शनिवार, 23 नवंबर 2013

6. ओजस की आध्यात्मिक उर्जा ( ‘ The Spiritual Energy of Ojas ‘) ( स्वामी तथागतानन्द की रचना ' The Value Of Brahmcharya' पर आधारित)

' यौनशक्ति का ओजस शक्ति में उदात्तीकरण'
ओजस-प्रभामंडल ही मानव-जाति के किसी सच्चे मार्गदर्शक “नेता” (आध्यात्मिक शिक्षक) की पवित्र पहचान होती है। ओजस उन पवित्र व्यक्तित्व-सम्पन्न महापुरुषों का असंदिग्ध संकेत-चिन्ह (signpost) है जिनकी मिठास हमें बरबस ही अपनी ओर बिना किसी स्पष्ट कारण के ही आकर्षित कर लेती है। गृहस्थों के लिये ब्रह्मचर्य का अर्थ है, गृहस्थ जीवन में अपने जीवन साथी के साथ पूर्ण वफ़ादारी निभाते हुए, अपनी धर्मपत्नी के सिवा दुनिया के अन्य सभी स्त्रियों को अपनी माता के रूप में देखना ! महामण्डल के गृहस्थ युवा कर्मी को अपने दैनन्दिन जीवन में इस ब्रह्मचर्य (यम-नियम) का अनुपालन अवश्य करना चाहिये। इसमें सफलता से साधक योग के उच्च सोपानों पर चढ़ता है तथा  उसे आत्मा की प्रसुप्त शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। उसके मन की चंचलता समाप्त होती है तथा यौनशक्ति का ओजस शक्ति में उदात्तीकरण हो जाता है।
'राज-योग' नामक ग्रन्थ में अध्यात्मिक प्राण का संयम (The Control Of Psychic Prana)   के विषय पर प्रवचन देते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- “ सबसे नीचे वाला चक्र ही समस्त समस्त शक्ति का अधिष्ठान है, और उस शक्ति को उस जगह से उठाकर मस्तिष्क में स्थित सर्वोच्च चक्र पर ले जाना होगा। योगी दावा करते हैं कि मनुष्य-देह में जितनी शक्तियाँ हैं, उनमें ‘ओज‘ सबसे उत्कृष्ट कोटि की शक्ति है। यह ओज मस्तिष्क में संचित रहता है। जिसके मस्तक में ओज जितने अधिक परिमाण में रहता है, वह उतना ही अधिक बुद्धिमान और आध्यात्मिक बल से बली होता है। एक व्यक्ति बड़ी सुन्दर भाषा में सुन्दर भावों को लोगो के समक्ष रखता है, परन्तु लोग आकृष्ट नहीं होते। और दूसरा व्यक्ति न सुन्दर भाषा बोल सकता है, न सुन्दर ढंग से भाव व्यक्त कर सकता है, परन्तु फिर  लोग उसकी बात से मुग्ध हो जाते हैं। वह जो कुछ कार्य करता है, उसीमें महाशक्ति का विकास देखा जाता है। ऐसी है ओज की शक्ति ! (वि० १/८१)“
जो लोग ईश्वर का साक्षात्कार या आत्मा कि अनुभूति करना चाहते हैं, उनके लिये ब्रह्मचर्य कि शक्ति ही सबसे बड़ी शक्ति है। उन्हें मन, वचन कर्म से पवित्रता में पूर्णतया अवस्थित रहना चाहिये, उनका ह्रदय और मन बिल्कुल शुद्ध रहना आवश्यक है।
 स्वामीजी ब्रह्मचर्य के ऊपर जोर देते हुए आगे कहते हैं, " यह ओज, थोड़ी-बहुत मात्रा में,सभी मनुष्यों में विद्द्यमान है। शरीर में जितनी शक्तियाँ क्रियाशील हैं, उनका उच्चतम विकास यह ओज है। यह हमें सदा याद रखना चाहिये कि सवाल केवल रूपान्तरण का है- एक ही शक्ति दूसरी शक्ति में परिणत हो जाती है। आज जो शक्ति पेशियों में कार्य कर रही हैं, वे ही कल ओज के रूप में परिणत हो जायेंगी। योगीयों का यह दावा है, कि मनुष्य में जो शक्ति काम-क्रिया, काम-चिन्तन आदि रूपों में प्रकाशित हो रही है, उसका दमन या नियंत्रण करने पर वह सहज ही आध्यात्मिक शक्ति या ‘ओज’ में परिणत हो जाती है। और हमारे शरीर का सबसे नीचेवाला केन्द्र, ‘ मूलाधार ’ ही इस शक्ति का नियामक होने के कारण योगी इसकी ओर विशेष रूप से ध्यान देते हैं। वे सारी काम-शक्ति को ओज में परिणत करने का प्रयत्न करते हैं।"(१/८१-२) 
'राजयोग -शिक्षा' में ओजस पर दिए गये प्रवचन में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " ओजस् उसे कहते हैं, जो एक मनुष्य को दूसरे से भिन्न बनाता है। जिस मनुष्य में विपुल ओजस् होता है, वह जननेता होता है। ओजस् प्रबल आकर्षण-शक्ति प्रदान करता है। 


 

ओजस् का निर्माण नाड़ीय प्रवाहों से होता है। इसकी विचित्रता यह है कि उसका निर्माण उस शक्ति द्वारा बड़ी सरलता से होता है, जिसकी अभिव्यक्ति यौन शक्ति में होती है। यदि यौन केन्द्रों की शक्तियों का व्यर्थ में क्षय और अपव्यय न हो, (भाव की स्थूलतर अवस्था ही क्रिया है) तो उनको ओज में परिणत किया जा सकता है।
