जगत-जननी
  श्री श्रीमाँ सारदादेवी का आविर्भाव २२ दिसम्बर १८५३ ई० को तथा उनका 
तिरोभाव २१ जुलाई  १९२० ई० को हुआ था. इस मर्त्यलोक में उनकी देवी-लीला कुल
 ६७ वर्षों तक हुई  है.  इतने लम्बे समय तक वे इस धरती पर रहीं फिर भी अपने
 स्वरुप को किसी के  जानने-समझने नहीं दीं; क्योंकि श्रीरामकृष्ण की दृष्टि
 में वे  'अवगुण्ठनवती-देवी ' थीं. उन्होंने अपने को, जीवनभर अवगुण्ठन ( पर्दे ) में ढाके रखा था. उनका  वास्तविक स्वरुप जनमानस की आँखों से ओझल ही
 रह गया था. 
    शायद
  इस पर्दे में रहने के कारण ही उनको जानने और पहचानने में इतना बिलम्ब 
 हो गया है. उनका प्रामाणिक जीवनचरित पाने में लभभग १०० वर्ष का समय लगा 
है.  क्योंकि उनकी जन्मशतवार्षिकी पूरी हो जाने के बाद ही उनकी 
पूर्णांग-जीवनी '  श्रीश्री माँ सारदादेवी ' रचित हुई है.
 किन्तु
 १८८९ ई० में - उनके  सशरीर उपस्थित रहते समय ही उनके अन्तर्निहित 
चारित्रिक वैशिष्ट  का साक्षात्कार करके उनके एक योग्य संतान 
(स्वामी अभेदानन्द) ने संस्कृत  भाषा की काव्यमय वाणी में उनके  
स्वरुप उद्घाटित करते हुए '  सारदा-स्त्रोत्रम ' की रचना की थी। इतना ही 
नहीं श्रीश्री माँ  ने, इस स्त्रोत्र को स्वयं सुना भी था, तथा यह बिलकुल 
ठीक रचित हुआ है, कह  कर अपनी स्वीकृति भी दी थी. इसके  बावजूद उनका  
स्वरुप आज भी मानों अवगुन्ठित (आवरण के भीतर ) ही है, इसका  कारण यह है कि 
आमतौर से लोग इस संस्कृत-रचना को केवल एक स्त्रोत्र, या  प्रार्थना-संगीत 
के रूप में ही पाठ करके संतुष्ट हो जाते हैं।  
किन्तु
  जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे हैं, एक एक करके उतना ही उनका स्वरूप 
उद्घाटित  हो रहा है, वे नित्य नूतन स्वरूप मे उद्भाषिता हो रही हैं. तो 
फिर उनका  वास्तविक स्वरूप क्या है? यह कौन बता सकता है कि इनमे से उनका 
वास्तविक स्वरूप कौन  सा है? शायद केवल श्रीश्री माँ ही जानती हैं कि उनका 
सच्चा स्वरूप क्या है ? यदि कृपा करके वे  स्वयम् नहीं समझा दें तो 
हम अपनी इस ससीम बुद्धि से उनके अनंत स्वरूप को किस उपाय से समझ सकते हैं ?
 वास्त्व में जो '  अरूपा ' हैं, वे  ' रूप ' धारण कर लेने के बाद भी, क्या
 किसी एक ही रूप में आबद्ध रह सकती  हैं ? 
उनके तो कितने
 शत-शत उनका रूप हैं ! ह्मलोग उनके कितने रूपों की पहचान रख सकते हैं ? या 
किसी एक रूप को पहचान लेने के  बाद भी, जो मन-बुद्धि के अगोचर हैं, 
क्या उनके संपूर्णतः समझ पाना 
संभव है
 ? यदि वे  स्वयम् अपने को पकड़ने नहीं दें, उनको पकड़ना संभव ही नहीं 
है.यदि वे स्वयं  अपने को जानने ना दें कौन उन्हें जान सकता है? वे कृपा 
करके जिसको पहचनवा  देती हैं, दया करके जिसको अपने गोद में 
उठा लेती
 हैं एवम् जीसको वे शक्ति देतीं हैं-  केवल वही उनके  स्वरूप का उन्मोचन और
 उद्घाटन कर सकता है। या वे उनको  माध्यम बना कर स्वप्रकाशित होती हैं। 
                       
 जिनके माध्यम से वे पहली बार उन्मोचित तथा प्रकाशित हुईं थीं,  वे उन्हीं 
 की स्नेह्धन्य सन्तान स्वामी अभेदानन्द जी थे. श्रीश्री माँ की कृपा से  
वे ही उनके उस  ' अवगुन्ठित स्वरुप ' ( या आवरण में छुपे-स्वरुप ) को  
उन्मोचित करने में समर्थ हो सके थे। जिस स्वरुप में रहते हुए, वे आज भी 
हमलोगों को नये नये तत्व से  समृद्ध करती रहतीं  हैं। वे एक दिव्यदर्शी थे 
यह इस अन्तर्निहित स्वरुप-वर्णन से  ही प्रमाणित होता है, तथा उनके भीतर एक
 विशेष शक्ति थी वह भी इस स्तुति के द्वारा स्पष्ट हो जाता है। 
        
 इस  अमितवीर्य के अधिकारी अभेदानन्द की काव्यप्रज्ञा के बारे में विचार 
करने  से अवाक् हो जाना पड़ता है. जहाँ आध्यात्मसाधना और काव्य-साहित्य 
साधना  समान रूप से प्रतिफलित है. उनकी यह विशिष्ट प्रतिभा आश्चर्य पैदा 
करती है.  उनकी इतनी शक्तिशाली रचना के प्रभाव को देख कर, यह जानने की 
ईच्छा होती है कि  आखिर वे किसकी शक्ति को प्राप्त करके इतने 
शक्तिशाली हुए थे ? उसी विस्मित करने वाली स्तुति-कविता का  अवलम्बन करते 
हुए, इस निबन्ध को लिखने का प्रयास किया जा रहा है :
स्वामी
  अभेदानन्द भगवान श्री रामकृष्ण के अंतरंग लीला पार्षदों मे श्रेष्ठ थे. 
वे  एक ही आधार मे तपस्वी, कवि, वक्ता, प्रचारक और लेखक थे. सन्यासी होकर 
भी  उनकी दृष्टि किसी कवि के जैसी स्वच्छ, सलिल और अंतर्भेदी थी. उनकी कवि दृष्टि में ' देवी सारदा ' ही समस्त शक्तियों की मूल - 'परमा-प्रकृति' हैं.  
          
  श्रीश्री माँसारदा का यह रूप साधारण मनुष्यों के लिए प्रकाशित नहीं था,  
किन्तु कवि अभेदानन्द की दृष्टि में वह रूप पकड़ मे आगया है. उन्होने एकादश
  श्लोकों के मध्यम से अपने स्त्रोत्र में श्रीश्रीमाँ के उसी चित्र को  
अंकित किया है. श्रीश्रीमाँ वहाँ पर शक्ति स्वरूपिणी  हैं. इस स्तुति के  
भीतर से शक्तिमयी सारदा का यही स्वरुप प्रस्फुटित हुआ है.  
 मातृ-प्रकृति सारदा इस स्तुति को इसके रचयिता के मुख से सुन कर दिव्य भाव मे समाधिस्त हो गयीं थीं. इस काव्य चित्र में देवी का स्वरूप उद्घाटित हुआ है, एवम् देवी भी मानो इस स्त्रोत्र को सुन कर अपने वास्तविक रूप को पुनः  प्राप्त की थीं. इसीलिए वे अपने स्वरूप में अवस्थान करते हुए इसके रचयिता अभेदानन्दजी   को एक जप की माला देते हुए आशीर्वाद की थीं, तथा बोली थीं- ' तुम्हारे मुख में सरस्वती का वास हो! ' 
 स्त्रोत्र
 को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है मानो सचमुच देवी का आशीर्वाद  कवि के उपर 
वर्षित हुआ था. जिस प्रकार द्रष्टा ऋषियों ने देवी सूक्त में  देवी-वन्दना 
की है, ठीक उसी प्रकार ऋषितुल्य अभेदानन्द भी '  सारदा-स्त्रोत्र ' में 
देवी सारदा  की अर्चना किये हैं.  कवि-अभेदानन्द की काव्यप्रज्ञा में 
भक्तिविगलित देवी ' सारदा ' की प्रतिमा इस प्रकार वर्णित हुई हैं- 
" प्रकृतिम परमामभयां  वरदां, नररूपधरां जनतापहराम |
   शरणागतसेवकतोषकरीं, प्रणमामि परां जननीं जगताम || "१||
                         -
  परमाप्रकृतिस्वरूपा आद्या-शक्ति अपनी दिव्यसत्ता को ले कर स्वयं मानवी का
  रूप धारण करके इस जगत में आविर्भूत हुई थीं. उनका यह मातृरूप धारण - जगत 
के  समस्त मनुष्यों के कल्याणार्थ हुआ था. लोकदुःखहारिणी के रूप में वे 
मनुष्य  को अभय प्रदान करतीं हैं, इसीलिए
  उनका एक नाम है- ' अभया '.वही अभयप्रदा देवी पुनः लोक कल्याण कारिणी -  
वरदायिनी भी हैं, इसीलिए वे ' वरदा ' हैं. वे अपने शरणागत सेवक-भक्तों की  
आश्रयदाता-संतोषविधायनी जननी हैं.
कवि
 ऋषि  अभेदानन्द ने साहित्यिक चेतना के साथ भाव की गंभीरता के साथ काव्य 
मंडित  भाषा में इसी प्रकार इस प्रणम्य जननी के एक एक स्वरूप को उद्घाटित 
किया है.  इस कविता की एक एक पंक्ति में तपस्या  से प्राप्त ध्यान-धारणा 
एवम्  संस्कृत-साहित्यरस से स्निग्ध रसबोध का परम स्पर्श अनुभव किया जा 
सकता है.
       इस
  भावुक कवि की कवि सत्ता से उत्सारित अत्यन्त मनोहर सुषमा मंडित  
काव्य-प्रतिभा की तुलना कविश्रेष्ठ कालिदास के साथ करने की इच्छा होती है. 
 इस भाव कवि ने भाषा के भीतर से अपनी श्रद्धा-भक्ति को पूरी तरह से उड़ेल 
कर  रख दिया है.
अनुप्रासा 
अलंकार  के तारतम्यपूर्ण उच्चारण   की उपस्थिति में. मूल ललित छन्द माधुर्य
 से देवी की करुणा  मूर्ति उद्भषित  हो उठी है. अभेदानन्द  रचित स्त्रोत्र 
के आलोक में परम आराध्या जननी सारदा  का  विश्व-जनीन मातृरूप इसी प्रकार 
पुनः पुनः उद्भाषित हो उठता है.उनकी कवि  मानस में जगत् जननी का एक अन्य 
रूप इस प्रकार कौंध उठा है-
 
