शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

'विश्व को समर्पित भारत का उपहार है : आध्यात्मिक संस्कृति।'[ 'Be and Make' Syllabus-2 ]

भारतीय संस्कृति की विशेषतायें 
1.हमारी जीवन-व्यवस्था ही हमारी संस्कृति हैसंसार में देश भेद से अनेक प्रकार के मनुष्य है। अतः उनकी संस्कृतियाँ भी अनेक हैं। संस्कृति का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह अपने विवेक के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। विचार और कर्म के क्षेत्रों में राष्ट्र का जो सृजन है वही उसकी संस्कृति है।  यही संस्कृति शब्द आगे अर्थानन्तर में 'सोडष संस्कार' शब्द को जन्म देती है।   हमारी जीवन-व्यवस्था ही हमारी संस्कृति है। भारत में रहने वाली, चार पुरुषार्थ,चार आश्रम और सोलह संस्कारों में आधारित हमारी जीवनव्यवस्था (वर्णाश्रम धर्म या संस्कृति) ही भारतीय संस्कृति कही जाती है।  मनुष्य जीवन रुकता नहीं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी निरन्तर आगे बढ़ता रहता है। इसके साथ-साथ संस्कृति के रूपों का उत्तराधिकार भी हमारे साथ चलता है अत एव हमारे सनातन धर्म, दर्शन, कला तथा साहित्य आदि इसी संस्कृति के अंग हैं। 
सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है।
2.विश्व धर्म का आदर्श : भारतीय संस्कृति विश्व के प्रति अनन्त मैत्री की भावना का नाम है। आचार्य परम्परा (या श्रुति परम्परा) में आधारित हमारी यह प्राचीन संस्कृति ही है जो हमें दर्शन और धर्म के माध्यम से 'सत्य' के निकट लाती है।अपने से भिन्न प्रकार के मन और पूजा पद्धति का पालन करने वाले मनुष्यों को भी अपने प्रेमालिंगन में बाँध लेने सक्षम विश्व धर्म का आदर्श : अर्थात मेरा -तेरा संकीर्ण धर्म नहीं, सच्चा धर्म जिसकी अनुभूति मनुष्य को ब्रह्मविद बना देती है, और वह देहाध्यास जन्य 'व्यष्टि अहं' को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित करके.... विभिन्न प्रकार के मन - शांत मन या सनकी मन के व्यक्तियों को भी  गले लगा लेने में समर्थ नेता/शिक्षक बन जाता है। क्योंकि तब उसे कोई पराया नहीं दीखता, सभी अपने हो जाते हैं।  " निषादराज को प्रेमालिंगन में बांधने वाले भगवान् राम तथा आधुनिक युग में 'शरद और अमजद' को एक समान देखने में सक्षम माँ सारदादेवी के जीवन में इसी धर्म का स्पष्ट दर्शन होता है। तभी तो महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं- राम मूर्तिमान् धर्म हैं---"रामो विग्रहवान् धर्म।"  
उसी 'विश्व धर्म का आदर्श' को परिभाषित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है -" धर्म अनुभूति का नाम है। वह बहस का विषय , मतवाद , या युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है, चाहे वह जितना भी सुंदर क्यों न हो। ' It is BEING AND BECOMING , not hearing or acknowledging' -अर्थात  इन्द्रियातीत सत्य या ब्रह्म को जानकर, तद्रूप हो जाना -उसका साक्षात्कार करना , यही धर्म है -वह केवल सुनने या मान लेने की वस्तु नहीं है। समस्त मन-प्राण विश्चास की वस्तु के साथ एक हो जायेगा। यही धर्म है।" [ख० 3.159] 
{ Religion is realisation; not talk, nor doctrine, nor theories, however beautiful they may be. It is BEING AND BECOMING , not hearing or acknowledging; it is the whole soul becoming changed into what it believes. That is religion."
(The Ideal of a Universal Religion : How It Must Embrace Different Types Of Minds And Methods.) 2/396 
धर्म कोई उपासना पद्धति न होकर एक विराट और विलक्षण जीवन-व्यवस्था है। यह दिखावा नहीं, दर्शन है। यह घुटनों की कवायद का प्रदर्शन नहीं, यह विवेक-प्रयोग है। यह चिकित्सा है मनुष्य को आधि, व्याधि, उपाधि से मुक्त कर सार्थक जीवन तक पहुँचाने की। यह स्वयं द्वारा स्वयं की खोज है।  धर्म, आदमी को पशुता से मानवता की ओर प्रेरित करता है। अनुशासन के अनुसार चलना धर्म है। हृदय की पवित्रता ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। धर्म का सार जीवन में संयम का होना है। 
इसी विश्व धर्म या धर्म के मौलिक स्वरूप की परिभाषा करते हुए महर्षि कणाद कहते हैं- "यतोऽभ्युदयः निःश्रेयस् सिद्धिः स धर्मः"अर्थात् जिसके धारण करने से व्यक्ति और समाज का अभ्युदय हो और जीवन का श्रेष्ठतम प्राप्तव्य प्राप्त हो सके वह धर्म है। 'अभ्युदय' का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना। तथा 'निःश्रेयस'  का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष (d-hypnotized या भ्रममुक्त अवस्था की प्राप्ति।) धर्म उन सिद्धान्तों, तत्त्वों और जीवन प्रणाली को कहते हैं, जिसका पालन करने से  मानव जाति परमात्मा प्रदत्त शक्तियों के विकास से अपना लौकिक जीवन सुखी बना सके (अभ्युदय) तथा परलौकिक जीवन में जीवात्मा शान्ति का अनुभव (निःश्रेयस) भी प्राप्त  कर सके। इसमें मनुष्य अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है। इस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। आत्मानुभवी पुरुष (ब्रह्मवेत्ता पुरुष) अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य।  एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है।  अर्थात जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पक्षों से धर्म को जोड़ा गया था। धर्म की इससे अधिक उदार परिभाषा और क्या हो सकती है
इसी धर्म की व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्द अन्यत्र कहते हैं- " सत्य दो प्रकार का होता है: (१) इन्द्रिय ग्राह्य सत्य (Sensible Truthविज्ञान) - वह सत्य है जो मनुष्य की पंचेन्द्रियों के माध्यम से और उस पर आधारित तर्क द्वारा ग्रहण किया जाय। [ मनुष्य की पाँच इंद्रियों और उसके आधार पर तर्क द्वारा संज्ञानात्मक;जैसे सेव को नीचे गिरता हुआ देखकर न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को आविष्कृत कर लिया था,  पूर्णिमा के चन्द्रमा का प्रकाश उसका अपना नहीं सूर्य का प्रतिबिम्बित प्रकाश है। इस तथ्य को तर्क से जान लेना विज्ञान है। ]
(२) अतीन्द्रिय सत्य (Supersensible truths-वेद) - वह सत्य जो इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति द्वारा ग्रहण किया जाय। प्रथम उपाय से संकलित ज्ञान को 'विज्ञान' कहते हैं; और दूसरे प्रकार के संकलित ज्ञान को 'वेद' कहा जाता है। ..... यह अतीन्द्रिय शक्ति , जिस व्यक्ति (या आध्यात्मिक संगठन ?) में आविर्भूत अथवा प्रकाशित होती है, उसका नाम 'ऋषि' है, और उस शक्ति के द्वारा वे जिस अलैकिक सत्य की उपलब्धि करते हैं, उसका नाम 'वेद' है। यह ऋषित्व और वेद-दृष्टि का लाभ करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। जब तक यह अवस्था प्राप्त न हो, तब तक धर्म केवल कहने की बात है। और यही मानना पड़ेगा कि धर्मराज्य की प्रथम सीढ़ी भी हमने पैर नहीं रखा है। (हिन्दू धर्म और श्री रामकृष्ण' 10 . 139) 
{Truth is of two kinds: (1) that which is cognizable by the five ordinary senses of man, and by reasonings based thereon; (2) that which is cognizable by the subtle, supersensible power of Yoga.Knowledge acquired by the first means is called science; and knowledge acquired by the second is called the Vedas.The person in whom this supersensible  power is manifested is called a Rishi, and the supersensible truths which he realises by this power are called the Vedas.This Rishihood, this power of supersensible  perception of the Vedas, is real religion. And so long as this does not develop in the life of an initiate, so long is religion a mere empty word to him, and it is to be understood that he has not taken yet the first step in religion'Hinduism and Sri Ramakrishna' C.W.6.181 }
महर्षि पतंजलि विश्व भर के मानव इतिहास में सर्वाधिक अनूठे मनोवैज्ञानिक हैं। उन्हें मानव चेतना का सम्यक् ज्ञान है। महर्षि इस सच्चाई को अच्छी तरह जानते हैं कि गन्तव्य पता हो, तो ही चलने वाले के पाँवों में गति आती है। पहले मंजिल का पता, फिर राह की बातें महर्षि की यही नीति है।  योग साधक का प्राप्तव्य एवं गन्तव्य- वस्तु या लक्ष्य ही अपने यथार्थ स्वरुप से योग हो जाना है। इसी कारण वह पहले समाधिपाद के सूत्रों का बयान करते हैं, बाद में साधन- पाद के सूत्र बताते हैं। अन्य दोनों पादों का क्रम इनके बाद आता है। समाधिपाद के तीसरे सूत्र में महायोगी महर्षि बताते हैं- "तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम्'' (तदा) उस अवस्था में (द्रष्टुः, स्वरूपे) परमात्मा के स्वरूप में (अवस्थानम्) स्थिति होती है। चित्त वृत्ति का निरोध हुआ यानि कि मन का शासन मिटा। तब उसको अपने वास्तविक स्वरूप का विशेष ज्ञान और ईश्वर (ब्रह्म) के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान होता है। और तब साधक- सिद्ध हो जाता है। वह योगी बनता है, द्रष्टा बनता है, साक्षी भाव को उपलब्ध होता है। वह स्वयं में, अपने अस्तित्व के केन्द्र में, अपनी आत्मचेतना में अवस्थित हो जाता है। यही बुद्धत्व का अनुभव है। योगिवर स्वामी विवेकानन्द ने इसी गन्तव्य पर पहुँचकर गाया था- 'नाही सूर्य नाही ज्योति ' ... सूर्य भी नहीं है, ज्योति- सुन्दर शशांक नहीं, छाया सा यह व्योम में यह विश्व नजर आता है। मनोआकाश अस्फुट, भासमान विश्व वहाँ, अहंकार स्रोत ही में तिरता डूब जाता है। धीरे- धीरे छायादल लय में समाया जब, धारा निज अहंकार मन्दगति बहाता है। बन्द वह धारा हुई, शून्य से मिला है शून्य, ‘अवाङ्गमनसगोचरम्’ वह जाने जो ज्ञाता है ! (आत्मा,अहं नहीं है)। मन के पार यही है—बोध की स्थिति। यही है अपने स्वरूप में अवस्थिति। इसी 'अतीन्द्रिय सत्य ' में स्थित होकर महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास करने वाला साधक द्रष्टा बनता है, योगी बनता है
हमारे युगनायक स्वामी विवेकानन्द व श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ने महामण्डल के माध्यम से हमें धर्ममय विज्ञान से साक्षात्कार करवाया है । सदकर्मों के माध्यम से- अर्थात Be and Make ' आंदोलन के माध्यम से 3H ' विकास की ओर आरुढ़ होना तथा चलना हमारा धर्म है। अंत में इतना ही कि विज्ञान हमें विकास की राह पर ले जाकर विकास से हमारा साक्षात्कार कराता है । इसीलिए श्रुति ने सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण  के लिए, सम्पूर्ण समाज की नैतिक रक्षा के करने में समर्थ होने के कारण इस विश्व धर्म को ही सबसे श्रेष्ठ, समाज की आन्तरिक शक्तिरूप शासक होने से शासकों का भी शासक माना है। श्रुति (केनोपनिषद् - 2.1.5) के शब्दों में-
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।2
जिस व्यक्ति ने मानव शरीर पाकर यदि इस जन्म में ही ईश्वर का अनुभव (परम सत्य का अनुभव) कर लिया तब तो  उसने जीवनसत्य (अविनाशी परमात्मा या ब्रह्म) को प्राप्त कर लिया। { जिस व्यक्ति ने इसी जन्म में अपने व्यष्टि अहं को  माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं बोध में रूपांतरित कर लिया, तब तो वह ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही हो गया।} और यदि इस जन्म में ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं किया तो बहुत बड़ी हानि हो जायेगी (अर्थात जन्म मरण के चक्कर में फंस कर अनन्त दुखों को भोगना पड़ेगा।) अतः सर्वत्र सभी प्राणियों में उस विशिष्ट रूप से व्याप्त चेतना (या सर्व व्यापक ब्रह्म) का बिशेष रूप से चिंतन करके बुद्धिमान महापुरुष इस शरीर (लोक) से मुक्त हो जाते हैं। 
याद रखें, यदि इस मनुष्य जन्म में आप भगवान का साक्षात्कार न कर सके तो ‘महतौ विनष्टिः’ सर्वस्वनाश हो जायगा। क्योंकि, जब दो रुपये की हानि की आशंका से रात को नींद नहीं आती तो सर्वस्वनाश की आशंका होने पर-महामण्डल द्वारा निर्देशित 3H विकास के लिए प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेकप्रयोग आदि 5 अभ्यास करने में आलस्य कैसे सतायेगा? इस संबंध में एक और  वेदमंत्र (ईशावास्योपनिषद-6) में कहा गया है -
 यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥६॥
जो व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने में (आत्मा मे) देखता है और सभी प्राणियों में अपने को (आत्मा को) 
देखता है तब वह इस [सर्वात्म दर्शन]- के कारण ही किसी से घृणा/या किसी की निन्दा नहीं करता ॥ 
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म व्यक्ति का जीवन है, तथा धर्म ही राष्ट्र का और समाज का प्राण है। अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न (पुरुषार्थ ) करते हैं। इसी धार्मिक चेतना में स्थित होने से मनुष्य के हृदय का उद्गार फूट पड़ता  है - ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।'
यह संस्कृति ही है जो हमें चरित्रवान मनुष्य  बनाती है और दूसरे मानवों के निकट सम्पर्क में लाती है और इसी के साथ हमें प्रेम, सहिष्णुता और शान्ति का पाठ पढ़ाती है।  संस्कृति के द्वारा हम दूसरों के साथ सन्तुलित स्थिति (poise- आत्मविश्वास, शांतचित्त)  प्राप्त करते हैं।
मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह केवल भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए-  मनुष्य जब मन को एकाग्र करने और विवेक-प्रयोग करने का प्रशिक्षण प्राप्त करके अपने 3H को (शरीर,मन और हृदय को) विकसित और उन्नत बना लेता है, तब उस मनुष्य को सुसंस्कृत मनुष्य कहते हैं।  इस प्रकार हम देखते हैं कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं - शरीर (हैण्ड)  ,मन (हेड) और आत्मा (हार्ट्) । जिसको स्वामी विवेकानन्द 3'H' से इंगित करते थे ; इन तीनों को सुसमन्वित रूप से विकसित करके ही हम उन्नत मनुष्य या सुसंस्कृत मनुष्य बन सकते हैं। जबकि " Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन " में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/नेता भी लोक कल्याण के लिए कार्य करते हैं। 
धर्म (वेद) और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं : हां यह शत-प्रतिशत सत्य है कि भारत ही युगों-युगों से विश्व गुरु रहा है । वर्तमान युग में विज्ञान के क्षेत्र में अधिकांश उपलब्धि भारत की ही देन है। क्योंकि आज से लाखों वर्ष पूर्व जो विज्ञान भारत में था आज का विज्ञान सिर्फ उस दिशा में किया गया प्रयास भर है । यह विज्ञान हमारे यहां सतयुग, द्वापर व त्रेतायुग में अपने चरम पर था । हमारे यहां उस समय उन्नत प्रौद्द्योगिकी थी । सतयुग में (लाखों वर्ष पूर्व) हमारे यहां वायुयान बन गए थे । जो आजकल के वायुयानों से कई मायनों में उन्नत थे जोकि हमारे धर्मग्रन्थ रामायण में पुष्पक विमान के नाम से वर्णित हैं ।
फिर धीरे-धीरे कलयुग तक आते-आते यह धर्म ग्रन्थों में सीमित होकर रह गया। स्वामी जी के अनुसार रसोई की हांड़ी में सीमित होकर रह गया।  और कुछ सदियों पूर्व हमारे यहां हुए विदेशियों के आक्रमण के बाद तो ये संस्कृत में लिखे धर्मग्रन्थ भी विदेशी लोग अपने यहां ले गये, और इसीलिए खासतौर पर यूरोपीय देशों का विज्ञान नयी ऊंचाइयों पर पहुंच गया ।
रामायण काल में भगवान श्रीराम ने श्रीलंका जाने के लिए पुल का निर्माण करवाया था, जो कि आज की अभियान्त्रिकी से कई गुना विकसित थी । इस पुल के बारे में नासा द्वारा लिए गए चित्रों में स्पष्ट संकेत है, कि यह पुल 30 किलोमीटर लम्बा व 17 लाख वर्ष पुराना है जो कि रामायणकालीन बताया गया है जिसका नाम ‘एडम्सब्रिज’ रखा गया है ।
विज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, चाहे वह सामाजिक विज्ञान, राजनीति विज्ञान या जीवन विज्ञान ही क्यों न हो । ऐसे कई प्रकार और विज्ञान हमारे दैनिक जीवन के धर्मों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । यदि इस विज्ञान को सुव्यवस्थित ढंग से संवारकर जीव-जगत के कल्याण के उपयोग में लाया जाये तो यह धर्म बन जाते है । कुछ व्यक्ति या संगठन धर्म के नाम पर अपने कुकृत्यों को सही ठहराते हैं जिसे किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता ।
माना कि व्यक्ति जिस जगह रहता है, वहां के वातावरण व वहां की सांस्कृतिक रीतिरिवाज, पूजापाठ, सामाजिक बन्धनों में वह बन्धा रहता है । लेकिन, इन सब को एक अलग धर्म का नाम दे देना व इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अलग करके देखना यथार्थ नहीं है । कोई सम्प्रदाय इसके लिए, इसे ही सबकुछ समझकर जिये मरे यह उचित नहीं है । वैज्ञानिक सोच में तो धर्म का अर्थ ही अलग है । धर्म को इस परिभाषा में जीव जगत के समस्त प्राणियों के कल्याण की कामना की गयी है ।
हमारे धर्मग्रन्थों/ शास्त्रों  में कहा गया है, कि सुबह सोकर ब्रह्म-मूहूर्त में उठना चाहिए । ब्रह्म-मूहूर्त में उठने की वैज्ञानिक सोच यह है, कि दिन भर की कई क्रियाकलापों व प्रदूषित वातावरण के कारण हमें श्वसन सम्बन्धी रोग हो सकते हैं, इसलिए जब सुबह सूर्योदय से पहले उठकर हम अपनी दिनचर्या प्रारंभ करते हैं तो चूंकि सुबह हवा शुद्ध व प्रदूषण मुक्त होती है तथा यह आसानी से श्वसन क्रिया के माध्यम से अंदर जा सकती है । इससे श्वसन सम्बन्धी रोगों को दूर किया जा सकता है । सूर्योदय से पहले स्नान करना भी हमारे धर्मग्रन्थों में है, इसको भी विज्ञान स जोड़ने के पीछे वैज्ञानिक कारण हैं । रात्रि के समय जितने भी प्रदूषक होते हैं वे हमारे शरीर पर एकत्रित हो जाते हैं । इसीलिए उन्हें,जितना जल्दी हो सके हटाना अतिआवश्यक है । इसके पश्चात सूर्यनमस्कार, क्योंकि सूर्य की पहली किरण स्वास्थ्यवर्धक व ऊर्जामय होती है । इसलिए हमारे धर्मग्रन्थों में सूर्योदय से पहले स्नान व फिर सूर्यनमस्कार करना बताया गया है । व इसके साथ-साथ कुछ योगासन भी बताए गए हैं जो सूर्यनमस्कार में करने होते है । इसी तरह, चन्दन व सिन्दूर का टीका लगाना है । इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि हमारी दोनों आंखों के मध्य पीनीयल ग्रन्थी रहती है । व इसके थोड़ा पीछे पीटयूटरी ग्रन्थी होती है जोकि मास्टरग्रन्थी भी कहलाती है । सिन्दूर और चन्दन का टीका लगाने से यह सक्रिय हो जाती है । चूंकि चन्दन ठण्डी प्रवृत्ति के लोगों के लिए तथा सिन्दूर गर्म प्रवृत्ति के लोगों के लिए लाभदायक होते है ।
मानव जीवन को यदि  एक ऐसी तराजू  माने , जिसके दो पलड़े, पहले को धर्म व दूसरे को विज्ञान कहा जाय तो  कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । धर्म जीवन जीने की प्रेरणा देता है, और जीवन को किस तरह जीया जाये, उसका नाम विज्ञान है । सुनने में थोड़ा अजीब-सा लगेगा, कि जो भी हम दिन भर-अपना  कर्तव्य-कर्म  करते हैं, वही  हमारा धर्म है । बशर्ते कि वह सुकर्म हो,  या शास्त्र-सम्मत कर्म हो, निषिद्ध कर्म न हों, व जिसके द्वारा हम अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हों। वह विज्ञान है धर्म व विज्ञान का परस्पर सामंजस्य भारतवर्ष के अलावा हमें विश्व में कहीं भी नहीं दिखने को मिलता है ।
 भारत की संस्कृति विश्व की समस्त संस्कृतियों के लिए मार्ग-दर्शिका है। भारत की सनातन संस्कृति न केवल भारतीयों को एकजुट रखने में सामर्थ्यशालिनी है अपितु इस सार्वभौम संस्कृति में संसार के सभी राष्ट्रों को एकसूत्र में बाँधने का परम-तत्त्व भी समाया हुआ है। इस सनातन संस्कृति के चार मूल-सिद्धान्त हैं जो विश्व-शान्ति का मार्ग प्रशस्त करने में पूर्ण सक्षम है-
1. एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति - सत्य एक है, विद्वान् इसे विभिन्न माध्यमों से कहते हैं। 
2. वसुधैव कुटुम्बकम् - समस्त विश्व एक कुटुम्ब या परिवार है।
3. सर्वे भवन्तु सुखिनः - सभी का कल्याण हो, सभी सुखी होवें।
4. यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे - जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है।
अध्यात्मिकता, त्याग, सत्य और अहिंसा पर आधारित यह संस्कृति मनुष्य के चरित्र को सुधार कर समाज में एकता और बन्धुत्व के भावों का समावेश करती है तथा देश और समाज से लेने की अपेक्षा देने की प्रेरणा देती है। भारतीय संस्कृति ईश्वर की सर्वव्यापक सत्ता को स्वीकार कर मनुष्य के व्यक्तित्व में त्याग भाव का आरोपण करती है -
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्। 
तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥
इसके अनुसार परमात्मा की स्थिति को निरन्तर अपने साथ समझते हुए, इस संसार में अनासक्त भाव से सांसारिक, विषयों, द्रव्यों एवं पदार्थों आदि का उपभोग करना चाहिए।  भारतीय संस्कृति ही है, जो हमें बताती है कि विषयों का उपभोग करने से कामना कभी भी शान्त नहीं होती अपितु अग्नि में घी के सदृश निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होती रहती है-
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाऽभिवर्धते॥ 
किन्तु जब तक मनुष्य वासनाओं, तृष्णाओं को सत्य मानकर चलता है तथा उसमें लिप्त रहता है, वह ‘ब्रह्म सत्य है-और जगत मिथ्या ’ इस सिद्धांत की कल्पना भी नहीं कर सकता। अभ्यास के लिए यह सत्य है किन्तु अभ्यास कि उपरान्त व्यावहारिक दृष्टि से ‘सर्व खल्विदं-ब्रह्म’ को ही उपयोगी मानना पड़ता है। जगत को मिथ्या मानने वाले अपने प्रति भले ही अत्याचार न करते हो किन्तु यह भावना बनाकर समाज का घोर अहित करते है। अन्य व्यक्ति भी उनके इस आचरण का अनुकरण करके सामाजिक उत्तरदायित्वों से विमुख होने लगते हैं। 
संसार को माया मानकर कर्म को त्यागकर बैठना, एक प्रकार का पलायनवाद है। इसे अपनाकर कोई भी पूर्णता का जीवन लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। भारत की इस कर्म-प्रधान संस्कृति में अकर्मण्यता का कोई स्थान नहीं है। निष्काम भाव से किया हुआ कार्य न तो आत्मा को बाँधता है न ही उसे मलिन करता है। जीवन का अस्तित्व कर्म पर ही टिका है। कर्म के बिना तो एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता है। प्रश्न यह नहीं है कि मैं क्या करूं कि मेरा उद्धार हो जाय वरन् यह है कि मैं किस भावना से कार्य करूं जिससे अपनी आत्मा को निर्लिप्त एवं निसर्ग रखने के साथ ही साथ संसार का परित्याग भी नहीं करना पड़े।  ‘ईशावास्योपनिषद्’ कर्मवाद का समर्थन करते हुए कहता है-कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। ईशावास्योपनिषद-2/ कर्मयोग निष्ठा  के साथ जुड़े रहने से ही (अर्थात महामण्डल के  मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन जैसे निष्काम कर्म के साथ जुड़े रहने से ही) मानव समाज शतजीवी हो सकता है। 
सांस्कृतिक विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सी बातें अपने पुरखों से सीखी है। समय के साथ उन्होंने अपने अनुभवों से उसमें और वृद्धि की। जो अनावश्यक था, उसको उन्होंने छोड़ दिया। हमने भी अपने पूर्वजों से बहुत कुछ सीखा। जैसे-जैसे समय बीतता है, हम उनमें नए विचार, नई भावनाएँ जोड़ते चले जाते हैं और इसी प्रकार जो हम उपयोगी नहीं समझते उसे छोड़ते जाते हैं। इस प्रकार संस्कृति एक पीढी से दूसरी पीढी तक हस्तान्तरिक होती जाती है। 
‘जगत मिथ्या ?’ है की पारम्परिक मान्यता (conventional acceptance) से प्रभावित कोई व्यक्ति कर्म से विरत होकर नई खोज (innovation -नवाचार) और पुरुषार्थ या उद्यमिता (entrepreneurship) से विरत हो जाये, तो वह उस परम् सत्य की खोज कभी नहीं कर सकता।
पुरातन (Convention)और नूतन (innovation-नवाचार) के बीच हमेशा खींचातानी रहती है। जब भी कोई कुछ नया करना चाहता है तो एक वर्ग उसका मजाक उड़ाता है, विरोध करता है।" अधिकतर लोग कालीदास के ‘मेघदूत’ और ‘शकुन्‍तला’ के बारे में तो जानते हैं लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि कालीदास ने अपने संस्कृत नाटक 'मालविकाग्निमित्रम्' **में दस्तूर (Convention) और नई खोज (innovation) के बारे में एक मजेदार बात कही है।  [ **नाटक की कथावस्तु राजकुमारी मालविका और विदिशा नरेश अग्निमित्र के मध्य प्रेम पर केन्द्रित है। विदर्भ राज्य की स्थापना अभी कुछ ही दिनों पूर्व हुई थी। इसी कारण इस नाटक में विदर्भ राज्य को "नवसरोपणशिथिलस्तरू" (जो सद्यः स्थापित है) कहा गया है। ]  इस नाटक के प्रारम्भ में ही कालिदास ने परम्परा और नई खोज (innovation-नवपरिवर्तन) के बारे में सूत्रधार से कहलवाया है -
पुराणमित्येव न साधु सर्वं, न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
 सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते, मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः॥
अर्थात पुरानी होने से (ही न तो सभी वस्तुएँ अच्छी होती हैं और न नयी होने से बुरी तथा हेय। विवेकशील व्यक्ति अपनी बुद्धि से परीक्षा करके या विवेक-प्रयोग करने के बाद श्रेष्ठकर वस्तु को अंगीकार कर लेते हैं और मूर्ख लोग दूसरों द्वारा बताने पर ग्राह्य अथवा अग्राह्य का निर्णय करते हैं। इसलिए जो पुराना है उसे केवल इसी कारण अच्छा नहीं माना जा सकता और जो नया है उसका इसलिए तिरस्कार करना भी उचित नहीं।
वर्तमान समय में आवश्यकता है अपनी संस्कृति में निहित आत्मतत्त्व को पहचान कर उसे आत्मस्थ करने की जिससे भारतीय संस्कृति की जड़ें और भी विस्तार को प्राप्त करें। निरन्तर प्रगति करने तथा प्रगति का मार्ग खुला रखने के लिए आवश्यक यह भी होगा कि नये और पुराने सिद्धान्तों में सुलझा हुआ दृष्टिकोण रखकर उन्हें परस्पर संघर्ष से मुक्त रखा जाए। पुरातन (अध्यात्म) तथा नूतन (विज्ञान)  का जहाँ मेल होता है वहीं उच्च संस्कृति की उपजाऊ भूमि है।
इस मनुष्य जीवन में दो विभाग हैं एक तो इसके सामने पुराने कर्मों (प्रारब्ध) के फलरूप में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है।  और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। मनुष्य शरीर में दो बातें हैं - प्रारब्ध का या पुराने कर्मों का फलभोग और नया पुरुषार्थ। जबकि दूसरी योनियों में केवल पुराने कर्मों का फलभोग है अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता, से लेकर ब्रह्म-लोक तक की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये 'ऐसा करो और ऐसा मत करो' [do's and don't यम-नियम पालन] का  विधान नहीं है। अथवा  विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कोई कार्य करो - ऐसा नियम नहीं है। परन्तु मनुष्य-शरीर तो केवल नये पुरुषार्थ के लिये ही मिला है; जिससे यह सर्वश्रेष्ठ प्राणी अपना उद्धार कर ले ! { अपना उद्धार करले अर्थात ब्रह्म (अपरिवर्तनीय परम् सत्य) को जानकर, (या अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव कर) ब्रह्म हो जाये - या स्वयं को विसम्मोहित( d-hypnotized) कर ले। }   यदि हर समय मन में यह भाव बना रहे कि - " मैं Exam Hall में बैठा हूँ और exam दे रहा हूँ" - इस मनोभाव के साथ विवेक-प्रयोग या विवेक-दर्शन करने के बाद ही नए कर्मों को करता है, तब  नये कर्मों के अनुसार ही इसके भविष्य का निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र, सन्त-महापुरुषों का विधि-निषेध राज्य आदि का शासन केवल मनुष्यों के लिये ही होता है। क्योंकि मनुष्य योनि में पुरुषार्थ की प्रघानता है नये कर्मों को करने की स्वतन्त्रता है।
इसमें एक विशेष समझने की बात है कि इस मनुष्य जीवन में प्रारब्ध के अनुसार जो भी शुभ या अशुभ परिस्थिति (14 अप्रैल 1992 बनारस में एक्सीडेंट) अवश्य सामने आती है, किन्तु उस परिस्थिति से सुखी या दुःखी होना कर्मों का फल नहीं हैं प्रत्युत मूर्खता का फल है। कारण कि परिस्थिति तो बाहर से बनती हैऔर सुखी-दुःखी होता है (मृत्यु के भय डरता है?) यह स्वयं (आत्मा नहीं नामरूप में तादात्म्य रखने वाला अहं) । उस परिस्थिति के साथ तादात्म्य करके ही यह सुख-दुःख का भोक्ता बनता है। अगर मनुष्य उस परिस्थिति के साथ तादात्म्य न करके उसका सदुपयोग करे तो वही परिस्थिति उसका उद्धार करने के (आत्मसाक्षात्कार) लिये साधन-सामग्री बन जायगी। 
भारतीय संस्कृति के मूल तत्व : (The Foundations of Indian Culture) :[ सोलह संस्कार, 4 वर्णाश्रम, चार पुरुषार्थ। अनेकता (विविधता) में एकता - unity in diversity-भारत की विशेषता।  Samskaras, Varnashrama, Purusharthas.] भौगोलिक दृष्टि से भारत विविधताओं का देश है।  इस भौगोलिक विभिन्नता के अतिरिक्त इस देश में आर्थिक और सामाजिक भिन्नता भी पर्याप्त रूप से विद्यमान है।  फिर भी सांस्कृतिक दृष्टि से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीनकाल से बना हुआ है। भारत अनेक धर्मों, सम्प्रदायों, मतों और पृथक् आस्थाओं एवं विश्वासों का महादेश है, तथापि इसका सांस्कृतिक समुच्चय और 'विविधता  में एकता' (Unity in Diversity) का स्वरूप संसार के अन्य देशों के लिए विस्मय का विषय रहा है। वस्तुत: इन भिन्नताओं के कारण ही भारत में अनेक सांस्कृतिक उपधाराएँ विकसित होकर पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। भाषाओं की विविधता अवश्य है फिर भी संगीत, नृत्य और नाट्य के मौलिक स्वरूपों में आश्चर्यजनक समानता है। संगीत के सात स्वर और नृत्य के त्रिताल सम्पूर्ण भारत में समान रूप से प्रचलित हैं।
भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं।  चीनी संस्कृति के अतिरिक्त पुरानी दुनिया की अन्य सभी –प्राचीन  मिस्र , यूनान और रोम की-संस्कृतियाँ काल के कराल गाल में समा चुकी हैं।  कुछ ध्वंसावशेष ही उनकी गौरव-गाथा गाने के लिए बचे हैं; किन्तु भारतीय संस्कृति कई हज़ार वर्ष तक काल के क्रूर थपेड़ों को खाती हुई आज तक जीवित है। इसीलिए मोहम्मद इक़बाल ने कहा था- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा। " ---(वो) क्या बात है, कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ? 
 इसी विषय पर बोलते हुए  स्वामी जी कहते हैं -" क्या कारण है कि एक राष्ट्र जीवित रहता है, तथा दूसरा नष्ट हो जाता है ? जीवन तो अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने का संग्राम है , और उस जीवनसंग्राम में घृणा टिक सकती है या प्रेम ? भोगविलास चिरस्थायी है अथवा त्याग ? भौतिकता टिक सकती है अथवा आध्यात्मिकता?  हमारी जीवन समस्या को हल करने का रास्ता है वैराग्य , त्याग, निर्भीकता तथा प्रेम। बस ये ही सब टिकने योग्य हैं। जो राष्ट्र इन्द्रियों की आसक्ति (कामिनी -कांचन में घोर आसक्ति का) त्याग कर देता है, वही टिक सकता है। और इसका प्रमाण यह है कि आज इतिहास हमें इस बात की गवाही दे रहा है कि प्रायः प्रत्येक सदी में बरसाती मेढकों की तरह नये राष्ट्रों का उत्थान तथा पतन होता रहता है। वे लगभग शून्य से प्रारम्भ करते हैं, कुछ दिनों तक खुराफात मचाते हैं, और फिर समाप्त हो जाते हैं।" 5 /100 ] 
"प्रत्येक व्यक्ति की तरह प्रत्येक राष्ट्र का भी एक ध्येय (साध्य) होता है, और उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए प्रत्येक राष्ट्र का एक विशेष निर्धारित मार्ग (साधन) भी होता है, जो उसके लिए संजीवनी बुट्टी की तरह कार्य करता है। और भारतवर्ष का विशेषत्व है धर्म !" (अर्थात चरित्रनिर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना ही भारत का धर्म है। ) वि० सा० 5 /99]
 जीवनसंग्राम में आने वाली चुनौतियों का सामना करने का भारतीय तरीका : ( Indian way to  'Face the Challenge of life): मनुष्य जीवन चुनौतियों का सामना करने के लिए उस संघर्ष या पुरुषार्थ का नाम है, जो कोई व्यक्ति अपनी अन्तर्निहित दिव्यता का अनावरण और विकास के लिए -(unfoldment and development of a being under the circumstances tending to press it down) या स्वयं को विसम्मोहित करने के लिए करता है।} 
 भारतीय आचार्य-परम्परा भौतिकता (अविद्या) एवं आध्यात्मिकता (विद्या) एवं  एक दूसरे का पूरक मानती है,  इसलिए भारतीय मनीषा ने जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए भौतिकता और आध्यात्मिकता में समन्वय बनाकर चलने की अपनी अनूठी जीवन-व्यवस्था आविष्कृत की है।  श्रुति-परम्परा (आचार्य परम्परा) में 'पुरुषार्थ' आधारित प्राचीन भारतीय संस्कृति में भौतिक सुखों को (कामिनी -कांचन को) आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति में साधक माना गया है, बाधक नहीं । दोनों घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । दोनों का समन्वित स्वरूप पुरुषार्थों के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है। पाश्चात्य संस्कृति जहाँ केवल भौतिकता को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देती है, वहीँ चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार वर्ण और १६ संस्कार में आधारित भारतीय संस्कृति में भौतिकता को महत्वपूर्ण मानते हुये भी आध्यात्मिकता को प्राथमिकता दी गयी है । आध्यात्मिकता और भौतिकता के इस समन्वय में भारतीय संस्कृति की वह विशिष्ट अवधारणा परिलक्षित होती है, जो मनुष्य के इस लोक और परलोक को सुखी बनाने के लिए भारतीय मनीषियों ने निर्मित की थी।  चार पुरुषार्थों के माध्यम से भारतीय मनीषा ने प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, आसक्ति एवं त्याग के बीच सुन्दर समन्वय स्थापित किया है । हमारे पूर्वज ऋषि -मुनियों ने हमारी संस्कृति में जीवन के ऐहिक (कर्ममार्ग- प्रवृत्ति धर्म) और पारलौकिक (ज्ञानमार्ग -निवृत्ति धर्म)  दोनों पहलुओं के साथ धर्म को सम्बद्ध कर दिया है। 
भारतीय आचार्य-परम्परा (श्रुति परम्परा) भौतिक सुखों (कामिनी- कांचन) को क्षणिक मानते हुये भी उन्हें पूर्णतया त्याज्य नहीं समझती, बल्कि उनके प्रति अतिशय आसक्ति का ही विरोध करती है । पुरुषार्थों का उद्देश्य मनुष्य के भौतिक सुख (प्रवृत्ति धर्म) तथा आध्यात्मिक सुखों (निवृत्ति धर्म) के बीच सामंजस्य स्थापित करना है ।  मनुष्य भौतिक सुखों के संयमित उपभोग (त्याग पूर्वक भोग के)   द्वारा ही आध्यात्मिक सुख प्राप्त करता है । साहित्य, संगीत और कला की सम्पूर्ण विधाओं के माध्यम से भी भारतीय संस्कृति के इस आध्यात्मिक एवं भौतिक समन्वय को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। 
मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है - पुरुषार्थचतुष्टय (The Object of Human Pursuit) : भारतीय मनीषा ने मनुष्य तथा समाज की उन्नति के निमित्त जिन आदर्शों का विधान प्रस्तुत किया उन्हें “पुरुषार्थ” की संज्ञा दी जाती है। इसलिए इन्हें 'पुरुषार्थचतुष्टय' भी कहते हैं। पुरुषार्थों का सम्बन्ध मनुष्य तथा समाज दोनों से है । वस्तुतः चारो पुरुषार्थ मनुष्य एवं समाज एवं उनके अन्तर्सम्बन्धों के नियामक हैं । ये मनुष्य तथा समाज के बीच सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं, उन्हें नियमित बनाते हैं तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों को नियन्त्रित भी करते हैं । वे मनुष्य तथा समाज के बीच के सम्बन्धों की व्याख्या करते हुए उन्हें न्यायसंगत बनाते हैं । दोनों के उचित सम्बन्धों पर वे प्रकाश डालते हैं तथा उनके अनुचित सम्बन्धों को उजागर भी करते हैं ताकि मनुष्य उनसे बच सके ।
 पुरुषार्थ (Efforts)  = पुरुष+अर्थ, अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए?  दूसरे शब्दों में मनुष्य के जीवन का उद्देश्य (The Object of Human Pursuit) क्या होना चाहिए ? मनुष्य के लिये वेदों में प्रायः चार पुरुषार्थों का नाम लिया गया है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।  
इनमें धर्म की स्थिति सर्वोच्च है । अर्थ तथा काम का उचित उपभोग धर्म के माध्यम से ही सम्भव है । प्रारंभ के तीन पुरुषार्थों को साध लेने के बाद ही मनुष्य मोक्ष को साधने में (भ्रममुक्त या d-hypnotized हो जाने में) समर्थ होता है। अपने कर्तव्य कर्मों का (अर्थात धर्म का) पालन किए बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकती। मनुष्य मात्र को चाहिए कि वह धर्म के पथ पर चलते हुए , अर्थ अर्थात धन प्राप्त करें । उस अर्थ के द्वारा अपनी कामनाओं को, आवश्यकताओं को पूरा करें। इसीलिए हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति में जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पहलुओं से धर्म को सम्बद्ध किया गया है। यहाँ काम तथा अर्थ साधन है जबकि धर्म एवं मोक्ष साध्य स्वरूप हैं । त्रिवर्ग में तीनों पुरुषार्थों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है ।  भारतीय संस्कृति  में मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य स्वीकार किया गया है जिसकी प्राप्ति सभी चारो वर्णों में जन्मे मनुष्यों का परम लक्ष्य है ।
मोक्ष का अर्थ है पुनर्जन्म अथवा आवागमन चक्र से मुक्ति प्राप्त कर आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना।शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, यह अमरता मोक्ष से जुड़ी हुई है।  और यह मोक्ष पाने के लिए अर्थ और काम के पुरुषार्थ करना भी जरूरी है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में धर्म और मोक्ष आध्यात्मिक सन्देश एवं अर्थ और काम की भौतिक अनिवार्यता परस्पर सम्बद्ध है।
मनुस्मृति में त्रिवर्ग -धर्म,अर्थ, काम के समन्वय पर बल दिया गया है । मनुस्मृति के अनुसार ‘कुछ कहते हैं कि मनुष्य का लाभ धर्म तथा अर्थ में है, कुछ के अनुसार यह काम तथा अर्थ में है, जबकि कुछ लोग केवल धर्म में ही मनुष्य का लाभ देखते हैं । किन्तु वस्तु-स्थिति यह है कि मनुष्य का कल्याण तीनों पुरुषार्थों के समुचित समन्वय में ही निहित है ।’ मनुस्मृति में विहित है कि इन्द्रिय विरोधी राग-द्वेष रहित तथा अहिंसा परायण व्यक्ति ही मोक्ष की प्राप्ति करता है । चार्वाक् के अतिरिक्त अन्य सभी विचारधारायें इस सत्य को स्वीकार करती हैं- कि आत्मा अजर, अमर एवं परमात्मा का ही अंश है । पुराणों में मोक्ष के लिये दया, प्राणियों में समभाव, क्षमा, अक्रोध, सत्य, लोभ, मोह, कामादि का त्याग आदि गुणों का आचरण आवश्यक बताया गया है । इन्द्रिय, मन तथा बुद्धि पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति को मोक्ष स्वयंमेव प्राप्त हो जाता है ।
मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लूक भट्ट का विचार है कि लौकिक दृष्टि से अर्थ एवं काम महत्वपूर्ण हैं किन्तु पारलौकिक दृष्टि से विचार करने पर मोक्ष ही एकमात्र अभीष्ट रह जाता है तथा अन्य पुरुषार्थ इसकी प्राप्ति में सहायक बन जाते हैं ।
गीता ज्ञान के स्थान पर भक्ति को प्रधानता देती है तथा मोक्ष के लिये ईश्वर की कृपा को आवश्यक बताती है। कृष्ण अर्जुन से कहते है कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ । मैं तुम्हें सभी  पापों से मुक्त कर दूँगा । जैन तथा बौद्ध दर्शन में भी अविद्या के विनाश को ही मोक्ष का उपाय माना गया है । जैन इसके लिये त्रिरत्नों (सम्यक् दर्शन, ज्ञान तथा चरित्र) एवं बौद्ध अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, संकल्प, वाक्, कर्मान्त, आजीव, व्यायाम, स्मृति तथा समाधि) का विधान प्रस्तुत करते हैं ।
चार आश्रमों के द्वारा जीवनयापन करता हुआ (पुरुषार्थ करता हुआ) चारो वर्णों का व्यक्ति, अपनी रूचि और प्रवृत्ति के अनुसार चार पुरुषार्थों के माध्यम से समाज एवं परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का पूर्ण निर्वाह करता है । चार पुरुषार्थ कहे गए हैं -धर्म, अर्थ ,काम और अंतिम तथा सबसे महत्वपूर्ण पुरुषार्थ है "मोक्ष" !  तीन प्रकार के= (आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक) दुःखों से सर्वथा छूट जाना पुरुष= आत्मा का अन्तिम लक्ष्य है, (इसी को मुक्ति कहते हैं)। इसी से समस्त दुखों की निवृत्ति होती है। यहां यह शंका स्वाभाविक है कि मोक्ष से ही समस्त दुखों की निवृत्ति क्यों ? धर्म, अर्थ और काम से क्यों नहीं?इसका समाधान यह है कि सांसारिक साधनों से एक दुख दूर होता है तो दूसरा नया दुख उत्पन्न हो जाता है। किंतु मोक्ष मिल जाने से समस्त दुख एक साथ ही छूट जाते हैं । इस लोक में तीन प्रकार के दुःख आध्यात्मिक, अधिभौतिक, एवं अधिदैविक नाम से प्रसिद्ध हैं। तीन प्रकार के दुखों से अत्यन्त निवृत्ति अर्थात पूर्णरूपेण मुक्ति - या सदा के लिए दुःखो का तिरोभाव ही अत्यन्त पुरूषार्थ अर्थात मोक्ष हैं ।
इसीलिए सांख्य-दर्शन के प्रथम सूत्र में मोक्ष को ही समूल दुख निवृत्ति का या  सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करने को परम पुरुषार्थ (Supreme effort) कहा गया है।   'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बंधी' या विश्लेषण। भारतीय संस्कृति में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था। देश के उदात्त मस्तिष्क सांख्य की विचार पद्धति से सोचते थे। इसकी सबसे प्रमुख धारणा सृष्टि के प्रकृति-पुरुष से बनी होने की है। यहाँ प्रकृति (यानि पञ्चमहाभूतों से बनी) जड़ है और पुरुष (यानि जीवात्मा) चेतन। भारतीय दर्शन के छः प्रकारों में से सांख्य भी एक है। परम पुरुषार्थ (Supreme effort) अर्थात मनुष्य के 'उद्यम' का उद्देश्य क्या होना चाहिए है ?
