गुरुवार, 26 सितंबर 2024

🔱🕊 🏹हे आचार्य देव ! तोमाय सश्रद्ध प्रणाम। " हे आचार्यदेव! आपको मेरा शत -शत प्रणाम !!🔱फीनिक्स🕊 'Be and Make' आन्दोलन के अल्मा मेटर 🏹

 🏹अमर पक्षी फीनिक्स और सूरज🏹 

आइये, हमारे 'Be and Make' आन्दोलन के अल्मा मेटर जहाँ महामंडल के संस्थापक सचिव नवनीदा ने शिक्षा पाई थी, उसी संस्था मोहियारी कुंडू चौधरी स्कूल, आन्दुल (पश्चिम बंगाल) की यात्रा पर चलें! उसी मातृ संस्था 'मोहियारी कुंडू चौधरी स्कूल ' की बलिवेदी पर phoenix के जैसे  (फीनिक्स-अमर पक्षी ,पुनरुत्थान और मृत्यु के बाद जीवन के जैसे) एक हेडमास्टर आए थे। 

 यही वह संस्थान है जहाँ अपूर्व तेजस्वी महापुरुष आचार्य शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय आये, और अपने पवित्र 'आचार्य देव' नाम से आन्दुल की प्राचीन देवसंस्कृति को गौरवान्वित किया। जितनी दुर्लभ उनकी प्रेरणा शक्ति (Muse : काव्य-प्रतिभा)  थी, उतनी ही दुर्लभ उनका व्यक्तित्व था। अपनी रहस्यवादी दृष्टि (mystic vision-ज्ञानमयी दृष्टि) के साथ लगातार कई सालों तक वे अधिकाधिक भव्यता (grandeur) और श्रेष्ठ आचरण (nobility) के शिखर पर समृद्ध बने रहे। वे खुली आँखों से शान्त और प्रसन्नमुख मुद्रा में निरंतर मनुष्य में ईश्वर का दर्शन करने वाले ध्यानसिद्ध आदर्श और पूर्ण विकसित व्यक्तित्व के धनी थे। ब्रिटिश सरकार के औपनिवेशिक दमन और अत्याचार का मुकाबला डटकर करने की प्रेरणा देते थे। प्राच्य और पाश्चात्य दो संस्कृतियाँ उन्हें विरासत में मिलीं थीं । उनके द्वारा जिन छात्रों का जीवन-गठन हुआ था, आगे चलकर वे भी अत्यन्त स्मरणीय व्यक्तित्व के धनी बने। यद्यपि उनका स्मरणीय व्यक्तित्व , धन-सम्पत्ति और सत्ता की शक्ति के कारण नहीं, बल्कि उच्च प्रकृति के द्वारा निम्न-प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के प्रशिक्षण में निहित था। उन्होंने विवेकानन्द के मुख से Song of Sannyasin' - (संन्यासी का गीत) को केवल सुना ही नहीं था, बल्कि अपनी साँसों में भी बसा लिया था। रटन्ती कालीपूजा की रात्रि में प्रेमिक महाराज के साथ दोनों प्रज्ज्वलित ज्ञानचर्चा की कहानी में रात्रिकालीन साधना के तेज से जगमग करते थे। और इस प्रकार अपने दो हाथों से लौकिक (terrestrial) और देवतुल्य (godlike) पतवार चलाकर, कृष्ण-काली, शिव-शिवानी (M/F) की भिन्नता को सच्चिदानन्द रूप अमरत्व के सागर में डुबाते हुए दूसरे किनारे पर ले जाते हैं। हमलोगों को अपने पूर्वज ऋषि मुनियों की महान परम्परा (श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -शिक्षण परम्परा) का वंशधर बना देना, ही उनके जीवन का ध्येय था। अपने काव्यअनुवाद और गायन प्रतिभा के प्रस्तुतिकरण (rendition) के दौरान उन्होंने स्वर्ण युग की शुरुआत की। मनुष्य -ह्रदय में विराजित जगतजननी माँ भवतारिणी के अलावा अन्य किसी के आगे वे नतमस्तक नहीं होते थे। और इसी प्रकार अनेक दूसरे लोगों में खुली आँखों से महामाई को देखते हुए वे शाश्वत सत्य (Oneness-निःस्वार्थपरता) को जाग्रत (implant-या प्रस्थापित) करा देते थे। आचार्यदेव का नाम और उनका दिव्य आभामण्डल शान्ति- दायक वर्षा की फुहारों की तरह हमारे जीवन को कई पीढ़ियों तक पवित्र और प्रशान्त बनाती रहेगी। उनके मधुर आशीर्वादि -स्पर्श का प्रभाव जिन पर भी वर्षित हुआ था;  देखने में चाहे वे कितने भी साधारण क्यों न प्रतीत होते हों, उनके सारे दुःख दूर होंगे ; ह्रदय में शान्ति का उदय होगा। उस स्नेहपूर्ण स्पर्श से आती हुई उनकी सौम्य कृपा हमारी तीन पीढ़ियों को इतनी प्रिय थीं कि आज हमलोग उनके 152वें अवतरण दिवस को समारोह पूर्वक मना रहे हैं। आपको और मुझे तथा सभी लोगों को हमारा यह पवित्र स्पर्श-संस्कार (holy sacrament) लेना चाहिए, तथा उनके आशीर्वाद (benison) के लिए उन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण (दण्डवत प्रणाम) करना चाहिए। 

आचार्य शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय का जन्म 10 जून , 1873 ई. को स्नान पूर्णिमा के दिन हुआ था। ( यह जगन्नाथ का शुभ जन्मदिन है। वार्षिक जगन्नाथ रथ यात्रा से पहले ज्येष्ठ महीने की पूर्णिमा के दिन आयोजित होने वाला एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है।) और 1 अक्टूबर 1966 ई को (93 वर्ष की आयु में) उनका देहावसान हुआ था। 3H विकास के हर पहलु से वे एक पूर्ण विकसित व्यक्तित्व (full-blown personality) सम्पन्न महापुरुष थे। अर्थात श्री रामकृष्णदेव के शब्दों में उनका चरित्र-कमल पूर्णरूपेण खिला हुआ था 1901 ई. में जब वे हमारे स्कूल के प्रधानाध्यापक के पद पर नियुक्त हुए तब वे 28 वर्ष के युवा थे। उस समय हमारे स्कूल का नाम आन्दुल H.C.E स्कूल था। शिरीषचन्द्र  लगातार 52 वर्षों तक (1953 में 80 वर्ष की आयु तक) इस स्कूल के प्रधानाध्यापक रहे थे। शिरीषचन्द्र ने प्रेसिडेंसी कॉलेज से कम्बाइंड कोर्स में पढ़ाई पूरी की थी; इसलिए उनको Physics, Chemistry और Mathematics के साथ-साथ History और Philosophy पढ़ने का अवसर मिला था।  उन्होंने आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय से Chemistry तथा आचार्य जगदीशचन्द्र बसु से Physics की शिक्षा ग्रहण की थी।तथा English Literature अनिवार्य रूप से पढ़ना पड़ता था ; और  उस समय अंग्रेजी पढ़ाने के लिए प्रोफेसर भी अंग्रेज ही हुआ करते थे। उनके अंग्रेजी प्रोफेसर Tawney, Percival जैसे दिग्गज थे। पर्सिवल साहेब प्रोफेसर के निर्देशन में उन्होंने सेक्सपियर के नाटक हैमलेट और मैकबेथ में बहुत यादगार अभिनय किया था। आचार्यदेव के कारण ही , हमलोगों के स्कूल में आचार्य राय, आचार्य बसु, सर सीवी रमन और सर आशुतोष मुखोपाध्याय जैसे दिग्गज शिक्षाविद आया करते थे। इस स्कूल में सर आशुतोष मुखोपाध्याय ने जो भाषण दिया था वह भाषण आज भी National Library kolkata, में संरक्षित है। स्वस्थ- सबल शरीर बहुत विशाल ह्रदय और पवित्र आत्मा से सुसम्पन्न मनुष्य थे हमारे आचार्यदेव। इस ज्ञानपीठ का Discipline आश्चर्यजनक था। उसका कारण भी -आचार्यदेव की चारित्रिक दृढ़ता ही थी।