 
 
 
गुणहीनसुतानपराधयुतान,  कृपयाद्य समूद्धर मोहगतान् |
तरनीं भवसागरपारकरीम, प्राणमामी पराम जननीम जगताम ||2||
      यहाँ  पर शर्वशक्तिमयी देवी करुणामयी हैं. कृपा करके गोद मे उठा लेने  के कारण उन्हें 
 कृपामयी कहा गया है. अपने गुणहीन सन्तान को भी गुणमय बना  देती हैं. 
मोहाछ्न्न अज्ञानी मानव का उद्धार करने के लिए ही उन्होने  मातृरूप में 
अवतार लिया है. अपराधी के दोष-त्रुटिको धोपोछ कर अपने गुण के  अनुसार, वे 
उसे क्षमा कर देतीं हैं.  इसीलिए वे क्षमा-रूपा जननी  हैं.तरनीं भवसागरपारकरीम, प्राणमामी पराम जननीम जगताम ||2||
इस
 भवसागर से नैया को पार कर देने  वाली खेवैीया वे ही हैं. उनकी कृपा के 
बिना इस जगत-संसार रूपी समुद्र के  पार उतरना असंभव है. इसीलिए उनसे 
प्रार्थना करते हैं- हे तरणी स्वरूपिनी  जगत-जननी सारदा, कृपा कर के मुझे 
भी इस भव संसार-सागर के उसपार पहुँचा दो.  साधक कवि अभेदानन्द भक्त के रूप 
में देवी-आराधना के व्रती हुए हैं. 
  महाशक्ति
  स्वरूपिणी देवी के शरण में जाना होगा, तभी कृपार्थी सन्तान उनकी करुणा से
  वंचित नहीं होंगे. वे करुणा की सागर हैं. उनके कृपा धारा की तरंग राशि  
निरन्तर निःसृत होती रहती है. उसमे अभिस्नात होने के लिए अनन्य शरणागति  
चाहिए. योगी-कवि अभेदानन्द इसीलिए इस स्तव-कविता की हरेक पंक्ति में  
स्मरण-मनन करके देवी-अर्चना का आभास दिए हैं. उन्होंने ध्वनि सुषमा के कवि 
 चेतना से इस प्रकार स्तव साहित्य की रचना की है- 
विषयं कुसुमं परिह्रित्य सदा, चरणाम्बूरुहाआमृतशान्तिसुधां |
पिव भृंगमनो भवरोगहरां, प्राणमामी परां जननीं जगताम ||३||
पिव भृंगमनो भवरोगहरां, प्राणमामी परां जननीं जगताम ||३||
          
  कवि दृष्टि यहाँ पर भक्ति भाव से आप्लूत हो उठी है.  स्थूल विषयों पर से 
 ध्यान हटा कर मन को सूक्ष्म परम तत्व मे परिलूप्त रखना चाहते है. यहाँ  पर
 मन की तुलना भ्रमर के साथ की गयी है. विषय रूपी पुष्प का परित्याग कर  के 
मातृ-श्रीचरण-पद्म मे मन भ्रमर का आश्रय स्थल निर्मित हुआ है. मन रूपी भंवरे से अनुरोध करते हैं, हे मनभ्रमर, चरण पुष्पों अमृत रस रूपी भवरोगनाशक शान्तिसुधा का पान करने मे सर्वदा मग्न रहो.
 मधुकर  (मधुमक्खी )फूल के मधु बिंदू को छोड़ कर और कुछ आहार नहीं करती है,
 किन्तु  अन्य मक्खियाँ सभी प्रकार के रसों को ग्रहण करती हैं.
 उसि
  प्रकार जिनका मन ईश्वर को समर्पित है, वे अन्य किसी संसारी वस्तुओं में  
अपना मनोनिवेश नहीं कर सकते. अर्थात भगवत् -तत्व का आस्वदन कर लेने के बाद 
 इन्द्रिय-विषय तूच्छ हो जाते हैं। क्योंकि
 श्री माँ का  अमृतस्वरूप-तत्व, सर्वरोग-हरण  करके मन को प्रशान्ति के 
कान्ति से परिपूर्ण कर देता है. साधक-कवि  अभेदानन्द आत्म-चिन्तन करने मे 
मग्न एक मधुकर के जैसे हैं. नये
  नये तरीके से बार बार कविता-कली के छन्द-वैचित्र्य से केवल शरणागती के  
महत्व को ही प्रकाशित कर रहे हैं. फिर कभी ध्यानमग्न दृष्टि से कवि, इस  
प्रकार देवी की चरण-वन्दना करते हैं- 
 
 कृपां कूरु महादेवी सूतेषु प्रणतेषु च |
चरणाश्रयदानेन कृपामयी नमोस्तुते || ४||
    
  यहाँ पर पूर्ण शरणागती देखी जा सकती है. कवि देवी के श्री चरण कमलों के  
प्रति अपनी भक्ति को पूरी तरह से उड़ेल रहे हैं. व्यक्ति-सत्ता विकसित हो  
उठी है. उनके आत्मगत भावोच्छ्वास का विकिरण हो रहा है, अहम्-रन्जित
   शरणागती की स्पर्श से, मातृ-चरणों में अपनी भक्ति निवेदित करते हुए कह 
रहे  हैं-हे महादेवी तुम्हारे श्रीचरणपद्म में नमस्कार है, ह्मलोगों की ओर 
अपनी  कृपा दृष्टि फेरो - अपने श्रीचरणों में हमें आश्रय दो.यह छन्द मानो  
श्रीश्रीचण्डी में उक्त महामाया के प्रति देवताओं की स्तुति जैसा प्रतीत  
होता है, और   अभेदानन्द  भी अपनी 
स्तुति-कविता में उसी घराने के ऋषि जैसे प्रतीत होते हैं। ठीक उसी  प्रकार 
से  दया की प्रार्थना कर रहे हैं जिस प्रकार देवता लोग प्रार्थना  करके 
देवी-अर्चना किए थे-चरणाश्रयदानेन कृपामयी नमोस्तुते || ४||
  " या देवी सर्वभूतेषु दया रूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः || ( श्रीश्रीचण्डी, ५/६७ )
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः || ( श्रीश्रीचण्डी, ५/६७ )
          
  सन्यासी के ध्यान नेत्रों के सामने मानवी सारदा का अंतर्निहित देवीत्व  
मानो उन्मोचित हो उठा है. ध्यानी अभेदानन्द की यह दृष्टि ईश्वरीय सायूजज्ता
  को प्रमाणित करता है. इस कवित्वपूर्ण रचना-शैली में उनके मनोमय अन्तरंगता
  के साथ देवी की भावतन्मयता की प्रज्ञा-मूर्ति प्रस्फुटित हो उठी है. कवि 
इस  लेखनी-चित्र में श्रीश्रीमाँ की परम पवित्र भगवती तनु की दिव्य कांति 
को  उकेर दिया है. उनका कवि जीवन् सार्थक है.
 किसी स्तव काव्य को इस प्रकार साहित्यरस के संयोग  से पद-लालित्य में 
सराबोर कर ऐसा लीलाविलास-चित्र प्रस्फुटित  किया जा सकता  है, यह 
अभेदानांदजी के ' सारदा-स्त्रोत्र ' को पढ़े बिना समझा नहीं जा  सकता है. 
निःसंदेह रामकृष्ण-वेदान्त साहित्य के इतिहास मे, यह एक अमूल्य  संयोजन है.
कवि अभेदानन्द की सूक्ष्म-भेदी मानसिकता के सामने एक और रूप प्रस्फुटित हो जाता है-
 
  
कवि अभेदानन्द की सूक्ष्म-भेदी मानसिकता के सामने एक और रूप प्रस्फुटित हो जाता है-
" लज्जापटावृते  नित्यं सारदे ज्ञानदायिके ||
        पापेभ्यो नः  सदा रक्ष कृपामयि नमोस्तु ते || ५||
 देवी
  सारदा लज्जावती थीं. स्वयम् को हर समय आवरण के पीछे रखती थीं. वे कभी  
अपनेको सबके सामने दिखाना नहीं चाहतीं थीं,लोगों की आखों से ओझल रहते हुए  
ही उन्होने देवी लीला की है. क्योंकि लोग यदि उनको पहचान लेते तो दिव्य  
लीला मे व्यवधान पड़ सकता था. इसीलिए वे सब किसी को अपना स्वरुप चट से  
समझने नहीं देतीं थीं.  श्री रामकृष्ण की भाषा में - ' वे रूप ढक कर आईं थीं.' बाद में कोई उनको पहचान सके, इसीलिए उनका यह छ्द्म्वेश था.
     रूपवती
 सारदा का वास्तविक रूप अप्रकाशित है. फिर भी अपरूपा सारदा इतने अलग अलग 
रूपों में रह कर भी अरूपा बनी हुई हैं. क्योंकि  उन्हीं की एक अन्य देवी 
लीला में घोषणा की हैं-" मद्रुपा सकला स्त्रियः। "  समस्त
 स्त्री-जाति उनका ही एक एक रूप है. जगत की प्रत्येक नारी के भीतर  उन्ही 
की शक्ति प्रकाशित है. लज्जा शीला देवी अपने को लज्जा के आभूषण में  ढके 
रखने पर भी, नारी रूप में वे सभी के सामने उद्भाषित हैं. इसी लिए श्री  
श्री चण्डी में देवता लोग श्री श्री देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं-
" या देवी सर्व भूतेशु लज्ज़रूपेण संस्थिता|
नमस्तस्यै , नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः || (श्रीश्री चण्डी, ५/४६ )
नमस्तस्यै , नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः || (श्रीश्री चण्डी, ५/४६ )
    समस्त
  प्राणियों के भीतर देवी लज्जा रूप मे अवस्थित हैं. विशेष तौर से नारी का 
 अर्थ ही लज्जा आवरण है. लज्जा ही नारी जाती का अलंकार है. यह अलंकार नारी 
 के ' मातृत्व-व्यक्तित्व ' को सुन्दर से सुन्दरतर बना कर प्रस्फुटित कर  
देता है. यह लज्जा रूपी आवरण ही वह सर्वोत्कृष्ट शोभा है, जो नारित्व को 
मातृत्व में और, मातृत्व  को देवीत्व में उन्नत कर देता है।
रमणी सारदा लज्जा के आवरण में आवृता हैं. इस लज्जा अलंकार के भीतर से ही उनका विश्वजननी-रूप प्रकाशित होता है. इसी जगन-मातृत्व की शक्ति से वे अपने संतानों की पाप-राशि का हरण करके उन्हें ज्ञान दान करतीं हैं. वे लज्जा रूपी वस्त्र से स्वयं को ढांक कर, संतानों के मन में पवित्र मातृ भाव जाग्रत करा देतीं हैं। जिसके फलस्वरूप उनके उस रूप से ह्मलोग मातृ ज्ञान प्राप्त करते हैं.
रमणी सारदा लज्जा के आवरण में आवृता हैं. इस लज्जा अलंकार के भीतर से ही उनका विश्वजननी-रूप प्रकाशित होता है. इसी जगन-मातृत्व की शक्ति से वे अपने संतानों की पाप-राशि का हरण करके उन्हें ज्ञान दान करतीं हैं. वे लज्जा रूपी वस्त्र से स्वयं को ढांक कर, संतानों के मन में पवित्र मातृ भाव जाग्रत करा देतीं हैं। जिसके फलस्वरूप उनके उस रूप से ह्मलोग मातृ ज्ञान प्राप्त करते हैं.
 
