बुधवार, 23 दिसंबर 2015

" आदर्श-कर्मी, योग-प्रशिक्षक या नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण"

 

 (१.)'द वे ऑफ़ द ड्राप-आउट्स' : २२ दिसंबर २०१५  को  जुवेनाइल जस्टिस बिल आख़िरकार राज्यसभा में ध्वनिमत से पास हो गया. अब यह बिल राष्ट्रपति के पास मंज़ूरी के लिए भेजा जाएगा. ''२०१२ के चर्चित निर्भया काण्ड के बाद से प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया दोनों जुवेनाइल जस्टिस बिल की मार्केटिंग इस तरह कर रहा थे कि अगर क़ानून सख़्त हो जाएगा तो-"निर्भया को इंसाफ़ मिल जाएगा"  किन्तु  ये सच नहीं है। " मेनका गांधी ने कहा, ''कि कोई भी जुवेनाइल सीधे जेल में नहीं भेजा जाएगा. जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड में विशेषज्ञ और मनोचिकित्सक होते हैं (किन्तु लोक-सेवक ,आदर्श कर्मी, योग-प्रशिक्षक, गुरु या योगी  क्यों नहीं होते ? ) जो पहले इस बात का निरीक्षण करेंगे कि किया गया अपराध बचपने में हो गया है या इसे एक वयस्क मानसिकता के साथ किया गया है? '' मेनका ने सदस्यों के इस आरोप को भी गलत बताया कि गरीबी के कारण किशोर ऐसा अपराध करते हैं। उन्होंने कहा कि स्वीडन में एक भी व्यक्ति गरीब नहीं है, लेकिन उस देश में बलात्कार के सबसे ज्यादा मामले होते हैं। कांग्रेस की विजयलक्ष्मी साधो ने कहा कि आज हमारे समाज में परिवारों का आकार छोटा हो गया है। इसके कारण अभिभावक बच्चों पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते तथा कई बार बच्चे गलत कामों में संलग्न हो जाते हैं। इस कानून के तहत जघन्य अपराधों में वे ही अपराध शामिल किए गए हैं, जिन्हें भारतीय दंड विधान संगीन अपराध मानता है। इनमें हत्या, बलात्कार, फिरौती के लिए अपहरण, तेजाब हमला आदि अपराध शामिल हैं। " इस बिल को लाने का मक़सद सज़ा की उम्र १८  से १६  वर्ष करना नहीं बल्कि ऐसे बच्चों के चरित्र में कारगर सुधार लाना होना चाहिए.   जिस गति से किशोर अपराधों की संख्या में वृद्धि हो रही है, उतनी बड़ी संख्या में उनके चरित्र में सुधार लाने वाले योग-प्रशिक्षक कहाँ से आयेंगे ? इस ओर हमारे किसी भी नेता की दृष्टि नहीं है।
पहले की अपेक्षा आज इतनी बड़ी संख्या में किशोर अपराधी क्यों बन रहे हैं ? "सार्वजनीन असन्तोष का कारण  क्या है ? सूर्य से लेकर क्षुद्र-तम परमाणु तक सम्पूर्ण प्रकृति ही नियमाधीन है- स्वतन्त्रता के लिये एक उत्कट आग्रह का नाम ही जीवन है! क्रिकेट, सिनेमा, अड्डेबाजी) टूरिज्म  के माध्यम से युवा सर्वदा मुक्ति का ही अनुसन्धान कर रहा होता है। मुक्ति यहाँ नहीं, यहाँ नहीं, कहीं और है, किसी दूसरे जगह देखो '- अधिकांश मनुष्यों का सम्पूर्ण जीवन बस इसी प्रकार दौड़ते-भागते एक दिन समाप्त हो जाता है।
चार पुरुषार्थों- धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष में अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष है ! जब तक मोक्ष या मुक्ति का रहस्य उद्घाटित नहीं हो जाता, जीवन कभी स्थिर नहीं रह सकता है।  भारतीय-संस्कृति में सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना गया है-'आत्मानं विद्धि' (अपने आपको (जो इन्द्रियातीत वस्तु है या आत्मा है) जानो !
अज्ञानता क्या है ? अपने आपको न जानना ही अज्ञानता है।  मुक्त पुरुष वह है, जिसे इसी जीवन में ईश्वर और जगत के साथ एकात्मबोध हो चुका है;उसको सारे नाम-रूप उसी एक परब्रह्म परमेश्वर के ही विविध नाम-रूप अनुभव होंगे,अब उसमें 'मेरा ' कहने लायक कुछ नहीं बचेगा। इसीलिये अब वह जगत के समस्त कर्मों को अनासक्त होकर करने में समर्थ बन जायेगा। सबकुछ 'तूँ और तेरा ' है, सभी कर्म ' तेरे' कर्म हैं- ऐसी बुद्धि से कार्य कर सकेगा।
सभी प्रकार नियमों से परे चले जाओ- मानो समग्र जगत तुम्हारे लिये भाप बनकर उड़ गया हो, और तुम 'अकेले होकर खड़े हो जाओ'- कम आउट एंड स्टैंड अलोन ! यही है रूढ़िमुक्त- समाज के अग्रदूत-स्वामी विवेकानन्द के नव-विप्लव का आह्वान ! ऐसे मनुष्य ही (बोहेमियन-छन्नछाड़ा गोष्ठी) समाज के नेताओं का 'द वे ऑफ़ द ड्राप-आउट्स'  जिनके कारण समाज विशेष रूप से उपकृत हुआ है।
 संसार का इतिहास बुद्ध और ईसा 'नवनीदा' जैसे (ड्रॉप-आउट) व्यक्तियों का इतिहास है। " वासनामुक्त तथा अनासक्त व्यक्ति (आदर्श, लोकसेवक या नेता) ही संसार का सर्वाधिक हित करते हैं। सर्वत्र पवित्रता और निःस्वार्थपरता की मात्रा पर ही सफलता की मात्रा निर्भर करती है। स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है, " अतीतकाल में भी त्याग ही नियम था; और हाय ! (अफ़सोस!) भविष्य काल में भी त्याग ही नियम रहेगा ! " 'हाय'  (अफ़सोस) -क्यों कहते हैं ? इसीलिये कहते हैं- जो ऐसा सोचते हैं, यह नियम (कम से कम उनके लिये)  बदल जायेगा, और वे त्याग किये बिना भी जगत का कल्याण कर सकेंगे, तो वे निश्चित रूप से असफल हो जायेंगे। ईसीलिये 'अफ़सोस' कहते हैं !
भगवान् श्रीकृष्ण जब एक तरुण थे, तो एकदिन गोचारण करते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये। अपने दोस्तों से कहते हैं - इन भाग्यशाली वृक्षों को देखो जो दूसरों की भलाई के लिए ही जीवित हैं- पश्यत एतान महाभागान परार्थै एकान्त जीवितान,  ये वृक्ष हम सबकी आँधी, वर्षा, ओला, पाला, धूप से रक्षा करते हैं और स्वयं इनको झेलते हैं! सुजनस्य एव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः -जैसे कोई सज्जन पुरुष किसी याचक को खाली नहीं लौटाता, वैसे ही ये वृक्ष भी (अपना सर्वस्व न्योछावर करके मनुष्यों के काम में आते हैं) जो भी इनसे कुछ पाने की अपेक्षा करता है, ये उसे कभी निराश नहीं करते। किसी को खाली हाथ न लौटाकर उन्हें कुछ न कुछ अवश्य देते हैं। सज्जन लोग भी ऐसे ही होते हैं, उनके पास से कोई असंतुष्ट होकर नहीं लौटता।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- 'ऐसे बुद्धत्व-प्राप्त नर देवता' के चरणों में कई हजार ब्रह्मा एवं इन्द्रादि देवता भी शीश झुकाते हैं तथा इस बुद्धत्व-प्राप्ति पर मानव-मात्र का अधिकार है। '  उन्होंने कहा था - "माई आइडियल, इन्डिड, कैन बी पुट इन्टु अ फ्यू वर्ड्स, ऐंड  दैट इज टु प्रीच अन्टू मैनकाइंड देयर डिविनिटी, एंड हाउ टु मेक इट मेनिफेस्ट इन एव्री मूवमेन्ट ऑफ़ लाइफ " अर्थात मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है और वह है- मनुष्यजाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे प्रकट करने का उपाय बताना।
 आज के लिए प्रश्न है शिक्षक कैसा हो? आज की शिक्षा और शिक्षक बेरोजगारी के पर्याय बन गए हैं। विडम्बना यह है कि हमने अपनी शिक्षा पद्धति को छोड़कर विदेशी पद्धति को ग्रहण कर लिया। जिन मनःसंयोग और चरित्र-निर्माण (योगसूत्र आदि षड्दर्शन आदि ) विषयों का समावेश पाश्चात्य अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति में नहीं था , वे विषय हमारे यहां भी शिक्षा से बाहर निकाल दिये गए। यहां भी गुरू का स्थान शिक्षक या अध्यापक ने ले लिया। सच बात तो यह भी है कि राजनेता हो अथवा अधिकारी, शिक्षक का कोई सम्मान ही नहीं करता। पढ़ाने के अलावा इतने कार्य शिक्षकों के सिर पर डाले जाते हैं कि इनको कोर्स पूरा करने का समय ही नहीं मिलता। शिक्षकों के स्थानांतरण अपने-आप में बड़ा व्यवसाय बन गया है। वस्तुत: शिक्षा विभाग का असली चरित्र यही "स्थानांतरण" है।
शिक्षक तथा शिष्य एक-दूसरे की भोग्य सामग्री बनते जा रहे हैं। तब कल्याण की भी कहां सोच पाएंगे। दोनों ही समाज के काम नहीं आते। कॅरियर में खो जाते हैं। राजनीति के सहारे विश्वविद्यालयों में गुण्डागर्दी होती है, शिक्षक अपने पेट के लिए हड़तालें करते हैं, नियुक्तियां अपात्र और अयोग्य लोगों की होने लग गई हैं। परीक्षाएं, पेपरलीक, नम्बरों का खेल, फर्जी डिग्रियां, अस्मत की लूट, प्रभावी लोगों को मानद डिग्रियां जैसे कारनामे आज के शिक्षक ही करवाते हैं।
हमलोग गीता -उपनिषद आदि ग्रंथों पर तो आंख मूंदकर विश्वास नहीं करते  किन्तु पाश्चात्य जीवन-शैली की नकल पूरी तरह आंखों पर पट्टी बांधकर कर रहे हैं। आज की शिक्षा-पद्धति द्वारा में हित-अहित, श्रेय-प्रेय, शास्वत -नश्वर, का विचार करने या 'विवेक-प्रयोग ' करके चरित्रवान मनुष्य बनने की शिक्षा नहीं दी जाती । ज्ञान (विद्या) द्वारा अज्ञान (अविद्या ) से मुक्त करना ही तो शिक्षा का लक्ष्य है। व्यक्ति का स्वयं से परिचय करवाना ही धर्म या शिक्षा का मूल उद्देश्य है। यही वह कारण है कि कृष्ण की शिक्षा पांच हजार साल बाद भी सम्पूर्ण विश्व में चर्चा का विषय बनी हुई है; जबकि कुरूक्षेत्र में तो इसको केवल अर्जुन, संजय और धृतराष्ट्र ने ही सुना था।
कृष्ण भीतर के ज्ञान (विवेकज-ज्ञान ) को जोड़कर बाहरी ज्ञान की शिक्षा देते थे।  आजके ग्रेजुएट के भीतर का 'कृष्ण' अर्थात उसकी 'आत्मा' ही सोयी हुई है - क्योंकि उन्हें अपने हृदय का विस्तार करने का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है !   सोया हुआ है इनके भीतर का कृष्ण! छात्रों को कर्मयोगी बनने और बनाने अर्थात BE AND MAKE की शिक्षा देना जरूरी है। बेरोजगारों की फौज भारतमाता के सिर को ऊंचा कैसे उठने देगी?
 जब हमने शिक्षा से मनुष्य-निर्माण शब्द को ही निकाल दिया, तब कौन-सी मानव संस्कृति का निर्माण करेंगे?  इससे अधिक चिन्ता की बात और क्या हो सकती है? 
शिक्षक था चाणक्य, जिसने चन्द्रगुप्त को तैयार किया और राजा बना दिया। वह स्वयं भी बन सकता था। नहीं बना, क्योंकि सच्चा शिक्षक था। गुरू का एकमात्र स्वार्थ होता है - शिष्य को गुरू बना देना। किन्तु आज का टीचर या शिक्षक शिष्य की नहीं, अपने पेट की सोचता रहता है। गुरू बस देता है, शिक्षक लेता है। आज छात्र के भविष्य की जिम्मेदारी कोई शिक्षक, शिक्षा विभाग या मंत्री नहीं लेना चाहता। समाज में जो अपराध, हत्याएं, बलात्कार तथा आतंकवाद बढ़ा है, वह कदाचित् आज की शिक्षा के स्वरूप का एक अनपेक्षित परिणाम है। शिक्षकों की हड़तालें ही शिक्षा की परिणति सिद्ध कर रही है। इसके विपरीत "कृष्णं वन्दे जगद्गुरूम्" कहा जाता है।  गीता में कहा है-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।।
जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीवधनुषधारी अर्जुन हैं? वहाँ ही श्री, विजय, विभूति -अर्थात् लक्ष्मीका विशेष विस्तार और ध्रुव नीति है --अचल चरित्र है !  ऐसा मेरा मत है।
अर्जुन धनुर्घारी है, कृष्ण योगेश्वर हैं। एक पुरूषार्थ के प्रतिनिधि, दूसरे अध्यात्म के प्रतिनिधि हैं। जहां ये दोनों हैं -अध्यात्म और पुरूषार्थ - वहां श्री है, विजय है, अचल-चरित्र का ऎश्वर्य है। और यही तो शिक्षा का लक्ष्य है। व्यक्ति विषम परिस्थितियों में भी समन्वय स्थापित करके जी सके । नीतिवान् भी रहे, सत्-रज-तम की व्याख्या करे। जीवन को समग्रता में जीना सिखाए। चरित्र-निर्माणकारी  शिक्षा से हर मानव का ऎसा निर्माण करे, जो देश और देशवासियों का सम्मान कर सके। आवश्यकता पड़ने पर उनके विकास में मदद कर सके। उनकी सेवा कर सके।   श्रीकृष्ण योगेश्वर थे, महात्मा थे, महावीर और धर्मात्मा थे। श्रीकृष्ण का योगेश्वर स्वरूप प्रेम की पराकाष्ठा और जीवन की सभी घटनाओं का मूल हैं। वास्तव में भगवान (मतलब आत्मा) कृष्ण रुप में थे। दूसरे शब्दों में वे आत्म ज्ञानी थे। वे हमेशा निज स्वरुप की जागृति में रहते थे (मैं शुद्धात्मा हूँ और ये देह अलग है)। भौतिक रूप से संसार के हर कार्य में उपस्थित रहने के बावजूद कृष्ण भगवान हमेशा "मैं किसी भी कार्य का कर्ता नहीं हूँ"। महाभारत के युद्ध के मैदान में श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन को कहा, "तू लंबे अरसे से मुझे पहचानता है फिर भी तू मेरे सही स्वरुप को नहीं जानता। तूँ अपने (खुद के) सामने स्थूल नेत्रों से  जिस कृष्ण को देख रहा है,  वह मेरा सही स्वरुप नहीं है! जो तुम्हे दिखता है वो मेरा स्थूल स्वरुप (भौतिक शरीर-'3H' द्वारा गठित ) है।  मैं इस शरीर से भिन्न हूँ। मैं शुद्ध आत्मा हूँ। तू भी शुद्ध आत्मा है। तेरे भाई, चाचा, गुरु और मित्र जिनसे तू यह युद्ध करनेवाला है, वे भी शुद्ध आत्मा है। ये (युद्ध करना) तेरे लिए निश्चित (कर्म फल) है, इसलिए तुम्हें यह कार्य(युद्ध ) आत्मा की जागृति मैं रहकर करना है।
पाश्चात्य शिक्षा का सर्वाधिक दुष्प्रभाव  यह पड़ा कि आत्मा का शरीर  और मन के साथ सम्बन्ध स्थापित होना स्थगित हो गया। जीवनभर ये तीनों संस्थाएं -मनुष्य के तीन प्रधान कंपोनेंट्स - 3H ' भिन्न-भिन्न दिशाओं  में कार्य करती रहती हैं। जिसके कारण मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने से वंचित रह जाता है । न आत्मा मानव समाज का अंग बन पाती है, न ही शरीर आत्मा के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक बन पाता है। आत्मा के लिए शरीर मात्र एक देह रह गया, जो विषयों को भोगने वाले इन्द्रियों से संयुक्त है ।
आत्मज्ञान-आत्मश्रद्धा से रहित मनुष्य देह का उपयोग वह मानव की तरह नहीं कर पाता। मानव बना ही नहीं है। उसे मनुष्य बनने की शिक्षा नहीं मिली है ! उसके पास मानव के संस्कार ही नहीं है। जिस प्रकार पशु आहार-निद्रा -भय और मैथुन पर आधारित जीवन जीता है, जिस प्रकार उसके मन में भय व्याप्त रहता है, यही हाल आज के मानव का है।
 कई अर्थो में तो मानव ने पशुओं को भी पीछे छोड़ दिया है। बहुत नीचे गिर गया है।  मानवता के लक्षण शनै: शनै: लुप्त होते दिखाई पड़ रहे हैं। अब जो डिग्री धारी किन्तु चरित्र-रहित मनुष्य दिख रहे हैं , वे मात्र जैविक मानव होगा, ह्वदयहीन, आत्मविहीन। क्योंकि उन्हें मन को वश में करने वाली शिक्षा या मन को एकाग्र करने की शिक्षा नहीं दी जाती है !
योगेश्वर श्रीकृष्ण  जैसे गुरु (महापुरूषों) का चरित्र हनन होने से देश व समाज दिन प्रतिदिन पतन की ओर अग्रसर था। तब - मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, 'लभ पेर्सोनिफाइड ' प्रेमस्वरूप भगवान श्रीरामकृष्ण को अपने साथ सम्पूर्ण विश्व को शिक्षा देने में समर्थ स्वामी विवेकानन्द को अपने साथ लेकर अवतरित होना पड़ा। जिस प्रकार अर्जुन के साथ कृष्ण का नाम स्वत: ही बना रहता है, ठीक उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द के साथ श्रीरामकृष्ण का नाम भी स्वतः बना रहता है ! जो कुछ गुरू के पास था, उसके ज्ञान की पहचान, वह पूर्ण रूप से शिष्य की आत्मा में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है।  वे अपने जीवन को ही उदाहरणस्वरूप बनाकर शिक्षा देते हैं, भगवान श्रीकृष्ण पहले योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, इसीलिये वे अर्जुन को 'अभीः ' या आत्मविश्वास की शिक्षा दे पाते हैं ! धर्म के दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग ', प्रवृत्ति और निवृत्ति - इन दोनों में सामंजस्य बनाये रखने से ही मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है। एक को भी छोड़ देने से दूसरा पक्ष या समाज चल नहीं सकता। हमारे शास्त्रों में- 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ' ये चार प्रकार के पुरुषार्थ की बात कही गयी है। केवल एक ही पक्ष को लेकर चलने से नहीं होगा। जो समाज एक को ही लेकर रहता हो, उसे 'निन्दनीय' या 'जघन्य ' भी कहा गया है। ऐसा कहने से भी, चौथे पुरुषार्थ 'मोक्ष' के समकक्ष कोई भी नहीं है।