     श्रीरामकृष्ण देव के परम भक्त श्री महिमाचरण चक्रवर्ती की पुत्री तुषारवासिनी के साथ उनका विवाह हुआ था। महिमाचरण के गुरु थे, हिमालय पर्वत निवासी संन्यासी डमरूवल्ल्भ जी।  100 न काशीपुर रोड स्थित उनका घर में श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द की चरण धूल से भी पवित्र हुआ था।अपने घर में महिमाचरण हमेशा दाहिने हाथ से एकतारा बजाया करते थे। इसलिए वे अपने बायें हाथ से लिखते थे। लिखने के लिए वे केवल लाल स्याही का ही प्रयोग करते थे। बाद के दिनों में जब इस 100 न काशीपुर रोड स्थित उनके मकान में दूसरे लोग रहने लगे तो उनके कमरे में कोई सो नहीं सकता था -क्योंकि वहाँ उनको कभी-कभी तारयंत्र (एकतारा) बजने की ध्वनि सुनाई पड़ती थी। उस मुहल्ले के लोगों ने बाद में उनकी याद में एक स्मृति-मंदिर का निर्माण करवाया था ; जिसमे आजभी प्रतिदिन पुष्पहार चढ़ाये जाते हैं  तथा संध्याकाल में धूप-दीप जलाये जाते हैं। 

प्रसिद्द नाटककार गिरीशचन्द्र घोष के साथ शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय एवं उनके बड़े भ्राता की काव्यप्रतिभा में विशेष एकता थी। गिरीशचन्द्र द्वारा लिखित बिल्वमंगल नाटक के सम्बन्ध में शिरीष चंद्र ने अपना मत व्यक्त करते हुए जब यह कहा कि- "आपके नाटक का सर्वश्रेष्ठ अंश वह है जहाँ बिल्वमंगल एक पतिता रमणी को अपना गुरु समझकर उसके चरणों का स्पर्श करता है।" उनके मुख से यह सुनते ही गिरीशचंद्र घोष आनन्द से मतवाला होकर उठखड़े हुए और दोनों हाथों को ऊँचा उठाकर बोले -'जय श्रीरामकृष्ण !' क्योंकि स्वामीजी के भाई भूपेन्द्रनाथ/महेन्द्रनाथ  दत्त द्वारा लिखित निबंध में इस बात का उल्लेख पाते हैं कि स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने ही गिरीशचंद्र को बिल्वमंगल नाटक लिखने के लिए प्रेरित किया था। तथा गिरीशचंद्र ने नाटक की पाण्डुलिपि को पढ़ने के लिए स्वामी जी को भी दिया था। 

गिरीशचंद्र घोष ने ही शिरीषचंद्र को स्वामीजी का भाषण सुनने के लिए 7 मार्च, 1897 को, दक्षिणेश्वर के माँ भवतारिणी मंदिर परिसर में आयोजित श्रीरामकृष्ण के जनमोत्स्व पर दक्षिणेश्वर आने का निमंत्रण दिया था। वहां आचार्यदेव ने गिरीशचंद्र के साथ स्वामीजी को बिल्कुल आमने-सामने खड़े होकर सुना था। वर्ष 1902 में जब स्वामी विवेकानन्द ने अपने देह को त्याग दिया, तब आचार्यदेव ने विद्यालय परिसर में आयोजित स्मरण सभा में इस घटना का उल्लेख करते हुए अपनी श्रद्धाँजली भाषण में जो कुछ कहा था - उस सम्पूर्ण भाषण को उनके ही एक प्रिय छात्र [भवदेव बन्दोपाध्याय] ने जो सुना था उसे साथ ही साथ यथासम्भव लिखते चले गए थे। जिसे बाद में आचार्यदेव ने उसे सम्पादित और संशोधित करके छपवाया था और सभी छात्रों के बीच वितरित भी किया था। उस भाषण के साथ -साथ 7 मार्च, 1897 को घटित इस प्रसंग का उल्लेख प्रोफेसर शैलेन्द्रनाथ धर ने अपनी पुस्तक - 'A Comprehensive Biography of Swami Vivekananda' (स्वामी विवेकानंद की सम्पूर्ण जीवनी) में भी किया है। आचार्यदेव भारतीय (शास्त्रीय) संगीत के भी बहुत बड़े ज्ञाता थे। 1916 में आयोजित -First All India Music Conference (प्रथम अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन) में रवीन्द्रनाथ टैगोर सहित केवल तीन लोगों को निमंत्रण भेजा गया था, किन्तु उसमें अविभाजित बंगाल से भाग लेने वाले व्यक्ति एकमात्र व्यक्ति आचार्यदेव ही थे। यह संगीत सम्मेलन पण्डित विष्णुनारायण भातखण्डे ने बड़ौदा महाराज के द्वारा स्थापित 'Central Hall of the Gayan Shala' में करवाया था, जिसका सम्पूर्ण व्यय भी बड़ौदा के तत्कालीन गायकवाड़ महाराज के द्वारा उठाया गया था। इसमें संगीत के विद्वानों द्वारा भारतीय संगीत के अनेक तथ्यों पर गम्भीरता पूर्वक विचार हुआ। आचार्यदेव ने संगीत की भारतीय पद्धति के 22 श्रुतियों के ऊपर एक Thesis प्रस्तुत किया था , एवं दक्षिण भारत की एक महिला विणा-वादिनी ने अपने वाद्ययंत्र पर उन श्रुतियों को बजाकर सुनाया था। इसी आयोजन में एक 'ऑल इण्डिया म्यूजिक एकेडेमी' की स्थापना का प्रस्ताव भी स्वीकर हुआ।   

[The conference was held in Baroda in the Central Hall of the Gayan Shala, which taught music to children of common citizens of the state. The school had been established in 1886 by the young, progressive Maratha ruler of this Gujarati state, Sayaji Gopal Rao Gaekwad (1863-1939)Today, it functions as the Department of Music (Indian Classical/Vocal), at the Maharaja Sayajirao University at Vadodara.]

  पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी का जन्म 10 अगस्त, 1860 (जन्माष्टमी) को मुंबई में हुआ था। उनकी शिक्षा पहले मुंबई और फिर पुणे में हुई। वे व्यवसाय से वकील थे तथा मुंबई में सॉलिसीटर के रूप में उनकी पहचान थी। संगीत में रुचि होने के कारण छात्र जीवन में ही उन्होंने श्री वल्लभदास से सितार की शिक्षा ली।  इसके बाद कंठ संगीत की शिक्षा श्री बेलबागकर, मियां अली हुसैन खान तथा विलायत हुसैन से प्राप्त की। 

पत्नी तथा बेटी की अकाल मृत्यु से वे जीवन के प्रति अनासक्त हो गये। उसके बाद अपना पूरा जीवन उन्होंने संगीत की साधना में ही समर्पित कर दिया। उन दिनों संगीत की पुस्तकें प्रचलित नहीं थीं। गुरु-शिष्य परम्परा के आधार पर ही लोग संगीत सीखते थे; पर पंडित जी इसे सर्वसुलभ बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि संगीत का कोई पाठ्यक्रम हो तथा इसके शास्त्रीय पक्ष के बारे में भी विद्यार्थी जानें

   वे देश भर में संगीत के अनेक उस्तादों व गुरुओं से मिले; पर अधिकांश गुरू उनसे सहमत नहीं थे। अनेक संगीतज्ञ तो अपने राग तथा बंदिशें सबको सुनाते भी नहीं थे। कभी-कभी तो अपनी किसी विशेष बंदिश को वे केवल एक बार ही गाते थे,जिससे कोई उसकी नकल न कर ले। ध्वनिमुद्रण की तब कोई व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में पंडित जी इन उस्तादों के कार्यक्रम में पर्दे के पीछे या मंच के नीचे छिपकर बैठते थे तथा स्वरलिपियां लिखते थे। इसके आधार पर बाद में उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे। आज छात्रों को पुराने प्रसिद्ध गायकों की जो स्वरलिपियां उपलब्ध हैं, उनका बहुत बड़ा श्रेय पंडित भातखंडे को है

      पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे के आलावा संगीत के एक अन्य महारथी पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर भी इनके समकालीन थे। ये दोनों ‘द्विविष्णु’ के नाम से विख्यात थे। जहां पंडित पलुस्कर का योगदान संगीत के क्रियात्मक पक्ष को उजागर करने में रहा, वहां पंडित भातखंडे क्रियात्मक और सैद्धांतिक दोनों पक्ष में सिद्धहस्त थे। शास्त्रीय संगीत क्षेत्र के इस राज्य को देखने के बाद, उन्होंने व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों में स्थिति को सुधारने का फैसला किया । सबसे पहले उन्होंने 1904 ई. में भारत के दक्षिणी भाग में यात्रा की। उन्होंने बड़े पैमाने पर प्राचीन पुस्तकों की खोज की, सावधानी से व्यंकटमाखी के सिद्धांत ने बहत्तर थाट (या मेल) के सिद्धांत का अध्ययन किया। उन्होंने कई प्रसिद्ध संगीतकारों के साथ चर्चा की।

    इसके बाद पंडित जी ने उत्तरी तथा पूर्वी भारत की यात्रा की। इस यात्रा में उन्हें उत्तरी संगीत-पद्धति की विशेष जानकारी हुई। विविध कलावंतों से इन्होंने बहुत से गाने भी सीखे और संगीत-विद्वानों से मुलाकात करके प्राचीन तथा अप्रचलित रागों के सम्बन्ध में भी कुछ जानकारी प्राप्त की। इसके बाद इन्होंने विजयनगरम्, हैदराबाद, जगन्नाथपुरी, नागपुर और कलकत्ता की यात्रायें कीं- आचार्यदेव से मुलाकात हुई ! तथा सन् 1908 में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के विभिन्न नगरों का दौरा किया।

देश भर के राजकीय, देशी राज्यांतर्गत, संस्थागत, मठ-मंदिर-गत और व्यक्तिगत संग्रहालयों में हस्तलिखित संगीत ग्रंथों की खोज और उनके नामों का अपने ग्रंथों में प्रकाशन, देश के अनेक हिंदू मुस्लिम गायक वादकों से लक्ष्य-लक्षण-चर्चा-पूर्वक सारोद्धार और विपुलसंख्यक गेय पदों का संगीत लिपि में संग्रह, कर्णाटकीय मेलपद्धति के आदर्शानुसार राग वर्गीकरण की दश थाट् पद्धति का निर्धारण। इन सब कार्यो के निमित्त भारत के सभी प्रदेशों का व्यापक पर्यटन किया।

 शास्त्रीय ज्ञान के लिए विष्णुनारायण भातखंडे ने हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति, जो हिन्दी में 'भातखंडे संगीत शास्त्र' के नाम से छपी थी, के चार भाग मराठी भाषा में लिखे। संस्कृत भाषा में भी इन्होंने 'लक्ष्य-संगीत' और 'अभिनव राग-मंजरी' नामक पुस्तकें लिखकर प्राचीन संगीत की विशेषताओं तथा उसमें फैली हुई भ्राँतियों पर प्रकाश डाला। विष्णुनारायण भातखंडे ने अपना शुद्ध ठाठ 'बिलावल' मानकर ठाठ-पद्धति स्वीकर करते हुए दस ठाठों में बहुत से रागों का वर्गीकरण किया।

आचार्यदेव के बंगला भाषा और साहित्य के प्रति प्रेम का अत्यन्त सुन्दर उदाहरण है - अंग्रेजी के कवि थॉमस ग्रे की कविता 'Elegy Written in a Country Churchyard' (एक ग्रामीण कब्रिस्तान में लिखी गई शोकगीत) का बँगला भाषा में अनुवाद। यह मात्र अनुवाद ही नहीं है, बल्कि ग्रामीण बंगाल की सांस्कृतिक नदी भी प्रवाहित हो रही हो। इसकी कुछ पंक्तियाँ है -

सांझेर झाँजेर गाजे दिवा अवसान ,

मंथरगामिनी गाभि प्रान्तरेर पारे ,

हम्बा रवे डाकि डाकि चलि आसे आंकी बाँकी ,

श्रान्त पदे गृहमुखे फिरिछे कृषान ,

विसर्जित ब्रह्माण्ड एबे आंधारे आमारे !!

-अर्थात संध्या के समय गौओं की झुण्ड, हम्बा -हम्बा कहते हुए, गाँव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियों पर जैसे मंथर गति से गाँव की ओर लौट रहा हो, और गायों के उसी झुण्ड के पीछे थका -मांदा किसान भी अपने घर लौट जाता है -तब मेरे मन में और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मानो अँधेरा सा छा जाता है।" यह सम्पूर्ण काव्य पांचजन्य पत्रिका में पाया जा सकता है। 

इसके अलावा आचार्यदेव के पौत्र और महामण्डल के संस्थापक नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा प्रकाशित बंगला अनुवाद के साथ मूल अंग्रेजी कविता भी पुस्तक रूप में प्रकाशित की गयी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। उनकी छत्रछाया में बहुत से छात्रों ने अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बनाया है। हमें भी इस ज्ञानपीठ के वर्तमान और प्राक्तन छात्र होने पर गर्व है। आचार्यदेव के 2023 में आयोजित 150 वें जन्मोत्सव समारोह का प्रारम्भ हुआ था, और इस साल 10 जून , 2024 को समारोह के समापन समारोह के अवसर पर हम एकबार फिर उनको अपनी श्रद्धा समर्पित करते हैं -  

जीवित कालेई किंवदंती तुमि,

छिले विशेष श्रद्धा भाजन। 

आजि सार्ध-शतवर्ष अतिक्रान्त, तबु

    तव स्मरणे भरे उठे मन। 


पाण्डित्य तव गण्डीभाँगा - 

छिलो विश्व विद्यागत। 

विद्यालय निघण्ट हले शेष,

शुरू हतो शिक्षक-शिक्षण व्रत - Be and Make ! 