सांख्य-दर्शन का प्रथम सूत्र कहता है - अथ त्रिविधदुख: खात्यन्त: निवृत्तिरत्यन्त पुरूषार्थ:।। १।।  
- अर्थात् अब इस ग्रन्थ में हम तीनों प्रकार के -आधिभौतिक (शारीरिक), आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दु:खों  से स्थायी एवं निर्मूल रूप से छुटकारा पाने के लिए सर्वोकृष्ट प्रयत्न (Supreme effort- परम पुरुषार्थ) का वर्णन कर रहे हैं।
त्रिविध दुःखों की निवृत्ति को साख्य में अत्यंत पुरुषार्थ कहा है। प्रधान दुःख जरा और मरण है जिनसे लिंगशरीर अर्थात महाभूत के शरीर की निवृत्ति के बिना चेतन (witness consciousness) या पुरुष मुक्ती नहीं पा सकता है । इस प्रकार की मुक्ति या अत्यंत दुःख निवृत्ति तत्वज्ञान द्वारा— प्रकृति और पुरुष के भेद ज्ञान (प्रकृति और पुरुष के विवेकज-ज्ञान)  द्वारा—ही संभव है । वेदांत ने सुखदुःख ज्ञान को अविद्या कहा है । इसकी निवृत्ति ब्रह्माज्ञान (विद्या)  द्वारा हो जाती है ।
 १) आधिभौतिक दुःख :-   यह मनुष्य को होने वाली शारीरिक दु:ख है - जैसे बीमारी, अपाहिज होना इत्यादि। आधिभौतिक दुःख वह हैं जो स्थावर, जंगम (पशु, पक्षी, साँप, मच्छड़ आदि) भूतों के द्वार अर्थात पंच महाभूत के शरीर द्वारा उत्पन्न होता है।सर्प, व्याघ्र आदि के काटने ,चोट लगने, धन चोरी हो जाने आदि से प्राप्त होने वाले दुख को आधिभौतिक दुख कहते हैं। 
२) आधिदैविक दुःख :- यहां दैविक शब्द देवता शक्ती संबंध से जो विपादा उत्पन्न होता हैं या प्रकृति के संयोग वश कोई प्राणघाती दुर्घटना उत्पन्न होता हैं उसे भी आधिदैविक कहते हैं। यह देवी प्रकोपों द्वारा होने वाले दु:ख है जैसे बाढ़, आंधी, तूफान, भूकंप इत्यादि के प्रकोप ।  तथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि ,वज्रपात ,आग लगने, बाढ़ आने आदि प्राकृतिक आपदाओं से उत्पन्न होने वाले दुख को आधिदैविक दुख कहते हैं। 
३) अध्यात्मिक दुःख –  आत्मा को शरीर या मन से प्राप्त होने वाले दुख को आध्यात्मिक दुख है। यह दु:ख सीधे मनुष्य की आत्मा को होते हैं।  जैसे कि कोई मनुष्य शारीरिक व दैविक दु:खों के होने पर भी दुखी होता है। उदाहरणार्थ-कोई अपनी संतान अपना माता-पिता के बिछुड़ने पर दु:खी होता है अथवा कोई अपने समाज की अवस्था को देखकर दु:खी होता है।
भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्व हैं - संस्कार, वर्णाश्रम व्यवस्था और पुरुषार्थ चतुष्टय। यहाँ गर्भधान से मृत्यु तक १६ संस्कारों (षोडश संस्कार) का उल्लेख किया जाता है जो मानव को उसके गर्भ में जाने से लेकर मृत्यु के बाद तक किए जाते हैं।  इनमें से विवाह या पाणिग्रहण संस्कार और  यज्ञोपवीत आदि संस्कार बड़े धूमधाम से मनाये जाते हैं।  जब  युवक-युवतियों में परिवार निर्माण के प्रति कर्त्तव्य-निर्वाह की आर्थिक योग्यता और शारीरिक तथा मानसिक परिपक्वता आ जाती है, तब वैसे सद्गृहस्थ बनने  योग्य   युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। समाज के सम्भ्रान्त व्यक्तियों की, गुरुजनों की, कुटुम्बी-सम्बन्धियों की, देवताओं की उपस्थिति इसीलिए इस धर्मानुष्ठान के अवसर पर आवश्यक मानी जाती है।  पति-पत्नी इन सन्भ्रान्त व्यक्तियों के सम्मुख अपने निश्चय की, प्रतिज्ञा-बन्धन की घोषणा करते हैं। यह प्रतिज्ञा समारोह ही विवाह संस्कार या पाणिग्रहण संस्कार है। ताकि दोनों में से कोई यदि इस कत्तर्व्य-बन्धन की उपेक्षा करे, तो गुरुजन उन्हें  रोकें और गृहस्थों के धर्म या विवाह के उद्देश्य का स्मरण करा सकें। इसीलिए भारत में तलाक का दर पाश्चत्य देशों की अपेक्षा बहुत कम है।
 पश्चिमी देशों के मुक़ाबले भारत में महिलाओं का विवाहित जीवन ज़्यादा सुरक्षित हैं और उनकी देख-रेख बहेतर तरीक़े से होती है।  कई बार तो लड़कियां  माता पिता के घर से ज़्यादा खुश ससुराल में रहती हैं।  उनकी परेशानियां और दर्द उनके परिवार में सुलझा लिया जाता है। हो सकता है कि परिवार से उनका सामंजस्य कभी कभार बहुत बुरा रहता हो, लेकिन इन सबके बाद भी परिवार बना रहता है। बहुत बड़ी आबादी के बीच तो तलाक़ की कभी कोई चर्चा भी नहीं होती है, क्योंकि भारतीय समाज इसे निंदनीय समझता है। 'Unified Lawyers ' नामक एक फर्म  की रिपोर्ट के हिसाब से भारत में सिर्फ 1% शादियां टूटती हैं और ये दुनिया के सबसे कम डिवोर्स रेट वाले देशों में से एक है। और इसी रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यूरोपीय देश लक्समबर्ग (Luxembourg) में सबसे ज्यादा शादियां टूटती हैं. लक्समबर्ग में करीब 87% शादियां तलाक में बदल जाती हैं। 
ऋग्वेद में कहा भी गया है -समानी व आाकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥  संस्कृति के द्वारा हम स्थूल भेदों के भीतर व्याप्त एकत्व के अन्तर्यामी सूत्र तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं और उसे पहचान कर उसके प्रति अपने मन को विकसित करते हैं। अतः भारतीय संस्कृति का अध्यन और अनुशीलन जीवन-गठन के लिए परम आवश्यक है।
भाग्य और पुरुषार्थ एक दूसरे के पूरक हैं :  पुरुषार्थी अथवा कर्मवीर व्यक्ति जीवन में आने वाली बाधाओं व समस्याओं को सहजता से स्वीकार करते हैं । कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वे विचलित नहीं होते हैं अपितु साहसपूर्वक उन कठिनाइयों का सामना करते हैं । जीवन संघर्ष में वे निरंतर विजय की ओर अग्रसित होते हैं और सफलता की ऊँचाइयों तक पहुंचते हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भाग्यवादी होते हैं । ये व्यक्ति थोड़ी-सी सफलता अथवा खुशी मिलने पर अत्यंत खुश हो जाते हैं परंतु दूसरी ओर कठिनाइयों से बहुत ही शीघ्र विचलित हो जाते हैं । उनमें निराशा घर कर जाती है, फलत: सफलता सदैव उनसे दूर रहती है । इन परिस्थितियों में वे स्वयं की कमियों को खोजने तथा उनका हल ढूँढ़ने के स्थान पर अपने भाग्य को दोष देते हैं । इतिहास में ऐसे अनगिनत मनुष्यों की गाथाएँ हैं जिन्होंने अपने पुरुषार्थ के बल पर असाध्य को साध्य कर दिखाया है ।
यदि हम विश्व के अग्रणी देशों का इतिहास जानने की कोशिश करें तो हम देखते हैं कि यहाँ के नागरिक अधिक स्वावलंबी हैं । वे भाग्य पर नहीं बल्कि पुरुषार्थ पर विश्वास रखते हैं । जापान भौगोलिक दृष्टि से बहुत ही छोटा देश है परंतु विकास की राह पर जिस तीव्रता से यह अग्रसर हुआ है वह अन्य विकासशील देशों के लिए अनुकरणीय है । अत: यदि हमें अपने परिवार, समाज और देश को उन्नत बनाना है तो यह आवश्यक है कि देश के नवयुवक भाग्य पर नहीं अपितु अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करें एवं स्वावलंबी बनें । दूसरों पर आश्रित रहने की प्रवृत्ति को त्यागें । 
गीता में श्रीकृष्ण ने सच ही कहा है :“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन: ।”कर्म का मार्ग पुरुषार्थ का मार्ग है । धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहना ही पुरुषार्थ को दर्शाता है । पुरुषार्थी व्यक्ति ही जीवन में यश अर्जित करता है । वह स्वयं को ही नहीं अपितु अपने परिवार, समाज तथा देश को गौरवान्वित करता है । पर कभी-कभी अपने भाग्य को (हरि की इच्छा और हरिकृपा को)  स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर है क्योंकि इस स्थिति में हमें संतोष और धैर्य का अनायास ही साथ मिल जाता है जो जीवन में उन्नति के लिए आवश्यक है । 
भीष्म पितामह कहते हैं - बेटा युधिष्ठिर! तुम सदा पुरुषार्थ के लिये प्रयत्नशील रहना। पुरुषार्थ के बिना केवल प्रारब्ध (भाग्य)  राजाओं का प्रयोजन नहीं सिद्ध कर सकता। यद्यपि कार्य की सिद्धी में प्रारब्ध और पुरुषार्थ - ये दोनों साधारण कारण माने गये है, तथापि मैं पुरुषार्थ को ही प्रधान मानता हूँ। प्रारब्ध तो पहले से ही निश्चित बताया गया है। अतः यदि आरम्भ किया हुआ कार्य पूरा न हो सके अथवा उसमें बाधा पड़ जाय तो इसके लिये तुम्हें अपने मन में दुःख नहीं मानना चाहिये। तुम सदा अपने आपको पुरुषार्थ में ही लगाये रखो। यही राजाओं की सर्वोत्तम नीति है। सत्य के सिवा दूसरी कोई वस्तु राजाओं के लिये सिद्धिकारक नहीं है। सत्यपरायण राजा इहलोक और परलोक में भी सुख पाता है। 
‘चरैवेति-चरैवेति’ : भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी पुरुषार्थ-चतुष्टय का सिद्धान्त ही जीवन को सार्थक करने और लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। निरन्तर गति मानव जीवन का वरदान है। व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र जो भी एक पड़ाव पर टिक जाता है, उसका जीवन ढलने लगता है। भारतीय संस्कृति का ‘चरैवेति-चरैवेति’ सिद्धान्त जीवन को निरन्तर गतिमान् रखता है। अतः इसकी धुन जब तक भारतीय संस्कृति की आचार्य परम्परा रूपी रथ-चक्रों में गूँजती रहेगी तब तक व्यक्ति तथा राष्ट्र में निरन्तर उन्नति होती रहेगी।
भारतीय संस्कृति का जो साधना पक्ष है, तप उसका प्राण है - तपोमयं जीवनम्। तप का तात्पर्य है तत्त्व का साक्षात् दर्शन करने का सत्य प्रयत्न - सत्यपरिपालनम्। तप हमारी संस्कृति का मेरुदण्ड है। तप की शक्ति के बिना भारतीय संस्कृति में जो कुछ ज्ञान है वह स्वादहीन रह जाता है। तप से ही यहाँ का चिन्तन सशक्त और रसमय बना है। उसका मुख्य कारण - भारतीय संस्कृति में पुरूषार्थ-चतुष्टय का विशिष्ट स्थान रहा है। रंभा रुपसुंदरी है और शुकदेवजी मुनि शिरोमणि ! रंभा यौवन और शृंगार का वर्णन करते नहीं थकती, तो शुकदेवजी ईश्वरानुसंधान का । दोनों के बीच हुआ संवाद अति सुंदर है।  रम्भा कहती है : हे मुनि ! हर मार्ग में (जीवन नदी के हर मोड़ पर)  पाँच बाणों को धारण करनेवाले कामदेव मन को बेचेन बनाते हैं । शुकदेवजी कहते हैं - 
मार्गे मार्गे जायते साधुसङ्गः , सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृष्णकीर्तिः ।
कीर्तौ कीर्तौ नस्तदाकारवृत्तिः,वृत्तौ वृत्तौ सच्चिदानन्द भासः ॥ 
हे रंभा ! हर मार्ग में साधुजनों का संग होता है, (जीवन नदी के हर मोड़ पर जिसको Be and Make शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित नेता C-IN-C नवनीदा का संग - अर्थात मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है। उसको)  उन हर एक सत्संग में भगवान कृष्णचंद्र के गुणगान (अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव-माँ सारदा देवी -स्वामी विवेकानन्द का जीवन चरित)  सुनने मिलते हैं । हर गुणगाण सुनते वक्त हमारी चित्तवृत्ति भगवान के ध्यान में लीन होती है, और हर वक्त सच्चिदानंद का आभास होता है ।
सुरुपं शरीरं नवीनं कलत्रं,धनं मेरुतुल्यं वचश्चारुचित्रम् ।
हरस्याङ्घि युग्मे मनश्चेदलग्नं,ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥
हे Body is handsome, the wife is attractive,Fame spread far and wide, wealth is enormous and stable like Mount Meru;But if the mind is not immersed in devotion to the lotus feet of the Guru Vivekananda, Really of what use is all these, what use, what use, what use?हे रंभा ! शरीर युवा और सुंदर हो, पत्नी आकर्षक हो, प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई हो, मेरु पर्वत की तरह धन-संपत्ति विशाल और स्थिर बनी हुई हो; लेकिन अगर मन अपने गुरु देव (मार्गदर्शक नेता C-IN-C नवनीदा) के चरण कमलों की भक्ति में डूबा नहीं है, तो वास्तव में इन सभी का क्या उपयोग है, क्या उपयोग, क्या उपयोग? अर्थात स्वामी विवेकानन्द के दर्शन का अभ्यास किये बिना इन सबका कोई महत्व नहीं है। 
वस्तुत: इन पुरुषार्थों ने ही भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का एक अदभुत समन्वय कर दिया है। कर्म और तप, अध्यात्म और दर्शन, धर्म और शिक्षा की विशिष्ट साधना पद्धतियों के माध्यम से अनन्त सर्वव्यपाक रस-तत्त्व तक पहुँचने की सतत चेष्टा (पुरुषार्थ) भारतीय संस्कृति में पायी जाती है।  जिसमें आध्यात्मिक भावना, वर्णाश्रम व्यवस्था, कर्मवाद, पुनर्जन्मवाद, मोक्ष, अहिंसापालन, मातृ-पितृ-गुरु भक्ति और स्त्री समादर इत्यादि का समावेश रहता है।  इस प्रकार प्राचीन आश्रम व्यवस्था में आधारित भारतीय संस्कृति में 'मोक्ष' को ही मनुष्य जीवन  का चरम लक्ष्य माना गया है । ब्रह्मचर्य आश्रम में ही विद्यार्थी को इसका बोध हो जाता था तथा जीवन-पर्यन्त वह अपनी समस्त क्रियाओं को उसी ओर नियोजित करता था । जीवन के अन्तिम संन्यास आश्रम से इस लक्ष्य की पूर्ण प्राप्ति होती थी ।
सुखी मानव-जीवन का निर्माण करने के लिए ऐसी जीवन-व्यवस्था विश्व की अन्य संस्कृतियाँ में प्राप्य नहीं हैं। परिवर्तनशील आश्रम - व्यवस्था के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों के द्वारा आध्यात्मिकता एवं भौतिकता का समन्वय, प्राचीन भारतीय संस्कृतिकी अपनी व्यवस्था है- जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में सर्वथा अप्राप्य है ।  एक महान आध्यात्मिक संस्कृति हम भारतवासियों को अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त हुई है, जिसको हमें पूरे विश्व को दानस्वरूप देना होगा; क्योंकि आज पूरी दुनिया उदग्रीव होकर इसकी प्रतीक्षा कर रही है। 
इसीलिए विवेकानन्द ने कहा था -" भारत ही वह भूमि है , जहाँ से उमड़ती हुई बाढ़ की तरह धर्म और आध्यात्मिक संस्कृति ने सम्पूर्ण विश्व को बार -बार आप्लावित कर दिया था। और यही वह भूमि है , जहाँ से पुनः ऐसी ही (आध्यात्मिक) तरंगे उठेंगी और विश्व के निस्तेज मनुष्यों में शक्ति और जीवन का संचार कर देंगी। " 5.179/
------------------------------





















सोमवार, 9 दिसंबर 2019

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः" [ 'Be and Make' Syllabus-1 ]

स्त्रियों के प्रति मानसिक व्यभिचार (Mental adultery) या वाचिक हिंसा रोकना प्रथम धर्म है। 
हैदराबाद में डॉक्टर बिटिया के साथ हुई वारदात के बाद ... दुष्कर्मियों के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने से देशभर की स्त्रियों ने राहत की साँस ली है। लेकिन सबसे जरुरी है, उस मानसिकता को जड़ से खत्म करना, जिसकी वजह से स्त्रियों के प्रति ऐसे गंभीर अपराध होते हैं। वरिष्ठ साहित्यकार नीरजा माधव का मानना है कि ऐसे घिनौने अपराधों का 'बीज-तत्व ' है स्त्रियों से जुड़े अपशब्दों का समाज में बड़े ही सहज भाव और धड़ल्ले से प्रयोग। बोल-चाल की यह बदजुबानी कब बदनीयती में बदल जाती है , पता ही नहीं चलता ... 
