतर प्राणी, चाहे वे चिरविलासी देव हों, चाहे असुर हों, चाहे दैत्य या दानव हों, चाहे पशु हों, प्रेम की कला और महिमा वे नहीं जानते, प्रेम की प्रतिष्ठा केवल मानव ने की है। कामायनी काव्य का मूलबिंदु है- पहले श्रद्धा को पत्नी रूप में ग्रहण करना। फिर उसे अकेली छोड़कर इड़ा के साथ मनु का रहना। इड़ा को दासी या वंदिनी बनाने का प्रयास करने पर देवों का कोपभाजन बनना। 
           प्रसाद की रचना कामायनी का प्रमुख पात्र मनु उस विनाश का साक्षी है, जहाँ देवताओं की घोर भौतिकता-वादी प्रवृत्ति भोग, विलास और उनके द्वारा प्रकृति के अनियन्त्रित दोहन के परिणामस्वरूप पूरी सभ्यता का विनाश हो जाता है। जल-प्लावन का वर्णन शतपथ ब्राह्मण के प्रथम कांड के आठवें अध्याय से आरम्भ होता है। जल-प्लावन देवों की उच्छृंखल भोग-वृत्ति और निर्बाध आत्मतुष्टि का प्रकृति के द्वारा प्रतिकार था। पृथ्वी पर घोर जलप्लावन आया और उसमें सिवाय मनु के कोई भी नहीं बचता है। वे देवसृष्टि के अंतिम अवशेष थे। मनु भारतीय इतिहास के आदि पुरुष हैं। 'मनु' ही मानव-जाति के प्रथम पथ-प्रदर्शक या ' नेता ' हैं ! और अग्निहोत्र प्रज्वलित करने वाले तथा अन्य कई वैदिक कथाओं के नायक हैं। भागवत में इन्हीं वैवस्वत मनु और श्रद्धा (शतरूपा) से मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है। इस मन्वंतर के प्रवर्त्तक मनु हुए।  राम, कृष्ण और बुद्ध और अवतार वरिष्ठ  श्रीरामकृष्ण भी इन्हीं (मनु) के वंशज हैं।
         देव सभ्यता के प्रलय के बाद नए जीवन की उधेड़-बुन में लगे मनु के जीवन में श्रद्धा और इड़ा नामक दो स्त्रियाँ आती हैं। मनु अर्थात् मन के दोनों पक्ष हृदय और मस्तिष्क का संबंध क्रमश: श्रद्धा और इड़ा (मस्तिष्क में अवस्थित इन्द्रिय-केन्द्र) से भी सरलता से लगाया जाता है। इड़ा के संबंध में शतपथ में कहा गया है कि उसकी उत्पत्ति या पुष्टि पाक यज्ञ से हुई और उस पूर्णयोषिता को देखकर मनु ने पूछा कि ‘‘तुम कौन हो ?’’ इड़ा ने कहा, ‘तुम्हारी दुहिता हूं।’ मनु ने पूछा कि ‘मेरी दुहिता कैसे ?’ उसने कहा, ‘तुम्हारे दही, घी इत्यादि के हवियों से ही मेरा पोषण हुआ है।’ ‘तां ह’ मनुरुवाच-‘का असि’ इति, ‘तव दुहिता’ इति। ‘कथं भगवति ? मम दुहिता’ इति। (शतपथ 6 प्र.3 ब्रा.) श्रद्धा मनु को अहिंसक तथा प्रकृति प्रेमी बनाती है, जबकि इड़ा उसे घोर भौतिकतावाद में उलझा देती है और एतमाम लिप्साओं को ही मनु जीवन का उद्देश्य समझने लग जाता है। फिर एक दिन ऐसा आता है, जब उसे अपनी तमाम गलतियों का अहसास होता है और उसके बुरे समय में श्रद्धा उसकी रक्षा करती है। श्रद्धा जो कि अहिंसा, सात्विकता और प्रकृति प्रेम की परिचायक है। इड़ा को मेघसवाहिनी नाड़ी भी कहा गया है। ऋग्वेद में इड़ा को धी, बुद्धि का साधन करने वाली; मनुष्य को चेतना प्रदान करने वाली कहा है। इड़ा के लिए मनु को अत्यधिक आकर्षण हुआ और श्रद्धा से वे कुछ खिंचे।
यह इड़ा और श्रद्धा का एक तरह का बहनापे का भाव है। तभी अपनी संतान को इड़ा  के भरोसे छोड़ कर वह (श्रद्धा) मनु की खोज में चल देती है। वह उसे चिर चढी कहती अवश्य है पर इड़ा  के प्रति किसी विश्वास के कारण ही अपने पुत्र को उसके हवाले भी कर पाती है। यहाँ इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि अंत में जब इड़ा  उस स्थान पर जाती है जहां श्रद्धा और मनु है , तब भी मनु के प्रति किए गए व्यवहार के लिए वह शर्मिन्दा नहीं है पर जहाँ मानव श्रद्धा के अंक में समाता है वहीं इड़ा  श्रद्धा के चरणों में यह कहकर गिरती है कि उससे मिल कर वह कितनी कृतार्थ हुई है। श्रद्धा के प्रति कृतार्थता  का बोध और अपने बचपने के प्रति सजगता तथा उसका श्रेय श्रद्धा को देना – एक अद्भुत बहनापे का बोध प्रकट करता है। अकेलेपन की चिंता और देव-सृष्टि के विलास की स्मृतियां मनु की बेचैनी का मुख्य कारण है। 'श्रद्धा' के द्वारा किया गया निम्नोक्त प्रश्न, 'मनु' की भीरुता के कारण ही व्याख्या चाहता है- 
तपस्वी ! क्यों इतने हो क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश-बताओं यह कैसा उद्वेग।56
श्रद्धा मनु को भयभीत देखकर आश्चर्यचकित है- ‘आह! तुम कितने अधिक हताश!’ इस वाक्य में श्रद्धा के  मन में करुणा का आवेग है क्योंकि वह जानती है कि मानव तो अमरता की कृति है-अरे तुम इतने हुए अधीर; हार बैठे जीवन का दाँव, जीतते मरकर जिसको वीर। वेद के सदृश ही श्रद्धा के ये वाक्य महान आशावादी संदेश देते प्रतीत होते हैं। श्रद्धा उन्हें पुनः प्रवृत्ति मार्ग की ओर उन्मुख करती हुई अनवरत कर्म का सन्देश देती है। कामायनी की श्रद्धा  यथा समय मनु के मन में आशा का संचार करती प्रतीत होती है-
और यह क्या तुम सुनते नहीं, विधाता का मंगल वरदान ?
शक्तिशाल हो, विजयी बनो विश्व में गूँज रहा जय-गान।
डरो मत, अरे अमृत संतान। अग्रसर है मंगलमय वृद्धि,
पूर्ण आकर्षण जीवन-केन्द्र, खिंची आवेगी सकल समृद्धि

