मंगलवार, 25 जून 2024

🏹🔱🕊 मायावती आश्रम का आकर्षण -1 : अद्वैत और अद्वैत आश्रम🏹🔱🕊[क्या वेदान्त भावी युग का धर्म होगा ? (8 अप्रैल, 1900 को सैन फ्रांसिस्को में दिया गया भाषण) [ धर्म : उसकी विधियाँ और प्रयोजन 🏹🔱]द्रष्टा ,ऋषि या पैगम्बर नेता) बन जाना ही धार्मिक होना है ! 🏹🔱🕊 [सर्वं ब्रह्म मयं -रे रे , सर्वं 'सेई' मयं !]

 🏹🔱🕊मायावती आश्रम का आकर्षण🏹🔱🕊

(संकलन एवं संपादन - स्वामी सत्यप्रियानंद)

पुस्तक का हिन्दी भावानुवाद  

[The Charm of Mayavati Ashrama :Compiled and Edited by - Swami Satyapriyananda /साभार /https://historicalsouvenirs.rkmm.org/s/hs/m/the-charm-of-mayavati-ashrama/a/advaita-and-the-advaita-ashrama]

1. अद्वैत और अद्वैत आश्रम

[1. ADVAITA AND THE ADVAITA ASHRAMA]

2. मायावती का संदेश

[2. THE MESSAGE OF MAYAVATI]

3. मायावती आश्रम के बारे में स्वामीजी का दृष्टिकोण और आश्रम की प्राकृतिक सुंदरता

[3. SWAMIJI’S VISION OF THE ASHRAMA AT MAYAVATI AND THE ASHRAMA’S SCENIC BEAUTY]

4. अग्रदूत: स्वामी स्वरूपानंद

[4.THE PIONEERS: SWAMI SWARUPANANDA]

5. अग्रदूत: सेवियर

[5.THE PIONEERS: THE SEVIERS]

6. मायावती आश्रम में स्वामी विराजानंद

[6. SWAMI VIRAJANANDA AT MAYAVATI]

7. अद्वैत आश्रम, मायावती के कुछ अध्यक्षों का संक्षिप्त जीवन-चित्र

[7. A BRIEF LIFE-SKETCH OF SOME OF THE PRESIDENTS OF ADVAITA ASHRAMA, MAYAVATI]

8. अद्वैत आश्रम, मायावती

[8. THE ADVAITA ASHRAMA, MAYAVATI]

9. बगीचे में सुनी गई बातें: एक रूपक

[9. OVERHEARD IN A GARDEN: AN ALLEGORY]

10. नीलम

[10. A SAPPHIRE]

11. मायावती, प्रबुद्ध भारत का घर

[11. MAYAVATI, THE HOME OF PRABUDDHA BHARATA]

12. मायावती आश्रम की यादें

[12. REMINISCENCES OF MAYAVATI ASHRAMA]

13. मायावती अनुभव

[13. THE MAYAVATI EXPERIENCE]

14. अविस्मरणीय दिन

[14. UNFORGETTABLE DAYS]

15. अद्वैत आश्रम, मायावती मेरी यादें

[15. ADVAITA ASHRAMA, MAYAVATI MY MEMOIRS]

16. ‘लोहाघाट में ईश्वर का अवतरण’

[16. ‘DESCENT OF THE DIVINE AT LOHAGHAT’]

17. अद्वैत आश्रम कलकत्ता में इसका प्रकाशन विभाग

[17. ADVAITA ASHRAMA IT’S PUBLICATION DEPARTMENT AT CALCUTTA]

18. अद्वैत भाईचारे का आकर्षण

[18.THE CHARM OF ADVAITA BROTHERHOOD]

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मायावती आश्रम का आकर्षण-1. 

स्वामी जी का विश्वास था कि " श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से ही सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है !" और अद्वैत आश्रम, मायावती का उद्घाटन समारोह 19 मार्च, 1899 को हुआ, जो कि हिन्दू कैलेंडर के अनुसार उस वर्ष अद्वैतस्वरुप श्री रामकृष्ण परमहंसदेव की जन्मतिथि - 'फाल्गुन शुक्ल द्वित्या' थी !  इस अवसर पर  स्वामी विवेकानन्द ने  'अद्वैत आश्रम' मायावती, अल्मोड़ा, हिमालय के संचालन के संबंध में एक 'प्रोस्पेक्ट्स' ( उद्देश्य और कार्यक्रम पुस्तिका) में सम्मिलित किये जाने के लिये जो दिशानिर्देश स्वामी स्वरूपानन्द को  स्वामी जी ने  पत्र में लिख भेजी थीं, वह वि ० सा० खण्ड 9 के 318 वें पृष्ठ पर 'अद्वैत आश्रम, हिमालय ' शीर्षक से वर्णित हैं। 

अद्वैत आश्रम, मायावती, हिमालय के आदर्श, उद्देश्य और कार्क्रम का विस्तृत विवरण देने वाले प्रॉस्पेक्टस के साथ, विवेकानंद ने स्वामी स्वरूपानंद को एक संक्षिप्त नोट लिखा था कि प्रॉस्पेक्टस प्रकाशित होने पर उसमें कौन-कौन से नाम होने चाहिए। [यहाँ # यह ध्यान देने की बात यह है कि विवेकानन्द पहले कैप्टन सेवियर के नाम का उल्लेख करने के बजाए श्रीमती सेवियर के नाम को उनके आगे रखते हैं। क्योंकि अद्वैत आश्रम को धरातल पर उतारने में श्रीमती सेवियर ही प्रेरक शक्ति (driving force) थीं, जो स्वामीजी तथा उनके अनुयायियों से अक्सर सम्पर्क किया करती थीं। ]  

नोट के कुछ अंश इस प्रकार हैं:

" प्रिय एस (स्वरूपानन्द)

मुझे कोई आपत्ति नहीं है कि आश्रम  के  'Prospectus ' (या उद्देश्य और कार्यक्रम  पुस्तिका) में शीर्ष स्थान पर श्रीमती सेवियर का नाम # हो या मेरा,  या किसी अन्य का; किन्तु  प्रेषक के जगह पर सेवियर दंपत्ति का ही नाम रहना चाहिए।  यदि आवश्यक लगे तो  मेरा नाम भी दे सकते हो।

            मैं तुम्हें अद्वैत आश्रम, मायावती के 'प्रॉस्पेक्टस'   में छापने के लिए तुम्हारे विचारार्थ कुछ पंक्तियां भेज रहा हूं। बाकी ठीक हैं। मैं जल्द ही ड्राफ्ट डीड भेजूंगा। प्रॉस्पेक्टस में छापने के लिए कुछ दिशानिर्देश इस प्रकार होंगे:

                          "अद्वैत आश्रम , हिमालय का उद्देश्य और कार्यक्रम "

           स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्धारित -विवरण पत्रिका  

जिसमें यह जगत-ब्रह्माण्ड अवस्थित है, जो स्वयं इस ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट है, जो स्वयं यह विश्व बन गया है; जिसमें प्रत्येक आत्मा अवस्थित है, और जो प्रत्येक आत्मा में अवस्थित है, जो मनुष्य की आत्मा है; उसको और इसीलिए सम्पूर्ण विश्व को अपनी ही आत्मा के रूप में समझ लेना' ही समस्त भय का विनाश और क्लेश का अन्त करता है। और मोक्ष (अनन्त मुक्ति) की उपलब्धि कराता है। जहां कहीं भी प्रेम का विस्तार हुआ है अथवा व्यष्टि या समष्टि के कल्याण में प्रगति हुई है, वह इस शाश्वत सत्य -' समस्त प्राणियों में एकत्व ' की अनुभूति, बोध और व्यव्हार के द्वारा ही हुई है।   

"पराधीनता (मन और इन्द्रियों की गुलामी) दुःख है। स्वतंत्रता ही सुख है।" अद्वैत -दर्शन ही एकमात्र दर्शन है, जो मनुष्य को अपनी पूर्ण उपलब्धि कराता है -जो मनुष्य को अपने मन और इन्द्रियों का स्वामी बना देता है। विवेक-दर्शन का अभ्यास समस्त पराधीनता और उससे सम्बन्धित अन्धविश्वास (देहाध्यास या M/F भाव) को उतार फेंकता है और इस प्रकार हमें कष्ट सहने में बहादुर और कर्म करने में वीर बनाता है और अन्ततोगत्वा समस्त प्रकार के बन्धनों से मुक्त कर देता है। 

अब तक इस आर्य सत्य ~ 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' का द्वैतवादी दुर्बलता के परिवेश से पूर्णतः मुक्त रूप में प्रचार करना संभव नहीं हो सका है; हमारा विश्वास है कि केवल इसी कारण यह मंगलमय सत्य (Noble Truth-महावाक्य) समग्र मानवजाति के लिए अधिक प्रभावकारी और उपयोगी नहीं हो सका है।

इस एक सत्य -'एकम् सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति' (देह ही देवालय है, 'प्रत्येक जीव शिव है')  को व्यक्तियों के जीवन को उदात्त बनाने तथा समस्त मानवजाति को उत्प्रेरित करने के उद्देश्य से हिमालय के शिखर पर, इस सत्य की प्रथम स्फुरण-भूमि पर, हम इस अद्वैत आश्रम की स्थापना कर रहे हैं।

आशा की जाती है कि यहाँ अद्वैत-दर्शन के अभ्यास (विवेक-दर्शन के अभ्यास) को समस्त  अंधविश्वासों और दुर्बलताजनक संदूषणों से मुक्त रखा जा सकेगा। यहाँ केवल शुद्ध सरल एकात्मवाद के अतिरिक्त और कुछ भी न पढ़ाया जायेगा, न व्यवहार में लाया जाएगा; और अन्य सभी दर्शनों से हमारी पूर्ण सहानुभूति होते हुए भी यह आश्रम अद्वैत --केवल अद्वैत (विवेक-प्रयोग) के लिए ही समर्पित है। ( वि०सा०खण्ड- 9,पृष्ठ318)

[उपरोक्त पंक्तियाँ अद्वैत आश्रम, मायावती, अल्मोड़ा, हिमालय के 'prospectus' (विवरण-पुस्तिका) में शामिल करने के लिए स्वामी विवेकानन्द के द्वारा मार्च, 1899 में  एक पत्र में भेजी गयी थीं। महामण्डल के कर्मी /भावी नेता को "THE BELUR MATH: AN APPEAL" and "THE RAMAKRISHNA HOME OF SERVICE VARANASI: AN APPEAL" दोनों अपील भी पढ़ना चाहिए।]

1.

🏹🔱🕊 अद्वैत और अद्वैत आश्रम🏹🔱🕊

[1. ADVAITA AND THE ADVAITA ASHRAMA]

[दक्षिण भारत के एक आश्रमवासी (inmate-सहवासी) द्वारा लिखित तथा प्रबुद्ध भारत के जुलाई 1905, अंक में पृ. 128-30 से पुनर्मुद्रित।]

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥

 उठो ! जागो ! और योग्य गुरुओं के पास जाकर बोध प्राप्त करो सीखो। क्योंकि यह मार्ग छुरी की तीक्ष्ण धार पर चलते हुए उसे पार करने के समान दुर्गम है। (कठोपनिषद -1.3.14) ऐसा 
ऋषियों का कहना है कि- प्रवृत्ति से होकर भी -निवृत्ति में आने का मार्ग तो है, किन्तु वह मार्ग छुरी की तीक्ष्ण धार पर चलते हुए उसे पार करने के समान दुर्गम है ! 
[प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने का मार्ग, छुरी की तीक्ष्ण धार पर चलते हुए उसे पार करने के समान दुर्गम है क्यों ? एक ही काम को बार -बार करने से आदत बन जाती है, उम्र बढ़ने के साथ-साथ जब आदत पुरानी पड़ जाती है तब 'कामिनी-कांचन' में वह आसक्ति प्रवृति बन जाती है , फिर मनुष्य सोचता नहीं कर बैठता है।]  

[ प्रसंग :छान्दोग्य उपनिषद के सप्तम अध्याय में बताया कि देव-ऋषि नारद जी आत्मज्ञान की जिज्ञासा से (for spiritual instruction) भगवान्‌ सनत्कुमार की शरण में गये और कहा -"भगवन, मुझे उपदेश दीजये। " “ॐ अधीहि भगव इति होपससाद सनत्कुमारं नारदस्तं हो वाच यद्वेत्थ तेन मोपसीद ततस्त ऊर्ध्व॑ वक्ष्यामीति स होवाच” (७.१.१-२) सनत्कुमार ने उत्तर दिया, ‘ तुम मुझे वह  बताओ जो तुम पहले से जानते हो।’ शिक्षक को यह जानकारी होनी चाहिए कि उसका छात्र अभी किस स्तर पर है ताकि वह उसे जहाँ वह है, वहाँ से ऊपर उठा सके।" 
     नारद ने कहा -“भगवन ! ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, इतिहास-पुराण, पाँचवाँ वेद अर्थात्‌ व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, उत्पात ज्ञान, निधिशास्त्र, तर्क शास्त्र, नीति शास्त्र, देव-विद्या, ब्रह्म-विद्या, भूत-विद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्र-विद्या (ज्योतिष), सर्पविद्या और संगीत विद्या-आदि यह सब मैं जानता हूँ।”
देवर्षि नारद जिन्होंने वेद- वेदांग  का सम्यक अध्ययन कर लिया था,  किन्तु  बिना आत्म-साक्षात्कार किये नारदजी भी अपने को दुःख एवं संघर्ष के पाश में बँधा हुआ अनुभव कर रहे थे। अतः नारद जी कहते हैं- "सोऽहं भगवो मन्त्रविदेवास्मि नात्मविच्छ्रुतं ह्येव मे भगवद्दृशेभ्यस्तरति शोकमात्मविदिति सोऽहं भगवः शोचामि तं मा भगवाञ्छोकस्य पारं तारयत्विति तं होवाच यद्वै किंचैतदध्यगीष्ठा नामैवैतत् ॥  (छांदोग्य उप.7/1/1.3 ) "भगवः, सः अहम् मन्त्रवित् एव अस्मि"  यद्यपि मैंने बहुत अध्ययन कर लिया है, लेकिन मैं केवल मंत्र में कहे शब्दों को ही जानता हूं- 'न आत्मवित्'-किन्तु आत्मा को नहीं जानता हूँ--जो मनुष्य” का वास्तविक स्वरूप है। 'श्रुतम् हि एव मे' मैंने आप जैसे लोगों से यह भी सुना है कि जो आत्मा को जानता है वह दुःख पर विजय प्राप्त करता है। "तरति शोकं आत्मवित्" -  केवल आत्म-ज्ञानी ही शोक को पार कर लेता है अहम् शोकामि, मैं दुःख से पीड़ित हूं; तम मा भगवन शोकस्य परम तारयतु इति, श्रीमान, कृपया मुझे दुःख  के सागर से पार ले चलिए ।
      इससे यह सिद्ध होता है कि केवल शास्त्र-ज्ञान (पुस्तकीय विद्या) से जन्म-मरण चक्ररूप शोक-समुद्र को पार नहीं किया जा सकता।  इसके लिये तो आत्मज्ञानी गुरु के सानिध्य में रहकर प्रशिक्षण में प्राप्त अनुभव की आवश्यकता होती है। यदि अध्ययन मात्र से ही कार्य सिद्धि हो जाती हो तो सदगुरु की (मार्गदर्शक नेता CINC नवनीदा की) क्या आवश्यकता ? किन्तु सदूगुरु भी  अधिकारी शिष्य को ही ब्रह्म-विद्या (आत्म-ज्ञान) की दीक्षा देता-है; और भावी नेता को ठाकुर जैसा लिखित में अपना चपरास देता है।  इसी कारण भगवान्‌ सनत्कुमार ने उसकी (नारद की) योग्यता का परिचय माँगा। [सनत्कुमार] ने उनसे कहा; यत् वै किञ्च एतत्, जो कुछ भी हो; अध्यज्ञष्ठाः एतत् नाम एव, तुमने केवल शब्द ही सीखे हैं।छांदोग्य उप.7/1/1.3
 (‘Revered Sir, I am sorrowing. Take me across the ocean of grief.’ (https://texts.wara.in/vedas/upanishads/ chandogya)  
(साभार/https://www.wisdomlib.org/hinduism/book/chandogya-upanishad-english/d/doc239338.html)]

विगत 2000 वर्षों से सैकड़ों ऋषियों, पैगम्बरों (जीवनमुक्त शिक्षकों) ने उसी आत्मिक शांति का उपदेश दिया है, जिससे उनका ह्रदय भरा हुआ था । 

ईसा मसीह ने कहा था - ‘हे सब परिश्रम करने वालों और बोझ से दबे लोगों, मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूंगा।’ (Matthew 11:28) 

श्रीकृष्ण ने कहा था -।।18.66।। सब धर्मों (कर्तव्य -अकर्तव्य) का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।

बुद्ध ने त्याग और असीम प्रेम के माध्यम से निर्वाण की शांति का संदेश दूसरों तक पहुँचाया।
मानवजाति के प्रत्येक मार्गदर्शक ने अपने-अपने पैमाने के अनुसार आध्यात्मिक उपदेश दिए लेकिन पृथ्वी पर शांति और सद्भावना पहले की तरह ही अब भी दूर ही थी, मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा देने में समर्थ योग्य गुरुओं का घोर अभाव हो गया था, तब 1967 में स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त नवनीदा ने भी ऐसा ही एक सन्देश - " बुद्ध और ईसा जैसे प्रबल इच्छाशक्ति संपन्न नेता/पैगम्बर बनो और बनाओ !" भारत के समस्त युवा को दिया। 
 जब पश्चिम में ऐसी निराशा है, तो पूर्व, जो हमेशा धर्म और दर्शन की भूमि रहा है, उपनिषदों के माध्यम से साहसपूर्वक घोषणा करता है कि वह "शांति (=आत्मज्ञान), जिसे पैगंबरों ने पाया था, इसी जीवन में प्राप्त की जा सकती है, और यह प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार ( birth-right)  है। इन उपनिषदों में हमें ऐसे अंश मिलते हैं जैसे - प्रपञ्चोपशमम् शान्तं शिवम् अद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते विवेकिनः । सः आत्मा सः विज्ञेयः ॥ (माण्डुक्योपनिषद्/ ७)  'जिसमें' समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् का विलय हो जाता है, जो 'पूर्ण शान्त' है, जो 'शिवम्' है-मंगलकारी है, और जो 'अद्वैत' है, 'उसे' ही चतुर्थ (पाद) माना जाता है; 'वही' है 'आत्मा', एकमात्र 'वही' 'विज्ञेय' (जानने योग्य तत्त्व) है। 
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षियंते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे॥ 