शरीर के दो प्रमुख नाड़ीय प्रवाहों का उद्गम मस्तिष्क से होता है, वे सुषुम्णा के दोनों और से नीचे, मस्तिष्क के पृष्ठ भाग में अंग्रेजी के अंक ‘8’ के आकार में परस्पर काटती हुई नीचे जाती है। चेतन और अवचेतन मन इन्हीं दो नाड़ीयों के माध्यम से कार्य करती है। लेकिन जब अतिचेतना परिपथ के निचले छोर में पहुँच जाती है, तो नाड़ी-प्रवाह को उपर जाने तथा परिपथ पूरा न करने देकर, उसे रोक देती है, तथा मूलाधार से ओजस के रूप में सुषुम्णा मार्ग से उपर जाने के लिये विवश करती है। सुषुम्णा का द्वार स्वभावतः बन्द है। लेकिन इस ओजस का मार्ग बनाने के लिये उसे खोला जा सकता है। जब ओजस सभी चक्रों को पार करता हुआ सहस्रार (या पीनियल ग्रंथि : मस्तिष्क का एक भाग, जिसके बारे में विज्ञान यह निर्णय नहीं कर पाता कि उसका क्या काम है) में पहुँच जाता है, तन मनुष्य न तो शरीर रह जाता है, न मन। वह सभी बन्धनों से मुक्त हो जाता है।(४/९९-१००)

 

स्वामीजी ने अध्यात्मिक प्राण का संयम के विषय पर बोलते हुए प्रारम्भ में ही, बिना गुरु के सानिध्य में प्राणायाम करने से सावधान करते हुए कहा था, " यद्दपि मेरु-रज्जू (spinal cord) मेरुदण्ड (vertebral column) से संलग्न नहीं है, फिर भी वह मेरुदण्ड के भीतर है। टेढ़ा होकर बैठने से वह अस्त-व्यस्त हो जाती है।” इसलिये वक्ष, ग्रीवा और मस्तक -सदा एक रेखा में ठीक सीधे रखने होंगे। जिस प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है, उसका अधिक अभ्यास अच्छा नहीं है। अनियमित रूपसे साधना करने पर (बिना गुरु के साधना करनेपर) तुम्हारा अनिष्ट भी हो सकता है।" (१/७८,८०) 
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने अपने बाल्य-सखा श्री प्रियनाथ सिन्हा से वार्तालाप के क्रम में, विद्यार्थियों के लिये भारत के प्राचीन आदर्श, गुरु-गृहवास की प्रथा एवं ब्रह्मचर्य के साथ पाश्चात्य विज्ञान युक्त वेदान्त, को आधुनिक शिक्षा-पद्धति में जोड़ने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते हैं - “ पहले हमें गुरु-गृहवास और उस जैसी अन्य शिक्षा-प्रणालियों को पुनर्जीवित करना होगा। आज हमें आवश्यकता है वेदान्त-युक्त पाश्चात्य विज्ञान की, ब्रह्मचर्य के आदर्श, विवेक, श्रद्धा तथा आत्मविश्वास की।” (८/२२९) 
किन्तु उन विवाहित या गृहस्थ युवाओं को, जो भावी मार्गदर्शक नेता (Hero- या जन-नायक!) बनकर महामण्डल के चरित्र-निर्माण आन्दोलन को भारत के गाँव गाँव तक पहुँचा देने के व्रती बनना चाहते हों, उन्हें सावधान करते हुए स्वामीजी पुनः कहते हैं, " केवल कामजयी स्त्री-पुरुष ही इस ओज को मस्तिष्क में संचित कर सकते हैं। इसीलिये ब्रह्मचर्य को ही सदैव सर्वश्रेष्ठ नैतिक-सद्गुण या धर्म माना गया है। मनुष्य स्वयं अनुभव करके देख सकता है कि ‘ if he is unchaste ‘ अगर वह व्यभिचारी या कामुक हो, तो उसकी सारी आध्यात्मिकता नष्ट हो जाती , चरित्र-बल और मानसिक तेज चला जाता है। इसी कारण, देखोगे, संसार में जिन जिन सम्प्रदायों में बड़े बड़े धर्मवीर पैदा हुए हैं, उन सभी सम्प्रदायों ने ब्रह्मचर्य पर विशेष जोर दिया है। इसी लिये तो निवृत्ति-मार्गी या विवाह त्यागी संन्यासीयों की उत्पत्ति हुई है। इस ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से - तन-मन-वचन से -- पालन करना नितान्त आवश्यक है। ब्रहचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है; क्योंकि उससे अन्त में मस्तिष्क का विषम विकार (उसका दिमाग खराब भी हो सकता है) पैदा हो सकता है । यदि कोई राजयोग का अभ्यास करे और साथ ही अपवित्र जीवन-यापन करे (अर्थात अपने जीवन साथी के प्रति वफ़ादार नहीं हो), तो वह भला किस प्रकार योगी होने की आशा कर सकता है? “ (१/८१-८२)
