मंगलवार, 4 मार्च 2014

चरित्र के गुण : १: 'निःस्वार्थपरता' (Unselfishness)

मनुष्य क्यों नहीं समझता कि 'चरित्र' ही हमारी जीवन रूपी नौका की पतवार है ?
[यही माया है ! ] व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन में सुख-शान्ति तथा सौहार्दपूर्ण सामजिक सम्बन्ध, अथवा सम्पूर्ण समाज का अधिकांश भला-बुरा इसमें रहने वाले व्यक्तियों के चरित्र पर ही निर्भर करता है। यदि मेरे स्वयं का ही चरित्र सुन्दर ढंग से गठित न हुआ हो, तो मेरे व्यक्तिगत तथा पारिवारिक जीवन से सुख-शान्ति का छिन जाना अवश्यम्भावी है। समाज  के लोगों के साथ बात-व्यवहार करते समय यदि मेरा आचरण शिष्ट और विनम्रतापूर्ण न रहे, तो मुझे कई प्रकार की विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा। तथा यदी समाज के अधिकांश व्यक्तियों  का चरित्र सुंदर ढंग से गठित न हुआ हो, तो निश्चित ही इसका खामियाजा पूरे समाज को भुगतना पड़ेगा और नाना प्रकार की यंत्रणाओं को भुगतने के लिए बाध्य होना पड़ेगा ।
आये दिन हमारे समाज में जो अन्याय, अत्याचार, दुराचार या अनैतिक कार्य होते रहते हैं, उन सभी का एकमात्र कारण यही है कि हम में से अधिकांश (पढ़े-लिखे) मनुष्यों  का चरित्र  सुन्दर ढंग से गठित ही नहीं हुआ है। किसी भी व्यक्ति का चिन्तन  और व्यवहार उसके चरित्र के अनुरूप ही होता है। कोई  सच्चरित्र मनुष्य अनुचित या नीति विरुद्ध कार्य के विषय में सोच भी नहीं सकता ।  जब तक किसी मनुष्य के चरित्र में चट्टानी-दृढ़ता नहीं आती, तब तक  सामयिक समस्यायों का तात्कालिक हल ढूँढ़ने की चेष्टा  में या थोड़ा भी प्रलोभन मिलने से वह अक्सर सत्य के साथ समझौता कर लेता है, और अनुचित कार्य कर बैठता  है। हमलोग समाज में जितनी भी बुरी चीजें और अनैतिक कार्यों  (भ्रष्टाचार, नारी मर्यादा की अवमानना आदि) को देख रहे हैं, वे सब इसी प्रकार घटित होती  हैं। (भारतीय संस्कृति में हरिश्चन्द्र जैसे  राजा भी हुए हैं, जिन्होंने भारी से भारी विपत्तियों में पड़ने के बाद भी सत्य के साथ समझौता कभी नहीं किया था !) आज स्थिति यह है कि हमारे समाज के अधिकांश मनुष्यों का चरित्र गठित ही नहीं हुआ है। परिणामस्वरूप वे नितान्त  स्वार्थी हैं, केवल अपने निजी स्वार्थ के ही विषय में ही सोचते हैं तथा अपने लाभ के लिये दूसरों को हानी पहुँचाने, धोखा देने या प्रताड़ित करने में जरा भी संकोच का अनुभव नहीं करते हैं। ऐसा इसलिये है कि, वे लोग  जगत्, मानव जीवन का उद्देश्य, मनुष्य की मर्यादा, सच्चा सुख क्या है, आनन्द कैसे प्राप्त होता है आदि विषयों से पूरी तरह अनभीज्ञ हैं। वे अपने को केवल साढ़े तीन हाँथ का शरीर मानते हैं, और  इसको सुख पहुँचाने में सहायक लोगों  और विषयों के बारे में ही सोचते रहते हैं।
 दरअसल, उन्होंने इन बातों पर विचार करना सीखा ही नहीं होता है कि मानव जीवन को मूल्यवान  क्यों कहा जाता है, मानव जीवन सार्थक कैसे होता है, वास्तविक जीवन क्या है आदि।  वे इस पर तनिक भी विचार नहीं करते कि कहीं मेरा यह जीवन व्यर्थ ही नष्ट तो नहीं हो जायगा। और इस लापरवाही के परिणाम स्वरूप उनका अपना जीवन तो नष्ट होता ही है, वे सामाजिक जीवन को भी कलुषित करते हैं तथा दूसरों के जीवन के लिए भी दुःख के कारण बन जाते हैं। तब, प्रश्न उठता है कि जब मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने के प्रति थोडी भी लापरवाही का ऐसा दुष्परिणाम होता है; तो फिर समाज में अधिकाँश मनुष्य अपने अमूल्य मानव जीवन को इसी तरह से