सोमवार, 1 सितंबर 2014

' विवेकानन्द दर्शनम् सारांश ' (1-16 )

यह जगत क्या है और क्यों है ?

श्लोक -१. नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम् |  एष वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते ||

श्लोक -२. मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्त्ता तु वर्तते |  पश्यामः केवलं तद्धि नृनिर्माणं कथं भवेत् ||


1. ' After all, this world is a series of pictures. ' This colorful conglomeration expresses one idea only.

2. Man is marching towards perfection. That is -- ' the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone.'

१. " सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है।" और जगत रूपी चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के माध्यम से केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है।"

२.  अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ - मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (आदर्श) की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस  संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात आप्त-पुरुष या ब्रह्मविद् ' मनुष्य ' बनते हुए देख रहे थे !

प्रसंग : [१-२ :  ईसा-अनुसरण -७/३३९ तथा भगिनी निवेदिता द्वारा लिखित कोलकाता डायरी में ८ मई १८९९ को  'स्वामी विवेकानन्द के साथ भ्रमण के कुछ नोट्स' (Notes of some wanderings with the Swami Vivekananda)  ]

विषयवस्तु :
सद्गुरु, नेता या ऋषि (पैग़म्बर) बड़े दु:साहसी और विपरीत धारा के तैराक होते हैं। वे बड़े मरजीवड़े होते हैं। वे मृत्यु के मुख से अमरता की मणि को जबरन निकालकर अपना  शीशमुकुट  बना लेते हैं। मानवजाति के मार्गदर्शक नेता युगों-युगों की अन्धकार-काराओं-ह्रदय को अन्तर के प्रकाश से आलोकित करने वाले प्रकाश-स्तम्भ हैं। धर्म के विषय में जो कुछ कहा जा सकता है, उसे तो उंगलियों पर गिना जा सकता है। इसीलिये उनके लम्बे लम्बे भाषणों का कोई महत्व नहीं, उन उपदेशों का अनुसरण करने से जो 'मनुष्य' (आप्त-पुरुष) निर्मित होता है, वही माने रखता है। अतः किसी भी सन्त, अवतार या पैग़म्बर के जीवन का पूर्वार्ध ही अनुकरणीय होता है, उनके द्वारा सिद्धि प्राप्त कर लेने के बाद के जीवन का उत्तरार्ध पहले नहीं पढ़ना चाहिये।  
धार्मिक विधिशास्त्र (मनःसंयोग, राजयोगविद्या, ब्रह्मविद्या) आदि 'मनुष्य' (मानहूश) बनने की प्रेरक अभिप्रेरणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। अतः सभी छात्रों को किशोरावस्था से ही धर्मशील या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने " Be and Make " का प्रयास करना चाहिये। ईसा ने भी कहा था - "Seek ye first the kingdom of God" -'मैथ्यू ६/३३'। 
सभी सयाने एक मत - समस्त 'आप्त-पुरुषों' का मत एक ही प्रकार का होता है। आप्तोपदेशवाक्यः शब्दः। अर्थात सिद्ध पुरुषों के उपदेश प्रमाणस्वरूप हैं और इसीका नाम शब्द-प्रमाण है। इस स्थान पर टीकाकार ऋषि जैमिनी कहते हैं कि आर्य और म्लेच्छ दोनों का ही 'आप्त-पुरुष' होना सम्भव है।"७/३३९ इसलिये  मनुष्य को किशोरावस्था से ही मनःसंयोग का अभ्यास करके सत्य या ईश्वर की खोज  करनी चाहिए , ऐसा करने से ईश्वर (आदर्श) के भीतर स्वाभाविक रूप से जो पवित्रता, नेकी, साधुता (righteousness) आदि सम्पत्तियाँ हैं वे सब तुम्हें विरासत में प्राप्त हो जायेंगी ! स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं भी मात्र १३ वर्ष की किशोर अवस्था में ही एक रोमन कैथलिक संत थॉमस ए० केम्पिस द्वारा लिखित "इमीटेशन ऑफ़ क्राइस्ट" या 'ख्रिष्टा- नुकरण' नामक ग्रन्थ को पढ़ लिया था।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस ने कहा था -"An avatars-doctrine could not supply India's present need of a religion all- embracing, sect-uniting, etc." 
" भारत की वर्तमान आवश्यकता की एक ऐसे नेता की है, जो सार्वभौम-धर्म (वेदान्त) में विश्वासी हो और जो विश्व के सभी विभिन्न सम्प्रदायों और मतों को गले लगा सके और सभी संप्रदाय में परस्पर सौहार्द और भाईचारे के साम्य को स्थापित कर सके। किन्तु विभिन्न धर्मों में प्रचलित पारम्परिक अवतारवाद का सिद्धान्त भारत की वर्तमान आवश्यकता की आपूर्ति नहीं कर सकता। " 
इसीलिये आज श्री रामकृष्ण के उपदेशों की नहीं, बल्कि जैसा जीवन उन्होंने जीया था, उस प्रकार के जीवन की आवश्यकता है। यथार्थ शिक्षक (गुरु या नेता) शिष्य रूपी धुन्ध के एक ढेले- 'lump of mist' को अपने हाथों में लेते हैं, और क्रमशः वह एक 'मनुष्य' (ब्रह्मवेत्ता) के रूप में विकसित हो जाता है।" श्री रामकृष्ण एक ऐसे शिक्षक (मानव-जाति के मार्ग-दर्शक नेता) हैं, जो ब्रह्मविद् मनुष्यों का निर्माण करते हैं; और यही उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य है! किन्तु सदैव वे अपने अनुयायिओं की 'वीड आउट' (निराई) भी करते रहते थे, और अपने जिन युवा शिष्यों को वे (मानसिक रूपसे) वृद्ध समझते थे, उन्हें रद्द कर देते थे। उन्होंने अपने शिष्यों के रूप में सदा केवल युवाओं का ही चयन किया है ! इसीको गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार शिक्षक-प्रशिक्षण या लीडरशिप ट्रेनिंग कहते हैं। ईसामसीह या श्रीरामकृष्ण जैसे प्रेमस्वरूप नेता (जगतगुरु) का गुणगान करने वाला निष्ठवान महामण्डल कार्यकर्ता (नेतृत्व प्रशिक्षु ) बहुत सहजता से तीन अवस्था,' जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति ' में आसक्ति को त्यागकर तौर्य-अवस्था (इन्द्रियातीत  अविनाशी आनन्द) का अनुभव कर सकता है।
भारत के युवाओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण के जैसा ब्रह्मवेत्ता मनुष्य या आप्त मनुष्य बनकर स्वयं सर्वधर्म-समन्वय या साम्य-भाव में प्रतिष्ठित हो जाना है; और दूसरों को भी उसी साम्य-भाव में स्थित होने में सहायता करना है। जब कोई नेतृत्व-प्रशिक्षु आप्त -पुरुष बन जाता है, तब वह इस जगत की घटनाओं (विभिन्न सम्प्रदायों के बीच चलने वाले झगड़ों ) को देखकर विचलित नहीं होता। तब कोई सीन यदि पसन्द नहीं आ रहा हो तो ईश्वर की कृपा से उसको फ़ास्ट-फॉरवर्ड मोड में डाल कर अपने सत्य-स्वरूप में स्थित रह सकता है। श्रीरामकृष्ण- माँ सारदा- स्वामी विवेकानन्द  के सर्वधर्म समन्वय रूपी जीवन धारावाहिक का अवलोकन करने से हमें आखिरकार यह समझ में आ ही जाता ही जाता है कि उनके जीवन-चरित के माध्यम से हमलोग अभी तक केवल 'मनुष्य' को [man with capital 'M'] पूर्णत्व-प्राप्ति की ओर अग्रसर होता हुआ देख रहे थे !
वह जान लेता है कि साधारण मनुष्य (विभिन्न धर्मों के अनुयायी-अमज़द डकैत) भी अपने भ्रमों-भूलों को, 'अपना-पराया' की भेद-बुद्धि को त्यागता हुआ  क्रमशः परिपूर्णता (perfection या सर्वोत्कृष्टता) की ओर ही अग्रसर हो रहा है। वह स्वयं अहंकार, देहाध्यास अर्थात मन की गुलामी का त्याग कर के यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद्-आप्त पुरुष) बन जाता है, और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करता है। 
[ गुलामी की मानसिकता से ग्रस्त भारत को जाग्रत करने की पहली शर्त या प्राथमिक आवश्यकता थी उसके खोये हुए सेल्फ कान्फीडेन्स, आत्म श्रद्धा को लौटा देने की तथा  ' एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति ' रूपी वेदान्ती साम्यवाद के आधार पर सभी धर्मों के बीच परस्पर सौहार्द और भाईचारे - 'सर्वधर्म समन्वय' को स्थापित करने की !  इसीलिये उन्होंने मानवता को मेल-फीमेल या हिन्दू-मुस्लिम-सिख -ईसाई में विभाजित न करते हुए कहा था - " ईच सोल इज पोटेन्शली डिवाइन - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है " -अर्थात प्रत्येक जीव संभावित ईश्वर है ! और अपने ईश्वरीय स्वरूप को अभिव्यक्त करना ही मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है।
विवेकानन्द ने कहा - " पुरानी परिभाषा थी जो ईश्वर को नहीं मानता वह नास्तिक है, मैं परिभाषा करता हूँ कि जो अपने आप को नहीं मानता, अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। "  इसलिए भारत के लिए, उनका जो आव्हान था वह यह था, अपने आप पर विश्वास करो और उठकर खड़े हो जाओ। और उन गरीबों के लिए, उन लांछितों के लिए उन जरूरतमंदों के लिए जो कुछ कर सकते हो, वह करो। किन्तु यह मानकर नहीं कि वे गरीब हैं, और रोगी हैं। बल्कि वे स्वयं शिव हैं, और तुम्हारी पूजा को स्वीकार करके तुम्हें आप्त या ब्रह्मविद् मनुष्य बनने का अवसर देने के लिये स्वयं गरीब और रोगी बन कर तुम्हारे सामने खड़े हैं ! इसलिये - ' निल डाउन एंड गिव'!  
पश्चिम का दुर्भाग्य यह भी था कि उसकी धार्मिक चेतना केवल बाईबिल तक ही सिमटी हुई थी, वह नवीन वैज्ञानिक अनुसंधानों पर भी विश्वास करने को तैयार नहीं थी। वह इतनी संकीर्ण थी कि विज्ञान से टकरा गयी। आज एक छोटा बच्चा जानता है कि पृथ्वी सूर्य के इर्दगिर्द घुमती है, मगर उस वक्त़ अपने गणित के आधार पर उसे प्रमाणित करनेवाले गियार्दानो ब्रूनो,  को जिंदा जला दिया गया। वहाँ के वैज्ञानिकों की क्या स्थिति हुई?  कहा जाता है कि अपनी जान बचाने का विकल्प उसके सामने था, बशर्ते वह अपने गणित को खारिज कर देता। किन्तु ब्रूनो ने क्राईस्ट को नहीं बल्कि ग्रन्थ और अवतारवाद पर आधारित चर्चिनिटी  को  चुनौती दी थी।  चर्च ने विज्ञान की चुनौतियों का जवाब देने की बजाये- उससे लोहा लिया।  
विज्ञान और धर्म के बीच की टक्कर में यूरोप का इतिहास खून से रंगा हुआ है।  धर्म बनाम विज्ञान, तर्क बनाम श्रद्धा, मनुष्य बनाम  ईश्वर, और चर्च के विरुद्ध इस्टेट की जो लम्बी लड़ाई चली, उस लम्बी लडा़ई में ईश्वर और धर्म को खण्डित करके मनुष्य को प्रतिष्ठित किया गया। धर्म को खण्डित करके विज्ञान की पताका फहराई गयी और चर्च की जगह पर स्टेट पावर को सब कुछ माना गया।  मात्र ग्रन्थ एवं अवतार-वाद पर आधारित धर्म के आवरण को भेदते हुए बिल्कुल सेक्युलर आधारों पर ज्ञान की विवेचना उसके बाद ही प्रारम्भ हुई। 
मार्क्सवाद या साम्यवाद के नाम पर सेक्यूलिरिज्म की एक ऐसी अवधारणा सामने आई जिसमें राम-राज्य को नहीं बल्कि धर्म को अफ़ीम समझने वाली निरंकुश राज्य-सत्ता को ही सर्वोपरि माना गया । लेकिन मनुष्य की जो नैतिक ऊचाई है, कुल मिलाजुला के उसकी जो मानवीय सार्थकता है, उसकी जो आध्यात्मिक पिपासा है उसको देने के लिए सेक्यूलिरिज्म के पास कुछ नही है। वह मनुष्य को केवल पशुओं के जैसा ' आहार-निद्रा-भय -मैथुन ' में संलग्न  - इन्द्रिय और बुद्धि संयुक्त दो-पाया प्राणी मानता है; और हद से हद ऐसा सरकारी कानून बना देता है जिससे मनुष्य को ' खाओ-पीयो मौज करो' में बाधा न पहुँचे ।  लेकिन भारत की एक दूसरी स्थिति थी। भारत एक धर्म-प्राण देश है; हमारे ऋषियों ने कहा है -

आहार-निद्रा-भय-मैथुनश्च सामान्यम् एतद्पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषाम् अधिको विशेषः धर्मेण हीनः पशुभिः समानः॥ ! 

पशु प्रकृति (आहार-निद्रा-भय मैथुन ) के विरुद्ध संघर्ष नहीं कर सकता, किन्तु मनुष्य में विवेक-शक्ति होती है, इसके बल पर वह प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करके स्वयं को पशु-मानव से देव-मानव में रूपान्तरित सकता है। 
भारत की आध्यात्मिक पिपासा  इस चार्वाक दर्शन से नहीं बुझ सकती थी, यहाँ हजारों सालों से प्रत्येक मनुष्य को धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। कुछ लोग अपने जीवन में नास्तिक हो सकते है-ईश्वर का खण्डन कर सकते हैं, कुछ लोग द्वैतवादी, कुछ विशिष्टाद्वैत वादी, तो कुछ अद्वैतवादी या एकेश्वरवादी भी हो सकते हैं। आप अपने व्यक्तिगत जीवन में हिन्दू-मुसलमान-नास्तिक कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन समग्र भारतीय जीवन को संबोधित करने के लिए आपको सभी धर्मों में -प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करने के लिये जो उपाय बताये गए हैं - उनमें समन्वय लाना पड़ेगा। धार्मिक कट्टरता को समेटना ही पड़ेगा।
अगर इस विशाल देश को विभिन्न धर्मो को मानने वाले करोड़ो– करोड़ जन समुदाय को इकट्ठा करना चाहते हों तो धर्म के बारे में तुम्हारी एक गंभीर नीति अपनानी होगी; और वह गंभीर नीति एक्सेप्टेन्स की हो सकती थी निगेशन (असहमति ) की नहीं हो सकती थी।  क्योंकि चीन, जहाँ की सत्ताधारी पार्टी में सबसे अधिक कम्युनिस्ट मेम्बर हैं; धर्म की समस्या को वह केवल इस असहमति के भरोसे आज तक हल नहीं कर सका है।  सारी दुनियाँ के लोग बडी़ संख्या में नास्तिक नही हो सकते है।
नास्तिकता ही एकमात्र रास्ता नहीं  है, इस समस्या का एक हल भारत ने सुझाया है,  अपनी बडी़ राजनीतिक प्रयोगशाला में सुझाया है और इससे दुनियॉ भी सीख सकती है। स्वामी विवेकानन्द ने वैदिक ऋचा " संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम्" को उद्धृत करते हुए कहा था- " सफलता का सम्पूर्ण रहस्य "संगठन" में है, शक्ति संचय में है और इच्छा -शक्ति के समन्वय में है। इसी लिए प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करके यथार्थ मनुष्य बनने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये संघ बद्ध हो कर आगे बढो!
मानव-जाति में एकता को स्थापित करने वाले इस ' संघ-मंत्र ' को पढ़ने के बाद ही गाँधीजी  ने कहा था - ' स्वामी विवेकानन्द को पढ़ने के बाद मेरी देशभक्ति हजार गुना बढ़ गयी!' और उनके निर्देशानुसार ही उन्होंने  स्वाधीन भारत में वेदान्ती साम्यवाद पर  आधारित भारत में राम-राज्य स्थापित करने पर बल दिया था। आर्यसमाज या ब्रह्मसमाज या ऐसा कोई विचार भारतीय नवजागरण की सब धाराओ को समेट नही सकता था, सबको संबोधित नहीं कर सकता था, इसलिये  गांधी जी उनके स्वाभाविक नेता हो सकते थे; क्योंकि वे सब सम्प्रदायों को एक साथ समेट सकते थे।  किन्तु  स्वाधीन भारत की राष्ट्रीय राजनीति में वोटबैंक -पोलिटिक्स का प्रवेश हो गया, जिसके कारण उनके बाद के काँग्रेसी राज नेताओं के चिन्तन से सर्वधर्म समन्वय या राम-राज्य की परिकल्पना ही विलुप्त
 हो गयी। और अपने को कट्टर कम्युनिस्ट या कट्टर धर्मनरपेक्ष प्रदर्शित करने के चक्कर में  उन्होंने सर्वधर्म समन्वय को स्यूडो सेक्यूलिरिज्म में परिणत कर दिया ।
यहाँ का वेदान्त जिस ऊँचाई पर था और जिन तत्वों की खोज में लगा था, वास्तव में वैज्ञानिक अनुसंधान के जरिये, विशेष रूप से हायर फिजिक्स के अनुसंधानों के जरिये, बिगबैंग- थ्योरी जिस ब्रम्हाण्ड की एकता, सृष्टि की अनन्तता का सिद्धान्त आ रहा था, वह भारत को स्वीकार्य था। उससे भारत ऋषियों द्वारा आविष्कृत सत्य वैज्ञानिक कसौटी पर भी सही प्रमाणित हो रहा था और इसीलिए विज्ञान की खोजों का भारत ने कभी विरोध नहीं किया।
स्वामी विवेकानंद न सिर्फ धार्मिक कट्टरता और रूढि़वाद के विरोधी थे, बल्कि साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता को भी इंसानियत का दुश्मन मानते थे।  स्वामी विवेकानंद विश्व बंधुत्व ही नहीं - ' एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति ' रूपी वेदान्ती साम्यवाद में प्रतिष्ठित वैश्विक एकत्व के बेखौफ प्रवक्ता थे। उनके दिल में सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान था। उनकी नजरों में धर्म एक अलग ही मायने रखता था। उनका कहना था- 'अगर कोई यह ख्वाब देखता है कि सिर्फ उसी का धर्म बचा रह जाएगा और दूसरे सभी नष्ट हो जाएंगे, तो मैं अपने दिल की गहराइयों से उस पर तरस ही खा सकता हूं। जल्द ही सभी झंडों पर, कुछ लोगों के विरोध के बावजूद यह अंकित होगा कि लड़ाई नहीं दूसरों की सहायता, विनाश नहीं मेलजोल, वैमनस्य नहीं बल्कि सद्भाव और शांति। इसीलिए सर्वधर्म समभाव की संकल्पना यहां पर उदित हुई।
शिकागो में अपने पहले भाषण में उन्होंने जो पहला वाक्य कहा था वो यही कहा था कि मैं चार हजार वर्ष पुरानी सभ्यता की ओर से तुम लोगों को यह बोलने आया हूँ,(उससे पहले सब लोग कह चुके थे कि मेरा धर्म सही है, बाकी धर्म गलत हैं। उन्होंने कहा था मैं यह कहने आया हूँ) कि हम लोग मानते हैं कि सभी धर्म सत्य हैं, सत्यानुसंधान के मार्ग हैं और हम महज सहिष्णुता में नहीं विश्वास करते, हमलोग सर्वधर्म समन्वय को स्वीकार करते हैं ! टॉलरेन्स तो बहुत छोटा मूल्य है, हम इससे बडा़ मूल्य अपने सामने रखते हैं हम सबको स्वीकार कर सकते हैं। नॉट ओनली टॉलरेन्स बट युनिवर्सल एक्सेप्टेन्स। आई ऐम प्राउड टू बिलांग टु ए रिलिजन व्हिच हैज टॉट द वर्ल्ड बोथ टॉलरेन्स ऐन्ड युनिवर्सल एक्सेप्टेन्स वी बिलीव नॉट ओनली इन युनिवर्सल टॉलरेशन बट वी एक्सेप्ट आल रिलीजन्स ऐज ट्रू ।
हम सभी मतों को सरत्यानुसंधान के विविध मार्गों के रूप में स्वीकारते हैं। यह एक नई आवाज थी इसीलिए यूरोप ने उसको ध्यान से सुना और यह आगामी भारत के लिए भी एक संकेत था।  स्वामी विवेकानंद ने दुनिया के दो बड़े मजहब, हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म की बीच आपसी सहकार-  या " गंगा-जमुनी तहजीब " को स्पष्ट करते हुए कहा था कि 'हमारी मातृभूमि, दो संस्कृतियों - हिन्दू और मुस्लिम की मिलनस्थली है। मैं अपने मानस नेत्रों से देख रहा हूँ - कि आज के संघात और बवंडर के अंदर से ही ' वेदान्त का मस्तिष्क और इस्लाम का शरीर  लेकर ' एक भारत श्रेष्ठ भारत - अपराजेय भारत ' का आविर्भाव होगा ! 

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३.
मनुष्य जाति को उसके दिव्य का स्वरुप का पता बता दो - जगत उसे सुनने को बाध्य है ! 

श्लोक ३. आदर्शस्य वर्णनञ्च् कियत् शब्दैः तु शक्यते-  ब्रह्मत्वञ्च् मनुष्याणामाचारे तत् प्रकाशनम्॥  

 " My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life."

मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे प्रकट करने का उपाय बताना ।

प्रसंग -[निवेदिता की 'कोलकाता डायरी'; तथा ७ जून १८९६ को स्वामी विवेकानन्द द्वारा भगिनी निवेदिता को लिखित पत्र।]

विषयवस्तु - " यह संसार कुसंस्कारों की बेड़ियों से जकड़ा हुआ है। एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ वह यह कि अज्ञान ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत को प्रकाश कौन देगा ? असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों 'बुद्धों'  की आवश्यकता है।  संसार के धर्म प्राणहीन और विकृत हो चुके हैं; आज जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है वह है - चरित्र! संसार को ऐसे लोग चाहिये जिनका अपना जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। वह प्रेम उनके एक एक शब्द को बज्र के समान प्रभावकारी बना देगा। जब तुम अपने यथार्थ स्वरुप को जान जाओगी, ब्रह्मविद् बन जाओगी तब तुम्हारे शब्दों का प्रभाव  इस जगत के ऊपर बज्र के समान- आकस्मिक घटना (bolt from the blue) बनकर टूट पड़ेंगे ! उन व्यक्तियों में मेरा थोड़ा भी विश्वास नहीं है जो यह पूछते हैं, कि 'क्या मेरे उपदेशों को कोई सुनेगा?'अभी तक जगत में इतना साहस नहीं है, कि वह उस व्यक्ति के उपदेश को सुनने से इनकार कर दे, जिसके पास देने के लिये कोई सन्देश है।
मनःसंयोग ही अज्ञान को नष्ट करने वाली (ब्रह्मविद्) मनुष्य बनने वाली विद्या है; इसीलिये इसको ब्रह्मविद्या या राजयोग विद्या या पराविद्या भी कहते हैं । यह वैसा मनोविज्ञान है जिसे किसी भी जाति और धर्म के मनुष्य अपने अपने धर्म का पालन करते हुए सीख सकते हैं । उठो ! उठो ! संसार दुःख से जल रहा है; क्या तुम सो सकते हो? हम बार-बार पुकारें जब तक सोते हुए देवता न जग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। आज सबसे बड़ी समाजसेवा युवाओं को यह सिखा देना है कि चरित्र-निर्माण के लिये मन को एकाग्र करने की विधि क्या है ? जीवन में इससे (Be and Make से ) बढ़कर महान कर्म क्या है ?

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४.
' पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का दोष : छात्रों के ब्रह्मज्ञान के विकास की कोई सुविधा नहीं ! '

 श्लोक ४. - अन्नदानं वरं मन्ये विद्यादानं ततः परम् -  ज्ञानदानं सदा श्रेष्ठं ज्ञानेन हि विमुच्यते॥

 1.  'First of all, comes the gift of food; next is the gift of learning, and the highest of all is the gift of knowledge.'

2. 'only knowledge can make you free.

१.  ' पहले अन्नदान; उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि है ज्ञानदान !'

२. " कोई भी कर्म तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता, केवल ज्ञान (सत्य) के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है।  "

प्रसंग : [१.विवेकानन्द साहित्य खण्ड: ६: पृष्ठ १२१ - वार्ता एवं संलाप: २२ (Volume7, Conversations And Dialogues-IX)  २. मिस एस ई. वाल्डो द्वारा अभिलिखित 'देव-वाणी' : (१६ जुलाई, मंगलवार १८९५) ]

विषयवस्तु : स्वामी विवेकानन्द ने पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली के सबसे बड़े दोष को रेखांकित करते हुए कहा था - " द मॉडर्न सिस्टम ऑफ़ एजुकेशन गिव्स नो फैसिलिटी फॉर द डेवलपमेंट ऑफ़ द नॉलेज ऑफ़ ब्रह्मण"। आज विश्व में अकारण होने वाले नर-संहार को राष्ट्रसंघ निष्क्रिय, निष्प्राण-भेंड़ सा होकर टुकुरटुकुर देख रहा है।  सम्पूर्ण विश्व में मानव-जाति के सुयोग्य मार्गदर्शक नेताओं का घोर अभाव परिलक्षित हो रहा है। गीता में भगवान ने वादा किया है -" सम्भवामि युगे युगे!" -अर्थात जब जब मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का अभाव होगा, मैं इस धरती पर नेता बन कर स्वयं आविर्भूत हो जाऊँगा ! इसलिये विष्णु-सहस्र नाम में भगवान का एक नाम नेता कहा गया है!  प्रधानमंत्री ने लालकिले से स्वामी विवेकानन्द को उद्धृत करते हुए कहा - " मैं अपनी आँखों के सामने देख रहा हूँ भारत माता जाग चुकी है। भारत की नियति है; विश्वकल्याण! 
हमलोगों ने स्वामी विवेकानन्द कथित उस सिंह-शावक की कहानी पढ़ी होगी ?  भेंड़ों की तरह में-में करते और मृत्यु के भय से थर-थर करते देखा तो उसे उस सिंह-शिशु पर तरस आ गया। सिंह-गुरु ने सोचा कि भ्रम में पड़े सिंह-शावक के देहाध्यास (सम्मोहन या अविवेक) को दूर करने के लिये, सबसे पहले उसमें 'सत्य-मिथ्या विवेक' जाग्रत करके उसे डीहिप्नोटाइज करना होगा। परमहंस सिंह-गुरु उस सिंह-शावक को डीहिप्नोटाइज ( 'Dehypnotize') करने के लिये एक तालाब के किनारे ले गया।  उसका भेंड़पना (देह्ध्यास) मिट गया; और फिर वह भेंड़ों  झुण्ड में न लौटकर अपने परमहंस सिंह-गुरु के संग वन की ओर चल पड़ा। कथा में वर्णित परमहंस सिंह-गुरु वह समर्थ मार्गदर्शक 'नेता' है, जो अपने 'ब्रह्मचारी' अर्थात आत्मजिज्ञासु शिष्य को 'सत्य-मिथ्या विवेक' द्वारा देहाध्यास का सम्मोहन दूर करके उसे ब्रह्मविद् मनुष्य बनने और बनाने का मार्ग दिखला सकता है। 
स्वामी विवेकानन्द भावी पीढ़ी के युवक-युवतियों को परमहंस सिंह-गुरु श्री रामकृष्ण एवं माँ सारदा रूपी आदर्श (मॉडल या साँचे) में ढालकर  कुछ ब्रह्मचारी या आत्मजिज्ञासु छात्र-छात्राओं को ब्रह्मविद् मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने के लिये वे एक ऐसे केन्द्रीय ज्ञान-मन्दिर या ' टेम्पल ऑफ़ लर्निंग' की स्थापना करना चाहते थे जहाँ 'चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया और मनःसंयोग ' का प्रशिक्षण देने में समर्थ ऋषितुल्य युवा-अध्यापकों का निर्माण किया जा सके। प्रचलित शिक्षा व्यवस्था के साथ साथ, प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परा पर आधारित ' मैन मेकिंग एंड कैरेक्टर बिल्डिंग एजुकेशन'- " Be and Make" अर्थात स्वयं (चरित्रवान) 'मनुष्य' बनो और दूसरों को भी 'मनुष्य' बनने में सहायता करो- ' बनो और बनाओ ' नामक शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम या लीडरशिप ट्रेनिंग बाहर से (गैर सरकारी माध्यम से ) देने की व्यवस्था करनी होगी। 
लीडरशिप ट्रेनिंग पद्धति को स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु प्रथम युवा मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण परमहंस के सानिध्य में रहते हुए सीखा था। उसी  प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परा पर आधारित शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम के माध्यम से बहुत बड़ी संख्या में मनःसंयोग (ब्रह्मविद्या, पराविद्या या राजयोग विद्या) का प्रशिक्षण देने में समर्थ सत्पुरुषों और मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं या ऋषितुल्य शिक्षकों का निर्माण करना होगा। उसी शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम का सिलेबस यहाँ विस्तार से समझाया गया है।
ईसाई और मुसलमानों के मतानुसार,  इसलिये ईश्वर ने इबलीस कहा- दूर हटो शैतान ! इससे वह शैतान बन गया। अर्थात जो 'मनुष्य' के सामने आदर से सिर नहीं झुकाता वह शैतान है। हमारे पुराणों में भी कहा गया है -  सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृप-पशून्-खग-दंशमत्स्यान्। तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥२८॥ 
लेकिन बिना किसी नेता या गुरु का निर्देश प्राप्त किये ब्रह्म को जान पाना या ब्रह्मविद् मनुष्य बनना बहुत कठिन होता है। क्योंकि जिस मनुष्य को किसी ब्रह्मवेत्ता गुरु के सानिध्य में रहकर अपने ब्रह्मज्ञान को विकसित करके चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण नहीं प्राप्त होता वह मनुष्य की आकृति में एक पशु ही रहता है। इसीलिये कहा गया है -

आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
हम चाहे हिन्दू हों या मुसलमान या अन्य किसी सम्प्रदाय मेँ जन्म ग्रहण क्यों न किये हों; बाहरी वेश-भूषा चाहे जैसी भी हो, हमारा चरित्र ही हमारे मनुष्यत्व को धारण किये रहता है। और उसी को धर्म कहते हैं। यदि हमलोग इस धर्म का पालन नहीं करें, तो हमलोग पशु बन जायेंगे। 
पशु प्रकृति का अनुकरण करता है, प्रकृति के विरुद्ध संग्राम नहीं करता। पशु जैविक-प्रवृत्तियों को तुष्ट करने के लिये जितना अवश्यक हो उतना ही संग्राम करता है। केवल मनुष्य ही है जो प्रकृति के विरुद्ध संग्राम कर्ता है। और अपने आदर्श नेता के निर्देशानुसार मनःसंयोग सीखकर अंतर्निहित ब्रह्मत्व को विकसित कर सकता है। अर्थात ' सद्ब्रह्मात्मविद् मनुष्य 'बन सकता है।
गुरु वह समर्थ मार्गदर्शक 'नेता' हैं, जो अपने शिष्य को ब्रह्मविद् बनने और उससे भी ऊपर भीतर में छिपे देवत्व को विकसित करने मार्ग दिखला देता है। वह भोगों की समस्त इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिये मन पर लगाम कसने अर्थात मन को एकाग्र करने की पद्धति सिखलाकर, हमें जगत के इस मायावी प्रपंच से बचाकर उस परम ‘सत्य’ की ओर ले जाता है। बिना गुरु के ब्रह्म को जान पाना, अर्थात ब्रह्मविद् मनुष्य बनना असम्भव हैं। इसीलिये भारतीय-संस्कृति में गुरु का स्थान परमेश्वर से भी ऊँचा माना गया है।
‘‘गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पांय
बलिहारी गुरु आपणे, गोविन्द दिओ मिलाय।’
अर्थात मेरे सामने गुरु और गोविन्द (निराकार ब्रह्म) दोनों खड़े हैं। मैं दोनों को ही पाना चाहता हूं। लेकिन मैं उस गुरु (मार्गदर्शक नेता) पर बलिहारी जाता हूँ, जिन्होंने मुझे गोविन्द से मिला दिया।  क्योंकि गुरु परिवर्तनशील होने के कारण इस 'मिथ्या’ जगत और अपरिणामी ब्रह्म के बीच अन्तर को जानने और पहचानने की विवेक-दृष्टि प्रदान कर ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बना देता है।
ऐसा सद्गुरु या सत्पुरुष अथवा मानवजाति का मार्ग दर्शक नेता कैसा होता है ?आचार्य शङ्कर मानवजाति के मार्गदर्शक नेता का गुण बतलाते हुए कहते हैं  -ऐसा सद्गुरु या सत्पुरुष अथवा मानवजाति का मार्ग दर्शक नेता कैसा होता है ? आचार्य शङ्कर मानवजाति के मार्गदर्शक नेता का गुण बतलाते हुए कहते हैं  -
१. " परमकारुणिकम् " - बिना किसी अपेक्षा के ही सब पर करुणा करने वाले ।
२. " सद्ब्रह्मात्मविदम् " - उस मूल " एकमेवाद्वितीयम् सत् " को अपनी आत्मा के रूप में जानने वाले ।
३. " विमुक्त बन्धनम् " - जिसके जीवन में कोई बन्धन न हो , जो स्वयं मुक्त हो और दूसरों को बन्धनमुक्त कर सके ।
४. " ब्रह्मनिष्ठम् " - जो ब्रह्मनिष्ठ हो । जिसकी बुद्धि इस निश्चय से विचलित न होती हो कि " मैं ब्रह्म हूँ "  तथा मुझ अखण्ड ब्रह्म में यह दृश्यमान जगत् सत् से व्यतिरिक्त होकर कुछ नहीं {असत्} है । 
आदिगुरु शंकराचार्य ने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। उन्होंने ‘ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या’ का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे। उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भारत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का एक सूत्र दिया-
    दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
    शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
  

अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें। ऐसा नेता (सद्गुरु) अपने अनुयायियों को दुर्जन को सज्जन बनने का प्रशिक्षण कैसे देता है ? वह अपने शिष्य को सांसारिक विषयों में दोष - दर्शन का मार्ग (सत्य-मिथ्या विवेक) दिखाता है जिससे वह पुरुष पहले तो विरक्त हो जाता है । फिर उसको वह सत्पुरुष समझाता है – 
" नासि त्वं संसारि अमुष्य पुत्रत्वादि धर्मवान्। सद् यत् त्वमसि ।"
" नासि त्वं संसारि अमुष्य पुत्रत्वादि धर्मवान्। सद् यत् त्वमसि ।"" नासि त्वं संसारि अमुष्य पुत्रत्वादि धर्मवान्। सद् यत-अरे तू संसारी नहीं है और न किसीके पुत्रत्वादि धर्म वाला है, जो सत् है वही तू है । इस प्रकार के उपदेश से , आदेश से अविद्यामय मोह - पट जो उसकी बुद्धि पर पड़ा हुआ था वह हट जाता है और वह क्रम - क्रमसे ज्ञान की भूमिकाओं को पार करता हुआ अपने सद् - रूप (गांधार देश) इन्द्रियातीत अवस्था  पहुँचकर अपने सदात्माको प्राप्त होकर अपने गुरुजी (नेता) के समान सुखी और शान्त (नेता) हो जाता है। अर्थात दूसरों को मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने में समर्थ शिक्षक बन जाता है। अतः श्रुतिभगवती ने ठीक ही कहा है कि " आचार्यवान् पुरुषो वेद "-  आचार्यवान पुरुष ही सत्य को जान पाता है।
उद्दालक ऋषि कहते हैं, " जो कालातीत अविनाशी सत्ता (ह्रदय में विराजमान प्रेमस्वरूप सच्चिदानन्द 'T' ) है - वही सत्य है ; वह आत्मा है;  हे श्वेतकेतु ! - " तत्त्वमसि ” तू , अर्थात् तेरा आत्मा ” तत्त्व ” है , तेरा शरीर या मन (अहम् ) 'तत्त्व' – अविनाशी "वस्तु ” नहीं । जैसे जल में डाला गया लवण अर्थात् नमक घुल जाने से दृष्टिगोचर नहीं होता , वैसे ही ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त होनेपर भी दृष्टिगोचर नहीं होता । जैसे हवा या हमारा यह मन अत्यंत सूक्ष्म और रुपरहित होने के कारण चक्षु से गृहीत नहीं होता, किन्तु उसके कार्यों को देखकर उसका अनुभव किया जा सकता है; उसी प्रकार वह परम सत्य (निरपेक्ष ब्रह्म 'T') भी ” न चक्षुषा गृह्यते ” रूपरहित होने  कारण चक्षु से गृहीत नहीं होता । उसे केवल अपने ह्रदय में ही अनुभव किया जा सकता है।
ज्ञान होने पर जनक के प्रति अतिधन्य श्री याज्ञवल्क्य महर्षि ने यही कहा ," अभयं वै जनक प्राप्तोसि" । हे जनक ! निश्चय है तू अभय पदको प्राप्त हुआ है, ' ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति'- अर्थात ब्रह्मवेत्ता मनुष्य ब्रह्म ही होता है ! ” तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ” एकत्व देखनेवाले को मोह कहाँ और शोक कहाँ? क्योंकि " द्वितीयाद्वै भयं भवति " अपने से कोई दूसरा (पराया) होगा तो वह भय का कारण जरूर बनेगा।  जब उसको अपने से द्वितीय (पराया) नहीं समझेंगे तभी उसे अभयदान मिलेगा । जब उसे द्वितीय नहीं समझेंगे तब उससे आपको भी भय नहीं होगा । तात्पर्य है कि जिस किसी से व्यवहार हो उसे मुझसे और मुझे उससे भय न हो - यही अभयदान है । उससे आप डरते रहें और कहें कि " मैँ उसे अभय दे रहा हूँ " यह नहीं हो सकता क्योँकि द्वितीयभाव (परायापन) की निवृत्ति नहीं है । अभय जो परमात्मा का स्वरूप है उसका दान बहुत बड़ा दान है ।
जैसे - जैसे प्राणियों (अपने नाते-रिश्तेदारों ) को आप अभयदान देते जायेंगे वैसे - वैसे क्या होगा ? महामुनि नारद अभयदान का बड़ा विचित्र फल बताते हैं " अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा नैष्कर्म्यमाचरेत् " जब तुम दूसरे प्राणियों को अभय देते हो तब उनके साथ तुम्हारा जो व्यवहार है वह " नैष्कर्म्य " हो जाता है ।

गुरु विवेकानन्द कहते हैं - मनुष्य के तीन प्रमुख उपादान हैं - ' शरीर, मन और ह्रदय ' या 3H - हैण्ड,हेड और हार्ट ! कहते हैं । इनमें से शरीर और मन सतत -परिवर्तनशील होने  कारण नश्वर है- इसलिये मिथ्या है! प्राण ही मन को बाँधने वाला खूँटा है । यह प्राण ही उसका (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार का) सत् रूप है जिसमें जीव सुप्तावस्था के समय पहुँच जाता है ।  " मनोऽस्य दैवं चक्षुः " - मन इस आत्मा का दिव्य चक्षु है। जबकि ह्रदय में रहने वाली सहानुभूति या प्रेम अविनाशी है और कालातीत है-इसीलिये सत्य है ईश्वर को प्रेम स्वरूप कहा गया है।
वेदों में कहा गया है कि उसकी (ह्रदय, प्रेम, ब्रह्म या सत्य की) शक्ति पाकर ही इन्द्रियाँ - मन ये सब वर्क करते हैं। ज्ञान-शक्ति-भक्ति [नॉलेज एंड पावर एंड डिवोशन '3H' --  'बुद्धिबल, बाहुबल और आत्मबल'] सभी मनुष्यों में पूर्ण भाव से अन्तर्निहित है, किन्तु हम विभिन्न व्यक्तियों में उनके विकास की न्यूनाधिकता को देखकर किसी को बड़ा तो किसी को छोटा मानने लगते हैं। सभी प्राणियों के मन पर एक आवरण पड़ा है, जो उसके सच्चे स्वरूप की अभिव्यक्ति को दृष्टि से ओझल कर देता है। वह हटा कि बस सब कुछ हो गया। 
मन की चहारदीवारी (अहं) को एक बार तोड़कर तुम यदि एक बार निकल गये, " व्हाटेवर यू वांट, व्हाटेवर यू विल डिजायर, विल कम टु पास. " निरवधिगगनाभम् अनंत के साथ एकात्मता का अनुभव करते ही तू उस भूमानन्द में प्रतिष्ठित हो जायगा जो आसमान की तरह असीम है ! जड़-चेतन (सोल एंड मैटर) में सर्वत्र अपनी उपस्थिति को देखकर तू दंग रह जायेगा ! स्तब्ध होकर तू गूँगा (स्ट्रक डम्ब) बन जायेगा ! 'होल सेंशेन्ट एंड इन्सेशेन्ट वर्ल्ड'  सम्पूर्ण स्थावर (जड़) और जंगम (सचेतन) सम्पूर्ण जगत तुझे अपनी ही आत्मा जैसा अनुभव होने लगेगा। उस समय जिस प्रकार तू अपने आप के प्रति दया (करुणा) दिखाता है, उतनी ही करुणापूर्ण नेत्रों से तू सबको देखे बिना रह ही नहीं सकेगा। 
वह ब्रह्म एक होकर भी व्यावहारिक रूप से अनेक रूपों में हमारे समक्ष विद्यमान हैं! 'नाम' तथा 'रूप' ही इस सापेक्षता (माया) का कारण है। जिस प्रकार घड़े का नाम-रूप छोड़ देने से क्या दीखता है ? -केवल मिट्टी, जो उसकी वास्तविक सत्ता है। इसी प्रकार भ्रम में पड़कर ही तू यह सोचता है कि मैं एक घड़ा (घट या शरीर), एक पट, एक मठ को देख रहा हूँ। 
प्रतीयमान जगत इसी 'NE-science' (नेशाइन्स) अविद्या या अज्ञान (इग्नोरेन्स विशेष रूप से रूढ़िवादी मान्यताओं का)  पर निर्भर है, जो ज्ञान को ढँक लेती है; किन्तु वास्तव में उसका अस्तित्व ही नहीं है। अर्थात ज्ञान-प्रतिबन्धक यह जो अज्ञान है, उसकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है, फिर भी उसी को लेकर लोक-व्यवहार चलता रहता है। इस वैविध्य-पूर्ण जगत में स्त्री-पुत्र, देह-मन आदि जो कुछ भी भिन्नता दिख रही है, वह नाम-रूप की सहायता से अविद्या द्वारा निर्मित है।  ''ऐज सून ऐज दिस नेशाइन्स इज रिमूव्ड "  ज्योंही अज्ञान का पर्दा हटा, त्योंही ब्रह्म सत्ता की अनुभूति हो जायगी। 
शिष्य - यह अज्ञान (नेशाइन्स) आया कहाँ से ?
स्वामीजी - कहाँ से आया यह बाद में बताऊँगा। तू जब रस्सी को साँप मानकर भय से भागने लगा था - तब क्या रस्सी साँप बन गयी थी ? -या तेरी अज्ञानता (ignorance) ने ही तुझे उस प्रकार भगाया था?
शिष्य- अज्ञता ने ही वैसा किया था ।
स्वामीजी -तो फिर सोचकर देख, तू जब फिर रस्सी को रस्सी जान सकेगा, उस समय अपनी पहलेवाली अनभिज्ञता का चिन्तन कर तुझे हँसी आयगी या नहीं, नाम-रूप मिथ्या जान पड़ेंगे या नहीं?
शिष्य -जी हाँ !
स्वामीजी - तब, नाम-रूप मिथ्या हुए कि नहीं ? इस प्रकार ब्रह्म-सत्ता (अस्ति-भाति-प्रिय) ही एकमात्र सत्य रह गयी। केवल अज्ञान के धुंधले प्रकाश (twilight-गोधूलि वेला) में ही तू (नाम-रूप के भ्रम ) सोचता है कि यह मेरी पत्नी है, वह मेरी बहन है, मेरा पुत्र है, यह मेरा अपना है, वह पराया है! और इसी मान्यता के कारण तू उस आत्मा के अस्तित्व का अनुभव नहीं कर पाता, जो प्रत्येक जड़-चेतन का प्रकाशक है। ' व्हेन थ्रू दि गुरु'ज  इन्स्ट्रक्शन्स एंड योर ओन कन्विक्शन'-जिस समय तू गुरु के उपदेश और अपने विश्वास के द्वारा इस नाम-रूपात्मक जगत को न देखकर, इसकी मूल सत्ता का ही अनुभव करेगा, उस समय आब्रह्मस्तम्ब ' फ्रॉम दि क्रिएटर डाउन टु अ क्लम्प ऑफ़ ग्रास' सभी पदार्थों में तुझे आत्मानुभूति होगी। उसी समय -गुरुदेव की कृपा से हृदय की ग्रन्थि छिन्न हो जाती है, सब संशय कट जाते हैं और सर्व कर्म नष्ट हो जाते हैं;वाली स्थिति प्राप्त होती है। 

' भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाःक्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥'
ह्रदय-ग्रन्थि कट जाती है और समस्त संशय नष्ट हो जाते हैं ' - मुण्डक उपनिषद् २.२.८ 
शिष्य - महाराज मुझे इस अज्ञान 'NE-science' (माया) के आदि-अन्त की बातें जानने की इच्छा है। (उस सिंह-शावक में अपने को भेंड़ समझने का भ्रम कैसे उत्पन्न हो गया था ?)
स्वामीजी - (देहाध्यास के कारण सम्मोहित होकर ? ) जो वस्तुएं बाद में नहीं रहती वह झूठी (मिथ्या) है, यह तो समझ गया ? जिसने वास्तव में ब्रह्म को जान लिया है, वह कहेगा- अज्ञान फिर कहाँ है ? वह रस्सी को रस्सी ही देखता है, साँप नहीं। जो लोग रस्सी में साँप देखते हैं, उन्हें भयभीत देखकर उसे हँसी आती है। इसीलिये अविद्या माया (नेशाइन्स -नामरूप द्वारा उत्पन्न सापेक्षिक या प्रतीयमान जगत) का वास्तव में कोई 'एब्सलूट रियलिटी' निरपेक्ष यथार्थता नहीं है।  अज्ञान को ' नाइदर रियल, नॉर अनरियल , नॉर अ मिक्सचर ऑफ़ बोथ" 'सत्' भी नहीं कहा जा सकता, 'असत्' भी नहीं कहा जा सकता-न तो दोनों का मिश्रण ही कह सकते हैं। 
जो चीज (नाम-रूप ) इस प्रकार असत्य (मिथ्या) प्रमाणित हो चुकी हो, उसके सम्बन्ध में क्या प्रश्न है, और क्या उत्तर है ? उस विषय में प्रश्न करना भी उचित नहीं हो सकता। क्यों, यह सुन- यह प्रश्न भी उसी नाम-रूप या या देश-काल (टाइम एंड स्पेस) की भावना से किया जा रहा है। जो ब्रह्म-वस्तु, नाम-रूप या देश-काल से परे है, उसे प्रश्नोत्तर द्वारा कैसे समझाया जा सकता है ? इसीलिये शास्त्र, मंत्र आदि व्यावहारिक रूप से (रिलेटिवली-अपेक्षाकृत रूपसे ) सत्य हैं, किन्तु परमार्थिक रूप से (एब्सलूट्ली) नहीं ! अज्ञान का कोई स्वरुप ही नहीं है, उसे फिर समझेगा क्या ? जब ब्रह्म का प्रकाश होगा, जब वे स्वयं को प्रकट कर देंगे, उस समय फिर इस प्रकार के प्रश्न करने का अवसर ही न रहेगा। 
श्रीरामकृष्ण की ' मोची-मुटिया '-'शूमेकर कुलीमज़दूर ' वाली कहानी सुनी है न ? -  " अरे जा, वहाँ से पण्डित जी के जूते तो ले आ। "  उसने डाँटते हुए चिल्लाकर कहा - " तूँ चमार है (शूमेकर है) क्या रे, कहने से भी नहीं उठता ? " वह चमार-नौकर हक्का-बक्का होकर चीखा - " ऐ बाबा, मेरी असली जाति का इनको पता चल गया है, अब यहाँ मैं और नहीं ठहर सकता। " बस वह भागा, और ऐसा भागा कि उसका पता ही न चला। ठीक उसी प्रकार जब माया पहचान ली जाती है तो वह भी भाग जाती है, एक क्षण भी नहीं टिकती। "
शिष्य- परन्तु महाराज, यह अज्ञान आया कहाँ से ? (माया क्या है ? इसे स्पष्ट करें !)
स्वामीजी - जो चीज है ही नहीं, वह फिर आएगी कैसे ? हो, तब तो आयेगी ? (जिसे स्पष्ट रूप से बोलकर नहीं समझाया जा सकता है वही माया है !)

 सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो महाद्भुताऽनिर्वचनीयरूपा॥ विवेक-चूड़ामणि १०९॥ 
{नरेन्‍द्रनाथ दत्‍त (भविष्य के गुरु स्वामी विवेकानन्द) :  दक्षिणेश्‍वर जाया करते थे और रामकृष्‍ण परमहंस को अपना गुरु भी मानते थे किंतु अभी ब्राह्म समाज के प्रभाव में थे। अत: मूर्ति पूजा को स्‍वीकार तो नहीं ही करते थे, प्रतिमा को पुत्‍तलिका कहा करते थे। उनके कष्‍टों को देख कर प्राय: रामकृष्‍ण परमहंस प्राय: उन्‍हें मां काली के मंदिर में जाने को कहा करते थे। एक दिन यहां तक कह बैठे कि तू माँ के राज्‍य में रहता है और उन्‍हें मानता नहीं है, तो कष्‍ट तो पाएगा ही। नरेन्‍द्रनाथ दत्‍त बोले, यह नहीं कि मैं मां को मानता नहीं, मैं उनको जानता ही नहीं हूं। तो रामकृष्‍ण परमहंस ने उत्‍तर दिया, तो जा जानने का प्रयत्‍न कर। जान-पहचान बढ़ा।
''सत्‍य के लिए संस्‍कृत शाब्‍द है 'सत्'। सगुण ईश्‍वर स्‍वयं अपने लिए, उतना ही सत्‍य है, जितने हम अपने लिए हैं, इससे अधिक नहीं। ईश्‍वर को भी उसी प्रकार साकार भाव में देखा जा सकता है, जैसे हमें देखा जा सकता है। जब तक हम मनुष्‍य हैं, तब तक हमें ईश्‍वर का प्रयोजन है; हम जब स्‍वयं ब्रह्मस्‍वरूप हो जाएंगे। तब हमें ईश्‍वर का प्रयोजन नहीं रह जाएगा। इसलिए श्री रामकृष्‍ण परमहंस देव उस जगज्‍जननी (विद्या माया-अविद्द्या माया) को सदा-सर्वदा वर्तमान देखते थे। वे अपने आसपास की सभी वस्‍तुओं की अपेक्षा, उन्‍हें अधिक सत्‍य रूप में देखते थे।किंतु समाधि की अवस्‍था में उन्‍हें आत्‍मा के अतिरिक्‍त, और किसी वस्‍तु का अनुभव नहीं होता था।}  

शिष्य- तो फिर इस जीव-जगत (souls and matter) की उत्पत्ति कैसे हुई ?
स्वामीजी - एक मात्र ब्रह्म-सत्ता ही तो मौजूद है ! तू एक ही वस्तु को (अपनी मान्यता के अनुसार) मिथ्या नाम-रूप देकर उसे नाना रूपों और नामों में देख रहा है।
शिष्य- यह दृष्टिगोचर नाम-रूप भी क्यों है, और वह कहाँ से आया ?
स्वामीजी- हमारे शास्त्रों में चित्त की गहराइयों में समाये हुए इस नाम-रूपात्मक संस्कार या अज्ञान को प्रवाह के रूप में नित्यप्राय कहा गया है। परन्तु उसका अन्त है। और वह ब्रह्म-सत्ता तो सदा रस्सी की तरह अपने स्वरुप में ही वर्तमान है। इसीलिये वेदान्त शास्त्र का सिद्धान्त है कि यह निखिल ब्रह्माण्ड  " ब्रह्म में अध्यस्त,  इन्द्र-जाल वत"
बाजीगर के जादू जैसा प्रतीत हो रहा है। 'सुपरइम्पोज्ड ऑन ब्रह्मण --अपियरिंग लाइक अ जगलर्स् ट्रिक.' इससे ब्रह्म के स्वरुप में किंचित भी परिवर्तन नहीं हुआ; समझते होभाई ?
शिष्य-एक बात अभी भी नहीं समझ सका ।
स्वामीजी -वह क्या ?
शिष्य- यह जो अपने कहा कि यह 'सृष्टि-स्थिति-लय' आदि ब्रह्म में -अध्यस्त (सूपरइम्पोज्ड-या आरोपित)  है, तथा उसकी अपनी कोई परमार्थिक सत्ता (एब्सलूट् एग्ज़िस्टेन्स) नहीं है--किन्तु यह कैसे हो सकता है ? किसी व्यक्ति ने जिस चीज को पहले कभी नहीं देखा, उस चीज का भ्रम उसे हो ही नहीं सकता। जिसने कभी साँप देखा ही नहीं हो, उसे रस्सी में सर्प का भ्रम भी नहीं होता। इसी प्रकार जिसने इस सृष्टि को नहीं देखा, उसे ब्रह्म में सृष्टि का भ्रम क्यों होगा ? इसीलिये यह सृष्टि अवश्य थी, या अभी है, इसीलिये सृष्टि का भ्रम हो रहा है; इसीसे द्वैत की आपत्ति उठ रही है।
स्वामीजी - आत्मबोध प्राप्त कोई व्यक्ति, ब्रह्मज्ञ (बुद्ध -दि मैन ऑफ़ रियलाइजेसन) व्यक्ति पहले तेरी आपत्ति का खण्डन यह कहते हुए करेंगे कि उनकी दृष्टि में तो सृष्टि-स्थिति-लय जैसी कोई वस्तु बिल्कुल दिख ही नहीं रही है। उसे तो सर्वत्र केवल ब्रह्म ही ब्रह्म दिखाई देता है। रस्सी ही देख रहे हैं; साँप नहीं देख रहे हैं। यदि तू कहेगा, ' मैं तो यह सृष्टि या साँप देख रहा हूँ' --तो तेरी दृष्टि के दोष को दूर करने के लिये वे तुझे 'विवेक-अंजन' देकर रस्सी के सच्चे स्वरुप को समझा देने की चेष्टा करेंगे।
जब तू उनके उपदेश (इन्स्ट्रक्शन्स) और अपनी स्वयं की विचार-शक्ति (रीजनिंग) इन दोनों के बल पर तू 'दि ट्रूथ ऑफ़ दि रोप' 'रज्जु' के सत्य को (या श्रीरामकृष्ण के ) या यथार्थ स्वरुप को या ब्रह्म-सत्ता को अनुभव करने में सक्षम हो जायेगा, उस समय साँप या सृष्टि का भ्रामक विचार गायब हो जायगा। उस समय इस सृष्टि, स्थिति,प्रलय रूपी भ्रमात्मक ज्ञान को ब्रह्म में आरोपित (सूपरइम्पोजिशन ऑन दि ब्रह्मण) कहने के अतिरिक्त, तू और क्या कह सकता है ?
अनादि प्रवाह के रूप में सृष्टि की यह प्रतीति यदि चली आयी है तो आती रहे, इस प्रश्न को निपटा देने से भी कोई लाभ होने वाला नहीं है। 'करामलक' की तरह ब्रह्म-तत्व का प्रत्यक्ष न होने तक इस प्रश्न की पूरी मीमांसा नहीं हो सकती; और उस अवस्था जब किसी को आत्मानुभूति हो जाती है, प्रश्न भी नहीं उठता, उत्तर की आवश्यकता भी नहीं होती ! उस क्षण ब्रह्म-तत्व का आस्वाद गूँगे के गूड़ की तरह -'मूकास्वादन' की तरह होता है; जो गूड़ के मिठास का वर्णन करने में असमर्थ होता है।
शिष्य - तो फिर इतना युक्ति-तर्क करके क्या होगा ?
स्वामीजी- बुद्धि के द्वारा उस विषय को समझने के लिये युक्ति-तर्क की आवश्यकता होती है। परन्तु सत्य वस्तु विचार के परे है - '
एषा मतिः तर्केण न आपनेया अन्येन प्रोक्ता एव सुज्ञानाय ' को कण्ठस्थ कर लें। 
यमाचार्य नचिकेता से कहते हैं - हे परमप्रिय, यह बुद्धि, जिसे तुमने प्राप्त किया है, तर्क से प्राप्त नहीं होती। अन्य अर्थात किसी विद्वान् परमहंस सिंह-गुरु  के द्वारा कहे जाने पर भली प्रकार समझ में आ सकती है। वास्तव में, नचिकेता, तुम सत्यनिष्ठ हो (अथवा सच्चे निश्चयवाले हो)। तुम्हारे सदृश जिज्ञासु हमें मिला करें।
 कार्य क्या है,कैसे होता है ? वेद कह रहा है- 
न तत्र् सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोयमग्नि :।
तमेव भानतमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।।
इसलिए ये इन्द्रिया मन बुद्धि वहां नहीं जा सकती। ये इन्द्रिय मन बुद्धि की गति वहां जाने की नहीं है ।  मत ले जाना इनको, मर जाओगे, डूब जाओगे। जैसे गहरे पानी में तैरना नही जानता हो तो लोग कहते हैं ए आगे मत जाना, डूब जायेगा और जो नहीं माना गया, वो डूबा। बहुत से लोग नहीं माने, गये और डूब गये। अर्थात नास्तिक हो गये और उनका यह बहुमूल्य मानवजीवन व्यर्थ ही चला गया । संशयात्मा विनश्यति ।।  
जब किसी भाग्यवान मनुष्य के लिए श्रीराम की कथा (ठाकुर-माँ-स्वामीजी का जीवन ) पौराणिक कल्‍पना न हो कर जीवन्‍त इतिहास हो जाती है। तो उसे भक्ति का मूल तत्‍व - महत्तव (राम ब्रह्म परमारथ रूपा) की अनुभूति हो जाती है । इस अनुभूति के साथ ही दैन्य अर्थात् अपने लघुत्व की अनुभूति का उदय होता है। प्रभु के सर्वगत होने का ध्‍यान करते करते भक्त अन्त में जाकर उस अवस्था को प्राप्त करता है जिसमें वह अपने साथ साथ समस्त संसार को एक अपरिच्छिन्न सत्ता में लीन होता हुआ देखने लगता है, और दृश्य भेदों का उसके ऊपर उतना जोर नहीं रह जाता। फिर समझ में आता है कि मनःसंयोग के लिये प्रारम्भ में किसी  प्रेमस्वरुप सगुण-साकार मूर्त आदर्श (सीता राम या ठाकुर-माँ-स्वामीजी ) या सगुण ईश्वर पर प्रत्याहार- धारणा का अभ्यास करना क्यों जरुरी है ? प्रारम्भ में सगुण ईश्वर की उपासना करने पर बल देते हुए संत तुलसीदास जी कहते हैं -  
सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ॥
जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू। मायाधीश ज्ञान गुन धामू।।

विषय, इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के देवता और जीवात्मा- ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात विषयों का प्रकाश इन्द्रियों से, इन्द्रियों का इन्द्रियों के देवताओं से और इन्द्रिय देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश श्री रामचन्द्रजी हैं ॥ यह जगत प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं।
वास्तव में 'मैं' कौन हूँ ? क्या इस मैं के प्रकाशक भी मायाधीश ज्ञान गुण धामू - ' रामू जी ' ही हैं ? पहले इस प्रश्न का समाधान करने का उपदेश देते हुए आज २९ अगस्त २०१४ के ब्रम्ह मुहूर्त में स्वयं सन्त तुलसी दास जी ने स्वप्न में आकर समझाया- " भीतर के नेत्रों को खोलने के लिये उम्र भर बाहर के नेत्रों को मूँदने की कोई आवश्यकता नहीं, समझ को बदलने की जरुरत है ! - जिस नाम-रूपात्मक ' मैं '  को तुम नश्वर या मिथ्या समझते हो वास्तव में यह नश्वर नाम-रूप वाली जीवात्मा (m /f के भ्रम में फंसी आत्मा ?) का सगुण-साकार रूप (वि.कु.सिंह) भी उसी अविनाशी शास्वत चैतन्य -'सच्चिदानन्द' परमपुरुष ठाकुर  ने माँ सारदा की सहायता से धारण किया हुआ है !

 जो (मुझे ज्ञान देने के लिये) ' निराकार साकार हुए हैं -वो हैं मेरे परमेश्वर !' ब्रह्म श्रीरामकृष्ण परमहंस मेरे पिता एवं पराशक्ति श्रीश्रीमाँ सारदा मेरी माँ है, जो मुझे - इस शरीर को जन्म देने वाली माँ तारा ('जनकराज किशोरी' ) से भी अधिक प्यार करती हैं ? और समस्त नाम-रूप वाले देवों के महादेव भगवान शंकर अर्थात सद्गुरु स्वामी विवेकानन्द मेरे बड़े भ्राता हैं ! इस दृष्टि गोचर जगत या नाम-रूपात्मक 'मैं ' को  जाना नहीं जा सकता क्योंकि नित्य-परिवर्तनशील होने के कारण यह भी अनंत है ! 'यथार्थ मैं ' को पहचान लेने  के बाद ' ज्ञाता-ज्ञेय और ज्ञान ' (अर्थात काचा आमी ज्ञाता है, -पाका आमी ज्ञेय है और 'सच्चिदानन्द'-ठाकुर ही ज्ञान हैं! ) तीनों एक हो जाते हैं !    
  कोउ कह सत्य, झूठ कह कोउ - जुगल प्रबल कोउ मानै।
तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम सो आपुन पहिचानै ।
अनासक्‍त भक्ति से ईश्‍वर के साथ एक हो जाने के पश्‍चात् ध्याता, ध्येय और ध्यान - सब एक हो जाते हैं। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का तादात्‍म्‍य हो जाता है। किंतु जब तक मनुष्‍य उस स्थिति तक विकसित नहीं होता, तब तक भक्ति का रूप है - परम प्रेम। भक्‍त, ईश्‍वर पर इतना निर्भर है कि वह मानता है कि वह स्‍वयं अपने बल पर ईश्‍वर को नहीं जान सकता। 
तर्क या युक्ति ऐसी अवस्था की सूचना भर दे सकती है- 'वेदों के चार महावाक्य' ब्रह्मवस्तु की जानकारी भर दे सकती है, अनुभव नहीं करा सकती. भक्ति अनुभव करा सकती है. उसके लिए ईश्‍वर की कृपा आवश्‍यक है : ''सोई जानत, जेहू देहि जनाई।'  अपने अनुभव से यह जान लेने के बाद नेता (बुद्ध ) के ह्रदय में अपने पीछे रह गए भाइयों के लिये असीम प्रेम का झरना फूट पड़ता है। और वह भी जगत को ब्रह्म का साकार रूप समझकर -
सीयराममय सब जग जानी | करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥ 1-7-1 ॥
ऋषि संत तुलसीदास जी के समान इस दृष्टिगोचर जगत को सीता और राम से भिन्न नहीं देखता, उनके अनुसार यह सम्पूर्ण विश्व ही सीताराममय है, और जब वह प्रत्येक मनुष्य को ही सीता-राम समझकर उनके आगे शीश झुकाता है, तो भला वह इसे 'शैतान इब्लीस' के जैसा मिथ्या या असत्य कैसे कह सकता है ?
इसी प्राचीन भारतीय ब्रह्मज्ञ गुरु-शिष्य परम्परा के सिलेबस के आधार पर 'ब्रह्मविद् मनुष्य' या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने- 'Be and Make ' के ' टीचर ट्रेनिंग प्रोग्राम' को महामण्डल की भाषा में 'लीडरशिप ट्रेनिंग' कहा जाता है। 
जगत के समक्ष उसका आदर्श- उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये ही जगतगुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस ने अपने त्यागी और गृही दोनों प्रकार के शिष्यों- 'निवृत्ति मार्ग' के ऋषि नरेन्द्रनाथ दत्त एवं ' प्रवृत्ति मार्ग' के ऋषि राखाल महाराज (स्वामी ब्रह्मानन्द) को दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर एवं काशीपुर बगीचे के मकान में ब्रह्मविद् मनुष्य या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता 'बनने और बनाने' का प्रशिक्षण दिया था। इस 'लीडरशिप-ट्रेनिंग' के पाठ्यक्रम (Syllabus) को स्वामी विवेकानन्द ने 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द गुरु-शिष्य परम्परा ' के आधार पर स्वयं तैयार किया था।
चरित्रवान मनुष्य 'बनने और बनाने' वाली- इसी सिलेबस '3H' निर्माण कार्यक्रम' को आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में बाहर से या गैर सरकारी प्रयास द्वारा समावेशित करने से बहुत बड़ी संख्या में मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं (ऋषि-तुल्य शिक्षकों) ' ब्रह्मवेत्ता मनुष्य' का निर्माण करना सम्भव हो सकता है। उसी शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम के सिलेबस को विवेकानन्द साहित्य के दस खण्डों में से खोजकर महामण्डल के अध्यक्ष परमहंस सिंह-गुरु श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ने अपनी संस्कृत रचना- "विवेकानन्द दर्शनम् " के २६ श्लोकों में बड़े ही सुन्दर ढंग से पिरो दिया है।
"विवेकानन्द दर्शनम् " पुस्तिका के उपरोक्त श्लोक संख्या-४ में  उसी सिलेबस को विस्तार से समझाकर कहा गया है।}
४.१ [अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल रूपी टेम्पल ऑफ़ लर्निंग में 'लीडर-ट्रेनी' एवं 'आर्डिनरी-ट्रेनी' को जो प्रशिक्षण दिया जाता है; उस प्रशिक्षण-शिविर की आयोजन पद्धति एवं सिलेबस का सम्पूर्ण विवरण निम्नलिखित वार्ता एवं संलाप: २२ (विवेकानन्द साहित्य खण्ड ७) में इस प्रकार दिया गया है - स्थान: बेलूर,किराए का मठ परिसर: वर्ष १८९८
स्वामीजी शिष्य के साथ मठ की भूमि पर भ्रमण करने लगे और वार्तालाप के सिलसिले में भावी मठ की रुपरेखा तथा नियम आदि पर चर्चा करने लगे। यह मठ आध्यात्मिक साधना तथा ज्ञान की संस्कृति का प्रधान केन्द्र होगा, यही मेरी इच्छा है। यहाँ से जिस आध्यात्मिक शक्ति की उत्पत्ति होगी, वह पृथ्वी भर में फैल जायेगी, और वह मनुष्य के जीवन की गति को उच्चतर लक्ष्य की दिशा में मोड़ देगी। ज्ञान, भक्ति, योग, कर्म के समन्वय स्वरुप सम्पूर्ण मानवता के लिये कल्याणकारी उच्च आदर्श यहाँ से प्रसृत होंगे। इस मठ में जो यथार्थ मनुष्य निर्मित होंगे, उनकी आज्ञा से एक समय में पृथ्वी के सुदूरवर्ती देशों में भी प्राण संचारित होने लगेगा। समय आने पर यथार्थ धर्म (आध्यात्मिकता) के सच्चे आत्म-जिज्ञासु (अर्थात ब्रह्मचारी) यहाँ आकर एकत्र हो जायेंगे। " …इसि प्रकार के हजारों विचार मेरे मन में उठ रहे हैं।
प्राचीन काल की पाठशालाओं (गुरु-गृह वास या टोलों) के अनुकरण पर यह विद्या-मन्दिर (ज्ञान-मन्दिर) स्थापित होगा। पहले के समान ब्रह्मचर्याश्रम स्थापित करने होंगे। किन्तु इस समय उसकी नींव व्यापक आधार पर रखनी होगी, कहने का तात्पर्य है कि  इस टेम्पल ऑफ़ लर्निंग  में जाति या पंथ (caste or creed) की परवाह किये बिना, विवाहित-अविवाहित सभी जाति और धर्म के या नास्तिक युवाओं को भी इस शिक्षक-प्रशिक्षण शिविर में 'कुटीचक अवस्था' में रहते हुए तीनों एषणाओं से मुक्त ब्रह्मविद् मनुष्य बनने और  बनाने (Be and Make) का प्रशिक्षण दिया जायगा। यहाँ सभी जाति और पंथ के लोगों को एक ही साथ बैठकर भोजन पकाना और खाना पड़ेगा, तथा अध्यन भी करना पड़ेगा। उनके चरित्र के संबन्ध में मठ के अधिकारी सदा कड़ी दृष्टि रखेंगे।
इसके लिए प्रत्येक विद्या मन्दिर (विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर) को 'लंगरखाना आधारित युवा प्रशिक्षण शिविर' आयोजित करने के लिये पहले एक ' कैम्प संचालन समिति' का गठन करना होता है। यह शिविर संचालन समिति महाभारत के सभा-पर्व के राजसूय यज्ञ में वर्णित व्यवस्था के अनुरूप होगा। वह राजसूय यज्ञ मानवजाति के मार्गदर्शक नेता भगवान श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में संपन्न हुआ था। उस यज्ञ में तात्कालीन भारतवर्ष के समस्त राजाओं ने भाग लिया था। यह प्राचीन भारत की सर्वधर्म समन्वय तथा एकता और अखण्डता का ही प्रमाण है।
उसी आधार पर शिक्षक प्रशिक्षण शिविर का कैम्प संचालन समिति का गठन करना होगा। यज्ञ-दीक्षित धर्मराज युधिष्ठिर ने उन लोगों की सम्मति से सबको एक एक कार्य सौंप दिया। दुश्शासन को भोजन-सम्बन्धी पदार्थों की देखभाल में, अश्वत्थामा ब्राह्मणों की सेवा- शुश्रूषामें और संजय को राजाओं के स्वागत-सत्कार में नियुक्त किया गया था।
यज्ञ में ब्राह्मणों का पैर धोने और लंगरखाने की जूठी पत्तलों को उठाने का कार्यभार मानवजाति  मार्गदर्शक नेता श्रीकृष्ण ने अपने उपर लिया था। भीष्म पितामह, दोर्णाचार्य " सभी कार्यों और कर्मचारियों का निरिक्षण" करने लगे। कृपाचार्य  सोने-चाँदी और रत्नों की देखभाल तथा दक्षिणा देनेके कार्यपर नियुक्त हुए। धर्म के मर्मज्ञ महात्मा विदुर खर्च करने के काम में और दुर्योधन भेंटमें आये हुए पदार्थों को रखनेके काम में लगे। चारों ओर से शास्त्र-पारंगत, वेद-वेदान्त में निपुण झुण्ड-के-झुण्ड ब्राह्मण (नेता या गुरु ) आने लगे। उनके निवास के लिये पर्याप्त स्थान बनवाए गए थे जहाँ रहने-सोने, स्नान-भोजन की पूरी सुविधा थी। उस यज्ञ के धर्मार्थ लंगरखाने में जब देखो यही कोलाहल होता रहता था - कांस्टेंट शाउट्स ऑफ़ फ़ूड डिमान्डेड ऐंड फ़ूड स्प्लाइड''-- दीजिये, दीजिये! लीजिये, लीजिये !' यही ध्वनि- ' दीयतां भुज्यतां चेति वाचोऽश्रूयन्त सर्वशः।।'  महामण्डल (विद्यामन्दिर) के लंगरखाना से भी सुनाई पड़ेगी । इस प्रकार धर्मार्थ लंगरखाना बना देखकर मेरे प्राणों को शान्ति मिलेगी।

शिष्य ने कहा, ' आपकी जब ऐसी इच्छा है, तो सम्भव है समय आने पर वास्तव में ऐसा ही हो।' शिष्य की बात सुनकर स्वामीजी गंगा की ओर थोड़ी देर तक ताकते हुए मौन रहे।

[ स्वामीजी की प्रेरणा से ही ऐसा प्रथम टेम्पल ऑफ़ लर्निंग (विद्या मन्दिर) १९६७ में " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल" के रूप में- बंगाल में आविर्भूत हुआ। फिर १८ वर्षों बाद १९८५ बिहार में ऐसा ही विद्या मन्दिर युवा चरित्र निर्माणकारी संस्था   " विवेकानन्द ज्ञान-मन्दिर"  के रूप में झुमरीतिलैया (कोडरमा) झारखण्ड  में आविर्भूत हुआ था। (१८ वर्ष बाद क्यों ? )
महामण्डल के ' वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में ' 'लीडरशिप ट्रेनिंग' प्राप्त कुछ युवा-अध्यापकों के एक दल द्वारा
विगत १८ वर्षों से 'जानीबिगहा विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' गया, बिहार में एक उच्च माध्यमिक विद्यालय चल रहा है; और जानीबिगहा के ऋषि-तुल्य कुछ शिक्षकों के सहयोग से पहाड़पुर, डोमचांच (झारखण्ड) में भी एक माध्यमिक विद्यालय 'स्वामी विवेकानन्द आइडियल पब्लिक स्कूल' स्थापित किया गया है।
 रामकृष्ण विवेकानन्द शिक्षक प्रशिक्षण सिलेबस के आधार पर मानवजाति के भावी मार्गदर्शक 'नेताओं' (Leaders) के निर्माण का जो प्रयोग इन दो विद्यालयों में चल रहा है, वह आगे चलकर देश भर के युवाओं के लिये अनुप्रेरक सिद्ध हो सकता है। अभी भारत में ऐसे ३१५ से अधिक विद्या-मंदिर महामण्डल की शाखाओं के रूप में कार्यरत हैं; जहाँ शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम चल रहा है। ]
फिर स्वामीजी  प्रसन्न मुख से कहने लगे, ' तुममें से कब किसके भीतर से सिंह जाग उठेगा, यह कौन जानता है ? यदि तुममें से किसी एक में भी माँ उस ज्ञानाग्नि को प्रज्ज्वलित के दें तो पृथ्वी भर में वैसे कितने ही लंगरखाने बन जायेंगे। बात क्या है, जानते हो ? ज्ञान-शक्ति-भक्ति [नॉलेज एंड पावर एंड डिवोशन (3H) --  'बुद्धिबल, बाहुबल और आत्मबल' सभी मनुष्यों में पूर्ण भाव से अन्तर्निहित है, किन्तु हम विभिन्न व्यक्तियों में उनके विकास की न्यूनाधिकता को देखकर किसी को बड़ा तो किसी को छोटा मानने लगते हैं।
सभी प्राणियों के मन पर एक आवरण पड़ा है, जो उसके सच्चे स्वरूप की अभिव्यक्ति को दृष्टि से ओझल कर देता है। वह हटा कि बस सब कुछ हो गया। एक बार यदि तुम मन की चहारदीवारी (अहं) को एक बार तोड़कर निकल गये, तो " वटेवर यू वांट, वटेवर यू विल डिजायर, विल कम टु पास !'  तो तुम्हारी जो भी इच्छा होगी, जो भी तुम चाहते हो, वह सब तुम्हारे पास आ जाएगा !"

