२५.प्रश्न : सफलता क्या है ? क्या स्वामीजी अपने कार्य में सफल हो सके थे ?ठाकुर ने उनको कौन सा कार्य सौंपा था ?
उत्तर
 : जो भी करना चाहते हो, उसके हो जाने पर, उस कार्य में सफल हो जाना कहते 
हैं, या सफलता मिल गयी कहते हैं. स्वामीजी सफल हुए थे, इस बात में कोई 
सन्देह नहीं है. उन्होंने जो करना चाहा था, उसे किया था. ठाकुर जिस कार्य को स्वामीजी से करवाना चाहते थे, उसी कार्य को पूरा करने के लिए स्वामीजी आये थे. अपनी किसी गरज 
या जरूरत को पूरा करने के लिए स्वामीजी नहीं आये थे।
 वे तो ठाकुर के द्वारा निर्दिष्ट होकर, 
प्रेरित होकर, आदिष्ट होकर, बाध्य होकर आये थे. ठाकुर ने तो स्वयं कहा है कि (स्वामीजी ) तो गहरे ध्यान में मग्न होकर बैठे हुए थे. उनकी उस 
ध्यानावस्था को भंग करके ठाकुर एक शिशु रूप में इतने प्रेम से पुकारे थे - ' मैं जा रहा हूँ, तुमको भी आना पड़ेगा ! ' और नरेन्द्रनाथ को आना पड़ा था, वे अपने मन से नहीं आये थे,अपना कार्य करवाने के लिये ठाकुर ही उनको अपने साथ ले आये थे। यह बात सही है या 
गलत - इस बात के उपर हमलोग चर्चा नहीं कर रहे हैं. ठाकुर ने स्वयं यह कहा है.
 इसलिए वहाँ से आने के बाद, उनके भीतर ऐसी कोई इच्छा  - ' मैं यह करूँगा, या वह बनूँगा का भाव रह ही कैसे सकता था ? स्वामीजी का इस धरती पर अपना कोई (hobby) दिल 
पसन्द खेल या कार्य बाकी  नहीं था. स्वामी विवेकानन्द को श्रीरामकृष्ण का कार्य करने के लिये आना पड़ा था। नरेन्द्र तो ध्यानमग्न होकर बैठे थे, ठाकुर का आदेश था या स्नेहपूर्ण मनुहार था - ' मैं जा रहा हूँ, तुमको भी आना पड़ेगा ! ' और नरेन्द्रनाथ को आना पड़ा था। 
 जिस
 समय स्वामीजी में सच्चा ब्रह्मज्ञान जाग्रत हुआ था, तब उस ब्रह्मज्ञान के 
आनन्द को पाकर उसी में विभोर होकर डूबे रहने की इच्छा हुई थी. और निश्चय 
किये थे- अब दूसरा कोई कार्य नहीं करूँगा. किन्तु तब ठाकुर न कहा था- ' 
नहीं, वैसा नहीं हो सकता. जो तुमने प्राप्त किया है, उसे मैं ताले में बन्द
 करके रख देता हूँ.जब समय आएगा, ताला खोल दूँगा. अभी तुम जगत के लिए कार्य 
करो. तुम्हें यही कार्य करना होगा.' पर स्वामीजी ने उनके मुख पर ही कह दिया 
था- ' नहीं कर पाउँगा.' जिसके उत्तर में ठाकुर ने कहा था- ' नहीं करेगा, 
क्या रे ? तेरी हड्डी करेगी !' 
इसीलिए
 स्वामीजी की अपनी कोई इच्छा नहीं थी, या उनकी अपनी कोई योजना नहीं थी-कि 
ये ये कार्य करने हैं, ऐसा कुछ भी नहीं था. किन्तु ठाकुर ने उनके उपर जो 
कार्य सौंपा था, उसको तो उन्होंने गर्दन पकड़ कर पूरा करवा लिया था, एवं 
उन्होंने ने भी उनका कार्य पूरा किया था. ठाकुर ने जैसे यह आदेश दिया था, 
कि तुम्हें इस कार्य को करना होगा, उसी प्रकार उन्होंने यह भी कहा था, कि 
'जब तुम्हारा सारा कार्य समाप्त हो जायेगा, उस समय इस ब्रह्मानन्द के ताले 
को खोल दूँगा. ' स्वामीजी का कार्य कब समाप्त हो गया था, उस समय उन्होंने 
किसी व्यक्ति को एक पत्र में लिख था, तथा उनके जीवन को देखने से ही, जो बात
 अपने आप समझ में आ जाती थी-वह है, ' कर्मी विवेकानन्द मर गया है, ज्ञानी 
विवेकानन्द मर गया है, दार्शनिक विवेकानन्द मर चुका है.'