 परात्पर परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेने पर, धीर पुरूष के रूप में जीवात्मा के हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सारे संशयों का नाश हो जाता हैं, साथ ही कर्मों का भी क्षय हो जाता है।  
धर्म या अध्यात्म मानव की ग्रंथियों (संशय-अस्ति कि नास्ति?) का विमोचन करता है।  अध्यात्म कहता है कि, भक्ति के मार्ग पर चलोगे तो गाँठें टूट जाएँगी ग्रंथियाँ समाप्त हो जाएँगी। संशय समाप्त हो जाएगा। कर्म करते करते, आप, नैष्यकर्म की अवस्था में, पहुँच जाएँगे, जो धर्म की, अध्यात्म की, सर्वोच्च अवस्था है। " जब उस 'परतत्त्व' का दर्शन हो जाता है, जो अपरा सत्ता एवं 'परम सत्ता' एक साथ ही है; तब   हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है।  (मुण्डक उपनिषद: श्लोक 2.2.8)
और ऐसे भी श्लोक हैं जैसे कि - 

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।

भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।

इस शरीर रहते सत्य (आत्मा =ब्रह्म) को जान लिया तो शुभ है, यह शरीर रहते नहीं जाना तो महा विनाश है। बुद्धिमान् पुरुष प्राणि-मात्र में ब्रह्म को समझ कर इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं। (केनोपनिषत् २-५) ज्ञानमेव मुक्तिः अभयं वै जनक प्राप्तोसि इति होवाच भगवान् याज्ञवल्क्यः । ( बृहदारण्यकोपनिषत् ४-२-४)' अभयं वै प्राप्तोऽसि जनकः 'हे जनक, तुमने वास्तव में अभय को प्राप्त कर लिया है।'
   उपनिषद मनुष्यों में असमानता और अंतर के पर्दे को चीरते हुए, यह समस्त प्रकृति की दिव्यता, समस्त जीवन की एकता और उसकी समस्त आकांक्षाओं की महानता को प्रकट करते  है। यह विचार, सभी पंथों और सभी आस्थाओं का संश्लेषण है और इसलिए किसी भी सम्प्रदाय के विपरीत नहीं है।
      अद्वैत आश्रम के विवरण पत्रिका में स्वामी विवेकानंद के शब्दों में कहा गया है, "निर्भरता दुःख है। स्वतंत्रता सुख है।" "Dependence is misery. Independence is happiness." 'अद्वैत ही एकमात्र प्रणाली है जो मनुष्य को स्वयं पर पूर्ण अधिकार प्रदान करती है, सभी निर्भरता और उससे जुड़े अंधविश्वासों को दूर करती है, इस प्रकार हमें कष्ट सहने, कार्य करने के लिए साहसी बनाती है, और अंततः पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने में सक्षम बनाती है।'
      लेकिन भारत में उच्च शिक्षा पर एकाधिकार रखने वाले चंद लोगों की अज्ञानता और स्वार्थ के कारण, तथा इसके परिणामस्वरूप इसके आदर्श के संकुचित होने के कारण, अद्वैत वेदांत अब तक मानव जाति को उस तरह से प्रभावित नहीं कर पाया है जैसा कि उसे करना चाहिए। अद्वैत वेदांत के आदर्श के अनुरूप जीवन जीना: नस्ल, रंग, जाति, वर्ग, पंथ और संप्रदाय के सभी भेदभावों को सर्वोच्च निस्वार्थ प्रेम की एकता में मिलाना, जो भावना या कल्पना पर आधारित नहीं है, बल्कि समस्त अस्तित्व की एकता और दिव्यता की तर्कसंगत और आध्यात्मिक धारणा पर आधारित है, मानव दुख को स्थायी रूप से दूर करने और मानव प्रगति सुनिश्चित करने का एकमात्र साधन है।
       ‘इस सत्य को व्यक्तियों के जीवन को उन्नत करने तथा मानव जाति को समृद्ध करने के लिए अधिक स्वतंत्र तथा पूर्ण अवसर प्रदान करने के लिए’ स्वामी विवेकानंद के मार्गदर्शन में हिमालय की ऊंचाइयों पर मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना की गई थी। ‘यहां अद्वैत को सभी अंधविश्वासों तथा दुर्बल करने वाले संदूषणों से मुक्त रखने की आशा की जाती है।
       यहां केवल शुद्ध और सरल एकता के सिद्धांत को पढ़ाया और अभ्यास किया जाएगा; और अन्य सभी प्रणालियों के साथ पूर्ण सहानुभूति रखते हुए भी, यह आश्रम केवल अद्वैत के लिए समर्पित है’ - इस प्रकार आश्रम का विवरण-पत्र चलता है, जो संस्था को अपने महान उद्देश्य को पूरा करने में प्रभावी बनाने में मदद करने के लिए सभी के सहयोग को आमंत्रित करता है।
      आश्रम के दो मुख्य उद्देश्य हैं, एक तो देश-विदेश में इसके सदस्यों द्वारा अद्वैत का अध्ययन और संवर्धन (study and culture of Advaita), तथा दूसरा, (training of Brahmacharins and Sannyasins to carry the Gospel of Advaita to all men in all lands) सभी देशों में सभी लोगों तक अद्वैत का संदेश पहुंचाने के लिए ब्रह्मचारियों और संन्यासियों को प्रवेश और प्रशिक्षण देना।
 प्रवेश निःशुल्क है और जाति, वर्ग, नस्ल या पंथ के भेदभाव के बिना सभी के लिए खुला है। जो लोग सभी निजी चिंताओं को त्याग देते हैं, और आश्रम के संविधान के अनुसार आत्म-सुधार और आश्रम के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए खुद को पूरी तरह से समर्पित करना चाहते हैं, उन्हें आश्रम में रहने वालों के रूप में प्रवेश दिया जाता है। प्रशिक्षण की अवधि के बाद, जिसे प्रत्येक मामले में आश्रम के ट्रस्टियों की समिति द्वारा निर्धारित किया जाएगा, आश्रम की सदस्यता के लिए प्रशिक्षणार्थियों को -भावी नेता या पैगम्बर के रूप में भर्ती किया जाएगा। 

 -अद्वैत आश्रम के सामान्य नियमों में सबसे महत्वपूर्ण नियम जो आश्रमवासियों (गुरुगृहवास में रहने वालों पर) और सामान्य सदस्यों दोनों पर लागू होंगे, वे हैं:

1. आश्रम में मूर्तियों, चित्रों आदि की कोई बाह्य पूजा नहीं की जाएगी और विरजा  होम के अलावा अन्य कोई भी अनुष्ठान नहीं किया जाएगा।

2. प्रत्येक प्रशिक्षणार्थी को साधना में - [स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा -Be and Make' में अर्थात 3'H' विकास के 5 अभ्यास (प्रार्थना, व्यायाम, स्वाध्याय , जपम या अष्टांग योग में भाग लेना होगा। और आश्रम के (गुरु-गृहवास प्रशिक्षण शिविर के) किसी न किसी विभाग में अध्ययन और कार्य करना होगा ।

3. अद्वैत पर अपना रुख अपनाते हुए और इसे अपने शिक्षण का लक्ष्य बनाते हुए, सदस्यों को दर्शन और धर्म की अन्य प्रणालियों के बारे में सम्मानपूर्वक सोचना और बोलना चाहिए।

         आश्रम के नियमों की एक प्रति तथा आवेदन पत्र, अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम को या तो पी.ओ. मायावती, वाया लोहाघाट, जिला चम्पावत, पिन 262 524, उत्तराखंड, या 5 डेही एन्टली रोड, कोलकाता, पिन 700 014, पश्चिम बंगाल से प्राप्त किया जा सकता है।
      >>>But 'institutions' (VYM) depend upon men.आज का भारत लंबे समय से चली आ रही नींद से धीरे-धीरे जागने की ओर बढ़ रहा है। आध्यात्मिक स्वतंत्रता के हित में काम करने वाले और हिंदू धर्म की आध्यात्मिक प्रतिभा में विश्वास रखने वाले सभी लोगों का यह कर्तव्य है कि वे आध्यात्मिकता के उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए एकजुट होकर प्रयास करें। अद्वैत आश्रम ऐसे संगठन का केंद्रबिंदु प्रदान करता है। यह आत्म-बलिदान और तीव्र गतिविधि की भावना को विकसित करता है और यह चरित्र के सर्वांगीण विकास में विश्वास करता है। लेकिन कोई भी संगठन उसके सदस्यों की चारित्रिक दृढ़ता पर ही निर्भर करती हैं।
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>>एक प्रश्न - हिन्दू धर्म के अनुसार क्या पौधों में चेतना (consciousness) होती है?
दरसल आप यह पूछना चाहते हैं कि क्या पौधों में आत्मा (Soul=शुद्ध चेतना) होती है ? इसे मन या शरीर चेतना (body consciousness-M/F देहाध्यास) के साथ भ्रमित न करें। उत्तर है, हाँ!!!
छान्दोग्य उपनिषद के सप्तम अध्याय में बताया कि देव-ऋषि नारद जी आत्मज्ञान की जिज्ञासा से भगवान्‌ सनत्कुमार की शरण में गये - "ॐ अधीहि भगव इति होपससाद सनत्कुमारं नारदः तं होवाच यद्वेत्त तेन मोपसीद ततस्त ऊर्ध्वं वक्ष्यामीति स होवाच ।" (छांदोग्य उप. 7.1.1)कि छुरी की धार जैसे तीक्ष्ण मार्ग पर चलते हुए कैसे पार हुआ जाता है यही सीखने नारद जी सनत्कुमार के पास गए और बोले, “महाराज, कृपया मुझे उपदेश दीजिये !” 
प्रसंग
“हे भगवन्‌ ! मुझे उपदेश कीजिये” ऐसा कहते हुये नारद जी ब्रह्मनिष्ठ योगीश्वर सनत्कुमार के समीप  नियमानुसार उपसन्न हुये। अर्थात शिष्यरूप से गये। भगवान्‌ सनत्कुमार ने नारद जी से कहा-  “तुम आत्मा के विषय में पहले से जो कुछ जानते हो उसे पहले बतलाओ तब मैं तुम्हें उससे आगे बतलाऊँगा।! 

नारदजी ने कहा - "सोऽहं भगवो मन्त्रविदेवास्मि नात्मविच्रुतां ह्येव मे भगवद्दृशेभ्यस्तारति शोकमात्मविदिति सोऽहं भगवः शोकमि तं मा भगवञ्चोकस्य परं तारयत्विति तं होवाच यद्वै किञ्चैतदध्यागीष्ठा नामैवैतत् || 7.1.3 ||
   शब्दार्थ - श्रीमान यद्यपि मैंने बहुत अध्ययन किया है; अहम् मंत्रवित एव अस्मि,न आत्मवित्, मैं केवल शब्द का अर्थ जानता हूं; मैं आत्मा को नहीं जानता।  श्रुतम् हि एव मे, मैंने भी आप जैसे लोगों से सुना है -  तरति शोकं आत्मवित् ! जो आत्मा को जानता है वह दुःख पर विजय प्राप्त करता है;श्रीमान, अहम् शोकामि, मैं दुःख से पीड़ित हूं; तम मा भगवन शोकस्य परम तारयतु इति, श्रीमान, कृपया मुझे दुःख [सागर] से पार ले चलो। 
       नारद जी बोले ‘सच है, मैंने बहुत कुछ सीखा है, लेकिन मैं केवल शब्दार्थ ही जानता हूँ। मैं आत्मा को नहीं जानता। महाराज, मैंने आप जैसे महापुरुषों से सुना है कि जो आत्मा को जानते हैं, वे ही दुःख पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। ‘पूज्यवर, मैं दुःख से पीड़ित हूँ। कृपया मुझे दुःख के सागर से पार उतारें ।’ तब सनत्कुमार ने नारद से कहा, ‘आपने अब तक जो कुछ भी सीखा है, वह केवल शब्दार्थ है।’
व्याख्या - 
देवर्षि नारद बहुत बड़े विद्वान थे। लेकिन अपने सारे ज्ञान के बावजूद, वे आत्मा को नहीं जानते थे -(आत्मा को जानकर ब्रह्मविद नहीं बने थे ?) और इसीलिए बहुत दुखी थे। इसलिए, बड़ी विनम्रता के साथ, वे ऋषि सनत्कुमार के पास गए और कहा, ‘महाराज, क्या आप कृपया मुझे सिखाएँगे?’  सनत्कुमार ने उत्तर दिया, ‘मुझे वह बताएँ जो आप पहले से जानते हैं।’ शिक्षक को यह जानकारी होनी चाहिए कि उसका छात्र अभी किस स्तर पर है ताकि वह उसे जहाँ वह है, वहाँ से ऊपर उठा सके। 
ब्रह्मविद्या की प्राप्ति ब्रह्मनिष्ठ आचार्य (गुरु) द्वारा ही संभव होती है। किन्तु शिष्य को भी ब्रह्मज्ञान लेने से पूर्व योग्यता प्राप्त कर लेने की नितान्त आवश्यकता है। अनधिकारी शिष्य को योग्य गुरु ब्रह्मविद्या का उपदेश नहीं देता। सारे संसार के ऐश्वर्य की ब्रह्मविद्या से तुलना नहीं की जा सकती। लौकिक सम्पत्ति केवल लोक-सुख के लिये होती है किन्तु ब्रह्मविद्या का अनन्त सुख होता है। अनधिकारी को विद्या तथा सम्पत्ति उल्टा फल देती है अतः शिष्य को उपयुक्त गुणों से युक्त (साधन-संपन्‍न) होना अनिवार्य है। 

फिर नारद ने उन सभी विषयों की सूची बनानी शुरू की, जिनका उन्होंने अध्ययन किया था: वेद, इतिहास और पौराणिक कथाएँ, व्याकरण, गणित, ज्योतिष, इत्यादि। लेकिन नारद को लगा कि यह सब व्यर्थ है। इससे कोई लाभ नहीं है, क्योंकि यदि वह स्वयं को - आत्मा को नहीं जानता है, तो वह कुछ भी नहीं जानता है। उसका ज्ञान केवल अपरा विद्या, निम्नतर ज्ञान था, न कि परा विद्या, उच्चतर ज्ञान - अर्थात स्वयं का ज्ञान। इसके अलावा, नारद ने कहा: 'मैं केवल शब्दों को जानता हूँ। मैं आत्मा को नहीं जानता।'
        सबसे सूक्ष्मतम ज्ञान आत्मा का ज्ञान है। आप स्थूल शरीर से शुरू करते हैं और धीरे-धीरे (मन-बुद्धि -चित्त अहंकार से होते हुए) सूक्ष्मतम (ब्रह्म=आत्मा) तक पहुँचते हैं। अभी आप केवल एक मंत्र-वित् हैं - यानी, आप केवल शास्त्रों के (चार महावाक्यों के) शब्दार्थ को जानते हैं। लेकिन यदि आप आत्मवित नहीं हैं - आत्मा को नहीं जानते हैं, तो शास्त्रों का आपका ज्ञान बेकार है।
शास्त्रों का वास्तविक अर्थ जाने बिना विद्वान होना बोझा ढोने वाले पशु के समान है। गधा चंदन का बोझ उठा सकता है। वास्तव में, उसके भार से उसकी पीठ लगभग टूट सकती है। फिर भी वह सुगंध का आनंद नहीं ले पाता। इसी प्रकार,मंत्रवित या विद्वान होना आत्मवित -ब्रह्मवित , आत्म-ज्ञान होने के समान नहीं है।
सत्यार्थी नारद को इन्द्रियातीत सत्य को जानने की बहुत तड़प होती है। वे कहते हैं: ‘मैंने सुना है कि आप जैसे संतों को कोई दुःख नहीं होता, क्योंकि आप आत्मा को जानते हैं। कृपया मुझे दुःख के सागर से पार ले चलिए । आप ही मुझे आत्मज्ञान देकर ऐसा कर सकते हैं। जीवन का एक उद्देश्य है। कृपया मुझे भी ऐसा अनुभव करवा दें कि मैंने वह उद्देश्य प्राप्त कर लिया है।’
   अब सनत्कुमार नारद से कहते हैं: ‘तुमने बहुत अध्ययन किया है, लेकिन तुमने केवल शब्दों का अध्ययन किया है। प्रत्येक शब्द का एक अर्थ होता है, और उस अर्थ को समझना होता है।’ हम अर्थ को कैसे समझें? शंकर यहाँ एक उदाहरण देते हैं: मान लो राजा जुलूस में आ रहा है और तुम उसे देखने के लिए बहुत उत्सुक हो। लेकिन राजा के साथ हजारों अन्य लोग, बैंड, वाहन, घोड़े, हाथी हैं - इतना ताम-झाम और वैभव। पर राजा कहाँ है? शंकर कहते हैं कि यह संसार उस जुलूस की तरह है। राजा वहाँ है, लेकिन वह तुमसे छिपा हुआ है - सारी धूमधाम और दिखावे के पीछे वही छिपा हुआ है। इसी तरह, इस संसार में हम केवल नाम और रूप देखते हैं - शब्द, आत्मवस्तु को नहीं। ब्रह्म को केवल शब्दशः जानना। 
अब प्रश्न उठ सकता है: आपने सभी शास्त्रों का अध्ययन किया हो और कई यज्ञ किए हों - तो क्या यह सब व्यर्थ है? शंकर कहते हैं नहीं, यह व्यर्थ नहीं है। वह उदाहरण देते हैं: मान लीजिए कि कोई बच्चा जानना चाहता है कि चंद्रमा क्या है ?  आप उसे चंद्रमा कैसे दिखाएंगे? पहले आप पूछते हैं, 'क्या तुम वहाँ, उस बड़े पेड़ को देख रहे हो ?' जब बच्चा हाँ कहता है, तो आप कहते हैं, 'क्या तुम पेड़ की चोटी देख सकते हो ?' फिर, जब बच्चा हाँ कहता है, तो आप कहते हैं: 'क्या तुम शाखाओं के पीछे उस बड़े चमकते हुए गोले को देख रहे हो ? वही है चंद्रमा !' आप कदम दर कदम आगे बढ़ते हैं।
      क्या आप किसी अज्ञानी व्यक्ति को सर्वोच्च विज्ञान सिखा सकते हैं? क्या वह इसे समझ पाएगा? आपको किसी ऐसी चीज़ से शुरुआत करनी चाहिए जिसे वह समझ सके। इसी तरह, हमारे सामने इंद्रिय अनुभव की दुनिया है, और यह हमारे लिए बहुत वास्तविक है। हम आत्मा को नहीं देखते हैं, इसलिए हम यह नहीं समझ सकते कि यह क्या है। आत्म-ज्ञान सर्वोच्च ज्ञान है। हम इसे तुरंत प्राप्त करने की उम्मीद नहीं कर सकते। पहले हमें यह जानना चाहिए कि यह जगत  क्या है। पहले हमें यह जानना चाहिए कि पैसा, विद्वत्ता, प्रसिद्धि और अन्य नाते-रिश्ते जैसी चीजें क्या हैं। संसार की इन चीज़ों को अनुभव करने और उन्हें खोखला समझने के बाद ही हमारा  इस संसार से मोहभंग हो सकता है। और तभी हम नाम और रूप (M/F कामिनी-कांचन में आसक्ति) के इस संसार को त्यागकर अपने मन को आत्मा पर केन्द्रित कर सकते हैं। हम आत्मा के बारे में सुन सकते हैं, लेकिन पहले हमें यह जानना चाहिए कि यह संसार भी हम ही हैं।  बिना कर्मकाण्ड किये चित्त की शुद्धि नहीं हो सकती।   
महान ऋषि नारद आत्मा-ब्रह्म के बारे में जानने के लिए ऋषि बन गए। प्रस्तुत है शिक्षा के अंतिम श्लोक- " स एवधास्तत्स उपरिष्टत्स पश्चत्स पुरस्थत्स दक्षिणातः स उत्तरातः स एवेदं सर्वमित्यथातोऽहंकारादेश एवाहमेवधास्तदहमुपरिष्टदहं पश्चदहं पुरस्थदहं दक्षिणातोऽहमउत्तरातोऽहमवेदांतं सर्वमिति || 7.25.1 ||
1. वह भूमा (ब्रह्म) नीचे है; वह ऊपर है; वह पीछे है; वह आगे है; वह दाईं ओर है; वह बाईं ओर है। यह सब भूमा (ब्रह्म) है। अब, जहाँ तक अपनी पहचान का सवाल है: मैं नीचे हूँ; मैं ऊपर हूँ; मैं पीछे हूँ; मैं आगे हूँ; मैं दाईं ओर हूँ; मैं बाईं ओर हूँ। मैं यह सब हूँ।