शिष्य--महाराज, इस प्रकार मठ में तीन शाखाओं की स्थापना का क्या उद्देश्य होगा ?
स्वामीजी --समझा नहीं ? * 'फर्स्ट ऑफ़ ऑल, कम्स दि गिफ्ट ऑफ़ फ़ूड; नेक्स्ट इज दि गिफ्ट ऑफ़ लर्निंग, ऐंड दि हाईएस्ट ऑफ़ आल इज दि गिफ्ट ऑफ़ नॉलेज.'' पहले अन्नदान; उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि ज्ञानदान ! इन तीन भावों का समन्वय इस मठ (युवा प्रशिक्षण शिविर) से करना होगा। अन्नदान की सेवा करते करते ब्रह्मचारियों के मन में '' दि आईडिया ऑफ़ प्रैक्टिकल वर्क फॉर दि सेक ऑफ़ अदर्स " 'परार्थ कर्म में भी व्यवहारिक तत्परता के साथ  कर्मपरायणता एवं शिव मानकर जीव-सेवा का भाव' दृढ़ होगा। इससे क्रमशः उनकी चित्त शुद्धि होगी, और उसमें सात्विक विचार अभिव्यक्त होने लगेंगे। तभी ब्रह्मचारी यथासमय ब्रह्म-ज्ञान पाने की योग्यता एवं संन्यासाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त कर सकेंगे।

सभी सामान्य प्रशिक्षणार्थियों (आर्डिनरी कैम्पर्स ) को पहले शिक्षक प्रशिक्षण शिविर के लंगरखाने में धर्मार्थ सेवा देना होगा। वहाँ पर वास्तविक गरीब-दुखियों को नारायण मानकर उनकी सेवा करने की व्यवस्था होगी। इस 'श्रीरामकृष्ण होम ऑफ़ सर्विस' नामक लंगरखाने में धर्मार्थ सेवा देना ही प्रशिक्षुओं के ह्रदय (Heart)-विस्तार या ब्रह्म-ज्ञान को विकसित करने का प्रथम व्यवहारिक प्रशिक्षण होगा। उत्साही ब्रह्मचारियों अर्थात 'लीडर-ट्रेनीज या आत्मजिज्ञासुओं'  को (लीडरशिप ट्रेनिंग देकर) इस लंगरखाने का संचालन सिखाना होगा। उन्हें कहीं से भी प्रबन्ध करके, आवश्यक हो तो भीख मांगकर भी प्रतिवर्ष ऐसा " लंगरखाना आधारित युवा प्रशिक्षण-शिविर" आयोजित करना होगा। जो लोग स्वयं को (ठाकुर माँ स्वामीजी) के 'बनो और बनाओ ' आन्दोलन के सैनिक होने का दावा करते हैं, उन आत्मज्ञासुओं को ही उसके लिये धन संग्रह करके लाना पड़ेगा। इस शिविर को आयोजित करने में राज्य-सरकार से आर्थिक सहायता नहीं लेनी होगी।

इस प्रकार धर्मार्थ लंगर में पाँच वर्ष का प्रशिक्षण समाप्त होने पर वे 'फिजीकल ट्रेनिंग'  तथा दर्शन,विज्ञान और व्याख्यान विद्या (rhetoric) सीखने  लिए वे विद्या-मन्दिर के ' ऑडिटोरियम शाखा' में प्रवेश करने का अधिकार पा सकेंगे। लंगरखाने में पाँच और विद्या-मंदिर में पाँच, कुल दस वर्ष का प्रशिक्षण ग्रहण करने के बाद मठ के स्वामियों द्वारा दीक्षित होकर वे संन्यास आश्रम (लीडरशिप ट्रेनिंग ) में प्रविष्ट हो सकेंगे-केवल शर्त होगी कि वे संन्यासी (बुद्ध जैसा नेता ) बनने के इच्छुक हों, और मठ के अध्यक्ष उन्हें योग्य अधिकारी समझकर संन्यास (विविदिशा संन्यास : त्यागी जीवन जीते हुए - घूम घूम कर रामकृष्ण के नाम का प्रचार का अधिकार) देना चाहें। परन्तु मठाध्यक्ष किसी किसी विशेष सद्गुणी ब्रह्मचारी (लीडर ट्रेनी) के सम्बन्ध में इस नियम का उल्लंघन करके भी उन्हें जब इच्छा हो, संन्यास में दीक्षा दे सकेंगे। परन्तु साधारण ब्रह्मचारियों को, जैसा मैंने पहले कहा है, उसी क्रम में संन्यास आश्रम में प्रवेश करने का अधिकार मिल सकेगा। मेरे मस्तिष्क में ये सब विचार मौज़ूद हैं।
शिष्य -- महाराज, जैसा आपने कहा कि ज्ञान दान ही सर्वश्रेष्ठ दान है, तो फिर अन्नदान और विद्यादान की शाखायें स्थापित करने की क्या आवश्यकता है ?
स्वामीजी - तू अभी तक मेरी बात नहीं समझा ! सुन - इस अन्नाभाव (फ़ूड स्केर्सिटी) के युग में यदि तू दूसरों के लिये सेवा के उद्देश्य से गरीब-दुःखियों को, भिक्षा मांगकर या जैसे भी हो, दो ग्रास अन्न दे सका तो जीव-जगत का तथा तेरा तो कल्याण होगा ही, साथ ही साथ तू इस सत्कार्य के लिये सभी की सहानुभूति भी प्राप्त कर सकेगा। इस सत्कार्य के लिये तुझ पर विश्वास करके काम-कांचन (लस्ट एंड वेल्थ) में बँधे हुए गृहस्थ लोग भी तेरी सहायता के लिये अग्रसर होंगे। तू विद्यादान या ज्ञानदान करके जितने लोगों को आकर्षित कर सकेगा, उसके हजार गुने लोग तेरे इस अयाचित (बिना मांगे) अन्नदान द्वारा आकृष्ट होंगे। इस कार्य में तुझे जन-साधारण की जितनी सहानुभूति प्राप्त होगी, उतनी अन्य किसी कार्य में नहीं  सकती। यथार्थ सत्कार्य में मनुष्य के सहायक भगवान भी होते हैं। इसी तरह लोगों के आकृष्ट होने पर ही तू उनमें विद्या तथा ज्ञान (आध्यात्मिकता) प्राप्त  करने की आकांक्षा को उद्दीप्त कर सकेगा। अतः प्रशिक्षणार्थियों का जीवन-गठन करने के लिये पहले अन्नदान ही आवश्यक है। 
स्वामीजी फिर कहने लगे -  ' यदि ईश्वर ने चाहा तो, हमलोग इस मठ (महामण्डल) को सर्वधर्म-समन्वय का महान केन्द्र बना देंगे। हमारे भगवान (श्रीरामकृष्ण परमहंस) स्वयं सर्वधर्म-समन्वय के दृश्य अवतार हैं, मूर्तमान रूप हैं। यदि हमलोग इस सर्वधर्म-समन्वय के आदर्श को यहाँ (महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में) जाग्रत रख सकें तो श्रीरामकृष्ण सम्पूर्ण विश्व में स्थापित हो जायेंगे। सारे मत, सारे पंथ, ब्राह्मण-चाण्डाल सभी जिससे यहाँ पर अपने अपने आदर्श को देख सकें, वह करना होगा। उस दिन जब मठभूमि पर मैंने श्रीरामकृष्ण की प्राण-प्रतिष्ठा की, तब ऐसा लगा मानो यहाँ से उनके भावों का विकास होकर (पहले भारत की सांस्कृतिक राजधानी-बनारस में और फिर) चराचर विश्व भर में छा गया है। 
 मुझसे जितना हो सकता है, कर रहा हूँ और करूँगा; तुम लोग भी श्रीरामकृष्ण के उदार भावों को (मनुष्य-निर्माकारी शिक्षा पद्धति को ) भारत के गाँव -गाँव तक पहुंचा दो। केवल वेदान्त पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा। हमें अपने व्यवहारिक जीवन में शुद्ध-अद्वैतवाद की सत्यता को प्रमाणित करना होगा। आचार्य शंकर इस अद्वैतवाद को जंगलों और पहाड़ों (मठों) में रख गये हैं; मैं अब उसे वहाँ लाकर संसार और समाज में प्रसारित करने के लिये आया हूँ। घर घर में, घाट-मैदान में, जंगल-पहाड़ों में इस अद्वैतवाद का गंभीर नाद उठाना होगा। तुम लोग मेरे सहायक बनकर काम में लग जाओ ।
शिष्य - महाराज, ध्यान की सहायता से उस भाव का अनुभव करने में ही मानो मुझे अच्छा लगता है। उछल-कूद करने (कैम्प के लिये चन्दा माँगने, गाँव-गाँव पाठचक्र खोलने) की इच्छा नहीं होती।
स्वामीजी- वह तो भांग खाकर के बेहोश पड़े रहने की तरह हुआ। केवल ऐसे रहकर क्या होगा ? अद्वैतवादी अनुभूति की ख़ुमारी में कभी ताण्डव नृत्य कर तो कभी समस्त इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करके निश्चल हो जा। कोई अमृत-तुल्य मिठाई अकेले खाकर मुख पोछ लेने से कभी सुख मिलता है ? दस आदमियों में उस अनुभूति को वितरित करने की चेष्टा करनी चाहिये। आत्मानुभूति करके यदि तू मुक्त हो गया तो इससे दुनिया को क्या लाभ होगा ? अपने इस शरीर को छोड़ने के पहले त्रिजगत् को मुक्त करना होगा। महामाया के राज्य में आग लगा देनी होगी; तभी नित्य सत्य में प्रतिष्ठित होगा । क्या उस परमानन्द की बराबरी अन्य किसी से हो सकती है, मेरे बच्चे ?

वह ब्रह्म (Absolute Truth निरपेक्ष, असीम, या अविनाशी) एक होकर भी व्यावहारिक रूप से अनेक (ससीम,नश्वर) रूपों में हमारे समक्ष विद्यमान हैं ! 'नाम' तथा 'रूप' ही इस सापेक्षता (Relativity) का कारण है। जिस प्रकार घड़े का नाम-रूप छोड़ देने से क्या दीखता है ? -केवल मिट्टी, जो उसकी वास्तविक सत्ता है। इसी प्रकार भ्रम में पड़कर ही तू यह सोचता है कि मैं एक घड़ा (घट या शरीर), एक पट को देख रहा हूँ। प्रतीयमान जगत इसी 'नेसाइंस' अविद्या या अज्ञान पर निर्भर है, जो ज्ञान को ढँक लेती है; किन्तु वास्तव में उसका अस्तित्व ही नहीं है। 
अर्थात ज्ञान-प्रतिबन्धक यह जो अज्ञान है, उसकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है, फिर भी उसी को लेकर लोक-व्यवहार चलता रहता है। इस वैविध्य-पूर्ण जगत में स्त्री-पुत्र, देह-मन आदि जो कुछ भी भिन्नता दिख रही है, वह नाम-रूप की सहायता से अविद्या द्वारा निर्मित है।  'ऐज सून ऐज दिस नेसाइंस इज रिमूव्ड' - ज्योंही अज्ञान हट जायगा, त्योंही ब्रह्म सत्ता की अनुभूति हो जायगी।
निरवधिगगनाभम् अनंत के साथ एकात्मता का अनुभव करते ही तू उस भूमानन्द में प्रतिष्ठित हो जायगा जो आसमान की तरह असीम है ! जड़-चेतन (सोल ऐंड मैटर ) में सर्वत्र अपनी उपस्थिति को देखकर तू दंग रह जायेगा ! 'स्ट्रक डम्ब' -स्तब्ध होकर तू गूँगा बन जायेगा ! 'होल सेंटिएन्ट ऐंड इंसेन्टिएंट वर्ल्ड' सम्पूर्ण स्थावर (जड़) और जंगम (सचेतन) सम्पूर्ण जगत तुझे अपनी ही आत्मा जैसा अनुभव होने लगेगा। उस समय जिस प्रकार तू अपने आप के प्रति दया (करुणा) दिखाता है, उतनी ही करुणापूर्ण नेत्रों से तू सबको देखे बिना रह ही नहीं सकेगा। वास्तव में यही तो व्यवहारिक वेदान्त है ! (कर्म के बीच में वेदान्त की अनुभूति करते हुए शिवज्ञान से जीव सेवा करना है!) डू यू अंडरस्टैंड मी ? समझते हो भई ? 
शिष्य- यह दृष्टिगोचर नाम-रूप भी क्यों है, और वह कहाँ से आया ?
स्वामीजी- हमारे शास्त्रों में चित्त की गहराइयों में समाये हुए इस नाम-रूपात्मक संस्कार या अज्ञान को प्रवाह के रूप में नित्यप्राय कहा गया है। परन्तु उसका अन्त है। और वह ब्रह्म-सत्ता तो सदा रस्सी की तरह अपने स्वरुप में ही वर्तमान है। इसीलिये वेदान्त शास्त्र का सिद्धान्त है कि यह निखिल ब्रह्माण्ड  ब्रह्म में अध्यस्त, इन्द्र-जाल वत प्रतीत हो रहा है। ''सुपरइम्पोज्ड ऑन ब्रह्मण --अपियरिंग लाइक अ जगलर्स् ट्रिक.' ' इससे ब्रह्म के स्वरुप में किंचित भी परिवर्तन नहीं हुआ; समझते हो भाई ?

श्लोक ४.२- " ज्ञानेन हि विमुच्यते "- ज्ञान अप्रतिरोध्य (irresistible) है ! कोई भी कर्म तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता, केवल ज्ञान (सत्य) के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है।

प्रसंग - मिस एस ई. वाल्डो द्वारा अभिलिखित 'देव-वाणी' : (१६ जुलाई, मंगलवार १८९५)

विषयवस्तु: कर्म-विधान "अनसीन कॉज" या अदृश्य कारण अर्थात पूर्व-जन्मों से चित्त की गहराई में बड़े पैमाने पर संचित संस्कारों के सूक्ष्म छाप (सटल इम्प्रेशंस) हमें यज्ञ-याग और उपासना (सत्य का अन्वेषण) करने के लिये बाध्य कर देता है, उससे एक के बाद एक व्यक्त फल उत्पन्न होता है। कर्म का फल तथा ज्ञान का फल -एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न होते है! सुख और दुःख इन्द्रियों के साथ अविच्छिन्न रूप से संबद्ध रहते हैं, इसीलिए सुख-दुःख का भोग करने के लिये शरीर की आवश्यकता होती है।
परमहंस सिंहगुरु कहते हैं - सबसे बड़ा पाप है, अपने को दुर्बल समझना। तुमसे बड़ा और कोई नहीं है; सत्य मानो कि तुम ब्रह्म-स्वरूप हो ! तुम सिंह-शावक (आत्मा) हो ! फिर तुमने स्वयं ही अपने को भेंड़ (स्त्री-पुरुष या शरीर) मान लिया है, उसे इस भ्रम (देहाध्यास या सम्मोहन ) को तुम्हें  स्वयं ही तोडना होगा। कोई भी कर्म तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता, केवल ज्ञान (सत्य) के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है। जिस व्यक्ति का शरीर जितना श्रेष्ठ (बलवान और पवित्र) होगा, उसके नैतिकता (चरित्र के गुणों) का मानदण्ड (आदर्श) भी उतना ही श्रेष्ठतर होगा- यही विधान ब्रह्मा तक पर लागू है। किन्तु 'मनुष्य' (ब्रह्मविद्) बनने के लिये सभी को (देवताओं को भी) शरीर धारण करना पड़ता है, और जब तक शरीर है, तब तक सुख-दुःख रहेगा ही; केवल देहातीत या विदेह होने पर ही सुख-दुःख का पूर्ण रूप से अतिक्रमण हो सकता है।
कर्म और उपासना "Be and Make" का फल इतना ही है कि वे तुम्हें अपने स्वरुप में फिर पहुंचा देते हैं। आत्मा देह है, मैं शरीर हूँ --यह सोचना बिल्कुल भ्रम है; अतएव हम इसी शरीर में मुक्त हो सकते हैं। देह के साथ आत्मा का किंचित सादृश्य नहीं है। माया का अर्थ ' कुछ नहीं ' नहीं है; मिथ्या को सत्य समझकर ग्रहण कर लेना ही माया है।
'सत्य' का ज्ञान ही 'असत्यता'  (मिथ्या-ज्ञान या भ्रम) को दूर कर कर देगा। तुम मुक्त ही हो, तुम्हें और कौन मुक्त करेगा ? ज्ञान अप्रतिरोध्य (irresistible) है ! मन (बुद्धि) में इतनी क्षमता ही नहीं कि वह इसे ग्रहण कर सके या रद्द कर सके ! जब ज्ञानोदय होगा, तब मन को उसे ग्रहण करना ही पड़ेगा। हमने ही जंजीरे गढ़ी हैं, और केवल हम ही इसे तोड़ सकते हैं।
'अस्तित्व' में दो अविनाशी तथ्य हैं- ईश्वर और जगत (ब्रह्म और ब्रह्माण्ड)। उन दोनों में ईश्वर (ब्रह्म) अपरिवर्तनीय (unchangeable-अविकारी) हैं, और ब्रह्माण्ड (जगत) परिवर्तनशील है। जब तुम्हारा मन जगत में लगातार होने वाले परिवर्तन को समझ नहीं पाता, तुम उसे अनंत कहते हो !  'जगत' और 'ब्रह्म'  एक हैं अवश्य, किन्तु एक ही समय में (साइमल्टैनीअस्ली - युगपत् रूप से या साथ-साथ) तुम दो पदार्थों को इकट्ठे नहीं देख सकते --एक पत्थर के उपर शिवजी की मूर्ति खुदी हुई है, जब तुम्हारा ध्यान पत्थर (ख़ुदा) की ओर होगा, तो खुदाई की ओर नहीं रहेगा और यदि खुदाई का ध्यान दो, तो पत्थर का ध्यान नहीं रहेगा। तुम क्या एक क्षण के लिये भी अपने (मन) को स्थिर (एकाग्र) कर पाते हो? सभी योगी कहते हैं--ऐसा कर सकना सम्भव है।

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५.

 आज भी 'ऋषि'  अर्थात ' ब्रह्मवेत्ता मनुष्य ' बना जा सकता है !

श्लोक ५. ज्ञानभक्तिक्रियायोगैः राजयोगसमाश्रये - समं वै लभते ज्ञानमेकेनैवाधिकेन वा ॥

'By Work, or Worship, or Psychic control, or Philosophy - by one, or more, or all of these ' - the same knowledge is attainable.

 कर्म, उपासना, मनःसंयम, अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्मभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।

प्रसंग : [राजयोग ग्रन्थ की भूमिका १/३४ ]

विषयवस्तु :   हमारे समस्त ज्ञान स्वानुभूति पर आधारित हैं। वैज्ञानिक तुमको किसी भी विषय पर विश्वास करने को नहीं कहेंगे। वे प्रत्येक व्यक्ति से यही कहेंगे " तुम स्वयं यह देख लो कि यह बात सत्य है अथवा नहीं, और तब उस पर विश्वास करो। " प्रत्येक निश्चित विज्ञान (इग्ज़ैक्ट साइंस) की एक सामान्य आधार-भूमि है और उससे जो सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं, इच्छा करने पर कोई भी उनका सत्यासत्य तत्काल समझ लेता है। अब प्रश्न है, कि धर्म के क्षेत्र में भी ऐसी कोई सामान्य आधार-भूमि है भी या नहीं ?

ऑक्सीजन (O2) का आविष्कार होने के पहले भी कोटि कोटि बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी, और भविष्य में भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी। एक-रूपता ही प्रकृति का एक बड़ा नियम है। एक बार जो घटित हुआ है, वह पुनः पुनः घटित हो सकता है ! यदि कहीं कोई ईश्वर है, तो मुझे भी उसका साक्षात्कार करना होगा; यदि आत्मा नामक कोई वस्तु है- तो उसकी उपलब्धि करनी पड़ेगी। अन्यथा विश्वास न करना ही भला। ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है। '

ईसा ने कहा है- " मैंने ईश्वर के दर्शन किये हैं।" उनके शिष्यों ने भी कहा है, " हमने ईश्वर का अनुभव किया है। " --आदि आदि। बौद्ध धर्म के विषय में भी ऐसा ही है। भगवान गौतम बुद्ध की प्रत्यक्ष अनुभूति पर यह धर्म स्थापित है। उन्होंने कुछ सत्यों का अनुभव किया था। हिन्दुओं के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है; उनके शास्त्रों में 'ऋषि' नाम से सम्बोधित किये जाने वाले ग्रन्थकर्ता कह गये हैं, " हमने कुछ सत्यों का अनुभव किये हैं! "
 अतः यह स्पष्ट है कि सभी धर्माचार्यों (ऋषियों या पैग़म्बरों) ने ईश्वर को देखा था। उन सभी ने आत्मदर्शन किया था; अपने अनन्त स्वरुप का ज्ञान सभी को हुआ था, सभी ऋषियों ने अपने भविष्य अवस्था को देखा था, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये हैं। भेद इतना ही है कि इनमें से अधिकांश धर्मों के ठीकेदार (राजनीतिज्ञ लोग) लोग यह दावा करने लगे हैं कि ' इस समय वे अनुभूतियाँ असम्भव हैं। जो विभिन्न नाम वाले धर्मों के प्रथम संस्थापक थे, बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रचलन हुआ, ऐसे केवल थोड़े से व्यक्तियों के लिये ही ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव सम्भव हुआ था। अब ऐसे अनुभव करने के लिये कोई रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्म पर केवल विश्वास भर किया जा सकता है।' धर्म के ठिकदारों के इस तर्क मैं अपने अनुभव के आधार पर पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ !!

आध्यात्मिक ज्ञान लाभ करने का अर्थ है यह अनुभव कर लेना कि, नश्वर शरीर तो अविनाशी आत्मा का वस्त्र है; और यह सापेक्षिक जगत- निरपेक्ष ब्रह्म के ऊपर अध्यस्त है ! किसी वैज्ञानिक (ऋषि) के निर्देशन में लालच को कम करते हुए मेन्टल कंसंट्रेशन का नियमित अभ्यास की पद्धति को सीख लेना ही वह इग्ज़ैक्ट साइंस है जो किसी भी संप्रदाय या जाति में जन्मे व्यक्ति को उसकी अपनी इन आभ्यंतरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का उपाय सीखा देती है। धर्म लाभ करने के क्षेत्र में राजयोग-विद्या या ' मनः संयोग' का नियमित अभ्यास ही वह 'Exact science'  या अचूक  विज्ञान  है, जो प्रत्येक मनुष्य को  उसकी अपनी आभ्यंतरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का उपाय सीखा देती है। और मन का पर्यवेक्षण करने वाला यन्त्र स्वयं मन ही है !

हमारी इन्द्रियाँ स्वभावतः बहिर्मुखी हैं, उसके साथ साथ जुड़ा हुआ मन भी बहिर्मुखी बन गया है।  मन को इन्द्रियों से खींचकर उसे अंतर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर, उसे मन के उपर ही निवेशित करना होगा, तांकि वह अपना स्वाभाव समझ सके, अपने आप को विश्लेषण करके देख सके। मनःसंयोग या एकाग्रता की शक्ति का सही सही नियमन कर जब मन को बहिर्मुखी होने से रोककर, अन्तर्जगत की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है। मन की शक्तियाँ प्रकाश की किरणों के समान नाना प्रकार के बाह्य विषयों में इधर-उधर बिखरी हुई हैं। जब उन्हें केंद्रीभूत कर दिया जाता है, तब वे सब कुछ को आलोकित कर देती हैं। यही ज्ञान का एकमात्र उपाय है। पर इसके लिये काफ़ी अभ्यास करना आवश्यक है।

सांख्य दर्शन पर पूरा राजयोग आधारित है। सांख्य के अनुसार ज्ञान की प्रणाली इस प्रकार है - पहले ज्ञेय विषय के साथ आँख आदि बाह्य उपकरणों का संयोग होता है। ये चक्षु आदि (आँख,कान,नाक, जिह्वा और त्वचा) बाहरी उपकरण फिर उसे मस्तिष्क-स्थित अपने अपने इन्द्रिय-गोलकों के पास भेजते हैं, इन्द्रियाँ मन के निकट, और मन उसे निश्चात्मिका बुद्धि के पास ले जाता है; तब पुरुष या आत्मा उसका ग्रहण करती है। फिर जिस सोपानक्रम में से होता हुआ वह विषय अंदर आया था, उसी में से होते हुए लौट जाने की पुरुष मानो उसे आज्ञा देता है। इस प्रकार विषय गृहीत होता है। पुरुष को छोड़कर शेष सब जड़ है। एकमात्र पुरुष ही चेतन है। मन तो मानो आत्मा का दिव्य चक्षु है। उसके द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को ग्रहण करती है। आधुनिक शरीर वैज्ञानिक भी कहते हैं कि आँखें वास्तविक दर्शन-इन्द्रिय नहीं हैं, वे तो बाह्य खिड़की है, इन्द्रिय तो मस्तिष्क के अन्तर्गत स्नायु-केन्द्र 'ऑप्टिक नर्भ' में अवस्थित है; और समस्त इन्द्रियों के सम्बन्ध में ठीक ऐसा ही समझना चाहिये। 

यह एक महाविज्ञान है ! चार हजार वर्ष से भी पहले यह इस विज्ञान को आविष्कृत किया गया था। अन्धविश्वास करना ठीक नहीं, भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो, ठीक उसी प्रणाली से यह धर्म-विज्ञान भी सीखना होगा। इसमें गुप्त रखने की कोई बात नहीं किसी विपत्ति की आशंका भी नहीं है।

मनुष्य (भावी ऋषि या पैग़म्बर) चाहता है सत्य, वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है; और जब वह सत्य की धारणा कर लेता है, वेद कहते हैं- ' तभी उसके सारे सन्देह दूर हो जाते हैं, सारा भ्रम -जाल छिन्न-भिन्न हो जाता है और सारी वक्रता सीधी हो जाती है। ' मुण्डक२/२/८ 

इस सत्य को प्राप्त करने के लिये, राजयोग-विद्या (पातंजल योग-सूत्र) मानव के समक्ष बिल्कुल व्यावहारिक और वैज्ञानिक प्रणाली को आजमा कर देखने का प्रस्ताव रखती है। मैं तुम्हें सैकड़ों उपदेश दे सकता हूँ, परन्तु तुम यदि साधना न करो, उन यम-नियमों का पालन और मनःसंयोग का अभ्यास न करो, तो तुम कभी धार्मिक अर्थात ऋषि या पैग़म्बर न हो सकोगे। सभी युगों, सभी देशों, के निष्काम और पवित्र अवतार या पैग़म्बर इसी सत्य का प्रचार कर गए हैं। संसार का कल्याण छोड़ कर अन्य कोई नाम-यश की कामना उनमें नहीं थी।

प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मनःसंयम, अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्मभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ।

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 ६.

चिरयुवा (सदा-यविष्ठ) बने रहने का  सुनिश्चित विज्ञान है-' मनः संयोग ' !

श्लोक ६.  ईश्वरो वै यविष्ठः स्यादिति श्रुतिविवेचना - युवानो धर्मशीलाः स्युधर्मः शीलस्य भूषणम् ॥

1. God is the most youthful --- so holds the Vedas (Rig Veda 1.26.2)

2. ' One should be devoted to religion even in one's youth.'

3. Youths should be righteous, ' be moral, be brave', and learn the right code of conduct ; virtue and righteousness beautify character.


१. वेदों में कहा गया है - " नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः " अर्थात जो (सदा) सर्वस्मिन्काले (यविष्ठ) अतिशय उत्साह से भरा रहे उसे 'युवा' कहते हैं ! "

२. ' जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील (वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला) मनुष्य बनना चाहिये। कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा ?