लाखों गृहस्थ, भगवान में गहरा और स्थायी विश्वास उत्पन्न करने के लिये ईमानदारी से कुछ न कुछ प्रयास अवश्य करते हैं। एक सार्थक और शांतिपूर्ण जीवन प्राप्त करने के लिये, आध्यात्मिकता का विकास करने के लिये प्रतिदिन संघर्ष करते हैं। जब हम भगवान के साथ घनिष्ट सम्बंध स्थापित कर लेते हैं, तभी आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त होती है। इसीलिये, प्रत्येक दम्पति को, पारिवारिक जीवन के किसी विशेष चरण में (हो सके तो कम से कम सेवानिवृत होने के बाद), दुनियावी प्रेम-सम्बंध का उदात्तीकरण (sublimation) करके, अपने प्रपंची जीवन से निर्लिप्त होकर, भगवान के साथ आध्यात्मिक-घनिष्टता को विकसित करने पर अपना ध्यान अवश्य केन्द्रित करना चाहिये। जब किसी दम्पति के जीवन में ऐसी प्रतिबद्धता दिखाई देती हो, वैसे विवेक-शील दम्पतियों को आत्मसंयम  (ब्रह्मचर्य continence) का पालन करने की सलाह दी जा सकती है।
श्रीरामकृष्ण उन गृहस्थ दम्पतियों की प्रशंसा किया करते थे, जो दो-तीन बच्चे हो जाने के बाद अपने काम-इच्छा का नियंत्रण करते हैं, और एक-दूसरे को बहन-भाई की दृष्टि से देखते हैं। अपवित्र विचार की शक्तियों का सामना करने के लिये, तथा मन को शुद्ध विचारों से परिपूर्ण रखने के लिये, वे अपने कुछ भक्तों को ईश्वर का नाम (?) जपने का परामर्श देते थे।
कार्ल जुंग अपनी पुस्तक ‘ मॉडर्न मैन इन सर्च ऑफ़ सोल ‘ (Modern Man in Search of a Soul या आत्मा की खोज में आधुनिक मनुष्य ) में आत्मसंयम के विषय में अपना मत व्यक्त करते हुए कहते हैं, “३५-४० वर्ष की उम्र हो जाने के बाद, हमलोगों को सांसारिक भोगों से मुख मोड़ कर सांस्कृतिक उन्नति पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये- जिसका अर्थ होता है, अन्तर्निहित आत्मा की खोज में लग जाना।“
इस प्रकार हम समझ सकते हैं, कि ब्रह्मचर्य या आत्मसंयम की आवश्यकता केवल योगियों के लिये  ही नहीं, बल्कि उन सभी गृहस्थ लोगों के लिये भी है, जो स्वस्थ और सुखी जीवन जीना चाहते हों। यद्दपि जो लोग आध्यात्म-मार्ग के जिज्ञासु (सत्यार्थी) उनके लिये तो यह सबसे अधिक मूल्यवान  है।
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गुरुवार, 21 नवंबर 2013

५.ब्रह्मचर्य सब के लिये लाभकारी (Efficacious) है !

आध्यात्मिक जीवन का अर्थ है, ऐसा जीवन जिसमें सच्चाई, पवित्रता, निःस्वार्थपरता, दयालुता के साथ ब्रह्मचर्य (chastity) का भी समावेश हो। किन्तु इन सर्वोच्च आध्यात्मिक नियमों का पालन कर पाना सब किसी के लिए आसान नहीं है। अब तक मानव-जाति के जितने भी मार्ग-दर्शक नेताओं, पैगम्बरों एवं अवतारों ने धरती पर जन्म लिया है, उन सब ने इन नियमों का पालन करने का उपदेश दिया है। किन्तु बहुत थोड़े से लोग ही उन्हें सुनने और अपने जीवन में उतारने में सक्षम हुए हैं, और कमो-बेस यही स्थिति आज तक बनी हुई है।
हर युग में दुनिया के कानों तक उनके संदेश, छन-छन कर आते रहते हैं, किन्तु बहुत थोड़े से चुने हुए लोग ही उनके संदेशों को सुन पाते हैं, तथा उनका अनुसरण करके अपने जीवन को रूपान्तरित करने का प्रयत्न करते हैं। वैसे मनुष्य, जो उच्चतर चिन्तन तथा साधना के माध्यम से स्वयं को पशु-मानवसे देव-मानव में पूर्णतया रूपान्तरित कर देने का दृढ़ संकल्प रखते हैं, वे ही इन शाश्वत अध्यात्मिक उपदेशों को ग्रहण करने में सक्षम होते हैं। आम जनता (masses) प्रारंभ से ही कठोर ब्रह्मचर्य का पालन कर पाने में कभी सक्षम नहीं हो सकती है।
ये कहानी बाइबिल (Luke/chap 8/ 5-15) में दर्ज है, जो स्वयं यीशु ने अपने शिष्यों को सुनाई थी, प्रभु यीशु कहते हैं- “ एक बीज बोने वाला बीज बोने निकला ! बीज बोते समय कुछ बीज मार्ग के किनारे गिरे और रौंद डाले गये, या आकाश के पक्षियों ने उन्हें चुग लिया। और कुछ बीज पथरीली भूमि पर गिरे, जब वे उगे तो पानी न मिलने के कारण सब मुरझा गये। कुछ बीज झाड़ियों के बीच जा गिरे, झाड़ियों ने साथ साथ बढ़कर उन्हें दबा दिया। परन्तु कुछ बीज अच्छी भूमि पर गिरे, सभी पौधों ने उग कर फल दिया ! प्रत्येक ने सौ गुणा !”
इस कहानी को सुनाने के बाद, उन्होंने उच्च स्वर में पुकार कर कहा- 'He that hath ears to hear, let him hear ! " जिसके पास सुनने के लिये कान हों, वे इसे सुन लें !  इस पर उनके एक शिष्य ने पूछा : प्रभु, इस दृष्टान्त का मर्म क्या है? , ' आप किसी बात को नीति कथा (parables) के माध्यम से क्यों कहते हैं ? 
