बुधवार, 11 अप्रैल 2018

वास्तविक साधना है मनः संयोग !


'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा '
स्वामी विवेकानन्द के गुरु, आधुनिक विश्व के प्रथम मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण देव को निर्विकल्प समाधि का अनुभव करने के बाद- तुम 'भावमुखी' होकर रहो (भ्रममुक्त-DeHypnotized होकर रहो ) और " गुरु-शिष्य 'BE AND MAKE' वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में भावी जीवन्मुक्त लोकशिक्षकों का निर्माण करो"~  का 'मौखिक चपरास' दक्षिणेश्वर काली मंदिर में स्वयं  माँ भवतारिणी के मुख से  प्राप्त हुआ था। उसी "श्रीकाली -रामकृष्ण 'Be and Make' वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में  प्रशिक्षित भावी जीवनमुक्त लोक-शिक्षक ('Would be Leader of Mankind)  बनने और बनाने की पद्धति का 'लिखित चपरास' स्वयं श्रीरामकृष्णदेव ने 'नरेन शिक्षा देगा! -लिखकर' और 'धारणा-सिद्ध योगी की आवक्ष मुखाकृति के पीछे धावित मयूर' का चित्र अंकित कर, पने प्रिय ओर योग्यतम शिष्य नरेन्द्रनाथ दत्त (भावी स्वामी विवेकानन्द) के हांथों में सौंप दिया था। 
महामण्डल की पुस्तिका मनःसंयोग के लेखक श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ने अपनी पुस्तक 'जीवननदी के हर मोड़ पर' में 'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर अद्वैत आश्रम मायावती ' का उल्लेख करते  हुए लिखा है कि वे स्वयं अपने पूर्वजन्म में कैप्टन सेवियर थे। महामण्डल के 'विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर 'Be and Make ' वेदांत लीडरशिप प्रशिक्षण परम्परा'  में प्रशिक्षित भावी नेताओं /लोकशिक्षकों का निर्माण करने वाली पुस्तिका, 'मनः संयोग' के आवरण पृष्ठ पर छपे चित्र की व्याख्या,श्रीरामकृष्णवचनामृत (२४ अगस्त १८८२ ) में इस प्रकार दी गयी है:
भगवान श्रीरामकृष्ण का मुख सहास्य है। 'मास्टर' से कह रहे हैं - " ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से और भी दो एक बार मिलने की आवश्यकता है। मूर्तिकार को जब मूर्ति गढ़नी होती है, तो वह पहले उसका एक खाका (blueprint) तैयार कर लेता है, फिर उस पर रंग चढ़ाता रहता है। प्रतिमा गढ़ने के लिये पहले दो तीन बार मिट्टी चढ़ाई जाती है, फिर सफेद रंग चढ़ाया जाता है, फिर वह ढंग से रंगी जाती है। विद्यासागर का सब कुछ ठीक है, सिर्फ ऊपर कुछ मिट्टी पड़ी हुई है। वह कुछ अच्छे काम (शिक्षा -समाज-सेवा आदि ) तो करता है, परन्तु स्वयं अपने हृदय में क्या है, इस बात की उसे कोई खबर नहीं है। हृदय में सोना दबा पड़ा है। हृदय में ही ईश्वर हैं यह जान लेने के बाद, सब कुछ छोड़कर व्याकुल हो उन्हें पुकारने की इच्छा होती है। "
             .... श्रीरामकृष्ण मास्टर से खड़े खड़े वार्तालाप कर रहे हैं, कभी बरामदे में टहल रहे हैं।
[हृदय में दबा सोना को  'श्रीरामकृष्ण-ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसा गुरु-शिष्य वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा' में ड्रिलिंग करके निकाल लेने की पद्धति को मनःसंयोग कहते हैं।  समाज-सेवा द्वारा 'नाम-यश' कमाने में आसक्ति को भी सम्पूर्ण रूप से त्याग देने के बाद ही (हृदय में विराजित प्रेमस्वरूपा माँ जगदम्बा) को पुकारने की इच्छा होती है। 
[अर्थात 'मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' देने में समर्थ भावी लोक-शिक्षक (वुड बी लीडर) 'बनने और बनाने' वाले महामण्डल आंदोलन, 'BE AND MAKE' का नेतृत्व (लीडरशिप) प्रदान करने की पात्रता प्राप्त होती है।]
श्रीरामकृष्ण : "अन्तरे कि आछे जानबार जन्ये एकटू साधन चाई।" -अर्थात हृदय (Heart) में क्या है इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिये कुछ साधना आवश्यक है। 
मास्टर : 'साधना'  क्या बराबर करते ही रहना चाहिये ? 