अन्ततः हैदराबाद की दुःखद घटना का पटाक्षेप हो गया। डॉक्टर बिटिया के दुष्कर्मियों को 9 दिन के अंदर ही उनके किये कर्मों की सजा मिल गई। इस 'सफाई ' के बाद अब जरूरत है विचारों की सफाई के लिए एक आंदोलन या अभियान छेड़ने की; उन नारी-सूचक अपशब्दों के विरोध में, जिन्हें पूरा का पूरा स्त्री-समाज [मातायें -बहने -बेटियाँ ] न जाने कब से से पचाती और नजर-अंदाज करती या दृष्टि-ओझल करतीं, सुनकर भी अनसुना करती चली आ रही हैं। ये नारी -सूचक शब्द का प्रयोग करके, (slang) बोलने या अपशब्द बोलने की कूप्रथा,या गवाँरु भाषा में गाली -गलौज (slang) करने की कूप्रथा-- कुछ इस प्रकार हमारे समाज की जुबान पर रच-बस गए कि, आज  [गया जिला ?] के पढ़े-लिखे व्यक्ति भी इसका धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। उन्हें इस बात का थोड़ा भी ध्यान नहीं रहता कि इससे पूरे स्त्री-समाज का (मातृ-जाति) का अपमान हो रहा है।
शर्मनाक पहलु: इस प्रकार आजादी के बाद भी मानसिक व्यभिचार (Mental adultery) या वाचिक हिंसा होती रहती है और हमलोग चुपचाप उसे देखते -सुनते रहते हैं। दो मित्र यदि आपस में चुहल कर रहे हों, तो बेधड़क माँ -बहन के लिए अक्सर अपशब्दों का प्रयोग होता है। आपस में विवाद (dispute -तकरार) हो तो ऐसे ही अपशब्दों की बौछार होती है। पुलिस वाले , टैक्सी -रिक्शेवाले, बसड्राइवर -खलासी , पढ़े-लिखे या अनपढ़ , स्कूली छात्र या झुग्गी-झोपडी में रहने वाले युवा, बच्चे-बूढ़े सभी किसी न किसी बात में एक दूसरे की माँ ,बहन या बेटी के लिए अपशब्दों का प्रयोग करते हैं। और इस बात की तनिक परवाह नहीं करते वहीँ सामने की सीट पर मातायें -बहने -बेटियां भी बैठी हुई हैं या नहीं ? भारत की आधी आबादी स्त्रियों की है, किन्तु पूरी आबादी इन अपशब्दों को सुनने के लिए अभिशप्त होती है। यौनिक संबन्धों के सूचक इन अपशब्दों का प्रयोग स्कूलों -कॉलेजों और पढ़े-लिखे वर्ग में भी किया जाता है। अब तो अधिक आधुनिक कहलाने की होड़ में छात्राओं ने भी अपने सहपाठियों के लिए ऐसे अपशब्दों का प्रयोंग करना सीख लिया है। यदि हिन्दी में अपशब्द नहीं होंगे तो अंग्रेजी के अपशब्द होंगे -पर होंगे जरूर। चाहे प्यार में हों, या तकरार में। यह शर्मनाक पहलु है।
मानसिक-व्यभिचार और वाचिक हिंसा ही शारीरिक हिंसा के लिए उसकाने का काम करती हैं - मनुष्य ही नहीं , अपितु पशु या निर्जीव वस्तुओं की भी माँ, बहन , बेटियों भद्द पिटती रहती है। तांगे का घोडा या बैलगाड़ी का बैल यदि दायें -बायें मुड़ जाये तो चालक का अभद्र रिश्ता बैलों की माँ-बहन-बेटी से जुड़ जाता है। स्कूटर-चालक के सामने बाधा आने पर उनके जुबान को सुनने से क्षोभ होता है। नाविक लोगों का झगड़ा हो, या उच्च स्तर के प्रोफेसर का -स्त्रियों से सम्बंधित अपशब्द बोलने में कोई वर्ग पीछे नहीं है। हाँ , आश्चर्यजनक ढंग से इन स्त्री-सूचक अपशब्दों में पत्नी का कोई स्थान नहीं है। शायद सामने वाले का खून माँ-बहन-बेटी के लिए अपमान जनक शब्द सुनने पर ही खौल सकता है, यह सोच हावी हो ? 
भारतीय समाज का स्वाभाविक रूप से अपशब्द को बर्दास्त करते रहना ही वह मूल कारण है, जिसके चलते कोई बच्चा या युवा स्त्रियों के प्रति असम्मान सूचक शब्दों को सामान्य बोलचाल की भाषा समझ लेता है। वह मातृजाति की मर्यादा के प्रति सजग हो ही नहीं पाता , क्योंकि उसे बचपन से ही स्त्रियों के इसी रूप को बार-बार देखने और सुनने का परिवेश मिलता रहा है। स्त्रियों के प्रति यही वाचिक हिंसा उसे क्रूर शारीरिक हिंसा या बलात्कार जैसे कुकृत्यों के लिए उकसाती है। 
खो गयी वेदों की वाणी : यह सब देखकर आश्चर्य होता है, कि क्या हम उसी भारतीय संस्कृति के अंग हैं, जहाँ के शास्त्रों में स्त्रियों के लिए सम्मान प्रकट करते हुए मनु महाराज कहते हैं - "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।  यत्र तु एताः न पूज्यन्ते तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः (भवन्ति) । मनुस्मृति ३/५६ ।।
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं। भारतीय नारी हमेशा कुलदेवी समझी जाती है। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति सभी प्रकार से अच्छी थी। उनको एक ऊँचा स्थान प्राप्त था। लड़कियाँ भी जब गुरु के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने जाती थीं, तब ब्रह्मचर्य का पालन करती थीं।
[ शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् । न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।। मनुस्मृति ३/५७ ।।जिस कुल में स्त्रियाँ कष्ट भोगती हैं ,वह कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न रहती है वह कुल सदैव फलता फूलता और समृद्ध रहता है । (परिवार की पुत्रियों, बधुओं, नवविवाहिताओं आदि जैसे निकट संबंधिनियों को ‘जामि’ कहा गया है ।)]
पत्नी के द्वारा ही धर्म, अर्थ, काम आदि त्रिवर्ग का फल प्राप्त होता है। गृह का निवास, सुख के लिए होता है और घर के सुख का मूल पत्नी ही है। भारतीय मनीषा ने नारी सम्मान और राष्ट्र की प्रगति को एक-दूसरे से जुड़ा हुआ माना है। पुराणों और स्मृतियों में भी नारी सम्मान का उल्लेख बार बार मिलता है। विष्णुपुराण में नारी का अपमान न करने का उपदेश देते हुए कहा है -'योषिता नावमन्येत । '[विष्णुपुराण ३.१२.३०] 
अर्थात योषिता = स्त्री, युवती का / नावमन्येत = न अवमन्येत  / नारियों का असम्मान नहीं करना चाहिए। ऋग्वेद और अथर्ववेद में कहा गया है कि नारी के सम्मान और सुरक्षा के बिना कोई भी राष्ट्र सुरक्षित नहीं रह सकता। अथर्ववेद में पत्नी को ‘रथ की धुरी’ कहकर गृहस्थ का आधार माना गया है। आधुनिक युग के कवी जयशंकर प्रसाद ने लिखा है - 'नारी! तुम केवल श्रद्धा हो,विश्वास-रजत-नग पगतल में।पीयूष-स्रोत-सी बहा करो,जीवन के सुंदर समतल में।' स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है कि वे ही देश उन्नति कर सकते हैं, जहाँ स्त्रियों को उचित सम्मान प्राप्त होता है।
 माँ की ममता का वह आंचल जो सबको आश्रय देता है, सभी रिश्ते उससे जुड़कर ही सार्थक होते हैं। किन्तु क्या हम वास्तव में नारी समुदाय को सम्मान या श्रद्धा दे पा रहे हैं ? आज समाचार-पत्र खोलते ही स्त्री उत्पीडन की बातें ही दिखाई देती हैं। माँ , बहन के प्रति किये गए अश्रद्धापूर्ण व्यवहार से क्या हम प्रतिदिन अपने राष्ट्र का चरित्र कलंकित नहीं कर रहे हैं। वह राष्ट्र जिसकी वंदना हम माता के रूप में करते हैं, किन्तु दो दोस्त आपस में बातचीत करते हुए भी एक-दूसरे की माँ , बहन का अपमान करते हैं। वे इन अपशब्दों का उच्चारण करने में इतने अभ्यस्त हो गए हैं, अब वही उनकी प्रवृत्ति बन गयी है, और उन्हें इसमें कुछ भी बुरा या अश्लील नहीं दिखाई देता। जबकि यही वाचिक हिंसा क्रमशः कर्म में परिवर्तित होने की दिशा में अग्रसर होने लगता है। 
उदार-दृष्टि के नाम पर, आजादी के बाद एक खास विचारधारा से प्रभावित साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया जिसमें यथार्थ-उदारता के नामपर अपशब्दों और नग्नता का भरपूर चित्रण किया गया। बिना यह परवाह किये कि, उनके इस विकृत सृजन का भावी पीढ़ी के युवाओं पर क्या मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ेगा। इस प्रकार के साहित्य पाठ्यक्रमों में भी शामिल किये गए, जिसके फलस्वरूप पूर्ण विकृत मानसिकता वाली एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो गयी, जो स्त्रियों की मर्यादा के प्रति असंवेदनशील रही। भाषा की शुचिता , सह शिक्षा में परस्पर पवित्र व्यवहार जैसे विराट उद्देश्य साहित्य से दूर होते चले गए। और एक संक्रामक बीमारी की तरह स्त्रियों के प्रति अपमानजनक शब्दों ने पूरे समाज को अपनी जकड़ में ले लिया। 
यहाँ मूक हर आवाज क्यों ? आश्चर्य होता है कि जो बुद्धिजीवी , साहित्यकार , कथाकार, राजनेता , टीआरपी बढ़ाने वाली मिडिया जो बच्चियों और स्त्रियों के प्रति प्रायः घटने वाली दुराचार , हिंसा के विरोध में मोमबत्तियां लेकर जुलुस निकालते हैं, वे कभी स्त्री-सूचक अमर्यादित अपशब्दों को अपने संज्ञान में क्यों नहीं लेते ? इसके लिए टीवी चैनलों पर आज तक कोई बहस नहीं दिखाई पड़ी। वाचिक हिंसा , भाषायी अश्लीलता के विरोध में कभी कोई संगठन खड़ा नहीं हुआ। स्त्रियों के हित में कानून बना है, पर उनकी इज्जत को तार तार करते इन क्रूर अपशब्दों का प्रयोग करने के विरोध में और अपशब्द कहने वाले को सजा देने के पक्ष में कोई कानून क्यों नहीं बना ? हर बात पर अनर्गल फतवे जारी करने वाले मुल्लाओं ने भी इन अपशब्दों को बंद करने के लिए कोई फतवा आजतक जारी नहीं किया है।
मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार की अनिवार्यता : नारियों को इस शब्द हिंसा से बचाने के लिए , राजनीतिज्ञों से पहले धार्मिक नेताओं को [अर्थात  " Be and Make वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित जीवन्मुक्त शिक्षकों को] आगे आना होगा। उनके जीवन को पहले गठित करना होगा। भाषा के संस्कार को समझना होगा। लोगों को 3'H' --(हैण्ड,हेड,हार्ट्) को विकसित कर मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा देनी होगी। समाज के लिए भाषा का संस्कार और शुचिता क्यों आवश्यक है , इसके लिए साहित्यकारों, साधु-संतों को आगे आना होगा। सर्वप्रथम भाषायी उत्पीड़न को रोकना होगा तब स्त्रियों के प्रति अपराध रुकेंगे। 
सबसे अधिक पुलिस वालों को अपनी भाषा के प्रति सतर्क होना होगा, जिनकी जुबान पर स्त्री-सूचक गालियाँ लॉ ऐंड ऑर्डर मेन्टेन करने के नाम पर सबसे पहले आती हैं। यह कैसी विडंबना है ? शिक्षण संस्थानों को भी इसके लिए आगे आना होगा कि नैतिकता का पाठ,रित्र-निर्माण की प्रशिक्षण पद्धति नई पीढ़ी को सीखने के लिए वे ही अनुप्रेरित कर सकते हैं। जब से चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के पाठ हमारे पाठ्यक्रमों से कम हुए हैं, समाज में अराजकता बढ़ी है। स्त्रियों के प्रति वाचिक -शारीरिक अत्याचार और शोषण की घटनाएं बढ़ी हैं। 
जनसंख्या वृद्धि के जो दुष्परिणाम होते हैं, उसके कारण भारत में अशिक्षितों और असंस्कारित लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग रहता है,  जो स्त्रियों के प्रति अपशब्दों का प्रयोग साँस लेने की क्रिया के तरह करता रहता है। स्त्री इन अपशब्दों के मकड़जाल में फंसी कसमसा रही है। वह अब सोच रही है कि क्या अशिक्षित, शिक्षित , अमीर -गरीब , हिन्दू-मुसलमान , सिख-ईसाई अर्थात समाज के सभी वर्ग में जड़ें जमाये इन स्त्री-सूचक अपशब्दों पर क्या कभी रोक लग सकती है ? क्या स्त्री को अकारण अपमानित करने का यह देशव्यापी रोग समाप्त हो सकता है ? कौन पहल करेगा इसे रोकने के लिए ? कानून, समाज या स्वयं स्त्री ? आशा की एकमात्र किरण है, कि इन अपशब्दों को अपने अपने स्तरों से रोकने का एक अभियान  छिड़ सके। संकल्प कठिन है, पर असम्भव नहीं है। हो सकता है कि कुछ समय लगे, पर स्त्रियों की मर्यादा को लेकर सभी एकजुट होंगे और स्त्री -सूचक अपशब्दों का अपने जीवन , समाज के जीवन और राष्ट्र के जीवन से भी बहिष्कार करेंगे तो स्त्रियों के प्रति हो रही अस्वाभाविक गंदी घटनाओं और हिंसा पर रोक लग सकेगी। अपशब्दों को रोकना ही शारीरिक हिंसा को रोकने का प्रारम्भ बिंदु है।                
-------------
[साभार : 'हम भारत के बदजुबान लोग' -नीरजा माधव/मधुवन, एस ए 14/598, सारंगनाथ कॉलोनी, सारनाथ, वाराणसी, 221007 (उ. प्र.)/ neerjamadhav@gmail.com/ दैनिक जागरण / 8 दिसंबर 2019 /91-542-2595344, 91-9792411451/] 

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

" समस्त दुःखों के निवृत्ति का एकमात्र साधन योग "

" समस्त दुःखों के निवृत्ति का एकमात्र साधन: विवेक-दर्शन का अभ्यास "
स्वामी विवेकानन्द जी कोई ज्योतिषी तो नहीं थे, लेकिन उन्होंने जो भी भविष्यवाणी की थी वे सभी सच साबित हुए हैं। वास्तव में वे एक ऋषि (visionary-Seer भविष्यद्रष्टा या पैगम्बर) थे, भविष्य में होने वाली घटनाओं को भी अपनी आँखों के समक्ष बिल्कुल घटित होते हुए सा देखने में समर्थ थे। उन्होंने 1897 में ही भविष्यवाणी करते हुए कहा था - आगामी 50 वर्षों के भीतर असाधारण परिस्थितियों में भारत को अवश्य स्वतन्त्र हो जाना चाहिये। ( आश्चर्य की बात तो यह है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म भी 23 जनवरी, 1987 को ही हुआ। ) उस समय तक गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत नहीं लौटे थे और किसी ने भी असहयोग आंदोलन के बारे में सोचा तक नहीं था।  किन्तु उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई और ठीक 50 साल बाद 1947 में हमें स्वतंत्रता मिली। 
उनके द्वारा कही गई कई अन्य बातें भी बाद में बिल्कुल सच निकलीं। 1893 में,  हार्वर्ड विश्वविद्यालय, यूएसए के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट के घर पर उन्होंने कहा था कि अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने के बाद;  चीन की तरफ से भारत पर एक बड़ा हमला होगा। और 1962 में उनकी यह भविष्यवाणी भी सच साबित हुई। 
स्वामी विवेकानन्द ने यह  भविष्यवाणी भी की थी कि पहला सर्वहारा किसान -मजदूर वर्ग का आंदोलन ( proletariat movement) रूस या चीन से आएगा। जबकि स्वयं कार्ल मार्क्स का विचार था कि ऐसा पहला आंदोलन जर्मनी से आएगा क्योंकि तब वहाँ कुछ संगठित मजदूर यूनियन बन चुके थे, और रूस में कोई संगठित श्रमिक वर्ग नहीं था। तब भी स्वामीजी की भविष्यवाणी सच साबित हुई। इस प्रकार हम देख सकते हैं, कि स्वामी जी ने जो भी भविष्यवाणी की थी, वह सब सच साबित हुई हैं। 
लेकिन एक भविष्यवाणी का अभी भी सच साबित होना शेष है। स्वामी जी ने 1897 में अपने मद्रास वक्तृता में भविष्यवाणी करते हुए कहा था, जिसकी सराहना करते हम नहीं थकते , वह है - " भारत अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त करेगा। भारत को ईश्वर के द्वारा सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने की विशेष भूमिका प्रदत्त हुई है। और उसे विश्वगुरु की भूनिका निभानी ही होगी। भविष्य में जो सत्ययुग आ रहा है, उसमें ब्राह्मणेत्तर सभी जातियाँ ब्राह्मण में रूपान्तरित हो जाएँगी। " 5/186 ] " भारत ही वह भूमि है , जहाँ से उमड़ती हुई बाढ़ की तरह धर्म और आध्यात्मिक संस्कृति ने सम्पूर्ण विश्व को बार -बार आप्लावित कर दिया था, और यही वह भूमि है , जहाँ से पुनः ऐसी ही तरंगे उठेंगी और विश्व के निस्तेज मनुष्यों में शक्ति और जीवन का संचार कर देंगी। " 5.179/  उनकी यह भविष्यवाणी अभी सच सिद्ध होना शेष है।
 एक बार किसी व्यक्ति ने स्वामी जी से इस सम्बन्ध में पूछा भी था, कि आप तो एक संन्यासी हैं, इस नाते आपको तो राष्ट्रीयता से ऊपर उठ जाना चाहिए था, फिर आप भारत की इतनी प्रसंशा क्यों करते हैं, देशभक्ति की बातें क्यों करते हैं? इस पर स्वामी जी ने उत्तर दिया कि उनके लिए वैसे तो सभी राष्ट्र बिल्कुल एक समान प्रिय हैं, लेकिन दुनिया को भौतिकवादी संस्कृति ( materialistic culture) के जबड़े से बाहर निकालना भारत का विशेष दायित्व है। इसलिए जब तक खुद भारत को ही भौतिवादी संस्कृति के जबड़े में फँसने से नहीं बचा लिया  जाता, तब तक वह अपने महान आध्यात्मिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार द्वारा पूरे विश्व को भौतिकवादी संस्कृति से बचाने में अपनी विशेष भूमिका का निर्वहन कैसे कर सकता है ? इसलिए धीरे धीरे यह भविष्यवाणी भी सत्य होने की दिशा में आगे बढ़ रही है।  
आज दुनियां भर में चारित्रिक गुणवत्ता एवं  मानव मूल्यों का ह्रास देखा जा रहा है । तनावपूर्ण परिस्थितियां हर मनुष्य की शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को क्षीण कर रही है। यदि इन समस्याओं का निदान नहीं किया गया तो निस्संदेह मानवता को घोर संकट से गुजरना पड़ेगा। यदि योग का सजगता और निष्ठा से पालन किया जाए तो न केवल अपनी मनोदशा, बल्कि अपने आसपास का वातावरण का भी रूपातंरित हो सकता है। 
योग के अंतरराष्ट्रीय दिवस को विश्व योग दिवस भी कहते है। संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने  योग-विद्या के प्रति सम्मान निवेदित करने के उद्देश्य से 11 दिसंबर 2014 को प्रस्ताव पारित कर 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया था। आचार्य-पम्परा में आधारित 'पतंजलि योग विद्या' (मनःसंयोग के प्रशिक्षण पद्धति को) अब विश्व के 177 देशों द्वारा अपनाया जा रहा है। बिहार के मुंगेर शहर में 19 जनवरी, 1964 को बसंत पंचमी के दिन  'बिहार योग विद्यालय' की स्थापना के समय स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने  भी कहा था- योग एक दिन परमशक्तिशाली विश्व संस्कृति के रूप में प्रकट होगा। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित होने से उनका यह कथन सच हुआ है। आज सम्पूर्ण विश्व  योग, ध्यान, के माध्यम से मानसिक परिवर्तन या समाधि की अवस्था (परमानन्द की अवस्था) को समझने के लिए भारतीय आध्यात्मिकता की ओर मुड़ने लगी है। भारतीय संस्कृति में निहित पतंजलि योग विद्या की आचार्य-परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए, 19 जनवरी, 1983 में बसंत पंचमी के दिन ही उन्होंने ' बिहार योग विद्यालय' की अध्यक्षता (चपरास) स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को सौंप दी थी ।
 विश्व भर में पतंजलि योग विद्या  का अलख जला रहे 'बिहार योग विद्यालय' मुंगेर के परमाचार्य स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का मानना है कि, "मनुष्य का संबध उसकी श्रद्धा, आस्था और विश्वास के माध्यम से किसी परम तत्व (आत्मा या ब्रह्म) के साथ भी जुड़ा हुआ है, जिसका अनुभव प्रत्येक मनुष्य कर सकता है। वर्तमान युग में अपनी श्रद्धाभक्ति को सुरक्षित रखना और उसे एक दिशा प्रदान करना, यह जीवन की आवश्यकता है। हमारी प्राचीन भरतीय संस्कृति की यही शिक्षा है। संसार में किसी को यदि आध्यात्म की शिक्षा चाहिए तो वह फ्रांस, चीन, रूस, अमेरिका या जापान नहीं जाता, वह भारत की ओर आता है।"
 परमाचार्य निरंजनानन्द सरस्वती के मुताबिक, टीवी पर योग-प्राणायाम की सीख देना खुद का विज्ञापन है। इस तरीके से योग सीखा-सिखाया नहीं जा सकता। इसके लिए माहौल, अनुशासन और निरंतर अभ्यास की जरूरत होती है।
 जिस तरह छात्र नर्सरी से क्रमश: पढ़ाई करते हुए कॉलेज स्तर तक पहुंचता है, ठीक उसी तरह योग साधना का क्रम तय है।  योग साधना का लाभ तभी मिलता है, जब इसे विधिवत किया जाए।  विद्यार्थी जब तक बेसिक ज्ञान नहीं पा लेता, वह आगे नहीं सीख सकता। योग का मूल उद्देश्य विद्यार्थियों के व्यक्तित्व के तीनो आयाम (3H) शरीर, मन और हृदय (मानवीय  भावनाओं) को लाभ पहुंचाना है। इसकी अष्टांग प्रक्रियाओं को हलके ढंग से नहीं लिया जा सकता।  इस दौर में योग सीखने और सिखाने वालों की बाढ़ सी आ गई है।  कथित योग गुरुओं का कर्तव्य है कि वे यथार्थ के धरातल पर उतरकर साधकों से सीधे रू-ब-रू हों। पूरी ईमानदारी के साथ योग सिखाएं। 