ईसू ने उत्तर दिया, “ कि तुम (कुछ चुने हुए) को स्वर्ग के राज्य के भेदों (तदेकं के रहस्यों) की समझ दी गई है, पर उन को नहीं। मैं उन से दृष्टान्तों में इसलिये बातें करता हूं, कि वे (देहाध्यास में फंसे हैं, इसलिये) देखते हुए नहीं देखते; और सुनते हुए नहीं सुनते; और नहीं समझते। पर धन्य है तुम्हारी आंखें, कि वे देखती हैं; और तुम्हारे कान, कि वे सुनते हैं।” (मैथ्यू १३:१०-१६) ]

 
 इस उदहारण का अर्थ ये है कि बीज परमेश्वर का वचन है ! बीज बोनेवाले एक किसान की तरह परमेश्‍वर भी अध्यात्मिक नियमों का बीज इस संसार के लोगों की हृदय-भूमि पर निरन्‍तर छींट रहे हैं, जहां चार प्रकार के लोग हैं-
मार्ग के किनारे गिरे बीज उन्हें (या वैसे लोगों को) दर्शाते है, जो वचन सुनते अवश्य हैं, पर शैतान, (या अनियंत्रित मन) आकर उन्हें इन्द्रिय-विषयों में आसक्त बना देता है, और उनके चित्त में से वचनों को चुरा लेता है ताकि वे वचनों पर विशवास करके कहीं मुक्ति ना पा ले !
पथरीली भूमि पर गिरे बीज उन्हें दर्शाते है जो वचन सुन कर आनंद से ग्रहण करते है पर जड़ (मर्म) नहीं पकड़ पाते ! वो कुछ देर तक विशवास करते है पर परीक्षा कि घडी आने पर टिक नहीं पाते !
झाड़ियो में गिरे बीज उन्हें दर्शाते है जो वचन सुनते है, पर जीवन की चिंताओं, धन, मोह, और कामिनी-कांचन के भोग विलास में फसने से उनके फल कभी पक ही नहीं पाते हैं!
वह बीज जो अच्छी भूमि पर गिरे वे उन लोगो के प्रतीक हैं, जो वचन को प्रस्फुटित ह्रदय और आज्ञाकारी मन से ग्रहण करते हैं, और फल्वंत होने (उत्तम फल पाने) तक उन्हें अपने वशीभूत मन में संभाले रखते है; और तदनुसार धैर्य पूर्वक आचरण में उतार कर उत्तम फल पाते हैं।” 
बाइबिल में वर्णित इन नीति कथाओं से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि ब्रह्मचर्य, पवित्रता जैसे उच्च आध्यात्मिक सिद्धान्तों  को साधारण मनुष्यों की भीड़ कभी ग्रहण नहीं कर सकती हैं। मनुष्य जीवन के लक्ष्य - ‘मुक्ति‘ की प्राप्ति जीवन को क्रमशः विकसित करते हुए ही हो सकती है। ‘Gradual Evolution of Human Life‘ -- मानव-जीवन में विकसित होने के (मुक्ति, मोक्ष या जीव से ब्रह्म में रूपान्तरित होने के) लक्ष्य को, अर्थात पाशविक-जीवन से क्रमशः मनुष्यत्व और फिर देवत्व में उन्नत होने के लक्ष्य को, बराबर और धीरे-धीरे क्रम-विकसित होते हुए ही प्राप्त किया जा सकता है।
 'गृहस्थ-आश्रम' में भी क्या ब्रह्मचर्य की कोई उपयोगिता हो सकती है ? महामण्डल के विशेष रूप से भावी गृहस्थ युवा नेताओं (Specially for Would-be Mahamandal Leaders) के लिये, जो अपने को गेरुआ वस्त्र-धारण करने का अधिकारी नहीं समझते, लेकिन विवाह करके घर-गृहस्थी में रहते हुए ही,'मनः संयोग' के ज्ञान के द्वारा स्वामी विवेकानन्द की चरित्रनिर्माण एवं मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा को भारत के गाँव गाँव तक पहुंचा देने का दृढ संकल्प लेना चाहते हैं; मानव-जाति के उन भावी नेताओं के लिये स्वामीजी के निम्नलिखित परामर्श के आलोक में ब्रह्मचर्य के सही अर्थ को, समझना और उसका पालन करना अत्यन्त आवश्यक है ! 
अपने कर्म-योग नामक ग्रन्थ में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- “ब्रह्मचर्य (Chastity-पवित्रता) ही स्त्री और पुरुष का सर्वप्रथम धर्म है। ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं हो कि एक पुरुष -वह चाहे जितना भी पथ-भ्रष्ट क्यों न हो गया हो-- अपनी नम्र, प्रेमपूर्ण तथा पतिव्रता स्त्री के द्वारा ठीक रास्ते पर न लाया जा सके। संसार अभी भी उतना गिरा नहीं है। हम बहुधा संसार में बहुत से निर्दय पतियों तथा पुरुषों के भ्रष्टाचरण के बारे में सुनते रहते हैं; परन्तु क्या यह बात सच नहीं है कि संसार में उतनी ही निर्दय तथा भ्रष्ट स्त्रियाँ भी हैं ? यदि सभी स्त्रियाँ इतनी शुद्ध और पवित्र होती, जितना कि वे दावा करती हैं, तो मुझे पूरा विश्वास है कि समस्त संसार में एक भी अपवित्र पुरुष न रह जाता। ऐसा कौन सा पाशविक भाव है, जिसे पवित्रता और सतीत्व (purity and chastity) पराजित नहीं कर सकता ? एक शुद्ध पतिव्रता स्त्री, जो अपने पति को छोड़कर अन्य सब पुरुषों को पुत्रवत् समझती है तथा उनके प्रति माता का भाव रखती है, धीरे धीरे अपनी पवित्रता कि शक्ति में इतनी उन्नत हो जायेगी कि एक अत्यन्त पाशविक-प्रवृत्ति वाला मनुष्य भी उसके सानिध्य में पवित्र वातावरण (atmosphere of holiness) का अनुभव करेगा। इसी प्रकार प्रत्येक पति को, अपनी स्त्री को छोड़कर अन्य सब स्त्रियों को अपनी माता, बहन अथवा पुत्री के समान देखना चाहिये।
 