[अर्थात भ्रममुक्त होने या डीहिप्नोटाइज्ड होने की औषधि (विवेकदर्शन का अभ्यास और लालचत्याग) क्या ता-उम्र या आजीवन खानी पड़ेगी ? 
श्रीरामकृष्ण : " नहीं, पहले कुछ कमर कसकर करनी चाहिये। फिर ज्यादा मेहनत नहीं उठानी पड़ती। जब तक 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' हिलोरा (surge),चक्रवात (storm),आँधी चल रही होती है, और नौका नदी के तीखे मोड़ों से होकर गुजर रही होती है, तभी तक मल्लाह को मजबूती से पतवार पकड़नी पड़ती है।  उतने से पार हो जाने पर नहीं। जब वह मोड़ से बाहर हो गया और अनुकूल हवा चली तब वह आराम से बैठा रहता है, पतवार में हाथ भर लगाये रहता है। फिर तो पाल टाँगने का बंदोबस्त करके आराम से चिलम भरता है। 'कामिनी और कांचन' की आँधी (वृत्ति) से निकल जाने पर शान्ति मिलती है ! 
" तराजू में किसी ओर कुछ रख देने से नीचे की सुई और ऊपर की सुई दोनों बराबर नहीं रहतीं। नीचे की सुई मन है और ऊपर की सुई ईश्वर। नीचे की सुई का ऊपर की सुई से एक होना ही योग (मनःसंयोग) है। 
श्रीरामकृष्ण - "  योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है --सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि, देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है, कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है, ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। अच्छा, ऐसा चित्र (दी मदरबर्ड हैचिंग हर एग्स) क्या मुझे दिखा सकते हो ? " 
मणि- जैसी आज्ञा। चेष्टा करूँगा, यदि कहीं मिल जाय।"
               [ कामिनी-कांचन ('Lust and Lucre') में घोर आसक्ति ही मन के 'Distraction' अर्थात दूसरी ओर लगाव का मुख्य कारण है। कामिनी-कांचन में घोर आसक्ति की 'वृत्ति' रूपी 'आँधी' से पार होने के लिये, 'मनः संयोग' की पद्धति स्वयं सीखना और दूसरों को भी यह पद्धति सीखने में सहायता करना ही आधुनिक युग की धार्मिक साधना है। 'वासना और धन' की तृष्णा को मिटाने के लिये, बहुत बड़ी संख्या में एकाग्रता का अभ्यास करने की शिक्षा या प्रशिक्षण देने में समर्थ भावी युवा लोक-शिक्षकों, वुड बी लीडर्स का निर्माण करने से ही में पूरे विश्व में सत्य-युग की स्थापना संभव हो सकती है। 
'मनुष्य-निर्माण' के युवा मूर्तिकार विवेकानन्द ने भी अपने गुरु के निर्देशानुसार, हृदय में दबे सोने को खोज निकालने का उपाय बताने वाले लोकशिक्षकों, या  वुड बी लीडर्स को प्रशिक्षित करने के लिये "विवेकानन्द-सत्यान्वेषी सिस्टर निवेदिता भक्ति-वेदान्त लीडर प्रशिक्षण परम्परा" में मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव, शरीर, मन और हृदय -3 'H' निर्माण के ५ अभ्यास ' की प्रशिक्षण पद्धति 'BE AND MAKE' का एक खाका (blueprintतैयार किया था। ] 
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[१]  किसी भी कार्य को कुशलतापूर्वक सम्पन्न करने, या ज्ञान अर्जित करने के लिये मनःसंयोग की 'विद्या' सीखनी क्यों आवश्यक है ?  
