गुरुवार, 29 मई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (9) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

 ' विवेकानन्द - दर्शनम् '
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
 [ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ]  

 
श्री श्री माँ सारदा और आप , मैं ...या कोई भी ... 
नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||


[ शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है। क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वह इतनी प्रकाशमयी है कि मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।]
 

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९.
आलस्य रोदनं वापि भयं कर्मफलोद्भवम्।
त्वयीमानि न शोभन्ते जहि मनोबलैः॥ 

With the strength of your mind give up indolence and weeping or any fear from fate -- these do not behove you. 
तुम अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर जो चाहो कर सकते हो, क्योंकि इच्छाशक्ति सीधी परमात्मा के पास से आती है ! अपनी इसी प्रबल इच्छाशक्ति की सहायता से आलस्य और रोदन करना छोड़ दो, या किसी भी प्रारब्ध से मत डरो- ये सब तुझे शोभा नहीं देते। 
व्याख्या : सभी के जीवन में कुछ न कुछ दुःख-कष्ट आते ही रहते हैं, कुछ लोग उससे बचने के लिये शनिग्रह-शान्ति लिये शमी की लकड़ी ढूँढ़ने लगते हैं, या हाथ दिखाकर कोई विशेष पत्थर-जड़ित अँगूठी पहनते हैं। या उससे बचने के लिये किसी तांत्रिक या मौलवी के पास जाकर यंत्र  ताबीज में हजारों खर्च कर देते हैं। विवेकानन्द के सैनिकों को ऐसा करना शोभा नहीं देता ! क्योंकि हमलोग जानते हैं मनुष्य केवल मरणधर्मा नश्वर शरीर ही नहीं है; शरीर तो अविनाशी आत्मा का वस्त्र है ! यथार्थ मनुष्य परिवर्तनशील शरीर और मन नहीं है, वह तो अपरिणामी आत्मा है ! फिर उसको कोई शोक या मोह कैसे हो सकता है ? आचार्य चाणक्य ने ठीक ही कहा है -
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढैः पाषाणखण्डेषु, रत्नसंज्ञा विधीयते॥
पृथ्वी पर तीन रत्न हैं - जल, अन्न और सुभाषित- अर्थात सुन्दर वचन। मूर्खों ने ही पत्थर के टुकड़ों (हीरे आदि)को रत्न का नाम दिया हुआ है॥ 
सुभाषितमयैर्द्रव्यैः सङ्ग्रहं न करोति यः ।
सोऽपि प्रस्तावयज्ञेषु कां प्रदास्यति दक्षिणाम् ।।

भावर्थ : काव्यशास्त्र-विनोद वार्तालाप में भाग लेना एक यज्ञ है और उस यज्ञ में हम दूसरों के प्रति सुभाषित शब्दों की आहुति दे सकते हैं । सुभाषित कथन रूपी संंपदा का जो संग्रह नहीं करता वह प्रसंगविशेष की चर्चा के यज्ञ में भला क्या दक्षिणा देगा ? ऐसे अवसर पर एक व्यक्ति से मीठे बोलों की अपेक्षा की जाती है, किंतु जिसने सुभाषण की संपदा न अर्जित की हो यानी अपना स्वभाव तदनुरूप न ढाला हो वह ऐसे अवसरों पर औरों को क्या दे सकता है ?
जब जीवन में कभी किसी सगे-संबन्धी, पड़ोसी या मित्र के द्वारा कही गयी कोई बात या उनके किसी कार्य से दुःख पहुँचता हो; या किसी आत्मीय बन्धु से बिछुड़ने का दुःख होता हो, उस समय याद रखने वाला विशेष कष्ट-हरण फॉर्मूला (सूत्र) है - 'सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता !' अर्थात सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है ! अध्यात्मरामायण (२/६/६) में लक्ष्मणजी निषादराज गुहसे कहते हैं ‒ 
  
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
 अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥

 ‘सुख-दुःखको देनेवाला दूसरा कोई नहीं है । दूसरा सुख-दुःख देता है‒यह समझना कुबुद्धि है । दूसरा दुःख देता है‒यह कुबुद्धि है, कुत्सित बुद्धि है, खोटी बुद्धि है । मैं करता हूँ‒यह वृथा अभिमान है । सब लोग अपने-अपने कर्मोंकी डोरीसे बँधे हुए हैं ।’ 
यही बात तुलसीकृत रामायण (मानस २/९२/२) में भी आयी है‒
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
इस प्रसंग के मुताबिक राम, लक्ष्मण और सीता को वनवास के दौरान कष्ट में देख कर जब निषाद राजा माता कैकई को दोषी ठहराते हैं। तब लक्ष्मण निषाद-राज को ज्ञान, वैराग्य और भक्ति से भरी बात कहते हुए समझाते हैं कि कोई किसी को सुखी या दु:खी नहीं करता बल्कि सभी अपने किए गए कर्मों का फल भोगते हैं।

