शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

मनीषा पञ्चक

1. 👉पृष्ठभूमि :  इतिहास का अंधकार युग (मध्य युग) उस युग को कहते हैं, जिसे इतिहास में पतनशील करार दिया गया हो। पश्चिमी विचारकों ने साधारणतः सन् 476 ई॰ से लेकर 1553 ई॰ तक के काल को यूरोप का मध्ययुग माना है। मध्यकाल में यूरोपीय लोगों के बीच अंधविश्वास कूट कूट कर भरा हुआ था। वे लोग पृथ्वी को चपटी मानते थे। और यह विश्वास करते थे कि सूर्य घूमता है, पृथ्वी नहीं घूमती। इस अंधविश्वास को बढ़ाने में चर्च का महत्वपूर्ण योगदान था। शिक्षा के नाम पर चर्च में पादरी अंधविश्वास को बढ़ाते थे ।  यह वह दौर है जब दास-प्रथा पर आधारित व्यवस्था का खात्मा होता है और सामंती व्यवस्था अपनी जड़ जमाती है। प्राचीन यूनानी दार्शनिक धरोहर का लोप हो गया। धर्म ने प्रभुत्वशाली विचारधारा का रूप ग्रहण कर लिया। शिक्षा चर्च के हाथों में पहुँच गयी। चर्च बड़ा शक्तिशाली संगठन था।  पादरियों (पुरोहितों) ने दिव्य राज्य के परमानंद से आकर्षित करके तथा Original Sin और नरक की अनंत यातनाओं का डर दिखाकर अज्ञानी  श्रद्धालुओं को उनकी धन-सम्पत्ति से और वैध वारिसों को उनकी विरासत से वंचित करके’’ अपनी दौलत को बढ़ाया। 
स्पष्ट है कि मध्यकालीनता अंधकारयुगीन सांस्कृतिक-मानसिक जड़ता को अभिव्यक्त करता है। इन्हीं कारणों से इस युग को यूरोपीय इतिहास में ‘अंधकार युग’ कहा जाता है। उस समय लोगों को विश्व के सभी देशों के बारे में पता नहीं था।  भौगोलिक खोज होने से अंधकार युग से यूरोपीय बाहर आने लगे। और पूरे यूरोप में सुधार आंदोलन हुआ। और पुनर्जागरण की लहर दौड़ी छापाखाना चीन से यूरोप में पहुंचा। जिससे वहाँ ज्ञान में वृद्धि हुई।  जब रेनेसां यानी पुनर्जागरण का दौर आता है, उसके बारे में ऐंगेल्स ने लिखा कि मनुष्यों के मस्तिष्क पर चर्च का अधिनायकत्व चकनाचूर हो गया। अधिकांश जर्मन जातियों ने प्रोटेस्टेंट मत स्वीकार करके इस अधिनायकत्व को प्रत्यक्षतः तिलांजलि दे दी। 
चीनी संस्कृति के अतिरिक्त पुरानी दुनिया की अन्य सभी –प्राचीन  मिस्र , यूनान और रोम की-संस्कृतियाँ काल के कराल गाल में समा चुकी हैं।  कुछ ध्वंसावशेष ही उनकी गौरव-गाथा गाने के लिए बचे हैं; किन्तु भारतीय संस्कृति कई हज़ार वर्ष तक काल के क्रूर थपेड़ों को खाती हुई आज तक जीवित है। इसीलिए मोहम्मद इक़बाल ने कहा था - " यूनान ओ मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से।  अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा। " [वो बात  (वह रहस्य) क्या है, कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ?]  
तथापि समय के प्रवाह में सच्चे से सच्चा धर्म भी, दूषित हो जाता है।  धर्म के साथ अफीम की तरह संयुक्त भावावेश (emotionality-कट्टरता) के कारण समाज में सच्चे धर्म का (परोपकार  निःस्वार्थपरता आदि नैतिक गुणों का) का लोप हो जाता है; जाति-धर्म-भाषा के नाम पर,अपने-पराये के बीच भेद-भाव (द्वैत-भाव) बहुत अधिक बढ़ जाता है, और  चारित्रिक मूल्यों में ह्रास दिखाई देने लगता है, उसी युग को मानव-इतिहास का अंधकार युग  कहा जाता है। अद्वैत ज्ञान के अभाव और चारित्रिक मूल्यों का विनाश होने से मानव सभ्यतायें प्रायः नष्ट हो जाया करती हैं। 
किन्तु भारतीय संस्कृति की जड़ें बहुत गहरे तक गयी हैं, अर्थात आध्यात्मिक गहराई तक पहुँची हुई हैं, इसीलिए भारतीय इतिहास के अन्धकारयुग (Dark Age) में, या भारतीय संस्कृति के प्रत्येक ह्रास के समय में-- कोई न कोई - प्रकाशस्तम्भ (Lighthouseअवतार,अनुप्रेरित-  महापुरुष या काल पुरुष/ पैगम्बर / नेता/ जीवनमुक्त शिक्षक) धरती पर जन्मग्रहण करता है! तथा अपनी प्रज्ञा, उत्साह और प्रबल इच्छाशक्ति के बल पर काल की ऐतिहासिक धारा को (समय के प्रवाह को) इच्छानुसार परिवर्तित कर देता है; और राष्ट्र का नव-निर्माण कर नया इतिहास रच देता है। ऐसे लोग (नेता) इतने सक्षम और शक्तिशाली होते हैं कि इनकी इच्छा के अनुसार इतिहास करवट लेता है घटनाएँ इनकी आज्ञा का अनुपालन करती हैं, सामान्य जनता इनके अनुशासन में रहती है। चूँकि ये काल-पुरुष होते हैं काल के अनुसार चलते हैं, इसलिए काल इनके अनुरूप हो जाता है। फलतः वे शरीर त्याग जाते हैं मगर काल-कवलित नहीं होते।अपने यथार्थ ’मैं’ -या 'आत्मा' की, अपने ‘स्व’ की खोज लगे रहने वाले व्यक्ति, जाति या राष्ट्र को  ही सृजनात्मकता, आध्यात्मिकता या अमरता की उपलब्धि होती ही है।
इतिहास :  (इति+ ह+ आस)  'इति' 'जैसा हुआ,'ह' का अर्थ है 'सचमुच' वैसा ही, तथा आस का अर्थ है घटित हुआ, जो घटना निश्चित रूप से घटित हुई हो।  दूसरे शब्दों में मानव की विशिष्ट घटनाओं का नाम ही इतिहास है। इतिहास के अंतर्गत हम जिस विषय का अध्ययन करते हैं उसमें अब तक घटित घटनाओं या उससे संबंध रखनेवाली घटनाओं का कालक्रमानुसार वर्णन होता है। इतिहास का तात्पर्य है-परंपरा से प्राप्त उपाख्यान समूह (जैसे कि 'आल्हा-उदल' की लोक-कथाएँ), वीरगाथा (जैसे कि महाभारत, रामायण, पुराण आदि ) या पुरातात्विक खुदाई से प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्य, जैसे सारनाथ -राजगीर आदि।  वोधिसत्व ने अपने किसी पूर्वजन्म में, जब वे मृगदाव में मृगों के राजा थे, अपने प्राणों की बलि देकर एक गर्भवती हरिणी की जान बचाई थी। इसी कारण इस वन को सारंग (मृग)-नाथ या सार-नाथ कहने लगे। हर्ष के शासन-काल में ह्वेनत्सांग भारत आया था। उसने सारनाथ को अत्यंत खुशहाल बताया था। किन्तु बौद्ध विहार में जब तान्त्रिक क्रियाएं होने लगीं तब उसके पतन का युग आ गया। किन्तु  यूरोप की की तरह भारत का कोई लम्बा अंधकार युग कभी नहीं रहा है। 
सातवीं शताब्दी के मध्य में , वर्णाश्रम धर्म को ठीक से नहीं समझने के कारण, भारतीय संस्कृति पर भी अंधकार के घोर काले बादल छाये हुए थे। चार पुरुषार्थ, चार वर्ण और चार आश्रम की व्यवस्था द्वारा संचालित प्राचीन भारतीय संस्कृति, नई रूढ़ि वादी जाति-प्रथा और कर्मकाण्ड का विशाल आडम्बर के आक्रमण से सामाजिक सौहार्द की रक्षा करने में असमर्थ हो रही थी । धनाढ्य लोग बेहद खर्चीले याग-यज्ञ  (हजार कुण्डी यज्ञ ,लाख कुण्डीय यज्ञ ) आदि करने में व्यस्त रहते थे, किन्तु वे भी इस प्रकार के यज्ञ की सार्थकता समझने में असमर्थ थे। उधर जनसाधारण के लिए भगवान बुद्ध द्वारा  दिये गए व्यावहारिक और सरल उपदेश उन सम्प्रदायों के वाद-विवादों तथा  कठिन कठिन तर्क  के शोर में विलीन हो चुके थे।बौद्धधर्म ने शुरुआत के दिनों में जिन अनुष्ठानों एवं विधानों का विरोध किया था कालांतर में उन्हीं को अपना लिया। बौद्धों ने ईसा की पहली सदी से ही अन्य हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों की पूजा करना ढकोसला माना, किन्तु स्वयं मनमाने ढंग से बुद्ध के मूर्ति की पूजा शुरू कर दी।  इससे सातवीं सदी तक तांत्रिक साधना के नाम पर बौद्ध विहार दुराचारों का केंद्र बन गया था। उन्हें भारी मात्रा में दान मिलने लगा, और अनेक सम्प्रदायों (हीनयान -महायान आदि) में विभाजित हो  गया था और  सभी बौद्ध -सम्प्रदाय  धन के लिए परस्पर लड़ने में व्यस्त थे।
 ऐसे सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों के ह्रास और विभ्रम के युग में  केरल के उच्च नम्बूदरी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न एक बालक आदि शंकराचार्य में राष्ट्र-निर्माण की आशा किरण उद्भासित जो उठी।  उन्होंने समस्त भारत वासियों को गीता और उपनिषदों की शिक्षाओं में आधारित भारतीय संस्कृति की  श्रुति-परम्परा (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा)  के मूल स्रोत  से निकले अद्वैत-वेदान्त दर्शन  की शिक्षा दी। समाज की आशा पूर्ण हुई, समाज कर्मकाण्ड के जाल से बाहर निकला, और आदि शंकराचार्य को समस्त राष्ट्र ने 'जगत गुरु ' के रूप में स्वीकार भी कर लिया। 
" गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा " में  प्रशिक्षित और पूर्णता प्राप्त जीवनमुक्त (de-hypnotized) आचार्यगण ही, वैसे पवित्र पुरुष/स्त्री ही मानवजाति के मार्गदर्शक नेता रहे हैं,  जिनके माध्यम से ईश्वर जगत में शांति और संतुलन को बनाये रखने तथा विकास-क्रम को आगे बढ़ाने का कार्य करता है।  माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं " या ईश्वर  के साथ पूर्ण तादाम्य रखने वाले जीवनमुक्त शिक्षकों/ नेताओं के माध्यम से ईश्वरेच्छा बड़ी सरलता के साथ कार्य करती है। इसलिए "Be and Make" अद्वैत वेदान्त शिक्षक-परिशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित ऐसे ही श्रेष्ठ पुरुषों (शिक्षकों) के माध्यम से  परमात्मा का दिव्य कार्य; अर्थात भावी जीवनमुक्त व्यक्तित्व से सम्पन्न शिक्षकों/ नेताओं के निर्माण का कार्य सम्पन्न होता रहता है। 
हमलोग यह जानते हैं कि सभी मूर्तिकार या शिल्पकार  (कारीगर) अपने औजारों  (instruments- उपकरण आदि ) को ही सबसे अधिक मूल्यवान वस्तु समझते  हैं। इसलिए वे अपने उपकरणों  की बड़ी देख-भाल करते हैं। वे उन्हें धोते-पोंछते हैं, धार रखते हैं, काट-छांटकर ठीक रखते हैं। और बड़े प्रेम से उनको कसते- कसाते रहते हैं। जगदीश्वर प्रभु  (ठाकुर देव) भी अपनी श्रेष्ठ सेवकों /संतानों/शिक्षकों  की ऐसी ही देखभाल करते  हैं। 
[तन तम्बूरा,तार मन- अद्भुत है ये साज। हरी के कर से बज रहा, हरी ही है आवाज। तन के तम्बूरे में दो सांसो की तार बोले, जय सिया राम राम..जय राधे श्याम श्याम।अब तो इस मन के मंदिर में प्रभु का हुआ बसेरा। मगन हुआ मन मेरा,छूटा जनम जनम का फेरा। मन की मुरलिया में सुर का सिंगार बोले। जय सिया राम राम..जय राधे श्याम श्याम। लगन लगी लीला धारी से, जगी रे जगमग ज्योति। राम नाम का हीरा पाया, श्याम नाम का मोती। प्यासी दो अंखियो में आंसुओ के धार बोले। जय सिया राम राम..जय राधे श्याम श्याम। ~ स्वरअनूप जलोटा।  भावी जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण करने में समर्थ आचार्यों (नवनीदा) तथा उनके द्वारा स्थापित संगठन (महामण्डल) की ऐसी ही देखभाल करते हैं। ]   
आदि शंकराचार्य के लिए भी यही  नियम कार्य कर रहा था। ईश्वर उनके मन के तार को बार बार कसकर, उन्हें अपना संगीत सुनाने के लिए तैयार कर रहा था। मनीषा पञ्चकं की रचना के पीछे भी ऐसी ही एक परम्परागत आख्यायिका/पौराणिक कथा [ Legend -किंवदंती] प्रसिद्द है। जिसका उल्लेख ठाकुर देव भी अक्सर किया करते थे, रामकृष्ण वचनामृत में वह कथा देखी जा सकती है। 
2👉काशी की धरती ज्ञान और भक्ति की मिलन-भूमि :  अद्वैत वेदान्त  के प्रणोता आद्य शंकराचार्य ने दुनिया को जिस अद्वैत का ज्ञान दिया था, उस ज्ञान की अजस्त्र धारा उनमें देवाधिदेव की नगरी काशी (के निकट ऊँच) में ही फूटी। काशी विश्वनाथ के दरस परस के निमित्त गंगास्नान के बाद  उनके मन्दिर जाने के मार्ग में ही इसकी शुरुआत हुई। देश को दिशा देने वाली उस श्रुति-परम्परा का प्राकट्य- दो घटनाक्रमों के माध्यम से हुआ इसका बड़ा स्रोत बनीं स्वयं माँ जगदम्बा की कृपा (महामाया की लीला) जिन्होंने सत्य से उनका साक्षात्कार कराया।
वास्तव में अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को ही सत्य मानते थे, उनकी शक्ति से वे परिचित नहीं हुए थे । केरल के कालड़ी में वैशाख शुक्ल पंचमी को जन्मे आदिगुरु शंकराचार्य को उनके गुरु ने शिष्यों के साथ काशी विश्वनाथ दर्शन करने की आज्ञा दी। मणिकर्णिका घाट से ब्रह्म मुहूर्त में शिष्यों संग स्नान कर लौटते समय आचार्य का सामना राह में बैठी विलाप करती युवती से हुआ। युवती अपने मृत पति का सिर गोद में लिए बैठी करुण क्रंदन कर रही थी। शिष्यों ने उससे शव हटाकर आचार्य शंकर को रास्ता देने का आग्रह किया। दुखित युवती के अनसुना करने पर जब आचार्य ने खुद विनम्र अनुरोध किया। इस पर युवती के शब्द थे कि- ' हे संन्यासी, आप मुझसे बार-बार शव हटाने को कह रहे हैं। इसकी बजाय आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते ?' 
आचार्य ने दुखी युवती की पीड़ा को महसूस करते हुए कहा-' देवी! आप शोक में शायद यह भी भूल गई हैं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति नहीं होती। '  स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता ?'  एक सामान्य महिला के ऐसे गंभीर, ज्ञानमय व रहस्यपूर्ण शब्द सुनकर आचार्य को समाधि लग गई, और अंत:चक्षु से उन्होंने देखा कि स्वयं आद्याशक्ति महामाया ही लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अविवर्चनीय आनंद से भर गया। मुख से मातृ वंदना की शब्द धारा फूट चली। इसके साथ आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार भक्ति धाराएं एक साथ हिलोरें लेने लगीं।
उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है वही द्वैत भूमि पर सगुण साकार रूप - (भगवान श्री रामकृष्णदेव) भी हैं। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुंचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन-भूमि काशी पहुँचने पर उन्होंने यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। उन्होंने 'ब्रह्मं सत्यं जगत् मिथ्या' का उद्घोष भी किया। 'सौन्दर्य लहरी ', 'विवेक चूड़ामणि ',   'प्रस्थान त्रयी भाष्य' समेत भक्ति रसपूर्ण स्त्रोतों की रचना की। उन्होंने अपने अकाट्य तर्को से उन्होंने शैव -शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना की राह प्रशस्त की। हिमालय समेत संपूर्ण भारत की यात्र की और धर्म रक्षार्थ चार शंकराचार्य पीठ स्थापित किए। मात्र 32 वर्ष के जीवनकाल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की कि उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गई।
आदिशंकराचार्य और चाण्डाल: आदि शंकराचार्य जब पवित्र नगरी काशी (holy city बनारस) में वास कर रहे थे। तब एक दिन वे प्रातःकाल अपने शिष्यों के साथ परम पवित्र गंगा जी में स्नान कर काशी विश्वनाथ मन्दिर की ओर जा रहे थे । गंगा तट से काशी विश्वनाथ मंदिर तक जाने का रास्ता बहुत संकीर्ण हुआ करता था। गंगा स्नान के बाद जब वे वापस लौट रहे थे तो उसी रास्ते में उन्हें एक चाण्डाल (डोम जो शवदाह करता है) चार कुत्तों को साथ लिए आता दिखाई दिया । 
यहाँ पर किसी किसी कहानी में अन्तर मिलता है, जैसे ठाकुर कहते थे - एक चाण्डाल जो मांस बेचने का कार्य करता था किसी कसाई खाने से मांस की टोकरी लेकर जा रहा था। खैर वर्णित कथा में अन्तर जो भी हो,  1000 साल पहले के भारत में बहुत कट्टर रूढ़िवादी जातिप्रथा प्रचलन में थी। और प्रत्येक व्यक्ति अपने युग में प्रचलित सामाजिक मूल्यों का दास होता है।  यद्यपि आचार्य शंकर अद्वैत वेदान्त मत के प्रवक्ता थे, किन्तु केरल के अति उच्च नम्बूदरी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न  होने के कारण पूर्व-संस्कारवश, कभी कभी उनमें भी  शरीर की जाति को ही अपनी जाति समझने का भ्रम हो जाया करता था। इसीलिए राह में अचानक चाण्डाल को सामने से चार कुत्तों को साथ लिए आता देखकर ; आचार्य शंकर  रुक कर एक किनारे खड़े हो गये। ताकि कहीं उनसे चाण्डाल छू न जाय अन्यथा वे अपवित्र हो जायेंगे और उच्च स्वर में बोले, " दूर हटो, दूर हटो।" 
उन्होंने सोचा होगा कि प्रचलित प्रथा के अनुसार वह चाण्डाल भी एक किनारे खड़ा हो जायेगा। किन्तु वैसा हुआ नहीं , हटने के बजाय चाण्डाल आदि शंकराचार्य के सामने खड़ा हो गया, और उल्टा प्रश्न पूछ लिया – " ब्राह्मण देवता, आप तो वेदान्त के अद्वैतवादी मत का प्रचार करते हुए भ्रमण करते हैं । फिर आपके लिये यह अस्पृश्यता-बोध (छुआ-छूत), भेद-भाव दिखाना कैसे संभव होता है ? मेरा शरीर छू जाने से आप अपवित्र हो जायेंगे, यह सोच कर आप आशंकित हैं ; किन्तु क्या हम दोनों का शरीर एक ही पंचतत्व के उपादानों से निर्मित नहीं है ? क्या आपके भीतर जो आत्मा हैं और मेरे भीतर जो आत्मा हैं, वे एक नहीं हैं? क्या सभी प्राणियों के भीतर एक ही शुद्ध आत्मा ('one awareness' या एक ही 'pure consciousness) विद्यमान नहीं हैं ? क्या यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ही अखण्ड चेतना (one undivided consciousness) का प्रकाश नहीं है ? अन्नमय एव अन्नमयात अथवा चैतन्यमेव चैतान्यात ? ---किसको दूर हटने कहते हैं ?  आत्मा व परमात्मा का साक्षात्कार कराने वाले चाण्डाल के शब्दों ने उन्हें निरुत्तर कर दिया। चांडाल की देववाणी सुन आचार्य शंकर ने उसे गुरु मान लिया।  -वह चाण्डाल आदि शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैत दर्शन कोउन्हीं के सामने प्रस्तुत करते हुए बोला --  
अन्नामयादान्नमयम्थ्वा चैतन्यमेव चैतान्यात । 
द्विजवर दूरीकर्तु वाञछसि किं ब्रूहि गच्छ गच्छेति ॥
.... अन्नमय एव अन्नमयात अथवा चैतन्यमेव चैतान्यात ? ओ महात्मन आप किसको किससे दूर हटाना चाहते हैं ?  किं ब्रूहि गच्छ गच्छ इति ? हे आचार्य , हटो, हटो कह कर आप किसे दूर हटाना चाहते हैं ? अन्नमय शरीर से अन्नमय शरीर को दूर हटाना चाहते हैं अथवा शरीर में स्थित उस चैतन्य से चैतन्य को दूर करना चाहते हैं ! इन शब्दों के द्वारा आप किसे दूर करना चाहते हैं ? जो कुछ भी पदार्थ इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण किया जाता है, उसको अन्न कहते हैं। 'अद्यते अनुभूयन्ते इति अन्नम्  वह अन्न भी पञ्च महाभूतों का ही कार्य है, अन्न भी भौतिक वस्तु या जड़ पदार्थ है। यदि आप इस पञ्चभौतिक अन्नमय शरीर (body made of food) को दूर हटाना चाहते हैं, तो संसार में जितने भी शरीर हैं, सबके सब उसी पञ्च तत्व से निर्मित हैं। फिर एक शरीर और दूसरे शरीर में क्या अन्तर है ?  किन्तु यदि आप चैतन्य को चैतन्य से दूर हटाना चाहते हैं, तो वह कैसे हटाया जा सकता है, आप ही बताएं ?
[ रीडर डाइजेस्ट में एक बार जोक छपा था - समुद्र में कुहासा छाया हुआ था इसलिए एक ब्रिटिश वॉरशिप लाल-बत्ती चमका कर अन्य जहाजों को रस्ते से हट जाने का सिग्नल दे रहा था। तभी कैप्टन को  सामने से भी एक लाल बत्ती का सिग्नल जलता हुआ दिखाई दिया। कैप्टन ने नाराज होकर कहा -उस जहाज को दूर हटने का और तेज-तेज सिग्नल दो। जब उधर से भी सिग्नल आने लगा तो कैप्टन ने पूछा -ये किस बात का सिग्नल दे रहा है ? कर्मचारी ने कहा यह सिग्नल -बता रहा है कि सामने जिब्राल्टर का द्वीप (island of gibraltar) है। तुम दूर हट जाओ ! सामने एक lighthouse था !]  
आश्चर्यचकित होकर शंकराचार्य ने देखा कि यह तो हटने के बजाय मुझे ही ज्ञान दे रहा है ? 
3.👉 किसी भी दो शरीरों में भेद देखने का निषेध : अद्वैत वेदान्त में किसी भी दो शरीरों में भेद देखने का निषेध क्यों कहा गया है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए चाण्डाल ने फिर कहा - 
किं गंगाम्बुनि बिम्बितेअम्बरमनौ चंडालवाटीपयः
पूरे वांतरमस्ति कांचनघटी मृत्कुम्भयोर्वाम्बरे ।
प्रत्यग्वस्तुनि निस्तारन्ग्सह्जान्न्दाव्बोधाम्बुधौ
विप्रोअयम्श्व्प्चोअय्मित्य्पिमहन्कोअयम्विभेद्भ्रमः ॥
हे ब्राह्मण देवता ! कृपया मुझे बताएं कि क्या पवित्र गंगाजल में और किसी चाण्डाल के गड़ही (puddle-पोखर) में प्रतिबिंबित सूर्य में किसी प्रकार का भेद है ? अथवा -मिट्टी के घड़े और सोने के घड़े से परिच्छिन्न आकाश (खाली जगह -space) में कोई फर्क पड़ता है ? यदि नहीं, तो वह 'प्रत्यग-आत्मा' जो सच्चिदानन्द स्वरुप है-प्रज्ञानघन (infinite-existence-consciousness-bliss ) है।  उस शुद्ध चेतना के समुद्र में भी क्या माया के द्वारा किसी भी लहर (नाम-रूप भेद) का उठना असम्भव है ?  फिर आप जैसे ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति में " यह ब्राह्मण है और यह चाण्डाल है" इस प्रकार के भेद का भ्रम; हे द्विज-श्रेष्ठ  कहाँ से उत्पन्न हो गया ? 
तरंगों से रहित (अर्थात माया से रहित)  विक्षेपों से सर्वथा रहित सिन्धु के समान प्रत्यग-आत्मा (देश-काल -निमित्त परे तुरीय अवस्था) तो परमानंद स्वरुप है, उसमें चाण्डाल और ब्राह्मण का भेद कैसा ? क्या ब्राह्मण अथवा चांडाल सभी शरीरों का द्रष्टा या साक्षी चेतना (witness -consciousness) एक नहीं है, भिन्न है ? क्या साक्षी चेतना (witness consciousness) में भी नानात्व हो सकता है ? क्या वह एक और अद्वितीय नहीं है ? फिर आप (जैसे विद्वान) इस नानात्व के भ्रम में कैसे पड़ सकते हैं ?
कृपया मुझे यह भी बताएं कि क्या एक सोने के बर्तन और एक मिट्टी के बर्तन में विद्यमान आकाश (खाली जगह) के बीच कोई अंतर है ? अवच्छेदक विशिष्ट अवच्छिन्न वस्तु में अभेद का प्रतिपादन करने के लिए, स्वर्ण एवं मिट्टी के घट में उपस्थित आकाश का दृष्टान्त दिया गया है। स्मृति -ग्रंथों के अनुसार सोना को अत्यन्त शुद्ध धातु माना जाता है,अतः सोने के ग्लास में पानी पीने के बाद भी वह जूठा नहीं होता। उसी प्रकार अतिशुद्ध अन्तःकरण में भी किसी प्रकार का दोष नहीं आता। वहीं  स्मृति -ग्रंथों के अनुसार मिट्टी सबसे अधिक अशुद्ध मानी जाती है। मिट्टी के बर्तनों में एक बार भी खा-पी लेने से उसको शुद्ध करने का उपाय नहीं है। इसलिए स्वयं अपना जूठा मिट्टी का बर्तन भी गृहस्थों के लिए त्याज्य हो जाता है। यद्यपि स्वर्ण सदा शुद्ध और मिट्टी सर्वदा अशुद्ध है। तथापि स्वर्ण-घट के भीतर के आकाश (खाली जगह) को, मिट्टी के घट के भीतर की आकाश की अपेक्षा अधिक शुद्ध नहीं माना जा सकता है
 "चण्ड" अर्थात क्रोध; क्रोध का आधिक्य होने से ही चाण्डाल/चण्डी आदी कहा जाता है।  'क्रोध' की मनोवृत्ति सबसे घोर वृत्ति है। बन्धन की यह चरमावस्था है। अत्यन्त क्रोध की अवस्था नाली या 'वाटी-पयः' है, किन्तु उसके प्रवाह में पड़ने से भी शिव (चैतन्य) में कोई भेद नहीं आता। इसलिए चाण्डाल के शरीर में प्रतिबिम्बित होने से, या इन घोर वृत्तियों (षडरिपु = काम-क्रोध -लोभ -मद-मोह -मात्सर्य आदि) के प्रवाह में पड़ जाने से भी 'शिव' या शुद्ध चेतना (pure consciousness or awareness) की निर्विकारता अक्षुण्ण बनी रहती है।  इस प्रकार ब्राह्मण हो या चाण्डाल दोनों शरीरों में प्रतिबिंबित चेतना (reflected consciousness) तो एक ही है -इस दृष्टान्त के द्वारा दो शरीरों में भेद-दर्शन का निषेध करना ही आचार्य शंकर का उद्देश्य है।
4.👉 साक्षी किसी का दृश्य नहीं, सबका द्रष्टा है (द्रष्टा-दृश्य विवेक) :  वेदों के चार महावाक्यों - "प्रज्ञानं ब्रह्म, अहं ब्रह्माऽस्मि,  तत्त्वमसि और अयमात्मा ब्रह्म " का मंथन करने से जो 'विवेकज-ज्ञान ' रूपी जो अमृत  प्राप्त होता है, वह अमृत (sentence nectarसंम्पूर्ण मानव जाति को पुनरुज्जीवित (revivify) करने के लिये रामबाण दवा या मृतसंजीवनी-सुधा  के समान हैं। चार महावाक्यों के मंथन से निकले अमृत से परिचित कराने वाले  विद्यारण्य स्वामी अपने वेदान्त प्रकरण ग्रंथ वाक्यसुधा  या  'दृग-दृश्य विवेक'  में  कहते हैं :
रूपं दृश्यं लोचनं दृक् तद्‌दृश्यं दृक् तु मानसम् । 
दृश्या  धीवृत्तयः  साक्षी   दृगेव  तु  न  दृश्यते ॥      
तात्पर्य है कि रूप, रस, गंध., शब्द, स्पर्श आदि विषयोंमें होनेवाले परिवर्तनको इन्द्रियाँ जानती हैं; अतः विषय दृश्य हैं और इन्द्रियाँ (लोचन)  द्रष्टा हैं । इन्द्रियोंमें होनेवाले परिवर्तनको मन जानता है; अतः इन्द्रियाँ दृश्य हैं और मन द्रष्टा है । मन में होने वाले संकल्प-विकल्प, चंचलता-स्थिरता आदि विकारों को बुद्धि जानती है; अतः मन दृश्य है और बुद्धि द्रष्टा है । बुद्धि में होनेवाले विकारों (समझना, न समझना अथवा कम समझना आदि) को शुद्ध चेतना (pure consciousness) या आत्मा जानती है; अतः बुद्धि भी दृश्य है और साक्षी चेतना (witness  consciousness ) द्रष्टा है। किन्तु साक्षी चेतना सभी अवस्थाओं में अपरिवर्तनशील तथा निर्विकार है; अतः साक्षी (infinite-existence- consciousness-bliss) किसी का भी दृश्य नहीं है, प्रत्युत सब का द्रष्टा है। 
इसीलिए बृहदारण्यकोपनिषद में कहा गया है --'विज्ञातारमरे केन विजानीयात्'  ‘सब के विज्ञाता को किसके द्वारा जाना जाय?’’(यत्र ही द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्चति... जिघ्रति... श्रृणोति... विजानाति। ...यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत तत्केन कं पश्‍येत... जिघ्रेत् ... श्रणुयात्... विजानीयात्। ... (बृ. उ. ४ । ५ । १४, १५) इसका भावार्थ यह है कि ‘‘देखने वाला (द्रष्टा) और देखने का पदार्थ (दृश्य) जब तक अलग-अलग बना हुआ था, तब तक एक दूसरे को दखता या, सूंधता था, सुनता था और जानता था। परन्तु जब सभी आत्ममय हो गया (अर्थात् जब 'मैं' और 'तुम' का भेद, अपना - पराया का भेद ही न रहा) तब कौन किसको देखेगा, सूंघेगा, सुनेगा और जानेगा? जिस अवस्था में सबकुछ आत्मस्वरूप हो जाता है, वहाँ कौन किसको देखे? अरे! जो स्वयं ज्ञाता है, जानने वाला है, उसी को जानने वाला और दूसरा कहाँ से लाओंगे?’’
 "नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा "-अर्थात ‘इससे भिन्न कोई द्रष्टा नहीं है ।’ (बृहदा॰ ३ । ७ । २३) " स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता"  (श्वेताश्वतर॰ ३ । ११) अर्थात ‘वह (ब्रह्म) सम्पूर्ण ज्ञेय को जानता है, पर उसका ज्ञाता कोई नहीं है ।’
[" जैसे धन के सम्बन्ध से किसी व्यक्ति को ‘धनवान्’  कहा जाता है।  किन्तु धन में कोई आसक्ति न रहने पर, या कामिनी-कांचन का सम्बन्ध त्याग देने पर धनवान् तो रहता है पर 'धनवान्' नाम नहीं रहता । ऐसे ही दृश्य के सम्बन्ध से ‘द्रष्टा’ कहलाता है; किन्तु दृश्य का सम्बन्ध न रहने पर द्रष्टा तो रहता है, पर ‘द्रष्टा’ संज्ञा नहीं रहती । ~ स्वामी रामसुख दास !
जैसे --किसी व्यक्ति के पास बहुत धन -सम्पत्ति होती है , तो उसको  ‘धनवान्’  कहा जाता है। किन्तु 'निवृत्ति अस्तु महाफला'-- के मर्म को समझकर यदि वह व्यक्ति उस धन-सम्पत्ति (कामिनी -कांचन ) के प्रति आसक्ति को त्याग दे, तब  भी वह धनवान् (गृहस्थ -व्यक्ति) तो रहता है पर  तब उसको केवल 'धनवान्' (गृहस्थ) के नाम से नहीं,  जाना जाता।  जैसे -राजा जनक ने जब स्वप्न-द्रष्टा और स्वप्न के बीच जो गैप रहता है, उसमें अपनी दृष्टि गड़ाये रखने में समर्थ हो गए, --अर्थात खुली आँखों से ध्यान करने में समर्थ हो गए।  और 'राजपाट' को माँ जगदम्बा के अनुग्रह से प्राप्त आजीवन-पेन्शन मानते हुए राजधर्म का पालन करने लगे, तथा 'राजपाट' से आसक्ति को त्याग दिया; तब भी 'जनक' राजा ही रहे; किन्तु राजा जनक को तब राजर्षि (राजा+ऋषि, C-in-C) जनक की संज्ञा दी गयी।  ऐसे ही दृश्य के सम्बन्ध से ‘द्रष्टा’ कहलाता है; किन्तु दृश्य का सम्बन्ध न रहने पर द्रष्टा तो रहता है, पर ‘द्रष्टा’ संज्ञा नहीं रहती । [1986 के हरिद्वार कुम्भ मेला में जिस सत्यार्थी को प्रभु श्री रामकृष्ण ने 'सबसुख दास' से 'रामसुख दास' बनने का निर्देश दिया था--उसका मर्म 2019 में समझा?]     
 तात्पर्य है कि एक ही चिन्मय तत्त्व (Pure Consciousness) को सही रूप से समझनेके लिये -  दृश्य के सम्बन्ध से 'द्रष्टा' (ऋषि), साक्ष्य के सम्बन्ध से 'साक्षी', करण के सम्बन्ध से 'कर्ता' और शरीर के सम्बन्ध से 'शरीरी' (अवतार ) कहा जाता है । वास्तवमें उस तत्त्व (आत्मतत्व , परमसत्य या ब्रह्म) का कोई नाम नहीं है । वह केवल अनुभवरूप है । इस प्रकार जब सम्पूर्ण जगत आात्मभूत या ब्रह्मभूत हैं - यह अनुभव जिसको हो गया, वहाँ शोक अथवा सुख दुख आदि द्वन्द्व भी रह कहाँ सकते हैं ? क्योंकि जिससे डरना है या जिसका शोक करना है, वह तो अपने से— हम से— जुदा होना चाहिए। और ब्रह्मात्मैक्‍य का अनुभव हो जाने पर इस प्रकार की किसी भी भिन्नता को अवकाश ही नहीं मिलता। “ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति”  - जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म ही हो गया। तरंगों के उठे बिना जल में भेद प्रतीति असम्भव है।
 इस बात को सामान्य ज्ञान (common-sense) से भी समझा जा सकता है कि 'बुद्धि' की पकड़ में वही विषय आ सकता है, जो बुद्धि से छोटा होता हो! संसार के सभी मनुष्य वास्तव में ब्रह्म को ही पाना चाहते हैं; [अर्थात अनन्त-असीम आनन्द, सच्चिदानन्द  या infinite-existence-consciousness-bliss को ही पाना चाहते हैं], किन्तु अज्ञानवश वे उस अनन्त -असीम चेतना [या ब्रह्म] को अपनी ससीम या जड़ बुद्धि के द्वारा प्राप्त करने का विषय बना लेते हैं। उस अनन्त- असीम चैतन्य या ब्रह्म को अपनी ससीम या जड़ बुद्धि से जानने की जिद और अहंकार के कारण, सर्वव्यापक विराट ब्रह्म को भी वे कोई एकदेशीय, ससीम वस्तु  समझ बैठते हैं। और अपनी ससीम  बुद्धि के द्वारा उस अनन्त आनन्द को पाना चाहते हैं। [ शायद इसीलिए अधिकांश जड़बुद्धि मनुष्य, अनन्त, असीम विश्व -ब्रह्माण्ड को अपनी  ससीम बुद्धि द्वारा जानने की  चेष्टा में रोज सुबह को अख़बार पढ़ने के लिए तो  बेचैन हो जाते हैं, किन्तु उसकी पद्धति (विवेक-प्रयोग की पद्धति) सीखने के लिए किसी जीवनमुक्त शिक्षक (नेता)  की शरण में नहीं जाते हैं। ] 
विवेक-दृष्टि से विचार करने पर बन्धन (स्वयं को भेंड़ समझना) और मोक्ष (भ्रममुक्त या विसम्मोहित अवस्था) दोनों अध्यस्त हैं -मन की मानी हुई अवस्थाएं हैं। अतः दोनों सामान रूप से अधिष्ठान शिव (शाश्वत चैतन्य या परमानंद स्वरुप -awareness) में कोई भी परिवर्तन लाने में असमर्थ हैं। यद्यपि मूढ़बुद्धि के लोग प्रतिबिम्ब के दोषों को बिम्ब में आरोपित करते हैं, परन्तु उससे बिम्ब में कोई फरक नहीं आता। तरह -तरह के दृश्य प्रस्तुत करने वाले जादुई दर्पणों (magical mirror) में अपने ही शरीर को अति-स्थूल, अति-क्षीण, अति -लम्ब, या अति-वामन आकृतियों को देखने से मूढ़ व्यक्ति को उसमें भी सुख-दुःख का अनुभव होता है, किन्तु 'विवेकीमनुष्य' (विवेक-प्रयोग करने में समर्थ व्यक्ति) उससे आनन्द प्राप्त करता है। 