व्यर्थ में क्यों नष्ट कर देते हैं ? इसको ही 'माया' कहा जाता है। यदि वीरता के साथ इस माया-जाल को काट कर, दृढ़तापूर्वक हमलोग अपना चरित्र सुंदर ढंग से गठित न करें, तो हमें भी इसी प्रकार जीवन भर असीम कष्ट भोगना होगा। यह जगत् अत्यन्त ही भयावह प्रतीत होगा और इस सर्वश्रेष्ठ मनुष्य योनी के प्रति हमारे मन में अश्रद्धा का भाव उदित हो जाएगा। चट्टानी-चरित्र के अभाव में जीवन विफल हो जाएगा, जीवन अर्थहीन लगने लगेगा, जिसके परिणाम स्वरूप समाज के दुःखों में वृद्धि होती ही रहेगी।
इसीलिए यदि किसी के मन में अपना तथा समाज का मंगल करने की तीब्र इच्छा हो तो उसका पहला  सर्वाधिक प्रयोजनीय कार्य है अपने चरित्र को सुंदर ढंग से गठित करने के लिए प्रयासरत रहना। क्योंकि 'चरित्र' ही हमारी जीवन रूपी नौका की पतवार है। यदि सुन्दर चरित्र रूपी पतवार जीवन-नौका के साथ जुड़ी हुई न रहे, तो अन्ततः वह जीवन-नौका लक्ष्यभ्रष्ट तथा दिशाहीन हो कर डूब जाने को बाध्य होगी। चरित्र रूपी पतवार के बिना मनुष्य-जीवन के 'लक्ष्य' को प्राप्त कर लेना कभी संभव नहीं है। यदि हम इस संसार-सागर  या जीवन-समुद्र को पार कर, दूसरे तट पर पहुँचना चाहते हों, जीवन के खेल में विजय हासिल करने की इच्छा रखते हों तो हमें जीवन का अर्थ, लक्ष्य तथा उसकी सार्थकता के विषय को अच्छी तरह से समझ लेना होगा। न केवल समझ लेना होगा बल्कि जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अपने चरित्र को बहुत सुंदर ढंग से गठित भी कर लेना होगा। यदि हम अपना चरित्र सुन्दर ढंग से गठित कर लें, तो न केवल अपने जीवन से बल्कि समाज  से भी विभिन्न प्रकार के दोष एवं दुर्गुणों को दूर करने में समर्थ हो जायेंगे तथा हमारा समाज सुन्दर हो   जाएगा। इसीलिए समाज गठन का भी एकमात्र उपाय जीवन-गठन ही है।  
जीवन की संभावना को प्रस्फुटित कर लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इसी जन्म में पूर्णता को प्राप्त कर लेना मानव-जीवन का लक्ष्य है। जीवन की सार्थकता परार्थ में है। दूसरों के कल्याण के लिए अपने जीवन को न्योछावर कर देने में है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में एक महान सम्भावना है - 'वह अपने बनाने वाले को अर्थात ब्रह्म को भी जान सकता है।' भागवत (स्कंध ११:उद्धवगीता ९. २८) में कहा गया है-
     सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृपपशून्खगदंशमत्स्यान्।
              तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥
- अर्थात स्रष्टा ब्रह्मा ने पहले स्थावर, जंगम, पशु-पक्षी, डंक मारने वाले, जलचर-नभचर आदि कई योनियों कि रचना की, किन्तु जब वे इनमें से किसी से भी संतुष्ट नहीं हो सके, तब सबसे अंत में उन्होंने मनुष्य की रचना की। अपनी इस अत्यन्त असाधारण सृष्टि को देखकर उन्हें बहुत आनंद हुआ, क्योंकि  मनुष्य का अन्तःकरण इतने उच्च कोटि का था, कि वह ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने या अपने सृष्टा को भी जान लेने में समर्थ था !" जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्पकार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था। तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य की रचना की जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह अपनी बुद्धि को विकसित करके अपने बनाने वाले ईश्वर को भी जान लेने में भी समर्थ था।