जेनो नव -नालन्दार शीलभद्र तुमि, 

तव जश छूटे चतुर्दिक। 

आन्दुले तुमि भगीरथ सम। 

तुमि नूतन पथिकृत।। 

      

[যেন নব -নালন্দার শীলভদ্র তুমি 

তব যশ ছুটে চতুর্দিক , 

আন্দুলে তুমি ভগীরথ সম। 

তুমি নুতন পথিকৃৎ ,]

Let's embark on journey to the Mohiary Kundu Chowdhury Institution, Andul (W.B.)! At the altar of our Alma Mater [अल्मा मेटर - मातृ संस्था -जहाँ महामण्डल के संस्थापक सचिव नवनीदा  (श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) ने शिक्षा पायी वह संस्था] came phoenix- like [फ़ीनिक्स -अमर पक्षी, एक अपूर्व व्यक्ति-The unprecedented person] a Headmaster. Here where luminaries came , and glorified us with their hallowed name. Rare were his Muses (प्रेरक शक्ति-काव्यप्रतिभा) , rarer his personality; Year after year with grandeur and nobility Afloat and athrob with mystic visionCalm and radiant with meditative mission, Ideal and full -blown personality he was .Riding roughshod over the British colonial fuss. Inhering two cultures oriental and occidental. Students built up by him became monumental (अति महान गुरु -स्मरणार्थक). However not in terms of money, pelf (जमीनजायदाद) and power, caring more for overcoming lower nature by higher nature. Heard He the Song of Sannyasin and breathed into them; At night he loitered to the company of Premik (Andul Kali-kirtn fame)-both aflame, Nocturnal radiance they emitted in Premik- Pathik Kahani. Rowing thus in two hands the terrestrial and the godlike oar. Across the ocean of Immortality towards the other shore. Drowning the differences of Krishna -Kali, Shiva -Shivani, Rowing this in two hands the terrestrial and the godlike oar. Across the ocean of Immortality towards the other shore. Missioned to make us the descendants of our great tradition. Ushered He a golden age during his rendition. kowtowing to none but the Great Mother (महामाई), Hailing the eternal Good to implant in many anotherOver generations, his name and divine aura shall remain pure and serene like soothing rain; Afflictions will Evans, peace will dawn  Down in the hearts who were touched upon ; However ordinary they might appear, Yonder was the benign grace so dear, As we celebrate his 152nd advent, You and I and all should take this our holy sacrament, And remember him with obeisance for his benison.  

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कविता 

आचार्य शिरीषचन्द्र  (1873-1966) को साष्टाङ्ग प्रणाम ! 

हे आचार्यदेव! आपको मेरा शत -शत प्रणाम,

आप तीन पीढ़ियों के हैं गुरु,

शिरीषचंद्र तव् नाम !


पिता आपके भुवनचन्द्र हैं,

शिष्य आपके ईश्वरचन्द्र !

माता आपकी साध्वी जगन्मोहिनी, 

तथा 'तंत्र साधना की गुरु' भी वही  !

'खड़ाह के राम' जतीशचंद्र, आपके बड़े भाई ! 

आप लक्ष्मण हैं - अनुज जिनके।

भक्तों में भैरव अनुभव होते हैं। 


'महिमाचरण तनया' - तुषारवासिनी देवी आपकी स्त्री है,

 बचपन में पायी थी ठाकुर-स्वामीजी का आशीष,

वे बचपन से ही बहुत भाग्यशाली थीं। 

आपको मेरा शत -शत प्रणाम ! 


(2) 

आप शेक्सपियर के साहित्य में डूबे रहते-

 डॉक्टर अमरनाथ के साथ

जस्टिस वुड्रूफ़ भी आपसे प्रभावित हुए। 

सुनकर आपके तंत्र-शास्त्र की बात।  

मुझे विद्यालय भवन में अनुशासन देखकर 

अंग्रेज प्रशासक रह गया अचम्भित !! 

आपके भीतर 'ज्ञान और भक्ति' युगलबन्दी देखकर,   

'बंगाल टाइगर' सब हैरान हुए। 

काले कपड़े पहनके ,

आपने कक्षा में प्रवेश किया.

पढ़ाया 'व्हाइट नाइट'

बमुश्किल आँखों को फाड़ कर इसे देखा जाता है। 

अंडुल - (मौरी) आप स्कूल की जान हैं, 

लेकिन छात्र ही आपके जीवनधन हैं। 

'शिक्षा' के साथ देते 'संस्कार',

इसीलिए करते हैं सब सम्मान। 


लेकिन पढ़े-लिखे छात्र तो सभी हैं

स्थापित संबंधित मामलों में.

आपको उन पर गर्व है.

अपने हृदय में प्रसन्न रहो


पूर्वी-पश्चिमी कला शैली

यह आपके लिए आसान है.

आत्मसातीकरण कैसे किया जाता है?

अगर आप छात्रों को देखें


विश्वविजयी विवेकानन्द को देखा है आपने, 

आपने उनकी बातें सुनी हैं !

तुमने उनका आशीर्वाद मन में रख लिया,

माना हुआ  जीवन धन्य है। 

आपको मेरा शत -शत प्रणाम ! 


(3) 

दक्षिणेश्वर में सुनी बातों को ,

आपने 'दक्षिण के नवद्वीप' (अंदुल?) में सुनाया  है।

गंगा में सरस्वती मिलाया 

तूने भूमि को सुन्दर बनाया है


स्कूल भवन में लगी आपकी संगमर्मर की मूरत ,

आपने असंख्य सुनाई काहिनी, 

तभी आपके आगमन पथ का आज नाम है-

आचार्य शिरीष सारनी !!


सदैव प्राचीन और अर्वाचीन 

उसकी सेवा की

आप संस्कृति के स्रोत हैं

बॉय फिल्में, अनुखुन। 


आप कई मायनों में प्रतिभाशाली हैं.

दर्शन, विज्ञान, संगीत, लय।

अपने आप को क्षमा करें

यह अनिर्वचनीय, निर्गुण, गुण प्रभावित करता है।


शिक्षक बाहर - गुरु गंभीर तू

भीतर एक ज्ञान-तप का वास है।

'बनो और बनाओ' - स्वामीजी के शब्द,

मानो कोई जीवित मूर्ति पकड़ रखी हो। 


आप को मानो ऊर्ध्वलोक से खींचकर उतारा गया था 

महामण्डल भाव- 'Be and Make ' को जागृत करने के लिए 

मानो शाम का दीपक जलाना हो तब 

उसका बत्ती पहले से बनाना होता है।

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जीवित कालेई किंवदंती तुमि,

छिले विशेष श्रद्धा भाजन। 

आजि सार्ध-शतवर्ष अतिक्रान्त, तबु

    तव स्मरणे भरे उठे मन। 


आप जीवित अवस्था में ही किंवदंती बन चुके थे ,

आप सभी के लिए विशेष श्रद्धा के पात्र थे। 

 आपके अवतरण के सार्ध -शतवर्ष (150 वर्ष ) आज बीत चुके हैं,  

लेकिन आजभी मन आपकी यादों से भर उठता है। 

  

पाण्डित्य तव गण्डीभाँगा - 

छिलो विश्व विद्यागत। 

विद्यालय निघण्ट हले शेष,

शुरू हतो शिक्षक-शिक्षण व्रत - Be and Make ! 


