शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

'शौक़-ए-दीदार है अगर, तो 'नज़र' पैदा कर!' [एक नया युवा आन्दोलन -19]

 पुरुषार्थ और आश्रम 
 [व्यावहारिक जीवन में धर्म/ ব্যবহারিক জীবনে ধর্ম /SV-HS (50)] 
धर्म का प्रयोग तो केवल व्यावहारिक जीवन (प्रैक्टिकल लाइफ) में ही हो सकता है, व्यावहारिक जीवन के अलावा धर्म के प्रयोग का अन्य कोई पारलौकिक क्षेत्र नहीं है। धर्म का प्रयोग इसी जगत में होता है, एवं जगत तो हर समय व्यावहारिक ही है। अपने दैनन्दिन जीवन में ही धर्म का प्रयोग किया जाता है। स्वामी विवेकानन्द एक बहुमूल्य सत्य की ओर हमलोगों की दृष्टि को आकर्षित करते हुए कहते हैं- " हमारा जीवन एक अखण्ड सत्ता है, यह भिन्न-भिन्न भावों का संकलन नहीं है। जबकि हमलोग यह समझते हैं कि हमलोगों का व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन से भिन्न हो सकता है, या सामाजिक जीवन से राष्ट्रिय जीवन अलग होता है। अथवा हमारा एक राजनैतिक जीवन और एक अर्थनैतिक जीवन होता है, जो चित्त-विनोद के जीवन से बिल्कुल अलग होता है; और इन सब के अलावा एक धार्मिक जीवन भी होता है। किन्तु जीवन को इस प्रकार से टुकड़ों  में बाँट कर देखना केवल हमारे मन की कल्पना है।"
 श्रीरामकृष्ण  इस बात को उदाहरण से समझाते हुए कहे थे- ' पानी में एक छड़ी डालने से जल इधर-उधर बँटा हुआ दीखता है, किन्तु छड़ी को उठा लेने पर फिर से सारा पानी एक हो जाता है। ' ठीक उसी प्रकार प्रत्येक वस्तु को हमलोग विभिन्न रूपों में बँटा हुआ देखते हैं। यह सब हमारे मन की सृष्टि है। वस्तुतः जीवन का उस प्रकार से विभिन्न क्षेत्र या भाव नहीं होता है।
स्वामी विवेकानन्द पाश्चात्य देशों में जाकर कहे थे- " हर रविवार के रविवार रूटीन से गिर्जा-घर में जाकर प्रार्थना कर लेना धर्म नहीं है।" सप्ताह के शेष समस्त दिनों को मैंने जैसे चाहा वैसे खर्च कर दिय, और उसके बाद केवल रविवार के दिन चर्च में जाकर प्रार्थना कर लिया, इसको तो धर्म नहीं कह सकते हैं। कुछ लोग ऐसा मानते हैं, कि रविवार का दिन भगवान के आराम का दिन है। क्या भगवान भी कोई दैनिक वेतन-भोगी कर्मचारी है, जो सारे सप्ताह परिश्रम करने के बाद रविवार को विश्राम करते हैं ?  बहुत से लोगों की यही धारणा होती है कि रविवार को हमलोगों के लिये भी छुट्टी का दिन होता है; उस दिन ऑफिस जाने या सामान्य पारिवारिक जम्मेदारी निभाने से फुर्सत रहती है, आज आमोद-प्रमोद करना है, इसी बीच एकबार गिरजा-घर में जाकर प्रार्थना भी कर आऊंगा- यही धर्म है ! बहुत से लोग सोचते हैं, सुबह घर के ठाकुर-कमरे में पूजा करके धर्म कर लिया, या किसी मन्दिर में जाकर मत्था टेक आया,  उसके बाद लौटते समय रास्ते के किनारे भिखारी बैठे रहते हैं, उसके कटोरी में एक  सिक्का फेंक दिया। यही तो धार्मिक जीवन है; उसके बाद घर के काम निपटाए, हाट-बाजार कर आये, शाम को दोस्तों के साथ शैर पर निकल गए- क्योंकि यही हमारा स्वाभाविक कार्य क्षेत्र है। जीवन को इस प्रकार टुकड़ों में बाँट कर जीना ठीक नहीं है। जीवन एक पूर्ण वस्तु है। स्वामीजीने कहा है, धर्म वह वस्तु है जो जीवन को पूर्णतया पकड़े रहती है। धर्म के बिना जीवन का कुछ अर्थ ही नहीं है, हो भी नहीं सकता। 
(धर्मेण हीनः पशुर्भिः समाना)
भगिनी निवेदिता ने विवेकानन्द को बहुत हद तक समझा था। वे स्वामीजी के द्वारा दीक्षित थीं, उनसे प्रेरित थीं, उनके सपनों को साकार बनाने के लिये निवेदित-प्राणा थीं, अपने प्राण तक को न्योछावर करने को समर्पित थीं। वे भारतवर्ष की सेवा के लिये, भारत के कल्याण के लिये आयीं थीं। विवेकानन्द समग्र-साहित्य जब प्रकाशित हुआ, तो भगिनी निवेदिता ने उसकी भूमिका लिखी थी। उस भूमिका में उन्होंने कुछ नई बाते कही हैं, उन बातों  को उन्होंने स्वामीजी से सीखा था। 
वहाँ उन्होंने कहा है- "अब से व्यवहारिक 'secular' और धार्मिक ' sacred ' कर्म में कोई अन्तर नहीं रह जाता। कर्म करना ही उपासना करना है। विजयी होना और त्याग कर देना एक समान है। स्वयं जीवन ही धर्म है। कारखाना, अध्यन-कक्ष, खेत और क्रीड़ाभूमि आदि भगवान के साक्षात्कार के वैसे ही उत्तम और योग्य स्थान हैं, जैसे साधु की कुटी या मन्दिर का द्वार। मानव की सेवा और ईश्वर की पूजा, पौरुष तथा श्रद्धा, सच्चा नैतिक चरित्र और आध्यात्मिकता में कोई अन्तर नहीं है। कला, विज्ञान और धर्म एक ही सत्य की अभिव्यक्ति के त्रिविध माध्यम हैं। लेकिन इसे समझने के लिये हमें निश्चय ही हमें अद्वैत सिद्धान्त का सिद्धान्त (की अनुभूति ?) चाहिये। " यहाँ पर ' अब से ' कहने का क्या अर्थ है ?  
जब से विश्व के खुले मंच पर स्वामीजीने यह सन्देश दिया कि- " If the many and the One be indeed the same Reality" यदि ' एक '(ईश्वर) और'अनेक' (जगत) सचमुच एक ही सत्य हैं, तो उपासना के केवल विविध पद्धतियाँ ही नहीं, वरन् सामान्य रुप से किये जाने वाले समस्त कर्म, जीवन में आने वाले सभी प्रकार के संघर्ष, सृजन की समस्त विधियाँ भी सत्य-साक्षात्कार के ही मार्ग हैं।"
" एक और  अनेक - सचमुच एक ही सत्य हैं! "- स्वामीजीने इस भाव को कहाँ देखा ? उन्होंने इस भाव को अपने गुरु श्रीरामकृष्ण से सीखा था। वास्तव में श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द के जीवन के समय से ही ' धार्मिक जीवन और धर्म-निरपेक्ष जीवन '- के बीच जो कल्पित पार्थक्य था, वह अतीत की बात हो गयी थी, अब वह भेद बिल्कुल समाप्त हो गया।' यदि उनके जीवन को सही रूप से समझ लिया जाये, तो 'व्यवहारिक जीवन में धर्म' के विषय में हमारी धारणा  बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगी।
बहुत लोग ऐसा समझते हैं, कि हमलोग अपने व्यवहारिक जीवन को जैसी इच्छा होगी, उसी मुताबिक बिता देंगे, और धर्म नाम से जो एक कुछ है उसका व्यवहार - हमलोग चाहें तो कर सकते हैं, और नहीं भी कर सकते हैं। जिस प्रकार तरह तरह के व्यंजनों का आहार समाप्त कर लेने के बाद, चटनी को हमलोग चाहें तो खा सकते हैं, या नहीं भी खा सकते हैं। उसी प्रकार हमलोग अपने जीवन को जैसे-तैसे बिताकर धर्म को ले भी सकते हैं, नहीं भी ले सकते हैं। किन्तु धर्म कोई ऐसी वैसी चीज नहीं है। जो लोग धर्म को चटनी के जैसा कोई चीज समझते हैं, वे धर्म के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं।
धर्म के विषय में स्वामीजी कहते हैं-" धर्म के बारे में ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है कि यहाँ का कुछ वहाँ का कुछ विभिन्न स्वाद लेने के लिये चख कर देखने की प्रवृत्ति होती है। यह जो धर्म को चख कर देखने की प्रवृत्ति है, इसके द्वारा किसी को कभी धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती है। धर्म को श्रद्धा के साथ ही ग्रहण करना पड़ता है। धर्म मनुष्य के जीवन को संपूर्णतः परिवर्तित कर देता है, जीवन- प्रवाह की दिशा को निर्धारित कर देता है, उसे ठीक लक्ष्य की ओर ले जाता है। धर्म मनुष्य को उसके जीवन-लक्ष्य की दिशा में अग्रसर होना सिखाता है।" यदि मनुष्य के जीवन का कुछ अंश धर्म की ओर जाय, और शेष अंश अधर्म की ओर जाय तो, तो क्या उसका  जीवन सफल होगा ? जीवन छिन्नभिन्न हो जायेगा। जीवन में पूर्णता नहीं आएगी, और उस दृष्टि से जीवन  सार्थक नहीं होगा, उस जीवन में समग्र सौन्दर्य कभी प्रस्फुटित नहीं हो सकेगा । यदि मनुष्य के समग्र जीवन में एक 'integration' या सामंजस्य नहीं स्थापित हो सका, तो उसका जीवन-गठन या चरित्र-निर्माण सही रूप में नहीं हो सकता है।
 मनुष्य के जीवन में धर्म का वही महत्व है, जो नाव में पतवार का होता है। नदी में नौका चल रही है, किन्तु उसमें यदि पतवार नहीं हो तो नाव कभी अपने गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुँच सकेगी-जहाँ नौका को जाना चाहिए था, वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकेगी। उसी प्रकार जीवन में भी हमलोग बहुत तरह के प्रयत्न कर सकते हैं, जीवन में हमलोग कई प्रकार के कार्य कर सकते हैं। किन्तु हमारे सभी कर्म यदि धर्म पर आधारित नहीं हो, तो जीवन अपने निर्दिष्ट लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता है। यदि हमलोगों ने विवेक के द्वारा निर्णय लेकर कोई पूर्व निर्दिष्ट जीवन-लक्ष्य बना लिया हो, तो अपने चिन्तन, विचार और जीवन को उस लक्ष्य की ओर ले जाने के लिये धर्म ही पतवार है।
यदि हम अपने व्यवहारिक जीवन में धर्म का प्रयोग करना चाहें, तो पहले यह समझ लेना होगा कि जीवन क्या है और व्यक्ति-जीवन में धर्म का स्थान कहाँ है ? जीवन विभिन्न भावों का 'mechanical blending' या मशीनी मिश्रण नहीं है, जीवन एक ही साथ जुड़ा हुआ, 'compound' या यौगिक वस्तु है। जीवन के विभिन्न उपादान (3H ) हो सकते हैं, किन्तु जीवन में वे सभी मिलकर संयुक्त या combined हो गये हैं, जीवन के साथ इस प्रकार घुलमिल गये हैं, वे इस प्रकार जुड़ चुके हैं, कि अब उसके उपादानों को पृथक नहीं किया जा सकता है। समग्र रूप से सामन्जस्यपूर्ण जीवन ही वह जीवन है, जो हमें लक्ष्य तक पहुंचा सकता है। वह जीवन ही यथार्थ जीवन है, जिसकी बुनियाद धर्म पर प्रतिष्ठित है। हमलोगों के दैनन्दिन जीवन में धर्म का उपयोग करने का अर्थ है, अपने चिन्तन-वचन-और कर्म में विवेक-प्रयोग करके ऐसा निर्णय लेंगे जो हमारे समस्त कार्यों को हमारे पूर्व-निर्धारित जीवन लक्ष्य की दिशा में ले जाने में सहायक होगा। विवेकपूर्वक कर्म करने में सक्षम होना ही लौकिक जीवन में धर्म का प्रयोग करना है।