व्याख्या :
 हमारी आत्मा सभी की आत्मा है। हमारी आत्मा ही आकाश में है, हवा में है, पानी में है, एक छोटे से कीड़े में भी हमारी आत्मा है, और सबसे बड़े जानवर -हाथी में भी वही है। यह सर्वव्यापी है, हर जगह है, हर प्राणी में है, हर चीज में है। यह स्वयं जीवन (Existence-अस्तित्व) है।
       कल्पना करें कि यह पूरा विश्व-ब्रह्मांड एक विशाल महासागर है, और उस महासागर में लहरें हैं। कुछ लहरें बहुत बड़ी हैं और कुछ बहुत छोटी हैं, शायद सिर्फ़ तरंगे हों, बुलबुला हों । लेकिन यह पानी एक ही है। इसी तरह, एक अस्तित्व है, लेकिन हम विविधता देखते हैं। हालाँकि, यह विविधता केवल नाम और रूप में है। यह वास्तविक नहीं है। विविधता के पीछे एक अस्तित्व है, और वह अस्तित्व हमारा अपना आत्मा है।
यह सिर्फ़ बौद्धिक सिद्धांत (intellectual theory) नहीं है। ऐसे कई महान संत हुए हैं, जिन्होंने सचमुच में इसका अनुभव किया है। वे कहते हैं, मान लीजिए आप किसी झील के बीच में पत्थर फेंकते हैं। जिस जगह आपने पत्थर फेंका है, उसके आस-पास का पानी तुरंत ही अस्तव्यस्त हो जाता है। फिर धीरे-धीरे आप पाते हैं कि पानी का पूरा पिंड अशांत हो गया है। इसी तरह, अगर कोई मनुष्य कहीं दर्द में पड़ा है, तो आप भी उसके दर्द को महसूस करते हैं। आपने देखा होगा कि Sonometer या आप किसी कमरे में तार वाला वाद्य बजाते हैं, जहाँ अन्य तार वाले वाद्य हैं, तो आप पाएँगे कि अन्य वाद्यों से ध्वनि आ रही है। एक वाद्य से ध्वनि कंपन दूसरे वाद्यों को प्रभावित करेगा।
        स्वामी विवेकानंद को ऐसे कई अनुभव हुए। एक बार उनके एक शिष्य ने उन्हें आधी रात को अपने कमरे के बाहर इधर-उधर टहलते हुए पाया। शिष्य ने स्वामीजी से पूछा कि वे क्यों नहीं सो रहे हैं, तो स्वामीजी ने जवाब दिया कि वे अचानक इस भावना के साथ जाग गए थे कि अभी कुछ भयानक हादसा हुआ है, कि कहीं कोई बड़ी आपदा आई है। अगले दिन जब अखबार आया तो लोगों ने पाया कि उस रात एक निश्चित स्थान पर भयानक ज्वालामुखी विस्फोट हुआ था, और कई लोग मारे गए थे।
     महान व्यक्ति में उस तरह की संवेदनशीलता होती है, क्योंकि उसे लगता है कि समूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का 3H एक जैसा है। एक ही ह्रदय (heart) , एक ही मन (Head), एक ही चेतना (consciousness-आत्मा या शुद्ध चेतना) है। आप जो सोचते हैं, वही 'वह' सोचता है। अगर आप दुखी हैं, तो वह आपको देखकर तुरंत समझ जाता है।
      आप पूछ सकते हैं, ‘क्या मेरे लिए हर चीज़ के साथ अपनी पहचान बनाना संभव है?’ शास्त्र कहते हैं, ‘हाँ, यह संभव है।’ अब आप खुद को छोटा, अल्प समझते हैं। आप खुद को एक व्यक्ति और दूसरों से अलग समझते हैं। लेकिन जब आप खुद को ब्रह्मांड के साथ पहचानते हैं, तो आप भूमा, अनंत बन जाते हैं।
      स्वामीजी ने एक बार कहा था, मान लीजिए आप आसमान में बादल में पानी की एक छोटी सी बूंद हैं। फिर एक दिन बारिश होती है। आप समुद्र की ओर गिरने लगते हैं, और आप चिल्लाते हैं, 'ओह, मैं खो गया, मैं खो गया!' लेकिन जब आप समुद्र तक पहुँचते हैं तो क्या होता है? आप अब एक छोटी सी बूंद नहीं रह जाते। आप विशाल महासागर के साथ एक हो जाते हैं।
      अलगाव-भिन्नता  की भावना ही हमें यह एहसास कराती है कि हम छोटे हैं। फिर हम एक-दूसरे से ईर्ष्या करने लगते हैं या दूसरों से डरते हैं और इसी वजह से हम दुखी होते हैं। वेदांत कहता है, जब आपको यह एहसास हो कि आप पूरे ब्रह्मांड के साथ एक हैं, कि तुम अकेले अस्तित्व में हो , तो तुम खुश रहेंगे। It is all a question of how you think of yourself.यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने बारे में कैसा सोचते हैं। उपनिषद यहाँ सोचने के लिए कहता है: 'मैं नीचे हूँ। मैं ऊपर हूँ। मैं हर जगह हूँ। मैं सब कुछ हूँ।'
     बहुत से लोगों को अपने जीवन में कभी न कभी इस अनुभव का संकेत मिलता है। उदाहरण के लिए, आपने किसी को भयंकर पीड़ा में देखा होगा। हो सकता है कि आप उस व्यक्ति को जानते भी न हों, फिर भी उस व्यक्ति की पीड़ा को देखकर आपको लगा कि आप भी पीड़ित हैं। हालाँकि शारीरिक रूप से आप प्रभावित नहीं थे, फिर भी आपको दर्द महसूस हुआ। एकत्व  की इस भावना की ओर मनुष्य का विकास वास्तविक प्रगति का संकेत है।
हालाँकि, इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे बीच मतभेद हैं। बेशक मतभेद हैं। मतभेद स्वीकार किए जाते हैं। वे स्वाभाविक हैं। हम एकरूपता नहीं चाहेंगे। लेकिन भिन्नता  केवल छोटी-छोटी बातों में हैं। अब हम सोच सकते हैं, 'मैं नाटा हूँ और वह व्यक्ति लंबा है।' लेकिन जब हम चीजों को समग्र रूप से देखना शुरू करते हैं, तो हम देखेंगे कि हम हर जगह हैं। तब हम सोचेंगे: 'कभी मैं दूसरे लंबा हूँ, और कभी मैं दूसरों से नाटा  हूँ।' यह सोचने के बजाय कि 'कुछ लोग बहुत उज्ज्वल हैं और अन्य सुस्त हैं,' हम सोचेंगे: 'उज्ज्वल व्यक्ति मैं हूँ, और सुस्त व्यक्ति भी मैं हूँ। सभी अलग-अलग रूपों में मैं हैं।'
जब तक आप सोचते रहेंगे कि आप दूसरों से अलग हैं, आप कभी दूसरों के लिए अच्छे होंगे और कभी बहुत स्वार्थी होंगे और दूसरों की परवाह नहीं करेंगे। और जब आप दूसरों के लिए कुछ करेंगे भी, तो आप इसे केवल अस्थायी दया की भावना से करेंगे। लेकिन जब आप दूसरों के साथ अपनी पहचान महसूस करते हैं, तो आप कभी भी एकता की भावना को नहीं खोते हैं, और फिर स्वार्थ के लिए कभी कोई जगह नहीं होती है।
      “अहम एव इदं सर्वम्”—मैं यह सब हूँ। इदं का अर्थ है ‘यह’। यह भौतिक जगत है, यह अनुभवजन्य जगत है। यह वह सब है जिसे आप देखते और महसूस करते हैं। यह इंद्रिय अनुभव का जगत है। हमें लगता है कि हम इस जगत को जानते हैं, लेकिन वास्तव में हम नहीं जानते। आप कह सकते हैं कि कोई चीज कठोर है, लेकिन मेरे लिए वह नरम हो सकती है। आप कह सकते हैं कि कोई चीज लाल दिखती है, लेकिन मैं उसे नारंगी देख सकता हूँ। यह इस जगत की प्रकृति है। कोई भी दो व्यक्ति इसका एक जैसा अनुभव नहीं कर सकते। फिर भी, उपनिषद कहते हैं, इंद्रिय अनुभव के इस जगत के पीछे भूमा है। यह हर जगह एक ही आत्मा है, विभिन्न रूपों में और विभिन्न नामों के साथ।
[https://www.wisdomlib.org/hinduism/book/chandogya-upanishad-english/d/doc239407.html]

अथाता आत्मदेश एवात्मैवदहस्तदात्मोपरिष्टदात्मा पश्चदात्मा पुरस्तदात्मा दक्षिणाता आत्मोत्तर आत्मवेदं सर्वमिति सा वा एषा एवम् पश्यन्नेवाम् मन्वान एवम् विज्ञानान्नत्मरतिरात्मकृद आत्ममिथुन आत्मानंदः स स्वराद्भवति तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति अथा येऽन्यथातो विदुरन्याराजनस्ते क्षय्यलोका भवन्ति तेषां सर्वेषु लोकेष्वकामचारो भवति || 7.25.2 ||

|| इति पञ्चविंशः खण्डः ||

2. इसके बाद आत्मा के विषय में निर्देश है: आत्मा नीचे है, आत्मा ऊपर है, आत्मा पीछे है, आत्मा आगे है, आत्मा दाहिनी ओर है, आत्मा बाईं ओर है। आत्मा ही सब कुछ है। जो इस प्रकार देखता है, इस प्रकार सोचता है, इस प्रकार जानता है, आत्मा में प्रेम रखता है, आत्मा के साथ क्रीड़ा करता है, आत्मा के साथ भोग करता है, आत्मा में आनन्दित होता है, वह श्रेष्ठ है और वह सब लोकों में अपनी इच्छानुसार विचरण कर सकता है। परन्तु जो लोग अन्यथा सोचते हैं, वे दूसरों के अधीन हैं। वे जिस लोक में रहते हैं, वहाँ नहीं रह सकते, न ही वे अपनी इच्छानुसार लोकों में विचरण कर सकते हैं (अर्थात् वे अनेक सीमाओं के अधीन हैं)।

व्याख्या :

उपनिषद कहता है, जब तुम्हें यह अनुभव होता है, ‘मैं अनंत हूँ, मैं सभी के साथ एक हूँ’, तब तुम अपने आप को सभी में देखते हो। तब कोई द्वैत नहीं रहता। तुम अपने आप का आनंद लेते हो। आम तौर पर हम दोस्तों की तलाश करते हैं ताकि हम उनकी संगति में आनंद ले सकें। लेकिन जब तुम भूमा को समझ लेते हो, तो तुम्हें किसी साथी की जरूरत नहीं होती। तुम जानते हो कि सब कुछ भीतर है, बाहर नहीं।
      अब हम बाहरी चीज़ों पर, दूसरों पर बहुत निर्भर हो गए हैं। अगर कोई हमारे साथ कठोर व्यवहार करता है तो हमें बुरा लगता है और अगर कोई हमारे साथ अच्छा व्यवहार करता है तो हम खुश होते हैं। इसी तरह, हम सिगरेट के आदी हो सकते हैं और अगर हमें सिगरेट न मिले तो हम दुखी हो सकते हैं। our happiness always depends on external conditions. इसलिए हमारी खुशी हमेशा बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर करती है। हमारी स्वतंत्रता कहाँ है? यह तो मन और इन्द्रियों की गुलामी से मुक्ति नहीं है। हम बस भिखारी हैं।  किन्तु एक (देह-मन की गुलामी से) मुक्त आत्मा हमेशा अपने भीतर खुश रहती है। उसे बाह्य जगत की परिवर्तनशील परिस्थितियों से कोई परेशानी नहीं होती। A free soul, however, is always happy within himself. 
     श्री रामकृष्ण किसी पर या किसी चीज़ पर निर्भर नहीं थे। एक बार कुछ सेवक उनके पास आए और उन्हें बताया कि मंदिर के बगीचे के मालिक ने कहा है कि उन्हें तुरंत चले जाना चाहिए। श्री रामकृष्ण तुरंत उठे और मंदिर परिसर से बाहर जाने लगे, वैसे ही जैसे वे थे। उन्होंने कुछ भी पैक करने या अपने कमरे पर दूसरी नज़र डालने के लिए नहीं रुका। वे बस जाने लगे। मालिक ने उन्हें जाते हुए देखा, और पूछा: 'सर, आप क्यों जा रहे हैं? मैंने आपके भतीजे को जाने के लिए कहा था, आपको नहीं।' तब श्री रामकृष्ण ने उत्तर दिया, 'ओह, आप नहीं चाहते कि मैं जाऊँ?' और वे तुरंत मुड़े और अपने कमरे में वापस चले गए जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।
     मान लीजिए कि आप किसी खास तरह के संगीत का आनंद लेते हैं, लेकिन दूसरे व्यक्ति को वह पसंद नहीं है। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह संगीत आपके अंदर एक खास भावना या भाव जगाता है जो दूसरे व्यक्ति में नहीं जगा पाता। आनंद संगीत में नहीं है। यह आपके अंदर है। नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ! इसी तरह, कभी-कभी आप बैठकर दिवास्वप्न देखते हैं, बहुत समय पहले हिमालय में की गई अपनी तीर्थयात्रा के बारे में सोचते हैं। आप यादों के बारे में सोचते और आनंद लेते रहते हैं, भले ही हिमालय अब आपके सामने न हो। आनंद पूरी तरह से आपके अंदर है।
      इसलिए जब आप आत्मसाक्षात्कार कर लेते हैं, तो अब आपको बाहरी दुनिया की ज़रूरत नहीं रह जाती। वास्तव में, यह अब आपके लिए मौजूद नहीं है। 'दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं, बाजार से गुजरा हूँ , खरीददार नहीं हूँ ! आप अकेले ही मौजूद हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि यह स्वार्थ है, लेकिन ऐसा नहीं है। बल्कि, आपका ह्रदय विस्तृत हो गया (आत्मा ही ब्रह्म हो गया है।) यह सर्वव्यापी हो गया है। यह भूमा बन गया है

‘सः स्वराट भवति- वह संप्रभु बन जाता है।’ जब आप संप्रभुता प्राप्त कर लेते हैं, तो आप अब अपने आप को शरीर के साथ नहीं पहचानते। आप खुद को पूरे ब्रह्मांड के साथ एक महसूस करते हैं। यही जीवन का लक्ष्य है- यह महसूस करना कि केवल एक ही है जो कई नामों और रूपों के साथ कई रूपों में दिखाई देता है।

छांदोग्य उपनिषद स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि आत्मा ही सब कुछ है।  गर्म लाल लोहे में लोहे की गर्मी नहीं-अग्नि की गर्मी होती है। इसी प्रकार संसार में आत्मा का ज्ञान है, शरीर में चेतना आत्मा की ही है। और आत्मा का ही सुख प्रपंच में प्रतिफलित हो रहा है। जब तक जीव नानात्व देखता रहेगा तब तक उसे तृप्ति नहीं होगी। ज्ञान को  समझ कर ही शोक की निवृत्ति होगी। इसके लिये अनात्म-पदार्थों का त्याग करना आवश्यक है।  यहाँ से यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि ब्रह्म=मैं=आत्मा। अतः चाहे सजीव हो या निर्जीव, सब कुछ आत्मा है।