स्वमी विवेकानन्द भी इसी असाधारण सामर्थ्य के कारण ही मनुष्य को पृथ्वी का श्रेष्ठतम प्राणी कहते हैं। वे ईसाई एवं मुसलमानों के पुराणों से इसीसे मिलती-जुलती कहानी सुनाया करते थे- "अपने द्वारा सृष्ट ज्ञानलाभ के एकमात्र अधिकारी मनुष्य नामक जीव का निर्माण करने के बाद ईश्वर आनंद से पुलकित हो उठे ! उन्होंने समस्त फरिस्तों या देवदूतों को बुला कर आदेश दिया कि तुमलोग इस मनुष्य को सलाम करो, अपना सीश झुका कर इनका अभिनन्दन करो।  इब्लीस को छोड़कर बाकी सभी फरिस्तों ने वैसा किया। अतेव, ईश्वर ने इब्लीस को अभिशाप दे दिया, जिससे वह शैतान बन गया। इस रूपक में यह महान सत्य नहित है कि मनुष्य ही अन्य समस्त योनियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर सृष्टि, पशु-पक्षी आदि किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। " भगवान श्रीकृष्ण गीता (१५/१) में कहते हैं-  'ऊर्ध्वमूलम् अध:शाखम्' इस संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष का मूल उपर ब्रह्म में है और शाखाएँ नीचे की ओर हैं। इस अश्वत्थ को (मनुष्य सहित सृष्ट जगत को) जो व्यक्ति समूल--अर्थात कारण सहित जानता है, वही 'वेदवित्' अर्थात ज्ञानी है। और श्रीरामकृष्ण की भाषा में कहें तो 'विज्ञानी' है।  
मनुष्य को 'समूल' जान लेना ही मुख्य बात है। मनुष्य को या जगत को केवल उपरी तौर (M/F) पर जान लेना ही काफी नहीं है, बल्कि इसको 'समूल' -अर्थात कारण-सहित जानना होगा।  अर्थात यह जान लेना होगा कि 'वे' (माँ काली, ईश्वर या अल्ला) ही सबकुछ बने हुए हैं, " जीव ही शिव है !" जब तक अपने जीवन में ऐसा बोध घटित नहीं हो जाता, तब तक हमलोग मुख से भले ही कहें कि 'चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनी ही सर्वश्रेष्ठ है' किन्तु तब तक हमलोग 'मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति' ही बने रहेंगे। वैसे लोग धरती के बोझ ही बने रहेंगे, जिनकी संख्या हाल के दिनों में बढ़ती जा रही है। इसको (अपनी अनुभूति द्वारा) ठीक से समझ लेने के बाद ही मनुष्य की महिमा (जीवशिव वाद) को स्वीकार किया जा सकता है।
इसकी अनुभूति हो जाने के बाद, दुसरे मनुष्य को स्वयं से हीन या तुच्छ समझना असंभव हो जाएगा, दूसरों का अधिकार छीनने, शोषण करने या प्रताड़ित करने का विचार भी मन में नहीं उठेगा। तब घोटाला करने, घूस मांगने, अत्याचार करने या दूसरों को क्षति पहुँचाने की कल्पना के लिए भी मन में कोई स्थान नहीं रह जाएगा। सभी मनुष्यों को ईश्वर का रूप मान कर सम्मान करना, या मर्यादा देना सीख लेने के बाद  मनुष्य कभी स्वार्थी  नहीं हो सकता है। यह एक तथ्य है कि स्वार्थशून्य हुए बिना कोई भी व्यक्ति दूसरों का कल्याण नहीं कर सकता है। यदि कोई यह तर्क दे कि, सभी को अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु चेष्टा करनी चाहिये, क्योंकि इससे सभी का स्वार्थ पूरा हो जायगा, तो यह तर्क सुनने में चाहे जितना भी सच लगे, किन्तु है यह भ्रामक ही। क्योंकि किसी भी समाज या परिवार के प्रत्येक सदस्य का सामर्थ्य एक जैसा नहीं होता। सभी मनुष्य अपने साधारण स्वार्थ भी केवल अपने ही बल-बूते पर कभी सिद्ध नहीं कर सकते।