[स्वामी जी कहते हैं - " आज हमें आवश्यकता है वेदान्त-युक्त पाश्चात्य विज्ञान की, ब्रह्मचर्य के आदर्श और श्रद्धा तथा आत्मविश्वास की। वेदान्त के अनुसार ज्ञान का समस्त भण्डार मानवमात्र में, एक शिशु में भी अन्तर्निहित है, केवल उसके जागृत होने की आवश्यकता है, और यही आचार्य (नेता या लोकशिक्षक) का काम है। पर इस सब का मूल है धर्म- वही मुख्य है। धर्म तो भात के समान है, शेष सब वस्तुएँ तरकारी और चटनी जैसी हैं। केवल तरकारी और चटनी खाने से अपथ्य हो जाता है, और केवल भात खाने से भी। ... मेरा विश्वास है कि गुरु के साक्षात सम्पर्क में रहते हुए, गुरु-गृह में निवास करने से ही यथार्थ शिक्षा की प्राप्ति होती है। गुरु से साक्षात् सम्पर्क हुए बिना किसी प्रकार की शिक्षा नहीं हो सकती। हमारे वर्तमान विश्वविद्यालयों (जे.न.यू) की ही बात लीजिये। उनका आरम्भ हुए पचास वर्ष हो गये (यह १८९७ में मद्रास में कहा गया था ), पर फल क्या मिला है ? वे एक भी मौलिक-भाव सम्पन्न मनुष्य का निर्माण नहीं कर सके!  वे परीक्षा लेने वाली संस्थायें मात्र हैं, साधारण जनता की जागृति और उसके कल्याण के लिये स्वार्थ-त्याग की मनोवृत्ति का हममें थोड़ा भी विकास नहीं हुआ है। " 
हमारे देश के प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन में चार पुरुषार्थ करने का सन्देश दिया है। किन्तु हम आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोग, 'पुरुषार्थ' या इस प्रकार के अन्य शब्दों से परिचित नहीं हैं। 'पुरुष' का अर्थ है-मनुष्य; इस शब्द को पुरुष और स्त्री के संदर्भ में नहीं लेना चाहिये। तथा 'अर्थ' का अनुवाद होगा- एक ऐसी प्राप्तव्य वस्तु, एक ऐसा लक्ष्य, एक ऐसी बहुमूल्य सम्पत्ति - जिसे प्राप्त करने की आकांक्षा प्रत्येक मनुष्य को अवश्य करनी चाहिये, तथा उस लक्ष्य को इसी जीवन में प्राप्त करने का प्रयत्न भी मनुष्य को अवश्य करना चाहिये। वे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष !  पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यही चार वस्तुयें ऐसी हैं जिन्हें इस जीवन में पाने की आकांक्षा करनी चाहिये। पहला पुरुषार्थ है- धर्म। यदि यह पुरुषार्थ जीवन में नहीं हो, या नहीं आ सके, तो हमलोगों के जीवन में अन्य जितने पुरुषार्थ या प्राप्तव्य वस्तुएँ हैं, उन्हें हम नहीं प्राप्त कर सकेंगे, और यदि प्राप्त कर भी लिये, तो उनका कोई मूल्य नहीं होगा। इसीलिये धर्म को सबसे पहले ग्रहण करना चाहिये। यह प्राप्त हो जाय तभी दूसरी वस्तुओं की सार्थकता है। यदि मोक्ष को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर, तथा धर्म के द्वारा मार्गदर्शित होकर- अर्थ और काम का उपभोग किया जाय, तो वैसा अर्थ और काम हमें क्षति नहीं पहुंचा सकता है।
हमलोग यह जानते हैं, कि मन में यदि कोई कामना नहीं हो, तो मनुष्य का जीवन अचल हो जायेगा, ठहर जायेगा या गतिशून्य हो जायेगा। यदि ऐसा हो, कि मैं  कुछ भी न चाहूँ; तो फिर मैं ही नहीं रहूँगा। इसीलिये कोई न कोई कामना अवश्य रहेगी, तथा व्यवहारिक जगत के किसी वस्तु को पाने की कामना करें, या प्राप्त करना चाहें, या केवल सामान्य रूप से अपने जीवन का निर्वाह भी करना हो, तो अर्थ की आवश्यकता होगी। हमलोगों के जीवन में अर्थ की आवश्यकता अवश्य होती है, इसीलिये हमारे शास्त्रों में अर्थ की निन्दा नहीं की गयी है। बल्कि अर्थ और काम दोनों की प्रशन्सा की गयी है। गीता में हम श्रीकृष्ण का एक अद्भुत उद्धरण देखते हैं, " वे कहते हैं, यदि मैं न रहूँ, तो मनुष्य कोई कामना भी नहीं कर सकता, इसीलिये सभी मनुष्यों के हृदय में मैं ही कामरूप में अवस्थित हूँ। " [" प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः " प्रजनः [among the progenitor (I) am Kamadeva प्रोजेनिटर च अस्मि कंदर्पः कामः] अर्थात ईश्वर ही मनुष्यों के भीतर कामरूप में अर्थात कामना रूप में अवस्थित हैं।
उसी प्रकार से हमारे ऋषियों ने अर्थ की भी प्रशंसा की है। महाभारत में एक सुन्दर उदाहरण दिया गया है, गीता-उपदेश के बाद जब अर्जुन लड़ने को तैयार हो गये तो एकाएक देखते हैं कि युधिष्ठिर कवच वगैरह उतार के नंगे पाँव कौरवों की सेना की ओर तेजी से बढ़े जा रहे हैं। देखते ही अर्जुन आदि सभी घबरा गये। हालत यह हो गयी कि ये पाँचों भाई कृष्ण के साथ उनके पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं और कहते जा रहे हैं कि राम, राम, यह क्या कर रहे हैं? ऐन वक्त पर आप यह कहाँ चले? क्या युध्ष्ठिर युद्ध नहीं करेंगे, या और कुछ करने जा रहे हैं ? जब युधिष्ठिर न रुके, तो कृष्ण ने ताड़ लिया और लोगों को समझा दिया कि भीष्म आदि गुरुजनों से लड़ने के पहले आज्ञा लेने जा रहे हैं। यही शिष्टाचार हैं। इसी बीच युधिष्ठिर सभी के साथ ही पहले भीष्म के पास और पीछे क्रमश: द्रोण, कृप और शल्य के पास गये और चारों को प्रणाम करके लड़ने की आज्ञा तथा सफलता की शुभेच्छा चाही। उन्होंने युधिष्ठिर को आज्ञा दी और शुभेच्छा भी जाहिर की। मगर सभी ने एक बात ऐसी कही जो विचारणीय हैं। चारों के मुख से एक ही श्लोक निकला, जो इस प्रकार हैं-


  ''अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज, बध्दोऽस्म्यर्थेन कौरवै:।''
 इसका सीधा अर्थ यही हैं कि ''महाराज, इस जगत में सभी पुरुष अर्थात सभी मनुष्य अर्थ के दास होते हैं। आदमी पैसे का गुलाम होता हैं, न कि आदमी का गुलाम पैसा, यही पक्की बात हैं। इसलिए हे महाराज भाग्य के दोष से अर्थ के कारण ही कौरवों ने हमें गुलाम बना लिया हैं।''  जिन्हें मौत पर भी कब्जा हो और जो अपनी मर्जी के खिलाफ न तो हार सकें और न मर सकें, वे लोग भी जब संसार के इस नियम को स्वीकार करते हैं, और इसे अटल (पक्का) नियम मानते हैं, और हिम्मत के साथ तदनुकूल ही अपनी स्थिति कबूल करते हैं, तो मानना ही पड़ेगा कि अप्रिय होने से भी- कि पुरुष अर्थ का दास होता है !' गीता इस कठोर सत्य को खूब मानती हैं। वह इसे स्वीकार करके ही आगे बढ़ी हैं।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हमारे पूर्वज लोग (इस अप्रिय सत्य को) अच्छी तरह से जानते थे, कि हमारे जीवन में अर्थ की कितनी महत्ता है। इसीलिये उन्होंने ने अर्थ की कभी निन्दा नहीं की है। हमलोगों के देश में कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा लिखित सुन्दर अर्थशास्त्र बहुत प्रसिद्द है। हमारे पूर्वजों ने यह भी कभी नहीं कहा है, कि काम की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि काम या कामना को नियंत्रित रखना या परिमित (restrained) रखना आवश्यक है। कामनाओं को पूर्ण करने के लिये अर्थ की आवश्यकता अवश्य है; किन्तु अर्थ के व्यवहार को भी नियंत्रित रखना आवश्यक है। जिस प्रकार कामना-वासना के बेलगाम अत्याचार को सहन करते रहना उचित नहीं है; उसी प्रकार अर्थ का बिल्कुल दास बन जाना भी ठीक नहीं है। यदि कामनाओं को अत्यधिक छूट दे दी जाये, और अर्थ की वासना को परिमित नहीं रखा जाय तथा- 'और धन चाहिये', और धन चाहिए, करते रहा जाय तो मनुष्य की हालत कैसी हो जाएगी ?  इसका वर्णन गीता १६/१३ में बहुत अच्छे से किया गया है-

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌॥
भावार्थ : आज इस समय तो मैंने यह द्रव्य प्राप्त किया है तथा अमुक मनोरथ -- मनको संतुष्ट करनेवाला पदार्थ और प्राप्त करूँगा। और अब कल इस मनोरथ को -(बीच बाजार में एक बड़ा सा प्लोट ) प्राप्त कर लूँगा। इतना धन तो मेरे पास है और यह इतना धन मेरे पास अगले वर्ष में फिर हो जायगा? उससे मैं धनवान् विख्यात हो जाऊँगा। 
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
 ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥


भावार्थ :   (इसमें जो एक प्रोपर्टी डीलर बाधक शत्रु था ) आज वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया, और कल उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, इस प्रकार मेरा प्रभुत्व क्रमशः बढ़ता जायेगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ॥14॥ 

श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र के रणांगण में जिस समय अर्जुन को उपदेश देते हैं, कितनी अद्भुत बात कह रहे हैं। उनका  यह कथन बिल्कुल मानो आज के सामाजिक जीवन की अवस्था को उजागर कर रहा है। हमारे शास्त्रों में काम और अर्थ को त्याज्य नहीं कहा गया है, हमारे पूर्वजों ने केवल उन्हें नियंत्रित रखने या परिमित करने का उपदेश दिया है। किन्तु अर्थ और काम के  उपर नियंत्रण रखने का उपाय क्या है ? केवल धर्म के द्वारा ही अर्थ और काम को नियंत्रण में रखा जा सकता है। धर्म का आश्रय लेकर, अर्थ और काम का भोग करो। और जब यह बात समझ में आ जाये कि भोगों में ही सबकुछ नहीं है। जब यह दिखाई देने लगे कि भोगों से यथार्थ शान्ति, आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता है, तब उस अवस्था में मनुष्य के चौथे पुरुषार्थ-मोक्ष को प्राप्त करने की आकांक्षा करनी चाहिये, और उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये । किन्तु उन चार पुरुषार्थों में से किसी एक में ही आसक्त नहीं होना चाहिये। षड्जगीता  ३८ में कहा गया है-

 धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या
यस्त्वेकसेवी स नरो जघन्यः ।
द्वयोस्तु दक्षं प्रवदन्ति मध्यं
स उत्तमो यो निरतिस्त्रिवर्गे ॥ ३८॥

 यह जो 'धर्म-अर्थ-काम ' का त्रिवर्ग है, उसकी तुलना चतुर्थ वर्ग -मोक्ष के साथ नहीं हो सकती है।  इसलिये इन तीनों में -किसी भी एक प्रति आसक्त नहीं होना चाहिये, या किसी एक में ही अटके नहीं रहना चाहिये। जो किसी एक में ही आसक्त हो जाता है, उसको घृणित या निन्दनीय माना जाता है। इसी तरह धर्म, अर्थ और काम में परस्पर संतुलन बने रहना मानसिक स्वास्थय एवं सुखी जीवन के लिए परमावश्यक है। इन तीनों में संतुलन बनाए रखने के लिए ही वैदिक ऋषियों ने गृहस्थाश्रम का महत्व प्रतिपादित किया है। इन तीनों में सुसामन्जस्य या तालमेल बनाये रखना ही मानसिक और शारीरिक स्वास्थय का मूल रहस्य है। हमारे पूर्वजों ने यह भी कभी नहीं कहा है, कि काम की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि काम या कामना को नियंत्रित रखना या परिमित (restrained) रखना आवश्यक है।  श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति-मार्गी या संन्यासी थे; किन्तु उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं।
प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यासलक्षणम्

अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है।
श्री शंकराचार्य के पूर्व ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार दो मार्ग हैं। एक मार्ग यह है कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का संन्यास अर्थात त्याग कर दे; और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी सब कर्मों को न छोड़े, उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप–पुण्य की बाधा न होने पाए। इन्हीं दो मार्गों को गीता में सन्न्यास और कर्मयोग कहा है। 
अच्छे अच्छे पंडितों को भी कभी–कभी 'क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?' यह प्रश्न चक्कर में डाल देता है। परन्तु कर्म–अकर्म की चिन्ता में कर्म को छोड़ देना उचित नहीं है। जैसे युद्ध के समय क्षात्रधर्म ही अर्जुन के लिए 'विहित्त कर्म' या  'कर्त्तव्य कर्म' था। 
यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। इसीलिये श्रुति या शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक आने में बाधा नहीं देते। मनु महाराज  (मनुस्मृतिः५.५६) कहते हैं- विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि - निवृत्तिस्तु महाफला।
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला । ।

अर्थ-मांसभक्षण,मद्यपान और मैथुन में दोष नहींहै। मनुष्यों में यह गुण प्रकृति प्रदत्त हैं, किन्तु इनसे निवृत्ति लेना अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि निवृत्ति ही सबसे बड़ा फल है !
मनु जी ने जो कहा है कि 'न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने'– अर्थात् मांस भक्षण करना अथवा मद्यपान और मैथुन करना कोई सृष्टिकर्म विरुद्ध दोष नहीं है, उसका तात्पर्य भी यही है। ये सब बातें मनुष्य के लिए ही नहीं, किन्तु प्राणीमात्र के लिए स्वाभाविक हैं – 'प्रवृत्तिरेषा भूतानाम्।'
नित्य व्यवहार में 'धर्म' शब्द का उपयोग केवल 'पारलौकिक सुख का मार्ग' इसी अर्थ में किया जाता है। जब हम किसी से प्रश्न करते हैं कि 'तेरा कौन–सा धर्म है?' तब उससे हमारे पूछने का यही हेतु होता है कि तू अपने पारलौकिक कल्याण के लिए किस मार्ग – वैदिक, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुहम्मदी या पारसी से चलता है; और वह हमारे प्रश्न के अनुसार ही उत्तर देता है। परन्तु 'धर्म' शब्द का इतना ही संकुचित अर्थ नहीं है।
 इसके सिवाय राजधर्म, प्रजाधर्म, कुलधर्म, मित्रधर्म इत्यादि सांसारिक नीति–बंधनों को भी धर्म कहते हैं। 
 जिसे पाने की उसके मन में इच्छा होती है उसे 'पुरुषार्थ' कहते हैं। धर्म शब्द के दो अर्थों को यदि पृथक करके दिखलाना हो तो पारलौकिक धर्म को 'मोक्षधर्म' अथवा सिर्फ़ 'मोक्ष' और व्यवहारिक धर्म अथवा केवल धर्म कहा करते हैं। उदाहरणार्थ; चतुर्विध पुरुषार्थों की गणना करते समय हम लोग 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष’' कहा करते हैं। इसके पहले यदि 'धर्म 'शब्द में ही 'मोक्ष 'का समावेश हो जाता तो अन्त में मोक्ष को पृथक पुरुषार्थ बतलाने की आवश्यकता न रह जाती।
महाभारत में 'धर्म' शब्द अनेक स्थानों पर आया है, और जिस स्थान पर कहा गया है कि 'किसी को कोई काम करना धर्म–संगत है' उस स्थान पर धर्म शब्द से कर्त्तव्य–शास्त्र अथवा तत्कालीन समाज–व्यवस्था शास्त्र ही का अर्थ पाया जाता है; तथा जिस स्थान में पारलौकिक कल्याण में मार्ग बतलाने का प्रसंग आया है, उस स्थान पर अर्थात् शांतिपर्व के उत्तरार्ध में 'मोक्ष–धर्म' इस विशिष्ट शब्द की योजना की गई है। 
 'व्यवहारिक कर्त्तव्य अथवा नियम के अर्थ में 'धर्म' शब्द का हमेशा उपयोग किया जाता है। कुलधर्म और कुलाचार, दोनों ही शब्द समानार्थक समझे जाते हैं। समाज–धारणा के लिए अर्थात् सब लोगों के सुख के लिए इस स्वाभाविक आचरण का उचित प्रतिबंध करना ही धर्म है।
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।

