स्वामी विवेकानन्द और आज के हमलोग
बहुत से लोग प्रचारतन्त्र में विश्वास करते हैं, तथा जानते हैं कि प्रचार-माध्यम कितना शक्तिशाली होता है! बात चाहे सच्ची हो या झूठी बार-बार सुनते रहने से उसका प्रभाव मन के उपर पड़ता ही है। बार बार एक ही बात को सुनते रहने से, मनोवैज्ञानिक नियम के अनुसार मन के भीतर उसकी एक छाप अवश्य पड़ जाती है। हमारा मानना है कि कोई भी चीज किसी पर थोप देना अच्छा नहीं होता। हम अक्सर कहा करते हैं कि आज का युग विज्ञान का युग है, तर्कबुद्धिवाद (rationalism) का युग है। इस कथन को आज कोई भी व्यक्ति अस्वीकार नहीं करता। आज के समाज में विज्ञान का कोई स्थान नहीं है- ऐसी बात हम मुँह से निकाल भी नहीं सकते।
कई लोग कहते हैं, प्राचीन समय की सभी बातें अच्छी थीं, फिर कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं,कि प्राचीन युग की सारी बातें बुरी थीं। किन्तु, हम इन दोनों मतों में से किसी से भी सहमत नहीं हैं। ये दावे उचित प्रतीत नहीं होते। जो लोग ऐसा मानते है कि प्राचीन युग में सबकुछ बुरा था, या सबकुछ अच्छा था-उनकी यह मान्यता सही प्रतीत नहीं होती। प्राचीन युग में भी बहुत सी ऐसी चीजें थीं जो अच्छी थीं, जिसको आधार बना कर कई नई वस्तुओं का आविष्कार हुआ है, मनुष्य ने बहुत प्रगति की है। इसीलिये प्राचीन युग में जो अच्छा था, उसको ग्रहण करके नये युग के लिये उपयोगी बनाकर हमलोगों को आगे बढ़ना होगा। यही बुद्धिमान मनुष्य की पहचान है। और आमतौर पर मनुष्य इसी प्रकार प्रगति करता है।
किन्तु आगे बढ़ने के क्रम में कुछ भूलें भी हुआ करती हैं, और यह स्वाभाविक भी है। नेताजी कहते थे- 'भूल करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।' लेकिन कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि हमलोग अपने जन्मसिद्ध अधिकार को प्रयोग में लायेंगे, और गलती पर गलती करते ही रहेंगे। कई राजनैतिक दलों को हम ऐसा ही करते हुए देखते हैं। लगातार गलती पर गलती करते जा रहे हैं, और लगातार स्वीकार भी कर रहे हैं कि, हमसे ऐसी गलति हो गयी हैं। जो लोग राजनैतिक इतिहास से परिचित हैं, वे इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं। हो सकता है, वे इस स्वीकारोक्ति को वैज्ञानिक पद्धति या अत्यन्त उदारता का परिचायक समझते हों। किन्तु ऐसी सोच को सही नहीं ठहराया जा सकता है।
हमलोगों से गलती हो जाने की सम्भावना है- क्या इसी बात को ढाल बनाकर हमलोग लगातार गलतियाँ करते रहेंगे और लगातार कहते भी रहेंगे- ' हमसे भूल हो गयी !' ? वैज्ञानिक विश्लेषण आधारित युक्ति तो यही कहती है, कि जो व्यक्ति लगातार गलती पर गलती ही करता चला जा रहा हो, वह भविष्य में जो कुछ करेगा या वर्तमान में जो कुछ कर रहा है वह सब गलत ही होगा। इस तर्क को स्वीकार करने से बहुत अधिक गलती करने की संभावना नहीं होगी। यदि हम चाहें तो इस बात को जाँच कर भी देख सकते हैं।
जिस राष्ट्र की संस्कृति या विचारधारा के लोग दो- एक गलती को छोड़ प्रायः सही कार्य किये हों -वही राष्ट्र या उसकी विचारधारा अधिक विश्वास करने योग्य है। हमारी जो सनातन विचारधारा है उसके ध्वजा वाहकों प्रायः सब कुछ ठीक ही किये हैं, बीच बीच में उनसे एकाध गलती भी हो गयी है। और वह गलती भी किस प्रकार की थी ? उनके सिद्धान्तों में तो किसी प्रकार का गलती नहीं थी, हाँ समय के प्रवाह में उसके व्यवहार में जरूर एकाध गड़बड़ी हो गयी। अपने देश की प्राचीन विचारधारा का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि वे बिलकुल आधुनिक हैं। जबकि कुछ विचारधारायें तो ऐसी प्रतीत होती हैं मानों वे गलतियों का ही संकलन (summation-परिणाम) हों। इसीलिए उस प्रकार की विचारधारा की कोई विश्वसनीयता (guarantee) नहीं है। फिर भी उस विचारधारा के मानने वाले लोग यह दावा करते हैं कि वे लोग ही मानव-जाती के सच्चे मार्गदर्शक हैं। कोई भी चिंतनशील व्यक्ति इस झूठे दावे को निगल नहीं सकता। किन्तु, किसी बात को यदि लगातार कहते रहा जाय तो चाहे वह सच हो या झूठ उसकी एक छाप मन के उपर पड़ ही जाती है।
एक दूसरा कमजोर तर्क, यह भी दिया जाता है कि ' मनुष्य गलतियाँ कर कर के ही सीखता है'। यह तर्क बहुत मनोरम, स्वादिष्ट प्रतीत होने पर भी किसी काम का नहीं है। जो व्यक्ति थोड़ा भी विचारशील होगा, वह कभी यह स्वीकार नहीं कर सकता कि लगातार गलती पर गलती करते -करते, जो असत्य है (जिसका अस्तित्व ही नहीं है) -वह अचानक प्रकट हो जायेगा। हाँ, यह बात सुनने में जरूर अच्छा लगता है। हमलोग स्वयं को वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न मनुष्य कहते नहीं अघाते। एक तरफ तो हम अपने लिए तर्कवादी (rationalist) मनुष्य होने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी ओर किसी वस्तु के अचान प्रकट होने में विश्वास भी करते हैं ! कहते हैं-जो नहीं था, वह हठात आविर्भूत हो गया। ऐसी मनगढ़ंत सम्भावना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से या वेदान्तिक दृष्टिकोण से किसी भी प्रकार संभव नहीं है। इस विचारधारा को सांख्य-वेदान्त की भाषा में 'असत्-कार्यवाद ' कहा जाता है। अर्थात जो वस्तु कार्य-कारण में किसी भी प्रकार से निहित नहीं थी - वह (आत्मा) अचानक आविर्भूत हो गयी। इसके सम्बन्ध में स्वामीजी एक बहुत सुन्दर बात कहते हैं- ' हमलोग कभी असत्य से सत्य पर नहीं पहुँचते हैं, भ्रम से सत्य पर नहीं पहुँचते हैं। हमलोग सत्य से ही सत्य पर पहुँचते हैं, निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य पर पहुँचते हैं।' हाँ , यह बात सही है कि सत्य का भी विकास होता है। किन्तु मिथ्या कभी सत्य में परिणत नहीं हो सकता । फिर भी अक्सर कई लोग कहते रहते हैं कि जो वस्तु पहले वहाँ नहीं थी -वह प्रकट हो गयी या आविर्भूत हो गयी। आमतौर पर इसीको आविर्भाव (emergence) कह दिया जाता है, किन्तु ऐसा होना असत्य या अवैज्ञानिक है। क्योंकि दूसरे रूप में हम यह मान रहे हैं कि शून्य से किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है। 'अभाव से भाव' (शून्य से अस्तित्व- existence, शाश्वत जीवन) कभी उत्पन्न नहीं हो सकता। यह असंभव है।
गीता (2/16) में भी यह बात कही गयी है- " नासतो विद्यते भावः।" शून्य से कोई वस्तु कभी उत्पन्न नहीं हो सकती है। हाँ, यह हो सकता है कि पहले से कोई वस्तु थी, वह अन्य किसी वस्तु में रूपांतरित हो गयी हो। किन्तु, जो अस्तित्व में नहीं था, वह अचानक आविर्भूत हो गया , ऐसा हो नहीं सकता, असम्भव है। हमारे देश के दर्शन में 'सतकार्यवाद' और 'असतकार्यवाद' दो तत्वों की बात कही गयी है। सतकार्यवाद कहता है, जो पहले से था उसका रूपान्तरण हो सकता है। एक सदवस्तु (अपरिवर्तनीयआत्मा या ब्रह्म) है, अर्थात कुछ वस्तु जैसा है, उसका कार्य अर्थात कारण का विकास होकर एक अन्य वस्तु के रूप में उसकी अभिव्यक्ति हो सकती है। असतकार्य-वाद कहता है असत - माने जो था ही नहीं (non-existent, जिसका कभी अस्तित्व ही नहीं था, अस्तित्व हीन, आकाशकुसुम , खरहे का सींग, बंध्यापुत्र), वह सत हो गया , प्रकट हो गया ! ऐसा होना कदापि सम्भव नहीं है। असतकार्यवाद सही नहीं है। जो कभी था ही नहीं , उसके भीतर से कुछ बाहर निकल आना, बिल्कुल बेतुका (absurd-अनर्गल,हास्यास्पद) बात है। जो पहले था, वह नए नाम-रूप में प्रकट (प्रतिभासित) हुआ, ऐसा होना संभव है।['असत-कार्यवाद' या शून्य से सब कुछ का अचानक आविर्भूत हो जाना सम्भव ही नहीं है - एक मात्र सच्चिदानन्द ब्रह्म ही अनेक नाम-रूपों में भास रहे हैं !] फिर भी हमलोग अक्सर अवैज्ञानिक बातों का ही प्रचार करते रहते हैं।
जैसे जल नहीं था, हाईड्रोजन और ऑक्सीजन था, उनको विशेष परिमाण एवं विशेष अवस्था में एक रासायनिक प्रक्रिया के माध्यम से जल (H2O) के रूप में रूपान्तरित कर लिया गया । लेकिन हममें से कई लोग इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि '
जल था नहीं, किन्तु जल आया। ' यह भी एक प्रकार का आविर्भाव ही है। हम सभी लोग
इस प्रकार की व्याख्या से कमोवेश परिचित है। किन्तु कारण के बिना कार्य होना सम्भव नहीं है। किन्तु जल का उपादान कारण पहले से था और केवल उतना ही नहीं एक विशेष परिमाण, अवस्था, दबाव, और ताप में उन उपादानों को मिलाया जाता है तभी जल की प्राप्ति होती है। (जैसे चन्दन की लकड़ी में यदि पहले से अनल नहीं था तो रगड़ने से प्रकट कैसे हो गया ?)