  द्रष्टा अभेदानन्द उनके इस मातृरूप पर मुग्ध होकर स्रष्टा- कवि में  
रूपांतरित हो गये हैं. इसीलिए यह मातृभावना उनके हृदय से काव्य रूप मे  
प्रस्फुटित हो रही है. मातृ वंदनाको परिपूर्ण रूप देने के लिए ही उन्होने  
इस स्तव गीत की रचना की है. यह केवल एक रचना ही नहीं है, यह मानो  
सूर-कवियों की देवी-अर्चना है:
      जननी
  सारदामणि का तन-मन-प्राण श्री रामकृष्ण में समाहित था. उनका चित्त सदा  
श्री रामकृष्ण में ही लिप्त रहता है. श्री रामकृष्ण का नाम सुनने से वे  
आनन्द का अनुभव करती हैं. उनकी श्रवण-इंद्रिय  श्री रामकृष्ण-नाम श्रवण  
करते ही आल्हदित हो जाता हैं. वे सर्वदा श्री रामकृष्ण-भाव में भाविता हैं.
  श्री रामकृष्ण के त्याग-रंग में रंजीता सारदा को बार बार प्रणाम निवेदन 
कर  रहे हैं अभेदानन्द.
 " या देवी सर्व भूतेशु मातृ रूपेण संस्थिता |
                          नमस्तस्यै, नमस्तस्यै,  नमस्तस्यै नमो नमः || ( श्रीश्रीचण्डी, ५/७३ )
 
  श्री श्री माँ सारदा देवी आज ह्मलोगों के लिए जगत जननी हैं. किंतु वे 
श्री  रामकृष्ण की साधना-संगिनी बन  कर आईं थीं. याद्दपि वे सामाजिक 
रीति-नीति  के अनुसार उनकी सहधर्मिणि हैं, तथापि वे श्री रामकृष्ण के ध्यान
 नेत्रों  में जगन-मातृ स्वरूपिनी हैं. उनका विश्व जननी रूप एक एक क्षण में
 अलग अलग  रूप प्रकाशित है.कवि दृष्टि लेकर स्रष्टा अभेदानन्द ने ' अनन्त रूपिणी सारदा ' का और एक रूप को छन्दों में इस प्रकार व्यक्त किए हैं-
  
" रामकृष्णगतप्राणं तन्नामश्रवणप्रियां |
       तद्भावरंजिताकारां  प्रणमामि मुहुर्मू:  || ६||
                  
  मौलिक-चिन्तन प्रसूत अनुभूति की प्रेरणा से अनुप्रेरित होकर वे  
काव्य-पूर्ण छन्दों में उनके स्वरूप का उद्घाटन कर रहे हैं. किन्तु रचयिता 
 के सूललित कंठ-स्वर में छान्दिक-वन्दना के माधुर्य में, देवी सारदा इतना  
 खो जातीं हैं, कि केवल देवी-स्वरूप ही उद्घाटित नहीं होता; बल्कि वे अपने 
 स्वरूप में ही अवस्थित हो गयी हैं. 
साक्षात सारदा देवी के भीतर ही कवि की कल्पना का वास्तविक चित्र प्रस्फुटित हो जाता है. जैसे ही कवि अभेदानन्द अपनी जलद-गंभीर स्वर में आवृति शुरू करते हैं - " रामकृष्णगतप्राणं तन्नामश्रवणप्रियां |
उसे सुनते ही श्रोता सारदा समाधिस्ता हो जाती हैं. स्तव-पाठ करते करते कवि जिस प्रकार रामकृष्ण-नाम में तन्मय हो गये हैं, ठीक उसी प्रकार माँ सारदा भी स्त्रोत्र सुनते सुनते रामकृष्णमय हो उठती हैं.
उनका हृदय श्री रामकृष्ण-भाव सागर में प्लावित होने लगता है- वे अपने को और अधिक देर तक सम्हाले नहीं रख पातीं, स्वयम को भी भूल जाती हैं. विश्व-जुड़ा उनके मातृ-हृदय मंदिर में स्वयम् श्री रामकृष्ण समाहित हो जाते हैं.कवि के अनुभूति-लब्ध भाषा में किया गया वह ' चरित्र-चित्रण', यथार्ततः ' चित्रायित ' हो उठा है; अनुभूति के परम-स्पर्श से- रूपक ने रूप धारण कर लिया है.
साक्षात सारदा देवी के भीतर ही कवि की कल्पना का वास्तविक चित्र प्रस्फुटित हो जाता है. जैसे ही कवि अभेदानन्द अपनी जलद-गंभीर स्वर में आवृति शुरू करते हैं - " रामकृष्णगतप्राणं तन्नामश्रवणप्रियां |
उसे सुनते ही श्रोता सारदा समाधिस्ता हो जाती हैं. स्तव-पाठ करते करते कवि जिस प्रकार रामकृष्ण-नाम में तन्मय हो गये हैं, ठीक उसी प्रकार माँ सारदा भी स्त्रोत्र सुनते सुनते रामकृष्णमय हो उठती हैं.
उनका हृदय श्री रामकृष्ण-भाव सागर में प्लावित होने लगता है- वे अपने को और अधिक देर तक सम्हाले नहीं रख पातीं, स्वयम को भी भूल जाती हैं. विश्व-जुड़ा उनके मातृ-हृदय मंदिर में स्वयम् श्री रामकृष्ण समाहित हो जाते हैं.कवि के अनुभूति-लब्ध भाषा में किया गया वह ' चरित्र-चित्रण', यथार्ततः ' चित्रायित ' हो उठा है; अनुभूति के परम-स्पर्श से- रूपक ने रूप धारण कर लिया है.
कवि
  अभेदानन्द ने में अपनी लेखनी-चित्र में ऐसी एक निर्दोष  जीवन्त छवि को  
उकेरा था कि इस काव्य-चित्र में देवी की अंतर्निहित ध्यानमूर्ति- सचमुच  
व्यक्त रूप में प्रकट हो जाती है. इसिप्रकार अनुभूति के आलोक में  
अभेदानन्दजी के मानस नेत्रों के आगे विश्व रूपिनी सारदा मणि की एक एक  
माधुर्य मंडित मूर्ति उद्भासित हो उठी है,-
 
  
 पवित्रं चरितं यस्याः पवित्रं जीवनं तथा|
पवित्रतास्वरुपिनैय तस्ययी देव्यो नमो नमः ||
  
पवित्रतास्वरुपिनैय तस्ययी देव्यो नमो नमः ||
         
  द्रष्टा कवि यहाँ पर स्रष्टा बन जाते हैं. उनके ध्यान मानस में देवी का  
परम पवित्र जीवनचित्र झलक उठता है. इस स्तव-चित्र में शुद्धसत्व दिव्यसत्ता
  मे गठित मानवी-विग्रह सारदा देवी की पूत-तपः मूर्ति उन्मोचित हो उठी  है.
  कवि के ध्यान नेत्रों के सम्मुख तपस्विनी- जननी की पूत-पवित्र भावपूर्ण 
बना  देने वाली ममतामयी ओजःशक्ति विकसित हो उठती है.
          त्याग
 और वैराग्य के आलोक से आलोकित,  तपस्या रूप साध्य-साधना द्वारा अर्जित 
एवं  उत्सारित- स्वतः सिद्ध अपने उस  ज्ञान भण्डार को माँ सरस्वती के जैसा 
ही वे भी इस म्रत्यलोक में पूरी तरह  से वितरित कर देती हैं. काली-तपस्वी 
के ज्ञाननेत्रों में- तपस्विनी सारदा  की प्रज्ञा मूर्ति इसी रूप में में 
दिखाई देती हैं, और वही छवि लेखनी-चित्र  में उकेरी हुई है.
     
 त्याग
 और वैराग्य के आलोक से आलोकित,  तपस्या रूप साध्य-साधना द्वारा अर्जित 
एवं  उत्सारित- स्वतः सिद्ध अपने उस  ज्ञान भण्डार को माँ सरस्वती के जैसा 
ही वे भी इस म्रत्यलोक में पूरी तरह  से वितरित कर देती हैं. काली-तपस्वी 
के ज्ञाननेत्रों में- तपस्विनी सारदा  की प्रज्ञा मूर्ति इसी रूप में में 
दिखाई देती हैं, और वही छवि लेखनी-चित्र  में उकेरी हुई है. 
प्रज्ञादीप्त काली-वेदान्ती की दृष्टि मानों सर्वयापी थी - उनके चक्षु उन्नत और उन्मुख थे. एक ही आधार में वे साधक होने के साथ साथ शिल्पी भी थे. उनमें शिल्पकार-चेतना और श्रुतिनन्दन से भरपूर काव्यिक संवेदनशील मानसिकता थी.
  