 -श्रद्धा सामान्य नारी नहीं वह तो विश्व मंगला मातृ-मूर्ति के रूप में सामने आई है-

तुम देवि! आह कितनी उदार, वह मातृ-मूर्ति है निर्विकार;
हे सर्वमंगले! तुम महती, सबका दुख अपने पर सहती।
”बनो संसृति के मूल रहस्य, तुम्हीं से फैलेगी वह बेल,
विश्व भर सौरभ से भर जाय सुमन के खेलो सुंदर खेल।“
       मनुष्य  का चरम लक्ष्य अपने यथार्थ स्वरूप को पाना है। इसे पाने के लिए उसे जगत के आकर्षण से भागना नहीं है- निरंतर लक्ष्य की ओर बढ़ना है। अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मन को नियंत्रण में रखने का प्रशिक्षण प्राप्त करके, समस्त जागतिक कार्य निष्पादित करना है, और निरंतर लक्ष्य (नश्वर वस्तुओं में आसक्ति का पूर्ण-त्याग ) की ओर बढ़ते रहना है। अपने लक्ष्य तक पहुँचे बिना विश्राम नहीं लेना है !  यह कौशल (तकनीक) प्रसाद जी की कामायनी को भली-भाँति आती है- नायिका के रूप में ' श्रद्धा ' नायक 'मनु' की प्रतिपग सहायिका बनी, उसकी दुर्बलताओं को क्षमा करती हुई, निराशा के मध्य आशा के दीप प्रज्ज्वलित करती हुई, असफलताओं को नकार अनवरत प्रोत्साहन द्वारा जीवन का ध्येय बताने वाली मार्गदर्शिका भी है। श्रद्धा के साथ मनु का मिलन होने के बाद उसी निर्जन प्रदेश में उजड़ी हुई सृष्टि को फिर से आरंभ करने का प्रयत्न हुआ। जीवन के जितने भी नैतिक आदर्श हैं उनका आधार मनुष्य का सत्य-स्वरूप या यथार्थ स्वरूप ही है। अपने वास्तविक स्वरूप के प्रति जागरूक बने रहना ही वास्तविक धर्म है। सत्य मार्ग को उन्मुख व्यक्ति ही वास्तव में सदाचारी है। हमारे वेद सदा सत्य और ऋत के मार्ग में चलने की आज्ञा देते आए हैं। ‘यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः’ के सिद्धान्त का अनुपालन करती हुई ‘श्रद्धा’ प्रथमतः मनु को कर्म की ओर प्रेरित करके ऐहिक जीवन की प्रेरणा प्रदान करती है। लेकिन वह मानव के वास्तविक उद्देश्य को भी भूली नहीं है। इसीलिए तो मनु को कैलास पर ले जाकर उसके जीवन में सात्त्विकता और समरसता का समावेश करती है। समाज में व्यक्ति यदि अधिकार की माँग रखता है तो उसके कुछ कर्तव्य भी हैं। व्यक्ति का समाज के प्रति समर्पण ही उसे स्वीकार्य है।
अपने में सब कुछ भर, कैसे व्यक्ति विकास करेगा?
यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।
औरों को हँसते देखो मनु- हँसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ!
स्वार्थ में लीन आत्मकेन्द्रित व्यक्ति श्रद्धा दृष्टि में महनीय नहीं है। समग्र समाज की भलाई व प्रसन्नता हेतु कार्यरत व्यक्ति, समस्त मानवजाति का मार्गदर्शक नेता (श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, माँ सारदा पूज्य नवनी दा ---) ही उसके लिए श्रद्धेय है- ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृतः (ऋ.9/सू.73/6) - प्रार्थना और यज्ञ करने वाला सदाचारी होना चाहिए। नहीं तो उसकी पूजा-प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं है। सदाचारी लोग ही तरते हैं, दुराचारी नहीं। अज्ञानी लोग जो हितोपदेश को भी नहीं सुन सकते वे सच्चाई के मार्ग को छोड़ देते हैं, वे दुष्टाचारी इस भवसागर की लहर को नहीं तर सकते।
        कामायनी में जब मनु सत्य के मार्ग में न चलने का दुष्परिणाम भोगकर मुमूर्षु दशा में पहुँचते हैं तो वह श्रद्धा ही है जो उन्हें सत्य के मार्ग की ओर पुनः प्रवृत्त करा आनन्द उपलब्ध कराती है। 'ऋत' अर्थात महत् - महा चित्त की शक्ति ही विश्व को एक नियम एक कानून-व्यवस्था (इन्द्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति का त्याग) में स्थापित रखती है और जो अपने कर्मों से इस नियम में व्याघात पहुँचाता है उसे वह नष्ट कर देती है। मनु ने स्वेच्छाचारिता में इस नियमन को नहीं माना था। यही उसके समूचे वंश के सर्वनाश का कारण बना। श्रद्धा ऋृत की इस महान व्यवस्था से परिचित है। और सर्वत्र उसी एक सत्य की उपस्थिति पाती है-‘श्रद्धा देवी प्रथमजा ऋतस्य’, तै.ब्रा. 3/12/1-2| जिसके आधार से सब चल रहा हैं , सब ठहरा हैं , जिसके कारण अराजकता नहीं हैं।  बसंत आता हैं और फूल खिलते हैं। पतझड़ आता हैं और पत्ते गिर जाते हैं।  वह अदृश्य नियम , जो बसंत को लाता हैं और पतझड़ को।  सूरज हैं , चाँद हैं , तारे हैं ।  यह विराट विश्व हैं और कही कोई अराजकता नहीं ।  सब सुसंबद्ध हैं। सब एक तारतम्य में हैं।  सब संगीतपूर्ण हैं।  इस लयबद्धता का ही नाम ऋत हैं । न तो वृक्षों से कोई कह रहा हैं कि हरे हो जाओ , न ही पत्तो को कोई खीच खीच कर उगा रहा हैं ….बीज से वृक्ष पैदा होते हैं , वृक्षों में फूल लग जाते हैं । सुबह होती हैं, पंक्षी गीत गाने लगते हैं । सब कुछ समायोजित ढंग से हो रहा हैं ।  कही कोई संघर्ष नहीं हैं , सहयोग हैं – ऋत शब्द में यह सब समाया हुआ हैं । सृजन की नियत व्यवस्था होने के कारण ही नारी ‘ऋतुमती’ कहलायी हैं। 
          सायण भाष्य आदि में ऋत को सत्य का पर्यायवाची माना जाता है । ऋत और सत्य में अन्तर बताते हुए प्रायः सायण भाष्य में कहा जाता है कि जो मानसिक स्तर पर सत्य है वह ऋत है और जो वाचिक स्तर का सत्य है, वह सत्य है। पुराणों में अनृत (अन्- ऋत) को मृत कहा गया है । अनृत अवस्था में केवल जीवन के रक्षण भर के लिए ऊर्जा विद्यमान है, जीवन को क्रियाशील बनाने के लिए नहीं । ऋत अवस्था जीवन में क्रियाशीलता लाती है, पुष्प, फल उत्पन्न कर सकती है । जीवन में जो भी कामना हो, वह सब ऋतम् का भरण करने से पूर्ण होगी। जब हम सोए रहते हैं तो वह अनृत अवस्था कही जा सकती है । उसके पश्चात् उषा काल की प्राप्ति होने पर सब प्राणी जाग जाते हैं ।  ऋग्वेद में श्रद्धा हेतु प्रशंसासूचक वाणी में कहा गया कि जिस प्रकार सूर्य की पुत्री उषा मनुष्यों के हृदय में आह्लाद उत्पन्न करती है, ठीक उसी प्रकार जिन मनुष्यों के हृदय में 'श्रद्धा-देवी' का निवास है वे लोग उसी देवी के समान सभी मनुष्यों में आह्लाद जन्य सौम्य स्वभाव उत्पन्न करते हैं। तत्त्वज्ञ ऋषि तो मनुष्य ही नहीं प्राणि मात्र में समत्व दृष्टि रखते थे। उनका तो उद्घोष थाः " मित्र स्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।" वैदिक ऋषि समाज में एकता व समन्वय की अपेक्षा रखते थे। एक ऐसे आदर्श समाज की परिकल्प उनके मन में थी जहाँ सभी के संकल्प, सोच, भावनाएँ, खान-पान, मंत्र, यज्ञ-भावना एक सी हों। पारस्परिक सौहार्द और सहयोग की उदान्त भावना से सम्पृक्त समाज ही उन्हें काम्य था। मनु का यह कथन-
देखो कि यहाँ पर कोई भी नहीं पराया,
हम अन्य न और कुटुंबी हम केवल एक हमीं हैं,
तुम सब मेरे अवयव हो जिसमें कुछ नहीं कमी है।
शापित न यहाँ कोई है तापित पापी न यहाँ हैं,
जीवन-वसुधा समतल है समरस है जो कि जहाँ है।
श्रद्धा की उदात्त चेतना समूची सृष्टि से तादात्म्यीकरण की स्थिति में है। यहाँ मनुष्येत्तर पशु-पक्षी भी उसी की सत्ता के पर्याय है। सचमुच यहाँ श्रद्धा की उपस्थिति एक ऋषिका सी ही है। प्राणी मात्र पर कष्ट उसके हृदय में शर-सा प्रहार करता है। आकुलि-किलात से मिलकर मनु हिंसा का जो आयोजन करते हैं, श्रद्धा उसमें हिस्सा नहीं लेती। वह 'एलियनेशन' का अनुभव करती है और आधुनिक मानव की हिंसा वृत्ति पर सवाल दागती है—
यह विराग सम्बन्ध हृदय का कैसी यह मानवता!
प्राणी को प्राणी के प्रति बस बची रही निर्ममता!
जीवन का संतोष अन्य का रोदन बन हँसता क्यों?
एक-एक विश्राम प्रगति को परिकर-सा कसता क्यों?]

स्वामीजी कहते थे ' थोड़ी धूम-धाम हुए बिना भगवान श्रीरामकृष्ण के नाम से लोग परिचित कैसे होंगे ? और उनसे प्रेरित कैसे होंगे ? ..अब लोग उन्हें क्रमशः जानेंगे, तभी तो देश का मंगल होगा। जो देश के मंगल के लिये ही, आविर्भूत हुए हैं, उनको जाने बिना देश का कल्याण किस प्रकार होगा ? उनको (श्रीरामकृष्ण को)   ठीक ठीक जान लेने से - ' मनुष्य ' तैयार होंगे. और ' मनुष्य ' यदि तैयार हो गये, तो दुर्भिक्ष आदि को दूर करना फिर कितनी देर की बात है ? ' ( ८/२५१)] 
     " जिस प्रकार लडकों को 30 वर्ष की उम्र तक ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर सत्य को जानने के विज्ञान की तकनीक या कौशल सीखना होगा, उसी तरह लड़कियों को भी यह तकनीक  सीखनी होगी। किन्तु प्रश्नकर्ता  ने फिर पुछा- ' पर आज की विश्वविद्यालय की शिक्षा में क्या दोष है? ' वेदान्त - ' वेद ' शब्द से बना है, और वेद का अर्थ है ज्ञान। समस्त ज्ञान वेद है और ईश्वर की भाँति अनन्त है। कोई व्यक्ति ज्ञान की कभी सृष्टि नहीं करता। क्या तुमने कभी ज्ञान का सृजन होते देखा है ? ज्ञान का अन्वेषण मात्र होता है- आवृत (सत्य) का अनावरण (उद्घाटन ) होता है। ज्ञान सदा यहीं सामने है, क्योंकि वह स्वयं ईश्वर है. अतीत, वर्तमान, अनागत इन तीनों का ज्ञान हम सब में विद्यमान है। हम उसका अनुसन्धान मात्र करते हैं और कुछ नहीं। ' (9/90)]
सत्य (आत्मा) का ज्ञान पहले स्वयं को होना चाहिये, और उसके बाद उसे तुम अनेक को सिखा सकते हो, बल्कि वे लोग स्वयं उसे सीखने आयेंगे।.... मैंने यह प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया कि धर्म भी दूसरे को 'दिया' जा सकता है, केवल एक ही स्पर्श तथा एक ही दृष्टि में -(त्वं प्रत्यक्षम ब्रह्माSसि कहते हुए) सारा जीवन बदला जा सकता है। " (मेरे गुरुदेव 7 /258 -60)] 
[इसीलिए स्वामीजी का विचार था कि "..बाल्यावस्था से ही जाज्वल्यमान, उज्ज्वल चरित्र युक्त किसी तपस्वी महापुरुष (नवनीदा) के सहवास में रहना चाहिए, जिससे उच्चतम ज्ञान का जीवन्त आदर्श सदा दृष्टि के समक्ष रहे। ' झूठ बोलना पाप है '- केवल पढ़ भर लेने से क्या होगा ? हर एक छात्र को पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करने का व्रत लेना चाहिए, तभी ह्रदय में श्रद्धा और भक्ति का उदय होगा, नहीं तो, जिसमें श्रद्धा और भक्ति नहीं, वह झूठ क्यों नहीं बोलेगा?" (8/228 -32) 