मनः संयोग किये बिना अर्थात मन को एकाग्र किये बिना, हम न तो किसी कार्य को अच्छी तरह कर सकते हैं, न किसी विषय का सम्यक ज्ञान ही अर्जित कर सकते हैं।प्रातः काल में सूर्य उदित होता है,फूल खिल जाते हैं, नदी बहती जा रही हैं, बारिश से सूखी हुई मिट्टी गीली हो जाती है। ये सभी कार्य प्रकृति के नियमानुसार घटित होते रहते हैं। किसी प्राकृतिक घटना पर मन को एकाग्र करके गहराई से विचार करने से, हम किसी नये नियम या नये उदाहरण का आविष्कार कर लेते हैं! ये सब भी विभिन्न प्रकार के कार्य ही हैं ! कुछ ऐसे कार्यों को भी घटित होते देखते हैं जिनमें प्रत्येक के पीछे मनुष्य की इच्छा, और प्रयत्न आवश्यक होता है। जीवन यापन करना होता है और उसके लिये सबका अर्थोपार्जन करना आवश्यक है।  किसान खेत में हल चला रहा है, मछुआरा मछली पकड़ रहा है। कोई खेल रहा है तो कोई पढ़ने में लगा हुआ है आदि-आदि। इन सभी प्रकार के क्रिया-कलापों का आधार मनुष्य का मन ही तो है।  मन की किसी आकांक्षा, इच्छा, लक्ष्य, उद्देश्य या संकल्प को पूरा करने के लिए मनुष्य उद्यम, अध्यवसाय,चेष्टा, श्रम या प्रयत्न करता है।जो करने से किसी वस्तु में कोई रूपान्तरण, परिवर्तन या स्थानान्तरण हो जाता है, तथा जिसमें शक्ति भी खर्च करनी पड़ती है, और जिसे करने में मनुष्य का मन अनिवार्य रूप से लगा होता है, कार्य कहलाता है। कार्य विषयक संकल्प लेने, चिंतन द्वारा उसका खाका (ब्लूप्रिन्ट) तैयार करने में जिस शक्ति का क्षय होता है उसे मानसिक शक्ति कहते हैं, जबकि काम करने में जो शक्ति लगती है वह शारीरिक शक्ति कहलाती है। मन की कल्पनाओं को साकार रूप देना ही 'कार्य' है; तथा किसी भी कार्य को करने का सबसे बड़ा साधन मन ही है।  जिस विषय या वस्तु के ऊपर कार्य किया जा रहा है, उसके रूप या स्थान में परिवर्तन हो जाता है। जैसे लकड़ी के तख्ते से कुर्सी का निर्माण हो गया, सूत से गमछा बन गया, धरती पर पड़े गोबर से जलाने वाला उपला बन गया, कोयले के चूरे से जलाऊ गोटे बन गये, हल चलाने से धरती खेती करने योग्य हो गयी आदि-आदि।कोई पुस्तक पढ़ता हूँ तो पुस्तक का ज्ञान मुझे प्राप्त हो जाता है। कागज के ऊपर तूलिका घुमाने से, मन की कल्पना चित्र के रूप में साकार हो जाती है। मन को यदि हम पूर्ण रूप से कार्य में नियोजित करने में सक्षम हो जायें,तो जो भी कार्य हम हाथ में लेंगे उसे बड़े सुन्दर ढंग से सम्पन्न कर सकेंगे। इस तथ्य को समझ लेने में अब कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। ज्ञान क्या है :  ज्ञान का अर्थ है, (पूर्व में देखी-सुनी) वस्तुओं की साहचर्य प्राप्ति। अपनी आँखों से मैं जब कोई फूल, या कोई पक्षी,भूखे व्यक्ति, बिच्छू या बिल्ली को देखता हूँ; तो आसानी   पहचान लेता हूँ,(साहचर्य के नियमानुसार) उन्हें वगीकृत कर लेता हूँ ।इस जगत में अनगिनत वस्तुएँ एवं विषय जानने योग्य हैं। लघु (पिण्ड) से क्रमशः बृहद (ब्रह्म) का ज्ञान भी मन की शक्ति के द्वारा प्राप्त होता है। किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करने के पहले 'मनःसंयोग' का ज्ञान प्राप्त करना ही सबसे ज्यादा जरुरी है। अद्वैतवादी कहते हैं, ' नाम-रूप को अलग कर लेने पर क्या प्रत्येक वस्तु ब्रह्म नहीं है ? 'इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने 'मन की एकाग्रता' को ही शिक्षा की आधारभूत सामग्री कहा है।