 
 
देवीं प्रसन्नम प्रणतान्त्रिहन्त्रीं, योगीन्द्रपूज्यां युगधर्मपात्रीं |
तां सारदां भक्तिविज्ञानदात्रीं दयास्वरुपाम प्रणमामि नित्यं || ८ ||
       माँ
  सारदा को श्री रामकृष्ण कहते थे,- ' तुम मेरी आनन्दमयी हो '. प्रसन्नमयी 
 सारदामयी श्रीरामकृष्ण की दिव्य अनुभूति में जिस प्रकार माँ आनन्दमयी रूप 
 में आविर्भूत हुई हैं, ठीक उसी प्रकार अभेदानन्द की सूक्ष्म कविदृष्टि में
  भी वह मातृरूप पकड़ में आ गया है. इसीलिए अभेदानन्द की यह काव्य प्रज्ञा 
 ऋषियों के जैसा आध्यात्मिक अनुभूति के आलोक में समृद्ध है.
उपनिषदों के कवि-ऋषियों जैसा उनको भी त्रिकालदर्शी, त्रिकालज्ञ कहा जा सकता है. उनकी छन्दस्पन्द रचनाशैली के भीतर ज्ञाननिष्ट भक्ति संजात मौलिकता की छाया है. उनके स्तव साहित्य में ज्ञान-भक्ति-प्रेम-योग समस्त भावों का सम्मिलन हुआ है. फिर कभी उनकी स्त्रोत्र-प्रतिभा में अंतर की अंतर्लीन फल्गु धारा निःशब्द मिलजुल कर एककार हो गयी है, तथा भक्ति निष्णात मनन और लेखनी में प्रवाहित हुई है. स्तव गाथा रचना अभेदानन्द मानस भक्तनिष्ठ भाव तन्मयता में परिपूर्ण रूप धारण कर लिया है.
 तपस्विनी
 सारदा की हित-एषणा से समृद्ध होकर  स्त्रोत्रकार बारम्बार  कृतज्ञता 
स्वीकार करते हैं. क्षमारूपा श्वेतशुभ्रा  सारदा-सरस्वती के आगे वे खुद को 
दोषपूर्ण  सन्तान कह कर घोषित किए हैं.  उनके सत्वगुण के पवित्र परम स्पर्श
 से सबकुछ विशुद्ध-पवित्र बन जाता है.वे  शरणागत संतानों को तो ऐश्वर्य से 
भरपूर कर देतीं हैं. जबकि स्वयम उनमें (  माँ सरदा में ) ऐश्वर्य का 
लेशमात्र भी नहीं था.
  श्री  रामकृष्ण की दृष्टि में पवित्रता-रूपिनी ये जननी- ' साक्षात सरस्वती  ज्ञानदायनी थीं.'
 सारदा रूपिणी सरस्वती समस्त ज्ञान और समस्त विद्या की  अधिकरिणी थीं. 
किन्तु उनकी यह विद्या और ज्ञान शास्त्र-अध्यन द्वारा  अर्जित नहीं हुई थी,
 यह विद्या तो पराविद्या थी- जो उनके हृदयपद्म से उत्सारित हुई थी.प्रज्ञादीप्त काली-वेदान्ती की दृष्टि मानों सर्वयापी थी - उनके चक्षु उन्नत और उन्मुख थे. एक ही आधार में वे साधक होने के साथ साथ शिल्पी भी थे. उनमें शिल्पकार-चेतना और श्रुतिनन्दन से भरपूर काव्यिक संवेदनशील मानसिकता थी.
षोड़शी
 सारदा को वर्णमाधुर्य के वैशिष्ट  में शान्त-स्निग्ध-कमनीय-नमनीय रूप में 
व्यक्त करते हैं. इन छन्दों में जिस  प्रकार देवी की लालित्यपूर्ण प्राणवंत
 मातृसत्ता प्रकट होती है, उसी  प्रकार कवि की भावस्निग्ध शैल्पिक-सत्ता भी
 उज्जवल से उज्जवलतर रूप में  प्रस्फुटित हुई है. काव्य रचना में उनका 
छ्न्द माधुर्य और सौन्दर्यबोध है,  वह भी शिल्पी मन को भावुक बना देता है.
छन्दमय देवी वहाँ छन्द-छन्द वंदिता हैं. छन्दपथ में अबाध विचरण है, कहीं  एक रत्ती भर छन्द पतन नहीं हुआ है. कहीं अनुष्टप छन्द में तो कहीं  त्रिपदि, एकावली छन्द
 में सारदामाता का क्षमासुन्दर प्रसन्नोजज्वल  त्यागदीप्त अंतर की शुचिता 
को व्यक्त किए हैं. देवी-वंदना करते हुए द्रष्टा  अभेदानन्द की कविसत्ता 
आगे भी इस प्रकार व्यक्त होती है-देवीं प्रसन्नम प्रणतान्त्रिहन्त्रीं, योगीन्द्रपूज्यां युगधर्मपात्रीं |
तां सारदां भक्तिविज्ञानदात्रीं दयास्वरुपाम प्रणमामि नित्यं || ८ ||
उपनिषदों के कवि-ऋषियों जैसा उनको भी त्रिकालदर्शी, त्रिकालज्ञ कहा जा सकता है. उनकी छन्दस्पन्द रचनाशैली के भीतर ज्ञाननिष्ट भक्ति संजात मौलिकता की छाया है. उनके स्तव साहित्य में ज्ञान-भक्ति-प्रेम-योग समस्त भावों का सम्मिलन हुआ है. फिर कभी उनकी स्त्रोत्र-प्रतिभा में अंतर की अंतर्लीन फल्गु धारा निःशब्द मिलजुल कर एककार हो गयी है, तथा भक्ति निष्णात मनन और लेखनी में प्रवाहित हुई है. स्तव गाथा रचना अभेदानन्द मानस भक्तनिष्ठ भाव तन्मयता में परिपूर्ण रूप धारण कर लिया है.
स्तव  साहित्य रचना के इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर देखा जाएगा कि आचार्य शंकर,  श्री चैतन्यदेव, कवि जयदेव, विल्वमंगल, और पुष्पदन्त के नामों के आसपास ही  स्वतः स्फूर्त रूप से उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी आचार्य अभेदानन्द का नाम  भी आ जाता है.
इनमें
 से प्रत्येक की  रचनाओं के भीतर एक सुषम माधुर्य परिलक्षित होता है. 
किन्तु अभेदानन्द की  रचनाओं में यह माधुर्य और मौलिकता और भी अधिक प्रबलतर
 हो उठी है. इसी  वैचित्र्य और वैशीष्ठ के गुण के कारण वे और भी उज्ज्वलतर 
बन कर संस्कृत  स्त्रोत्र काव्य रचयिता के आसन पर सुशोभित हो उठते हैं. 
स्तवगीत के कमलवन में वे मानो एक प्र्सफुटित सह्स्रदल कमल हैं.
     किन्तु  इस विकसित रूप अंकन के पिछे करुणामयी जननी सारदामणि की अशेष कल्याणमयी  भूमिका है. इस तथ्य को स्वीकार करते हुए, वे कहते थे- ' माँ ' ठाकुर से भी  अधिक दयालु हैं '.
 स्वयम् विवेकानन्द भी यही बात कहते थे. इसका तात्पर्य यह  हुआ कि उन्होने 
ठाकुर श्री रामकृष्ण से भी अधिक श्रीश्रीमाँ सारदा का  कृपा-सानिध्य 
प्राप्त किया था. वे लोग मातृशक्ति के बल से ही शक्तिमान हो  उठे थे.   
 अभेदानन्दजी
  देवी सारदा की छन्दबद्ध स्तव-कविता के बीच में कृपामयी कह कर वंदना किए  
हैं. वे कृपा कर के शरणागत संतानों को विपत्ति से तार देतीं हैं. इसीलिए वे
  विपद-तारिणी हैं. इसीलिए तो देवताओं की श्रीश्रीदेवी से कातर प्रार्थना  
है-
 