हमलोगों के भीतर भी ठीक वही बात है। हमारी दृष्टि में सत्य (अपरिवर्तनीय वस्तु -आत्मा या ब्रह्म) जैसी किसी वस्तु का अस्तित्व था ही नहीं। हमलोग उत्तरोत्तर भूलें करते जा रहे थे। और इसी प्रकार यथाक्रम (gradually) भूल करते -करते, भूल से ही हमलोगों की धारणा में सत्य अचानक प्रकट हो जायगा ! यह बिलकुल अवास्तविक (unrealistic) कल्पना है। किन्तु आज के हमलोग, (अपने को आधुनिक मानने वाले मनुष्य ) जिस अवस्था में हैं, वहाँ का हाल तो यही है। हमलोग कई प्रकार की जंगली कल्पना (wild imagination), अवैज्ञानिक बातों की वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए भुतहा खेल (Spooky game-ভুতুড়ে খেলা) दिखाने की चेष्टा करते हैं; तर्क के आधार पर अतिप्राकृत-(Supernatural) घटनाओं की सम्भाव्यता का प्रचार करते हैं। तो दूसरीओर हम यह भी कहते हैं कि हमलोग तंत्र-मंत्र या जादू-टोना में विश्वास नहीं करते। लेकिन वास्तव में हमलोग केवल राजनैतिक या सामाजिक ही नहीं बल्कि धार्मिक 'magic' भी दिखलाने की भी चेष्टा कर रहे हैं। हमलोगों के कुछ अपने दार्शनिक तत्व हैं, उसी के सहारे हमलोग जादुई छड़ी को घुमाते हुए कहते हैं- 'आबरा का डाबरा-छू मंतर ' और ये देखो आ गया! और आज के समाज की समस्या यह है कि हम तथाकथित 'शिक्षितों' के समूह-धर्म के क्षेत्र में, समाज में, आर्थिक क्षेत्र में सर्वत्र 'जादूई' कमाल देखने की प्रत्याशा में ही बैठे हुए हैं। इसीलिये आज के हमलोग क्या हैं ? यही नई वेशभूषा, घर-मकान, या महँगे फ़्लैट, AC ड्राइंग रूम में टेलीविजन, स्वयं को सुख प्रदान करने वाले विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक यंत्रों से सजधज कर हमलोग मूर्खों के समूह, तथाकथित 'Gentleman' बनकर बैठे हैं, तथा मानव समाज को अपनी सामूहिक मूर्खता के द्वारा और भी गहरे अंधकार में धकेलते जा रहे हैं - यही तो हैं आज के हम 'मॉडर्न' लोग ! इस बात पर थोड़ी गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। हम में से जो लोग ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ प्राप्त करके ज्ञानी होने दम्भ भरते हैं, वे भी इसी प्रकार के मूर्ख हैं, बिल्कुल अज्ञानी हैं। स्वामी विवेकानन्द ने एक बार भाषण देते समय सामने बैठे श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए कहा था- 'मूँछ वाले बालकों का समूह। ' हमलोग कितने ही झूठी शान दिखाने वाले भड़कीले रहनसहन की वस्तुओं को लेकर बैठे हैं। और हममें से जो थोड़े अधिक बुद्धिमान (धूर्त ) हैं, वे हमलोगों की अज्ञानता का फायदा उठाकर अपना स्वार्थ साधते रहते हैं।
हमलोग आर्थिक शोषण की बात करते हैं। किन्तु अन्य एक दूसरी चौकड़ी भी है, जो अपनी बुद्धि से हमारा शोषण कर रही है। पर या तो हम उनकी चालाकी देख नहीं पाते या उस विषय पर बात करना नहीं चाहते हैं; या देखने के बाद भी हममें इतना साहस नहीं है कि हम उसके सामने कुछ कह सकें। क्योंकि हो सकता है, मुख खोलने से कहीं अपनी खोपड़ीया ही न टूट जाये। किन्तु ऐसी खोपड़ी रहे या टूट जाय, क्या फर्क पड़ता है ? क्योंकि स्वर्ग भी अगर मूर्खों का निवास स्थान हो , तो उसमें वास करने से भी कोई लाभ होने वाला नहीं है। इस प्रकार आज के हम मॉडर्न लोग 'मूर्खों से परिपूर्ण जगत' में वास कर रहे हैं।
हमलोग [महामण्डल लीडरशिप] अपने युवा भाइयों को साहस के साथ कहना चाहते हैं कि भाइयों! तुम थोड़े साहसी बनो। तुमलोग अज्ञानी मत बने रहो, मूर्खों के सामान जीवन मत बिताओ। तुम लोगों के पास थोड़ी अपनी बुद्धि है, नई सोच है, तुम लोग अपनी बुद्धि से थोड़ा विचार करके देखो, तुमलोग कहाँ आ पहुँचे हो? किस अवस्था में आ पहुँचे हो, और किस दिशा में जा रहे हो-- थोड़ा विचार करके देखने की चेष्टा करो। बुद्धि पाने के लिये अपने दिमाग को किसी अन्य के पास गिरवी मत रखो।
हमलोग बहुत दीर्घ काल तक सब कुछ विदेशों से ही माँगते रहे हैं। यहाँ तक कि बुद्धि भी आयात कर रहे हैं ! उधर उन यूरोपीय देशों के क्या हाल हैं? उनके अपने देश (अमेरिका, यूरोप) में क्या हो रहा है ? उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है। उनकी बुद्धि में भी दरार पड़ गयी है। वे अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि उनकी बुद्धि भी सुव्यवस्थित या मौलिक नहीं है। लेकिन, इस समय हमलोग उनसे ही बुद्धि आयात कर रहे हैं एवं भ्रष्टाचार का निर्यात [स्विसबैंक में] कर रहे हैं। किन्तु प्राचीन काल में हमारे देश की विदेश नीति (foreign policy) क्या थी ? स्वामीजीने भारत को किस प्रकार की विदेश -नीति अपनाने का सुझाव दिया था? वे चाहते थे कि भारतवर्ष विदेशों में अपने बहुमूल्य सम्पत्ति 'आध्यात्मिकता' का निर्यात करेगा, वेदों के महावाक्यों का प्रचार करेगा, जिससे वहाँ भी मनुष्यत्व का विकास हो। यह देश अपनी आध्यात्मिकता के बल पर ही वह विश्व विजय करेगा। लेकिन, हमलोग क्या कर रहे हैं? समस्त मानव प्रेम, स्वदेश प्रेम को तिलांजली देकर नकली धर्म का निर्यात करने के लिये झुण्ड का झुण्ड बनाकर विदेश जाने में होड़ में लगे हैं। हमलोग अज्ञानी, अहंकारी, बेवकूफ के जैसा सोचते हैं, हम सबकुछ ठीक ही कर रहे हैं। दूसरी तरफ अपनी हर जरूरत के लिये दूसरों के आश्रित बने हुए हैं।