 विशेषरूप से उस मनुष्य के लिये, जो अपने भावी जीवन में धर्म का प्रचारक (Teacher Of Religion या मानव-जाति का सच्चा नेता- The Hero !) होना चाहता है, यह आवश्यक है कि वह प्रत्येक स्त्री को मातृवत देखे और उसके साथ सदैव तद्रूप व्यवहार करे। वास्तव में वह पुरुष धन्य है, जो स्त्री को ईश्वर के मातृभाव की प्रतिमूर्ति समझता है; और वह स्त्री भी धन्य है, जो पुरुष को ईश्वर के पितृभाव की प्रतिमूर्ति मानती है; तथा वे बच्चे भी धन्य हैं, जो अपने माता-पिता को भगवान का ही रूप मानते हैं। हमारी उन्नति का एकमात्र उपाय यह है कि हम पहले वह कर्तव्य करें, जो हमारे हाथ में है। और इस प्रकार धीरे धीरे शक्ति-संचय करते हुए क्रमशः हम सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। (इस प्रसंग में बगुला-भष्म और व्याध-गीता का स्मरण अनुप्रेरक हो सकता है। “(३/४२-४)

 इसीलिये चार पुरुषार्थों में मुक्ति, रिहाई या मोक्ष को अंतिम पुरुषार्थ माना गया है- धर्म, अर्थ काम और मोक्ष ! इसीलिये हमारे शास्त्रों में मनुष्य जीवन को चार भागों में बाँट कर क्रम-विकसित मनुष्य बनने का विधान किया गया है। क्योंकि ‘The Law of Growth is gradual’: मनुष्य जीवन के प्रस्फुटन का नियम (विकासवाद का नियम)-- क्रम-विकास या क्रम-मुक्ति है, अक्रम-मुक्ति ‘ Sudden-Liberation’ नियम नहीं है। (किन्तु ठाकुर चाहें तो नियम को बदल भी सकते हैं, इसीलिये अक्रम-मुक्ति Sudden-Liberation किसी किसी श्रीरमण महर्षि जैसे कुछ लोगों के लिये अपवाद भी हो सकता है)।
पाश्चात्य दृष्टि से कहा जाय तो इस समय विश्व में दो प्रकार के धर्म (रिलीजन) ही प्रचलित हैं-एक इंडो वैदिक दूसरे सेमेटिक। इंडो वैदिक धर्म जिसे भारत में सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) कहा जाता है, से उपजे हुए पंथ हैं-शैव, वैष्णव,जैन, बौद्ध, सिख,आदि सेमेटिक धर्म से उपजे पंथ हैं, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि। इंडो वैदिक धर्म मानता है कि ईश्वर एक है। हिन्दू परंपरा में पतंजली के सिद्धान्त- 'प्रकृत्यापुरात' के अनुसार, इस विकासवाद के नियम की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि कि शरीर के मरने के बाद भी जीवात्मा रहती है, और जब तक अपने यथार्थ स्वरुप को नहीं जान लेती तब तक उसका देहान्तर (या पुनर्जन्म) होता रहता है ! सबसे प्रथम व्यक्ति की आत्मा एक अमीबा (एक-कोशकीय जीव) के रूप में अपनी जीवन-यात्रा शुरू करती है; और चौरासी लाख योनि के दौर से गुजर जाने के बाद, उसे एक मानव-शरीर रूपी 'मोक्ष का द्वार' के निर्माण करने की क्षमता प्राप्त होती है। 
 जबकि सेमेटिक धर्मों के अनुसार में मरने वाले की प्रेतात्मा को कयामत के दिन का इन्तजार रहता है, कयामत के दिन उनके कर्मों के अनुसार उनकी मुक्ति या बन्धन का निर्णय खुदा करता है। वे लोग पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते, और मरने के बाद भी शरीर से चिपके रहना चाहते हैं; इसीलिये मृत शरीर को जलते नहीं हैं, जमीन में दफना देते हैं। और कयामत के बाद,जब वे प्रेतात्माएँ कब्र से उठ कर खड़ी हो जाएँगी तो भी भी (क्रम-विकास) मुक्ति या मोक्ष नहीं चाहते हैं, बल्कि अपने अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक में भेजे जाने को ही वे लोग मोक्ष (मुक्ति) या बन्धन (नरक) समझकर, खुदा के अन्तिम निर्णय की प्रतीक्षा करते हैं। 
कुछ हिन्दू पुराणों में इस क्रम-विकास की यात्रा का पूरा विवरण विस्तार से उपलब्ध है। उदाहरण के लिये बृहद विष्णु पुराण में ८४ लाख योनियों को निम्नलिखित क्रम में वर्णित किया गया है- २०,००० स्थावर (non-mobile) प्रजाति के पौधों में जन्म होता है। ९००,००० जलीय प्राणियों की प्रजातियाँ हैं, ९००,००० उभयचर और सरीसृप प्रजाति के जीव हैं। १,०००,००० चिड़ियों की प्रजाति होती है, ३,०००,००० किस्म के पशु आदि अन्य प्राणी है, ४००,००० किस्म के बंदर, चिम्पांज़ी आदि योनियों में जन्म लेने के बाद मनुष्यों की २००,००० प्रकार की प्रजातियाँ अस्तित्व में आती हैं। और तब कोई मनुष्य पूर्णता या पाशविक संस्कारों से मुक्ति प्राप्त करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये उद्दम करना प्रारंभ करता है। मानव जीवन में बुद्धि की जागृति के कारण हम मानव जीवन का उद्देश्य समझ सकते हैं । 