जब तक हम 'द्रष्टा' को 'दृश्य' समझने की भूल करते रहेंगे, और जब तक हम ब्रह्म (बृहद -असीम) को ससीम बुद्धि (जाग्रत,स्वप्न-सुषुप्ति द्वारा मलीन चेतना) के ज्ञानलोक से देखने की चेष्टा करेंगे, बुद्धि के द्वारा ब्रह्म पर विचार करेंगे, तब तक हमारी स्थिति जड़ में ही रहेगी । इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " जब कभी बुद्धि और हृदय में द्वन्द्व हो, तब बुद्धि की बात न मानकर हृदय की बात माननी चाहिये!" क्योंकि  सांसारिक विषयों से लेकर बुद्धि तक सब प्रकृति का कार्य होने से दृश्य (जड़) ही है। 
और यही पहचान (recognition-अभिज्ञान, जड़-चेतन विवेक) का क्षण था; (this was the moment of recognition); आचार्य शंकर तत्क्षण समझ गए कि यह कोई साधारण चांडाल नहीं है और चांडाल के वेश में स्वयं भगवान् विश्वनाथ है । आचार्यशंकर ने उन्हें दंडवत प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। आचार्य ने जिन 5 श्लोको से चाण्डाल वेशधारी भगवान् विश्वनाथ की स्तुति की वे श्लोक "मनीषा पंचकं" (5 verses of enlightenment ) के नाम से प्रसिद्द हैं । इस स्त्रोत्र के प्रत्येक स्तुति के अन्त में कहा गया है- चाण्डालोSस्तु स तु द्विजोSस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम। " इस सृष्टि को जिस किसी ने भी अद्वैत-दृष्टि से देखना सीख लिया है, वह चाहे कोई ब्राह्मण हो चण्डाल हो; वही मेरा सच्चा गुरु है । " इन श्लोको कि संख्या पांच है और प्रत्येक के अंत में 'मनीषा' शब्द आता है इसीलिए इन्हें "मनीषा पंचकं" कहा गया है । 
5 👉 'स्व' से पहचान के ' चार महान वाक्य' (4 great sentences) : मनीषा पंचक के 5 श्लोकों में आचार्य शंकर ने अद्वैत वेदान्त के केंद्रीय शिक्षण, और सबसे प्रसिद्द महावाक्य 'तत्वमसि' - तत त्वम असि - वह पूर्ण ब्रह्म तू है... (You are That )  को स्पष्ट कर दिया है। इसी एक महावाक्य वाक्य में अद्वैत वेदान्त की सम्पूर्ण शिक्षा समाहित है। वेदों में ऐसे कई महावाक्य हैं, किन्तु प्रत्येक वेद से एक-एक महावाक्य को लेकर 4 महावाक्य कहे गए हैं। 
(i) लक्षणा वाक्य  (Defining Sentence): 'प्रज्ञानं ब्रह्म' -(consciousness is Brahman) प्रज्ञा रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है ! पहला महावाक्य ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद से उद्धृत किया गया है। इस महावाक्य में ब्रह्म को चैतन्य (शाश्वत स्पंदन) के जैसा साक्षात् अनुभव करने वाले ऋषि, उस अनन्त ब्रह्म को परिभाषित करने की चेष्टा करते हुए कहते हैं कि- ब्रह्म प्रज्ञा [अनुभूत-ज्ञान Consciousness] है।
(ii) अनुभव वाक्य (Experience Sentence): 'अहं ब्रह्मास्मि ' -- मै ब्रह्म हूँ। (I am Brahman) दूसरा महावाक्य यजुर्वेद के वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। दूसरे महावाक्य की खासियत यह है कि इसमें हमें अपने अनुभव से यह जान लेने की प्रेरणा दी जा रही है, कि इस जगत में उपस्थित सभी मनुष्य ब्रह्म ही हैं। इस महावाक्य के मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है।
(iii) उपदेश वाक्य (sermon sentence) :  'तत्वमसि' - तत त्वम असि - वह पूर्ण ब्रह्म तू है... (You are That ) तीसरा महावाक्य - सामवेद के छांदोग्य उपनिषद से लिया गया है।  इसे   या भी कहा जाता है। इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , तुम भी ब्रह्म हो , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है।  उपदेश वाक्य इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही, परस्पर व्यवहार में दूसरों के प्रति आदर और श्रद्धा की भावना को भी पैदा करते हैं। 
(iv) अनुसंधान वाक्य  (research sentence) : "अयं आत्मा ब्रह्म" - अर्थात 'यह आत्मा स्वयं ब्रह्म है।'  इसमें ऋषि कहते हैं कि सूक्ष्म 'अहंकार' से लेकर स्थूल 'शरीर' तक को जीवित रखने वाली एक मात्र अप्रत्यक्ष शक्ति 'आत्मा' ( Infinite-Existence-Consciousness-Bliss) ही  है। उसी स्व-प्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। वह 'आत्मा' ही 'परब्रह्म' के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है।
 यह चौथा महावाक्य  माण्डूक्य उपनिषद  से लिया गया है, जो सबसे छोटा किन्तु सबसे शक्तिशाली उपनिषद है। यह इतना महत्वपूर्ण है कि आदि शंकराचार्य के गुरु के गुरु गौड़पाद ने उसपर 'माण्डूक्य कारिका ' के नाम से भाष्य लिखा है। बाद में माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका-  इन दोनों के ऊपर आचार्य शंकर ने भाष्य लिखा है। यह महावाक्य ही आत्मा और ब्रह्म के अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और हमें अपने यथार्थ स्वरूप का (larger reality,बृहद या शाश्वत सत्य, या ब्रह्म) का अनुसन्धान करने के लिये अनुप्रेरित करता है। इसलिए इसे 'अनुसंधान वाक्य' भी कहा जाता है। 
[It prompts us to explore Brahman (big reality, large or eternal truth), hence it is also called 'research sentence'. अर्थात यह महावाक्य ही हमें व्यष्टि आत्मा (तुच्छ अहं-बोध) को समष्टि आत्मा (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध) में रूपान्तरण करने करने के लिए अनुप्रेरित करता है। अथवा कच्चा 'मैं' -बोध को पक्का 'मैं' -बोध  या बृहद अथवा परिवर्तनशील सत्य (मिथ्या) और 'larger reality 'निरपेक्ष सत्य' में अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है!]  
शंकराचार्य ने चार महावाक्यों के एक-एक वाक्य की व्याख्या करने के लिए ही मनीषा-पंचक की रचना की  है। इन 5 श्लोकों में ही सम्पूर्ण अद्वैत वेदान्त की, चार महावाक्यों- के सार की व्याख्या की गयी है। 
वेदों के ये चार महावाक्य संम्पूर्ण मानव जाति को पुनरुज्जीवित (revivify) करने के लिये रामबाण दवा  या संजीवनी बूटी के समान हैं। चारों महावाक्य - 'यह जगत भी ब्रह्म ही है ' इसी महासत्य का प्रतिपादन करते हैं।  जिन्हें हृदयंगम कर लेने पर प्रत्येक मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है,और  देहाध्यास के भ्रम से (disenchanted) मुक्त होकर मृत्यु के भय को सदा के लिए समाप्त कर सकता है! 
6.👉 क्या तुम स्वप्न देखने वाले और स्वप्न के बीच जो अंतर (gap) है; उसके प्रति जागरूक हो ? (Are you aware of the gap between the dreamer and the dream ?) : आचार्य शंकर ने 'मनीषा पंचक' के प्रथम श्लोक में ऋग्वेद से लिए गए प्रथम महावाक्य 'प्रज्ञानं ब्रह्म ' -consciousness is Brahman "---अर्थात प्रज्ञा रूप (चैतन्यता की उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है !' इस प्रथम श्लोक में प्रथम महावाक्य में अनुभूति के चार स्तर- 'जाग्रत, स्वप्न, सु‍षुप्ति और तुरीय अवस्था' को बहुत सरलता से निरूपित कर दिया है। आचार्य शंकर कहते हैं --
जाग्रत्स्वप्न सुषुत्पिषु स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते
या ब्रह्मादि पिपीलिकान्त तनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी
सैवाहं न च दृश्य वस्त्विति दृढ प्रज्ञापि यस्यास्तिचेत
चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ १ ॥
जो संवित (awareness या चेतना) 'उज्ज्रिम्भते' अर्थात भ्रमण  करती हुई, जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओँ  के ज्ञान को (सभी अनुभवों) को प्रकट करती है, जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवताओं  से लेकर चींटी (आदि) सभी क्षुद्र जन्तुओ तक में स्फुरित है। "मैं वही जगत साक्षिणी चेतना हूँ यह दृश्य जगत नहीं !"
- ऐसी जिसकी दृढ़ प्रज्ञा (प्रक्रिष्ट ज्ञान) है , वह (शरीर से) चाण्डाल (शव जलाने वाला-डोम) हो या ब्राह्मण (समिधा जलाने वाला) हो, कर्म से चाहे वह चाण्डाल देह हो या विप्र देह हो - वही मेरा गुरु है। यह मेरा दृढ़ निश्चय (मनीषा) है ! 
आचार्य शंकर ने इस श्लोक की प्रथम पंक्ति में ही - 'जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में एक ही चेतना (awareness) प्रकाशित रहती है' कहकर,अद्वैत वेदान्त के सारतत्व (essential insights)  को स्पष्ट कर दिया है। यहाँ आचार्य शंकर हमें इस जगत में होने वाले अपने दैनिक जीवन के अनुभवों पर विचार करने को कह रहे हैं। 
आत्मा (चेतना) की चार अवस्थायें  : छांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1)जाग्रत (2) स्वप्न (3) सुषुप्ति और (4) तुर्यगा (तुरीय अवस्था)।  इसमें तीन स्तरों का अनुभव प्रत्येक जन्म लिए हुए मनुष्य को अनुभव होता ही है, लेकिन चौथे स्तर का अनुभव उसी व्यक्ति को होता है, ‍जो 'आत्मवान' हो गया है, जो ब्रह्म को जानकर 'ब्रह्म' हो गया है, या जिसने मोक्ष पा लिया है। वह जीवनमुक्त महापुरुष 'शुद्ध तुरीय अवस्था' (pure Consciousness)  में होता है जहाँ न तो जाग्रति है, न स्वप्न, न सु‍षुप्ति है। ऐसे मनुष्य सिर्फ साक्षी चेतना (witness consciousness - दृष्टाभाव में अवस्थितहोते हैं-जिसे पूर्ण-जागरण की अवस्था भी कहा जाता है।
 तुर्यगा - तीनो अवस्था से मुक्त होना तुर्यगा है। और यही असली जादूगर है। ब्रह्म को जिस इन्द्रियातीत ज्ञान अवस्था मेँ आत्मरुप और अखण्ड जाने वही अवस्था तुर्यगा है। जाग्रत आदि तीन अवस्थाओं से रहित शिव, अद्वैत स्वरूप,निर्विकल्प समाधि की जो चौथी अवस्था है वह तुर्यगा है। यह तुर्यगा अवस्था जीवन्मुक्त पुरुषों में इसी देह में विद्यमान रहती है। यहाँ तक कि तुम जब तुम देह-मन के साथ तादात्म्य करके जगत के साथ तादात्म्य कर लेते हो, अपना मान बैठते हो। और अपने को मन -देह के साथ एकदम संलग्न (attached-आसक्त) समझते हो, और जब तुम कहते हो मन का दुःख मेरा दुःख है, मन का अज्ञान मेरा अज्ञान है, मन का संसारी स्वभाव मेरा स्वभाव है, तब तुम अपने आप से यह सब मिथ्या (false) भाषण करते हो, स्वयं से झूठ बोलते हो। वह ज्ञाता जो मन को भी जान रहा है, वास्तव में तुम और मैं---ही नहीं, सभी मनुष्य  'शान्तं -शिवं -अद्वैतं' ही हैं।   
इस समय जब तुम जाग्रत अवस्था में हो, तब तुम इस सम्पूर्ण जाग्रत जगत के विषयों का अनुभव कर रहे हो। जब तुम स्वप्न देखते हैं, तो वहाँ भी अनिवार्य रूप से तुम रहते हो,और तुम्हारा स्वप्न रहता है। जिसमें घटित होने वाली घटनाओं तथा व्यक्तियों का अनुभव हमें स्वप्न देखते समय होता है। जब हम गहरी नींद या सुषुप्ति की अवस्था में होते हैं , तब हमें बाह्य-जगत (external world) का कोई अनुभव नहीं होता है। उस समय हमारी चेतना (awareness- जागरूकता) में स्वप्न का भी अनुभव नहीं होता है। यहाँ तक कि उस समय हम अपने individual existence, वैक्तिक अस्तित्व का भी अनुभव नहीं होता । उस समय बास्तव में हमलोग किसी भी वस्तु के प्रति जागरूक (aware) नहीं होते हैं।
किन्तु उस सुषुप्ति अवस्था में भी एक प्रकार का awareness या अनुभवकर्ता (experiencer) अवश्य रहता है। क्योंकि जब हम गहरी नींद से सोकर उठते हैं तब कहते हैं -बड़ी अच्छी नींद आयी। I slept happily ! मैं घोड़ा बेचकर सो रहा था, मुझे कुछ भो होश/पता नहीं था।  यदि हमारे भीतर उस समय भी की कोई मौलिक चेतना (primitive awareness) नहीं होती है, तो -ऐसा हम कैसे कह सकते हैं ? 
शंकराचार्य कहते हैं इस प्रकार अपने दैनिक जीवन में होने वाले अनुभवों पर विचार करो।  अभी हम लोग इस समय जाग्रत अवस्था में हम अनेक वस्तुओं का अनुभव कर रहे हैं। एक वस्तु के बाद हम दूसरी वस्तुओं को, दृश्यों को देखते जा रहे हैं। किन्तु इन सब वस्तुओं को देखने वाली चेतना (awareness) द्रष्टा एक ही है। मैं ही वह एक चेतना (awareness) हूँ जो इन अनेक दृश्य वस्तुओं को देख रहा हूँ। दृश्य वस्तुओं में परिवर्तन होने से हमारे अनुभव भी परिवर्तित होते रहते हैं। दृश्य वस्तुएं बदल रही हैं किन्तु उसको देखने वाली चेतना (consciousness or awareness ) द्रष्टा एक ही है। हम स्कूल को, इस हॉल को, यहाँ बैठे लोगों को देख रहे हैं। दृश्य वस्तुएं अनेक हैं, भिन्न-भिन्न हैं, यह स्कूल हमसे अलग है, हॉल अलग वस्तु है, वक्ता अलग वस्तु है, यह माइक अलग वस्तु है। 
द्रष्टा अपरिवर्तनशील है, किन्तु दृश्य निरंतर परिवर्तनशील है। किन्तु क्या इन अनेकों दृश्य पदार्थों का अनुभव करने वाला 'अनुभवकर्ता'(experiencer) कोई एक वस्तु है, या अनेक है ? जो चेतना (consciousness) इन विभिन्न दृष्टिगोचर पदार्थों के प्रति जागरूक (aware) है, उस जागरूकता (awareness) का अनुभव एक ही चेतना को हो रहा है, या अलग अलग चेतना को हो रहा है ? नहीं, अनुभव करने वाली चेतना एक ही है, जैसे हम कहते हैं - मैं हॉल को देखता हूँ, मैं माइक को देखता हूँ , मैं वक्ता को देखता हूँ। वह जो द्रष्टा 'मैं' है, या जो जागृत चेतना है (I consciousness या awareness) वह एक ही है। वह 'मैं' सभी अनुभवों में constant , स्थिर या नित्य बना रहता है। उस "द्रष्टा मैं" -  की आधारभूत प्रकृति  चेतना (awareness) है।   (The essential nature of Seer is  'awareness ' or consciousness ! ) केवल द्रष्टा ही नहीं, सुनने वाला, चखने वाला, स्पर्श करने वाला, सूंघने वाला समस्त इन्द्रिय विषयों का अनुभव करने वाला वही एक चैतन्य (awareness) वस्तु है। इस क्लास के शुरू होने से पहले एक गान हुआ था, जो चेतना उस संगीत को सुन रही थी वही चेतना इस समय इस भाषण को सुन रही है। यह एक सत्य बात है या नहीं ? एक ही चेतना पांच इन्द्रियों  माध्यम से अलग अलग विषयों का अनुभव कर रही है। एक ही चेतना निरंतर बनी रहती है, अनुभव में आने वाले विषय बदलते रहते हैं। दृश्य वस्तु केवल बाह्य जगत की वस्तुएं ही नहीं होती, अंतर्जगत में उठने  वाले विचार  और अनुभूतियाँ भी दृश्य होती हैं। जो idea हमारे मन में अभी बनी है -कुछ देर तक रहेगी -उम्मीद है?  
यह भान या चेतना -'awareness' सभी अनुभवों में कॉमन रहती है स्वप्न में भी वही चेतना अलग अलग विषयों का अनुभव करती है। स्वप्न अवस्था में हमें यह होश नहीं होता कि हम स्वप्न देख रहे हैं, सपना भी हमें जाग्रत अवस्था के जैसा एक दम सच्चा ही लगता है। डरावना सपना देखे -तब नींद खुलने पर जान में जान आता है की चलो ये तो सपना था! अच्छा हुआ ठीक समय पर टूट गया नहीं तो बाघ खाने वाला ही था ! जो कुछ मैं देख रहा था , वह सब मेरे मन की कल्पना ही थी। कल्पना में आने वाली वस्तुएं आती-जाती रहती हैं। जो भी घटनाएं स्वप्न में घट रही थीं, वे सब मन की कल्पनाएं थीं। काल्पनिक वस्तुएं , विचार आते -जाते रहते हैं।  हमारा मन ही स्वप्न में अनेक घटनाओं को,  लोगों को , वस्तुओं को  'thrown  up' प्रक्षिप्त करता रहता है। किन्तु साक्षी चेतना (witness consciousness) सभी अवस्थाओं में एक ही रहती है। 
 " स्वप्न में हम बहुत से लोगों -वस्तुओं को देखते हैं" -किन्तु क्या उस समय हम उन वस्तुओं और व्यक्तियों, घटनाओं आदि को सचमुच देखते हैं ? नहीं,  क्योंकि नींद में सभी इन्द्रियाँ तो शांत हो जाती हैं। किन्तु मन कल्पना करता रहता है। आचार्य शंकर यह कहना चाहते हैं की जो चेतना जाग्रत अवस्था में रहती है, वही स्वप्न और सुषुप्ति में भी -continuous unbroken 'निरंतर अखंड' बनी रहती हैं। [आशा करता तुम मेरी बातों से सहमत हो, और सुनने से ही नींद में जाकर स्वप्न नहीं देख रहे हो !]  अद्वैत वाद का पूरा सिद्धान्त स्वामीजी की उक्ति 'to arise, awake and stop not' के अनुसार जागने, सचेत होने और निरन्तरता कायम रखने  के अनुसार कार्य करती है। हमलोग जाग्रत अवस्था में जाग्रत-सचेत होकर जिन वस्तुओं का अनुभव करते हैं, स्वप्न में उन्हीं को स्मरण (recall) करते हैं। किन्तु गहरी निद्रा में कोई अनुभूति नहीं होती,  उन सभी अनुभवों को स्मरण करें और तुलना करके देखें। वे सभी एक ही साक्षी-चेतना ( witness consciousness) से प्रकाशित हो रही हैं।
बहुत से लोग पूछते हैं, मैंने स्वप्न में ऐसा दृश्य देखा था, या अमुक प्रकार की घटना को घटित होते एकदम स्पष्ट रूप में देखा था, जो मुझे अभी तक याद है, उस स्वप्न का क्या अर्थ हुआ? क्या आप उसका अर्थ बता सकते हैं ? जब कभी हमलोग जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति पर चर्चा करते हैं, तब अक्सर कुछ लोग यह प्रश्न पूछते ही हैं -हमने स्वप्न में 'अमुक घटना' को एक दम स्पष्ट रूप से देखा था, उसका कोई विशेष अर्थ होता है क्या ?  अद्वैत कहेगा - 'not interested' ! उसमें मेरी कोई रूचि नहीं है। अद्वैत स्वप्न के विषय-सूची में-'contents of dream' में, स्वप्न में दिखने वाले परिवर्तन-शील झाँकियों में, व्यक्तियों, वस्तुओं , घटनाओं आदि में कोई रूचि नहीं रखता। अद्वैत तुम्हारे हित में,  जो स्वप्न देखने वाला है, उसके हित में रूचि रखता है, सम्पूर्ण मानवजाति के हित में रूचि रखता है।
अद्वैत वेदान्त स्वप्न के फल-कूफल की परवाह नहीं करता !  अद्वैत वेदान्त स्वप्न के फल-कुफल में कोई रूचि नहीं रखता, वह हम में -वास्तिक स्वप्न द्रष्टा में रूचि रखता है। अद्वैत हमारे सच्चे हित में अनुरक्त है।अद्वैत स्वप्न के फल-कुफल में कोई रूचि नहीं रखता सुख-दुःख मन की अवस्थायें है, द्रष्टा या 'मैं ' उससे भिन्न हूँ, उसको जानने वाला हूँ।  किन्तु वेदान्त हमारे स्वप्न अवस्था में परिवर्तित होने वाली   सामग्रीयों में contents of change में कोई रूचि नहीं रखता है।  अद्वैत वेदान्त पूछता है - क्या तुम  'Gap between dreamer and the dream' स्वप्नद्रष्टा - 'सपने देखने वाले' और 'स्वप्न' के बीच जो अंतर है--उस 'gap' के प्रति जागरूक (aware) हो ?
हम लोग जैसे इस समय इस जाग्रत जगत (दृष्टिगोचर और व्यवहार्य जगत-Viable world) के परिवर्तनशील दृश्यों को देखने में इतने engrossed तल्लीन हैं, कि हम द्रष्टा को दृश्य से अलग करके नहीं देख पाते हैं। (we are not aware of the waker apart from the object) ठीक उसी प्रकार, स्वप्न देखते समय भी  -स्वप्न देखने में हमलोग इतने तल्लीन हो जाते हैं, कि एक क्षण के लिए भी स्वप्न-द्रष्टा को स्वप्न से अलग करके नहीं देख पाते हैं। अद्वैत तुम में रूचि रखता है, स्वप्न देखने वाले के हित में रूचि रखता है। 
एक बार किसी व्यापारी ने किसी जीवनमुक्त अद्वैत शिक्षक (Vedanta Teacher या नेता) से जाकर कहा था -I am so miserable ,मैं बहुत दुखी हूं। उस वेदान्त शिक्षक ने झिड़कते हुए कहा -I don't care, मैं उसकी कोई परवाह नहीं करता। व्यापारी सोचता है- how cruel कितना निर्दयी व्यवहार है! तब शिक्षक ने कहा - नहीं, मैं तुम्हारे दुःख में रूचि नहीं रखता, किन्तु तुम्हारे कल्याण में अवश्य रूचि रखता हूँ। ऐसा कहकर, वास्तव में वे शिक्षक मुझमें और मेरे दुःख में - I and my misery में थोड़ा gap या दूरी बना लेने की शिक्षा दे रहे हैं, मुझमे और मेरे दुःख में जो अन्तर है, उस दिशा में मेरे ध्यान को मोड़ना चाहते हैं। 
मुझमें और मेरे दुःख में जो अन्तर है, इस अंतर को समझ लेना  बहुत महत्वपूर्ण शिक्षा है। और आचार्य शंकर भी हमलोगों को यही शिक्षा देने का प्रयास कर रहे हैं। जगत की जिन वस्तुओं को-[कामिनी-कांचन] हम वास्तविक मानते है, अपने लिए दुःखद या अद्भुत आकर्षणीय समझते हैं, अपना जीवन समझते हैं। उसके बिना तो मैं जी नहीं पाउँगा ऐसा समझते हैं। किन्तु जब हम निद्रा में चले जाते हैं , उस समय वे सब वस्तुएं गायब (disappear) हो जाती हैं। और स्वप्न में हमारे सामने एक दूसरा ही जगत प्रकट हो जाता है, हमारे मन की कल्पनाओं का जगत। जिसे जाग्रत अवस्था में बार बार अनुभव करके चित्त में संचित कर लिया है, वैसे ही लोगो और वस्तुओं को स्वप्न में देखते हैं। उस स्वप्न जगत में भी हमलोग बहुत कठिन कठिन समस्याओं को देखते हैं, किन्तु जब जागते हैं, तब उस पर हँसते हैं। वे सारे दुखदायी अनुभव भी सुषुप्ति (deep sleep) या गहरी नींद में भी गायब हो जाते हैं। यह देखकर कुछ लोग तर्क कर सकते हैं कि आप जो आत्मा और निरंतर कायम रहने वाली चेतना को एक ही वस्तु बताना चाह रहे थे,  गहरी नींद में तो वह चेतना, या जागरूकता (awareness) कायम नहीं रहती है।  (in deep sleep  consciousness does not continue !) फिर आप यह कैसे कह सकते हैं की सुषुप्ति में भी चेतना रहती है ? अद्वैत वेदान्त कहता है, कि चेतना या awareness, तो गहरी नींद में भी, continue रहती है, या कायम रहती है। तब गहरी नींद में हमें उस चेतना (awareness) का अनुभव क्यों नहीं होता
7. 👉सुषुप्ति (deep sleep) क्या है ?  जब मन किसी स्वप्न की कल्पना नहीं कर रहा होता है, उस अवस्था को- सुषुप्ति (deep sleep) कहते हैं। 'when the mind is not imaging any dream' उस अवस्था को सुषुप्ति (deep sleep) कहते हैं। उस अवस्था में 5 इन्द्रियाँ बाहर की दुनिया के साथ जुड़ी नहीं रहती हैं, सो जाती है। उस सुषुप्ति अवस्था में इन्द्रियाँ काम करना बन्द कर देती हैं, इसलिए मन भी काम करना बंद कर देता है। उस अवस्था में इन्द्रियाँ बाह्य-जगत के साथ जुड़ी हुई नहीं रहतीं। इसलिए गहरी निद्रा में पाँचो इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों का संवाद भेजना बंद कर देती हैं।  
senses are not engaged with the world outside, और अपने अपने विषयों का ---रूप,रस , गंध, शब्द स्पर्श आदि का संवाद -प्रेषण करना, reporting करना छोड़ देती हैं।  तो , गहरी नींद के समय क्या उपस्थित नहीं रहता है ? मन उपस्थित नहीं रहता है।  किन्तु इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि तब चेतना  consciousness कायम नहीं रहती, गहरी नींद की अवस्था में भी चेतना या भान (awareness) कायम रहती है, जिस प्रकार जाग्रत अवस्था में और स्वप्नावस्था में चेतना कायम रहती है, उसी प्रकार सुषुप्ति के समय भी कायम रहती है।  किन्तु जिसके प्रति वह सचेत (conscious) हो वे वस्तुयें नहीं रहती हैं। इसलिए जाग्रत मन या सक्रीय मन (waking mind or active mind) को उस समय looks like nothing -कुछ नहीं जैसा दीखता है !
यदि सुषुप्ति में चेतना नहीं होती तो इन्द्रियां वापस आकर संवाद नहीं देतीं, कि बहुत अच्छी नींद आयी।    
यहाँ तक कि निद्रा विज्ञान (Modern medicine of whole Sleep Science) के अनुसार भी नींद की अवधि को दो चरणों- में बाँटा गया है; जिसे 'रैपिड-आई मूवमेंट स्लीप' ( REM sleep) और  'नॉन रैपिड आई मूवमेन्ट स्लीप' (non-REM sleep) कहते हैं। उसको आधुनिक निद्रा विज्ञान की भाषा में- " Two  stages of sleep : REM sleep and non-REM sleep" कहा जाता है। अर्थात 'स्वप्न सहित निद्रा' को REM sleep ' -अर्थात " रैपिड-आई मूवमेंट स्लीप (तेज नेत्र गति निद्रा rapid-eye movement sleep) " तथा 'स्वप्न रहित निद्रा' को " नॉन रैपिड आई मूवमेन्ट स्लीप (गैर-तेज नेत्र गति निद्रा, non-REM sleep) कहकर परिभाषित किया गया है। जैसे ही हम REM-स्लिप में जाते हैं, बन्द पलकों के पीछे हमारी ऑंखें तेजी से चलने लगती हैं, और मस्तिष्क की तरंगें भी ठीक जाग्रत अवस्था की तरंगों के जैसी होती हैं। सांसो  की गति तेज हो जाती है,और जितने समय हम सपने देखते हैं उतने समय तक शरीर अस्थायी रूप से शक्तिहीन (लकवाग्रस्त जैसा) हो जाता है। यदि REM sleep में सोये व्यक्ति को जगा कर पूछा जाय, तो वह कहता है मैं स्वप्न देख रहा था। और यदि 'non-REM sleep' या स्वप्न-रहित निद्रा की अवधि में, बंद पलकों के पीछे हमारे eye-ball जब नहीं हिल रहे होते हैं, उस समय उठाकर पूछो तो कहेगा मैं स्वप्न नहीं देख रहा था। और आचार्य शंकर का भी यही सिद्धांत है कि-चेतना हर अवस्था में-जाग्रत-स्वप्न और सुषुप्ति में भी निर्बाध रूप से कायम रहती है।
[As you cycle into REM sleep, the eyes move rapidly behind closed lids, and brain waves are similar to those during wakefulness. Breath rate increases and the body becomes temporarily paralyzed as we dream. ] 
इस प्रकार हम देखते हैं कि शरीर क्रिया-विज्ञान (physiology) की दृष्टि से भी, ' भी स्वप्न-रहित निद्रा (dreamless sleep-'non-REM sleep' समाधि की अवस्था) और 'स्वप्न -सहित निद्रा' (sleep with dream) - खुली आँखों से स्वप्न देखने की अवस्था में साक्षी चेतना के एकत्व की पुष्टि हो जाती है। श्री रामकृष्ण देव को मुहुर्मुहुः समाधि होती थी, वे कहीं बाहर जाते थे तब उनको देखने के लिए बहुत से लोग, इसलिए जमा हो जाते थे। चर्चा फैल जाती थी कि अमुक के यहाँ एक ऐसा आदमी आया है, जो बार -बार मर कर जिन्दा हो जाता है ! जब वे बैठे-बैठे ही समाधि में चले जाते थे, तब एक डॉक्टर (महेन्द्र लाल सरकार) उनकी पुतलियों को अपनी ऊँगली से छू कर जाँच करते थे कि उनमें कुछ गति होती है या नहीं ? और आश्चर्यचकित रह जाते थे।      
सुषुप्ति की अवस्था में जब तुम्हारी चेतना (होश या awareness) के सामने से तुम्हारा यह स्थूल शरीर बिल्कुल 'disappear'  या गायब  हो जाता है, तब भी तुम्हारा अस्तित्व (existence) रहता है, और तुम स्वप्न देख रहे होते हो! फिर जब मन भी कल्पना करना बंद कर देता है, या रुक जाता है, तब भी अनुभवकर्ता को रिक्तता (blankness) का अनुभव हो रहा होता है। तभी तो सोकर उठने के बाद हम कहते हैं -बड़ी अच्छी नींद आयी !  
इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि साक्षी चेतना (awareness) कभी केवल एक ही 'शरीर और मन' के पिंजरे में ही फँसी हुई (trapped) या अटकी हुई (stuck) या सीमित (limited) नहीं है ! सिद्धान्त यह निकला कि हर अवस्था में एक ही चेतना निर्बाध रूप से जारी रहती है या कायम रहती है- 'consciousness continues uninterrupted !' और यह समझ लेना ही वेदांत को समझना है। 
8.👉मनुष्य  का यथार्थ स्वरूप होश (awareness) है (Our essential nature is awareness) : ठाकुर देव कहते थे - " मानहूष तो मानुष !"  यहाँ शंकराचार्य कह रहे हैं -चैतन्य ही हमारी वास्तविक प्रकृति या हमारा यथार्थ स्वरुप  है।  our essential nature is awareness " अर्थात  तुम्हारी और मेरी वास्तविक सत्ता,  हमारा अनिवार्य घटक चेतना (awareness) ही है।   और जैसा कि भौतिवादी (materialistic) या अनात्मवादी लोग  मानते हैं, वह शुद्ध  चैतन्य (pure consciousness) हमारे मस्तिष्क के द्वारा कोई उत्पादित वस्तु नहीं है ! वास्तव में चेतना मस्तिष्क की उपज नहीं है। (That awareness is not produced by the brain)  चेतना किसी भौतिक पदार्थ (मस्तिष्क) से उपजी हुई वस्तु नहीं है। यद्यपि हमारा स्वरूप, हमारी चेतना ---मस्तिष्क से बिल्कुल स्वतन्त्र है, तथापि यह मस्तिष्क के माध्यम से कार्य करती है।  
इसको ऐसे समझें---- जैसे तुम लोग इस क्लास में दरवाजे से होकर आये हो। और कोई कहे कि वाह ! यह  दरवाजा तो बहुत अद्भुत यंत्र है, इसने यहाँ बैठे इतने लोगों को उत्पन्न कर दिया है!! कैसे ? मैंने इतने लोगों को दरवाजे से आते हुए देखा है। किन्तु तरह थोड़ी देर के बाद, क्लास खत्म होने पर तुम इस दरवाजे से होकर बाहर निकल जाओगे। उसी प्रकार, मस्तिष्क में अवस्थित हमारा स्नायु केन्द्र (nervous system) भी एक 'portal' सिंहद्वार या मशीन है जिसको चेतना अपने उपयोग में लाती है, या इस्तेमाल करती है। किन्तु यह चेतना शरीर से बिल्कुल भिन्न वस्तु है, तथापि यह जड़ शरीर के माध्यम से कार्य करती है। चेतना को कार्य करने के लिए  शरीर , मन और इन्द्रियों की आवश्यकता होती है।
जैसे रूप को देखने के लिए चेतना को आँखों की आवश्यकता होती , शब्दों को सुनने के लिए कान की आवश्यकता होती है , स्वाद को चखने के लिए जिह्वा की आवश्यकता होती है, गंध को सूंघने के लिए नाक की आवश्यकता होती है, स्पर्श को महसूस करने के लिए इसको त्वचा की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार विचारों को समझने के लिये भी साक्षी चेतना को मन या अन्तःकरण की आवश्यकता होती है। किन्तु चेतना (awareness) एक स्वतंत्र सत्ता है, और हमारा अपना स्वरुप है। चेतना शरीर या मन का हिस्सा नहीं है, शरीर या मन के द्वारा यह उत्पन्न नहीं होता है। भौतिक प्रकृति चेतना का मौलिक आधार नहीं है। (material nature is not fundamental to consciousness)  अद्वैत को समझने का पहला चरण यही समझना है कि - चेतना (awareness) शरीर और मन से बिल्कुल भिन्न एक स्वतंत्र सत्ता है;  तथापि यह शरीर और मन के माध्यम से कार्य करती  है, और जाग्रत , स्वप्न , सुषुप्ति की अवस्था को प्रकाशित करती है। 
9.👉 साक्षी चेतना (awareness) एक है या अनेक ? (One or Many *?): किन्तु अभी तक चेतना (awareness) को हमने अद्वैत तत्व (non- dualistic entity) या अस्तित्व (existence-consciousness-bliss ) के रूप में नहीं जाना है। एक तरफ चेतना ( consciousness) का अस्तित्व है तो दूसरी तरफ भौतिक प्रकृति शरीर, मन और बाह्य जगत के अनेक वस्तुओं का  (material nature) अस्तित्व भी सत्य ही प्रतीत हो रहा है। और यदि मौलिक सत्ता दो हो- two fundamental reality हो, तब अद्वैत कहाँ हुआ? ठीक है मैंने मान लिया कि मैं वास्तव में शरीर नहीं हूँ, चेतना या आत्मा (awareness) हूँ, और इस शरीर के माध्यम से कार्य कर रहा हूँ , और अपने को अमुक व्यक्ति (M/F) समझता हूँ। एक व्यक्ति (M/F) के रूप में इस शरीर और मन के माध्यम से मैं बाह्य जगत की अनेक वस्तुओं का अनुभव कर रहा हूँ। 
लेकिन इस समय यहाँ यदि 400 कैम्पर्स बैठे हुए हैं तो चेतना (consciousness) की संख्या कितनी हैं ? चेतना (awareness) एक है या अनेक है ? One or Many ? आचार्य शंकर कहते हैं यह अनेक के जैसा प्रतीत हो रहा है, किन्तु अनेक नहीं है। स्पष्ट रूप से अनेक शरीर हैं, अनेक प्रकार के मन हैं। कैसे जानते हो कि अनेक शरीर हैं ? हमलोग कैम्पर्स की गिनती करके देख सकते हैं। जब हॉल भर जाता है, तब बाकी लोगों को बाहर खड़े होकर सुनना पड़ता है। लेकिन आप यह कैसे कह सकते हैं कि मन भी अनेक हैं ? यदि कैम्प एक्स्पीरिएंस फॉर्म भरने को दिया जाय तो अनेक प्रकार के उत्तर प्राप्त होंगे। हम सभी को इसी समय अलग अलग अनुभव भी हो रहे होंगे। तब तो जैसे अनेक शरीर हैं, अनेक मन हैं तो उसी प्रकार अनेक चेतना (consciousness) भी होगी ? 
शंकराचार्य कहते हैं - नहीं; " या ब्रह्मादि पिपीलिकान्त तनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी।" सर्वोच्च देवताओं से -ब्रह्मा, विष्णु , महेश, इन्द्र आदि से प्रारम्भ करके चींटी जैसे क्षुद्र जंतुओं के शरीर और मन तक में  एक ही चैतन्य पिरोया हुआ हैइसका प्रमाण क्या है ? यहाँ अद्वैत-वेदान्त प्रतिप्रश्न करता है ! तुम इस अखण्ड चेतना को दूसरे शरीर -मन की चेतना से पृथक कैसे करोगे ? पृथक करने के लिए, अनुभव में आने योग्य दो पृथक विशिष्ट -लक्षण भी होने चाहिए। एक मनुष्य को दूसरे से अलग करने के लिए -हम लोग शरीर के आधार पर या मन के आधार पर एक व्यक्ति को दूसरे अलग कर सकते हैं।  किन्तु साक्षी चेतना (witness consciousness) तो शुद्ध अनुभवकर्ता है (pure subject) उस साक्षीभाव में कैसे अन्तर करेंगे ?  माया शक्ति से एक ही अनेक बन गया है  : यहाँ शंकराचार्य हमें अद्वैत वेदान्त के दूसरे सोपान- पर ले जाते हैं।  वे कहते हैं कि प्रत्येक शरीर और मन के माध्यम से आजीवन एक ही अपरिवर्तनीय चेतना (unchanging consciousness ) जाग्रत, स्वप्न,सुषप्ति और तुरीय अवस्था में व्यक्त होती रहती है। किन्तु उस शुद्ध चेतना को सर्वव्यापी, विराट, अविभक्त या अखण्ड रूप से देखने को ही सात्त्विक ज्ञान कहा गया है। गीता 13 /17 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- 
'अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
    भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।
अविभक्तम्  च भूतेषु  विभक्तम्  इव च  स्थितम्  -- इस जगत में देखने सुनने और समझने में जितने भी स्थावर-जङ्गम प्राणी आते हैं, उन सबमें परमात्मा स्वयं विभाग-रहित होते हुए भी विभक्त की तरह प्रतीत होते हैं। विभाग केवल प्रतीति है। जिस प्रकार एक ही आकाश 'घट', 'मठ' आदि की उपाधि से घटाकाश,  मठाकाश आदि के रूप में अलगअलग दीखते हुए भी तत्त्व से एक ही है।  उसी प्रकार परमात्मा भिन्नभिन्न प्राणियों के शरीरों की उपाधिसे अलग अलग दीखते हुए भी तत्त्व से एक ही हैं। उसी ज्ञेय तत्त्व को  यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और शिव के रूप से वर्णन हुआ है। 
वस्तुतः चेतन तत्त्व ही अणु (गॉड पार्टिकल ? परमात्मा-कण) के रूप में है। वे परमात्मा ही रजोगुण की प्रधानता स्वीकार करने से सब को उत्पन्न करने वाले- (प्रभविष्णु, प्रभव+ईश्+अणु) ब्रह्मा के रूप में,  सत्त्वगुण की प्रधानता स्वीकार कर के - इसी अणु के माध्यम से उत्पन्न विभिन्न पदार्थों के द्वारा सर्व भूतों का भरण-पोषण (भूतभर्तृ) करने वाले विष्णु के रूप में हैं, और तमोगुण की प्रधानता स्वीकार करने से-(ग्रसिष्णु,ग्रस+ईश्+अणु) रुद्र रूप से सबका संहार करने वाले हैं। तात्पर्य है कि एक ही परमात्मा सृष्टि करने, पालन और संहार करने के कारण ब्रह्मा विष्णु और शिव नाम धारण करते हैं।  यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि परमात्मा सृष्टि-रचनादि कार्यों के लिये भिन्न-भिन्न गुणों को स्वीकार करने पर भी उन गुणों के वशीभूत नहीं होते। गुणों पर (माया पर) उनका पूर्ण आधिपत्य रहता है।
सभी शरीर और मन में एक ही अविभाजित अखण्ड चेतना है किन्तु विभाजित सी प्रतीत होती है। क्यों विभाजित प्रतीत होती हैं ? क्योंकि सभी का शरीर अलग है, मन अलग है। सभी का व्यक्तित्व अलग है। शंकराचार्य कहते हैं - सर्वोच्च भगवान ब्रह्मा से लेकर निम्नतर देवता इन्द्र , चन्द्र, वरुण से लेकर गंधर्व तक, वहाँ से हमलोगों के मानव शरीर तक, और भी निम्न पशु-पक्षी शरीर से चींटी जैसे क्षुद्र शरीर तक, सभी शरीरों में एक ही चेतना कायम रहती है। यहाँ शुद्ध चेतना के लिए आचार्य शंकर एक बहुत सुंदर नाम का प्रयोग करते हैं - 'या जगत -साक्षिणी।' She who is witness to the entire universe, वह माँ जगदम्बा जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की साक्षी  है।  [सदा सत्य बोलो ! 'मैं वह-साक्षिणी हूँ !'
10.👉 अद्वैत वेदान्त का ईश्वर कौन है ?यहाँ समझने का एक महत्वपूर्ण बिन्दु 'crucial point ' है, - जब मैं केवल अपने शरीर में रहने वाली चेतना की बात करूंगा तो मैं कह सकता हूँ कि वह 'चेतना'-मेरे इस शरीर और मन की साक्षी हैमैं इस देह और मन का साक्षी हूँ, और इस साक्षी की सहायता से मैं सम्पूर्ण विश्व का साक्षी हूँ। लेकिन आचार्य शंकर कहते हैं,  एक ही चेतना समस्त देह और मन में पिरोयी हुई है। अर्थात समस्त अनुभवों का अनुभवकर्ता एक ही  है। "One Subject of all object . उस सर्वव्यापी परमात्मा (चेतना) के लिए आचार्य शंकर स्त्रीवाचक संज्ञा-'जगत-साक्षिणी' (witness of the universe) का प्रयोग करते हैं।  
जैसे मैं अपने शरीर-मन के साथ तादात्म्य करके, (मैं =व्यष्टि अहं) समझता हूँ कि -"मैं केवल इस शरीर और मन तक सीमित हूं ! " (I am limited to this body and mind) लेकिन एक वैसे चेतना (सर्वव्यापी विराट अहं) की कल्पना करें , जो समझती हो कि-  " मैं वह चेतना हूँ जो सम्पूर्ण विश्व के प्रत्येक जीव में, जड़-चेतन हर वस्तु में विद्यमान है। एक चेतना ऐसी है जो विश्व के 7 अरब मनुष्यों से लेकर असंख्य जीवों, अन्य ग्रहों में बसे पता नहीं कितने एलियंस होंगे उन सबको मिलाकर - यह जानती है कि , मैं इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड की चेतना (मैं= समष्टि अहं)  हूँ। उस समष्टि अहं को कोई पुरुष या स्त्री समझ सकता है, कोई जगतजननी माँ 'काली' कहता है। आचार्यशंकर भी उनको स्त्री रूप में माँ जगदम्बा समझकर 'जगत -साक्षिणी' कहते हैं।आम तौर से साधारण जन  अपने इष्टदेव को अवतारी-पुरुष समझकर उनके विषय में कहते हैं - 'I am He ! किन्तु आचार्य शंकर वेदान्त के अगले चरण में कहते हैं - "सैवाहं न च दृश्य "  --' सा एव अहं'  "I am She" यहाँ आचार्य शंकर स्वयं को अखण्ड -अविभक्त चेतना समझते हुए बड़ी सहजता से कहते हैं - I am one with the divine Mother!मैं और मेरी माँ भवतारिणी जगदम्बा  एक हैं ! 
11.👉आत्म -अनुसन्धान का अद्वैतिक प्रणाली [Fundamental Advaitic way of self-enquiry Who am I ? ] मैं कौन हूँ ? मैं वास्तव में क्या हूँ ? वेदान्तिक तरीके से आत्म-अनुसन्धान कैसे किया जाता है ? आचार्य शंकर कहते हैं - अपने दैनन्दिन अनुभवों को देखो (consider our own experience), वे सुखद हैं या दुःखद हैं? हम मन में उठने वाले विचारों को , या अनुभवों को कैसे देख सकते हैं ? हम मन को दो भागों में विभाजित करके, द्रष्टा मन के द्वारा दृश्य मन को देख सकते हैं। अपने अनुभवों  स्वयं से अलग समझकर ही हम उसपर विचार कर सकते हैं, कि क्या वे सुखद हैं या दुःखद हैं ? 
यदि मन की किसी अवस्था को, सुख को या दुःख को-- मैं जान रहा हूँ;  If I am aware of something, तो यह स्पष्ट है कि मैं उससे अलग हूँ, या मैं उससे भिन्न हूँ। " घट् द्रष्टा घटात् भिन्नः"   घड़े को देखने वाला अवश्य घड़े से भिन्न होता है ! वास्तव में शरीर एक दृश्य वस्तु ही है।  हमलोगों को इसमें कोई संशय नहीं है कि मैं यह M/F शरीर ही हूँ ! क्योंकि हमने इस दृश्य शरीर के साथ अपना तादाम्य कर लिया है, और कहते हैं मैं पुरुष/स्त्री हूँ। तुम तर्क कर सकते हो मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ, और इस शरीर में रहने वाला एक व्यक्ति  हूँ। किन्तु व्यक्ति तो अपने विचारों से जुड़ा रहता है। और हमारे विचार, हमारा मन भी एक दृश्य वस्तु है। क्या मैं अपने विचारों को नहीं देख सकता हूँ ? ख़ुशी के विचार या उदासी के विचार मन में उठ रहे हैं उसको मैं जानने वाला हूँ। 