अभी हाल में ही तीन अनुसंधानात्मक रिपोर्ट (Research report-शोधपत्र) प्रकाशित हुए हैं। एक खोजी रिपोर्ट में राष्ट्रसंघ का आर्थिक विश्लेषण दिया गया है, दूसरे में यह बताया गया है कि भविष्य में विश्व किस दिशा में जाने वाला है, तथा तीसरे में विश्व की जनसंख्या के विषय में कहा गया है। प्रत्येक रिपोर्ट में दिखाया गया है कि हमलोगों का भविष्य अंधकारमय है। इन रिपोर्टों में कहा गया है कि भारत जैसे विकासशील देशों का भविष्य बहुत बदतर होने वाला है। तो फिर हमलोग किस दिशा में जा रहे हैं ? जनसंख्या-रिपोर्ट में दिखलाया गया है कि 2000 ई० आते- आते विश्व की जनसंख्या छःसौ करोड़ हो जाएगी। और आधी आबादी केवल साठ शहरों में वास करेगी। इस समय विश्व में लगभग छब्बीस बड़े महानगर हैं। इनमें 50 करोड़ लोग वास करते हैं। अभी से मात्र उन्नीस-बीस वर्ष के बाद -[2020 तक ?] इस प्रकार के मात्र साठ महानगरों में तीन सौ करोड़/ (यानि तीन अरब) से भी अधिक लोग वास करने लगेंगे। फिर इस समस्या का समाधान क्या है ? राष्ट्र-संघ द्वारा प्रकाशित अनुसन्धानात्मक रिपोर्ट कहता है कि इस समस्या के समाधान का केवल एक मात्र उपाय है -" मनुष्यों के भीतर 'मनुष्यत्व-बोध' का विकास करना।" ये किसकी उक्ति है ? स्वामी विवेकानन्द के ही शब्द हैं।
आज जिस प्रकार सांसारिक या भौतिक उन्नति के लिये इंजीनियरिंग सीखने की आवश्यकता है, उसी प्रकार मनुष्य के विकास के लिये मनुष्य-निर्माण का इंजीनियरिंग सीखना भी आवश्यक है। इस इंजीनियरिंग का कार्यक्षेत्र बाह्य जगत न होकर आन्तरिक जगत है। आज हर स्तर पर वैश्विक एकता के उपर (वसुधैव कुटुंबकम पर)चर्चा होती है। किन्तु जिस समय Globalization या वैश्विक एकता का विचार किसी के मन नहीं था, उसी समय वेदान्त केसरी स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ' आनेवाले समय में कोई भी देश अकेला नहीं चल सकता।' प्राचीन काल से ही समाज में कोई अकेला ही रह नहीं पाया है। वेद में कहा गया है --"केवलाघो भवति केवलादी" (-ऋग्वेद,१०/११७/६) -अर्थात् जो अकेला भोजन करता है वह केवल पाप का भक्षण करता है।' कैसा अद्भुत विचार है ! गीता में भी कहा गया है- "मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।" (गीता ७/ ७) जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार बहार से न दिखाई पड़ने पर भी समस्त सृष्ट वस्तुओं के भीतर वे (अवतार वरिष्ठ) ही अनुस्यूत हैं।' किसी ताँत से बूने कपड़े में ' ताना और भरनी' (Warp and woof ) रहता है। [बुनाई के समय जो धागा कपड़े लम्बाई में लगता है उसे ताना कहते हैं, और कपड़े की चौड़ाई में जो धागा प्रयोग होता है, उसको भरनी कहते हैं, बंगला में 'टाना और पोड़न' (টানা ও পোড়েন) कहते हैं। ] क्रमिक रूप से करघा पर ताना और भरनी कसने से एक कपड़ा (नामरूप धारी शरीर) बुन कर तैयार हो जाता है, जिसके द्वारा हम किसी अनावृत (exposed) वस्तु को आवृत (cover) कर सकते हैं। उसी प्रकार समस्त वस्तुओं के भीतर धागे के समान एक अविनाशी वस्तु (pure consciousness-अवतार वरिष्ठ) अनुस्यूत है। वही परम वस्तु है (परम सत्य ब्रह्म, सच्चिदानन्द) है, जिसे इन्द्रियज-ज्ञान के माध्यम से नहीं जाना जा सकता है।उस परम वस्तु (इन्द्रियातीत अविनाशी वस्तु आत्मा या ब्रह्म) को केवल अनुभूति के माध्यम से (योग या विवेकज-ज्ञान के माध्यम से) ही जानना पड़ता है। [हमें यह विश्वास ही नहीं है कि - 'एक' ही 'अनेक' बन गया है ! ब्रह्म ही जगत बन गया है। इसीलिए]
हमलोगों की दृष्टि में दूसरों के प्रति तुच्छता या घृणा का भाव रहता है। हम हर किसी के भीतर यही देखना चाहते हैं कि उसमें कितनी कुटिलता, पाखण्ड, शत्रुता भरी हुई है। हम क्या हर मनुष्य को प्रेम की दृष्टि से देखते हैं ? क्या हमलोग क्या इस दृष्टि से देख पाते हैं कि मानव-मात्र में वही अच्छा (अविनाशी-सच्चिदानन्द) बैठा है ? क्या हम यह देख पाते हैं कि किस मनुष्य में कौन सी सुन्दर और अच्छी सम्भावना छुपी हुई है, तथा उस सम्भावना को कैसे विकसित और प्रस्फुटित किया जा सकता है ? और यही हमलोगों की मूल समस्या है। आज हमारे दुर्गति (misery) तथा दुःख (sorrow) का यही कारण है, समस्या यहीं है। और इस समस्या को दूर करना होगा।
यदि हमलोग हमारे भीतर जो सम्भावना है , (ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाने की जो सम्भावना है), अच्छा बन जाने की जो सम्भावना है , हमारे भीतर हर किसी के प्रति जो सद्भाव निहित है, उसको यदि हम समझ ही न सकें, और यदि हमलोग मनुष्य में अन्तर्निहित दिव्यता या चारित्रिक गुणों को विकसित करने की प्रौद्योगिकी (technology) को अपने जीवन में लागु ही न करें, तो हमलोगों की समस्या का हल होने की कोई सम्भावना नहीं है। आजके हमलोग 'जो' हैं , उनकी मूल समस्या या व्याधि यही है। और समाज में जो कुछ हिंसा , भ्रष्टाचार आदि दिख रहा है - वह सब मूल व्याधि से सम्बन्धित बाहरी लक्षण मात्र हैं। और समाज में जो भी भ्रष्टाचार,अत्याचार, अराज-कता, दुःख, निर्धनता आदि दिख रहा है वह सब तो इस बीमारी का लक्षण मात्र । वास्तव में हमारी मूल समस्या यही है कि हमारे अक्ल पर ही पर्दा पड़ गया है, बुद्धि में बहुत गरीबी छाई हुई है।
हमारे भीतर जो सत्ता है (अंतर्निहित दिव्यता है - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है), उसको हम जानना ही नहीं चाहते हैं, उसके बारे में हमलोग सुनना भी पसन्द नहीं करते हैं। यदि एक कान से सुनते भी हैं, तो दूसरे कान से बाहर निकाल देते हैं। कोई यदि उसके बारे में सुनाना भी चाहता है, तो हम उस पर कान नहीं देते उसका उपहास करते हैं, उसकी हँसी उड़ाते हैं। यही तो हैं-आज के हमलोग ! हमलोगों के बुद्धि की दौड़ बस यहीं तक है- मजाक उड़ाने तक ? लेकिन हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि हमने कुछ सस्ते उपन्यास पढ़ लिए हैं, और सोचते हैं मानो उन उपन्यासों में ही समस्त ज्ञान भरा हुआ था , या बहुत हुआ तो बस -ट्रेन से यात्रा करते हुए सांध्य-कालीन समाचार पत्र के दो पन्नों को पढ़ते हैं, और सोचते हैं, हमने सब कुछ जान लिया है।
ये सब बातें हमलोग किसी वस्तु का प्रचार करने के लिए नहीं कर रहे हैं, उतने अहमक भी हम नहीं हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि जो सत भाव (महान और पवित्र विचार) हैं, वे स्वतः प्रचारित होंगे। जहाँ कहीं सम्भावना है, जहाँ कहीं जीवन है, उसको कोई दबा कर नहीं रख सकता!