जो अधिक शक्तिशाली या चालाक हैं, वे कम शक्तिशाली भोले-भाले लोगों के हिस्से को मार कर ही अपने स्वार्थों की पूर्ति करते  हैं। इसको ही नाम 'शोषण' कहा जाता है, इसकी जड़ें स्वार्थपरता में ही निहित हैं। जबतक मनुष्य के चरित्र में निःस्वार्थपरता का गुण समाहित नहीं हो जाता तब तक समाज से शोषण को दूर नहीं किया जा सकता। स्वार्थपरता को कम करने के लिए श्रेय-प्रेय विवेक के द्वारा अपने स्वार्थ बोध पर प्रहार करना होगा साथ ही साथ अपने लालच  को भी कम करते जाना होगा। क्योंकि मनुष्यों की कामना-वासना या 'तृष्णा' एक ऐसी वस्तु है, जिसको जितना ही पूरा करने की चेष्टा की जाय, वह उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। यह उसी प्रकार होता है जिस प्रकार आग में घी डालने से आग बुझने के बजाय और अधिक भड़क उठती है। राजा 'ययाति' का अनुभव इसका प्रमाण है। इसीलिए जब मन में किसी प्रकार का लालच या अतिरिक्त भोग करने की इच्छा उदित हो, तो पहले उसके परिणाम पर विवेक-विचार कर लेना चाहिए, तथा अपने लालच को क्रमशः सीमित करते जाने प्रयत्न करते रहना चाहिए। इच्छाओं के ऊपर विवेक का पहरा या संयम न रखने पर मनुष्य की सारी शक्ति या ऊर्जा उन व्यर्थ की इच्छाओं को पूर्ण करने में ही व्यय हो जाती है। और जब व्यक्ति कामनाओं को पूरा करने में असफल हो जाता है तथा मन में कामनाओं का वेग बना ही रहता है तो वह अपने हित-अहित के प्रति ज्ञान शून्य हो कर, उची-अनुचित का बोध भी खो देता है। अनैतिक व्यवहार तथा भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने लगता है। इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि मनुष्य की  स्वार्थपरता एवं अतिरिक्त भोगाकांक्षाओं  में ही भ्रष्टाचार का बीज निहित है।
हमलोगों के मन में और एक भ्रांत धारणा यह घर कर गई है कि, शास्त्रों में केवल 'भगवान' तथा 'परलोक' की  ही चर्चा भरी हुई है, जबकि ये दिखाई नहीं देते, इसलिये इन चीजों को पढ़ने से क्या लाभ ? यह एक बिल्कुल गलत धारणा है।  सभी शास्त्रों का मुख्य उद्देश्य है 'इहलोक' या घर-परिवार और समाज के प्रति मनुष्य के  कर्तव्यबोध को जगा देना। श्रीमद् भागवत  में कहा गया है :-
 आत्म-जाया-सुतागार-पशु-द्रविण-बन्धुषु। 
निरूढ-मूल-हृदय आत्मानं बहु मन्यते।।६।। 
सन्दह्यमान-सर्वाङ्ग एषां उद्वहनाधिना
 करोति अविरतं मूढो दुरितानि दुराशयः।।७।।
-अर्थात मूढ़ व्यक्ति स्वयं को तथा अपने स्त्री-पुत्र, गृह, पशु, धन-सम्पत्ति और बंधूवर्ग (मित्रों) को ही अपनी थाती समझ कर गर्व से फूला नहीं समाता। किंतु, बाद में इनका भरण-पोषण करने कि चेष्टा कि ज्वाला में स्वयं भी जल मरता है। तथा, अन्त  में वह मूर्ख हर प्रकार के दुष्कर्म करने में प्रवृत्त हो जाता है। 'महाभारत' में भी कहा गया है -
न तत् परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यतात्मन:।
संग्रहेणैष धर्म: स्यात् कामादन्य: प्रवर्तते।। 
-अर्थात स्वयं को जो अच्छा नहीं लगता हो, तुम दूसरों के साथ वैसा व्यव्हार कभी मत करना। संक्षेप में इसी को धर्म कहते हैं।" केवल कामनाओं के वेग से प्रताड़ित मनुष्य ही अन्य तरह का व्यवहार करता है, अर्थात दूसरों के प्रति प्रतिकूल आचरण करता है। इसीलिए भोगाकांक्षाओं का त्याग और निःस्वार्थपरता ही चरित्र का वह महान गुण है जो मनुष्य के जीवन को दूसरों के कल्याण के लिए न्योछावर करने के योग्य बना कर जीवन को सार्थक कर देता है। स्वामीजी कहते हैं- " निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है !" स्वार्थी मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं होता। और धर्म (महाभारत में कथित) वह वस्तु है, जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को ईश्वर में अर्थात पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य में रूपान्तरित कर देता है। 

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