  
  ' शरणगतदीनार्तपरित्राणपरायेणे,
                                  सर्वस्यार्तिहरे  देवी नारायणी नमोस्तुते || (श्रीश्रीचण्डी, ११/१२ ) 
वे
  शरणार्थी, दीन और आर्त जनों का परित्राण परायण करती है तथा सभी के दुख का
  नाश करती हैं. इसीलिए तो देवी विपद नाशिणी और दुख हरिणी हैं.
 देवी
 का और भी अनेको रूप है. वे मानो  यहाँ पर रूप रूप में अरूपा होकर अवस्थित 
हैं. सभी कुछ के भीतर उन्हीं का  अस्तित्व ओतप्रोत है. युगों युगों से वे 
धर्मपालिका के रूप में आविर्भुत  होतीं हैं. भटके हुए मानव कुल को वे 
युगधर्म पालन में प्रबुद्ध करतीं हैं,  एवम् सभी के लिए श्रद्धा की पात्री 
बन जातीं हैं. यहाँ तक कि योगियों के  लिए भी परम पूजनिया हैं.
 वास्तव  में वे साधक-संतान योगियों की जननी- महयोगिनी हैं. हर समय वे योग के भीतर  ही अवस्थित रहतीं हैं.
 उनके भीतर समस्त योग मिलजुल कर एककार हो गये  हैं. किन्तु कृपा मूर्ति के 
अंतराल में रहते हुए वे सदा भक्ति  योग प्रदान करतीं थी, उनके जीवन-चरित के
 मध्यम से भक्ति की पराकाष्ठा प्रकट  हो उठी है.  इसीलिए अभेदानन्दजी उनको ' भक्ति-विज्ञानदात्री ' कह कर अभहित किए हैं.
 सारदादेवी
 भक्तिरूपी विशेष-ज्ञान की विधायनी हैं. भक्तिमती जननी के भीतर कवि  इसबार 
स्नेहमय ममतामय मातृसुलभ करुणा चित्र एवम् वह भाषा शैली की नैवेद्द्  से 
भरा अर्ध्य इस प्रकार सज़ा देते हैं-
' स्नेहेन वध्नासि मनोस्मदीयम, दोषान शेषान सगुणी  करोषी  |
  अहेतूना नो दयसे सदोषान,  स्वांके गृहीत्वा यदिदं  विचित्रं   || ९ ||  
इस
  बार कवि स्नेहशीला सारदामाता की अहेतुक स्नेह को देख कर आश्चर्यचकित हो  
गये हैं. मातृस्नेह के डोरी से स्वयम् को आबद्ध कर लिए हैं. वे यह सोच कर  
अवाक हो गये हैं कि देवी अपने संतान के अशेष दोषों को मिटा कर गुणमय किस  
प्रकार बना देतीं हैं!वे बहुत  
खोजने से भी इस बात का कोई कारण न्हीं खोज पा रहे हैं कि जननी दुष्ट संतान 
 से भी तुष्ट होकर उसे अपनी गोद में कैसे उठा लेतीं हैं ?  इसीलिए तो 
संतानों  के लिए माँ की यह गोद एक अति विस्मयकारी स्नेहनीड़  है, एक 
प्राणों को  जुड़ा देने वाला स्निग्ध शीतल आवासस्थल है.
देवी
  की अपार अपार्थिव स्नेहशक्ति को देख कर कवि की चेतना में उनकी प्रशान्त  
मातृमूर्ति प्रकट हो उठती है. लावण्यमयी सारदा का जो अंतर्निहित स्नेहमंडित
  लालित्यपूर्ण स्वरूप जो अब तक  छुपा हुआ था, वह काव्यशिल्पी रचित इस नवम 
 सूक्त में प्रकाशित हुआ है. अभेदानन्दजी की काव्ययीक सत्ता यहाँ  
शैल्पिकसत्ता में उन्नीत हो गयी है.
 यह
 ठीक है कि किसी शिल्पी के  जैसा उन्होंने रंग-तुलिका का प्रयोग कर 
चित्रांकित नहीं किया है, किन्तु  काव्यशिल्पी की लेखनी से उन्होंने जैसा 
वर्णमाधुर्य के वैचित्र्य से देवी  का जो रूपचित्र प्रस्फुटित कर दिया है 
वह किसी चित्र-शिल्पी की तुलना में  किसी भी अंश मे कम नहीं है. यहीं पर 
कवि के शिल्पिकार भी होने का विशेषत्व  प्रकाशित हो उठा है.
वे
 रंग के बदले भाषा का प्रयोग कर छवी  उतार लेते थे. उनके मननशीलता की गहराई
 इसी उच्च कोटि की थी. किसी  अंतरद्रष्टा ऋषि के समान उन्होंने देवी की 
अन्तहप्रकृति को प्रत्यक्ष किया  था; तथा वह इस काव्यचित्रमें परिपूर्णता 
के साथ विकसित हो उठा है.
              
  सारदास्त्रोत्र का यह सूक्त देवी की कल्याणमयी भावमूर्ति को और भी अधिक  
कमनिय-नमनीय बना देता है. मातृ-भक्त सन्तान जब पाठ करते करते यहाँ पहुँच  
जाता है, तो वह भावविह्वल हो कर मातृसानिध्य-सुखानुभव  में खो जाता है.  
श्री श्री माँ की क्षमा सुन्दर करूणाधारा स्वतःस्फूर्त रूप से उसके हृदय को
  आप्लावित कर देती है.इसी श्रेणी के पाठक रसराज अमृतलाल बासू के दोनों नयन पढ़ते समय अश्रुसिक्त हो उठे थे. रसराज अमृतलाल ने पाठ करते हुए जब सूक्त के इस अंश ' दोषानशेषान् सगुणीकरोशी ' का पाठ किया, तो वे मातृभाव में विभोर हो कर छलकते हुए नेत्रों से रचयिता अभेदानन्दजी से कहे थे -' महाराज, श्रीश्रीमाँ के प्रति रचित आपके स्त्रोत्र का कम से कम यह( ' दोषानशेषान् सगुणीकरोशी ') अंश चिर दिनों तक अमर रहेगा.'( विश्वरूपिनी माँ सारदा,पृष्ठ ९०)
 वास्तव
  में इस स्त्रोत्र रचना के भीतर जो मातृतत्व- चिंतन समाहित था, वह यहाँ  
पहुँच कर जीवन्त हो उठा है. स्तव-विग्रह यहाँ प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर 
 होने लगता है. मातृशक्ति प्राणवंत हो उठती है. यदि इस नवम सूक्त को निकाल  दिया जाय तो देवी-वन्द्ना अधूरी रह जाएगी. और देवी की एक प्राणहीन  स्तुतिविग्रह निर्मित होती. इसीलिए प्राणवन्त देवी को प्राणमय बना देने के  लिए इस स्तवकाव्य का यह अपरिहार्य सूक्त है.  
   
  स्तुति-कविता के सभी एग्यारह स्त्रोत्र अलंकार के अभिनवत्व की दृष्टि से 
 अतुलनीय है. रचना शैली के वैचित्र्य और निपुण शिल्पी के प्रभाव से 
प्रत्येक  श्लोक ही मर्मस्पर्शी हो उठा है. काव्यरचना की भाषाशैली के 
प्रयोग विधि के  चमत्करित्व में अभेदानन्दजी का अवदान अतुलनीय है. इस स्तव 
चित्र में  वाक्यलावण्य से शिल्पमाधुर्य का परमस्पर्श परिपूर्ण रूप से 
प्र्सफुटित हुआ  है. अभेदानन्दजी की स्तवरचना में यह शिल्पिक वैशिष्ट विशेष रूप से दर्शनीय है. शायद इसीलिए नाट्य-आचार्य अमृतलाल बसु ने कहा है- ' आचार्य शंकर के बाद इतने सूललित छन्दों की स्त्रोत्र रचना और कहीं सुनाई नहीं देती है.'
 इसके
 पहले भी अनेको स्त्रोत्र काव्य रचित  हुए हैं, वर्तमान में भी अनेको 
स्त्रोत्र रचे जा रहे हैं, एवम् आने वाले  दिनों में भी कितने ही स्त्रोत्र
 रचे जाएँगे. किन्तु कितने स्त्रोत्र मानव  हृदय में स्थान बना पाते हैं ? 
या पाठक समाज में कितने स्त्रोत्र चिर-काल तक  अमर रह पाते हैं ? वही 
रचनाएँ चिर-काल तक जीवित-स्मृत रहतीं हैं, जहाँ  हार्दिक अनुभूति का स्पर्श
 दिख पड़ता है, और जहाँ कवि द्रष्टा होते हैं।
उनके
  ध्याननेत्र में दर्शन के जैसा स्पष्ट चित्र झलक उठता है. या कभी वह वाणी 
 उनके कानों में सुनाई दे जाती है. यह भाषासाहित्य तपस्यालब्ध ध्यानमग्नता 
 में स्वतःउत्सारित नीनादध्वनि  ही तो है. जिसको पढ़ने मात्र से ही वह पाठक
  के हृदय को स्पर्श करती है, और चिंतन को अतिन्द्रिय जगत् में पहुँचा देती
  है.
इसी ईश्वरीय जगत् में बैठ कर  
साधनाजन्य ध्यानगंभीर भाषाशैली के माध्यम से अभेदानन्दजी ने इस  
स्तव-साहित्य को रचा है. इसीलिए साधक कवियों की रचनाओं में अन्य साधारण  
कवियों की अपेक्षा एक वैशिष्ट परिलक्षित होता है. इसी वैशिष्ट और  
वैचित्रपूर्ण लेखनी से अभेदानन्दजी आगे लिखते हैं-
 