स्वामीजी यही बात कह रहे हैं - " जो कुछ प्रकृति के विरूद्ध लड़ाई (ऐषणाओं आसक्ति के विरुद्ध संग्राम) करता है , वह चैतन्य है। उसमें ही चेतना का विकास है। यदि एक चींटी को मारने लगो तो देखोगे कि वह भी अपनी जीवनरक्षा के लिए एक बार लड़ाई करेगी। जहाँ चेष्टा या पुरुष्कार है , जहाँ संग्राम है , वहीं जीवन का चिन्ह और चेतना का प्रकाश है। .... " उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! " उठो, जागो, और जो सत्यद्रष्टा (ब्रह्मवेत्ता) श्रेष्ठ महापुरुष हैं उनके निकट पहुँचकर इस 'निःश्रेयस'# की उपलब्धि करो कि तुम्हारे भीतर ही अनंत संभावना तथा
अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने की शक्ति सोई हुई है; उस अनंत शक्ति को अभिव्यक्त करो। [निःश्रेयस ## 'मोक्ष' या परम कल्याण'-महर्षि कणाद के अनुसार धर्म की परिभाषा है -'यतोऽभ्युदय-निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः', अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है।] युवा भाइयों, थोड़ा शान्त मन से विचार करके देखो- हम लोग सभी प्राणियों के भीतर, क्या एक सच्चे मित्र को खोज रहे हैं ? नहीं, हम तो सभी को इस दृष्टि से देखते हैं कि यह मेरा शत्रु है या नहीं ? यह खोजते हैं कि कौन कौन हमलोगों का शत्रु है ? जबकि वेद में प्रार्थना की गयी है-मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।" यजुर्वेद 36/18 " हे ईश्वर, हमें ऐसी शक्ति दो कि हम सभी मनुष्यों को अपने मित्र के रूप में देख सकें।" और हमलोग अपने बच्चों को ठीक इसके विपरीत शिक्षा दे रहे हैं ।
हम किसी से प्रेम नहीं करते। सभी को पराया समझते हैं। इसीलिये हम हर समय इस बात को लेकर हमेशा शंकित बने रहते हैं, कि वे मेरा शत्रु बनकर- मुझे नुकसान पहुँचा सकते हैं। "द्वितीयाद् वै भयं भवति ।" -बृ १.४.२ केवल द्वैत से ही भय होता है। हम जिनको अपना सझते हैं उनसे कोई भय नहीं होता। इसीलिये दूसरों के भय से सदा शंकित रहने की अपेक्षा सभी को अपना समझना, और पराये को भी अपना बना लेना, निःशंक हो जाने का सबसे अच्छा उपाय है। लेकिन, ऐसा हम कर नहीं पाते , इसलिए शत्रुओं से अपने को बचाने में ही सारी शक्ति नष्ट हो जाती है। अपने को उन्नत बनाने और अधिक विकसित करने की शक्ति फिर शेष नहीं बचती है। जिसके पास आत्मविकास करने की शक्ति नहीं बची है, उसे बाहर से शक्ति का प्रावधान करने की शिक्षा 'आजके हमलोग' नहीं प्राप्त करते।
किन्तु, यदि हम मानव मस्तिष्क को उन्नत करने वाले विज्ञान (राजयोग या पातंजलि योगसूत्र) का प्रयोग करें तो हमलोग अपनी सत्ता के यथार्थ स्वरुप को, अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को भी जान सकते हैं। सभी प्राणियों (नाम-रूप) के भीतर, एक सत्ता या ब्रह्मवस्तु (अवतार-वरिष्ठ) मित्रभाव से अत्यंत घनिष्ट भाव से (Intimately) जुड़ा हुआ है। इसीलिये देखने में एक पृथक सत्ता प्रतीत होने पर भी वास्तव में (तत्वतः, द्वासुपर्णा या आत्मा रूप ) मैं उस परम सत्ता (अवतार वरिष्ठ ) के साथ एक और अभिन्न हूँ ! (माला की धागे जैसा) अदृश्य रहने पर भी सबों के साथ जुड़ा हुआ हूँ, क्योंकि हम सबों के भीतर एक ही सत्ता (ब्रह्मवस्तु) विद्यमान है। जब यही विचार क्रमशः दृढ़ होता जायेगा, तो मैं दूसरों को अपने से अलग न समझकर, उनको शत्रु न मानकर अपना मित्र समझूँगा और उनसे प्रेम करूँगा। तब हमारे हृदय में घृणा और भय के बदले, सबों के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जायेगा। प्रारम्भ में ही हमें घृणा से मुक्ति का उपाय ढूँढ़ना पड़ेगा। हमारे ही भीतर सबकुछ (विवेकज ज्ञान भी) विद्यमान है। उसको सही रूप से व्यवहार करना होगा, जानना होगा और अपने जीवन से -(दासोऽहं) भाव से अभिव्यक्त करना होगा। ऐसा करने के लिए जगत को देखने के प्रति हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। [दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद् ब्रह्ममयं जगत्। देहबुद्धया तु दासोऽहं जीवबुद्धया त्वदंशक। आत्मबुद्धया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥ ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए। देहबुद्धि से तो मैं आपका दास हूँ, बताइये आपके लिए क्या कर सकता हूँ ? जीवबुद्धि से आपका अंश ही हूँ और आत्मबुद्धि से में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥ ]
हमलोग मानव-कल्याण के लिये, उसकी सुख-शांति के लिये जगत के वस्तुओं का विश्लेषण करते हैं। किन्तु जिसकी सुख-शांति के लिये, जिसकी भलाई के लिये जगत की प्राकृतिक शक्तियों का विश्लेषण करते हैं, उस 'मनुष्य' (3H) का विश्लेष्ण कौन करता है ? हम मनुष्य की आंतरिक प्रकृति का, उसके मनोजगत का, अंतःकरण का विश्लेषण करने की थोड़ी भी चेष्टा नहीं करते। आमतौर पर हम कहते हैं कि मनुष्य एक मननशील जीव है, कुछ लोग कहते हैं, मनुष्य एक राजनैतिक जीव है, फिर कोई कहता है मनुष्य आर्थिक जीव है। तो क्या मनुष्य केवल दो पैरों पर सीधे खड़े होकर चलने वाला एक अलग ढंग का पशु है ? यह ठीक है, कि अलग अलग पहलु से देखने पर, मनुष्य राजनैतिक या मननशील या राजनैतिक जीव प्रतीत हो सकता है, किन्तु अपनी समग्रता में मनुष्य केवल इतना ही नहीं है, (वास्तव में तो वह ब्रह्म है !)।
महाभारत में कहा गया है कि मनुष्य एक आर्थिक जीव है। कुरुक्षेत्र का युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व लोगों ने देखा कि अचानक युधिष्ठिर खाली हाथ विरोधी-सेना की ओर बढ़े जा रहे हैं। कई लोगों ने सोचा, कहीं वे आत्मसमर्पण करने तो नहीं जा रहे हैं ? लोगों ने देखा, वे तो पितामह भीष्म, गुरु द्रोण आदि गुरुजनों के निकट पहुँचकर चरण-स्पर्श करके आशीर्वाद देने का आग्रह कर रहे हैं। आशीर्वाद देने के बाद चारों गुरु-जनों ने, एक ही वचन कहे," विश्व में सभी मनुष्य अर्थ के दास हैं, किन्तु अर्थ किसी का दास नहीं है। हमलोगों ने कौरवों का अन्न खाया है, इसीलिये हमें उनके पक्ष से युद्ध करने के लिये आना पड़ा। "
इस बात को हमारे पूर्वज अच्छी तरह से जानते थे कि बाह्य जगत का संचालन अर्थ के द्वारा ही होता है। हमारे पूर्वज इस बात को अच्छी तरह से समझते थे कि ' निर्धन व्यक्ति की इच्छा उसके मन में उठकर मन में ही विलीन हो जाया करती हैं।' इसीलिये प्रायः सभी भारतवासी इस बात को अच्छी तरह से जानते थे, कि सामान्यतया मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। किन्तु, हमलोग इतने परमुखापेक्षी हो गए हैं कि, अब हम अपने पूर्वजों के सिद्धान्तों को भी भूलते जा रहे हैं। हममें से कुछ लोगों ने यदि आचार्य शंकर का नाम भी सुना है, तो दूसरों की सुनी-सुनाई बातों को ही दुहराते हुए कहते हैं- ' शंकर ने तो जगत को बिलकुल उड़ा दिया था।' यदि उन्होंने जगत को ही उड़ा दिया था, तो अपने ज्ञान का प्रचार कहाँ किया था ? उन्होंने कहा था- वेदों में दो प्रकार के धर्मों का उल्लेख है-- एक है प्रवृत्ति का धर्म और दूसरा है निवृत्ति का धर्म। एक है भोग का मार्ग, तो दूसरा त्याग का मार्ग है। दोनों मार्गों के समन्वय से ही यह विश्व और समाज संतुलित रहता है। इन दोनों मार्गों के कारण ही मनुष्यों का समाज अपना संतुलन (Equilibrium) बनाये रखता है। जैसे एक हवाई जहाज अपने दोनों पंखों पर भार संतुलन बना कर उड़ान भरता रहता है। उसी प्रकार धर्म के भी दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग।' इन दोनों की सहायता से मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है। एक को भी छोड़ देने से दूसरा पक्ष, या समाज नहीं चल सकता। त्याग-विहीन समाज केवल भोग के बल पर नहीं चल सकता है, उसी प्रकार पूर्णतः भोग-विहीन समाज भी संभव नहीं है। आवश्यकता दोनों में सामंजस्य रखने की है। इसीलिए हमारे शास्त्रों में- 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - चार प्रकार के पुरुषार्थ की बात की गयी है। केवल एक ही पुरुषार्थ (मोक्ष) को लेकर चलने से सामाजिक व्यवस्था नहीं चल सकता। जो समाज केवल एक ही पुरुषार्थ (मोक्ष) लेकर रहता हो, उसे 'जघन्य' भी कहा गया है। किन्तु, ऐसा कहने से भी, चौथे पुरुषार्थ 'मोक्ष' के समकक्ष कोई भी नहीं है।