 ' लोग बचपन से ही शिक्षा पाते हैं कि वे दुर्बल हैं, पापी हैं।  उनको सिखाओ कि वे सब उसी अमृत की सन्तान हैं- साहसी बनो, सत्य को जानो और उसे जीवन में परिणत करो।  चरम लक्ष्य भले ही बहुत दूर हो, पर उठो, जागो, जब तक ध्येय तक न पहुँचो, तब तक मत रुको।  ' (2/20)
" मनुष्य के (युवाओं के) मन में ही समस्त समस्याओं का समाधान मिल सकता है। कोई कानून किसी व्यक्ति से वह कार्य नहीं करा सकता जिसे वह करना नहीं चाहता है। अगर मनुष्य स्वयं अच्छा बनना चाहेगा, तभी वह अच्छा बन पायेगा। पूरा संविधान और संविधान के पण्डित मिलकर भी उसे अच्छा नहीं बना सकते। हम सब अच्छे बनें, यही समस्या का हल है। पूर्णत्व तभी सम्भव है,जब मनुष्य स्वेच्छा से मन को परिवर्तित कर सके, पर इसमें कठिनाई यह है कि वह मन के साथ जबरदस्ती नहीं कर सकता। शिक्षा का आदर्श है -मनरूपी उपकरण को (साधन) को योग्य बनाना और अपने मन पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना।" (4/157) 
[" It is our privilege to be allowed to be charitable, For only so can we grow. The poor man suffers that we may be helped; let the giver kneel down and give thanks, let the receiver stand up and permit.  "
"हमलोग जो दूसरों के प्रति (ट्रेनी, प्रशिक्षणार्थी या शिष्य के प्रति) करुणा का भाव प्रकाशित कर पाते हैं,  यह हमारा एक विशेष सौभाग्य है-क्योंकि इस प्रकार के कार्यों द्वारा ही हमारी आत्मोन्नति होती है। दीन जन मानो इसीलिए कष्ट पाते हैं कि हमारा कल्याण हो ! अतएव दान करते समय दाता ग्रहीता के सामने घुटने टेके और धन्यवाद दे; ग्रहीता दाता के सम्मुख खड़ा हो जाय और अनुमति दे। सभी प्राणियों में विद्यमान प्रभु श्रीरामकृष्ण का दर्शन करते हुए, उन्हीं को दान दो। जब हम कुछ भी बुराई नहीं देख पाएंगे तब हमारे लिए जगत्प्रपंच भी नहीं रहेगा, क्योंकि प्रकृति का उद्देश्य ही है -हमें इस भ्रम से मुक्त करना (देहाध्यास से डी-हिप्नोटाइज्ड करना।)" 7/82  
>>>प्रश्न - आपने जिस अद्वैत-अवस्था के बारे में कहा है, वह क्या केवल आदर्श है, अथवा उसे लोग प्राप्त भी करते है ?
' यदि वह केवल थोथी बात हो, तब तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं।  हम जानते हैं कि यह अवस्था ऋषि-मुनियों को उपलब्ध हुई थी, और उसी पद्धति से अनुसरण करने वाले सत्यार्थी को आज भी होती है।  उस इन्द्रियातीत सत्य कि उपलब्धी करने के लिये वेदों में तीन उपाय बतलाये गये है- श्रवण, मनन और निदिध्यासन. इस आत्म-तत्व के विषय में पहले श्रवण करना होगा।  श्रवण करने के बाद इस विषय पर विचार करना होगा- आँखें मूंदकर विश्वास न कर, अच्छी तरह तर्क की कसौटी पर कस कर, समझ-बूझकर उस पर विश्वास करना होगा।  इस प्रकार आपने सत्य-स्वरुप पर विचार करके उसके निरन्तर ध्यान में नियुक्त होना होगा, तब ( मृत्यु का सामना करते ही ) उसका साक्षात्कार होगा।  यह प्रत्यक्षानुभूति ही यथार्थ धर्म है।  केवल किसी मतवाद को स्वीकार कर लेना धर्म नहीं है।  हम तो कहते हैं यह समाधी या ज्ञानातीत अवस्था ही धर्म है ! ' (10 /387)

प्रश्न- उस इन्द्रियातीत सत्य को जानने की विशेष शिक्षा पद्धति कौन सी है?
 हमारे मत में दो प्रणालियाँ है- एक अस्ति-भाव द्योतक या प्रवृत्ति मार्ग है और दूसरी नास्ति-भाव द्योतक या निवृत्ति मार्ग है। प्रथमोक्त मार्ग से सारा विश्व चलता है- गृहस्थ लोग इसी पथ से प्रेम के द्वारा उस पूर्ण वस्तु को पाने का प्रयत्न कर रहे हैं, यदि इस प्रेम की परिधि को अनन्त गुनी बढ़ा ड़ी जाय, हम उसी विश्व-प्रेम में पहुँच जायेंगे। दुसरे पथ में 'नेति', 'नेति' अर्थात 'यह नहीं, यह नहीं' इस प्रकार की साधना करनी पडती है। इस साधना में चित्त की जो कोई तरंग (गाली या अपमान सूचक शब्द) मन को बहिर्मुखी बनाने की चेष्टा करती है, उसका निवारण करना पड़ता है। अंत में मन 
ही मानो मर जाता है, (अर्थात व्यष्टि अहम सर्वगत अहं में रूपांतरित हो जाता है), तब सत्य स्वयं प्रकाशित हो जाता है। हम इसी को आत्मसाक्षात्कार, समाधि या इन्द्रियातीत अवस्था या पूर्ण ज्ञानावस्था कहते हैं। यह अवस्था विषय (ज्ञेय-ठाकुर ) को विषयी (ज्ञाता -अहम) में लीन कर देने से प्राप्त होती है। वास्तव में यह जगत विलीन हो जाता है, केवल ' मैं ' रह जाता है- एकमात्र ' मैं ' ही वर्तमान रहता है. ' (10/384 ) 
" जिसे सदैव इस बात का विश्वास और अभिमान है की वह उच्च कुल में उत्पन्न हुआ है, कभी दुश्चरित्र नहीं हो सकता, उसमें जो उच्च-कुल में उत्पन्न होने का स्वाभिमान और आत्मविश्वास का भाव है, वही उसके विचार और आचरण को सदैव इतना नियंत्रित रखता है कि ऐसा व्यक्ति सन्मार्ग से च्युत होने की अपेक्षा हंसते हंसते मृत्यु का आलिंगन कर लेगा. इसी तरह राष्ट्र का गौरवमय अतीत राष्ट्र को नियन्त्रण में रखता है,और उसका अधः पतन नहीं होने देता. ..जिनके पास आँखें हैं, वे जानते हैं कि हमारा इतिहास कितना उज्जवल है, और वह देश को किस प्रकार जीवित रख रहा है...पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से हमारे युवकों की बदली हुई विचारधारा और डगमग आत्मविश्वास को ध्यान में रख कर, आज उस गौरवमय  इतिहास को फिर से लिखना होगा, जिससे पाश्चात्य सभ्यता से चकित और चकाचौंध में भ्रमित हमारे युवक अपने अतीत पर गर्व करना सीखें ...हमें गुरुगृह-वास और उस जैसी अन्य शिक्षा प्रणालियों ( ३ दिवसीय, ६ दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर ) को पुनः जीवित करना होगा. आज हमें आवश्यकता है वेदान्त युक्त पाश्चात्य विज्ञान की, ब्रहचर्य के आदर्श, और ' श्रद्धा '-जन्य अद्भुत आत्मविश्वास की. ..वेदान्त का सिद्धान्त है कि मनुष्य के ह्रदय में ज्ञान का समस्त भण्डार निहित है- एक अबोध शिशु में भी- केवल उसको जाग्रत कर देने की आवश्यकता है, और यही आचार्य का कार्य है.' 
आचार्यों में यह सामर्थ्य रहना चाहिए कि वह अपने शिष्यों को देश-कालातीत सत्य के बारे में इस प्रकार कह सके -  " मन और बाह्य प्रकृति की प्रत्येक वस्तु ( नाम-रूप ) देश-काल में हैं और कार्य-कारण के नियम से बँधे हैं. आत्मा सब देश, सब काल, सब कार्य-कारणों से परे है. जो बँधी है, वह प्रकृति है, आत्मा नहीं| ..तुम आत्मा हो, मुक्त और शाश्वत, चिर मुक्त, चिर पवित्र. केवल पर्याप्त श्रद्धा रखो और क्षण भर में तुम मुक्त हो जाओगे. इसलिए अपनी मुक्ति घोषित करो और जो हो, वह बनो !! - सदा मुक्त, सदा पवित्र !. देश, काल, कार्य-कारण को हम माया कहते हैं '. ( 10/25-26) 
[आज इस प्रकार की शिक्षा देने में समर्थ योग्य शिक्षकों (लीडर्स ) को प्रशिक्षित करना सबसे बड़ी चुनौती है, जिससे हजारो सिंगी जैसे गृहस्थ युवाओं को प्रशिक्षित किया जा सके। 
 यौवन ऊर्जा को राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण में नियोजित करने से मनुष्य जीवन सार्थक होता है।  युवा-समस्या का समाधान वैक्तिक प्रचेष्टा (3H विकास के 5 अभ्यास ) पर निर्भर है ! [भावी नेता में इस निबन्ध के सार को उन्मेषित करना ही नेता-वरिष्ठ (C-IN-C) सिंह-द्वय का धर्म है ! It is the duty of  "C-IN-C " (नवनीदा Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षित to teach the essence of this essay (5 practices of 3H development! ) to the would-be leader]"Human life becomes meaningful by employing youthful energy in national character building. The solution to youth problems depends on individual efforts .) "
 তারুণ্যের শক্তিকে জাতীয় চরিত্র গঠনে কাজে লাগিয়ে মানব জীবন সার্থক হয়। যুবকদের সমস্যার সমাধান ব্যক্তিগত প্রচেষ্টার  (3H বিকাশের 5 অনুশীলন!) উপর নির্ভর করে। ]  
[সকলি তোমারি ইচ্ছা,ইচ্ছাময়ী তারা তুমি।তোমার কর্ম তুমি করমা লোকে বলে করি আমি।পঙ্কে বদ্ধ করাও করি,পঙ্গুরে লঙ্ঘাও গিরি কারে দাও মা ব্রহ্মপদ,কারে কর অধোগামী ।আমি যন্ত্র , তুমি যন্ত্রী ,আমি ঘর , তুমি ঘরণী। আমি রথ , তুমি রথী , যেমন চালাও তেমনি চলি ।।