अर्थात् 'आहार, निद्रा, भय और मैथुन, मनुष्यों और पशुओं के लिए एक ही समान स्वाभाविक हैं। मनुष्य और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का (अर्थात् इन स्वाभाविक वृत्तियों को मर्यादित करने का प्रयत्न - मनःसंयोग का अभ्यास )। जिस मनुष्य ने अभी तक अष्टांग के पाँच अंग - यम,नियम, आसन, प्रत्याहार और धारणा की पद्धति को सीखकर मन को जीतने या एकाग्र करने का नियमित अभ्यास करना प्रारम्भ ही नहीं किया हो, तो कहना पड़ेगा कि उसके जीवन में धर्म नहीं है, और वह पशु के समान ही है!'
'यदि अर्थ या द्रव्य पाना हो तो 'धर्म के द्वारा' अर्थात् समाज की रचना को न बिगाड़ते हुए प्राप्त करो, और यदि काम आदि वासनाओं को तृप्त करना हो तो वह भी 'धर्म से ही’ करो। 

[साभार bhartdiscovery.org ]
25 वीं जनवरी, 1897 को रामनाड भाषण में स्वामीजी कहते हैं - " मन इन्द्रियों की ओर मानो चक्रवत् अग्रसर हो रहा है,....  'सर्कलिंग फॉरवर्ड ' उसे फिर पीछे लौटाना होगा। प्रवृत्ति-मार्ग का त्याग कर उसे फिर निवृत्ति-मार्ग का आश्रय ग्रहण करना होगा। यही भारतीय आदर्श है। किन्तु कुछ भोग भोगे बिना इस आदर्श तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता। बच्चों को त्याग की शिक्षा नहीं दी जा सकती। संसार की असारता समझने के लिये उन्हें पहले कुछ भोग भोगना पड़ेगा, तभी वे वैराग्य धारण करने में समर्थ होंगे। हमारे शास्त्रों में इन लोगों के लिये यथेष्ट व्यवस्था है। दुःख का विषय है कि परवर्ती काल में समाज के प्रत्येक मनुष्य को संन्यासी के नियमों में आबद्ध करने की चेष्टा की गयी-यह एक भारी भूल हुई। भारत में जो दुःख और दरिद्रता दिखाई पड़ती है, उनमें से बहुतों का कारण यही भूल है। गरीब लोगों के जीवन को इतने कड़े धार्मिक एवं नैतिक बन्धनों में जकड़ दिया गया है जिनसे उनका कोई लाभ नहीं है। हैन्ड्स ऑफ ! उन्हें भी संसार का थोड़ा आनन्द लेने दीजिये। आप देखेंगे कि वे क्रमशः उन्नत होते जाते हैं और बिना किसी विशेष प्रयत्न के उनके हृदय में आप ही आप त्याग का उद्रेक होगा।"(५/४६)
वे हमलोगों को पूर्ण उद्द्य्म के साथ अर्थ- उपार्जन के लिये उत्साहित करते हुए कहते हैं- " धन कमाना चाहता है ? तो अमेरिका चला जा। मैं तुमको व्यापार करने की बुद्धि दूंगा। ....यहाँ बैठे रहने से क्या होगा ? यदि जाने का भाड़ा नहीं हो, तो जहाज का खलासी बनकर विदेश चला जा। देशी कपड़ा, गमझा, चद्दर को गट्ठर बना कर सिर पर लेकर अमेरिका-यूरोप की गलियों में फेरी लगा। कुछ छोटी छोटी वस्तुओं को वहां बेचो। देखोगे यही करते करते थोड़े दिनों में बुद्धि खुल जाएगी। तब देखोगे कि वे लोग भी तुम्हें सहायता देने लगेंगे। " 
भारत के सभी स्त्री-पुरुषों को कह रहे हैं, तू सभी लोग मिल कर कमाओ, कहते हैं- क्या तुमलोग जेली,चटनी, आचार बना सकते हो ? इसको भी तुम विदेशों में निर्यात कर सकते हो। ये सब बिजनेस टिप्स स्वामीजी दे रहे हैं। कहते हैं, तुम्हारे पास कल-कारखाने कहाँ हैं ? " आज उनके जाने के १५० वर्ष बाद भी हमलोग बड़े बड़े कल-कारखाने लगाने की चर्चा करते हैं। स्वामीजी ने ये बातें कितने दिनों पहले कही थीं।
एक बार जहाज से जापान जाते समय स्वामीजी की मुलाकात जमशेदजी टाटा के साथ हुई थी। रास्ते में  बातचीत होने लगी। स्वामीजी के पूछने पर जमशेदजी ने बतलाया कि वे दियासलाई का आयात करने के लिये जापान जा रहे हैं। स्वामीजी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा " आप दियासलाई आयात करने जापान जा रहे हैं ? उसमें क्या रहता है ? पतली सी लकड़ी का बना बॉक्स होता है, भीतर कुछ पतली पतली लकड़ी की कील (सलाई) रहती है, जिसके माथे पर थोड़ा बारूद लगा रहता है। ऐसी साधारण सी चीज का आयात करने जापान जा रहे हैं ? आप इसे भारत में निर्मित क्यों नहीं कर सकते हैं ? भारतवर्ष में ही इसका निर्माण कीजिये न। जो भी उद्द्योग लगाना हो, उसे भारत में ही लगाइये।"
इसी मुलाकात के बाद से जमशेदजी के मन में उद्द्योग लगाने का धुन सवार हो गया। इसीके बाद जमशेदजी टाटा ने झारखण्ड में एक बहुत बड़ा उद्द्योग स्थापित किया। उनकी प्रेरणा के श्रोत स्वामीजी ही थे। आगे चलकर स्वामीजी के परामर्श से ही उन्होंने  विज्ञान के उपर एक शोध-संस्थान भी स्थापित किया था। भारत का प्रथम कृषि शोध-संस्थान भी स्वामीजी की ही प्रेरणा से अल्मोड़ा में स्थापित हुआ था, यह शोध-संसथान भारत के लिये अद्भुत वरदान सिद्ध हुआ है। उस समय स्वामीजी शरीर में ही थे। शोध-संस्थान खोलने के बाद जमशेदजी ने स्वामीजी से अनुरोध किया कि आप ही इसके डाइरेक्टर (directer) बन जाइये। वे समझ गये थे कि स्वामीजी के पास कॉमन सेन्स का भण्डार है, उनके शांत और परिष्कृत मन में इन सब के उपर नये नये विचार उठते ही रहते हैं। स्वामीजी के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी। किन्तु स्वामीजी ने बहुत विनय के साथ उनके  डाइरेक्टर होने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। क्योंकि स्वामीजी का यह कार्य था ही नहीं। 
[The institute was established at Kolkata by Padma Bhushan late Prof. Boshi Sen on July 4, 1924 and named it as Vivekananda Laboratory.  The Laboratory was permanently shifted to Almora in 1936 and was being run on donations and grants till it was handed over to Uttar Pradesh Government in 1959. On October 1, 1974, ICAR took it over and rechristened it as Vivekananda Parvatiya Krishi Anusandhan Sansthan.]
आज तो भारत में कई शोध-संसथान खुल चुके हैं, किन्तु भारत का प्रथम शोध-संस्थान स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से ही स्थापित हुआ था। वे कहते हैं, " तुमलोग जो कुछ भी करो-अपने देश में ही (स्थापित ) करना। तुमलोग विदेश जाओ और वहाँ से तकनिकी ज्ञान सीख कर अपने देश में कल-कारखाने स्थापित करो। फिर कहते हैं, तुमलोग जापान जाओ, वहां से मशीन निर्माण की कला सीखो, और देश की धरती पर नयी नयी वस्तुओं का उत्पादन करो।"कहते हैं, भारत में तो खनिज पदार्थों की तो भरमार है। विदेशी लोग उसी कच्चे-माल का उपयोग करके, नये रूप में ढाल कर, पुनः उसे भारत में बेचकर  सोना उगा रहे हैं। और तुमलोग देश में इतनी खनिज-सम्पदा रहने पर भी कुछ नहीं कर पा रहे हो ? वे तो यहाँ तक कहते हैं, कि " तुमलोग 'luxury goods' या विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन भी प्रारम्भ करो। कहते हैं, बहुत अधिक भोग में डूबे रहना अवश्य अच्छा नहीं है; किन्तु अधिक परिमाण  में  'consumer goods' का उत्पादन करने से क्या होगा -जानते हो ? इससे देश में नये नये रोजगार के अवसर पैदा होंगे।(3/334) "
स्वामीजी ने अर्थ की निन्दा कभी नहीं की है, और न काम की ही निन्दा किये हैं। उन्होंने अर्थ की उत्पत्ति करने को कहा है, भोग भी करने को कहा है, कहते हैं- सबकुछ करो, किन्तु धर्म के द्वारा उसको नियंत्रण में रखो। स्मरण रहे कि अर्थ और काम का भोग करने में अन्धे होकर धर्म का त्याग नहीं करना है। यदि धर्म को त्याग कर यह सब करोगे तो सब कुछ नष्ट हो जायेगा।
अल्बर्ट आईन्स्टाईन एक विश्व-विख्यात वैज्ञानिक हैं, विज्ञान की प्रगति के विषय में विवेचना करते समय एक स्थान पर वे कहते हैं, अच्छा आज विज्ञान में इतनी प्रगति आप देख रहे हैं, उसकी प्रेरणा का श्रोत कहाँ है ? सुनकर आश्चर्य होता है, वे कहते हैं- नूतन वैज्ञानिक अविष्कारों की प्रेरणा का श्रोत है धर्म। यदि धर्म नहीं होता तो विज्ञान में ऐसी प्रगति भी नहीं हो सकती थी। स्वामीजी कहते है, यदि धर्म को आधार मान कर लोक-व्यवहार करोगे, तो तुम्हारी बुद्धि स्फुरित होने लगेगी, तुमलोगों की कार्यक्षमता (efficiency) बढ़ जाएगी, जीवन का भोग दक्षता के साथ कर पाओगे, बेकार बैठे लोगों को रोजगार देने में समर्थ हो जाओगे। 
वे एक स्थान पर अत्यंत आश्चर्य जनक बात कहते हैं, कहते हैं-धर्म का अर्थ है भोग ! इसको समझाते हुए कहते हैं, तुम्हारे वेदों में क्या है ? देखो समस्त वेद में है, केवल भोग, भोग और भोग। वेदों के संहिता भाग में केवल यही कहा गया है कि किस प्रकार मनुष्य को इहलोक और परलोक में अधिक से अधिक भोग और सुख प्राप्त हो सकता हैं? स्वामीजी कहते हैं कि भोग पूरा हुए बिना त्याग नहीं हो सकता है। मोक्ष, त्याग या वैराग्य तो सबसे अन्तिम बात है। सामान्य मनुष्यों के लिये पहले भोग को पूरा करना आवश्यक होता है। और इसकेलिये अर्थ उपार्जन करना भी आवश्यक होता है। किन्तु इन दोनों को नियंत्रित रखने के लिये धर्म की आवश्यकता होती है।
व्यवहारिक जीवन में धर्म का अर्थ है, हमलोग बहुत बड़े कर्मवीर बनेंगे, सबकुछ करेंगे, किन्तु धर्म को भी बनाये रखना होगा। स्वामी विवेकानन्द 'वेदान्त का उद्देश्य ' नामक भाषण में कहते हैं, " पाश्चत्य देशों के जितने भी महान विचारशील व्यक्ति हैं, वे अच्छी तरह समझ गये है कि चाहे जैसी भी राजनितिक या सामाजिक उन्नति क्यों न हो जाये, उससे मनुष्य-जीवन की बुराइयाँ दूर नहीं हो सकतीं। उन्नततर जीवन के लिये आमूल हृदय-परिवर्तन की आवश्यकता है; केवल इसीसे मानव-जीवन का सुधार सम्भव है। चाहे जैसी बड़ी से बड़ी शक्ति का प्रयोग किया जाय, चाहे कड़े से कड़े कायदे-कानून का आविष्कार ही क्यों न किया जाये, पर इससे किसी जाति की दशा बदली नहीं जा सकती। समाज या जाति की असद-प्रवृत्तियों (बैड प्रोपेनसिटी)  को सद्-प्रवृत्तियों की ओर फेरने की शक्ति तो केवल आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति में ही है।
 स्वामीजीने भारतीय लोगों की तीखे शब्दों में निन्दा भी की है। वे कहते हैं, तुमलोग पूरी तरह से तमोगुण द्वारा भर गये हो। तुमलोग माटी के पुतलों के सदृश्य हो। तुमलोगों के इस जड़ शरीर को हिलाडुला कर जगाने के लिये ही मैं धरती पर आया हूँ। मैं तुमलोगों में रजोगुण का संचार करना चाहता हूँ। कहते हैं, तुमलोग रजोगुण के बल पर खड़े हो जाओ। हम सभीलोग रजोगुण के लक्षण के विषय में जानते हैं, रजोगुण से प्रेरित मनुष्य निरंतर कर्म करने में लगा रहता है। इसीलिये कहते हैं, तुमलोगों में रजोगुण का संचार हो। तुमलोग कर्मठ या कर्मतत्पर मनुष्य बनो। नई नई वस्तुओं का निर्माण करो, जीवन में भोग करो, किन्तु यह सब धर्म के द्वारा संचालित होकर करो; किन्तु  यह भी याद रखना कि समस्त भोग करके भी यथार्थ शान्ति नहीं मिलेगी।" इसीलिये आगे बढ़ते रहो -चरैवेति, चरैवेति ! 
[“चरैवेति चरैवेति” (ऐतरेय ब्राह्मण): इंद्र रोहित को बताना चाहते हैं कि सम्मान उसी को मिलता है जो कर्मठ हो, अपने लिए संपदा स्वयं अर्जित करे, दूसरों पर आश्रित न हो । वह स्वयं को अकेला न समझे बल्कि इन्द्र (ईश्वर) पर भरोसा करे । श्रमशीलता को बेइज्जती या दुर्भाग्य का चिह्न न समझा जाय वरन् प्रतिभा-विकास- उपलब्धियों का उपार्जन एवं प्रखरता का परिचायक माना जाय तो ही भौतिक विकास की सम्भावना सुनिश्चित हो सकती है। श्रम का असम्मान परोक्ष रूप से दरिद्रता एवं पिछड़ेपन का आह्वान है। निठल्लेपन के साथ एक दुःखद दुर्भाग्य और जुड़ा रहता है। ‘‘खाली दिमाग शैतान की दुकान’’ की युक्ति चरितार्थ करता है। 
जिनके पास काम नहीं होगा उनका दिमाग दुश्चिन्तन में और शरीर दुर्व्यसनों में निरत होगा। ठाली लोगों में क्रमशः दुर्गुण बढ़ते हैं। समय काटने के लिए वे दोस्तों की तलाश में रहते हैं और जो भी उनके चंगुल में फँस जाता है उसे अपने जैसा बना लेते हैं। नई पीढ़ी की बर्बादी में इन दिनों दोस्तबाजी का एक प्रकार से भयानक दुर्व्यसन बन चला है। आवारा लोगों की चाण्डाल चौकड़ी ही इन दिनों मित्रमण्डली कहलाती है। यह समस्त अभिशाप खाली बैठने के हैं। इस तथ्य को जितनी गम्भीरतापूर्वक समझा जा सके उतना ही  उत्तम है।
ब्राह्मण के उपदेशों से प्रभावित होकर रोहित पुनः देश-प्रदेश में विचरण करने लगा । विचरण का यह सिलसिला चार बार और चलता है । प्रत्येक वर्ष के बाद जब रोहित घर लौटने की सोचता है तो मार्ग में फिर ब्राह्ण रूपधारी इन्द्र मिलते हैं जो पुनः “चरैवेति” की सलाह देते हैं ।
अथ हैक्ष्वाकं वरुणो जग्राह, तस्य होदरं जज्ञे ।
तद् उ ह रोहितः शुश्राव, सो sरण्याद् ग्रामं एयाय ।
तं इन्द्रः पुरुषरूपेण पर्येत्योवाच -

नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति ॥
 
[नित्य जो गतिशील है बस, इन्द्र (ईश्वर) तो है उसी का सखा
इसलिए चलते रहो - चलते रहो … 
He who is always just dynamic, Indra (God) becomes his play mate
Hence- 'चर एव' keep walking, keep walking....
]
 
अर्थ – हे रोहित, परिश्रम से थकने वाले व्यक्ति को भांति-भांति की श्री यानी वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं ऐसा हमने ज्ञानी जनों से सुना है । एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं । विचरण में लगे जन का इन्द्र यानी ईश्वर साथी होता है । अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव) ।
पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हतश्चरैवेति ॥
अर्थ – निरंतर चलने वाले की जंघाएं पुष्पित होती हैं, अर्थात उस वृक्ष की शाखाओं-उपशाखाओं की भांति होती है जिन पर सुगंधित एवं फलीभूत होने वाले फूल लगते हैं, और जिसका शरीर बढ़ते हुए वृक्ष की भांति फलों से पूरित होता है, अर्थात वह भी फलग्रहण करता है । प्रकृष्ट मार्गों पर श्रम के साथ चलते हुए उसके समस्त पाप नष्ट होकर सो जाते हैं, अर्थात निष्प्रभावी हो जाते हैं । अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव) ।
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥

अर्थ – जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है । और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए तुम विचरण ही करते रहो (चर एव) ।
कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाद्यते चरंश्चरैवेति ॥

अर्थ – शयन की अवस्था कलियुग के समान है, जगकर सचेत होना द्वापर के समान है, उठ खड़ा होना त्रेता सदृश है और उद्यम में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग (सत्ययुग) के समान है । अतः तुम चलते ही रहो (चर एव) ।
इस श्लोक में मनुष्य की चार अवस्थाओं की तुलना चार युगों से क्रमशः की गई है । ये अवस्थाएं हैं (1) मनुष्य के निद्रामग्न एवं निष्क्रिय होने की अवस्था, (2) जागृति किंतु  आलस्य में पड़े रहने की अवस्था, (3) आलस्य त्याग उठ खड़ा होकर कार्य के लिए उद्यत होने की अवस्था, और (4) कार्य-संपादन में लगते हुए चलायमान होना । ब्राह्मण रूपी इन्द्र रोहित को समझाते हैं कि जैसे युगों में सत्ययुग उच्चतम कोटि का कहा जाता है वैसे ही उक्त चौथी अवस्था श्रेष्ठतम स्तर की कही जाएगी ।
चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति ॥
अर्थ – इतस्ततः भ्रमण करते हुए मनुष्य को मधु (शहद) प्राप्त होता है, उसे उदुम्बर (गूलर?) सरीखे सुस्वादु फल मिलते हैं । सूर्य की श्रेष्ठता को तो देखो जो विचरणरत रहते हुए आलस्य नहीं करता है । उसी प्रकार तुम भी चलते रहो (चर एव) ।
(with thanks sourced from https://vichaarsankalan.wordpress.com/2015/)]
हमारे देश की बहुत प्राचीन कथा है, राजा ययाति की कहानी को हम सभी लोग जानते हैं। हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ है, रजा भरत के नाम पर। वे उसी राजा भरत के पूर्वज थे। उनका नाम ययाति था। राजा ययाति की कहानी वेदों में है, पुराणों में भी है, विभिन्न धर्मग्रंथों के माध्यम से भी हमलोगों में से अधिकांश उसकी कहानी सुने हैं। वे धर्म को भूल कर केवल अर्थ और काम में डूबे रहते थे। उनकी अवस्था ऐसी होगयी थी कि जीवन में बहुत भोग करने के बाद भी उनको तृप्ति नहीं हुई, उनको शान्ति नहीं मिली। एक बार उन्होंने कोई  बहुत बड़ा दुष्कर्म कर दिया, उससे अभिशप्त होकर बुढ़ापे से ग्रस्त हो गये थे। बुढ़ापा के कारण वे संसार के सामान्य भोग करने में वे असमर्थ हो गये थे। जिस व्यक्ति ने उनको शाप दिया था, उसके पास जाकर वे बहुत अनुनय-विनय करने लगे कि उनको किसी प्रकार इस बुढ़ापे से मुक्ति प्राप्त हो जाय। उन्होंने कहा एक बार जब शाप दे दिया हूँ, तो उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। किन्तु एक उपाय हो सकता है। यदि कोई दूसरा व्यक्ति, या कोई युवा तुम्हारे बुढ़ापे को ले ले, और अपना यौवन तुमको प्रदान करदे, तब तुम फिर से अपनी जवानी को वापस प्राप्त कर सकते हो। वे भला किससे यह बात कह सकते थे ? उन्होंने अपने पुत्र से ही यह बात कही, और उसके यौवन के बदले अपना सम्पूर्ण राज्य देने का वादा किये। उनका सबसे छोटा पुत्र इसके लिये तैयार हो गया। उसने ययाति से उसका बुढ़ापा ग्रहण करके अपना यौवन उसको सौंप दिया। कहा जाता है कि अपने पुत्र के यौवन को लेकर राजा ययाति ने जगत के हर सुख का भोग किया। सबकुछ का भोग करने के बाद भी देखे कि उसमें शान्ति नहीं है। 
काम का उपभोग करके कामना को प्रशमित नहीं किया जा सकता है।
 न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।। 