३. ' युवाओं को धार्मिक (सदाचारी) बनना चाहिए, ' पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो', तथा न्यायोचित आचार संहिता को सीखो; सद्गुण एवं धार्मिकता ही मनुष्य के चरित्र को अलंकृत करते हैं।

प्रसंग -[१. महामण्डल पुस्तिका "युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द " ऋग वेद ०१.०२६.००२/ २.(वि० सा० ख ६ : वार्ता एवं संलाप : ११)/ ३. ( ५ जनवरी १८९० को इलाहबाद से श्री यज्ञेश्वर भट्टाचार्य को लिखित पत्र)]

विषयवस्तु : ६.१ युवावर्ग स्वाभाव से ही अतिवादी होता है, जो कुछ करता है उसे अती तक ले जाता है। जिससे प्रेम करता है, अत्यधिक प्रेम करता है; जिस बात से घृणा करता है, अत्यधिक घृणा करता है। यही उनका वैशिष्ट होता है क्योंकि उनके भीतर अनन्त प्राण-उर्जा होती है। किन्तु यही उनकी कमजोरी का कारण भी बन जाती है। कच्चे कोयले में आँच देते समय इतना धुआँ निकलता है, कि आँखें जलने लगती हैं, पर भोजन नहीं पक सकता। किन्तु जब धुआँ निकलना बन्द हो जाता है, और कोयला में आग पकड़ लेता है, केवल तभी खाना पकाया जा सकता है।

सुगठित और समाजोपयोगी यौवन ही समाज के सभी समुदायों के समस्त प्रकार के आहार्य को पकाने (ग्रहणीय बनाने) वाली अग्नि है। और इस युवा-ऊर्जा से वंचित कोई भी समाज जड़-पर्वत के जैसा गतिशून्य (Stand still) हो जाने को बाध्य है। ' आहार्य ' शब्द का अर्थ केवल खाद्द्य पदार्थ ही नहीं है। जिस किसी वस्तु का आहरण या ग्रहण नहीं करने से, जीवन अप्रगतिशील न बन जाता हो, वही है आहार्य ! (जैसे सत्संग या पाठचक्र भी आहार्य है।) कच्चे आहार (खाद्य-पदार्थ) को पका कर ग्रहणीय बनाने के लिये अग्नि आवश्यक होती है। 'यौवन' (जवानी) जीवन का यह पड़ाव, ही कार्य करने का सही समय है। किन्तु युवावस्था में धुआँ-निकलने की अवधि का अतिक्रमण कर लेना ही सबसे बड़ी समस्या है।
इसीलिये वेदों में अग्नि को अन्नपालक कहा गया है। किस प्रकार की अग्नि होनी चाहिये ? जो सर्वदा यविष्ट बनी रहे, वरणीय और तेजःसम्पन्न अग्नि होनी चाहिये ! युवा-संप्रदाय ही समाज का सभी प्रकार से अन्नपालक, अग्निस्वरूप, तेजःसंपन्न, वरणीय हैं। कुशलता पूर्वक कर्म का निष्पादन करने के लिये इस अग्नि की आवश्यकता है। किन्तु यह अग्नि विध्वंश करने वाली अग्नि नहीं होनी चाहिये। चंचल मन और अस्थिर यौवन रहने से कार्य का निष्पादन नहीं हो सकता है।

जिस प्रकार युवाओं का जीवन चंचल और जोशीला होता है, उसी प्रकार अग्नि की लहलहाती हुई शिखा में सर्वग्रसिता शक्ति होती है। इसीलिये अग्नि का  आह्वान करते हुए - ऋग्वेद संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २६.२ में कहा गया है -  नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥२॥ - अर्थात सदा तरुण रहने वाले हे अग्निदेव (भारत के युवाओं ) ! आप सर्वोत्तम होता (यज्ञ सम्पन्न कर्ता) के रूप मे यज्ञकुण्ड मे स्थापित होकर स्तुति वचनो का श्रवण करें॥ क्योंकि नियंत्रण में नहीं रखने से कोई भी शक्ति कार्यकर नहीं होती है। यज्ञ का अर्थ होता है त्याग के द्वारा सम्पादित कर्म।

झूठी प्रशंसा या चाटुकारिता के द्वारा युवाजीवन के क्रोध को शान्त करने की चेष्टा से काम नहीं होगा। दीप्तिमान (ओजस्वी) वचनों के द्वारा अग्निस्वरूप युवा-समुदाय को, उनकी अन्तर्निहित शक्ति के संबन्ध में जाग्रत करना होगा। आधुनिक युग में भगवान (श्रीरामकृष्ण) सबसे प्रथम युवा नेता थे ; जिन्होंने अपने स्तुति-वचनों से १८ वर्ष के तरुण नरेन्द्र नाथ का जीवन गठित करके उनकी यौवन ऊर्जा को समाजोपयोगी बनाकर चिर युवा स्वामी विवेकनन्द में रूपान्तरित कर दिया था ! जिस उपाय से ईश्वर सदैव युवा रहते हैं, यौवन-ऊर्जा को नियंत्रित करके चिरयुवा बने रहने के उसी उपाय का एक सुनिश्चित विज्ञान (Exact Science) है -मनःसंयोग या 'राजयोग विद्या' ! तीनों ऐषणाओं को त्याग कर मनुष्य जिस मानसिक-एकाग्रता का अभ्यास करके ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन सकता है, युवाओं के लिये उसी सुनिश्चित विज्ञान को महामण्डल के द्वारा " मनः संयोग " के नाम से सरल भाषा में प्रकाशित किया गया है।

६.२ ' जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील (वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला) मनुष्य बनना चाहिये। कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा?
विषयवस्तु :  स्वामीजी उत्साही युवकों के सामने सदैव त्याग के उच्च आदर्श रखते थे। (प्रणाम) सर्वप्रथम त्याग या संन्यास  क्या है यह समझ लें । गीता में कहा गया है -
 काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा: ।।१८.२।।
-अर्थात ज्ञानी जानते हैं कि कर्म में कामना का न होना , योगी की पहचान है। और दूसरे विचार कुशल पुरुष -- कर्म  में फल की सोच की अनुपस्थिति को .....कर्म फल का त्याग कहते हैं ॥

अतः संन्यास की अनुभूति गृहस्थ जीवन में रहकर भी हो सकता हैं और एकांतमें जाकर भी।  गृहस्थ जीवन में रहते हुए संन्यासी की वृत्ति होनेवाले - राजा जनक के समान योगी बन पाना अत्यंत दुर्लभ है। वह अत्यंत कठिन है और इस हेतु कठोर साधना और ईश्वर कृपाकी आवशयकता होती है। 
 संन्यासी चाहे सांसारिक हो या एकान्तिक उसका तीनों एषणाओं और फल (सिद्धि) पाने की आसक्ति को त्याग कर पूर्णतः अनासक्त हो जाना परम आवश्यक है | जो लोग यह सोचते हैं कि साँसारिक जीवन या गृहस्थ-जीवन में अनेक दोष हो सकते हैं, इसलिए जंगल में, एकान्त में, विरक्त बनकर रहना ठीक होगा। उनका रास्ता सुगम तो अवश्य है, किन्तु ' चरित्र और जीवन ' सामाजिक व्यवहार रूपी व्यायाम-शाला में व्यवहार करने से ही गठित होता है। चरित्र कोई घने जंगल में एकांत में रहकर पकाने वाली वस्तु नहीं है।
 महाभारत में 'बगुला भष्म ' एवं कसाई "धर्मव्याध " की कथा में यही कहा गया है। कारण कि जंगल में जाकर एकान्त में साधना करने से जीवन में घटित होने वाली - 'भली-बुरी परिस्थितियों' से सामना नहीं होता है, इसलिये मन के विरुद्ध या प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करके अपने ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने का अवसर कम हो जाता है। 
ह्रदय (आत्मा) ने मन पर कितना नियंत्रण किया है, आत्मा ने काम-क्रोध पर विजय प्राप्त किया है या नहीं? एकान्तवासी को इसकी परीक्षा कदम कदम पर देने का अवसर नहीं मिलता, इसलिये जंगल में जाकर साधना करने में यह जोखिम भी है कि मनोभूमि दुर्बल रह जाती है। प्रलोभन का अवसर आने पर ऐसे एकान्तवासी ही आसानी से फिसल सकते हैं, क्योंकि उन्हें बुराई से लड़ने का और उस पर विजय प्राप्त करने का अवसर ही नहीं मिला। विरक्त तो परीक्षा से डरकर अपनी जान छिपाये बैठा है। वह कठिन प्रसंग आने पर उत्तीर्ण हो जायेगा, इसकी आशा कैसे की जाय? 
सन्यास लेना अर्थात घर संसार छोड़ कर साधनामें मगन रहना यह - विवेक-प्रयोग साधना के अत्यंत उच्च स्तरपर साध्य होता है | विवेक-प्रयोग में ६०% से अधिक स्तर वाला साधक ही सन्यास दीक्षा या लीडर-ट्रेनी बनने की क्षमता रखता है।

[मन की शैतानियत तो दूसरा कोई दूर कर सकता नहीं। ६०% से अधिक सदसद् -विवेक प्रयोग में सफल प्रशिक्षणार्थी ही ' शिव-ज्ञान से जीव सेवा ' करने के लिए - 'Be and Make ' आंदोलन का लीडरशिप ट्रेनि जो कुछ भी करता हो, 'यत्करोषि', उसे ही भगवान् को अर्पण करो। 'अपने' का अर्थ है हरेक के लिए जो निर्धारित या तयशुदा (assigned) हैं। जो भी काम करते हो सभी कुछ भगवदर्पण बुद्धि से, यह समझ के कि यह भगवान् की पूजा ही रूपान्तर में हो रही है, करो। जब लोग समझने लगते हैं कि हम जो कुछ भी करते हैं वह भगवान् की पूजा ही है तो खामख्वाह मनोयोगपूर्वक करना चाहते हैं। दिल में यह खयाल हो आता है कि पूजा में कोई कोर-कसर न रह जाय। इसलिए धुन और लगन के साथ सच्चे प्रेम से अपने-अपने काम न सिर्फ करते हैं, बल्कि उन्हें पूर्ण बनाने के लिए सिरतोड़ परिश्रम करते हैं। इससे नीचेके स्तरपर रहने वाले ऑर्डिनरी कैम्पर्स मन एवं बुद्धिद्वारा विषय समझकर सेवा करने (गार्ड-ड्यूटी) का प्रयास करते हैं | ७०% स्तरपर साधक संत या चरित्र-निर्माण आंदोलन के नेता (ऑफिसर्स) पद पर आसीन होता है।  और ८०% आने पर सदगुरु उसे भी नेतृत्व-प्रशिक्षण देने के लिए मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने का लीडरशिप चपरास (संन्यास -दीक्षा) सौंप देते हैं !] 
उसके नीचेके स्तर पर संसार सँभालते हुए धर्माचरण करते हुए अपने इन्द्रियोंका निग्रह करना -या चरित्रनिर्माण और जीवन गठन करना आर्डिनरी कैम्पर्स के लीडरशिप चपरास प्राप्त करने या सन्यासआश्रम में जानेकी तैयारी करने सामान है | सच्चे संत किसी भी जीवात्माका अध्यात्मिक स्तर (विवेक-प्रयोग क्षमता) जाने बिना उन्हें संन्यास -दीक्षा या लीडरशिप चपरास कभी नहीं देते।] 
वास्तविकता यह है कि,  मनुष्य जीवन के लक्ष्य ' अमतृतत्वं या पूर्णत्व प्राप्ति ' को प्राप्त करने के लिए चार नहीं केवल दो ही आश्रम (पड़ाव) है।  एक ब्रह्मचर्य और दूसरा संन्यास, किन्तु प्रत्येक प्रशिक्षणार्थी के लिए - ब्रह्मचर्य (आत्मजिज्ञासु) से सीधा संन्यास (पूर्णतः अनासक्त) में छलांग लगाना कठिन होता है। अतः ईश्वर  (जगतगुरु श्रीरामकृष्ण) ने दो और आश्रमका निर्माण किया है गृहस्थ (आर्डिनरी कैम्पर्स) और वानप्रस्थ (लीडर ट्रेनी) | यह दोनों ही आश्रम सन्यास आश्रम हेतु जीवात्माकी तैयारी करनेके लिए बनाये गए हैं | यह बात और है कि आज भारतीय संस्कृतिमें वर्ण और आश्रम दोनों ही व्यवस्था टूट चुकी है और फल स्वरूप भारतीय संस्कृतिका पतन हो गया है !
धर्माचरण करते हुए गृहस्थ जीवन बीताना और बच्चेके बड़े हो जानेपर उन्हें उत्तरदायित्व सौंप कर पति-पत्नी को भाई-बहन की तरह रहते हुए; अपना अधिक समय साधना करने में बिताना यह दोनों (गृहस्थ और वानप्रस्थ ) आश्रमका मूल भूत उद्देश्य था।  जिससे कि जीवात्मा सहजतासे सन्यास आश्रमकी और बढ़ सके परन्तु मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने में समर्थ नेताओं के आभावमें यह आश्रम-व्यवस्था लगभग मृतप्राय हो गयी है !

परिवारमें रहकर साधना करने हेतु बीच-बीचमें पाठचक्र या महामण्डल के त्रिदिवसीय या छः दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण-शिविर में अवश्य भाग लेना चाहिये (या किसी गुरुके सानिध्यमें या उनके आश्रम में जाकर रहना चाहिए)। इसीलिये ठाकुर युवाओं को बीच बीच में कुछ समय निर्जन-स्थान (दक्षिणेश्वर और काशीपुर उद्यान बाड़ी ) में एकांतवास करने की सीख दिया करते थे। जिससे मनुष्य किसी ऋषितुल्य शिक्षक या नेता के सानिध्य में रहते हुए अंतर्मुख होकर अपने जीवनके उद्देश्यका अभ्यास कर सके और सदुपदेशों का श्रवण-मनन-निदिध्यासन कर सके; अन्यथा गृहस्थ होते हुए भी त्यागी (संन्यासी) होना असंभव है !
[संन्यास की स्थिति मानव जीवन की सर्वांगीण पूर्णता की घोषणा है और इसका प्रमाण है कि इस व्यक्ति ने सभी गुत्थियाँ शान्ति और मर्यादापूर्ण सुलझा ली है। अब यह इस स्थिति में है कि औरों का मार्ग दर्शन कर सके। इतनी बड़ी सफलता प्राप्त करने वाले व्यक्ति के गुणों में जन-समाज सच्चे हृदय से मस्तक झुकाता है। उन्हें देव श्रेणी में गिना जाता है। 
ऐसे (विवेकानन्द -अभेदानन्द जैसे ) दस-बीस भी संन्यासी जिस मठ में होते थे उसकी कीर्ति चारों ओर फैल जाती थी। संन्यासी का आतिथ्य करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए हर कोई लालायित रहता था। संन्यासी के दर्शन मात्र को लोग भारी पुण्य मानते थे, क्योंकि वह जीवन की सर्वांगीण पूर्णता का प्रतीक जो था। 
आज आशाराम जैसे साधु संन्यासियों का समाज इतना बढ़ जाना और उनका स्तर इतना गिर जाना, प्रत्येक धर्म प्रेमी के लिए एक बड़ी चिन्ता एवं वेदना का विषय है। उनमें से जो थोड़े से सच्चे साधु (रमेश भाई मुरारी बापू ) भी हैं वे भी इस भिखमंगे की भीड़ में अपना प्रभाव खोते चले जा रहे हैं। 
पूर्वकालीन में साधु महात्मा (नेता ) को देखकर स्वभावतः ही हर व्यक्ति में उनके त्याग के प्रति श्रद्धा का संचार होता था पर आज ठीक उसके विपरीत स्थिति है। त्याग, साधना और भावना ऊँची होते हुए भी वेष देखकर तो पहले लोग नाक भौं ही चढ़ाते हैं पीछे अधिक व्यक्तिगत परिचय होने पर भले ही कोई सम्मान करे। अब भिक्षा भी कोई ससम्मान प्राप्त नहीं कर सकता और न ऐसा सात्विक अन्न ही उपलब्ध है जिसे भिक्षा में लेकर खाने वाले की बुद्धि सात्विक बनी रहे। जंगल वन भी कट गये, जहाँ कंदमूल फल पैदा होते थे तथा जहाँ गायें पाल कर दूध भी उपलब्ध हो सकता था। अब तो वे ही जंगल किसी प्रकार बच रहे हैं जो सब प्रकार साधनहीन हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए इन बातों की भी अब खैर नहीं ।

इन परिस्थितियों को देखते हुए अध्यात्म मार्ग के पथिक के लिए गृहत्यागी या संन्यास धारण करने की बात नहीं सोचनी चाहिये। उसके लिए यही उचित है कि अपनी सात्विक जीविका कमाते हुए अपने परिजनों के कारण पोषण का पुनीत कर्तव्य पालन करते हुए, अपने दोष, दुर्गुणों के शमन करने एवं ईश्वर उपासना में लगने का प्रयत्न करे। यही मार्ग सीधा सरल और सुगम है। 
साधना करने के लिए अपरिपक्व मन बुद्धि के लोगों का भगवा कपड़ा पहन कर संन्यासी हो जाना और अपनी अपूर्णताओं से वेष को कलंकित करते फिरना, संन्यास धर्म के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार है। ऐसे व्यक्ति अपराधियों की श्रेणी में रखने योग्य हैं। ईश्वर प्राप्ति तो उन्हें होनी ही कहाँ है? 
भारतीय अध्यात्मविद्या की यही परम्परा है कि (ब्रह्मज्ञान  विकास करने, ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने) का सारा कार्यक्रम परिवार के साथ रहकर आत्म सुधार, जीवन-गठन, चरित्र-निर्माण और सात्विक आजीविका कमाते हुए पूर्ण किया जाय। इसके बाद यदि किसी भाग्यवान की ऐसी परिस्थिति हो कि अपनी पूर्णता का लाभ जनता को मार्ग दर्शन कराते हुए दे सके तो उसे परिव्राजक या संन्यासी हो जाना चाहिए। 
शास्त्र में ज्ञान-वृद्ध ब्राह्मण को ही संन्यास लेने का अधिकारी माना गया है। यह दोनों शर्तें मनुष्य की पूर्णता का प्रमाण हैं। ज्ञान वृद्ध वह व्यक्ति होता है जो उच्च शिक्षा, विशाल स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, तत्त्व दर्शन और आत्म ज्ञान द्वारा अपने अंतः करण का पूर्ण समाधान कर चुका हो। यहाँ ब्राह्मणत्व का तात्पर्य जाति या कुल से नहीं, गुण, कर्म स्वभाव से है। ब्रह्म परायण, वासनाओं और तृष्णाओं के विजयी, काम, क्रोध, लोभ, मोह से विरत, उदारमना, अपरिग्रही, लोकसेवी सत्कर्म परायण व्यक्ति ब्राह्मण कहलाते हैं। ऐसे ही लोग किसी को उपदेश या ज्ञान देने के अधिकारी भी हैं। जिनका आन्तरिक और बाह्य जीवन अपने आप में ही अपूर्ण एवं कलुषित है वे किस मुँह से संसार को धार्मिक नेतृत्व कर सकते हैंअपने संशय, भ्रम, मोह, अज्ञान का पूर्णतया निवारण कर चुका हो तथा अन्य व्यक्तियों की आन्तरिक एवं साँसारिक जीवन की समस्या को धार्मिक एवं व्यवहारिक समन्वय के आधार पर हल करने की क्षमता जिसने प्राप्त कर ली हो तो ऐसा ही व्यक्ति संसार के मार्ग दर्शन के लिए धर्मोपदेश के लिए अधिकारी कहा जा सकता है, उसे ही परिव्राजक बनना चाहिये, उसे ही संन्यास लेना चाहिए। 
जब पूर्ण परिपक्व स्थिति (पाका आमी) प्राप्त हो जावे, अपने में किसी प्रकार की कोई कच्चा या त्रुटि दिखाई न पड़े और अन्तरात्मा यह स्वीकार करे कि हमें अब अपने लिए कुछ करना शेष नहीं रहा है, धर्म, प्रवचन एवं ज्ञानदान के योग्य पूर्ण परिपक्वता प्राप्त हो चुकी है तो ऐसे व्यक्ति संन्यास ग्रहण करके परिव्राजक बन सकते हैं। परिव्राजक बनने के लिए आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त कर चुकने के अतिरिक्त दो साँसारिक प्रतिबन्ध भी हैं। एक यह कि स्वास्थ्य भ्रमण के योग्य हो। के कारण अस्त-व्यस्त रहने वाले आहार-विहार को सहन कर सके। दूसरे धर्मपत्नी की आन्तरिक स्वीकृति प्राप्त हो। उसे भी अपने साथ-साथ वानप्रस्थ में रहकर इस मनोभूमि की बना लेना आवश्यक है कि पति के कार्य के महत्व को समझते हुए मोह निवृत्त मन से उसे स्वीकृति दे। यह स्वास्थ्य संबंधी तथा पत्नी की स्वीकृति संबन्ध समस्या हल न हो तो भी जो लोग आवेश में संन्यास ले लेते हैं उनका लक्ष्य पूरा नहीं होता। यह दोनों बातें अभिशाप की तरह उनके पीछे पड़कर मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं।  ।] 
 शिष्य- महाराज, क्या संन्यास ग्रहण करने (महामण्डल का लीडर ट्रेनी बनने) के लिये क्या विशेष उम्र होने तक प्रतीक्षा करनी होती है 'इज देयर एनी स्पेशल टाईम '? 
स्वामीजी- संन्यास धर्म (बनो और बनाओ) की साधना में किसी प्रकार का कालकाल नहीं है। श्रुति कहती है, "यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्"  — जिस समय भी तुम्हारे मन में भारत-भक्ति का सर्वोच्च जीवन लक्ष्य प्रतीत हो, और कामिनी-कंचन से वैराग्य का उदय हो तभी प्रव्रज्या (लीडर ट्रेनी बनना) करना उचित है। 'योगवशिषिठ' में भी है -  

युवैव धर्मशील: स्यात् अनित्यं खलु जीवितम्।
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति॥


अर्थात्- जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील बनना चाहिये । कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा ? 'न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशु: (कैवल्योपनिषत् १/२) — न कर्म से, न सन्तान से और न धन से, वरन कुछ असाधारण विरले लोगों (rare ones) ने मात्र त्याग (रीनन्सिएशन या निवृत्ति) से अमृतत्व प्राप्त किया है।  युवा रहने का रहस्य 'कौपीन पंचकम्' कामनाओं के लिये किये गये कर्म का त्याग करना ही संन्यासी जैसा जीवन जीना है। जब तक वासना के दासत्व को नहीं छोड़ सकते, तब तक भक्ति या मुक्ति की प्राप्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती। ब्रह्मज्ञ के लिये ऋद्धि-सिद्धि बड़ी तुच्छ बात है।
६.३ युवाओं के लिये नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है।
 ५ जनवरी १८९० को इलाहबाद से श्री यज्ञेश्वर भट्टाचार्य को लिखित पत्र में कहते हैं - " प्रिय फ़कीर, नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अंतःकरण पूर्णतया शुद्ध रहना चाहिये। नैतिक होने के साथ - साथ वीर भी बनो --अपने प्राणों के लिये कभी न डरो ! धार्मिक मत-मतान्तरों को लेकर व्यर्थ में माथापच्ची न करना। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीरपुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते-यहाँ तक कि वे कभी अपने मन में पापपूर्ण विचारों को उदय भी नहीं होने देते।
प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। स्वयं मनुष्य बनो, तथा जो लड़के तुम्हारे देखभाल में हैं, उनको साहसी, नीतिपरायण तथा दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील बनाने की चेष्टा करो। इसके सिवाय अन्य किसी धार्मिक-मतवाद को मानना तुम्हारे लिये आवश्यक नहीं है। कायरपन, पाप, असत आचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिये, बाकी आवश्यकीय वस्तुएं अपने आकर उपस्थित होंगी। राम को कभी टीवी-सिनेमा या अन्य ऐसे खेल-तमाशे जिससे चित्त की दुर्बलता बढ़ती हो, स्वयं न ले जाना या जाने देना। --तुम्हारा नरेन्द्रनाथ
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७.


तुम शरीर-मन से बिल्कुल पृथक हो !

श्लोक ७.  जीवः शिव इति ज्ञानं नरो नारायणो ध्रुवम् - जीवसेवा परो धर्मः परोपकृतये वयम् ।।

1. Every being is God (Shiva) --this is true knowledge; ' man is the greatest of all beings.'

2. ' There is no greater Dharma than this service of living beings.'

3.  ' Blessed are they whose bodies get destroyed in the service of others.'

१. प्रत्येक जीव ईश्वर (शिव) है --यही सच्चा ज्ञान है; " मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है ! "

२.  ' जीव-सेवा से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है।'

३. " धन्य हैं वे, जो अपने शरीर को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं।"

प्रसंग : [ १. श्रीमती ओली बुल (धीरा माता) को अगस्त १८९५ का पत्र/ २. गुरु-शिष्य संवाद : ऋग्वेद पर सायण भाष्य/ ३.' विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय' ४/५६ ]  

विषयवस्तु : ७.१ - " मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है ! " मुसलमान भी यही कहते हैं। अल्ला ने जब सारी सृष्टि रचना कर ली तो सबसे अंत में मनुष्य को बनाया, अपनी इस रचना को देखकर अल्ला बहुत खुश हुए, क्योंकि वह अपने बनाने वाले को भी जान सकने में सक्षम था !

'मरे हुए लोग' अब भी मनुष्य ही हैं किन्तु इन्होंने अभी एक भिन्न प्रकार का शरीर ले लिया है। और हमलोगों की तरह ही समझ (consciousness -चैतन्य, संज्ञा या भान) तथा अन्यान्य सब कुछ रखते हैं। इसीलिये वे भी मनुष्य ही हैं, देवता लोगों और देवदूतों के बारे में भी यही बात है। दिवंगत आत्मायें पूरी तरह से अदृश्य (एब्सल्यूटली इनविजिबल) हुए बिना, इसी धरती पर एक अन्य आकाश (another Âkâsha) में रहते हैं। किन्तु केवल मनुष्य ही ईश्वर बन सकता है, तथा अन्य लोगों (दिवंगत लोगों, देवताओं या फ़रिश्तों) को पुनः मनुष्य-जन्म मिलने के बाद फिर से ईश्वरत्व (बुद्धत्व) की प्राप्ति हो सकती है।

मंगल ग्रह (Mars) या बृहस्पति ग्रह (Jupiter) पर यदि कोई प्राणी रहते भी हों, तो वे हमारी अपेक्षा उच्च स्तर के जीव नहीं हो सकते, क्योंकि वे अभी तक हमलोगों से सम्पर्क नहीं कर सके हैं। यह पृथ्वी (भारत माता) सब स्वर्गों से ऊँची है-विश्व-ब्रह्माण्ड का यही सर्वश्रेष्ठ पाठशाला है!

 ७.२   'जीव-सेवा से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है।'-गुरु-शिष्य संवाद का अंश, यदि सायण ही मैक्समूलर हुए हैं तो पवित्र भूमि भारत को छोड़कर उन्होंने म्लेच्छ बनकर क्यों जन्म लिया ?

' हम आर्य हैं ', 'वे म्लेच्छ हैं', आदि विचार अज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं। वेद का अर्थ है- अपरिवर्तनशील सत्यों का समूह। -अरे बेटे ! ब्रह्मस्वरूपता की आन्तरिक अनुभूति (inward realisation) उसकी स्पष्ट अवधारणा होना क्या इतना सुगम समझता है ? जिन पदार्थों को हमने पहले कभी देखा ही नहीं (रूप या आकार न हो) हो, उसे कोई नाम कैसे दे सकते हैं ? यह जो घट है, इसके टूट जाने पर क्या इसके घटत्व का भी नाश हो जायगा ?
 परन्तु महाराज, ' घट घट ' चिल्लाने से तो घट नहीं बनता है? 
जिन चरित्रवान मनुष्यों को अतीन्द्रिय दृष्टि प्राप्त हो जाती है, उन्हीं ऋषियों ने इन शाश्वत सत्यों (चार महावाक्यों) को प्रत्यक्ष किया है।
'पद्म पुराण' में कार्तिक मास की प्रबोधनी एकादशी के दिन वेदों के उद्धार की कथा है। सृष्टि का वैषम्य चौरासी लाख योनियों का, ऐसा क्यों ? उस जीव ने क्या गुनाह किया था ? अभी तो सृष्टि शुरू हुई है। निर्दयी नहीं हैं भगवान। वो तो समदर्शी है । यज्ञोपवीत के समय दिये जाने वाले संध्या-मंत्र 'सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् -ससर्जेदं स पूर्ववत' का अर्थ है प्रक्षेपित करना- यह क्या है? जैसे सृष्टि पहले थी वैसे ही प्रकट कर दिया है।  उन्होंने तो प्रकट किया है- ‘यथापूर्वम’ । इसलिये न वैषम्य है न ‘नैर्घृण्य’ है। कार्य (रूप) और उसका कारण (नाम) ! यहाँ तक कि जब सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड विलोपित (लय) हो जाता है, उस समय भी ब्रह्माण्ड की चेतना अथवा समस्त स्थूल पदार्थों की सूक्ष्म यथार्थता (स्वरुप) या जगत बोधात्मक शब्द- 'ॐ' ब्रह्म के भीतर कारण रूप से वर्तमान रहते हैं। कारण-शब्द या शब्द-चैतन्य ही ब्रह्म हैं, यह शब्द ही वेद है !

यही सायण का अभिप्राय है, समझे ? पूर्ण इच्छा-शक्ति से सम्पन्न ब्रह्म, या सिद्ध-संकल्प ब्रह्म में जैसे ही कोई भाव (नाम) उठता है, तदनुरूप (corresponding) स्थूल पदार्थ (रूप) भी प्रकट हो जाता है, इसी प्रकार क्रमशः विविधता-पूर्ण जगत अभिव्यक्त होता चला जाता है। अब तो समझे न कि कैसे शब्द ही सृष्टि का मूल है ?
समाधि में प्रविष्ट होने की प्रक्रिया: जब मन (अहं) ब्रह्म में स्वयं को लीन करने के लिये आगे बढ़ता है,  सर्व प्रथम ब्रह्माण्ड (सूर्य-चन्द्र आदि अत्यन्त द्रुत गति के साथ परिवर्तित होता हुआ) विचारों का एक समूह प्रतीत होता है, तत्पश्चात समस्त वस्तुएं (ज्ञाता) स्वयं को ॐ (ज्ञेय-ज्ञान स्वरुप परमात्मा) के अथाह महासागर में खो देता है। तत्पश्चात मैं-पन भी पूरी तरह से पिघल जाता है, वह है भी या नहीं इस पर सन्देह होने लगता है। यही उस अपरिवर्तनशील नाद-ब्रह्म की अनुभूति है ! इस अवस्था से आगे ही मन (अहं) ब्रह्म की सत्यता में लीन हो जाता है! बस, सब निर्वाक, स्थिर, निश्चल, परमानन्द, परम शान्ति !
" अवतारतुल्य महापुरुष (ईश्वर-कोटि ?) लोग समाधि अवस्था से जब ' मैं ' और ' मेरा' के राज्य में लौट आते हैं, तब वे प्रथम ही अव्यक्त नाद का अनुभव करते हैं। फिर नाद के स्पष्ट होने पर ओंकार का अनुभव करते हैं। ओंकार के पश्चात् शब्दमय जगत (क्या हुआ, उठो उठो ! रोहनिया उंच, से कबीर चौरा अस्पताल तक का दृश्य?) का अनुभव कर अन्त में स्थूल पंचभौतिक जगत को प्रत्यक्ष देखते हैं।
गिरीश बाबू- अच्छा ज्ञान और प्रेम में भेद कहाँ है?  यह मुझे समझा दो। गिरीश बाबू की नकल करना औरों के लिये हानिकारक है। उनकी बातों को मानो, पर उनके आचरण देखकर कोई कार्य न करो।

७.३ " धन्य हैं वे, जो अपने शरीर को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं।" 

प्रसंग : तुम शरीर से बिल्कुल पृथक हो ! [' विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय' ४/५६] 

विषयवस्तु: 'इट इज नो जोक टु डू गुड टू दि वर्ल्ड' - विश्व का कल्याण करना - ' Be and Make ' की शिक्षा देना कोई हँसी -खेल की बात नहीं ! पहले भगवत्-प्रेम (ठाकुर का नाम जप) के द्वारा हमें यह शक्ति प्राप्त कर लेनी होगी। समष्टि (the universal-ब्रह्म श्रीरामकृष्ण) से प्रेम किये बिना हम व्यष्टि (उसकी सन्तानों) से प्रेम कैसे कर सकते हैं ? 
जहाँ पहुँचकर गम और ख़ुशी का फर्क महसूस ही नहीं होता, तो वह शिकायत किस बात की करे ? शास्त्रों ने इसी को 'अप्रातिकूल्य' कहा है। ऐसे अनन्य प्रेमी के जीवन में जब कोई दुःख आता है, तो कहता है - 
" दुःख ! स्वागत है तुम्हारा।"" यदि सर्प आये तो कहेगा," विराजो, सर्प!" यहाँ तक कि मृत्यु भी आये, तो वह अपने अधरों पर मुस्कान लिये उसका स्वागत करेगा। हम शेर से अपनी शरीर की रक्षा क्यों करें ? हम उसे शेर को क्यों न दे दें ? यह प्रेम-धर्म की वह चोटी है, सिर को चकरा देनेवाली ऐसी ऊँचाई है, जिस पर बहुत थोड़े से लोग ही चढ़ पाते हैं। हम अपने इस शरीर को अल्प अथवा अधिक समय तक भले ही बनाये रख लें, पर उससे क्या ? हमारे शरीर का एक न एक दिन नाश होना तो अवश्यम्भावी है। उसका अस्तित्व चिरस्थायी नहीं है। 'ब्लेस्ड आर दे हूज़ बॉडीज गेट डिस्ट्रॉइड इन दि सर्विस ऑफ़ अदर्स ! धन्य हैं वे जो अपने जीवन को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं !

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८.


" श्रीरामकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन ही सर्वधर्म समन्वय का मूर्तमान स्वरुप था !

श्लोक ८. - उत्तिष्ठत चरैवेति गुणान् तामसिकान् जहि । जातश्चेत्  प्रेहि संसारात् त्वक्त्वा चिह्नमनूत्तमम् ॥

1.  ' Arise ! Awake ! and stop not till the goal is reached !'

2.  ' Onward ! Onward !' Give up all numbing qualities.

3.  ' As you have come into this world, leave some mark behind.'

