पिछले दो सम्पादकीय लेखों में हमने यह समझ लिया, कि शिक्षा एक आन्तरिक प्रक्रिया है, तथा केवल मन को एकाग्र करके ही गुरुवाक्य में निहित भावों को आत्मसात किया जा सकता है. मन में अनन्त शक्ति है, किन्तु इस तथ्य को हमलोग अक्सर समझ नहीं पाते हैं; क्योंकि यह स्वभावतः चंचल है तथा  अभी कामना-वासना की मदिरा पीने से किसी उन्मत्त बन्दर की तरह मतवाला हो गया है.
 अत्यधिक भोगों के लोभ वश, अहंकार का भूत सवार हो गया है, ईर्ष्या का बिच्छू इसे सदा डंक मरता रहता है. इसीलिये ऐसे अत्यधिक चंचल मन को वशीभूत करने का प्रशिक्षण प्राप्त कर किसी प्रयोजनीय विषय पर मन को एकाग्र रखने की क्षमता प्राप्त करने को ही स्वामी विवेकानन्द शिक्षा का मूल विषय कहते थे.  
विश्व में सर्वप्रथम हमारे  प्राचीन ऋषियों ने ही इस तथ्य को समझा था, कि मन में अनन्त शक्ति  है,तथा अपने चंचल मन को वशीभूत करके यदि हम अपने दिव्यत्व को अभिव्यक्त करें तो जीवन के किसी भी क्षेत्र में सम्पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकते हैं. इसीलिये ऋषि पतंजली ने  मन को पूरी तरह से वशीभूत करने की एक विज्ञान सम्मत पद्धति का आविष्कार किया था, जिसको हमलोग ' अष्टांग योग ' य़ा राजयोग के नाम से जानते हैं. 
किन्तु उन्होंने अपने आविष्कारों को सूत्र के रूप में लिखा था इसीलिये साधारण मनुष्य उन सूत्रों को बिल्कुल नहीं समझ पाते थे. प्राचीन ऋषि लोग ऐसा मानते थे,कि उच्च शिक्षा सभी के लिये नहीं है, तथा जो मनुष्य इस विद्या को ग्रहण करने का अधिकारी होगा, वह इन सूत्रों को पढ़ कर स्वयं ही समझ जायेगा.
किन्तु उन्होंने अपने आविष्कारों को सूत्र के रूप में लिखा था इसीलिये साधारण मनुष्य उन सूत्रों को बिल्कुल नहीं समझ पाते थे. प्राचीन ऋषि लोग ऐसा मानते थे,कि उच्च शिक्षा सभी के लिये नहीं है, तथा जो मनुष्य इस विद्या को ग्रहण करने का अधिकारी होगा, वह इन सूत्रों को पढ़ कर स्वयं ही समझ जायेगा.
किन्तु  आधुनिक ऋषि स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- इन ज्ञान-रत्नों को मठ-मन्दिर की  चाहार्दिवारों से, अरण्य की कन्दराओं से बाहर निकाल कर गाँव,गाँव में घर घर  में वितरित कर देना होगा. इसीलिये स्वामीजी ने पतंजली योगसूत्र य़ा  अष्टांग योग पर अंग्रेजी में भाष्य लिखा और इस विद्या को भारत के साथ साथ  पूरे विश्व तक पहुँचा दिया. मन के ऊपर आठ चरणों में पूर्ण नियन्त्रण  प्राप्त करने का अष्टांग-सूत्र  इस  प्रकार है- " यम-नियम-आसान-प्राणायाम- प्रत्याहार- धारणा- ध्यान-  समाधि." 
किन्तु सभी के लिये युवा अवस्था में ही इन आठों अंगों का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं है. श्रीरामकृष्ण  चाहते थे कि युवा लोग वैयक्तिक मुक्ति के मोह में न पड़ कर अपने को संसार की सेवा के योग्य बनाएं. अपना चरित्र-निर्माण करके पहले स्वयं यथार्थ  मनुष्य बने, फिर सम्पूर्ण मानवता के भीतर मनुष्यत्व-जागरण का शंख फूँकने  की तैयारी करें. 
 परन्तु नरेन्द्रनाथ ने जब श्रीरामकृष्ण से कहा कि मैं  शुकदेव की तरह सर्वदा निर्विकल्प समाधि में ही मग्न रहना चाहता हूँ; तब वे उनकी भर्त्सना करते हुए कहते हैं - ' छिः नरेन्, बार बार यही बात  कहते तुझे लज्जा नहीं आती ? केवल अपनी मुक्ति की बात सोचना तो तुच्छ बात  है- जब तक दूसरों की मुक्ति नहीं होती तुम्हें समाधि में नहीं जाना चाहिये.  मैंने तो सोचा था, समय आने पर कहाँ तो तु विशाल बरगद का वृक्ष बन कर सबको  शान्ति और छाया प्रदान करेगा, और कहाँ आज तु खुद एक स्वार्थी व्यक्ति की  तरह अपनी ही मुक्ति के लिये बेचैन है ? इतना क्षूद्र आदर्श क्यों पाल रहा  है ? निमीलित चक्षुओं से ईश्वर के दर्शन करने की इतनी  उत्सुकता क्यों ? क्या  खुली आँखों से तुम उन्हें नहीं देख सकते ? वे तो सब  मनुष्यों में रमे हैं.  मानव-मात्र में ' शिवजी ' विराजित हैं, इसीलिये  (शिव-ज्ञान से ) मानव-सेवा ही भगवान की  सर्वोच्च सेवा है ." 
नरेन्द्र बोले- ' निर्विकल्प समाधि न होने से मेरा मन पूरी तरह से शान्त नहीं होगा, यदि वह न हुआ, तो मैं वह सब कुछ न कर सकूँगा.' 