 काम का उपभोग करते रहने से कामना भी उसी प्रकार क्रमशः बढ़ती जाती है, जिस प्रकार आग में घी डालने से आग क्रमशः और भी बढ़ती जाती है। उसी प्रकार कामना को परिपुष्ट करते रहने से, वह कभी प्रशमित नहीं होती, बढ़ती ही जाती है। इससे कभी शान्ति नहीं मिलती। संसार में जितने भी भोग्य वस्तुयें हैं, जितना भी ऐश्वर्य है, जितनी भी सम्पदा है, वह सब का सब किसी एक ही मनुष्य को दे दिया जाय फिरभी उसको कभी तृप्ति नहीं मिल सकती है। यह जान लेने के बाद अन्त में सभी मनुष्यों कामना-वासना का त्याग करना ही पड़ता है। यही है हमलोगों के देश की शिक्षा
[शिक्षा क्या है ? स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा को पाँच प्रकार से परिभाषित करते हुए कहा है -
 १. एजुकेशन इज दी मेनिफेस्टेशन ऑफ़ दी परफेक्शन ऑलरेडी इन मैन । अर्थात 'शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। '
 २. 'दी ट्रेनिंग'- बाइ  व्हिच दी करेन्ट ऐंड एक्सप्रेशन ऑफ़ विल इस ब्रॉट अंडर कन्ट्रोल ऐंड बिकम फ्रूटफुल इज कॉल्ड एजुकेशन. [मनःसंयोग का] वह प्रशिक्षण जिसके द्वारा इछाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है, और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है।
३. [एजुकेशन] मे बी डिस्क्राइब्ड ऐज अ डेवलपमेन्ट ऑफ़ फैकल्टी (faculty = मन की शक्ति), नॉट ऐन अक्यूम्यलैशन ऑफ़ वर्ड्स, ऑर ऐज अ ट्रेनिंग ऑफ़ इन्डविजूअल्स टु विल राइट्ली ऐंड  इफ्फिशिएंटली। 
मेरे विचार से तो शिक्षा का सार तथ्यों का संग्रहण नहीं, मन को एकाग्र रखने की शक्ति को विकसित करना है। अथवा इसे उस प्रशिक्षण के रूप में वर्णित किया जा सकता है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाशक्ति  से  
विवेक-प्रयोग करके प्रेय (नश्वर) से अनासक्त होकर श्रेय (अविनाशी) में मन को एकाग्र रखने में समर्थ बन जाता है। 
४. रियल एजुकेशन इज दैट व्हिच  इनैबल्स वन टु स्टैन्ड ऑन हिज ओन लेग्स.--जो शिक्षा मनुष्य में चरित्र-बल, परहित भावना तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती, वह भी कोई शिक्षा है ? जिस शिक्षा के द्वारा जीवन में अपने पैरों पर खड़ा हुआ जाता है, वही शिक्षा है।
५. इफ यू हैव असिमलेटेड फाइव आइडियाज ऐंड मेड देम योर लाइफ ऐंड करैक्टर, यू हैव मोर एजुकेशन दैन एनी मैन हू हैज गौट बाइ हर्ट अ होल लाइब्रेरी।-यदि तुम पाँच ही भावों को हजम कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो, तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरी की पूरी लाइब्रेरी ही कण्ठस्थ कर ली है। ] 
इसीलिये हमलोगों के व्यावहारिक जीवन में धर्म का क्या स्थान है- इसे भली भाँति समझ लेना आवश्यक है। धर्म की सहयता लिये बिना यदि हमलोग भोग के जीवन, अर्थ उपार्जन और व्यबहार के जीवन को जीते रहें, तो हमलोगों का जीवन अन्तिम अवस्था में अशान्ति से भर जायेगा। हममें से अधिकांश लोगो के जीवन में यही हो रहा है। जीवन में धन-दौलत का अम्बार खड़ा कर लिये, गाड़ी-जमीन-मकान-दुकान, रुपया-पैसा बहुत कम लिये। किन्तु अन्तिम अवस्थामे जीवन में घोर अशान्ति छा गयी। पेट फुल गया, बदहजमी का शिकार बन गये, ब्लडप्रेशर,सुगर इत्यादि रोग पकड़ लिया, और लड़के-बच्चों में धन-दौलत को लेकर झगड़ा और केस-मुकदमा चलने लगा। कुछ खा नहीं सकते हैं, ठीक से चल नहीं पाते हैं, रात में नीन्द नहीं आती है। किन्तु धन के घड़ियाल हैं। घर में हर प्रकार की भोग-सामग्री है, किन्तु शान्ति नहीं है, कुछ भी नहीं है। उसी टेन्टलस के नरक जैसी अवस्था है। गले तक जल में ही डूबा हुआ हूँ, किन्तु एक बून्द जल मुख में डालने का उपाय नहीं है। तृष्णा से छाती फटी जा रही है, किन्तु किन्तु उसको मिटाने के लिये, एक बून्द जल ग्रहण करने का उपाय नहीं है। चारो और भोग की वस्तुएं बिखरी पड़ी हैं, देख-देख कर ललचा रहे हैं, किन्तु भोग करने की हिम्मत नहीं है, फिर भोग की इच्छा बनी हुई है, शान्ति नहीं मिलती है। इसीलिये जीवन के प्रारंभ में ही धर्म (अर्थात स्वधर्म ?) क्या है, इसे ठीक से समझकर जीवन के समस्त कार्यों में उसका ही सहारा लेकर चलना हमलोगों का कर्तव्य है। 
================= 
स्वामी विवेकानन्द के दुनियावी  विचार 
(The Secular Outlook of Swami Vivekananda)  
धर्म-प्राण भारतवर्ष को स्वामी विवेकानन्द लौकिक दृष्टि से भी आसमान की किस बुलन्दी तक ऊँचा उठाना चाहते थे, तथा इसके संबन्ध में उनकी क्या योजनाएं थी -यहाँ हमलोग इसी विषय पर चर्चा करेंगे। आइये सबसे पहले हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि स्वामीजी ने भारत के संबन्ध में किन लौकिक विचारों को अपनाने का प्रस्ताव किया था ? वे निवृत्ति -मार्ग के आदर्श को भारत की आम जनता के ऊपर,अनिवार्य रूप से थोप देने के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने भारत के आम जनों को अपना-अपना स्वधर्म पालन करने का परामर्श दिया थाअर्थात उनका स्वभाव (प्रकृति या प्रवृत्ति) जीवन के चार पुरुषार्थों में से जिस पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिये अधिक अनुप्रेरित करती हो, जीवन के उसी उद्देश्य को धर्म का आश्रय लेकर प्राप्त करने का सुझाव दिया था।
प्राच्य और पाश्चात्य में सामंजस्य पर स्वामीजी का प्रस्ताव है - " भारत में धर्म और मोक्ष का सामंजस्य करना होगा, यहाँ पहले मोक्षाकांक्षी व्यास, शुक तथा सनकादिक के साथ धर्म के उपासक युधिष्ठिर, अर्जुन, दुर्योधन, भीष्म और कर्ण भी वर्तमान थे। बुद्ध के बाद धर्म की बिल्कुल उपेक्षा हुई तथा केवल मोक्षमार्ग ही प्रधान बन गया। ... भोग न होने से त्याग नहीं होता, पहले भोग करो, तब त्याग होगा। बौद्ध कहते हैं -'मोक्ष से बढ़कर और क्या है, देश के सभी लोगों को मोक्ष प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये। मैं पूछता हूँ, क्या यह सम्भव है ? 
 तुम गृहस्थ अर्थात (प्रवृत्ति -मार्गी) हो, तुम्हारे लिये वे सब बातें बहुत आवश्यक नहीं हैं, तुम अपने धर्म का आचरण करो,हमारे शास्त्र यही कहते हैं। एक हाथ भी नहीं लाँघ सकते, तो समुद्र लाँघ कर लंका कैसे पहुँचोगे ? दो मनुष्यों के साथ राय मिलाकर एक जनहित का काम तो कर नहीं सकते, पर मोक्ष लेने दौड़ पड़ते हो ? हिन्दू शास्त्र कहते हैं, कि धर्म की अपेक्षा मोक्ष अवश्य ही बहुत बड़ा है, किन्तु पहले धर्म करना होगा। अहिंसा ठीक है, निश्चय ही बड़ी बात है; कहने-सुनने में अच्छी लगती है, पर शास्त्र कहते हैं, तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे गाल पर यदि कोई थप्पड़ मारे, और यदि उसका जवाब तुम १० थप्पड़ों से न दो, तो तुम पाप करते हो। वीरभोग्या वसुन्धरा -वीर्य प्रकाशित करो, साम -दाम-दण्ड -भेद (कन्सिलीऐशन-ब्राइबरी-डिसेन्शन (फूट)-ओपेन वार) की नीति को प्रकाशित करो, पृथ्वी का भोग करो, तब तुम धार्मिक होगे। अन्याय मत करो, अत्याचार मत करो, यथासाध्य परोपकार करो। किन्तु गृहस्थ के लिये अन्याय सहना पाप है, उसी समय उसका बदला चुकाने की चेष्टा करनी होगी। बड़े उत्साह के साथ अर्थोपार्जन कर स्त्री तथा परिवार के दस प्राणियों का पालन करना होगा, दस जन-हितकारी कार्यों में योगदान करना होगा। ऐसा न कर सकने पर तुम मनुष्य किस बात के ? जब तुम सही गृहस्थ ही न बन सके, फिर तो मोक्ष की बात ही क्या ? " (१०/५१-५२ ) प्रिय नाथ सिन्हा के साथ वार्तालाप में कहते हैं - " जिस देश के लोगों के मन से भोग की कोई वासना ही नहीं मिटी, उन्हें निवृत्ति होगी कहाँ से ? इसलिए पहले मनुष्य जिससे पेटभर खाना पा सके और कुछ भोग-विलास कर सके, उसीका उपाय करो; तब धीरे धीरे यथार्थ वैराग्य आने पर धर्म-लाभ हो सकेगा। इंग्लैण्ड और अमेरिका के लोग पूर्ण रजोगुणी हैं, संसार के सभी प्रकार के भोगों को भोग चुके हैं।" ८/२५२ 
यहाँ स्वामीजी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि किसी (आर्थिक और मानसिक रूप से) गरीब और दुर्बल मनुष्य के लिये सर्वोच्च आध्यात्मिक और नीतिपरक सिद्धान्तों और नियमों का उपयोग नहीं है।  इस का क्या अर्थ हुआ ? इसका तात्पर्य यह हुआ कि, यह साधारण -मान्यता है कि भौतिक समृद्धि प्राप्त करने में उच्च नैतिक सिद्धान्तों का अनुपालन कर पाना सदैव सम्भव नहीं होता, यदा-कदा दुनियावी ज्ञान या लोक व्यवहार का ज्ञान (Worldly-Wisdom) अर्थात साम -दाम-दण्ड -भेद [कन्सिलीऐशन-ब्राइबरी-डिसेन्शन (फूट) - ओपेन वार] आदि का सहारा भी लेना पड़ता है। (ठाकुर श्रीरामकृष्ण देव कहते थे - " सत्य बोलना कलियुग की तपस्या है !)  
इन खामियों के बावजूद साधारण जनता को इसके लिये प्रयास करना चाहिये। सतही तौर से देखने पर यह एक खतरनाक सिद्धान्त लग सकता है। फिर भी इसका औचित्य खोजने की जरूरत नहीं। हमारे शास्त्रों में बार बार यह स्पष्ट किया गया है कि यदि कोई व्यक्ति अभी इसके लिये आंतरिक रूप से तैयार नहीं हुआ हो, तो उसके लिये उच्च नैतिक सिद्धांतों का मात्र औपचारिक पालन करना अधिक लाभदायक तो नहीं ही होगा, उल्टे उसके लिये अधिक क्षतिकर भी हो सकता है। किसी व्यक्ति की पात्रता या क्षमता के अनुरूप ही उसके लिये सम्भव उच्च नैतिक सिद्धान्तों का निर्धारण करना उचित होगायदि किसी व्यक्ति में उच्च नैतिक सिद्धान्तों का अनुपालन करने की क्षमता ही नहीं हो, तो उसके लिये वैसे सिद्धान्तों का पालन करने को अनिवार्य बना देना उचित नहीं होता । यह हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। 
इसके  आलावा ऐसी धारणा बना लेना बिल्कुल गलत है कि भारत में सबों के लिए सदा से सादगी पूर्ण जीवन जीने की परम्परा रही हैयदि हम अपने प्राचीन साहित्य को देखें और उस पर विश्वास कर सकें , तो वहाँ हम पाते हैं कि हमारे पूर्वज विलासिता की ऊंचाई तक आनंद लिया करते थे। इस तथ्य के समर्थन में कितने ही प्रमाण दिये जा सकते हैं। फिर भारत को वर्तमान युग में अपने उस आदर्श का त्याग क्यों करना चाहिये? कुछ लोग कहते हैं कि सादा जीवन और उच्च विचार भारत का आदर्श होना चाहिए। किन्तु स्वामीजी ने कहा है कि ऐसी मान्यता के लिये केवल इस्लामी शासन ही उत्तरदायी है। भारत की आम-जनता को भौतिक जीवन में सादगी के तथाकथित प्राचीन आदर्श का पालन नहीं करना चाहिये स्वामीजी निश्चित रूप से भारत की घोर दरिद्रता को जारी रखने के पक्षधर नहीं थे। भौतिक सभ्यता की समृद्धि को हमारे कोशने और बुरा-भला कहने पर स्वामी जी ने हम लोगों का उपहास उड़ाते हुआ कहा है -'क्यों जी , अंगूर खट्टे हैं न?' वे कहते हैं साधारण जनता को आनन्द का भरपूर उपभोग करना चाहिये। हम सोचते हैं , नहीं बल्कि यह विश्वास करते हैं कि ऐसा कहकर भी हमलोग स्वामी विवेकानन्द का ही अनुसरण कर रहे हैं 
उदाहरण के लिये  १८ नवंबर, १८९४ को  न्यूयॉर्क से आलासिंगा  पेरूमल को लिखे पत्र को देखें, वहां वे कहते हैं - " हम मूर्खों की तरह भौतिक सभ्यता की निन्दा किया करते हैं। अंगूर खट्टे हैं न ! उस मुर्खोचित बात को यदि स्वीकार भी कर लिया जाय, तो भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में (जनसंख्या ३० करोड़ में ) केवल एक लाख नर -नारी ही यथार्थ रूप से धार्मिक हो सकते हैं। क्या केवल इन मुट्ठीभर लोगों की धार्मिक उन्नति के लिये भारत के तीस करोड़ अधिवासियों को बर्बर का सा जीवन व्यतीत करना और भूखों मरना होगा ? क्यों कोई भूखों मरे ? मुसलमानो के लिए हिन्दुओं को जीत सकना कैसे सम्भव हुआ ? यह हिन्दुओं के भौतिक सभ्यता का निरादर करने के कारण ही हुआ। भौतिक सभ्यता की तो बात क्या, यहाँ तक कि विलासमयता (लग्जरी) की भी जरूरत होती है -क्योंकि उससे गरीबों को काम मिलता है। " ३/ ३३४
इस विषय पर उनकी एक स्पष्ट सलाह है जो उन्होंने वर्ष १८९८ में शिष्य के माध्यम से २९ वें वार्ता में दी थी, - " कर्म करने से चित्तशुद्धि होती है, जब कर्म करके उसे शान्ति प्राप्त नहीं होती, तभी साधक कर्म-त्यागी बनता है। अपने लिये, अपने देह-मन के लिये कर्म न करना ही कर्मफल का त्याग है। एक बार जब मन आत्मा में लीन होकर वृत्तिविहीन बन जाता है, उस समय इहामुत्रफलभोगविराग उत्पन्न होता है, अर्थात संसार में अथवा मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग आदि में किसी प्रकार का सुखभोग करने की आकांक्षा नहीं रहती व्युत्थान काल में जब मन पुनः 'मैं-मेरा' के राज्य में आ जाता है, उस समय पूर्वकृत कर्म या अभ्यास या प्रारब्ध से उत्पन्न संस्कार के अनुसार देह आदि का कर्म चलता रहता है। 
पाश्चात्य देशों में घूमकर पहले एकबार देख आ, उनका जीवन कितना उद्यमशील है, उनमें कितनी कर्म- तत्परता है, कितना उमंग और उत्साह है ! रजोगुण का कितना विकास है। तुम्हारे देश के लोगों के देह में शक्ति नहीं, हृदय में उत्साह नहीं, मस्तिष्क में प्रतिभा नहीं। क्या होगा रे इन जड़ पिण्डों से ? इसीलिये मैं रजोगुण की वृद्धि कर कर्म-तत्परता के द्वारा इस देश के लोगों को पहले इहलौकिक जीवन संग्राम के लिये समर्थ बनना चाहता हूँ । जा, गाँव-गाँव में , प्रान्त-प्रान्त में सभी को पकड़ पकड़ क्र सुना -'तुमलोग अमित वीर्यवान हो- अमृत के अधिकारी हो। ' इसी प्रकार पहले (१९७१ से १९८७), रजःशक्ति की उद्दीपन कर, जीवन-संग्राम के लिये सब को कार्यक्षम बना इसके पश्चात उन्हें परजन्म में ( व्युत्थान -१९९२ के बाद अंतिम साँस तक) मुक्ति प्राप्त करने की बात सुना। पहले भीतर की शक्ति को जागृत करके देश के लोगों को अपने पैरों पर खड़ा कर , अच्छे भोजन-वस्त्र तथा उत्तम भोग आदि करना वे पहले सीखेंइसके बाद उन्हें उपाय बता दे कि किस प्रकार सब प्रकार के भोग-बन्धनों से वे मुक्त हो सकेंगे। " ६/१५३-१५५

वार्ता १९ में स्वामीजी कहते हैं, " नौकरी ही करते रहने से क्या होगा ? कोई व्यापार क्यों नहीं करते ? नौकरी में, गुलामी में, इतना दुःख देखकर भी तुम लोग सचेत नहीं हो रहे हो ? उस देश में मैंने देखा जो लोग नौकरी करते हैं, उनका स्थान लोक-सभा में बहुत पीछे होता है। पर जो लोग प्रयत्न करके विद्या-बुद्धि द्वारा स्वनामधन्य हो गए हैं, उनके बैठने के लिये सामने की सीटें रहती हैं। तुममें एक सुई तक तैयार करने की योग्यता नहीं है और तुम्हीं लोग अंग्रेजों के गुण-दोषों की आलोचना करने को उद्यत होते हो ? मुर्ख ! जा, उनके पैरों पड़ ; जीवन-संग्राम के उपयुक्त विद्या, शिल्पविज्ञान और क्रियाशीलता सीख, तभी तू योग्य बनेगा और तभी लोगों का सम्मान होगा। " ६/ १०५  
" यदि मुझे कुछ अविवाहित ग्रेजुएट मिल जायें, तो मैं उन्हें जापान भेजकर यांत्रिक शिक्षा दिलाने का प्रबन्ध कर दूँगा, जिससे कि जब वे स्वदेश लौटें , तो अपने ज्ञान से भारत का कुछ हित कर सकें। कितना अच्छा होगा ! " 
" जापान में तुम पाओगे कि उन्होंने दूसरों से जो सीखा है, उसे आत्मसात कर अपना बना लिया है, पचा लिया है। हमने जो विदेशियों से सीखा, उसे हम पचा नहीं पाये। उन्होंने यूरोपवासियों की हर चीज ग्रहण की, पर वे जापानी ही बने रहे, यूरोपीय नहीं बने; पर हमारे यहाँ तो पाश्चात्य ढंग से रहने का एक संक्रामक रोग पैदा हो गया है। " [वार्ता प्रिय नाथ सिन्हा -८/२३४] भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव नामक भाषण में स्वामीजी कहते हैं, " शारीरिक दुर्बलता कम से कम हमारे एक तिहाई दुःखों का कारण है। हम आलसी हैं, हम कार्य नहीं कर सकते, हम पारस्परिक एकता स्थापित नहीं कर सकते,हम एक दूसरे से प्रेम नहीं कर सकते, हम बड़े स्वार्थी हैं , हम तीन मनुष्य एकत्र होते ही एक दूसरे से घृणा करते हैं, ईर्ष्या करते हैं। हम अनेक ऊँची कल्पनायें तो करते हैं, किन्तु उन्हें धरातल पर उतारने के लिये कठोर परिश्रम नहीं करते। तोते के समान केवल बातें करना हमारी आदत हो गई है, आचरण में हम बहुत पिछड़े हुए हैं। इसका कारण क्या है ? शारीरिक दौर्बल्य। दुर्बल मस्तिष्क कुछ नहीं कर  सकता, हमको पहले मनःसंयोग के अभ्यास से अपने मस्तिष्क को बलवान बनाना होगा। प्रथम तो हमारे युवको को बलवान बनना होगा। धर्म पीछे आयेगा। हे मेरे युवक बन्धु, तुम बलवान बनो -यही तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है। गीता-पाठ करने की अपेक्षा तुम्हें फुटबॉल खेलने से स्वर्ग-सुख अधिक सुलभ होगा। बलवान शरीर और मजबूत पुट्ठों से तुम गीता को अधिक समझ सकोगे। शरीर में ताजा रक्त होने से तुम कृष्ण की महती प्रतिभा और महान तेजस्विता को अच्छी तरह समझ सकोगे। जिस समय तुम्हारा शरीर तुम्हारे पैरों पर दृढ़ भाव से खड़ा होगा , जब तुम अपने को मनुष्य समझोगे, तब तुम उपनिषद और आत्मा की महिमा को भली-भाँति समझोगे" ५/१३७ 
युवाओं का सर्वोच्च धर्म यही है - हमें सदा स्मरण रखना चाहिये कि हमारा उद्देश्य मनुष्य को जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में (डायनामिक  गुडनेस की दिशा ) अग्रसर होने के लिये अनुप्रेरित करना है, केवल उसे औपचारिक रूप से नैतिक - बना देना (स्टैटिक  गुडनेस) नहीं है। यदि हम युवाओं की सहायता करना चाहते हों, तो उन्हें उनकी स्वाभाविक आन्तरिक प्रकृति (प्रवृत्तियों) को, चाहे वे कितनी भी निम्न क्यों न हों, (उसे स्वधर्म की मर्यादा में रखते हुए) को जीवन और व्यवहार में पर्याप्त मात्रा में व्यक्त करने की अनुमति देनी चाहिये। अन्यथा उसकी स्वाभाविक प्रगति अवरुद्ध हो जायेगी। 
यदि चार पुरुषार्थों में से पुरुषार्थ के उच्चतम आदर्श 'मोक्ष' को मापदण्ड बनाकर से विभिन्न व्यक्तियों की पात्रता के अनुरुप आदर्शों की श्रेणी का निर्धारण करने की चेष्टा की जाय, तो अधिकांश लोगों का आदर्श निस्सन्देह बहुत अवांछनीय या आपत्तिजनक प्रतीत होगा। अतः एक सामान्य गृहस्थ हमेशा जैसा जीवन जीने का इक्षुक होता है, उसे उसकी भौतिक समृद्धि के स्तर के अनुरुप समृद्धि प्राप्त करने में सहायता करनी चाहिये। हमे सदा यह स्मरण रखना चाहिये कि समृद्धि का मापदण्ड, सदा सापेक्षिक ही होता है।    
अब स्वामीजी के दूसरे दृष्टिकोण - इस भौतिक समृद्धि को प्राप्त करने के उपायों पर चर्चा करेंगे -
 प्रिय नाथ सिन्हा से वार्ता में कहते हैं - " यह ज्यादा अच्छा होगा कि उच्च शिक्षा प्राप्त कर नौकरी के लिये दफ्तरों की खाक छानने के बजाय लोग थोड़ी सी 'टेक्निकल एजुकेशन' प्राप्त करें जिससे काम-धंधे से लगकर अपना पेट तो पाल सकेंगे। हमें उद्योग-धंधों की उन्नति के लिये यांत्रिक शिक्षा भी प्राप्त करनी होगी, जिससे देश के युवक नौकरी ढूँढ़ने के बजाय स्व-रोजगार के लिये समुचित धनोपार्जन भी कर सकें, और दुर्दिन के लिये कुछ बचा भी सकें। " (८/२३० -३१)
स्व-रोजगार प्रारम्भ करना चाहें तो उसके दो तरीके हैं, एक है लघु उद्योगों का प्राचीन तरीका और दूसरा है लार्ज-स्केल प्रोडक्शन की आधुनिक विधि। स्वामी विवेकानन्द इन दोनों साधनों के बारे में क्या कहना है? वे भारत के लिये लघु उद्द्योग द्वारा छोटे पैमाने पर उत्पादन करने की नीति बनने के पक्ष में अधिक थे, या आधुनिक औद्योगिक टेक्नोलॉजी के माध्यम से लार्ज-स्केल प्रोडक्शन की नीति के पक्ष में थे ? भारत में आधुनिक विकास के प्रति उनके दृष्टिकोण को सिस्टर निवेदिता ने अपनी पुस्तक 'दी मास्टर ऐज आई सी हिम ' में बड़ी स्पष्टता के साथ दर्शाया है।  
एक दिन भगिनी निवेदिता कुछ अन्य लोगों के साथ कलकत्ता से कुछ ही मिल दूर , गंगा के किनारे एक मंदिर परिसर में स्थित, 'गोपाल की माँ ' (श्री रामकृष्ण की एक महिला शिष्या जो स्वयं भी एक महान संत थीं ) के एक छोटे से कमरे में उनसे मिलने गई थीं। वहाँ से लौटने पर अपनी यात्रा के बारे में स्वामी विवेकानन्द से उल्लेख करते हुए कहा था - " हमारी इस भाग-दौड़ की व्यस्त जिंदगी के बीच, 'गोपाल की माँ ' के उस छोटे से कमरे में शांति की उस तीव्र स्तब्धता का जैसा अनुभव हमें हुआ वह तो बिल्कुल एक खुली आँख के सपने जैसा था ! " स्वामी विवेकानन्द बोले , " आह ! जिस प्राचीन भारत को तुमने अपनी आँखों से देखा है, प्रार्थना और आँसु, निरंतर जागृति और उपवास का वह भारत, हमारी दृष्टि से सदा के लिए, फिर कभी न लौटने के लिये ओझल होने जा रहा है। 
भारत जिस परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था,और जिस महान रूप से उभर कर पुनः हमारे सामने खड़ा हो जाएगा , उसके संबन्ध में स्वामी विवेकानन्द निश्चित रूप से  पूरी तरह से अवगत थे; और वे चाहते थे कि हम सभी लोग उसके लिए तैयार हो जाएँ। वे इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि आर्थिक और औद्योगिक जीवन में आधुनिकता को अब और अधिक दिनों तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। वे चाहते थे कि औद्योगिक पुनर्गठन के मामले में भारत को पश्चिम का अनुसरण करना चाहिये। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " हमें संगठन की शक्ति को यूरोप से सीखना चाहिए।"
मदुरा अभिनन्दन में कहते हैं " जिस तरह 'संघबद्ध होकर' संघ स्थापना के माध्यम से कार्य करने की पश्चिमी कार्यप्रणाली और बाहरी सभ्यता के भाव हमारे देश की नस नस में समा रहे हैं, चाहे हम उन्हें ग्रहण करें या न करें, उसी तरह भारत की आध्यात्मिकता और दर्शन पाश्चात्य देशों को प्लावित कर रहे हैं। इस गति को कोई रोक नहीं सकता, और हम भी पश्चिम की किसी न किसी प्रकार की भौतिकवादी सभ्यता का पूर्णतः प्रतिरोध नहीं कर सकते। " ५/६८