 
    " प्रसीद मातर्विनयेन् याचे, नित्यं भव स्नेहवती सूतेषू   |
                     प्रेमैकबिन्दुम  चिरदग्धचित्ते, विषिंच चित्तम कुरू नः सुशान्तम   || १० ||
  यहाँ
  पर विनय के साथ मातृचरण-वंदना कर रहे हैं. पूर्ण शरणागती है. सविनय  
प्रार्थना कर रहे हैं- हे देवी प्रसन्न होओ; संतानों के प्रति स्नेह-वत्सला
  होओ; हे स्नेहमयी, स्नेह-वारि वर्षन करो, ह्मलोगों के तप्तहृदय को अपना  स्निग्ध शान्ति-वारि की एक बूँद छीड़क कर शान्त करो. इस दुःखमय संसार में  आकर ह्मलोग दग्धचित्त हैं, तुम एक बूँद स्नेह-वारि छिड़क कर ह्मलोगों को  शान्त करो.
    प्रशान्तमयी
  स्नेहशीला सारदा, अपने संतानों के प्रति सदा प्रसन्ना हैं. उनकी करुणा  
अहेतुक है. प्रसन्न चित्त हो कर वे सभी को कृपा वितरण करतीं हैं. किसी से  
भी वे रुष्ट नहीं होतीं. वे क्षमाशीला हैं. क्षमा ही उनका आभूषण है. क्षमा 
 रूप तपस्या में वे सिद्ध हैं. इसीलिए उनको ' क्षमारूपा-तपस्विनी ' कहा 
जाता  है. उनका स्नेह-प्रेम अपार असीम है. इसीलिए अभेदानन्दजी कहते हैं, ' 
 प्रेमैकबिन्दुम चिरदग्धचित्ते '.
दग्धहृदय सन्तान को वे प्रेमवारि से सिंचन कर के सांत्वना देती हैं. वे परम शान्तिमयी जननी हैं. सदा सन्तान के कल्याण-कामना में ही रत रहतीं हैं. सन्तान की व्यथा को देख कर समव्यथी हो उठती हैं. उनके सुख को देखकर वे भी सुखी होती हैं.
दग्धहृदय सन्तान को वे प्रेमवारि से सिंचन कर के सांत्वना देती हैं. वे परम शान्तिमयी जननी हैं. सदा सन्तान के कल्याण-कामना में ही रत रहतीं हैं. सन्तान की व्यथा को देख कर समव्यथी हो उठती हैं. उनके सुख को देखकर वे भी सुखी होती हैं.
सन्तानगतप्राणा
  सारदा देवी के भीतर अतुलनीय मातृस्नेह था. जिस प्रकार अपने सेवक-सन्तान  
अभेदानन्द के प्रति उनमें अशेष करुणा थी, उसी प्रकार अभेदानन्दजी में भी  
आश्चर्यजनक मातृभक्ति थी. इस स्तव-वंदना में उनके हृदय की संपूर्ण भक्ति  
प्रकाशित हुई है. इस स्त्रोत्र-चरित्र में मातृभक्ति का एक अनन्य निर्देशन 
 प्रतिफलित होता है. अभेदानन्दजी द्वारा रचित यह मातृस्तुति सुकवियो के  
देवी-स्तुति के समान चिर-काल तक स्मरणीय बनी रहेगी. 
यह
 मातृसूक्त मातृ-आशीष  की परिपूर्ण अभिव्यक्ति से समृद्ध है. माता  सारदा 
मानो इसके भीतर से कृपापूर्वक  स्वयम् ही प्रकाशित हो रही हैं.  
स्तव-रचयिता अभेदानन्द की लेखनी से यही मातृकरुणा-धारा प्रवाहित हुई है.  
सारदा-सरस्वती उनके कंठ में आरोपित होकर लेखनी-चित्र में अभिव्यक्त हुई  
हैं.
            निःसन्देह
  व्याख्यान देने के समय भी वाग्देवी सारदा उनके कंठ में वाणी देती थीं,  
एवम् इसी शक्ति से शक्तिमान होकर वे विश्ववासियों के हृदय को जीत लेने में 
 समर्थ हुए थे. पाश्चात्य के बड़े बड़े सभाओं  में माँ का दिया हुआ वही  
आशीर्वाद ' তোমার মুখে সরস্বতী বসুক ' - ' तुम्हारे मुख में सरस्वती का वास
  हो ' वास्तविकता में रुपयित हुआ था, एवम् स्वर्ण कंठ से निसृत वह वाणी  
विश्ववासियों के कर्ण-गुहाओं में प्रविष्ट हो गयी थी. उनकी वही  
स्वर्ण-वर्षा करने वाली वाणीकंठ की बात आज भी प्रत्यक्ष दर्शियों के मुख से
  सुनी जाती है.
कोई कोई तो उस वीणापाणि के वरदान से शक्तिमान वाणीकंठ की बातों का उल्लेख करते समय भावविह्वल भी हो जाते हैं. वाग्देवी की कृपा से वे एक असाधारण वाणी-शिल्पी बन गये थे. सरस्वती रुपिणी सारदा कभी उनकी वाणीमूर्ति में तो कभी वाणी कंठ के भीतर से प्रकाशित हुई हैं.
कोई कोई तो उस वीणापाणि के वरदान से शक्तिमान वाणीकंठ की बातों का उल्लेख करते समय भावविह्वल भी हो जाते हैं. वाग्देवी की कृपा से वे एक असाधारण वाणी-शिल्पी बन गये थे. सरस्वती रुपिणी सारदा कभी उनकी वाणीमूर्ति में तो कभी वाणी कंठ के भीतर से प्रकाशित हुई हैं.
यह
  मानो अपनी ही शक्ति से स्वयम् ही प्रकाशित होने जैसी बात है. किन्तु  
स्त्रोत्रकार अभेदानन्दजी केवल वाणीचित्र गढ़ते हों, या कंठशिल्प के  
माधुर्य प्रकाश से ही उन्होंने  देवी का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया था, वैसी
  बात नहीं है, उन्होंने उनकी अशेष करुणा से समृद्ध होकर जो विश्वरुपिणी  
मातृशक्ति का प्रकाश प्रत्यक्ष किया था, उसका वर्णन वे इस प्रकार करते हैं 
 :-
" 
श्रीश्री  माँ की अजस्र करुणा और आशीर्वाद मेरे उपर था। श्रीश्री माँ सबों 
की  करुणामयी माँ थीं. वे बिल्कुल एक सरल बालिका के जैसी थीं. बाहरी लोगों के  सामने वे नितांत लज्जाशीला थीं, किन्तु भक्त-संतानों के निकट सर्वदा ही  हास्यमयी थीं.
 श्रीश्री माँ स्वाभाविक रूप से ही अति साधारण स्त्रियों  के  जैसे रहतीं 
थीं, देखने से ऐसा मालूम पड़ता- मानो वे दुनिया की कोई भी बात  नहीं जानती 
हों. किन्तु उनकी आँखें त्रिकाल दर्शी थीं. वे अपनी  ज्ञान-चक्षुओं से भूत,
 भविष्य, वर्तमान सबकुछ देख सकतीं थीं. असामान्य  बुद्धिमती और महीयसी नारी
 थीं श्रीश्रीमाँ, किन्तु बाहर से समस्त  ऐश्वर्य-आडंबरहिना हैं.
   थोड़ा  सा भी अलौकिक या विभूति का विकास उनके भीतर नहीं देखा जा सकता है. वे  बिल्कुल किसी सीधी-साधी गाँव की ( देहाती) ग्रामीण महिला जैसी सरला थीं, फिर  सर्वज्ञानमयी और करुणामयी साक्षात -जगत् जननी हैं। श्री
 श्री ठाकुर के  जीवन् में हाँलाकि थोड़ा थोड़ा ऐश्वर्य का प्रकाश था 
किन्तु श्रीश्रीमाँ  सर्वऐश्वर्य- विहीना थीं. सकल ऐश्वर्य और शक्ति को वे 
अपने भीतर गुप्त करके  रखे हुए थीं. क्या ही महीयसी नारी थीं श्रीश्रीमाँ !
 शास्त्र की भाषा में  उनकी महिमा का बखान करें तो कहना होगा-   ' तं 
दूर्ददर्श्म निगुढ्म ' -  श्रीश्रीमाँ का भाव और प्रकृति दुर्विज्ञेय और 
अति निगूढ थी |"  (विश्वरूपिणी माँ सारदा, पृष्ठ ८२-८३ )!
मातृगत प्राण अभेदानन्द जी कहा करते थे- " मेरे जैसे गूंगे को भी श्रीश्री माँ ने वाचाल बना दिया था. नहीं तो इंग्लैंड और अमेरिका के शिक्षा-संस्कृति सम्पन्न विदग्ध पंडित समाज और ईसाई-पादरियों के सम्मुख मेरे जैसा एक नगण्य भारतवासी की क्या कभी सफलता का विजय-तिलक लगा पाने में समर्थ हो सकता था. यह सब कुछ करुणामयी श्रीश्रीमाँ और श्रीश्री ठाकुर की कृपा है. " (वही, पृष्ठ ८२-८३ )
मातृगत प्राण अभेदानन्द जी कहा करते थे- " मेरे जैसे गूंगे को भी श्रीश्री माँ ने वाचाल बना दिया था. नहीं तो इंग्लैंड और अमेरिका के शिक्षा-संस्कृति सम्पन्न विदग्ध पंडित समाज और ईसाई-पादरियों के सम्मुख मेरे जैसा एक नगण्य भारतवासी की क्या कभी सफलता का विजय-तिलक लगा पाने में समर्थ हो सकता था. यह सब कुछ करुणामयी श्रीश्रीमाँ और श्रीश्री ठाकुर की कृपा है. " (वही, पृष्ठ ८२-८३ )
 श्रीश्रीठाकुर
  और श्रीश्रीमाँ का आशीर्वाद प्राप्त करके ही उन्होंने अपने जीवन में  
विजय-यात्रा का प्रारम्भ किया था. वे उन दोनों की करुणा को प्राप्त करके  
धन्य हुए थे. उन्होने जिस प्रकार श्री श्री माँ का स्तवचित्र
 अंकन किया था,  उसी प्रकार प्रकार श्री श्री ठाकुर की पूर्ण अवतार लीला को
 भी स्त्रोत्र  रचना के माध्यम से चित्र रूप में प्रासफुटित किया था. उनकी 
कवि दृष्टि में  ठाकुर और माँ अभिन्न थे. 
एक
 दूसरे से अ पृथक थे. एक ही सिक्के के दो पहलू  जैसे समान मूल्यवान थे. 
ब्रह्म और शक्ति के बीच उन्होंने कोई अंतर नहीं  देखा था. ब्रह्मरूपी श्री 
रामकृष्ण और शक्तिरूपिणी  माँ सारदा को उन्होंने  अभेद दृष्टि से देखा था. 
दोनो ही उनके लिए आराध्य देव-देवी थे. इसीलिए    युगल-जोड़ी को निवेदित उनकी प्रार्थना है-
          " जननीं सारदाम देवीं रामकृष्णम जगदगुरुम |
                      पादपद्मे त्यो: श्रितवा प्रणमामि  मुहुर्मूह: || " ११|| 
सारदा-स्त्रोत्र
  का अंतिम श्लोक विशेष तातपर्यपूर्ण है. इस एक ही सूक्त में अभेदानन्दजी 
ने  रामकृष्ण-सारदा की युगल-वंदना किए हैं. उनकी दृष्टि में जिस प्रकार शिव और  शक्ति अभेद हैं, ठीक उसी प्रकार श्रीश्री ठाकुर और श्रीश्री माँ एक और  अभिन्न हैं. 
 श्रीश्रीमाँ
  और श्रीश्रीठाकुर नाम और रूप में भिन्न होने पर भी स्वरूपतः वे अभिन्न  
हैं. इसीलिए वे एक ही मन्त्र में  उन दोनो को प्रणाम निवेदन कर रहे हैं.  
पहले वे माता सारदा को प्रणाम निवेदित करते हैं, उसके बाद जगत्- गुरु  
श्रीश्रीरामकृष्ण के पादपद्मों की वन्दना करते हैं. यहाँ पर जननी सारदा  देवी गुरुदेव रामकृष्ण से पहले वंदिता हुई हैं.
भारतीय  आध्यात्मिक शास्त्रो में पिता की अपेक्षा माता का स्थान अग्रगण्य  माना  गया है. इस रीति के अनुसार अभेदानन्दजी के आध्यात्मिक जगत् के पिता भगवान  श्री रामकृष्ण का स्थान माता सारदा के बाद ही आता है. 
इसीलिए
  सरदा-स्त्रोत्र के अंतिम चरण में माता सारदा देवी को पिता श्रीरामकृष्ण 
के  पहले स्थापित करके उन्होंने  मातृशक्ति और श्रद्धा को और भी अधिक 
उज्ज्वल  तर किए हैं. निःसंदेह श्री रामकृष्ण के प्रति भी उनमें समान 
श्रद्धा थी,  इसीलिए बारंबार दोनों को प्रणाम निवेदित किए हैं.
 अभेदानन्दजी
  केवल कविदृष्टि लेकर स्तव-कविता के माध्यम से देवी सारदा की वंदना किए  
हैं, ऐसा कहने से उनका यथार्थ मूल्यांकन नहीं होगा. यद्दपि इस वंदना गिति  
में उनकी  शिल्पी-मानसिकता का स्पष्ट परिचय मिल जाता है, एवम् सर्वजन  
परिचित इस स्त्रोत्र-चित्र के अनुकूल ही ह्मलोग आसानी से उनका मूल्यांकन 
कवि  और लेखक के रूप में कर सकते हैं.
किन्तु
  इस सारदा-स्त्रोत्र के आलोक में ही उनके मातृसानिध्य को सीमाबद्ध कर देना
  उचित नहीं होगा. कारण, केवल तात्विक मानस-सानिध्य ही नहीं, व्यावहारिक  
सानिध्य अर्थात देवी सारदा की सेवा करने का सूअवसर और उनके पवित्र-सानिध्य 
 को प्राप्त करने का सौभाग्य भी विभिन्न समय पर अभेदानन्दजी को मिला था. वे
  श्रीश्री माँ के विशेष स्नेहधन्य और आशीर्वादपूत सन्तान थे.
उनको
  यह विशेष मातृ-आशीष प्राप्तकरने का कारण था की वे सेवक-संतानों के बीच  
अपेक्षाकृत कनिष्ठ थे. और श्रीश्री माँलज्जावती थीं. वे हरसमय स्वयम् को  
लज्जा रूपी आभूषण में आवृत रखतीं थीं. किसी के भी सामने वे झट से अपना  
घुंघट नहीं उठा देतीं थीं. किन्तु छोटे बच्चों के सामने उनका यह लज्जा आवरण
  उन्मुक्त रहता था।  उनके साथ घुल-मिल कर बातचीत करने में उनको दुविधा 
नहीं   होती थी. और अपेक्षाकृत बड़े बुजुर्गों के सामने वे पर्दे के भीतर 
रह कर ही  लज्जाशीला होकर धीरे धीरे बातचीत किया करतीं थीं. इसीलिए 
अभेदानन्दजी  दूसरों की तुलना में, अपेक्षाकृत छोटा रहने के कारण माँ सरदा 
उनके साथ  निःसंकोच बातचीत करतीं थीं, एवम् कोई दुविधा बोध नहीं करती थीं. 
स्नेह-वत्सला
  श्रीश्रीमाँ उस समय अपने अन्तरंग अभेदानन्दजी इतना स्नेह करतीं थीं, कि  
उनको अपने हाथों से दैनन्दिन कार्यों में सहयोगी होने का भी सुयोग कर दी  
थी. इस बात को स्वामी अभेदानन्दजी ने अपने सुयोग्य शिष्य स्वामी  
प्रज्ञानन्दजी से अपनी स्मृति के परतों को खोलते हुए कहा था- " श्यामपूकूर 
 वाले गृह में जब श्रीश्री ठाकुर के पेट में रोग होने पर डाक्टर लोग पथ्य  
देने की व्यवस्था किए तो उसमें भात और उगली का झोल खाने को बोले थे. उस समय
  श्रीश्रीमाँ मुझको उगलो खरीद कर लाने के लिए बाजार भेजती थी. मैं बाजार 
से  उगली खरीद कर लाता और ईंट से उसका छिल्का तोड़ कर तैयार कर देता था, और
  श्रीश्रीमाँ झोल पका कर श्रीश्री ठाकुर को खाने के लिए देती थीं." ( 'मन 
और  मनुष्य', ३रा, पृष्ठ८९)   
उनका  मातृ-सानिध्य सिर्फ़ इतना ही नहीं था. उन्होंने श्रीश्रीमाँ के अन्नपूर्णा  रूप का भी दर्शन किया
 था, एवम् उस दिन श्रीश्रीमाँ भी अन्नपूर्णा हो कर  उनकी वांच्छा को पूर्ण 
कर दिया था. उस समय श्रीरामकृष्ण बीमार होने पर  काशीपुर में रह रहे थे. 
एकदिन उन्होंने मधुकरी का अन्न ग्रहण की इच्छा  व्यक्त किए. उनकी इस इच्छा 
को साकार करने के लिए उनकी त्यागी-संतानें  भिक्षाटन करने को बाहर निकले 
तो, उन्होंने सबसे पहले अन्नपूर्णा रूपिणी   माँ से भिक्षा-प्रार्थना इस 
प्रकार किए थे-
 