जब हम एक बार मानव-शरीर को प्राप्त कर लेते हैं, तो जीवन को सार्थक बनाने के लिये निःस्वार्थ, करुणापूर्ण, प्रेम-पूर्ण और शान्तिपूर्ण जीवन जीने (जीवन-मुक्ति) का कौशल सीख कर स्वयं में तथा दूसरों में अन्तर्निहित दिव्यता की अनुभूति करके, अपने आदिम, पाशविक और स्वार्थी जीवन जीने की पूर्व संस्कारों को पूर्णतया समाप्त करने में, हमलोगों को हजारों बार पुनः पुनः मानव-जन्म लेने की आवश्यकता पड़ती है। मानव योनि सदैव के लिए जन्‍म–मृत्यु के जंजाल से मुक्‍त होने की योनि है | इसके सही उपयोग से चौरासी लाख योनियों के कालच्रक से हम सदैव के लिए मुक्त हो सकते हैं। "मुक्ति योनि" यानी मनुष्य योनि प्राप्त कर लेने के बाद विवेक-प्रयोग द्वारा पशु-मानव से देव-मानव में क्रम-विकसित होने का प्रधान उपाय के रूप में मनःसंयोग के महत्व पर  प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-
“ मानव का सर्वश्रेष्ठ पूर्ण विकास (पाशविक संस्कारों से मुक्ति) एकमात्र त्याग के द्वारा ही सम्पन्न होता है। जो मनुष्य दूसरों के लिये अपने स्वार्थों जितना अधिक त्याग कर सकता, मनुष्यों में वह उतना ही श्रेष्ठ माना  जाता है। जबकि पशुओं में जो जितना अधिक ध्वंश कर सकता है, उसे उतना ही अधिक बलवान समझा जाता है। अतः पाश्चात्य जीवन-संघर्ष (struggle-theory) का मत इन दोनों क्षेत्रों में एक सा उपयोगी नहीं हो सकता। मनुष्य का संघर्ष है मन में। ‘ A man is greater in proportion as he can control his mind.‘ मन को जो जितना वश में कर सका, वह उतना महान बना है । जब मन की समस्त वृत्तियाँ सम्पूर्ण रूप से शान्त (निश्चल) हो जाती हैं, आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करने लगती है।”
इसलिए, ब्रह्मचर्य शब्द या सिद्धान्त की पृष्ठभूमि में जो महान सत्य छुपा हुआ है, वह है- ‘Life is God‘ जीवन ही ब्रह्म हैं ! ईश्वर (ब्रह्म) मनुष्य शरीर के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करना चाह रहे हैं, किन्तु वाह्य परिवेश और परिस्थितियाँ उसे दबाये रखना चाहती है, उस दबाव को हटाकर अपने देव-स्वरुप को अभिव्यक्त कर लेना ही जीवन है। किन्तु इस सत्य की अनुभूति हमें केवल ईश्वर के साथ, या सर्वोच्च पूर्ण सत्य के साथ एकत्व की अनुभूति के माध्यम से ही प्राप्त होती है। यदि हम अपने और दूसरों के कल्याण के लिये अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करना चाहते हों, तो हमें अपने शरीर और मन को पवित्र बनाना ही होगा । प्रसिद्द लोकोक्ति है- ‘ हथेली पर दही नहीं जमता ‘ या ‘ Rome wasn't built in a day-’ उसी तरह ईश्वर के साथ एकत्व की अनुभूति या पूर्णत्व की प्राप्ति करने में हमलोगों  को हजारों मानव-जन्म लेने पड़ सकते हैं। 
[क्रम विकासवाद के सम्बंध में  १८९८ में हुआ ‘स्वामी-शिष्य संवाद ‘ नाम से संचित है उनके शिष्य श्री शरत चन्द्र चक्रवर्ती बी.ए.लिखते हैं ] - “ आज भगिनी निवेदिता, स्वामी योगानन्द और शिष्य आदि स्वामीजी के साथ अलीपुर का  ‘जू ‘ (चिड़िया-घर Zoological Gardens at Alipur) देखने जायेंगे। योगानन्द और शिष्य ट्राम के द्वारा २.३० बजे रवाना हुए। उस समय घोड़े की ट्राम चलती थी। करीब ४.३० बजे चिड़ियाघर पहुँचकर वहाँ के सुप्रिनटेंडेन्ट रामब्रह्म सान्याल को स्वामीजी के आने की सूचना दी, स्वामीजी का स्वागत करने के लिये स्वयं बगीचे के फाटक पर खड़े रहे। करीब साढ़े चार बजे स्वामीजी भी भगिनी निवेदिता को साथ लेकर वहाँ पहुँचे।
‘जू‘ में तरह तरह के जानवरों को देखते हुए स्वामीजी जीव के क्रमिक-विकास (Darwinian theory of the gradual evolution of animals) के सम्बंध में डार्विन के सिद्धान्त पर चर्चा करने लगे। फिर साँप के पिंजड़े पास जाकर एक बड़े साँप को दिखाते हुए कहा, ‘ देखो, इसी से काल-क्रम में कछुआ पैदा हुआ, साँप के बहुत दिनों तक एक स्थान में बैठे रहने के कारण उसकी पीठ कड़ी हो गयी है।” फिर प्रेम-पूर्वक हँसी करते हुए शिष्य से पूछे, “ तुम (पूर्वी बंगाली) लोग कछुआ खाते हो न? डार्विन का मत है कि यह साँप ही कालक्रम में कछुआ बन गया है; तो इससे निष्कर्ष निकला कि तुम लोग साँप भी खाते हो!"   