बंगला में लिखित एक डायरी (जो अभी तक अप्रकाशित है ?) में, स्वामी विवेकानन्द भारत के लिए अपने कार्य की योजना बताते हुए कहते हैं:" मध्य भारत में (वर्तमान झारखण्ड राज्य में), हजारीबाग और इस तरह के अन्य जिलों (कोडरमा? आदि) के पास अभी तक उपजाऊ, अच्छी तरह से सिँचाइ करने की सुविधा के साथ युक्त स्वस्थ भूमि है, जिसे बिना अधिक कठिनाई के अर्जित भी किया जा सकता हैहमें उस क्षेत्र में जमीन के एक बड़े भूखण्ड को अर्जित कर, उसे सुरक्षित कर लेना होगा और उस पर हमलोग एक बड़ा टेक्निकल स्कूल (गौतम बुद्धा आई.टीआई तकनीकी स्कूल) का निर्माण करेंगे, फिर क्रमशः टेक्निकल वर्कशॉप आदि निर्मित होते चले जायेंगे , इन कार्यशालाओं आदि में प्लम्बिंग, इलेट्रिकल फिटिंग आदि टेक्निकल स्किल सीख कर युवा अपना स्वयं का रोजगार लगा सकेंगे ... "
हमारा मानना है कि उपरोक्त दोनों कोटेशन निर्णायक हैं। इसलिए हमारा यह अंतिम निष्कर्ष है कि स्वामी विवेकानन्द यह चाहते थे कि भारतीयों को पश्चिमी औद्योगिक तरीके सीख कर, अपनी स्थिति और आवश्यकता (डिफेन्स और एग्रीकल्चर आदि क्षेत्रों में) के अनुसार भारत में ही बड़े बड़े उद्द्योग -धंधे स्थापित करने चाहिए!  
" क्या हमने कोई नया पन्थ चलाया है ? क्या हम (कट्टर) रामकृष्णपन्थी हैं ? जो, उन सबको अपना दुश्मन समझने लगें जो उनको नहीं पूजते ? यदि तुम्हारे प्रभु स्वयं भगवान ही हैं, तो तुम्हें ऐसा समझना चाहिये कि कोई किसी भी नाम से उन्हें क्यों न पुकारे, वह उनकी ही अर्चना करता है। "  और दूसरों को (प्रभु की सन्तानों को ) अपशब्द कहने वाले तुम कौन हो ? दूसरों का हृदय तुम तभी जीत पाओगे, जब तुम उनके लिए अपना बलिदान कदोगे; नहीं तो वे तुम्हारी बात क्यों सुनेंगे ? 
मित्र, क्या कोई जब तक स्वयं वीर न हो, ईश्वर के प्रति विश्वास और आत्मसमर्पण कैसे कर सकता है ? मनुष्य जब तक वीर और महान नहीं बनता, तब तक उसके हृदय का द्वेष और ईर्ष्या कैसे मिट सकती है ? और जब तक हृदय में द्वेष और ईर्ष्या है, तब तक कोई यथार्थ में सभ्य कैसे बन सकता है ? इस देश में वह कठोर पौरुष , वह वीरत्व और महानता की भावना ही कहाँ है ? कहीं भी नहीं ! मेरी ऑंखें उसे ढूँढ़ती रहती हैं- और अब तक मुझे उसका एक (-?) केवल एक ही उदाहरण दिख पाया । " 
[वार्ता: प्रिय नाथ सिन्हा ८/ २४४-४५ ]
  
[* https://en.wikisource.org/wiki/स्रोत को धन्यवाद से  साथ:Prabuddha Bharata / नवंबर 1930 / स्वामी विवेकानंद के आर्थिक विचार। (- स्वामी अशोकानन्द, संपादक / प्रबुद्ध भारत )]

================================ 
१८९३ की वह समुद्री-यात्रा जिसने भारत के भाग्य को बदल दिया ! 
यह एक ऐसी समुद्री-यात्रा थी जिसने कई मायनों में भारत के भाग्य को प्रभावित किया है। यदि इस यात्रा के व्यावहारिक पक्ष (सेक्युलर) पर विचार करें, तो इसी यात्रा ने इंडियन स्टील इंडस्ट्री (भारतीय इस्पात उद्योग) की स्थापना की है।  इसे गतिशील बनाए रखा है, कि आज टाटा स्टील और आर्सेलर मित्तल जैसे भारतीय उद्योगपतियों के नेतृत्व में भारत दुनिया भर के अग्रणी इस्पात निर्माता देशों में एक प्रमुख देश माना जाता है। और यदि इस यात्रा के आध्यात्मिक पक्ष (सैक्रेड) पर विचार करें,तो इसी यात्रा के माध्यम से भारत ने (बुद्ध के बाद) पहली बार अमेरिका तथा अन्य पाश्चात्य देशों को वेदान्त के सिद्धान्तों का निर्यात किया है
सन १८९३ में स्वामी विवेकानंद की मुलाक़ात जहाज यात्रा के दौरान जमशेद जी नौसेर्वान जी टाटा से हुईयह जहाज जापान से अमेरिका जा रहा था।  मोक्ष और धर्म भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के दोनों महान दिग्गजों में से एक इंडियन स्पिरिचुअलिटी (वेदान्त) का निर्यात करने जा रहे थे, तो दूसरे उन्हीं के परामर्श पर आगे चलकर 'स्टील इंडस्ट्री टेक्नोलॉजी' का आयात करने जा रहे थेदोनों अपने अपने तरीकों से अतीत के भारत को, भविष्य के भारत के साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें इस बात का पूरा एहसास भी था, कि आने वाली सदियों में उनके कार्य और प्रयासों से लाखों लोगों के जीवन में परिवर्तन आएगा
स्वामी जी ने टाटा को परामर्श दिया – तुम जापान से माचिस का आयात क्यों करते हो ? यदि आप इसका उत्पादन भारत में ही करोगे तो आपको भी ज्यादा लाभ होगा और अन्य लोगों को रोजगार भी मिलेगा, साथ ही देश का पैसा भी देश में ही रहेगा स्वामी जी के विचारों के अनुरूप चलते हुए ही आगे चलकर टाटा ने जमशेदपुर स्टील प्लांट की आधारशिला रखी।  जमशेद जी ने अपनी संपत्ति का एक भाग विज्ञान संस्थान आरम्भ करने के लिए दिया, जो आज बेंगलोर में इन्डियन इंस्टीटयूट ऑफ़ टेक्नोलोजी के नाम से प्रख्यात है। 
इस संस्थान को खोलने के पहले उन्होंने जापान से शिकागो जाने की अपनी यात्रा को याद करते हुए,१८९३ में स्वामी विवेकानन्द को एक पत्र लिखा था, और उनसे ' इंडियन रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस' का लीडरशिप ( डिरेक्टर का पद ) ग्रहण करने का अनुरोध किया था।  इस पूरे घटनाक्रम का वर्णन भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने बहुत अर्थपूर्ण शब्दों में इस  प्रकार किया है -
" स्वामी विवेकानन्द ने जमशेदजी टाटा को अपने उद्देश्य में सफल होने का आशीर्वाद दिया,और  सुझाव दिया कि 'स्टील टेक्नोलॉजी' के दो घटक हैं- एक है 'स्टील विज्ञान' और दूसरा है 'मैन्युफैक्चरिंग टेक्नोलॉजी' (निर्माण प्रौद्योगिकी)। आप अपने देश में 'स्टील टेक्नोलॉजी' को ले आइये, आप अपने देश में इस बिज्ञान को स्थापित कीजिये
जमशेदजी के दिमाग में इस विचार पर मंथन चलने लगा, और वे एक निर्णय पर पहुँच गए। पहले जमशेदजी  'स्टील टेक्नोलॉजी' लाने के लिये लंदन गए और स्टील प्लान्ट टेक्नोलॉजी को हस्तांतरित करने का अनुरोध किया। किन्तु ब्रिटेन के स्टील निर्माताओं ने जमशेदजी को देखा और कहा कि अगर भारतीय लोग स्टील बनाने लगेंगे,अंग्रेज उसे खा जायेंगेजमशेदजी अटलांटिक महासागर को पार करके, अमेरिका गए और  वहाँ से और इस्पात विनिर्माण प्रौद्योगिकी को भारत में लाये। इस प्रकार जमशेदपुर में टाटा स्टील स्थापित हो गया। उन्होंने भारत में इस्पात संयंत्र की बुनियाद रखी और उस क्षेत्र में वरीयता भी प्राप्त कर ली आज जमशेदजी वहाँ नहीं है, लेकिन सालाना लाख टन स्टील का उत्पादन हो रहा है। दूरदर्शी जमशेदजी ने एक विज्ञान शोध संस्थान भी प्रारम्भ किया जिसे आज बंगलौर भारतीय विज्ञान संस्थान के रूप में जाना जाता है।
इस घटना से हमें यह सन्देश मिलता है कि - सपने देखने से दूरदर्शिता की शक्ति प्राप्त होती है, और दूरदर्शिता के बल पर हमलोग सटीक योजना बना लेते हैं, फिर योजना को क्रियान्वित कर लिया जाता है जमशेदजी ने देश में दो अति महत्वपूर्ण संस्थानों की स्थापना की, एक तो है 'टाटा स्टील प्लान्ट' और दूसरी संस्था है 'साइंस रिसर्च इन्स्टिट्यूट'। अतः प्रत्येक मनुष्य का धर्म है- 'सपने देखना', और अपने जीवन के लक्ष्य को निर्धारित कर लेना, फिर उस लक्ष्य पर डटे रहना। अर्थात अध्यवसाय पूर्वक कठोर परिश्रम  निरंतर प्रयत्न (विष-प्राप्ति या रत्न-प्राप्ति में न फंस कर) सफलता (अमृत) को अर्जित कर लेना!  " हेन्स हैव ए गोल, पर्सिव्हियर;  एण्ड वर्क हार्ड टू सक्सीड ! "  
[शिद्द्त से कर्म करें और मन में हो विश्वास -तो सपने अवश्य सच होते हैं !] स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से आई.आई.एस.सी (IISc) का जन्म भी पहले जमशेदजी के मन में हुआ; जो आज एक अग्रणी 'वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान' के रूप में पोस्ट ग्रेजुएट एजुकेशन (स्नातकोत्तर शिक्षा) प्रदान कर रहा हैभारत के पास अपना एक ' वैज्ञानिक अनुसन्धान संसथान ' होने के जिस सपने को स्वामी विवेकानन्द ने देखा था, वह आज देश के सर्वोच्च R&D - शोध और विकास के मटेरियल साइंस लैब में से एक है, जो उद्योगों के विकास और विभिन्न सामग्रीयों के उत्पादन के लिए श्रेष्ठतम शोध परिणाम उपलब्ध करवा रहा है। 
इसके अलावा भौतिकी, एयरोस्पेस टेक्नॉलजी, नॉलेज इंजीनियरिंग , बायो टेक्नोलॉजी, बायो साइंस के विभिन्न क्षेत्रों में भी भारतीय विज्ञान संस्थान ( IISc)  एक विश्व स्तरीय संस्था है। इस शोध संसथान में जैव-प्रौद्योगिकी के साथ इन्फॉर्मैशन टेक्नॉलजी और नानो-टेक्नॉलजी (अतिसूक्ष्म प्रौद्योगिकी) के सम्मिलन पर भी नये नये शोध-कार्य चल रहे हैंइसके शोध परिणामों का सोलर-सेल (सौर्य विद्युत पैदा करने का उपकरण) विशेष तौर से बेहोशी की दवा वाले ड्रग में विष की मात्रा निर्धारित करने पर, हेल्थ केयर के क्षेत्र में जबरदस्त प्रभाव देखने को मिल सकता है। इस संसथान ने देश के अंतरिक्ष कार्यक्रमों, रक्षा कार्यक्रमों के आलावा और भी कई सामाजिक मिशन आदि क्षेत्रों में अनुसन्धान एवं विकास में महती भूमिका निभाई हैजमशेदजी टाटा द्वारा २३ नवम्बर १८९८ को स्वामी विवेकानन्द को लिखित पत्र का हिन्दी भावानुवाद
प्रिय स्वामी विवेकानन्द, 
मुझे विश्वास है कि जापान से शिकागो की समुद्री-यात्रा के दौरान आप अपने सह-यात्री को भूले नहीं होंगे | मुझे आज भी भारत की तपोभूमि पर विकसित ['बहुजन हिताय बहुजन सुखाय ' की] भावना को नष्ट किये बिना अपनी उद्यमशीलता और पुरुषार्थ को सही दिशा देने वाले आपके विचार याद हैं
मैंने 'रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस फॉर इंडिया ' (भारतीय विज्ञान शोध संस्थान) में इसी विचारधारा को समावेशित किया है, जिसके बारे में आपने जरूर पढ़ा या सुना होगा   
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि भारत की तपो भूमि पर मठों और आश्रमों में विकसित इस भावना -'सर्वं खलु इदं ब्रह्म' से अभिभूत पुरुषों के लिए, तथा उनके द्वारा इस भावना के बेहतर प्रयोग के लिए,  'रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस फॉर इंडिया ' के प्रांगण में जीवन यापन करने से अच्छा और कोई विकल्प हो ही नही सकता जहां वे एक सादगी भरा जीवन जीते हुए ' नेचुरल (प्राकृतिक) मानववादी विज्ञान' की जड़ों को मजबूत बना सकते हैं । 
मेरे विचार से इस प्रकार के असेटिसिज्म (तितिक्षावाद) से अनुप्रेरित, इस कल्याणकारी अभियान का नेतृत्व एक ऐसे सक्षम व्यक्ति के हाथों में होना चाहिए, जो देश के तपस्वी संस्कारों और विज्ञान को साथ साथ लेकर चलने में समर्थ हो। मुझे मालूम है कि वह व्यक्ति विवेकानंद के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता क्या आप इस मिशन की रहनुमाई करने (डॉयरेक्टर बनने) पर विचार करेंगे ?
इसके लिए आपको शायद सबसे पहले अपने देशवासियों के मन में भारत के कल्याण-कार्य (चरित्रवान मनुष्य बनो और बनाओ के कार्य ) में कूद पड़ने के लिये 'उत्साह और उमंग' (आत्मश्रद्धा और आत्मविश्वास) को संचारित करने की आवश्यकता होगी। इसके लिये हम अपने लोगों में - आपके मनुष्यत्व उन्मेषकारी विचारों को जागरण-मंत्र के फाइअरी पुस्तिकाओं  (Fiery Pamphlet - जोशीला साहित्य) के रूप में प्रकाशित कर, उसका वितरण कर सकते हैं। इसके प्रचार-प्रसार और प्रकाशन का तमाम व्यय करने में मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी
२३ नवम्बर १८९८
जमशेद जी एन. टाटा 
 