श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, " त्यागी हुए बिना, लोक-शिक्षा देने का अधिकार प्राप्त नहीं होता, कोई गृहस्थ लोक-सेवक या नौकरशाह  (नेता) बनने योग्य केवल वही मनुष्य हो सकता है, जिसने समग्र-रूप से 'कामिनी-कांचन' में आसक्ति का त्याग कर दिया हो ! इसलिये ठाकुर केवल योग्य आधार देखने के बाद ही लोक-सेवक बनने की शिक्षा देने में सक्षम पूर्ण त्यागी युवाओं का चयन करते  थे। वे कहते थे, " सार-वस्तु नहीं रहने से, सभी लकड़ियाँ (जैसे बाँस आदि) चन्दन नहीं बन सकती।" इस लिये ऐसे ही कई गुणी सन्तानों में से, एक युवक को अलग से चिन्हित करते हुए कहते हैं- " नरेन्द्र शिक्षा देगा!"
केवल मुख से नहीं कहा था, कागज के उपर लिख कर चपरास दिया था - " जय राधे प्रेममयी ! नरेन शिक्षे दिबे, जखन घरे बाहिरे हाँक दिबे ! जय राधे !! " अधिकारी पुरुष का केवल लिखित 'चपरास' देकर ही नहीं रुके। उसी क्षण सहज भावावेग में, उन्होंने अपने हाथों से बयान के नीचे एक गूढ़ (Esoteric) रेखा-चित्र भी अंकित कर दिया। आवक्ष-मुखाकृति के विशाल नेत्रों की दृष्टि प्रशान्त है, और एक 'लम्बी पूंछवाला धावमान मयूर' उस मुखाकृति का अनुगमन करता हुआ उसके पीछे-पीछे चल रहा है। मानो चपरास प्रदानकर्ता त्यागीश्वर श्रीरामकृष्ण परमहंस उस लोक-शिक्षक की पृष्ठभूमि में विदयमान हैं।
सत्य है कि भोग प्रधान जीवन जीने वाला शिक्षक या लोक-सेवक शिक्षा के मर्म को नहीं समझ सकता। लड़ने की कला, अवसर के उपयोग का महत्व, मोह भंग के लिए फटकार तथा अपना विष्णु रूप प्रकट करने जैसे उदाहरण प्रत्येक शिक्षक के जीवन में अनिवार्यत: होने चाहिए। शिष्य के आगे भीतर के ज्ञान को, अनुभव, संवेदन को पूर्ण रूप से प्रकट करना अनिवार्य है। शिष्य पाषाण है तो गुरू मूर्तिकार है। जो मूर्ति तराशी जाती है, वह स्वयं गुरू की अपनी ही होती है। शिष्य में गुरू ही दिखाई पड़ते हैं।
आज  सर्व शिक्षा अभियान  - साक्षरता अभियान महत्वपूर्ण नहीं है। पहले व्यक्ति का निर्माण, अर्थात चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माण करने वाली शिक्षा ही आवश्यक है। विभिन्न भाषाओँ का ज्ञान आवश्यक नहीं,पहले व्यावहारिक ज्ञान, अर्थात 3H को विकसित करने वाली शिक्षा जरूरी है।
बाहुबल,बुद्धिबल और आत्मबल (3H) एक ही पदार्थ जल की तीन अवस्थायें होती हैं - ठोस (बर्फ), तरल और गैस! पारद का उपयोग तरल रूप और चाँदी के समान चमकदार होने के कारण थर्मामीटर, बैरोमीटर  तथा अन्य मापक उपकरणों में होता है। भीतर जो अन्य बहुमूल्य सूक्ष्म संपदा या संसाधन हैं, वे सब अप्रयुक्त या बेकार ही पड़े रह जायेंगे।  इसीलिये आचार्य शंकर समस्त मानव जाति को चरित्र-निर्माण का एक सूत्र देते हुए कहा है -
दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
      शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
दूर्जन व्यक्ति पहले सज्जन बन जाएँ, जो सज्जन हैं, वे शान्ति प्राप्त कर लेते हैं। जो शान्त हो चुके हैं वे समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं । जो स्वयं मुक्त हो चुके हों, वे दूसरों को मुक्त करने की चेष्टा करते हैं। और यही सच्ची सेवा है जिसे लोक-सेवक या नेता करते हैं।
लोक-सेवक अर्थात आदर्श कर्मी बनने, या योग-प्रशिक्षक अर्थात " मनुष्य बनने और बनाने" की शिक्षा अथवा प्रशिक्षण देने में समर्थ व्यक्ति को ही मानवजाति का मार्गदर्शक "नेता" कहा जाता है !
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(२ .) धर्म क्या है ? धर्म क्या चरित्र और शिक्षा से कोई अलग वस्तु है ?  किन्तु (शिक्षकों के प्रति छात्रों के नजरिये में) इस बदलाव का मुख्य कारण क्या है? जिन लोगों को अनवरत पूजक के कार्य का दायित्व सौंपा गया था, वे (आशाराम जैसे ) लोग धीरे धीरे आखिर में, केवल दक्षिणा से ही सन्तुष्ट न रहकर, स्वयं को ठाकुर या भगवान के रूप में प्रदर्शित करने लगे थे। गुरुगिरी करने लगे थे - इसीलिये केवल मुझे यह दो,वह दो और केवल दो-दो करने लगे थे। मैं अपने छात्रों को क्या दे सकता हूँ, ? उसका कोई हिसाब करने की जरूरत भी नहीं समझते थे। परस्परं भावयन्तः  शिक्षा के अन्तर्गत' पारस्परिक-श्रद्धा ' (Mutual respect) एवं ' पारस्परिक-सम्बन्ध ' (Correlation) और  के उपर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। 
ऋषि जेमिनी ने धर्म की परिभाषा करते हुए कहा है, ‘यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः’ अर्थात वह शिक्षा,धर्म या चरित्र जो व्यक्ति को संपन्न भौतिक जीवन का उपभोग करते हुए भी, अपनी इच्छाओं पर संयम रखने को प्रोत्साहित करती है और अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने की क्षमता का निर्माण करती है, उसी को धर्म कहते हैं । स्वामीजी धर्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं - "धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है।" जीवमात्र में  विद्यमान अविद्या शक्ति माँ जगज्जनी ही भगवती पराम्बा, विश्वजनमोहिनी कहलाती है। वे जिस प्रकार अविद्या माया का रूप धारण करके जीव के बंधन का कारण होती हैं, उसी प्रकार मुक्ति प्रदान करने के लिये विद्यामाया बनकर विभिन्न रूपों (ठाकुर -माँ -स्वामीजी) को धारण करतीं हैं। कहा गया है-
 ' साधकानां हितार्थाय अरुपा रूप धारिणी।' 
वे सभी स्थानों में व्याप्त हैं, किन्तु मनुष्य में उनका विशेष प्रकाश है। स्वामीजी कहते हैं, मैं जीवन भर ईश्वर को ढूँढ़ता रहा, किन्तु अन्त में मैंने मनुष्य के भीतर ही ईश्वर को देखा है। जो लोग समदर्शी होते हैं, वे सर्वत्र उनका अनुभव करते हैं। किन्तु हमलोग तो अभी सर्वदर्शी नहीं बन सके हैं, इसीलिये जीवों के भीतर, विशेष तौर से किसी महापुरुष के भीतर ही उनको स्पष्ट रूप से देख पाते हैं।
इन्द्रियातीत सत्य को सर्वत्र देखने का उपाय क्या है ? श्रीरामकृष्ण कहते हैं - " रिपीट द गॉड्स नेम ऐंड सिंग हिज ग्लोरी ! " भगवान के गुण का अर्थ क्या है ? भगवान के उपदेश की चर्चा ही तो है ! स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मेरे गुरुदेव का मानव जाति के लिए यह सन्देश है कि ' प्रथम स्वयं धार्मिक बनो और सत्य की उपलब्धी करो।' अलवर के युवा राजा, मंगल सिंह अंग्रेजीयत के रंग में रंगे थे और मूर्तिपूजा के विरोधी थे।  स्वामीजी ने उनसे कहा, जिस प्रतीक को हम ईश्‍वर मानते हैं उसे ही हम पूजते हैं-
अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदिदैवतम्।  
                                                 प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनः ॥
महर्षि पतंजली कहते हैं, " ईश्वरप्रणिधानम् - माया को दूर करने के लिये किसी ब्रह्मज्ञ महापुरुष के चित्र पर मन को एकाग्र करने की आवश्यकता पड़ती है। मार्गदर्शक नेता के चित्र पर मन को एकाग्र करने की आवश्यकता को समझाने के लिये शंकराचार्य कहते हैं, ' त्रय-दुर्लभं ' -- इन तीन चीजों को एक साथ प्राप्त करना दुर्लभ है- ' मनुष्यत्वं, मुमुक्षुत्वं और महापुरुष संश्रय'। किसी महापुरुष (स्वामी विवेकानन्द ) के जीवन और सन्देश पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से-विवेकश्रोत उद्घाटित हो जाता है।
महामण्डल द्वारा प्रस्तावित युवा-प्रशिक्षण शिविर  वास्तव में एक आश्चर्यजनक (monumental) सार्वजनिक महा-पूजनोत्सव  है ! इस पूजनोत्सव में भाग लेने वाला प्रत्येक प्रशिक्षणार्थी या छात्र 'ईश्वर की प्रतिमा' है, और  शिक्षक पुजारी हैं। पूजा करते समय पुजारी (शिक्षक, कर्मी या प्रबंधक) इतने प्रेम-पूर्ण स्वर में मंत्रोच्चार करेगा, कि उसके शब्द छात्र (प्रतिमा) के हृदय को स्पर्श कर लेंगे। वे कहेंगे-
" हे मनुष्य-रूपी देवता, इहागच्छ, इहागच्छ! - यहाँ आओ, यहाँ आओ। इहा तिष्ठ!, इह तिष्ठ ! यहाँ बैठो, यहाँ बैठो। अत्र-अधिष्ठानं कुरु! - यहीं पर (कैम्प में) वास करो। मम पूजा गृहान ! - मेरी पूजा ग्रहण करो ! "  दक्षिणेश्वर के शिक्षक रामकृष्ण ने अपने छात्र नरेन को क्या दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हुए यह नहीं कहा था- ' प्रभु मैं जानता हूँ, कि तुम्हीं नर-रूपी नारायण हो, यहाँ जीवों का दुःख करने के लिये आविर्भूत हुए हो ! ' 
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(३ .) शिक्षा अर्थात शीक्षा : " तैत्तरीय उपनिषद में उस शिक्षा के विषय में विस्तार से कहा गया है। उसके एक अध्याय का नाम ही- "शीक्षा- वल्ली " है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि "तैत्तरीय उपनिषद " के ' शीक्षावल्ली ' में ' श ' के साथ ई--कार या दीर्घ इ की मात्रा लगी हुई है। " क्या वेद में क्या ' ई '(बड़ी ई ) का प्रयोग यूँ ही (भूल-वश ) कर दिया गया है ?" यह दर्शाने के लिये तो नहीं कि जो विद्या मुक्त कर देती है वह 'विद्या गुरुमुखी' ही हो सकती है? सा विद्या या विमुक्तये !" - वही विद्या सच्ची विद्या है जिससे मुक्ति प्राप्त हो जाती है। उस प्रकार की मुक्ति-प्रदान करने वाली विद्या या शिक्षा-व्यवस्था हमलोगों के देश में बहुत प्राचीन युग से ही चलती आ रही है।
किन्तु इन दिनों शिक्षा मंत्रालय का नाम ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट मिनिस्ट्री  (Human Resource Development Ministry) है ! जैसे धरती के नीचे पेट्रोलियम, गोल्ड, कॉपर कोयला आदि संसाधन भरे हैं, किंतु उसे बाहर निकालने की पद्धति हमें नहीं मालूम हो, तो हम उन संसाधनों का प्रयोग मानव-कल्याण में नहीं कर सकते। हमलोगों के पास वह बहुमूल्य संपदा या संसाधन क्या है? जिसको यदि विकसित नहीं किया गया तो वह व्यर्थ के कार्यों में नष्ट हो जायेगी ? इन तीनों शक्तियों- बाहुबल,बुद्धिबल और आत्मबल (3H) के बारे में यदि हमलोग विस्तार से नहीं जानेंगे तो उन सबका सदुपयोग नहीं हो सकेगा, सदव्यवहार नहीं हो पायेगा। उपयोग में नहीं लायेंगे, वे शक्तियाँ व्यर्थ पड़ी रह जायेंगी। हमलोगों को एक स्वस्थ-सबल शरीर के साथ-साथ, एक ऐसे स्वस्थ- सबल मन का अधिकारी भी बनना होगा, जो हमारे हृदय की सहानुभूति या अध्यात्मिक एकत्व -बोध के दृष्टिकोण के द्वारा संचालित होगा।  सबसे बहुमूल्य सम्पदा है हमारा मन, जिसमें अनंत शक्ति छिपी हुई है !
" शिक्षा क्या है ? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "क्या वह पुस्तक-विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है, और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की एकाग्रता प्राप्त करना है ! " स्वामीजी यहाँ शिक्षा के विषय में एक अद्भुत बात कह रहे हैं ! शिक्षा, इच्छाशक्ति के प्रवाह को सशक्त (forceful) बना सकती है, (इच्छाशक्ति के) उस सशक्त प्रवाह की दिशा को नियंत्रित कर सकती है, उसे फलदायक बना सकती है ! - ये तीनों बातें निर्विवादित रूप से शिक्षा के कितनी अद्भुत और आधारभूत तत्व हैं ! मन की शक्ति, अर्थात इच्छाशक्ति के प्रवाह को संयत करने की क्षमता अर्जित करनी होगी। 
मानलो मैंने साईकिल चलाना सीख तो लिया,पर मेरी साईकिल में ब्रेक नहीं हो, और रोड पर अचानक गड्ढा आ जाने पर, सायकिल की हैंडल को मोड़ना और अचानक ब्रेक कसने का तरीका (पहले पिछला चक्का बाद में अगला कसना है) मुझे नहीं मालूम हो; तो शीघ्र ही दुर्घटना हो सकती है।
 यदि हमलोग मन को विषयों में जाने से या बहिर्मुखी होने से रोकना नहीं सीखें तो बहुत बड़ा खतरा हो सकता है। हमें यह सीखना होगा कि इच्छशक्ति को कैसे प्रभावकारी बनाया जाता है ? स्वामीजी कहते हैं, जो अपनी इच्छाशक्ति को प्रभावकारी बनाना जनता है, उसीको को शिक्षित मनुष्य कहा जा सकता है। युवाओं के लिये इस शिक्षा को प्राप्त करना ही आवश्यक है।
यह जो अदभुत इच्छाशक्ति हमारे भीतर है, उसके सम्बन्ध में जानना होगा। मनुष्येत्तर प्राणियों में यह शक्ति मनुष्यों की अपेक्षा बहुत थोड़ी होती है। केवल मनुष्य ही अपनी इच्छाशक्ति की सहायता से अपनी अन्तर्निहित शक्ति-श्रोत को उद्घाटित कर सकता है। एक स्थान पर स्वामीजी कहते हैं, " विश्व का इतिहास कुछ थोड़े से आत्मविश्वासी मनुष्यों का इतिहास है। यदि तुम कभी किसी कार्य में असफल हो जाओ, तो -यह समझ लेना कि यह अन्य किसी कारण के चलते नहीं हुई है-एकमात्र तुमने अपने भीतर की अनन्त शक्ति को प्रकट करने के लिये जितनी मात्रा में प्रयत्न करना चाहिए था, उतनी मात्रा में प्रयत्न नहीं कर सके हो, इसीलिये तुमको यह असफलता मिली है।"  
स्वामी विवेकानन्द इसका एक छोटा सा उदहारण देते हुए कहते हैं, " मानलो एक इंजन आ रहा है, और एक छोटा सा कीड़ा लाइन पर खड़ा है। इंजन में इतनी शक्ति है, किन्तु वह जड़ है, यदि ड्राइवर ब्रेक नहीं लगाये तो वह चलता जायेगा। किन्तु जो एक छोटा सा कीड़ा है, उसमें अपने प्राणों की रक्षा करने की प्रवृत्ति है। इसीलिये वह इतने बड़े इंजन के आने पर वह केवल लाइन से उतर कर, स्वतः नीचे सरक जाता है । " 
युवाओं का प्रथम कर्तव्य इस इच्छाशक्ति को बढ़ा लेना है। हमलोग स्वयं अपनी इच्छाशक्ति के प्रवाह के वेग को घटा-बढ़ा सकते हैं, उसके प्रवाह की दिशा को परिवर्तित कर सकते हैं, या मोड़ दे सकते है। हमलोग खड़े हैं, तो चल सकते हैं। चल रहे हों, तो खड़ा हो सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि हमलोग अपने 'विल-पॉवर' (willpower- इच्छाशक्ति, संकल्प शक्ति,आत्मसंयम) को किसी उपयोगी कार्य में लगा कर सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
आधुनिक मनोविज्ञान भी यही कहता है, कि प्रयत्न में कमी के आलावा विफलता का कोई दूसरा कारण नहीं है। आज पाश्चात्य देशों में मनोविज्ञान को एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में मान्यता मिल चुकी है। वे लोग अभी मन के उपर अनुसन्धान करने में लगे हुए हैं। वे भी ठीक यही बात कह रहे हैं कि मनुष्य के भीतर अनन्त शक्ति है।

' पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बन्द हैं, वह अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है। अव्यक्त रूप से पशु के भीतर मनुष्य,और मनुष्य के भीतर देवत्व विद्यमान है, केवल अज्ञान का आवरण उसे प्रकाशित नहीं होने देता। जब ज्ञान इस आवरण को चीर डालता है, तब वह भीतर का देवता प्रकाशित हो जाता है।'…  जब कोई मनुष्य समाधिस्थ होता है, तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो, तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है। वह स्पष्ट देख पाता है, ' कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन सारा संसार शूकर-देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था !' 
पुरुष (हृदय) भी बस, इसी प्रकार प्रकृति (देह और मन ) के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरुप है। हमारा यह जीवन उस इन्द्रियातीत अनंतस्वरूप में पहुँचने के लिये रास्ते में केवल एक क्षूद्र अवस्था है।" यही स्वामी विवेकानन्द के समस्त सन्देशों ( शिक्षाओं) का सार है, जिसे स्वामीजी ने बार बार समझाने का प्रयास किया है। किन्तु इस अवस्था (भ्रम-भंजक समाधि की अवस्था) में पहुँचना एक अत्यन्त कठिन कार्य है, लगभग असम्भव जैसा ही है।
इसीलिये अब हमलोग मन के विषय में स्वामीजी के एक अन्य कथन को एकाग्र-मन होकर श्रवण करेंगे, तथा उसपर मनन करेंगे-  " महासागर की ओर यदि देखो, तो प्रतीत होगा कि वहाँ पर्वताकाय बड़ी बड़ी तरंगें हैं, फिर छोटी छोटी तरंगें भी हैं, और छोटे छोटे बुलबुले भी। पर इन सबके पीछे वही अनन्त महासमुद्र है। एक ओर जहाँ वह छोटा सा बुलबुला अनन्त समुद्र से युक्त है, वहीँ दूसरी ओर वह बड़ी तरंग भी उसी महासमुद्र से युक्त है।
इसी प्रकार, संसार में कोई महापुरुष हो सकता है, और कोई छोटा बुलबुला जैसा सामान्य व्यक्ति, परन्तु सभी उसी अनन्त महाशक्ति के समुद्र से युक्त हैं, जो सभी जीवों का जन्मसिद्ध अधिकार है। जहाँ भी जीवनी-शक्ति का प्रकाश देखो, वहाँ समझना कि उसके पीछे अनन्त शक्ति का भण्डार है। एक छोटा सा फफूँदी (fungus) है; वह, सम्भव है, इतना छोटा, इतना सूक्ष्म हो कि उसे अनुवीक्षण यन्त्र द्वारा देखना पड़े; उससे आरम्भ करो। देखोगे कि वह अनन्त शक्ति के भण्डार से क्रमशः शक्ति संग्रह करके एक अन्य रूप धारण कर रहा है। 