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इसका अर्थ है:  " युवा रहो; अच्छे आचरण वाले युवा बनें; अध्ययनशील, विनम्र, दृढ़निश्चयी और मजबूत बनें। इस स्तोत्र का प्रत्येक शब्द सारगर्भित है। आइए इस पर गौर करें। 
युवा स्यात् -  ऋषि कहते हैं कि मनुष्य को सच्चे अर्थों में युवा बनना चाहिए। युवा आयु स्वाभाविक रूप से रचनात्मक ऊर्जा से भरपूर होती है। जिन लोगों में कुछ नया करने का जज्बा होता है वही सही मायने में युवा होते हैं। इससे कम कुछ भी युवा होने की कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता।
साधु युवा-  एक युवा को अच्छे आचरण वाला और कानून का पालन करने वाला व्यक्ति होना चाहिए ताकि वह बुरे रास्ते पर न भटके। इसके लिए प्रत्येक युवा को निम्नलिखित चार गुणों को विकसित करते रहने की आवश्यकता है:
अध्यायकः > स्वाध्याय :  - युवाओं को अयोग्य विचारों से दूर रहने में मदद करने के लिए नियमित रूप से अच्छे विचारों का अध्ययन करते रहना चाहिए।
आशिष्ठो  - युवा को पूरी तरह से विनम्र होना चाहिए (उसे सोच, आचरण और भाषण में शिष्टाचार व्यक्त करना चाहिए और दूसरों के प्रति सम्मानजनक होना चाहिए।)
दृढिष्ठो  - परिपक्व सोच के आधार पर लिए गए निर्णय को दृढ़ संकल्प के साथ क्रियान्वित किया जाना चाहिए।
बलिष्ठः  - युवाओं को अपने कर्तव्यों को पूरा करने और बुराई के खिलाफ संघर्ष करने में सक्षम होने के लिए मजबूत होना चाहिए।
हमारे अभियान को बढ़ावा देने के लिए सभी पुनर्निर्माण गतिविधियों को वास्तव में हमेशा की तरह शामिल किया जाएगा लेकिन हमें हमेशा उपर्युक्त ऋषि के मार्गदर्शक सिद्धांतों के अनुरूप होने का प्रयास करना चाहिए।
बनो, वैसा बन जाने पर तुम्हारे अपवित्र विचार बिल्कुल चले जायेंगे। इसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व परिवर्तित हो जायेगा। यही समाज का बहुत बड़ा लाभ है। समग्र मानव-जाति के लिये यही महत्वपूर्ण लाभ है।"
[सर्वे भवन्तु सुखिनः प्रार्थना से सभी के प्रति मित्रवत दृष्टि सम्पन्न मनुष्यधर्म के तीनो स्कंध का पालक ब्रह्मचारी ,सत - चरित्रवान मनुष्य बनो और बनाओ।]  
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>>>'शी'-क्षा # (= आत्मसंयम का अभ्यास) अष्टांगयोग की सहायता से साधु युवा कैसे बनें और बनायें  ? 
आचरण में लाए जाने योग्य जो विषय (शीक्षा#)  हैं, उनको पतञ्जलि ने आठ भागों में बांटा है । ये हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि । इनमें से पहले पांच तो हम सभी को प्रयत्न करके करने चाहिए । बचे तीन के लिए पहले पांच में थोड़ा पारङ्गत होना पड़ता है । अन्तिम अङ्ग तक पहुंचने पर आत्म- और परमात्म-दर्शन हो जाते हैं । इन अङ्गों का विवरण इस प्रकार है -

>>>१) यम - ये दूसरे के साथ व्यवहार में प्रयोग होते हैं । वस्तुतः, ये मानव-मात्र के लिए महाव्रत हैं । पतञ्जलि ने कहा है कि ये जाति (ब्राह्मण, शूद्र, म्लेच्छ, आदि), देश (स्थान - मन्दिर, विदेश, आदि), काल (तिथि, मुहूर्त, आदि), और समय (विशेष समय - "क्षत्रिय केवल युद्ध में मारेगा", या शिष्टाचार - "केवल ब्राह्मण से सत्य बोलो") - इन सभी से बाधित नहीं है । अर्थात् ये यम सार्वजनिक, सार्वभौम और सार्वकालिक हैं । ये पांच इस प्रकार हैं -

क) अहिंसा - कभी भी, किसी भी प्रकार से, किसी भी प्राणी को पीड़ा न देने की भावना । वेद का यह मन्त्र इस का सरल उपाय बताता है - "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे (यजु० ३६।१८)" - सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखो ।
    इसका फल है, पतञ्जलि बताते हैं, कि योगी के सान्निध्य में आने वाले प्राणी का, चाहे वह कितना ही हिंस्र क्यों न हो, वैर समाप्त हो जाता है । महाभारत आदि में हम पढ़ते हैं कि अमुक ऋषि के आश्रम में शेर और हिरण भी मैत्री से विचरते थे । ये ऋषि की अहिंसा-प्रवित्ति के उदाहरण हैं ।
ख) सत्य - जो जैसा है, उसे वैसा ही मानना व बोलने को सत्य कहते हैं । प्रधानतया यह वाणी के लिए है । व्यास जोड़ते हैं कि योगी की वाणी, सत्य होने के साथ-साथ, कटु न हो, ठगने वाली न हो और संशय उत्पन्न न करे; प्रत्युत सबके लिए हितकारी हो । सच्चे योगी तो केवल वही बोलते हैं जो हितकारी होता है, gossip, आदि वे नहीं करते ! अर्थात् वे सत्, हित और मित (कम) बोलते हैं । इसका फल है - योगी सत्य-सङ्कल्प हो जाता है - जो वह निश्चय करता है, जिसके लिए प्रयत्न करता है, वह सफल होकर ही रहता है ।

ग) अस्तेय - किसी पदार्थ के स्वामी की आज्ञा के बिना उसका उपयोग करना या छीन लेना, यहां तक इच्छा भी करने को ’स्तेय’ = चोरी कहते हैं । इस चोरी को मन, वचन व कर्म से त्याग देने को ’अस्तेय’ कहते हैं । इसका फल है - अमूल्य पदार्थों की उपलब्धि होने लगती है ।

घ) ब्रह्मचर्य - गुप्तेन्द्रिय का संयम है । इसका फल - शरीर और बुद्धि का बल बढ़ जाता है ।

ङ) अपरिग्रह - भौतिक पदार्थों के सङ्ग्रह करने का नाम परिग्रह है । इसमें यह दोष है कि उनके सङ्ग्रह में धन का व्यय और उनसे लगाव होता है । साथ-साथ, उनके रक्षण में समय, श्रम व धन का व्यय होता है । ऊपर से, इनके कारण हम हिंसा, असत्य और स्तेय का आश्रय भी ले सकते हैं । इसलिए पतञ्जलि इन्हें त्यागते जाने का उपदेश देते हैं । इसका फल बहुते ही विचित्र है - यह जन्म क्यों हुआ है, अगला जन्म क्या होगा - इसका ज्ञान हो जाना । सम्भवतः, यह इतना कठिन व्रत है कि इसका फल भी अधिक है !

>>>२) नियम - योग के इस दूसरे अङ्ग को हम personal discipline के रूप में समझ सकते हैं । ये हमें यमों को करने में सहायता भी देते हैं । ये भी पांच हैं -

च) शौच - शरीर की अन्दर और बाहर से स्वच्छता, और मन की शुद्धी । शरीर की बाहरी शुद्धी के लिए हम साबुन, आदि लगाते हैं । आन्तरिक शुद्धि के लिए हमें भोजन में अभक्ष्य का आहार नहीं करना चाहिए, जैसे - मांस, मदिरा, सड़े पदार्थ, आदि । मानसिक शुद्धि के लिए हमें राग-द्वेष को प्रयत्न से अपने मन से निकाल देना चाहिए । इसका फल है - अपने शरीर से घृणा और दूसरों के शरीरों से दूर रहना । यह अजीब-सा फल लगता है, लेकिन इसका एक प्रयोजन है । जब हम अपने शरीर को मल का भण्डार जानने लगेंगे तब हम में मोक्ष की इच्छा और तीव्र हो जायेगी । इसके अन्य फल भी हैं - मन का प्रसन्न और एकाग्र हो जाना, इन्द्रियों पर वश हो जाना । इनसे योगी आत्म-दर्शन के योग्य हो जाता है ।

छ) सन्तोष - अर्थात् जितना प्रयत्न से प्राप्त हुआ है, उससे अधिक की लालसा न करना । यह भौतिक पदार्थों के लिए - परिवार, धन, आदि - के लिए ही है, क्योंकि आध्यात्मिक स्तर पर तो आत्मा को सदैव परमात्मा के और अधिक पास आने की लालसा रहनी चाहिए !  इसका फल है अत्यन्त सुख की प्राप्ति । महर्षि ने तो इसे मोक्ष-तुल्य सुख कहा है !