इस बात में तो कुछ सन्देह नहीं कि मनुष्य एक मननशील प्राणी है। स्वामीजी कहते हैं, मनुष्य एक मननशील प्राणी है, तभी तो उसे 'मुनि' भी कहा जाता है, मननशील होने से ही तो उसको मनुष्य कहा जाता है। इस विशेषता के अतिरिक्त अन्य सभी दृष्टिकोण से मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं है। केवल एक जगह आकर अन्तर हो जाता है, तथा वह जगह पशु के लिये बिल्कुल अलंघनीय (Inextricable) है। भूख, निद्रा, भय और वंशविस्तार की प्रवृत्ति पशुओं और मनुष्यों में एक सामान है, कोई अन्तर नहीं है। एक मात्र 'धर्म' ही मनुष्य और पशु में अलंघनीय अन्तर उत्पन्न कर देता है।
किन्तु यहाँ धर्म का अर्थ (Religion) नहीं है, यह एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ ललाट पर तिलक लगाना, फूल, बिल्वपत्र चढ़ाना,या रामनामी चादर ओढ़ना नहीं है। धर्म का अर्थ है, विवेक-विचार, मनीषा या मननशीलता। यह विवेक ही मनुष्य को 'सत-असत' का निर्णय करने में सक्षम बनाता है, इसी से तो मनुष्य अच्छा-बुरा का अन्तर कर सकता है।किन्तु साधारण अर्थों में जिसे अच्छा और बुरा (आंवला-इमली का अंतर) समझा जाता है, सदसत-विवेक का अर्थ वहीँ तक सीमित नहीं है। 'सत ' का अर्थ है अविनाशी, चिरस्थायी। और 'असत' का अर्थ है क्षणभंगुर या नश्वर (मिथ्या-वस्तु)। कौन सी वस्तु सत (अविनाशी) है, और कौन सी वस्तु असत (नश्वर) है- जो प्राणी चिन्तन करके इस बात का निर्णय कर सकता है, उसी को मननशील प्राणी कहा जाता है। वैदिक निरुक्तकार यास्क मुनि मनुष्य को परिभाषित करते हुए कहते हैं- " जो व्यक्ति कुछ भी सोचने-बोलने-करने के पहले 'विवेक-प्रयोग' करता है, उसको ही मनुष्य कहा जाता है।"
मनुष्य निश्चित रूप से एक राजनैतिक प्राणी भी है। क्योंकि राजनीती का अर्थ है- 'देश-सेवा'। राष्ट्र-निर्माण एवं देशवासियों का कल्याण करने के लिए, सभी दलों को एकजूट होकर देश के लिए कल्याणकारी नीतियों को बनाना होगा, तथा उन्हें प्रयोग में भी लाना होगा। राष्ट्र के लिए उचित नीति का निर्धारण करना भी एक आवश्यक कार्य है - इस दृष्टि से देखने पर मनुष्य एक राजनैतिक प्राणी भी है। लेकिन मनुष्य केवल मननशील, राजनैतिक या आर्थिक प्राणी मात्र ही नहीं है। मनुष्य के बारे में इस प्रकार से सोचना, मनुष्य की अवधारणा को छोटा बना देता है। ऐसा सोचने से मनुष्य में जो असाधारण महानुभावता (magnanimity), ऐश्वर्य और अतुलनीय महिमा है, वह अनदेखा ही रह जायेगा। यदि इस अतुलनीय महिमा की दृष्टि से मनुष्य को नहीं देखा जाय, तो उसका वास्तविक परिचय प्राप्त न हो सकेगा। ईसाई, हिन्दू और इस्लामी पुराणों में भी यह कथा आती है कि ईश्वर ने जब इस अभूतपूर्व विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना की, मनुष्य का भी निर्माण कर लिया तो उन्होंने सभी देवदूतों को (फरिश्तों को) बुलवा भेजा। तथा मनुष्य के सम्मान में शीश झुकाने को कहा। [क्योंकि मनुष्य अपने बनाने वाले-'ब्रह्म'को भी जान सकने में समर्थ था -यह देखकर मुदमाप देवा !] एक एक करके सभी फ़रिश्तों ने वैसा किया, किन्तु एक ने वैसा नहीं किया। जिस फ़रिश्ते ने मनुष्य के सम्मान में अपना सिर नहीं झुकाया, उसे खुदा ने कहा दूर हटो शैतान ! और वही फ़रिश्ता शैतान इब्लीस बन गया। कितनी अद्भुत कथा है यह ! इसीलिये जो व्यक्ति मनुष्य के सामने अपना सिर नहीं झुकाता, उसको इस जगत रूपी रंगमंच से हट जाना होगा। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जो व्यक्ति मनुष्य के महिमा के सम्मान में सिर नहीं झुकाता, वह शैतान है। मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि यदि ईश्वर सचमुच कहीं रहते हैं, तो वे मनुष्य के भीतर ही रहते हैं। स्वामीजी आगे कहते हैं, " तुमलोग भगवान को ढूंढ़ने कहाँ जाते हो ? उनकी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मनुष्य के भीतर ही है। तुमलोग नदी के तट पर खड़े होकर भी, जल पाने के लिये कुआँ क्यों खोद रहे हो? सब हाथों से वे ही कार्य कर रहे हैं, सभी पैरों से वे ही चल रहे हैं। खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, सभी स्थानों में वे ही कार्य कर रहे हैं। फिर तुमलोग भगवान की खोज कहाँ कर रहे हो ? "
अगर हम जीना चाहते हों, तो हमें अपने भीतर इसी बुद्धि को (जगत को ब्रह्ममय देखने की दृष्टि को) जाग्रत करना होगा। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को यज्ञोपवीत पहन कर ब्राह्मण बन जाने की आवश्यकता नहीं है। अपने देश के अतीत को समझे बिना केवल उसके आचार-अनुष्ठानों का यंत्रवत पालन करते जाने से काम नहीं चलेगा। वेद-उपनिषद आदि गड़ेरियों के गीत हैं, तथा देवी-देवता कठपुतली मात्र हैं, इनकी कोई आवश्यकता नहीं है, इन सब को फेंक दो, क्योंकि हमारे सारे पूर्वज मूर्ख थे। अपनी महान प्राचीन संस्कृति के बारे में ऐसी ही धारणा रखते हुए हमलोग विदेशों से 'अर्थ दो, खाद्य दो, बुद्धि दो' की रट लगा कर भीख मांगते रहते हैं- यही तो हैं, आज के हमलोग! ऐसा होने पर भी हमारे जीवित रहने का एकमात्र पथ है, अपने अतीत को (गुरु-शिष्य परम्परा को) जानना और उसी बुनियाद पर अपना जीवन-गठन करना। हमारा जो आधुनिक और भौतिकवादी-समाज (Materialistic society) है, उस समाज के ऊपर 'मनुष्य' की महिमा को प्रतिष्ठित करना होगा; तथा धर्म के माध्यम से जगत के हर चीज का भोग करना होगा या आनन्द लेना होगा। अर्थात दुनिया की हर चीज को 'धर्म' (तेन त्यक्तेन भुंजीथा) की पद्धति से (त्यागपूर्वक) भोग करना होगा। [ इससे ज्यादा क्रांतिकारी वचन दुनिया के किसी शास्त्र में नहीं है।क्योंकि जब तक तुमने भोगा ही नहीं, तुम त्यागोगे कैसे; त्याग की समझ कहाँ से आयेगी?] क्योंकि भोग तो रहेगा ही किन्तु साथ-साथ त्याग भी रहेगा। इसीलिये एक जगह स्वामीजी ने कहा था, " भोग पूरा किये बिना त्याग नहीं आ सकता है ।" जिसको भरपेट खाना भी नहीं मिलता हो, उससे यदि कहें, तुमलोग सब कुछ फेंक दो-तो यह ठीक नहीं होगा। स्वामीजी कहते हैं, वे लोग अन्न माँग रहे हैं, और तुम उनको पत्थर दे रहे हो ! पहले उनके रोटी का प्रबन्ध करो, उसके बाद उनको धर्म की कथा सुनाओ। यदि हमलोग जीवित बचे रहना चाहते हों, उन्नति करना चाहते हों, तो दलगत विचारधारा की परवाह किये बिना,स्वामीजी द्वारा प्रदर्शित पथ पर चलना होगा। उनका आदर्श केवल किसी दल या मत-विशेष के लिए नहीं है। स्वामीजीने कहा था,"ठाकुर समस्त प्रकार के साम्प्रदायिक विचारों और समस्त प्रकार के विभाजनकारी बेड़ियों को तोड़ देने के लिये ही अवतीर्ण हुए थे।" वे आगे कहते हैं, "तुमलोगों ने जिस दिन 'म्लेच्छ ' शब्द का अविष्कार किया, उसी दिन से तुम लोगों का अधः पतन शुरू हो गया है। तुमलोगों अपने चारों ओर बाड़ खड़े कर रहे हो। ठाकुर जाती-धर्म के नाम पर खड़ी की गयी -वर्गीकरण के इन छोटे छोटे घेरे को ध्वस्त करने के लिये ही आये थे।" एक प्रसिद्द कहावत है- "मूर्ख ठोकर खाने के बाद सीखता है, बुद्धिमान देख कर सीखता है।" पर हमलोग-न ठोकर खा कर न देखकर किसी प्रकार से नहीं सीख रहे हैं। इस प्रकार यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि हमलोग कितने बुद्धिमान हैं !