श्री रामकृष्ण परमहंसदेव  काली के उपासक थे। चिन्तन, जप, साधना के पश्चात्‌ जो साक्षात्कार के लिये कोशिश करते हैं उनके प्रारब्ध से स्वयं भगवान्‌ पथप्रदर्शन करते हैं। एक बार स्वामी तोतापुरी वहाँ पहुँचे। रामकृष्ण का पूर्वनाम गदाधर था।उन्होंने विचार-दृष्टि से देख लिया कि यह अच्छा साधक है। पूछा, “तेरी क्या साधना है ?” गदाधर ने कहा “महाराज ! मुझे इष्ट-दर्शन होता है। ” वे बोले “इससे आगे भी बढ़ो। तुम में योग्यता भी है और आयु भी ।” आगे की साधना बतायी, संन्यास-दीक्षा दी। वे अद्वैत तत्त्व का ध्यान करने लगे; लय, विक्षेप, कषाय का तो नाम भी नहीं था ! किन्तु सब चित्तवृत्तियों को एकाग्र करते तो भगवती सामने खड़ी हो जाती! अखंड ज्योति का दर्शन नहीं होता था। बार-बार प्रयत्न भी किया किन्तु उस आनन्द से आगे बढ़ नहीं पाये, आनन्द ही भगवत्ती के रूप में साक्षात्‌ अनुभव होने लगता । योग्य गुरु शिष्य को छोड़ता नहीं। 
     तोतापुरी ने धीरे-धीर स्पष्ट किया कि (विवेकज) ज्ञान की तलवार से देवी के भी नाम-रूप को सच्चिदानन्द के अंश से पृथक्‌ करदो,  निस्तत्त्व समझना है। जैसे घट-पटादि में दृश्यांश बाध्य है,  ऐसे दिव्य विग्रहों में भी। क्योंकि नाम-रूपता समान ही है। काली-विग्रह में इस विवेक का प्रयोग करने में गदाधर को बहुत कठिनाई हुई।  तो गुरु ने हठात्‌ भ्रूमध्य में उनका चित्त आकर्षित करने के लिये एक नुकीला काँच ठोक दिया। उस स्थिति में जब सभी नाम-रूप ओझल होकर चिन्मात्र अनावृत हुआ तब परमहंस का प्रतिबंधक हटा।
       
      इसी प्रकार रसास्वाद को छोड़ना पड़ता है। आनन्द का स्फुरण होना अच्छा लगता, लेकिन रहे तो ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती । पहले साकार उपासना करना आवश्यक है लेकिन अन्त में उसका परित्याग करके ही निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति संभव है, जिस प्रकार नदी पार करने के पश्चात्‌ नौका का सर्वथा परित्याग आवश्यक है। अतः विचार करने की आवश्यकता है। सारे प्रतिबंधकों से रहित होने पर ही आत्मज्ञान शोक से परे पहुँचाता है। 
>>ज्ञान का दृष्ट फल (Visible result of knowledge)
शोक स्वसंवेद्य वस्तु है। जैसे सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास जिसे लग रही है वही उसे जानता है।  ऐसे ही शोक जिसे है वह उसे स्वयं जानता है। ऐसा नहीं कि कोई बताये "तुम्हे शोक है” तब पता चले कि “मुझे शोक है !” ऐसे ही तत्त्वज्ञान से शोकनिवृत्ति भी खुद पता चल जाती है, किसीसे पूछना नहीं पड़ता। जब शोक है तब तक निश्चित जानो कि आत्मज्ञान नहीं हुआ। कुछ कर्मादि का दृष्ट फल होता है अर्थात्‌ तब तक क्रिया करनी पड़ती है जब तक फल न हो जाये, जैसे कुल्हाड़ी तब तक चलाते हो जब तक लकड़ी कट न जाये। कहीं फल अदृष्ट होता है अर्थात्‌ क्रियादि करने के बाद तुम क्रिया से निवृत्त हो जाते हो और उचित समय पर फल सामने आ जाता है।  जैसे ज्योतिष्टोम यज्ञ संपन्‍न कर देते हो और मरने के बाद स्वर्ग मिल जाता है। कहीं दृष्टा-दृष्ट दोनों फल होते हैं, जैसे यज्ञ में आहुति देने के लिये धान कूटकर चावल निकालते हो तो चावल निकलना दृष्ट फल है और वैध कूटने से उनमें अपूर्व उत्पन्न हुआ, वह अदृष्ट फल है।
पशुभाव का त्याग
ईश्वरभाव, दैवभाव की ओर बढ़ने पर पशुभाव छूटता जाता है। सात्त्विकता में बढ़ोतरी करोगे तो तामसता घटेगी ही। खान-पान में भी यही बात है, जब सात्तविक आहार रखोगे तब तामस आहार, छोड़ना पड़ेगा। सर्वत्र यह नियम है कि दैव (100 % निःस्वार्थपरता )  की तरफ बढ़ने पर पशुता (घोर स्वार्थपरता) घटती जायेगी। आज लोग खाना-पीना-बच्चे पालना बस इतने दायरे को ही पर्याप्त मानने लगे हैं।  किन्तु यह तो पशुओं के दायरे जितना ही है-वे भी खाते, पीते, बच्चे पाल लेते हैं ! मानव की विशेषता यह सब नहीं वरनू ईश्वरप्राप्ति ही उसकी विशेषता है।  पशु के पास ईश्वरज्ञान का उपाय, शास्त्र नहीं- धर्म या चरित्र  है जो मनुष्य के पास है।
 [साभार /साधना / श्री १०८ स्वामी महेशानन्द गिरि जी/महाराज के सदुपदेशका संक्षिप्त संग्रह ,https://ia801703.us.archive.org/12/items/sadhana-maheshananda-giri/Sadhana%20-%20Swami%20Maheshananda%20Giri_text.pdf 


[वही आत्मा सच्चिदानन्द मैं हूँ,  

अखिल विश्‍व का जो परमात्मा है, वही आत्मा सच्चिदानन्द मैं हूँ।

शिवोहम शिवोहम शिवोहम, वही आत्मा सच्चिदानन्द मैं हूँ।

1. सभी धर्म जिसमें कल्पित खड़े हैं,

सभी नाम रूपों से जो परे है।


2. हैं तारों सितारों में प्रकाश मेरा,

है चन्दा और सूरज में आभास मेरा।


3. अमर आत्मा है मरण शील काया,

सभी प्राणियों के जो भीतर समाया।


4. जिसे शस्त्र काटे न अग्नि जलावे,

गलावे न पानी मृत्यु न मिटावे।


5. यह संसार जिससे सत्ता है पाता,

जिससे उत्पन्न है जिसमें समाता।


6. अजर और अमर जिसको वेदों ने गाया,

वही ज्ञान सतगुरु ने हमको सिखाया।

साभार (gurumaa.com) 

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अमर आत्मा सच्चिदानद मैं हूँ,

शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं।


अखिल विश्व का जो परमात्मा है,

सभी प्राणियो का वो ही आत्मा है,

वही आत्मा सचिदानंद मैं हूँ।

शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं॥


जिसे शस्त्र ना काटे ना अग्नि जलावे,

गलावे ना पानी, ना मृत्यु मिटावे,

वही आत्मा सचिदानंद मैं हूँ।

शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं॥


अजर और अमर जिसको वेदों ने गाया,

यही ज्ञान अर्जुन को हरी ने सुनाया,

वही आत्मा सचिदानंद मैं हूँ।

शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं॥


अमर आत्मा है, मरण शील काया,

सभी प्राणियो के भीतर जो समाया,

वही आत्मा सचिदानंद मैं हूँ।

शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं॥


है तारो सितारों में प्रकाश जिसका,

जो चाँद और सूरज में आभास जिसका,

वही आत्मा सचिदानंद मैं हूँ।

शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं॥


जो व्यापक है जन जन में है वास जिसका,

नहीं तीन कालो में हो नाश जिसका,

वही आत्मा सचिदानंद मैं हूँ,

शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं॥

शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्!

वही आत्मा अमर सच्चिदानन्द मैं हूं, अमर आत्मा सच्चिदानन्द मैं हूं|

शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्!

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"स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा शिवोहम"

अखिल विश्व का जो परम आत्मा है, सभी प्राणियों का वही आत्मा है|

वही आत्मा अमर सच्चिदानन्द मैं हूं, शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्!


अमर आत्मा है, मरणशील काया, सभी प्राणियों के वो भीतर समाया|

वही आत्मा अमर सच्चिदानन्द मैं हूं, शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्!


जिसे शस्त्र काटे न अग्नि जलावे, बुझावे न पानी, न मृत्यु मिटावे|

वही आत्मा अमर सच्चिदानन्द मैं हूं, शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्!


है तारों सितारों में आलोक जिसका, है चन्दा व सूरज में आभास जिसका|

वही आत्मा अमर सच्चिदानन्द मैं हूं, अमर आत्मा सच्चिदानन्द मैं हूं|

शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्! शिवोहम्!

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The Charm of Mayavati Ashrama

Compiled and Edited by - Swami Satyapriyananda 

The Charm of Mayavati Ashrama

1. ADVAITA AND THE ADVAITA ASHRAMA

2. THE MESSAGE OF MAYAVATI

3. SWAMIJI’S VISION OF THE ASHRAMA AT MAYAVATI AND THE ASHRAMA’S SCENIC BEAUTY

4.THE PIONEERS: SWAMI SWARUPANANDA

5.THE PIONEERS: THE SEVIERS

6. SWAMI VIRAJANANDA AT MAYAVATI

7. A BRIEF LIFE-SKETCH OF SOME OF THE PRESIDENTS OF ADVAITA ASHRAMA, MAYAVATI

8. THE ADVAITA ASHRAMA, MAYAVATI

9. OVERHEARD IN A GARDEN: AN ALLEGORY

10. A SAPPHIRE

11. MAYAVATI, THE HOME OF PRABUDDHA BHARATA

12. REMINISCENCES OF MAYAVATI ASHRAMA

13. THE MAYAVATI EXPERIENCE

14. UNFORGETTABLE DAYS

15. ADVAITA ASHRAMA, MAYAVATI MY MEMOIRS

16. ‘DESCENT OF THE DIVINE AT LOHAGHAT’

17. ADVAITA ASHRAMA IT’S PUBLICATION DEPARTMENT AT CALCUTTA

18.THE CHARM OF ADVAITA BROTHERHOOD

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1. ADVAITA AND THE ADVAITA ASHRAMA

[THE ADVAITA ASHRAMA, HIMALAYAS ] 

The Prospectus 

Framed by Swami Vivekananda

(These lines were sent in a letter, in March, 1899, by Swamiji, for embodying in the prospectus of the Advaita Ashrama, Mayavati, Almora, Himalayas.)

In Whom is the Universe, Who is in the Universe, Who is the Universe; in Whom is the Soul, Who is in the Soul, Who is the Soul of Man; knowing Him —and therefore the Universe—as our Self, alone extinguishes all fear, brings an end to misery and leads to Infinite Freedom. Wherever there has been an expansion in love or progress in well-being, of individuals or numbers, it has been through the perception, realisation, and the practicalisation of the Eternal Truth—the oneness of all beings. 

"Dependence is misery. Independence is happiness." The Advaita is the only system that gives unto man complete possession of himself. It takes off all dependence and its associated superstitions, thus making us brave to suffer, brave to do, and in the long run attain to Absolute Freedom.

Hitherto it has not been possible to preach this Noble Truth entirely free from the settings of dualistic weakness; this alone, we are convinced, explains why it has not been more operative and useful to mankind at large.

To give this one truth a freer and fuller scope in elevating the lives of individuals and leavening the mass of mankind, we start this Advaita Ashrama on the Himalayan heights, the land of its first expiration.

Here it is hoped to keep Advaita free from all superstitions and weakening contaminations. Here will be taught and practiced nothing but the Doctrine of Unity, pure and simple; and though in entire sympathy with all other systems, this Ashrama is dedicated to Advaita and Advaita alone. (C.W.5/ 434-435)

Along with the prospectus detailing the ideals, objectives and activities of the Advaita Ashrama, Vivekananda wrote a brief note to Swami Swarupananda regarding the names that should be included in the prospectus when it is published. Some excerpts from the note are as follows:]

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 🏹🔱व्यावहारिक ब्रिटेनवासी (प्रैक्टिकल ब्रिटिश)🏹🔱 

🙏🏹🔱 मायावती की माँ चार्लोट सेवियर और अद्वैत आश्रम की कहानी🏹🔱🙏

(-अमृता एम. साल्म )

[ The Practical British : 'Mother of Mayawati' The Story of Charlotte Sevier ('1847 – 20 October 1930) and Advaita Ashrama. ~ by Amrita M. Salm ] 

🏹🔱धर्म : उसकी विधियाँ और प्रयोजन  🏹🔱

(वि ० सा ० खण्ड २.२३७)  

[THE METHODS AND PURPOSE OF RELIGION-6/]

"विश्व के धर्मों का अध्ययन करते समय हम सामान्यतः दो प्रकार की कार्यपद्धतियाँ पाते हैं। आर्य लोग सदैव अपनी आत्मा में ही ब्रह्म को खोजते रहे हैं। जबकि धार्मिक मुद्रा में बैठे किसी यूरोपीय व्यक्ति के चित्र को देखते हैं तो पाते हैं कि चित्रकार ने उनकी आँखों को उर्ध्वोन्मुख बनाया है, मानो वह ईश्वर की खोज के लिए प्रकृति से बाहर , आकाश की ओर देख रहा हो। पर दूसरी ओर भारतवर्ष के धार्मिक व्यक्ति (योगी) के चित्र को बंद आँखों के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है, मानो वह अपने भीतर देख रहा है। वस्तुतः मनुष्य के अध्यन के ये ही दो विषय हैं - बाह्य प्रकृति तथा आन्तरिक प्रकृति। " (2/237 -238)  

" यह उस एकत्व की खोज है, जिसकी ओर हम सभी अग्रसर हो रहे हैं। हमारे सभी कार्य -चाहे अत्यन्त भौतिक हों, या परम आध्यात्मिक - समानरूपेण एक ही आदर्श की ओर उन्मुख हैं - वह है, एकत्व की प्राप्ति। मनुष्य पहले अकेला रहता है। फिर वह विवाह करता है। ऊपर से देखने पर भले ही इसमें स्वार्थ झलके, पर इसके मूल में एक ही प्रेरक शक्ति है - ऐक्य की प्राप्ति। ... मानो कोई अदम्य शक्ति है, जो हमें पूर्णता की उस स्थिति में जाने के लिए बाध्य करती है, जिससे हम अपने तुच्छ व्यक्तित्व (घोर स्वार्थी मैं) को समाप्त कर अधिकाधिक उदार (100 निःस्वार्थी 'मैं'-दास मैं !) बन जाते हैं। "पूर्णतह निःस्वार्थ हो जाना", यही वह लक्ष्य या ध्येय है, जिसकी ओर सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड धावमान है। हर परमाणु एक दूसरे से मिलना चाहता है। परमाणु पर परमाणु मिलते जाते हैं , और इस तरह पृथ्वी, सूर्य, चंद्र , नक्षत्र तथा ग्रहों का निर्माण होता है। फिर वे भी एक दूसरे की और खींच रहे हैं (चक्कर काट रहे हैं), और अन्ततः हम जानते हैं कि सम्पूर्ण विश्व -भौतिक (material) तथा चेतन (mental) -एक अभिन्न सत्ता में अंगीभूत (will be fused into one) हो जाता है। " (२/२३८ -२३९)       

" जो जितना अज्ञानी है , वह उतना ही अधिक अपने को विश्व की अन्य वस्तुओं से भिन्न समझता है। आदमी जैसे जैसे विकसित होता है और ज्ञान लाभ करता है, वैसे वैसे उसमें नैतिकता का विकास होता है, और ऐक्य बोध का प्रादुर्भाव होता है, और यही शक्ति उसे निःस्वार्थता की ओर प्रेरित करती रहती है। और सारी नैतिकता की भित्ति यही है। ... इस भाव का आना कि तुम मेरे अंग हो और मैं तुम्हारा --तुमको चोट लगने से मुझे चोट लगेगी और तुम्हारी सहायता करके मैं स्वयं की सहायता करूँगा। " (२/२३९) 

" वेदान्त के साथ सबसे बड़ी सुविधा यह है कि यह किसी एक व्यक्ति आधारित नहीं रहा। ....वेदान्त में सिद्धान्त (महावाक्य) ही जीवित है और उसके द्रष्टा, अविष्कारक ऋषियों, पैगम्बरों का जीवन वेदान्त के लिए अज्ञात हैं -या गौण है। उपनिषदों में किसी खास पैगम्बर की चर्चा नहीं है, बल्कि अनेक स्त्री एवं पुरुष पैगम्बरों की चर्चा है। .... इसके अनेकों द्रष्टा हुए हैं, जो ऋषि कहे जाते हैं। ये इसीलिए द्रष्टा कहा जाते हैं कि इन्होंने सत्य (इन्द्रियातीत) का -मंत्रों का (महावाक्यों का) दर्शन किया।  "(२/२४०-२४१) 

" मंत्र शब्द का अर्थ है - 'सुविचारित' जिसका चिंतन किया गया, ऋषि इन मंत्रों के (महावाक्यों  के) द्रष्टा होते हैं -(अर्थात जिसका मनन कोई भी करे तो उसे त्राण मिलता हो।) ये मंत्र किन्हीं विशेष व्यक्तियों की संपत्ति नहीं है। कारण, ये सिद्धान्त तो सार्वभौम हैं। कभी इनकी रचना नहीं होती। ये स्वम्भू हैं ! यदि न्यूटन का जन्म न भी हुआ होता, तो भी गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त रहता ही। अगर वेद, बाइबिल तथा कुरान न भी होते, अगर ऋषि तथा पैगम्बर न भी पैदा हुए होते, तो भी ये नियम रहते ही। (२/२४२)

🏹🔱🕊 "नेतृत्व प्रशिक्षण ~ पैगम्बर (नेता) बनो और बनाओ !" 🏹🔱🕊

द्रष्टा ,ऋषि या पैगम्बर (नेता) बन जाना ही धार्मिक होना है !  