आपका पाण्डित्य देश-काल की सीमाओं को भी लाँघ जाता था, 

आप ने अपरा विद्या और परा विद्या (योग विद्या) - 

 दोनों का ज्ञान अर्जित किया था।  

जब शाम को स्कूल की छुट्टी हो जाती -

तब शुरू होता था नेता-प्रशिक्षण व्रत !  


जेनो नव -नालन्दार शीलभद्र तुमि, 

तव जश छूटे चतुर्दिक। 

आन्दुले तुमि भगीरथ सम। 

तुमि नूतन पथिकृत।। 


 नव-नालन्दा के शीलभद्र (सद्गुणों में श्रेष्ठ) मानो आप ही हों ;

आपका यश एकदिन चारों दिशाओं में फैलेगा।  

अन्दुल के तो भगीरथ सम हैं। 

आप  क्रांति नूतन-'Be and Make' के अग्रदूत हैं ! 

आपको मेरा शत -शत प्रणाम ! 



श्री सुशांत बन्दोपाध्याय 

अन्दुल मौरी विवेकानन्द युवा महामण्डल,

पूर्व छात्र(1962-1969), 

 महियादी कुंडू चौधरी संस्थान।

तारीख- 28 जुलाई, 2024.

मोबाइल - 9831105587.

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[नालंदा के शीलभद्र (529-654), एक बौद्ध विद्वान और दार्शनिक थे।  वे नालन्दा महाविहार के अध्यक्ष थे। वे प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के गुरु रहे थे। जनश्रुतियों में सिलाव डीह आचार्य शीलभद्र का निवास स्थान माना जाता है। आज भी चीन से आने वाले बौद्ध धर्मावलम्बी यहां आकर शीश नवाते हैं। इस स्थान का उल्लेख ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत से लेकर प्राचीन नालंदा विवि के आख्यानों में मिलता है। वे नालंदा मठ के प्रमुख थे और योगाचार विचारधारा के विशेषज्ञ थे। शीलभद्र का जन्म बंगाल के समताता क्षेत्र के एक प्रसिद्द ब्राह्मण परिवार में हुआ था। शीलभद्र, चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग के गुरु थे।  ह्वेनसांग, शीलभद्र के ज्ञान और बुद्धिमत्ता के बहुत बड़े प्रशंसक थे।  शीलभद्र की शिक्षाओं का ह्वेनसांग पर गहरा प्रभाव पड़ा था और उन्होंने शीलभद्र के कई कार्यों का चीनी में अनुवाद किया।  शीलभद्र की मृत्यु 645 ईस्वी में हो गई।  जनश्रुतियों के मुताबिक, शीलभद्र का निवास स्थान सिलाव डीह था।  सिलाव (डीह) का खाजा आज भी प्रसिद्द है ! का नालन्दा विश्व विद्यालय के संदर्भ में ऐतिहासिक महत्व है। प्राचीन नालन्दा विश्वविद्यालय के समय यह जगह उस जमाने के प्रसिद्ध आचार्य शीलभद्र का निवास स्थान हुआ करता था। इस कारण से इस स्थल की महत्ता काफी आधिक है। जबकि बर्तमान समय में इसका अतिक्रमण हो रहा है। 7 वीं सदी में ह्वेनसांग के समय प्राचीन नालन्दा विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे , जो योग के एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। उसी शीलभद्र से जुड़ाव के चलते'सिलाओडीह', जो कालांतर में सिलाव बना। आज यह स्थल अपनी दुर्दशा पर बेहाल है।जिसे लेकर राजगीर के विधायक ने इसके संरक्षण की आवाज उठाई है।

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আমার সহকর্মী প্রত্যেক শিক্ষক 

ও 

আমার প্রত্যেক ছাত্রের প্রতি -

পথের পরিচয়ের স্মৃতি মনের গোপন কোন ,

রাখবো আমি , রেখো তুমি অতি সঙ্গোপনে। 

বিদায় বেলায় মিলন রাখি বাঁধনু তোমার হাতে,

আশা অতীত রইবে বেঁচে ভাবি কালের সাথে। 

-- শ্রী প্রাণগোপাল শ্রীমানী 

অবসরপ্রাপ্ত সহ -প্রধান শিক্ষক 

  মহিয়াড়ি কুণ্ডুচৌধুরী  ইন্সটিট্যুশন

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मेरे प्रत्येक साथी शिक्षक

 और

 मेरे प्रत्येक छात्र को समर्पित  

अनुसरणीय पथ के पहचान की स्मृति मन का रहस्य है,

मैं इसे रखूंगा, तुम भी इसे बहुत संभालकर रखना। 

विदाई के वक़्त मैंने तुम्हारे हाथ में प्रेम-बंधन बाँध दिया है,

मुझे आशा है कि अतीत जीवित रहेगा और भविष्य समय के साथ चलता जायेगा।

-- श्री प्राणगोपाल श्रीमानी 

सेवानिवृत्त उप-प्रधानाचार्य

महियाड़ी कुण्डू चौधरी इंस्टीट्यूशन

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To every one of my fellow teachers

 and 

to every one of my students -


The memory of the identity of the path is a secret of the mind, 

I will keep it, you also keep it very carefully.

At the time of farewell, I put a tie in your hand,

I hope the past remains alive and future with time.

-- Shri Prangopal Srimani 

Retired Vice-Principal

Mahiyadi Kunduchowdhury Institution  

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আচার্য শিরীষ চন্দ্র প্রণতি

হে আচার্যদেব ! তোমায় সশ্রদ্ধ প্রণাম। 

তুমি তীন পুরুষের শিক্ষা গুরু ,

শিরিশচন্দ্র তব নাম। 

পিতা তোমার ভুবনচন্দ্র, ছাত্র ঈশ্বরচন্দ্র। 

মাতা সাধ্বী জগন্মোহিনী,

তথা গুরু -সাধন তন্ত্রের। 


কামদেব পন্ডিতের বংশধর তুমি, 

প্রেসিডেন্সি কলেজের সেরা ছাত্র, 

শিক্ষকতা পেশা নির্বাচিলে ; 

না করিতে কাজ ব্রাত্য। 


'খড়দহের রাম ' যতীশচন্দ্র ,

জ্যেষ্ঠ ভ্রাতা তব। 

তুমি লক্ষ্মণ -অনুজ তাঁর। 

ভক্ত ভৈরব অনুভব। 


'মহিমা তনয়া ' - তুষারবাসিনী 

হলেন তোমার সহধর্মিনী। 

ঠাকুর -স্বামীজী পরশ আশিষে ,

অতি শৈশব ই ছিলেন ধন্য তিনি।   


আবেদন করেন যতীশচন্দ্র,  

আন্দুল -(মৌরি)স্কুলের জন্যে। 

শিক্ষকতার যে আদর্শ 

তুমি রেখে গিয়েছো এই জগতে 

রয়েছে তা আজও অনুসরণীয়। 

রয়েছে তা সবার স্মৃতি তে।  


(2) 