कालान्तर में वह फफूंद उदभिद के रूप में परिणत होता है, वही फिर एक पशु का आकार ग्रहण करता है, फिर मनुष्य का रूप लेकर वही अन्त में ईश्वर-रूप में परिणत हो जाता है। हाँ, इतना अवश्य है कि प्राकृतिक नियम से इस व्यापर के घटते घटते लाखों वर्ष (कई कल्प ईओन eon) पार हो जायें। परन्तु यह 'समय' है क्या ?
 [ ऐन इंक्रीज ऑफ़ स्पीड, ऐन  इंक्रीज ऑफ़ स्ट्रगल, इज एबल टु ब्रिज द गल्फ ऑफ़ टाइम.] 'वेग' ----साधना का वेग बढ़ा देकर समय काफी घटाया जा सकता है। योगियों का कहना है कि साधारण प्रयत्न से जिस काम को अधिक समय लगता है, वही, वेग बढ़ा देने पर, बहुत थोड़े समय में सध सकता है।
हो सकता है, कोई मनुष्य इस संसार की अनन्त शक्ति भण्डार में से बहुत थोड़ी शक्ति लेकर चले। इस प्रकार चलने पर उसे (अपना पशुत्व त्याग कर ) देवत्व प्राप्त करने में सम्भव है, एक लाख वर्ष लग जायें, फिर और भी ऊँची अवस्था प्राप्त करने में शायद पाँच लाख वर्ष लगें।