१. ' उठो, जागो, जब तक वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक निरंतर उसकी ओर बढ़ते जाओ।'

२. ' आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! जड़वत कर देने वाली आदतों का परित्याग कर दो।'

३. ' काम में लग जा कितने दिनों का है यह जीवन ? संसार में जब आया है, तब एक स्मृति छोड़कर जा।'

प्रसंग- [१. कोलकाता-अभिनन्दन का उत्तर:५: २०३/ २. ग्रीष्मकाल, १८९४ में स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र/३. (From the Diary of a disciple २३ / बेलूड़ मठ निर्माण के समय वर्ष १८९८ ]

विषयवस्तु :  युवाओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है अपने जीवन में सर्वधर्म -समन्वय को प्रतिष्ठित करना! इस बार स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से स्वामी विवेकानन्द को उद्धरित करते हुए कहा प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था -" भारत की नियति है-विश्व का कल्याण करना" - और यही चुनौती हमारे युवाओं के समक्ष है। विश्व का कल्याण केवल चरित्रवान युवाओं के द्वारा ही सम्भव है। केवल ब्रह्मविद् (या ऋषि मन वाला ) युवा  ही जगत को ब्रह्मरूप में देखकर -अपने पराये का भेदभाव छोड़ सकता है, और शिवज्ञान से जीव सेवा करने में सक्षम मनुष्य बन सकता है। इसी " Be and Make " के लक्ष्य की पृष्ठभूमि में कोलकाता-अभिनन्दन का उत्तर (५. २०३)- में स्वामीजी कहते हैं- ' इंडिया मस्ट कॉन्कर दि वर्ल्ड! ' भारत को अवश्य ही सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त करनी है। हाँ, यह हमें करना ही है; इसकी अपेक्षा किसी छोटे आदर्श से मुझे कभी भी सन्तोष न होगा। प्रभु का कार्य रुक नहीं सकता। या तो हम सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त करेंगे या मिट जायेंगे। हमें संकीर्ण सीमा के बाहर जाना होगा, अपने ह्रदय को विशाल बनाना होगा, और यह दिखाना होगा कि हमारा प्राचीन भारतवर्ष आज भी जीवित है, अन्यथा हमें इसी पतन की दशा में लड़कर मरना  होगा, इसके सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं। छोटी छोटी बातों को लेकर हमारे देश में जो द्वेष और कलह हुआ करता है, मेरी बात मानो ऐसा सभी देशों में है।

भारत की सनातन वैदेशिक नीति :  संसार के सभी राष्ट्रों में अपने शास्त्रों का सत्य प्रचार ही  होनी चाहिए, यह हमें एक अखण्ड राष्ट्र के रूप में संगठित करेगी। न आँख दिखाकर, न आँख झुकाकर, आँख मिलाकर विदेशों से सम्बन्ध रहना होगा, समभाव के न रहने पर मित्रता सम्भव नहीं।  हमें 'अभीः' निर्भय (ऋषि-पैग़म्बर या अवतार) बनना होगा, तभी हम अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करेंगे। 

तैत्तरीय उपनिषद्  में ब्रह्मविद्या का सारभूत मंत्र है- 'ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम।'  - ॐ ब्र' ह्म' विदा' प्नोति' पर' म् ।  यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।  आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् । न बिभेति कुतश्चनेति। जहाँ मन के सहित वाणी उसे न पाकर लौट आती है उस ब्रहमानन्द को जानने वाला पुरुष कभी भय को प्राप्त नहीं होता। उठो, जागो, तुम्हारी मातृभूमि को इस महाबली (कच्चा मैं या 'अहं मुक्त' युवाओं) की आवश्यकता है। इस कार्य की सिद्धि युवकों से ही हो सकेगी। ह्रदय--केवल ह्रदय के भीतर से ही दैवी प्रेरणा का स्फुरण होता है, और उसकी अनुभव शक्ति से ही उच्चतम जटिल रहस्यों की मीमांसा होती है, और इसलिये 'भावुक' बंगालियों को ही यह काम करना होगा। वीर बनो, श्रद्धा सम्पन्न होओ, और सब कुछ तो इसके बाद आ ही जायगा। किसी बात से मत डरो। तुम अद्भुत कार्य करोगे। जिस क्षण तुम डर जाओगे, उसी क्षण तुम बिल्कुल शक्तिहीन हो जाओगे। संसार में दुःख का मुख्य कारण भी ही है, यही सबसे बड़ा कुसंस्कार है।  और यह निर्भीकता है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है।

दुर्भाग्य से पाश्चात्य मानसिकता रखने वाले लोग न केवल आध्यात्मिकता को बल्कि नैतिकता (चरित्र-निर्माण) को भी सदैव सांसारिक समृद्धि (अमीरी) के साथ जुड़ा हुआ विषय मानते हैं। और जब कोई वेदशी मानसिकता वाले चश्में से भारत को देखते हैं, तो वे तुरन्त इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस देश में धर्म नहीं टिक सकता, नैतिकता नहीं टिक सकती। किन्तु मेरा अनुभव है कि भारत में जो जितना दरिद्र है वह उतना ही अधिक साधु है। परन्तु इसको जानने के लिये समय की जरूरत है। भारत के राष्ट्रीय जीवन के इस रहस्य को समझने के लिये, कितने विदेशी (काँग्रेसी) दीर्घ काल तक भारत में रहकर प्रतीक्षा करने के लिये तैयार है? बहुत थोड़े से भारत-प्रेमी लोगों में ही इतना धैर्य है कि राष्ट्र के इस चरित्र का गहराई से विश्लेषण करें। सम्पूर्ण विश्व में केवल भारत ही एक ऐसा देश है, जिसके लिये गरीबी (स्टेसन पर चाय बेचने) का मतलब अपराध और पाप नहीं है। यही एक ऐसा राष्ट्र है, जहाँ न केवल गरीबी का मतलब अपराध और पाप नहीं लगाया जाता, बल्कि उसे यहाँ बड़ा ऊँचा आसन दिया जाता है। यहाँ दरिद्र संन्यासी के गेरुआ वेश को ही सबसे ऊँचा स्थान मिलता है।
ऋषि कहते हैं- युवाओं पहले इस ब्रह्म-आनन्द को प्राप्त 'मनुष्य' बनो। मत सोचो कि तुम ग़रीब हो, मत सोचो कि तुम्हारे मित्र नहीं हैं। अरे, क्या कभी तुमने देखा है कि रुपया मनुष्य का निर्माण करता है ? नहीं, मनुष्य ही सदा रूपये का निर्माण करता है। यह सम्पूर्ण संसार मनुष्य की शक्ति से, उत्साह की शक्ति से, विश्वास की शक्ति से निर्मित हुआ है।
एक मात्र श्रद्धा के भेद से ही मनुष्य मनुष्य में अन्तर पाया जाता है। इसका और दूसरा कारण नहीं। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को कमजोर और छोटा बनाती है। दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है । इस श्रद्धा को तुम्हें पाना ही होगा । श्रीरामकृष्ण कहते थे, 'जो अपने को दुर्बल सोचता है, वह दुर्बल ही हो जाता है, और यह बिल्कुल ठीक ही है। हमारे राष्ट्रिय खून में एक प्रकार के भयानक रोग का बीज समा रहा है, वह है प्रत्येक विषय को हँसकर उड़ा देना, गाम्भीर्य का अभाव, इस दोष का सम्पूर्ण रूप से त्याग करो। वीर बनो, श्रद्धा सम्पन्न होओ, और सब कुछ तो इसके बाद आ ही जायगा। किसी बात से मत डरो। तुम अद्भुत कार्य करोगे। जिस क्षण तुम डर जाओगे, उसी क्षण तुम बिल्कुल शक्तिहीन हो जाओगे। संसार में दुःख का मुख्य कारण भी ही है, यही सबसे बड़ा कुसंस्कार है, और यह निर्भीकता है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। 

जो जीवन मैंने अपनी आँखों से देखा है, जिसकी छाया में मैं रह चुका हूँ, जिनके चरणों में बैठकर मैंने सब सीखा है, उन श्रीरामकृष्ण का जीवन जैसा उज्ज्वल और महिमान्वित है, वैसा मेरे विचार में अन्य किसी अवतार या पैग़म्बर का नहीं है। यदि तुम्हार हृदय खुला है, तो तुम उनको अवश्य ग्रहण करोगे। यदि तुममें सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति है (यदि तुम सत्यार्थी हो), तो तुम उन्हें अवश्य प्राप्त करोगे। अँधा, बिल्कुल अँधा है वह, जो समय के चिन्ह नहीं देख रहा है, नहीं समझ रहा है। वर्तमान युग का अन्त होने के पहले ही तुम  लोग ठाकुर की अधिकाधिक आश्चर्यमयी लीलाएँ देख पाओगे। भारत के पुनरुत्थान के लिये इस शक्ति का आविर्भाव बिल्कुल सही समय पर हुआ है।

मैं तुमको विश्वास दिलाता हूँ कि संसार के किसी भी देश में सार्वभौमिक धर्म और विभिन्न सम्प्रदायों में भ्रातृभाव के ऊपर चर्चा और बहस प्रारम्भ होने के भी बहुत पहले, इस नगर के पास, एक ऐसे अवतार रहते थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन ही एक आदर्श 'पार्लियामेन्ट ऑफ़ रीलिजन्स ' या  सर्वधर्म समन्वय का मूर्तमान स्वरुप था। इस तरह के किसी महान आदर्श पुरुष पर हार्दिक अनुराग रखते हुए उनकी पताका के नीचे आश्रय लिये बिना न कोई राष्ट्र उठ सकता है, न बढ़ सकता है (न 'एक भारत श्रेष्ठ भारत' बन सकता है।) यदि यह राष्ट्र उठना चाहता है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा कि इस ' नाम ' (श्रीरामकृष्ण) के चारों ओर उत्साह के साथ एकत्र हो जाना चाहिये।
अतएव कर्तव्य की प्रेरणा से अपने राष्ट्र और धर्म की भलाई के लिये मैं यह आध्यात्मिक 'राष्ट्रीय-आदर्श' तुम्हारे सामने प्रस्तुत करता हूँ। मुझे देखकर उनकी कल्पना न करना; मैं एक बहुत ही दुर्बल माध्यम हूँ। उनके चरित्र का निर्णय मुझे देखकर न करना। वे इतने बड़े थे कि मैं या उनके शिष्यों में लोई दूसरा सैकड़ों जीवन तक चेष्टा करते रहने के बावजूद भी उनके यथार्थ स्वरुप के एक कड़ोरवें अंश के तूल्य भी न हो सकेगा। अपने कार्य के लिये वे धूलि से भी सैकड़ों और हजारों कर्मी पैदा कर सकते हैं। उनकी अधीनता में कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे परम सौभाग्य और गौरव की बात है!

अतएव उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । अर्थात किसी सद्गुरु से श्रेय-प्रेय मार्ग को जानो और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो ! यह जगत तीन स्तरों वाला है। एक स्थूल जगत जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। दूसरा सूक्ष्म जगत जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं तथा तीसरा कारण जगत जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है। जीव इस जगत में आता है और इसमें फंस जाता है। इसका वर्णन करते हुए कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं, "दो मार्ग हैं- एक श्रेय का, दूसरा प्रेय का। प्रेय का मार्ग बंधन में डालता है तथा श्रेय का मार्ग मुक्ति की ओर ले जाता है।"

श्लोक ८.२: **आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! पशुवत बना देने वाली आदतों का परित्याग कर दो। 

प्रसंग : [ग्रीष्मकाल, १८९४ में स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र]

विषयवस्तु : होशियार!.... वे (श्रीरामकृष्ण) आ रहे हैं ! जो जो उनकी सेवा के लिये --उनकी सेवा नहीं वरन उनके पुत्र दीन-दरिद्रों, पापी-तापियों, कीट-पतंगों तक की सेवा के लिये तैयार होंगे, उन्हीं के भीतर उनका आविर्भाव होगा (वे ब्रह्म को जान लेंगे ! 'ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम।') उनके मुख पर सरस्वती बैठेंगी, उनके हृदय में महामाया महाशक्ति आकर विराजित होंगी। जो नास्तिक हैं, अविश्वासी हैं, किसी काम के नहीं हैं, ढोंगी हैं--वे अपने को उनका शिष्य क्यों कहते हैं ? पूजा के महासन्धि-मुहूर्त (this great spiritual juncture) में कमर कस कर खड़ा हो जायेगा, गाँव गाँव में, घर घर में, उनका संवाद देता फिरेगा वही मेरा भाई है --वही ठाकुर का पुत्र है। उठो, उठो, बड़े जोरों की तरंग (tidal wave) आ रही है- 'Onward! Onward!'; आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, स्त्री-पुरुष आचाण्डाल (Pariah) सब उनके निकट पवित्र हैं।

वेद में कहा गया है,' मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः' - मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। जब मन संसारिक विषयों में डुबा (आसक्त) होता है तो बंधन का कारण होता है और विषयों से रिहत होने पर मुक्ति दिलाता है । मन को विषयों से रहित करने के लिए इसे जीतना पडता है । जिस ने मन को जीत लिया उसने सारा जग जीत लिया। मुण्डक उपनिषद (१. १. ४) के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है- 
 १. अपरा विद्या अर्थात केवल बाहरी, नश्वर, विनाशी वस्तुओं का ज्ञान, जो आत्मतत्व की जानकारी में किसी तरह सहायक नहीं होता। साँसारिक ज्ञान —आजीविका उपार्जन एवं आहार विहार जैसे भौतिक प्रयोजनों की ही एक सीमा तक पूर्ति कर सकता है। साँसारिक ज्ञान चाहे कितना ही बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो शान्ति और प्रगति का चिरस्थायी पथ प्रशस्त नहीं कर सकता। इसके लिए ब्रह्मज्ञान का—आत्मज्ञान का—ही आश्रय लेना पड़ता है।  
छांदोग्य उपनिषद् (७/१/२-३) में नारद-सनत्कुमार-संवाद मे भी इसी पार्थक्य का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। मंत्रविद् नारद सकल शास्त्रों मे पंडित हैं, परंतु ब्रह्मविद् न होने से वे शोकग्रस्त हैं। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता, या सुन्दर चरित्र जो कि उच्चस्तरीय सफलताओं की आधार शिला है—तात्विक दृष्टि मिलने से ही प्राप्त होती है। 
२. परा विद्या (श्रेष्ठ ज्ञान) अर्थात ब्रह्मविद्या या मनःसंयोग की महिमा बताते हुए शास्त्र कहता है—अथ परा, यया तदक्षरमधिगम्यते । - मुण्डकोपनिषत् १-१-६
यया तदक्षरम् अधिगम्यते सा परा विद्या अथ उच्यते । जिस मनःसंयोग की पद्धति के द्वारा अविनाशी ब्राह्मतत्व का ज्ञान प्राप्त होता है- और उसी मन को एकाग्र करने की पद्धति -अष्टांगयोग या राजयोगविद्या को ही पराविद्या कहते है।


सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम् ।
आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत् परम् ॥


- श्वेताश्वतरोपनिषत् १-१६

क्षीरे घृतमिव अस्मिन् विश्वे आत्मा सर्वव्यापकः । आत्मानम् विज्ञातुं तप एव साधनम् ? आत्मा च ब्रह्म । मानवजन्मनः रहस्यं सारभूतं लक्ष्यमिदम् ॥ अर्थात जिस प्रकार दूध में घी स्थित है, सर्वत्र है परिपूर्ण है, त्यों पूर्ण प्रभु परमेश जग में व्याप्त है सम्पूर्ण है। यह ब्रह्मविज्ञान (१) आत्मज्ञान और (२) तपश्चर्या पर आधारित है। वह आत्म विद्या और तप, साधन से ही प्राप्तव्य है, परब्रह्म तत्व परम प्रभो, उपनिषदों से ज्ञातव्य है।
इसलिए तत्वदर्शियों ने मनःसंयोग (या ब्रह्मविद्या) की महत्ता पग-पग पर दर्शायी है और ब्रह्मज्ञान को विकसित करने के लिए परिपूर्ण प्रोत्साहन दिया है। स्वर्ग और मुक्ति इसी मनःसंयोग के दो मधुर फल बताये हैं। उसी वशीभूत मन को अमृत और पारस भी कहा गया है। यह कल्प-वृक्ष जिसे प्राप्त हो गया वह उपयुक्त और अनुपयुक्त परिस्थितियों से समान रूप से लाभान्वित हो सकता है और हरी भली-बुरी परिस्थिति में खट्टे-मीठे आनन्द का अनुभव करता रह सकता है। बिना अन्तः विक्षोभ का सामना किये मात्र अपनी आन्तरिक विभूतियों के आधार पर किस तरह सुखी, संतुष्ट रहा जा सकता है, इस कौशल की प्राप्ति ब्रह्मवेत्ता को सहज ही प्राप्त हो जाती है। ओशो कहते हैं - " बह्म का ज्ञान असंभव है, लेकिन उसकी अनुभूति संभव है। ज्ञान तथा अनुभूति बुनियादी रूप से भिन्‍न बातें है। एक बहुत ही बारीक—से भेद को समझ लेना है। अनुभूति सदैव वर्तमान में है, ज्ञान सदा अतीत की बात हो गई। परमात्मा कोई वस्तु नहीं है। वस्तु को जाना जा सकता है। परमात्मा एक प्रक्रिया है। वस्तु का अर्थ होता है कुछ जो रुक गया है। परमात्मा नित्य वर्तमान हैं-कण कण में उनको अनुभव करने प्रक्रिया चलती रहती है, आजीवन चलती ही जाती है। जीवन क्या है ? विवेकानन्द कहते हैं -'एक अन्तर्निहित शक्ति (दिव्यता) अपने को व्यक्त करना चाहती है, किन्तु बाह्य-परिवेश एवं परिस्थितियाँ उसे दबाये रखना चाहती हैं; उस दबाव को हटाकर व्यक्त दिव्यता को प्रस्फुटित कर लेना ही जीवन है! '

मनःसंयोग या मन को एकाग्र करने की पद्धति को राजयोगविद्या या ब्रह्मविद्या भी कहते हैं, चूँकि यह मनःसंयोग या ब्रह्मविद्या परिष्कृत चिन्तन और चरित्र-निर्माण पर आधारित है। इसके लिए किसी उच्चचरित्र निष्ठा वाले सत्कर्म परायण, तत्वदर्शी गुरुजनों के पास जाना चाहिए। और उनसे मन को एकाग्र करने की पद्धति को सीखकर अपने चरित्र-निर्माण के कार्य में जुट जाना चाहिये। इस संदर्भ में आप्त वचन इस प्रकार हैं—
प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते |
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ||


 -केनोपनिषद २.४

नाना नाम-रूपों में प्रतीयमान चराचर जो यह जगत है, इसमें सर्वत्र अर्थात सभी वस्तुओं में अन्तर्यामी रूप से ब्रह्मतत्व विराजमान है। जिस  भाग्यशाली सत्यार्थी (जिज्ञासु ) ने ' मतं ' - यह जान लिया है,  वह 'अमृत्तत्वं '-मोक्ष को 'विन्दते ' -अवश्य प्राप्त करता है। इस मनःसंयोग या इस मन की एकाग्रता रूपी बल से संपन्न साधक परमात्मसाक्षात्कार की कारणस्वरूपा ब्रह्मविद्या, अविरल-भक्ति, राजयोगविद्या आदि नामों से विख्यात विद्या (शिक्षा) -द्वारा 'अमृतम् '-अविनाशी परमात्मा को 'विन्दते '-प्राप्त करता है। अर्थात उसे अविलम्ब भगवत्साक्षात्कार हो जाता है।
यहाँ विवेकानन्द इस बात पर बल देते हैं कि ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने के लिये सर्वप्रथम धैर्य आवश्यक है। अध्यवसाय पूर्वक प्रतिदिन अभ्यास करने पर मन की एकाग्रता रूपी बल प्राप्त होगा। फिर भगवान के प्रति अविरल भक्ति उत्पन्न होगी। जिससे प्रसन्न होकर वे स्वयं जीव का वरण करके उसे अपने स्वरुप का साक्षात्कार करा देंगे। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुस्वाम !! प्रत्येक बोध (बौद्ध प्रतीति)— में प्रत्यगात्मरूप से जाना गया है वही ब्रह्म है— यही उसका ज्ञान है, क्योंकि उस ब्रह्म ज्ञान से 'अमृत्तत्वं की प्राप्ति होती है । जीवन का अर्थ होता है वर्तमान, यहीं और अभी।


इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।
भूतेषु भूतेषु विचिन्त्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ।।


-केनोपनिषद २.५ ।।
हे मानव ! यदि इसी जन्म में परमात्मा को जान लिया । तो यह लाभ महान, अन्यथा तू नर जन्म विनष्ट किया। धीर पुरुष जब जगती के कण -कण में ब्रह्म का चिन्तन‌ करते हैं या ब्रह्म को ही देखते हैं, इसलिए वे मृत्यूपरांत अमृत तत्व को वरते हैं। इसी शरीर में रहते रहते यदि ब्रह्म की अनुभूति हो गयी तब तो मनुष्य शरीर धारण करना सार्थक हो जायगा और यदि न जान सके तो महाविनाश है। धीर लोग प्रत्येक नाम-रूप में उसी अन्तर्यामी ब्रह्म का विशेष रूप से चिंतन करके इस लोक से जाने पर अमृत होते हैं।

(हजारों वर्ष तक गुलाम रहने के बाद) अब  भी, कितनी ही शताब्दियों तक संसार को शिक्षा देने की सामग्री तुम्हारे पास यथेष्ट है। इस समय यही करना होगा। उत्साह की आग हमारे हृदय में जलनी चाहिये। मैं तुमसे कहना चाहूँगा कि निस्सन्देह बुद्धि का आसान ऊँचा है, परन्तु यह अपनी परिमित सीमा के बाहर नहीं बढ़ सकती। ह्रदय--केवल ह्रदय के भीतर से ही दैवी प्रेरणा का स्फुरण होता है, और उसकी अनुभव शक्ति से ही उच्चतम जटिल रहस्यों की मीमांसा होती है, और इसलिये 'भावुक' बंगालियों को ही यह काम करना होगा।  उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । —— अराइज़, अवेक ऐंड स्टॉप नॉट टिल दि ड़िजायर्ड एन्ड इज रीच्ड ! -' उठो, जागो, जब तक वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक निरंतर उसकी ओर बढ़ते जाओ। '
भारत के युवाओ ! दि यंग, दि एनर्जेटिक, दि स्ट्रांग, दि वेल-बिल्ट, दि इंटेलेक्चुअल '- उठो, जागो, शुभ मुहूर्त आ गया है। सब चीजें अपने आप तुम्हारे सामने खुलती जा रही हैं। हिम्मत करो और डरो मत। केवल हमारे ही शास्त्रों में ईश्वर के लिये 'अभीः ' विशेषण का प्रयोग किया गया है। और यह निर्भीकता ही है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। हमें 'अभीः' निर्भय (ऋषि-पैग़म्बर-अवतार) बनना होगा, तभी हम अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करेंगे। उठो, जागो, तुम्हारी मातृभूमि को इस महाबली (कच्चा मैं या 'अहं मुक्त' युवाओं) की आवश्यकता है। इस कार्य की सिद्धि युवकों से ही हो सकेगी। प्रश्न उठता है कि युवा कैसे हों? उत्तर है- युवा साधु स्वभाव वाले- अर्थात चरित्रवान हों, अध्ययनशील (उपनिषदों को पढ़ा हुआ ) हों, आशावादी हों, दृढ़निश्चय वाले हों और बलिष्ठ हों। उन्हीं के लिये यह कार्य है, उठो--जागो, संसार तुम्हें पुकार रहा है ! "

एक मात्र श्रद्धा के भेद से ही मनुष्य मनुष्य में अन्तर पाया जाता है। इसका और दूसरा कारण नहीं। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को कमजोर और छोटा बनाती है। दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है । इस श्रद्धा को तुम्हें पाना ही होगा । श्रीरामकृष्ण कहते थे, 'जो अपने को दुर्बल सोचता है, वह दुर्बल ही हो जाता है' - और यह बात बिल्कुल ठीक ही है। हमारे राष्ट्रिय खून में एक प्रकार के भयानक रोग का बीज समा रहा है, वह है प्रत्येक विषय को हँसकर उड़ा देना, गाम्भीर्य का अभाव, इस दोष का सम्पूर्ण रूप से त्याग करो। वीर बनो, श्रद्धा सम्पन्न होओ, और सब कुछ तो इसके बाद आ ही जायगा। किसी बात से मत डरो। तुम अद्भुत कार्य करोगे। जिस क्षण तुम डर जाओगे, उसी क्षण तुम बिल्कुल शक्तिहीन हो जाओगे। संसार में दुःख का मुख्य कारण भी ही है, यही सबसे बड़ा कुसंस्कार है, और यह निर्भीकता है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। अतएव उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत

८.३ ***   काम में लग जा कितने दिनों का है यह जीवन ? संसार में जब आया है, तब एक स्मृति छोड़कर जा। " ऐज यू हैव कम इनटू दिस वर्ल्ड, लीव सम मार्क बिहाइंड !" प्रसंग : [स्वामी शिष्य संवाद -बेलूड़ मठ निर्माण के समय वर्ष १८९८ ] जो लोग मुझपर निर्भर हैं, उनका क्या होगा ?  तुम्हारे देश का जनसाधारण मानो एक सोया हुआ तिमिंगल (Leviathan) है।

विषयवस्तु : यह सनातन धर्म का देश है। यह देश गिर अवश्य गया है, परन्तु निश्चय ही फिर से उठेगा!  और ऐसा उठेगा कि दुनिया देखकर दंग रह जायगी। देखा नहीं है, नदी या समुद्र की लहरें जितनी नीचे उतरती हैं, उसके बाद उतनी ही जोर से उपर उठती हैं। देखता नहीं है, पूर्वाकाश में अरुणोदय हुआ है! - [अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल आविर्भूत चुका है; और विगत ४७ वर्षों से चरित्र-निर्माण एवं ब्रह्मविद् नेताओं के निर्माण में लगा हुआ है ! मोदी जापान में विश्व की दो धाराओं में -विकास वाद और विस्तारवाद में बँटे होने पर - ' शांति और प्रगति '  लिये आह्वान कर रहे हैं।]   सूर्य उदित होने में अब अधिक विलम्ब नहीं है। ब्रह्मविद् मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन का प्रचार-प्रसार में यदि तू दूसरों के लिये प्राण देने को तैयार हो जाता है, तो भगवान उनका (जो तुम पर आश्रित हैं) कोई न कोई उपाय करेंगे ही !"न हि कल्याणकृत्कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति।"

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९.
कर्म-विधान क्या है ?

श्लोक ९- आलस्य रोदनं वापि भयं कर्मफलोद्भवम् :   त्वयीमानि न शोभन्ते जहि मनोबलैः॥

With the strength of your mind give up indolence and weeping or any fear from fate -- these do not behove you.

किसी भी प्रारब्ध से मत डरो- ये सब तुझे शोभा नहीं देते।

प्रसंग : वनवास के दौरान राम,लक्ष्मण और सीता को कष्ट में देख कर जब निषादराज माता कैकई को दोषी ठहराते हैं। तब लक्ष्मणजी निषादराज गुहसे प्रारब्ध कष्ट-हरण फॉर्मूला हते हैं ‒  'सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता….'  
विषयवस्तु :  ‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) में पतञ्जलि कहते हैं कि-
जिस प्रकार एक बछड़ा हजार गायों के बीच में अपनी माँ को पहचान लेता है, उसी प्रकार पूर्व में किया गया कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है। देखना या घूरना शारीरिक कर्म है या मानसिक कर्म ?मन-वचन-काया से पहले किये हुए कर्मों के फल तीन रूपों -जन्म, आयु और भोग में प्राप्त होते हैं। जैसा कर्म वैसा फल ! ' Ignorance of Law is no excuse' अर्थात कानून की अनभिज्ञता कोई बहाना नहीं है। कई अन्य शुभाषित! तुलसीकृत रामायण (मानस २/९२/२) में तब लक्ष्मणजी निषादराज गुहसे कहते हैं ‒ काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥ शरीर तो अविनाशी आत्मा का वस्त्र है!  प्रारब्ध भोग कर आज ही क्षय कर लो, शमी की लकड़ी से शनि ग्रह को भगाने की चेष्टा मत करो।

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१०.

मनःसंयोग ही सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है !

श्लोक १०. - मन एव महच्छत्रुर्बन्धुरपि तदेव हि। मनोदासः प्रभुस्तस्य यदेकोSसि तथा भवेत्॥

1. Mind is a great enemy and may also be the best friend.

2. You may be a servant or the master of your mind.

3. If you are a servant, it will pose as an enemy; if you master it, it will become a trusted friend.

4. ' The mind uncontrolled and unguided will drag us down...,and guided will save us, free us.'

१. (अनियंत्रित) मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है और यही मन जब वशीभूत हो जाता है- मनुष्य का सबसे अच्छा दोस्त भी बन सकता है।

२. तुम अपने के गुलाम हो सकते हो, और तुम यदि चाहो तो अपने मन के मालिक भी हो सकते हो।

३. यदि तुम अपने मन के दास बने रहोगे, तो यह तुम्हारे एक दुश्मन के रूप में तुमसे बहुत बुरा व्यव्हार करेगा। यदि तुम इसे वशीभूत कर लोगे तो यही मन तुम्हारा सबसे विश्वसनीय मित्र बन जायगा।

४. " अनियंत्रित और अनिर्दिष्ट मन हमें सदैव उत्तरोत्तर नीचे की ओर घसीटता रहेगा -हमें चींथ डालेगा, हमें मार डालेगा; और नियंत्रित तथा निर्दिष्ट मन हमारी रक्षा करेगा, हमें मुक्त करेगा। इसलिये वह अवश्य नियंत्रित होना चाहिये, और मनोविज्ञान सिखाता है कि इसे कैसे करना चाहिये।"

प्रसंग : 'मनःसंयोग' (दी साइन्स अव साइकालजी) या मनोविज्ञान एक सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है।" (हिन्दी ४/११२)

विषयवस्तु: योगः चित्त वृत्ति निरोधः ' दी वाइल्ड जाइरेशन (gyrations) अव माइन्ड' समस्त सांसारिक दुखों का कारण है, इन्द्रियों की दासता !  मनःसंयोग का विज्ञान ही है, जो हमें मन की प्रचण्ड घूर्णन-वृत्ति (भँवर) को संयमित करने, उसे अपनी संकल्प-शक्ति के नियंत्रण में रखने, और इस प्रकार उसके क्रूर आदेशों (tyrannous mandates) से अपने को मुक्त करना सिखाता है।

मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है और यही मन जब वशीभूत हो जाता है- मनुष्य का सबसे अच्छा दोस्त भी बन सकता है। इसलिये वह अवश्य नियंत्रित होना चाहिये, और मनोविज्ञान (मनःसंयोग) सिखाता है कि इसे कैसे करना चाहिये। उपयोगिता की पाश्चात्य कसौटी को स्वीकार कर लेने पर भी, या उस मानदण्ड के अनुसार भी यही सिद्ध होगा, कि मनःसंयोग या 'मनोविज्ञान ' ही विज्ञानों का विज्ञान- 'Science of Sciences' है ! क्यों?  इसीलिये कि, हम सब अपनी इन्द्रियों के गुलाम हैं, अपने चेतन तथा अवचेतन (conscious and subconscious) मन के दास हैं। कोई अपराधी (या बलात्कारी) इसलिये अपराधी नहीं है कि वह वैसा बनना चाहता है, वरन इसलिये है कि उसका मन उसके वश में नहीं है। झख मारकर भी उसे अपने चित्त की बलवती प्रवृत्तियों का अनुसरण करना पड़ता है, ('प्रबल इन्द्रियाँ उसके मन को मथ देती हैं') उसे वह रोक नहीं सकता। फिर भी हम उसे बार बार करते हैं, उसके कारण बार बार कष्ट झेलते हैं, और अपने को कोसते हैं। हमें जानबूझकर भी गलत हरकत करने पर, बाध्य होकर अग्रसर होना पड़ता है,क्योंकि  हम लाचार हो चुके हैं। हमें अपनी स्वाभाविक इच्छाशक्ति के सच्चे उद्गम या आदि कारण (true origin) की अनुभूति नहीं है। हम बिना चूँ-चपड़ किये आँख मूँदकर अपने मन के आदेशों का पालन करते हैं; और दासता, निकृष्टतम कोटि की गुलामी -हमारे मत्थे पड़ती है; फिर भी हम अपने को आजाद, स्वाधीन, 'मुक्त' कहते हैं !

उसका विवेक, उसकी अन्तरात्मा उसे भी अच्छी सलाह या सद्प्रेरणा ही देते हैं, फिर भी वह अपने मन के प्रबल-आदेश (dominant mandate या चित्त की गहराई में संचित संस्कारों का हुक्म) के अनुसार चलने को विवश हो जाता है; और अपराध कर बैठता है। वह बेचारा (Poor-man लाचार-इंसान) अपने को रोक नहीं सकता। हमें यहाँ-वहाँ नाचना पड़ता है, क्योंकि हम अपने मन को वश में नहीं रख पाते। हम कहते हैं, कि हम सोचते हैं; हम करते हैं; आदि। पर बात ऐसी नहीं है। हम सोचते हैं, क्योंकि हमें सोचना ही पड़ता है; हम कार्य (देखना या घूरना ?) करते हैं - क्योंकि हमें करना ही पड़ता है। लाख कोशिश करने पर भी हम, जीवन के किसी उच्च मानक पर खरे नहीं उतर पाते हैं। चित्त की गहन परतों में संचित पूर्व जन्मों के संस्कार, तथा अतीत के विचारों का प्रेत हमें नीचे गिराये रखते हैं।

हम ज्यों ज्यों पाशविक-अवस्था (animal state) से दूर होते जाते हैं, त्यों त्यों विषय-सुखों में हमारी
आसक्ति कम होने लगती हैं ! और उसी तीव्रता के साथ वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक ज्ञान-अर्जन के आनन्द में आस्वादन लेने की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। और तब ' ज्ञान के वास्ते ज्ञान ' प्राप्त करना मन के लिये 'supreme pleasure' सर्वाधिक आनन्द- दायक हो जाता है; चाहे उससे इन्द्रिय-सुख मिले या नहीं इस ओर ध्यान भी नहीं जाता।

पाश्चात्य देशों में अन्य विज्ञानों की भाँति उसे परखने की कसौटी- उपयोगिता माना जाता है, अर्थात हमारे शारीरिक भोग-सुखों में इससे कितनी वृद्धि होगी? सर्वश्रेष्ठ विज्ञान होने पर भी पाश्चात्य शिक्षापद्धति में इसे अत्यन्त निम्न कोटि का स्थान दिया गया है। प्रायः हम यह भूल जाते हैं कि हमारे दैनन्दिन जीवन में वैज्ञानिक ज्ञान के अल्पतम, मात्र ५-१० % अंश का ही ऐसा कोई व्यावहारिक उपयोग किया जा सकता है। ' खाओ-पीओ और मौज करो ' की पाश्चात्य संस्कृति पाशविक प्रवृत्ति या प्रकृति के विरुद्ध संग्राम करके यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने के महत्व को नहीं समझती, और कामिनी-कांचन भोग में लिप्त होकर मनःसंयोग के विज्ञान या आध्यात्मिकता को अन्धविश्वास या मजाक की वस्तु समझती है। इसीलिये पश्चिम में मन की शक्तियों, विशेषतः असाधारण शक्तियों (unusual powers) को जादू-टोने और रहस्यवाद (witchcraft and mysticism) के घेरे में रखकर देखा जाता है।

हमारा मन प्रत्यक्ष अनुभव एवं आघात (perception and impulsion) के द्वारा क्रियाशील होता है। उदाहरण के लिए, प्रकाश की किरणें मेरे नेत्र-गोलकों में प्रवेश करती हैं, संवेदक नाड़ियाँ उसे मस्तिष्क अवस्थित नाड़ी-केन्द्र (दर्शन-इन्द्रिय) तक ले जाती हैं, फिर भी यदि मन उस नाड़ी केन्द्र से जुड़ा हुआ न हो, तो मैं उस प्रकाश को नहीं देख पाता। (ऑंखें खोले बेसुध होकर सोये हुए व्यक्ति इसके उदाहरण हैं) जागने या सचेत होते ही, मन में प्रतिक्रिया होती है, और प्रकाश मस्तिष्क के इस पार से उस पार तक कौंध जाता है। मन की प्रतिक्रिया वह प्रेरक शक्ति (impulsion) है जिसके परिणामस्वरुप आँख को वस्तु का बोध होता है।

मन को वश में करने के लिये तुमको अवचेतन मन की गहराई में अवश्य जाना पड़ेगा, चित्त की गहराइयों में जितने भी विभिन्न प्रकार के संस्कार, विचार आदि संचित हैं, उन्हें क्रमबद्ध करना पड़ेगा तथा उन पर नियंत्रण रखना पड़ेगा। यह प्रथम सोपान है। तुम्हें अपने मन को नियंत्रण में लाने के लिए ' यम-नियम-आसान-प्रत्याहार-धारणा' का ऋषि पतंजलि-निर्दिष्ट प्रणाली के अनुसार नियमित अभ्यास करना ही चाहिए। उस अतिचेतन अवस्था को प्राप्त करने के लिये, तुम्हें मन को वश में करने का अभ्यास अवश्य करना होगा। जहाँ से तुम अपने चेतन-अवचेतन समग्र मन का अध्यन करने में समर्थ हो जाओगे, और उसके प्रबल घूर्णन (wild gyrations) को देखकर भी अविचलित रह सकोगे। हमारे चेतन मन का बहुत छोटा सा अंश ही संवेद्द्य या ऐन्द्रिक धरातल पर रहता है; लेकिन हम सोच लेते हैं, कि चेतना का यही अंश हमारा सम्पूर्ण मन और जीवन है। ऐन्द्रिक धरातल पर रहने वाली चेतना हमारे अवचेतन मन (subconscious mind) के अपार समुद्र के एक बूँद के समान है। हमारे अवचेतन मन (subconscious mind) या चित्त की गहराइयों में केवल इसी जन्म के ही नहीं, वरन भूत काल के सभी जन्मों के (मत्स्यावतार, वराहावतार से लेकर विष्णु तक) विचार तथा कर्म संचित हैं।  हमलोग वास्तव में 'जो' कुछ हैं; यदि वह (हमारा यथार्थ स्वरुप या ब्रह्म) इन्द्रिय-जन्य ज्ञान (sense-perceptions) की गठरी मात्र होता, तो हम उनका उपयोग केवल इन्द्रिय-सुखों की तृप्ति में 'sense-pleasures' में कर सकते थे, परन्तु सौभाग्य से -हम पशु नहीं मनुष्य हैं। 

'दी टाइम्स नाउ' समाचार पत्र में मई 28, 2014 में मॉडर्न फ़िजिक्स के बारे एक बहुत ही ज्ञान-वर्धक समाचार छपा है- पुराने जमाने के भौतिकविद कोई सिद्धान्त (theory) पहले प्रस्तावित कर देते थे, जिसे दशकों बाद प्रमाणित किया जाता था। अब वे पहले ही विज्ञान संबंधी परीक्षण करके, उपलब्ध आँकड़ों का विश्लेषण करते हैं; तत्पश्चात उसके आधार पर अकाट्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं ।" किन्तु मनस्तात्विक क्षेत्र में इससे भिन्नता है-(यह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष-दर्शन का क्षेत्र है )। यहाँ न तो कोई आँकड़े हैं, न भौतिक इन्द्रियों के द्वारा पर्यवेक्षण या सत्यापित करने योग्य कोई तथ्य हैं, और इसिलिये सार्वभौम मान्यता प्राप्त कोई सामग्री (प्रमाण) भी नहीं है, जिसके आधार पर मनोविज्ञान की एक व्यवस्थित प्रणाली का निर्माण की जा सके।

जैसा स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, यदि सचमुच विश्वगुरु बनना भारत के ही भाग्य में लिखा हुआ है, तो मोदी-सरकार को स्वाधीनता प्राप्ति के ६५ वर्ष बाद ही सही, भारत की अपनी शिक्षा नीति अवश्य बननी चाहिये जिसमें अन्य पार्थिव विज्ञानों के साथ साथ, सर्वश्रेष्ठ विज्ञान 'मनोविज्ञान' की पढाई भी भारतीय पद्धति-पतंजलि योग सूत्र के आधार पर, मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था होनी चाहिये।

मनःसंयोग के छः दिवसीय पशिक्षण पाठ्यक्रम को तीन स्तर (प्राथमिक विद्यालय-कक्षा ७ तक, उच्चतर माध्यमिक विद्यालय-कक्षा ८से १२तक, और महाविद्यालय -१२वीं कक्षा के बाद ) का बनाकर योग्य शिक्षकों द्वारा (जो महामण्डल के  नेतृत्व-प्रशिक्षण में उत्तीर्ण होने का प्रमाण पत्र ले चुके हों) उनके निर्देशानुसार प्रत्येक जिले में योग्यता के आधार पर प्रशिक्षण शिविर का निरंतर आयोजन होना चाहिये।

किन्तु जगतगुरु भारत यह जानता है, कि ' अपने चित्त की गहन से गहन गहराई में यथार्थ मनुष्य है-आत्मा !'  मन को अन्तर्मुख कर लो और उससे संयुक्त हो जाओ । (मन को इन्द्रिय-विषयों में जाने से रोक कर उसे अन्तर्मुखी बनने के लिये प्रशिक्षित करो, विषयाश्रित मन को जीत कर उसे ब्रह्मनिष्ठ मन में रूपान्तरित कर लो।) उस आत्मनिष्ठ मन (standpoint of stability) की स्थिर दृष्टि या साक्षी भाव से मन के घूर्णन (भँवर या gyrations) का निरिक्षण और उसमें उठने वाले विचारों का पर्यवेक्षण किया जा सकता है; यह क्षमता प्रत्येक मनुष्य में पायी जाती है। किन्तु जिनका एकाग्र मन,  चित्त की सबसे गहरी परतों तक को भेद सकता है, केवल उन्हीं व्यक्तियों (ऋषियों या मनोवैज्ञानिकों) को इन तथ्यों और और इन आंकड़ों का पता लग सकता है।

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११.