जैसे मैं इस माइक को देख रहा हूँ , तो यह माइक मैं नहीं हूँ! बिल्कुल स्पष्ट  है। सैवाहं न च दृश्य वस्त्विति' -- ' सा एव अहं'  "I am She" न च दृश्यवस्तु - वास्तव में  मैं कोई देखने की वस्तु नहीं हूँ- I am not an object of seeing। मैं कौन हूँ ? stage 1 : प्रशिक्षण के प्रथम चरण में हमलोग जब योग-दर्शन या सांख्य दर्शन के अनुसार कहते, मैं देह-मन से भिन्न चेतना (3rdH -consciousness) तो हूँ, तब तक हमलोग स्वयं को केवल इसी साढ़े तीन हाथ के शरीर तक सीमित चेतना हूँ (limited consciousness), ऐसा समझते है।  तब तक हमारी समझ अद्वैत वेदान्त  के सिद्धान्त से अलग हैं। आचार्य शंकर हमें सांख्य और योग-दर्शन से एक सोपान और आगे  stage 2 में बढ़ाते हुए, कहते हैं - We all are one with the divine Mother ! -यदि हम ऐसा समझते हैं, तब कहना होगा कि हम वेदान्त के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं। अब हम (RCM की कृपा से?)  सांख्य दर्शन या योग-दर्शन से भी आगे बढ़ जाते हैं ! I am one Consciousness मैं वही एक चेतना हूँ -'प्रोता जगत्साक्षिणी' जो प्रोता-running in and through all bodies, जो सभी शरीरों के भीतर और उनके माध्यम से मैं ही अभिव्यक्त हो रहा हूँ!  जैसे मणियों की एक माला के भीतर से एक एक ही धागा पिरोया हुआ रहता है।  यहाँ आचार्य शंकर हमे आत्मनिरीक्षण करने का अद्वैत-वेदान्तिक मार्ग बतलाते हुए कह रहे है:  मैं तीनों अवस्थाओं का अनुभव करने वाला हूँ। 
शंकराचार्य कहते हैं - जिन विचारों को तुम देख रहे हो, वह तुम नहीं हो। विचारों के साथ अपने तादाम्य का त्याग कर दो, हम अपने भले-बुरे बिचारों के साथ चिपके रहना चाहते हैं। छोड़ देने के बाद भी मन -मस्तिष्क काम करता रहेगा यह गायब नहीं हो जायेगा। ऐसा कोई नहीं कहता कि जब मैं पहली बार कैम्प गया था तो मेरा दिमाग चला गया था।  I lost my mind when I went to Vedanta class विचार क्या हैं, क्या उन्हें हम देख सकते हैं ? जैसे खिड़की से धूप की रोशनो आती है तब उसमें उड़ते हुए छोटे छोटे डस्ट पार्टिकल्स को हम देख पाते हैं। in the constant sunlight of awareness thoughts comes . विचार भी चमकते हैं, और गायब होते जाते हैं। मैं दृश्य वस्तु नहीं हूँ, दुःख को देखने वाला हूँ , दुःखी नहीं हूँ ! क्या यह दुःख भी चला जायेगा ? अवश्य , यदि रहता भी है तो तुम दुखी नहीं होंगे। 
12. 👉अद्वैत वेदान्त में साक्षी की परिभाषा : यहाँ एक और सूक्ष्म बात समझना है -जैसे मणियों की माला गूँथने के लिए धागा ही मौलिक वस्तु है, वैसे ही चेतना की समस्त अवस्थाओं -'जग्रत,स्वप्न, सुषुप्ति'  आदि समस्त अवस्थाओं में चेतना ही मौलिक वस्तु है consciousness is primary !  जब हम मणियों की एक माला को देखते हैं, तब हम पाते हैं कि समस्त मणियों के भीतर एक ही धागा पिरोया हुआ है। यदि और थोड़ी गहराई से विचार करें तो पाएंगे कि - सारे मणि या मोती एक ही धागे पर स्थापित किये गए हैं, Pearl or Gems are set on the thread ! धागा ही मौलिक वस्तु है, नहीं तो सारे मोती बिखर जाते, और हम उनको गले का सुंदर हार नहीं कह पाते consciousness is primary, और हम सभी लोग उस चेतना में स्थापित हैं। ऐसा नहीं है कि चेतना हमारे भीतर से होकर गुजर रही है, यहाँ चेतना ही मौलिक वस्तु है - आचार्य शंकर कहते हैं - जो चेतना सभी अवस्थाओं में कायम रहती है, या साक्षी है -"वही चेतना मैं हूँ !"  'या जगत साक्षिणी सा एव अहं ' --जो जगत साक्षिणी हैं वही मैं हूँ
यद्यपि श्रीरामकृष्णदेव स्वयं को माँ जगदम्बा की सन्तान कहते थे, तथापि वे स्वयं ईश्वर के अवतार थे; यह बात उन्होंने स्वयं स्वामी विवेकानन्द से अपना शरीर त्याग करने से दो दिन पहले कही थी। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि देवी-देवताओं  की स्तुति करने से, वे प्रसन्न होते हैं और वांछित फल प्रदान  करते हैं। इसीलिए स्वामी जी के गुरुभाई स्वामी अभेदानन्द जी ने भी भगवान श्री रामकृष्णदेव की स्तुति करते हुए "श्रीरामकृष्णस्तवराजः "  की रचना की थी। उस स्तुति श्लोक में अद्वैत वेदान्त के प्रत्यक्ष साक्षी की परिभाषा देते हुए  स्वामी अभेदानन्द जी कहते हैं-
ओङ्कारवेद्यः पुरुषः पुराणो, बुद्धेश्च साक्षी निखिलस्य जन्तोः । 
  यो वेत्ति सर्वं न च यस्य वेत्ता, परात्मरूपो भुवि रामकृष्णः ॥१॥
अर्थात वे जो सबको जानते हैं परन्तु उनको कोई नहीं जानता, वह अग्रवर्ती और विराट पुरुष कौन है ? श्री रामकृष्ण ? नहीं , वेदान्त कहता है - 'तत्त्वमसि' -वह तुम ही हो ! तुम 'स्वयं' ही अपनी 'बुद्धि' के और यहाँ तक कि अपने "अहं " के भी साक्षी हो। 
[श्री रामकृष्ण देव अपने महिला शिष्यों को  भी 'पुरुष और स्वर्ण ' के साथ व्यवहार करते समय सावधानी बरतने, सतर्क (cautious या चौकन्ना ) रहने की सीख देते थे। और स्वामी त्यागानंद  लिखते हैं कि श्री रामकृष्ण अपने पुरुष शिष्यों को मन (बुद्धि) में रहने वाली काम-प्रवृत्ति (lust) पर विजय प्राप्त करने के लिए उन्हें सतर्क वाणी (cautionary words)"कामिनी -कांचन " से सदैव सावधान रहने की शिक्षा देते थे। इसी M/F शरीर में व्यवहार करते समय 'बुद्धि के साक्षी' पर प्रकाश डालते हुए  स्वामी अभेदानन्द जी ने श्रीरामकृष्णस्तवराजः की रचना की थी।  SRI RAMAKRISHNA STAVARAJAH composed by Swami Abhedananda . Ramakrishna also cautioned his women disciples against purusa-kanchana ("man and gold") and Tyagananda writes that Ramakrishna used Kamini-Kanchana as "cautionary words" instructing his disciples to conquer the "lust" inside the mind.
 बुद्धेश्च साक्षी  'बुद्धि के साक्षी' :  वह अग्रवर्ती और विराट पुरुष कौन है ? (अनुसन्धान वाक्य)  में 'अयं आत्मा ब्रह्म' से इंगित किया जाने वाला - आत्मा या परमसत्य कौन है ?श्री रामकृष्ण ? नहीं , वेदान्त कहता है - 'तत्त्वमसि' -वह तुम ही हो ! तुम 'स्वयं' अपनी 'बुद्धि'  और  अपने "अहं " के भी साक्षी हो। शान्तं -शिवं -अद्वैतं हमलोगों का ही नाम है। आत्मा का का ही एक नाम शांति है, ऐसा नहीं कि आध्यात्मिक आत्मा शांत होती है,आत्मा स्वभावतः शांति ही है। 
प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ मंत्र में जिसे - 'शान्तं, शिवं, अद्वैतं' कहा जा रहा है वह तुम ही हो। और मैं ही वह हूँ। उस चतुर्थ अवस्था (Fourth State) को ही  तुरीय अवस्था को कहते हैं। अहंकार ( the ego) का सम्बन्ध बुद्धि (intellect) के साथ रहता है। उनका निवास स्थान सूक्ष्म शरीर (subtle body) के सत्यज्ञानमय या  विज्ञानमय कोष में रहता है।  यहाँ बुद्धि को सत-असत-मिथ्या का अन्तर समझ में आने लगता है इसलिए इस कोष को विज्ञानमय कोष भी कहते हैं। यहाँ विज्ञान का अर्थ साइंस से न ले। विज्ञान का अर्थ विशेष ज्ञान या विशेष बोध। सत्यज्ञानमय कोष में बुद्धि की अवस्थिति, अपने जीवन को बोधपूर्वक जीने से मिलता है। मनोमय कोश से मुक्त होकर विज्ञानमय अर्थात सत्यज्ञानमय कोश में स्थित आत्मा को ही हम सिद्ध या संबुद्ध कहते हैं। इस कोश में स्थित आत्माएँ मन से मुक्त हो चुकी होती है। (विज्ञानं यज्ञं तनुते । कर्माणि तनुतेऽपि च । विज्ञानं देवाः सर्वे । ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते । विज्ञानं ब्रह्म चेद्वेद ।)  " जो मनुष्य 'बुद्धि'  की उपासना 'ब्रह्म' के रूप में करता है वो विवेकी मनुष्य दोष-मुक्त है, वो अपने आप को अन्य कोषों के साथ नहीं पहचानता, और शरीर की वासनाओं में (कामिनी -कांचन में) नहीं उलझता।"  ~तैत्तिरीय उपनिषद् 2:5:1
 सुबुद्धि ही मानवीय सदगुणों के विकास को उत्प्रेरित करती है , यह सुबुद्धि ही विज्ञान है। विज्ञान,  यज्ञों ( अच्छे कार्यों  ) का विस्तार करता है और कर्मों का भी विस्तार करता है, यह सब इन्द्रियरूपी देवता सबसे श्रेष्ठ ब्रह्म के रूप में विज्ञान की ही सेवा करते हैं।  मन, ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से बाहरी उद्दीपनों को प्राप्त करता है और अनुक्रियाओं को  कर्मेन्द्रियां को प्रेषित  करता है। यद्यपि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त उद्दीपन अलग और एक दूसरे  से भिन्न होते हैं किन्तु उनका एकीकृत अनुभव मन के द्वारा लाया जाता है। बुद्धि,  विभेदीकरण एवं विवेकीकरण की प्रक्रिया है, जो  प्राप्त उद्दीपनों  की जाँच करके  निर्णय लेती  है। यह मन को भी उन अनुक्रियाओं  के बारे में  सूचित करती है, जिन्हें  क्रियान्वित किया जाना है। स्मृति के आधार पर मन, सुखद या दुःखद छाप को बुद्धि से जोड़ता है। बुद्धि अपनी चिन्तन की क्षमता के साथ एक तर्कसंगत निर्णय लेती है जो मन -अहं को पसन्द नहीं भी हो सकता है, लेकिन अंततः व्यक्ति के  लिए लाभप्रद होता  है। मन-से जुड़ा, मन वस्तु चित्त ही सभी यादों  और ज्ञान का भंडार-गृह है। अनुभव का यह भण्डार-गृह, व्यक्ति के कार्यों का मार्गदर्शक कारक है। मन को संवेगों के केन्द्रस्थल के  रूप में वर्णित किया जा सकता है और बुद्धि उन क्षेत्रों  की जाचं करती है जिसमें वे कार्य करते हैं । मन की पहुँच केवल  ज्ञात जगत तक है लेकिन  बुद्धि अज्ञात स्थानों में जाकर उसकी जाँच कर सकती है, मनन कर सकती है और नई खोजों को पूरी  तरह समझ सकती है।
 चाहे तुम्हारा मन (Head) और शरीर (Hand) शांत रहता हो या नहीं रहता हो, जगत शांत हो या सतत् परिवर्तनशील रहता हो, किन्तु तुम (3rd 'H') साक्षी भाव से हमेशा के लिये अक्षुब्ध (undisturbed ) हो । वह शांति -साम्यभाव (equilibrium, संतुलन)  ही तुम्हारा स्वरूप है। मंत्र में जिसे - 'शान्तं, शिवं, अद्वैतं' कहा जा रहा है वह तुम ही हो। और मैं ही वह हूँ। उस चतुर्थ अवस्था (Fourth State) को ही  तुरीय अवस्था को कहते हैं।कारण शरीर "चित्त" द्वारा बनाया हुआ है। अविद्या का  छोटा सा कण "अणु " सार्वलौकिक प्रेम, चित्, के प्रभाव से आध्यात्मिक रूप ले लेता है, जिस प्रकार चुम्बकीय क्षेत्र में रखने पर लोहा चुम्बकत्व ग्रहण कर लेता है। उसी प्रकार चेतना (अनुभूति की शक्ति- pure consciousness) द्वारा संसाधित (processed) करने पर, इसे चित्त, मन  कहा जाता है। इसमें ही स्वयं के अलग होने का आभास होता है, जिसे 'अहंकार' (जड़ मन का अंश-reflected consciousness)  कहा जाता है। इस प्रकार चुम्बकत्व ग्रहण करने से मन के दो ध्रुव बन जाते है। एक सकारात्मक जिसे ''बुद्धि'' कहा जाता है और दूसरा नकारात्मक जिसे ''मानस' कहा जाता है। 'बुद्धि' का स्वाभाविक झुकाव 'सत्' की ओर है, और 'मानस' माया से आकर्षित है।    'Be and Make'- वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" में कारण शरीर (causal body) का रहस्य समझते ही जो बुद्धि, व्यष्टि अहं या अहंकार के साथ जुड़ी हुई थी, वह बुद्धि व्यष्टि अहं (अविद्या) को एक ही बार में लांघकर मृत्युस्वरूपिणी माँ आनन्दमयी की गोदी में जा बैठती है; अर्थात उसका पहले वाला व्यष्टि अहं माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित हो जाता है। इस रूपान्तरण को ही इसको मण्डूकप्लुति न्याय या मण्डूक न्याय कहते हैं। मुनि (मनन -शील) लोग अनेकता-भ्रम की निवृत्ति हो जाने (de-Hypnotized) के बाद जानते हैं कि आत्मा (infinite-existence-consciousness-bliss) चारो अवस्थाओं में निर्बाध रूप से कायम रहती  है। अतः उनके लिए यह स्पष्ट हो जाता है  कि एक ही आत्मा रहने के कारण , एक ही तरह के कई आत्मज्ञानी (पैगम्बर/लोकशिक्षक/नेता)  का होना सम्भव है! [दादा कहते थे मैंने ऐसे 7 लोगों को जानता हूँ जिन्होंने ब्रह्म को देखा है !] आधुनिक भाषा में कहें तो  प्रत्येक मनुष्य  "'3H' का एक सेट है" किन्तु माया से सम्मोहित (hypnotized) होकर स्वयं को  "B + M + I " का एक सेट समझते हैं। जो एक स्थूल शरीर, एक सूक्ष्म शरीर और एक कारण शरीर है।  यहाँ 'I' अक्षर का तात्पर्य बॉडी मास इंडैक्स वाले सूचकांक Index से नहीं वरन स्वयं को M/F स्त्री/पुरुष समझने वाले भ्रमित/सम्मोहित (hypnotized) अवस्था व्यष्टि अहं' वाले 'I' से है। 
इसी विषय को स्पष्ट करते हुए श्वेताश्वतरोपनिषद् 3/19 -में कहा गया है, " अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्‌॥ ( सः अपाणिपादः जवनः ग्रहीता सः अचक्षुः पश्यति अकर्णः शृणोति सः वेद्यम् (whatever is to be known) वेत्ति तस्य नास्ति वेत्ता तम् अग्र्यं महान्तं पुरुषम् आहुः॥) वह बिना हाथ का होते हुए सबको पकड़े हुए है। बिना पांव के वह तेजी से चलता है। वह नेत्र के बिना देखता है, कान के बिना सुनता है। और वह जानने योग्य हर चीज को वह जान लेता है। किन्तु  उसे कोई नहीं जानता। ज्ञानीजन कहते हैं कि वह अग्रवर्ती और विराट पुरुष है। वह अग्रवर्ती और विराट पुरुष कौन है ? क्या श्री रामकृष्ण ? नहीं , अद्वैत वेदान्त कहता है - 'तत्त्वमसि' -वह तुम ही हो ! तुम 'स्वयं' ही अपनी 'बुद्धि' के और यहाँ तक कि अपने "अहं " के भी साक्षी हो।
13. 👉 मण्डूकप्लुति न्याय या मण्डूक न्याय :  माण्डूक्य उपनिषद १२ श्लोकों वाला सबसे छोटा उपनिषद है, लेकिन इसको 'लौंगिया मिर्चा' बंगला में -धानी लंका (ধানি লঙ্কা) कहा जाता है। इस सर्वाधिक तीखी मिर्ची तुल्य माण्डूक्य उपनिषद में 'शीक्षा' इतने प्रत्यक्ष रूप से दी गयी है, कि जिस प्रशिक्षणार्थी ने पहले से किसी वेदान्त प्रकरण ग्रंथ (वाक्य-सुधा) आदि और कठोपनिषद को नहीं पढ़ा हो, वह थोड़ा असहज महसूस कर सकता है। क्योंकि माण्डूक्य उपनिषद में- नचिकेता या श्वेतकेतु जैसी कोई कहानी नहीं है, इसमें परम सत्य (Absolute Truth ) को बिल्कुल सीधा रख दिया गया है इसलिए इसको पढ़ने से पहले थोड़ी सावधानी रखनी आवश्यक है। क्योंकि  मंत्र के अर्थ को सही रूप में नहीं समझने पर कोई उसका गलत प्रयोग भी कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति यह नहीं जानता हो कि 'तेज धार वाली छुरी' दूसरे को कैसे पकड़ाई जाती है ? या उसने स्वयं अभी तक ठीक से पकड़ना नहीं सिखा हो, तो वह खुद को भी घायल कर सकता है। इसलिये बिल्कुल नए प्रशिक्षुओं को पहले ही दिन के लीडरशिप क्लास में इस उपनिषद से प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। 
माण्डूक्य उपनिषद श्लोक 7 में - आत्मा को चार चरणों में अभिव्यक्त होने वाला  बताया गया है :"सर्वं ह्येतद्‌ ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात्‌ ॥२॥ एतत् सर्वम् हि ब्रह्म सः "अयम् आत्मा ब्रह्म" -चतुष्पात्  -अर्थात यह सम्पूर्ण जगत 'ब्रह्म' (infinite-existence-consciousness-bliss) है, 'यह आत्मा ही ब्रह्म ( this Self is the Eternal)  है, एवं  इसके चार पाद हैं। आत्मा को चतुष्पाद कहने से तात्पर्य यह है कि, आत्मा स्वयं को चार अवस्थाएँ में अभिव्यक्त करता है-  जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। तुरीय (चतुर्थ) का शाब्दिक अर्थ है - चौथा। इस 'तुरीय' शब्द का प्रयोग पहली बार गौड़ापादाचार्य (७वीं सदी) ने माण्डूक्य कारिका में किया था।  इस आत्मा के अभिव्यक्ति की तीन अवस्था के विषय में हम सभी जानते हैं, किन्तु चौथी अवस्था को जानने की तकनीक इस उपनिषद में दी गयी है।
आत्मा वास्तव में कोई गूढ़ चीज नहीं है यह तुम्हारी ही चार अवस्थाओं में अभिव्यक्त हो रही है। हमें केवल एक बार यह खोज निकालना कि माण्डूक्य उपनिषद के 7 वें मंत्र (अनुसन्धान वाक्य)  में 'अयं आत्मा ब्रह्म' से इंगित किया जाने वाला - आत्मा या परमसत्य कौन है ? अथवा स्वयं आत्मसाक्षात्कार करके यह  लेना होगा कि "यह आत्मा ब्रह्म है !"  
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " तुमने उस सिंह-शावक की कहानी पढ़ी होगी ?  जिसे जब सिंह ने भेंड़ों की तरह में-में करते और मृत्यु के भय से थर-थर करते देखा तो उसे उस सिंह-शिशु पर तरस आ गया। सिंह-गुरु ने सोचा कि भ्रम में पड़े सिंह-शावक के देहाध्यास (सम्मोहन या अविवेक) को दूर करने के लिये, सबसे पहले उसमें 'विवेक' और 'श्रद्धा' को जाग्रत करके उसे डीहिप्नोटाइज करना होगा। जीवन्मुक्त सिंह-गुरु उस सिंह-शावक को डीहिप्नोटाइज ( 'D-hypnotize') करने के लिये एक तालाब के किनारे ले गया। अपने यथार्थ स्वरुप को जानलेने के बाद  उसका भेंड़पना (देह्ध्यास) मिट गया; और फिर वह भेंड़ों  झुण्ड में न लौटकर अपने परमहंस सिंह-गुरु के संग वन की ओर चल पड़ा। कथा में वर्णित सिंह- जीवन्मुक्त गुरु या समर्थ मार्गदर्शक 'नेता' का प्रतीक है, जो अपने 'ब्रह्मचारी' अर्थात आत्मजिज्ञासु शिष्य को 'द्रष्टा -दृश्य विवेक' के मौलिक नियमों' को समझाकर उसका सम्मोहन दूर करके उसे ब्रह्मविद् मनुष्य बनने और बनाने का मार्ग दिखला सकता है। 
मेढ़क को संस्कृत में मण्डूक कहते हैं। मेंढक चलता नहीं है, उछलता -कूदता है। और उछल -उछल कर अपने लक्ष्य में पहुँच जाता है। इस उपनिषद का अनुसरण करने से मनुष्य के शरीर में बैठी हुई जीवात्मा (शुद्ध बुद्धि-अहं रहती बुद्धि) एक ही बार में उछलकर परमात्मा के पास पहुँच जाएगी।इसको मण्डूकप्लुति न्याय या मण्डूक न्याय कहते हैं। 
['Be and Make'- वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" में कारण शरीर (causal body) का रहस्य समझते ही जो बुद्धि, व्यष्टि अहं या अहंकार के साथ जुड़ी हुई थी, वह बुद्धि व्यष्टि अहं (अविद्या) को एक ही बार में लांघकर मृत्युस्वरूपिणी माँ आनन्दमयी की गोदी में जा बैठती है; अर्थात उसका पहले वाला व्यष्टि अहं माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित हो जाता है। इस रूपान्तरण को ही इसको मण्डूकप्लुति न्याय या मण्डूक न्याय कहते हैं।  
स्वामी विवेकानन्द ने "15 सितंबर 1893 " को दिए गए भाषण के दौरान मण्डूकप्लुति  न्याय जुडी हुई एक छोटी सी कहानी कही थी :  एक कुएं में बहुत समय से एक मेंढक रहता था। वह वहीं पैदा हुआ था और वहीं उसका पालन-पोषण हुआ। धीरे-धीरे यह मेंढक उसी कुएं में रहते-रहते मोटा और चिकना हो गया। अब एक दिन एक दूसरा मेंढक, जो समुद्र में रहता था, वहां आया और कुएं में गिर पड़ा। 
कुएं के मेंढक ने पूछा- 'तुम कहां से आए हो?'
इस पर समुद्र से आया मेंढक बोला- मैं समुद्र से आया हूं। समुद्र! भला वह कितना बड़ा है? क्या वह भी इतना ही बड़ा है, जितना मेरा यह कुआं? और यह कहते हुए उसने कुएं में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलांग मारी। समुद्र वाले मेंढक ने कहा- मेरे मित्र! भला, समुद्र की तुलना इस छोटे से कुएं से किस प्रकार कर सकते हो? तब उस कुएं वाले मेंढक ने दूसरी छलांग मारी और पूछा- तो क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा है? 
समुद्र वाले मेंढक ने कहा- तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! समुद्र की तुलना तुम्हारे कुएं से कैसे हो सकती हैं? अब तो कुएं वाले मेंढक ने कहा- 'जा... जा! मेरे कुएं से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं है! झूठा कहीं का? अरे, इसे बाहर निकाल दो।'  
यही कठिनाई सदैव रही-  मैं हिन्दू हूं। मैं अपने क्षुद्र कुएं में बैठा यही समझता हूं कि मेरा कुआं ही संपूर्ण संसार है। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएं में बैठे हुए यही समझता है कि सारा संसार उसी के कुएं में है। मुस्लिम भी अपने क्षुद्र कुएं में बैठे हुए उसी को सारा ब्रह्मांड मानता है।
मैं अमेरिका वालों को धन्य कहता हूं, क्योंकि आप हम लोगों के इन छोटे-छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का महाप्रयत्न कर रहे हैं। मैं आशा करता हूं कि भविष्य में परमात्मा आपके इस काम में सहायता देकर आपका मनोरथ पूर्ण करेंगे।"
 मैं कौन हूँ ? जब बिना किसी संदेह के इस प्रश्न का उत्तर अपने भीतर से ही प्राप्त हो जायेगा, जिस दिन तुम स्वयं को जान जाओगे -अपने यथार्थ स्वरूप की अनुभूति हो जाएगी।  तो परम् सत्य को भी समझ जाओगे। जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति को स्पष्ट रूप से समझा देने के बाद, वेदान्त अब मेरी या तुम्हारी चौथी अवस्था, आत्मा की चौथी अपरिवर्तनीय अवस्था, या मेरे सत्य स्वरूप से मेरी चौथी - 'तुरीय अवस्था' से, मेरा परिचय करवाना चाहता है। यहाँ से उपनिषद का प्रशिक्षण प्रारम्भ होता है।
 जनक राजा जब 'महातेजा'  नहीं हुए थे, अर्थात जब राजा जनक ब्रह्मविद नहीं हुए थे उस समय की एक कहानी है। एक दिन स्वप्न में राजा जनक ने देखा कि भयंकर युद्ध में शत्रु राजा ने उसे पराजित कर दिया है और उसके सैनिक घायल अवस्था में, उन्हें घसीटते हुए शत्रु राजा के सामने ले जा रहे है। शत्रु राजा किसी कारणवश उन्हें फाँसी पर तो नहीं लटकाता, किन्तु देश-निकाला दे देता है। भीख माँगने से भी कोई उसको खाना नहीं देता है, कल तक जो राजा था आज वह दाने -दाने को मोहताज हो जाता है। दो -तीन भूखे प्यासे पैदल चलते हुए राजा जनक अपने राज्य की सीमा लाँघ कर पड़ोसी राज्य में पहुँच जाते हैं। इससे पता चलता है कि उनके राज्य का क्षेत्रफल या सीमा बहुत बड़ी नहीं रही होगी। किसी मंदिर में दरिद्रनारायण को खिचड़ी- भोजन करवाया जा रहा था, फटेहाल जनक भी कतार में बैठ जाते हैं। तब तक खिचड़ी खत्म हो जाती है, परोसने वाला कहता है, भले घर के लगते हो, दुर्भाग्य वश यहाँ आये हो-तुमको बाल्टी खुर्चन ही दे सकता हूँ। राजा जनक इतने भूखे थे कि बोले हाँ -हाँ जो है वही दे दो। पत्तल में कांपते हाथों से राजा जनक खिचड़ी खाने की सोंच ही रहे थे -कि एक चील्ह झपट्टा मारकर उनके पत्तल को धूल में गिरा देता है। हाहाकार करते हुए जनक विलाप करने लगते हैं। उनकी नींद टूट जाती है -तब देखते हैं मैं तो बिस्तर पर अपने महल में ही हूँ ! लेकिन उनकी सांसे उस समय भी जोर जोर से चलती रहती है। अगर वे भी हमलोगों की तरह साधारण गृहस्थ होते तो कहते -ओह, यह सपना था, चलो थोड़ा घूम आते हैं। किन्तु जनक तो दार्शनिक स्वाभाव के थे। 
वे कहते हैं - " मैं अभी जो देख रहा हूँ यह सच है, या जो सपने में देखा वह सच था ? 'वो सच या सच ?' रानी आकर पूछती है क्या हो गया ? सपने इतने जोर से बिगड़ किस पर रहे थे ? उससे भी कहते हैं -वह सच था या यह सच है ? वैद्य को बुलवाती है -उससे भी कहते हैं, यह सच है या वह सच था ? उस समय ट्विटर -फेसबुक नहीं था पर सुबह होते होते पूरे जनकपुर यह खबर फ़ैल गया कि राजा जनक पागल हो गए हैं। उनके गुरु अष्टावक्र जी को समाचार मिलता है कि जनक पागल हो गए हैं। वे जनक से मिलने राजदरबार में जाते हैं , तो देखते हैं मंत्री कोई फाइल साइन करवाने लाते हैं -तो साइन करने के बजाय उन लोगों से भी पूछ रहे हैं -'वह सच था या यह सच है ?' अष्टावक्र जी पूछते हैं राजा जनक आज आप कैसे हैं? उनसे भी कहते हैं -वह सच या यह सच ? अष्टावक्र जी वेदान्ती थे -वे सबों के मन को पढ़ सकते थे। वे उनके स्वप्न की अवस्था को याद दिलाते हुए पूछते हैं, जिस समय तुमको घसीट कर दुश्मन राजा के सामने ले जाया गया था, उस समय क्या तुम्हारे साथ ये सभी दरबारी, मंत्री लोग भी  थे, जो इस समय यहाँ बैठे हुए हैं ? राजा जनक को मानों धक्का लगा, अब वे जगे अर्थात चौंक गए ! अरे नहीं, और बोले  -ये सब तो कोई वहां नहीं थे। उस स्वप्न को देखते समय तुमको जिस कारण से भयंकर दुःख, संताप और पश्चाताप का अनुभव हो रहा था, क्या वैसा कोई कारण अभी दीख रहा है ? राजा जनक ने कहा -नहीं, अभी तो मैं आराम से अपने राजमहल में राजसिंहासन पर बैठा हूँ। अष्टावक्र बोले उसी तरह हे राजन, " न ये सच है, न वो सच था !" तब राजा जनक बिल्कुल चौंक पड़ते हैं। और अष्टावक्र जी से पूछते हैं -तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि इस जगत में कुछ भी सत्य नहीं है? जाग्रत अवस्था, स्वप्न अवस्था कुछ भी सत्य नहीं है ?
अष्टावक्र कहते हैं -जिस समय तुम्हारे पत्तल को बाज ने धूल में गिरा दिया था -उस समय भी तुम थे या नहीं? तुमने उस समय सब कुछ बिल्कुल जीवंत जैसा देखा था या नहीं ? जनक बोले हाँ -बिल्कुल देखा था! इस समय इतना बड़ा राजमहल है , तुम राज सिंहासन पर बैठे हो -यह भी सच नहीं है; किन्तु इसका अनुभवकर्ता तुम इस समय भी हो या नहीं ? हाँ, मैं इसे इंकार नहीं कर सकता मैं राजा हूँ इसका अनुभव कर रहा हूँ। तो तुम वहाँ भी थे और यहाँ भी हो ? न वो सच था न यह सच है किन्तु तुम स्वयं सत्य हो ! 'न ये सच न वो सच तुम ही सच !' (जिस दीठै सब दुःख जाये !) । One common awareness एक सामन्य चेतना जो तीनो अवस्थाओं को प्रकाशित करती है, और हर अवस्था में उपस्थित रहती है वेदान्त उसको ही यथार्थ 'मैं' आत्मा की चौथी सत्य अवस्था, या तुरीयं कहता है। किन्तु वह चौथी अवस्था नहीं हैं - वही वास्तविक आत्मा है, वही मैं हूँ, वही तुम हो। बाकी तीन अवस्था -स्थूल आत्मा-जाग्रत, सक्ष्म आत्मा-स्वप्न और कारण आत्मा-सुषुप्ति की आत्मा -प्रतिभासीकआत्मा (apparent self) है। आत्मा की प्रातिभासिक अवस्थाएं ये आती जाती हैं अपना जीवन यापन करती हैं -लीला करती रहती हैं, चली जाती हैं। जो साक्षी आत्मा (witness consciousness) इन सब अवस्थाओं को अनासक्त होकर देखती रहती है -वही तुम हो ! यह कहानी उपनिषदों के बुनियादी प्रशिक्षण का अच्छा उदाहरण है। 
परम सत्य की खोज करने की पद्धति या आत्मविश्लेषण करने की तकनीक माण्डूक्य उपनिषद में बतलायी गयी है। माण्डूक्य उपनिषद का 7 वां मंत्र सभी उपनिषदों का सार मंत्र है। जिसमें तुम्हारे सच्चे स्वरूप का वर्णन किया गया है - 
प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥
 प्रपञ्चोपशमम् - जिसमें सभी घटनाएँ विलीन हो जाती हैं ( in whom all phenomena dissolve)। शान्तम् -जो शान्त है। शिवम् -जो अच्छा (श्रेय-Good) है।अद्वैतम् - वह जो एक और अद्वितीय है। 
 (who is the One than whom there is no other)| चतुर्थम् - चौथा। मन्यन्ते -उसको ऋषियों ने माना है Him they deem | सः आत्मा - वह स्वयं आत्मा है ( he is the Self)  सः विज्ञेयः - वही ज्ञेय वस्तु (जानने वाला) तत्व है (he is the object of Knowledge) |
'जिसमें' समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् (माया) का विलय हो जाता है, जो 'पूर्ण शान्त' है, जो 'शिवम्' है-मंगलकारी है, और जो 'अद्वैत' है, 'उसे' ही आत्मा का चतुर्थ (पाद) माना जाता है; 'वही' है 'आत्मा', एकमात्र 'वही' 'विज्ञेय' (जानने योग्य तत्त्व) है। 
और वेदान्त का एक (महावाक्य) कहता है - 'तत्त्वमसि' -वह तुम ही हो ! तुम 'स्वयं' ही अपनी बुद्धि और अहं के साक्षी हो। शान्तं -शिवं -अद्वैतं हमलोगों का ही नाम है। आत्मा का का ही एक नाम शांति है, ऐसा नहीं कि आध्यात्मिक आत्मा शांत होती है,आत्मा स्वभावतः शांति ही है। चाहे तुम्हारा मन (Head) और शरीर (Hand) शांत रहता हो या नहीं रहता हो, जगत शांत हो या सतत् परिवर्तनशील रहता हो, किन्तु तुम (3rd 'H') साक्षी भाव से हमेशा के लिये अक्षुब्ध (undisturbed ) हो । वह शांति -साम्यभाव (equilibrium, संतुलन)  ही तुम्हारा स्वरूप है। मंत्र में जिसे - 'शान्तं, शिवं, अद्वैतं' कहा जा रहा है वह तुम ही हो। और मैं ही वह हूँ। उस चतुर्थ अवस्था (Fourth State) को ही  तुरीय अवस्था को कहते हैं।  
जो शुद्ध चेतना (Pure Consciousness) है, या परम् निरपेक्ष सत्य (Supreme Absolute) है; जहाँ प्रातिभासिक चेतना (Apparent consciousness) का लेषमात्र भी नहीं होता। राज-योग में साधक इसी निरोध-समाधि का अभ्यास करते हैं। ज्ञान-योग के साधक वेदान्ती लोग बाधा -समाधि (नेति-नेति) का अभ्यास करते हैं। जो इस बात को जानता है -और दृढ़ता से विश्वास करता है - वह चाहे ब्राह्मण हो अथवा चांडाल हो, वह वन्दनीय है!   
14.👉जैसे आत्मा में अभेद है वैसे ही सभी गुरुओं के शरीर में भी अभेद है  : 
मुनि (मनन -शील) लोग अनेकता-भ्रम की निवृत्ति हो जाने (de-Hypnotized) के बाद - इस बात को अच्छी तरह से जान लेते हैं, कि एक ही चेतना ( या आत्माinfinite-existence-consciousness-bliss) चारो अवस्थाओं में निर्बाध रूप से कायम रहती  है। अतः एक ही आत्मा (शुद्ध चेतना) एक रहने के कारण , एक ही सत्य को जानने वाले कई आत्मज्ञानी (पैगम्बर/लोकशिक्षक/नेता)  का होना सम्भव है!
 [दादा कहते थे मैंने ऐसे 7 लोगों को जानता हूँ जिन्होंने ब्रह्म को देखा है !- अर्थात वे सभी यह समझ गए थे कि ' अयं आत्मा ब्रह्म ' -दादा वैसे 7 लोगों को जानते थे जो यह कहने में समर्थ थे कि - This very Self is Brahman -I am not the knower of Brahman ; " I am Brahaman "  ] 
लेकिन जिस आत्मज्ञानी महापुरुष को हमलोग पहली बार किसी शरीर में (परमपूज्य स्वामी भूतेशानन्द के शरीर में)  पहचानते हैं, वही मेरे गुरु (मेरे मार्गदर्शक नेता-lighthouse) हैं ! आत्मज्ञानी-चेतना  (शुद्ध चेतना) एक ही होने के कारण बाद में जहाँ कहीं आत्मज्ञान की प्रतीति होती है -(परमपूज्य नवनीदा के शरीर के माध्यम से) उस शरीर में भी गुरु की ही प्रति-अभिज्ञा सम्भव है। जैसे विवाह के समय पत्नी के रूप में ग्रहण कर लेने पर उसे गर्भवती, पुत्रवती, पौत्रवती, युवा, प्रौढ़ा, वृद्धा तथा दुबली-मोटी , आदि रूप में देखने पर भी पत्नी (Bh) की प्रत्यभिज्ञा बनी ही रहती है। 
उस प्रज्ञान ( तुरीय या इन्द्रियातीत परम् सत्य)  की लौकिक अभिव्यक्ति तीन अवस्थाओं में होती है। इन्द्रियों के द्वारा विषयों के ग्रहण को जाग्रत अवस्था कहा जाता है। जाग्रतअवस्था में किये गए कर्म -संस्कारों की जो छाप चित्त पर पड़ती है, उन्हीं अनुभवों को नींद में देखना स्वप्न अवस्था कही जाती है। अन्तःकरण (मन) के भी उपसंह्रित (Subcontracted) हो जाने पर केवल कारण अविद्या का अनुभव सुषुप्ति अवस्था कहा जाता है। इस प्रकार जाग्रत अवस्था में व्यावहारिक पदार्थों का ज्ञान व्यावहारिक जीव  (empirical-self) को होता है। एवं स्वप्ना वस्था में प्रातिभासिक पदार्थों का ज्ञान साक्षी (witness consciousness) या प्रातिभासिक जीव' (the illusory self) को होता है। ब्रह्म के साथ एकत्व का अनुभव पारमार्थिक जीव (The Absolute self) को होता है। सुषुप्ति में सर्वाभाव का ज्ञान मात्र अवशिष्ट रहता है। 
जिस दृढबुद्धि पुरुष कि दृष्टि में (शुद्ध बुद्धि या प्रज्ञा में) यह सम्पूर्ण सृष्टि आत्मरूप से प्रकाशित हो रहा है वह चाहे ब्राह्मण हो अथवा चांडाल हो, वह वन्दनीय है यह मेरी दृढ निष्ठा है । 
यहाँ आदि शंकराचार्य ने  -" दृढ प्रज्ञापि यस्यास्तिचेत: अर्थात ऐसी प्रज्ञा जहाँ है -वह गुरु अर्थात ब्रह्म है"  कहकर; आत्मा से अभेद न दिखलाकर गुरु से अभेद बतलाते हुए, जीवनमुक्ति काल में व्यवहार में शब्द-अर्थ -प्रयोग को संभव सिद्ध कर दिया है। 
अनुभूति की दृष्टि से जिसको (श्रीरामकृष्णदेव को) पहले ईश्वर (माँ जगदम्बा) रूप से अनुभव किया जाता है, उसी को पुनः गुरु रूप से एवं अन्त में आत्मा (infinite-existence-consciousness-bliss ) रूप से जाना जाता है। ' दृढ प्रज्ञापि यस्यास्तिचेत: " प्रज्ञा जहाँ है -वह गुरु अर्थात ब्रह्म है !"  --इस कथन के द्वारा आचार्य शंकर ने ऋग्वेद से लिए गए इस प्रथम महावाक्य 'प्रज्ञानं ब्रह्म ' को बहुत सरलता से निरूपित  कर दिया है।  वेदों में ऋग्वेद को पहले गिना जाता है, अतः उसकी प्रथम उपस्थिति प्रथम श्लोक में होना स्वाभाविक ही है। [ 46 वें मिनट पर स्वामी आत्मप्रियानन्द द्वारा Double presence of Mind  शुद्ध अद्वैत वेदान्त का प्रारंभ : ] 
ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्रविस्तारितं
सर्वं चैतदविद्यया त्रिगुणयाशेषं मया कल्पितम् ।
इत्थं यस्य दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले
चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ २ ॥
-- मैं ब्रह्म ही हूँ और चेतन मात्र से व्याप्त यह समस्त जगत भी ब्रह्म स्वरूप ही है। और सकल जग उस चिन्मात्रा का (Pure Consciousness) का ही विस्तार है। त्रिगुणात्मक अविद्या के कारण यह समस्त दृष्य-जाल मेरे द्वारा ही कल्पित है। मैं सुखी, सत्य, निर्मल, नित्य, पर ब्रह्म रूप में हूँ जिसकी ऐसी दृढ बुद्धि है वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह साक्षात मेरे गुरुदेव ही है ऐसी मेरी दृढभावना (मनीषा) है ! ऐसा कहकर आचार्य शंकर उस चाण्डाल को नमस्कार करते है।
इस दूसरे श्लोक में आचार्य शंकर ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद से लिए गए महावाक्य - 'अहं ब्रह्मास्मि ' - के अर्थ का प्रतिपादन करते हैं। इस महावाक्य में जिस  'अहं' पद का प्रयोग हुआ है, उसका  वाच्यार्थ अन्तःकरण की अहंकारत्मिका वृत्ति (प्रतिबिंबित चेतना -reflected consciousness) में प्रतिफलित शुद्ध चित शक्ति (Pure Consciousness या माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट अहं -बोध) है !  
15.👉***वेदान्त ब्रह्माण्ड विज्ञान- [Vedantic Cosmology:  consciousness alone appear as it own object, Objects of taste, touch, smell, all the  sense objects are nothing but consciousness! अर्थात ] 
वेदांत कॉस्मोलॉजी के अनुसार एक ही 'अनुभवकर्ता' -द्रष्टा या साक्षी चेतना (witness consciousness) स्वयं में निहित माया शक्ति के द्वारा स्वयं को ही स्वाद, स्पर्श, गंध , शब्द अनुभूत की जाने वाली दृश्य वस्तुओं  के नाम-रूप में अभिव्यक्त करती है। साक्षी चेतना के द्वारा समस्त इन्द्रियग्राह्य वस्तुयें, या अनुभवकर्ता के अनुभव में आने वाले समस्त विषय चेतना (consciousness) से भिन्न अन्य कोई वस्तु नहीं है।      
 वेदान्त में इस जगत का विश्लेषण कैसे किया जाता है ? हमारे ऋषि-मुनि कहते हैं -जगत 5 तत्वों से बना है। आकाश, वायु, अग्नि , जल और पृथ्वी। जिस किसी भी बहुतिक वस्तु को हम देखते हैं वह सब पंच-भौतिक है। और ये 5 तत्व क्या हैं ? वेदांत ब्रह्माण्ड विज्ञान के अनुसार ये  सभी 5 तत्व माया के रूप-भेद (modifications- रूप-परिवर्तन) हैं All the 5 elements are modifications of Maya!   माया का जगत है। - इस बात को भारत के गाँवों में रहने वाला साधारण किसान भी समझता है कि सब माया है। क्यों की सब कुछ  माया से उपजा है, इसलिए माया से भिन्न नहीं है।
जिस समय तुम स्वप्नावस्था में स्वप्न देख देख रहे हो, उसी समय यदि तुम से यह पूछा जाये कि स्वप्न में देखे गए लोग, वस्तु , घटनाएं, क्या वे सब तुमसे अलग वस्तुएं हैं ? perhaps you are not sure---  स्वप्न देखते समय तुम शायद यकीन से कुछ बोल नहीं सकोगे।  जागने पर समझते हो, कि यह मेरा मन ही था जो स्वप्न इतने वस्तुओं की-विशाल भवनों की कल्पना कर रहा था। क्योंकि स्वप्न में तो तुम्हारे सिवा दूसरा कोई व्यक्ति या वस्तु तो होता ही नहीं है।  ठीक उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी वही चेतना  (Subject, द्रष्टा या witness consciousness स्वयं ही अपने को दृश्य (object) वस्तुओं में विभक्त कर लेती हैं, तथा हमलोगों को जो अनेक (नाम-रूप) वस्तुएं, स्वाद, स्पर्श, गन्ध आदि का अनुभव होता है, अनुभव में आने  सभी वस्तुएं चेतना के आलावा और कुछ नहीं है। " 
जैसे 'प्रत्याहार और धारणा' का अभ्यास करते समय जब हम अपने मन को देखने के लिए अपनी आँखों को मूँद लेते हैं, उस मन ही अपने को दो भागों में बाँट लेता है। द्रष्टा मन से जब दृश्य मन का अनुभव करते करते जब हमें द्रष्टा-दृश्य विवेक (विवेकज -ज्ञान) होता है, और हम यह समझ पाते हैं कि जिस प्रकार स्वप्न देखते समय स्वप्न की वस्तुओं का अस्तित्व नहीं होता। मनःसंयोग के समय  (जाग्रत अवस्था में भी) मन में उठने वाले विचार भी मन की कल्पनाएं या दृश्य ही हैं। तब हम भ्रममुक्त हो जाते हैं, तब हमें यह दृढ़ विश्वास हो जाता है, कि हमारी आत्मा (चेतना) या तुर्यगा की जादुई शक्ति ही अनेक नाम-रूपों में भास रही है। 
माया कैसे बनी है ? माया तीन गुणों से बनी है। आचार्य शंकर कहते हैं - सर्वं चैतदविद्यया त्रिगुणयाशेषं मया कल्पितम्  सब कुछ त्रिगुण-मयी (सत्व रज तम से युक्त) अविद्या से मेरे द्वारा ही कल्पित् है। माया भी  चेतना (awareness) से अलग क्यों नहीं है ? क्योंकि माया परिणाम नहीं विवर्त है: जगत् और सृष्टि के संबंध में वेदांतियों ने नैयायिकों के 'आरम्भवाद' (ईश्वर सृष्टि उत्पन्न करता है) और सांख्य के 'परिणामवाद' (सृष्टि का विकास उत्तरोत्तर विकार या परिणाम द्वारा अव्यक्त प्रकृति से आपसे आप होता है) के स्थान पर 'विवर्तवाद' की स्थापना की है।  जिसके अनुसार जगत् ब्रह्मा का विवर्त या कल्पित रुप है । रस्सी को यदि हम सर्प समझें तो रस्सी सत्य वस्तु है और सर्प उसका विवर्त या भ्रांतिजन्य प्रताति है । इसी प्रकार ब्रह्म  तो नित्य और वास्तविक सत्ता है और नामरुपात्मक् जगत् उसका विवर्त है । यह विवर्त अध्यास द्वारा होता है । जो नामरुपात्मक दृश्य हम देखते हैं वह न तो ब्रह्म का वास्तव स्वरुप ही है, न कार्य या परिणाम ही क्योकि ब्रह्म निर्विकार और अपरिणामी है । अध्यास के संबंध में कहा जा सकता है कि सर्प कोई अलग पदार्थ है तब तो उसका आरोप होता है । माया चेतना से भिन्न वस्तु नहीं है, क्योंकि माया ब्रह्म में ही आरोपित है।  (Maya is not separate from consciousness,  Maya is grounded in consciousness) यह ब्रह्म की ही शक्ति है, ब्रह्म से अलग इसका कोई अस्तित्व नहीं है। इसका अस्तित्व ब्रह्म से ही उधार लिया हुआ है। 'वेदान्त सार' सूत्र -33 में 'vedantic cosmology ' का मौलिक सिद्धान्त  दिया गया है-  
" वस्तु सच्चिदाननदमद्वयं ब्रह्म अज्ञानादि सकल जड समूहोऽवस्तु॥३३॥"  