(Leadership Training: Be and Make -Leaders !)

"दुनिया ने हजारों पैगम्बरों को देखा है, पर उसे अभी भी करोड़ों को देखना है। (२/२४२) प्राचीन काल में हर समाज में अनेक पैगम्बर हुआ करते थे - अब ऐसा समय आएगा कि दुनिया के हर शहर की हर गली में पैगम्बर घूमेंगे। प्राचीन काल में खास खास व्यक्ति ही पैगम्बर माने सकते थे। अब तो ऐसा समय आने वाला है, जब समझा जायेगा कि धार्मिक होने का अर्थ पैगम्बर होना ही है, और तब तक कोई कोई धार्मिक नहीं माना जायेगा , जब तक वह पैगम्बर नहीं बन जाता। धर्माध्यन ऐसे पैगम्बरों - धर्माचार्यों, नेताओं, जीवन्मुक्त शिक्षकों के निर्माण की कुञ्जी है। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों को पैगम्बर बनाने के लिए प्रशिक्षण-केंद्र होना चाहिए। सम्पूर्ण विश्व को पैगम्बरों से भर देना होगा -और जब तक कोई पैगम्बर नहीं बनता, तब तक तो धर्म उसके लिए तुच्छ और महज मजाक का विषय रहेगा। " (२/२४३) 

" हमें वह काम करना होगा (Be and Make -वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण शिविर आयोजित) करना होगा) जिससे प्रत्येक मनुष्य द्रष्टा बन जाये। प्रत्येक व्यक्ति को इस उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करने का जन्मसिद्ध अधिकार है। - इस विश्व में मात्र संयोग से कुछ नहीं होता। (ईश्वरकोटि-जीवकोटि भी पूर्वजन्मों की कमाई है)। प्रश्न है क्या हम सचमुच नेता (पैगम्बर) बनना चाहते हैं ? अगर हाँ, तो हम बनकर रहेंगे। इस तरह पैगम्बर बनने का महान कार्य हमारे सम्मुख पड़ा है।  " (२/२४०-२४४) "विश्वास कीजिये कि आत्मा अमर है, अनन्त है और सर्वशक्तिमान है। मैं शिक्षा को गुरु के सानिध्य में रहना - गुरुगृह वास करते हुए सीखना समझता हूँ। गुरु के व्यक्तिगत जीवन के अभाव में शिक्षा नहीं हो सकती। (४/२६२) 

"धर्म का साक्षात्कार ही एकमात्र मार्ग है। हममें से प्रत्येक को स्वयं साक्षात्कार करना चाहिए। वेदान्त का पहला सिद्धान्त यही है कि आत्मज्ञान ही धर्म है और जिसे उसकी उपलब्धि हो चुकी है, वही धार्मिक है। " (२/२४७) 

" धार्मिक बनने के लिये, धर्म का प्रत्यक्षीकरण करने के लिए तथा पैगम्बर बनने के लिए हमें इन उपायों को अपनाकर साधना करनी पड़ेगी। ..... सभी धर्मों का यह व्यावहारिक पक्ष है। संसार के हर धर्मग्रंथ में तुम इसे पाओगे। वहाँ केवल सिद्धान्त की चर्चा ही नहीं रहती , बल्कि सन्तों के जीवन-चरित के माध्यम से साधना का भी वर्णन रहता है। अगर वे स्पष्टरूपेण कुछ विशिष्ट नियमों का जिक्र नहीं भी करते , तो भी महात्माओं की जीवनियों में कुछ विशिष्ट नियमों का निर्वाह तो देखा ही जाता है। इन नियमों के पालन से ही वे अपने को जनसाधारण से विशिष्ट कर लेते हैं। और इसीसे वे उच्च सिद्धियाँ प्राप्त करते तथा ब्रह्म का दर्शन करते हैं। अगर हम भी ऐसे दर्शन की इच्छा रखते हैं , तो हमें भी वैसी साधना करनी पड़ेगी। साधना ही हमें ऊपर उठाएगी। इसलिए वेदान्त के सामने यही योजना है : पहले सिद्धांतों का निरूपण , लक्ष्य का सन्धान और फिर वैसी साधना की शिक्षा , जिससे लक्ष्य की सिद्धि हो सके , धर्म का ज्ञान हो सके , उसकी वास्तविक अनुभूति हो सके। "( २/२४८) 

>>भारत के पुनर्जागरण के लिए स्वामी विवेकानन्द की योजना- " राष्ट्रीय आधार पर सनातन (हिन्दू) धर्म (शिक्षा) का पुनर्जागरण !  

( स्वामी विवेकानन्द द्वारा सितंबर 1898 में 'प्रबुद्ध भारत' पत्रिका को दिया गया साक्षात्कार तथा फरवरी, 1897 में ' मद्रास टाइम्स' दिया गया  साक्षात्कार। )

प्रश्न - आप भारत के पुनर्जागरण के लिए क्या करना चाहते हैं ? 

स्वामी विवेकानन्द -" हमारी कार्य-विधि बहुत सरलता से बताई जा सकती है। वह केवल राष्ट्रीय जीवन को पुनः स्थापित करना है। बुद्ध ने 'त्याग ' का प्रचार किया था। भारत ने सुना और फिर छः शताब्दियों में वह अपने उच्चतम शिखर पर पहुँच गया। भेद यहाँ है। भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं - त्याग और सेवा। आप इसकी इन धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये , और शेष सब अपने आप ठीक हो जायेगा। इस देश में आध्यात्मिकता का झंडा [वज्रांकित पताका] कितना ही ऊँचा क्यों न किया जाय, वह पर्याप्त नहीं होता। केवल इसीमें भारत का उद्धार है। " ('राष्ट्रीय आधार पर हिन्दू धर्म का पुनर्जागरण ' प्रबुद्ध भारत, सितंबर, 1898/ ४/२६५)  

 " मैं समझता हूँ कि हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप है अपने जनसमुदाय की उपेक्षा , और वह हमारे पतन का कारण भी है। हम कितनी भी राजनीति बरतें , उससे किसी को तबतक कोई लाभ नहीं होगा, जब तक भारत का जनसमुदाय एकबार फिर सुशिक्षित , सुपोषित और सुपालित नहीं होता। वे हमारी शिक्षा के लिए धन देते हैं (टैक्स के रूप में), हमारे मंदिर बनाते हैं, और बदले में ठोकरें पाते हैं। वे व्यवहारतः हमारे दास हैं। " 

" यदि हम भारत को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं, तो हमें उसके लिए काम करना होगा। मैं युवकों को धर्म-प्रचारक [नेता , पैगम्बर, जीवनमुक्त शिक्षक] के रूप में प्रशिक्षित करने के लिए पहले दो केन्द्रीय संस्थाएं आरम्भ करना चाहता हूँ , एक मद्रास में और दूसरी कलकत्ते में। मैं  इन दोनों संस्थाओं को पहले धर्म-प्रचारकों की शिक्षा देने के लिए खोलना चाहता हूँ। मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में, नयी पीढ़ी में है , मेरे कार्यकर्ता उनमें से आयेंगे।   वे एक केन्द्र से दूसरे केंद्र में उस समय तक फैलेंगे, जब तक कि हम सम्पूर्ण भारत पर नहीं छा जायेंगे।" (४/२६०-२६१-२६२) 

मेरे उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए अंग्रेज सब प्रबंध कर देंगे।  मनुष्य के रूप में अंग्रेज बहुत अच्छा होता है। वह अत्यधिक व्यावहारिक होता है। अमेरिकी जाति की आयु अभी इतनी कम है कि त्याग की बात उनकी समझ में नहीं आ सकती। इंग्लैण्ड ने युगों से सम्पत्ति और भोगविलास का आनन्द लिया है। वहाँ बहुत से लोग त्याग के लिए तैयार हैं। अंग्रेज लोग अत्यंत मेहनती हैं। उन्हें एक विचार दे दीजिये , और आप विश्वास रखिये कि वह नष्ट नहीं होगा; शर्त है कि बात उनकी समझ में आ जाय।" (४/२६०-२६१) 

"श्री और श्रीमती सेवियर इस विचार से स्वामीजी के साथ हैं कि वे हिमालय में ही बस जायेंगे और स्वामीजी के उद्देश्य को पूर्ण करने में सहायता करने के लिए भारत आने के इच्छुक ;  पश्चिमी-एवं भारतीय शिष्यों के लिए वहाँ वे एक गुरुगृह वास प्रशिक्षण पद्धति को व्यावहारिक रूप देने के लिए 'निवास' (निर्जनवास, अद्वैत आश्रम , मायावती) की स्थापना करेंगे। बीस वर्षों से सेवियर दम्पति किसी विशेष धर्म के अनुयायी नहीं रहे हैं। उन्हें चर्च में जो उपदेश मिला था, उससे वे सन्तुष्ट नहीं थे। पर स्वामी विवेकानन्द के अद्वैत वेदान्त विषयक भाषणों का एक क्रम सुनने के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें ह्रदय और मस्तिष्क को सन्तोष देनेवाला एक धर्म मिल गया है। तब से वे स्विट्जरलैण्ड, जर्मनी और इटली में , और अब भारत में स्वामी जी साथ हैं।"   (४/२६३)

व्यावहारिक जीवन में वेदान्त -(१)

अनेकता में एकता 

" मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थिति तथा अभाव के कारण ही है। जिसमें आत्मविश्वास नहीं है, वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। नूतन धर्म कहता है , जो आत्मविश्वास नहीं रखता, वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस क्षुद्र 'मैं' को लेकर नहीं है, क्योंकि वेदान्त एकत्ववाद की शिक्षा भी देता है। इस आत्मविश्वास का अर्थ है -सबके प्रति विश्वास, क्योकि तुम सभी एक हो। अपने प्रति प्रेम का अर्थ है सब प्राणियों से प्रेम, समस्त पशु-पक्षियों से प्रेम, -क्योंकि तुम सब एक हो। यही महान विश्वास जगत को अधिक अच्छा बना सकता है। " (८/१२-१३) 

" केवल एक ही जीवन है,एक ही जगत है और वही हमलोगों को अनेकवत प्रतीत होता है। यह अनेकता एक स्वप्न सदृश है। स्वप्न देखते समय एक के बाद दूसरा स्वप्न आता है। स्वप्न में जो देखा जाता है , वह सत्य तो नहीं है। साधक (सिद्धार्थ गौतम) को सिद्धावस्था (बुद्धत्व की अवस्था)प्राप्त होने पर एक ऐसी अवस्था आती है, जिसमें यह सब अन्तर्हित हो जाता है -यह जगत और अपनी आत्मा साक्षात् ब्रह्मरूप [सर्वं ब्रह्म मयं -रे रे , सर्वं 'सेई' मयं !] अनुभव होती है। यह दृष्टिगोचर जगत (बहुत्व) उस एकत्व की ही अभिव्यक्ति है। केवल वह 'एक' ही अपने को बहुरूप में -जड़, चेतन, मन , विचार अथवा अन्य विविध रूपों में व्यक्त कर रहा है। हमारा प्रथम कर्तव्य है -इस तत्व की शिक्षा अपने को तथा दूसरों के देना। " (८/१४) 

>>>विवेक-प्रयोग क्षमता  : " जिसे हम  'विवेक' [या सद्सत विचार-discrimination] कहते हैं, उसका अपने जीवन के प्रतिक्षण में और प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए, उचित और अनुचित, सत्य, असत्य और मिथ्या में भेद करने के लिए, सबसे पहले हमें सत्य की कसौटी जान लेनी चाहिए - और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान।' (८/१५)

[To be able to use what we call Viveka (discrimination), to learn how in every moment of our lives, in every one of our actions, to discriminate between what is right and wrong, true and false, first we shall have to know the test of truth, which is purity, oneness.

"जिससे एकत्व की प्राप्ति हो, वही सत्य है। प्रेम सत्य है; घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है। घृणा ही मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती है -अतएव वह गलत और मिथ्या है, यह एक विघटक शक्ति है; वह पृथक करती है -नाश करती है।"  (८/१५)

[Everything that makes for oneness is truth. Love is truth, and hatred is false, because hatred makes for multiplicity. It is hatred that separates man from man; therefore it is wrong and false. It is a disintegrating power; it separates and destroys.]

" प्रेम (भक्ति ?) जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है। सभी एक हो जाते हैं - माँ संतान के साथ, परिवार नगर के साथ, सम्पूर्ण जगत पशु-पक्षियों के साथ एकीभूत हो जाता है। क्योंकि प्रेम ही सत (Existence-अस्तित्व है ?), प्रेम ही भगवान है और यह सभी कुछ उसी एक प्रेम का ही न्यूनाधिक प्रस्फुटन है। प्रभेद केवल मात्रा के तारतम्य में है , किन्तु वास्तव में सभी कुछ उसी एक प्रेम की ही अभिव्यक्ति है। "

[Love binds, love makes for that oneness. You become one, the mother with the child, families with the city, the whole world becomes one with the animals. For love is Existence, God Himself; and all this is the manifestation of that One Love, more or less expressed. The difference is only in degree, but it is the manifestation of that One Love throughout.] 

"अतएव हमलोगों को यह देखना चाहिए कि हमारे कर्म भेद-सृष्टि करने वाले हैं - अनेकत्व विधायक हैं  अथवा एकत्व संस्थापक ? यदि वे अनेकत्व -विधायक हैं, तो उनका त्याग करना होगा और यदि वे एकत्व-संस्थापक हैं , तो उन्हें सतकर्म समझना चाहिए। इसी प्रकार विचारों के सम्बन्ध में भी सोचना चाहिए। देखना चाहिए कि उससे विघटन या अनेकत्व उत्पन्न होता है या एकत्व ? और वे एक आत्मा को दूसरी आत्मा से मिलाकर एक महान शक्ति उत्पन्न करते हैं या नहीं ?"(८/१५)   

[Therefore in all our actions we have to judge whether it is making for diversity or for oneness. If for diversity we have to give it up, but if it makes for oneness we are sure it is good. So with our thoughts; we have to decide whether they make for disintegration, multiplicity, or for oneness, binding soul to soul and bringing one influence to bear.]

"वेदान्त का नीति शास्त्र किसी अज्ञेय-अज्ञात तत्व पर आधारित नहीं है ,... तुम जो कुछ जानते हो , आत्मा के द्वारा ही जानते हो। (कुर्सी दर्शनक्रिया में) देखने से पहले मुझे अपने स्वयं का ज्ञान होता है, उसके बाद कुर्सी का। इस आत्मा में और आत्मा के द्वारा ही इस कुर्सी का ज्ञान होता है।  इस आत्मा में और उसके द्वारा ही मुझे तुम्हारा ज्ञान होता है , सम्पूर्ण जगत का ज्ञान होता है। अतएव आत्मा को अज्ञात कहना केवल प्रलाप है। आत्मा को हटा लेने से सम्पूर्ण जगत ही विलुप्त  हो जाता है। आत्मा के द्वारा ही सम्पूर्ण ज्ञान होता है -अतएव यही सबसे अधिक ज्ञात है। "          (८/-१६)               

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[ The Practical British : The Story of Charlotte Sevier (Mother of Mayawati) and Advaita Ashrama. ~ by Amrita M. Salm

THE METHODS AND PURPOSE OF RELIGION

(Volume- 6)

"In studying the religions of the world we generally find two methods of procedure....All the knowledge the Aryans got of God was through the human soul; The Aryan man was always seeking divinity inside his own self. It became, in course of time, natural, characteristic. It is remarkable in their art and in their commonest dealings. Even at the present time, if we take a European picture of a man in a religious attitude, the painter always makes his subject point his eyes upwards, looking outside of nature for God, looking up into the skies. In India, on the other hand, the religious attitude is always presented by making the subject close his eyes. He is, as it were, looking inward." (Volume 6/3,4 ) 

These are the two subjects of study for man, external and internal nature....; It is the finding of a unity towards which we are all going.  Every action of our lives—the most material, the grossest as well as the finest, the highest, the most spiritual—is alike tending towards this one ideal, the finding of unity. A man is single. He marries. Apparently it may be a selfish act, but at the same time, the impulsion, the motive power, is to find that unity. He has children, he has friends, he loves his country, he loves the world, and ends by loving the whole universe. This is the goal, the end towards which the universe is rushing. Every atom is trying to go and join itself to the next atom. Atoms after atoms combine, making huge balls, the earths, the suns, the moons, the stars, the planets. They in their turn, are trying to rush towards each other, and at last, we know that the whole universe, mental and material, will be fused into one.(6/4-5) 

 "The more ignorant the person, the more he thinks, that it is separate from the rest of the universe. he will die or will be born, and so forth—ideas that are an expression of this separateness. But we find that, as knowledge comes, man grows, morality is evolved and the idea of non-separateness begins. Whether men understand it or not, they are impelled by that power behind to become unselfish. That is the foundation of all morality. It is the quintessence of all ethics, preached in any language, or in any religion, or by any prophet in the world. "Be thou unselfish", "Not 'I', but 'thou'"—that is the background of all ethical codes. (6/5)]

" In Vedanta the chief advantage is that it was not the work of one single man; and therefore, naturally, unlike Buddhism, or Christianity, or Mohammedanism, the prophet or teacher did not entirely swallow up or overshadow the principles. The principles live, and the prophets, as it were, form a secondary group, unknown to Vedanta. The Upanishads speak of no particular prophet, but they speak of various prophets and prophetesses." (6/7)

"The word Mantra means "thought out", cogitated by the mind; and the Rishi is the seer of these thoughts. They are neither the property of particular persons, nor the exclusive property of any man or woman, however great he or she may be; nor even the exclusive property of the greatest spirits—the Buddhas or Christs—whom the world has produced.....because they are universal principles. They were never created. These principles have existed throughout time; and they will exist. They are non-create—uncreated by any laws which science teaches us today....(6/8) 

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The Missionary Work Of The First Hindu Sannyasin To The West And His Plan Of Regeneration Of India! (Volume 5, Interviews) 

 Reawakening Of Hinduism On A National Basis. (Prabuddha Bharata, September, 1898)

"Our method", said the Swami, "is very easily described. It simply consists in reasserting the national life. Buddha preached renunciation. India heard, and yet in six centuries she reached heir greatest height. The secret lies there. The national ideals of India are renunciation and service. Intensify her in those channels, and the rest will take carte of itself. The banner of the spiritual cannot be raised too high in this country. In it alone is salvation." (C.W.5/228)  

"What do you intend to do for the regeneration of India?"