श्रीरामकृष्ण देव बोले - ' तु क्या अपनी ईच्छा से करेगा  ? जगदम्बा तेरी गर्दन पकड़ कर करवाएंगी, तू नहीं करे, तेरी हड्डियाँ  करेंगी.' 
 इसीलिये श्रीरामकृष्ण ने स्वामी विवेकानन्द के माध्यम से भविष्य के युवाओं को समाधि में न जाने का जो परामर्श दिया था, उसीको स्वीकार करते हुए- युवा महामण्डल के सदस्यों को 'ध्यान और समाधि' के steps को छोड़ देना है. 
स्वामी विवेकानन्द यह भी कहा करते थे कि, किसी योग्य गुरु के सानिध्य में रहे  बिना प्राणायाम करने से दिमाग बिगड़ भी सकता है, अतः इसे भी बाद करना है. इस प्रकार अष्टांग के आठ अंगों में से तीन अंगों- प्राणायाम, ध्यान और समाधि को बाद करके केवल पाँच steps - यम, नियम, आसान, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास ही हमारे लिये यथेष्ट है. इन  पाँच अंगों को भी दो भाग में बाँटा जा सकता है. प्रथम भाग में केवल दो  अंग- ' यम और नियम ' का अभ्यास प्रतिदिन चौबीसों घंटे करना है, एक मिनट के  लिये भी इसके अभ्यास से विमुख नहीं रहना है. द्वितीय भाग में तीन अंग- 'आसान, प्रत्याहार, धारणा ' का अभ्यास अपनी सुविधा के अनुसार निर्दिष्ट  समय पर १०-१५ मिनट तक दिन में दो बार सुबह और शाम करना है. परन्तु पहले  भाग- ' यम और नियम ' का अभ्यास प्रतिदिन और प्रति मुहूर्त करना है.   
यम का अर्थ है संयम. वे पाँच काम क्या क्या हैं, जिन्हें करने से हमे विरत रहना होगा. 5 do not doe's हैं- सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आस्तेय, अपरिग्रह. सत्य- हर समय जो सच हो वही बात कहनी चाहिये, झूठ कहने से बचना चाहिये. अहिंसा- हाथों से तो क्या मन से भी किसी का बुरा नहीं सोचना चाहिये, 
आस्तेय- चोरी कर लेने का भाव, बिना पूछे किसी दूसरे की कोई वस्तु ले लेने  का भाव भी मन में नहीं उठना चाहिये. अपरिग्रह- दूसरे से मांग कर कुछ उपहार  य़ा gift लेने का लोभ मन में नहीं रखना है, पर दूसरों के दिल पर ठेस न  पहुँचे इसीलिये किसी की दी गई भेंट को यादगार समझ कर ग्रहण किया जा सकता  है. श्रीरामकृष्ण भी उपहार में सिल्क का चादर और चाँदी का हुक्का ग्रहण  करके एकबार शरीर पर रख कर त्याग दिये थे.यदि कोई श्रद्धा के साथ कुछ देता  है तो, उसे श्रद्धा की निशानी समझ कर रखा जा सकता है. ब्रह्मचर्य- मन वचन  शरीर से पवित्र जीवन जीना चाहिये, न तो अत्यधिक भोगों में डूबे रहना चाहिये  और न तो कठोर तपस्वी जैसा रातभर जप-तप करते रहना चाहिये, य़ा हफ्ते ३ दिन  व्रत-उपवास रखना चाहिये. बुद्धदेव का शरीर जब कठोर जप-तप आदि के कारण सूख  कर काँटा हो गया तब सुजाता ने खीर दिया, जिसे खाने के बाद ही बुद्ध को  ज्ञान हुआ था. कठोर-ब्रह्मचर्य य़ा liberal ब्रह्मचर्य जैसे वाद-विवाद में  नहीं पड़ना है. ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है- न तो अत्यधिक भोग का लालच रखना,  और न ही अत्यधिक कठोरता पूर्वक जीवन जीना. 
५  नियम- किन कार्यों को करना उचित होगा ? 5 doe's - "शौच, संतोष, तपः,  स्वाध्याय, ईश्वरप्रणीधानम." शौच- शुचिता रखना, बाहरी स्वच्छता और आन्तरिक  शुचिता जैसे गंदे कपड़े नहीं पहनुगा वैसे ही मन में गंदे विचार भी नहीं  उठने दूंगा. तन-मन से शुद्ध पवित्र रहना. संतोष- अधिक भोग के लालायित नहीं  रहना, जितना जीने के लिये आवश्यक हो, उतना मिल जाने से तृप्त रहना.  स्वाध्याय- गन्दी पुस्तक नहीं पढना, बुरे चित्र नहीं देखना, सदग्रंथ य़ा  स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं को पढना. तपः - पूर्णत्व की प्राप्ति के लिये  सहर्ष कष्ट सहन करने को प्रस्तुत रहना. ईश्वर के साथ पुनर्मिलन के आनन्द को  पाने य़ा सत्य का दर्शन करने में जितना तप आवश्यक हो उसे सहन करना.  ईश्वरप्रणीधान- इस जगत के कोई स्रष्टा हैं, इस पर विश्वास रखना और उनको  जानने के लिये चेष्टा करना .
 इस प्रकार यम और नियम का पालन जीवन में प्रति  मुहूर्त करते रहने से जीवन में संयम आयेगा तो मन की अतिरिक्त चंचलता क्रमशः कम होती जाएगी, तथा हम अपना चरित्र गठित करने की योग्यता प्राप्त कर लेंगे.  
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