शिष्य ने प्रतिवाद करते हुए कहा, “ महाराज, जब कोई जीव क्रम-विकास के द्वारा किसी दूसरे आकर के जीव में रूपान्तरित या कायान्तिरित (metamorphosed) हो जाता है, तब उसका पहले वाला आकार और प्रकृति (former shape and habits ) ही नहीं रहती, तब कछुआ खाने से साँप खाना कैसे हुआ ? “ This answer created laughter among the party.’-सभी लोग हँस पड़े! किन्तु रामब्रह्म बाबु ने पूछा - ‘हमारे देश के प्राचीन विद्वानों ने डार्विन-मत के क्रम-विकास का कारण क्या है?  इसके विषय में क्या कहा है ?’ 
स्वामीजी ने कहा, निम्न प्रजाति (नस्ल) को उच्च प्रजाति में रूपान्तरित होने में पाश्चात्यों की राय में -अस्तित्व को बचाये रखने के लिये संघर्ष का नियम (the laws of struggle for existence)  बलिष्ठ की अतिजीविता (survival of the fittest), और प्राकृतिक चयन (natural selection) -आदि जिन सब नियमों को क्रम-विकास का कारण माना गया है, आप उन्हें अवश्य ही जानते होंगे। परन्तु पातंजल दर्शन में उनमें से एक को भी उसका कारण नहीं माना गया है। भारत के प्राचीन दार्शनिक पतंजलि का सिद्धान्त ही अंतिम निर्णय है, और उनका मत है कि ‘प्रकृत्यापूरात’ अर्थात 
“ प्रकृति पूर्ति-क्रिया “ (in-filling of nature) के द्वारा एक प्रजाति दूसरी प्रजाति में परिणत हो जाती है, विघ्नों के साथ दिन-रात संघर्ष करके नहीं। पशु-जगत (animal kingdom) में तो हम वास्तव में जीवित रहने के लिये संघर्ष, सबसे अधिक बलिष्ठ का अतिजीवन आदि नियम स्पष्ट रूप से देखते हैं। परन्तु मनुष्य-जगत (Human kingdom) में, जहाँ श्रेय-प्रेय का निर्णय या विवेक-प्रयोग क्षमता का विकास हुआ है, वहाँ हम उक्त नियम के विपरीत ही देखते हैं।
पशु-जगत में सहज-प्रवृत्ति (instinct) प्रबल होती है, पशु विवेक से प्रेरित होकर कोई काम नहीं करता, बल्कि जन्मजात संस्कार या स्वभाव के वशीभूत होकर कोई कार्य करता है; परन्तु  - मनुष्य ज्यों ज्यों उन्नत होता जाता है, त्यों त्यों उसके विवेक-प्रयोग करने की क्षमता बढ़ती जाती है। (the more a man advances, the more he manifests rationality) और इसी कारण विवेक-दृष्टि सम्पन्न मनुष्य जगत (Human kingdom) में, पशु-जगत (animal kingdom) के जैसा दूसरों का नाश करके विकसित होने का नियम लागु नहीं हो सकता है ! पशु-जगत में स्थूल देह के संरक्षण के लिये जो संघर्ष होते देखे जाते हैं, वे ही मानव-जीवन (human plane of existence) में मन पर प्रभुता स्थापित करने के लिये अथवा सत्त्ववृत्ति सम्पन्न बनने के लिये होते हैं। सजीव वृक्ष का जो उल्टा प्रतिबिम्ब तालाब के जल में बनता है, ठीक उसी तरह पशु-जगत का संघर्ष मनुष्य-जगत के संघर्ष से विपरीत देखा जाता है।   
शिष्य - तो फिर आप हमसे शरीर को स्वस्थ सबल बनाने के लिये इतना क्यों कहा करते हैं ?
स्वामीजी - क्या तुम अपने को मनुष्य समझते हो ? तुम्हारा तो सिर्फ ढांचा ही मनुष्य का है, हाँ, तुममें पशुओं से थोड़ा अधिक तर्क-शक्ति है। यदि शरीर स्वस्थ न हो तो मन के साथ संग्राम कैसे कर सकोगे ? क्या तुम लोग सृष्टि-रचना में सर्वोच्च क्रम-विकसित प्राणी - ‘ मनुष्य ‘ हो ? जिसे बनाने के बाद ब्रह्म ने सभी फरिस्तों को सलाम करने को कहा था? ‘आहार, निद्रा, भय और मैथुन के अतिरिक्त तुम लोगों में और है ही क्या? अपने ग्रहों को धन्यवाद दो, गनीमत यही है कि अब तक तुम चौपाया नहीं बन गये!”
श्रीरामकृष्ण कहा करते थे- "He is the man who is conscious of his dignity".‘ वही मनुष्य कहलाने के योग्य है, जिसे अपने सम्मान का ध्यान है।
विवेक-प्रयोग के महत्व पर प्रकाश डालते हुए स्वामीजी कहते हैं- विकासवाद और पुनर्जन्मवाद के बहस में न उलझते हुए, विवेक-प्रयोग करना सीखो, निरंतर उसी का अभ्यास करते रहो। “ (Leave aside theories and all that. डार्विन का मतवाद या पतंजली दर्शन का ‘ प्रकृत्यापूरात ‘ के अनुसार ईश्वर बन जाने तक पुनर्जन्म-ग्रहण से (निश्चल तत्वे जीवन) मुक्ति कैसे? (find out whether you are not a species of beings intermediate between the animal and human planes of existence!)
“ अपने स्वयं के दैनन्दिन कार्य एवं दूसरों के साथ व्यवहार करने “के पहले स्थिर चित्त से विचार करके देख लो कि क्या तुम मनुष्य-जगत और पशु-जगत के बीच के किसी प्रजाति-विशेष ( चौपाया की जगह दो-पाया) जैसे हो या नहीं?