पर उन्नति का वेग बढ़ा देने पर यह समय कम हो जाता है। पर्याप्त प्रयत्न करने पर छः वर्ष या छः महीने में ही यह सिद्धि-लाभ क्यों न हो सकेगा? (हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान, वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे?)  युक्ति तो बताती है कि इसमें कोई निर्दिष्ट सीमाबद्ध समय नहीं है। सोचो, कोई स्टीम-इंजन, किसी निश्चित परिमाण में कोयला (फ्यूल या ईंधन) झोंकने से, प्रति घंटा दो मील ही चल पाता हो, किन्तु यदि कोयला (या फ्यूल) झोंकने के परिमाण को अधिकाधिक बढ़ाते रहा जाय तो उसी अनुपात में उस इंजन की स्पीड भी बढ़ती जाएगी। इसी प्रकार हमलोग भी यदि तीव्र वेगसम्पन्न हों, तो इसी जन्म में मुक्ति-लाभ क्यों न कर सकेंगे ? हाँ, हम यह जानते अवश्य हैं कि अन्त में सभी मुक्ति पायेंगे। पर इस प्रकार हम युग युग तक मन की गुलामी से मुक्त होने की प्रतीक्षा क्यों करें ? इसी क्षण, इस शरीर में ही, इस मनुष्य-देह में ही हम मन की गुलामी से मुक्ति-लाभ करने में समर्थ क्यों न होंगे? हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान, वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे ? (१ /६८)"
महर्षि पतंजलि ने भी समाधिपाद १/२१ में कहा है -तीव्र संवेगानाम् आसन्नः॥ योगी अपने मन के एकाग्र करने की गति को कार का गियर बदलने जैसा घटा-बढ़ा सकता है। 
 तथस्ट   --> मृदु --> मध्य --> तीव्र
neutral ---> soft --> middle --> fast
१. तटस्थ होकर द्रष्टामन द्वारा दृश्य मन को देखने के लिये आसन पर बैठना।
२.मृदु स्पीड का प्रत्याहार -मन के साथ मृदु संघर्ष का प्रारम्भ - मन को पूरी ढील दे-देना उसे जहाँ जाना हो, जाने देना केवल उस पर नजर बनाये रखना।
३. मध्यम स्पीड की धारणा - मन को विवेक-प्रयोग करने के लिये मीठे भाव से बच्चा ऐसा समझाना-और समझा-बुझाकर अपने हृदय में विद्यमान इष्टदेव में कुछ देर तक धारण करना।
४. तीव्र स्पीड का मनःसंयोग - मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से बिल्कुल रोक देना। तीव्र सम्वेगवालों (अति जोशीले व लग्नशील लोगों) का ( समाधि लाभ ) समीप - शीघ्र ( होता है ) । समाधि लाभ शीघ्र प्राप्त करने के लिये योगी में उसके लिये तीव्र व दृढ़ इच्छा और अतिक्रियाशीलता होना आवश्यक है।
प्रकृति के अनन्त शक्ति भण्डार में से शक्ति ग्रहण करने की शक्ति बढ़ाकर किस प्रकार शीघ्र मुक्ति-लाभ किया जा सकता है ? योगियों ने इसका उपाय खोज निकाला है। वे दूसरी कोई चिन्ता नहीं करते, दूसरी बातों के लिये एक क्षण भी समय नहीं देते। उनका पल भर भी व्यर्थ नहीं जाता। एकाग्रता का अर्थ ही है, शक्ति-संचय की क्षमता को बढ़ाकर समय को घटा लेना। राजयोग इसी एकाग्रता की शक्ति को प्राप्त करने का विज्ञान है। (1/69)

 किन्तु ब्रह्मचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की बात है ! शक्ति का दुरूपयोग करना समस्या है, और शक्ति का सदुपयोग करना समाधान है। स्वामीजी कहते हैं- " मनुष्यों के भीतर जो शक्ति काम-प्रवृत्ति में, कामुक-चिन्तन इत्यादि रूपों में प्रकट होती है, उसको संयमित करने पर वह सुगमता पूर्वक ' ओज ' में रूपान्तरित हो जाती है। केवल कामजयी ( काम को परास्त करने वाले ) पवित्र नर-नारी ही इस ओजस-धातू (ओजस रूप में परिणत वीर्य) को अपने मस्तिष्क में संचित करने में समर्थ होते है। योगी लोग कहते हैं-  मनुष्य के शरीर में जितनी भी शक्तियाँ अवस्थित हैं, उन सब में सबसे सर्वोच्च शक्ति ओजस है। ऐसे ओजसशक्ति-सम्पन्न पुरुष जो कोई भी कार्य करते हैं, उसमें ही अलौकिक-शक्ति का आविर्भाव दिखाई देता है। "
" जब तक मनुष्य अपनी सर्वोच्च शक्ति -' कामशक्ति ' को ओज में परिणत नहीं कर लेता, कोई भी स्त्री या पुरुष, वास्तविक रूप में अध्यात्मिक नहीं हो सकता। अतः हमें चाहिये कि हम अपनी महती शक्तियों को अपने वश में करना सीखें और अपनी ' अदम्य इच्छाशक्ति ' (और विवेक-प्रयोग करने का दृढ़ संकल्प) के बल पर उन्हें पशुवत रखने के बजाय आध्यात्मिक बना दें। अतः यह स्पष्ट है कि पवित्रता ही समस्त धर्म और नीति की आधारशिला है !" ४/८९
यथार्थ शिक्षा - 'विवेकज ज्ञान' देने वाली 'शीक्षा' कभी बाहर से भीतर नहीं आती। क्योंकि अन्य इन्द्रियज ज्ञान या बाह्य जगत की सुचना के समान 'विवेकज -ज्ञान' भी यदि बाहर से भीतर आयेगा, तो किस माध्यम से या किस वाहन से आयेगा ?   देवता, स्वर्ग और प्राकृतिक शक्तियों (माया ) से बचने का फिर क्या उपाय है ? उपाय है विवेक- प्रयोग या सदसत विचार। 'क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् '   विवेकज-ज्ञान किसे कहते हैं ? ऐसा ज्ञान- जिसे भूत, भविष्य और वर्तमान के क्रम में गये बिना 'अक्रमम' बिना क्रम में गये, अर्थात एक ही क्षण में परिपूर्ण रूप से प्राप्त कर लिया जाय -वही है विवेकज ज्ञान। जैसे किसी कमरे में हजार वर्ष से अँधेरा हो तो माचिस जलाने पर अँधेरा धीरे-धीरे नहीं जाता है,(बिना क्रम में गये ) एक ही बार में चला जाता है
किन्तु यह शक्ति-श्रोत उद्घाटित कैसे होता है ?
व्यासदेव ने हजारों वर्ष पूर्व इसका उपाय बताते हुए कहा था - 'विवेकदर्शन अभ्यासेन विवेक-श्रोत उद्घाट्यते'! [इसीलिये स्वपरामर्श सूत्र में हम दुहराते रहते हैं " क्योंकि स्वामी विवेकानन्द अपनी शिक्षाओं की प्रतिमूर्ति हैं, इसीलिये  'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से  'विवेक-स्रोत' उद्घाटित हो जाता है। और विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से हमारा आत्मविश्वास  इतना प्रबल हो जाता है कि हम जब चाहें, वैराग्य का फाटक लगाकर मन के इच्छाशक्ति के प्रवाह की दिशा को निरन्तर फलदायी दिशा (अंतर्मुखी या उर्ध्वगामी) बनाये रखने में समर्थ मनुष्य बन जाते हैं ! मैं प्रति दिन उनके चित्र पर अपने मन को इस तरह एकाग्र करने का अभ्यास करूँगा कि उनका जीवन्त स्वरुप मेरे चित्त की गहरी परतों में बस जाये।"]
स्वामी विवेकनन्द ने कहा है -  " शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य है, सच्चरित्र मनुष्य का निर्माण। वैसा 
'मनुष्य ' बनो जो अपना प्रभाव सब पर डालता है।  जो अपने संगियों के उपर मानो जादू सा कर देता है, जो इच्छाशक्ति का एक महान केंद्र (Dynamo) है, और जब ऐसा मनुष्य तैयार हो जाता है, वह जो चाहे कर सकता है...महान धर्माचार्यों या पैगम्बरों (बुद्धदेव, ईसामसीह, मोहम्मद, नानक, श्रीरामकृष्ण आदि) के जीवन को देखो, उन्होंने अपने जीवन-काल में ही सारे देश को झकझोर कर रख दिया था...उन महापुरुषों में ऐसा क्या था कि शताब्दियों के बाद भी लोग उनके बताये रस्ते पर चलने की बातें करते हैं?  उनका वैसा सुंदर चरित्र और व्यक्तित्व ही था जिसने यह अन्तर पैदा किया " (४/१७२)
" एजुकेशन इज मेनिफेस्टेशन ऑफ़ परफेक्शन ऑल रेडी इन मैन। " स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " हमलोगों को बाल्यावस्था से ही जाज्वल्यमान, उज्ज्वल चरित्र युक्त किसी तपस्वी महापुरुष के सहवास में रहना चाहिए, जिससे उच्चतम ज्ञान का जीवन्त आदर्श सदा दृष्टि के समक्ष रहे. ' झूठ बोलना पाप है '- केवल पढ़ भर लेने से क्या होगा ? हर एक को पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करने का व्रत लेना चाहिए, तभी ह्रदय में श्रद्धा और भक्ति का उदय होगा, नहीं तो, जिसमें श्रद्धा और भक्ति नहीं, वह झूठ क्यों नहीं बोलेग?  
श्रद्धा की दो प्रमुख विशेषताएं वर्णित हैं - मनुष्य के (हृदय में निष्ठा) आस्तिक्य बुद्धि जाग्रत करना व मनन कराना। हम अपने ज्ञान (डिग्री) या पद को लेकर चाहे जितना भी गर्व क्यों न करें, किन्तु  हममें से अधिकांश व्यक्ति मूर्ख या भ्रमित (muddle-headed) हैं, तथा हममें से अधिकांश लोगों में इस 'श्रद्धा'
- नामक वस्तु का नितान्त आभाव है।
हमें गुरुगृह-वास और उस जैसी अन्य शिक्षा प्रणालियों  को पुनः जीवित करना होगा. आज हमें आवश्यकता है वेदान्त युक्त पाश्चात्य विज्ञान की, ब्रहचर्य के आदर्श, और 'श्रद्धा-जन्य अद्भुत आत्मविश्वास'  की। ..वेदान्त का सिद्धान्त है कि मनुष्य के ह्रदय में ज्ञान का समस्त भण्डार निहित है- एक अबोध शिशु में भी- केवल उसको जाग्रत कर देने की आवश्यकता है, और यही आचार्य का कार्य है. 
' आचार्यों में यह सामर्थ्य रहना चाहिए कि वह अपने शिष्यों को देश-कालातीत सत्य के बारे में इस प्रकार कह सके -  " मन और बाह्य प्रकृति की प्रत्येक वस्तु ( नाम-रूप ) देश-काल में  हैं और कार्य-कारण के नियम से बँधे हैं. आत्मा सब देश, सब काल, सब कार्य-कारणों से परे है. जो बँधी है, वह प्रकृति (देह और मन ) है, आत्मा नहीं। ..तुम आत्मा हो, मुक्त और शाश्वत, चिर मुक्त, चिर पवित्र. केवल पर्याप्त श्रद्धा रखो और क्षण भर में तुम मुक्त हो जाओगे. इसलिए अपनी मुक्ति घोषित करो और जो हो, वह बनो !! - सदा मुक्त, सदा पवित्र!. देश, काल, कार्य-कारण को हम माया कहते हैं '!
एक मनोवैज्ञानिक कहते हैं, " हमलोगों के अवचेतन मन के भीतरी दरवाजे के चौखट से ठीक पीछे ही- अनन्त शक्ति का श्रोत छुपा है। " और स्वामीजी कहते हैं, इस अनन्त शक्ति श्रोत को उद्घाटित करते ही यह इन्द्रियातीत शक्ति स्वतः अभिव्यक्त होने लगती है।
स्वामीजी से एकबार किसी ने पूछा था-" स्वामीजी, आर  यू अ बुद्धिस्ट ? तो उन्होंने थोड़ा सहास्य मुखड़े से कहा था -"नो, आई एम अ बड-डिस्ट." (bud-dist.) वे कहते थे - " यदि मेरी कोई संतान होती तो मैं उसे जन्म से ही सुनाता- 'तत्वमसि निरंजनः।' तुमने अवश्य ही पुराणों में रानी मदालसा की वह सुन्दर कहानी पढ़ी होगी। उसके संतान होते ही वह उसको अपने हाथ से झूले पर रखकर उसको लोरी सुनाते हुए गाती थी-   
           शुद्धोsसि रे तात न तेsस्ति नाम
                                 कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।                           
        पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्त
                          नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥            

 हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है? बचपन से ही वेदान्त सुनकर तीनों पुत्रों को वैराग्य हो गया और वे जंगल में तपस्या करने चले गए। तब मदालसा का चौथा पुत्र हुआ।
 तब राजा ने मदालसा से कहा कि कम से कम इस पुत्र को तो सांसारिक ज्ञान की शिक्षा दो जिससे हमारा राजपाट चल सके।  उसका नाम अलर्क (पगला कुत्ता ) रखा गया।  मदालसा की शिक्षा से वह बहुत ही शूरवीर, पराक्रमी राजा हुआ।  कुछ समय बाद राजा ऋतुध्वज अपनी पत्नी मदालसा के साथ अलर्क को राज्य सौंपकर जंगल में तपस्या करने चले गए। हालांकि राजा के कहने पर चौथे पुत्र को धर्म, अर्थ और काम शास्त्रों की भी शिक्षा दी।
लेकिन तपस्या के लिए वन में जाते समय उसे भी यही उपदेश दिया कि आत्मा निराकार है। अंतत: मां की दी हुई यही शिक्षा पाकर चौथे पुत्र को भी आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई कि तू शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। 
 इस प्रकार यह रानी मदालसा की ही शिक्षा थी कि जिससे सुबाहु, विक्रांत और शत्रुमर्दन जैसे ब्रह्मज्ञानी और अलर्क जैसे प्रतापी राजा हुए। मदालसा भारत की एक गौरवमयी माँ थीं। इस कहानी में एक महान सत्य छिपा हुआ है- 'अपने को बचपन से ही महान समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे!" 

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(४ .) इन्द्रियातीत सत्य को सर्वत्र देखने के -' चतुर्विध प्रयत्न' : यथार्थ शिक्षित मनुष्य बनने के लिये स्वामीजी ने बारम्बार  केवल ५ भावों को जीवन में आत्मसात करने की सीख दी है -  १. श्रद्धा (आत्मविश्वास) २. निर्भीकता (fearlessness/अभिः) ३. स्वार्थ-शून्यता (निःस्वार्थपरता ) ४. त्याग (नश्वर वस्तुओं के प्रति आसक्ति का त्याग/renunciation) ५. सेवा (Service) के द्वारा एक सकते है ! 
हमारे जीवन का उद्देश्य है-आत्मविश्वास !  उस अपरिवर्तनीय अच्छा (अविनाशी-वस्तु)  को प्राप्त कर लेना। और हमारे जीवन का आदर्श हुआ 'त्याग और सेवा।' और ये दोनों गुण मानो एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। यह 'त्याग' का गुण ही व्यावहारिक जीवन में 'सेवा' के रूप में अभिव्यक्त होने लगता है। 
यह त्याग ही ईश्वरीय-कानून या व्यवस्था- विधान है। अर्थात इस त्याग के नियम का उलंघन नहीं किया जा सकता है।
युवावस्था में ही उसको यह बोध हो जाये कि यह जीवन अति मूल्यवान है!  ' त्रय-दुर्लभं ' - यह मनुष्य- जीवन हमलोगों को किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये मिला है, यह पूरा जीवन ही त्याग की शिक्षा ग्रहण करने के लिये मिला है- इसे बात को युवावस्था में ही समझ लेना तो तो दूर की बात है - अधिकांश लोगों में जीवन-संध्या में पहुँच जाने के बाद भी यह बोध उत्पन्न नहीं हो पाता है।
उस उद्देश्य और आदर्श को प्राप्त करने का उपाय कहकर निर्देश करते हैं- 'प्रयत्न' 'चरित्र-निर्माण के चतुर्विध प्रयत्न'!
कर्मयोग  : क्या कोई भी यथार्थ प्रयत्न, उद्देश्य और आदर्श को कार्यान्वित करने में उपयोगी हो सकता है ? नहीं, जिस कार्य के द्वारा 'त्याग और सेवा ' का आदर्श कार्यान्वित हो सके, जो चेष्टा व्यक्ति को उसके जीवन लक्ष्य या उद्देश्य की ओर ले जाती हो, उसको ही सही प्रयत्न अथवा उद्द्य्म कहना होगा, अन्य प्रकार के कार्य को नहीं।
  हमलोग जैसे स्वयं विवेक-प्रयोग करते हुए नश्वर या परिवर्तनशील वस्तुओं में आसक्ति का त्याग करके उस एकमात्र अच्छा (अविनाशी अपरिवर्तनशील) वस्तु को प्राप्त कर सकते है, उसी प्रकार दूसरों को भी मनःसंयोग का प्रशिक्षण देकर उस अविनाशी वस्तु को प्राप्त करने में सहायता दी जा सकती है। और यही तो हुई सच्ची सेवा!  स्वामीजी ने इसी " त्याग और सेवा " को भारत का आदर्श कहा है। 'BE AND MAKE' को साकार करने के उद्देश्य से कर्म करना (pc और कैम्प) को ही 'कर्म-योग' कहा जाता है।  मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (पैगम्बरत्व) को उद्घाटित करने की चेष्टा या प्रयत्न करना ही स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित कर्म-योग का रहस्य है।
राजयोग :  अच्छा (अविनाशी) को प्यार करना, विवेक-प्रयोग करना, और त्याग और सेवा करना ये सभी कार्य सब मन के द्वारा ही सम्पन्न होती है। अतएव चारो प्रकार के योग या प्रयत्न करने के लिये इस मन को नियंत्रण में रखना या संयिमत करना अत्यंत आवश्यक है। और चूँकि यह मनःसंयोग समस्त प्रयत्न या योगों का नियन्त्रक है, इसीलिये इसको ' राजयोग ' कहा जाता है।
आत्मजन्या भवेदिच्छा, इच्छाजन्या कृतिभवेत।
      कृतिजन्या भवेत चेष्टा, चेष्टाजन्या क्रिया भवेत ॥