 - परम् सत्य को ही वस्तु कहते हैं जो सत् चित् आनन्द स्वरूप (existence-consciousness-bliss) है,  (अद्वयम्) अद्वितीय ब्रह्म है ! तथा (अज्ञान-आदि-सकल जड-समूहः) अज्ञान या माया आदि जो भी सकल जड पदार्थ हैं वह सब (अवस्तु) अवस्तु कहलाते हैं। सत् वह है जिसकी प्रतीति तीनों कालों (भूत वर्तमान और भविष्य) में है। किसी अन्य साधन के बिना स्वयं प्रकाशमान होता हुआ जो अन्य सभी पदार्थों का प्रकाशक हो वह चित् है। सुखस्वरूप आनन्द है। वस्तु के अलावा, माया आदि जो कुछ भी है वह अवस्तु है। अज्ञान आदि सकल जड़ समूह जो दिखता है यह सब अवस्तु है। सृष्टि में दो वस्तु (साधारण प्रयोग में) हैं:  कार्य-रूप और कारण-रूप। प्रकृति कारणरुप है और यह सारा जगत रूप प्रपञ्च या सृष्टि कार्यरूप है। यह दोनों जड हैं। अन्तर केवल यह है कि प्रकृति अवक्त है और प्रपञ्च व्यक्त है। प्रकृति के स्थान पर अज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है। अज्ञान, अवस्तु, अविद्या, माया, प्रकृति, प्रपञ्च यह सब पर्यायवाची हैं। जड वह है जो अपने आस्तित्व का, या होने का  बोध नहीं कर सकता इसलिए वह अचेतन है। 
अतः सृष्टि और ब्रह्म को समझाने के लिये अलग अलग दर्शनों में अलग अलग तरीके से विभाग किये गये हैं। अद्वैत वेदान्ती तीन विभाग करते हैं - सत, असत, मिथ्या (अनिर्वचनीय माया) । वेदान्त में ‘वस्तु’ का अर्थ केवल ‘ब्रह्म’ होता है । वसति अस्ति वा इति वस्तु और केवल ब्रह्म ही "है"  - नेह नानास्ति किञ्चन।अद्वतीय सच्चिदानन्द  ब्रह्मतत्त्व ही वस्तु है और अविद्या (अज्ञान)  आदि उससे उत्पन्न समस्त जड़ पदार्थों का समूह (जगत्) अवस्तु है। सी जिसकी द्रिढ़ मति है कि मैं सुख से इतर (परे) नित्य परम निर्मल हूँ - वह (शरीर से) चाण्डाल हो या ब्राह्मण हो, वही मेरा गुरु है ऐसी मेरी मनीषा है ॥ (मैं ब्रह्म ही हूँ चेतन मात्र से व्याप्त यह समस्त जगत भी ब्रह्मरूप ही है । 
16. 👉तो यह सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड क्या है ? सारे पंच भूत माया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, और माया ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ! [The reality of Maya is Brahman] इसलिये यह जगत ब्रह्म के द्वारा तथा उसके माध्यम से परिव्याप्त है।  अर्थात ब्रह्म ही जगत का निमित्त और उपादान कारण है। सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में ब्रह्म ही  परिव्याप्त है, this world is pervaded through and through by brahman" इस कथन का तात्पर्य क्या हुआ ? हमलोग इस हॉल मैं बैठे हैं, इसमें एक बल्ब जला दिया जाय, तो जैसे बल्ब की रौशनी पूरे हॉल में व्याप्त हो जाती है, वैसे ही इस हॉल में जैसे लाईट व्याप्त परिव्याप्त है, क्या वैसे ही जगत में ब्रह्म व्याप्त हैं? जैसे एक जगत रूपी हॉल हो और उसमें लाईट की तरह ब्रह्म परिव्याप्त हैं ?  नहीं, जैसे कोई समुद्र है और उसमें हजारों-हजार लहरें उठ रहीं हैं ! all the waves are pervaded by water, सभी लहरें पानी से व्याप्त हैं, अर्थात उन समस्त लहरों में जल ही परिव्याप्त है। ऐसा नहीं है कि समुद्र में लहर है, और जल उसमें प्रविष्ट हो रहा है। जिस प्रकार लहर में व्याप्त प्रत्येक अंश (बूँद) जल है , every bit of Maya is Brahman , उसी प्रकार माया का प्रत्येक अंश ब्रह्म है। 
पंच भौतिक तत्व -(आकाश,वायु, अग्नि , जल , पृथ्वी) का प्रत्येक अंश ब्रह्म है। और पंच भौतिक तत्वों से निर्मित प्रत्येक पदार्थ (Matter) भी ब्रह्म ( शक्ति =Energy) ही है। ब्रह्म और शक्ति अभिन्न है !  जिस प्रकार जल में तरंगें दृष्टि गोचर होती हैं, उसी प्रकार जगत में ब्रह्म दृष्टिगोचर होते हैं। जैसे लकड़ी में टेबल की प्रतीति होती है। जैसे स्वर्ण में आभूषण दृष्टिगोचर होते हैं, मिट्टी में घड़ा की प्रतीति होती है। उसी प्रकार केवल ब्रह्म ही विश्व-ब्रह्माण्ड के रूप में प्रतीत हो रहे हैं, अर्थात ब्रह्म ही जगत में "नाम-रूप -व्यावहार" (Name , Form and Function) बन कर प्रतीत हो रहे हैं ! and the person who knows this beyond any doubt  --is my Guru ! और जो व्यक्ति इस 'सत्य' को बिना किसी सन्देह के जानता है; जो इस ज्ञान में दृढ़ता से प्रतिष्ठित है, कि समस्त दृष्य-जाल मेरे द्वारा ही त्रिगुणमय अविद्या से कल्पित है । मैं सुखी, सत्य, निर्मल, नित्य, पर ब्रह्म रूप में हूँ जिसकी ऐसी दृढ बुद्धि है वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है॥२॥ 
अब आचार्यशंकर यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद से लिए गए महावाक्य - 'अहं ब्रह्मास्मि ' का निरूपण करने के बाद। 'सामवेद ' के छान्दोग्य उपनिषद से लिए गए महावाक्य - 'तत्वमसि' का निरूपण करते हैं। 
शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरोः
नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याज शान्तात्मना ।
भूतं भावि च दुष्कृतं प्रदहता संविन्मये पावके
प्रारब्धाय समर्पितं स्ववपुरित्येषा मनीषा मम ॥ ३ ॥
शश्व -नश्वरं : everything is destructible and transient, जगत में दृष्टि-गोचर प्रत्येक वस्तु, सब कुछ नश्वर और क्षणिक है। and when it is destructible ? ये सभी पदार्थ कब से नश्वर है ? समस्त जड़ पदार्थ निरंतर, सदा से परिवर्तनशील है इसलिए नश्वर ही हैं ! Sanskrit verse for Universe, ब्रह्माण्ड के लिए संस्कृत पद्य है - जगत। संस्कृत में 'जगत' की परिभाषा है -' गच्छति इति जगत', जो जा रहा है, वही जगत है। संस्कृत में 'शरीर' शब्द की परिभाषा है - प्रतिक्षण शीर्यमाण इति शरीरम् प्रतिक्षण झड़ते जाने वाले को शरीर कहते हैं, जन्म,वृद्धि, जरा, मृत्त्यु । कायाकल्प- काया अर्थात (Body) या शरीर - जो सतत शीर्यमाण है, योग द्वारा उस शरीर का 'कल्प' किया जा सकता है, कल्प का वास्तविक अर्थ होता है बदलाव या परिवर्तन। यजुर्वेद से कायाकल्प करवाने पर भी हर शरीर को चाहे 100 वर्ष के बाद ही क्यों न हो, एक दिन नष्ट होना है। 
और जैसा कि वेदान्त ब्रह्माण्ड विज्ञान (Vedantic cosmology) के अनुसार  हमलोग जानते हैं कि ब्रह्म ही इस जगत का उपादान कारण (material cause) और निमित्त कारण (intelligent cause) दोनों हैं, तथा स्वयं को ही जगत के हर पहलू (शुभ-अशुभ) में प्रकट करते हैं। वही एक ब्रह्म (infinite-existence-consciousness-bliss) अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं। 
जिसको महामण्डल स्वामी विवेकानन्द की भाषा में कहता है कि,प्रत्येक मनुष्य : Hand + Head + Heart या शरीर + मन + आत्मा या-  '3H' का एक सेट है। शरीर वह महत्वपूर्ण माध्यम  है जिसके द्वारा आत्मा अपने आप को प्रत्यक्ष (जीवित) रूप में अभिव्यक्त करती है। अगर आत्मा को विधुत प्रवाह (बिजली) माने तो उसी से प्रकाशित "बल्ब" शरीर के सामान है। 'शरीर' संस्कृत भाषा का शब्द है जो देह या काया या 'भौतिक स्वयं' को संबोधित करता है। 
आधुनिक भाषा में कहें तो  प्रत्येक मनुष्य  "'3H' का एक सेट है" किन्तु माया से सम्मोहित (hypnotized) होकर स्वयं को  "B + M + I " का एक सेट समझते हैं। जो एक स्थूल शरीर, एक सूक्ष्म शरीर और एक कारण शरीर है।  यहाँ 'I' अक्षर का तात्पर्य बॉडी मास इंडैक्स वाले सूचकांक Index से नहीं वरन स्वयं को M/F स्त्री/पुरुष समझने वाले भ्रमित/सम्मोहित (hypnotized) अवस्था व्यष्टि अहं' वाले 'I' से है।   
[बॉडी मास इंडैक्स : अर्थात शरीर द्रव्यमान सूचकांक, ये बताता है कि शरीर का भार उसकी लंबाई के अनुपात में ठीक है या नहीं। उदाहरण के लिये भारतीयों के लिए उनका बीएमआई 22.1 से ज्यादा नही होना चाहिए। किसी जवान इंसान के शरीर का अपेक्षित भार उसकी लंबाई के अनुसार होना चाहिए, जिससे उसके शारीर का ढ़ांचा ठीक लगे। बीएमआइ को किसी व्यक्ति की लंबाई को दुगुना कर उसमें भार किलोग्राम से भाग देकर निकाला जाता है। बी-एम-आई ऊंचाई से वजन का संबंध कराने के लिए एक मुख्य सूचक है, एक व्यक्ति का वज़न किलोग्राम में, उनकी ऊंचाई मीटर में द्वारा विभाजन किया जाता है।बॉडी मास इंडेक्स (बी-एम-आई) = किलोग्राम / मीटर 2/बी-एम-आई  स्थिति/ 18.5 से नीचे  =  सामान्य से कम वज़न/ 18.5 – 24.9 तक सामान्य वजन/ 25 – 29.9 =  सामान्य से अधिक वज़न/  30 – 34.9  =  मोटापा/35 – 39.9 अति मोटापा/  > 40 अस्वस्थ (रूग्ण) मोटापा। ]
17. 👉वेदान्त में तीन शरीर और पंच कोष का सिद्धांत :  वेदान्तिक सृष्टि-तत्त्व और शरीर-संरचना  (Vedantic Cosmology) सिद्धान्त के अनुसार- मूल (अव्यक्त) प्रकृति सबसे पहले,  (महत-तत्व) बुद्धि,  फिर अहङ्कार, फिर ५ तन्मात्राओं (सूक्ष्मभूतों), ५ ज्ञानेन्द्रियों, ५  कर्मेन्द्रियों और मन, फिर तन्मात्राओं से ५ स्थूलभूतों (आकाश, वायु, तेज, जल और  पृथ्वी) में परिवर्तित होती है । "चेतना की ऊर्जा से ही ब्रह्माण्ड में भार (मास) उत्पन्न होता है, जिसके द्वारा पदार्थ जन्म लेता है। कारण शरीर ही सूक्ष्म  शरीर और स्थूल शरीर का जनक या कारण है। और पदार्थ से ही जीवन, मस्तिष्क और संसार का निर्माण होता है।"  ~ मुण्डक उपनिषद्। अब इन तत्त्वों से हम शरीर की रचना को समझते हैं। वेदान्त के अनुसार मनुष्य के तीन शरीर या तीन देह होती है-
☛ स्थूल शरीर (gross body)
☛ सूक्ष्म शरीर  (subtle or astral body) 
☛ कारण शरीर (causal body)
१) स्थूल शरीर – भौतिक – यह शरीर पञ्च सूक्ष्मभूतों और पञ्च प्राणों (प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान)  का बना होता है । जो हमें अपने कर्मेन्द्रियों से साक्षात् दिखता है – आंखों से दिखता, कानों से सुनाई पड़ता  (वाणी, ताली, आदि), नाक से सूंघने में आता, जिह्वा से स्वाद लेने में आता और त्वचा  से छूने में आता है । इसी शरीर को सर्जन काटकर देख सकता है ।
२) सूक्ष्म शरीर – यह शरीर सूक्ष्म-तत्त्वों से बना होता है । इसलिए इन्द्रियगोचर नहीं  होता । यह शरीर पञ्च ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धि का बना होता है । इनकी  चेष्टा जीव की प्रवृत्ति के अनुसार होती है । इसलिए यह शरीर वस्तुतः जीव के स्वभाव  को कार्यान्वित करता है । इसी के कारण, स्थूल शरीर-रचना एक समान होने पर भी, जीव  स्वभाव से भिन्न होते हैं । इस स्वभाव-भेद से ही इस शरीर का अनुमान भी होता है । 
३) कारण शरीर – आत्मा के कारण शरीर (causal body) का विवरण गीता और उपनिषदों के सिवा अन्य किसी धर्मों के ग्रंथों में प्राप्त नहीं होता है। कारण शरीर प्राथमिक रूप से 'माया' का बना हुआ है, इसी वजह से उसमे माया के सभी गुण है। इसके निम्न गुण उल्लेखनीय है: अनादी (जिसका प्रारंभ और अंत न हो), अविद्या (अज्ञान) तथा अनिवर्चनीय  (अकथनीय या जिसका वर्णन न किया जा सके)। मरने के बाद स्थूल और सूक्ष्म शरीर राख हो जाते है या प्रकृति में विलीन हो जाते है। परन्तु कारण शरीर मायान्वित (या माया से ग्रस्त) आत्मा के साथ ही जाता है, जहाँ भी वो जाये, जब तक की वो सम्पूर्ण रूप से मुक्त न हो। जैसे ही आत्मा माया से बने इस कारण शरीर से मुक्ति पा लेती है, वो ब्रह्म की अवस्था में विलीन हो जाती है। हिन्दू धर्म में आत्मा की इस मुक्ति को "आत्यन्तिक मोक्ष" या सम्पूर्ण मुक्ति कहा गया है। इसका अभिप्राय जन्म और मृत्यु के चक्र या संसार चक्र से मुक्ति से भी है क्योंकि इसके उपरांत आत्मा को फिर कभी मृत्यु लोक में नहीं आना पड़ता यदि ईश्वर की इच्छा भी यही हो तो।
कारण शरीर "चित्त" द्वारा बनाया हुआ है। अविद्या का  छोटा सा कण "अणु " सार्वलौकिक प्रेम, चित्, के प्रभाव से आध्यात्मिक रूप ले लेता है, जिस प्रकार चुम्बकीय क्षेत्र  में रखने पर लोहा चुम्बकत्व ग्रहण कर लेता है। उसी प्रकार चेतना (अनुभूति की शक्ति- pure consciousness) द्वारा संसाधित (processed) करने पर, इसे चित्त, मन  कहा जाता है। इसमें ही स्वयं के अलग होने का आभास होता है, जिसे 'अहंकार' ('I'- जड़ मन का अंश-reflected consciousness)  कहा जाता है। इस प्रकार चुम्बकत्व ग्रहण करने से मन के दो ध्रुव बन जाते है। एक सकारात्मक जिसे ''बुद्धि'' कहा जाता है और दूसरा नकारात्मक जिसे ''मानस' कहा जाता है'बुद्धि' का स्वाभाविक झुकाव 'सत्' की ओर है, और 'मानस' माया से आकर्षित है। 
यह शरीर मूल प्रकृति का बना होता है । वस्तुतः, यह आकाश की तरह सर्वत्र  व्यापक है । और आकाश के ही समान, जितने भाग में हमारा शरीर स्थित है, उतने भाग को  हम अपने शरीर का अंश मान सकते हैं । विकार-रहित प्रकृति का बना होने के कारण, इसमें  ज्ञान का पूर्णतया अभाव होता है। ऋषियों  ने इस अवस्था को गाढ़ निद्रा कहा है।
हमारे शास्त्रों में 'कारण शरीर' को मुख्यतया आत्मा या सच्चिदानन्द से संग्लित (included-अन्तर्विष्ट)  बताया गया है। स्थूल शरीर को अन्नमय कोष, सूक्ष्म शरीर को प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोष मिलाकर कहते हैं, तथा कारण शरीर आनंदमय कोष है। कारण शरीर ही सूक्ष्म  शरीर और स्थूल शरीर का जनक या कारण है। 
 यदि कोष भी शरीर के ही विभाग हैं, तो स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर और पञ्च कोषों  में भेद क्यों किया गया है? प्रतीत होता है कि ये  कोष हमारी अनुभूति के अनुसार हैं – हम शरीर को इन रूपों में अनुभव करते हैं । इसलिए  ये योगी के एकाग्रता का अभ्यास  करने में सहायता के लिए हैं ।   इन पंच कोषों का विभाग पूर्णतया सूक्ष्मता के अनुसार नहीं  है, जबकि ३ शरीरों का विभाजन इसी के अनुसार निर्धारित है  विज्ञानमय कोष में ज्ञानेन्द्रिय (मस्तिष्क में अवस्थित स्नायु-केन्द्र) हैं, जो कि पूर्व के मनोमय कोष के मन और  अहङ्कार से स्थूलतर है । यहां स्पष्ट हो जाता है कि अन्नमय कोश स्थूल शरीर ही है । प्राणमय,  मनोमय और विज्ञानमय कोश सूक्ष्म शरीर के अंश हैं, और आनन्दमय कोश कारण शरीर है । आनन्दमय कोश भी प्राकृतिक है, परन्तु वहां वही आनन्द  मिलता है, जो सुषुप्ति की अवस्था में मिलता है – या शायद  उससे अधिक भी ! 
मनःसंयोग का अभ्यास (प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास) करते समय हमें पहले अपने अन्नमय कोष के किसी स्थान बिशेष में चित्त को धारण करना चाहिए, जैसे भौहों के बीच में, नाभि पर, या हृदय में ? आदि ।  इसके उपरान्त हमें प्राणमय शरीर – अपनी श्वास-प्रश्वास पर ध्यान लगाना चाहिए। यहां  स्थिर हो जाने पर, हमें मनोमय कोश – जो हिलने-डुलने, देखने-सुनने, आदि का सङ्कल्प  करता है – उसको अनुभव करना चाहिए । इसके बाद भी हमारी बुद्धि में विचार आ रहे होंगे । यह विज्ञानमय कोष है । विचारों के स्थिर हो जाने पर, हम अपने-आप आनन्द का अनुभव  करने लगेंगे । यही आनन्दमय कोश है ।
मनुष्य की शुद्ध चेतना (pure consciousness) पांच परतों या कोषों से केंद्रीय बिंदु के आसपास ढकी हुई है, जहाँ चित्त (मन) का निवास है। स्थूल शरीर को अन्नमय कोष कहते हैं,सूक्ष्म शरीर को प्राणमय कोष, मनोमय कोष और विज्ञानमय कोष, तथा कारण शरीर को आनंदमय कोष कहते हैं।  वस्तुतः जीवात्मा इन सभी शरीरों और कोषों से भिन्न है, और स्वतन्त्र सत्ता वाला है ।  सूक्ष्म और कारण शरीर सृष्टि में आत्मा से चिपक जाते हैं, फिर सर्गान्त में ही  छूटते हैं । मुक्तात्मा का भौतिक सूक्ष्म-शरीर तो छूट जाता है, परन्तु स्वाभाविक शरीर बना रहता है, और सर्गान्त में छूटता है । परन्तु इस विषय में विद्वानों में  मतभेद रहा है । कुछ का मानना है कि मुक्तात्मा प्रकृति से सर्वथा रहित हो जाता है । कारण शरीर ही संसार से बंधी हुई आत्मा है। कारण शरीर पिछले जन्म में अर्जित समस्त ज्ञान और जानकारी को बीज रूप में संजोता है। सांसारिक सुखों के प्रति गहन आसक्ति या "वासना" इसके साथ ही जाती है। आत्मा कारण शरीर से बड़ी दृढ़ता से बंधी हुई है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि संसार की आसक्ति से बंधी हुई आत्मा, "मृत्यु लोक", (अर्थात ब्रह्माण्ड में स्थित वो जगत जहाँ जीवन मौजूद है), में जन्म लेती है। इसी लोक में वह जीवात्मा  जन्म, जीवन और मृत्यु का आभास करती है, इसलिए इस लोक को "मृत्यु लोक" या मौत अथवा विनाश का लोक कहा जाता है।
जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, (पंचभौतिक पंचेन्द्रियग्राह्य जगत है) उसे जड़ (परिवर्तनशील, नश्वर या मिथ्या) कहते हैं।  और हमारा शरीर जड़ जगत का हिस्सा है। जो लोग शरीर के ही तल पर जी रहे हैं वह जड़ बुद्धि कहलाते हैं, उनके जीवन में भोग और संभोग का ही महत्व है। केवल स्थूल जड़ या अन्नरसमय कोष दृष्टिगोचर होता है। प्राण और मन का अनुभव होता है किंतु केवल जाग्रत मनुष्य को ही विज्ञानमय कोष समझ में आता है। जो विज्ञानमय कोष को समझ लेता है वही उसके स्तर को भी समझता है। अभ्यास और जाग्रति द्वारा ही उच्च स्तर में गति होती है। अकर्मण्यता से नीचे के स्तर में चेतना गिरती जाती है। इस प्रकृति में ही उक्त पंच कोषों में आत्मा विचरण करती है किंतु जो आत्मा इन पाँचों कोष से मुक्त हो जाती है ऐसी मुक्तात्मा को ही ब्रह्मलीन कहा जाता है। यही मोक्ष की अवस्था है। 
हमारे वेद और उपनिषद के अनुसार आत्मा/चेतना की अभिव्यक्ति को समझने के लिए इसे पाँच कोष  (5 Sheaths) में बाटा गया है! अर्थात जीव की आत्मा पांच आवरण से (पंच कोषों से)  ढकी हुई है। " एक आत्मा है जो अन्नमय है-एक अन्य आंतर आत्मा है, प्राणमय जो कि उसे पूर्ण करता है- एक अन्य आंतर आत्मा है, मनोमय-एक अन्य आंतर आत्मा है, विज्ञानमय (सत्यज्ञानमय) -एक अन्य आंतर आत्मा है, आनंदमय।"~तैत्तरीयउपनिषद।  
भावार्थ :  जड़ (अन्नमय) में प्राण; प्राण में मन ; मन में विज्ञान और विज्ञान में आनंद का वास होता है । यह चेतना या आत्मा के रहने के पाँच स्तर हैं। ऐसा कह सकते हैं कि यह पाँच स्तर आत्मा का आवरण है। जो जड़ (अन्नमय या स्थूल शरीर) है, उसमें में प्राण है; प्राण में मन; मन में विज्ञान और विज्ञान में आनंद है। यह चेतना या आत्मा के रहने के पाँच स्तर हैं। आत्मा इनमें एक साथ रहती है। यह अलग बात है कि किसे किस स्तर का अनुभव होता है। ऐसा कह सकते हैं कि यह पाँच स्तर आत्मा का आवरण है। 
 ईश्वर एक ही है किंतु जीवात्मायें (आत्माएँ) अनेक। यह अव्यक्त, अजर-अमर आत्मा पाँच कोषों को क्रमश: धारण करती है, जिससे की वह व्यक्त (दिखाई देना) और जन्म-मरण के चक्कर में उलझ जाती है। यह पंच कोष ही पंच शरीर है। सर्वोच्च स्तर आनंदमय है और निम्नतम स्तर जड़ (अन्नमय) ।  पहला स्थूल शरीर  दूसरा सूक्ष्म शरीर तीसरा कारण शरीर । इन पंच कोषों से मिलकर ही तीन शरीर बनते है। स्थूल शरीर के अर्तगत अन्नमय  कोष आता है। सूक्ष्म शरीर के अर्तगत प्राणमय व मनोमयकोष आते है। कारण शरीर के अर्तगत विज्ञानमय व आन्दमय कोष आते है । 
कोई जीवात्मा (आत्मा)  किस शरीर में रहती है यह उसके ईश्‍वर समर्पण और संकल्प पर निर्भर करता है।कोई भी आत्मा अपने कर्म प्रयास से इन पाँचों स्तरों में से किसी भी एक स्तर का अनुभव कर उसी के प्रति आसक्त रहती है। सर्वोच्च स्तर आनंदमय है और निम्न स्तर जड़। जो भी दिखाई दे रहा है उसे जड़ कहते हैं और हमारा शरीर जड़ जगत का हिस्सा है। जो लोग शरीर के ही तल पर जी रहे हैं वह जड़ बुद्धि कहलाते हैं, उनके जीवन में भोग और संभोग का ही महत्व है। 
इन पाँच कोषों को यदि एक माला के पाँच मनके समझें तो आत्मा उस माला के धागे के समान है जो पाँचों मनकों से भिन्न होते हुए भी उन सबको एक माला का अंग बनाये रखने का माध्यम है। इस प्रकार  यह आत्मा ही  इन पंचकोषों का आधार है। इस सारे साधना मार्ग की तुलना रेशम के उस कीड़े से की जाती है जो स्वयं अपने चारो तरफ एक जाल बुन लेता है जिसे कोकून कहा जाता है। कोकून में फंसा वह कीड़ा उस जाल से निकलने का भरसक पयास करता है। लगातार पयास से वह अन्ततः उस जाल को तोड़कर बाहर निकलने में सफल हो जाता है। इसी पकार हमारी आत्मा भी उस रेशम के कीड़े की तरह इन पंचकोषों के जाल में फंसी हुई है। लगातार अभ्यास और वैराग्य के द्वारा यह आत्मा इन पंचकोषों की परतें तोड़कर अपने आपको मुक्त कर सकती है। ऐसी मुक्त आत्माओं में वह शक्ति आ जाती है कि वे समाज के अन्य व्यक्तियों के लिए भी विशाल पेरणा का स्रोत -प्रकाश स्तम्भ (Light House) बन जाते हैं। 
 आत्मा (चेतना) की जड़ अभिव्यक्ति के पाँच कोष  को समझने के लिए  श्रुति-परम्परा [ वेदान्त -शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा]  में प्रशिक्षित किसी जीवन मुक्त शिक्षक के पास जाकर सीखना आवश्यक होता है, ताकि भावी लोक-शिक्षक बनने और बनाने की श्रुति परम्परा निरन्तर कायम रहे।  इसी भाव को समझाने के लिए  तैत्तरीयोपनिषद में  समझने की 'शिक्षा' को दीर्घ 'ई' की मात्रा लगाकर "शीक्षा *" कहा गया है, और इस प्रकरण का नाम "शीक्षा -वल्ली *" रखा गया है। 
वेदान्त ब्रह्माण्ड विज्ञान : वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1.अन्नमय, 2.प्राणमय, 3.मनोमय, 4.विज्ञानमय और 5.आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञान सम्मत है, जो यहाँ सरल भाषा में प्रस्तुत है। 
1.अन्नमय कोष : – “अन्न अर्थात भोजन यानि भोजन से बना शरीर। जो त्वचा से लेकर अस्थि-पर्यन्त का समुदाय पृथ्वीमय है। अर्थात् दृश्य शरीर ।  चेतना के सबसे बाहरी कवच को भोजन का कोष या अन्नमय कोष कहते है। उपनिषदों में अन्न को  इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि मस्तिष्क का निर्माण अन्न के ही सूक्ष्म तत्वों से होता है। अतः कोई भी मनुष्य जो परम सत्य को पाने की इच्छा रखता है उसके लिए  यथासम्भव  शुद्ध, ताजा  और सात्विक भोजन करना अच्छा है।  " अन्न से ही सभी जीवो का जन्म होता है, तथा जन्म लेने के कारण विकास।  सभी जीवित प्राणी अन्न को अपना भोजन बनाते है और मरने के बाद खुद अन्न के भोजन बन जाते है।" ~ (तैत्तिरीय उपनिषद् 2:2:1)  मनःसंयोग या मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने के लिए सुबह-शाम दो बार आसन पर बैठते हैं, तब सबसे पहले  हम अन्नमय कोश के बारे में सचेत हो जाते है। और स्थिर होकर सुखासन या अर्धपद्मासन में बैठने के बाद  हम अन्दर की तरफ बढ़ते है एक कोष  से दुसरे कोष की ओर।
यह दिखाई देने वाला जड़ जगत जिसमें हमारा शरीर भी शामिल है यही अन्न से बना शरीर अन्नमय कहलाता हैं। सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और हमारी यह पृथवि, आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। इस जड़ (Matter)  को ही शक्ति (Energy) कहते हैं- अन्नमय कोष कहते हैं। इसीलिए वैदिक ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है। यह प्रथम कोश है जहाँ आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करती रहती है। शरीर कहने का मतलब सिर्फ मनुष्य ही नहीं सभी वृक्ष, लताओं और प्राणियों का शरीर।‍ जो आत्मा (जीवात्मा)  इस शरीर को ही सब कुछ मानकर भोग-विलास में निरंतर रहती है वही तमोगुणी कहलाती है। इस शरीर से बढ़कर भी कुछ है। जड़बुद्धि का मतलब ही यही है वह इतना बेहोश है कि उसे अपने होने का होश नहीं जैसे पत्थर और पशु। इस जड़-प्रकृति जगत से बढ़कर भी कुछ है। जड़ का अस्तित्व मानव से पहिले का है। प्राणियों से पहिले का है। वृक्ष और समुद्री लताओं से पहिले का है। पहिले पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथवि, आकाश) की सत्ता ही विद्यमान थी। यही आत्मा की पूर्ण सुप्तावस्था है। यह आत्मा की अधोगति है। फिर जड़ में प्राण, मन और बुद्धि आदि सुप्त है। इस स्थूल जड़ शरीर को पुष्‍ट और शुद्ध करने के लिए यम, नियम और आसन का प्रवधान है। इस अन्नमय कोश को प्राणमय कोश ने, प्राणमय को मनोमय, मनोमय को विज्ञानमय और विज्ञानमय को आनंदमय कोश ने ढाँक रखा है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह क्या सिर्फ शरीर के तल पर ही जी रहा है या कि उससे ऊपर के आवरणों में। किसी तल पर जीने का अर्थ है कि हमारी चेतना या जागरण की स्थिति क्या है।
2.प्राणमय कोष (ऊर्जा) : – पञ्च प्राण-वायुओं का बना । इस पंचभौतिक स्थूल शरीर 'अन्नमय कोष' से अलग और दूसरा महत्वपूर्ण कोष है प्राणमय कोष । यह भौतिक कोष के भीतर है, तथा उसी के रूप के सामान है। हमारे पंच भौतिक  शरीर की भीतर है प्राणिक शरीर।  प्राणिक शरीर के बिना स्थूल भौतिक  शरीर जीवित नहीं रह सकता।  प्राणिक शरीर सबसे वस्तुगत सूक्ष्म शरीर है।  प्राणिक शरीर में जीवन की प्रवाह धारा सूक्ष्म प्रणाली में बहती है जो की भौतिक स्नायु तंत्रिका के अनुरूप है। संस्कृत में इन  तंत्रिकाओं को नाड़ी-केन्द्र कहा जाता है। यह सभी इंद्रियों का कार्यालय है। यही से जीव अपने प्राण को प्राप्त करते है।  ये जीवनकाल का माप भी बतलाता है। जो इस कोष को ब्रह्म  के रूप में उपासना करता है, वो अपने जीवनकाल का सम्पूर्ण समय जीता है। प्राणिक शरीर अपनी जीवन ऊर्जा को भोजन, वायु और सूर्य के प्रकाश से ग्रहण करता है। इसीलिए कोई  योगी भोजन और श्वास दोनों पर ध्यान देता है। सूक्ष्म प्राणिक शरीर को स्वस्थ रखने से स्थूल भौतिक शरीर भी  स्वास्थ बना रहता है।
 प्राणिक शरीर ही वास्तव में भौतिक शरीर के स्वास्थ और जीवनकाल को निर्धारित करता है। शरीर में ही प्राणवायु है जिससे व्यक्ति भावुक, ईर्ष्यालु, क्रोधी या दुखी होता है।  अष्टांग योग में शरीर  को स्वस्थ रखने और  यम-नियम-आसन के बाद  प्राणायाम को भी उसका अंग कहा गया है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने योग्य गुरु के सानिध्य में रहकर  उचित  प्रशिक्षण  प्राप्त किये बिना प्राणायाम का विशेषकर कुम्भक आदि का अभ्यास करने से मना किया है। क्योंकि इससे दिमाग बिगड़ भी सकता है। हमारे लिए आसान पर बैठकर कुछ लम्बी- गहरी सांसे लेना और छोड़ना (कपालभाति-अनुलोमविलोम)  ही पर्याप्त है।  इस प्रकार आसन में बैठकर गहरी -लम्बी सांसे लेने और छोड़ने का अभ्यास करने से हम प्राणमय कोष के बारे में सचेत (aware) हो जाते है।  और उसकी खोजबीन के बाद हम अन्दर की तरफ बढ़ते है एक कोष के दुसरे की ओर। 
जड़ (अन्नमय) में ही प्राण के सक्रिय होने से अर्थात वायु तत्व के सक्रिय होने से प्राण धीरे-धीरे जाग्रत होने लगा। प्रथम वह समुद्र के भीतर लताओं, वृक्षों और न दिखाई देने वाले जीवों के रूप में फिर क्रमश: जलचर, उभयचर, थलचर और फिर नभचर प्रणियों के रूप में अभिव्यक्त हुआ। जहाँ भी साँस का आवागमन दृष्टिगोचर होता है, महसूस होता है वहाँ प्राण सक्रिय है। आत्मा ने स्वयं को स्थूल से ऊपर उठाकर 'प्राण' में अभिव्यक्त किया।
[सूर्य (sun) की किरणें बुद्धि को उज्ज्वल बनाती हैं। सूर्य का ताप प्राण में ऊष्मा का संचार करता है, और इस प्रकार शरीर की गर्मी बनी रहती है। जिस प्रकार यह मन आत्मा और प्राण के बीच एक विभाजक दीवार (dividing wall) की तरह काम करता है, उसी प्रकार प्राण (प्राण वायु vital air या energy ऊर्जा) भी मन और शरीर के बीच चारदीवारी (boundary-wall) है।]  
जब आत्मा ने स्वयं को स्थूल (जड़) में सीमित पाया तब विकास की प्रक्रिया शुरू हुई। इस तरह पृथ्वी में स्थूल का एक भाग जाग्रत या सक्रिय होकर प्राणिक होने लगा। यह प्राण ही है जिसके अवतरण से जड़ जगत में हलचल हुई और द्रुत गति से आकार-प्रकार का युग प्रारम्भ हुआ। प्रकृति भिन्न-भिन्न रूप धारण करती गई। प्राण को ही जीवन कहते हैं। प्राण के निकल जाने पर प्राणी मृत अर्थात जड़ माना जाता है। यह प्राणिक शक्ति ही संपूर्ण ब्रह्मांड की आयु और वायु है अर्थात प्राणवायु ही आयु है, स्वास्थ्य है। पत्थर, पौधे, पशु और मानव के प्राण में जाग्रति और सक्रियता का अंतर है। देव, मनुष्य, पशु आदि सभी प्राण के कारण चेष्ठावान है। मानव में मन ज्यादा सक्रिय है किंतु जलचर, उभयचर, नभचर और पशुओं में प्राण ज्यादा सक्रिय है, इसीलिए पशुओं को प्राणी भी कहा जाता है। ऐसा तैतरिय उपषिद के ऋषि कहते हैं। उपनिषद वेद का हिस्सा है। ईर्ष्या, द्वैष, संघर्ष, वासना, आवेग, क्रोध और इच्छा यह प्राण के स्वाभाविक गुण है। जो मानव इन गुणों से परिपूर्ण है वह प्राणी के अतिरिक्त कुछ नहीं। प्राण को पुष्ट और शुद्ध करने के लिए 'प्राणायाम' का प्रवधान है।
 ‘प्राण और आत्मा’ में क्या अन्तर है? सद्गुरु : हिन्दू संस्कृति में, ‘जो असीमित है,’ या जो बृहद है उसके लिए  ‘आत्मा’ शब्द का उपयोग  किया जाता है। किन्तु जो असीमित है वह कभी भी एक इकाई (ससीम) नहीं हो सकता।  लेकिन जैसे ही आप इसे एक नाम दे देते हैं, यह एक इकाई बन जाता है। उस आत्मा को ब्रह्म या  सच्चिदानन्द-  सत्-चित्-आनंद (Existence -Consciousness- Bliss ) भी कहा जाता है।आप चाहे इसे ‘आत्मा’ कहें, ‘सोल’ कहें, ‘सेल्फ ’ कहें - आप इसे चाहे जो भी कहें - जैसे ही आप इसके साथ एक नाम जोड़ देते हैं, यह एक इकाई, (ससीम) बन जाता है। 
लोग ‘अच्छी आत्माओं’ की बात करते हैं। पश्चिम में लोग कहते हैं, ‘अरे, वह एक अच्छी आत्मा है।’ कोई आत्मा अच्छी या बुरी नहीं होती। आत्मा सभी पहचानों से, सभी इकाईयों से, सभी चीजों से परे है। आत्मा को समझने का दूसरा तरीका यह है कि आत्मा जैसी कोई चीज ही नहीं है। इसी वजह से गौतम बुद्ध कहते फिरते थे, ‘‘तुम ‘अनात्म’ हो। आत्मा कुछ नहीं है।’’ 
 आप प्राण के बारे में पूछ रहे हैं। योग -दर्शन में कहा जाता है कि हर चीज शरीर है। भौतिक शरीर, शरीर है, मन शरीर है, प्राण शरीर है, आकाशीय-तत्व शरीर है, हर चीज शरीर की तरह है, यहां तक कि आत्मा भी शरीर की तरह है। यह चीजों को देखने का बहुत समझदारी भरा तरीका है। जब हम कहते हैं आनंदमय कोष, तो बेशक हम परम तत्व की बात कर रहे हैं, लेकिन उसे भी एक शरीर के रूप में। ऐसा इसलिए कि आप इन बातों को समझ सकें। 
 भौतिक-शरीर और मानसिक-शरीर में ज्यादा स्थूलता है। प्राणिक-शरीर वह ऊर्जा है जो इन सबको चलाती है, और यही है जो आपको शरीर से जोडक़र रखती है। जब प्राण खत्म हो जाते हैं, तो आप खत्म हो जाते हैं। आपका शरीर निर्जीव हो जाता है या आप अपने खुद के अनुभव में मर जाते हैं - इसे आप जैसे भी चाहें ले सकते हैं। तो जिसे आप मौत कह रहे हैं वह सिर्फ यही है कि प्राण ने अपना कंपन खो दिया है या कहें अपनी जीवंतता खो दी है। प्राण शरीरों की जीवंतता अलग-अलग होती है। मान लीजिए एक नवयुवक है और उसका भौतिक-शरीर किसी रोड ऐक्सिडेंट में, या किसी और वजह से नष्ट हो जाता है। उसका प्राणिक-शरीर तब भी पूर्ण जीवंत और बरकरार रहता है। लेकिन यह भौतिक-शरीर पूरी तरह से टूट चुका है, जिसकी वजह से प्राणिक-शरीर को भौतिक-शरीर छोडक़र जाना पड़ता है। अब जब वह ऐसी हालत में जाता है, तो उसकी जीवंतता बरकरार रहती है। इसीलिए वह सूक्ष्म शरीर योगी लोगों के द्वारा बहुत आसानी से महसूस किया जाता है।
3. मनोमय कोष (मानसिक) :  पञ्च कर्मेन्द्रियों, मन और अहङ्कार वाला भाग ।" मनोमय कोष प्राणायाम कोश की जीवित आत्मा है।" ~तैत्तिरीय उपनिषद् 2:4:2/ मन (Manas) का  निकट सम्बन्ध चित्त से रहता है, उनका निवास स्थान मनोमय कोष है।  यह प्रकृति के सभी आकारों में अब तक का शुद्ध व ऐसा सुविधाजन आकार है जहाँ 'आत्मा' रहकर अपने को अन्य शरीरों की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र महसूस करती है। दूसरी ओर यह एक ऐसा आकार है जहाँ 'मन' का अवतरण आसान है। जगत के सभी प्राणियों के मनोमय कोषों  में मनुष्य का 'मन' सर्वाधिक प्रकट या जाग्रत है, अन्य प्राणियों में मन सुप्त है। उक्त आकार में अन्य प्राणियों की अपेक्षा 'मन' के अधिक जाग्रत होने से ही मनुष्य को मनुष्य या मानव कहा गया है। यही मनोमय कोश है।  मन आत्मा और जगत के बीच उस पुल के जैसा कार्य करता है , जिसका एक पाया आत्मा में और दूसरा पाया जगत में होता है। 
प्राण में ही स्थिर है मन। मन में जीने वाला ही मनोमयी है। मन चंचल है। जो रोमांचकता, कल्पना और मनोरंजन को पसंद करता है ऐसा व्यक्ति मानसिक है। मन का मतलब है प्रतिबिम्बित चेतना (reflected consciousness)। इसके चार पार्ट हैं -चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार। इन चारो को मिलाकर ही मन या हमारा अन्तःकरण कहा जाता है। मनोमय कोष अपनी अधिकतम उर्जा  प्राणमय कोष से लेता है, लेकिन आंतरिक  रूप से यह प्राणमय और अन्नमय कोष को नियंत्रित भी करता है। जब इसे कुछ रोचक अनुभव होता है, दुसरे दोनों कोशों को भी वैसा ही अनुभव होता है, और जब इसे कुछ भयानक या खतरनाक महसूस होता है तो बाकि दोनों पर इसका प्रभाव कभी-कभी भयावह होता है।  जब इसे गहेर स्तर से स्पष्ट  दिशानिर्देश  मिलते हैं, तब  ये उचित रूप से (विवेक-पूर्वक) कार्य करता है। परन्तु जब ये मिथ्या-ग्रस्त (षडरिपु से ग्रस्त -शराब पिये बन्दर जैसा)  होता है तब आन्तरिक ज्ञान (विवेकज-ज्ञान) भी माया के जाल से घिर जाता है (मिथ्या अहं से तादाम्य कर लेता है।)। 
4. विज्ञानमय कोष (बुद्धि) : –मनोमय  कोष से अलग है विज्ञानमय कोष। अहंकार ( the ego) का सम्बन्ध बुद्धि (intellect) के साथ रहता है। उनका निवास स्थान सूक्ष्म शरीर (subtle body) के सत्यज्ञानमय या  विज्ञानमय कोष में रहता है। पञ्च ज्ञानेन्द्रियों और बुद्धि का अंश । मन में ही स्थित है विज्ञानमय कोष अर्थात ‍बुद्धि का स्तर। जो मनुष्य विचारशील और कर्मठ है वही विज्ञानमय कोष के स्तर में जी रहा है। उपनिषदों में विज्ञानमय कोष को परिष्कृत बुद्धि या  विवेक भी कहते है।  यह अपनी सूझ- बूझ के बल समझदारी से निचले तीनों कोषों को नियंत्रित करता है।    सभी कर्म, यज्ञ- सम्बन्धी या अन्यथा, बुद्धि के माध्यम से ही संपूर्ण होते है।  सभी इन्द्रियाँ विवेक या बुद्धि को ही श्रद्धांजलि अर्पित करती है।  विज्ञानमय कोष भी आध्यात्मिक (spiritual) नहीं अपितु करणीय (causal ) है। " जो मनुष्य 'बुद्धि' की उपासना 'ब्रह्म' के रूप में करता है वो विवेकी मनुष्य दोष-मुक्त है, वो अपने आप को अन्य कोषों के साथ नहीं पहचानता, और शरीर की वासनाओं में (कामिनी -कांचन में) नहीं उलझता।"  ~तैत्तिरीय उपनिषद् 2:5:1
इन्द्रियां विवेक-युक्त बुद्धि की यंत्र होती है, सही मायनों में सेवक।  दर्शन क्रिया में प्रकाश रेटिना (आँख के पिछले भाग का चित्रपट) पर पेड़ की छवि बनता है, भौतिक और प्राणिक नाड़ियाँ उन संवादों को मस्तिष्क में अवस्थित उसके स्थूल और सूक्ष्म स्नायुकेन्द्रों (nervous system ) तक पहुंचती है, बुद्धि इसे समझती है और निर्णय करती है की यह एक आँवले का पेड़ है- या इमली का पेड़ है ? अब विवेकी मनुष्य यह निर्णय करता है कि आँवला और इमली में श्रेय क्या है, प्रेय क्या है ? धर्म क्या है ? अधर्म क्या है ? यदि हमारे पास परिष्कृत बुद्धि या विवेक-प्रयोग शक्ति न होती तो हम मनुष्यों का, पशुओं से भिन्न कोई अस्तित्व भी नहीं होता। पशुओं के समान आहार -निद्रा-भय-मैथुन में ही बहुमूल्य मानवजीवन नष्ट हो जाता।  एक बुद्धिमान योगी अपने आप को अन्य कोषों के साथ नहीं पहचानता अपितु अपनी जाग्रति को और अधिक अन्दर की ओर केन्द्रित करता है और विवेकपूर्ण-बुद्धि के द्वारा ही ही अपने जीवन को निर्देशित करता है।  इसके फल-स्वरुप वो मनोविकार के जंजाल से मुक्त रहता है। विवेक-सम्पन्न बुद्धि ही सही अर्थों में श्रद्धा की पात्र है।
जब मनुष्य  अपने मन को ही दो भागों में बाँटकर - द्रष्टा मन से दृश्य मन को देखने का  अभ्यास करने लगता है, तब उसे  अपनी बुद्धि के अज्ञान में पड़े रहने का ज्ञान होता है।  तब शुरू होता है मन पर नियंत्रण। जब मनःसंयोग का अभ्यास करते करते बुद्धि सत्यज्ञानमय कोष (विज्ञानमय कोष) अर्थात जिस साधक को सांसारिक सत्य का ज्ञान होने लगे और जो माया-भ्रम का जाल काटकर द्रष्टा, साक्षित्व, या साक्षी चेतना (witness  consciousness ) में स्थित होने लगे या जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के स्तर से मुक्ति पाकर निर्विचार की दशा में होने लगे उसे ही सत्यज्ञान पर चलने वाला (सत्यार्थी) कहते हैं।
मन को नियंत्रित कर उसे बुद्धि को सत-संकल्प में स्थित करने में समर्थ व्यक्ति ही विवेकी कहलाता है। विवेकी में तर्क और विचार की सुस्पष्टता होती है। विवेकी को ही विज्ञानमय कोश का प्रथम स्तर माना जाता है किंतु जो बुद्धि का भी अतिक्रमण कर जाता है, उसे अंतर्दृष्टि संपन्न मनस कहते हैं। अर्थात जिसका साक्षित्व (witness consciousness) गहराने लगा। इसे ही ज्ञानीजन संबोधि का लक्षण कहते हैं, जो विचार से परे निर्विचार में स्‍थित है। 
ऐसे अंतरदृष्टि संपन्न 'आत्मा' विज्ञानमय कोश के प्रथम स्तर में स्थित होकर सुक्ष्मातित दृष्टिवाला होता है। जब अंतरदृष्टि की पूर्णता आ जाती है तो मोक्ष के द्वार खुलने लगते हैं। इस सत्यज्ञानमय या विज्ञानमय कोश को पुष्ट-शुद्ध करने के लिए ही प्रतिदिन दो बार, सुबह और शाम में मनःसंयोग (प्रत्याहार और धारणा) का अभ्यास करना आवश्यक है। 
ध्‍यान का अभ्यास करना नहीं पड़ता, जब ध्यान स्वतः गहरा होने लगता है, तो वही प्राण और मन को साधने का उपाय भी है। यहाँ बुद्धि को सत-असत-मिथ्या का अन्तर समझ में आने लगता है इसलिए इस कोष को विज्ञानमय कोष भी कहते हैं। यहाँ विज्ञान का अर्थ साइंस से न ले। विज्ञान का अर्थ विशेष ज्ञान या विशेष बोध। सत्यज्ञानमय कोष में बुद्धि की अवस्थिति, अपने जीवन को बोधपूर्वक जीने से मिलता है। मनोमय कोश से मुक्त होकर विज्ञानमय अर्थात सत्यज्ञानमय कोश में स्थित आत्मा को ही हम सिद्ध या संबुद्ध कहते हैं। इस कोश में स्थित आत्माएँ मन से मुक्त हो चुकी होती है। 
5.आनंदमय कोष (परम सुख ) :–  (अन्योऽन्तर आत्माऽऽनन्दमयः । तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधताम्।) "कारण प्रकृति (माया) का बना भाग । विज्ञानमय कोष से अलग है अहंकार का कोष। यह विज्ञानमय कोष के भीतर है, तथा उसी के रूप के सामान है। " ~तैत्तिरीय उपनिषद् 2:5:2a  