प्रवृतिमार्गी (गृहस्थ या प्रवृत्ति धर्मं का पालन करने वाले) मनुष्‍य योगशास्‍त्र के सूत्रों में कथित यम-नियमादि का अनुष्‍ठान क्यों नहीं कर सकते ? 'कर्म करो' और 'कर्म छोड़ो' ये जो परस्‍पर विरुद्ध दो स्‍पष्‍ट मार्ग हैं, इनका उपदेश करने वाले वेद की प्रमाणिकता का निर्वाह कैसे हो ? जिस-जिस आश्रम में जो-जो धर्म विहित है, वहाँ-वहाँ उसी-उसी धर्म की साधना करनी चाहिये। उस-उस स्‍थान पर उसी-उसी धर्म का आचरण करने से ही सिद्धि का प्रत्‍यक्ष दर्शन होता है।
चारों वर्णों और आश्रमों की जो प्रवृत्तियाँ हैं, उनमें लगे हुए मनुष्‍य एकमात्र सुख का ही आश्रय लेते हैं- उसे ही प्राप्‍त करना चाहते हैं।- उसी को अपना लक्ष्‍य बनाकर चलते हैं, अत: सिद्धान्‍तत: अक्षय सुख क्‍या है, यह बताइये।  (जब एकमात्र अद्वितीय आत्‍मा अर्थात् ब्रह्म की ही सत्‍ता का सर्वत्र बोध होने लगे, तब उसे एकात्‍मता का ज्ञान कहते हैं)।
महर्षि पतंजलि विश्व भर के मानव इतिहास में सर्वाधिक अनूठे मनोवैज्ञानिक हैं। उन्हें मानव चेतना का सम्यक् ज्ञान है। महर्षि इस सच्चाई को अच्छी तरह जानते हैं कि गन्तव्य पता हो, तो ही चलने वाले के पाँवों में गति आती है। पहले मंजिल का पता, फिर राह की बातें महर्षि की यही नीति है।  पतंजलि का योगदर्शन, समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य इन चार पादों या भागों में विभक्त है । 
योग साधक का प्राप्तव्य एवं गन्तव्य- वस्तु या लक्ष्य ही अपने यथार्थ स्वरुप से योग हो जाना है। इसी कारण वह पहले समाधि-पाद के सूत्रों का बयान करते हैं, बाद में साधन- पाद के सूत्र बताते हैं। समाधिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य और लक्षण क्या हैं और उसका साधन किस प्रकार होता है । साधनपाद में पंच-क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है । विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के 8 अंग क्या हैं, उसका परिणाम क्या होता है, और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आगदि सिद्धियों की किस प्रकार प्राप्ति होती है । कैवल्यपाद में कैवल्य या मोक्ष (भेँड़त्व के भ्रम से मुक्ति-d-hypnotized अवस्थाका विवेचन किया गया है । जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य का भागी होता है । [परम सत्य को जानने वाला अमर आनन्द का भागीदार होता है।]   
समाधिपाद के तीसरे सूत्र में महायोगी महर्षि बताते हैं-  " तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम्'' चित्त वृत्ति का निरोध हुआ यानि कि मन का शासन मिटा। तब उसको अपने वास्तविक स्वरूप का विशेष ज्ञान और ईश्वर (ब्रह्म) के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान होता है। और तब साधक- सिद्ध हो जाता है। वह योगी बनता है, द्रष्टा बनता है, साक्षी भाव को उपलब्ध होता है। वह स्वयं में, अपने अस्तित्व के केन्द्र में, अपनी आत्मचेतना में अवस्थित हो जाता है। यही बुद्धत्व का अनुभव है। योगिवर स्वामी विवेकानन्द ने इसी गन्तव्य पर पहुँचकर गाया था- 'नाही सूर्य नाही ज्योति ' ... सूर्य भी नहीं है, ज्योति- सुन्दर शशांक नहीं, छाया सा यह व्योम में यह विश्व नजर आता है। मनोआकाश अस्फुट, भासमान विश्व वहाँ, अहंकार स्रोत ही में तिरता डूब जाता है। धीरे- धीरे छायादल लय में समाया जब, धारा निज अहंकार मन्दगति बहाता है। बन्द वह धारा हुई, शून्य से मिला है शून्य, ‘अवाङ्गमनसगोचरम्’ वह जाने जो ज्ञाता है। मन के पार यही है—बोध की स्थिति। यही है अपने स्वरूप में अवस्थिति। इसी में स्थित होकर साधक द्रष्टा बनता है, योगी बनता है।
 उपरोक्त सभी कथन में दुःख से निवृत्ति पाने हेतु योग करने का ( अर्थात 5 अभ्यास करने का) ही संकेत किया है। इससे स्पष्ट है कि जब तक हम योगाभ्यास नहीं करेंगे तब तक हम समस्त दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकेंगे।  महर्षि पतञ्जलि साधनपाद 15 में लिखते हैं, "दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ॥" अर्थात् 'विवेक-दर्शन का अभ्यास करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति = विवेकिनः' की दृष्टि में चारों ओर 'कामिनी-कांचन ' में आसक्ति के कारण दुःख ही दुःख दिखाई देता है।" यदि आप इस दुःखरुपी सागर से निकलना चाहते हैं तो आज से ही नित्य योगाभ्यास करना आरम्भ कर दें एवं नित्यानन्द अर्थात् मोक्ष को अपना लक्ष्य बना लें। 
(M/F) प्रेम में एक हो जाने की चाह, विपरीत शारीरिक  निकटता से पूरी नहीं होती। हर कोई प्रेम में दूसरे व्यक्ति  (M/F) के साथ विलय हो जाना चाहता है जो शरीर में संभव नहीं है। इससे हताशा ही हाथ लगती है। अधिकतर पुरुष अगले जन्म में महिला का शरीर लेते हैं और महिला पुरुष का जन्म लेती हैं। यह उत्कट इच्छा और तृष्णा का ही प्रभाव होता है। मन में यह प्रभाव और भी अधिक होता है, इसीलिए तुम हर एक पुरुष में महिला और हर एक महिला में पुरुष खोज पाओगे। ऐसा भूतकाल में मन पर पड़ी छापों के कारण होता है। इसीलिए गीता 5 /22 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -
 ' ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।'  
हे कौन्तेय (इन्द्रिय तथा विषयों के) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग (सुख)  हैं वे दुख के ही हेतु हैं क्योंकि वे आदिअन्त वाले हैं।  इसीलिए विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।
{ विवेकशील मनुष्य = " Be and Make Leadership training tradition" में प्रशिक्षित बुद्धिमान व्यक्ति / शिक्षक /नेता 'C-in-C'/ या विवेक-दर्शन का अभ्यास करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति जो  'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में विवेकदर्शन का अभ्यास करने की पद्धति में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक है; या जिसे विवेकानन्द ने स्वयं पकड़ लिया, जो विवेकानन्द का सैनिक है, जो योगज सत्य ज्ञान में नित्य जागृत है, वह कभी  इन्द्रिय तथा विषयों से होने वाले क्षणभंगुर भोगों में रमण नहीं करता, क्योंकि वह शिक्षक इस सबको दुःख जैसे ही देखते हैं।}   
भक्तियोग की दृष्टि से सब संसार भगवान्‌का स्वरूप है और ज्ञानयोग की दृष्टिसे संसार असत्, जड तथा दुःखरूप है ।  विवेकी पुरुष संसारको दुःखरूप मानकर उसका त्याग करता है–‘दुःखमेव सर्वं विवेकिनः’ (योगदर्शन २/१५)। इसलिए ज्ञान की दृष्टि से (निवृत्ति मार्गी सन्यासियों को कामिनी-कांचन का पूर्ण त्याग करना है) संसार का त्याग करना है, और भक्ति की दृष्टि से प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थों को अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए (कामिनी -कांचन में घोर आसक्ति)  का त्याग करना है और  सबको भगवत्स्वरूप मानकर प्रणाम करना है । भागवतमें आया है–प्रणमेद् दण्डवद् भूमावाश्चचाण्डालगोखरम् ॥(श्रीमद्भागवत ११/२९/१६) ‘अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवाह न करे, प्रत्युत अपने शरीरको लेकर जो लज्जा आती है, उसको भी छोड़कर कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर लम्बा गिरकर साष्टांग प्रणाम करे ।’ विवेकी भक्त कुत्ते, चाण्डाल आदिको प्रणाम नहीं करता, प्रत्युत उन रूपों में आये भगवान्‌ को प्रणाम करता है। 
वैदिक सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जड़ एवं भौतिक पदार्थ की आत्मा होती है वही उसका देवता है। इसी सिद्धांत के तहत 'अहम ब्रह्मास्मि' की घोषणा की गई है।  वैज्ञानिक शोधों से स्पष्ट हो चुका है कि पूरा ब्रह्माण्ड एक ही मूल तत्व से बना है। पहले न्यूट्रान, इलेक्ट्रान और प्रोटोन और अब गॉड पार्टीकल की खोज इसी सिद्धांत को स्थापित करता है। लगातार शोधों से यह स्पष्ट हुआ है कि जड़-चेतन आदि किसी पवित्र वस्तु या व्यक्ति के प्रति भी श्रद्धा और कृतज्ञता का भाव न सिर्फ उस वस्तु को हमारे प्रति सकारात्मक बनाता है, बल्कि हमारे अंदर निहित सकारात्मक ऊर्जा को और शक्तिशाली बनाकर हमें प्रकृति की ताकतों के अधिक से अधिक दोहन की क्षमता देता है। 
 ऋग्वेद के पहले पहले अनुवाक के पहले सूक्त के ऋषि- मधुच्छन्दा विश्वामित्र, देवता-अग्नि एवं छंद-गायत्री हैं—ऊं अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।। 1।। अग्नि:  पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो  नूतनैरुत। स  देवां  एह  वक्षति।।2।।  अग्रणी प्रकाशित, यज्ञकर्ता, देवदूत, सत्यमुक्त अग्नि का स्तवन करता हूं। पूर्वकाल में जिनकी उपासना पुरातन ऋषियों ने की थी तथा अब भी नूतन ऋषिगण जिनकी स्तुति करते हैं, उन अग्नि देवगण को यज्ञ में बुलाता हूं। उपरोक्त दोनों प्रार्थनाएं हमारे जीवन में अतिमहत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अग्नि के लिए है। यह प्रार्थना एक तरह से अग्नि के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है।
जब आप किसी पवित्र वस्तु,,व्यक्ति या प्रकृति को यदि सीधे श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करते हैं, या कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं, तो हमारी वह प्रार्थना  प्रकृति के खास फ्रीक्वेंसी के माध्यम से न सिर्फ संबंधित व्यक्ति, या श्रद्धा के पात्र ईश्वर तक पहुँचती है, बल्कि आपकी प्रार्थना पूर्ण भी होती है। उसी प्रकार जब हम किसी व्यक्ति के प्रति घृणा या द्वेष के रूप में कोई संदेश देते हैं तो वह प्रकृति के खास फ्रीक्वेंसी के माध्यम से न सिर्फ संबंधित व्यक्ति, वस्तु या प्रकृति के खास बिन्दु तक पहुंचता है, बल्कि वहां से कई गुना वृद्धि होकर पुनः आपकी ओर वापस लौटता है।
 करो योग रहो निरोग : संक्षेप में योग दर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं; और उसे कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है । महर्षि पतंजलि ने इन सवसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है; और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।  इस अविद्या एवं दुःख से छूटने का एकमात्र साधन वेदोपदेश एवं ऋषियों द्वारा दिया अद्वितीय ज्ञान 'योग' है। जिससे प्रत्येक व्यक्ति समस्त दुःखों से छूटकर नित्यानन्द को प्राप्त करना चाहता है, वह योग है। 
योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: (यह योगदर्शन का सूत्र है) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध अर्थात् योग है।  'योग' - अर्थात मनःसंयोग  का अभ्यास  ( चित्तवृत्ति निरोध या ध्यान) की उत्पत्ति प्राचीन समय में भारत में ही हुयी थी।   चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए हैं, वे इस प्रकार हैं— अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि, विषयों से विरक्ति आदि । यह भी कहा गया है कि जो लोग योग (मनःसंयोग- प्रत्याहार और धारणा) का अभ्याम करते हैं, उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है जिन्हें विभूति या सिद्धि कहते हैं । 
भारत में  लगभग 5,000 हजार वर्ष पुरानी 'ऋषि पतंजलि आचार्य परम्परा ' में अष्टांग योग द्वारा  मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव - शरीर, मन और आत्मा की शक्ति को विकसित करने की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी  पद्धति का पालन होता चला आ रहा है। 
जिस प्रकार माता अपने पुत्र की रक्षा करती हैं उसी प्रकार योग सुख की रक्षा करता है अर्थात् दुःख से निवृत्ति दिलाता है। वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। -यजु० ३१/१८ भावार्थः- यदि मनुष्य इस लोक-परलोक के सुखों की इच्छा करें तो सबसे अति बड़े स्वयंप्रकाश और आनन्दस्वरूप अज्ञान के लेश से भी पृथक् विद्यमान परमात्मा को जान कर के ही मृत्यु के भय से और अथाह दुःखसागर से पृथक् हो सकते हैं, यही सुखदायी मार्ग है, इससे भिन्न कोई भी मनुष्यों की मुक्ति का मार्ग नहीं।
अष्टांग योग : योग में प्रवेश करने वालों के लिए यम और नियम ऐसे आवश्यक अंग हैं, जैसे किसी मकान के लिए उसकी नींव होती है। यम पांच होते हैं,-सत्य, अहिंसा , ब्रह्मचर्य , आस्तेय और अपरिग्रह; जिनको समाज कल्याण से संबंधित होने के कारण हमलोग ‘सामाजिक धर्म’ कह सकते हैंनियम - शौच, सन्तोष, तपः , स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधानम - भी पांच हैं। चूंकि यह व्यक्ति से संबंध रखते है, अत: इन्हें हम ‘वैयक्तिक धर्म’ कहेंगे। वास्तव में योगाभ्यास का आरम्भ ‘आसन’ से होता है, जो योग का तीसरा अंग हैं। आसन का सम्बन्ध अन्नमय-कोष से होता है। आसन करने से अन्नमय-कोश (स्थूल शरीर) सुन्दर और स्वस्थ बनता है। शरीर निरोगी और तेजस्वी बनता है।
4.'प्राणायाम' का प्राणमय-कोश (सूक्ष्म शरीर) से संबंध है। प्राणायाम करने से प्राणमय-कोष  की वृद्धि होती है और प्राण शुद्धि होती है। किन्तु स्वामी जी ने कहा है, कि प्राणायाम का अभ्यास किसी योग्य गुरु के सानिध्य और मार्गदर्शन में ही करना चाहिए, नहीं तो दिमाग बिगड़ जाने की सम्भावना रहती है। अतः विद्यार्थियों को मानसिक एकाग्रता पद्धति या मनःसंयोग का अभ्यास करते समय प्राणायाम नहीं करने की सलाह दी जाती है। केवल गहरी साँस लेना और छोड़ना ही पर्याप्त होगा। (अतः केवल कपालभाति और अनुलोम-विलोम नाड़ी शोधन प्राणायाम करना ही यथेष्ट है।
महामण्डल में शारीरिक योग-व्यायाम के प्रशिक्षक -आचार्य श्री स्वप्न दास से नाड़ी -शोधन प्राणायाम की पद्धति सीखी जा सकती है। गुरु के सान्निध्य में जब शिष्य योगाभ्यास करता है तो ध्यान के दौरान होने वाले अनुभवों के विषय में गुरु से विचार विमर्श करके वह अपनी साधना को आगे बढाता है और सफलतापूर्वक समाधि तक पहुँच जाता है। 
परन्तु जो साधक बिना गुरु के या ईश्वर को ही अपना गुरु मानकर अपनी साधना कर रहे हैं, उन्हें इन दिव्य अनुभवों के विषय में प्रमाण कम मिलता है या नहीं मिलता है। जिसके कारण वे मृत्यु भय से घबड़ाकर साधना का मार्ग छोड़ देते हैं।
 दो शरीरों का अनुभव होना :-  कई बार संतों की कथाओं में हम सुनते हैं कि वे संत एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं।  ऐसा उस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही संभव होता है। उस सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह सब जगह आ जा सकता है। एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है। दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है तीसरा शरीर कारण शारीर कहलाता है। सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शरीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि। परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही सूक्ष्म स्वरुप का स्वरुप है। 
तीसरा शरीर कारण शरीर (Causal Body)  है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं।  मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है। इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं।
 विज्ञान की भाषा में इसे हम 'क्वांटम सुपरपोजिशन' (quantum superposition) की घटना से तुलना करके समझ सकते हैं।  क्वांटम भौतिकी के अनुसार विशाल अणु (Giant molecules) एक साथ दो स्थानों पर हो सकते हैं। भौतिक विज्ञानी  इस घटना को  "क्वांटम सुपरपोजिशन" कहते हैं। और दशकों से, उन्होंने छोटे कणों का उपयोग करके इस घटना को प्रदर्शित भी किया है।वैज्ञानिक जिसको दीर्घकाल से सैद्धांतिक रूप में सच मान रहे थे, वे कुछ व्यावहारिक तथ्यों पर आधारित हैं। ब्रह्मांड में अवस्थित प्रत्येक कण या कणों का समूह, यहां तक कि बड़े कण, यहां तक कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म बैक्टीरिया, यहां तक कि मनुष्य, यहां तक कि ग्रह और सितारे भी भी एक तरंग ही है। और हम जानते है कि अंतरिक्ष (space) में तरंगें एक साथ कई स्थानों पर प्रवेश करती हैं। इसलिए पदार्थ का कोई भी टुकड़ा एक ही साथ दो स्थानों पर दृष्टिगोचर हो सकता है। {Giant Molecules Exist in Two Places at Once in Unprecedented Quantum Experiment . So any chunk of matter can also occupy two places at once.The new study demonstrates a bizarre quantum effect at never-before-seen scales .By Rafi Letzter, SPACE.com on October 8, 2019 } 
उसी प्रकार आचार्य-परम्परा में निर्देशित साधना के क्रम में अनाहत चक्र (हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता है। कभी ऐसा भी अनुभव अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल गया।  मतलब जीवात्मा हमारे शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी। 
 ऐसा विचार आते ही हम उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं, परन्तु उस समय यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है। किन्तु आचार्य-परम्परा में "स्थूल शरीर मैं ही हूँ" ऐसी भावना करने से व ईश्वर का स्मरण (नाम-जप) करने से वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है। सूर्य के सामान दिव्य तेज का पुंज या नीले -बैगनी रंग की दिव्य ज्योति दिखाई देना एक सामान्य अनुभव है।  यह कुण्डलिनी जागने व परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर होता है।
{ नाड़ी शोधन प्राणायाम क्या है?  इस प्रक्रिया को अनुलोम- विलोम प्राणायाम (Anulom Vilom) के रूप में भी जाना जाता है। यह संचित तनाव और थकान को दूर करने में मदद करता है। इस प्राणायाम को हर उम्र के लोग कर सकते हैं। हर दिन बस कुछ ही मिनटों के लिए यह अभ्यास मन को स्थिर, खुश और शांत रखने में मदद करता है।
 'अनुलोम- विलोम' और कपालभाति नाड़ी शोधन प्राणायाम' करने की प्रक्रिया:अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा और कंधों को ढीला छोडकर आराम से बैठे। या अर्ध -पद्मासन में बैठें। एक कोमल मुस्कान अपने चेहरे पर रखें।साँस पर जोर न दें और साँस की गति सरल और सहज रखें। मुँह से साँस नहीं लेना है या साँस लेते समय किसी भी प्रकार की ध्वनि ना निकाले। 
नाड़ी शोधन प्राणायाम साँस लेने की एक ऐसी प्रक्रिया है जो इन ऊर्जा चैनलों को साफ करने में मदद करती है और इस प्रकार मन शांत होता है। नाड़ी = सूक्ष्म ऊर्जा चैनल; शोधन =सफाई, शुद्धि; प्राणायाम =साँस लेने की प्रक्रिया। नाड़ियाँ मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा चैनल है जो विभिन्न कारणों से बंद हो सकती है। इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ, मानव शरीर की सबसे महत्वपूर्ण नाड़ियाँ हैं।} 
5.'प्रत्याहार' -जो योग का पाँचवाँ अंग है, उसका सम्बन्ध मनुष्य के मनोमय-कोष (कर्मेन्द्रियों) से होता है। इससे इन्द्रियों का निग्रह होता है। मन निर्विकारी और स्वच्छ बनता है और उसका विकास होता है। 