 हमारे नश्वर शरीर के भीतर आत्मा (अविनाशी वस्तु) हैं - इस ज्ञान का श्रवण-मनन करने पर, विवेकी मन में अच्छा अपरिवर्तनीय-वस्तु को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा होती है;  इच्छा बलवती होकर " कृति " अर्थात इच्छाशक्ति (kRuti ) या दृढ संकल्प बन जाती है । फिर उसी दृढ़-संकल्प पर अटल रहते हुए मनुष्य प्रयत्न (effort-उद्द्य्म) करता है। और प्रयत्न करने से क्रिया सम्पन्न हो जाती है। इसीलिए सभी कर्म में मन की शक्ति को लगाना ही पड़ता है। 
 ज्ञानयोग : (अनृतेन मर्त्येन) = इस मिथ्या और नश्वर मनुष्य शरीर के माध्यम से  इसी जन्म में मुझ सत्य और अमर परमात्मा को प्राप्त कर लेने में ही बुद्धिमानों की बुद्धिमानी और चतुरों की चतुराई है! उस यथार्थ-बुद्धि को 'मनीषा' कहते हैं जो शाश्वत और नश्वर का विवेक करके असत्य में से सत्य को, नश्वर वस्तुओं में से, अविनाशी 'वस्तु' का अविष्कार कर सकती हो।  अतएव जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिये यत्न न करके केवल विषयभोगों में ही लगे हुए हैं, वे श्रीभगवान मत में तो बुद्धिमान हैं और न मनीषी हैं!      
 उस अविनाशी  वस्तु को स्वयं प्राप्त करने के बाद दूसरों को भी उसे प्राप्त करने में सहायता करना आवश्यक है- इस उद्देश्य को चुन लेना - इसको ही विवेक कहते हैं। यह भी एक प्रयत्न या उद्द्म है इस प्रयत्न का नाम ही- ज्ञानयोग है। ज्ञानयोग के धरातल पर खड़े होकर कर्म करने से 'BE AND MAKE' भी कर्मयोग बन जाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कार्य को सही मार्ग पर संचालित रखने के लिये, ज्ञान-विवेक (विद्या-अविद्या विवेक) अनिवार्य है।
भक्ति योग : जो सचमुच अच्छा है, हमारे भीतर जो अपरिवर्तनीय (अविनाशी) 'वस्तु' है, उसके प्रति एकनिष्ठ रहना परम आवश्यक है। ठाकुर ने कहा है -"रिपीट हिज नेम ऐंड सिंग हिज ग्लोरी"  समस्त प्रयासों की ऐसी एक-मुखीनता ही भक्ति है!  "विवेकदर्शन का अभ्यास"  के प्रति ऐसे अपरिवर्तनीय अटूट-प्रेम, को ही भक्ति-योग का प्रधान अंग कहा जाता है। फिर इस ' मनीषा ' अर्थात विवेक-प्रयोग करने की क्षमता को निरंतर जाग्रत रखने के लिये,प्रेम के पात्र (श्रीरामकृष्ण को सोमनाथ और द्वारिकाधीश से ? ) को बदलते रहने से, या उसको एकनिष्ठता के साथ प्रेम नहीं करने से, मनुष्य जीवन का उद्देश्य और आदर्श कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। स्वामी विवेकानन्द ने इन्हीं चार प्रयत्न या योग की सहायता से अपने आदर्श को कार्यान्वित करने का परामर्श दिया है। 

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(५.) श्रद्धा जागरण:  ‘श्रद्धा’ एक संस्कृत शब्द है, जिसका शाब्दिक का अर्थ है- ‘आस्तिक्य बुद्धि।'  श्रद्धा=श्रत्+धा, सत्य+धारणा, सत्य+धारण,  आत्म+विश्वास। सहज विश्वास अथवा अन्धविश्वास का नाम श्रद्धा नहीं है। सत्य को निश्चयपूर्वक जानकर, उसे दृढ़ता के साथ धारण करना श्रद्धा है। आत्मविश्वास के साथ साध्य की साधना में जुट जाना श्रद्धा है। ‘सत्य धीयते यस्याम्’ - अर्थात जिस निश्चयात्मक बुद्धि में सत्य प्रतिष्ठित हो गया है ! उसी नित्य विवेकसम्पन्न बुद्धि का नाम श्रद्धा है । 
 यह सत्य क्या है? यथार्थता-वास्तविकता क्या है? इस सत्य पर विश्वास करने की जरुरत नहीं है, इसकी उपलब्धि करनी होती है !   'अपरोक्षानुभूति' बुद्धि के क्षेत्र से परे जाने पर होती है; उसे ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया।  इसी ज्ञान स्वरूप परम तत्व को जानकर मनुष्य सदा के लिए भ्रम मुक्त (जन्म मरण के बन्धन से मुक्त) हो पाता है।
परमहंस श्रीरामकृष्ण ने इसी को और अधिक सरल सुस्पष्ट करते हुए बताया है कि शास्त्र की आवश्यकता तो निर्देशन भर के लिये है। परम तत्व की प्राप्ति तो व्यावहारिक जीवन में उन निर्देशों को उतारने से ही पूरी होगी। जैसे-किसी के यहाँ उसके गाँव से पत्र आए कि चार किलो मिठाई, 4 धोती, तीन लोटे लेकर आ जाय। अब उसका कार्य यह है कि बाजार जाकर इन सब चीजों को खरीदे। तत्पश्चात घर जाय और सामान पहुँचाए। तभी प्रयोजन की पूर्ति होगी। यदि वह मात्र पत्र पढ़ता रहे याद कर डाले, उस पर बहस करे तो क्या फायदा? 

पत्र पढ़ना है परोक्ष ज्ञान और सामान पहुँचाना अपरोक्ष ज्ञान। इस अपरोक्ष ज्ञान को पूर्णज्ञान या निरपेक्ष ज्ञान भी कहा गया है। इसकी जानकारी तो परम ज्ञान की प्राप्ति से ही होती है। इसी से सत रूप अर्थात् अपने दिव्य स्वरूप का बोध होता है। वीर पुरुष श्रद्धा के द्वारा ही विजय लाभ करते हैं। '(श्रद्धया विन्दते वसु) अर्थात श्रद्धा से ही ‘वसु’ (लौकिक  कल्याण -धन वैभव) और आध्यात्मिक कल्याण (अमरत्व) दोनों प्रकार के ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। हृदय के दृढ संकल्प के साथ श्रद्धा की उपासना करने से 'आध्यात्मिक वसु'  प्राप्त होती है; अर्थात  उसका अज्ञान या अविद्या नष्ट हो जाती है, और मनुष्य ज्ञान या अमरत्व को प्राप्त हो जाता है- 'श्रद्धावान लभते ज्ञानं '।  स्वामीजी ने श्रद्धा को ही जीवन की समस्त समस्याओं के समाधान की कुँजी कहा है।
'यदि ईश्वर दयामय हैं, तो यहाँ मृत्यु क्यों है?' “एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति” के वेदान्त सूत्र में भारतीय तत्त्व चिन्तन का सार निहित है। इसी सूत्र द्वारा श्रद्धा अर्थात 'आस्तिक्यबुद्धि' का समर्थन व प्रतिपादन किया गया है। इसी प्रकार के समस्त प्रश्नों का उत्तर वैदिक दर्शन की इस धारा में स्पष्ट किया गया है कि एक ऐसा परम तत्त्व ‘एकमेवाद्वितीय’ विश्व चेतना है, जो सबकी नियामक है और सर्वत्र परिव्याप्त है ! सृष्टि के कण- कण, में विश्व-ब्रह्माण्ड के प्रत्येक घटक में समाई हुए है। सम्पूर्ण विश्व उसी की अभिव्यक्ति है।
श्री रामकृष्ण कहा करते थे कि परम तत्व को मुख से उच्चारित विश्लेषित करना असम्भव है। ज्ञान स्वरूप परमात्मा मुख से उच्चारित नहीं हुआ इसलिए जूठा नहीं हुआ है। जबकि शास्त्र बार-बार दुहराये जाने के कारण जूठे हो गए हैं। उपनिषदों में इसी को उच्च ज्ञान (परा) और निम्न ज्ञान (अपरा) भी कहा गया है। इसे अपरोक्ष ज्ञान अर्थात् ज्ञान स्वरूप ईश्वर की प्राप्ति का अनुभव जो अनुच्चरित अविश्लेषित है।

इसी सत्ता को वेदान्त पूर्ण ब्रह्म कहकर सम्बोधित करता है, पर नाम के प्रति उसका कोई संकीर्ण भाव नहीं। क्योंकि परमसत्ता नाम और रूप से परे है। वेदान्त ने इसी परम-सत्ता को सत्-चित्-आनन्द कहकर भी इंगित किया है। जिसका तात्पर्य है-यथार्थता, ज्ञान और स्वतंत्रता (आनन्द)। यह आध्यात्मिक अनुभव के तीन रूप हैं। 
यह दार्शनिक प्रतिपादन कि “प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है” “ मनुष्य जीवन का उद्देश्य इस अव्यक्तता को व्यक्त करना तथा दिव्य जीवन की प्राप्ति ही है” का सन्देश देता है। आधुनिक चिन्तकों जैसे प्लेटो का शुभ, स्पिनोजा का सबस्टेंशिया, काण्ट का डिंग एन सिच, हरबट्र स्पेन्सर का “अननोएबल”, शोपनेहावर की विल, इमर्सन का “ओवरसोल” इसी विश्व चेतना के भिन्न-भिन्न पर्याय हैं। विभिन्न मतावलम्बी उसी एक इन्द्रियातीत 'परम-सत्य' को भिन्न-भिन्न नामों से जानते हैं। ईसाइयों का गॉड, मुसलमानों का अल्लाह या खुदा; यहूदियों का जेहोवा, ताओवादियों का ताओ, पारसियों का आहुरमज्द। इसी दिव्य सत्ता के भिन्न-भिन्न प्रतीकात्मक नाम हैं। 
"पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥ " रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। तुमलोग भगवान को ढूंढ़ने कहाँ जाते हो ? एकमात्र 'मनुष्य' ही ईश्वर की अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ माध्यम' है!   जो मनुष्य के सम्मान में श्रद्धा के साथ सिर नहीं झुकाता, वह शैतान है।" 
नचिकेता के जीवन में 'श्रद्धा' का एक सुन्दर दृष्टान्त दिखायी देता है। इस श्रद्धा या अद्भुत आत्मविश्वास का प्रचार करना ही मेरे जीवन का व्रत है। कितने मनोहर रीति से कठोपनिषद का आरंभ किया गया है ! उस छोटे से बालक नचिकेता के हृदय में श्रद्धा का अविर्भाव,उसकी यमसदन जाकर यमदर्शन की अभिलाषा और और सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि यमराज स्वयं उसे जीवन और मृत्यु का महान पाठ पढ़ा रहे हैं। और यह बालक नचिकेता उनसे क्या जानना चाहता है ? -मृत्यु का रहस्य। (' यदि ईश्वर दयामय हैं, तो यहाँ मृत्यु क्यों है?' ) " ५/२२४
स्वामीजी कहते हैं- नचिकेता के जीवन में 'श्रद्धा' का एक सुन्दर दृष्टान्त दिखायी देता है। इस श्रद्धा या अद्भुत आत्मविश्वास का प्रचार करना ही मेरे जीवन का व्रत है। तुममें से जिन लोगों ने उपनिषदों में सबसे अधिक सुन्दर -'कठोपनिषद ' का अध्यन किया है, उनको नचिकेता की कहानी अवश्य याद होगी। जिस पल उसके हृदय में इस प्रकार की श्रद्धा का उदय हुआ, उसके आत्मविश्वास और साहस में वृद्धि भी होने लगी।
उस समय जो समस्या उसके मन को आन्दोलित कर रही थी, वे उस मृत्यु-तत्व को आर-पार देख लेने के लिये कमर कस कर तैयार हो गये। किन्तु यमराज के घर तक पहुँचे बिना इस समस्या के समाधान का कोई उपाय नहीं था, अतः वह बालक वहीं गया।  निर्भीक नचिकेता यमसदन पहुंचकर तीन दिन तक प्रतीक्षा करता रहा, और तुम जानते हो कि किस तरह उसने अपना अभिपिस्त प्राप्त  किया। "