 
 
 
  " अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर-प्राणवल्भे | 
ज्ञानविज्ञान सिद्धार्थम भिक्षाम देहि में पार्वति || "
ज्ञानविज्ञान सिद्धार्थम भिक्षाम देहि में पार्वति || "
-
  हे शंकरप्राणप्रिया पार्वती अन्नपूर्णा, ज्ञानविज्ञान में सिद्धि के लिए 
 मुझे भिक्षा दीजिए माँ! श्रीश्री माँ ही तो अन्नपूर्णा हैं! इसीलिए 
उनलोगों  ने पहली भिक्षा उनसे ही प्राप्त की. अन्नपूर्णा-सारदा के हाथ से  
मुष्टि-भिक्षा लेकर उनलोगों की यात्रा शुरू हुई थी. उस दिन श्रीमाँ  
अन्नपूर्णा रूप में आविर्भुता हुई थीं. 
भगवान
  श्रीरामकृष्ण की अवतारलीला समाप्त हो जाने जननी सारदा कुछ समय तक वृंदावन
  में अवस्थान की थीं. उनके इस वृंदावन यात्रा में तीन स्न्यासी सेवक भी 
उनके  साथ थे. वृंदावन के वंशीवट स्थित कालीबाबू के कुंज में श्रीश्रीमाँ प्रायः एक वर्ष तक थीं, एवम् उस समय अभेदानन्दजी श्रीश्री माँ की बहुत सेवा किए थे. वहीं पर अभेदानन्दजी ने श्रीश्रीमाँ के एक अन्य रूप का दर्शन किया था.
सारदा-रूपिणी श्रीराधिका किस प्रकार प्रकाशित हुई थीं; इस बात को अपनी स्मृति-भण्डार के झरोखे का मन्थन कर अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार वर्णन किया है - " ..एक दिन श्रीमाँ श्रीराधा के विरह-भाव में आविष्ट हुईं थीं. श्रीराधा जिस प्रकार अपने प्राण-सखा के विरह में व्याकुल रहतीं थीं, उसी प्रकार श्रीमाँ भी श्रीश्री ठाकुर के विरह में व्याकुल होकर; श्री कृष्ण के विभिन्न लीलास्थलों - निधूबन के निकट राधारमण-मंदिर, यमुना-पुलिन आदि का दर्शन करते करते प्रेमाश्रु-धारा वर्षण करती थीं. (आमार जीवनकथा, १म, पृष्ठ१०९)
सारदा-रूपिणी श्रीराधिका किस प्रकार प्रकाशित हुई थीं; इस बात को अपनी स्मृति-भण्डार के झरोखे का मन्थन कर अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार वर्णन किया है - " ..एक दिन श्रीमाँ श्रीराधा के विरह-भाव में आविष्ट हुईं थीं. श्रीराधा जिस प्रकार अपने प्राण-सखा के विरह में व्याकुल रहतीं थीं, उसी प्रकार श्रीमाँ भी श्रीश्री ठाकुर के विरह में व्याकुल होकर; श्री कृष्ण के विभिन्न लीलास्थलों - निधूबन के निकट राधारमण-मंदिर, यमुना-पुलिन आदि का दर्शन करते करते प्रेमाश्रु-धारा वर्षण करती थीं. (आमार जीवनकथा, १म, पृष्ठ१०९)
अभेदानन्दजी
  इसी प्रकार श्रीश्रीमाँ के भीतर श्रीराधा का एक एक भाव और रूप को  
प्रत्यक्ष देखने के बाद ही स्त्रोत्रचित्र अंकन किए हैं. वृंदावन में  
अभेदानन्दजी को जो मातृसंग का सुअवसर मिला था और माँ के स्वरूप को  
प्रत्यक्ष किया था उसीका परिपूर्ण लेखाचित्र इस सारदास्त्रोत्र में  
प्रसफुटित हुआ है. 
अभेदानन्दजी ने जब 
स्त्रोत्र को रचा था,  उस समय श्रीश्रीमाँ सारदा बेलूड़ के नीलाम्बरबाबू के
 बगीचा-गृह अवस्थान कर  रही थीं. उस समय वे श्रीराधिका के जैसा भाव में 
विभोर रहती थीं; क्योंकि वे  उसी समय वृंदावन् तीर्थ से वापस लौटी थीं. इसि
 प्रकार राधा-भाव में भाविता  सारदा को अभेदानन्दजी ने स्तवचित्र में वंदना
 किए हैं, और उनके अंतर्निहित  स्वरूप को व्यक्त किए हैं.
किन्तु
  इस सारदा-स्वरूप का उद्घाटन ठीक ढंग से हुआ है, या विकृत रूप से हुआ है  
इसका फ़ैसला कौन करेगा? इसीलिए अभेदानन्दजी ने निश्चय किया की जिसके  
उद्देश्य से यह स्त्रोत्र रचा गया है, पहले उन्हीं को स्तव को गा कर  
सुनाउँगा, और वे यदि सम्मति दें कि स्तव-रचना ठीक हुई है, तभी ठीक- नहीं,  
तो ग़लत.
इसके बाद क्या हुआ, उस घटना के प्रत्यक्ष प्रतिवेदक लावण्यकुमार चक्रवर्ती से जैसा सुने थे, वैसा संकलन किए थे स्वामी अभेदानन्द के शिष्य श्री नारायणचंद्र गुहाराय महाशय. उसमे लिखा गया है-
 "
  उनकी ( अभेदानन्दजी की) इच्छा थी कि वे माँ को स्त्रोत्र का श्रवण  
कारएंगे. जब वे माँ से अपना अभिप्राय कहे तो माँ थोड़ा चौंक कर पुछि- कौन  
सा स्त्रोत्र, किसका स्त्रोत्र? अभेदानन्दजी महाराज ने विनीत स्वर में कहा-
  ' माँ, तुम्हारा स्त्रोत्र-गीत तुमको सुनाना चाहता हूँ.' माँ यह 
सुन कर  बहुत विस्मय से अभिभूत हो गयीं, और बोलीं - ' बाबा, आमार आबार कि  
स्त्रोत्र? ' किन्तु भक्तप्रवर के निर्बन्धातिश्य को देख माँ स्थिरभाव से  
सुनने लगीं उस प्रसिद्ध स्त्रोत्र गीत को महाराज के स्वर में- ' प्राकृतिम 
 परमांभयाम ..' इत्यादि. श्रीमाँ सुनते सुनते भावविष्ट हो गयी हैं.  
और
  जब अभेदानन्द महाराज ने गाया- ' रामकृष्ण गतप्राणं ' उस समय देखा गया कि 
 माँ यह सुनने के बाद मानो स्पंदनहीन हो गयी हैं, एवम् ' तन्नाम  
श्रवणंप्रियाम ' जैसे ही उचरित हुआ उनके आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने 
 लगी. ' तद्भावरंजीताकारम ' गाते  ही अभेदानन्द महाराज ने देखा - माँ अब
 वहाँ नहीं हैं;  वहाँ पर श्रीश्री  ठाकुर बैठे हुए हैं ! या माँ स्वयं ही 
ठाकुर में परिणत हो गयी हैं !
   