 अमुक व्यक्ति ने मुझे दुःख दे दिया‒यह सिद्धान्तकी दृष्टिसे गलत है । इस विषयमें एक बात तो यह है कि हमलोग उस माँ सारदा के बेटे हैं- जो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है; जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। जिसके आदेश से सौर मण्डल के नौ ग्रह अपने अपने पथ पर निरन्तर बिना कोई एक्सीडेन्ट किये घूमते रहते हैं। श्री श्रीमाँ सारदा परम दयालु हैं, परम हितैषी हैं, अन्तर्यामी हैं और सर्वसमर्थ हैं । ऐसी शक्तिरूपिणी माँ के रहते हुए, उनकी जानकारी में- कोई उनके किसी सन्तान को भी दुःख दे सकता है क्या ?
दूसरी बात यह है कि अगर दूसरा दुःख दे सकता है, तो दुःख कभी मिटनेका है ही नहीं; क्योंकि दूसरा तो कोई-न-कोई रहेगा ही । कहीं जाओ, किसी भी योनिमें जाओ, देवता बन जाओ, राक्षस बन जाओ, असुर बन जाओ, भूत-प्रेत-पिशाच बन जाओ, मनुष्य बन जाओ, दूसरा रहेगा ही । फिर दुःख कैसे मिटेगा ? इसीलिये माँ सारदा की शिक्षा है -" इस जगत में कोई पराया नहीं है, सबको अपना बनना सीखो ! यदि जीवन में शान्ति चाहते हो तो दूसरों का दोष मत देखो,अपने दोषों को देखो!" 
ये दोनों बातें बड़ी प्रबल हैं ।
परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा।
आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्मति॥
दूसरों के बारे में बोलने में सभी हमेशा ही कुशल होते हैं पर अपने बारे में नहीं जानते हैं, यदि जानते भी हैं तो गलत ही॥
हमारे सामने सुख और दुःख दोनों आते हैं । सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है, प्रत्युत सब अपने किये हुए कर्मोंके फलको भोगते हैं । सामान्य रूप से हम सभी कर्म-व्यवस्था (Law of Karma) को समझते हैं - अच्छे कर्म करने से हम पुण्य अर्जित करते हैं, और बुरे कर्मों से पाप । पुण्य का फल सुख होता है, और पाप का दु:ख। मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव '3H' - Hand, Head, Heart - या शरीर, मन और ह्रदय होते हैं। सभी कर्मों में तीनों प्रकार का अंश होने पर भी, जिस क्रिया में जिस अवयव की प्रधानता होती है, हम उसे उसी नाम से पुकारते हैं । उसी के अनुसार होने वाले कर्मों को भी तीन भागों में विभाजित किया गया है। 
१) शारीरिक - शरीर के अवयवों के द्वारा की गई कोई भी क्रिया, जैसे - उछलना, कूदना, देना, लेना, उठना, बैठना, इत्यादि ।
२) मानसिक - मन भी शरीर का अवयव है । ज्ञान का वह मुख्य साधन है । मन से किए गए कर्म कुछ तो केवल मन ही करता है, जैसे - सोचना, सीखना, ईर्ष्या करना, सुखी होना, इत्यादि; और कुछ शरीर के अन्य अवयवों के साथ मिलकर करता है, जैसे - देखना, सुनना, छूना, इत्यादि । यहां संशय हो सकता है कि देखना, सुनना, आदि तो शारीरिक कर्म हैं ? किन्तु, नहीं, इनको मानसिक में ही गिना जाता है, क्योंकि आँखें हमारी इन्द्रिय नहीं हैं ये केवल खिड़की या यंत्र हैं। वास्तविक दर्शन इन्द्रिय (ऑप्टिक नर्व) मस्तिष्क में हैं। 