" आज हम लोगों को इसी प्रकार की श्रद्धा चाहिये। दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है, और हमारी वर्तमान दुर्दशा का कारण भी यही है। एक मनुष्य की अपेक्षा दूसरे मनुष्य में जो अंतर दिखाई देता है, उसका कारण अन्य कुछ नहीं केवल इस श्रद्धा के तारतम्य को लेकर ही है। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को कमजोर और छोटा बनाती है। मैं यही चाहता हूँ की ऐसी ही श्रद्धा तुम्हारे हृदय में भी प्रविष्ट हो जाये। ऐसा ही आत्मविश्वास हम सभी लोगों के लिये आवश्यक है; और इसी श्रद्धा को प्राप्त करने का महान कार्य तुम्हारे सामने पड़ा हुआ है।" ५/२१२-१३
' मैंने जीवन भर ईश्वर का अन्वेषण किया है, किन्तु उनको केवल मनुष्य के भीतर ही पाया है।'  किन्तु क्या हमलोग प्रत्येक मनुष्य को (-चाहे वह किसी जाति या धर्म का हो ?) श्रद्धा और प्रेम की दृष्टि के  साथ से देख पाते हैं? यदि किसी प्रकार मनुष्य-जीवन के प्रति केवल श्रद्धा उत्पन्न कर दी जाय, तो उतने से भी बहुत लाभ होगा।इसी परम ज्ञान को निरपेक्ष ब्रह्म को प्राप्त कर ऋषि, मनीषी, ज्ञानी भ्रमजाल से परे होकर विश्व उद्यान में जीवनमुक्त हो विहार करते हैं और परमपिता की इस वाटिका को सुरम्य बनाने में हाथ बँटाते हैं। वेदान्त ज्ञान की यह सर्वोपरि उपलब्धि है।
यमराज कहते हैं - " मेरे बच्चे ! तुमने तीसरी बार भी धन, प्रभुता, दीर्घ जीवन, ख्याति, और कुटुम्ब के सुखों को ठुकरा दिया। तुम चरम सत्य के विषय में जिज्ञासा करने के पराक्रमी अधिकारी हो। मैं तुमको ज्ञान दूँगा। दो मार्ग हैं, एक श्रेय मार्ग है दूसरा प्रेय मार्ग है। तुमने प्रथम का वरण किया है। "९/१३१

 उपनिषदों में सबसे अधिक सुन्दर -'कठोपनिषद ' (१/३/१५) में यही बात यमराज-नचिकेता से  कह रहे हैं-  ' एतत् वै तत्'- नचिकेता ! हे नचिकेता यही  वह परमात्म-तत्व है, जिसके सम्बन्ध में तुमने पूछा था।

नैव वाचा, न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा।
      अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते।।     

हे नचिकेता !'तत् अस्ति = वह अवश्य है; इति ब्रुवतः' ऐसा कहनेवाले के (कथन के) अतिरिक्त 'अन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ' =  दूसरे को -वह कैसे प्राप्त हो सकता है? 'अस्तिति ध्रुवतः '- " निश्चित रूप से वह अविनाशी आत्मा मेरे इस नश्वर शरीर के भीतर अवस्थित है !" जो कोई भी व्यक्ति डंके की चोट पर यह घोषणा करता है,  -उसके भीतर यह शक्ति जाग्रत  जाती है। जो हमेशा अपने को नश्वर शरीर मानकर डरता रहता है, 'म्याऊं म्याऊं' करता रहता हो; उसे वह शक्ति भला कैसे प्राप्त हो सकती है? मनुष्य का वह तीसरा (अवयव '3rd H' हार्ट, प्रेम स्वरूप ह्रदय) 'आत्मा' इन्द्रियातीत वस्तु है ! उसे वाणी आदि कर्मोन्द्रियों से, चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों से और मन-बुद्धिरूप अन्तःकरण से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि वह इन सबकी पहुंच से परे है। 
 " जो श्रद्धा वेद -वेदान्त का मूल मन्त्र है, जिस श्रद्धा ने नचिकेता को प्रत्यक्ष यम के पास जाकर प्रश्न करने का साहस दिया, जिस श्रद्धा के बल से यह संसार चल रहा है " जिस श्रद्धा के साथ ब्रह्मचर्य और शिक्षा अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है।- उसी श्रद्धा का लोप ?  जिस श्रद्धा अर्थात अद्भुत आत्मविश्वास के बल पर नचिकेता मृत्यु के सामने जाकर, साक्षात् यमराज के सामने खड़े हो गए थे,  ऐसी ' मृत्युंजयी- श्रद्धा ' के सामने कोई भी समस्या हल हुए बिना रह ही नहीं सकती।  गीता में कहा है -संशयात्मा विनश्यति -अज्ञ तथा श्रद्धाहीन और संशययुक्त पुरुष का नाश हो जाता है। इसीलिये हम मृत्यु के इतने समीप हैं। अब उपाय है - शिक्षा का प्रसार, पहले आत्मज्ञान !" ६/३१२ 

श्रद्धा वाले सूक्त में सायण ने श्रद्धा का परिचय देते हुए लिखा है-‘कामगोत्रजा श्रद्धा’। अर्थात काम की संतति है-श्रद्धा। कामायनी में जब मनु सत्य के मार्ग में न चलने का दुष्परिणाम भोगकर मुमूर्षु दशा में पहुँचते हैं तो वह श्रद्धा ही है जो उन्हें सत्य के मार्ग की ओर पुनः प्रवृत्त करा आनन्द उपलब्ध कराती है। कामायनी में ‘श्रद्धा’ के माध्यम से एक सन्तुलित जीवन जीने की प्रेरणा है जहाँ न तो घोर विलासितापूर्ण सतत वासनामय ऐहिक जीवन की तलाश है और न ही एकान्तिक वैराग्य धारण करना ही अभीष्ट है। एक समन्वय का मार्ग विदुषी ‘श्रद्धा’ से प्राप्त होता है।
 श्रद्धा मनु को निर्भयता का पाठ पढ़ाती है। जयशंकर प्रसाद की कामायनी में श्रद्धा के साथ मनु का मिलन होने के बाद उसी निर्जन प्रदेश में उजड़ी हुई सृष्टि को फिर से आरंभ करने का प्रयत्न हुआ। (मनु अर्थात् मन के दोनों पक्ष, हदय और मस्तिष्क का संबंध)। कामयानी महाकाव्य वस्तुतः अपूर्ण मानव (कच्चा मैं) को परिपूर्णता (पक्का मैं ) की ओर ले जाने वाली विकास-यात्रा की दिशा व अन्तिम पड़ाव दोनों ही है।
श्रद्धा के बिना संसार का कोई भी कार्य उत्कृष्ट रूप से निष्पादित नहीं हो सकता।  स्वामी विवेकानन्द युवाओं के प्रति अपने ओजस्वी संदेश में क्या कहते हैं ? 
" किन्नाम रोदिसि सखे त्वयि सर्वशक्तिः !  
 -हे सखे, तुम क्यों रो रहे हो ? तुम्हारे ही भीतर समस्त शक्तियाँ अन्तर्निहित हैं।  इस सच्चाई को जान लो, एवं उस शक्ति अभिव्यक्त करो। लोग कहते हैं-इस पर विश्वास करो,उस पर विश्वास करो, मैं कहता हूँ पहले अपने आप पर विश्वास करो। कहो मैं सब कुछ कर सकता हूँ।
                                     ' आत्म्वैही प्रभवते न जडः कदाचित।'
" अपनी शक्ति के बल पर ही सारे काम किये जा सकते हैं। जड़ वस्तुओं (शरीर-मन) में अपनी कोई शक्ति नहीं होती है। मैं केवल अपने अन्तर्निहित आत्मतत्व (पर ही मन को एकाग्र रखता हूँ ) की ही चिन्ता करता हूँ, जब वह ठीक होगा, तो सभी काम अपने आप ठीक हो जायेंगे।"  

                                  ' निर्गच्छति जगज्जालात पिंजरादिव केसरी '
' -जिस तरह सिंह पिंजरा तोड़ कर निकल जाता है, उसी तरह आत्मा भी शरीर-मन रूपी पिंजरे को तोड़ कर मुक्त हो जाओ । ' स्वामीजी कहते हैं - " समस्त वेद यही शिक्षा देते हैं - निराश मत होना, मार्ग बड़ा कठिन है-छुरे की धार पर चलने के समान दुर्गम है; फिर भी निराश न होना, उठो ! जागो ! और अपने उद्देश्य को प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो ! "

 
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