শেক্সপিয়ারের সাহিত্যে নিমগ্ন তুমি  

ডাক্তার অমরনাথ সঙ্গে 

বিচারপতি উড্রফ হন বিমুগধ। 

তব তন্ত্র আলাপ প্রসঙ্গে। 


বিদ্যালয় ভবনে শৃঙ্খলা দেখি 

ইংরেজ প্রশাসক আচম্ভিত। 

জ্ঞান-ভক্তির যুগলবন্দিতে ,

'বাংলার বাঘ' বিস্মিত।  


কালো পোশাকে সজ্জিত হয়, 

তুমি প্রবেশিলে শ্রেণী কক্ষে। 

পড়াতে পড়াতে 'White Knight' 

সবে দেখে বিস্ফরিত চক্ষে।  


জ্ঞান-গর্ভ উদ্ধৃতি সব,

ব্ল্যাকবোর্ডে লিখে রাখতে ;

পুরানো ছাত্ররা সব ভুলে যায়। 

পারেনা সেগুলি ভুলতে।  


তব শিক্ষিত ছাত্র রা সব 

প্রতিষ্ঠিত স্ব স্ব ক্ষেত্রে। 

তাদের গর্বে গর্বিত তুমি ,

হও হুল্লসিত নিজ চিত্তে। 


প্রাচ্য -পাশ্চাত্য কৃষ্টি ধারা 

সহজে মিলেছে তোমাতে। 

আত্তীকরণ হয় কেমনতর 

দেখালে ছাত্র মাঝে তে। 


বিশ্ববিজয়ী বিবেকানন্দ কে দেখেছো তুমি 

শুনেছ তাঁর বাণী। 

তাঁর আশীষ পরশ মাথায় নিয়েছ ,

জীবন ধন্য মানি। 


(3)


দক্ষিণেশ্বরে শোনা কথা ,

তুমি 'দক্ষিণ নবদ্বীপে ' (আন্দুল?) শুনায়েছ। 

গঙ্গা সনে সরস্বতী 

ভূমি সুন্দর মিলায়েছ।   


বিবেক-বাণীতে সিঞ্চিত করেছ 

যুব -কিশোরের মন। 

কর্ম ক্ষেত্র নয়, সাধন-ক্ষেত্র করেছ ,

তব বিদ্যা নিকেতন। 


বিদ্যালয় ভবনে তব মর্মর মূর্তি,

কহিছ কত না কাহিনী 

তব আগমন পথ হয়েছে আজিকে 

আচার্য শিরিষ সারনী।  


চির পুরাতন নতুন করে

করেছো যে পরিবেশন ,

তোমা উৎসারিত সংস্কৃতি ধারা 

বয় ফ্ল্পধারায়, অনুখন।  


শ্যামা মায়ের সাথে শ্যামেরে বেঁধেছেন,

প্রেমিক মহারাজ। 

'প্রেমিক উৎসবে ' তুমি প্রেমিক কে বেঁধেছ। 

ভক্ত হৃদয় মাঝে।  


নানাগুনে গুণী তুমি ,

দর্শন, বিজ্ঞান , সুর , ছন্দ। 

নিজগুনে ক্ষমা করো 

এই অক্ষম, নির্গুণ , গুন্ মুগ্ধে।   


বাইরে শিক্ষক - গুরু গম্ভীর তুমি 

ভিতরে এক জ্ঞান-তাপস বাস করে। 

'Be and Make' - স্বামীজীর কথা ,

যেন জীবন্ত এক মূর্তি ধরে। 


তোমা কর্ষিত ঊর্ধ্বের ভূমিতে 

মহামন্ডল ভাব উপ্ত। 

যেন সন্ধ্যাপ্রদীপ জ্বালানোতে 

পলিতা পাকানোর ইতিবৃত্ত। 


জীবিত কালেই কিংবদন্তি তুমি

ছিলে বিশেষ শ্রদ্ধা ভাজন। 

আজি সার্ধ - শতবর্ষ অতিক্রান্ত, তবু 

তব স্মরণে ভরে উঠে মন। 


যেন নব -নালন্দার শীলভদ্র তুমি 

তব যশ ছুটে চতুর্দিক , 

আন্দুলে তুমি ভগীরথ সম। 

তুমি নুতন পথিকৃৎ ,


পাণ্ডিত্য তব গন্ডি ভাঙ্গা- 

ছিল বিশ্ব বিদ্যা গত। 

বিদ্যালয় নিঘন্ট হলে শেষ,

শুরু হতো Be and Make' শিক্ষক-শিক্ষন ব্রত।     

শ্রী সুশান্ত বন্দোপাধ্যায় 

আন্দুল মৌরি বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল ,

প্রাক্তন ছাত্র , মহিয়াড়ি কুন্ডু চৌধরী ইনস্টিটিউশন। 

(১৯৬২-১৯৬৯) 

তারিখ - ২৮ জুলাই, ২০২৪।

মোবাইল - ৯৮৩১১০৫৫৮৭।  

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Binary Stars - Orbiting Each Other :युग्म तारा प्रणाली वह तारा प्रणाली होती है जिसमे दो तारे एक दूसरे से गुरुत्चाकर्षण मे बंधे होते है। इस तरह की तारा प्रणाली मे या तो एक तारा दूसरे तारे की परिक्रमा करता है या दोनो तारे उन दोनो के मध्य स्थित एक गुरुत्वाकर्षण केंद्र की परिक्रमा करते है। ब्रह्मांड मे अधिकतर तारे युग्म तारा प्रणाली मे है। जैसे हमारे पति-पत्नी / भाई-बहन / मामा -मामी के जोड़े  होते है, वैसे ही हमारे ब्रह्मांड मे अधिकतर तारों के भी जोड़े होते है। हमारे सौर मंडल जिसमे हमारा सूर्य अकेला है वास्तविकता मे यह एक दूर्लभ संयोग है। अधिकतर तारों के साथ उनके जुड़वा होते है। 

       इन तारो मे अधिक दीप्तीमान तारा प्राथमिक तारा(A) कहलाता है जबकि दूसरा कम दीप्तीमान तारा द्वितियक तारा (B) कहलाता है। यदि दोनो तारो की दीप्ती समान हो दो उन्हे खोजने वाला उन्हे प्राथमिक और द्वितियक दर्जा प्रदान करता है। एक अनुमान के अनुसार हमारे रात्रि आकाश मे दिखने वाले तारों मे 85% तारे युग्म तारे है। इनमे से कुछ तीन तारा प्रणाली और कुछ प्रणालीयो मे इससे भी अधिक तारे है। 

वशिष्ठ और अरुंधति नक्षत्र : प्रत्येक नव-विवाहित हिन्दू स्त्री-पुरुष को विवाह के बाद - सिन्दूर दान के समय आकाश में अरुंधति-वसिष्ठ तारे (बाइनरी स्टार्स - एक दूसरे की परिक्रमा करने वाले तारे) को क्यों देखना चाहिए?