हम सभी आनन्द से ही उत्पन्न हुए हैं, इस कारण आनन्द को प्रेम करते हैं, उसे खोजते हैं लेकिन न जानने के कारण प्राप्त नहीं कर पाते। यह पाँचों कोशों में अंतरतम है और इसमें मनोकामनाएं होती हैं। वे उसी तरह अवचेतन में स्थित होती हैं, जिस तरह से गहरी नींद की स्थिति में  होते हुए भी हमारा अस्तित्व रहता है। हम जागृत और स्वप्न किसी भी स्थिति में हों  एक बार वहाँ पहुँच कर उस जाग्रत और स्वप्न की स्थिति के  उत्पातों के अनुभवों  के लोप के  कारण हम सब अपेक्षाकृत एक ही अबाधित शांति और आनंद का अनुभव करते हैं, इसलिए यह आनन्दमय माना जाता है । आनन्दमय कोश, विज्ञानमय कोश का नियन्त्रण करता है क्योंकि बुद्धि, मनो-अभिलाषाओं के नियन्त्रण और देखरेख में कार्य करती है। जब अन्य सभी कोश अच्छी तरह से विकसित हो जाते हैं तब हम आन्तरिक और बाह्य जगत के बीच सद्भाव का अनुभव करते हैं । यह सद्भाव हमें प्रसन्नता और आनन्द की अनुभूति देता है। पाँचों कोश एक व्यक्ति द्वार पहने  कपड़ों  की पर्तों  की तरह हैं  जो पूरी तरह से पहनने वाले से भिन्न हैं वैसे ही आत्मा पाँचों  बाहरी पर्तों से  भिन्न और अलग है।
आनंद का मतलब है वह परम सुख, जो अहंकार और विवेक को एक साथ जोड़ता है।  किन्तु परम-आनन्द केवल एक भाव नहीं जो कि अहंकार कि तृप्ति पर बुद्धि के कोष में महसूस हो। परम आनन्द  तब प्राप्त होगा जब आत्म- अहंकार (व्यष्टि अहं) ईश्वर के (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के) सार्वभौमिक-विराट -अहंकार (समष्टि मैं)  के साथ पूर्ण रूप से मिश्रित हो, अर्थात सीमित अहं, असीमित अहं से संयुक्त हो। 
अहंकार चेतना का वो साधन है जो जीवन के सभी वृतांतों को जोड़ता है। अहंकार वो भ्रम (माया)  है जो कहती है कि  मेरा एक अलग अस्तित्व है, ये एक मिथ्या है। अहंकार वो है जो शरीर के साथ तादाम्य कर लेता है, और स्वयं को कर्ता -भोक्ता समझता है। अहंकार कहता है, " यह (M/F) शरीर मेरा है। " जब शरीर सांस लेता है,तब ये कहता है, " मैं सांस ले रहा/रही  हूँ। " अहंकार बहुत ही संवेदनशील है और इसे मृत्यु का भय हर समय सताता है।
'शुद्ध बुद्धि' (विवेकसम्पन्न- बुद्धि) सदा 'अहंकार' को परामर्श देती रहती है, और श्रेय-प्रेय की व्याख्या देती रहती, पर अंतिम निर्णय 'अहंकार' का ही होता है। बुद्धि (विवेक नहीं) अहंकार कहता है, "मुझे ये (Bh) पसंद है !" और विवेक-सम्पन्न बुद्धि   के मना करने पर भी संभव है की अहंकार ये फैसला ले कि, " ठीक है, मैं मानता हूँ कि ये गलत है, लेकिन मैं इन सारे सिद्धांतों को नहीं मानना चाहता, अहंकार कहता है - मैं नियम को तोडूंगा। "
आनंदमय कोष सबसे भीतरी कोश है, आत्मा को घेरने वाला प्रथम कोष, दिव्य चेतना का केंद्र। विज्ञानमय कोष में ही स्थित है-आनंदमय कोष। यही आत्मवानों की ‍तुरीय अवस्था है। इसी ‍स्तर में जीने वालों को भगवान, अरिहंत या संबुद्ध कहा गया है। इस स्तर में शुद्ध आनंद की अनुभूति ही बच जाती है। जहाँ व्यक्ति परम शक्ति का अनुभव करता है। इसी आनन्दमय कोष के कारण व्यक्ति आत्मा के अत्यन्त निकट भी पहुँचकर पूरी तरह से आत्मा के मूल स्वरूप में स्थित नहीं हो पाता। इतना अवश्य है कि इस आनन्दमय कोष तक पहुँच बनने के बाद जब साधक लगातार प्रयास से इस कोष रूपी परत को भी उतारने में सफल हो जाता है तो वह आत्मा के मूल स्वरूप को देख भी लेता है। और उसके साथ मिलकर स्थाई आनन्द की अवस्था में भी पहुँच जाता है।  
 सत्वगुण विशिष्ट परमात्मा के आवरक का नाम आनंदमय कोष है। ज्ञान की सुषुप्ति अवस्था को भी आनंदमय कोष कहा गया है। सुषुप्ति अवस्था में मनुष्य में निद्रासुख के अतिरिक्त अन्य पदार्थों का कोई अस्तित्व नहीं रहता। कहते सुना जाता है-मैं तो सुख से सोया मुझे कुछ ज्ञान नहीं रहा। जिस प्रकार निद्रा के कारण ज्ञान का लोप होता है उसी प्रकार जिन कारणों से शरीर में अविद्या निवास करे, (जो गुप्त और तमोगुण के संयोग से मलिन हो तथा इष्ट वस्तुओं का लाभ और प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति हो) और सुख की अनुभूति हो, उसे आनंदमय कोष कहते हैं। 
ईश्वर (माँ जगदम्बा) और जगत के मध्य की कड़ी है आनंदमय कोश। एक तरफ जड़, प्राण, मन, और बुद्धि (विज्ञानमय कोश) है तो दूसरी ओर ईश्वर है और इन दोनों के बीच खड़ा है- आनंदमय कोश में स्थित आत्मा। यही अरिहंतों और बुद्ध पुरुषों/ जीवनमुक्त शिक्षकों/नेता  की अवस्था है। योगयुक्त समाधि पुरुष को ही हम भगवान कहते हैं। उसे ही हम ब्रह्मा, विष्णु और शिव कहते हैं।  इस आनन्दमय कोष  (माँ जगदम्बा)से ही ब्रह्माण्ड चलायमान है। अन्य सभी कोष सक्रिय है। 
[****साभार http://www.balajikripa.com/2015/]
18 👉व्यक्तित्व विकास (personality development) : मनुष्य का व्यक्तित्व विकास मात्र बाह्य स्थूल शरीर को सजा-सँवार लेने से ही पूरा नहीं हो जाता है। इसमें संपूर्ण अस्तित्व जिसमें जीवन के दैहिक फ़िट्नेस, मानसिक , आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक सभी भाग सम्मिलित हैं। 
किसी व्यक्ति का यथार्थ व्यक्तित्व (individuality-विशिष्टता) जिसको और आगे विभक्त नहीं किया जा सके उसे आत्मा या शुद्ध चेतना कहते हैं। आत्मा, जीवन की दिव्य आभा है, तैत्तिरीयोपनिषद के अनुसार यह पांच आवरणों के साथ मानव शरीर में रहती है। इन आवरणों को कोश कहा जाता है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय पांच कोश हैं। 
व्यक्तित्व का विकास मूर्त से अमूर्त की ओर , अन्नमय कोष से  शुद्ध चेतना की ओर, अग्रसर होते हुए धीरे-धीरे इसके आवरण रूपी कोषों को हटाकर -नेता या जीवन्मुक्त लोकशिक्षक के रूप में विकसित हो जाना है। इन पाँच कोषों का विकास महामण्डल द्वारा निर्देशित 3'H' विकास के 5अभ्यासों के नियमित अभ्यास के माध्यम से  किया जा सकता है।
When we say "I'' they ask us what do we mean by "I''. This may startle us a bit, but then we will point to our body and say "I'' means the body and includes the mind etc., that are at our disposal for use.The scriptures say this is a fundamental mistake and is the root cause for all our problems and misery. When we talk of the "body'' as usual, they point out that it includes not only the physical body but there is an unseen entity called Self (or atma or jivatma as it is called). This is what lends sentience to the body. Krishna says --अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।  BG (10-20).---that He is the Self seated in the heart of all beings. 
 This Self is behind our speech, actions, thinking etc. But because it is behind all these activities it itself is unseen and unknown. That means the eyes, for example, cannot see what enables them to see; the ears cannot hear what enables them to hear and so on. In other words, atma is beyond the reach of our senses. This is an important fact that requires to be chewed and digested.  
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचँ स उ प्राणस्य प्राणः ।
चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृताभवन्ति ॥ 
(Kena Upanishad. 1-2).
That who is the mind of the mind (cause); the vital essence of vital
forces, speech of the speech; ear of the ears and eye of the eyes;