श्रीरामकृष्ण परमहंस जीवनमुक्त और आचार्य दोनों थे !

 श्लोक ११. जगति सति सत्ये तु न लाभश्चेत् किमु क्षतिः। प्रपञ्चस्यापि देहस्य प्रयोगे पुरुषार्थता ॥

1. What is the gain or loss by kicking up a row over the reality of this world ?

2. Objects of human life are attained by making the best use of human body and the visible world.

3. ' The Acharya has to take a stand between the two states. He must have the knowledge that the world is true, or else why should he teach ? Again if he had not realized the world as a dream, then he is no better than an ordinary man, and what could he teach ?'

१. इस जगत के सच्चाइयों की जो लम्बी कतार (स्वप्नवत) है, उसके ऊपर दुलत्ती मारते रहने (या असन्तोष प्रकट करते रहने) में लाभ क्या और हानी क्या?

२. इस मूर्खता को छोड़कर, देवदुर्लभ मानव शरीर एवं दृष्टिगोचर जगत का सर्वोत्तम उपयोग करने से मनुष्य जीवन का उद्देश्य (लक्ष्य) सिद्ध हो जाता है !

३. मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य ( नचिकेता के गुरु यमाचार्य जैसा) को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा किसे और क्यों  देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या ? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ?

प्रसंग : 'भक्तियोग के आचार्य'(teacher of mankind- मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) श्रीरामकृष्ण जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य भी ! ३/२६१

विषयवस्तु : जीवन भर जगत सत्य है या मिथ्या ? इसी प्रश्न को लेकर सिर खपाते रहने से लाभ क्या और हानी क्या? इस मूर्खता को छोड़कर, दृष्टिगोचर जगत और देवदुर्लभ मानव शरीर दोनों का सर्वोत्तम उपयोग करने से मनुष्य जीवन का उद्देश्य- (लक्ष्य) सिद्ध हो जाता है !

आचार्य और मुक्त पुरुष (देवगण) में क्या अन्तर है? मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य  को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे (नचिकेता के गुरु यमाचार्य को ) यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा क्यों कर देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर  ही क्या? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ? शिष्य के पाप उसके मन पर भी प्रभाव डालते हैं, और इस तरह उसका पतन हो जाता है। 

 धर्म धर्म के बीच जो क्षुद्र मतभेद हैं, वे सब केवल शाब्दिक हैं, उनमें कोई अर्थ नहीं। हर व्यक्ति (अहमक) सोचता है, ' यह मेरा मौलिक-मत है' और वह अपने मन-माने ढंग से ही काम करना चाहता है। इसीसे संघर्षों की उतपत्ति होती है। इसमें सन्देह नहीं कि कट्टरता (फनैटिसिजम) और धर्मान्धता (बिगोट्री) द्वारा किसी धर्म का प्रचार बहुत तेजी से किया जा सकता है, किन्तु नींव उसी धर्म की दृढ़ होती है जो हर एक को अपना अभिमत व्यक्त करने की स्वतंत्रता देता है, और इसतरह उसे उच्चतर मार्ग पर आरूढ़ कर देता है; भले ही इससे धर्म-प्रचार की गति धीमी हो। आध्यात्मिकता और आध्यात्मिक ज्ञान (स्पिरिचुअल नॉलेज) का दान सर्वोत्तम दान है, क्योंकि यह हमें संसार के आवागमन से मुक्त कर देता है; इसके बाद है लौकिक ज्ञान (सेक्युलर नॉलेज) का दान, क्योंकि यह आध्यात्मिक ज्ञान के लिये हमारी आँखें खोल देता है; इसके बाद अत है जीवन-दान, और चौथा है अन्न दान। सर्वदा साधुओं की संगति (सत्संग)  में रहते रहते समय आने पर आत्मज्ञान तो होकर रहेगा ! एक ऐसा समय भी आता है, जब मनुष्य की समझ में यह बात आ जाती है कि किसी दूसरे व्यक्ति के लिये चिलम भरकर उसकी सेवा करना लाखों बार के ध्यान से कहीं बढ़कर है। जो व्यक्ति ठीक ठीक चिलम भर सकता है, वह ध्यान भी ठीक तरह से कर सकता है।

विषयवस्तु : यह समस्त जगत ही कल्पनाप्रसूत है, परन्तु यहाँ एक प्रकार की कल्पना दूसरे प्रकार की कल्पनाओं से उत्थित होने वाली बुराइयों को नष्ट कर देती हैं। सबसे ऊँची कल्पना, जो समस्त बंधन-पाशों को तोड़ सकती है-सगुण ब्रह्म या ईश्वर (श्रीरामकृष्ण) की है। भगवान से यह प्रार्थना करना कि ' प्रभु, अमुक वस्तु मुझे दो, अमुक वस्तु की रक्षा करो, मेरे सिर दर्द को अच्छा कर दो' आदि आदि -- यह सब भक्ति नहीं है। ये तो धर्म के हीनतम रूप हैं, कर्म के निम्नतम रूप हैं। स्वर्ग का अर्थ असल में है क्या ? --तीव्रतम भोग का एक स्थान।  वह (इन्द्र) ईश्वर कैसे हो सकता है ? केवल मूर्ख ही इन्द्रियसुखों के पीछे दौड़ते है, इन्द्रिय भोगों में लगे रहना बिल्कुल आसान है। इन्द्रिय भोगों में रचे-पचे रहना ही मृत्यु है। आत्मा के स्तर पर का जीवन ही सच्चा जीवन है; अन्य मन -इन्द्रिय के स्तरों का जीवन मृत्यु स्वरूप है। यह सम्पूर्ण जीवन एक व्यायामशाला के जैसा है। यदि हम सच्चे जीवन का आनन्द लेना चाहते हैं तो हमे मन-इन्द्रियों से परे जाना ही होगा।

आचार्य होना बड़ा कठिन है: देवगण ( यम, वरुण , इन्द्र, वायु, अग्नि ?)  और कोई नहीं उच्च अवस्थाप्राप्त दिवंगत मानव हैं। हमें उनसे  सहायता मिल सकती है। हर कोई आचार्य या गुरु  नहीं हो सकता, किन्तु मुक्त (लिबरैटिड) बहुत से लोग हो सकते हैं। आचार्य या गुरु  होने की अपेक्षा जीवन्मुक्त (फ्री इन दिस  वेरी लाइफ) होना सरल है। क्योंकि जीवन्मुक्त संसार को स्वप्नवत मानता है और उससे कोई वास्ता (कन्सर्न) नहीं रखता; पर आचार्य को यह ज्ञान होने पर भी कि जगत स्वप्नवत है, (करुणा से वशीभूत होकर) उसमें रहना और कार्य करना पड़ता है। हर एक के लिये आचार्य होना सम्भव नहीं है। आचार्य तो वह है, जिसके माध्यम से दैवी शक्ति कार्य करती है ! आचार्य का शरीर अन्य मनुष्यों के शरीर से बिल्कुल भिन्न प्रकार का होता है ! उसका शरीर बहुत ही कोमल (मक्खन के समान), उसका हृदय अत्यंत संवदेनशील (सीस्मोग्राफ भूकंप- सूचक यंत्र के समान) - तीव्र खुशी और तीव्र पीड़ा के कंपन को महसूस करने में सक्षम होता है ! वह असाधारण होता है।जीवन के सभी क्षेत्रों में हम यही देखते हैं, कि हृदयस्थ सच्चे व्यक्तित्व (पर्सन विदिन) की ही विजय होती है; और वह यथार्थ व्यक्तित्व (दैट पर्सनालिटी : ब्रह्म-स्वरुपता की उपलब्धि) ही समस्त सफलता का रहस्य है।

नदिया के पैग़म्बर ' चैतन्य महाप्रभु ' (या भगवान श्री कृष्ण चैतन्य) के ह्रदय में संवेदनशीलता का विकास (अनफोल्डमेंट) जिस सीमा तक हुआ था, वैसा उद्दात विकास अन्यत्र कहीं देखने में नहीं आता।
श्री रामकृष्ण एक महान दैवी शक्ति हैं। तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिये कि उनका सिद्धान्त यह है या वह। बल्कि यही सोचना चाहिये कि वे एक महान शक्ति हैं, जो अब भी उनके शिष्यों में वर्तमान है और संसार में कार्य कर रही है ! मैंने उनको, उनके विचारों के रूप में (अपने ही भीतर) विकसित होते हुए देखा है। वे आज भी कई मनुष्यों के भीतर विकसित हो रहे हैं। 'श्री रामकृष्ण' वाज़ बोथ - अ जीवन्मुक्त ऐंड  अ  आचार्य" श्री रामकृष्ण जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य (teacher of mankind- मानवजाति का मार्गदर्शक नेता ) भी !

जब तक 'मुझे मत छू-वाद' युम्हारा धर्म है और रसोई की पतीली तुम्हारा इष्टदेव है, तब तक तुम्हें आध्यात्मिक मनुष्य नहीं कहा जा सकता, तुम्हारी कोई आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती। अनुभूति ही धर्म का सार है, और मैं तुम्हें ईश्वर का उपासक तभी मानूँगा, जब तुम उसके 'सच्चिदानन्द' स्वरुप अनुभव कर सकोगे। वास्तव में तुम स्वयं कौन हो ? क्या हो? जब तक तुम्हें यह अनुभूति नहीं होती, तब तक तुम्हारे लिये 'अल्ला, ईश्वर या ब्रह्म' कुछ अक्षरों से बना एक शब्द मात्र है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।

जब निर्गुण ब्रह्म (परम तत्व-सच्चिदानन्द) को हम माया के कुहरे में से देखते हैं, तो वही सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहलाते हैं ! जब हम परम-तत्व (इन्द्रियातीत सत्य) को पंचेन्द्रियों के माध्यम से पाने की चेष्टा करते हैं, तो उसे हम सगुण ब्रह्म के रूप में ही देख सकते हैं। आत्मा का विषयीकरण नहीं हो सकता ''सेल्फ कैनॉट बी  आब्जेक्टिफाइड" अर्थात आत्मा को मन-वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि आत्मा इन्द्रियगोचर वस्तु है ही नहीं ! ' हाउ कैन दि नोवर नो इटसेल्फ ? जो  ज्ञाता है, वह स्वयं अपना ज्ञेय कैसे हो सकता है ? किसी प्रशान्त चित्त में उसका मानो प्रतिबिम्ब पड़  सकता है - चाहो तो इसे आत्मा का विषयीकरण कह सकते हो। इसी प्रतिबिम्ब का सर्वोत्कृष्ट रूप, ज्ञाता को ज्ञेय रूप में लाने का महत्तम प्रयास - यही सगुण ब्रह्म (ठाकुर या Personal God) कहलाते हैं। आत्मा शाश्वत ज्ञाता है, और हम निरंतर उसे ज्ञेय रूप में ढालने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसी संघर्ष से इस जगत-प्रपंच की सृष्टि हुई है, इसी प्रयत्न से जड़ पदार्थ (पंचभूत) आदि की उत्पत्ति हुई है।

विषयीकरण का यह प्रयास हमारे स्वयं अपने स्वरुप के प्रकटीकरण का प्रयास है। सांख्य के अनुसार, प्रकृति यह सब खेल पुरुष को (शरीर के साथ तादात्म्य में बाँधे रखने के लिये) दिखला रही है, और जब पुरुष को यथार्थ अनुभव हो जायगा (मैं मरणधर्मा शरीर नहीं हूँ !!), तब वह अपना स्वरुप जान लेगा। अद्वैत वेदान्ती के मतानुसार, जीवात्मा अपने को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न कर रही है। लम्बे संघर्ष के बाद जीवात्मा जान लेती है कि ज्ञाता तो ज्ञाता ही रहेगा, ज्ञेय नहीं हो सकता, तब उस जीवात्मा को वैराग्य हो जाता है, और वह मुक्त हो जाती है। जब मनुष्य उस पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसका स्वाभाव ईश्वर जैसा हो जाता है।ब्रह्मवेत्ता मनुष्य ब्रह्म ही हो जाता है!


अपने इष्टदेव 'The Personal God' या ठाकुरके लिये जब हम सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ या सर्वव्यापी का जो विशेषण लगाते हैं, तब उनके विषय में हमारी धारणा क्या होती है ? टमटम का एक ऐसा निकम्मा घोड़ा, जो चाबुक की मार खाये बिना अपनी जगह से हिलता भी नहीं हो, हमें नैतिकता पर भाषण देने के लिये खड़ा हो जाय- तो वह भी द्वैतवादी की तरह कहेगा - जब तक हाथ में डंडा लिये दण्ड देने को सदैव प्रस्तुत, आसमान में सिंहासन पर बैठे किसी ईश्वर की कल्पना न की जाय, तब तक मनुष्य सदाचारी (नैतिक) नहीं हो सकता। सच बात तो यह है, कि कोड़ों का डर ही लोगों को और भी अधिक अनैतिक बना देता है।

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१२.

परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करने पर ही होती है ।

श्लोक १२. देहोऽयं वदति व्यासः परुषस्याखिलार्थदः। लब्धव्यं प्राक् बलं देहे ततः परं मनोबलम्॥

1. This body, says Vyasa (Bhagavata, 9.9.28(24) fulfills all desires of man.

2. But 'If there is no strength in body and mind the atman cannot be realized.    first you have to build the body-then only the mind be strong.'

3.  ' All power is within you, you can do anything and everything.'


१२.१ प्रसंग : [ श्रीमद्भागवत-महापुराण  ९.२८ ]

विषयवस्तु : व्यासदेव जी कहते हैं - ' देहोऽयं मानुषो राजन् पुरुषस्याखिलार्थदः । तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते॥ ' 
 " राजन् ! यह मनुष्य शरीर जीव को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष --चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये इस शरीर को दुर्बल बना लेना या नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थों की हत्या कही जाती है।"

१२.२ प्रसंग:  [ वर्ष १८९८ नवम्बर में ' ॐ ह्रिं ऋतम् ' की रचना की थी (६/९४)]

विषयवस्तु : "नायमात्मा बलहीनेन लभ्य' - दुर्बल-कमजोर लोग आत्मा की अनुभूति नहीं कर सकते।' शरीर को बलिष्ठ करना होगा, तभी तो मन का बल बढ़ेगा। मन तो शरीर का ही सूक्ष्म अंश है। मन और वाणी में तुम्हें महान ओजस्विता रखनी चाहिये। ' मैं हीन हूँ' , ' मैं दीन हूँ' ऐसा कहते कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है। तत्काल निर्णय लेने की शक्ति (popover) तुम्हारे ही भीतर है। "अल्लोविंग नो थेफ़्ट इन दी चैम्बर ऑफ़ थॉट"; " भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।" कमर कस लो, और तुममें जो देवत्व छिपा हुआ है, उसे प्रकट करो ! सिंहगर्जन से आत्मा की महिमा की घोषणा करो! प्रत्येक मनुष्य को अभय प्रदान करते हुए कहो- " उठो, जागो, और जब तक लक्ष्य पर न पहुँचो, विश्राम मत लो !"

१२.३  * प्रसंग:  [ "The task before us"  -" विधाता ने हमारे लिये जो कार्य सौंपा है !" मद्रास में दिया गया भाषण। ५/१७८]

विषयवस्तु : " अप, इंडिया, ऐंड कॉन्कर दि वर्ल्ड विथ योर स्पिरिचूऐलिटी !  " उठो भारत! तुम अपनी आध्यात्मिकता द्वारा जगत पर विजय प्राप्त करो !" पाश्चात्य लोग यह अनुभव करने लगे हैं, कि उन्हें राष्ट्र के रूप में बने रहने के लिये आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। वे 'मनुष्य' कहाँ हैं, जो भारतीय महर्षियों के उपदेश को जगत के सब देशों में पहुँचाने के लिये तैयार हों? कहाँ हैं वे लोग, जो इसी कार्य के लिये अपना सब कुछ छोड़ने को तैयार हों, (जिनका जीवन पैग़म्बरों जैसा पवित्र हो, जिनको नेतृत्व-प्रशिक्षण का चपरास प्राप्त हो?)  कि ये कल्याणकर उपदेश संसार के कोने कोने में फ़ैल जायें? सत्य के प्रचार के लिये, ऐसे 'heroic spurs' वीर ह्रदय नेताओं की आवश्यकता है, जो भाई-भतीजावाद छोड़ने और सम्पूर्ण नारी-जाति को मातृदृष्टि से देखने में समर्थ हो ! वेदान्त के महासत्यों को फ़ैलाने के लिये ऐसे ही (महामण्डल में प्रशिक्षित) वीर कर्मियों -मानवजाति के मार्गदर्शक 'नेताओं' को बाहर जाना चाहिये। जगत को इसकी चाहना है, इसके बिना जगत विनष्ट हो जायगा।
वे इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, चाव से इसकी वाट जोह रहे हैं। हमें बहादुर और साहसी युवाओं की आवश्यकता है। हमें खून में उष्णता और स्नायुओं में बल की आवश्यकता है - 'लोहे की मांसपेशियाँ और फौलाद के स्नायु' आयरन मसल्स एंड नर्व्ज़ ऑफ़ स्टील, चाहिये, न की दुर्बलता लाने वाले वाहियात बहाने। वेयर इज दी सप्लाई टू कम फ्रॉम? उसकी आपूर्ति कहाँ से होगी?
धर्म क्या है ? धर्म वही है, जो हमें उस अक्षर पुरुष का साक्षात्कार कराता है, और हर एक के लिये यही धर्म है। जिसने इस इन्द्रियातीत सत्ता का साक्षात्कार कर लिया, जिसने आत्मा का स्वरुप उपलब्ध कर लिया, जिसने भगवान को प्रत्यक्ष देखा -हर वस्तु में देखा, वही ऋषि (पैग़म्बर) हो गया। हमें भी इस ऋषित्व का लाभ करना होगा, मन्त्रद्रष्टा होना होगा, ईश्वर-साक्षात्कार करना होगा। राष्ट्रीय जीवन, सतेज और प्रबुद्ध राष्ट्रीय जीवन के लिये बस यही एक शर्त है कि भारतीय विचार (' Be and Make ' पहले भारत के नस नस में प्रविष्ट हो जाय) विश्व पर विजय प्राप्त करें।

प्राचीन भारत में सैकड़ों ऋषि थे, और अब हमारे बीच लाखों होंगे -निश्चय ही होंगे। इस बात पर तुममें से हर एक जितनी जल्दी विश्वास करेगा, भारत का और समग्र संसार का उतना ही अधिक कल्याण होगा। अपनी आध्यात्मिकता तथा दार्शनिकता से हमें जगत को जीतना होगा। ' वि मस्ट डू इट ऑर डाइ ' ' दूसरा कोई उपाय नहीं है, अवश्यमेव इसे करो या मरो !
 तुम जो कुछ विश्वास करोगे, तुम वही हो जाओगे !  ' हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ' -अर्थात इतिहास अपने को दुहराता है; जो एक बार घटित हुआ है, बार बार होता है!  यह आत्मा सर्वभूतों में समान है, केवल प्रत्येक भूत में उसके विकास का तारतम्य मात्र है। इस आत्मा (ह्रदय की शक्ति ) को अभिव्यक्त करने की चेष्टा करो। देखोगे की तुम्हारी बुद्धि तीक्ष्ण होकर सब विषयों में प्रवेश करने लगेगी। अनात्मज्ञ पुरुषों की बुद्धि एकदेश-दर्शिनी (वन साइडेड) होती है, आत्मज्ञ पुरुषों की त्रिलोक-त्रिकालदर्शी ! आत्मप्रकाश होने से - देखोगे, दर्शन, विज्ञान सब तुम्हारे अधीन हो जायेंगे।
 परमात्म- तत्त्व की प्राप्ति शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करने पर ही होती है । जिस दिन इन्द्र, चन्द्र, वायु, वरुण आदि भयशून्यता को प्राप्त हो जायेंगे- उसी दिन वे ब्रह्म के साथ एक हो जायेंगे; और तब जगत रूपी माया का अन्त हो जायगा ! इसीलिये मैं कहता हूँ, " अभीः अभीः" ।

" मन की एकाग्रता होने से सब सिद्ध हो जाता है --सुमेरु पर्वत को भी चूर्ण करना सम्भव है ! "  श्रीरामकृष्ण के आगमन के बाद से विचार और भाषा में नवीन प्रवाह आ गया है। तुम अपने जीवन को उदाहरण स्वरूप बना कर दिखाओ, तो तुम्हें देखकर और भी दस-पाँच लोग वैसा ही करेंगे। फिर उनसे और पचास सीखेंगे। इस प्रकार आगे चलकर क्रमशः पुरे देश के युवाओं में चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन करने प्रति उत्साह का भाव संचारित हो जायेगा। वीर बनो - सर्वदा कहो, ' अभीः अभीः '; --मैं भय शून्य हूँ ! प्रत्येक व्यक्ति को यह सुनाओ- 'माभैः माभैः ' --किसी भी चीज से न डरो ! भय ही मृत्यु है, भय ही पाप है, भय ही नरक है, भय ही अधर्म तथा भय ही व्यभिचार है। जगत में जो भी नकारात्मक बिचार और असत भाव हैं, वे सब इस भयरूप शैतान से उत्पन्न हुए हैं। इस भय ने ही सूर्य, वायु और यम को, उनसे सम्बन्धित लोकों एवं विशिष्ट कार्यों में नियुक्त कर रखा है, और अपनी सीमा से बाहर नहीं जाने देता। इस शरीर को धारण कर तुम कितने ही सुख-दुःख तथा सम्पद-विपद की तरंगों में बहाये जाओ- किन्तु कभी न भूलना कि वे सब केवल क्षण स्थायी हैं। उन सबको अपने ध्यान में भी न लाना।

 "आइ ऐम बर्थलेस, दी डेथलेस आत्मन, हूज नेचर इज इंटेलिजेंस" अजर-अमर आत्मा हूँ, जो शाश्वत चैतन्य स्वरुप है" --इसी भाव को दृढ़ता के साथ धारण कर जीवन-यापन करना होगा। ' मेरा जन्म नहीं, मेरी मृत्यु नहीं, मैं निर्लेप आत्मा हूँ' - ऐसी धारणा में (इसी खुमारी में) एकदम तन्मय हो जाओ। यदि तुम एक बार भी इस धारणा के साथ एकत्व प्राप्त कर सके, तो दुःख या कष्ट का समय आने पर यह भाव अपने आप ही मन में स्फुरित होगा, इसके लिये फिर चेष्टा करने की कुछ आवश्यकता नहीं रहेगी। श्रीरामकृष्ण कहते थे,"अल्लोविंग नो थेफ़्ट इन दी चैम्बर ऑफ़ थॉट"; " भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।"  सभी को 'मन और मुख' एक रखने का अभ्यास करना होगा। चाहे ब्राह्मण का शरीर हो, चाहे शूद्र का शरीर हो, लोक-व्यवहारमें तो उनमें फर्क रहेगा, किन्तु परमात्म-तत्व (ब्रह्म) की प्राप्ति (अनुभूति) में कोई फर्क रहेगा ही नहीं । कारण कि परमात्मत-त्त्व की प्राप्ति शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करने पर ही होती है । जिससे सम्बन्ध-विच्छेद करना है, वह चाहे बढ़िया हो या घटिया, उससे क्या मतलब ?

 जानते हो, कुछ ही दिन हुए मैं वैद्यनाथ- देवघर में अस्थमा का अटैक ऐसा आया, तकिये का सहारा लेकर मैं प्राणवायु (वाइटल ब्रेथ) निकलने की अपेक्षा कर रहा था और सुन रहा था कि भीतर केवल " सोsहं सोsहं " ध्वनि हो रही है; केवल यह सुनने लगा - "एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन"- इस विश्व-ब्रह्माण्ड में 'अद्भुत' नाम की स्वयं कोई विशेष चीज नहीं है। अज्ञानता ही अन्धकार है, इसी के आवरण में सब कुछ ढके रहने के कारण अद्भुत या रहस्यपूर्ण जान पड़ता है। ज्ञानालोक से प्रकाशित होने पर फिर कुछ भी अद्भुत नहीं रह जाता। ' अघटनघटनापटीयसी ' जो माया (which brings the most impossible things to pass) है, वह भी लुप्त हो जाती है!

सब्बो लोको प्रकम्पितो‘।जगत में ठोस जैसा कुछ नहीं है, केवल प्रकम्पन ही है। आदि शंकराचार्य कहते हैं- परमाणु से लेकर ब्रह्मलोक तक तथा सामान्य शक्ति से लेकर प्राणशक्ति तक सब स्पन्दन है। ब्रह्माण्ड का सृजन और लोप कम्पन का ही परिणाम है। यह कम्पन समुद्र की लहरों के समान है। जैसे समुद्र की सतह के ऊपर तो हलचल रहती है, पर समुद्र की तली,  नीचे का आधार शांत रहता है, उसी प्रकार जगत्‌ का मूलाधार ब्रह्म है, कम्पन तो ऊपरी सतह पर है।) इस अवस्था की अनुभूति करने वाला जीवात्मा, जब अपने मन की चहारदीवारी (लव ट्रैंगल) का भी अतिक्रमण कर लेता है, समस्त बंधनों को पार कर जाता है, तभी, केवल तभी उसके हृदय में अद्वैतवाद का यह मूल तत्व प्रकाशित होता है कि ' समस्त संसार और मैं एक हूँ, मैं और ब्रह्म एक हूँ'।' मैंने कहा -(आइ ऐम यू , माइ लव ) ' मैं तुम हूँ मेरे प्यारे।' और द्वार खुल गया!"

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१३.

बल ही भव-रोग (वर्ल्ड'स डिजीज) की दवा है !

श्लोक-१३: मनसश्चेन्द्रियग्रामसंयमात् तद्बलं लभेत्। आत्मबलं तदायाति यद्बलेन जगज्जयः ॥ 

आत्मा की शक्ति केवल तभी जाग्रत होती है, जब हम विधिवत अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रित करने का  अभ्यास करना प्रारम्भ कर देते हैं। और उसी शक्ति के द्वारा जगत को जीता जा सकता है। 

प्रसंग : [ आत्मा की मुक्ति (५ नवम्बर,१८९६ को लन्दन में दिया गया भाषण) २/१८७-१९०] द्वैतवाद के कई प्रकारों से मुझे कोई आपत्ति नहीं, किन्तु जो कोई उसके माध्यम से दुर्बलता की शिक्षा देता है (शमी की लकड़ी, घोड़े की नाल और सूअर की पूँछ, शनीचर-मन्दिर में भय से गिड़गिड़ाना), उस पर मुझे विशेष आपत्ति है।

विषयवस्तु :१३.१ * स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, जिस समय दैहिक, मानसिक या आध्यात्मिक ( '3H ' को विकसित करने की) शिक्षा पाते हैं, उस समय उनसे एक ही प्रश्न करता हूँ -" क्या तुम्हें इससे बल प्राप्त होता है ?" सत्य की ओर गए बिना हम किसी प्रकार बलवान या ओजस्वी नहीं हो सकते, और बलवान हुए बिना हम सत्य के समीप नहीं पहुँच सकते। इसलिये जो शिक्षा-प्रणाली मन और मस्तिष्क को दुर्बल कर दे और मनुष्य को कुसंस्कार से भर दे, जिससे वह अंधकार में टटोलता रहे, खयाली पुलाव पकाता रहे, और सब प्रकार की अजीबोगरीब रहस्यमय और अन्धविश्वासपूर्ण बातों में समस्याओं का हल ढूढ़ना सिखाता हो, उस मत या प्रणाली को मैं बिल्कुल पसन्द नहीं करता, क्योंकि मनुष्य पर उसका परिणाम बड़ा भयानक होता है। वह इतना दुर्बल हो जाता है, कि कुछ समय बाद वह अपने मन में सत्य की धारणा करने, और उसके अनुसार जीवन-गठन करने में सर्वथा असमर्थ हो जाता है।

यदि यही सत्य है कि सभी शुद्धस्वरूप हैं, तो इसी क्षण सारे संसार को इसकी शिक्षा क्यों न दी जाय ? साधु-असाधु, स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, छोटा-बड़ा, सिंहासनासीन राजा और रस्ते में झाड़ू लगाने वाले भंगी-सभी को डंके की चोट पर इसकी यह शिक्षा क्यों न दी जाय ? द्वैतवाद ने संसार पर बहुत दिनों तक शासन किया है, आज हम नया प्रयोग क्यों न आरम्भ करें ?

जब हमारे सारे दोष और किसी के मत्थे नहीं मढ़े जाते, तब शैतान या भगवान किसी को भी हम अपने दोषों के लिये उत्तरदायी नहीं ठहराते, तभी हम सर्वोच्च भाव में पहुँचते हैं। अपने भाग्य के लिये मैं स्वयं उत्तरदायी हूँ। मैं स्वयं अपने शुभाशुभ दोनों का कर्ता हूँ ! मेरा स्वरुप शुद्ध और आनन्द मात्र है। इसके विपरीत जो भी विचार हमारे मन में उठें उन्हें तुरंत त्याग देना चाहिये। सम्भव है कि सभी मनुष्यों को इस अद्वैत-तत्व की धारणा करने में लाखों वर्ष लग जायें, पर इसी समय से क्यों न आरम्भ आरम्भ कर दें? यदि हम अपने जीवन में बीस मनुष्यों को भी यह बात बतला सके, तो समझो कि हमने बहुत बड़ा काम किया।

विषयवस्तु: १३.२ ** 'बल ' ही भव-रोग (world's disease) की दवा है। ' सिंह-शावक को डीहिप्नोटाइज करने की दवा क्या है ? सिंह-शावक,' जो भेंड़ की झुण्ड में पला-बढ़ा होने के कारण अपने को- ' भेंड़ ' ही मानने लगता है - इसी बीमारी को भवरोग कहते हैं। वास्तव में वह सदा से सिंह-शिशु ही है; किन्तु परिवेश (देश-काल-निमित्त) के चक्कर में पड़कर सम्मोहित हो गया है। उसको डीहिप्नोटाइज करने की दवा -है ' चमत्कार जो तुम्हारी आज्ञा का पालन करेगा!' वेदान्त कहता है कि केवल यही स्तवन हमारी प्रार्थना हो सकती है। उसको अपने-आप से बार बार कहना होगा-


 न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः, पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुनैव शिष्यः, चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।

 " मेरी मृत्यु नहीं है, शंका भी नहीं, मेरी कोई जाति नहीं है, न कोई मत ही; मेरे पिता या माता या भ्राता या मित्र या शत्रु भी नहीं है, क्योंकि मैं सच्चिदानन्दस्वरुप शिव हूँ। मैं पाप से या पुण्य से, सुख से या दुःख से बद्ध नहीं हूँ। तीर्थ, ग्रन्थ और नियम आदि मुझे बन्धन में नहीं डाल सकते। मैं भूख-प्यास से रहित हूँ। यह देह मेरी नहीं है, न कि मैं देह के अंतर्गत विकार और अन्धविश्वासों के अधीन ही हूँ। मैं तो सच्चिदानन्दस्वरुप हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ। '

हम ज्यों ज्यों इसकी आवृत्ति करते हैं, त्यों त्यों हममें बल आता जाता है। 'शिवोहं' रूपी यह अभय वाणी क्रमशः अधिकाधिक गंभीर हो हमारे ह्रदय में, सभी विचारों में भिदती जाती है, और अन्त में हमारी नस नस में, प्रत्येक रक्त बिन्दु में समा जाती है। ज्ञान सूर्य की किरण जितनी उज्ज्वल होने लगती हैं, भ्रम-देहाध्यास उतना ही दूर भागता जाता है। अज्ञान समाप्त होने लगता है, और अन्त में एक समय आता है, जब सारा अज्ञान बिल्कुल लुप्त हो जाता है और केवल ज्ञान-सूर्य ही अवशिष्ट रह जाता है।

स्वयं को विसम्मोहित करने और अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने यही एक मात्र उपाय है। ' Strength, therefore, is the one thing needful.' अतः बल ही एक आवश्यक बात है। धनिकों द्वारा रौंदे जाने वाले निर्धनों, चतुर विद्वानों द्वारा दबाये जानेवाले अशिक्षितों-हर वर्ग के शोषित-पीड़ित मनुष्यों के लिये बल ही एकमात्र दवा है। अद्वैतवाद हमें जिस प्रकार सदाचारी बनाता है, वैसा कोई और नहीं बनाता। जब सारा दायित्व हमारे कन्धों पर डाल दिया जाता है, उस समय हम जिस प्रकार 'परिश्रम की पराकाष्ठा' करके, जितनी अच्छी तरह से कार्य करते हैं, उतनी और किसी अवस्था में नहीं करते।


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१४.