[२] मन क्या है, मन का स्वाभाव कैसा है, मन बनता कैसे है ? मन की स्वाभाविक चंचलता दोष नहीं है। पारा यदि ठोस होता, सांद्रता-विशिष्ट गुरुत्वसे थर्मामीटर कैसे बनता ? केवल उसके उभयतोवहिनी प्रवाह का मोड़ घुमा देना है।  
'मन' से हमारा तात्पर्य क्या है ? स्वामी जी (3H) - शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय या आत्मा (Heart) कहते थे। वास्तव में मन हमारे इतने निकट है कि हम उसे देख ही नहीं पाते, किन्तु बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि मेरा 'मन' है। यह एक ऐसा अद्भुत 'लेंस' है, जो एक साथ दूरवीक्षण यंत्र (telescope) और अनुवीक्षण-यंत्र (Microscope-सूक्ष्मदर्शी) दोनों के सम्मिलित रूप जैसा कार्य करता है। यह एक ऐसा कम्प्यूटर है, जो केवल सूचनाओं और संवादों को एकत्र करता है, बल्कि कई प्रकार से उनका विश्लेषण भी करता है, उन्हें वर्गीकृत कर उनकी व्याख्या करता है और उनमें से सार अर्थ ढूंढ़ निकालता है।  फिर वही कल्पना करता है, इच्छा करता है, उद्यम भी करता है। वस्तुतः मन कि शक्ति के द्वारा ही हमलोग सब कुछ जानने और करने में समर्थ होते हैं। इस प्रकार मन की शक्ति अनन्त है। उसे तो देखा नहीं जा सकता, उसे मुट्ठी में पकड़ा भी नहीं जा सकता तथापि मन के विषय  में हर कोई जानता है कि 'मन' है ।इतना कहने-सुनने पर भी हम मन को ठीक से समझ क्यों नहीं पाते हैं ? क्योंकि वह स्थूल नहीं एक सूक्ष्म पदार्थ है। वायु को तो हम देख भी नहीं सकते, फ़िर भी हम जानते है कि वह है। वृक्ष की पत्तियाँ या जल की सतह को हिलता हुआ देखकर हम समझ जाते हैं कि वायु प्रवाहित हो रही है। मन भी सूक्ष्म है- उसको आँखों से तो नहीं देख सकते, उसके कार्यो से समझा जा सकता है कि 'मन' है ।हमलोग जिसे 'मैं' कहते हैं, वह क्या है ?  शरीर भी मेरा है, और मन भी मेरा ही है। अगर शरीर ही 'मैं' होता तो, तो हमलोग 'मेरा शरीर' क्यों कहते  ? अतः  हम सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि- ' मैं ', शरीर और मन के अतिरिक्त कुछ और ही वस्तु है। इसी 'मैं ' को हमारे देश में आत्मा  की संज्ञा दी गयी है। इनमें से आत्मा (ब्रह्म) ही हमारी वास्तविक सत्ता है। इस शरीर और आत्मा के मध्य हमारा मन एक सेतु (Bridge) की तरह कार्य करता है।  इस स्थूल शरीर और समग्र जगत् को जानने, समझने और देखने के लिए मन मानो एक दिव्य चक्षु है जिसे हमारी आत्मा के समक्ष रख दिया गया है।  दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11.8।। स्वभाव अत्यन्त चंचल/गति भी प्रचण्ड/ध्वनि ही नहीं प्रकाश की गति से भी अधिक वेगवान/सर्वदा विभिन्न प्रकार के विचारों, भावनाओ या कल्पनाओं के उधेड़-बुन में डूबा ही रहता है। बन्दर के एक रूपकमनुष्य का मन उस बन्दर के ही सदृश्य है। मन तो स्वभावतः सतत चंचल है ही, फ़िर वह वासनारूप मदिरा से मत्त है।  