दर्शन क्रिया के लिये तीन बातें आवश्यक हैं - बाहरी यंत्र (नेत्र), मस्तिष्क में स्थित दर्शन इन्द्रिय और तीसरा मन भी उससे संयुक्त रहे। इनमें मन की क्रिया अधिक होती है । हम सभी ने अनुभव किया है कि, गम्भीर विचार में मग्न होने पर, आंखें खुली होते हुए भी नहीं देखतीं। यह इसी कारण से है कि आंखों से आते हुए चित्र पर जब तक मन ध्यान देकर उसको पहचानेगा नहीं, तब तक आंखें अपना काम सही रूप से करते हुए भी हमें कुछ नहीं बताएंगी । इसी प्रकार, पांचों ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त signals मन के analysis के बिना व्यर्थ हो जाते हैं ।   
वास्तव में, मन के बिना कोई कर्म होता ही नहीं । जिन भयंकर रोगों में मन काम करना बन्द कर देता है, वहां मानसिक ही नहीं, शारीरिक और वाचिक क्रियाएं भी बन्द हो जाती हैं । दूसरी ओर, जिस क्रिया से मन युक्त नहीं होता, वह कर्म होता ही नहीं, जैसे - हृदय का धड़कना, पलक का झपकना । यहां तक कि अन्यमनस्क भाव से पैर या हाथ हिलाना आदि क्रियाएं कर्म नहीं होतीं (उस समय जो मन सोच रहा होता है, वही कर्म होता है, शारीरिक हिलना नहीं) ।
३) वाचिक - वाणी से किए गए कर्म, जैसे - सच बोलना, झूठ बोलना, प्रशंसा करना, चुगली करना, डांटना, इत्यादि । जहां शारीरिक कर्म से हम वस्तुओं पर प्रभाव डालते हैं, वहां वाणी से हम दूसरे के मन पर प्रभाव डालते हैं, जिससे उसकी आत्मा (ह्रदय) पर प्रभाव पड़ता है। यहां तक कि हम अपने मन और आत्मा पर भी वाणी से प्रभाव डालते हैं - जप आदि का यही महत्त्व है । अपने मन का हाल (जो कि आंखों से सर्वदा प्रकट नहीं हो पाता) भी हम वाणी से दूसरे को अवगत कराते हैं । इस प्रकार वाणी (ह्रदय) का कर्म- प्रेम का महत्व बहुत ही विशेष होता है ।
वास्तव में, ’पुण्य’ और ’पाप’ - ये कर्म करने के बाद और फल देने से पूर्व की अवस्थाएं होती हैं, जिसको शास्त्र में ’कर्माशय’ या ’अदृष्ट’ कहा जाता है । हमारे किए हुए कर्म जैसे प्रकृति के ताने- बाने में बुन जाते हैं, और समय आने पर फल देते हैं । इस अवस्था में कर्मों को तीन वर्गों में समझा जाता है, जिनको कि हम बैंक के account के रूप में समझ सकते हैं -
च) सञ्चित - यह एक savings account की तरह होता है, जिसमें कि जन्म-जन्मान्तरों से किए गये हमारे कर्म जुड़ते जाते हैं - पुण्य positive account balance में और पाप negative account balance में ।
छ) प्रारब्ध - सञ्चित में से जो कर्म इस जन्म में फलित होने वाले हैं, गर्भाधान होते ही, वे इस current account में transfer हो जाते हैं । जैसे जैसे फल मिलता जाता है, वैसे वैसे कर्माशय debit होकर, current account balance कम हो जाता है ।
ज) क्रियमाण - इस जन्म में जो हम कर्म करते जा रहे हैं, उनके कर्माशय इसमें जुड़ते जाते हैं । इनमें से कुछ कर्म इसी जन्म में फल देंगे । वे प्रारब्ध में transfer हो जाते हैं । जो अन्य जन्मों में फल देंगे, वे मृत्यु के बाद सञ्चित कर्मों में जुड़ जायेंगे।
योगदर्शन में पतञ्जलि बताते हैं कि फल तीन रूपों में प्राप्त होते हैं- 

 ‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३)
अर्थात्‌ पहले किये हुए कर्मोंके फलसे जन्म, आयु और भोग होता है। 
१. जाति - यह हमारी योनि है - पेड़, कीड़ा, मछली, आदि से लेकर मनुष्य तक । इस सीढ़ी पर पेड़ सबसे नीचे हैं, और मनुष्य सबसे ऊपर । जैसे-जैसे हम इस सीढ़ी पर ऊपर चढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे हमारा ज्ञान बढ़ता जाता है, और हमारे भोग के प्रकार बढ़ते जाते हैं । और मनुष्य जन्म पर पहुंच कर, ये भी अपनी पराकाष्ठा को पहुंच जाते हैं। मनुष्य जन्म कई प्रकार से बहुत ही विशेष है । जानवरों में प्रधानत: खाना-पीना, प्रजनन करना और निद्रा के सिवा, अन्य क्रियाएं बहुत कम पाई जाती हैं । दूसरी ओर, मनुष्य अनेक प्रकार के ज्ञान प्राप्त कर सकता है - भौतिकी, गणित, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, कृषि, लोहकारी, आदि । और उसके मनोरंजन-रूपी भोगों का तो जैसे कोई अन्त ही नहीं है, जैसे - संगीत, नाटक, पहेली, क्रिकेट, आदि शारीरिक व मानसिक अनेकों क्रीडाएं । एक यही योनि है जिसमें हम इतना ज्ञानार्जन कर सकते हैं कि मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिए मनुष्य जीवन को व्यर्थ मत जाने दो - ऐसा उपदेश बारम्बार हमारे शास्त्रों में पाया जाता है।
२) आयु - जाति के समान, यह भी अगले विभाग - भोग - पर सीमा लगाती है । यही नहीं, मोक्ष की प्राप्ति के लिए भी जो अत्यन्त परिश्रम की आवश्यकता है, वह लम्बी आयु के बिना सम्भव नहीं है । इसलिए वेदों में परमात्मा ने मनुष्यों से सदा लम्बी आयु के लिए प्रयत्न करने का उपदेश दिया है - ’जिजीविषेच्छतं समा: (यजु० ४०।२)’।
३) भोग - ये अन्य सभी भौतिक सुख-दुख हैं जो हमारे दैनिक जीवन का अंश हैं । 
 हममें से जो समझते हैं कि अनजाने में किया गया पाप, पाप नहीं है - वे गलत समझते हैं ! देखिए, किसी देश में रहने के लिए हमारे द्वारा उस देश के कर्तव्य-सम्बन्धी कानून जानने आवश्यक हैं। इन्कम-टैक्स कितना है, कैसे भरना है, जन्म-मरण की रजिस्ट्री कैसे करवानी है - क्या ये सब कानून जाने बिना किसी का गुजारा हो सकता है? ' Ignorance of Law is no excuse' अर्थात कानून की अनभिज्ञता कोई बहाना नहीं है। यदि आप इन्कम-टैक्स वाले को कहते है कि "भाई, मैंने टैक्स नहीं भरा क्योंकि मुझे नियम मालुम नहीं था" तो आप जानते हैं कि वह क्या कहेगा, और आपको जुर्माना भी देना पड़ेगा ! ठीक इसी प्रकार जीवन जीने के लिए परमात्मा ने वेद के रूप में धर्म और अधर्म का पूर्णतया उपदेश कर दिया है । और फिर यदि आप अपना कर्तव्य जानने में आलस करते हैं, तो जुर्माना तो आपको देना ही पड़ेगा ! कई बार हम यह भी सुनते हैं कि भला करने के लिए बुरा भी करना पड़े, तो वह ठीक है, उसमें कोई पाप नहीं है । स्मरण करिये युधिष्ठिर की कहानी जहां भले के लिए ’अश्वस्थामा हतो (हाथी) मारा गया’ - यह आधा सत्य कहने के लिए भी उन्हें नर्क में समय काटना पड़ा ! परमात्मा की व्यवस्था यही है कि छोटे से छोटे कर्म का फल हमें मिलकर ही रहता है । कर्मों, उनके आशयों और उनके फलों को इस प्रकार जानकर, हमें धर्म-अधर्म को समझने की, सत्कर्म करने की प्रेरणा मिलती है, और बुरे मार्ग को छोड़ने का कारण स्पष्ट हो जाता है । सांसारिक सुखों से धीरे-धीरे विरक्ति होकर, हमारा संसार से बन्धन क्षीण होने लगता है, और परमात्मा से बन्धन दृढ़ होने लगता है ।
सुख-दुःख किसे कहते हैं ?
सर्वं परवशं दु:खं सर्वमात्‍मवशं सुखम्‌ ।
एतव्‍दिद्यात्‍समासेन लक्षणं सुखदु:खयो: ।।
पराधीन के लिए सर्वत्र दुःख है और स्वाधीन के लिए सर्वत्र सुख। यह सुख और दुःख की संक्षिप्त विशेषता या लक्षण हैं। 
अब एक बात बड़े रहस्यकी, बहुत मार्मिक और कामकी है । आप ध्यान दें । आपने अच्छा काम किया है तो सुखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी और बुरा काम किया है तो दुःखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी । यह तो है कर्मोंकी बात । 
 यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्।
तथा पूर्वकॄतं कर्म कर्तारमनुगच्छत्॥