(it is) He by knowing whom the wise ones become liberated,depart from the world and become immortal .
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो( ibid 1-3).
There neither the eye approaches nor the speech (includes other
organs of action and perception) nor does the mind.
Sage Yagnavalkya, while teaching this subject to his wife Maitreyi
asks: येनेदँ सर्वं विजानाति तं केन विजानीयात्, विज्ञातारमरे केन विजानीयात् ?  
(Brihadaranyaka Upanishad. 2-4-14) ``By what can one

know that by which all this comes to be known? By what you can know the knower?'
Thus we have two entities, the body that by itself is inert and the
atma that animates it. The body by its very nature is subject to
growth, decay and finally death. But the atma who resides in the body
is eternal and not subject to any change. Krishna points this out to

Arjuna: 
                                          न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2.20।।
 यह शरीरी (आत्मा) किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है।  यह जन्मरहित नित्य-निरन्तर रहनेवाला शाश्वत और  पुरातन (अनादि) है . शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।
The atma being same as the Supreme Being has the same attributes like the Supreme Being - it is eternal, of the form of bliss and wisdom.सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ।  (Taittiriyopanishad.2-1). Vedanta clearly states that we are that atma and not the body. Being atma we are eternal and the embodiment of bliss. But as pointed out earlier everyone identifies himself with the body and consequently suffers.
Thus when the body is sick one says he is sick,when it grows old he says he has become old and when it dies people say that particular person is dead. In addition one looks out for happiness and security. He gathers around him people (in the form of friends and relatives) to gain happiness and security.  He imports their happiness and sorrows also on to himself. Thus if a close relative is sick, he is worried. If a close friend dies he is very upset. All of us will be happy to have a fat bank balance as we know that a lot of money at our disposal gives a feeling of comfort and security.
But vedanta thinks otherwise. What we think is good and contributory to our happiness and security may not be so at all times. On close examination we find that these things seem to give joy and security but not in the long run. In fact it may yield  the contrary results. Too much money is a source of anxiety. A son or daughter may turn out to be a source of worry or disappointment in one's old age. Wealth, health, familial bonds are all fragile. Our own body that we cherish, becomes a source of worry when it grows old and decrepit. We all know this only too well. Still we tend to hold on to them.  Why is this so?

[Swami Vivekananda says -" Fools die and Learned die, Saints die and sinners die, Emperors die and poppers die,  kings die and beggars die. They are all going to death, and yet this tremendous clinging on to life exists. Somehow, we do not know why, we cling to life; we cannot give it up. And this is Maya."] 
स्वामी विवेकानन्द कहते है - " साधु और पापी दोनों मरते हैं। राजा और भिक्षुक दोनों मरते हैं- मूर्ख और विद्वान् सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। सारा संसार मृत्यु की ओर चला जा रहा है, सभी मरते हैं। फिर भी जीवन के प्रति यह प्रबल आसक्ति विद्यमान है। हम क्यों इस जीवन में आसक्त हैं ? क्यों हम इसका परित्याग नहीं कर पाते ? यह हम नहीं जानते।  और यही माया है। " [ २/४७ माया और भ्रम/ MAYA AND ILLUSION] 
This is caused by wrong understanding of the truth, say our scriptures. The truth is that these things viz., our body, wealth,family etc., are themselves not long lasting. They will go sooner or later. They are not secure themselves. How can they confer security on others? Such being the case it is sheer folly to look to them for happiness and security. Attachment to  them can only result in sorrow and misery. Recognising this fact - that is, that every thing in this universe is impermanent and Self alone is permanent is known as discrimination or विवेकः  -viveka. As we ponder over this fact again and again in our mind, the truth of the scriptural statements sinks in our mind. We realise that things we hang on to are finite and limited by time and so cannot give us lasting peace and security. Our mind starts turning away from these things and towards God who has no such limitations. This is the second stage in spiritual growth. This detachment from  ephemeral things of this world is called vairagyam वैराग्यम्. Next as the detachment takes root our search for God also becomes intense. Our mind wants to get away from things that are in the real sense a bondage and yearns to be liberated from them. This yearning for liberation is called मुमुक्षुत्वम्.
Coming up to this stage is a rare phenomenon says Krishna.- ' मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।  BG( 7-3). Yama the god of death, says that people are very much attracted by wealth and such mundane pleasures that they are unwilling to give this up and look beyond it. Such people are blinded by ignorance and come within his grip repeatedly.
 The misplaced infatuation for -'कामिनी -कांचन ' etc., is caused by ignorance that veils wisdom that is our true nature. 
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । 
               कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥  BG(3-39)
WISDOM. The question then is how to gain the wisdom? Scriptures say that since wisdom is inherent in us as our very nature we need not do anything to gain it. We only have to get rid of the ignorance that iscovering the wisdom. The source of happiness and security, thus, does not lie outside in worldly things that are not permanent. The only permanent  thing is within ourselves as atma or Self. Its very nature is supreme bliss. Any joy experienced by any being is just a droplet derived from this bliss that is Brahman, says Brihadaranyakopanishad- एतस्यैवानन्दस्य अन्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति ।.(4-3-32). So if we want peace, security and happiness we should shift our focus from the body-mind complex to the Self that is inside us. This knowledge is known as brahma vidya, atma vidya and adhyatma vidya. Krishna calls it as sovereign science or raja vidya. 
IMPORTANCE OF THE GURU. The summum bonum -(the highest good, the ultimate goal) of human life is liberation. This is got by removal of wrong understanding about ourselves (known as ajnanam). When tha ajnanam is removed our Self shines in all its glory. The knower goes beyond sorrow, repeated birth and death cycle. We saw that a guru's guidance is required in this learning process.Thus the role of the guru is important and cannot be described adequately in words. 
Our scriptures say that one is not easily blessed with a guru in his life time. They say that the human birth is rare and very valuable as only humans are endowed with discrimination to set their goals and the intelligence  to work towards achieving them. 
Animals are driven by instinct. They cannot set any goal for themselves. Thus only a human being can understand the value of his life and work to reach the ultimate goal. It will indeed the height of folly if this important point is not understood, but the life is allowed to drift or spent simply in pursuit of material pleasures (which we saw earlier are only ephemeral). Such pleasures that gratify the senses are sought by even animals. So if one keeps himself busy working for them he degrades himself and wastes his precious life. 

Yama, the god of death tells the same thing to his disciple Nachiketa.KU(1-2-7).
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः श‍ृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः ।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाऽऽश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ॥ 
That which many people do not have the opportunity to hear; that which many people do not understand even after hearing; the teacher of such a subject is indeed rare; the gainer of this is rare; and well versed; that who is taught by a realised great soul and thus the knower of this subject is also very rare.Therefore, if anyone, who has got all the three gifts of god, fails to take full advantage of them, such a one is indeed the most ignorant and unfortunate.
[साभार सार्थ गुर्वाष्टकम् : Commentary by N. Balasubramanian
https://sanskritdocuments.org/] 

हृदय (Heart ज्ञानस्वरूप आत्मन -स्वयं, सच्चिदानन्द) : "सभी कोषों से परे है आत्मन -स्वयं। " ~(तैत्तिरीय उपनिषद् 2:5:2b) सच्चिदानन्द शब्द से आत्मा को सत्, चित्, और आनंद स्वरूप कहा गया है , और यह इसलिए कि केवल 'अखण्ड' कहनेसे उसकी वास्तविकता नही ज्ञात हो सकती। क्योंकि अखण्ड तो शून्य, तम और दुःखात्मक भी हो सकता है , फिर वह किसी भी विवेकी के लिए ध्येय वस्तु कैसे हो सकेगा ?  सत् का अर्थ है जिसकी सत्ता का कभी विच्छेद न हो , जो त्रिकालाबाध्य हो , भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनो कालों में कभी जिसका बाध - अभाव न हो । इस प्रकार आत्मा सदा अमर है, एक स्वभाव है , उसमे कोई ह्रास-विकास नही होता , उसके पैदा होने , बढने घटने , रोगी होने , दुर्बल होने के कारणों की कल्पना नितान्त मूढता है । गीता में भगवान कहते हैं -
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23। 
अवयवरहित होनेके कारण  इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।
* आत्मा चित् के रूप में : जिसे अपनी वृद्धि या अपने आप को व्यक्त करने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता ना हो, उसे चित् कहते है। चित् स्वं- प्रकाशमान है। उदहारण के तौर पे, सूरज को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती, वह स्वयं के प्रकाश से ही प्रकाशमान है।
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ कठ उपनिषद् २.२.१५ ॥
सूरज, चाँद, तारे, बिजली और आग का प्रकाश उस रौशनी के सामने नहीं चमक सकता। उसकी चमक सर्वोत्तम है, शेष समस्त उसी के प्रकाश से प्रकाशमान है। वह प्रकाश अलौकिक है। ~ कठ उपनिषद्- २,२,१५ 
आत्मा आनंद के रूप में : यह आनंद * साधारण प्रसन्ता, या क्षणिक सुख नहीं है, ये परम आनन्द है - अर्थात चिरस्थायी आनन्द है। इसी आनन्द को मूढ़तावश मनुष्य काम (desire, इच्छा या कामिनी-कांचन का लालच) में में खोजता है, गीता BG(3-39) में भगवान कहते हैं -   
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
                                    कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेण-अनलेन च ॥ गीता ३-३९   .
--अर्थात हे कुन्तीनन्दन, इस अग्नि के समान कभी तृप्त न होने वाले और विवेकियों (the wise-चतुर) के नित्य वैरी इस काम (desire या लालच) के द्वारा मनुष्य का विवेक (wisdom) ढका हुआ है।
तब प्रश्न उठेगा कि उस विवेक (WISDOM-चतुराई या होश) को प्राप्त कैसे किया जाय ? शास्त्र कहते हैं - चूँकि विवेक (ज्ञान या विवेकज ज्ञान) हमारे ही अंदर निहित है, और वह तो हमारा स्वभाव ही है (our very nature), अतः उसे प्राप्त करने के लिए हमें कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। हमें केवल उस अज्ञान (ignorance-माया 'I') से छुटकारा पाना है, जिसने इस विवेक (प्रज्ञता -Wisdom) को ढांक रखा है। इस प्रकार, विवेक-प्रयोग करने से  हम यह समझ सकते हैं कि 'आनन्द और अभय रूपी झरने का स्रोत (happiness and security) जगत की बाह्य वस्तुओं में (कामिनी-कांचन में) नहीं है, क्योंकि कोई भी सांसारिक सम्पत्ति (worldly goods) चिरस्थायी नहीं है, नश्वर है। (इसीलिए सब माया है) एक मात्र अविनाशी और चिरस्थायी वस्तु 'आत्मा' है - जो हमारे भीतर (हृदय में) है। और इसका स्वभाव ही, परमानन्द-मय (supreme bliss) है। 
बृहदारण्यकोपनिषद में कहा गया है---"एतस्यैवानन्दस्य अन्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति । ~ बृहदारण्यक उपनिषद् (4-3-32).अर्थात  किसी भी व्यक्ति द्वारा अनुभव किया गया कोई भी आनंद - उस ब्रह्मानन्द (infinite-existence-consciousness -bliss) का मात्र एक छोटा सा बूंद भर (just a droplet)  है। और उसी बून्द के एक-एक कण से सभी प्राणी जीवित हैं ! इसलिए यदि हम शाश्वत शांति, अभय और आनन्द चाहते हों, तो हमें अपने मन को 'body-mind complex ' शरीर और मन' से परे हटाकर उस आत्मा (Heart में अवस्थित विवेकानन्द) पर एकाग्र करने या केंद्रित करने का अभ्यास करना  चाहिए जो हमारे अंदर हैं। इस ज्ञान को ब्रह्म विद्या, आत्म विद्या और अध्यात्म विद्या के रूप में जाना जाता है। कृष्ण इसे संप्रभु विज्ञान या राज विद्या कहते हैं (So if we want peace, security and happiness we should shift our focus from the body-mind complex to the Self that is inside us.) 
स्वामी विवेकानन्द कहते है - " साधु और पापी दोनों मरते हैं। राजा और भिक्षुक दोनों मरते हैं- मूर्ख और विद्वान् सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। सारा संसार मृत्यु की ओर चला जा रहा है, सभी मरते हैं। फिर भी जीवन के प्रति यह प्रबल आसक्ति विद्यमान है। हम क्यों इस जीवन में आसक्त हैं ? क्यों हम इसका परित्याग नहीं कर पाते ? यह हम नहीं जानते।  और यही माया है। " [ २/४७ माया और भ्रम/ MAYA AND ILLUSION]  " Fools die and Learned die, Saints die and sinners die, Emperors die and poppers die,  kings die and beggars die. They are all going to death, and yet this tremendous clinging on to life exists. Somehow, we do not know why, we cling to life; we cannot give it up. And this is Maya.")
जब कोई व्यक्ति अपने अनुभव से यह समझ लेता है, कि इस संसार में स्थायी सुख या शांति नहीं है, संसार की कोई भी वस्तु, "कामिनी-कांचन या कीर्ति " पकड़ कर रखने के लायक नहीं है। (nothing to catch hold of the this world) आचार्य शंकर कहते हैं यह निश्चित हो जाने पर, तब --शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरोः ---- तब वह वेदान्त के गुरु के पास जाता है। और तब गुरु क्या शिक्षा देते हैं - that thou art!  त् त्वम् असि ! What I am ? का उत्तर यहाँ प्राप्त हो जाता है।  यह महावाक्य आध्यात्मिक केमिस्ट्री का फार्मूला है। इसमें तीन बातें कही हैं तत्, वह, त्वम्, तू; दोनों एक हैं — तीन बातें हैं। वह और तू एक हैं, बस इतना ही यह सूत्र है। अस्तित्व, परमात्मा (Existence-Consciousness-Bliss) और 'तू ' - वह जो भीतर छिपी चेतना (Pure Consciousness) है वह, ये दो नहीं हैं, ये एक हैं। 
 जब तक मैं और तुम का भेद होता है तब तक 'मैं' और 'तुम' दो अलग-अलग रहते हैं, पर जब मैं और तुम इकट्ठे हो जाते हैं तब ‘हम’ बन जाते हैं, दोनों मिलकर एक अस्तित्व बन जाता है। जहां दुविधा है वहां ‘तुम’ है और जहां 'उपाधि' नहीं है, (जहाँ द्वैत के 'छल' में 'छेद' हो चुका है !)  वहां ‘तत् है। एक जीव है, दूसरा देव है। छान्दोग्य उपनिषद में यह बहुत स्पष्ट ढंग से समझाया गया है कि जीव और देव दोनों एक ही हैं।

शरीर (Hand  याअन्नमय कोष) को सुन्दर ढंग से विकसित करने के लिए पौष्टिक आहार और व्यायाम,   
खाने  की नियमित आदतों,  सही प्रकार का भोजन , व्यायाम और खेल-कूद, टहलना, घूमना  और योगासन  से  अन्नमयकोश के  विकास में  सुविधा होती है।
 मन (Head या प्राणमय और मनोमय कोष) के विकास के लिये अनुलोम-विलोम और कपालभाति  
 प्राणायाम द्वारा सांस लेने-छोड़ने के अभ्यास से प्राणमय कोष की गुणवत्ता में  सुधार होता है। मनोमयकोश के विकास के लिए विवेकानन्द साहित्य का 5 वां खण्ड , स्वामी जी द्वारा रचित कविता, उनके द्वारा लिखित पत्र, और लेख का अध्ययन उपयोगी होता है। और मनःसंयोग का प्रतिदिन सुबह-शाम दो बार अभ्यास करना होता है। 
वैसी सभी निःस्वार्थ -सेवा की गतिविधियाँ जो किसी की बुद्धि को निःस्वार्थ से के लिए अनुप्रेरित करे, उसे चुनौती दें, महामण्डल के समस्त क्रियाकलाप  विज्ञानमय कोश का विकास करने में सहायक हैं । इन गतिविधियों में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा पर भाषण सुनना, उस पर बहस करना, समस्या सुलझाना , साप्ताहिक पाठचक्र में अध्ययन की तकनीक, संगीत -नाटक के समाजोपयोगी छोटे-छोटे  अनुसन्धान , विभिन्न स्तर की शिविर परियोजनायें, आत्म -मूल्यांकन और विवेक-प्रयोग के माध्यम से महामण्डल पुस्तिकाओं का नियमित पठन-पाठन, पुस्तकों  की सराहना व महामण्डल से जुड़े प्रख्यात व्यक्तियों के  साक्षात्कार व भाषण  शामिल हैं। 
यह सब गतिविधियाँ आपके अपने लघुरूप से परे जाने और आपका अपने साथी प्राणियों, अपने समुदाय-समाज के सदस्यो अपने देश और पूरे विश्व के साथ तादातम्य स्थापित करने का अवसर देती हैं,  यह आनन्दमय कोश के विकास को सुविधापूर्ण बनाता है। यहाँ तक कि अपने चिन्तन में  आप अपनी चेतना का विस्तार करने के लिए पृथ्वी, सूर्य, तारे,   आकाशगंगाओं और ब्रह्माण्ड तक पहुँच सकते हैं। इस तरह हम धीरे-धीरे वैयक्तिक आत्म या वैयक्तिक चेतना और सार्वभौमिक आत्म या सार्वभौमिक चेतना के बीच संबंध बनाते हैं।

किन्तु इस सूत्र को वेदान्त श्रुति परम्परा या "Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित नेता [😊C-in-C] के मुख से और ठीक समय पर ही सुनना चाहिए। क्योंकि जिस किसी से और किसी भी समय सुन लेने पर खतरा है। खतरे दो हैं एक तो यह मंत्र याद हो जाएगा, और लगेगा 'मैंने' (अहं ने या आत्मा ने ?) जान लिया है।  और दूसरा खतरा यह है कि इस अधूरी जानकारी के कारण आप शायद ही कभी उस मनःस्थिति को बनाने की तैयारी करें, जिसमें इसे सुना जाना चाहिए था।  बीज डालने का वक्त होता है, समय होता है, मौसम होता है, घड़ी होती है, मुहूर्त होता है। और ये बीज तो महाबीज हैं। इसलिए गुरु 'तत्-वस्तु' के नाम और बीजमन्त्र को शिष्य के कान में बोलता है, कभी लिखकर नहीं देता है।
ऐसा ही कोई अधूरी जानकारी रखने वाला शिष्य वेदान्त के गुरु के पास गया, और प्रार्थना की कि मुझे 'ज्ञान' देने की कृपा करें।
 गुरु ने कहा - ‘तत्वमसि।’ उस शिष्य ने तुरंत कहा - हाँ मैं समझ गया यह छान्दोग्य उपनिषद का मंत्र है। गुरु बोले --हूँ, हूँ 😊! मैं समझ गया कि तुम्हारी problem क्या है ? वे समझ गए कि यह 'कैंची' काटने जैसी मनोवृत्ति का आदमी है, इसकी ड्यूटी गौशाला में  लगा दो। कॉलेज का लड़का कभी गौशाला में काम नहीं किया था, और गाय से डरता भी था।  गाय भी समझ गयी कि ये गाय से डरता है, सींघ तान कर खड़ी हो गयीं। एक साल तक कार्य करने के बाद गुरु उसको वापस बुलाते हैं। जब एक वर्ष तक निःस्वार्थ कर्म से चित्त शुद्धि होने के बाद वह गुरु से विम्रता-पूर्वक ज्ञान देने की प्रार्थना करता है, तब गुरु कहते हैं - हाँ, अब तुम वह हो !
किसी सहपाठी ने शरारत में पूछा कि क्या तुम फिर से , गौशाला की ड्यूटी नहीं करना चाहते थे, इसीलिए डर से तुमने कह दिया मैं समझ गया ?  “सदैव सौम्य इदं अग्रे आसीत्, एकम् एव अद्वि‍तीयम्” -छान्दोग्योपनिषद. ६/२/१  (सृष्टि से पहले निर्विकल्प में?) पहले सत् ही था, अकेला और अद्वि‍तीय ' यहाँ सृष्टि के पूर्व जिस 'सत्' को बताया गया है वही महावाक्य में 'तत्' पद का भी आशय है। 
यहाँ आचार्य शंकर कहते हैं -नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता। उस परम् सत्य का श्रवण , मनन और निदिध्यासन (hearing,reasoning,  meditating upon it) निरन्तर करना पड़ता है। शाश्वत ब्रह्म (श्री रामकृष्ण देव) और परिवर्तनशील होने से नश्वर जगत की तुलना करते हुए निरंतर चिंतन-मनन करना पड़ता है।[शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरोः/ नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याज शान्तात्मना ।]
"निर्व्याज शान्तात्मना " इस छोटे से वाक्य 'प्रशान्त और निर्मल मन' 'with serene and pure mind' या के द्वारा कहने का बहुत गूढ़ अर्थ छिपा हुआ है।  निर्व्याज का अर्थ है-without crookedness without duplicity,  सरलता -सादगी। 
 श्रीरामकृष्ण देव कहते थे -आध्यात्मिक साधक या भावी शिक्षक /या शिष्य में simplicity -सादगी भोलापन, सरलता होना आवश्यक है। सरल होने का अर्थ मूर्ख होना नहीं है। आध्यात्मिक मनुष्य सामान्य लोगों से बहुत अधिक जानते हैं, किन्तु बड़े साधारण ढंग से रहते हैं, सादगी से रहते हैं। वे हमारी सब बातों को जानते हैं, हमारे मन में क्या चल रहा है, हम क्या जानना चाह रहे हैं, वे सब जानते हैं, किन्तु हमें क्षमा कर देते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कोई बच्चा माँ के सामने सोये हुए होने का नाटक करता है, और माँ सब जानती है। बोलती है अगर मेरा बाबू सोया है तो नींद में अपना पैर जरूर हिलायेगा ,और बच्चा पकड़ा जाता है।  किन्तु माँ कभी नाराज नहीं होती , वह उसके प्रति स्नेहशील (affectionate) रहती है। स्वामी विवेकानन्द मनुष्य निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा की अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए कहते है - " एक क्षण मैं सोचता हूँ कि 'अहं ब्रह्मास्मि'- मेरा अस्तित्व है और कुछ भी मुझे नष्ट नहीं कर सकता। किन्तु दूसरे ही क्षण मृत्यु-भय से मैं काँपने लगता हूँ। कभी सोचते हैं कि हम दूसरों की अपेक्षा बहुत धार्मिक और पवित्र हैं, किन्तु दूसरे ही क्षण एक धक्का लगता है और हम चारों खाने चित हो जाते हैं। इसका कारण ? कारण यही है कि हमारा आत्मविश्वास मर गया है, और हमारी नैतिकता की रीढ़ टूट गयी है।" (७/१८०)
 इसीलिए कहा गया है  - "आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:।"जो आचार से हीन है, उसे वेद भी पवित्र नहीं करते।"  - अद्वैत वेदान्त को समझने के लिये केवल विवेकशील (Rational) होना ही पर्याप्त नहीं है। द्रष्टा-दृश्य विवेक हो जाने के बाद अपने यथार्थ साक्षी स्वरूप में स्थिर रहने के लिए केवल  विवेकज -ज्ञान (intellectual understanding,बौद्धिक-समझ) ही पर्याप्त नहीं होता। बल्कि उस ज्ञान को चरित्रगत करना 'characterization' भी अनिवार्य है। इसलिये हमें पहले यह समझना होगा कि वेदान्त की तर्क-संगत समझ अर्जित करने की पूर्व शर्त (precondition) क्या है ?
वास्तव में चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा ही  वेदान्त को समझने की अनिवार्य शर्त है, So this is the qualification for Vedanta । चित्त-शुद्धि के लिए पहले कर्म-योग के द्वारा कर्म के रहस्य को समझना होगा। निर्मल और एकाग्र मन बनाने के लिए भक्ति योग और राजयोग का अभ्यास करना होगा। जब यह 5 अभ्यास पूरा होगा, उसका परिणाम होगा -'शुद्ध और पवित्र मन !" शुध्द और पवित्र मन बनाने से साधन-चतुष्टय - अर्थात विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्त और मुमुक्षुत्व भी समझना होगा। किसी व्यक्ति ने पूछा की अद्वैत को समझने के लिए 5 अभ्यास करने की क्या आवश्यकता है ? To drink the tea of Advaita (non duality) what you need ? इस विषय पर मैं कठोपनिषद (1.2.24) में कहा गया है -'
 ना विरतो दुश्चरितात् , ना शान्तो ना समाहितः। 
 ना शान्त मानसो वापि प्रज्ञानेन एनं  आप्नुयात्।
 -जो मनुष्य दुराचार से निवृत्त नहीं हुआ है, या निषिद्ध कर्मों से-या 'past bad habits' से  विरत नहीं है। जो व्यक्ति कहता है मैं आत्मा हूँ और दूसरों को भी समझाता है -कि तुम भी आत्मा हो। किन्तु  स्वयं दूसरों नजरें बचा कर रोज एक पॉकेट सिगरेट फूँक देता है।   जिसने अपनी इन्द्रियों को जीता नहीं है, जिसका मन एकाग्र नहीं है, जिसका चित्त शान्त नहीं हुआ है-जो असंयमी व्यक्ति है, उसको आत्म-साक्षात्कार कभी नहीं होता है। 
परमात्मा (परमसत्य या इन्द्रियातीत सत्य) की प्राप्ति के लिए उसका अधिकारी होना भी आवश्यक है। अनैतिक एवं कुमार्ग-गामी मनुष्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने योग्य मनुष्य या सत्पात्र नहीं होता। नैतिकता या चरित्र-निर्माण ही अध्यात्म -मार्ग का प्रथम सोपान है। जिस मनुष्य का मन भौतिक सुखभोग की वासना तथा सांसारिक पदार्थों की (कामिनी-कांचन की) तृष्णा से ग्रस्त रहता है, जिसका मन राग और द्वेष में फँसा रहता है; और भौतिक आकर्षणो के बन्धन में रहता है, वह सदा अशान्त ही रहता है। अशान्ति के मार्ग पर चलकर मनुष्य शान्ति कैसे प्राप्त कर सकता है? 
कतक या निर्मली के बीज (स्ट्राइकोनोस पोटेटोरम, Strychnos potatorum) का लेई जल से समस्त कीचड़ को हटा देता हुई, और उस कीचड़ को  बर्तन के तली में बैठ जाने में सहायता करता है। जल से भरे हुए बर्तन में निर्मली को थोड़ा घिसकर लेप बनाकर डालने से जल की पूरी गन्दगी नीचे बैठ जाती है। जिससे जल निर्मल या स्वच्छ हो जाता है। इसलिए इसे निर्मली कहते हैं।फिर कीचड़ के साथ-साथ लेयी या पेस्ट भी ओझल हो जाता है।  कई लोग निर्मली की बीज (nirmali seeds) का प्रयोग पानी को साफ करने के लिए ही करते हैं।  ठीक उसी प्रकार ब्रह्माकारा-वृत्ति समस्त विषयाकारा वृत्तियों को नष्ट कर देती है, और अविनाशी ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर स्वयं भी नष्ट हो जाती है।] 
दुष्कर्म में प्रवृत्त, अशान्त मनुष्य परमात्मा को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता।  अशान्त मनुष्य ब्रह्मज्ञान का अधिकारी नहीं होता। चारित्रिक गुणों (नैतिक मूल्यों) की कीमत पर, कोई महान् सफलता अथवा उपलब्धि भी मनुष्य को सच्चा सुख नहीं दे सकती। रेत की बुनियाद पर (चरित्रहीनता की बुनियाद पर) निर्मित अट्टालिका  कदापि स्थिर नहीं रहती। उस परम सत्य को केवल 'बौद्धिक कसरत' के द्वारा नहीं जाना जा सकता। परन्तु वर्तमान समय में आधुनिक पाश्चत्य शिक्षा (ब्रह्मचर्य पालन रहित शिक्षा ?) में पढ़े-लिखे युवाओं के चरित्र में 'साधारण बुद्धि' (common sense),आत्म -श्रद्धा,आत्मसंयम,आत्मविश्वास आदि गुणों के मनांक का स्तर क्या है? 
आचार्य शंकर तीसरे श्लोक के अंत में कहते हैं -भूतं भावि च दुष्कृतं प्रदहता संविन्मये पावके। ' -जिस भाग्यवान साधक के संचित और क्रियमाण कर्म ज्ञानाग्नि में जलकर भष्म हो जाते हैं, वे अपना शेष जीवन कैसे व्यतीत करते हैं ?   
19. 👉किसी जीवनमुक्त (ब्रह्मविद) शिक्षक का अन्तिम लक्ष्य(The Ultimate Goal of an Enlightened Person) इस तीसरे श्लोक में " Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" 
(श्रुति परम्परा) में प्रशिक्षित किसी  ब्रह्मविद- शिक्षक/नेता का जीवन तथा उसके जीवन अंतिम लक्ष्य क्या होता है, उसको आदि शंकराचार्य ने स्वयं अपने जीवन के उदाहरण से स्पष्ट किया है। आचार्य शंकर तीसरे श्लोक के अंत में कहते हैं -भूतं भावि च दुष्कृतं ' - जिस साधक को माँ जगदम्बा (ठाकुर-माँ -स्वामी जी) की कृपा से जब (14-4-92) ब्रह्मज्ञान हो जाता है,  तब वह ज्ञानाग्नि उसके सभी प्रकार के संचित और क्रियमाण कर्मों को जला कर राख कर देती है। किन्तु आत्मज्ञानी/ब्रह्मज्ञानी/या जीवनमुक्त होने के बाद उसका शरीर तुरन्त नष्ट नहीं हो जाता। तब वह अपने अनुभव से जानता है कि मैं वही ब्रह्म (witness consciousness जगत्साक्षिणी माँ जगदम्बा) हूँ !...I am SHE! - अर्थात जिसका व्यष्टि अहं, माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं' या 'मैं'-बोध में रूपान्तरित हो गया है। जीवनमुक्त होकर भी  आत्मज्ञानी अपने उसी शरीर में ही रहता है, उस जीवनमुक्त अवस्था में उससे जो कर्म होते हैं, उन कर्मों का क्या होता है ?- 'प्रारब्धाय समर्पितं' इस जीवन में जो कुछ हो रहा है, वह सब मेरे पूर्वजन्म में किये गए कर्मों का फल है।  ब्रह्मविद पुरुष जानता है कि पूर्व जन्म के शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य आदि कर्मों के अनुसार होने वाले सुख-दु:ख देह-मन के हैं, मैं तो साक्षीरूप आत्मा हूँ। वह अपने आपको कर्ता-भोक्ता ही नहीं मानता। वह अपने साक्षी स्वरूप में लीन रहता है और वर्तमान में होने वाले देह के प्रारब्ध कर्मों के भोगों से निर्लिप्त और मुक्त (कर्ता-भोक्ता होने के भ्रम से मुक्त) रहता है। उस जीवनमुक्त शिक्षक को अब इस जगत से कुछ भी पाना नहीं होता, उस नेता का जीवन केवल देने के लिए ही होता है। 
उस 'प्रारब्धाय समर्पितं अवस्था ' के विषय पर स्वामी विवेकानन्द अपने एक भाषण 'वास्तविक और व्यावहारिक मनुष्य।'  कहते हैं - " जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, सत्य का साक्षात्कार कर लिया है , उनके लिए अतीत जीवन का शुभ संस्कार, शुभ -वेग ही बच रहता है। शरीर में वास करते हुए, और अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सतकर्म ही करते हैं। उनके मुख से सबके प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है, उनके हाथ केवल सत्कार्य ही करते हैं। उनका मन केवल सतचिन्तन ही कर सकता है। उनकी उपस्थिति ही, चाहे वे कहीं भी रहें सर्वत्र मानवजाति के लिए महान आशीर्वाद होती है। वे स्वयं एक सजीव आशीर्वाद होते हैं। ऐसा व्यक्ति अपनी उपस्थिति मात्र से घोर दुरात्मा को भी सन्त बना देता है। " २/३८ 
 [THE REAL AND THE APPARENT MAN- He is himself a living blessing. Such a man will, by his very presence, change even the most wicked persons into saints. Even if he does not speak, his very presence will be a blessing to mankind.]  
किन्तु यह सब सुनकर हमें अभी ही उछलना शुरू नहीं करना चाहिए, श्रवण-मनन-निदिध्यासन द्वारा इन्हें धैर्य पूर्वक आत्मसात करने की चेष्टा करनी चाहिए। क्योंकि स्वामी जी ने यह बात हम जैसे स्टूडेन्ट्स या सामान्य मनुष्यों (या कामिनी-कांचन में आसक्त गृहस्थ लोगों) के लिए नहीं, ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति लिए कही है। हमलोग अभी यदि विद्यार्थी जीवन में हों, या गृहस्थ-आश्रम के धर्म (अनिवार्य कर्तव्य) से बंधे हुए हों, तो हमारे लिए पहले अपने जीवन के सांसारिक लक्ष्यों को पूरा करना,  धन कमाना और परिवार का भरणपोषण करना भी आवश्यक होता है। अतः अपने विद्यार्थी जीवन या गृहस्थ जीवन के लक्ष्यों (धर्म, अर्थ, काम) को पाने के कर्तव्यों का ठीक ठीक पालन करते हुए,  हमें  ब्रह्मज्ञान पाने के लिए महामण्डल द्वारा निर्देशित 3H विकास के 5 अभ्यासों का पालन भी करते रहना चाहिए।  किन्तु किसी ब्रह्मज्ञ व्यक्ति (पूर्णतः निःस्वार्थ व्यक्ति)  को अब स्वयं की किसी इच्छा (वासना) को पूर्ण  लिए अपने शरीर-मन  की आवश्यकता अपने लिए नहीं रह जाती। परमारथ के कारणे साधु धरा शरीर। जीवनमुक्त शिक्षक का शरीर दूसरों के कल्याण के लिए ही होता है।
 जुलाई 1894 ई. में स्वामी विवेकानन्द ने 'सहस्त्रद्वीपोद्यान' (Thousand lsland Park) , न्यूयार्क में   "सन्यासी का गीत (The song of the Sannyasin)  नामक मूल अंग्रेजी में रचित कविता (विवेकानन्द साहित्य  हिन्दी खण्ड 10 /पृष्ठ 173 में इसी  'प्रारब्धाय समर्पितं'  जीवनमुक्त शिक्षक की अवस्था का वर्णन किया है। जिसका काव्यानुवाद सुमित्रानन्दन पन्त जी ने किया है ! )  
"Who sows must reap," they say, "and cause must bring
The sure effect:- good, good; bad, bad ! and none
Escape the lawBut whoso wears a form
Must wear the chain." 
Too true; but far beyond 
Both name and form is Atman, ever free.
Know 'thou' art 'That', Sannyasin bold!
 Say—
"Om Tat Sat, Om! "
'जो बोया वह काटना' कहते हैं -निश्चित 'कारण-कार्य -विधान ! 
कहते 'शुभ का शुभ; अशुभ का अशुभ' धीमान,  
कर सकता नहीं अतिक्रमण कोई नियम का इस,
किन्तु देह धारी चाहे जो कोई हो, अवतार-वरिष्ठ भी ? 
जब तक लीला-शरीर धारण किये हैं, तब तक सारे हैं निश्चित ही बद्ध।" 
बात यह बिल्कुल सही ! 
किन्तु अत्यन्त परे, देश-काल -निमित्त से भी परे,
नाम और रूप दोनों से परे है जो 'आत्मा' -प्रोता जगत्साक्षिणी ! 
'वह' सदा मुक्त, बन्धन रहित !     
'तत्', वह, और  त्वम्, तू; दोनों एक हैं,
इसलिए  कहो - ' सा एव अहं !', "I am She !"
सन्यासी निर्भीक, गाओ 
ॐ तत्सत् ॐ
Heed then no more how body lives or goes,
Its task is done. Let Karma float it down;
Let one put garlands on, another kick
This frame; say naught. No praise or blame can be
Where praiser praised, and blamer blamed are one.
Thus be thou calm, Sannyasin bold! Say—