"I consider that the great national sin is the neglect of the masses, and that is one of the causes of our downfall. No amount of politics would be of any avail until the masses in India are once more well educated, well fed, and well cared for. They pay for our education, they build our temples, but in return they get kicks. They are practically our slaves." 

(C.W.5/222-223) 

If we want to regenerate India, we must work for them. I want to start two central institutions at first — one at Madras and the other at Calcutta — for training young men as preachers.  I want to start at first these two institutions for educating missionaries to be both spiritual and secular instructors to our masses. They will spread from centre to centre, until we have covered the whole of India. "My faith is in the younger generation, the modern generation, out of them will come my workers. "Believe that the soul is immortal, infinite and all-powerful. My idea of education is personal contact with the teacher - Gurugriha-Vâsa. Without the personal life of a teacher there would be no education. (CW 5/224)

I have funds for starting the Calcutta one. English people will find funds for my purpose.  I want to start at first these two institutions for educating missionaries to be both spiritual and secular instructors to our masses. They will spread from centre to centre, until we have covered the whole of India. "My faith is in the younger generation, the modern generation, out of them will come my workers. It appears that Mr. and Mrs. Sevier accompany the Swami with a view to settling in the Himalayas, where they intend building a residence for the Western disciples of the Swami, who may have an inclination to reside in India. For twenty years, Mr. and Mrs. J. H. Sevier, had followed no particular religion, finding satisfaction in none of those that were preached; but on listening to a course of lectures by the Swami, they professed to have found a religion that satisfied their heart and intellect. Since then they have accompanied the Swami through Switzerland, Germany, and Italy, and now to India. 

 It appears that Mr. and Mrs. Sevier accompany the Swami with a view to settling in the Himalayas, where they intend building a residence for the Western disciples of the Swami, who may have an inclination to reside in India. For twenty years, Mr. and Mrs. Sevier had followed no particular religion, finding satisfaction in none of those that were preached; but on listening to a course of lectures by the Swami, they professed to have found a religion that satisfied their heart and intellect. Since then they have accompanied the Swami through Switzerland, Germany, and Italy, and now to India.

Practical Vedanta: Part I – (C.W.2/304-305) 

"To be able to use what we call Viveka (discrimination), to learn how in every moment of our lives, in every one of our actions, to discriminate between what is right and wrong, true and false, we shall have to know the test of truth, which is purity, oneness. Everything that makes for oneness is truth. Love is truth, and hatred is false, because hatred makes for multiplicity. It is hatred that separates man from man; therefore it is wrong and false. It is a disintegrating power; it separates and destroys.

Love binds, love makes for that oneness. You become one, the mother with the child, families with the city, the whole world becomes one with the animals. For love is Existence, God Himself; and all this is the manifestation of that One Love, more or less expressed. The difference is only in degree, but it is the manifestation of that One Love throughout. Therefore in all our actions we have to judge whether it is making for diversity or for oneness. If for diversity we have to give it up, but if it makes for oneness we are sure it is good. So with our thoughts; we have to decide whether they make for disintegration, multiplicity, or for oneness, binding soul to soul and bringing one influence to bear.

It is in and through the Self that you are known to me, that the whole world is known to me; and therefore to say this Self is unknown is sheer nonsense. Take off the Self and the whole universe vanishes. In and through the Self all knowledge comes." 

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अध्याय 7, 'मायावती की माँ' चार्लोट सेवियर ('1847 - 20 अक्टूबर 1930) और अद्वैत आश्रम की कहानी। ~ अमृता एम. साल्म द्वारा]

🏹🔱🕊मनुष्य में ईश्वर की सेवा का अभ्यास कैसे करें?🏹🔱🕊

क्या वेदान्त भावी युग का धर्म होगा ? 

(8 अप्रैल, 1900 को सैन फ्रांसिस्को में दिया गया भाषण) 

 "आज जितने भी प्रचलित /जीवित धर्म हैं, उनमें से प्रत्येक का अपना धर्मग्रंथ है। धर्म की दूसरी आवश्यकता है व्यक्तिविशेष के प्रति पूज्य भाव। फैलने वाले धर्म की तीसरी आवश्यकता है -(कट्टरता) सबल और अलग दिखने के लिए, उसे केवल अपने को ही सत्य मानना चाहिए। वर्तमान के सारे प्रचारशील धर्म घोर कट्टरपंथी (fanatic) हैं। कोई सम्प्रदाय अन्य सम्प्रदायों से जितनी घृणा करेगा, उतना ही वह सफल होगा और अपने अनुयायियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ाता जायेगा। (All existent religions that are spreading are tremendously fanatic. The more a sect hates other sects, the greater is its success and the more people it draws into its fold.) 

 वेदान्त इनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं करता। वेदान्त से आशय उपनिषद हैं -  उपनिषदों में बार बार यही घोषणा है - "नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया" (इस 'आत्मा' को प्रवचन से अथवा बुद्धि से प्राप्त नहीं किया जा सकता।} वेदान्त के विद्यार्थी जानते हैं कि केवल यही धर्म किसी व्यक्तिविशेष से चिपका नहीं है। (९/७८-७९)

" क्या आत्मा मात्र स्वर्ग-निवासी है ? आत्मा है क्या ? हम सब आत्मा हैं। क्या कारण है कि हम इसकी अनुभूति नहीं करते ? कौन मुझे तुमसे अलग करता है ? देह (M/F नाम-रूप ) और कुछ नहीं। देह को भूलो - और सब आत्मा ही है। अतः वेदान्त पाप नहीं मानता। भूलें जरूर हैं, लेकिन पाप नहीं। कोई भी व्यक्ति शैतान नहीं -ऐसी कोई बकवास नहीं। बीते हुए की चिंता मत करो। आगे बढ़ो !" (९/८१)  

[  Does spirit live only in heaven? What is spirit? We are all spirit. Why is it we do not realise it? What makes you different from me? Body and nothing else. Forget the body, and all is spirit. No Satan -- none of this nonsense. There are mistakes but no sin; and in the long run everything is going to be all right. Do not look back upon what has been done. Go ahead! (8/126-Is Vedanta The Future Religion?)]   

"जब कभी हमलोग निर्गुण ईश्वर (Impersonal God) से एकत्व की अनुभूति की चर्चा सुनते हैं ,तो हमारी प्रतिक्रिया होती है कि - 'मेरे व्यक्तित्व (individualityका क्या होगा ?' -मेरा तो व्यक्तित्व ही चला जायेगा। ' अगली बार जब ऐसा विचार मन में उठे तो 'वराहावतार' वाले शूकर की पौराणिक को याद कर लेना -तुम्हारे व्यक्तित्व में (personality-पृथक्त्व M/F भाव में) रहा ही क्या है ? क्या वह शूकर -जीवन से कहीं बढ़कर है ? और क्या तुम इसी 'शूकर -व्यक्तित्व' को छोड़ना नहीं चाहते ? भगवान हमें सद्बुद्धि दें ! " (९/८२)   

["Whenever we hear about the experience of oneness with the 'Impersonal God' (formless God), our reaction is - 'What will happen to my individuality??-- my individuality will go!" What is there in your personality? It is any better than that pig life? And this you do not want to give up! Lord bless us all! (8/128)] 

" लेकिन हम इसका अनुभव क्यों नहीं कर पाते ? इसका कारण है वही व्यक्तित्व-भाव , वही शूकरपना (piggishness) । इस मन से , इस विचार से (M/F भाव से ), तुम आबद्ध हो चुके हो, और तुम यहीं रह सकते हो , वहाँ नहीं। अमरत्व है क्या ? कितने कम लोग यह उत्तर देंगे कि 'वह हमारा यह जीवन ही तो है ! ' अधिकांश लोगों की धारणा तो यही है कि- 'यह जीवन मरणशील है, प्राणहीन है -ईश्वर यहाँ नहीं है, स्वर्ग पहुँचने पर ही वे अमर होंगे। ... अमरता मरने और स्वर्ग जाने से नहीं ,बल्कि व्यक्तिवाद की इस शूकर -प्रवृत्ति और क्षुद्र देह-बंधन से अपने को आबद्ध न करने पर ही प्राप्त होती है। 'स्वयं को सबमें , और सबको स्वयं में '-देख पाने की क्षमता को ही मोक्ष या अमरता कहते हैं। हमें दूसरों के शरीर में भी आत्मदर्शन अवश्य मिलेगा। सहानुभूति या समानुभूति है क्या ? क्या सहानुभूति की भी कोई निर्दिष्ट सीमा है ? प्रत्येक के जीवन में सम्भवतः एक ऐसा समय भी आएगा, जबकि समस्त सृष्टि से मैं तादात्म्य अनुभव कर पाउँगा। इससे लाभ क्या होगा ? इस शूकर -देह का परित्याग करना कठिन है। अपनी छोटी सी वासनामय देह से मिलने वाले देहसुख का परित्याग करने की बात सोचकर भी हमें पश्चाताप होने लगता है। वेदान्त का लक्ष्य 'देहभाव का त्याग' नहीं देहभाव का अतिक्रमण' है ! "   (९/८३-८४) 

[" Why can I/we not feel it? Because of that individuality, that piggishness. You have become bound up with this mind and can only be here, not there. What is immortality? How few reply, "It is this very existence of ours!" Most people think this is all mortal and dead -- that God is not here, that they will become immortal by going to heaven. They imagine that they will see God after death. But if they do not see Him here and now, they will not see Him after death. Though they all believe in immortality, they do not know that immortality is not gained by dying and going to heaven, but by giving up this piggish individuality, by not tying ourselves down to one little body. Immortality is knowing ourselves as one with all, living in all bodies, perceiving through all minds. We are bound to feel in other bodies than this one. We are bound to feel in other bodies. What is sympathy? Is there any limit to this sympathy, this feeling in our bodies? It is quite possible that the time will come when I shall feel through the whole universe. What is the gain? The pig body is hard to give up; we are sorry to lose the enjoyment of our one little pig body! Vedanta does not say, "Give it up": it says, "Transcend it". (8 /129-130 )

" तुम जिसका स्वप्न देखोगे, जो सोचोगे, उसीकी सृष्टि करोगे। तुम जो कुछ सोचते हो, वही बनते भी हो। अपने को कमजोर घोषित करने से हम कमजोर बनेंगे। हम इतने आलसी हैं कि हम अपने लिए स्वयं कुछ नहीं करना चाहते। (९/८४) 

[Whatever you dream and think of, you create. Whatever you think, that you become.  By declaring we are weak, we become weak, we do not become better.We are so lazy, we do not want to do anything for ourselves. (8/130)]

" तुम सगुण ईश्वर हो। इस समय मैं तुम्हारा उपासक हूँ। यही महत्तम प्रार्थना है। इसी अर्थ में सम्पूर्ण विश्व की उपासना करो -उसकी सेवा करते हुए। मेरा ऊँचे मंच पर खड़ा होना , मैं जानता हूँ, उपासना जैसा प्रतीत नहीं होता है। किन्तु यदि इसमें सेवा-भाव है तो यही उपासना है। वह, जो विश्व का प्रभु है , जन जन में है। मन्दिर केवल एक है , वह है देह-मन्दिर। इसी देह में उसका, राजराजेश्वर का निवास है। ईश्वर रूप में सबकी उपासना करो -सारे आकार उसके मन्दिर हैं। बाकि सबकुछ भ्रम है। " (९/८८-८९) 

[You are the Personal God. Just now I am worshipping you. This is the greatest prayer. Worship the whole world in that sense -- by serving it. This standing on a high platform, I know, does not appear like worship. But if it is service, it is worship...  There is but one temple -- the body. It is the only temple that ever existed. In this body, He resides, the Lord of souls and the King of kings. We do not see that, so we make stone images of Him and build temples over them. There is but one temple -- the body. It is the only temple that ever existed. In this body, He resides, the Lord of souls and the King of kings. We do not see that, so we make stone images of Him and build temples over them.... Worship everything as God -- every form is His temple. All else is delusion."(8/135-136) 

" तुम में से कोई वास्तव में अज्ञानी नहीं है , भले ही ऐसा दिखाई पड़े। तुम में से प्रत्येक ईश्वर का अवतार है। तुम सर्वशक्तिसम्पन्न , सर्व अंतर्यामी, दिव्यस्वरूप के अवतार हो। हो सकता है , मेरी बातों पर तुम्हें हँसी आये , किन्तु वह समय नहीं , जब तुम इसे समझ सकोगे। तुम्हें समझना पड़ेगा। कोई पीछे नहीं रहने पायेगा। वह सर्वसुलभ है , सभी इसी लक्ष्य पर पहुँच रहे हैं -अंतर्निहित दिव्यता की ओर। सनकी, हत्यारा , रूढ़िवादी, भीड़-दण्ड से पीड़ित सभी इसी लक्ष्य की और बढ़ रहे हैं। हमारा काम इतना ही है कि जोकुछ हम अनजाने में कर रहे हैं, उसे हम समझकर करें-अधिक अच्छाई के साथ करें। " (९/९०) 

[You are not really ignorant, though you may appear to be so. You are incarnations of God, all of you. You are incarnations of the Almighty, Omnipresent, Divine Principle. You may laugh at me now, but the time will come when you will understand. You must. Nobody will be left behind....All have it, all are going to the same goal -- the discovery of the innate Divinity. The maniac, the murderer, the superstitious man, the man who is lynched in this country -- all are travelling to the same goal. Only that which we do ignorantly we ought to do knowingly, and better.(8/137)  

" कभी किसी ने अपने पति से पति के नाते नहीं , अपितु पति में निवासित आत्मा के हेतु अनुराग दर्शाया है। न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति ।' पत्नी पति से अभिन्नता का अनुभव करती है। पति भी पत्नी में स्वयं को पाता है- वह प्रकृत्या ऐसा करता है। जान-बूझकर वह ऐसा नहीं कर पाता। सम्पूर्ण जगत एक ही सत्ता है। उसके अतिरिक्त कुछ और हो भी नहीं सकता। विभिन्नता से परे हम इसी विराट विश्व-सत्ता की ओर बढ़ रहे हैं। परिवार से कबीले, कबीलों से कुल , कुलों से राष्ट्र , राष्ट्रों से मानवता - कितनी  इच्छायें उस एकत्व की ओर अग्रसर हो रही हैं ! इस एकत्व अनुभूति ही सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान है। एकत्व ही ज्ञान है और अनेकता ही अज्ञान है। इस ज्ञान पर (अर्थात 'एकत्व-अनुभूति पर') तुम सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। इस बात की शिक्षा मुझे देने की कोई आवश्यकता नहीं। संसार में धर्म तो एक ही है , संसार में कभी भी अलग-अलग धर्म नहीं रहे। चाहें या न चाहें , हम सभी मुक्ति के अधिकारी हैं। सब अंत में बंधन-मुक्त होकर रहेंगे , क्योंकि मुक्त होना तुम्हारा स्वभाव है। विभिन्न नाम वाले समस्त धर्मों के माध्यम से एक ही जीवन -ध्येय (purpose of life) का प्रचार हो रहा है कि-" निःस्वार्थी बनो, दूसरों से प्रेम करो। (Be unselfish, love others.) कोई कहता है -क्योंकि 'जेहोवा' ने ऐसा करने का आदेश दिया है। मुहम्मद साहेब ने घोषणा की -'अल्लाह' ने यह आदेश दिया है। दूसरे चिल्लाये -नहीं 'मसीहा' ने। अगर यह जेहोवा का आदेश होता, तो उनलोगों आदर्श कैसे बना , जो जेहोवा को जानते ही नहीं ? अगर यह केवल ईसा का सन्देश है, तो उन्हें नहीं मानने वाले बौद्धों को कैसे प्राप्त हुआ ? अगर या केवल विष्णु (या उनके किसी अवतार) का आदेश होता, तो उनको जानने वाले यहूदियों को यह जीवन-ध्येय (purpose of life) कहाँ से मिला ? सबसे श्रेष्ठ एक अन्य प्रेरणा स्रोत है। वह कहाँ अवस्थित है ? वह अवस्थित है ईश्वर के सनातन मंदिर में - मानवदेह में। वह है क्षुद्र से लेकर महान तक की आत्मा में।  (९/९०-९१)  

["None ever loved the husband for the husband's sake, but for the sake of the Self that is in the husband." The wife finds unity there. The husband sees himself in the wife -- instinctively he does it, but he cannot do it knowingly, consciously. The whole universe is one existence. There cannot be anything else. Out of diversities we are all going towards this universal existence. Families into tribes, tribes into races, races into nations, nations into humanity -- how many wills going to the One! It is all knowledge, all science -- the realisation of this unity. Unity is knowledge, diversity is ignorance. This knowledge is your birthright. I have not to teach it to you. There never were different religions in the world. We are all destined to have salvation, whether we will it or not. You have to attain it in the long run and become free, because it is your nature to be free. Throughout all religious systems and ideals is the same morality; one thing only is preached: "Be unselfish, love others." (8/137 -138) ]

[All the religions with different names are preaching the same message - "Be unselfish, love others." One says, "Because Jehovah commanded." "Allah," shouted Mohammed. Another cries, "Jesus". If it was only the command of Jehovah, how could it come to those who never knew Jehovah?  If it was Jesus alone who gave this command, how could any one who never knew Jesus get it? If only Vishnu, how could the Jews get it, who never were acquainted with that gentleman? There is another source, greater than all of them. Where is it? In the eternal temple of God, in the souls of all beings from the lowest to the highest.(8/138)

>>>Chapter 7,  'Mother of Mayavati' The Story of Charlotte Sevier ('1847 – 20 October 1930) and Advaita Ashrama. ~ by Amrita M. Salm ] 

[How to Practice service to God in man ?]

[Is Vedanta The Future Religion? (C.W. 8/140-141) ]  

Hoe to Practice service to God in man ? (7, Swamiji's India) :Is Vedanta The Future Religion? (Delivered in San Francisco on April 8, 1900) (C.W. 8/140-141) 

" All existent religions that are spreading are tremendously fanatic. The more a sect hates other sects, the greater is its success and the more people it draws into its fold. 