 महाराज घुटनों के बल बैठ कर स्त्रोत्र गिति गा रहे थे, उस समय मानो वे भी 
 अपने-आप में नहीं थे. उस समय  उनके अंदर, वे और क्या देखे थे, वह सब ह्में
  बता कर नहीं गए;  किन्तु उनके मौन में ही ह्मलोग बहुत कुछ नित्य-नूतन भाव
  में प्राप्त कर रहे हैं." ( स्वामी अभेदानन्द स्मृति-चयन,पृष्ठ २१)
 
  इसी प्रकार रूपवती सारदा और भी कितने रूपों में आविर्भुत हुई हैं; या 
उसका  कितना ही ह्मलोग संग्रह कर सके हैं! वे अपरूपा- रूपमयी हैं. 
मुहुर्मुह वे  नये नये रूपो में भूषिता होती हैं. उनके रूपों की कोई सीमा 
नहीं है. इसीलिए  असीम को किसी  एक ही रूप के भीतर सीमाबद्ध करना संभव नहीं
 है. 
वाग्मयी-सारदा ' देवी-सारदा ' के भीतर रूप-परिग्रह करके जीवन्त हो उठी थीं.
  स्त्रोत्रचित्र जिस प्रकार जननी सारदा में घुलमिल कर एकाकार हो गया था. 
वे  भावसमाधि में डूब कर जब स्वयम् को ही भूल गयीं थीं उस समय '  
स्त्रोत्रमूर्ति-सारदा ' माता-सारदा में मिल गयीं,- यह प्रमाणित हो गया कि वाणीमूर्ति सारदा और चिन्मयी सारदा एक ही हैं.
यद्दपि श्रीश्रीमाँ के इस स्वरूप-उद्घाटन के पिछे ध्यानी अभेदानन्दजी की असाधारण सारस्वत-साधना थी.
  यह एक अनन्य मातृसाधना तथा मातृशक्ति का परिचय था. मातृ-करुणा यहाँ पर  
स्तवगाथा में प्रस्फुटित हो उठा है. एवम् मातृ-आशीष को प्राप्त करके कवि  
मानो सव्यसाची हो उठे हैं. एक ही आधार में वे कवि-ऋषि, शिल्पी, और  
सुर-स्रष्टा (संगीतकार) भी दिखाई पड़ते हैं. केवल स्तवपाठ या कवितापाठ नहीं
  कवि के रूप में. एकही स्त्रोत्र में सुर-आरोप कर के संगीत-शिल्पी होने का
  परिचय भी दिए हैं.    
 वीणापाणि
  सारदा अभेदानन्द के प्रति सदा प्रसन्ना हैं. उनकी कृपा-करुणा की कोई सीमा
  नहीं है. अपने सन्तान को अपनी सारस्वत-प्रतिभा का दान देने में थोड़ी भी  
कंजूसी नहीं की हैं. इसीलिए ह्मलोग अभेदानन्दजी के भीतर कभी  
वाल्मीकि-प्रतिभा,कभी कालीदास-प्रतिभा, या कभी वाणी-कंठ (स्वर-सम्राट्) की 
 प्रतिभा का भी दर्शन करते हैं.
सुरकार  (संगीतकार ) अभेदानन्द सूललित स्वर से, देवी सारदा को जो सारदा-संगीत  सुनाए थे, वह सर्वजन-स्वीकृत हुआ है. क्योंकि वराहनगर मठ में भी समवेत  स्वर में अभेदानन्दजी के द्वारा रचित संगीत-सुरताल में यही  सारदास्त्रोत्र-गाथा गायी जाती थी.
 किस प्रकार के सुर-ताल में गाने से  स्त्रोत्र में देवीवंदना की माधुर्यता
 फूटपड़ती है, वे उससे अनभिज्ञ नहीं  थे. संगीत-साधक के जैसा यह सुर-सृष्टि
 उनकी शैल्पिक सत्ता का ही एक परिचय  है.
 यद्दपि
  वे गाना गा सकते थे, एवम् संगीत-शिल्प में भी उनकी अच्छी पकड़ थी,  
किन्तु  उनकी यह शिल्पी-प्रतिभा स्त्रोत्र को संगीत में परिणत करके ही थम 
नहीं  जाती है, या केवल गले की सुर-ताल तक ही आबद्ध नहीं है.
 
 गाना  गाते समय वे गाने की बीच में डूब जाते थे, एवम् तन्मय होकर संगीत के
 साथ  स्वयं को एक कर लेते थे. जैसे जब वे ' रामकृष्णगत प्राणां..... ' के 
मुखड़े  को गा रहे थे, उस समय वे पूरी तरह से रामकृष्णमय हो उठे थे एवम् 
श्रोता  सारदा के भीतर उन्होने श्रीरामकृष्ण को प्रत्यक्ष किया था. अर्थात 
गाना  गाते समय वे उसके भाव को साकार रूप में उपस्थित होने का एहसास कराने 
में  समर्थ थे, एवम् उसी भावसागर में स्वयं भी निमज्जित रहते थे, ऐसी थी 
उनकी  संगीत-प्रभा.
   कंठस्वर के भीतर से देवी सारदा को जिस 
प्रकार व्यक्त  कर दिया था, उसी प्रकार चित्र-शिल्प के भीतर भी देवी की 
प्राणप्रतिष्ठा  उन्होंने किया है. ह्मलोग जानते हैं, फलहारिणी कालिका-पूजा के रात्रि में  श्री रामकृष्ण ने षोड़शी-रूप में जननी सारदा की  पूजा किए थे. श्रीरामकृष्ण  ने  उसदिन श्रीश्रीमाँ के भीतर देवी षोड़शी को प्रत्यक्ष किया था. किन्तु उस  षोड़शी रूप को और किसी ने भी प्रत्यक्ष नहीं किया था.
परवर्तीकाल में श्रीश्रीमाँ के उसी रूप को-   ध्यानी अभेदानन्दजी ने ध्याननेत्र से प्रत्यक्ष किया था. काली-तपस्वी ने  ध्यान के आलोक में शिल्पकार की दृष्टि को लेकर रूपवती सारदा के अपरूपा-रूप  को देखा था. किसी  शिल्पी के समान  उनकी दृष्टि भी अन्तरभेदी थी. इसीलिए तो उनके
 ध्याननेत्रों के सामने देवी  सारदा षोड़शी रूप में उद्भषित हो गयी थीं. 
श्रीश्रीमाँ के भीतर देवी षोड़शी  को चिन्हित कर पाना शिल्पी-मानस के सिवा,
 और  कोई नहीं कर सकता. देव-शिल्पी अभेदानन्दजी के भीतर ह्मलोग उसी शैल्पिक सत्ता का दर्शन कर पाते हैं. 
उसी
  के द्वारा उन्होंने श्रीश्री माँ के उसी अंतर्निहित रूप को खोज कर बाहर  
करने में समर्थ हुए थे. जगत् के सामने श्रीश्री माँ के उसी गुप्त रूप को  
प्रतिष्ठित किया था.  फ्रैंक  डोराक-अंकित चित्र-पट के भीतर  
ही उन्होंने  श्रीश्री माँ सारदा के उसी दिव्य ज्योतिर्मयी रूप को आविष्कृत
  किया था।  श्रीश्री माँ के देवीभाव और मातृभाव परिपूर्ण रूप से उस  चित्र
  में प्रस्फुटित हो उठा है.
  घुंघट
  में रहने वाली सारदा के अनावृत-स्वरूप को प्रत्यक्ष किया था. वैज्ञानिक  
दृष्टि को लेकर उस चित्र के भीतर उन्होंने माँसारदा के षोड़शी स्वरूप को  
आविष्कृत किया  था. तथा मानव के मानस-गोचर में ले आए माँ के ममतामयी  षोड़शी रूप को. बोले माँ का यह नवयौना संपन्ना लालित्यपूर्ण रूप ही ' ठीक ठीक षोड़शीमूर्ति ' है. इसीलिए स्वामी अभेदानन्दजी की दृष्टि में श्रीश्रीमाँ षोड़शी सारदा भी थीं. 
किन्तु  अभेदानन्दजी की कविदृष्टि यहीं पर रुक नहीं गयी थी. उनके अतल-स्पर्शी  दिव्यदृष्टि में श्रीश्रीमाँ सारदा कभी परमाप्रकृति, कभी राधा, तो कभी  षोड़शी हैं. अर्थात श्रीश्रीमाँ  अपरूपा होकर भी - सकल रूपों का  समाहार  हैं. 
    अनन्त रूपिणी  सारदा  इसिप्रकार रूप रूप में प्रकाशित हुई  हैं एवम् साधक-संतानों के ध्याननेत्र  में वह पकड़ में आ गयी हैं. द्रष्टा
  कवि अभेदानन्द की दृष्टि कैसी स्वच्छ है, इस तथ्य को जननी सारदा का अपने 
 स्वरूप में अवस्थान करने लगना ही प्रमाणित कर देता है. रामकृष्णभाव
 में  भाविता माता सारदा ने भावाविष्ट होकर स्वयं ही यह प्रमाणित कर दिया 
है, कि  स्रष्टा अभेदानन्द की यह सृष्टिकार्य (सारदा-स्त्रोत्र) बिलकुल ठीक
 है. इसीलिए मातृवंदना में रामकृष्ण -सत्ता राज्य के एक सफलतम आदि कवि थे स्वामी अभेदानन्द.   
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' সমাজ শিক্ষা ' পার্তিকায় প্রকাশিত ( ' समाजशिक्षा ' पत्रिका में प्रकाशित - लेखक ?)
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