जिस प्रकार एक बछड़ा हजार गायों के बीच में अपनी माँ को पहचान लेता है, उसी प्रकार पूर्व में किया गया कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है। और चूँकि कर्म करने से ही हमारा चरित्र बनता है, अतः अपने चरित्र की रक्षा में निरन्तर तत्पर रहना चाहिये। 
वॄत्तं यत्नेन संरक्ष्येद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत:॥
चरित्र की प्रयत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिए, धन तो आता-जाता रहता है। धन के नष्ट हो जाने से व्यक्ति नष्ट नहीं होता पर चरित्र के नष्ट हो जाने से वह मरे हुए का समान है॥   
कस्यैकान्तं सुखम् उपनतं, दु:खम् एकान्ततो वा।
नीचैर् गच्छति उपरि च, दशा चक्रनेमिक्रमेण॥
किसने केवल सुख ही देखा है और किसने केवल दुःख ही देखा है ?  जीवन की दशा एक चलते पहिये के घेरे की तरह है- जो क्रम से ऊपर और नीचे जाता रहता है॥
न प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत:॥
जो सम्मान करने पर हर्षित न हों और अपमान करने पर क्रोध न करें, क्रोधित होने पर कठोर वचन न बोलें, उनको ही सज्जनों में श्रेष्ठ कहा गया है॥
दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत्।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत्॥
दिन में वह करना चाहिए जिससे रात में सुख से रहा जा सके। जब तक जीवित हैं तब तक वह करना चाहिए जिससे मरने के बाद सुख से रहा जा सके॥ 
तत् कर्म यत् न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासाय अपरं कर्म विद्या अन्याशिल्पनैपुणम्॥
वह कर्म है जो बंधन में न डाले, वह विद्या है जो मुक्त कर दे। अन्य कर्म श्रम मात्र हैं और अन्य विद्याएँ यांत्रिक निपुणता मात्र हैं॥
अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्राणत्यागेऽपि संस्थिते।
न च कॄत्यं परित्याज्यम् एष धर्म: सनातन:॥
न करने योग्य कार्य को प्राण जाने की परिस्थिति में भी नहीं करना चाहिए और कर्त्तव्य का कभी त्याग नहीं करना चाहिए, यह सनातन धर्म है॥
मातॄवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत्।
आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पश्यति॥
दूसरों की स्त्रियों को माता के समान, दूसरों के धन को मिट्टी के समान, समस्त प्राणियों को अपने समान जो देखता है, वह (वास्तविक रूप में ) देखता है॥
आलस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतो सुखम्॥
आलसी के लिए विद्या कहाँ,  विद्याहीन के लिए धन कहाँ, निर्धन के मित्र कहाँ और बिना मित्रों के सुख कहाँ॥
सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम्।
सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम्॥
सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या चाहने वाले को सुख त्याग देना चाहिए। सुख चाहने वाले के लिए विद्या कहाँ और विद्यार्थी के लिए सुख कहाँ॥
अनेकशास्त्रं बहुवेदितव्यम्, अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना:।
यत् सारभूतं तदुपासितव्यं, हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात्॥
अनेक शास्त्र हैं, बहुत जानने को है और समय कम है और बहुत विघ्न हैं। अतः जो सारभूत है उसका ही सेवन करना चाहिए जैसे हंस जल और दूध में से दूध को ग्रहण कर लेता है॥
अब परिस्थितिको लेकर सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है । वह परमात्माका विधान है, जो हमारे कर्मोंका नाश करके हमें शुद्ध करनेके लिये हुआ है । वह परमात्मा कैसे किसीको दुःख देगा ? 
स हि भवति दरिद्रो यस्य तॄष्णा विशाला।
मनसि च परितुष्टे कोर्थवान् को दरिद्रा:॥
जिसकी कामनाएँ विशाल हैं, वह ही दरिद्र है। मन से संतुष्ट रहने वाले के लिए कौन धनी है और कौन निर्धन॥
विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
 विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है॥
शोको नाशयते धैर्य, शोको नाशयते श्रॄतम्।
शोको नाशयते सर्वं, नास्ति शोकसमो रिपु॥  
शोक धैर्य का नाश करता है, शोक स्मृति का नाश करता है, शोक सबका नाश करता है, शोक के समान दूसरा शत्रु नहीं है॥ अशोक बनो !


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