जमशेदजी द्वारा लिखित उपरोक्त पत्र, स्वामी जी के कार्यों और विचारों का वास्तविक स्वरुप प्रस्तुत करता है, साथ ही उनके योगदान को भी प्रतिबिंबित करता हैदेश की तात्कालिक स्थिति पर क्षोभ व्यक्त करते हुए स्वामी जी ने कहा – “कुछ समय के लिये अपने धार्मिक तत्वों और रीति रिवाजों को एक ओर रखकर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करो-पहले जीवन-संग्राम में कूद पड़ो। भारत में कितने कच्चे उत्पाद, खनिज आदि पैदा होती हैं ! विदेशी लोग तुम्हारे देश से मिले कच्चे माल के द्वारा 'गोल्ड' पैदा कर रहे हैं, और अपने भविष्य को उज्वल बना रहे हैं। और तुम लोग भारवाही गधों की तरह (बोझ ढोने बाले जानवरों की भाँती) उनका माल ढोते ढोते मरे जा रहे हो।   विदेशी लोग भारत से कच्चा माल लेकर अपनी सूझबूझ से विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन कर अपना वर्चस्व कायम कर रहे हैं; और तुम लोग ? अपनी बुद्धि के द्वार बंद कर अपनी पुस्तैनी संपदा उन पर लुटा रहे हो। और भोजन के लिये अन्य देशों के सामने गुहार लगाते फिरते हो !”६/१०४
एक स्वाभिमान संपन्न समुन्नत आत्म निर्भर भारत स्वामी जी का स्वप्न था | क्या हम उनके सपनों को साकार करने का स्वप्न अपनी आँखों में बसाना पसंद करेंगे ? 
[ *With thanks Soueced from http://www.krantidoot.in/2015/]
 ================================
'गृहस्थों को जगदगुरु श्री रामकृष्ण परमहंसदेव के उपदेश' 
(कामिनी-कांचनरूपी तूफान से पार होने के लिये)
वचनामृत : २४अग्स्त १८८२  
मास्टर - साधना (धर्म-साधना अर्थात् इन स्वाभाविक वृत्तियों को मर्यादित करने का प्रयत्न - मनःसंयोग का अभ्यास) क्या बराबर करते ही जाना चाहिये ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं, पहले कुछ कमर कसकर करनी चाहिये। फिर ज्यादा मेहनत नहीं उठानी पड़ती। जब तक तरंग, आँधी, तूफान और नदी की मोड़ से नौका जाती है तभी तक कर्णधार को मजबूती से पतवार पकड़नी पड़ती है; उतने से पार हो जाने पर फिर नहीं। जब वह मोड़ से बाहर हो गया और अनुकूल हवा चली तब वह आराम से बैठा रहता है, पतवार में हाथ भर लगाये रहता है। फिर तो पाल टाँगने का बन्दोबस्त करके आराम से चिलम भरता है। कामिनी और कांचन की आँधी, तूफान से निकल जाने पर शान्ति मिलती है। किसी किसी में योगियों के लक्षण दीखते हैं परन्तु उनलोगों को भी सावधानी से रहना चाहिये। कामिनी और कांचन "Woman and gold" ही योग में विघ्न डालते हैं। योगभ्रष्ट होकर साधक फिर संसार में आता है, -- भोग की कुछ इच्छा रही होगी ? इच्छा पूरी होने पर वह फिर ईश्वर की ओर जायेगा -फिर वही योग की अवस्था होगी। "
चारे में जब मछली फंसती है, तो वह डोर को खींचने लगती है, उस समय डोर को ढील देनी पड़ती है; डोर को ढील देते हुए मछली को थोड़ी देर तक खाने देना पड़ता है, बाद में मछली को खींच लिया जाता है. पहले ही खींचने से डोरी टूट जाएगी। इसीलिये श्रीरामकृष्ण जिस व्यक्ति में भोग-वासना अधिक देखते थे, उन्हें थोड़ा भोग कर लेने के लिये कहते थे, किन्तु अन्त में यह भी जोड़ देते थे -" लेकिन यह जान लेना कि इसमें कुछ रखा नहीं है! "
 श्रुति भगवती बहुत दयालु है, यदि किसी को पुत्र की कामना हो, तो उसके लिये पुत्रेष्टि-यज्ञ का विधान दिया है. यहाँ तक कि शत्रू-नाश, अन्न वृद्धि आदि के लिये भी यज्ञ का करने का विधान है।  ऐसा करके शास्त्र हमें असत कर्म करने लिये प्रोत्साहित नहीं करते, इसप्रकार उसके भोग-प्रवण मन को क्रमशः शास्त्रोमुखी बनाने की ही चेष्टा करते हैं।
चरित्र- निर्माण  (सदाचार) को ब्रह्मचर्य का सहायक माना जाता है। जो लोग निष्ठावान, नियम-संयम, संपन्नशील, सत्य तथा चरित्र को अपनाए रहते हैं, वही लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए लंबी जिदंगी को प्राप्त करते हैं। सदाचार को अपनाकर कोई भी मनुष्य अपनी पूरी जिंदगी आराम से बिता सकता है। ब्रह्मचर्य जो कि उम्र का पहला चरण है, जब परिपक्व हो जाए तो मनुष्य को शादी कराके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके अर्थ, धर्म, काम तथा मोक्ष का सम्पादन विधिवत् करना चाहिए।  यहां पर अर्थ, धर्म तथा काम का उपयोग इस प्रकार किया जाए कि आपस में संबद्ध रहें और एक-दूसरे के प्रति विघ्नकारी साबित न हो। एक बात तो बिल्कुल आईने की तरह साफ है कि उम्र के पहले पड़ाव पर अगर सही तरीके से ब्रह्मचर्य का पालन न किया जाए, तो गृहस्थ आश्रम अधूरा, क्षुब्ध और असफल ही रहता है। इसी  कारण उसके नियमों का पालन विधिपूर्वक  करने से ही हर आश्रम में पहुंचने पर , हर प्रकार की स्थिति में सफलता प्राप्त होती है।
वैदिक परम्परा में आश्रम आधारित समाज व्यवस्था थी।  गृहस्थ-आश्रम को सर्वोपरि मानने वाले व्यक्तियों ने गृहस्थ जीवन को स्वीकार कर सभी आश्रमों की पृष्ठभूमि निर्माण करने के साथ ही साथ समाज के विकास,संतुलन एवं संगठन हेतु अपना जीवन होम कर दिया। प्रायः ब्रह्मचारी जहाँ आत्ममुग्ध और आत्मकेन्द्रित व्यक्तित्त्व वाला साधक होता है, वहीँ गृहस्थ का जीवन विकेन्द्रित और समाजपरक होता है। गृहस्थ जीवन में भी पवित्रता बनाये रखने का अर्थ है दो-तीन बच्चे हो जाने के बाद पति-पत्नी को भाई -बहन की तरह रहना चाहिये, और गृहस्थ आश्रम में ब्रह्मचर्य पालन का अर्थ है - 'पर दारेषु मातृवत !' पवित्र जीवन जीने वाले नेता या लोकशिक्षक के चरित्र में कथनी और करनी का संघर्ष समाप्त हो जाता है, और जीवन को सफल बनाने वाली जितने भी आवश्यक बातें (तीनों ऐषणाओं से मुक्ति ) हैं, सभी प्राप्त होती है।
भारतीय नारी के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए स्वामी जी कहते हैं -" आर्य की परिभाषा लिखते हुए हमारे स्मृतिकार मनु कहते हैं - वही सन्तान आर्य है, जो प्रार्थना के द्वारा जन्म लेती है। मेरे माता-पिता ने कितने दिनों तक भगवान से प्रार्थना की थी और व्रत रखा था कि उन्हें एक सन्तान प्राप्त हो। प्रत्येक बच्चे के लिये माता-पिता को प्रार्थना करनी चाहिये। हम प्रचण्ड सुप्रवृत्ति या कुप्रवृत्ति के साथ जन्म लेते हैं, हम जन्मजात देव या असुर होते हैं। शिक्षा और परिवेश आदि का प्रभाव नगण्य होता है। आप एक बात स्मरण रखें, हमारा धर्म शिक्षा देता है कि सबों को विवाह करना ही पड़ेगा यह जरुरी नहीं; यह कमजोरों के लिये है। 
यथार्थ धार्मिक (मोक्ष-कामी) स्त्री या पुरुष तो कभी विवाह नहीं करेगा। धार्मिक स्त्री कहती है, ' परमात्मा ने मुझे अधिक अच्छा अवसर दिया है। अतः मुझे अब विवाह करने की क्या जरूरत है ? मैं बस , ईश्वर की पूजा-अर्चना करूँ, किसी पुरुष से प्रेम करने की क्या जरुरत ? हिन्दू धर्म के अनुसार आश्रम-व्यवस्था या समाज-संस्था का अन्तिम आदर्श संन्यास ही है। इस सर्वोच्च आदर्श की तुलना में विवाह एक निम्न कोटि की चीज है, यद्यपि सापेक्षिक दृष्टि से सर्वोच्च आदर्श की ओर ले जाने वाला वह एक सोपानस्वरूप है। इसीलिये बड़े-बुजुर्गों के सामने दाम्पत्य-प्रेम सम्बन्धी बातें करना निषिद्ध माना गया है। मैं अपनी बड़ी दीदी या बड़े भाई या माता-पिता सामने उपन्यास नहीं पढ़ सकता, मुझे पुस्तक बन्द कर देनी पड़ती है। " (१/ ३१२-३१९) 
 योगशास्त्र के अनुसार - 'ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः अर्थात ब्रह्मचर्य का पालन करके ही वीर्य को बढ़ाया जा सकता है और वीर्ये बहुबलं - वीर्य से शारीरिक शक्ति का विकास होता है। ब्रह्मचर्य आश्रम में आस्था रखने वाले युवक सामाजिक सेवा की भावना लेकर आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते थे।  महान ऋषि मुनि तपस्वी आदि इसी श्रेणी में आते थे। उन्हों ने सत्य की खोज में सांसारिक सुखों से स्वयं को विरत रखा था। आदिगुरु शंकराचार्य, ऋषि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द आदि अनेकानेक ब्रह्मचारियों ने अपने जीवन-दृष्टि के अनुकूल ही अपने जीवन को ढाला और समाज को नवदिशा, नवप्रेरणा, और नव-ऊर्जा दी।
 विद्या अर्जित करने के लिए भी ब्रह्मचर्य का पालन करना बहुत जरूरी होता है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " बाल्यावस्था से ही जाज्वल्यमान, उज्ज्वल चरित्रयुक्त किसी तपस्वी महापुरुष के सहवास में रहना चाहिये, जिससे कि उच्चतम ज्ञान का जीवित आदर्श सदा दृष्टि के समक्ष रहे। 'झूठ बोलना पाप है '--केवल रट लेने से कोई लाभ नहीं। हर एक को विद्यार्थी अवस्था में पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करने का व्रत लेना चाहिये, तभी तो हृदय में श्रद्धा और भक्ति का उदय होगा। नहीं तो, जिसमें श्रद्धा और भक्ति नहीं, वह झूठ क्यों नहीं बोलेगा ?" ८/२३२  
" देखा, एकमात्र ब्रह्मचर्य का ठीक ठीक पालन कर सकने पर सभी विद्यायें बहुत ही कम समय में हस्तगत हो जाती हैं -मनुष्य श्रुतिधर, स्मृतिधर बन जाता है। ब्रह्मचर्य के अभाव से ही हमारे देश का सब कुछ नष्ट हो गया।" 
 " मनुष्यत्व की प्राप्ति, हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। और मैं इसी श्रेष्ठ जन्म-सिद्ध अधिकार को प्राप्त करना चाहता हूँ- माँ मुझे मनुष्य बना दो ! "' जब मनुष्य बन कर जन्म लिया है, तो मनुष्य-जीवन की महिमा को प्रकट तो करो।' स्वामी जी जीवन को प्रस्फुटित करने का निर्देश दे रहे हैं। प्रस्फुटित करने का अर्थ है - अंकुरित करना और  विकसित करना। जीवन-पुष्प को पूर्णतया खिला देना अथवा चरित्र -कमल को विकसित कर लेना ! थोड़ा धीरज रखो, और विवेक -प्रयोग की शक्ति से जीवन को थोड़ा प्रस्फुटित कर लो। प्रस्फुटित करके मनुष्यों को दिखा दो कि जीवन में क्या पाना चाहते हो, क्या करना चाहते हो !  जीवन-पुष्प का अंकुरण, विकास अर्थात चरित्र-कमल का पूर्णतः खिल--जाना,  विकास और अभिव्यक्ति ।
मनुष्यत्व-प्राप्ति का अर्थ है इसी जीवन में  पूर्णता की प्राप्ति। सभी मनुष्य उस पूर्ण- जीवन के अधिकारी बन सकते हैं। स्वामीजी के मन में यही सबसे बड़ी कामना थी। और वे इसी आकांक्षा को वे सभी मनुष्यों के मन में, विशेष रूप से युवाओं के मन में जाग्रत करा देना चाहते थे। यदि हमलोग सबसे बृहद वस्तु (ब्रह्म) को पाने की चेष्टा करें, मनुष्य बनने की चेष्टा करें, और उस आत्मा का साक्षात्कार कर लें; तो फिर इस जीवन में- व्यावहारिक जीवन में और कुछ प्राप्त करने योग्य वस्तु अवशिष्ट ही नहीं रह जाती।
स्व-ज्ञान होने से, स्वयं में प्रतिष्ठित होने से जीवन मिलता है। जो स्वयं से अनजान हैं, अपने आप से दूर हैं, वे प्रतिक्षण-प्रतिपल मृत्यु से और मृत्यु के भय से घिरे रहते हैं। सच यही है कि जीवन का यथार्थ परिचय स्व के ज्ञान में है, स्वयं में प्रतिष्ठित होने में है। क्योंकि इस ज्योतिर्मय बिन्दु के बाहर जो परिधि है, वह मृत्यु से बनी है। और जहाँ मृत्यु है, मरण है, वहाँ भय तो होगा ही। कभी हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन क्रमों से सीख लेने की बजाय आरोप लगाते हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण के जीवन से शिक्षा लेने की बजाय, उनके ऊपर हम पचासों आक्षेप लगाते हैं। यह हमारी मूढ़ता नहीं तो और क्या है? हमें मूढ़ता से समझदारी की ओर बढ़ना होगा।
[The Dharma concept in Hinduism,  is integrated with the concept of Purushartha, or four proper goals of human life in Indian Life View, (पुरुषार्थ = 'पुरुष द्वारा प्राप्त करने योग्य') namely, Dharma (piety, morality, duties), Artha (wealth, health, means of life), Kama (love, relationships, emotions) and Moksha (liberation, freedom, self- realization). Dharma is held primary for all stages. Moksha is the ultimate noble goal, recommended for everyone, to be sought at any stage of life.
Each of the four Ashramas of life are a form of personal and social environment, each stage with ethical guidelines, duties and responsibilities, for the individual and for the society. Each Ashrama stage places different levels of emphasis on the four proper goals of life, with different stages viewed as steps to the attainment of the ideal in Hindu philosophy, namely Moksha. * With thanks sourced from : https://en.wikipedia.org/wiki/]  