6 .'धारणा' का सम्बन्ध मनुष्य के विज्ञानमय-कोष (ज्ञानेन्द्रियों) से होता है। इससे बुद्धि का शुद्धिकरण और विकास होता है।  शास्त्र-सम्मत विवेक-दर्शन का अभ्यास अर्थात विवेक-वैराग्यपूर्वक अभ्यास करने से साधक की बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है और उसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमात्मतत्त्व को ग्रहण करने की (अनुभव करने की) योग्यता अनायास ही प्राप्त हो जाती है। 
प्रतिदिन दो बार प्रत्याहार और धारणा का विधिवत अभ्यास करने से  जब मन के समस्त द्वंद्व शांत हो जाते हैं विषय भोगों में आसक्ति, कामना और ममता (यह मेरा है, यह तेरा है) का अभाव हो जाने पर मन एकाग्र हो जाता है। उसके मन के सरे अवगुण नष्ट हो जाते हैं और सारे सद्गुण उत्पन्न हो जाते हैं। उसके मन में यह दृढ निश्चय हो जाता है कि संसार के सरे पदार्थ माया का कार्य होने से अनित्य हैं अर्थात वे हैं ही नहीं और एकमात्र परमात्मा ही सर्वत्र समभाव से परिपूर्ण है।   
7.'ध्यान' का अर्थ है ध्येय विषय में मन का तैलधारवत - एकतार चलना। योग के सन्दर्भ में हमारा ध्येय विषय ईश्वर (स्वामी विवेकानन्द, ठाकुर -माँ) है, अतः ईश्वर के बारे में बार-बार सोचने पर मन का ईश्वर में ही एकतार चलना, अन्य कोई भी विचार मन में उत्पन्न नहीं होना ही ध्यान है।  सब कार्य करते हुए भी उसे यह अनुभव होता रहता है कि "यह काम मैं नहीं कर रहा हूँ. मैं शारीर से पृथक कोई और हूँ। " इस प्रकार उसके मन में कर्तापन का अभाव हो जाता है। परमत्मा के स्वरुप में ही इस प्रकार जब गाढ़ स्थिति बनी रहती है, जिसके कारन कभी-कभी तो शरीर और संसार का विस्मरण हो जाता है और एक अपूर्व आनंद का सा अनुभव होता है तो इसे ही ध्यान कहते हैं।  
8.'समाधि' का सम्बन्ध मनुष्य के आनन्दमय कोश (प्रसन्नता, प्रेम, अधिक तथा कम आनन्द) से होता है। इससे आनन्द की प्राप्ति होती है। यह नियम है कि जिस-जिस वास्तु का बारम्बार स्मरण किया जाता है उसमें मन एकतार चलता ही है और उसी-उसी वस्तु का अनुभव होता ही है। इसलिए इश्वर का बारम्बार स्मरण करने पर ईश्वर में ही मन एकतार चलने लगता है जिसे ध्यान कहते हैं। आर लम्बे समय तक ध्यान करने से उस ईश्वर का अनुभव समाधि के द्वारा अवश्य ही होता है। 
योग मुख्यतः एक जीवन पद्धति है, जिसे पतंजलि ने क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया था। इसमें यम, नियम, आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि आठ अंग है। योग के इन अंगों के अभ्यास से सामाजिक तथा व्यक्तिगत आचरण में सुधार आता है, शरीर में ऑक्सीजन युक्त रक्त के भली-भॉति संचार होने से शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार होता है, इंद्रियां संयमित होती है तथा मन को शांति एवं पवित्रता मिलती है। योग के अभ्यास से मनोदैहिक विकारों/व्याधियों की रोकथाम, शरीर में प्रतिरोधक शक्ति की बढोतरी तथा तनावपूर्ण परिस्थितियों में सहनशक्ति की क्षमता आती है। 
शक्तिपात :-हमारे गुरु या ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं। उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है  साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है। वह आनंद वर्णनातीत होता है। इसे शक्तिपात कहते है। इस प्रकार शक्तिपात के द्वारा गुरु पूर्व के पापों को नष्ट करते हैं व कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करते हैं.यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट या गुरु की पूर्ण कृपा हो गई है, उनहोंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगे। 
जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं। अचानक साधू पुरुषों का मिलना, या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना।  व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना।  यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है।  
वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है।  परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाता।  किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा। 
साधना की उच्च स्थिति में ध्यान जब सहस्रार चक्र पर या शरीर के बाहर स्थित चक्रों में लगता है,  तो उस समय हम संसार (दृश्य) व शरीर को पूरी तरह भूल जाते हैं (ठीक वैसे ही जैसे सोते समय भूल जाते हैं। ) सामान्यतया इस अनुभव के बाद जब साधक का चित्त वापस नीचे लौटता है तो वह पुनः संसार को देखकर घबड़ा जाता है। 
 क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने जो अनुभव किया वह अनुभव - व्यष्टि अहं को हुआ या आत्मा को, उसने यह क्या देखा है? वास्तव में इसे आत्मबोध कहते हैं ! यह समाधि की ही प्रारम्भिक अवस्था है अतः साधक घबराएं नहीं, बल्कि धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें।  यहाँ अभी द्वैत भाव शेष रहता है व साधक के मन में एक द्वंद्व पैदा होता है। वह दो नावों में पैर रखने जैसी स्थिति में होता है, इस संसार को पूरी तरह अभी छोड़ा नहीं और परमात्मा की प्राप्ति अभी हुई नहीं जो कि उसे अभीष्ट है।  इस स्थिति में आकर सांसारिक कार्य करने से उसे बहुत क्लेश होता है क्योंकि वह परवैराग्य को प्राप्त हो चुका होता है।  और भोग उसे रोग के सामान लगते हैं, परन्तु समाधी का अभी पूर्ण अभ्यास नहीं है। 
इसलिए साधक को चाहिए कि वह धैर्य रखें और यथासंभव सांसारिक कार्यों को भी यह मानकर कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, करता रहे-- और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखे। साथ ही इस समय उसे सद्गुरु के मुख से 'तत्त्वज्ञान' की भी आवश्यकता होती है,  जिससे उसके मन के समस्त द्वंद्व शीघ्र शांत हो जाएँ। इसके लिए योग-वशिष्ठ महारामायण (या सनत् -सुजातिय संवाद) नामक ग्रन्थ का विशेष रूप से अध्ययन व अभ्यास करें।  उमें बताई गई युक्तियों " जिस प्रकार समुद्र में जल ही तरंग है, सुवर्ण ही कड़ा/कुंडल है, मिट्टी ही  मिट्टी का हाथी और मिट्टी का चूहा-मिट्टी के बर्तन है, ठीक उसी प्रकार ' ईश्वर ही यह जगत है" का परम सत्य का बारम्बार चिंतन करता रहे।  तो उसे शीघ्र ही परमत्मबोध होता है, सारा संसार ईश्वर का रूप  प्रतीत होने लगता है और मन पूर्ण शांत हो जाता है। चलते-फिरते उठते बैठते यह महसूस होना कि सब कुछ मोम की तरह रुका हुआ है, शांत है, "मैं नहीं चल रहा हूँ, यह शरीर चल रहा है", यह सब आत्मबोध के लक्षण हैं यानि परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर यह अनुभव होता है। 
 अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों (स्त्री/पुरुषों) के मन की बात जान लेना या दूर स्थित व्यक्ति क्या कर रहा है  उस आभास का सही निकलना, यह सब दूसरों के साथ अपने चित्त को जोड़ देने पर होता है।  यह साधना में बाधा उत्पन्न करने वाला है इसलिए इससे बचना चाहिए।  दूसरों के विषय में सोचना छोड़ें।  अपनी साधना की और ध्यान दें। इससे कुछ ही दिनों में यह प्रतिभा अंतर्मुखी हो जाती है और साधना पुनः आगे बढ़ती है। 
ईश्वर (माँ जगदम्बा) के सगुण रूप की साधना करने वाले साधानकों को, भगवान का वह रूप कभी आँख वंद करने या कभी बिना आँख बंद किये यानी खुली आँखों से भी दिखाई देने का आभास सा होने लगता है।  परन्तु मन में यह विश्वास नहीं होता कि ईश्वर (माँ सारदा ही दूसरे रूप में आयीं थीं ?) के दर्शन किये हैं।  वास्तव में यह सवितर्क समाधि की सी स्थिति है जिसमे ईश्वर का नाम, रूप और गुण उपस्थित होते हैं।  ऋषि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में इसे सवितर्क समाधि कहा है। ईश्वर की कृपा होने पर (ईष्ट देव का सान्निध्य प्राप्त होने पर) वे साधक के पापों को नष्ट करने के लिए इस प्रकार चित्त में आत्मभाव से उपस्थित होकर दर्शन देते हैं और साधक को अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की और खींचते हैं।   ईष्ट प्रबल होने पर ऐसा होता है।  यह ईश्वर के सगुन स्वरुप के साक्षात्कार की ही अवस्था है इसमें साधक कोई संदेह न करें।  इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।  साधना में आने वाले विघ्नों को अवश्य ही ईश्वर से कहना चाहिए और उनसे सदा मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए।  वे तो हमें सदा राह दिखने के लिए ही तत्पर हैं परन्तु हम ही उनसे राह नहीं पूछते हैं या वे मार्ग दिखाते हैं तो हम उसे मानते नहीं हैं, तो उसमें ईश्वर का क्या दोष है? ईश्वर तो सदा सबका कल्याण ही चाहते हैं।[साभार http://www.yogaprinciple.com/}  
सांख्य दर्शन में योग का स्वरूप :  योग  का अर्थ परमतत्व (परमात्मा )को प्राप्त करना है।  इसलिए दर्शनो में भिन्न-भिन्न मार्गो का उल्लेख किया गया है सांख्य दर्शन में पुरूष का उद्देश्य इसी परमतत्व को प्राप्त करना कहा गया है।  तथा परमात्मा प्राप्ति की अवस्था को मोक्ष,मुक्ति,एवं कैवल्य की संज्ञा दी गयी है। जिस प्रकार योग दर्शन में पंचक्लेशो का वर्णन किया गया है तथा अविद्या,अस्मिता,राग,द्वेश व अभिनिवेष नामक इन पॉच क्लेशों को मुक्ति के मार्ग में बाधक माना गया है। ठीक उसी प्रकार अज्ञानता (अविद्या)  को सांख्य दर्शन में मुक्ति में बाधक, और ज्ञान को सांख्य दर्शन में मुक्ति का साधन माना गया है।  अज्ञानता के कारण मनुष्य इस प्रकृति के साथ इस प्रकार जुड़ जाता है कि, वह स्वयं में एवं प्रकृति में भेद ना कर पाना ही इसके बंधन का कारण है।  
सृष्टि क्रम : सांख्य दर्शन भी आस्तिक दर्शन ही है, किन्तु इसकी सबसे बड़ी महानता यह है कि इसमें सृष्टि की उत्पत्ति भगवान के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझा गया है और माना गया है।  कि सृष्टि अनेक अनेक अवस्थाओं (phases) से होकर गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। 
साख्य दर्शन में सृष्टि क्रम पर प्रकाश डाला गया है,सांख्य दर्शन में वर्णित सृष्टि क्रम को इस प्रकार उल्लेखित किया जा सकता है -साम्यावस्था भंग होने पर बनते हैं- 'महत्' तीन अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ, १० इन्द्रियाँ और पाँच महाभूत। पच्चीसवां गुण है पुरूष। अर्थात प्रकृति से सर्व प्रथम महत-तत्व अथवा बुद्वि की उत्पत्ति। ततपश्चात अहंकार की उत्पत्ति एवं सात्विक,राजसिक  एवं तामसिक अहंकार के रूप में अहंकारो के तीन भेद करते हुए सात्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति के क्रम को समझाया गया। इसी से ही ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियो की उत्पत्ति को तथा अहंकार के तामसिक भाग से पचंतन्मात्राओं एवं पचं महाभूतो की उत्पत्ति को समझाया गया है । इस प्रकार 24 तत्वों के साथ 25 वे तत्व के रूप में पुरूष तत्व को समझाया गया है।
पुरूष : सॉख्य दर्शन प्रकृति और पुरूष की स्वतन्त्र सत्ता पर प्रकाश डालता है।  प्रकृति जड़  एवं पुरूष चेतन है । यह प्रकृति सम्पूर्ण  जगत को उत्पन्न करने वाली है।  पुरूष चेतन्य है, परम तत्व, या आत्म-तत्व है।  यह पुरूष समस्त ज्ञान एव अनुभव को प्राप्त करता है।  प्रकृति एवं प्राकृतिक पदार्थ जड होने के कारण स्वयं अपना उपभोग नही कर सकते।  इनका उपभोग करने वाला यह पुरूष प्रकृति के पदार्थ इस पुरूष में सुख दुख की उत्पत्ति करते है।  जब इस पुरूष को ये पदार्थ प्राप्त होते है तब यह सुख का अनुभव करता है परन्तु जब ये पदार्थ दूर होते है तब यह पुरूष दुख की अनुभूति करता है।
बंधन एवं मोक्ष : साख्य दर्शन के अनुसार अज्ञानता के कारण पुरूष बंधन में बध जाता है जबकि यह पुरूष ज्ञान के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करता हे बंधक में बधा हुआ पुरूष आध्यात्मिक,आधिभौतिक एवं आधिदैविक दुखों से ग्रस्त्र रहता है।  मैं और मेरा  भाव से युक्त होकर पुरूष इस बंधन  में फस जाता है।  परन्तु जब पुरूष का विवेक ज्ञान जाग्रत होता है ज्ञानरूपी प्रकाश जब उसका अज्ञानतारूपी अन्धकार समाप्त हो जाता है। इस अवस्था वह विशुद्व चैतन्य (परमात्मा)का स्वरूप ग्रहण करने लगता है इसे ही मुक्ति एवं कैवल्य की संज्ञा दी गयी है साख्य दर्शन उन आध्यात्मिक स्वभाव के ज्ञानी पुरूषों पर भी प्रकाश डालता है जो सदैव इन दुखों से परे रहकर मोक्ष की इच्छा करते है। 
सांख्य दर्शन,  सृष्टि रचना की व्याख्या एवं प्रकृति और पुरूष की पृथक-पृथक व्याख्या करता है।  सांख्य दर्शन की मान्यता है कि संसार की हर वास्तविक वस्तु का उद्गम पुरूष और प्रकृति से हुआ है। सांख्य सूत्रों के प्रथम उपदेष्टा, आचार्य -परंपरा से कपिल मुनि ही माने जाते हैं।  वेद और सांख्य परस्पर विरोधी नहीं हैं। सांख्य दर्शन में 'पुरुष' शब्द का उपयोग मनुष्य, आत्मा, चेतना आदि के अर्थ में किया गया है, वैदिक वाङमय में अनेक स्थलों पर वैसा ही देखने को मिलता  है। प्रकृति से लेकर स्थुल-भूत पर्यन्त सारे तत्वों की संख्या की गणना किये जाने से इसे सांख्य दर्शन कहते है। इसी तरह अव्यक्त, महत, तन्मात्र, त्रिगुण, सत्त्व, रजस्, तमस आदि शब्द भी सांख्य दर्शन में दर्शन की संरचना इन्हीं शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। षड्दर्शन में सांख्य दर्शन को रखना और भारतीय दर्शन की सुदीर्ध परम्परा में इसे आस्तिक दर्शन मानना भी सांख्य की वैदिकता का स्पष्ट उद्घोष ही है।
 योग की परिभाषा में दुःख एक प्रकार का चित्तविक्षेप या अंतराय है जिससे समाधि में विध्न पड़ता है । इस संसार में धर्म ,अर्थ, काम एवं मोक्ष नाम से चार पुरूषार्थ प्रसिद्ध हैं इनमें से मोक्ष को ही श्रेष्ठतम कहा हैं। और इसको ही परम पुरुषार्थ कहा हैं।  
सांख्य-दर्शन का मुख्य आधार सत्कार्यवाद है। सत्कार्यवाद के दो भेद हैं- परिणामवाद तथा विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में परिवर्तित हो जाता है। जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपांतरित होता है। प्रकृति के परिणाम अर्थात् रूपान्तर दो प्रकार के हैं। महत् अहंकार, तन्मात्रा तो अव्यक्त है, इनका वर्णन सांख्य दर्शन में है। परिमण्डल पंच महाभूत तथा महाभूतों से बने चराचर जगत् के सब पदार्थ व्यक्त पदार्थ कहलाते हैं। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास (भ्रम) होना।
इस सिद्धान्त के अनुसार, बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। फलतः, इस जगत की उत्पत्ति शून्य से नहीं किसी मूल सत्ता (माँ जगदम्बा?) से है ? कार्य, अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान रहता है। कार्य अपने कारण का सार है। कार्य तथा कारण वस्तुतः समान प्रक्रिया के व्यक्त-अव्यक्त रूप हैं
प्रकृति-कारण-वाद का महान गुण यह है कि पृथक्-पृथक् धर्म वाले सत्वों, रजस् तथा तमस् तत्वों के आधार पर जगत् के वैषम्य का किया गया समाधान बड़ा न्याययुक्त तथा बुद्धिगम्य प्रतीत होता है। सत ,रज,  तम गुण के आश्रय भूत ये प्रकृति के गुण ही दुःख हैं इस दुःख निवृत्ति ही पुरुषार्थ हैं। इस दर्शन ने जीवन में दिखाई पड़ने वाले वैषम्य का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति की सर्वकारण रूप में प्रतिष्ठा करके बड़े सुंदर ढंग से किया। साख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण को इन तीन गुणों को सम्मिलित रूप से त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है।  सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेन्द्रिय माना गया है।  सॉख्य दर्शन के अनुसार ये तीन गुण एक दूसरे के विरोधी है। सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है तो वही तमो गुण अज्ञानता एवं अंधकार का प्रतीक है रजो गुण दुख का प्रतीक है तो सत्व गुण सुख का प्रतीक है।  परन्तु आपस मे विरोधी होने के उपरान्त भी ये तीनों गुण प्रकृति में एक साथ पाये जाते है।  साख्य दर्शन में इसके लिए तेल बत्ती व दीपक तीनो विभिन्न तत्व होने के उपरान्त भी एक साथ मिलकर प्रकाश उत्पन्न करते है ठीक उसी प्रकार ये तीन गुण आपस मे मिलकर प्रकृति मे बने रहते है। 
 सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण ऊर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता, प्रीति,श्रदा, सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है। रजोगुण दुख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान,मद,द्वेश,तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है। तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह (सम्मोहन) की उत्पत्ति होती है।  इस मोह से पुरूष में निद्वा तन्द्वा प्रसाद,आलस्य,मुर्छा,अकर्मण्यता अर्थवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है। 
 सांख्य दर्शन का मत है कि यद्यापि पुरूष नित्य मुक्त है अर्थात स्वतन्त्र है। परन्तु वह अज्ञानता के कारण स्वयं को अचेतन प्रकृति ये युक्त समझने लगता है इस कारण वह दु:खी होता है।  तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की समस्याओं से घिरता है बन्धनों से युक्त होता है। किन्तु आगे चलकर जब यह पुरूष ज्ञान प्राप्त करता है,  तब वह अपने स्वरूप को पहचानने में सक्षम होता है।  और अनेक स्वरूप प्रकृति के स्वरूप भिन्न जानने में समर्थ होता है। तभी वह इस बंधन से मुक्त (भ्रम मुक्त या d -hypnotizes) होता है यह (M/F) शरीर में नही हू ! अर्थात में अचेतन विषय नही हू में जड नही हू,मे अन्त: करण नही हू यह मेरा नही है मै अहंकार से रहित हू मैं अहंकार (व्यष्टि अहं) भी नही हॅू ! व्यष्टि अहं के माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित हो जाने के बाद, जब साधक साधना के माध्यम से 'एकत्व ज्ञान ' (अद्वैत -या इक ज्ञान) की प्राप्ति करता है तब से उसकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्थ होता है।  तथा इसी के माध्यम सक वह कैवल्य की प्राप्ति करता है।
जड़ प्रकृति सत्व, रजस एवं तमस् - इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम है। प्रकृति की अविकसित (अव्यक्त) अवस्था में यह गुण निष्क्रिय होते है पर परमात्मा के तेज सृष्टि के उदय की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही प्रकृति के तीन गुणो के बीच का समेकित संतुलन टूट जाता है। परमात्मा का तेज परमाणु (त्रित) की साम्यावस्था को भंग करता है और असाम्यावस्था आरंभ होती है - सृष्टि का प्रारम्भ होता है। रचना-कार्य में यह प्रथम परिवर्तन है। इस अवस्था को महत् कहते है। यह प्रकृति का प्रथम परिणाम है। मन और बुध्दि इसी महत् से बनते हैं। भूतादि अहंकार को वैदिक भाषा में आप: कहा जाता है। ये(अहंकार) प्रकृति का दूसरा परिणाम है।तदनन्तर इन अहंकारों से पाँच तन्मात्राएँ (रूप, रस) रस,गंध, स्पर्श और शब्द) पाँच महाभूत बनते है "त्रिगुणात्मिका प्रकृति नित्य परिणामिनी है। उसके तीनों गुण ही सदा कुछ न कुछ परिणाम उत्पन्न करते रहते हैं, पुरुष अकर्ता है" -सांख्य का यह सिद्धांत गीता के निष्काम कर्मयोग का आवश्यक अंग बन गया है (गीता 13/27, 29 आदि)। 