ज) तप - द्वन्द्वों (ठण्डी-गर्मी, भूख-प्यास, आदि) को सहन करना, उपवास करना ।    इसका फल - शरीर और इन्द्रियों की अशुद्धियों का क्षय होना, उनका दृढ़ और स्वस्थ होना ।

झ) स्वाध्याय - मोक्षपरक शास्त्रों का अध्ययन करना और ओम् का जप करना । इसके फलस्वरूप, परमात्मा और विद्वानों का सहायता  मिलता है, जिससे मुक्ति का पथ प्रशस्त होता है ।

ञ) ईश्वरप्रणिधान - अर्थात् अपने सब कर्मों को परमात्मा को अर्पित कर देना । इसका फल
 है - समाधि की सिद्धि सरलता से होना । व्यास के अनुसार, जीवात्मा सब पदार्थों को ठीक- ठीक जानने लगता है, चाहे वे दूसरे स्थान, दूसरी देह या दूसरे काल में क्यों न हों ।
 
>>>३) आसन - यह जो हम योगासन के रूप में - शरीर को विभिन्न प्रकार से कठिन मुद्राओं में ढालना - समझते हैं, वह नहीं है, प्रत्युत समाधि के लिए इस प्रकार बैठना है, जिससे कि हमारे किसी भी अङ्ग में tension न रहे और हम लम्बे समय तक बिना किसी कष्ट के बैठ सकें । सब प्रकार से शरीर को शिथिल करके, चित्त को अनन्त में लीन कर देना चाहिए ।  आसन की सिद्धि हो जाने पर द्वन्द्व बाधित नहीं करते ।

आसन के बाद, प्राणायाम आता है , किन्तु स्वामीजी ने बिना योग्य गुरु के सानिध्य में रहे इसे करने से मना किया है। अतएव हमलोग भी इसे नहीं करेंगे।  ध्यान से समाधि होता है , इसी लिए ध्यान -समाधि में जाने से ठाकुर ने विवेकानन्द को मना किया था इसलिए हमलोग ध्यान-समाधि का अभ्यास नहीं करेंगे। 

>>>4. प्रत्याहार : - इन्द्रियों को अपने विषयों से निकालकर, अन्दर संकुचित कर लेना । इससे वे ’चित्त के आकार’ की हो जाती हैं । प्रत्याहार के अभ्यास से पूर्ण जितेन्द्रियता प्राप्त हो जाती है । फिर हम जिसको देखना चाहे, उसको छोड़ हमें और कुछ नहीं दिखेगा । अर्थात् पूर्ण focus प्राप्त हो जाता है ।

>>>5. धारणा - एक देश (point) पर - ह्रदय में अपने पूर्व-निर्धारित आदर्श -स्वामी विवेकानन्द की छवि पर चित्त को स्थिर करना । ये शरीर का कोई भी भाग हो सकते हैं, जैसे - नाभि, हृदय, मस्तक, आज्ञाचक्र  ।

    इस प्रकार योग के आठ अङ्ग में से सिर्फ 5 अंग का अभ्यास छात्रों को पशुत्व से मनुष्यत्व में और फिर साधारण मनुष्य से देवत्व (100 % निःस्वार्थपरता अभिव्यक्त करने) की ओर ले जाते हैं, और अन्त में मोक्ष के भागी (De-Hypnotized)  बना देते हैं । यदि हम इनका पूरा पालन न भी कर पाएं, हम अपनी शक्ति-अनुसार इनका अभ्यास प्रतिदिन बढ़ाते रहना चाहिए, क्योंकि बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है...साधु युवा अर्थात राजर्षि -'राजा+ ऋषि ' !! 

>>>अथर्व वेद में मानव (साधु युवा) की महिमा का वर्णन  (Description of human glory in Atharva Veda) इस प्रकार मिलता है -

" ॐ अहमस्मि सहमान उत्तरो नाम भूम्याम्‌।
                 अभीषाडस्मि विश्वाषाडाशामाशां विषासहिः।। अथर्ववेद 12/1/54 -
(अहम्‌ भूम्याम्‌) मैं पृथिवी पर (उत्तरः नाम अस्मि) सर्वोत्कृष्ट प्रसिद्ध हूँ। क्योंकि मैं (सहमानः) अत्यन्त साहसी हूँ। (अभीषाट्‌ अस्मि) मैं सबसे अधिक सहनशील हूँ, (आशाम्‌-आशाम्‌ ) प्रत्येक दिशा में (विषासहिः) अच्छी प्रकार विजयी हूँ। इसीलिये  (विश्वषाट्‌) सर्वत्र विजयी हूँ। 
अर्थात मैं स्वभावतः विजयशील हूँ (प्रत्येक आत्मा स्वभावतः विजयशील है !), पृथ्वी पर मेरा उत्कृष्ट पद है। मैं विरोधी शक्तियों को परास्त कर समस्त विघ्न-बाधाओं को दबाकर प्रत्येक दिशा में सफलता पाने वाला हूँ। भावार्थ- सहनशील मनुष्य संसार में प्रसिद्ध हो जाता है। अपनी आलोचना सुनकर भी सहनशील ही रहना चाहिए। शत्रु के सम्मुख आ जाने पर भी सहनशीलता को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। हॉं, देश के शत्रुओं का डटकर मुकाबला कर उसे परास्त कर देना चाहिए। परन्तु हमारी सहनशीलता में न्यूनता नहीं आनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को सहनशील बनने का प्रयत्न करना चाहिए। प्यास जो मेरी बुझ गयी होती। ज़िन्दगी फिर न ज़िन्दगी होती।  कहते हैं -  ”अदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्“ यजुर्वेद 36/24 अर्थात् हम सौ वर्ष तक जियें और उससे भी अधिक समय तक दैन्य भाव से दूर रहें। "
स्वामीजी कहते हैं --  "क्षीणाः स्म दीनाः सकरुणा जल्पन्ति मूढ़ा जना (जो हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड में हैं) -जो लोग देह को ही आत्मा मानते हैं, वे ही मिमियाते हुए करुण कण्ठ से कहते हैं --हम क्षीण हैं, हम दीन हैं, और यही नास्तिकता है! प्राप्ता:स्म वीरा गतभया अभयं प्रतिष्ठां यदा--जब हमलोग अभयपद (डी-हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड) को प्राप्त हो चुके हों; तब हमलोग अभिः (भयरहित) और वीर (क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न) क्यों न हों?--रामकृष्णदासा वयम्-यही आस्तिकता है ! त्यागी हुए बिना (५ अभ्यास किये बिना) तेजस्विता नहीं आने की ! कार्य आरम्भ कर दो। "त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः — एकमात्र त्याग के द्वारा ही कुछ चुने हुए लोग  -'रेयर वन्स'- अमृतत्व की प्राप्ति कर लेते हैं! [ 'रेयर वन्स'- जो नियमित रूप से  महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यास करते हुए इस 'BE AND MAKE' आन्दोलन से जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त किये  हैं, वे ) अमृतत्व प्राप्त कर लेते हैं । थ्रू रिनन्सीऐशन अलोन सम (रेयर वन्स) अटेंड इमॉर्टैलिटी.] बुजदिली करोगे, तो हमेशा पिसते रहोगे ! आत्मा में भी कहीं लिंग भेद है ? स्त्री और पुरुष का भाव दूर करो, सब आत्मा हैं। शरीराभिमान छोड़ कर खड़े हो जाओ। छाती पर हाथ रखकर कहो --इट इज, इट इज -"अस्ति अस्ति",नास्ति नास्ति करके तो देश गया१! "सोऽहं सोऽहं,"चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं"।  हर एक आत्मा में अनन्त शक्ति है। अरे, नहीं नहीं करके क्या तुम क्या कुत्ता-बिल्ली हो जाओगे? नहीं है ? क्या नहीं है ? किसके भीतर नहीं है ? नहीं नहीं सुनने पर मेरे सिर पर वज्रपात होता है। यह जो दीन -हीन भाव है, यह एक बीमारी है -क्या यही दीनता है ?-यह झूठी विनयशीलता है, गुप्त अहंकार है।"न लिङ्गम् धर्मकारणं, समता सर्वभूतेषु एतन्मुक्तस्य लक्षणम्—'बाहरी चिन्ह धारण कर लेना धार्मिक होना नहीं है । सभी के प्रति साम्यभाव रखना ही मुक्त पुरुषों का लक्षण है।" निर्गच्छति जगज्जालात् पिञ्जरादिव केशरी—He frees himself from the meshes of this world as a lion from its cage!"  "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः" दुर्बल मनुष्य इस आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। उद्धरेदात्मनात्मानम्- अपने ही सहारे अपना उद्धार करना पड़ेगा। कुर्मस्तारकचर्वणं- हम तारों को अपने दाँतों से पीस सकते हैं,त्रिभुवनमुत्पाटयामो बलात्,-तीनों लोकों को बलपूर्वक उखाड़ सकते हैं! किं भो न विजानास्यस्मान् रामकृष्णदासा वयम्— हमें नहीं जानते ? हम आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार परमहंस श्रीरामकृष्ण के दास के दास के दास हैं ।   (पत्रावली/२५ सितंबर/ १८९४)]
$$$$ वेदों में परस्पर मित्रता की अवधारणा :
    भारतीय संस्कृति में मैत्री की अवधारणा बहुत ही गहरे सम्बन्धों को इंगित करती है। यद्यपि मैत्री के कई रूप हैं, जिनमें कुछ स्थानीय भिन्नता हो सकते हैं। ऐसे कई बन्धनों में कुछ विशेषताएँ होती हैं। एक दूसरे के साथ रहना, एक साथ बिताए समय का आनन्द लेना और एक दूसरे के लिए सकारात्मक और सहायक भूमिका निभाने में सक्षम होना आदि मित्रता की विशेषताओं में शामिल है। 
 ‘मेद्यति, स्निह्यति स्निह्यते वा स मित्रः’ जो सब से स्नेह करके और सब को प्रीति करने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘मित्र’ है। वेदों में अंकित शन्नो मित्रः शं व०…. आदि मंत्रों में जो मित्र आदि  नाम आये हैं, वे भी परमेश्वर के हैं, क्योंकि स्तुति, प्रार्थना, उपासना श्रेष्ठ ही की की जाती है। श्रेष्ठ उसको कहते हैं जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव और सत्य-सत्य व्यवहारों में सब से अधिक हो। उन सब श्रेष्ठों में भी जो अत्यन्त श्रेष्ठ उसको परमेश्वर (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस देव) कहते हैं। जिसके तुल्य न कोई हुआ, न है और न होगा। जब तुल्य नहीं तो उससे अधिक क्योंकर हो सकता है? जैसे परमेश्वर के सत्य, न्याय, दया, सर्वसामर्थ्य और सर्वज्ञत्वादि अनन्त गुण हैं, वैसे अन्य किसी जड़ पदार्थ वा जीव के नहीं हैं। जो पदार्थ सत्य है, उसके गुण, कर्म्म, स्वभाव भी सत्य ही होते हैं। इसलिए सब मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें, उससे भिन्न की कभी न करें। 