निवृत्ति ही सारी नैतिकता एवं सारे धर्म की नींव है !

श्लोक १४ : प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नूनमुभे तु कर्मणि।प्रवृत्तिः स्वार्थ बुद्ध्याश्च निवृत्तिस्तद्विसर्जने।। 

यह सम्पूर्ण आत्मत्याग ही सारी नैतिकता की नींव है। संस्कृत में दो शब्द हैं - प्रवृत्ति और निवृत्ति। जैसे पेण्डुलम वाले घड़ी में दोलन गति होती है- प्रवृत्ति का अर्थ है किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन (revolving towards) और निवृत्ति का अर्थ है प्रत्यागमन (revolving away)। (यदि आप शुक्र ग्रह पर खड़े हों, तो आपको सूर्य पश्चिम से निकलता दिखाई देगा !)

प्रसंग : [ कर्म-योग 'अनासक्ति ही पूर्ण आत्मत्याग है ' ३/५९]

विषयवस्तु : 'प्रवृत्ति' और 'निवृत्ति', दोनों ही कर्म के रूप हैं। एक असत् कर्म (evil work) है और दूसरा सत् (good work)। निवृत्ति ही सारी नैतिकता एवं सारे धर्म की नींव है; और इसकी पराकाष्ठा ही सम्पूर्ण 'आत्मत्याग' है; जिसके प्राप्त हो जाने पर मनुष्य दूसरों के लिये अपना तन-मन-धन, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व निछावर कर देता है। जब कोई मनुष्य इस अवस्था में पहुँच जाता है, उसे कर्म-योग में सिद्धि प्राप्त हो जाती है। सत्कर्मों ' Be and Make' से जुड़े रहने का यही सर्वोच्च फल है। 

इस संसार में हमें कई प्रकार के मनुष्य मिलेंगे। कवि कहता है कि वह तीन प्रकार के लोगों का वर्ग-नामकरण सरलता से कर लेता है । 'एके सत्पुरुषाःपरार्थघटकाः स्वार्थान् परित्यज्य ये'-वे ‘मानुषराक्षस’ - अर्थात आसुरी प्रकृति के लोग हैं; जो अपनी भलाई के लिये दूसरों की हानि तक करने में नहीं हिचकते। भर्तृहरि ने चौथी श्रेणी भी बताई है। जिसको हम कोई नाम नहीं दे सकते। ये लोग ऐसे होते हैं कि अकारण ही दूसरों का अनिष्ट केवल अनिष्ट करने के लिये ही करते हैं। भले ही इससे उनका कोई स्वार्थ सिद्ध न हो रहा हो । कवि कहता है कि जिनकी प्रवृत्ति सदा परहित के विरुद्ध कार्य करने की रहती है, उन्हें वह किस नाम से पुकारे ? --उसे नहीं मालूम। दुर्भाग्य से यह धरा ऐसे लोगों से मुक्त नहीं है, जिन्होंने चरित्र-निर्माण की पद्धति (आदत-रुझान-प्रवृत्ति) को सीखा ही नहीं है ।

ज्ञानी, कर्मी और भक्त, तीनो एक ही स्थान पर पहुँचते हैं, और वह स्थान है -आत्मत्याग ( self-

abnegation), जो व्यक्ति अपना जीवन दूसरों के लिये अर्पित करने को उद्द्त रहता है, उसके प्रति समग्र मानवता श्रद्धा और भक्ति से नत हो जाती है। भक्ति-मार्ग के आचार्य जब यह सिखाते हैं, कि

' ईश्वर' जगत से भिन्न है, 'जगत' से परे है' तो उनका वास्तविक मर्म यही रहता है। जगत एक चीज है और ईश्वर दूसरी; और यह भेद बिल्कुल सत्य है। 'जगत' कहने से उनका तात्पर्य रहता है 'स्वार्थपरता'। "Unselfishness is God." - स्वार्थशून्यता ही ईश्वर है! एक भक्त कहता है-"Thy will be done,"-प्रभो, तेरी इच्छा ही पूर्ण हो ! यही भक्त का आत्मत्याग है।

ज्ञानी कहता है- पहले अहं भाव को नष्ट कर डालो, और फिर समस्त संसार को आत्मस्वरूप देखो,-'उस बूढ़े आदमी को मरना ही चाहिये' "The old man must die." यहाँ 'बूढ़े आदमी' का अर्थ है, यह स्वार्थपर भाव कि यह संसार हमारे ही भोग के लिये बना है। एक ज्ञानी भी अपने ज्ञान (आत्मानुभूति) के द्वारा यह देखता है, कि उसका यह तथाकथित 'देहाध्यास'-या भासमान 'अहं' केवल और केवल एक भ्रम है; फिर वह उसे बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता है। यह भी आत्मत्याग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

राजयोगी जनक : जिन लोगों ने अपने मन पर विजय नहीं प्राप्त की है, उनके लिये यह संसार या तो बुराइयों से भरा है, या अधिक से अधिक अच्छाइयों और बुराइयों का एक मिश्रण है। परन्तु यदि हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर लें, तो यही संसार सुखमय हो जाता है। ज्योंही इस कल्पित 'अहं' का नाश हो जायगा, त्योंही वही संसार जो पहले अमंगल से भरा प्रतीत होता था, अब स्वर्गरूप और परमानन्द से पूर्ण प्रतीत होने लगेगा। यहाँ तक कि हवा भी बदलकर मधुमय हो जायेगी और प्रत्येक भक्ति भला प्रतीत होने लगेगा। यही है कर्मयोग की पूर्णता या सिद्धि। जनक एक बहुत बड़े राजा थे और 'विदेह' नाम से प्रसिद्द थे। 'विदेह' का अर्थ है, 'शरीर से पृथक'। यद्द्पि वे राजा थे, फिर भी उन्हें इस बात का तनिक भी अभिमान नहीं होता था कि वे एक 'शरीर' हैं। उन्हें तो सदा यही ध्यान रहता था कि वे आत्मा हैं। व्यासदेव के पुत्र बालक शुक का अपने पर ऐसा संयम था कि बिना उनकी इच्छा के संसार की कोई वस्तु उन्हें आकृष्ट नहीं कर सकती थी। जिस मनुष्य ने 'स्वयं' पर अर्थात मन (अहं) पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, उसके उपर बाहर की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उसके लिये फिर किसी प्रकार की दासता शेष नहीं रह जाती। there is no more slavery for him. His mind has become free.' उसका मन स्वतंत्र हो जाता है- अर्थात इन्द्रिय-विषय उसे कभी अपनी ओर खींच नहीं सकते -उसका विषयाश्रित मन 'एस्केप वेलोसिटी' पार्थिव वस्तुओं के गुरुत्वाकर्षण से परे होकर निरंतर 'ब्रह्मनिष्ठ मन' ही बना रहता है।

गीता का कर्मयोग - यदि कोई कार्य (देखना या घूरना भी ) तुम अपने लिये करोगे, तो उसका फल भी तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। अपने विषय में यह सोचना कि ' मैं तो संसार की सहायता के लिये पैदा हुआ हूँ।' यह केवल अहंकार है, निरी स्वार्थपरता है, जो धर्म की आड़ में हमारे सामने आती है। यह सोचना कि कोई कोई मेरे उपर निर्भर है तथा मैं किसी का भला कर सकता हूँ, एक दुर्बलता का चिन्ह है। यह अहंकार ही समस्त आसक्ति की जड़ है, और इस आसक्ति से ही समस्त दुःखों की उत्पत्ति होती है। हमें अपने मन को यह भली-भाँति समझा देना चाहिये कि इस संसार में कोई 'मेरे' ऊपर निर्भर नहीं है। एक भिखारी भी हमारे दान पर निर्भर नहीं है। किसी भी जीव को हमारी दया की आवश्यकता नहीं है, सबकी सहायता प्रकृति से होती है। अतएव हम देखते हैं कि कर्म, भक्ति और ज्ञान-तीनों यहाँ पर आकर मिल जाते हैं।

 यह उपलब्धि किसी प्रकार के मत, सिद्धान्त या विश्वास पर निर्भर नहीं है। प्रश्न तो यह है कि क्या तुम निःस्वार्थ हो ? यदि तुम हो, तो चाहे कोई शास्त्र नहीं पढ़ा हो, या मंदिर में न गए हो, फिर भी तुम पूर्णता को प्राप्त कर लोगे। हमारा प्रत्येक योग बिना किसी दूसरे योग की सहायता के भी मनुष्य को पूर्ण बना देने में समर्थ है, क्योंकि उन सबका लक्ष्य एक ही है। कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग - सभी मोक्ष-लाभ के लिये सीधे और स्वतंत्र उपाय हो सकते हैं। सांख्ययोगौ पृथग् बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः । गीता५/४ केवल अज्ञ ही कहते हैं कि कर्म और ज्ञान भिन्न भिन्न हैं, ज्ञानी नहीं।

श्रवण-मनन-निदिध्यासन :  इस आदेश का मर्म क्या है ?  सारा रहस्य अभ्यास में ही है। पहले श्रवण करो, फिर मनन करो और फिर अभ्यास करो। यदि कुछ बातें आरम्भ में स्पष्ट न हों, तो निरंतर श्रवण एवं मनन से वे स्पष्ट होने लगती हैं। वास्तव में कभी कोई व्यक्ति किसी दूसरे को नहीं सिखाता, हममें से प्रत्येक को अपने आप को सिखाना होगा। बाहर के गुरु तो केवल उद्दीपक मात्र हैं, जो हमारे अन्तःस्थ गुरु (मन) को सब विषयों का मर्म समझने के लिये  उद्बोधित कर देते हैं। तब बहुत सी बातें हमारी स्वयं की विचार-शक्ति से स्पष्ट हो जाती है। और उनका अनुभव हम अपनी ही आत्मा में करने लगते हैं।और यह अनुभूति ही हमारी प्रबल इच्छा-शक्ति में परिणत हो जाती है। पहले यह भावना होती है, फिर इच्छा, और उस इच्छा-शक्ति से कर्म करने की वह प्रचण्ड शक्ति पैदा होती है, जो तुम्हारी प्रत्येक नस, प्रत्येक शीरा और प्रत्येक पेशी में प्रवाहित होकर तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर को इस निष्काम कर्मयोग का एक यंत्र बना देती हैं। और इसके फलस्वरूप हमें अपना वांछित पूर्ण आत्मत्याग एवं परम निःस्वार्थपरता प्राप्त हो जाती है।

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१५.

आचार्य या नेता के गुण !

श्लोक १५ : नाहमग्रे कदापि स्यामन्ये सन्तु पुरः सदा। त्यागेsस्मि प्रथमो नित्यं त्यागः श्रेयान् मतं ध्रुवम्॥

  - अर्थात एक वीर या सच्चा नेता जहाँ कोई सुविधा- विशेषाधिकार मिलने की बात हो, वहाँ दूसरों को अपने आगे खड़ा करेगा, और स्वयं को सदा पीछे रखेगा। किन्तु जहाँ देशवासियों की सेवा के लिये अपने जीवन का बलिदान चढ़ा देने वालों की लाईन लगानी हो; वहाँ वीर (हीरो या नेता) कहता है - ' मुझे तोड़ लेना बनमाली उस पथ पर देना तुम फेंक मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएँ वीर अनेक ! जहाँ खड़ा होता हूँ-लाईन वहीं से शुरू होती है!' - 'Myself first.'-

प्रसंग : [ नीतिशास्त्र का सम्पूर्ण विधान धर्म की आवश्यकता-२/१९१ एवं ७ जून १८९६, लन्दन से भगिनी निवेदिता को लिखित पत्र ]

विषयवस्तु :  [ पाणिनीय व्याकरण के अनुसार काँच, मणि और स्वर्ण को एक ही श्रेणी में रख कर माला बना रही हूँ!] अहंता का पूर्ण उच्छेदन ही नीतिशास्त्र का आदर्श है। नैतिकता का समग्र क्षेत्र, ध्येय और विषय व्यक्ति ('काचा आमी' का ) उच्छेदन है, न की उसका निर्माण। किन्तु जब किसी व्यक्ति को यह कहा जाता है कि तुम अपने व्यक्तित्व की चिंता मत करो, उसका हनन करो - तो वह उसके विनष्ट होने के भय से काँप उठता है।"

हमारी इन्द्रियाँ कहती हैं- 'Myself first' ' अपने को आगे रखो ', पर नीतिशास्त्र कहता है- 'अपने को सबके अन्त में रखो।' इस तरह नीतिशास्त्र का सम्पूर्ण विधान (all codes of ethics) त्याग पर ही आधारित है। उसकी पहली मांग है कि भौतिक स्तर पर अपने व्यक्तित्व (M/F) का हनन करो, निर्माण नहीं।

नवनीदा का सिद्धान्त : ' सिग्नेचर करो और फाड़ कर डस्टबिन में फेंकते रहो'-  क्यों ? तुम तो स्वरूपतः असीम आत्मा हो, किन्तु भ्रम के कारण स्वयं को नाशवान शरीर मानकर असीम शक्ति को व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हो, उसकी अभिव्यक्ति इस भौतिक स्तर पर नहीं हो सकती, ऐसा असम्भव है, अकल्पनीय है।
 सभी धर्मों का यह निर्णय है कि एक कोई 'आदर्श अमूर्त सत्ता' (Ideal Unit Abstraction) अवश्य है जो किसी विधान या सत या सार-तत्व के रूप में अवतरित होता रहता है। प्रत्येक मनुष्य अपने लिये कोई न कोई अपरिमित शक्तिवाला आदर्श रखता ही है -चाहे उसका रूप कैसा भी हो! Every human being has an ideal of infinite pleasure. प्रत्येक मनुष्य के सामने सुख का प्रतिक कोई न कोई आदर्श (सुख-धाम) रहता ही है। हम निरंतर उस आदर्श तक अपने को उठाने का प्रयास करते रहते हैं।
हमारे चारो ओर अनेकानेक कार्य हो रहे हैं, (प्रातः काल सूरज निकलता है, कमल खिल जाता है, वर्षा का पानी मिट्टी पर गिर कर सुख जाता है...) उनमें से अधिकांश कार्य असीम शक्ति अथवा असीम आनन्द के आदर्श तक पहुँचने के निमित्त ही किये जा रहे हैं। किन्तु बहुत थोड़े से लोगों को (जो नियमित पाठचक्र में जाते रहते हैं) शीघ्र ही यह पता चल जाता है, कि अनन्त शक्ति लाभ (स्वर्ग का राजा इन्द्र बनने और असीम आनन्द का भोग करने) के निमित्त जो प्रयास अपनी इच्छा से वे कर रहे हैं, उनकी प्राप्ति इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में उन्हें इन्द्रियों की सीमा का ज्ञान हो जाता है। देर-सबेर मनुष्य को इस सत्य का ज्ञान हो ही जाता है, कि सीमित माध्यम से असीम की अभिव्यक्ति असम्भव है, और तब वह परिमित माध्यम से अनन्त को व्यक्त करने का प्रयास करना त्याग देता है। (इन्द्रिय भोगों में असीम सुख खोजने के) प्रयास का यह परित्याग ही, नैतिकता की पृष्ठभूमि है।


[ किसी को यह मालूम हो जाय कि खीर में छिपकिली गिर गयी है, तो क्या कोई उस खीर को खायेगा ? ठीक उसी प्रकार - विषयों से मिलने वाला विषय-सुख विष के ही समान है। विषय-सुख विष के ही समान है को सिद्ध करने के लिये, पाणिनि के एक सूत्र - शव्युवमघोनामतद्विते (तद्यथा श्वा= कुक्कुरो, युवा= युवको, मघवन= इन्द्र)  इमे त्रयः समानमेव विषय­लोलुपाः कामुकाः स्वार्थान्धाश्च। पा.सू. ६-४-१३३) का सन्त तुलसीदास ने अद्भुत प्रयोग किया है। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार, श्वन, युवन और मघवन- ये तीनों समानरूप रूप से विषयलोलुप, कामी और स्वार्थी  हैं; व्याकरण में इन तीन शब्दों के रूप भी एक सरीखे होते हैं । हालांकि पाणिनि ने इन्द्र को श्व (कुत्ते ) की श्रेणी में रखने के इरादे से उनका सूत्र नहीं लिखा था पर तुलसीदास ने पाणिनि के ही मुख से इन्द्र का तिरस्कार कराकर अपने रचना चातुर्य का अद्भुत परिचय दिया है।
-लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू॥

एक कवि राजमहल में प्रवेश करने पर देखता है, राजा के मालिन की युवा पुत्री  माला बनाने में इतनी बेसुध है कि काँच, मणि और स्वर्ण के दानों को एक ही धागे में पिरो रही है ! तीनों को अलग अलग श्रेणी में बाँट कर उसकी माला क्यों नहीं बनाती ? वह पूछता है -


 काचं मणिं काञ्चनमेकसूत्रे ग्रथ्नासि बाले किमु चित्रमेतत्? 

 हे राजा के मालिन की बेटी, तुम इन काँच, मणि और स्वर्ण के दानों को एक ही सूत्र की विचित्र माला में क्यों पिरोती हो? उस मालिन की बेटी ने कहा -


अशेषवित्पाणिनिरेकसूत्रे श्वानं युवानं मघवानमाह॥

 क्योंकि कुत्ता, युवा या इंद्र कोई भी क्यों न हो, विषयों से मिलने वाला सुख तो बहुत बड़ो विपत्ति में डालने वाला ही होता है। मनुष्य को छप्पन भोग में जो सुख मिलता सूअर को विष्ठा खाने में वही सुख मिलता है।  मनुष्य को विषयों में जितना सुख मिलता है, उससे लाखों गुना तीव्र सुख इन्द्र को स्वर्ग में प्राप्त होता है, पर है तो विष के ही समान। यही सोच कर मैं इन तीनों- काँच, मणि और स्वर्ण को एक ही श्रेणी में रख कर माला बना रही हूँ!]

हमारे शास्त्रों का कहना है, कि इंद्रियों के माध्यम से असीम सामर्थ्य अथवा असीम आनन्द को प्राप्त करने के क्रम में मनुष्य अपने जिस निरर्थक व्यक्तित्व (अहं M/F) की धारणा से चिपटा रहता है, उसे छोड़ना पड़ेगा। उपरोक्त उदाहरण को देखकर यह सिद्ध हो जाता है कि असीम आनन्द की खोज में मनुष्य इन्द्रियों की सीमा से बाहर जाना चाहता है। किन्तु इस व्याख्या को रहस्यात्मक रूप देने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे तो यह बिल्कुल स्वाभाविक लगता है कि धर्म की पहली झाँकी स्वप्न में मिली होगी। स्वप्नावस्था में जब शरीर प्रायः मृत सा हो जाता है, तब भी मन के समस्त जटिल क्रिया-कलाप चलते रहते हैं। अतः इसमें क्या आश्चर्य यदि मनुष्य हठात यह निष्कर्ष निकाल ले कि इस शरीर के विनष्ट हो जाने पर भी इसकी क्रियाएँ जारी रहेंगी ? 

स्वप्नावस्था में मनुष्य का कोई नया अस्तित्व नहीं हो जाता, बल्कि वह जाग्रतावस्था के अनुभवों का ही स्मरण करता है। मनुष्य का मन कुछ खास क्षणों में इन्द्रियों की सीमाओं के ही नहीं, बुद्धि की शक्ति के भी परे पहुँच जाता है।

मुझे पूरा यकीन है, कि तुम्हारे मन से मौत का मिथ्याभय (देहाध्यास या superstition) निकल चूका है; और तुम्हारे भीतर वह शक्ति जाग्रत हो चुकी है- जो सम्पूर्ण जगत को झकझोर देगी ! और भविष्य में ऐसे दूसरे लोग भी (भी ऋषि बनेंगे) आयेँगे। Awake, awake, great ones! The world is burning with misery. Can you sleep? जागो ! जागो ! हे वीरों मोहनिद्रा से जागो; सारा जगत दुःख से जल रहा है- क्या तुम सो सकते हो ?

हम बार-बार पुकारें जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अंतर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन को सार्थक करने के लिये,क्या इससे भी (Be and Make से भी ) कोई महान कार्य हो सकता है ? मैं जैसे ही ' बनो और बनाओ ' आन्दोलन को और अधिक तीव्रता से प्रसारित करने की बात सोचता हूँ, सारी कार्य-पद्धति मेरे समक्ष उजागर हो जाती है। मैं पहले से कोई योजना नहीं बनाता। योजनायें खुद बी खुद पैदा होती हैं, स्वतः यथार्थता में रूपान्तरित हो जाती हैं। मैं केवल कहता हूँ--जागो, जागो !


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१६.


कम अप, ओ लॉयन्स ! एण्ड शेक ऑफ द डिलूज़न दैट यू आर शीप !

श्लोक १६: न त्वं पापी न दौर्बल्यं कदापीदृशमाश्रय । पौरुषञ्च पुनर्वार्ता ह्यात्मश्रद्धा महद्बलम् ॥ 

 १. ' तुम इस मर्त्यभूमि पर देवता हो--तुम भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप (ईश-निन्दा) है, वह मानव-स्वरुप घोर लांछन है !

२.यदि जगत में कोई पाप है, तो वह है दुर्बलता।

३. अन्धकार कभी था ही नहीं, दुर्बलता कभी थी ही नहीं। हम लोग मुर्ख होने के कारण चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही हम चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं। 

४.  " जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है, उतना ही अधिक मुझे लगता है कि  'पौरुष' ( बहादुरी manliness) में सभी बातें शामिल हैं। यह मेरा नया संदेश (सिद्धान्त या महावाक्य-Gospel)  है।

५. श्रद्धा श्रद्धा ! अपने आप पर श्रद्धा, परमात्मा में श्रद्धा, यही महानता का एकमात्र रहस्य है!

६. 'यदि तुम अपने को वीर्यमान सोचोगे तो वीर्यमान बन जाओगे।

७." अपने 'आप ' में विश्वास रखो --सब 'शक्ति ' तुममें है--इसके प्रति सचेत हो जाओ और उसे प्रकाशित  करो।

८. 'हमें (भारत को ) आज जिस चीज चीज की सर्वाधिक आवश्यकता है - वह है नचिकेता जैसी श्रद्धा!    प्रसंग : " जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है, उतना ही अधिक मुझे लगता है कि मात्र एक शब्द - 'पौरुष (manliness)' कहने से ही मेरे समग्र जीवन और सन्देश को समझा जा सकता है ! यह मेरा नया संदेश (महावाक्य-Gospel) है ! "

[******** (१ हिन्दू धर्म पर निबन्ध १/१२)> (२. रामनाड स्वागत भाषण का उत्तर : ५/४७)>(३.व्यवहारिक जीवन में वेदान्त-१ वि० सा० ख० ८/ ७)> (४. सूक्तियाँ एवं सुभाषित१६: ८/१३०) >(५. वेदान्त का उद्देश्य वि ० सा ० ५/८६) >(६. जाफ़ना में भाषण 'वेदान्त' वि० सा० ५/२६) > (७. २५ सितम्बर, १८९४ को गुरुभाइयों के लिये बंगला में लिखित पत्र)> (८. कोलकाता-अभिनंदन का उत्तर)]

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 उठो, हे सिंहों ! और इस भ्रम को झटक कर दूर फेंक दो कि

तुम भेंड़ हो; तुम तो आत्मा हो - अजर, अमर, अविनाशी और मुक्त !

 (Paper on Hinduism:  Read at the Parliament on 19th September, 1893)

विषयवस्तु : " ये डीविनिटीज़ औन अर्थ--सिनर्स ? ईटीज़ अ सीन टु कॉल अ मैन सो ; ईटीज अ स्टैंडिंग लाइबल (निन्दा) औन ह्यूमन नेचर ! कम अप, ओ लॉयन्स ! एण्ड शेक ऑफ द डिलूज़न दैट यू आर शीप; यू आर सोल्स इम्मॉर्टल, स्पिरिट्स फ्री, ब्लेस्ड एण्ड इटरनल ! ये आर नॉट मैटर, ये आर नॉट बॉडीज; मैटर इज योर सर्वेन्ट, नॉट यू द सर्वेन्ट ऑफ़ मैटर।"

" तुम इस धरती के देवता हो--तुम भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप (ईश-निन्दा) है, वह मानव-स्वरुप घोर लांछन है ! उठो, हे सिंहों ! और इस भ्रम को झटक कर दूर फेंक दो कि तुम भेंड़ (शरीर-इन्द्रिय) हो; तुम तो आत्मा हो - अजर, अमर, अविनाशी और मुक्त ! तुम जड़, नश्वर शरीर नहीं हो, तुम तो आनन्दमय और नित्यचेतन आत्मा हो ! तुम नश्वर पदार्थ, मरण-धर्मा जड़ शरीर- नहीं हो ! नश्वर जड़ शरीर और मन तो तुम्हारा दास है, अविनाशी आत्मा कभी जड़ शरीर और मन का दास नहीं हो सकती !" (हिन्दू धर्म पर निबन्ध १/१२)  

२. पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के रंग में रंगे व्यक्ति ' यूरोपियनाइज्ड मनुष्य '(मनमोहन सिंह-राहुल  टाइप) में रीढ़ की हड्डी ही नहीं होती, वह इधर-उधर के विभिन्न स्रोतों से संगृहीत विरोधाभासी विचारों की गठरी होता है। वह (अपने महान पूर्वजों या ऋषियों के महावाक्यों से अपरिचित रहता है, इसलिये ) अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता, उसका सिर हमेशा चक्कर खाया करता है। वह जो मूर्ति-पूजा को कोसता रहता है, या अपने शास्त्रों की खिल्ली उड़ाया करता है, उसके तह में गोरी चमड़ी वालों से थोड़ी शाबाशी पाने की इच्छा होती है ! गोरी-चमड़ी की शाबाशी पा लेना ही उसके तथाकथित अल्पसंख्यक-विशेष समाजसेवा की प्रेरक शक्ति होती है। मैं ऐसी दिखावटी समाज-सेवा का समर्थन नहीं कर सकता ! "

पर-मुखापेक्षी न बनो, अपने ही बल पर खड़े रहो- चाहे जीवित रहो या मर जाओ। यदि जगत में कोई पाप है, तो वह है दुर्बलता। दुर्बलता ही मृत्यु है, दुर्बलता ही पाप है, इसीलिये सब प्रकार की दुर्बलताओं (दूसरों की नकल करने और परमुखापेक्षी होने) का त्याग कर दो। ये असन्तुलित प्राणी (यूरोपीय क्लबों के गोल्फर्स) अभी तक निश्चित व्यक्तित्व में अपने जीवन को गठित नहीं कर सके हैं; हम उन्हें (बाढरा---ओं) को किस नाम से पुकारें -मनुष्य या पशु ? (रामनाड स्वागत भाषण का उत्तर : ५/४७ का भावानुवाद) 

जो व्यक्ति या देश वर्तमान में केवल भोग-विलास और ऐश्वर्य के उपासक हैं, वे चाहे इस समय कितने ही बलशाली और धनाड्य क्यों न प्रतीत हो रहे हों, अन्त में अवश्य विनष्ट हो जायेंगे तथा संसार से विलुप्त भी हो जायेंगे। पाश्चात्य देशों ( या अंग्रेजियत  की गुलाम कांग्रेस पार्टी ) में भी ऐसे बहुत से विचारशील और विवेचनशील महान व्यक्ति हैं, जो धन और बाहुबल की इस घुड़दौड़ को बिल्कुल अनावश्यक और मिथ्या समझने लगे हैं। वहाँ के अधिकांश शिक्षित स्त्री-पुरुष, अब इस होड़ से, इस प्रतिद्वन्तविता से ऊब गये हैं। वे अपनी इस व्यापार-वाणिज्यिक सभ्यता (commercial civilisation) की पाशविकता से तंग आ चुके हैं, उनकी धारणा बदल रही है, उनका आदर्श परिवर्तित हो रहा है, और अब वे कोई बेहतर वस्तु पाने की दिशा ' भारत ' (सुप्रीम कोर्ट के जज श्री ए आर दवे का भारत = गीता-महाभारत) ' की और देख रहे हैं।

वे अच्छी तरह से समझ गये हैं कि चाहे जैसी भी राजनीतिक या सामाजिक उन्नति क्यों न हो जाये, उससे मनुष्य-जीवन की बुराइयाँ (दिल्ली की निर्भया और यूपी की बदायूँ जैसी घटनायें) दूर नहीं हो सकतीं। उन्नततर जीवन के लिये मनुष्य के तीनों प्रमुख अवयव (3H) 'शरीर (Hand) मन (Head) और ह्रदय (Heart)' में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है; केवल इसी से मानव-जीवन का सुधार सम्भव है। चाहे जैसी बड़ी से बड़ी शक्ति का प्रयोग किया जाय (यूपी में धारा ३५६ लगाकर चाचा-भतीजे की सरकार को भंग कर दिया जाय), और चाहे कड़े से कड़े कायदे-कानून का आविष्कार ही क्यों न किया जाय, पर इससे भी किसी (राज्य या) राष्ट्र की दशा बदली बदली नहीं जा सकती। समाज या जातिवाद की असद-वृत्तियों (wrong racial tendencies-ज.द.यू -आर.जे.डी-काँग्रेस की तिकड़ी) को सद-वृत्तियों में मोड़ने की शक्ति केवल आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति में ही है; और यह कार्य केवल - 'राष्ट्र के चरित्र-निर्माण' द्वारा ही सम्भव है !" ५/७९

३. जिस क्षण तुम कहते हो, ' मैं तो क्षुद्र मरणधर्मा शरीर मात्र हूँ' (I am a little mortal being)--तुम झूठ बोलते हो !  यही बोल बोल कर, सोच सोच कर - तुमने मानो स्वयं सम्मोहित कर रखा है, और अपने को अधम, दुर्बल, अभागा न जाने क्या क्या बना डालते हो! " (आमरा मायेर छेले ! इसलिये)  " वह शक्ति जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (ग्रह-नक्षत्रों) को संचालित करती है - हमें पहले से प्राप्त है ! हम लोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर चीत्कार करते हैं- बड़ा अन्धेरा है, बड़ा अन्धेरा है। जान लो कि हमारे चारों ओर कोई अन्धकार नहीं है। हाथ हटा लेने पर ही तुम देखोगे कि वहाँ प्रकाश पहले से ही वर्तमान था। ' Darkness never existed, weakness never existed.' अन्धकार कभी था ही नहीं, दुर्बलता कभी थी ही नहीं। हम लोग मुर्ख होने के कारण चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही हम चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं। (व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-१ वि० सा० ख० ८/ ७) 

५. जब मैं अमेरिका मे था, तब कई बार लोगों ने मेरे ऊपर यह अभियोग लगाया था कि मैं द्वैतवाद पर विशेष ज़ोर नहीं देता, केवल अद्वैतवाद का ही प्रचार किया करता हूँ। द्वैतवाद की अपूर्व महिमा को मैं भली भाँति समझता हूँ, प्रेम, भक्ति और उपासना में कैसा अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है, यह मैं जानता हूँ। परंतु भाइयो ! अभी हमारे आनन्द से पुलकित होकर प्रेमाश्रु बरसाने का समय नहीं है। इस समय एचएम लोगों के पास कोमल भाव धारण करने का समय नहीं है।

हमारे देश के लिये इस समय आवश्यकता है, लोहे की तरह ठोस मांस-पेशियों और मजबूत स्नायुवाले शरीरों की। आवश्यकता मन को इतना दृढ़ इच्छा-शक्तिसम्पन्न बना लेने की कि कोई उसका प्रतिरोध करने में समर्थ न हो। आवश्यकता है ऐसी अदम्य इच्छा-शक्ति की, जो ब्रह्माण्ड के सारे रहस्यों को भेद सकती हो। यदि यह कार्य करने के लिये अथाह समुद्र की तली तक भी जाना पड़े, इस प्रयास में सब तरह से मौत का ही सामना क्यों न करना पड़े, तो भी हमें यह काम करना ही पड़ेगा।

 " Faith, faith, faith in ourselves, faith, faith in God — this is the secret of greatness." श्रद्धा श्रद्धा ! अपने आप पर श्रद्धा, परमात्मा में श्रद्धा, यही महानता का एकमात्र रहस्य है! यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर, और विदेशियों ने बीच बीच में जिन देवताओं (साईं बाबाओं) को तुम्हारे बीच घुसा दिया है उन सब पर भी, यदि तुम्हारी श्रद्धा हो, पर अपने आप पर श्रद्धा न हो, तो तुम कदापि मोक्ष (मूँछ रखने के भी) के अधिकारी नहीं हो सकते। अपने आप पर श्रद्धा करना सीखो ! इसी आत्मश्रद्धा के बल से अपने पैरों आप खड़े होओ, और शक्तिशाली बनो! इस समय हमें इसीकी आवश्यकता है, हम सवा सौ करोड़ भारतवासी हजारों वर्ष से मुट्ठी भर विदेशियों (आजादी के बाद इटली) के द्वारा शासित और पददलित क्यों हैं ? … हमने अपनी आत्मश्रद्धा खो दी है। इसीलिये अब वेदान्त के अद्वैतवाद के भावों का प्रचार करने की आवश्यकता है, ताकि लोगों के ह्रदय आलोकित हो जाएँ, और वे अपनी आत्मा की महत्ता समझ सकें। इसीलिये मैं अद्वैतवाद का प्रचार करता हूँ।" (५/८६Lectures from Colombo to Almora:The mission of the Vedanta )

हमारे शास्त्रों में परमात्मा के दो रूप कहे गये हैं- सगुण (the personal) और निर्गुण (the impersonal)। वह निर्गुण और सर्वव्यापी पुरुष ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता; क्योंकि ज्ञान मानव मन का धर्म है। वह चिन्तनशील नहीं कहा जा सकता; क्योंकि चिन्तन ससीम जीवों के ज्ञानलाभ का उपाय मात्र है। वह सृष्टिकर्ता भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जो बंधन में है --वही सृष्टि की ओर प्रवृत्त होता है। उसका बंधन क्या हो सकता है? कोई बिना प्रयोजन के कोई काम नहीं कर सकता, उसे फिर प्रयोजन क्या है ? कामना पूर्ति के लिये ही सब कार्य करते हैं। उन्हें क्या कामना है ?