श्रीरामकृष्ण परमहंस कहते हैं कि “वस्तुतः ईश्वर को देखना और अवतार को देखना एक ही बात है। परब्रह्म के अवतार को देखने से ही उनका दर्शन हो जाता है। अवतार वह जो तारे। शक्ति का ही अवतार होता है। अवतार के भीतर उनकी शक्ति का अधिक प्रकाश होता है-कभी-कभी यह पूर्ण भी होता है। और अवतार तो कई हैं-“अवताराः असंख्याः” कहीं भी उनकी शक्ति—उनकी चेतना का प्रकाश अवतरित हो सकता है।” ऐसे में कभी भी किसी भी विभूति का—मानव में निहित दैवी सत्ता का अपमान नहीं होना चाहिए। जो ऐसा करते हैं, वे आसुरी स्वभाव के होते हैं। अमीर मीनाई का प्रसिद्ध शेर है -


कौन सी जा ( जगह, अवसर) है जहाँ जल्वा-ए-माशूक़ नहीं?
शौक़-ए-दीदार है अगर, -- तो 'नज़र' पैदा कर!

किन्तु परमात्मा को समझ पाना वास्तव में आसान नहीं है। वह हर दुःखी, पीड़ित की आत्मा में भी है एवं विभूति रूप में असंख्य अवतारों में भी। यदि वह हमें दिखाई दे जाये, वे ज्ञानचक्षु हमें मिल जायें तो हमारे कर्म धर्म प्रधान होंगे, दिव्य होंगे एवं पीड़ित मानवता के हितार्थाय होंगे। जब हम सामान्य मनुष्य में छिपे भगवान् को नहीं समझ पाते, तो अवतारी चेतना को क्या समझ पायेंगे?
ठाकुर की लीला: रामकृष्ण परमहंस अपनी व्याधि के दौरान लेटे रहते थे, लाटू महाराज (स्वामी अद्भुतानंद जी) उनके श्रीचरणों के पास बैठे थे। उनकी भी नींद लग गयी। इतने में उनने देखा कि वे वहाँ नहीं हैं। कहाँ गये? वे भागे तो देखा दौड़े चले जा रहे हैं बगीचे की तरफ। जिनसे सहारा लिये बिना चलते नहीं बनता था, वे दौड़े चले जा रहे हैं। वे भी भागे। तब तक वे लौट रहे थे। बोले अरे लाटू! तू क्यों परेशान हुआ। वो नरेन्द्र वगैरह वहाँ पोखर के पास ध्यान करते हैं न, तो वहाँ एक विषैला सर्प रहता है। मैं  उसे  भगाने गया था। आकर फिर लेट गये। कैसे तो भागते गये, कैसे आकर लेट गये? यही तो अवतारों की लीला है।उसे कौन पहचान पाया, वही, जो उनके शिष्य बने-साथी सहचर बने व जिनने रामकृष्ण मिशन खड़ा कर दिया। अनेक भोगी-आसुरी प्रकृति के व्यक्तियों ने श्रीरामकृष्ण को नहीं पहचाना, उन पर आक्षेप लगाते रहे। जिनने पहचान लिया, वे निहाल हो गये।
श्री श्री माँ सारदा देवी कहती हैं, “ठाकुर! तुम आए, इन कुछ व्यक्तियों के साथ लीला और आनंद करके चले गए और बस, सब समाप्त हो गया! तो इतना कष्ट करके आने की आवश्यकता ही भला क्या थी! मैंने काशी-वृंदावन में देखा है, अनेक साधु भीख माँगते और इधर-उधर भटकते फिरते है। ऐसे साधुओं की कोई कमी नहीं है। तुम्हारे नाम पर अपना सब कुछ त्याग कर मेरे बच्चे थोड़े से अन्न के लिए भटकते फिरेंगे, यह मुझसे देखा नहीं जाएगा। मेरी तुमसे प्रार्थना है कि तुम्हारे नाम पर जो निकलेंगे, उन्हें साधारण खाने-पीने का अभाव न हो। वे सभी तुम्हारे उपदेशों-भावों को लेकर एक साथ रहे और साँसारिक दुःखों से जर्जरित मनुष्य उनके पास आकर तुम्हारी बातें सुनें और शाँति पाएं। इसीलिए तो तुम्हारा आना हुआ। उन्हें इधर-उधर भटकते देखकर मेरा हृदय व्याकुल हो उठता है।”(‘श्री माँ सारदादेवी’ - पृष्ठ 48-9 से उद्धृत, सन १८९० - इसमें माँ की पीड़ा है, जो वे ठाकुर के महाप्रयाण के बाद झेल रही थीं।)
एक बार स्वामी विवेकानन्द कश्मीर के क्षीर भवानी मंदिर गए। देखा मंदिर टूटा हुआ था। मन ही मन निश्चय किया कि इतना सुँदर मंदिर, इतना पुराना भव्य शिल्प, मैं इस मंदिर को बनवाऊँगा। कहा जाता है कि भगवती साक्षात् प्रकट हुईं ओर बोलीं-“मैंने त्रिभुवन का निर्माण किया है। तू मेरे लिए क्या बनाएगा! भगवान के लिए कुछ बनाना है, तो घर-घर ईश्वरीय प्रेरणा फैला। सब घरों को आदर्श स्वर्ग जैसा अनुपम बना।” स्वामी जी ने माँ का आदेश शिरोधार्य किया एवं वही कार्य जीवन भर किया। युवा-चेतना का गहन मंथन एवं उन्नयन !
गीता में 'योग शब्द प्रवृत्ति मार्ग अर्थात 'कर्मयोग' के अर्थ ही में प्रयुक्त हुआ है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -' जब तक सम्पूर्ण जगत यह नहीं जान लेता कि वह और ईश्वर एक है, तब तक मैं हर जगह के मनुष्यों को अनुप्रेरित करता ही रहूँगा '
ब्रह्मचर्य जीवन को गृहस्थ आश्रम से जोड़ने का अर्थ यही होता है कि वीर्यरक्षा, सदाचरण, शील, स्वाध्याय अगर ब्रह्मचर्य आश्रम में सही तरह से किया गया है तो गृहस्थआश्रम में दाम्पत्य जीवन अकलुष आनंद तथा श्रेय प्रेय संपादक बन सकता है। गृहस्थआश्रम को धर्मकर्म पूर्वक बिताने पर वानप्रस्थ का साधन शांति से और बिना किसी बाधा के हो सकता है और फिर वानप्रस्थ की साधना सन्यास आश्रम में पहुंचकर मोक्ष प्राप्त करने में मदद करती है।  ये दोनों आश्रम एक दूसरे के विपरीत जीवन-दृष्टि वाले होते हैं।  इन विपरीत ध्रुवों के संतुलन एवं समन्वय से ही सामाजिक जीवन में समरसता आती है।
अनुकरणीय जीवन शैली के लिए आदर्श जीवन दृष्टि का होना अति आवश्यक है। और आदर्श जीवन दृष्टि विकसित हो सके, इसके लिए नैतिक मूल्यों वाली, चरित्र-निर्माण कारी और मनुष्य-निर्माण कारी शिक्षा की अनिवार्यता अपरिहार्य है।समय की माँग :(केजरी-अन्ना, या लालू-जेपी जैसे) आँदोलनकारी नेताओं की नहीं, श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द जैसे लोक-शिक्षकों या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं की है। 
हम जैसे गृहस्थ या प्रवृत्ति मार्गी पुरुषों या कर्म -योगियों के लिये उनकी ही प्रेरणा से १९६७ ई० में ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' नामक संगठन की स्थापना हुई। जिसका आदर्श वाक्य है ' Be and Make ' और नारा है ' चरैवेति चरैवेति ' -अर्थात आगे बढ़ो, आगे बढ़ो! इसका मुख्यालय ' भुवन-भवन ' पो० बलराम धर्म सोपान,  खरदा,उत्तर २४ परगना, ७००११६, पश्चिम बंगाल में है. इस समय भारत के विभिन्न राज्यों में इसके ३१५ से अधिक केन्द्र क्रियाशील हैं, और निरन्तर इसकी शाखायें हिन्दी भाषी प्रदेशों में भी खुलती जा रही हैं.  उसी प्रकार निवृत्ति मार्गी स्त्रियों के लिये भी एक मठ दक्षिणेश्वर में है, और गृहस्थ स्त्रियों के लिये महामण्डल की सहयोगी संस्था (Sister concern )  के रूप में ' सारदा नारी संगठन ' भी कार्यरत है. यदि भारत में महामण्डल की स्थापना नहीं हुई होती तो हम जैसे अधिकांश गृहस्थ युवा आदर्श के अभाव में शास्त्रोक्त जीवन दृष्टि चार पुरुषार्थ और चार आश्रम के मर्म को नहीं जान पाते।
सबको नर-जीवन दुर्लभता से मिलता है। चाहे किसी भी देश का हो, किसी भी मजहब का हो,  [मनुष्यत्व -मुमुक्षत्वं और महापुरुष संश्रयः दुर्लभ है पर महामण्डल में तीनों एक साथ मिल गया है] चरित्रनिर्माण की पद्धति और विवेक-प्रयोग करने का अवसर सबको मिलते  हैं। हमलोग ठाकुर श्रीरामकृष्ण देव और स्वामी विवेकानन्द के इतने निकट - भारत में जन्मे हैं , इसीलिए उनकी लीलाओं को विभिन्न प्रकार से सुन पा रहे हैं। यदि हमलोगों में थोड़ी सी भी सद्बुद्धि बची हुई हो, तो हमलोग इस परमसुन्दर आदर्श को अपने जीवन में धारण करने की चेष्टा अवश्य करेंगे।
 पर केवल अपनी मुक्ति, अपने आनन्द, अपने सुख के लिए नहीं, बल्कि भारत के जनसाधारण के लिए, विश्व के समस्त मनुष्यों का कल्याण साधित करने की इच्छा से करेंगे। मनुष्यों के कल्याण के लिए- हमलोग अपने जीवन की समस्त शक्तियों को उद्घाटित कर सकें, उन्हें जाग्रत कर सकें, उस अनन्त प्रेम को अनेकों धाराओं में प्रवाहित-प्रस्फुटित या अभिव्यक्त करके अपने जीवन को सार्थक बनाकर अन्त में हँसते-हँसते इस जगत से प्रस्थान कर सकें; ठाकुर-माँ-स्वामीजी हम सभी लोगों को यही आशीर्वाद दें!  हमारी एक मात्र लक्ष्य-वस्तु (target object) है- मनुष्यत्व प्राप्ति ! 
========================================================