मित्र आदि नामों से सखा और इन्द्रादि देवों के प्रसिद्ध व्यवहार देखने से उन्हीं का ग्रहण करना योग्य नहीं, क्योंकि जो मनुष्य किसी का मित्र है, वही अन्य का शत्रु और किसी से उदासीन भी देखने में आता है। इससे मुख्यार्थ में सखा आदि का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि परमेश्वर के जैसा सब जगत् का निश्चित मित्र, न किसी का शत्रु और न किसी से उदासीन है, इससे भिन्न कोई भी जीव इस प्रकार का कभी नहीं हो सकता, इसलिये परमात्मा ही का ग्रहण यहाँ होता है। हाँ, गौण अर्थ में मित्रदि शब्द से सुहृदादि मनुष्यों का ग्रहण होता है
    विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ वेदों में भी मित्रता की अवधारणा है। मित्रता के गुण की महिमा परमेश्वरोक्त ग्रन्थ वेद में भी गाये गये हैं, और मनुष्यों के मध्य परस्पर मित्रता की कामना की गई है। अथर्ववेद 7/36/1 में परस्पर मित्रता होने की कामना करते हुए कहा गया है कि हम दोनों मित्रों की दोनों आँखें ज्ञान का प्रकाश करने वाली हों। हम दोनों का मुख यथावत विकास वाला होवे। हमें अपने हृदय के भीतर कर लो। हम दोनों का मन भी एकमेव हो। अर्थात् हम सदा ही प्रीति पूर्वक रहें। यजुर्वेद 36/18 में सभी के प्रति मित्रभाव होने की प्रार्थना परमात्मा से करते हुए कहा गया है कि तुम मुझे दृढ़ बनाओ। सर्वभूत मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं भी सर्वभूतों को मित्र की ही दृष्टि से देखूँ। हम परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें। मित्रता में मनुष्यों के मध्य एकमत होना सबका विचार एक होना आवश्यक है, अन्यथा यह सम्बन्ध प्रगाढ़ नहीं हो सकती। इसलिए परमेश्वर स्वयं सभी को एकमत होने का सन्देश देते हुए ऋग्वेद 10/191/2 में कहता है-हे स्तीताओं ! तुम मिलकर रहो। एक साथ स्तोत्र पढ़ो और तुम लोगों का मन एक सा हो। प्राचीन देवताओं के एकमत होकर अपना हविर्भाग स्वीकार करने की भांति ही तुम लोग भी एकमत होकर रहो। इसका अगला मन्त्र ऋग्वेद 10/191/3 सबके विचार एक होने की कामना करते हुए कहता है कि इन पुरोहितों की स्तुति एक सी हो, इनका आगमन एक साथ हो और इनके मन (अन्तःकरण) तथा चित्त (विचारजन्य ज्ञान) एकविध हों। ऋग्वेद 6/45/6 में परमात्मा से द्वेषभाव न होने की प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हे प्रभु ! तू द्वेष करने वाले के द्वेषभाव को निश्चय ही निकाल डालता है। तू उन्हें अपना प्रशंसक बना देता है। सच्चे मनुष्यों से तू सुवीर कहलाता है। >>>ईर्ष्या मित्रता की सबसे बड़ी बाधक है। इसीलिए ईर्ष्या से मुक्त होने का संदेश देते हुए अथर्ववेद 6/18/1 में परमात्मा की वाणी है कि, " हे ईर्ष्या संतप्त मनुष्य ! हम ईर्ष्या की पहली और उसके बाद वाली अर्थात् दूसरी वेगवती गति को, ज्वाला को बुझाते हैं। इस तरह तेरी उस हृदय में जलने वाली अग्नि को तथा उसके शोक संताप को बिल्कुल शान्त कर देते हैं। अर्थात् मनुष्य को  दूसरे की वृद्धि देख कर कभी ईर्ष्या नहीं करना चाहिए। द्वेष की परम्परा का अवसान करने के लिए अथर्ववेद 19/41/1 में कहा गया है कि " हे भाई ! मैं ही तेरे साथ द्वेष करना छोड़ देता हूँ। अब यही कल्याणकर है कि मैं स्वयं ही अब इस मूछों की लड़ाई की समाप्ति पर आ जाऊँ, शत्रुता की परम्परा का विराम कर दूँ। द्यौ और पृथ्वी भी मेरे लिए अब कल्याण-कारी हो जाएँ। सभी दिशाएँ मेरे लिए शत्रुरहित हो जाएँ। मेरे लिए अब अभय ही अभय हो जाए। अथर्ववेद 6/40/3 में परमात्मा इंद्र से प्रार्थना करते हुए हुए कहा गया है कि हमारे लिए नीचे से निर्वैरता, ऊपर से, पीछे से और आगे से निर्वैरता तू हमारे लिए कर दे। अर्थात् हम सदा निर्वैर हो कर रहें। 
    अथर्ववेद 14/1/22 में आपसी प्रेम व संयुक्त परिवार का संदेश देते हुए वर-वधू से परिवार में सबके मिलकर रहने की आकांक्षा की गई है, कि यहाँ गृहस्थाश्रम के नियमों में ही तुम दोनों  रहो। कभी अलग मत होओ। पुत्रों के साथ तथा नातियों के साथ क्रीड़ा करते हुए, हर्ष मनाते हुए और उत्तम घर वाले तुम दोनों सम्पूर्ण आयु को प्राप्त होओ। अथर्ववेद 3/30/2 में कामना की गई है कि पुत्र पिता के अनुकूल व्रती हो कर माता के साथ एक मन वाला होवे। पत्नी-पति से मधुवत अर्थात् मधु के समान और और शान्तिप्रद वाणी बोले। सन्तान माता-पिता की आज्ञाकारी और माता-पिता सन्तानों के हितकारी हों। पति-पत्नी आपस में मधुरभाषी और मित्र हों। 