इससे उसकी अथिरता बढ़ गयी है। जब वासना आकर मन पर अधिकार कर लेती है, तब सुखी लोगों को देखने पर इर्ष्या रूपी बिच्छू डंक मारता ही है, जिससे मन और तड़पने लगता है। (वह अतिरिक्त चंचल हो जाता है) उसके ऊपर भी जब अहंकार रूपी भूत मन पर सवार हो जाता है, तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता। अहंकाररूपी भूत का क्या कहना, जो सर्वदा उस पर सवार रहता है। (मैं क्या कम हूँ? दिखा दूंगा) जरा विचार तो करो, इस प्रकार के मन वाले मनुष्य की दशा कैसी होती होगी ? और ऐसे मन को नियंत्रित करना कितना कठिन होगा ?फिर यह प्रश्न भी उठता है कि मन बनता कैसे है मनवस्तु (Mind Stuff ) को, जिससे मन बनता है उसको - 'चित्त' कहते हैं ।मन की तुलना प्रायः किसी शान्त सरोवर से की जाती है। चित्त-सरोवर में पंचेंद्रियों के विषय रूपी कंकड़  गिरते रहते हैं,इसीसे वह सदैव उद्वेलित और दोलायमान बना रहता है।'मन' का कार्य है प्रश्न करना। 'बुद्धि' का कार्य है निर्णय करना , जैसे ही बुद्धि ने निर्णय किया वैसे ही 'अहंकार' या मैं-पन आ जाता है। अंतःकरण के चार पार्ट हैं, 'चित्त-मन-बुद्धि और अहंकार। अहंकार या 'अहं' भी आत्मा का ही अभिकरण (Agency) जिसके सहारे वह जगत-व्यवहार (नेता /दैत्य का कार्य) करता है। बरही के संदीप ने पूछा है -" अगर कोई व्यक्ति अपने अहंकार को मिटाना चाहता है, तो अहंकार को कैसे मिटेगा ?  यह अहंकार दैवी माया है हटेगा ही नहीं ! अन्तःकरण के एक भाग 'अहं' का एक एजेंसी के रूप में रहेगा ही,  इस अहं रूपी वृत्ति की आंधी (घोर-स्वार्थपरता)को-बुद्धि- विवेक-दर्शन के अभ्यास द्वारा (पूर्णतः निःस्वार्थपरता) 'माँ का भक्त' वीर, या हीरो के परिवर्तित कर लेना आवश्यक है।  मन-रूपी बंदर पर चढ़ा अहंकार का भूत हमें खा नहीं जाय,इसके लिये कोई अन्य शिक्षा लेने के पहले मन को अपने वश में करने  की विद्या अवश्य सीखनी होगी। मन में केवल कल्याणकारी विचार (मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्र-निर्माणकारी विचार) भरने होंगे। पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय (अटलता) (3P -'Purity, Patience, Perseverance ) ये सभी मन के गुण हैं, और सर्वोपरि है- हृदय - विकसित या 'मातृहृदय-स्थित 'प्रेम' (Love) ! प्रेम में वह शक्ति है कि वह पत्थर को भी पानी बना सकती है। मन की स्वाभाविक चंचलता और द्रुत-गतिशीलता दोष नहीं गुण !/मन को दोष देते हुए कहा जाता है कि, यह मन बन्दर के समान चंचल है, किन्तु मनुष्यों का मन यदि चंचल नहीं होता, सर्वदा स्थिर ही रहता, तो उसे भले और कुछ संज्ञा दी जा सकती थी पर उसे मन नहीं कहा जाता। जैसे कोई सोचे कि यदि पारा ठोस होता तो अच्छा होता, लेकिन तब थर्मामीटर और  बैरोमीटर जैसे  यन्त्र कैसे काम कर पाते ? पारा में यह गुण उसके आपेक्षिक गुरुत्व (Specific gravity) तथा सांद्रता या गाढ़ापन (viscosity) आवश्यक है।केवल उसके प्रवाह की दिशा बदलनी है,मोड़ घुमा देना है/
[३] मनुष्य बनने के लिए सबसे आवश्यक कार्य क्या है ? मन की एकाग्रता (Concentration of Mind) क्या है ?