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अध्याय -8,

 🏹🔱🕊'शुद्ध सत्य ' ? के अलावा कुछ भी प्रवेश नहीं करेगा।🏹🔱🕊

[Nothing shall enter except Pure Truth] 

[ 'मायावती की माँ' चार्लोट सेवियर ('1847 - 20 अक्टूबर 1930) और अद्वैत आश्रम की कहानी। ~ अमृता एम. साल्म द्वारा। Chapter 8, [Nothing shall enter except Pure Truth]  

[ 'Mayavati's Mother' Charlotte Sevier ('1847 - 20 October 1930) and the story of the Advaita Ashrama. ~ by Amrita M. Salm]]

जगतगुरु श्री रामकृष्ण के दास और संदेशवाहक के रूप में स्वामी विवेकानन्द कोई नया दर्शन नहीं, बल्कि विश्व में आध्यात्मिक अभ्यास की एक नई पद्धति "Be and Make " परम्परा को स्थापित करना चाहते थे, जो केवल  बुद्ध और ईसा जैसे दृढ़ इच्छाशक्ति सम्पन्न नेता, पैगम्बर अर्थात जीवनमुक्त आध्यात्मिक शिक्षकों का निर्माण  के अभ्यास के लिए समर्पित हो।  मायावती की माँ चार्लोट सेवियर और उनके पति कैप्टन जे.एच. सेवियर, (जिनकी आयु उस समय 50 वर्ष से अधिक थी उन्होंने  ने विवेकानंद के संदेश में पूर्ण आस्था और दृढ़ विश्वास व्यक्त किया , तथा एक ऐसे आश्रम की आवश्यकता पर बल दिया। 1899 से लेकर 1967 तक रामकृष्ण मठ और मिशन के अलावा ऐसा कोई संगठन (युवा महामण्डल) नहीं था  [स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त लीडरशिप -प्रशिक्षण  परम्परा में ] जो केवल आध्यात्मिक-शिक्षक, पैगम्बर बनने और बनाने के अभ्यास के प्रति समर्पित हो।   

[As a servant and messenger of Sri Ramakrishna, Vivekananda desired not to bring a new philosophy" but a new method of spiritual practice into the world at large. Charlotte and her husband Captain J.H. Sevier and implicit faith and conviction in Vivekananda's message and the need for an ashram devoted solely to the practice of Advait Vedanta.]

स्वामी जी "क्या वेदान्त भावी युग का धर्म होगा ? " विषय पर (8 अप्रैल, 1900 को सैन फ्रांसिस्को में दिये गए) उपरोक्त भाषण के अंत में कहते हैं -  "अगर यह वेदान्त कि सभी एक आत्मा हैं (या प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है 'अर्थात चार -महावाक्य) - चारों ओर फ़ैल जाये तो सारी मानवता आध्यात्मिक हो जाएगी। परन्तु क्या यह सम्भव है ? हजार वर्षों में भी यह सम्भव नहीं हुआ। कलकत्ते में ईश्वर, वेद, बाइबिल, ईसा, बुद्ध आदि के नाम पर बहुत सारे मन्दिर और प्रतिमायें हैं। इन्हें चलने दो। लेकिन हिमालय की ऊँचाइयों पर हमने एक स्थान बनाया है , जहाँ पूर्ण सत्य की अपेक्षा और किसी वस्तु का प्रवेश नहीं हो सकता। तुम्हारे सम्मुख आजके व्याख्यान में बताये गए तत्वों का प्रयोग मैं -वहाँ देखना चाहता हूँ। आश्रम एक अंग्रेज सज्जन और अंग्रेज महिला के संरक्षण में है। सत्य-साधकों (एथेंस के सत्यार्थीयों) का प्रशिक्षण, शैशव से ही निर्भीक, अन्धविश्वास रहित नर श्रेष्ठों का निर्माण आदि मेरा ध्येय है। वहाँ ईसा, बुद्ध , शिव या विष्णु आदि नामों को सुनने नहीं पायेंगे -इनमें से किसीका भी नहीं। आरम्भ से ही उन्हें आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दी जाएगी। शैशव अवस्था से ही वे सीखेंगे कि आत्मा ही ईश्वर है ! आत्मा और सत्य के द्वारा ही उनकी आराधना होनी चाहिए। 

      सबको आत्मा के रूप में देखना होगा। यही आदर्श है। इसकी सफलता का मुझे कोई अनुमान नहीं। ... मैं एक दिवंगत व्यक्ति (जगतगुरु श्रीरामकृष्ण) का दास  हूँ। उनका मैं एक सन्देशवाहक मात्र हूँ। मैं प्रयोग करना चाहता हूँ।  ईसा मसीह के उदगार थे - 'परम् पिता और मैं दोनों अभिन्न हैं' -और तुम इसे दुहराते हो, फिर भी मनुष्य के लिए यह सहायक सिद्ध नहीं हुआ। लगभग 20 शताब्दियों तक भी यह मनुष्य के लिए सहायक सिद्ध नहीं हुआ।  यानि 2000 साल तक मानव इस उद्गार का मर्म नहीं समझ सके। ईसा मानवों के उद्धारकर्ता ठहराए गए। वे ईश्वर और हम ? कीड़े हैं ! ... लोगों को यही सिखाया गया है कि वे असहाय हैं, दुःखी जीव हैं और मुक्ति के लिए किसी व्यक्ति-विशेष या पैगम्बर विशेष पर ही उनको आश्रित रहना है। .... हाँ , इस दशा में भी कुछ ऐसे स्स्थितप्रज्ञ लोग हैं, जो इस मोह जाल को काट फेंकते हैं। महापुरुषों के आविर्भाव का जब अनुकूल समय आएगा। तब उनके सतत प्रयास से धर्म की ये शिशुशालाएँ विनष्ट हो जाएँगी और यथार्थ धर्म - आत्मा से आत्मा की आराधना - अधिक सजीव और शक्तिशाली हो सकेगा।" (९/९३-94 ) [English C.W. 8-140-141]

     अद्वैत आश्रम, मायावती, हिमालय रामकृष्ण मठ और मिशन की एक शाखा आश्रम और प्रकाशन विभाग है जो भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चम्पावत जिले में मायावती नामक स्थान पर स्थित है।  यह स्थान टनकपुर रेलवे स्टेशन से 88 कि.मी. तथा काठगोदाम रेलवे स्टेशन से 167 कि.मी. दूर चम्पावत जिले के अंतर्गत लोहाघाट नामक स्थान से उत्तर पश्चिम जंगल में 9 किमी पर है।  देवदार, चीड़, बांज व बुरांश की सघन वनराजि के बीच अदभुत नैसर्गिक सौन्दर्य के मध्य मणि के समान यह आश्रम आगंतुकों को निर्मल शान्ति प्रदान करता है। यह आश्रम रामकृष्ण मिशन के अंग्रेजी और हिन्दी पुस्तकों का एक प्रमुख प्रकाशक हैं । प्रकाशन विभाग का नगर कार्यालय, 5 न० डेही एण्टाली रोड, कोलकाता में स्थित हैं। 

        स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से उनके शिष्य स्वामी स्वरूपानन्द (निवृत्ति मार्ग के अधिकारी) और अंग्रेज शिष्य कैप्टन जे एच सेवियर (प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी) और उनकी पत्नी श्रीमती सी ई सेवियर ने मिलकर 19 मार्च 1899 में इसकी स्थापना की थी। सन् 1901 में कैप्टन जे एच सेवियर के देहांत का समाचार जानकर स्वामी विवेकानंद श्रीमती सेवियर को सांत्वना देने के निमित्त मायावती आये थे। तब वे इस आश्रम में 3 से 18  जनवरी तक रहे। कैप्टेन की मृत्यु के पंद्रह वर्ष बाद तक श्रीमती सेवियर आश्रम में सेवाकार्य करती रहीं। स्वामी विवेकानंद की इच्छानुसार मायावती आश्रम में कोई मंदिर या मूर्ति नहीं है, इसलिए यहाँ सनातनी परम्परा-नुरूप किसी प्रतीक की पूजा नहीं होती । यहां हर एकादशी के दिन सांयकाल में रामनाम संकीर्तन होता है।

      1903 में यहाँ एक धर्मार्थ अस्पताल (Charitable Hospital) की स्थापना की गई, जिसमें गरीबों की निशुल्क चिकित्सा की जाती है। यहाँ की गौशाला में अच्छी नस्ल की स्वस्थ गायें हैं। आश्रम में 1901 में स्थापित एक छोटा पुस्तकालय भी है, जिसमें अध्यात्म व् दर्शन सहित अनेक विषयों से सम्बद्ध पुस्तकें संकलित हैं। आश्रम से लगभग दो सौ मीटर दूर एक छोटी अतिथिशाला भी है, जहां बाहर से आने वाले साधकों के ठहरने की व्यवस्था है।

            "स्वामी विवेकानन्द ने अपनी दूसरी इंग्लैण्ड यात्रा के दौरान  कैप्टन जे एच सेवियर तथा श्रीमती सेवियर को शिष्य रूप में ग्रहण किया। श्रीमती सेवियर शिष्या बनकर भी स्वामीजी की मातृस्थानीया थीं। स्वामीजी उन्हें 'माँ' कहकर पुकारते थे। धर्मप्राण सेवियर दम्पति उनके भारतीय कार्य के लिए आत्मोसर्ग करने के लिए तैयार हो गए। स्वामी जी अपने विदेशी अनुयायियों/मित्रों के साथ लंदन से यात्रा कर जेनेवा शहर पहुँचे। स्विट्जरलैंड के सरोवर द्वारा सुशोभित मनोरम पर्वतों में भ्रमण करते हुए स्वामी जी के मन में पररिव्राजक जीवन की स्मृतियाँ जाग उठीं। हिमालय की सुन्दरता का वर्णन करते हुए स्वामीजी बोले  " मैं चाहता हूँ हिमालय में एक मठ स्थापित कर शेष जीवन ध्यान और तपस्या में बिता दूँ। इस मठ में मेरे भारतीय और पाश्चात्य शिष्यगण रहेंगे। मैं यहाँ उन्हें महामण्डल कर्मी [ Be and Make 'वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित आध्यात्मिक शिक्षक, नेता , पैगम्बर ]  के रूप में प्रशिक्षित कर दूँगा। पहले दल के शिष्यगण पाश्चत्य देशों में निवृत्ति मार्ग के शिक्षकों के निर्माण कार्य में संलग्न होंगे और दूसरा दल भारत की उन्नति के लिए -[' Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में] प्रवृत्तिमार्ग के प्रशिक्षित जीवन्मुक्त शिक्षकों/नेताओं का निर्माण करने में आत्मोसर्ग करेगा। " आल्प्स पर्वत के शिखर पर बैठे स्वामीजी ने शिष्यों के साथ जो चर्चा की थी, वह बाद में ईश्वर की कृपा से 'अद्वैत आश्रम' मायावती , के नाम से स्थापित हुई। (वि०चरित १७५)

          स्वामी जी का लंदन लौटने का विचार जानकर श्री डॉयसन भी कुछ दिन और उनका सत्संग लाभ करने के ख्याल से उनके साथ लंदन तक चलने को तैयार हो गए। जून के महीने के आखिर में विवेकानंद जी ने सारदानंद को अमरीका भेज दिया। लंदन का काम देखने के लिए भारत से अभेदानंद जी आकर सहायता करने लगे। वे अभेदानंद जी को सारा कार्य (अद्वैतवाद का प्रचार -प्रसार करना ?)  समझाने की शिक्षा समझाने लगे थे। अक्तूबर-नवंबर के महीने में स्वामी जी ने अद्वैतवाद के सिद्वांतों के ऊपर कुछ प्रचार किया। अमरीका और इंग्लैंड में प्रचार कार्य की समुचित व्यवस्था देखकर स्वामी जी भारत लौटने की तैयारी करने लगे।

           इसकी खबर जब श्रीमती ओलीबुल को मिली, तो उन्होंने पत्र के जरिए स्वामी जी से निवेदन किया कि वह भारतीय कार्यों के लिए~धन देने को तैयार हैं। [ अर्थात"Be and Make -Leadership Training Centers " या "मनुष्य बनो और बनाओ नेतृत्व-प्रशिक्षण केन्द्रों " की स्थापना करने हेतु धन देने को तैयार हैं। यानि स्वामी विवेकानन्द ने जब प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में प्रतिष्ठित भगवान बुद्ध और ईसा जैसे प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न महापुरुष बनो और बनाओ का प्रशिक्षण देने में समर्थ प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि "C-IN-C नवनीदा " (पूर्व जन्म के कैप्टन जे एच सेवियर- और निवृत्ति मार्ग के भावी नेता स्वामी स्वरूपानन्द) जैसे मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करने के लिए मद्रास, कलकत्ता और हिमालय में  अद्वैत वाद का प्रचार करके ही कार्य की शुरुआत करना उचित समझा। तो श्रीमती ओलीबुल उसके लिए भी धन देने देने को तैयार हो गयीं।] उन्होंने रामकृष्ण मठ में रहने वाले निवृत्ति मार्गी संन्यासियों के लिए एक स्थायी मठ के निर्माण की योजना में विशेष रूप से सहयोग देने की इच्छा व्यक्त की। इस पत्र को पढ़कर स्वामी जी संतुष्ट हुए। स्वामी विवेकानन्द ने मद्रास, कलकत्ता और हिमालय में - "Be and Make -Leadership Training Centers" की स्थापना करके ही कार्य की शुरुआत करना उचित समझा। श्रीमती बुल के उत्तर में उन्होंने लिख दिया कि भारत जाकर विस्तारपूर्वक लिखूंगा।  इस समय मुझे काम के लिए धन की आवश्यकता नहीं है। इंग्लैंड में रह रहे शिष्यों व स्वामी जी के दोस्तों ने जब जाना कि स्वामी जी दिसंबर में स्वदेश लौट रहे हैं, तो विदाई समारोह करने का आयोजन किया।  

        भारत के भावी राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द ने 23 दिसम्बर 1898 को मृणालिनी बसु को लिखित पत्र (हिन्दी खण्ड- 7) में अपनी मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का उल्लेख करते हुए   कहा था "I say, liberate, undo the shackles of people as much as you can. What glory is there in the renunciation of an eternal beggar? What virtue is there in the sense control of one devoid of sense power? When you would be able to sacrifice all desire for happiness for the sake of society, then you would be the Buddha, then you would be free: that is far off." - [OUR PRESENT SOCIAL PROBLEMS /Volume 4/ page -488/] ----" मैं कहता हूँ - मुक्त करो; जितना हो सके उतने लोगों के बन्धन खोल दो। जो स्वयं भिखमंगा है, उसके त्याग का क्या महत्व है ? जिसमें इन्द्रिय-बल ही नहीं हो (sense of smell, test or touch नहीं हो?), उसके इन्द्रिय -संयम का क्या मूल्य है ? जब तुम समाज और देश के कल्याण की कामना से अपने इन्द्रिय-सुखों की कामना को त्याग सकोगे, तब तुम भगवान बुद्ध जाओगे , तब तुम मुक्त हो जाओगे, परन्तु वह दिन दूर है। "( ७/३६० )

             कैप्टन सेवियर के देहांत का समाचार जानकर स्वामी विवेकानन्द  श्रीमती सेवियर को सांत्वना देने के निमित्त मायावती आये थे।  आश्रम में स्वामी विवेकानंद का पदार्पण 3 जनवरी 1901 को हुआ था। तब स्वामी जी काठगोदाम से वाया देवीधुरा होते हुए लगभग 173 किमी की दुर्गम पैदल यात्रा कर अपने अनुयायियों के साथ मायावती पहुंचे थे। तब वे इस आश्रम में 3 से 18 जनवरी तक रहे। दो सप्ताह के प्रवास के दौरान स्वामी जी ने यहां ध्यान एंव वेदांत की रसधारा प्रवाहित करते हुए इस आश्रम को अद्वैत भाव से जोड़ा। तभी से यह आश्रम एक तीर्थ के रूप में विख्यात हो गया। 

              कैप्टेन की मृत्यु के पंद्रह वर्ष बाद तक श्रीमती सेवियर आश्रम में सेवाकार्य करती रहीं। उनके विषय में स्वामी जी ने एक पत्र में लिखा है -" श्रीमती सेवियर नारियों में एक रत्न हैं , ऐसी गुणवती और दयालु। केवल सेवियर दम्पति ऐसे अंग्रेज हैं, जो भारतवासियों से घृणा नहीं करते, स्टर्डी की भी गिनती इनमें नहीं है। मिस्टर और मिसेज सेवियर दो ही व्यक्ति हैं, जो अभिमान पूर्वक हमें उत्साह दिलाने नहीं आये थे। " (६/३६१ ) 

50 की उम्र से अधिक हो चुके कैप्टन सेवियर को आश्रमवासी आदरपूर्वक 'पिताजी' कहते थे। चार्लोट सेवियर की संन्यास दीक्षा कब हुई इसका उल्लेख नहीं मिलता है। प्रबुद्ध भारत , पत्रिका के जून, 1900 के अंक में ही अद्वैत आश्रम की सदस्य्ता की योग्यता को रेखांकित करते हुए लिखा गया था - "Those only who struggle to be entirely free from sensual appetites are capable of walking on the path, " sharp like the edge of a razor and pronounced extremely difficult by the wise .[" mother of mayavti page -73) 

"केवल वे ही साधक जो कामुक इच्छाओं से (तीनों ऐषणाओं से -कामिनी कांचन में आसक्ति से) पूरी तरह मुक्त होने के लिए (त्याग देने ) संघर्ष करते हैं, वे ही उस मार्ग पर चलने में सक्षम हैं, "जो उस्तरे की धार की तरह तीक्ष्ण है और जिसे बुद्धिमान लोग अत्यंत कठिन बताते हैं।"[उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।14।। - (कठोपनिषद् 1.3.14अर्थ- हे मनुष्यों उठो, जागो और ज्ञानी मनुष्य (अर्थात बुद्ध या ईसा जैसे प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न आत्मज्ञानी मनुष्य) के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो।  ज्ञानी मनुष्य तत्वज्ञान के मार्ग को लांघने की कठिन धारा के दुर्गम को सरल बनाते है।

इसलिए इस आश्रम का सदस्य बनने के लिए पहला शर्त होगा , कि इसके प्रत्येक सदस्य को आश्रम की सादगी, संयम (chastity-पवित्रता) और कठोर अनुशासन के प्रति आज्ञाकारी रहने की शपथ लेनी होगी। तथा आश्रम में रहने का खर्च भी स्वयं उठाना होगा। प्रत्येक सदस्य को आश्रम के किसी विभाग में शारीरिक श्रम करने के लिए भी प्रस्तुत रहना होगा। स्वाध्याय और पठन-पाठन में विवेक-प्रयोग करते रहना होगा, मानवीय दुर्बलता वश अज्ञात के भय से दूर रहना होगा । राज-योग या मनःसंयोग का प्रशिक्षण लेना सभी के लिए अनिवार्य होगा। 

   आश्रम के वैसे वरिष्ठ सदस्य जो (चाहे गृही नेता हों, या संन्यासी) जो अपनी 3H के संतुलित विकास - "शारीरिक, मानसिक (बौद्धिक) और आध्यात्मिक योग्यताओं में विकसित होने का संतोषजनक प्रमाण दे सकें, तो उन्हें शिक्षक (नेता या मनःसंयोग प्रशिक्षक) का जिम्मेदार पद लेने के लिए बाहर भेजा जाएगा। ताकि वे वही सिखा सकें जो उन्होंने स्वयं अध्ययन, ध्यान और योग (समाधि) द्वारा सीखा है। क्यों कि - "Example is better than precept."-अर्थात जीवन द्वारा उदाहरण प्रस्तुत करना उपदेश (प्रिसेप्ट) देने से बेहतर होता है !" [प्रबुद्ध भारत, जून, 1900, 83-84 " Those who can give satisfactory testimony of their abilities- physical, mental (intellectual), and spiritual - to take the responsible position of teachers, will be sent out to teach what they themselves have learned by study, meditation, and Yoga (samadhi).   " Example is better than precept,"  (Prabuddha Bharata, June, 1900, 83-84 )]

Additional objectives for the Advaita Ashram were published in P.B. from November 1902 to April 1905, read as follows : 

1. Study and practice towards the realization of the Advaita Vedanta- the Oneness of Existence. 

2. Training of youths (Brahmcharins and Sannyasins) to carry the Gospel of Advaita to all men in all lands. 

Attempts will be made to make special arrangements for the " Vanaprasthas (those who renounce after retirement to practice meditation and spiritual disciplines), Householders (people who are married ) and others , on application . 