स्वामीजी ने हमलोगों को जो भी उपदेश दिया है, सिद्धांत या 'महावाक्य' दिया है, उसे उनहोंने अपने मन से गढ़ कर नहीं दिया है। प्राचीनकाल में जो चीजें हमारे पास थीं उन्हें भली-भांति समझकर एवं अपनी अनुभूति से जान कर, उसे नये रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत किया हैं। उन्होंने अति दरिद्र लोगों के बीच रहकर उनके दुःख के कारण को समझा है, उसके समाधान का मार्ग ढूँढ निकाला है तभी उन विचारों को हमारे समक्ष रखा है। उन्होंने जीवन्त मनुष्यों (इतिहास में जो दूसरों के लिये जीते हैं, केवल वे ही जीवित हैं) के इतिहास को जान लिया था। तथा उनके जीवन के साथ, अपने जीवन को जोड़ लिया था, इसी कारण उनके उपदेश कभी विफल नहीं हुए। रोमा रोलाँ कहते हैं, उनकी वाणी सुनकर विद्युत् प्रवाह का झटका सा अनुभव होता है। हालाँकि श्रीरामकृष्ण के चरणों माँ बैठकर उनहोंने ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया था, किन्तु उसी में लीन नहीं सके थे। उनकी ब्रह्म में लीन रहने की इच्छा को, ठाकुर ने ठुकरा दिया था। उनकी उस भूल को समझा दिया था। तभी तो, सबों के दुःख को दूर हटाने के लिये वे अपना जीवन न्योछावर कर देने में समर्थ हो सके थे।
इसीलिये, स्वामी विवेकानन्द को हमें अपना नेता या बुद्धि-दाता मानना होगा। ऐसा न करने से हमलोगों का भविष्य सचमुच अंधकारपूर्ण हो जायेगा। केवल बाहर में बारूद-विस्फोट करने से कुछ हासिल न होगा, हमें स्वयं को ही 'बारूद' (मूर्तमान निःस्वार्थता) के रूप में गढ़ना होगा। निःस्वार्थपरता को अभिव्यक्त कर 'मनुष्य' बनकर भारत माता की पूजा-वेदी पर स्वयं की बली (अपने व्यष्टि अहं को विसर्जित करने) देने के लिये तैयार रहना होगा। स्वामीजी ने कहा था, " अपने भीतर निःस्वार्थपरता, त्याग, सेवा, प्रेम का बारूद भर कर युवा समुदाय के उपर फट पड़ना होगा।" केवल भाषण देने से काम नहीं चलेगा। इसी बात को स्मरण रखने के लिये कहते हैं- ' हे भारत ! मत भूलना, कि तुम माता के लिये बली प्रदत्त हो। '
स्वामीजी नारा लगाने के लिये नहीं आये थे। भारत एवं विश्व में किस प्रकार का विप्लव या आमूल परिवर्तन कैसे करना है -- स्वामीजी उसी विप्लव-मार्ग का दिग्दर्शन कराने आये थे। उसका पथ उन्होंने बतला दिया है। प्रत्येक युवा का हृदय 'प्रेम रूपी बारूद' का कारखाना (मानव-बम) बन जायेगा। सम्पूर्ण मानवजाति के प्रति अकृत्रिम प्रेम ही असली बारूद है, इसी प्रेम के बारूद से अपने हृदय को भर लेना होगा। कोई यदि इतना साहसी और क्रन्तिकारी हो, तो वे स्वामी विवेकानन्द के पास चले आओ। यदि क्रांति ही करना चाहते हो, तो स्वामीजी के मार्ग पर चलो। यदि तुम उतने साहसी हो, तो तुम्हें मरना होगा ! (इस प्रेमवारी का छिड़काव करते हुए अपने प्राणों को न्योछावर करना होगा।) किन्तु, लोगों की दृष्टि में शहीद कहलाने या वाह-वाही पाने के लिये नहीं। क्या तुम सबों की दृष्टि से ओझल रहकर त्याग, प्रेम, पवित्रता, सत्यनिष्ठा, संयम और निर्भीकता के बारूद से अपने हृदय को धीरे धीरे भर सकते हो ? ऐसा करने के बाद जब तुम समाज के सामने खड़े हो जाओगे, उस समय समाज तुम्हारे सामने श्रद्धा के साथ सिर झुकाएगा। और तब समाज से समस्त अनैतिकता और कायरता, तुम्हें देखकर किसी चोर की भाँति भागने लगेंगे। यही करना होगा, अभी हमें इसी प्रकार का चरित्र-गठन करने की आवश्यकता है। सच्ची समाज-सेवा का यही एकमात्र पथ है।
अपने देश-वासियों के लिये यदि तुम्हारे हृदय में प्रेम है तो मनुष्य की महिमा के सामने अपना शीश झुकाओ। मनुष्य को चलता-फिरता देवालय समझकर उन्हें प्रणाम करो। स्वामीजी कहते हैं, " सब प्रकार के शरीरों में मानव-देह ही श्रेष्ठतम है ; मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। मनुष्य सब प्रकार के निकृष्ट प्राणियों से -यहाँ तक की देवादि से भी श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर जीव और कोई नहीं। "' मैंने जीवन भर ईश्वर का अन्वेषण किया है, किन्तु उनको केवल मनुष्य के भीतर ही पाया है।' आगे कहते हैं, ' मनुष्य के जैसा मनुष्य बनकर सबों का दुःख दूर करो। चरित्रवान बनो। जो गुणपशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवत्व में उन्नत कर सकता हो, उसको ही धर्म कहते हैं।
(धर्म का अर्थ Religion नहीं है) क्या धर्म केवल मन्दिर, मस्जिद या गीरजाघर में है? जो वस्तु (महामण्डल निर्देशित ५-अभ्यास) मनुष्य को वास्तविक मनुष्य में परिणत करके उसे देवतुल्य बना देती है, उसको ही धर्म कहते हैं। दुनिया के सभी धर्म मनुष्य को पशु-स्तर से देवता में विकसित होने का मार्ग बतलाते हैं।
विद्यार्थियों को यह समझना होगा कि केवल परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने से ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं प्राप्त हो जाता है। उच्च डिग्री हांसिल करके भी अधिकांश लोग केवल अपने लिये ही जीवित रहते हैं, दूसरों के लिये जीवित रहने से मनुष्य जीवन सार्थक होता है, यह बात समझ में नहीं आती। जो लोग दूसरों के लिये जीना चाहते हों उन्हें स्वस्थ-सबल शरीर चाहिये, सद्बुद्धि-सम्पन्न मन चाहिये, परहित करने में समर्थ प्रेमपूर्ण हृदय चाहिए। किसी भी कार्य को दो प्रकार की बुद्धि से किया जा सकता है -स्वार्थ बुद्धि और परार्थ-बुद्धि। स्वार्थबुद्धि से करने पर कोई भी कार्य बुरा -और परार्थबुद्धि से करने पर कोई भी कार्य अच्छा होता है। अतः कर्म के पीछे जो मनोभाव रहता है उसको बदलने की जरूरत है। इसको ही कर्म-योग कहा जाता है। कर्म में कौशल बरतना ही योग है। जो कुछ भी कर रहा हूँ उसी कार्य को करूँगा, किन्तु दृष्टिकोण बदल जायेगा। ये सब बातें यदि तुम्हें ठीक लगें, युक्ति-सम्मत लगें तो विवेकानन्द के पास आओ। उनके उपदेशों के अनुसार कार्य करो, उनको थोड़ी श्रद्धा दो, उनसे प्यार करो-इतना से ही काम हो जायेगा।
कार्ल मार्क्स ने 1853 ई० में एक पत्र में लिखा था , " भारतवर्ष के बारे में सोचने से बहुत दुःख होता है। क्योंकि, भारत ने अपना अतीत तो खो ही दिया है, किन्तु नया कुछ भी नहीं पाया है। इस शून्यता के भीतर से देखने पर भारतवर्ष का भविष्य अंधकारमय लगता है , कुछ समझ में नहीं आ रहा है।" (किन्तु जगतजननी, माँ जगदम्बा की लीला देखें), ठीक उसी साल 1853 ई.में ही 17 वर्ष के तरुण 'गदाधर' अपने बड़े भाई के साथ पहली बार भारतवर्ष की तात्कालीन राजधानी कोलकाता में पदार्पण करते हैं। और कोलकाता जैसे महानगर में सद्बुद्धि [मूर्तिपूजा -माँ काली की भक्ति] की एक हवा बहने लगती है। उस समय भारत का अतीत लगभग अस्पष्ट जैसा था, तब भी जितना बचा हुआ था, उसी को बचाने के लिये-उसी को ही पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिये ठाकुर श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द आये थे। इनके उपर श्रद्धा रखने का अर्थ है भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित करना, उससे प्यार करना, और उसी के साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व के कल्याण का भी प्रावधान करना। इतना सब समझ लेने के बाद भी क्या हमलोग यह कह सकते हैं कि अभी भारत के लिये स्वामीजी की कोई आवश्यकता नहीं है, हमलोग जिस प्रकार के मनुष्य हैं, वैसे ही बने रहेंगे ? जो ठाकुर, माँ , स्वामीजी, मनुष्यों के दुःख-कष्ट से व्यथित होकर, उसके सच्चे कल्याण का मार्ग दिखा देते हैं , उनके प्रति यदि श्रद्धा नहीं रखेंगे , तो किसके प्रति रखेंगे ?(जो 'पवित्र-त्रयी' मनुष्य की व्यथा से व्यथित होकर उनके वास्तविक कल्याण का मार्ग--मनुर्भव दिखला गए हैं! यदि उन वेदमूर्ति के उपर श्रद्धा नहीं रखेंगे तो किनके उपर रखेंगे ?)