न की अदृश्य शक्ति-रश्मियों को एकोन्मुखी (Unidirectional) कर लेने को ही मन की एकाग्रता (Concentration of Mind) कहते हैं। उत्तल लेंस (Convex lens) के बारे में अवश्य सुना होगा अथवा देखा भी होगा। सूर्य की किरणों को जब इस लेंस से  केन्द्रीभूत किया जाता है, तो कागज जल जाता है! मन की शक्ति की अदृश्य रश्मियों को अकारण चारों ओर बिखर कर नष्ट नहीं होने देकर, अर्थात विभिन्न विषयों में जाने से रोक कर (खींचकर-प्रत्याहार) उन्हें एकीकृत या संघटित करके आवश्यक विषय में नियोजित करना ही 'मनः संयोग' है। उभयतोवहिनी चित्तनदी के प्रवाह मोड़ घुमा देना  इन्द्रिय-विषयों से खींचकर प्रयोजनीय या ज्ञातव्य विषय की दिशा में मोड़ देने का कौशल सीखना 'प्रत्याहार' सीखना सबसे आवश्यक कार्य है। जीवन के खेल में हार-जीत, मनुष्य जीवन की सार्थकता यह कार्य बहुत कठिन है, किन्तु असम्भव नहीं है। मनुष्य के लिये कुछ भी करना असंभव  नहीं है, क्योंकि मनुष्य अनन्त शक्ति का अधिकारी है।हमारा पूरा जीवन भी एक महान खेल की तरह ही है। जीवन के इस खेल में विजयी होने से जिस आनन्द और गर्व की अनुभूति होती है, वैसा आनन्द क्या अन्यत्र कहीं उपलब्ध है ?जो  सही समय पर (युवा काल में ही) सही दाँव चलता है, वही विजयी होता है। यह निर्णय हमें स्वयं करना है कि क्या हम जीवन को व्यर्थ में (आहार,निद्रा,भय, मैथुन में) नष्ट होने देंगे ?  एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिए- अविराम चेष्टा कर रही है,और बाह्य परिवेश या परिस्थितियाँ उसको दबाये  रखने के लिए प्रयासरत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जाने के इस प्रयत्न (महान-खेल) का नाम ही जीवन है। 
 ४.प्रारंभिक कार्य [५ यम-५ नियम 24 X 7] क्या है ? 
कार्य मन की अतिरिक्त चंचलता को के द्वारा संयम में रखना। -मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । या मति सा गतिर्भवेत।  कुछ गुणों (यम-नियम) को जानकर उन्हें सदैव याद रखना, तथा उन्हें अपने जीवन में (मन-वचन-कर्म)  धारण करने का अभ्यास निरंतर करते रहना आवश्यक है।  ' ईश्वर-प्रणिधान' ब्रह्म, ईश्वर, या उनके अवतार, जैसे- राम, कृष्ण, बुद्ध, यीशु, मोहम्मद, चैतन्य और श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द/ या किसी महापुरुष  में विश्वास रखते हुए उनका -स्मरण -मनन करने से मन सहजता से शांत और संयत हो जाता है।" सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्" 
५.चित्तवृत्ति निरोध का नुस्खा क्या है ?  
 मन ही हमलोगों का सबसे अनमोल संसाधन (Most Precious Human Resources) है, ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है। मन की चंचलता और द्रुत गति की वृत्ति आँधी पर विजय का नुस्खा (prescription) है-  १. विवेक-दर्शन का अभ्यास/ यह दवा दिन भर में केवल दो बार,सुबह-शाम लेनी है। व्यासदेव मानो  ५००० वर्ष पहले ही  जानते थे कि एक दिन स्वामी विवेकानन्द का एक मार्गदर्शक नेता आएगा ! चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च। मनुष्य के चित्त-नदी का प्रवाह 'उभयतो वाहिनी' है, दोनों दिशाओं में (ऊपर -नीचे उभयतः) में (वाहिनी) बहने वाली है। विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति' (सा) 'कैवल्यप्राग्भारा':चित्तनदी की धारा जब विवेकविषय, विवेक-प्रयोग की शक्ति को ही सहजात वृत्ति बना लेता है, बुद्धि (नश्वर) और पुरुष (शाश्वत) के बीच के अंतर को अनुभव करने की अनुमति देता है; वह धारा  कैवल्य (मुक्ति) की ओर ले जानेवाली है और कल्याण-वहा है। 'अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति'-वह 'संसारप्राग्भारा' संसार या देहान्तर-गमन  (Transmigration) की ओर ले जाने वाली धारा पाप-वहा है। ' तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते '  उस (तत्र) बाह्य वस्तुओं या विषयों की ओर बहने वाली धारा पर (वैराग्येण) वैराग्य का फाटक लगाकर विषयस्रोत को मन्द बनाते हुए 'वासना और धन में' लालच को कम करते हुए शक्तिहीन (खिलीक्रियते) किया जाता है। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते। और तब  विवेक-दर्शन के नियमित अभ्यास द्वारा विवेक-प्रयोग शक्ति को विकसित करके बुद्धि या चित्त-नदी के प्रवाह कल्याण की दिशा में मोड़ने का अभ्यास  करते-करते (शाश्वत-नश्वर विवेकशील ज्ञान पर चिंतन-मनन करते-करते) एक दिन चित्तवृत्ति निरुद्ध हो जाती है और विवेकस्रोत उद्घाटित हो जाता है।  इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।  इ ति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः) = इस  प्रकार  चित्तवृत्तिनिरोधः -अर्थात  चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी वृत्ति (आँधी) पर नियंत्रण और १.विवेक-दर्शन (Discrimination) तथा २. 'वासना और धन' के प्रति Lust and Lucre) में घोर आसक्ति या अत्यधिक लालच का  त्याग How much land a man needs ?  इस कथा के चिंतन-मनन की दवा घंटे-घंटे के अंतराल से (24 X 7 X 365) लेनी है।  अर्थात विवेक-प्रयोग शक्ति को ही अपनी सहज-वृत्ति [Instinct] बना लेने के अभ्यास पर निर्भर है। अब हमलोग ' मनः  संयोग ' के महत्व को जानकर मन ही मन निश्चित रूप से संकल्प ले रहे होंगे कि हम 'मनः संयोग ' अवश्य सीखेंगे और इसका अभ्यास किस तरह किया जाता है, इसकी भी  जानकारी प्राप्त करेंगे। 
६. सम्यक आसन,
 'अर्धपद्मासन'  में बैठने से एक सुविधा और होता है कि कमर, मेरुदण्ड और ग्रीवा (गर्दन) को एक सीध में रहता है। कमर और रीढ़ की हड्डी (मेरुदण्ड ) को सीधा रख कर बैठने से श्वास-प्रश्वास सहज रूप में चलता रहता है। ऐसा न होने पर कुछ ही देर में थकावट का अनुभव होगा, और मन उसी ओर चला जायेगा। सुगन्धित-फूल या धूपबत्ती कि भीनी-भीनी सुगन्ध यदि नासिका तक आती रहे तो अच्छा है।शब्द, गीत या बातचीत आदि सुनाई पड़ सकती है। इन्हें रोकने का कोई उपाय तो नहीं है, फिर मैं इतना कर सकता हूँ कि उस ओर मन को नहीं जाने दूंगा ! 
 ७.  प्रत्याहार -i- मन को देखना / प्रत्याहार-ii - 'मन को आदेश देना: ' / अर्धपद्मासन में बैठ जाने के बाद, इसी प्रकार द्रष्टा-मन या व्यक्तिपरक मन (Subjective Mind) की सहायता से दृश्य-मन या विषयाश्रित मन (Objective Mind) की गतिविधियों को थोड़ी देर तक पर्यवेक्षण करना है। परन्तु मन के जैसी सूक्ष्म, दूसरी कोई सूक्ष्म वस्तु तो है ही नहीं।  इसीलिये मन को मन के द्वारा ही देखना पड़ता है। शुरू -शुरू में यह सुनकर विस्मय होना स्वाभाविक है कि 'मन की यह दोहरी विद्यमानता' (Double Presence of Mind) कैसे संभव है ?किन्तु जाने-अनजाने हमलोग प्रायः यही तो सदैव करते रहते हैं।  जब अकस्मात हमारी तंद्रा टूटती है, तब हम स्वयं अवाक् होकर सोचने लगते हैं कि अरे ! क्या मैं ही इतनी देर से इस विषय पर चिन्तन कर रहा था ?मन पर धीरे धीरे विवेक-अंकुश का प्रयोग करना होगा। उससे कहना होगा -  नहीं अब तुम्हें पहले जैसा इधर-उधर दौड़ने नहीं दिया जायगा। [यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः।-पंचतंत्र
धारणा-(Concentration-i) के लिए मूर्त आदर्श या पवित्र आदर्श का चयन। (धारणा -ii-तल्लीनता )  हम यह कैसे जानेंगे कि मन की दृष्टि उसी ध्येय वस्तु (आराध्य-आदर्श) पर पड़ रही है? 