   यजुर्वेद 2/34 में पितरों को अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम रस, स्वादिष्ट जल, अमृतमय औषधि, दूध घी, स्वादिष्ट भोजन, रस से भरे हुए फलों को दे कर तृप्त करने के लिए आदेश देते हुए कहा गया है कि परधन का त्याग करके अपने को प्राप्त धन का उपयोग करने वाले होओ। अर्थात् जिस प्रकार पितर अर्थात माता-पिता आदि ने हमारा पालन-पोषण किया है, उसी प्रकार हमें भी उनकी सेवा व सत्कार करना चाहिए। अथर्ववेद 3/30/3 में भाई, भाई से और बहन, बहन से द्वेष नहीं करने, एकमत वाले और एकव्रती होकर कल्याणी रीति से वाणी बोलने अर्थात परिवार में सबके प्रेमपूर्वक रहने के लिए कहा गया है
 अथर्ववेद 20/128/2 स्त्रियों को सम्मान देने की आज्ञा देते हुए कहता है कि कुलस्त्री को गिराने, मित्र को मारने की इच्छा रखने वाले मनुष्य अतिवृद्ध हो कर भी अज्ञानी है। ऐसा मनुष्य परमात्मा को नहीं भजता और अधोगति को प्राप्त होता है। अथर्ववेद 14/1/44 में बधू को अपने श्वसुर, सास देवरों तथा ननदों के मध्य सम्राज्ञी होने की घोषणा करते हुए उसे ससुराल पक्ष के लोगों को सम्मान देने की आज्ञा देते हुए कहा गया है कि वधू ! तुम अपने विद्या और बुद्धि के बल से तथा अपने कर्तव्यों से छोटे-बड़े सबके मध्य प्रतिष्ठित हो।  इसी प्रकार अथर्ववेद 14/2/17 में वधू से कहा गया है कि तू घर वालों के लिए प्रिय दृष्टि वाली, पति को न सताने वाली, सुखदायिनी, कार्यकुशला, सुन्दर सेवा वाली, सुन्दर मनवाली, वीरों को उत्पन्न करने वाली और प्रसन्न चित्त वाली हो। तेरे साथ मिल कर हम सब घर वाले बढ़ते रहें। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक ग्रन्थों में मित्रता की महिमागान करते हुए घर-परिवार से लेकर समाज और विश्व में मित्रता, मैत्री व विश्व बन्धुत्व की कामना की गई है। 
एक मित्र होने का अर्थ है अपने सच्चे और ईमानदार हिस्से को साझा करना। मित्रता महज एक औपचारिकता नहीं, बल्कि एक बड़ा उत्तरदायित्व है, जिसे दोनों पक्षों को स्वेच्छा से ग्रहण करना पड़ता है। एक मित्र का कर्तव्य उच्च और महान कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना है कि मित्र अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर का कार्य कर गुजरे।  ऐसे व्यक्तियों से सुग्रीव के द्वारा श्रीराम से मित्रता का बंधन बंधाये जाने के समान मित्रता का बंधन बना लेना चाहिए। मित्र प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के होने चाहिए। मित्र मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे उन पर भरोसा और यह विश्वास कर सके कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा। इसीलिए मित्रों के चुनाव को सचेत कर्म समझकर हमें अपने से अधिक आत्मबल वाले व्यक्तियों को मित्र के रूप में ढूंढना चाहिए
एक व्यक्ति के कई मित्र हो सकते हैं, और प्रायः एक या दो लोगों के साथ अधिक गहन सम्बन्ध हो सकते हैं, जिन्हें अच्छे या सबसे अच्छे मित्र कहा जा सकता है। दो मित्रों के बीच मित्रता की अनेक कथाएं प्रचलित हैं। मैत्री अर्थात् मित्रता अथवा बन्धुत्व लोगों के मध्य पारस्परिक स्नेह का एक मधुर सम्बन्ध है। यह एक सहपाठी, पड़ोसी अथवा सहकर्मी जैसे परिचित अथवा सहचर की तुलना में पारस्परिक बन्धन का एक मजबूत व शक्तिशाली रूप है। 
अन्तःप्रजातीय मैत्री :  मैत्री की भावना उच्च बुद्धि वाले उच्च स्तनधारी पशुओं और कुछ पक्षियों में पाई जाती है। अन्तःप्रजातीय मैत्री मनुष्यों और पालतू पशुओं यथा, पालतू सर्प के बीच सामान्य है। मनुष्यों और पशुओं के बीच भी मैत्री हो सकती है। एक मनुष्य और एक गिलहरी अथवा बन्दर की मैत्री के दृश्य तो अक्सर ही दृष्टिगोचर होते रहते हैं। मैत्री दो पशुओं, जैसे कुत्तों और बिल्लियों के बीच भी हो सकती है। 
-अशोक “प्रवृद्ध”-सु
>>>'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।' (यजुर्वेद 36/18)  सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिए, लेकिन 'गृहस्थ-नेता'/ राजर्षि जनक / को दूसरा गाल आगे करने के बजाये, बिना क्रोध किये  डिप्लोमैटिकली मुँहतोड़ उत्तर भी देना चाहिए,  साथ-साथ निरंतर "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।' (यजुर्वेद 36/18) की प्रार्थना भी जारी चाहिये । जैसे जयशंकर ने पन्नू खालिस्तानी और पाकिस्तानी का साथ देने पर अमेरिका और कनाडा को सुनाया है।  लेकिन लीडर को अपना संतुलन बनाये रखने के लिए, यह याद रखने के लिए मैं देह नहीं आत्मा हूँ और - यहाँ x  का पति, भाई, पिता  और, abc  का ससुर होने का ऐक्टिंग कर रहा हूँ। वेद सुझाते हैं कि हम सबको परस्पर "मित्र की दृष्टि" से देखना चाहिए। मित्र (नवनीदा की दृष्टि -सूर्य निर्लिप्त भाव से) सबको समान दृष्टि से देखता है। (2020- 2023) > जीवन का स्वर्णिम काल है जब मैंने 'सर्वेभवन्तु मंत्र और वेदों के मित्रस्य चक्षु समीक्षामहे' का (अर्थ - हमें विश्व के सभी प्राणी मित्र दृष्टि से नित मुझे देखें, और सभी प्राणियों मित्रों को हम भी मित्र दृष्टि से नित देखें। poise या शिष्टता,या शाप ? rnen-KJN,-pda-rcm =rm,Bin-,AprjtA, Sdd, Shivg, bbs, blvnt, arbind, Amba-nish,  Jpm, guluM, Dnm, Ajpan, Sudi, का टेस्ट तुलनात्मक अध्यन किया - तो समझा ब्रह्म ही जगत बन गया हैं - इसलिए कोई बुरा नहीं है।  समझने पर व्यष्टि अहं सर्वगत अहं में रूपान्तरित  हो गया है, या नहीं ? इसके Test का इंतजाम माँ ने  पर सौंपा था ?
द्रते दिह मा मित्रस्य म चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षान्तम्। मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षा । मित्रस्य चक्षु शा समीक्षामहे ॥ -यजु0 36.18
हे ( द्रते )= अविद्यान्धकार के चिकित्सक, जगदीश्वर (ठाकुरदेव माँ काली) ! ( दुंहा मा ) मुझे मजबूती प्रदान करें। (मित्रस्य चक्षुषा) मित्र की आँख से (मा) मुझे (सर्वाणि भूतानि) सब प्राणी (समीक्षान्ताम्) देखें। (मित्रस्य चक्षुषा) मित्र की आँख से (अहं) मैं (सर्वाणिभूतानि) सब प्राणियों को (समीक्षे) देखें। (मित्रस्य चक्षुषा) मित्र की आँख से (समीक्षकहे) हम सब एक-दूसरे को देखते हैं।
 व्याख्या अविद्यांधकर में पीड़ित बने रहने के कारण हमें यह नहीं पता कि समाज में अन्य छात्रों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, एक-दूसरे को जैसी दृष्टि से देखना चाहिए। हम एकता कलह, विद्वेष, असन्तोष, उपद्रव, मार-काट में ही जीना चाहते हैं, भय के वातावरण में ही रहना पसंद करते हैं, चोरी-डकैती, अतिवाद और हिंसा के नग्न तांडव और अर्तनाद में ही जीना चाहते हैं। पता नहीं कब कोई किसी की जान ले लेगा, पता नहीं कब किस पर वज्रपात हो जाएगा और उसके आश्रय में रहने वाले की शिकायत कर उठेंगे, पता नहीं कब कोई अनाधिकृत विधवा हो जाएगी और उसके तथा उसकी अस्थि-पंजर के विलाप से दिशा करने लगेगी, पता नहीं कब राजमहलों रहनेवाले परिवार में खण्डहरों के निवासी हो जायेंगे, पता नहीं कब अच्छे घरों के लोग पर बसेरा करने को बसेरे हो जायेंगे। ऐसी भीषण परिस्थितियाँ पैदा होने वाले आतंकवादी हमले को, वेदना को, अनुभव क्यों नहीं करतीं? वे शांति को भंग करने और हँसी-मज़ाक करने वालों में ही सुखी क्यों होते हैं?
आओ इस परस्पर के ईर्ष्या-द्वेष, घृणा की संहार-लीला को खत्म करें हम आपसी प्रेम और भाईचारे से रहना सीखें हम जिनका घर लूटते हैं, वे अगर हमारा घर लूटेंगे  हैं तो हमें कैसा लगेगा ? थोड़ी देर के लिए यह भी तोड़ दें। हम स्टूडियो जान लेते हैं, वे अगर हमारी जान फिल्म में उतारू हों, तो हम कैसा अनुभव लेंगे, यह भी स्टूडियो। एक दिन आएगा जब हम हिंसा, मार-धाड़, व्यंग्य, हाहाकार, विलाप के माहौल से तांग ज्ञान शांति और प्रेम के माहौल की आवश्यकता अनुभव करने के लिए। तब बन्दूकों, तलवारों और बम के गोलों से हमारा विश्वास उठेगा। कराहती बधियाँ हमें प्रेम, स्मारक और मैत्री का वातावरण जन्म लेने को मिला।
जब मनुष्य में अहिंसा प्रतिष्ठित हो जाती है, तब सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक जीव भी वैरभाव को ठीक मित्र बन जाते हैं। क्या आपने सच्ची कहानी नहीं सुनी है कि एक शेर बंदूक  की गोली से आहत हो गया था, उसकी मरहम पट्टी एक बौद्ध साधु ने किया था और उस साधु के मंच पर सिर झुकाने वह शेर रोजाना नियत समय पर आता था। सभी प्राणी हमें मित्र की आंख से देखें, हम सभी प्राणी हमें मित्र की आंख से देखें। मित्रता और शांति के साम्राज्य में हम रहते हैं। एक-दूसरे के सुख-दु:ख में हम साझी हैं। दूसरे का आनंद लेने पर हम भी आनंदित होते हैं, दूसरे का आनंद लेने पर हम भी आनंद लेते हैं। हे जगदीश्वर हमें ऐसा दिन देखने का सौभाग्य प्रदान करो।       >>>विषय : परस्पर मेल का उपदेश।
Atharvaveda / 3 / 30 / 1
सहृ॑दयं सांमन॒स्यमवि॑द्वेषं कृणोमि वः। अ॒न्यो अ॒न्यम॒भि ह॑र्यत व॒त्सं जा॒तमि॑वा॒घ्न्या ॥ 1॥
पदार्थ : (सहृदयम्) एकहृदयता, (सांमनस्यम्) एकमनता और (अविद्वेषम्) निर्वैरता (वः) तुम्हारे लिये (कृणोमि) मैं करता हूँ। (अन्यो अन्यम्) एक दूसरे को (अभि) सब ओर से (हर्यत) तुम प्रीति से चाहो (अघ्न्या इव) जैसे न मारने योग्य, गौ (जातम्) उत्पन्न हुए (वत्सम्) बछड़े को [प्यार करती है] ॥१॥"
भावार्थ : ईश्वर उपदेश करता है, सब मनुष्य वेदानुगामी होकर सत्य ग्रहण करके एकमतता करें और आपा छोड़कर (अर्थात मिथ्या अहं को सर्वगत अहं में रूपान्तरित कर) सच्चे प्रेम से एक दूसरे को सुधारें, जैसे गौ आपा छोड़कर तद्रूप होकर पूर्ण प्रीति से उत्पन्न हुए बच्चे को जीभ से चाटकर शुद्ध करती और खड़ा करके दूध पिलाती और पुष्ट करती है ॥१॥
टिप्पणी :१−तैत्तिरीयारण्यक में पाठ है−ओ३म्। सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै। तैत्ति० आ० १०।१ ॥ ओ३म्। (सह) वही (नौ) हम दोनों को (अवतु) बचावे। (सह) वही (नौ) हम दोनों को (भुनक्तु) पाले। हम दोनों (सह) मिलकर (वीर्यम्) उत्साह (करवावहै) करें। (नौ) हम दोनों का (अधीतम्) पढ़ा हुआ (तेजस्वि) तेजस्वी (अस्तु) होवे। (मा विद्विषावहै) हम दोनों झगड़ा न करें ॥ भगवान् यास्क मुनि कहते हैं। (अघ्न्या) गौ का नाम है−निघ० २।११। वह अहन्तव्या, [अवध्या न मारने योग्य] अथवा, अघघ्नी [पाप अर्थात् शारीरिक दुःख अथवा दुर्भिक्षादि पीड़ा नाश करनेवाली] होती है−निरुक्त ११।४३ ॥ श्रीमान् महीधर यजुर्वेदभाष्य अ० १ म० १ में लिखते हैं−अघ्न्या गौएँ हैं। गोवध उपपातक ‘भारी पाप’ है, इसलिये वे न मारने योग्य ‘अघ्न्या’ कही जाती हैं ॥ १−(सहृदयम्) वृह्रोः षुग्दुकौ च। उ० ४।१०। इति हृञ् हरणे=स्वीकारे कयन्, दुक् च। सहस्य सभावः। सहग्रहणम्। सहवीर्यम्। (सांमनस्यम्) सम्+मनस्-भावे ष्यञ्। समानमननत्वम्। ऐकमत्यम् (अविद्वेषम्)। द्विष वैरे-घञ्। अशत्रुताम्। सख्यम् (कृणोमि) उत्पादयामि। (वः) युष्मभ्यम्। (अन्यो अन्यम्) छान्दसं द्विपदत्वम्। परस्परम्। (अभि) सर्वतः। (हर्यत) हर्य गतिकान्त्योः। कामयध्वम्। (वत्सम्) अ० ३।१२।३। गोशिशुम्। (जातम्) नवोत्पन्नम्। (इव) यथा। (अघ्न्या) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२।