{।।13.27।। क्षेत्रज्ञ और ईश्वर की एकता-विषयक ज्ञान मोक्ष का साधन है। हे भरतश्रेष्ठ, जो कुछ भी  स्थावर-जंगम यानी चर और अचर वस्तु उत्पन्न होती है,  वह सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न होती है। यह संयोग  क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण है।  रज्जु और सीप आदि में उनके स्वरूप सम्बन्धी ज्ञान के अभाव से अध्यारोपित सर्प और चाँदी आदि के संयोग की भाँति है।  ऐसा यह अध्यासस्वरूप क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का संयोग मिथ्या ज्ञान है। जो व्यक्ति क्षेत्र (नाम-रूप या शरीर) को माया से रचे हुए हाथी,  स्वप्न में देखी हुई वस्तु या गन्धर्वनगर आदि की भाँति यह वास्तव में नहीं है,  तो भी सत्य की  भाँति प्रतीत होता है।  ऐसे जो व्यक्ति निश्चयपूर्वक जान लेता है, उसका मिथ्याज्ञान उपर्युक्त यथार्थ ज्ञान से विरुद्ध होने के कारण नष्ट हो जाता है। पुनर्जन्म के कारण रूप उस मिथ्याज्ञान का अभाव हो जाने पर 'य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह' इस श्लोकसे जो यह कहा गया है कि विद्वान् पुनः उत्पन्न नहीं होता सो युक्तियुक्त ही है। ।।13.28।।अविद्या जनित क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग को जन्म का कारण बतलाया गया। इसलिये उस अविद्या को निवृत्ति करने वाला पूर्ण ज्ञान है। जैसे कोई तिमिर रोग से दूषित हुई दृष्टि वाला व्यक्ति अनेक चन्द्रमाओं को देखता है,  उसकी अपेक्षा एक चन्द्र देखनेवालेकी यह विशेषता बतलायी जाती है कि वही ठीक देखता है। वैसे ही यहाँ भी जो आत्मा को उपर्युक्त  प्रकार से विभागरहित एक देखता है,  उसकी अलगअलग अनेक आत्मा देखनेवाले विपरीतदर्शियों की अपेक्षा यह विशेषता बतलायी जाती है कि वही ठीकठीक देखता है।।।13.29।। सभी अज्ञानी  "अविद्वान्" - जो ब्रह्मविद नहीं हुए हैं, वे आत्महत्यारे हैं। क्योंकि जो वास्तव में आत्मा है, किन्तु वह भी अविद्या द्वारा ( अविनाशी सत्य-ब्रह्म के अज्ञात होने के कारण ) सदा मारा हुआ सा ही रहता है।  उस ( परमेश्वर ) को सर्वत्र समान भावसे देखनेवाला पुरुष स्वयं -- अपने आप अपनी हिंसा नहीं करता। इसलिये अर्थात् अपनी हिंसा न करनेके कारण वह मोक्षरूप परम उत्तम गतिको प्राप्त होता है।}  
पुरुषज्ञान : योगसूत्र (3/35) में पुरुषज्ञान के लिए जिस संयम का विधान किया गया है, उसका नाम स्वार्थसंयम है (बुद्धिसत्त्व परार्थ है, चित्त-स्वरूप द्रष्टा स्वार्थ है; अतः इस संयम का नाम ‘स्वार्थ संयम’ रखा गया है)। पुरुष (तत्त्व) चूंकि कूटस्थ-अपरिणामी है, अतः वह ज्ञान का वस्तुतः विषय नहीं हो सकता। पुरुष विषयी है; किसी भी प्रमाण से पुरुष साक्षात ज्ञात नहीं होता। अतः पुरुष-ज्ञान का तात्पर्य है – पुरुष के द्वारा चित्तवृत्ति का प्रकाशन होता है – इस तथ्य का अवधारण। चित्त में पुरुष का जो प्रतिबिम्ब है, उस प्रतिबिम्ब में संयम करने पर पुरुष सत्ता का ज्ञान होता है। 
सांख्य दर्शन में ज्ञान के माध्यम से पुरूष का अपने स्वरूप को जानकर प्रकृति से पृथक हो जाना है कैवल्य कहा गया है जिसे महर्षि पतंजलि योग दर्शन में -- 'पुरुषख्याति' के नाम से वर्णित करते है। पुरुषख्याति अर्थात् पुरुषविषयक प्रज्ञा -पुरुष (तत्त्व) – विषयक ख्याति =  (योगसू. 1.16)। पुरुष अपरिणामी, कूटस्थ, शुद्ध, अनन्त है तथा त्रिगुण से अत्यन्त भिन्न है – इस प्रकार का पुरुषस्वभाव-विषयक निश्चय ही पुरुषख्याति है। पुरुष (तत्त्व) बुद्धि का साक्षात् ज्ञेय विषय (घटादि की तरह) नहीं होता, अतः उपर्युक्त निश्चय आगम और अनुमान से होता है। पुरुषख्याति से सत्वादि गुणों के प्रति विरक्ति होती है; यह विरक्ति ही परवैराग्य कहलाती है।
'पुष्टिमार्ग'(वल्ल्भ वेदान्त) [वल्लभ वेदान्त =परुषोत्तमानन्द > ब्रह्मानन्द] : मानुषानन्द से लेकर ब्रह्मानन्द तक आनन्द की अनेक श्रेणियाँ हैं। इन सभी आनन्दों का उपजीव्य अर्थात् मूल स्रोत पुरुषोत्तमानन्द है। पुष्टि मार्ग में ब्रह्म से भी ऊँचा स्थान भगवान् पुरुषोत्तम का है। इसीलिए वल्लभ वेदान्त में ब्रह्मानन्द से भी श्रेष्ठ पुरुषोत्तमानन्द माना गया है। जब सत्त्वगुणात्मक, रजोगुणात्मक या तमोगुणात्मक शरीर विशेष रूप अधिष्ठान की अपेक्षा किए बिना स्वयं अभिगुणात्मक शुद्ध साकार ब्रह्म आविर्भूत होते हैं, तब वे स्वयं पूर्णभगवान - हैं। वल्लभ वेदान्त  में (या रामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा में ) पुरुषोत्तम भगवान श्री रामकृष्ण देव ही पूर्णानन्द हैं। अक्षरानन्द या ब्रह्मानन्द उसकी तुलना में न्यून हैं। इसीलिए ज्ञानियों के लिए ब्रह्मानंद भले ही अभीष्ट हों, परंतु भक्तों के लिए तो पूर्णानन्द पुरुषोत्तम ठाकुर देव ही परम अभिप्रेत हैं। 
वर्तमान युग में ऐसे शुद्ध साकार ब्रह्म के अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव  ही हैं। यद्यपि वे भी अधिष्ठान रूप में लीला शरीर से युक्त हैं, तथापि उनका वह विग्रह अभिगुणात्मक होने से सर्वथा शुद्ध है। भगवान् श्रीरामकृष्ण की नित्य लीला में अंतःप्रवेश (समावेश) पुष्टिमार्गीय मुक्ति है
{  ।।तैत्तरीय उप ० 2.9.1/में कहा गया है - यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्। न बिभेति कुतश्चनेति।   जहाँ से मन के सहित वाणी उसे प्राप्त न करके लौट आती है, उस ब्रह्म के आनन्द को जानने वाला किसी से भी (मृत्यु के भय से भी) भयभीत नहीं होता। उस विद्वान को  मैंने शुभ क्यों नहीं किया? पापकर्म क्यों कर डाला -- इस प्रकार की चिन्ता सन्तप्त नहीं करती।  अब [इस ब्रह्म के] आनन्द की मीमांसा यह है - कोई साधु स्वभाव वाला नवयुवक, वेद पढ़ा हुआ, अत्यन्त आशावान् [कभी निराश न होनेवाला] तथा अत्यन्त दृढ़ और बलिष्ठ हो एवं उसीकी यह धनधान्यसे पूर्ण सम्पूर्ण पृथिवी भी हो। [उसका जो आनन्द है] वह एक मानुष आनन्द है।  ऐसे जो सौ मानुष आनन्द हैं।। वही मनुष्य-गन्धर्वों-का एक आनन्द है।इस ब्रह्मानन्द के भय से वायु चलता है,  इसी के भय से सूर्य उदय होता है , तथा इसी के भय से अग्नि,  इन्द्र और पाँचवाँ मृत्यु दौड़ता है। ये सभी अपने अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं। महामण्डल का " श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " या " Be and Make -C-IN-C  लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन"  में प्रशिक्षित शिक्षक /नेता निर्माण के युवा प्रशिक्षण शिविर में अन्तःप्रवेश (चपरास प्राप्त प्रशिक्षक मण्डली में समावेश हो जाना)  " Be and Make -C-IN-C  लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन"  ही  महामण्डल का पुष्टिमार्ग (अवतार वरिष्ठ भगवान श्री रामकृष्ण देव ही पुष्टिमार्ग हैं अर्थात साधन और साध्य दोनों है। 
महामण्डल के कर्मियों को  निर्विकल्प समाधि में रहने से ठाकुर ने मना किया है, अतः खुली आँखों से निरंतर ध्यान बना रहे कि मैं एक्जाम हॉल में स्क्रिप्ट में लिखे को करने का अभिनय-लीला  कर रहा हूँ ! यही एकमात्र कल्याण का मार्ग है ।संपूर्ण दुखों से छूटने का मार्ग है।}    
जिसमें विषय के रूप में विषय का त्याग हो अर्थात् विषय में ममता का विरह हो और विषय को भगवदीय समझ कर ग्रहण किया जाए, वह मार्ग पुष्टिमार्ग है। जीवन की सार्थकता के लिए मानव द्वारा अर्थ्यमान (प्रार्थित) होने से पुरुषार्थ कहा जाता है। यद्यपि अन्यत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार ही पुरुषार्थ माने गए हैं, किंतु वल्लभ दर्शन (स्वामी विवेकानन्द दर्शन -का कैप्टन सेवियर अभ्यास लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन) के अनुसार "होली ट्रायो " की भक्ति भी एक स्वतंत्र पंचम पुरुषार्थ है और यह पुरुषार्थों में सर्वोत्कृष्ट है। भगवान् श्री रामकृष्णदेव, श्री माँ सारदादेवी और स्वामी विवेकानन्द के विशेषानुग्रह से उत्पन्न भक्ति पुष्टिभक्ति है तथा भगवदनुग्रह को प्राप्त भक्त पुष्टि भक्त है। 
 परवर्ती पौराणिकों ने भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति या सिद्धि के लिए प्रयत्न करना ही पुरुषार्थ माना है, और इसी लिए उक्त चारों बातों की गिनती उन मुख्य पदार्थों में की जाती है, जिनकी ओर सदा मनुष्य का ध्यान या लक्ष्य रहना चाहिए। अतः छात्र जीवन से ही 'मोक्ष प्राप्ति' हेतु योग पथ (आचार्य परम्परा में मनःसंयोग आदि 5 अभ्यास के पथ) पर चलकर - यम, नियम का अभ्यास 24 x 7 और आसन, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास या विवेक-दर्शन का अभ्यास दिन भर में दो बार करते हुए , ध्यान और समाधि के माध्यम से निर्विचार, निर्विकल्प अवस्था तक पहुंचने का निरंतर अभ्यास करता रहे ।
इसलिए मनुष्य को अपने जीवन में धर्म के मार्ग पर चलते हुए अथक परिश्रम से धन कमाना चाहिए । भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनाने के लिए बिजनेस करके आर्थिक रूप पूर्ण विकसित राष्ट्र बनने में पूरा प्रयास करना चाहिए। लेकिन कामिनी-कांचन से अनासक्त रहते हुए अपने को उस धन का Custodian या अभिरक्षक ही समझना चाहिए। और राजर्षि (राजा +ऋषि) जनक की तरह जितनी भी आवश्यकताएं हैं ,शरीर चलाने के लिए उन्हें पूरा करना चाहिए। अधिक भोग करने का लालच छोड़कर जीवन भर मनःसंयोग (धारणा ,ध्यान, समाधि) का अभ्यास करते रहना चाहिए। जब इस पद्धति का अनुसरण किया जाएगा तो जीवन के अंतिम समय से पूर्व ही निश्चित रूप से एक दिन (14 अप्रैल 1992) को मन अवश्य निर्विकल्प, निर्विचार अवस्था को प्राप्त कर लेगा,  क्योंकि वह महामण्डल द्वारा  निर्देशित '3H विकास के 5 अभ्यास से शांत और निर्मल बन चुका होगा । समस्त प्रकार की भोगों में आसक्ति , उधेड़बुनों एवं प्राप्तियों के संबंध में चिंता रहित होगा । जब तक मन में कामिनी-कांचन के भोग में आसक्ति और लालच या अभिलाषाएं हैं तब तक मोक्ष नहीं
सांख्यकारिका-व्याख्या के आधार पर महामण्डल में तीन शरीरों की मान्यता ~ 3'H' को युक्तिसंगत मानता  हैं। सूक्ष्म शरीर (या अन्तःकरण-मन- बुद्धि-चित्त -अहंकार)  बिना किसी अधिष्ठान के नहीं रहा सकता, यदि सूक्ष्म शरीर का आधार स्थूल शरीर ही हो;  तो स्थूल शरीर से उत्क्रान्ति के पश्चात् सूक्ष्म शरीर का लोकान्तर गमन किस प्रकार कर सकता है? क्योंकि  सूक्ष्म शरीर बिना अधिष्ठान शरीर के नहीं रह सकता अत: स्थूल शरीर को छोड़ देने के बाद, सूक्ष्म  शरीर का अधिष्ठान आत्मा ही है,  कठोपनिषद ६/१७  में कहा है - 'अङगुष्ठमात्र:पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जना हृदये सन्निविष्ट:',  प्रमाण से अधिष्ठान शरीर (3rd'H')  की सिद्धि करते हैं।
ब्रह्म सत्य-जगत मिथ्या तो है किन्तु उस सत्य तक पहुँचने के लिए जगत को भी सत्य मानकर चलना होगा। निष्काम भाव से कर्म करते हुए तभी परम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु करणीय समस्त कर्मों को मनुष्य निष्काम-भाव से करे तभी वह कर्मबन्धन से मुक्त (भ्रममुक्त या d-hypnotized) हो सकता है और यही कर्म योग है, जिसका ‘गीता’ (2 /47, 48) हमें ज्ञान कराती है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
[कर्मण्येवाधिकारस्ते = कर्मणि  एव अधिकारः ते  मा फलेषु  कदाचन/ " कर्मण्येव अधिकारः  न ज्ञाननिष्ठायां ते  तव।] तेरा कर्म (पुरुषार्थ करने) में ही अधिकार है ज्ञाननिष्ठा (भ्रममुक्त अवस्था) में नहीं। वहाँ ( कर्ममार्ग में ) कर्म करते हुए  किसी भी अवस्था में तुझे कर्मफल की इच्छा (मोक्ष या निर्विकल्प समाधि में ही समाधिस्त रहने की इच्छा तुम में) नहीं होनी चाहिये। कर्तव्य-कर्म (धर्म पालन) करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।
तात्पर्य यह हुआ है पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि योनियों के लिये पुराने कर्मों का फल और नया कर्म ये दोनों ही भोगरूपमें हैं; किन्तु मनुष्य के लिये पुराने कर्मों का फल और नया कर्म (पुरुषार्थ) ये दोनों ही उद्धारके साधन हैं। ' मा फलेषु कदाचन' -  फल में तेरा किञ्चिन्मात्र भी अधिकार नहीं है अर्थात् फलकी प्राप्ति में तेरी स्वतन्त्रता नहीं है क्योंकि फल (आत्मज्ञान) का विधान तो मेरे अधीन है। क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना से प्रेरित होकर कर्म में प्रवृत्त होता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है। यदि कर्मफल की इच्छा न करें तो दुःखरूप कर्म करने की आवश्यकता भी क्या है ?...  इस प्रकार कर्म न करने में -या अकर्मण्यता में भी तेरी आसक्ति-प्रीति नहीं होनी चाहिये। यदि कर्मफल से प्रेरित होकर कर्म नहीं करने चाहिये, तो फिर किस प्रकार करने चाहिये ? इसपर कहते हैं-हे धनंजय योग में स्थित होकर केवल ईश्वरके लिय कर्म (पुरुषार्थ) कर। उनमें भी ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हों। इस आशा रूप आसक्ति को भी छोड़कर कर। हे धनञ्जय तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धिअसिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है। 
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गत्यक्त्वा धनंजय। 
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

त्यागपूर्वक, निष्काम भाव से कर्म करते हुए हमें जीवन में ‘धर्म’ (=वेद) की प्रधानता को अंगीकार करना चाहिए। धर्म जीवन का सक्रिय तत्त्व है, जीवन का जितना विस्तार है उतना ही व्यापक धर्म का क्षेत्र है। धर्म लोकस्थिति का सनातन बीज है। वह गंगा के ओजस्वी प्रवाह की भांति जीवन के सुविस्तृत क्षेत्र को पवित्र तथा सिंचित करने वाला अमृत है। मनुष्य-जीवन में जय-पराजय, सम्पत्ति-विपत्ति, सुख-दुःख सर्वदा एक समान नहीं रहते परन्तु धर्म ही एक वस्तु है, जो सर्वदा एक समान रहती है। धर्म का उल्लंघन मृत्यु से बढ़कर दुःखदायी होता है। अतः प्राणों का उत्सर्ग करके भी धर्म (वेद) की रक्षा तथा उसका अनुपालन करना चाहिए।  
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव है -3H' (हैंड , हेड और हार्ट्) अर्थात शरीर, मन और आत्मा।  देह को यदि मोटर गाड़ी माने तो, आत्मा ड्राइवर है, मन स्टीयरिंग है, चक्के इन्द्रियां हैं। इसके सुसमन्वित विकास या आत्मोन्नति और सेवा -Be and Make' मार्ग पर चलते हुए मनुष्य अपने परम लक्ष्य 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकता है। ड्राइवर अपने को कभी मोटरकार नहीं समझता।  किन्तु मनुष्य जन्म -जन्मांतर के अभ्यासवश इन्द्रिय भोगों में आसक्त होकर स्वयं को अविनाशी आत्मा  न समझकर नश्वर शरीर M/F समझने लगता है। जब उसको यह विवेकज-ज्ञान होता है कि हमारे दो अस्तित्व हैं, एक  नश्वर देह और दूसरा अविनाशी आत्मा है। जब उसे यह अनुभव होता है कि-- शरीर बंधन का कारण है । संसार मायाजाल है । अर्थात नश्वर शरीर के साथ तादात्म्य (देहाध्यास) ही उसके बंधन का कारण है।  मनुष्य जब इस तथ्य को जान लेता है तब उसे इन्द्रिय भोगों से वैराग्य होता है, और उसमें मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा या 'मुमुक्षा' जाग्रत होती है।  और तब वह इन्द्रिय विषय भोगों से अपना ध्यान हटाकर परमात्मा की ओर लगाता है । तत्पश्चात् उसे किसी [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित] योग्य गुरु [C-in-C ] से वेदान्त (महावाक्यों) का उपदेश ग्रहण करना चाहिए । पूज्य नवनीदा जैसे जीवनमुक्त शिक्षक/ गुरु/ नेता ही शिष्य (भावी नेता/गुरु) को ‘तुम ही ब्रह्म हो’ (तत् त्वम् असि) का बोध कराता है । गुरु की इस उक्ति का मनन करते हुए तथा दृढ़तापूर्वक उसका आचरण (मनःसंयोग का अभ्यास) करते हुए व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार कर लेता है।  तथा इस अवस्था में उसे ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ की अनुभूति होती है । यही पूर्ण ज्ञान है तथा इसी को मोक्ष (भ्रममुक्ति या d-hypnotized हो जाना) कहा गया है । मोक्ष प्राप्ति (भ्रममुक्ति या d-hypnotized हो जाने) के बाद जीवन के दु:खों का नाश हो जाता है तथा मनुष्य परमानन्द की प्राप्ति करता है ।प्रायः सभी भारतीय दर्शन अविद्या  तथा अज्ञान को ही बन्धन का कारण मानते हैं । अत: मोक्ष तभी सम्भव है जब व्यक्ति अज्ञान के बन्धन को काट दे । गीता में कहा गया है कि काम-क्रोध से रहित, जीते हुए मन वाले ज्ञानी पुरुष परमात्मा की प्राप्ति करते हैं।
राजयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग मोक्ष प्राप्ति के साधन है । गीता में इनका समन्वय मिलता है । उपनिषदों में मोक्ष सम्बन्धी विचारधारा का सम्यक् विश्लेषण मिलता है । उपनिषद् व्यक्ति के सारभूत तत्व आत्मा तथा जगत के सारभूत तत्व ब्रह्मा का तादात्म्य स्थापित करते हैं । यही मोक्ष की अवस्था है । इसके लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति में इन्द्रिय तथा मन का संयम, सांसारिक भोगों से विरक्ति, संसार की अनित्यता का ज्ञान तथा मोक्ष प्राप्त करने की प्रबल उत्कण्ठा हो । 
[साभार -www.essaysinhindi.co] 
----------------------
'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' क्या है और मेरे जीवन में इसका महत्व क्या है ?: 
यह महामण्डल स्वयं भगवान श्री रामकृष्ण और माँ सारदा देवी की आशीर्वाद और गुरु  स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से आविर्भूत हुआ एक युवा संगठन है; और स्वयं भगवान (नेता/जीवनमुक्त शिक्षक)ही यहाँ पढ़ाते है-प्रशिक्षण देते हैं।  जिसका उद्देश्य जीवनमुक्त राजर्षियों का निर्माण करके भारत के कल्याण द्वारा -  - वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत नये विश्व की स्थापना करना है। भारत के कोने-कोने से लोग इधर आकर आध्यात्मिक ज्ञान का आनन्द लेते है। 
 यहाँ आत्मा और परमात्मा का सत्य पहचानने, सृष्टि चक्र, कर्मो की गुह्य गति [ कर्म फिलॉसफी- 24 नवम्बर 2019 - Omax / ब्रह्माकुमारी राजयोग]  या मनःसंयोग अर्थात परमात्मा से कनेक्शन जोड़ने की विधि आदि गहरे विषयों का स्पष्टीकरण किया जाता है, तथा आचार्य परम्परा प्रशिक्षित शिक्षकों के द्वारा चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने प्रशिक्षण दिया जाता है। 
सृष्ठि-लीला चक्र : [WORLD DRAMA WHEEL (Wonderful secret)] विश्व नाट्य मंच की लीला को समझने के लिए दो लेशन -सीखने हैं : आत्मोन्नति (Be = आत्म +उन्नति) और सेवा (Make - शिवज्ञान से जीव सेवा) । तुम देह हो या आत्मा ? पूछने पर कहोगे -समझ गया मैं आत्मा हूँ।  किन्तु क्या तुम आत्माभिमानी बने हो ? दूसरा 'मैं आत्मा हूँ' - आत्माभिमान में प्रतिष्ठित होने के उपाय , मनःसंयोग की पद्धति से स्वचक्र-सहस्रार या अनाहत चक्र  में स्थित होने- चक्रवर्ती सम्राट बने ?  / आत्मस्थ रहने / हर समय मैं एक्जामिनेशन दे रहा हूँ ,क्या इस क्षण मैं स्क्रिप्ट जैसा अभिनय के लिए मिला वह अभिनय कर रहा हूँ, इसके प्रति जगा हुआ हूँ ?  दूसरा लेशन यह कि आचार्य परम्परा में आत्माभिमानी बनने और बनाने के रहस्य या पद्धति सिखाने के लिए जितने भी गुरु अवतरित हुए हैं, सबको मेरा प्रणाम है, किन्तु स्वामी विवेकानन्द ही मेरे गुरु है - और विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मुझे आत्माभिमान प्रतिष्ठित करने के लिए जो परमात्मा गुरु [C-in-C]  बनकर आये हैं , उनका अंश हूँ ! 