"Om Tat Sat, Om!"
मत सोचो-आगे देह साथ रहे या न 
भोग इसे पूरा करना, कर्म बढ़ाते आयु 
चाहे फूल माला मिले या घोर अपमान 
देह को, प्रतिक्रिया से शून्य हो, दोष प्रशंसा है नहीं 
जब प्रशंसक -प्रशंसित और दोषी- दोषित एक
यह जानो, हो शांत, सन्यासी निर्भीक गाओ 
ॐ तत्सत् ॐ 
Truth never comes where lust and fame and greed
Of gain reside. No man who thinks of woman
As his wife can ever perfect be;
Nor he who owns the least of things, nor he
Whom anger chains, can ever pass thro’ Maya’s gates.
So, give these up, Sannyasin bold! Say—

"Om Tat Sat, Om!"
सत्य न आता पास , जहाँ है मल ,यश , लालच 
का कतिशय अस्तिव, 
नहीं पूर्ण वह पुरुष/नेता, जिसे अपनी स्त्री -'श्रीमती' या 'पर नारी ' में होती 'भोग्या' का भास 
न वह जो संग्रह करे सामग्री, न वह  जो क्रोधी (चाण्डाल) है- जा सके कभी माया से पार; 
इसी लिये त्यागो इन्हें सन्यासी निर्भीक गाओ-
ॐ तत्सत् ॐ 
Have thou no home. What home can hold thee, friend?
The sky thy roof, the grass thy bed; and food
What chance may bring, well cooked or ill, judge not.
No food or drink can taint that noble Self
Which knows Itself. Like rolling river free
Thou ever be, Sannyasin bold! Say—

"Om Tat Sat, Om!"
मत अपना घर को कहो, किस घर के तुम मित्र?
अम्बर की छत है तुम्हें, और घास तुम्हारी खाट- और खाने को?
--जो दे समय! पका -अधपका, ना गुनो
न भोजन, न पेय ही छू सकते वह तेज 
जो जागृत है आत्म में, बहते झरने की तरह 
तुम भी बहते जाओ सन्यासी निर्भीक, गाओ -

ॐ तत्सत् ॐ
Few only know the truth. The rest will hate
And laugh at thee, great one; but pay no heed.
Go thou, the free, from place to place, and help
Them out of darkness, Maya’s veil. Without
The fear of pain or search for pleasure, go
Beyond them both, Sannyasin bold! Say—

"Om Tat Sat, Om!"
सत्य जानते कोई ही, शेष करेंगे द्वेष- उपहास,  
व्यंग बाण जो साधते तुम पर तेजस्वी! ना दो कोई ध्यान-
रहो अग्रसर, मुक्त। 
यत्र-तत्र आयोजित युवा-प्रशिक्षण शिविरों में निर्भय विचरो, 
अंधकार पीड़ित जीवों के खोलो माया-पास !  
दो सहयोग उन्हें जो अज्ञान वश, माया से हैं आक्रान्त। 
बिना विचारे कष्ट-भय या खोजे ही सुख,   
जाओ इन दोनों के पार
सन्यासी निर्भीक गाओ 
ॐ तत्सत् ॐ
[साभार- कविताकोश, सन्यासी का गीत / मंजुला सक्सेना
आचार्य शंकर ऋग्वेद,यजुर्वेद और सामवेद से लिए गए महावाक्यों का वर्णन करने के बाद अब अथर्व-वेद के  माण्डूक्योपनिषद से लिए गए महावाक्य ,'अयमात्मा ब्रह्म ' - this very self is Brahman का अर्थ प्रतिपादन करते हैं। प्राणिमात्र में सबसे स्पष्ट और असंदिग्ध प्रतीति 'मैं ' (मैं M/F हूँ) की ही है। वही 'व्यष्टि अहं' जब निष्काम कर्म द्वारा प्रारब्ध क्षय करते हुए एक दिन माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं 'मैं-बोध' में रूपांतरित  हो जाती है; उसी सर्वव्यापी विराट अहं की प्रतीति [I am SHE] की प्रतीति हो जाने से आत्मा और ब्रह्म की एकता भी सिद्ध हो जाती है। इस अनुभूति के बाद 'श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द  वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित अपने गुरुदेव के मुख से अविनाशी नित्य ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण देव) को जान कर, 'प्रशिक्षित ब्रह्मविद शिक्षक बनने और बनाने की पद्धति'  को  निर्भयता के साथ, सुख-दुःख, मान-अपमान की परवाह किये बिना भारत के गाँव -गाँव में आजीवन फैलाते हुए अपने कर्मों का क्षय करो !
 " स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा" के प्रतिष्ठाता [C-in-C] श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय  का निरंतर ध्यान करते हुए जिसका मन सचमुच शान्त हो गया है;  जिसने सत चित रूपी ज्ञान की अग्नि में भूत और भविष्य के दुष्कर्मों (निषिद्ध कर्मों) को जलाकर खत्म कर दिया तथा अपने शरीर को प्रारब्ध के हाथों समर्पित करके जीवन और मरण में भी लिप्सा रहित रहता है। ऐसा पुरुष श्रेष्ठ कोई भी हो-चाहे चाण्डाल शरीर में हो या विप्र शरीर में हो - चाण्डाल हो अथवा द्विज हो, [प्रमोद दा हों या बासु दा हों] वही मेरा गुरु है;  वह वही मेरा गुरु है, यही मेरा दृढ़ निश्चय (विवेकज-ज्ञान) या मनीषा है ! 
20.👉वेदान्तिक निदिध्यासन (Vedantic contemplation)मनीषा पंचक के चौथे श्लोक में यहाँ आँखों को मूँदकर नहीं , आँखों को खोलकर वेदान्तिक निदिध्यासन  पर चर्चा की गयी है। या खुली आँखों से ध्यान करने की पद्धति पर चर्चा की गयी है।  ऐसे नहीं कि ब्रह्म (ठाकुर देव) सिर्फ मेरे हृदय में विद्यमान हैं। आँखों को खोलने से जो कोई भी दीखता है, ब्रह्म ही हैं। यहाँ तक कि जब हम जगत के सात व्यवहार कर रहे हैं --किसी के साथ बातचीत भी कर रहे हैं, घूम रहे हैं, खा रहे हैं,  तब भी ब्रह्म की ही अनुभूति करने की चेष्टा करनी चाहिए। खुली आँखों से यह ध्यान रखना कि बिना क्रोध किये ही अमुक व्यक्ति (नितीश चन्द्रा) के साथ नहीं, बल्कि 'ब्रह्म' (witness consciousness) के साथ-व्यवहार कर रहे हैं। श्री रामकृष्ण देव कहते थे , " क्या सिर्फ ऑंखें मुंदने से ही भगवान दिखाई देंगे, खोलने से भगवान क्यों नहीं दिखाई देंगे ? तब वे कैसे भगवान हैं ?"  
या तिर्यङ्नरदेवताभिरहमित्यन्तः स्फुटा गृह्यते
यद्भासा हृदयाक्षदेहविषया भान्ति स्वतो चेतनाः ।
ताम् भास्यैः पिहितार्कमण्डलनिभां स्फूर्तिं सदा भावय
न्योगी निर्वृतमानसो हि गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ ४
यहाँ आचार्य शंकर बहुत सुंदर ढंग से यह समझा रहे हैं कि, " किसी ब्रह्मज्ञान से रहित व्यक्ति  
( unenlightened person) के मन की प्रतिक्रिया (body, mind, senses-का ताक्षणिक रिएक्शन)  या उसके इंद्रियों के ताक्षणिक क्रियाकलाप [मेरी ही शक्ति -आत्मा की अविद्या शक्ति या माया] उसके साक्षी चेतना, आन्तरिक सचेतनता (inner awareness या आत्मबोध) पर आवरण डाल देती हैं। उसके आत्मबोध को धुँधला बना देता है। उसकी साक्षी चेतना को छिपा देती हैं।  और हम अपने 'व्यष्टि अहं के शरीर-मन 'के साथ ही चिपके रह जाते हैं। (for an unenlightened person the activities of the mind , activities of the senses clouds the inner awareness.)  
'निवृत्त मानसः' साध्य को बतलाता है। आत्मज्ञानी व्यक्ति (enlightened person) को सदैव यह अनुभव होता रहता है कि मैं स्वरूपतः शुद्ध चेतना (pure consciousness) हूँ , और जिस जड़ शरीर-मन (अहं) -इन्द्रियों की सहायता से जगत में व्यवहार कर रहा हूँ, उस (M/F) शरीर और मन की प्रत्येक गतिविधियाँ इसी अनुभवकर्ता  - 'I the Consciousness ' के प्रकाश से ही प्रकाशित हो रही हैं। मेरे शरीर -मन की प्रत्येक गतिविधियाँ मुझे अपने यथार्थ स्वरूप - चेतना (I the pure Consciousness) की स्मृति में जाग्रत रखती है।  सर्प आदि तिर्यक योनि, मनुष्य, देव, गंधर्व आदि  द्वारा यह शरीर ही  'मैं'- हूँ, ऐसा "अहम्-भाव", जो भीतर से स्पष्ट अनुभव किया जाता है। एवं जिसके प्रकाश से मन , इन्द्रियाँ, M/F शरीर एवं विषय अचेतन (जड़) होते हुए भी प्रतिबिंबित चेतना (reflected consciousness) के रूप में प्रकाशित होते रहते हैं।
 अर्थात जिस योगी का मन अपने कारण अज्ञान (ignorance, अविद्या-Bh माया) से हट गया है या निवृत्त हो गया है, मोक्ष-सुख जिस मन को प्राप्त है --वह निवृत्त मानस है। जो पशु, मनुष्य, देवता आदि सभी प्राणियोँ में 'अहं-अहं' रूप से प्रकट है, जिसकी चेतना के प्रकाश में स्वयं जड़ होते हुए भी इन्द्रियाँ, देह और उनके विषय चेतन प्रतीत होते हैं जो बादलों के पीछे छिपे सूर्य की तरह अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित कर रहा है - उस परम तत्व में जिस योगी का शांत मन सदा स्थिर रहता है . . सर्प आदि तिर्यक योनि, मनुष्य या देवादि द्वारा "अहम्" मैं-यह हूँ,  ऐसा समझकर गृहीत होता है । उसी के प्रकाश से स्वत: जड़, हृदय, देह और विषय भाषित होते हैं । जो मेघ से आवृत सूर्य -मण्डल के समान विषयों से आच्छादित है, उस चेतन रूप आत्मा (आत्मज्योति-श्रीरामकृष्ण देव) का निरंतर ध्यान करते हुए मोक्ष-सुख से युक्त मन वाला (de-hypnotized) आनन्द में निमग्न योगी (व्यक्ति) चाहे द्विज (नवनी दा)  हो या मेहतर (उत्तम दा) मेरे गुरु की ही मूर्ति है, ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय (मनीषा) है। 
21.👉 सुख (आनन्द) की वैदिक अवधारणा (Vedantic idea of happiness )-सुख के विषय में वेदान्त की अवधारणा क्या है ? अभी तक हमलोग केवल शुद्ध चेतना, साक्षी चेतना और प्रतिबिम्बित चेतना - (pure, witness and reflected Consciousness) के ऊपर ही चर्चा सुन रहे थे। किन्तु हमलोगों का लक्ष्य तो-'Be a heart whole man' था परिपूर्ण हृदय वाला वह मनुष्य बनना था,  परमानन्द प्राप्ति था  जिसके हृदय में आनंद की पूर्णता का असीम सागर -Bliss  ठाठे मारता है। 'limitless ocean of fulfillment happiness' आनंद की पूर्णता का असीम सागर हो जाना हमारा स्वभाव है। उस आनन्दस्वरूप का -fulfillment happiness का क्या हुआ?  यहाँ अन्तिम श्लोक में आचार्य शंकर ब्रह्म के आनन्द स्वरूप का निरूपण करते हैं। 
यत्सौख्याम्बुधि लेशलेशत इमे शक्रादयो निर्वृता
यच्चित्ते नितरां प्रशान्तकलने लब्ध्वा मुनिर्निर्वृतः।
यस्मिन्नित्य सुखाम्बुधौ गलितधीर्ब्रह्मैव न ब्रह्मविद्
यः कश्चित्स सुरेन्द्रवन्दितपदो नूनं मनीषा मम ॥ ५ ॥
प्रशान्त -चित्त में जब सभी कलन अर्थात कल्पनायें नितरां - अर्थात पूर्ण रूप से प्रशान्त अर्थात सकारण नष्ट हो जाती हैं, तभी ऐसे चित्त में श्रवण-मननशील यति (मुनि) साक्षात् अर्थात अपरोक्ष रूप से पूर्णहन्ता की अनुभूति को प्राप्त करता है। ऐसा सुबुद्धिमान ही मननशील होकर भ्रम-मुक्त होता है। बुद्धि को भी निर्विकल्प -समाधि में लीन कर देने पर ही -इस प्रकार का 'नित्य-सुख -समुद्र' - उपलब्ध होता है। 
जिस सुख-समुद्र के फुहार की एक बूँद से इन्द्र आदि देवगण आनन्द वाले होते हैं , एवं जिस चित्त के अत्यन्त शान्त स्थिति से मुनि परम् आनन्द को प्राप्त कर लेते हैं। जिस आनंद सागर के लेश मात्र से इंद्र आदि भी शेष सब बिसार देते हैं, जिसमें चित्त लगाकर मुनि सदा शांति में पहुँचकर निर्व्रित्त हो जाते हैं । नित्य सुख सागर में जिसकी बुद्धि लीन हो गई है, ऐसे, देवेन्द्र द्वारा पूजित चरणों वाले कोई 'ब्रह्मविद' नहीं बल्कि साक्षात 'ब्रह्म' ही हैं। .( यही मेरे गुरु हैं) ऐसी मेरी मनीषा है ॥
 आचार्य शंकर अंतिम श्लोक में कहते है - "गलितधी ब्रह्मैव न च ब्रह्मविद्"  अर्थात  नित्य परिपूर्ण सुख-सागर में 'अहं -बुद्धि' के लीन हो जाने पर 'आत्मा' ब्रह्म का ज्ञाता  (ब्रह्मविद) नहीं वरन ब्रह्म ही बन जाता है। अद्वैत वेदान्त श्रुति-परम्परा में प्रशिक्षित कोई भी व्यक्ति [Would be Leader] जब  सचमुच ब्रह्म (परम् सत्य) को जान जायेगा, तो वह यही जानेगा कि-- 'मैं ब्रह्म हूँ'। किन्तु यदि कोई (भावी नेता) यह कहे कि - 'मैं ब्रह्म को जानता हूँ', तो इसका अर्थ यही होगा कि वह कुछ नहीं जानता है। One who knows -He knows , knows nothing !  किसी पाश्चात्य व्यक्ति ने अपने भारतीय गुरु का परिचय देते हुए बड़े शान से कहा - You are the great knower of Brahman ! वे नाराज हो गए - और कहा , तुम मेरी बेइज्जती कर रहे हो ? कैसे ? यह तो हमारी संस्कृति में सबसे आदरयुक्त विशेषण है। NO, no , no-- 'I am not the knower of Brahman , I am Brahman !' मैं ब्रह्म का ज्ञाता नहीं हूँ, मैं ब्रह्म हूँ! 
[आप ब्रह्म को जानते हैं या नहीं ? यह पूछने पर पूज्य नवनी दा कहते थे - " मैं ऐसे 7 लोगों को जानता हूँ, जो ब्रह्म को जानते हैं ! क्योंकि स्वामी विवेकानंद - कैप्टन सेवियर  Be and Make -Vedanta 'C-in-C' Leadership Training Tradition"  या ' बनो और बनाओ वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित नेता (बुद्धत्व प्राप्त जीवनमुक्त शिक्षक) ब्रह्म को जानने वाला नहीं 'ब्रह्म' (परम् सत्य) ही बन जाता है। ]   
 र्ब्रह्मैव न च ब्रह्मविद्--  प्रशांत काल में - अर्थात 'नमक के पुतले द्वारा सागर की गहराई नापने की चेष्टा करते समय', या बुद्धि के आनन्द सागर में गल जाने (लीन हो जाने) की अवस्था में योगी का अंत:करण उस  परमानंद कि अनुभूति करता है जिसकी मात्र एक बूँद ही  इन्द्र आदि को तृप्त और संतुष्ट कर देती है । जिसने अपनी बुद्धि को ऐसा परमानंद सागर में विलीन कर लिया है वह मात्र ब्रह्मविद ही नहीं स्वयं ब्रह्म है । जिन इन्द्र, ब्रह्मा, बृहस्पति आदि देवगण को अत्यधिक ऐश्वर्य और सुख वाला माना गया है, वे भी ब्रह्म-ज्ञानी की चरण -वंदना करते हैं। अतः उस शिवयोगी की अवस्था को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य या सर्वोत्तम साध्य है।वैसा शिक्षक अति दुर्लभ है,ऐसा जो कोई भी होवे देवगणों के अधिपतियों के द्वारा भी उसके चरण वन्दनीय होते हैं, जिसके चरणों की वन्दना देवराज भी करते हैं वह मेरा गुरु है । ऐसी मेरी मनीषा है॥५॥
यहाँ पाँचवे श्लोक में आदिशंकराचार्य  जीव और ब्रह्म में एकता के प्रतिपादक चारों महावाक्यों का निरूपण करने  के बाद "ब्रह्म-ज्ञान के फल"  का निरूपण करते हैं। तथा किसी सत्यान्वेषी साधक (एथेंस का सत्यार्थी) में आत्मज्ञान की प्रवृत्ति में रूचि को बढ़ाने के लिए,  ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की प्रवृति में  गहरी निष्ठा रखने वाले उस  'सत्यार्थी' को ही भावी गुरु रूप से सिद्ध कर देते हैं । 
 महाभारत के विदुर नीति 4 /14 में कहा है -
 'यतो यतो निवर्तते तस्ततो विमुच्यते। 
निवर्तनाद्धि सर्वतो न वेत्ति दुःखमण्वपि।।'
  - अर्थात मनुष्य स्वयं को (मन को) जिन - जिन विषयों से दूर हटाता जाता है , उन - उन विषयों से वह मुक्त्त होता जाता है।  इस तरह यदि मनुष्य सभी प्रकार के विषयों में आसक्ति का त्याग कर दे अर्थात् निवृत्त हो जाए तो उसे अणुमात्र दुःख का भी कभी अनुभव नहीं होता । 
तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है - ' यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न विभेति कुतश्चनेति। एतं ह वाव न तपति । किमहं साधु ना करवम् किमहं पापमकरवमिति। स य एवं विद्वानेते आत्मानं स्पृणुते उभे ह्येवैष एते आत्मानं स्पृणुते । य एवं वेद। इत्युपनिषत्॥ 
उस (ब्रह्म) को न पा करके, जहाँ से वाणी, मन के सहित वापस लौट आती है। उस ब्रह्म के आनन्द को जानने वाला किसी से भी भयभीत नहीं होता। उस विद्वान को, 'मैंने शुभ (कर्म) क्यों नहीं किया ? मैंने पाप (कर्म) क्यों किया ?' इस प्रकार की चिन्ता सन्तप्त नहीं करती । (पाप और पुण्य को ही ताप का कारण मानने वाला) जो विद्वान अपनी आत्मा को प्रसन्न (आनंदित) रखता है उसे ये दोनों आत्मस्वरूप ही दिखायी देते हैं । जो इस प्रकार (पूर्वोक्त अद्वैत आनन्दस्वरूप ब्रह्म को) जानता है । ( वह कौन है ?) ऐसी ही यह उपनिषद् (रहस्यविद्या) है ।(तैत्तिरीय अपनिषद्) ऐसा होने से उस ब्रह्मानन्द की असीमता कल्पनातीत है। इसी से उसे आनन्द का समुद्र कहा जाता है। इस अवस्था में पहुँचकर स्वामी जी अपने सन्यासी गीत में कहते हैं --
Thus, day by day, till Karma’s powers spent
Release the soul for ever. No more is birth,
Nor I, nor thou, nor God, nor man. The "I"
Has All become, the All is "I" and Bliss.
Know thou art That, Sannyasin bold! Say—