वेद में निर्गुण ब्रह्म के लिये ' सः ' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया; 'सः' शब्द द्वारा निर्देश न करके ब्रह्म का निर्गुण भाव समझाने के लिये 'तत्' शब्द द्वारा उसका निर्देश किया गया है। ' सः ' शब्द के कहे जाने से वह व्यक्तिविशेष हो जाता, इसके कारण जीव-जगत के साथ उसका सम्पूर्ण पार्थक्य सूचित हो जाता है। इसलिये निर्गुणवाचक ' तत् ' शब्द का प्रयोग किया गया है और 'तत्' शब्द से निर्गुण ब्रह्म का प्रचार हुआ है। इसीको अद्वैतवाद कहते हैं।

 इस निर्गुण पुरुष के साथ हमारा क्या संबंध है ? यह कि हम उससे अभिन्न हैं, वह और हम एक हैं। हर एक मनुष्य 'उसी' समस्त प्राणियों का मूल कारण -निर्गुण पुरुष की अलग अलग अभिव्यक्ति है। जब हम इस अनन्त और निर्गुण पुरुष से अपने को पृथक सोचते हैं तभी हमारे दुःख की उत्पत्ति होती है और इस अनिवर्चनीय प्रेम स्वरुप निर्गुण सत्ता के साथ अभेद ज्ञान ही मुक्ति है।

निर्गुण ब्रह्मवाद हमें सिखाता है कि सभी मनुष्यों को आत्मवत प्रेम करना चाहिये। यह तुम तभी समझोगे, जब तुम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकात्मकता, विश्व की एकता और जीवन के अखण्डत्व का अनुभव करोगे--जब तुम संजोगे कि दूसरे को प्यार करना अपने को ही प्यार करना है--दूसरों को हानि पहुँचाना अपनी ही हानि करना है। तभी हम समझेंगे कि दूसरे का अहित करना क्यों अनुचित है। अतएव, यह निर्गुण ब्रह्मवाद ही आचरण-शास्त्र का मूल कारण माना जा सकता है। ' मैं ही वह निर्गुण ब्रह्म हूँ '--इस ज्ञान के सहारे अपने ही पैरों पर खड़े होने से ह्रदय में कैसी अद्भुत शक्ति भर जाती है।

और फिर भय ? मुझे किसका भय है ? मैं प्रकृति के नियमों की भी परवाह नहीं करता। मृत्यु मेरे निकट उपहास है। मनुष्य तब उसी आत्मा की महिमा में प्रतिष्ठित हो जाता है, जो असीम,अनन्त है, अविनाशी है, जिसे कोई शस्त्र छेड़ नहीं सकता, आग जला नहीं सकती, जल गिला नहीं कर सकता, वायु सुखा नहीं सकती--जो जन्म-मृत्यु रहित है, तथा जिसकी महत्ता के सामने सूर्यचन्द्रआदि , यहाँ तक कि सारा ब्रह्माण्ड सिन्धु में बिन्दु तुल्य प्रतीत होता है, --जिसकी महत्ता के सामने (space melts away into nothingness and time vanishes into non-existence.) देश और काल का भी अस्तित्व लुप्त हो जाता है।

हमें अपने इसी सच्चे  स्वरुप पर, इसी महामहिम आत्मा पर विश्वास करना होगा। इसी इच्छा  ('will') से शक्ति ('power') प्राप्त होगी ! तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे, तो तुम दुर्बल हो जाओगे; " if you think yourselves strong, strong you will be' यदि तुम अपने को वीर्यमान सोचोगे तो वीर्यमान बन जाओगे। यदि तुम अपने को अपवित्र सोचोगे तो तुम अपवित्र हो जाओगे; अपने को शुद्ध सोचोगे तो शुद्ध हो जाओगे। इससे हमको यही शिक्षा मिलती है कि एचएम अपने को कमजोर न समझें, प्रत्युत अपने को वीर्यवान, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ मानें। बिल्कुल बचपन से ही बच्चों को बलवान बनाओ--उन्हें दुर्बलता या किसी बाहरी अनुष्ठान कि शिक्षा न दी जाय। वे तेजस्वी हों, अपने ही पैरों पर खड़े हों सकें --साहसी, सर्वविजयी, सब कुछ सहने वाले हों; किन्तु सबसे पहले उन्हें आत्मा (या feeling faculty of Heart) की महिमा की शिक्षा मिलनी चाहिये। यह शिक्षा वेदान्त में--केवल वेदान्त में प्राप्त होगी। केवल वेदान्त के महावाक्यों मे ही वह महान तत्व है जिससे सारे संसार के भावजगत में क्रान्ति आ जायगी ओर भौतिक जगत के ज्ञान के साथ धर्म का सामंजस्य स्थापित होगा। शिक्षा वही सार्थक सिद्ध होती है जो हमारे भीतर की उस छिपी शक्ति को बाहर लाने में मदद करे ! उठो ! जागो ! जानकर लोगों के पास जाकर उस शिक्षा को प्राप्त करो, और कहो, " मैं सब कुछ कर सकता हूँ !"
सत्यमेव जयते नानृतम अन्ततः सत्य (आत्मा) की ही जय होती है न कि असत्य (शरीर-मन) की। अनृत - असत् (शरीर-मन ही माया है) तात्कालिक है उसकी उपस्थिति भ्रम है। वह भासित सत्य है वास्तव में वह असत है अतः वह विजयी नहीं हो सकता. ईश्वरीय मार्ग सदा सत् से परिपूर्ण है। सत् शब्द उसके लिए आया है जो सृष्टि का मूल तत्त्व है, सदा है, जो परिवर्तित नहीं होता, जो निश्चित है. इस सत् तत्त्व को ब्रह्म अथवा परमात्मा कहा गया है। असत शब्द का प्रयोग माया के लिए हुआ है. असत् उसे कहा है जो कल नहीं था, आज है, कल नहीं रहेगा अर्थात जो विनाशशील है, परिवर्तन शील है. यहाँ असत् का अर्थ झूठ नहीं है। चेकोस्लोवाकिया के  आदर्श वाक्य "प्रावदा विजीते " ("सत्य जीतता है") का भी समान अर्थ है। सत्-जन मिलकर सज्जन शब्द बनता है। प्रत्येक व्यक्ति सज्जन नहीं होता। इसी तरह सत् युक्त होने पर ही सत्पुरुष की स्थिति बनती है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि सत्यनिष्ठा ही धर्मनिष्ठा, कर्मनिष्ठा और ब्रह्मनिष्ठा है। सत्य परेशान भले हो मगर पराजित नहीं होता।

सत्य परेशान भी क्यों होता है? अध्यात्म विज्ञान स्पष्ट करता है कि सत्यनिष्ठा में अंशमात्र का वैचारिक प्रदूषण  (अल्प द्वैत-भाव भी) यथा सामर्थ्य  परेशानी का कारण बन जाता है। सत् को परिभाषित करते हुए 'रानी मदालसा' ने अपने पुत्र अलर्क की ताबीज में एक  उपदेशपत्र में लिख दिया था - ‘‘संग (आसक्ति) सर्वथा त्याज्य है !" और  कहा था कि- इसे विषम परिस्थिति आने पर इसे खोलकर पढ़ लेना। यदि संग त्यागने में परेशानी महसूस हो तो सत् से आसक्ति रखें यानी सत्संग करो इसी तरह कामनाएं अनर्थ का कारण हैं, जो कभी नहीं होनी चाहिए। कामना न त्याग सको तो सिर्फ मोक्ष की कामना करो।’’

अन्तःचतुष्टय में बुद्धि के बाद चित्त, अहंकार में ब्रह्मरूपी सत् समावेश होते ही मन पर नियंत्रण पाया जा सकता है। 'उद्धरेत् आत्मा आत्मानम्'—One must save the self by one's own self"—अपनी आत्मा (अवशिभूत मन को वशीभूत करके) के सहारे ही 'अपना'-- उस यथार्थ मैं (आत्मा) का उद्धार करना पड़ेगा; जो जन्म-जन्मान्तर से 'मन ' (सूक्ष्म शरीर)  के साथ अपना तादात्म्य मानकर संसार चक्र में फँसती चली आ रही है! इसलिये अष्टांग योग  पहला अंग 'यम' के प्रथम सोपान में 'सत्' को रखा गया है। कामना-वासना मन (या सूक्ष्म शरीर) में केंद्रित रहती हैं। जो इन्द्रियों की अभिरुचि के आधार पर प्रगाढ़ होती है। कामनाओं का मकड़जाल ही तृष्णा है। संतोष रूपी परमसुख प्राप्त होने से तृष्णा का मकड़जाल टूट जाता है। मन में छुपी कामनाओं के शांत हो जाने से आचरण नियंत्रित हो जाता है। ‘‘आचारः परमो धर्मः’’ आचरण में सत् का समावेश ही सदाचार कहा गया है। ऐसे में कदाचार की कोई गुंजाइस नहीं रहती, मनसा-वाचा-कर्मणा लेश मात्र भी कदाचार दिखे तो मान लो कि यहां सत्यनिष्ठा का सिर्फ दिखावा है। सदाचार स्वच्छ मनोदशा का द्योतक है।

न्यूयार्क से २५ सितम्बर, १८९४ को गुरुभाइयों के लिये बंगला में लिखित पत्र में स्वामी जी कहते हैं - राजनीती में भाग मत लेना। किन्तु जन-प्रतिनिधियों को चाहे वे किसी भी दल के हों, अनावश्यक रूप से शत्रु नहीं बनाना चाहिये।. . . Will such a day come when this life will go for the sake of other's good? क्या ऐसा दिन कभी आयेगा कि दूसरों के कल्याण के लिये मेरी जान जायेगी ? महापुरुष वे हैं, जो अपने ह्रदय के रक्त से दूसरों का रास्ता तैयार करते हैं--अनन्त काल से ऐसा ही होता आया है। एक आदमी अपना शरीर पात करके एक सेतु का निर्माण करता है, और हजारों आदमी उसके उपर से नदी पार करते हैं। "एवमस्तु, एवमस्तु, शिवोऽहं शिवोऽहं"— Be it so! Be it so! I am Shiva! I am Shiva!" हे ईश्वर ! मैं भी केवल देश के लिये जीना सीख जाऊँ ! यही वरदान मुझे दो ! ऐसा ही हो ! ऐसा ही हो !सबके साथ मिलना होगा, किसी को अपने से दूर नहीं करना होगा। अशुभ शक्तियों के विरुद्ध- शुभ शक्तियों को संगठित होकर खड़े होना पड़ेगा।

हमें ' अभीः ' --निर्भय होना होगा, तभी हम अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करेंगे। उठो, जागो, तुम्हारी मातृभूमि को इस महाबली की आवश्यकता है। इस कार्य की सिद्धि युवकों से ही हो सकेगी। उन्हीं के लिये यह कार्य है। उठो--जागो, संसार तुम्हें पुकार रहा है। भारत के अन्य प्रांतों में बुद्धि है, धन भी है, परन्तु उत्साह की आग केवल बंगाल में ही है ! तुम यह कहानी जानते होगे, कि बाजश्रवा के पुत्र नचिकेता के हृदय में श्रद्धा का आविर्भाव किन परिस्थितियों में हुआ था ?  मैं तुम्हारे लिये इस ' श्रद्धा ' शब्द का अंग्रेजी अनुवाद न करूँगा, क्योंकि वह ग़लत होगा । समझने के लिये --अर्थ की दृष्टि से यह एक अद्भुत शब्द है, और बहुत कुछ तो अलग अलग व्यक्तियों द्वारा इसका वास्तविक अर्थ समझने पर निर्भर करता है। हम देखेंगे कि यह किस तरह शीघ्र फल देने वाली है। क्योंकि श्रद्धा के आविर्भाव के साथ ही हम नचिकेता को स्वयं से इस प्रकार बातचीत करते हुए देखते हैं -' मैं बहुतों श्रेष्ठ हूँ, कुछ लोगों से तुच्छ भी हूँ, परन्तु कहीं भी ऐसा नहीं हूँ कि सबसे अधिक गया गुजरा होऊँ ? अतः मैं भी कुछ कर सकता हूँ ! '

 " अंधा, बिल्कुल अंधा है वह, जो समय के चिन्ह नहीं देख रहा है, नहीं समझ रहा है। क्या तुम नहीं देखते हो, वह दरिद्र ब्राह्मण बालक (गदाधर) जो एक दूर गाँव (कामार पुकुर) में -जिसके बारे में तुममें से बहुत कम ही लोगों ने सुना होगा --जन्मा था, इस समय सम्पूर्ण संसार में पूजा जा रहा है; और उसे वे पूजते हैं, जो शताब्दियों से मूर्ति पूजा के विरोध में आवाज उठाते आये हैं ?
यह किसकी शक्ति है ? यह वही शक्ति है, जो यहाँ (दक्षिणेश्वर में) श्री रामकृष्ण परमहंस के रूप में आविर्भूत हुई थी, और मैं, तुम, साधु एवं पैग़म्बर-यहाँ तक कि विश्व के समस्त अवतार और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी न्यूनाधिक मात्रा में घनीभूत,  उसी शक्ति की वैयक्तिक (individualized-साकार रूप में व्यक्त) अभिव्यक्तियाँ हैं ! इस समय हम लोग उस महाशक्ति की लीला का आरम्भ मात्र देख रहे हैं। वर्तमान युग का अन्त होने के पहले ही तुम लोग इसकी अधिकाधिक आश्चर्यमयी लीलाएँ देख पाओगे। भारत के पुनरुत्थान के लिये इस शक्ति का आविर्भाव ठीक ही समय पर हुआ है। भगवान ने भारत से जो वादा किया था - 'संभवािम युगे युगे,' --भारतवर्ष की उस मूल जीवनी शक्ति को हम लोग कभी कभी भूल जाते हैं।

तुम्हारे ही ह्रदय के अन्तस्तल में वे ' सनातन साक्षी ' (Eternal Witness) होकर विद्यमान हैं। मैं ह्रदय से प्रार्थना करता हूँ, कि हमारे राष्ट्र के कल्याण के लिये, हमारे देशवासियों की उन्नति  के लिये, तथा समग्र मानव जाति की कल्याण के लिये - वही भगवान श्रीरामकृष्ण तुम्हारा ह्रदय खोल दें। और हमारी इच्छा-अनिच्छा के बावजूद भी जो महायुगान्तर (विशाल परिवर्तन, भारत का विश्वगुरु होना) अवश्यम्भावी है, उसे कार्यान्वित करने के लिये वे तुम्हें सच्चा और अटल बनावें । तुम्हें और हमें रुचे या न रुचे, इससे प्रभु का कार्य रुक नहीं सकता, अपने कार्य के लिये वे धूलि से भी सैकड़ों और हजारों कर्मी पैदा कर सकते हैं। उनकी अधीनता में कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे परम सौभाग्य और गौरव की बात है। या तो हम सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त करेंगे, या मिट जायेंगे।


( कोलकाता-अभिनंदन का उत्तर)

 हमारे गुरु (श्रीरामकृष्ण) पर जबरदस्ती विश्वास करने के लिये लोगों से मत कहना। अभी इतना समझ लो--शशि को मठ छोड़कर बाहर नहीं जाना है। काली को प्रबन्ध-कार्य देखना है और पत्र-व्यवहार करना है। सारदा, शरत या काली, इनमें से एक न एक मठ में जरूर रहे। जो बाहर जायें, उन्हें चाहिये की मठ से सहानुभूति रखनेवालों का मठ से सम्पर्क स्थापित करा दें।

काली, तुम लोगों को एक मासिक पत्रिका का सम्पादन करना होगा। उसमें आधी बंगला भाषा में रहेगी, आधी हिन्दी और हो सके तो एक अंग्रेजी में। ग्राहकों को इकठ्ठा करने में कितना समय लगता है ? जो मठ के बाहर हैं, उन्हें पत्रिका का ग्राहक बनाने के लिये प्रयत्न करना चाहिये। गुप्त से हिन्दी विभाग सँभालने को कहो, नहीं तो आगे चलकर हिन्दी में लिखने वाले बहुत लोग मिल जायेंगे। केवल घूमते रहने से क्या होगा ? जहाँ भी जाओ, वहीं तुम्हें एक स्थायी प्रचार केन्द्र खोलना होगा। तभी तो व्यक्तियों में परिवर्तन आयेगा। श्रीरामकृष्ण के साँचे में ढला 'मनुष्य' निर्मित होने लग जायेंगे ! जगह जगह संस्कृत पाठशालाएँ खोलने का प्रयत्न करना। शेष भगवान के उपर है।

सदा याद रखो कि श्रीरामकृष्ण संसार के कल्याण के लिये अवतरित हुए थे--नाम या यश के लिये नहीं। वे जो कुछ सिखाने आये थे, केवल उसी का प्रचार-प्रसार करो। उनके नाम की चिन्ता न करो--वह अपने आप ही होगा। ' श्री रामकृष्ण को भगवान मानना ही पड़ेगा ', इस बात पर जोर देने से दलबन्दी पैदा होगी और सब सत्यानाश हो जायेगा, इसलिये सावधान !

सभी से मधुर भाषण करना, गुस्सा दिखने से ही सब काम बिगड़ता है। जिसका जो जी चाहे कहे-अपने विश्वास में दृढ रहो --दुनिया तुम्हारे पैरों तले आ जायगी, चिन्ता मत करो। लोग कहते हैं-इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास करो,' मैं कहता हूँ--" पहले अपने आप पर विश्वास करो।" यही रास्ता है।  'Have faith in yourself—all power is in you—be conscious and bring it out.'
अपने 'आप ' में विश्वास रखो --सब 'शक्ति ' तुममें है--इसके प्रति सचेत हो जाओ और उसे प्रकाशित  करो।

शिक्षा वही सार्थक सिद्ध होती है जो हमारे भीतर की उस छिपी शक्ति को बाहर लाने में मदद करे ! उठो ! जागो ! जानकर लोगों के पास जाकर उस शिक्षा को प्राप्त करो, और कहो, " मैं सब कुछ कर सकता हूँ !" "Even the poison of a snake is powerless if you can firmly deny it." ' नहीं नहीं कहने से साँप का विष भी 'नहीं' हो जाता है।

 खबरदार , No saying "nay", no negative thoughts! कभी मुँह से यह न निकले कि मुझसे नहीं होगा, एक भी नकारात्मक विचार मन में प्रविष्ट न होने दो। " हमेशा कहो -हो जायेगा, यह काम भी मैं कर लूँगा! सोऽहं सोऽहं --मैं वह हूँ ! मैं वह हूँ !

किन्नाम रोदिषि सखे त्वयि सर्वशक्तिः   - ' हे सखे, तुम क्यों रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में है। हे भगवन, अपना ऐश्वर्यमय स्वरुप प्रकाशित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड़ (मन या सूक्ष्म शरीर) की कोई शक्ति नहीं-प्रबल शक्ति तो आत्मा की ही है। अप्रतिहत शक्ति के साथ कार्य का आरम्भ कर दो। भय क्या है ? किसकी शक्ति है जो सर्वसमर्थ ईश्वर के काम में बाधा डाल सके ? '

"कुर्मस्तारकचर्वणं त्रिभुवनमुत्पाटयामो बलात्- हम आसमान के सितारों को भी मुट्ठी से नोचकर अपने दाँतों से पीस सकते हैं, (चुल्लू में समुद्र का पान कर सकते हैं ),तीनों लोकों को बलपूर्वक उखाड़ सकते हैं। हमें नहीं जानते ? हम श्रीरामकृष्ण के दास हैं !!  भय ? किसका भय ? किन्हें भय ?

क्षीणाः स्म दीनाः सकरुणा जल्पन्ति मूढा जना: - जो मूर्ख लोग देह को आत्मा मानते हैं, वही करूण कण्ठ से कहते हैं - हमसे नहीं होगा, हम क्षीण हैं, हम दीन हैं; यह घोर नास्तिकता है । हम लोग जब अभय-पद को प्राप्त हो चुके हैं, तो अब हम मृत्यु से भी नहीं डरेंगे, और हम एक 'हीरो' (शूरवीर) बनेंगे ! यही आस्तिकता है। हम श्रीरामकृष्ण के दास हैं।

हित्वा हित्वा सकलकलहप्रापिणीं स्वार्थसिद्धिम् - ' संसार में आसक्ति से रहित होकर, सब प्रकार के कलहों की माता- ' स्वार्थसेवी भावना ' का त्याग करके, अमरता के परम अमृत का लगातार पान करते हुए, सर्वकल्याणस्वरूप श्रीरामकृष्ण के चरणों का ध्यान धर कर, बारम्बार उन श्रीचरणों अपना प्रणाम निवेदित करते हुए, समस्त संसार को  उस अमृत का पान करने का  आह्वान कर  रहे हैं।'

प्राप्तं यद्वै त्वनादिनिधनं वेदोदधिं मथित्वा-- " उस 'अमृत' का पान करने का आह्वान करते हैं, जिसे अनादि अनन्त वेदरूपी समुद्र के मंथन से प्राप्त किया गया है, और जिस अमृत में ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि देवताओं ने अपनी शक्ति का नियोग किया है, जिस 'अमृत' को धरती पर ईश्वर के समस्त अवतारों ने अपने जीवन-सार (life-essence प्राणशक्ति) से आवेशित किया है। उसी अमृत को 'वेदमूर्ति' श्रीरामकृष्ण, ने पूर्ण-परिमाण में अपने व्यक्तित्व में धारण कर रखा है!"

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥ गीता ४/१२  ' Everything will come about by degrees.'--- ऐसे चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण निःस्वार्थ सेवा " Be and Make " (कर्म और उपासना एक साथ) आन्दोलन के साथ जुड़े रहकर ही किया जा सकता है । For success is quickly attained through action in this world of Man, क्योंकि कर्मजनित सिद्धि मनुष्य लोक में बहुत जल्दी मिलती है। हमारे शात्रों में नारी का अपमान कहीं नहीं है,' नारी को न निहारिये'- अर्थात पुरुषों को स्त्रियों की तरफ आसक्ति से देखना (घूरना) नहीं चाहिये; उसी तरह स्त्रियों को भी पति को छोड़ कर अन्य पुरुषो को पिता या भाई की दृष्टि से देखना चाहिये। सहशिक्षा (के साथ मोबाइल) ने हमारी संस्कृति को नष्ट कर दिया है।

यहाँ (अमेरिका) की अविवाहित कन्याएँ रूप में लक्ष्मी और गुण में सरस्वती हैं -ये साक्षात् जगदम्बा हैं, इनकी पूजा करने से सर्वसिद्धि मिल सकती है। इस तरह की माँ जगदम्बा अगर अपने देश में एक हजार तैयार करके मर सकूँ, तो निश्चिन्त होकर मर सकूँगा। स्त्री-पुरुष-भेद की जड़ नहीं रखूँगा। अरे, आत्मा में भी कहीं लिंग का भेद है? स्त्री और पुरुष का भाव दूर करो, सब आत्मा है। शरीराभिमान छोड़कर खड़े हो जाओ। 'न लिंग धर्म कारणं, समता सर्वभूतेषु एतन्मुक्तस्य लक्षणम । ' -The external badge does not confer spirituality. It is same-sightedness to all beings which is the test of a liberated soul." ऊपरी चिन्ह धारण कर लेने से कोई व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं हो जाता। जब कोई व्यक्ति सभी प्राणियों में एक को देखने या सम-दर्शन में सक्षम हो जाता है- वही मुक्तात्मा की कसौटी है। स्त्री और पुरुष का भाव दूर करो, सब आत्मा हैं। शरीराभिमान (देहाध्यास)  छोड़ कर खड़े हो जाओ।

'नेति नेति' करते हुए जब छत पर पहुँच गये- तो लौटते समय यही दिखायी पड़ता है कि जिस वस्तु से छत बना था उन्हीं वस्तुओं से सीढ़ी भी बनी हुई है, इसीलिये कहो, सदा कहते रहो - "इति  इति " "सोऽहं सोऽहं", "चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं" जो ज्ञान और आनन्द के सारतत्व-'शिव' हैं, वही 'मैं' (पाका आमी) हूँ !  है तारों सितारों में आलोक जिसका, वही आत्मा वही आत्मा- 'सच्चिदानन्द' मैं हूँ ! आमरा मायेर छेले, आमरा मायेर छेले ! आसुक न जम आमरा की कम ? ..हरेक आत्मा में अनन्त शक्ति है। इस प्रकार महावाक्यों का श्रवण-मनन-निदिध्यासन करते हुए स्वयं को विसम्मोहित करने वाला साधक स्वयं को संसार के जाल (जन्म-मृत्यु के चक्र, मन की चहार दिवारी) से, ठीक उसी तरह मुक्त कर लेता है- जिस तरह सिंह पिंजरा तोड़ कर निकल जाता है।" निर्गच्छति जगज्जालात् पिञ्जरादिव केशरी"  --" He frees himself from the meshes of this world as a lion from its cage!"  बुजदिली करोगे, तो हमेशा पिसते रहोगे।

"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः"— This Atman is not accessible to the weak" -स्वयं को दुर्बल समझने वाला व्यक्ति (हमेशा कुफ्फुत में रहने वाला, या हर समय जीवन से असन्तुष्ट रहने वाला व्यक्ति) इस आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता! ऐवलैन्च (avalanche) के समय बर्फ का चट्टान जिस प्रकार, सबकुछ को ढँक लेता है, उसी तरह तुम लोग भी ' हरs हरs  महादेव !' का जयघोष करते हुए दुनिया पर टूट पड़ो--दुनिया चट चट करके फट जाय !

"त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः" --' एकमात्र त्याग के द्वारा अमृतत्व की प्राप्ति होती है।' इन बातों को जन-जन तक पहुँचाने के लिये हमें अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों के साथ हमें कार्य करना होगा।  श्रीरामकृष्ण त्यागियों के बादशाह थे, उनके जीवन के इसी पक्ष का -त्याग का अच्छी तरह प्रचार करना होगा। स्वयं त्यागी ( या अनासक्त ) हुए बिना तुम्हारी वाणी में तेजस्विता नहीं आने की। कार्य आरम्भ कर दो। 'तुम' यदि एक बार दृढ़ता से कार्यारम्भ कर दो, तो मैं भी कुछ विश्राम ले सकूँगा।  मेरे लिये जो कुछ भी आवश्यक है- सवास्थ्य, पवित्रता, ज्ञान - ये सभी मुझमें पहले से विद्यमान हैं, मैं उन्हें जाग्रत और विकसित करूंगा। अरे, ये विदेशी लोग मेरी बातें समझने लगे हैं, और तुम लोग अपनी नकारात्मक मनःस्थिति के कारण दीनता-हीनता की बीमारी में कराहते हो ? कौन कहता है कि 'तुम' (जो 'वह' हो !) बीमार भी हो सकता है ? तुम्हारे लिये बीमारी का क्या अर्थ है ? इन्हें दिल से उतार दो। कहते रहो-' तुम वीर्यस्वरूप हो, मुझे वीर्य दो; तुम बलस्वरूप हो, मुझे बल दो; तुम ओजः स्वरुप हो, मुझे ओज दो; तुम सहिष्णुता-स्वरुप हो, मुझे सहिष्णुता (Fortitude) दो।'

"आत्मानं अच्छिद्रं भावयेत्"- ' स्वयं को मजबूत और अभेद्य (अच्छिद्र) के रूप में कल्पना करनी चाहिये - इसका क्या अर्थ है? यह आसन को अटल (steadying) करने का मंत्र है। जिसे पूजा-अनुष्ठान के पहले आसान-प्रतिष्ठा करते समय नित्यप्रति दिन दुहराना पड़ता है। कहो--" मेरे भीतर सब कुछ है- मेरा शरीर स्वस्थ और मन प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न है, मैं इसी शरीर और मन द्वारा इसी जीवन में 'तुम्हारा' साक्षात्कार कर लूँगा ! " इसका तात्पर्य है, मेरे ह्रदय में जो शक्ति अन्तर्निहित है, उस अनन्त शक्ति को- I can manifest it at will.-  "मैं इच्छा मात्र से उन्हें अभिव्यक्त कर सकता हूँ। "
और तुम सब अपने मन ही मन कहो --बाबुराम, योगेन आत्मा है -वे असीम हैं, उन्हें फिर रोग (कोफ़्त का रोग) कैसा ? घण्टे भर के लिये दो-चार दिन तक कहो तो सही, सब रोग-शोक (कुफ्फुत में रहना) छूट जायेंगे। " [३/३११ letter 25th September, 1894.MY DEAR—, Meant for his brother]

यहाँ के लोगों के लिये मैं एक नये प्रकार का आदमी हूँ। कट्टरवादियों तक की अक्ल गुम है। और लोग अब मुझे श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे हैं। ब्रह्मचर्य, पवित्रता से बढ़कर क्या और शक्ति है! ये विरोचन के वंशज हैं। 'भोग' (enjoyment) ही उनके भगवान हैं, जहाँ धन की नदी, रूप की तरंग, विद्या की विचि, और विलास का जमघट है।

 " पाश्चात्य देश वाले वहाँ इस बात की चेष्टा कर रहे हैं कि मनुष्य अधिक से अधिक कितना वैभव संग्रह कर सकता है, और यहाँ हम लोग इस बात की चेष्टा करते हैं कि कम से कम कितने में हमारा काम चल सकता है ? (साईं इतना दीजिये जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा या ac …… में जाय ! ) यह द्वन्द्वयुद्ध यह पार्थक्य अभी सदियों तक जारी रहेगा।

पश्चिम देश वालों को आत्मा का यथार्थ ज्ञान पहले कभी नहीं था, कोई बीस वर्ष हुए संस्कृत दर्शन-शास्त्रों से यह ज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ है। हमारा यह स्थूल शरीर (इसका रूप-रंग या आकार चाहे जैसा भी क्यों न हो) है, इसके पीछे मन है, किन्तु यह मन आत्मा नहीं है। यह सूक्ष्म शरीर (inner man ) है- सूक्ष्म तन्मात्राओं ( fine particles) का बना हुआ है। यही जन्म और मृत्यु के फेर में पड़ा हुआ है। परन्तु मन के पीछे है आत्मा --मनुष्य की यथार्थ सत्ता। इस आत्मा शब्द का अनुवाद 'सोल' या 'माइण्ड' नहीं हो सकता।  ' Atman is separate from the mind, as well as from the body ' स्थूल शरीर तथा मन (सूक्ष्म-शरीर) दोनों जड़ हैं- शाश्वत चैतन्य आत्मा से पृथक हैं । इस सूक्ष्म-शरीर या मन के साथ अपना तादात्म्य किया हुआ आत्मा 'देहाध्यास' के कारण, एक शरीर के बाद दूसरे शरीर को ग्रहण करता रहता है, या जन्म और मृत्यु के चक्र में घूम रहा है। ' And when the time comes ' --और जब (आत्म-साक्षातकर का) समय आता है; उसे सर्वज्ञता तथा पूर्णत्व प्राप्त होता है, तब यह जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है। फिर वह स्वतंत्र होकर चाहे तो मन या सूक्ष्म शरीर को रख सकता है, अथवा उसका त्याग कर चिरकाल के लिये स्वाधीन और मुक्त रह सकता है। जीवात्मा का लक्ष्य मुक्ति ही है।' ५/२६

६. जगत के वैषम्य का क्या कारण हो सकता है ? मनुष्य की इच्छाशक्ति ( human will)- सीधा भगवान के पास से आती है ! इसीलिए मनुष्य की इच्छाशक्ति किसी भी परिस्थिति (circumstance) के अधीन नहीं। इसके सामने -- मनुष्य की प्रबल, विराट, अनन्त इच्छाशक्ति और स्वतंत्रता (infinite will and freedom) के सामने --सभी शक्तियाँ यहाँ तक कि प्राकृतिक शक्तियाँ भी झुक जायेंगी, दब जायेंगी और इसकी गुलामी करेंगी। यही कर्म-विधान का फल है। [ ' वेदान्त' पर जाफना में तमिल हिन्दुओं (जयललिता -मोदी-लंका) में नॉर्थ का साऊथ को उपदेश)]

हम देखते हैं कि जगत में पक्षपात (partiality) है। कोई मनुष्य जन्मसुखी है, तो दूसरा जन्मदुःखी, एक धनी है तो दूसरा ग़रीब। फिर यहाँ निष्ठुरता भी है, क्योंकि यहाँ एक का जीवन दूसरे की मृत्यु के उपर निर्भर करता है। हर एक मनुष्य अपने भाई का गला दबाने की चेष्टा करता है। यह निष्ठुरता, प्रतिद्वन्द्विता, घोर अत्याचार (हत्या-अपहरण-बलात्कार), और दिन रात की आह, जिसे सुन सुन कर कलेजा फट जाता है --यही हमारे संसार (भारत का ?) का हाल है।
यदि यही ईश्वर की सृष्टि हुई तो वह ईश्वर निष्ठुर से भी बदतर है, उस शैतान से भी गया गुजरा है जिसकी मनुष्य ने कभी कल्पना की हो। वेदान्त कहता है कि यह ईश्वर का दोष नहीं है। तो दोष किसका है ? " कोई जन्म से ही सुखी और दूसरा दुःखी, फिर इस वैषम्य का क्या कारण हो सकता है ?  वे तो ऐसा कुछ नहीं करते जिससे यह वैषम्य उत्पन्न हो। उत्तर यह है कि इस जन्म में न सही, पूर्व जन्म में उन्होंने अवश्य किया होगा, और यह वैषम्य पूर्व जन्म के कर्मों के कारण हुआ है। भला हो चाहे बुरा, मनुष्य यहाँ अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोगने आता है। उसी से इस वैषम्य की सृष्टि हुई है।

यही कर्म-विधान (The law of Karma) है। हममें से प्रत्येक मनुष्य अपना अपना अदृष्ट (fate) गढ़ रहा है। हम, हमी लोग अपने फलभोगों के लिये जिम्मेदार हैं, दूसरा कोई नहीं। हमीं कार्य (effects) हैं, और हमीं कारण (causes)। अतः हम स्वतंत्र हैं। यदि मैं दुःखी हूँ तो यह अपने किये का फल है और उसी से सिद्ध हो जाता है कि यदि मैं चाहूँ तो सुखी भी हो सकता हूँ। यदि मैं अभी अपवित्र हूँ तो वह भी मेरा अपना ही किया हुआ है, और उसी से ज्ञात होता है कि यदि मैं चाहूँ तो पवित्र भी हो सकता हूँ।


एक मात्र श्रद्धा के तारतम्य के अनुसार ही मनुष्य मनुष्य में अन्तर पाया जाता है । इसका और दूसरा कारण (उच्च डिग्री, जाति -संप्रदाय आदि) नहीं है। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को कमजोर और छोटा बनाती है। श्री रामकृष्ण कहा करते थे, जो अपने को दुर्बल समझता है, वह दुर्बल ही हो जाता है, और यह बिल्कुल ठीक ही है। इस श्रद्धा को ही तुम्हें पाना होगा। पश्चमी जातियों द्वारा प्राप्त की हुई जो भौतिक शक्ति तुम देख रहे हो, वह इस श्रद्धा का ही फल है; क्योंकि वे अपने दैहिक बल के विश्वासी हैं। और यदि तुम अपनी यथार्थ सत्ता, अपनी आत्मा पर विश्वास करो तो वह कितना अधिक कारगर होगा ? उस अनन्त आत्मा, उस अनन्त शक्ति पर विश्वास करो, तुम्हारे शास्त्र और तुम्हारे ऋषि (नेता ) एक स्वर से उसका प्रचार कर रहे हैं। तुम्हारे भीतर में अवस्थित वह आत्मा अनन्त शक्ति का आधार है, कोई उसका नाश नहीं कर सकता; और वह अनन्त शक्ति प्रकट होने के लिये, केवल तुम्हारे एक आह्वान की प्रतीक्षा कर रही है ! 'What make one man great and another weak and low is this Shraddha.' 'हमें (भारत को ) आज जिस चीज चीज की सर्वाधिक आवश्यकता है - वह है नचिकेता जैसी श्रद्धा ! दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है, और यही हमारी वर्तमान दुर्दशा (बलात्कार-अपहरण-भ्रष्टाचार) का मूल कारण है।


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