निर्विकल्प समाधि में या सत्ययुग में हमेशा नहीं रह सकते , त्रेता में आना पड़ता है। श्री राम त्रेता में हुए - लेकिन उस समय भी क्या कहते थे ? रघुकुल रीति सदा चली आयी , प्राण जाय पर वचन न जाई ! ' राजा दशरथ ने कैकई को दो वचन थे , और प्राण देकर भी अपने दोनों वचन निभाए।  क्या हमलोग भी अपने वचन उसी प्रकार निभाते हैं ? कहीं हम अपने आने का वादा करके भूल तो नहीं जाते ?
 महामण्डल द्वारा निर्देशित 3H' विकास के 5 अभ्यासों  का निरन्तर पालन करने से  मनुष्य को अनेक प्रकार की शक्तिया प्राप्त होती है। इन शक्तियों के द्वारा ही मनुष्य सांसारिक और शारीरिक रूकावट की पार करता हुआ आध्यात्मिक मार्ग की और अग्रसर होता है।आपका मन जैसे चाहता है आप वैसे ही बनेंगे इसलिए हमेशा अपने आपको रोगी न समझो। मैं अच्छा मनुष्य -ब्रह्मवेत्ता और चरित्रवान मनुष्य बनुगा/  बनूँगी यह इच्छा कभी भी नही छोड़िये। आपकी पीड़ा जल्दी ही ठीक हो जायेगी, फिर से आपको नया जीवन जरूर मिलेगी। 
महामण्डल आंदोलन (निष्काम कर्म)  में लगे रहने से दुःख के लाख तूफान आए तो भी भगवान श्री रामकृष्ण, माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द  आपके साथ हैं, इस भाग्य को देख हमें हर्षित होना चाहिए।  हर साँस में ठाकुर -माँ -स्वामी जी का याद बना रहे तो कोई भी बीमारी हो ठीक हो जाएगी। इन अभ्यासों के द्वारा  ही मनुष्य इन प्रवल शत्रुओं (5 विकार तथा काम,क्रोध,लोभ,मोह,अहँकार) की जीत सकता है। 
चलो हम अभी जानते है परमात्मा के बारे मे। अनेक मत रहते हुए ,कई भाषाओँ के होते हुए भी सब मनुष्यों में एक भावना यह रहती है कि कहीं न कहीं एक ईश्वर, भगवान या अल्ला है, जो इस सृष्टि को संचालित कर रहा है।  मक्का में मुसलिम लोग भी  लिंग के आकर को संग-ए-असवद की प्रतिमा को गुरु के रूप में आराधना करते है। क्राईस्ट लोग भगवान को  प्रकाश की एक चमक कहके मोमबत्ती जलाते है। इसका मतलब सर्व धर्म आत्मा या  भगवान निराकार है,इस विषय को मान रहे है।
लेकिन रामेश्वरम में भगवान श्री राम भी शिव (गुरु) की पूजा करते दिखाई देते है। या पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामकृष्ण देव दक्षिणेश्वर मंदिर में जगतजननी माँ काली की पूजा करते हुए दिखाई देते हैं। वास्तव में 'एक' ही अनेक बने हैं,  तात्पर्य यह कि श्री राम, श्री कृष्ण या अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण भी माँ काली के ही  अवतार हैं। वे सभी अवतार देवता हैं, और शिव या परमात्मा (ब्रह्म) -गुरु हैं।  
 भगवान शिव (गुरु) का जनमोत्स्व  रात्रि में ही क्यों मनाया जाता है ? क्यों की---रात्रि वास्तब में अज्ञान ,तमोगुणी अथवा पापाचार की निशानी है। द्वापर से कलियुग के समय को रात्रि कहा जाता है। कलियुग के अन्त में जब साधू सन्यासी ,गुरु ,आचार्य सभी  मनुष्य पतित तथा दुखी होते है, और अज्ञान निद्रा में सोये पड़े होते है ,जब धर्म की ग्लानि होती है।  और जब यह विश्वगुरु भारत भी 1000 वर्षों की गुलामी के कारण , वाचिक हिंसा करता है, नारी का सम्मान करना भूल जाता है, माँ -बहनों के नाम से क्रूर गाली देना सीखकर (बदजुबान बन जाता है), तब विषय- विकारी या मानसिक व्यभिचार बढ़ने के कारण अधिकांश स्थान वेश्यालय बन जाते है,तब पतित पावन परमपिता परमात्मा इस सृष्टि में मनुष्य देह में-गुरु स्वामी विवेकानन्द के रूप में जन्म  लेते है। इसलिये अन्य सबका जन्मोत्सव जन्म दिन के रूप में मनाया जाता है परंतु परमात्मा (गुरु) शिव के जन्म दिन को शिव रात्रि ही कहा जाता है।राम,कृष्ण, बुद्ध, पैगंबर मुहम्मद , या भगवान श्री रामकृष्ण देव पूज्य पुरुषत्तम अवतार/नेता है। ईसा ,इब्राहिम, गुरुनानक, स्वामी विवेकानन्द  आदि हमारे मार्गदर्शक नेता या गुरु थे, इन सब के  परमपिता परमात्मा या ब्रह्म या पुरुषोत्तम भगवान श्री रामकृष्ण देव -सच्चिदानन्द स्वरुप है। अवतार अनेक होते है, परन्तु सबके पिता अवतार वरिष्ठ - साक्षात् ब्रह्म, भगवान श्री रामकृष्ण एक ही है, और जिनको पहचानने वाले प्रथम गुरु स्वामी विवेकानन्द हैं
आत्मा से अनुप्राणित मन के 4 पार्ट है-मन+बुद्धि+चित्त (संस्कार) और अहंकार।  चित्त वह मन वस्तु है , जिसमें कर्मेंद्रयों के द्वारा जो कोई भी काम कर रहे हो, वो संस्कार के रूप में रिकॉर्ड होता रहता है।उदाहरण स्वरुप--एक काम करने का सोचा वह मन में आलोचना करते हो ,वह आलोचना आत्मा में रहना है वाला दूसरा शक्ति बुद्धि को संकल्प रूप में मन भेजता है। यह दोनों शक्तिया सूक्ष्म हैं इसलिए शरीर में बौद्धिक  दिमाग ज्ञानेन्द्रियों को संकेत भेजती है। दिमाग के आदेश अनुसार कर्मेन्द्रिया काम करते है। यह अबलोकन करने की विषय यह है , की आत्मा जब शारीर छोड़ता है तब तक शरीर में जो अच्छे बुरे कर्मों के परिणाम पाप पुण्य के रूप में संस्कार लेके जाता है । लसलिए कहा जाता है सोच समझकर कर्म करे। सच्चे सुख व सच्ची शांति के लिए स्वयं को जानना अति आवश्यक है। आत्मा को पेहचान के ही आधार से हम परमात्मा को भी पेहेचान सकते है।
किसी का परिचय जानने के लिए 5 बाते जानना बहुत जरुरी है।वह है उसका.....1. नाम,2.रूप ,3.गुण, 4.निवासस्थान और 5.कर्तव्य। इस 5 बाते क्लियर होना माना उसका परिचय सम्पूर्ण हो हुआ। कहते है न खुद को जानो गे तो खुदा को भी जान जाओगे। खुदको तो हमने जान लिया हम शरीर नहीं हम एक आत्मा है। किन्तु क्या अभी तक हमलोग आत्माभिमानी बन सके हैं ? हम तो देहाभिमानी ही हैं - खुद को M/F ही मानते है। नश्वर शरीर ही मानते हैं, अविनाशी आत्मा से साक्षात्कार कहाँ हुआ है ?  
 इस पिक्चर को देखिये। एक गाड़ी है उसके अंदर एक ड्राईवर भी है। और पीछे उसका मालिक बैठा है।  ड्राइवर को मंजिल तक पहुँचाने का आदेश दे रहा है।  उसी प्रकार हमारा शरीर एक रथ  है, इन्द्रियां घोड़े हैं , मन लगाम है और  उसके अंदर एक बुद्धि नामक ड्राईवर या सारथि  भी है। और आत्मा रथी (मालिक)  है।  अब सारथि ड्राईवर  -जो बुद्धि है,  गाड़ी में बैठके नही कहेगी कि में ही गाड़ी हूँ। हमारा शरीर भी इस गाड़ी की तरह ही है। जैसे ड्राईवर गाड़ी का नियंत्रण करता है उसी प्रकार आत्मा भी शरीर का नियंत्रण करता है। आत्मा के बिना शारीर निष्प्राण है,जैसे ड्राईवर के बिना गाड़ी। शरीर से आत्मा निकालने के बाद इसलिए इससे Dade body घोषित किया जाता है।क्यों की कुछ भी कर ले वो शरीर और चलने वाले नही है।इससे साबित होता है यह शारीर एक  *dead body ' या जड़ बस्तु मात्र है।
आत्मा का स्थान हृदय है , यह हृदय ही शरीर का 'control room' है जो  मस्तिस्क में,(hypothalamus and pituitary 'के बीच  में तथा भृकुटि की बिच में रहते है,  इसे 3rd eye ,aggya chakra भी कहते है। यह आज्ञाचक्र चैतन्य शक्ति को नियंत्रित करने का केंद्र है। आत्मा शरीर के अंग के माध्यम से हर कार्यों को करती है।खुद को पहचान लेने के बाद हम  आगे बढ़ते है। और आप भी आत्मा है ! यह पहचान होती है और इस जगत के यथार्थ स्वरूप को पहचान कर इसकी- शिव ज्ञान से जीव  सेवा करने का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। जहाँ हम जात पात लिंग भेद, भाषा और धर्मों की सीमा को लांघते वसुधैव कुटुम्बकम की भावना में प्रैक्टिकली सहयोगी बनते हैं। भारत में  ३५० स्थानों से भी अधिक स्थानों  में इसकी शाखायें कार्यरत हैं ।
अपने मनुष्य जीवन को गढ़ने और श्रेष्ठ बनाने के लिए यह युवा महामण्डल संगठन एक 'लाइट हाउस' है। यहां आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षकों के द्वारा 3-'H' विकास के 5 अभ्यास - प्रार्थना ,मनःसंयोग व्यायाम , स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग के अभ्यास के द्वारा सतयुग की स्थापनार्थ चरित्रवान और ब्रह्मविद नागरिक बनने और बनाने का [Be and Make] प्रशिक्षण दिया जाता है।हम सभी यहाँ आकर खुद को पहचानने का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, आइये पहचाने खुदको ....हम कौन है?
 स्वामी विवेकानन्द से  मेरा परिचय tv के माध्यम से 12 जनवरी 1985 को हुआ था, [जब उन्होंने ही मुझे पकड़ लिया था ?]- क्योंकि उन्होंने वादा किया था कि शरीर त्यागने के बाद भी कार्य करता रहूँगा। फिर राँची रामकृष्ण मिशन के प्रबोध महाराज की प्रेरणा से हरिद्वार कुम्भमेला में गुरु खोजने जाना और लौटकर ब्रह्म के अवतार श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित (गुरु) 'विजय महाराज' से 'विजय सिंह ' की मंत्र-दीक्षा हो जाना। 
मुझे परम सत्य (आध्यात्मिकता) को देखने में अत्यधिक रूचि थी , और भारत भक्त होने के कारण मेरे मन मे इसके विषय में और अधिक जानने की उत्सुकता हुई। मुझे बचपन से ही श्री कृष्ण की मे रुचि थी, दुर्गा जी की भक्ति पूजा- पाठ आदि करना अच्छा लगता था। लेकिन ये सब करते मन में बहुत सारे प्रश्न उठते थे। जैसे कि ईश्वर कौन है? यदि देवी देेवता ही भगवान हैं तो मनुष्यों को इतना दुःख क्यों है ? भारत महान देश क्यों नहीं बना है ? आत्मा को अगर मोक्ष मिल जाए तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा उससे क़्या फायदा कि हम सृष्टि नाटक में भाग ही न लें इस प्रकार के अनेक प्रश्न उठते रहते थे । यहाँ महामण्डल के मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण आंदोलन से जुड़ जाने के बाद मुझे मेरे सब प्रश्नों का हल मिला जिनसे मैं पूर्णतया सन्तुष्ट हुआ । 
और प्रमोद दा के माध्यम से 1987 में प्रथम महामण्डल कैम्प में भाग लेकर पूज्य नवनी दा का स्नेह और कृपा की प्राप्ति हुई। जब मैं पहली बार बेलघड़िया कैम्प-1987 में पूज्य नवनीदा से मिला उस समय मेरी आयु पैंतीस वर्ष थी।  मैंने अनुभव किया कि यहाँ पर स्वयं की सत्य पहचान, और परमात्मा का सत्य परिचय मिलने से, 5 अभ्यास के द्वारा से बहुत सारे सकारात्मक परिवर्तन मेरे जीवन में आये। जैसे एकाग्रता का बढना, बिजनेस में पहले की अपेक्षा अच्छी कमाई हुई।  आत्मबल बढ़ा, किसी भी नये कार्य को करने के लिए, जीवन में बहुत सकारात्मकता निश्चिंतता ,दृढता आई और जीवन में सच्ची खुशी, शान्ति, आनन्द का अनुभव हुआ। किसी भी परिस्थिति के समय भी कैसे स्थिर, शान्त रहें, यह सब मैंने अनुभव किया। विश्व भर में किये जाने वाले अनेक प्रयासों के बाबजूद भी व्यक्तिगत और दुनियावी स्तर पर पाप, अत्याचार दुख और अशांति बढती ही जा रही है, क्योंकि मनुष्य अपने यथार्थ स्वरूप को या आध्यात्मिकता को पूर्णतया भूल चुका है। महामण्डल  एक ऐसा प्राथमिक विद्यालय (विश्व विद्यालय ?) है जहाँ व्यक्ति स्वयं के सत्य स्वरूप को पहचान सकता है, जिसके माध्यम से वह स्वयं को सशक्त व र्निविकारी बना सकता है।
महामण्डल द्वारा निर्देशित मनःसंयोग का अभ्यास (अष्टांग का केवल ५ अंग -विवक०-दर्शन का अभ्यास ) एक बहुत ही सहज प्रक्रिया है जिसमें हम अपने मन-बुद्धि या चेतना (awareness) को बाहरी भौतिक जगत से हटा कर, हृदय में विद्यमान अपने इष्टदेव के  स्थित कर परमात्मा परब्रह्म ठाकुर देव को प्रेम से याद करते हैं। जिससे हम अपने मूल स्वभाव अर्थात पवित्रता, सुख,शान्ति, आनंद की शाश्वत अनूभूति देवत्व प्राप्त कर सकते हैं। मनःसंयोग के अभ्यास (प्रत्याहार -धारणा) द्वारा मन की नकारात्मकता दूर होती जाती है, आत्मा सशक्त बनती है ,जिससे हमारे अंदर सुषुप्त शक्तियां जाग्रत होती हैं। जिसकी सहायता से हम आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, हर प्रकार से विकास कर सकते हैं। राजर्षि (राजा + ऋषि) बन सकते हैं।  
महामण्डल में श्वेत वस्त्र : महामण्डल के आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक   महामण्डल के सभी भाई और सारदा नारी संगठन की सभी बहनें अक्सर श्वेत वस्त्र ही पहनते हैं, इसका भी बहुत बड़ा महत्व है। संसार में मृत्युपरांत डाले जाने वाले श्वेत वस्त्र (कफ़न) जो वैराग्यवृति को दर्शाते हैं , जिसे हमें इस संसार में रहते धारण करना है।  श्वेत वस्त्र आन्तरिक स्वच्छता, मन की पवित्रता (शुद्ध विचारों) का प्रतीक हैसंसार में रहते हम बुराईयों से वैराग्य रखें तथा अच्छाईयों को धारण करें। श्वेत वस्त्र पर लगा छोटा दाग भी वस्त्र की शोभा को खत्म करता है, जीवन रुपी श्वेत वस्त्र की सदा सम्भाल रखें थोड़ा दाग (बुराई )भी शोभा को खत्म कर सकता। हमें अपने जीवन की संभाल श्वेत वस्त्र की तरह रखनी है। 
शिविर में हम सभी प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त 4 बजे उठ मनःसंयोग का अभयास करते हैं। जिसे परमात्म मिलन का समय कहा गया है, प्रातः 6 से 11 बजे तक संगठित रूप में चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया , जीवन-गठन , चरित्र के गुण आदि (परमात्म वाणी-महामण्डल बुकलेट्स) का श्रवण करते हैं, जिसमें पूरा दिन में मन का ध्यान रखने लिए(मन को श्रेष्ठ डायरेक्शन) मिलते हैं। जिससे जीवन सुखद अनुभव होता है। दोपहर में प्रश्नोत्तरी के बाद ४ से ९  तक गेम, आरती-व्याख्यान चलता है। 
हमारा शुभ संदेश : युवाओं को मेरा शुभ सन्देश यह है कि - वर्तमान समय एवं आने वाले समय में हमें आध्यात्मिकता की बहुत आवश्यकता है, और सबसे बड़ा अविनाशी सहारा है महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर।  जहाँ आचार्य परम्परा या 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा (विवेकदर्शन का अभ्यास करने की पद्धति) में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/ मानवजाति का मार्गदर्शक नेता/ गुरु बनने और बनाने का या   " Be and Make  'C-in-C' Leadership training tradition" में प्रशिक्षित नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। 
वर्तमान समय हमें ईशारा कर रहा है कि हम स्वयं को (Be and Make - गुरु परम्परा) से जोडकर रखें और उसे (नेता विवेकानन्द को) हर कार्य में अपने साथ रखें, जिससे कि हम शक्तिशाली बनकर आत्म-विश्वास के साथ हर परिस्थिति का सामना कर सकें। और सभी को यही प्रेरणा दें। हमारी शुभकामना है कि आप सदा अध्यात्म द्वारा आत्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नति कर आध्यात्मिक बुलंदियों को छुएं। 
---------------------