2॥ अनु॑व्रतः पि॒तुः पु॒त्रो मा॒त्रा भ॑वतु॒ संम॑नाः। जा॒या पत्ये॒ मधु॑मतीं॒ वाचं॑ वदतु शन्ति॒वाम् ॥ 
पदपाठ : अनु॑ऽव्रत: । पि॒तु: । पु॒त्र । मा॒त्रा । भ॒व॒तु॒ । सम्ऽम॑ना: । जा॒या । पत्ये॑ । मधु॑ऽमतीम् । वाच॑म् । व॒द॒तु॒ । श॒न्ति॒ऽवाम् ॥३०.२॥
पदार्थ : (पुत्रः) कुलशोधक पवित्र, बहुरक्षक वा नरक से बचानेवाला पुत्र [सन्तान] (पितुः) पिता के (अनुव्रतः) अनुकूल व्रती होकर (मात्रा) माता के साथ (संमनाः) एक मनवाला (भवतु) होवे। (जाया) पत्नी (पत्ये) पति से (मधुमतीम्) जैसे मधु में सनी और (शन्तिवाम्) शान्ति से भरी (वाचम्) वाणी (वदतु) बोले ॥२॥"
भावार्थ : सन्तान माता पिता के आज्ञाकारी, और माता पिता सन्तानों के हितकारी, पत्नी और पति आपस में मधुरभाषी तथा सुखदायी हों। यही वैदिक कर्म आनन्दमूल है। मन्त्र १ देखो ॥२॥
विषय : एकता मेल का उपदेश।
माँ भ्राता॒ भ्रात्॑रं द्विक्ष॒न्मा स्वसा॑रमु॒त स्वसा॑। स॒म्यञ्चः सवृता भू॒त्व वाचं॑ वदत भ॒द्रय॑ ॥ अथर्ववेद | कांड : 3 | सूक्त : 30 | मंत्र क्रमांक : 3
पदार्थ : (भ्राता) भ्राता (भ्रातरम्) भ्राता से (मा द्वितीय) द्वेष न करे (उत्) और (स्वसा) बहिन (स्वसारम्) बहिन से भी (मा) नहीं। (सम्यञ्चः) एक मत वाले और (सवृताः) एकव्रती (भूत्वा) अकार (भद्राया) कल्याणी रीति से (वाचम्) वाणी (वदत) बोलो 3॥"
भावार्थ: भाई-भाई, बहिन-बहिन और सब कुटुम्बी नियम डिक मेल से वैदिक रीति पर सुख भोगें ॥3॥
भावार्थ: भाई-भाई, बहिन-बहिन और सब कुटुम्बी नियम आदि  मेल से वैदिक रीति पर सुख भोगें ॥3॥

येन॑ देवा न वि॒यन्ति॒ नो च॑ विद्विषते॑ मि॒थाः। तत्कृ॑नमो॒ ब्रह्म॑ वो गृहे सं॒ज्ञानं॒ पुरु॑शेभ्यः ॥ 4॥
पदार्थ: (येन) जिस [वेद पथ] से (देवाः) विजय सामान्यवाले पुरुष (न) नहीं (वियन्ति) साथ में रहते हैं (च) और (नो) न कभी (मिथः) अपने में (विद्विष्टे) विद्वेष करते हैं। (तत्) उस (ब्रह्म) वेद पथ को (वः)फाइ (गृहे) घर में (पुरुषेभ्यः) सब पुरुषों के लिए (संज्ञानम्) ठीक-ठीक ज्ञान का कारण (कृण्मः) हम करते हैं ॥4॥" 
भावार्थ :सर्वभौम हितकारी वेदमार्ग घर के सभी लोग आनंद भोगें ॥4॥
ज्याय॑स्वन्तश्चि॒त्तिनो॒ मा वि यौ॑ष्ट संरा॒धाय॑न्तः॒ साधु॑रा॒श्चर॑न्तः। अ॒न्यो अ॒न्यस्मै॑ व॒लगु वद॑न्त॒ एत॑ साध्रि॒चीना॑न्वः॒ संम॑नसस्कृणोमि॥ 5॥
पदार्थ : (ज्यायसंतः) बड़ों का मन रखेवाले (चित्तिनः) उत्तम चित्तवाले, (संराध्यायन्तः) समृद्धि [धन-धान्य की वृद्धि] करते रहे और (सधुराः) एक धुरा भरा (चरन्तः) बचे रहे तुम लोग (मा वि यौष्ट) अलग-अलग होओ, और (अन्यो अन्यस्मै) एक दूसरे से (वल्गु) मनोहर (वदंतः) टूटे हुए (एट) आओ। (वः) तुमको (सदृचिनान्) साथ-साथ गति [उद्योग वा विज्ञान] वाले और (संमानसः) एक मनवले (कृणोमि) मैं करता हूं ॥5॥"
भावार्थ: वेदानुयायी मनुष्य विद्यावृद्ध, धनवृद्ध, आयुवृद्धों का आदर्श बनाकर उत्तम गुणों की प्राप्ति, और समूह उद्योग से, धन धान्य राज आदि आनंद और भोगते हैं। 
अथर्ववेद/3/31/1 वि देवा ज॒रसा॑वृत॒नवि त्वम्॑ग्ने॒ अर॑त्या। व्य॒॑हं सर्वे॑ण प॒पमना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समयौषा॥ 1॥
विषय: आयु वृद्धि का उपदेश।
पदार्थ : (देवः) विजय सामान्यवाले पुरुष (जरसा) आयु के घटेव से (वि) भिन्न (अवृतन्) रह रहे हैं। (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष (त्वम्) तू (अरात्या) कंजूसी वा शत्रुता से (वि=वि वर्तस्व) भिन्न रह। (अहम्) मैं (सर्वेण) सब (पाप्मना) पाप कर्म से (वि) अलग और (यक्ष्मेण) राजरोग, क्षयी आदि से (वि=विवर्त्तै) अलग रहूं और (आयुषा) जीवन [उत्साः] से (सम्=सम् वर्तै) मिला रहौं ॥1॥"
भावार्थ : पुरुषार्थी लोग ब्रह्मचर्य आदि के सेवन से सदा बलवान रहते हैं, इसी प्रकार सभी मनुष्य मानसिक पाप और शारीरिक रोग के त्याग और शुभ लक्षण के सेवन बल से अपना जीवन सफल करते हैं ॥॥ साभार https://www.vedyog.net/mantra_atharvaveda.php?id=10081
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