प्राचीन भारतीय संस्कृति में विवाह को धार्मिक अनुष्ठान माना जाता है , इसलिए भारत में हिंदुओं के 'क्षत्रिय विवाह समारोह' में या दक्षिण भारतीय विवाह समारोहों के दौरान, आपको एक अनुष्ठान देखने को मिलता है, जिसमें दूल्हे और दुल्हन को सप्तर्षि मंडल से कुछ तारे दिखाए जाते हैं। इन तारों को हम वशिष्ठ और अरुंधति नक्षत्र कहते हैं।

हज़ारों साल पहले प्राचीन ऋषियों ने आकाश में दो छोटे-छोटे बिंदुओं को जुड़वाँ तारा प्रणाली के रूप में पहचाना था। उन्होंने इसे अरुंधति-वसिष्ठ नाम दिया। पारंपरिक भारतीय खगोलशास्त्र में 'मिज़ार' (Mizar) को वशिष्ठ और 'अलकोर' (Alcor) को अरुंधति के नाम से जाना जाता है। इस जोड़े को आदर्श विवाह का प्रतीक माना जाता है। आज भी अरुंधति और ऋषि वसिष्ठ को आदर्श दम्पति माना जाता है, जो वैवाहिक पूर्णता, निःस्वार्थ प्रेम और निष्ठा का प्रतीक थे।

ऐसा कहा जाता है कि वे दोनों अलग-अलग वर्ण व्यवस्था से थे। फिर भी, वे एक-दूसरे का सम्मान करते थे और सभी से सम्मान प्राप्त करते थे। 

" निवृत्तिस्तु महाफला: "  मनुस्मृति का उदघोष है । 

किन्तु भौतिकवादियों को तो पञ्चभूतों का भी ज्ञान नहीं होता । कोई भी भौतिकवादी क्या यह कह सकता है की उनकी प्रवृत्ति के गर्भ से निवृत्ति निकल आयेगी ? अगर प्रवृत्ति का पर्यवसान निवृत्ति में नहीं है तो उसकी सार्थकता कैसे मानी जायेगी ? प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आना महाफल दायक होता है।  लेकिन, " प्रवृत्ति का पर्यवसान निवृत्ति में हो तब प्रवृत्ति की सार्थकता है ओर निवृत्ति का पर्यवसान निर्वृति ( परमानन्द स्वरुपा मुक्ति की समुपलब्धि) में हो तब निवृत्ति की सार्थकता है "।   

पहली बात तो यह कि, व्यक्ति को 'संसारी' 'गृहस्थ' बनना चाहिए, फिर धीरे-धीरे सांसारिक चीजों से वैराग्य प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, और अंत में मोक्ष प्राप्ति की दिशा में कार्य करना चाहिए।

कुछ हिन्दू समुदायों में, विवाह समारोह आयोजित करने वाले पुजारी, विवाह द्वारा जोड़े के बीच आने वाली निकटता के प्रतीक के रूप में नक्षत्र की ओर संकेत करते हैं।

केवल इन्हीं दो तारों के समूह को देखने/इंगित करने के पीछे का रहस्य यह है कि , अधिकांश जुड़वां तारा प्रणाली में एक तारा स्थिर रहता है और दूसरा उसके चारों ओर घूमता है, जबकि अरुंधति और वशिष्ठ दोनों समकालिक रूप से घूमते हैं

यह बताने के लिए कि पति और पत्नी दोनों को सभी कार्य तालमेल से करने चाहिए तथा पति को पत्नी के इर्द-गिर्द नहीं घूमना चाहिए या पत्नी को अपने पति के इशारे पर नहीं नाचना चाहिए, इस अनुष्ठान को विवाह समारोह का एक हिस्सा बनाया गया।

यह कहना कि विवाह में न तो पति कम है और न ही पत्नी

विवाह में यह नहीं बताया जाता, हालांकि पंडित जोड़े को बाहर ले जाता है और जुड़वाँ तारा दिखाता है। चूंकि यह एक मौज-मस्ती की रस्म बन गई है, इसलिए कई लोग पूछने की भी जहमत नहीं उठाते।

शादी के समय नववधूवर के साथ अग्नि परिक्रमा से सात कदम (सप्तपदी ) चलने के बाद पुरोहित जी उन्हें सप्त ऋषि मंडल में पति के साथ चमकने वाली अरुंधती का दर्शन कराते हैं

अगर शादी सुबह के समय होता भी है, तब भी नववधू से यह पूछा जाता है कि मन में वर-वधू वशिष्ठ और अरुंधती का स्मरण करके उन्हें नमस्कार करना है।

ऐसा करके अपने दाँपत्य जीवन शुरू करने से उनकी जिंदगी भी अरुंधती वशिष्ठ जैसा अन्योन्य दाँपत्य जिंदगी बन जाती है। उन दोनों के बीच में एक दूसरे के प्रति सद्भावना सदा बनी रहती है।

हमारे देश में कोई पूजा या व्रत करते समय त्रिमूर्तियों को उनकी पत्नियों के साथ याद करते हुए [लक्ष्मीनारायण-उमामहेश्वर-अरुंधती वशिष्ठाभ्यां नमः कहते हुए]  पूजा स्थल पर उन्हें स्वागत करने का रिवाज है।

श्री लक्ष्मी नारायणाभ्यांनमः उमा महेश्वराभ्यां नमः। 

वाणी हिरण्य गर्भाभ्यांनमः अरुंधती वशिष्ठाभ्यां नमः।। 

 भगवान लक्ष्मीनारायण (माँ-ठाकुर), उमामहेश्वर के साथ-साथ तुरंत आनेवाले नाम अरुंधती और वशिष्ठ ही हैं। ऐसा उन्नत स्थान पाया दंपति सदा हमें आशीष देने की कामना करेंगे।

कई लोग सवाल करते हैं कि दिन में होने वाली शादियों में भी अगर पंडित जी उन्हें दिखा दें तो क्या फायदा? उन्हें तो नहीं देखा जाता।

सूरज की रोशनी की वजह से हम उन्हें देख नहीं पाते, लेकिन वे वहाँ होते हैं। इसलिए पुजारी उस दिशा में इशारा करते हैं।

आश्चर्य की बात यह है कि हमारे पूर्वज/विद्वान ऋषि-मुनि बिना किसी दूरबीन के भी यह जान सकते थे कि ऐसी जुड़वां तारा प्रणाली मौजूद है और वे कैसे घूमते हैं

भारत में महिलाओं का समाज में उच्च स्थान था। इसे अरुंधति-वशिष्ठ कहते हैं, न कि वशिष्ठ-अरुंधति। प्राचीन भारत में महिलाओं को पुरुषों से अधिक सम्मान दिया जाता था। आज तक हम हर पूजा की शुरुआत इसी से करते हैं

'अरुंधति वशिष्ठभ्यां नमः।'(अरुंधति और वशिष्ठ को प्रणाम) 

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महामण्डल का नेता कहता है - " कोसने वाले लाख कोसते रहें, अगर मैं मर भी गया तो राख के ढेर में से फीनिक्स पक्षी की तरह दोबारा उठ खड़ा हो जाऊंगा। ऐसे में अधिकांश लोगों के मन में यह सवाल उठ सकता है कि आखिर फीनिक्स पक्षी क्या है ? और क्या है उसकी कहानी। 

         ये पौराणिक कथा इतनी प्रचलित है कि अमरता,  जिजीविषा, जीवट और जज्बे के लिए बार बार इसका उल्लेख किया जाता है, इसकी मिसाल दी जाती है। फीनिक्स एक रंगीन पक्षी है और इसका मिथक यूनानी परंपरा से आया है। यहां इसे फोनीकोपेरस (जिसका अर्थ है लाल पंख) नाम दिया गया। कालांतर में इस अद्वितीय पौराणिक प्राणी को अमरता और पुनरुत्थान का एक जीवित प्रतीक मान लिया गया। इसका जीवनचक्र 500 से 1000 साल का होता है और सबसे चमत्कारिक है इसका अंत। ये है कहानी एक ऐसे पक्षी की जो न तो अंडे देता है और न ही उसके बच्चे होते है। लेकिन ये पक्षी अमर है…अमर इसलिए नहीं कि वो कभी नहीं मरता बल्कि वो तो अपनी मृत्यु का इंतजाम (पञ्चाङ्ग देखकर मृत्यु की तारीख और समय) खुद तय करता है फिर भी कभी खत्म नहीं होता   