जिन
 सब बातों को लेकर मनुष्य गर्व करता है, वह सब उनमें प्रचुर मात्रा में थी.
 किन्तु उस प्रकार के विवेकानन्द के भव्य चेहरे से जो परिचित थे, स्वामीजी 
अपने पत्र में लिखते हैं- ' वह विवेकानन्द जिसे लोग विश्वविजयी विवेकानन्द 
के रूप में जानते हैं, मर चुका है. अभी यहाँ वही तरुण बालक नरेन् है, जो उस
 दक्षिणेश्वर में पंचवटी के नीचे ठाकुर के चरणों में बैठा रहता था.'
कार्यनिवृत्ति
 हुए बिना या समस्त कार्य समाप्त हुए बिना ऐसा अवकाश (निरन्तर ठाकुर का 
सानिध्य लाभ) किसी को प्राप्त नहीं हो सकता. यदि उनका कार्य अधुरा ही रह 
गया होता, तो स्वामीजी कभी भी उस प्रकार अपना जीवन नहीं बिता सकते थे, जिस 
प्रकार समस्त कार्य सुलझा लेने के बाद, मनुष्य चैन से बैठकर विश्राम 
(हुक्का पीता है) करता है. क्योंकि स्वामीजी के सम्पूर्ण जीवन पर विहंगम 
दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है, कि स्वामीजी का स्वभाव वैसा था ही 
नहीं. स्वामीजीनेने ठाकुर के द्वारा प्रदत्त कार्य को भली-भाँति पूरा कर 
लिया था, और पूर्णतया समाप्त करने के बाद, उन्हों ने स्वयं ही यह अनुभव 
किया था, कि ' कर्मी विवेकानन्द मर चुका है .' तथा इसको दिखा भी दिया था. 
तथा यह भी उपलब्धी किये थे कि, मानो पहले के ही समान ठाकुर के चरणों में 
बालक नरेन् बैठा हुआ है, तथा इस अनुभूति के कुछ दिनों बाद ही, उनका शरीर 
छूट गया था. 
तुमने
 यह प्रश्न भी किया है कि ठाकुर ने नरेन के कंधों पर किस कार्य को सौपा था ?
 - यह जो प्रश्न तुमने किया है, यदि सही रूप से उसपर चर्चा की जाय तो बहुत 
अधिक बोलना पड़ेगा. ठाकुर ने कौन सा कार्य सौंपा था ? यही कि- ' नरेन् शिक्षा देगा ! ' जगत
 के मनुष्यों  को-यथार्थ शिक्षा, यथार्थ ज्ञान, यथार्थ कर्म का उपदेश देगा,
 यह उपदेश देगा कि विश्व की मानवता या मनुष्य जाती नष्ट होने से कैसे बच 
सकती है. स्वामीजी ने यह उपाय बताया था, कि जीवन-गठन करके यथार्थ मनुष्य कैसे बना जा सकता है। यही स्वामीजी का कार्य था. स्कूल, 
कॉलेज, अस्पताल, विश्वविद्यालय , रिलीफ- यही सब करते रहना उनका कार्य नहीं 
था. ये सभी कार्य करना उनका मूख्य उद्देश्य नहीं था, जैसे मुख्य कार्य (मनुष्य बनने ) का 
कुछ अनुसांगिक कार्य भी रहता है, जो उसमे सहायक सिद्ध होता है, वैसा कार्य 
है. 
स्वामीजी
 का मुख्य कार्य था, जगत के मोहनिद्रा में सोये हुए- मोहान्ध मनुष्य, 
अज्ञानी, अचेत, बद्ध मनुष्यों को मुक्त होने के लिए जिस ज्ञान की आवश्यकता 
होती है, जिस विद्या की आवश्यकता होती है, उसका उपदेश देना. वह कार्य 
उन्होंने पाश्चात्य जगत के समक्ष तथा भारत में भी भरपूर दिया है. यही उनका 
कार्य था. इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि उन्होंने अपने उपर ठाकुर 
द्वारा न्यस्त कार्य को पूरी ईमानदारी  के साथ पूर्ण कर दिया था. 
हमलोग अभी
 तक यह नहीं समझ पाए हैं कि स्वामीजी-विवेकानन्द साहित्य के रूप में कितना 
बड़ा तोहफा हमारे लिए छोड़ गये हैं. उसका सदुपयोग करके हमलोग आज भी अपने 
जीवन को धन्य नहीं कर पा रहे  हैं. यह हमलोगों की दरिद्रता है, हमलोगों की 
अक्षमता है, हमलोगों की क्षुद्रता है. यह स्वामीजी के दान का अप्राचूर्य 
नहीं है, उनके दान में कहीं से कोई कृपणता नहीं थी. जो कुछ भी उन्हें देना 
था, उसे उन्हों ने दोनों हाथों से उलीच दिया था. 
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