अद्वैत आश्रम के अतिरिक्त उद्देश्य नवंबर 1902 से अप्रैल 1905 तक पी.बी. में प्रकाशित हुए, जो इस प्रकार हैं: 

1.अद्वैत वेदांत - अस्तित्व के एकत्व की अनुभूति करने या  उपलब्धि करने के लिए अध्ययन और अभ्यास करना। 

2. सभी देशों में सभी लोगों तक अद्वैत के सुसमाचार 'Be and Make' को ले जाने के लिए युवाओं (ब्रह्मचारियों और संन्यासियों) को " नेता, पैगम्बर या जीवनमुक्त आध्यात्मिक शिक्षक" के रूप में प्रशिक्षित करना।

3. वानप्रस्थों (वे लोग जो ध्यान और आध्यात्मिक अनुशासन का अभ्यास करने के लिए सेवानिवृत्ति के बाद त्याग करते हैं), और गृहस्थों (जो लोग विवाहित हैं) के लिए, तथा अन्य लोगों के लिए भी विशेष व्यवस्था करने का प्रयास किया जाएगा। 

(9) 

A TIME OF CHANGE 

[परिवर्तन का समय] 

सारा चैपमैन थोर्प बुल (24 मई, 1850 - 14 जनवरी, 1911); जिन्हें संत सारा के नाम से भी जाना जाता है) एक अमेरिकी लेखिका और परोपकारी महिला थीं। वह स्वामी विवेकानंद की समर्पित शिष्या थीं और उनकी शादी नॉर्वे के वायलिन वादक ओले बुल से हुई थी। मायावती, हिमालय से श्रीमती ओली बुल को 6 जनवरी, 1901 को लिखित पत्र में स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं - 

" प्रिय धीरा माँ, (सारा बुल ?)

'नासदीय सूक्त ' का अनुवाद भेज रहा हूँ। श्रीमती सेवियर बहुत ही दृढ़ संकल्प की महिला हैं। उन्होंने अत्यन्त शान्ति तथा सबल चित्त से इस शोक को सहन किया है। आगामी अप्रैल में वे इंग्लैण्ड जा रही हैं एवं मैं भी उनके साथ रवाना हो रहा हूँ। यह स्थान अत्यंत सुंदर है , और इन लोगों ने इसे और भी मनोरम बनाया है। 

वि० 

पुनश्च -काली माँ दो बलि ग्रहण कर चुकी हैं ; उद्देश्य-साधन में दो यूरोपीय शहीदों ने आत्मोसर्ग किया है - अब कार्य सुंदर रूप से अग्रसर होता रहेगा। 

वि ०   

भारतीय आदर्श -व्यावहारिक वेदांत अर्थात 'सभी में ईश्वर को देखना' के प्रति प्रतिबद्ध है। 

Indian idol - committed to practical Vedanta, seeing God in everyone

      कैप्टन जे.एच. सेवियर की मृत्यु रविवार, 28 अक्टूबर, 1900 को दोपहर 2:30 बजे हुई, उनके अनुरोध का पालन करते हुए, ब्राह्मणों ने उनके शरीर को मालाओं से ढँक दिया, और उनके शरीर को अंतिम संस्कार के लिए आश्रम के तलहठी में बहती हुई नदी के किनारे ले गए। हिंदू रीति-रिवाज के अनुसार अंतिम संस्कार किया गया, जहाँ ब्रह्मचारी लोग वेदों का पाठ कर रहे थे।

    Sara Bull स्वामी विवेकानन्द की अमरीकी माता थीं (मातृ स्थानीय शिष्या) थीं, Sara Chapman Thorp Bull ( 1850 – 1911) also known as Saint Sara) She was a dedicated disciple of Swami Vivekananda and was married to Ole Bull, a Norwegian violinist.और Charlotte स्वामीजी की ब्रिटिश माता थीं। 

(10)

दृढ़ विश्वास से कार्यान्वित करने तक 

From Conviction to Action

श्रीमती चार्लोट के पत्र और उनके कार्य इस बात का प्रमाण हैं कि वह किस प्रकार एक आध्यात्मिक शक्ति (spiritual dynamo) बन गयीं थीं। Mrs. Charlotte's letters and her actions are proof of how she became a spiritual dynamo .

Appendix -C: Articles written by C.E.Sevier 

परिशिष्ट -सी: श्रीमती सी.ई.सेवियर द्वारा P.B. ले लिए लिखित रचनाएँ।   

1.P.B.August, 1899 : 

 Swadharma : A Story 

स्वधर्म : एक कहानी 

2. P.B. May, 1900 : Prabuddha Bharata, May 1900, pp. 75-7.

 "Overheard in a Garden : An Allegory "

There is no hole where God is not even deeper. 

“Thanks to the human heart by which we live,

Thanks to its tenderness, its joys, and its fears,

To me the meanest flower that blows can give

Thoughts that do often lie too deep for tears.” 

(― William Wordsworth.) 

"एक बगीचे में संयोग से सुनी गई बात : एक रूपक "

["अनुभव ही सबसे क्रूर शिक्षक है। हालाँकि नुकसान बहुत बड़ा है, और गड्ढा अक्सर गहरा लगता है, लेकिन ऐसा कोई गड्ढा नहीं है जहाँ परमेश्वर और भी गहरा न हो।  "हम  मानव हृदय के जिन गहराइयों के साथ जीते हैं, उसका धन्यवाद, उसकी करुणा, उसका आनन्द और उसके भय का भी शुक्रिया, मेरे लिए सबसे तुच्छ फूल भी ऐसे सांत्वना के ऐसे विचार तब दे सकता है, जब दुख इतना गहरा हो कि आँसू न बह सकें। - विलियम वर्ड्सवर्थ।]

[अद्वैतवादी - श्रीमती सेवियर द्वारा लिखित प्रबुद्ध भारत, मई 1900, में छपे निबंध का हिन्दी अनुवाद: 

दुनिया के सम्मोहक हिस्से, हिमालय में, गर्मियों की शुरुआत में एक खूबसूरत दिन, मैं अपने बगीचे में बैठी हुई थी, जहाँ असंख्य फूल खिले हुए थे।

बहुत समय पहले, कुछ योगियों, ऋषियों के बारे में ऐसी कई आनन्दायक कहानियाँ सुनाई जाती थीं , जो हिमालय की गुफाओं में रहते हुए सदैव उच्च विचारों के(महावाक्यों के) चिन्तन में तल्लीन रहते थे, जो बाह्य-प्रकृति और अन्तः प्रकृति के (अविद्या और विद्या माया के) सभी रहस्यों को जानते थे; और हमेशा यविष्ठ बने रहते थे - कभी बूढ़े या थके हुए नहीं दीखते थे।   

    निश्चित रूप से, इस विशेष अवसर पर मेरा मन ऐसे ही दिव्य-चरित्र योगियों के बारे में विचार कर रहा होगा, क्योंकि बर्फीले शिखरों से आने वाली कोमल हवा के आत्मा को सुखदायक प्रभाव और मेरे चारों ओर तैरती हुई मधुर सुगंधों के साथ, मैं भी 'प्रकृति की आत्मा' (spirit of nature) के साथ एक हो गयी थी। और तभी मेरे साथ एक अजीब घटना घटित हुई, अचानक मुझे फूलों की गर्म और सुगन्धित सांसों में चल रही चर्चा सुनाई पड़ने लगी। उनकी चर्चा का विषय सूर्य-पूजा (sun-worship) था, और उनके समुदाय में से कौन सबसे अच्छे तरीके से पूजा करता है।

सबसे पहले एक 'एनीमोन' (हवाई पुष्प) ने अपनी राय व्यक्त की - उसने आगे की ओर देखा और धीमी आवाज़ में यह कहते हुए सुना गया कि, वह अपने विनम्र तरीके से वह सूरज को उचित सम्मान देती है, लेकिन वह सूर्य को उसके अपने पसंद के प्रति पक्षपाती पाती है, जो उसके बजाय दूसरे फूलों के प्रति अधिक आकर्षित होता है। किन्तु उसकी सखियों ने कहा कि यह सच नहीं है, क्योंकि वे यह अच्छी तरह से जानती थीं, कि एनीमोन खुद अधिक प्रकाश पाने के प्रति उत्सुक नहीं थी, बल्कि वह अपनी गुमनामी और छाया को ही अधिक पसंद करती थी।

     उसके बाद पोर्टुलाका, धीरे -धीरे बढ़ने वाला पौधा, जो ज़मीन के करीब उगता है और खरपतवारों से घिरा होता है, उसने अपने विचार व्यक्त किए। उसने कहा,  ‘मेरा तरीका अच्छा है,  मुझे धरती से प्यार है', क्योंकि वह मेरी ज़रूरतों को पूरा करती है, और मेरे कई प्रशंसक हैं: मैं अक्सर सूरज की ओर नहीं देखती, क्योंकि वह बहुत शक्तिशाली है और अपनी किरणों में ही खोज करता रहता है।’

     पास ही एक जाली पर चढ़ रहा एक मधु-मालती लता (honey-suckle) का पौधा था, जो हँसते हुए उसे बीच में रोककर कहा, 'क्यों', 'जरूरत जो पूरा करे उससे प्यार करना, यह तो बहुत ही स्वार्थपूर्ण तरीका है, और जहाँ तक तुम्हारे प्रशंसकों की बात है, वे तो केवल नीरस छोटे-छोटे खरपतवार हैं, जो कुछ नहीं जानते। अब, तुम मेरी लताओं को देखो, मधुर सुगन्धित फूलों की भरमार लिए हुए, मैं पूजा करने के लिए कितनी शालीनता से अपनी भुजाओं को पूजा में फैलाती हूँ,  इस प्रकार दूर-दूर से असंख्य मधुमक्खियों को आकर्षित करती हूँ, जो मेरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए आती हैं।’

     इससे पहले कि पोर्टुलाका जवाब दे पाता, गहरे पीले रंग का एक सख्त, दिखावटी सूरजमुखी, घूरती काली आँखों से बोला - 'मैं माधवी लता के पौधे को पोर्टुलाका जितना ही मूर्ख समझता हूँ, क्योंकि एक लता जो इतनी कमज़ोर है कि उसे खुद को सहारा देने की ज़रूरत है, - क्योंकि वह जाली पर निर्भर नहीं था? - सूर्य की पूजा करने के उचित तरीकों को जानने के बारे में बात करें: इसके अलावा, मधुमक्खियों के बारे में उनका दावा बेतुका था, क्योंकि वे केवल सीखने के लिए नहीं, बल्कि अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए उसके चारों ओर इकट्ठा होते थे

       सूरज-मुखी के फूल ने शान से कहा, ' निश्चित रूप से, मुझे अपने सीधे डाली और सुनहरे सिर पर गर्व हो सकता है, जिसे मैं हमेशा सूरज की ओर रखता हूँ।' अब गुलाब के लिए अपनी बात कहने का मौका था। 'यह निस्संदेह आपके लिए एक अच्छी योजना है, आप अन्यथा कार्य नहीं कर सकते,' उसने आत्मसंतुष्ट होकर उत्तर दिया, 'लेकिन इसकी तुलना उस शैली से नहीं की जा सकती जिसमें मैं अपनी भक्ति अर्पित करता हूँ। मैं शानदार रंग का एक दोषरहित रूप प्रस्तुत करता हूं, जो एक प्यारी सुगंध के साथ संयुक्त है, जो मुझे सूर्य की कृपा का उपयुक्त पात्र बनाता है।'

     अब ध्यान उस घमंडी आवाज़ की ओर गया जो बाड़ की दिशा से आ रही थी, जहाँ एक पुराना ओक का तना पड़ा था, जिसकी खुरदरी पीठ के चारों ओर आइवी की एक फुहार लिपटी हुई थी।जानबूझकर आइवी ने अपने साथियों को संबोधित किया: 'प्रिय मित्रों, मेरी सुरक्षित स्थिति पर ध्यान दें; मैं पुरानी आदतों से चिपका हुआ हूं, जैसा कि मेरे पूर्वजों ने मुझसे पहले किया था, और अपने पुराने सहयोगी से प्राप्त हमारी मूल पूजा पद्धति का पालन करना पसंद करता हूं, जिसके दिल पर मैं भरोसा करता हूं।'

      अब उसने गहरी साँस ली और अपनी शाखाओं को चेतावनी भरे स्वरों में हिलाया, जिससे उसके पैरों के पास उगने वाले तर्कशील फूलों में खलबली मच गई, क्योंकि वे उस शक्तिशाली सम्राट का बहुत आदर करते थे जो अपनी पितृसत्तात्मक सुंदरता और शक्ति में उनसे ऊँचा था।

साभार /https://historicalsouvenirs.rkmm.org/s/hs/m/the-charm-of-mayavati-ashrama/a/9-overheard-in-a-garden-an-allegory

At this avowal, a chorus of dissent followed, and many voices exclaimed, ‘Why, do you not know that your so-called guide is corrupt throughout, and nothing but a worthless old trunk:

 in former times he may have assisted your family in their growth, but those days have passed long since, and if it were not for your persistent blindness, you would have discovered it ere now.’ 

The disconcerted ivy was about to protest against these severe comments, when a strong young sapling growing at his side, gently bent down, and whispered him not to be discouraged but to look higher, and renounce his obsolete ideas; at the same time extending an overhanging branch to him, which after a moment’s hesitation, the ivy gratefully embraced, and was thus raised from his lowly position. A low murmuring was heard in a quiet nook of the garden, which I noticed proceeded from a bed of tall lilies, distinguished by their beautiful white flowers, and extremely graceful appearance, being elegantly borne on slender stalks which were artificially supported. ‘Here,’ they whispered in unison, ‘do we worship devoutly and well, for note how secluded we are, and of what modest appearance, notwithstanding our incomparable scent and purity.’ To this some groups of convolvuli, which had entwined themselves about the adjoining plants, objected, — ‘for’ continued they, ‘if you were in a more exposed situation, and your props removed, there is no saying, but at the first gush of wind or shower of rain, you might be laid low in the mire. Consider how liberal we are in our devotion — we embrace all our acquaintances and permit them to learn of us.’ This conceited utterance was more than the monkshoods could allow, so they hastened to assure the convolvuli that they were greatly mistaken in their contention, for instead of advancing the interests of their hapless neighbours, they were retarding their progress, for how could they feel the sun’s warmth and see his light, when crushed to earth and smothered in the cumbrous clasp of the convolvuli! Thus rebuked, the creepers made no reply, but I observed that several of the blossoms closed their eyes, and pretended to be meditating. The monkshoods admitted the lilies were a little too self-conscious, but their devotion was very sweet and becoming. However, they laid claim that their own brotherhood was the perfect way, though they could not allow that all the other flowers were sufficiently advanced to follow their methods, even if they desired to do so, — for the majority of the dwellers in the garden were still dazzled by the beauties and vanities of fine colour, luxuriant growth and exquisite perfume, thereby, diverting their attention from the direct sunlight. At this point in the controversy, the evening primrose in grave accents, denied the existence of the sun, but no one took any notice of this assertion, for all the plants knew that the speaker never opened his flowers until after sunset, so his opinion was worthless. Now the centre of the garden was occupied by a stately old deodar, who had lived there for ages, and adored the sun in the truest manner, by simply keeping his head raised to the skies and contemplating the shining countenance of his Divinity, until he perceived the Sun of Knowledge penetrating all things and discerned that where he shone all was brightness and happiness. 

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$$$ नवनी दा और " अल्मोड़ा का आकर्षण" : महामण्डल के 'Be and Make ' आन्दोलन से 'अद्वैत आश्रम', मायावती, हिमालय, का सम्बन्ध क्या है ? विवेक-जीवन ब्लॉग , मंगलवार, 31 मार्च 2020/

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