      एक दिन जब दुनिया बहुत छोटी थी, प्रकृति में सब एक दूसरे से बात करते थे उस दिन सूरज ने झांककर धरती की तरफ देखा तो उसे एक शानदार पक्षी दिखा। ये बेहद रंगबिरंगा, सौंदर्यशाली और आकर्षक था। उसके रंग झिलमिला रहे थे और पंखों से जैसे रोशनी फूट रही थी। लाल सुनहरे रंग के पक्षी की सुंदरता से सूरज भी चकाचौंध हो गया। इसके बाद उसने पुकारकर कहा “सुनो गौरवशाली फीनिक्स..क्या तुम मेरे पक्षी बनोगे और हमेशा हमेशा के लिए जीवित रहोगे।” सूरज की इस पुकार से फीनिक्स अचंभित हुआ और खुश भी। वो देर कर आकाश और बादलों के बीच नृत्य करता रहा और फिर सूरज को जवाब दिया “गौरवशाली सूरज, आज के दिन से मेरे सारे गीत आपके लिए होंगे।” और इस तरह फीनिक्स और सूरज के बीच ये समझौता हुआ।

     लेकिन फीनिक्स का सौंदर्य ही उसका शत्रु बन गया। उसे जो भी देखता, स्त्री पुरुष बच्चा, वो उसकी ओर दौड़ता और उसे पकड़न की कोशिश करता। हर कोई फीनिक्स को अपने काबू में कर लेना चाहता था। इससे परेशान फीनिक्स ने वहां से उड़ान भरी और पूर्व की ओर चला आया। वो उड़ता गया उड़ता गया और आखिरकार लंबी उड़ान के बाद रेगिस्तान में आ गया। रेगिस्तान सभी मनुष्यों से मुक्त था। यहां पहुंचकर फीनिक्स  खुश हुआ। वो यहां स्वतंत्र रूप से उड़ान भरता और सूर्य की स्तुति के गीत गाता। यहां उसने शांति और संगीतमय दिन व्यतीत किए। इस बात को सालों बीत गए लेकिन फीनिक्स को मृत्यु ने नहीं छुआ। लेकिन 500 वर्ष बीत गए थे और अब वो वृद्ध और अशक्त हो चुका था। अव न वो बादलों को छूने वाली उड़ान भर सकता था न ही उसके गले में इतनी शक्ति थी कि सुंदर गीत गा सके। वो इस तरह नहीं जीना चाहता था। 

      फीनिक्स ने सोचा ‘मुझे फिर से जवान होना है, उड़ना है, गीत गाना है।’ इसके बाद उसने एक बार फिर सूर्य का आह्वान किया। उसने कहा ‘हे गौरवशाली सूरज, मुझे युवा और मजबूत बनाओ।’ लेकिन सूरज ने उसकी पुकार नहीं सुनी। इसके बार फीनिक्स बार बार ये दोहराता रहा मगर सूरज की तरफ से कोई जवाब नहीं आया। अंतत: फीनिक्स ने तय किया कि वो उसी देश वापस जाएगा, जहां से आया था। वहीं जहां शुरु में सूरज ने उसे पुकारा था। अब वो उस स्थान पर जाकर सूरज को पुकारेगा। इसके बाद फीनिक्स ने एक लंबी उड़ान भरी। वो रेगिस्तान, पहाड़ों, घाटियों, जंगलों और अनेक देशों के ऊपर से उड़ता रहा। वृद्ध फीनिक्स की ये यात्रा उसे थका देने वाली थी। वो रास्ते में विश्राम के लिए रुकता तो अपने पंखों में दालचीनी की छालें और कुछ सुगंधित जड़ी-बूटियाँ भर लेता। कुछ पंजों में उठा लेता और फिर उड़ चलता। आखिरकार वो उस स्थान पर पहुंचा जहां के लिए चला था।

      फीनिक्स अपने गंतव्य पर पहुँच गया। वहां उसे एक ऊँचा पेड़ मिला और उसने उसी पेड़ पर अपना घोंसला बनाने का सोचा। रास्ते से लाई हुई दालचीनी की छाल से उसने घोंसला बनाया और जड़ी-बूटियों से ढंक दिया। इसके बाद फीनिक्स पास के एक पेड़ के पास गया और लोहबान नाम का सुगंधित गोंद इकट्ठा किया। उससे एक अंडे जैसा आकार बनाकर घोंसले में रख दिया

    अब फीनिक्स तैयार था। उसने अपना सिर आसमान की तरफ उठाया और अंतर्मन से पुकार लगाते हुए गीत गाया ‘हे गौरवशाली सूरज, मुझे फिर से युवा और शक्तिशाली बनाओ।’ इस बार सूरज तक उसकी आवाज पहुंची। सूरज ने तेजी से बादलों का पीछा किया और हवाओं को रोक दिया। सूरज अपनी पूरी शक्ति से चमकने लगा और उसके प्रचंड ताप से बचने के लिए वहां के सभी जीव अपने अपने स्थान में लौट गए। लेकिन फीनिक्स घोंसले पर बैठा रहा। 

    वो सूरज की रोशनी से नहा उठा। अचानक एक चमक उठी और फीनिक्स आग से घिर गया। इस आग में कुछ देर के लिए सब कुछ दिखना बंद हो गया। थोड़ी देर बाद आग की लपटें बुझ गई लेकिन फीनिक्स कहीं नजर नहीं आया। आश्चर्य, वो पेड़ और घोंसला भी नहीं जला। वहां केवल चांदी की तरह चमकीली और थोड़ी धूसर राख नजर आ रही थी

     और फिर चमत्कार हुआ..राख में हलचल हुई और उसके भीतर से कुछ उठने लगा। धीरे धीरे एक पक्षी का सिर बाहर आया। वो बहुत छोटा और नाजुक था। लेकिन हर क्षण के साथ पक्षी बढ़ता गया और कुछ समय बाद वहां एक युवा और ऊर्जावान फीनिक्स पक्षी मौजूद था। अपनी ही राख से एक नया फीनिक्स पैदा हुआ..उसने अपनी गर्दन उठाई, सुंदर पंख फैलाए और आकाश में ऊंची उड़ान भरने लगा

     ये पौराणिक कहानी अमर और अमिट है..बिलकुल फीनिक्स की तरह। किवदंतियों के अनुसार फीनिक्स अब भी दुनियाभर में उड़ान भरता है। लेकिन हर 500 साल में जब वो कमजोर हो जाता है तो अपनी जड़ों की ओर लौट आता है। सुगंधित जड़ी-बूटियों से घोंसला बनाता है। सूर्य का आह्वान करता है उसके लिए गीत गाता है और सूर्य की किरण से आग में तब्दील हो जाता है। अपनी ही राख से वो फिर नया जन्म लेता है और फिर एक सुंदर जीवन की ओर बढ़ जाता है

[साभार -श्रुति कुशवाहा :  2001 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (M.J, Masters of Journalism)। ]

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