 मन को अन्य विषयों से हटाते हुए, एक विशेष 'ध्येय-वस्तु' या विषय की ओर स्थिर करने को ही धारणा  या एकाग्रता कहते हैं। मनः संयोग का अर्थ है मात्र मनमाने ढंग से किसी भी व्यक्ति या विषय के चिंतन में तल्लीन (engrossed) हो जाना नहीं है- (जैसे शकुंतला दुष्यंत की याद में इतनी लीन हो गयी थी कि उसे दुर्वासा ऋषि के पधारने का पता ही नहीं चला ....) किन्तु यह ध्येय (ध्यान का विषय) क्या हो ?अपने मन को दीपक की लौ पर, दीवार पर वृत्त बनाकर उसके केन्द्र पर, या अन्य किसी पवित्र प्रतीक  'ॐ' (या 786/ पवित्र काबा) पर भी मन को लगाने का प्रयत्न कर सकते हैं। किसी ऐसे देवी-देवताओं, महापुरुष या इष्ट की मूर्ति या चित्र पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक सहज होता है, जिन्हें हम पवित्रता स्वरूप या प्रेम-स्वरूप मानकर श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजने योग्य (या परिक्रमा करने योग्य) मानते हैं।  मनोविज्ञान के 'साहचर्य का नियम' (Law of Association) के अनुसार उस आदर्श के सदगुणों (पवित्रता और प्रेम) का विचार भी हमारी कल्पना में आने लगते हैं। इसलिये किसी मूर्त-आदर्श पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक श्रेयस्कर होता है। किसी ऐसे मूर्त आदर्श पर मन को बैठना ज्यादा अच्छा होता है जिस पर हमारे मन में स्वाभाविक रूप से श्रद्धा-भक्ति हो। भारत सरकार द्वारा घोषित युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति या जीवन्त छवि हमारे लिये एक अत्यन्त प्रेरणादायी आदर्श हो सकती है। जितना उनका धारणा-ध्यान सिद्ध था वैसा ही कर्म भी था। वे चरित्र के सभी गुणों के वे मूर्तरूप लगते हैं।उनकी छवि पर मनः संयोग का अभ्यास करने से- अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से हममें भी इसी प्रकार का आत्मविश्वास पैदा होगा। उन्होंने कहा है-" मनुष्य सब कुछ कर सकता है, मनुष्य के लिए असंभव कुछ भी नहीं है।"वे मानव-मानव के बीच जाति या धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं देखते थे।
परीक्षा और परिणाम:  इसकी पहचान यही है कि मन जब किसी वस्तु पर पुर्णतः एकाग्र रहता है, या तल्लीन (engrossed) हो जाता है, तो उस समय मन में अन्य कोई विचार उठता ही नहीं है।  'धारणा' के अभ्यास को -अर्थात बार बार मन को इन्द्रियविषयों से खींच कर,थोड़ी देर तक पूर्व-निर्धारित मूर्त आदर्श में तल्लीन रखने की चेष्टा को मन का व्यायाम भी कहा जा सकता है।जिस प्रकार शरीर को शक्तिशाली बनाने के लिये  पौष्टिक आहार होते हैं, उसी प्रकार मन को भी शक्तिशाली बनाने का आहार होता है। निरंतर पवित्र विचार या शुभ-संकल्प से मन को भरे रखना वह मानसिक पुष्टि है, जो  मन को हृष्ट-पुष्ट बनाये रखता है।इस प्रकार मनः संयोग का अभ्यास करने से कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में यथार्थ सुख, शान्ति और आनन्द का अधिकारी बन सकता है। प्रतिदिन दो बार, प्रातः और संध्या में 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे अपनी इच्छानुसार मन को किसी भी वस्तु या विषय पर एकाग्र किये रखने की क्षमता बढ़ती जाती है। "धारणा सिद्ध व्यक्ति की पहचान यह है कि उसकी निगाहें स्थिर रहती है। ऐसे चित्त की शक्ति बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है।  एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो - उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जीओ। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सिद्ध होने का तरीका है। ---स्वामी विवेकानन्दमान लो कि मैं अभी आँखों से विवेक-दर्शन का अभ्यास कर रहा हूँ, या विवेकानन्द की छवि पर मनःसंयोग कर रहा हूँ। जब तक यह विचार मन में रहता है कि मैं विवेक-दर्शन कर रहा हूँ, तब तक यह समझना चाहिए कि मन अपने आराध्य-देव का दर्शन करने में ही लगा हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि नेत्रों कि दृष्टि जिस वस्तु पर पड़ रही है, मन की दृष्टि भी उसी वस्तु के ऊपर केन्द्रीभूत है। 
९." सीपियों की तरह होना होगा "  विवेकानन्द जी कहते हैं - " जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण और नित्य-शुद्ध है, तब उसको फ़िर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएं फ़िर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का आभाव हो जाने पर फ़िर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है।"(१:४० ) " भारतवर्ष में एक सुंदर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुन्गस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूंद किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह बात मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूंद की प्रतीक्षा करती रहती है।ज्यों ही एक बूंद पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुंह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और  वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।"हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फ़िर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा।
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