इसीलिये तो सम्पूर्ण विश्व स्वामीजी [और उनके माध्यम से ठाकुर और माँ को पहचानकर] के प्रति श्रद्धा रखता है। 1902 ई० में स्वामीजी के देहान्त के मात्र 12 वर्ष के भीतर 1906 से 1914 ई० के बीच ही स्वामीजी का 'कर्मयोग', 'भक्तियोग', 'राजयोग' तथा 'ज्ञानयोग' का रुसी भाषा में अनुवाद हो गया था। उसी प्रकार हाल के दिनों में चीन में गीता, रामायण का अनुवाद हो रहा है, स्वामीजी के संदेशों पर सेमिनार हो रहे हैं। चीन की सरकार ने वहाँ के शिक्षाविदों को इस बात का उत्तरदायित्व दिया है कि सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्यन कर, उनका विश्लेषण कर यह पता लगायें की धर्म में कोई सार है या नहीं ?तथा मनुष्य के कल्याण में धर्म की भी कोई भूमिका हो सकती है या क्या ? चीन के मनीषी लोग अभी दुनिया के सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करके उसका सार निकालने के लिये उनका विश्लेषण कर रहे हैं। इसको ही वैज्ञानिक विश्लेषण कहते हैं। जिस प्रकार धर्म के नाम पर दुनिया में बहुत अनर्थ हुआ है, उसी प्रकार विज्ञान के द्वारा भी कई कल्याण के कार्य होने के साथ- साथ मानवता का विनाश भी हुआ है।
इस समय यह देखने की जरूरत है कि धर्म (निःश्रेयस) सामान्य मनुष्यों के किसी काम में आयेगा या नहीं? अब समय आ गया है कि हमलोग भी अपने सनातन धर्म को थोड़ा ध्यान पूर्वक देखने की चेष्टा करें। केवल पाश्चात्य देशों का अनुकरण करते रहने से ही काम नहीं चलेगा। जैसे एक शिक्षित व्यक्ति श्रीरामकृष्ण के निकट आकर लगभग प्रति दिन कहते थे, गीता-टीता आदि में कुछ भी नहीं है। उसके बाद अचानक एक दिन आकर कहने लगे, गीता तो बहुत अच्छी और मनुष्य का उपकार करने वाली पुस्तक है। इतना कहते ही श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'ओहो ,लगता है किसी अंग्रेज साहेब ने कहा है ? हमलोग भी ठीक वैसा ही कर रहे हैं। जब विदेशी लोग यह कहेंगे कि " सचमुच वेदों, उपनिषदों में तो बड़ी अच्छी- अच्छी बातें हैं, केवल चार महावाक्यों में ही सम्पूर्ण विश्व को पुनरुज्जीवित करने की शक्ति है।" हमलोग तुरंत कहेंगे, हाँ ; बेशक धर्म तो बड़ी अच्छी चीज है, गीता, वेद, उपनिषद आदि जितने भी ग्रन्थ हैं, सभी अच्छे हैं- उन सब मनुष्य जाति के लिए कल्याण की बातें लिखी हैं। (अब तो अन्तर्राष्ट्रीय योग-दिवस भी मनाया जा रहा है, यूनाइटेड नेशन में दीवाली मनाई जा रही है! ) यही हमलोगों की मानसिक दरिद्रता है, इस मानसिक कंगाली को दूर करना होगा। यदि हमलोग अपनी इस आन्तरिक कंगाली को दूर हटा कर उन महान विचारों-सिद्धान्तों को (चार महावाक्यों को) अपने जीवन में अभिव्यक्त न करें, तो हमलोगों का भविष्य बहुत अंधकारपूर्ण हो जायेगा।
हमारा देश जिसको हमलोग 'माँ ' कहते हैं, भारत माता कहते हैं- जिसने हमलोगों का लालन-पालन किया है, उस माँ के लिये क्या हमारा कोई कर्तव्य नहीं है ? क्या भारतमाता का हमारे ऊपर कोई ऋण नहीं है ? माँ सबसे अधिक कैसे खुश होंगी ? भारत माता सबसे अधिक तब प्रसन्न होंगी, जब हमलोग इस मिट्टी की गोद में स्वस्थ, श्रेष्ठतर मनुष्य जैसे मनुष्य बन जायेगे। और उनकी जो संतानें गरीब और दुखी हैं, उनके आँखों के अश्रु यदि पोंछ सकेंगे । यह कार्य राजनीती करके नहीं किया जा सकता है। यह कार्य केवल यथार्थ मनुष्य बनकर ही किया जा सकता है। ऐसा मनुष्य बनना होगा जिसमें आत्मविश्वास, निर्भयता, त्याग और सेवा का भाव रहेगा, तथा अन्य मनुष्यों के प्रति प्रेम रहेगा- तभी हमलोग मातृ-ऋण, पितृ-ऋण, जिसे कभी चुकाया नहीं जा सकता, उस ऋणशोधन के लिए कुछ उपयुक्त कार्य कर सकेंगे। अब प्रश्न यह है कि हमलोग इस कार्य को करेंगे या नहीं करेंगे ? इसका उत्तर हमें ही देना होगा। हमारी भारत माता बहुत प्रसन्न होंगी, यदि उनकी सुसंतान के रूप में हमलोग स्वयं को गढ़ सकेंगे । स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं से यही संकल्प लेने का आह्वान किया था। आज के हमलोग क्या हैं, क्या बन सकते हैं, और हमलोग क्या कर सकते हैं, उसी का सही मार्ग दिखलाने के लिए स्वामी विवेकानन्द ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था।
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>>> द्वैत के कारण ही भय होता है : तैत्तिरीयोपनिषद २/७/१ में कहा गया है है - " उदरम् अन्तरम् कुरुते अथ तस्य भयम् भवति ।" अर्थात जो व्यक्ति ब्रह्म और अपने अथवा दूसरों में -' उदरम् ' थोड़ा-सा भी, अन्तरम् कुरुते - अन्तर समझता है, उसको भय होता है।'
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।8.23।।
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! जिस काल में (मार्ग में) शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन अपुनरावृत्ति को, और (या) पुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं, वह काल (मार्ग) मैं तुम्हें बताऊँगा।।
वैशेषिक दर्शन के संस्थापक महर्षि कणाद ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा है - "यतोऽभ्युदय-निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः। " अर्थात जिससे 'अभ्युदय और निःश्रेयस' दोनों प्राप्त होते हैं उसी को धर्म कहते हैं ! ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न (पुरुषार्थ) करते हैं।
अभ्युदय का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना। यह वास्तव में सुख का आभास मात्र है क्योंकि प्रत्येक उपभोग के गर्भ में दुःख छिपा रहता है।
निःश्रेयस का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष। ( निःश्रेयस का अर्थ हुआ नश्वर देह-मन को मैं समझने से मुक्ति या सिंह शावक का भेंड़त्व से विसम्मोहित हो जाने का परमानन्द !) इसमें मनुष्य आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान (सिनेमा का पर्दा) है। इस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। ये दोनों लक्ष्य परस्पर विपरीत धर्मों वाले हैं। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। आत्मानुभवी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है। यदि लक्ष्य परस्पर भिन्नभिन्न हैं तो उन दोनों की प्राप्ति के मार्ग भी भिन्नभिन्न होने चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ भरतश्रेष्ठ अर्जुन को वचन देते हैं कि वे उन दो आवृत्ति और अनावृत्ति मार्गों का वर्णन करेंगे।
यहाँ काल शब्द का द्वयर्थक प्रयोग किया गया है।
काल का अर्थ है प्रयाण काल और उसी प्रकार प्रस्तुत सन्दर्भ में उसका दूसरा अर्थ है मार्ग जिससे साधकगण देहत्याग के उपरान्त अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं। प्रथम अपुनरावृत्ति का मार्ग बताते हैं।]
>>>ब्रह्म ही माया के आवरण से (ताना और भरनी से) ढँका हुआ है, उस ब्रह्म को नहीं देख पाना ही मानवजीवन की मूल समस्या है।
झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया ॥
काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया ॥ १॥
इड़ा पिङ्गला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया ॥ २॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ॥ ३॥
साईं को सियत मास दस लागे, ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥ ४॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥ ५॥
दास कबीर जतन करि ओढी, ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥ ६॥
इस पद्द में कबीर दास जी बड़ी कीमती बातें कही हैं, जिसका हर एक शब्द समझने योग्य है ।
झीनी-झीनी बिनी चदरिया का अर्थ है कि बनाने वाले ने बड़े जतन और बड़े होश से इस शरीर को बनाया है।
इस लिए इसको तुम जितना जाग कर जीयोगे, उतने ही बारीक और सूक्ष्म जीवन का अनुभव कर पाओगे। जितना सूक्ष्म अनुभव करोगे, देवदुर्लभ मनुष्य शरीर के प्रति उतना ही ज्यादा जागोगे। इस जीवन की चादर बड़ी झीनी है और जितना तुम झीनापन देख पाओगे, उसकी बनावट की बारीकी उतने समझोगे।
काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया
इडा पिङ्गला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया
इस शरीर को बनाने के लिए किस ताना, भरनी और तार का इस्तेमाल किया गया है। ताना, भरनी और तार कपड़ा बुनने में इस्तेमाल किया जाता है। यह तुम्हारा दिखाई पड़ने वाला शरीर,मन न दिखाई पड़ने वाले (आत्मा) को छिपाये हुए है। यह चदरिया यानि हमारा शरीर, इंगला-पिंगला ताना भरनी, और सुषमन तार से बुना गया है। अगर इसको समझना चाहते हो तो स्वर शास्त्र की कुछ जानकारी होना जरूरी है।
स्वर शास्त्र के अनुसार इस शरीर में 7200 नाड़ी हैं। जिसमें 10 नाड़ी को प्रमुख मानते हैं। और इनमें भी तीन ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी बहुत ही महत्व पूर्ण है जो मेरुदण्ड से जुड़े हैं। ईड़ा को चन्द्र नाड़ी और पिंगला को सूर्य नाड़ी कहा जाता है। सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार से आरंभ हो कर सिर के सहस्रार तक अवस्थित है और सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं। अतः यहाँ पर कबीर साहेब इन 3 प्रमुख नाड़ी की बात कर रहे है जिससे ये शरीर रूपी चादर बिनी गयी है।
आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया
हमारे संत, महात्मा, ऋषि और मुनि ने शरीर को ही ब्रम्हाण्ड का सूक्ष्म मॉडल बताया है। इसमें 8 चक्र, 5 तत्व और तीन गुण हैं। ये आठ चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, मनश्चक्र (बिन्दु या ललना चक्र), और सहस्त्रार), हमारे शरीर से संबंधित तो हैं लेकिन इन्हें अपनी भैतिक इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं कर सकते हैं। परंतु इनसे निकलने वाली उर्जा ही शरीर को जीवन शक्ति देती है। पंचतत्व या पंच महाभूत माने आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से सम्पूर्ण सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है। प्रकृति के तीन गुण (सत्, रजस् और तमस्) बताए गए हैं। ये तीनों गुण सभी सजीव-निर्जीव, स्थूल-सूक्ष्म वस्तुओं में विद्यमान रहते हैं। इन तीन गुणों के न्यूनाधिक प्रभाव के कारण ही किसी व्यक्ति का चरित्र निर्धारित होता है।
कबीर दास जी कहते हैं कि आठ कंवल, जिनको हम चक्र कहते हैं, उनको अगर ठीक से समझें तो यहाँ कंवल कहने का कारण है। यह तो सिर्फ प्रतीकात्मक है। यदि आपने कभी नदी में कोई भंवर पड़ते देखा है, तो वहां चक्र में पानी घूमता प्रतीत होता है! वैसे ही ऊर्जा आपके शरीर में बने चक्र में घूमती है और उन भंवरों का जो रूप है वह कमल से काफी मिलता -जुलता है मानो जैसे कमल घूम रहा हो।
इन आठ चक्र का द्वार है दस इंद्रियां (पांच कर्म-इंद्रियां, और पांच ज्ञान इंद्रियां) का चरखा है। जब व्यक्ति अज्ञानी होता है, तो कमल नीचे की तरफ झुका मुरझाया हुआ होता है। जैसे-जैसे ऊर्जा ऊपर की तरफ बहनी शुरू होती है, कमल की डंडी सीधी होने लगती है, और कमल सीधा हो जाता है। पूरे कमल के खिल जाने में परम सत्य को पा लिया जाता है। इन्हे ही वेद ने उर्ध्वरेतस् कहा है। जब आप उर्ध्वरेतस् बनोगे तो तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की तरफ जाएगी, सब कमल ऊपर की तरफ उठ जाएंगे। जहाँ तक चक्र गिनने की बात करे तो कुछ एक लोग सात कंवल, कुछ आठ कंवल, कोई नौ कंवल और कोई ग्यारह कंवल गिनता है।
साईं को सियत मास दस लागे, ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया
सोई चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीनी चदरिया
यह शरीर पिंड, स्थूल और सूक्ष्म शरीर से बना है जिसको बुनने (सियत का मतलब होता है सिलना या बुनना) में परमात्मा को दस महीने लग जाते हैं। और जिसको प्रकृति ने बड़े बारिकी से, ध्यान दे कर बनाया है। परमात्मा ने पूरा अस्तित्व बनाने में दस महीने तुम पर खर्च करता है लेकिन तुम इसका कोई मूल्य ही नहीं समझते।
कबीर साहेब जी कहते हैं कि प्रकृति द्वारा बनाए गए इस शरीर को सुर (स्वर्ग में रहनेवाला देवता), नर (साधारण मनुष्य), और मुनि (त्यागी जन), सबने ओढ़ी, और इन तीनों ने मैली कर दी। देवता भोग के कारण मैला कर देता है, मुनि त्याग के कारण मैला कर देते हैं। और बीच में जो मनुष्य है, वह खिचड़ी जैसा है। सुबह त्यागी, दोपहर भोगी; शाम त्यागी, रात भोगी। वह चौबीस घंटे में कई दफा बदलता है। भोगी का अर्थ है, वासनाओं के साथ जिसने अपने को इतना जोड़ लिया कि कोई फासला न रहा। देवता, भोगने के शुद्ध प्रतीक हैं। वे सिर्फ भोगते हैं। भोग से चादर मैली हो जाती है। भोगी और त्यागी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनकी कामना एक ही है। एक को मिल गया है; दूसरे मिल जाए, इसकी आशा में जी तोड़ कर लेगा हुआ है। इसलिए त्यागी भी सपने तो भोग के ही देखता है। कबीर साहेब जी कहते हैं, त्यागी, भोगी दोनों नष्ट कर देते हैं चदरिया को।
दास कबीर जतन करि ओढी, ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया
इस लिए कबीर साहेब जी कहते हैं मैने जतन से ओढ़ी, बड़े सम्हाल कर ओढ़ी, और होश से ओढ़ी और ज्यों की त्यों परमात्मा को वापस कर दी। यहीं मोक्ष है, यहीं मुक्ति की अवस्था है।
अब प्रश्न उठता है कैसे इस चादर को निर्दोष रखें?
कबीर साहेब जी कहते इस चदरिया को बचा लेने की कला है: होश, विवेक और जाग्रत चेतना। करो, जो कर रहे हो, जो करना पड़ रहा है। जो नियति है, पूरा करो क्योंकि भागने से कुछ प्रयोजन नहीं। लेकिन करते समय न करता बनो न भोक्ता । सिर्फ साक्षी रहो, यहीं सम्हाल कर ओढ़ने की कुंजी है। साभार /https://managelifesolution.co.in/(आध्यात्मिक ज्ञान चर्चा(एक कदम मुक्ति के मार्ग पर)
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>>>"केवलाघो भवति केवलादी" - मनुष्य-निर्माण की आन्तरिक इंजीनियरिंग :
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवित केवलादी।
(ऋग्वेद,10/117/6)
[अन्वय :- मोघं अन्नं विन्दते अप्रचेता:। स तस्य वध इत्। स आर्यमरणं न पुष्यति। न स सखायां पुष्यति। केवलादी केवलाघ: भवति। इति अहं सत्यं ब्रवीमि। ।।]
अर्थ- (अप्रचेता:) बुद्धि शून्य अर्थात् मूर्ख आदमी मुफ्त का भोजन, बिना कमाया हुआ भोजन (विन्दते) पाने का यत्न करता है अर्थात् अपने भोजन के लिए कुछ करना नहीं चाहता। स तस्य वध इत् (स) उसका ऐसा व्यापार (तस्य) उसके (वधइत्) नाश का ही कारण है। (केवलादी) जो अकेला खाने वाला है वह (केवलाघ:) केवल पाप का भागी (भवति) होता है। (सत्यं ब्रवीमि) मैं सत्य कहता हूं अर्थात् इस कथन के सच होने में किंचन मात्र भी सन्देह नहीं है। अर्थात - वह व्यक्ति पापी है, जो न तो देवों को भोजन देता है एवं न अपने मित्रों को। केवल अपना ही पेट भरता है।
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व्याख्या :- जीवन के दो बड़े विभाग हैं। एक भोग और दूसरा कर्म। (प्रवृत्ति और निवृत्ति =निष्काम कर्म) प्रश्न यह है कि क्या इन दोनों का महत्व समान है, अथवा एक गौण है और दूसरा मुख्य ? यदि ऐसा है तो मुख्य कौन है और गौण कौन है? तुलसीदास जी का कहना है कि-
कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करै सो तस फल चाखा।।
अर्थात् कर्म मुख्य (प्रधान) है और भोग गौण। अब तनिक अपनी प्रवृत्तियों पर विचार कीजिये। इस सिद्धान्त के विरुद्ध एक बात कही जा सकती है। प्रायः संसार में लोग भोग के लिए ही कर्म करते हैं। यदि भोग की आशा नहीं होती तो नहीं करते। एक चिकित्सक इसलिए चिकित्सा नहीं करता कि उसे चिकित्सा का ज्ञान या सामर्थ्य है अपितु इसलिए कि उससे आर्थिक लाभ होगा। एक वकील इसलिए वकालत नहीं करता कि वह वकालत के काम में दक्ष है अपितु इसलिए कि उसे पैसा मिलता है। इसलिए लोगों ने 'अर्थ' (कामिनी-कांचन भोग?) को ही सर्वोपरि माना है। लेकिन हर व्यक्ति को अपने अच्छे एवं बुरे कर्म का फल पाना ही होता है। स्वयं भगवान राम को बाली वध की सजा द्वापर युग में जरा नाम के बहेलिए ने उनके पैर पर तीर मारकर किया था। नारायण के पैर में तीर मारने के बाद बहेलिए ने अपनी गलती स्वीकार भी किया था। मगर नारायण रूपी भगवान कृष्ण ने बहेलिए से कहा था कि यह उनके पूर्व के कर्मों का फल है। द्रौपदी ने एक बार अपने आंचल से एक महात्मा की लाज को बचाई थी। जिसके फल द्रौपदी को त्रेता युग में महाभारत के चिर हरण कांड के दौरान प्राप्त हुआ। उन्हें बचाने के लिए [गज-ग्राह के अहंकार >को मारने ?] सीधे नारायण को आना पड़ा था। वही 10 हजार हाथी के बल वाला दुशासन अपनी मंशा में सफल नहीं हो पाया था।
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