"Om Tat Sat, Om!"
ऐसे ही जीते रहो जब तक कर्म हों नाश
मुक्त करो आत्मा को, जन्म की हो न आस
'न मैं,न तू, न प्रभु, न ही मानव मान, "मैं " ही  
सब कुछ हो चुका, सबकुछ है "मैं " और आनन्द !  
जानो तुम तो हो वही, सन्यासी निर्भीक गाओ 
ॐ तत्सत् ॐ     
ऐसा शिव योगी  (स्वामी विवेकानन्द के जैसा योगी)  इन्द्र आदि देवताओं का भी स्वामी है एवं उनका पूज्य है। यह सर्व-वेदान्त सिद्धान्त है। इस प्रकार आचार्य शंकर द्वारा अपना दृढ़ निश्चय (मनीषा) प्रकट करने पर वह चाण्डाल उन्हें चाण्डाल रूप में न दिखकर साम्बसदाशिव रूप में प्रतीत हुआ। वस्तुतः तो समग्र विश्व ही 'अन्त्यज' है , क्योंकि पंचमहाभूतों के पंचीकरण होने के बाद सबसे अन्त में उत्पन्न हुआ है। ज्ञान की पूर्णावस्था में सर्वत्र शिव दृष्टि हो जाने के बाद, यह अन्त्यज उपाधि भी, साधक अवस्था में वैराग्य के लिए जो अनात्म -निवृत्ति (Bh-निवृत्ति) का उपदेश था , वह भी समाप्त होकर सम्पूर्ण जगत में सर्वत्र केवल शिव-तनु ही लक्षित होता है। यही इस कथा का चरम रहस्य है। सभी वेदों के महावाक्यों का संक्षेप में विवरण आ जाने से एवं स्वानुभूति के उपोद्-बल से यह ग्रन्थ विवेकियों को आत्मज्ञान कराने में समर्थ है। इसलिए इसे मनीषा -पंचक कहा गया है।  
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'को ह्येवान्यात् क: प्राण्यात् । यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् ।।' 'कौन शारीरिक चेष्टा करता और कौन जीवित रह पाता है यदि आकाश में यह आनन्द न रहता तो।'महाकाश को पूर्ण करके निरन्तर वही आनन्द विराज रहा है ,इसीलिए हम प्रतिक्षण नि:श्वास ले रहे हैं ,हम प्रति मुहूर्त प्राण धारण कर रहे हैं। 'एतस्यैवानन्द स्यान्यानि भूतानि मात्रा मुपजीवन्ति।'- 'इस ब्रम्हानन्द की एक मात्रा में ही अन्य सारे प्राणियों के समस्त आनन्द स्थित हैं। उस ब्रह्मानन्द के कण मात्र आनन्द का उपभोग अन्यान्य सभी जीव कर रहे हैं।' 'आनन्दाध्येव खल्वि मानि भूतानि जायन्ते ,आनन्देन जातानि जीवन्ति,आनन्दं प्रयन्त्यभि  सं विशन्ति।''उस सर्व व्यापी आनन्द से ही ये सब प्राणी जन्म लेते हैं , उस सर्व व्यापी आनन्द के द्वारा ही ये सब प्राणी जीवित हैं , उस सर्व व्यापी आनन्द के भीतर ही ये सब गमन करते हैं ,प्रवेश करते हैं ।'यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्तु ।'जो भूमा है , वही सुख है ,जो अल्प है ,उसमें सुख नहीं है । 
' रुद्राष्टकम्' में  गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं - 
" नमामीशमीशान निर्वाणरूपं, 
 विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं,
 चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ||१||" 
अनुवाद: हे मोक्षस्वरूप, विभु, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर व सबके  स्वामी श्री शिव जी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरूप में स्थित, गुणों से रहित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन आकाशरूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर आपको भजता हूँ। ध्यान देने की बात है कि स्तुतिकर्ता विप्रवर ने नमामि से पहले प्रायः लगने वाले 'अहम्' शब्द का प्रयोग नहीं किया। यह उनकी अहंकार हीनता का सूचक है। *ईशान* शब्द का अर्थ है--- सभी चराचर जगत् का नियंत्रण जिसके अधिकार में है वह है ईशान। 'ब्रह्मवेदस्वरूपम्' तैत्तिरीय उपनिषद् में  ब्रह्म को परिभाषित करते हुए *सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म* गया है, ब्रह्म को सत्य और ज्ञानस्वरूप  कहा गया है।   
विष्णुसहस्रनाम के शांकरभाष्य में 'निर्वाण' की व्याख्या में कहा गया है- *सर्वदुःखोपशमलक्षणं परमानन्दरूपम्* अर्थात निर्वाणरूप में भगवान् न केवल समस्त दुःखों को शान्त कर देते हैं अपितु परमानंद की स्थिति में भी पँहुचा देते हैं परमानंद वह स्थिति है जो संसारी जीवों के लिए प्रायः अनुभवगम्य नहीं है। निर्विकल्प समाधि में योगीजन ही इसका अनुभव कर पाते हैं। 
'विष्णु सहस्रनाम' में भगवान विष्णु का एक नाम 'आनन्द' भी है। विष्णु सहस्रनाम ग्रंथ के 617 वें मंत्र में कहा गया है  - 'ॐ शतानन्दाय नमः'  SALUTATIONS TO THE ONE WHO IS INFINITE BLISS! यहाँ  भगवान विष्णु को 'शतानन्दः' (Shatanandah) कहकर नमस्कार किया गया है। 
'शतानन्दः' ( One who divides Himself into infinite jivas and experiences through them all.)- अर्थात वह जो स्वयं को अनन्त जीवों में बांटता है, और फिर उन सभी के माध्यम से अपने ही आनन्द का अनुभव करता है। शत + आनन्द = 100 आनन्द => अनन्त आनन्द, यहाँ सौ का उपयोग बृहद (ब्रह्म), सर्वव्यापी विराट सत्ता के संदर्भ में किया गया है।
[विष्णु सहस्रनाम भगवान विष्णु के हजार नामों से युक्त एक प्रमुख स्तोत्र है। महाभारत में उपलब्ध विष्णु सहस्रनाम इसका सबसे लोकप्रिय संस्करण है। प्रत्येक नाम विष्णु के अनगिनत गुणों में से कुछ गुणों को सूचित करता है। अनुशासनपर्व (महाभारत) के १४९ वें अध्याय के अनुसार,पितामह भीष्म जब कुरुक्षेत्र मे बाणों की शय्या पर लेटे हुए थे तब, उन्होंने युधिष्ठिर को इसका उपदेश दिया था। इसके सुनने या पठन से मनुष्य की मनोकामनाएँ पूर्ण होने की मान्यता है।कुरुक्षेत्र युद्ध मे हुई विनाश देख धर्मराज युधिष्ठिर जब विचलित हो गए, तब भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को  सर्वोच्च ज्ञानी भीष्म पितामह से धर्म व नीति के विषय मे उपदेश लेने की प्रेरणा दी।  अपने सभी भाई समेत कृष्ण को साथ लिए युधिष्ठिर पितामह भीष्म के पास पहुँच कर उनका नमन किया और धर्म व नीति के विषय मे विचार करते किए प्रश्न किये -सभी लोकों में सर्वोत्तम देवता कौन है?संसारी जीवन का लक्ष्य क्या है? किसकी स्तुति व अर्चन से मानव का कल्याण होता है? सबसे उत्तम धर्म कौनसा है? किसके नाम जपने से जीव को संसार के बंधन से मुक्ति मिलती है?इसके उत्तर में भीष्मजी ने कहा,"जगत के प्रभु, देवों के देव, अनंत व पुरूषोत्तम विष्णु के सहस्रनाम के जपने से, अचल भक्ति से, स्तुति से, आराधना से, ध्यान से, नमन से मनुष्य को संसार के बंधन से मुक्ति मिलती है। यही सर्वोत्तम धर्म है।"उन प्रश्नों का भीष्म ने  विवरण सहित जो उत्तर दिया था वही  यह सहस्रनाम स्तोत्र है।]
श्रीरामचन्द्र ने एक बार अपने सेवक हनुमान जी से पूछा तुम मुझे किस भाव से देखते हो ? अथवा चिंतन एवं पूजन किया करते हो ? उत्तर में हनुमान जी ने कहा - 
" देहबुद्ध्या तु दासोऽस्मि, जीवबुद्ध्या त्वदंशकः । 
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः॥ " 
(देहबुद्ध्या तु दासः अस्मि, जीवबुद्ध्या त्वत्-अंशकः । आत्मबुद्ध्या त्वम् एव अहम्  इति मे निश्चिता मतिः।) अर्थात भगवन जब मैं यह अनुभव करता हूँ कि मैं यह देह (स्थूल शरीर) हूँ, तब मैं देखता हूँ कि आप प्रभु हैं, और मैं दास हूँ, आप सेव्य हैं -मैं सेवक हूँ, आप पूज्य हैं -मैं पूजक हूँ। और जब मन-बुद्धि विशिष्ट जीवात्मा (सूक्ष्म शरीर) के रूप में अपने को अनुभव करता हूँ, तब मैं देखता हूँ कि आप पूर्ण हैं मैं अंश हूँ (आप समुद्र हैं मैं लहर हूँ, आप मिट्टी के हाथी हैं मैं मिट्टी का चूहा हूँ।) किन्तु जब समाधि में समस्त उपाधिरहित शुद्ध आत्मा के रूप में मैं अवस्थित रहता हूँ (कारण शरीर में  उपस्थित रहता हूँ?) तब देखता हूँ जो आप हैं, वही मैं हूँ -मैं और आप एक हैं, दोनों में कोई भेद नहीं है।  
श्रीरामकृष्ण देव कहते थे " जब तक 'मैं-तुम 'तथा 'कहना-सुनना' इत्यादि हैं, तब तक 'निर्गुण-सगुण', 'नित्य तथा लीला' इन दोनों भावों को कार्यतः स्वीकार करना ही पड़ेगा। उस समय मुँह से भले अद्वैतवाद की चर्चा की जाय, किन्तु कार्य तथा आचरण में 'विशिष्टाद्वैतवाद' (मैं श्रीरामकृष्ण के दासों का दास हूँ-भाव) ही रखना पड़ेगा ! संगीत में जैसे आरोह और अवरोह होते हैं - सारेगमपधनीसा' इस क्रम से स्वर को चढ़ाने के पश्चात् पुनः 'सानिधपमगरेसा' - इस प्रकार स्वर को नीचे उतारना होता है।  उसी प्रकार समाधि में अद्वैत ज्ञान का अनुभव कर लेने के बाद पुनः नीचे उतरकर वीर हनुमान जी की तरह हमें भी 'मेँ'-भाव का अवलम्बन कर अवस्थित रहना पड़ेगा। 
[http://vivek-anjan.blogspot.com/2018/12/2.html]
हम अपनी दिव्यता से अनजान क्यों हैं?  माया क्या है ? -स्पष्ट करें ! 
 (Why Are We Unaware of our Divinity?The Concept of Maya, If you cut the branches of a tree, again they will grow. So you must pluck out the root itself. )
जगत् और सृष्टि के संबंध में अद्वैत वेदान्तियों ने नैयायिकों के 'आरम्भवाद' (ईश्वर सृष्टि उत्पन्न करता है) और सांख्य के 'परिणामवाद' [सृष्टि का विकास उत्तरोत्तर विकार या परिणाम (दूध से दही जैसा परिणाम) द्वारा अव्यक्त प्रकृति से आपसे आप होता है) के स्थान पर 'विवर्तवाद' की स्थापना की है,  जिसके अनुसार जगत् ब्रह्मा का विवर्त या कल्पित रुप है । 
रस्सी को यदि हम सर्प समझें तो रस्सी सत्य वस्तु है और सर्प उसका विवर्त या भ्रांतिजन्य प्रताति है । इसी प्रकार ब्रह्म  तो नित्य और वास्तविक सत्ता है और नामरुपात्मक् जगत् उसका विवर्त है । यह विवर्त अध्यास द्वारा होता है । जो नामरुपात्मक दृश्य हम देखते हैं वह न तो ब्रह्म का वास्तव स्वरुप ही है, न कार्य या परिणाम ही क्योकि ब्रह्म निर्विकार और अपरिणामी है । अध्यास के संबंध में कहा जा सकता है कि सर्प कोई अलग पदार्थ है तब तो उसका आरोप होता है । 
अतः इस विषय को और स्पष्ट करने के लिये 'दृष्टि'- सृष्टि-वाद' उपस्थित किया जाता है जिसके अनुसार माया या नाम-रुप मन की वृत्ति है । मन ही नाम-रूप की सृष्टि करता है और मन ही उसको देखता, सूँघता, सुनता, चखता और स्पर्श करता है। ये नाम-रुप उसी प्रकार मन या वृत्तियों कें बाहर की कोई वस्तु नही है, जिस प्रकार जड़ चित् के बाहर की कोई वस्तु नहीं है । इन वृत्तियों का शमन ही मोक्ष है । 
इन दोनों वादों में कुछ त्रुटि देखकर कुछ वेदांती 'अवच्छेद-वाद' का आश्रय लेते हैं । वे कहते है कि ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् की जो प्रतीति होती है, वह एकरस या अनवच्छिन्न सत्ता के भीतर माया द्वारा अवच्छेद या परिमिति के आरोप के कारण होती है । कुछ अन्य वेदांती इन तीनों वादों के स्थान पर बिंब- प्रतिबिंब-वाद उपस्थित करते हैं और कहते हैं कि ब्रह्म (शुद्ध चेतना)  प्रकृति या माया के बीच अनेक प्रकार से प्रतिबिंबित होता है जिससे नामरुपात्मक दृश्यों की प्रतीति होती है । 
अन्तिम वाद 'अजात वाद' है जिसे 'प्रौढ़िवाद' भी कहते है । यह सब प्रकार की नामरूप (जगत) उत्पत्ति , चाहे वह विवर्त के रुप में कही जाय, चाहे दृष्टी- सृष्टी या अवच्छेद या प्रतिबिंब के रुप में—अस्वीकार करता है और कहना है कि जो जैसा है वह वैसा ही है और सब ब्रह्म है । ब्रह्म अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन शब्दों द्वारा हो ही नहीं सकता क्योंकि हमारे पास जो भाषा है, वह द्वैत हा की है; अर्थात् जो कुछ हम कहते हैं भेद के आधार पर हो । यद्यपि ब्रह्म का वास्तविक या पारमार्थिक रुप अव्यक्त, निर्गुण और निर्विशेष है, तथापि व्यक्त और सगुण रुप भी उसके बाहर नहीं है ।
 पंचदशी में इन सगुण रुपों का विभेद प्रतिबिंबावद के शब्दों में इसी प्रकार समझाया गया हैः रजोगुण की प्रवृत्ति से प्रकृति दो रुपों में विभक्त होती है—सत्वप्रधान और तमः प्रधान । सत्वप्रधान के भी दो रुप हो जाते है—शुद्ध सत्व (जिसमें सत्व गुण पूर्ण हो) और अशुद्ध सत्व (जिसमे सत्व अँशतः हो) । प्रकृति के इन्हीं भेदों में प्रतिबिंबित होने के कारण ब्रह्म को 'जीव' कहते हैं ।
 वेदांत या अद्वैतवाद से साधारणतः शंकराचार्य प्रतिपादित अद्वैत- वाद लिया जाता है जिसमें ब्रह्म स्वगत, सजातीय और विजातीय तीनों भेंदों से परे कहा गया है । पर जैसा ऊपर कहा जा चुका है, बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर रामानुजाचार्य और शंकराचार्य के भाष्य भी हैं । रामानुज के अद्वैतवाद को 'विशिष्टद्वैत' कहते हैं; क्योकि उसमें ब्रह्म को चित् और अचित् इन दो पक्षों से युक्त या विशिष्ट कहा है । ब्रह्म के इसी सूक्ष्म चित् और सूक्ष्म अचित् से स्थूल चित् (जीव) और स्थूल अचित् (जड़) उत्पन्न हुए । अतः रामानुज के अनुसार ब्रह्म केवल निर्मित्त कारण है; उपादान हैं जड़ (स्थूल अचित्) और जीव (स्थूल चित्) । इस मत के अनुसार जीव को ब्रह्म का अंश कह सकते हैं । पर शंकर मत से नही; क्यों- कि उसमें ब्रह्म सब प्रकार के भेदों से परे कहा गया है । 
वल्लभाचार्य जी का अद्वैत 'शुद्वाद्वैत' कहलाता है, क्योकिं उसमें रामानुजकृत दो पक्षों की विशिष्टता हटाकर अद्वैतवाद शुद्ध किया गया है । इस मक के अनुसार सत्, चित् और आनंद- स्वरुप ब्रह्म अपने इच्छानुसार इन तीनों स्वरुपों का आविर्भाव करता रहता है । जड़ जगत् भी ब्रह्म ही है, पर अपने चित् और आनंद स्वरुपों का पूर्ण तिरोभाव किए हुए तथा सत् स्वरुप का कुछ अशंतः आविर्भाव किए हुए है । चेतन जगत् भी ब्रह्म ही है जिसमें सत्, चित् और आनंद इन तीनों स्वरुपों का कुछ आविर्भाव और कुछ तिरोभाव रहता है । 
माया ब्रह्म ही की शक्ति है जो उसी की इच्छा से विभक्त होती है; अतः मायात्मक जगत् मिथ्या नही है । जीव  अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरुप को तभी प्राप्त करता है जब आविर्भाव और तिरा- भाव दोनों मिट जाते है'; और यह बात केवल ईश्वर के अनुग्रह से ही, जिसे 'पुष्टि' कहते हैं, तो सकती है । यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि रामानुज और वल्लभाचार्य केवल दार्शनिक ही न थे, भक्तिमार्गी भी थे ।
माया की अवधारणा (The Nature of Maya):माया का स्वरूप:  किसी व्यक्ति या जीव में रहने वाली अविद्या को ही 'माया' कहा जाता है। हमलोग हमेशा यह सोचते हैं, कि मैं स्वयं सभी प्रकार के दोषों से मुक्त हूँ। हम सोचते हैं कि मैं सभी प्रकार के गुणों से भरपूर हूँ। तथा मैं ही इस जगत का सबसे उत्तम मनुष्य हूँ ! यही माया है।  माया त्रिगुणात्मिका है। तमोगुण जीव को अंधकार और जड़ता में बांध देता है। रजोगुण से जीव आवेग में आकर क्रियाकलाप करने लगता है। सतोगुण ही पवित्रता और अन्तर्हित दिव्यता से संयुक्त करता है। तुम स्वयं अविद्या में रहते हुए अपने स्वयं के दोषों का पता नहीं लगा सकते। 
जगत को ही शाश्वत- सत्य मानने वाले व्यक्ति के लिए माया भी सत् या सत्य ही होती है। नित्य-अनित्य, श्रेय-प्रेय, शाश्वत -नश्वर का पृथक करने वाला विवेकी मनुष्य या विवेक-दर्शन करने का अभ्यासी व्यक्ति माया को  'अनिवर्चनीय' (inexpressible) कहता है। जीवन्मुक्त मनुष्यों के लिए या डीहिप्नोटाइज्ड ब्रह्मविद व्यक्तियों के लिए, जो स्वयं को सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म से अभिन्न समझते हैं, उनके लिए माया तुच्छ ? है -या कुछ भी नहीं है।
जिस प्रकार किसी वृक्ष के जड़ को ही उखाड़ लेने से पूरे वृक्ष को नष्ट किया जा सकता है, उसी प्रकार केवल अविद्या और अज्ञान को नष्ट कर देने से, इस संसार-चक्र के स्रोत को, मन में बैठी हुई वासनाओं, तृष्णाओं, इच्छाओं और कामनाओं को, पूर्णतः (in toto) नष्ट किया जा सकता है। किन्तु यदि केवल वृक्ष की डाली को ही काटा जाय तो, तो वे फिर से बढ़ेंगे। इसलिये यदि वासना के सम्पूर्ण वृक्ष को ही नष्ट करना हो, तो उसे जड़ से उखाड़ना होगा। उसी प्रकार अविद्या को केवल अपरिवर्तनशील सत्य या अविनाशी ब्रह्म (existence-consciousness-bliss) के ज्ञान द्वारा, और निषिद्ध कर्मों का त्याग करके ही नष्ट किया जा सकता है। अविद्या को अविनाशी या ब्रह्म के ज्ञान द्वारा नष्ट किया जा सकता है, न कि गृहस्थों के लिए शास्त्र-सम्मत प्रवृत्तिधर्म का पालन किये बिना, इन्द्रियों का अविवेकपूर्ण अंधाधुंध दमन (indiscriminate  suppression) के द्वारा। अविद्या का नाश हो जाने से , राग-द्वेष का भी नाश हो जायेगा और अस्मिता -अभिनिवेश जन्य सभी क्लेशों का अंत हो जायेगा। राग और द्वेष अविद्या या अज्ञान के ही रूप-परिवर्तन (modifications) हैं, और स्वयं (अविनाशी आत्मा को या सिंहशावक को) को नश्वर M/F शरीर (भेंड़)  मानने से उत्पन्न होते हैं। 
माया की दो शक्तियाँ हैं - आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति। विक्षेप शक्ति से विश्वब्रह्माण्ड का सृजन होता है, वह कोई समस्या नहीं है। आवरण शक्ति ही मूल अज्ञान (Moola-Ajnana) है, जो अंतर्निहित आत्मा के ऊपर आवरण डाल देती है। यह विश्वब्रह्माण्ड माया से, या ईश्वर के कारण-शरीर से (the causal body of Isvara) से उत्पन्न हुआ है, और कल्प के अंत में यह पुनः ईश्वर में ही वापस लौट जायेगा।     
ब्रह्मज्ञान के अभाव को अज्ञान या अविद्या कहा जाता है। अपने यथार्थ स्वरूप या ब्रह्मस्वरूप के विषय में  अनजान रहने को ही अज्ञान (Ajnana) कहा जाता है। जिस प्रकार पहाड़ की मिट्टी से जन्म लेने वाले वृक्ष पहाड़ को ही छिपा देते हैं, जिस प्रकार सूर्य के ताप से उत्पन्न मेघ स्वयं सूरज को ही छिपा देते हैं , उसी प्रकार मेरी ही आत्मा या ब्रह्म की शक्ति (Power of witness consciousness) से उत्पन्न अज्ञान (Ajnana) उस साक्षी चैतन्य या ब्रह्म को छिपा देते हैं।  
पृथ्वी के सभी धर्म ऐसा मानते हैं, कि हमारा यह शरीर पंच भूतों (5 elements ) से बना है -आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्व से बना हुआ है। ये सभी पंचभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश सभी आत्मा या ब्रह्म की शक्ति माया से ही उत्पन्न हुए हैं। पृथ्वी तत्व की तुलना में जल तत्व अधिक सूक्ष्म और सर्वव्यापी (pervasive) है, जल की अपेक्षा अग्नि अधिक सूक्ष्म और व्यापक है। अग्नि की अपेक्षा वायु अधिक सूक्ष्म और व्यापक है। वायु की तुलना में आकाश तत्व अधिक सूक्ष्म और व्यापक है। यदि हम चमेली के कुछ फूलों को इस मेज पर रखते हैं, तो उसकी सुगंध (fragrance) पूरे कमरे में फैल जाती है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि फूल की तुलना में सुगंध अधिक व्यापक (pervasive) है। फूल एक ही स्थान पर रखे हुए हैं, लेकिन उसकी सुगंध सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो जाती है। पृथ्वी की तुलना में वाष्प की नमी अधिक व्यापक है। सूर्य की किरणे जिसमें ताप भी छिपा रहता है, धुप में कागज जलता नहीं गर्म हो जाता है, किन्तु कन्वेक्स लेंस से किरणों को केन्द्रीभूत करने पर कागज जल उठता है। अतः अग्नि तत्व जल तत्व से अधिक व्यापक है। आकाश तत्व को अन्य चार तत्वों का मातृ -तत्व (MATTER -mother -substance) कहा जाता है, क्योंकि वह सर्वव्यापक ( all-pervading) है। बाकी के चारों तत्व सर्वव्यापी आकाश में ही निहित हैं। 
ब्रह्म या परमात्मा (Supreme Being) से ही पंचभूत प्रक्षेपित हुए हैं। महततत्व से सर्वप्रथम आकाश तत्व का जन्म होता है। बाकी के चार भूतों का आवास स्थान आकाश या अंतरिक्ष (space) ही है। आकाश एक बहुत विशाल बर्तन या पात्र (container) के जैसा है। प्राण की सहायता से आकाश में गति उत्पन्न होती है। उस गति को वायु (air) कहा जाता है। वायु के गतिशील होने से ताप उत्पन्न होता है, और वायु से अग्नि का जन्म होता है। इसीलिए वायु के बिना अग्नि जल नहीं सकती। अग्नि ठंढी होने पर जल बन गयी। और जल के जम जाने से पृथ्वी बन गयी।   
वस्तु -अवस्तु विवेक : अतः सृष्टि और ब्रह्म को समझाने के लिये अलग अलग दर्शनों में अलग अलग तरीके से विभाग किये गये हैं। अद्वैत वेदान्ती तीन विभाग करते हैं - सत्- आसत्मिथ्या/अनिर्वचनीय-माया। यहां पर विवेक-प्रयोग का लक्ष्य प्राप्त होता है :  सदसत् कि जगह वस्तु और अवस्तु का प्रयोग इसलिये कर रहे हैं क्योंकि  नित्य आत्मा को ही ‘वस्तु’ कहकर संबोधित किया था । पहले दो तो गीता में वर्णित है - 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः'। सत् वह है जिसका किसी भी काल में अभाव नहीं है जिसकी कभी भी अप्रतीति नहीं होती है जैसे - स्वयं का अनुभव। हमें अपने होने का अनुभव सदा रहता है।  असर्पभूतायां रज्जौ सर्पारोपवत् वस्तुनि अवस्तुः आरोपः – अध्यारोप॥३२॥
(असर्पभूतायाम्) ऐसी रस्सी जिसका स्वरूप किसी भी काल में सर्प नहीं है, (रज्जौ) उस रस्सी में (सर्प-आरोपवत्) सर्प के आरोप के समान ही (वस्तुनि) ब्रह्म में (अवस्तुः) संसार/नानात्व/माया का (आरोपः) आरोप (अध्यारोपः) अध्यारोप/अध्यास कहलाता है।  
असत् वह वस्तु है जिसका अनुभव या जिसकी प्रतीति कभी भी किसी भी काल में नही होती है जैसे गधे के सिर पर सींग। जो कभी भी नही था न है और न होगा। एक दूसरा प्रसिद्ध उदाहरण है वन्ध्यापुत्र - एक बांझ स्त्री का पुत्र।यह संसार सत् नहीं है क्योंकि इसके पदार्थ तीनों कालों में तो नहीं रहते हैं - सब कुछ कभी न कभी जन्मता या बनता है और कभी न कभी मृत्यु को प्राप्त होता है या नष्ट होता है। जिन वस्तुओं के बारे में अनुमान करने का सामर्थ्य हमारे भीतर नहीं है - जैसे यह पृथ्वी सूर्य चन्द्र अन्तरिक्ष आदि - उनके बारे में भी मिथ्या होने का ज्ञान हमें शास्त्र से प्राप्त हो जाता है।
 यह संसार असत् भी नहीं है क्योंकि इस संसार का अनुभव हमें वर्तमान में हो रहा है। हाथ की घड़ी भले भूत में न हो और भविष्य में न रहे पर वर्तमान में तो हमारी कलाई पर है। इसी प्रकार यह सारा जगत,लोग,पशु,पक्षी,वन,फूल आदि आदि सब वर्तमान में तो अनुभव में आ रहे हैं -  अतः यह असत् भी नहीं हैं।हम यह भी नहीं कह सकते की यह सत् और असत् दोनों है क्योंकि कोई भी पदार्थ दोनों नहीं हो सकता।
इसी को अद्वैत वेदान्त में 'मिथ्या' या 'अनिर्वचनीय' कहते हैं, अनिर्वचनीय का अर्थ है - जिसके बारे में कुछ न कहा जा सके, जिसको परिभाषित न किया जा सके। अद्वैत वेदान्त का मिथ्या शब्द 'असत्' का पर्यायवाची नहीं है - जैसे की लोग समझते हैं - यह 'अनिर्वचनीय' का पर्यायवाची है। मिथ्या का अर्थ असत् नहीं है। मिथ्या का अर्थ है जिसकी प्रतीति अभी हो रही है पर वह नित्य नहीं है क्योंकि भूत और भविष्य में वह अप्रतीत है।अतः अज्ञान/माया की परिभाषा है - "जिसको परिभाषित न किया जा सके"। जैसे किसी जादूगर का जादू हमको अनुभव में आता है हम उसे अपनी आंखों से देखते हैं पर उसके बारे में कुछ कह नहीं सकते की वह कैसे हुआ - यही अनिर्वचनीय है - और सबसे बड़ा जादूगर तो ईश्वर ही है -
"मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये।" 
जिन्होंने किसी  मायावी जैसे महायोगी की तरह अपनी इच्छा से - " सृष्टि के पूर्व निर्विकल्प-रुपसे स्थित इस जगत् को" बाद में पुनः बीज के भीतर स्थित अङ्कुर की भाँति  माया के द्वारा  कल्पित देश, काल और धारणा की विचित्रता से चित्रित किया है।  तथा मायावी-सदृश जँभाई लेते हुए-से दीखते हैं, उन श्रीगुरुस्वरुप श्रीदक्षिणामूर्तिको मेरा नमस्कार है ॥ २ ॥ 
 यह 'तुरीयं'  ही दुनिया के जादू शो का महान जादूगर है। तुरीयं वह जादूगर है -जो जादू के तीन खेल दिखाता है -जाग्रत, स्वप्न -सुषुप्ति का खेल। किन्तु इस खेल से जगत रूपी रंगमंच अप्रभावित रहता है। विलियम शेक्सपियर के नाटक  'एज़ यू लाइक इट'  का एक प्रसिद्द वाक्यांश है -"All the world's a stage."सारी दुनिया एक रंगमंच है।" सेक्सपियर ने 'all' के भीतर किन्तु आत्मा के चार पक्षों में से केवल जाग्रत अवस्था को सम्मिलित किया है। किन्तु हमलोग वेदान्त के विद्यार्थी हैं, इसलिए हमलोगों को उसके साथ स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्था को भी जोड़कर देखना होगा।  हमारे लिए स्वप्न, हमारी सुषुप्ति यह सब दुनिया के रंगमंच पर हमारे अभिनय मात्र हैं। 
अनिर्वचनीय को एक दूसरे ढंग से - वेदान्त के सर्प रज्जु से समझा जा सकता है - एक कम रोशनी वाले कमरे में रस्सी को देखकर सर्प का भ्रम हो गया और उसके कारण डर लगा। फिर किसी नें आकर रोशनी कर के दिखा दिया कि यह तो रस्सी है और भय दूर हो गया। अतः जो भय उत्पन्न हुआ वह रस्सी के 'अज्ञान' के कारण हुआ और रस्सी का 'ज्ञान' होते ही दूर हो गया। अब यह अज्ञान 'ज्ञान' से बाधित हो गया। यदि यह अज्ञान सत् होता तो कभी नष्ट नहीं हो सकता था क्योंकि सत् तो कभी नष्ट नहीं होता। यह अज्ञान असत् भी नहीं था क्योंकि यह था और उसके कारण भय भी उत्पन्न हुआ क्योंकि कोई वस्तु तो है ही नहीं वह कुछ प्रभाव नहीं डाल सकती - अतः कुछ तो था - और वह ज्ञान से नष्ट भी हो गया - इस को ही अनिर्वचनीय कहते हैं। यदि वह अज्ञान सत् होता तो कभी नष्ट नहीं होता और यदि असत् होता तो भय उत्पन्न नहीं करता और उसको नष्ट करने की आवश्यकता ही नहीं होती - अतः अनिर्वचनीय।
यह अज्ञान या माया  तीन गुणों से युक्त है सत्त्व रजस् और तमस्। इसलिये इसको ज्ञान विरोधी कहते हैं क्योंकि यह ज्ञान को सहन नहीं कर सकता यह ज्ञान से नष्ट हो जाता है बाधित हो जाता है। यह 'अज्ञान' है और यह ज्ञान से बाधित भी हो जाता है इसलिये यह 'भावरूप' है। यदि यह अभावरूप होता तो कोई प्रयास करने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि जो है ही नहीं उसका नाश क्या करना।
अतः यह अज्ञान ज्ञान-विरोधी है और भावरूपं है अर्थात यह ‘है’ और नाशवान है। इस अज्ञान का इतना सामर्थ्य है कि यह सकल प्रपञ्च उत्पन्न कर सकता है परन्तु इतना सामर्थ्यवान नहीं है कि यह सदा विद्यमान रह सके (सत् नहीं है)। अब यह प्रश्न आता है कि इसका प्रमाण क्या है कि यह कुछ काल तक भावरूपं है ?
 तो यहां पर दो प्रमाण दिये गये हैं – एक है स्व-अनुभव और दूसरा है श्रुति।  व्यक्ति से अपने अनुभव से इसकी सत्ता प्रमाणित होती है - जैसे यदि किसी ऐसे व्यक्ति से (जिसको Russian भाषा नहीं आती है) पूछो कि - "क्या आपको Russian आती है?" तो वह कहेगा नहीं आती है। अतः उसको इस अज्ञान का अनुभव हो रहा है। यदि यह अज्ञान भावरूप न होता तो इसका अनुभव नहीं हो सकता था क्योंकि जो है ही नहीं उसका अनुभव कैसे हो सकता है। परन्तु व्यक्ति हो यह अनुभव होता है कि उसमें अज्ञान कै अतः यह भावरूप है। अतः साक्षी का अनुभव ही अज्ञान का प्रमाण है। माया देवात्मा (परब्रह्म) की शक्ति है।  यह मूल-अज्ञान/प्रकृति और यह अपने ही गुणों से (सत् रजस् तमस्) से छिपी हुई है – ऐसा श्वेता० उपनिषद श्रुति कहती है। 
शुद्धाद्वयब्रह्मविबोधनाश्या सर्पभ्रमो रज्जुविवेकतो यथा। 
रजस्तमः सत्त्वमिति प्रसिद्धा गुणास्तदीयाः प्रथितैः स्वकार्यैः ॥विवेक चूडामणि ११२॥
रज्जु के ज्ञानसे सर्प भ्रम के समान वह अद्वितीय शुद्ध ब्रह्मके ज्ञानसे ही नष्ट होनेवाली है। अपने-अपने प्रसिद्ध कार्योंके कारण सत्त्व, रज और तम - ये उसके तीन गुण प्रसिद्ध हैं।
अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्तिः अनादि अविद्या त्रिगुणात्मिका परा ।कार्यानुमेया सुधियैव माया यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते ॥विवेक चूडामणि ११०॥- यह परमेश्वर की शक्ति है, यह परा, त्रिगुणात्मिका, अनादि है। 'अव्यक्त' 'माया' 'अविद्या' आदि इसके नाम हैं। यह बुद्धिमान मनुष्यों के द्वारा अपने कार्य से (अनुमान से) जानी जाति है। इसने ही यह सारा जगत उत्पन्न किया है। यह माया कारण रूप में अव्यक्त है और इस कार्यरूप सारे जगत को व्यक्त करती है।
[ M=E] Matter can never be created nor can it be destroyed, it only converts from one form to another. When matter is (looks like) destroyed it only converts to more subtler and unmanifest form. All the Scientists in the world together cannot create even an ounce of matter. . 
उसी प्रकार इस सृष्टि की, सूक्ष्म-स्थूल शरीरों की कभी रचना नहीं होती यह अव्यक्त होते हैं और फिर व्यक्त हो जाते हैं फिर अव्यक्त होते हैं और फिर व्यक्त और यही सृष्टि क्रम चलता रहता है।
भगवद्गीता से कुछ श्लोक -
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥2.28॥
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे। रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥8.18॥
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते। रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥8.19॥
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः। यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥8.20॥
सन्नाप्यसन्नप्युभयात्मिका नो भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो। 
सङ्गाप्यनङ्गाप्युभयात्मिका नो महाद्भुतानिर्वचनीयारूपा॥ विवेक चूडामणि १११॥
न यह सत् है न असत् है और न यह दोनों ही है। न यह ब्रह्म से भिन्न है न हि अभिन्न है और न यह दोनों ही है। न यह अंगसहित है और न यह अंगरहित है और न यह दोनों ही है। यह माया अन्यन्त अद्भुत् और अनिर्वचनीयरूपा है।
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 रेखाचित्र (outline) : (i) भारतीय संस्कृति की विशेषता: 15 अगस्त 1947 के पहले सांस्कृतिक और राजनितिक दृष्टिकोण से भारत का साम्राज्य भारत की भौगोलीक सीमाओं से बाहर कई स्थानों में फैला हुआ था। अफगानिस्तान, चीन, वर्मा, मलेशिया,  थाईलैण्ड, कम्बोडिया, श्रीलंका, आदि कई देशों की सभ्यता पर बृहत्तर भारत (अखण्ड भारत) की प्राचीन श्रुति-परम्परा (सुरति-गुरुमुख से सुना हुआ वो 'अभेदबोधक- शब्द' या श्लोक जिसे याद न करना पड़े।) का प्रभाव पड़ोसी देशों एवं सभ्यता पर भी दृष्टिगोचर होता था। हत्तर भारत से तात्पर्य भारत से बाहर उस विस्तृत भूखण्ड से है जहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार -प्रसार हुआ। इस प्रकार बृहत्तर भारत का जन्म हुआ। यही 'अनेकता में एकता' भारतीय संस्कृति की विशेषता है।   प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक,  कर्मप्रधान संस्कृति , आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का समन्वय, 'विविधता में एकता', , जगद्गुरु,  ,  अमरता, ऐसा माना जाता रहा है कि भारतवर्ष जम्बूद्वीप का एक भाग है।  जम्बूद्वीप सात महाद्वीपों में से एक महाद्वीप है। वैज्ञानिक खोजों से पता चला कि हिमालय और उसके आसपास के क्षेत्र प्राचीनतम माने जाते हैं। तिब्बत स्थित कैलाश मानसरोवर भारत के अभिन्न अंग रहे हैं। प्रारंभिक काल में कैलाश पर्वत धरती का मुख्य केंद्र हुआ करता था।  भारत के लम्बे , लाखों वर्ष पुराने इतिहास के अंदर भारत एक ऐसा देश बन गया जिसके दरवाजे सबके लिए खुले रहे। यूनानी, शक, हूण और तुर्क, पारसी, इसाई आदि अनेक प्रजातियों ने भारत को अपना घर बनाया। भौगोलिक सीमाओं के सिकुड़ने के बावजूद भारत ही एक ऐसा देश है जिसकी प्राचीन संस्कृति आज तक जीवित है। जम्बूद्वीप के प्रथम राजा मनु थे। बाद में उनके पुत्र प्रियव्रत इसके शासक बने। मौर्य सम्राट अशोक सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के राजा थे। सम्राट अशोक ने बौद्धधर्म के माध्यम से भारतीय संस्कृति को मध्य एशिया में फैला दिया। बौद्ध धर्म के माध्यम से भारत की ब्राह्मी लिपि और संस्कृत भाषा का मध्य एशिया में प्रवेश हुआ। आज भी हमारे हमारे सत्यनारायण पूजा, या  देवी-पूजन के संकल्प मंत्र में 'जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्ते ......' जैसे नामों का उल्लेख किया जाता है।  महाकाव्यों तथा पुराणों में सम्पूर्ण देश का नाम भारतवर्ष दिया गया है। तथा इसके निवासियों को भारती संतिति कहा गया है। विष्णु पुराण में कहा गया है-"उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रीश्चैव दक्षिणम। वर्ष तदभारतम नाम भारती यत्र सन्तति।।"-“वह देश जो समुंद्र के उत्तर तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में स्थित हैं वह भारतवर्ष का जाता है और जहां की संतान भारती कहलाती हैं ।” इस भारतवर्ष में अनेकों ऊँचे-ऊँचे रम्य पर्वत तथा नद-नदी विद्यमान हैं। इन पर्वतों पर और नदियों के तट पर बड़े-बड़े आत्मज्ञानी ऋषि आश्रम बनाकर रहते हैं। चारों वर्णों-आश्रमों  के कर्तव्यों का सर्वप्रथम वर्णन ऐतेरेय ब्राह्मण में मिलता है। विदुषी लोपामुद्रा अगस्त्य ऋषि की पत्नी थी। लोपामुद्रा ने कई वैदिक ऋचाओं की रचना की ।  इस सत्य से क्या इनकार किया जा सकता है कि अखंड भारत में निवास करने वाले लोग सनातन धर्म (वैदिक या हिन्दू धर्म) को मानने वाले थे ? पाकिस्तान में बसे सभी नागरिकों के पूर्वज हिन्दू थे जो भारतीय रीति-रिवाज और पूजा पद्धति को मानते थे। 1530 में बाबर ने भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली में मुगलवंश की स्थापना कर डाली। उसके बाद जबरन धर्म परिवर्तन के फलस्वरूप इस्लाम धर्म को मानने वालों की संख्या बढ़ी। एक ही भारत माँ का खून हिन्दू और मुसलमानों की धमनियों में बह रहा है। आज पाकिस्तान विश्व के नक़्शे में एक अलग राष्ट्र के रूप में अवश्य स्थापित है, किन्तु 1947 तक वह भारत का अभिन्न अंग था। 1971 के बाद बंगलादेश अलग राष्ट्र बन गया। जब पाकिस्तान और बंगलादेश दोनों देशों के पूर्वज हिन्दू धर्म के ही मानने वाले थे, तो फिर आखिर ये दोनों देश आतंक का पर्याय क्यों बन गए हैं ? इस पर गहराई से चिंतन करने पर यह समझ में आता है कि 'हिन्दू' एक विचार धारा का नाम है -किसी धार्मिक सम्प्रदाय का नहीं। भारतीय संविधान में आस्था रखने वाले सभी नागरिक भारतीय हैं, उनका धर्म चाहे हिन्दू हो या मुसलमान। भारतवासी इस भूभाग को मात्र जमीन का टुकड़ा नहीं मानते , बल्कि माता की गोद मानते हैं। इसी लिए सभी हिन्दुस्तानी धरती माता की वंदना करते हैं। बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने भारत माता के लिए राष्ट्रिय गीत 'वन्दे मातरम' लिखकर अखंड भारत की प्राचीन परम्परा को पुनः नवजीवन प्रदान किया।   857 में भारत का क्षेत्रफल 83 लाख वर्ग किमी था। वर्तमान भारत का क्षेत्रफल 33 लाख वर्ग किमी है।सभ्यता की दृष्टि से भूटान भी भारत का ही एक अंग है। अफगानिस्तान तो महाराज रणजीत सिंह के समय भारत का ही अंग था। अंग्रेजों ने सिख राज्य को समाप्त करने के लिए अफगानिस्तान को भारत से अलग कर दिया। 1937 तक बर्मा (म्यांमार) भी ब्रिटिश भारत का ही हिस्सा था। 1937 में अंग्रेजों ने बर्मा को भारत को अलग उपनिवेश बनाकर शासन करने लगे। 1948 में बर्मा भी स्वतन्त्र गणतन्त्र बन गया। 1947 में देश के बँटवारे के समय ही पाकिस्तानी सेना ने कबाइलियों (आतंकवादियों) के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया, और एक बड़े भूभाग पर अवैध रूप से कब्जा कर लिया इसको ही पाक अधिकृत कश्मीर या पीओके भी कहते हैं। जम्मू कश्मीर का पूरा क्षेत्रफल 36 हजार वर्ग किमी है, जिसके लगभग 1300 वर्ग किमी का इलाका पाकिस्तान के कब्जे में है। अक्साई चीन को पाकिस्तान ने चीन को सौप दिया जो 1950 से चीन के कब्जे में है। और उसके शिनजियांग प्रान्त का हिस्सा बन गया है। यूरोपीय संघ सांस्कृतिक भिन्नता के कारण राजनितिक परेशानियों का सामना कर रहा है। ब्रेग्जिट (Britain Exit) इसका उदाहरण है। लेकिन अखंड भारत का सांस्कृतिक भूगोल इतना समृद्ध है कि इंडोनेशिया से लेकर कम्बोडिया तक राम के चरित्र पर आधारित रामलीलाओं का मंचन होता आ रहा है। 70 साल बाद कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35 A की समाप्ति को एक बार फिर से,'वसुधैव -कुटुंबकम' की भावना में आधारित भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार से,  अखण्ड भारत की कल्पना को साकार करने की दिशा में उठाया गया एक कदम माना जा सकता है। प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक के तत्व (सूफिज़्म के रूप) में इतने प्रबल हैं, कि नियंत्रण रेखा (LOC) को बदले बिना ही, पूरा कश्मीर एक हो सकता है।  
[ [51 "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" - का ही एक अंग है -महामण्डल ! Monday, August 30, 2010 साभार : Vedanta Saara - Sadanand Yogindra Saraswati - Part 4 https://indiaspirituality.blogspot.com/  साभार- साभारसाभार/https://www.facebook.com/Om.Namh.ShreeAkshayBhairavNath.Mandir.Khempur/posts/ https://www.facebook.com/Veda.knowledge/Miss.Bhargava./https://www.facebook.com/photo.php/fbid=350399508364362&set=pb.17412649325583.-2207520000.1364825943&type=3&theater)[Re: Vishnu Sahasranama - Thousand Ways To The Transcendental/https://forum.chinfo.org/viewtopic.php?]\[साभार http://shankaramatha.org]
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