शरीर को पहले सुगठित कर लो। फिर धीरे धीरे मन पर भी अधिकार प्राप्त हो जायेगा- ‘ नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ‘‘ This Self is not to be attained by the weak ‘ (Katha Upanishad, I.ii.23). शिष्य ने कहा - ‘ महाराज, आचार्य शंकर ने किन्तु ‘बलहीन ‘ का अर्थ ‘ ब्रह्मचर्य से रहित ‘ कहा है! (the commentator (Shankara) has interpreted the word "weak" to mean "devoid of Brahmacharya or continence".) स्वामीजी बोले - वे कहते हैं, तो कहें ! पर मैं कहता हूँ, जो शरीर से दुर्बल हैं, वे आत्मसाक्षात्कार के अयोग्य हैं। ("The physically weak are unfit for the realisation of the Self.") वास्तविक बात तो यह है कि शरीर के स्वस्थ न रहने पर कोई आत्म-साक्षात्कार का अधिकारी बन ही नहीं सकता। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे-  ‘ शरीर में जरा भी दोष रहने से, कोई व्यक्ति सिद्ध नहीं बन सकता। ‘ ("One fails to attain realisation if there be but a slight defect in the body".) समय का पहिया निरंतर घूमता रहता है, कालचक्र के निर्मम परिवर्तन से आज स्वामीजी, स्वामी योगानन्द तथा भगिनी निवेदिता इस संसार में नहीं हैं, यदि कुछ रह गयी हैं, तो - उनके जीवन की पवित्र स्मृति ! उनके साथ वार्तालाप को थोडा-बहुत लिखने में समर्थ होकर शिष्य अपने को धन्य मान रहा है।(६/ ११४-१७)} 
स्वामी विवेकानन्द ‘अमरत्व‘ (वि०सा०२/१२१-१३२) के विषय पर प्रवचन में कहते हैं - “ देहान्त के बाद आत्मा की क्या गति होती है ? इसको हम कैसे जानें ? क्योंकि समस्त ज्ञान तो अनुभव से ही प्राप्त होता है, फिर मरने के बाद क्या होता है, इसे हम अभी कैसे जानें ?
हम अपने चारों ओर क्या देखते हैं ? निरंतर परिवर्तन- बीज से वृक्ष होता है और चक्र पूरा करके वह फिर बीज-रूप में परिणत हो जाता है। एक जीव उत्पन्न हुआ, कुछ दिन जीवित रहा, फिर मर गया, इस प्रकार मानो एक वृत्त पूरा हो गया। समुद्र से बादल उठते हैं और वर्षा करके फिर समुद्र में ही मिल जाते हैं। सर्वत्र एक ही वृत्त पूरा हो रहा है- जन्म, वृद्धि और नाश मानो गणित के अनिवार्य नियम के अनुसार एक के बाद एक आते रहते हैं। यह हमारा प्रतिदिन का अनुभव है।
क्षुद्रतम परमाणु से लेकर उच्चतम सिद्ध पुरुष (कृष्ण,बुद्ध, ईसा रमण महर्षि … एन.दा आदि) तक लाखों प्रकार के विभिन्न नाम-रूप धारी वस्तुओं के भीतर हम एक अखण्ड भाव, (अस्ति-भाति-प्रिय का) एक एकत्व भी देखते हैं। आधुनिक विज्ञान पदार्थ और उर्जा को एक ही पदार्थ मानने लगा है। (गॉड पार्टिकल खोज लिया है) मानो वही एक प्राण-शक्ति नाना रूपों में प्रकाशित हो रही है। बीज का ही वृक्ष होता है, बालू के कण का नहीं। पिता ही पुत्र होता है, मिटटी का ढेला नहीं। अब प्रश्न है कि यह क्रमविकास किससे होता है ?
बीज पहले क्या था ? वह उस वृक्ष-रूप में ही था ! भविष्य में होने वाले वृक्ष की सभी संभावनायें उस बीजाणु में विद्यमान हैं। इसी सम्भावना को हमारे ऋषियों ने ‘ क्रम-संकोच ‘ (Involution) कहा है। इस प्रकार हम देखते है कि प्रत्येक क्रम-विकास के पहले क्रम-संकोच का होना अनिवार्य है। क्रमविकास कभी शून्य से नहीं होता। तब फिर वह हुआ कहाँ से ? पूर्वगामी क्रमसंकोच से।  बालक क्या है ? एक क्रमसंकुचित या अव्यक्त व्यस्क-मानव है, और मनुष्य क्रमविकसित बालक है। क्रमसंकुचित वृक्ष ही बीज है और क्रमविकसित बीज ही वृक्ष बन जाता है। ‘ From the lowest protoplasm to the most perfect human being there is really but one life.’ निम्नतम जीवद्रव्य (Protoplasm वनस्पति तथा प्राणियों के जीवन का आधार तत्व) से लेकर पूर्णतम-विकसित मानव (कृष्ण-ईसा-बुद्ध) पर्यन्त वस्तुतः एक ही जीवन है।
जिस प्रकार एक ही जीवन में हम शैशव, यौवन, वार्धक्य आदि विविध अवस्थायें देखते हैं, उसी प्रकार जीविसार से लेकर पूर्णतम मानव (बुद्ध) पर्यन्त एक ही अविच्छिन्न जीवन, एक ही श्रृंखला है। ‘ This is evolution, but we have seen that each evolution presupposes an involution.’ इसीको क्रमविकास कहते हैं, और यह हम पहले ही देख चुके हैं कि प्रत्येक क्रम-विकास (या अक्रम मुक्ति sudden Liberation) के पूर्व एक क्रम-संकोच रहता है। यह समग्र जीवन, जो क्रमशः व्यक्त होता है, अपने को जीविसार से लेकर पूर्णतम मानव अथवा धरती पर अवतीर्ण ईश्वरावतार (भगवान श्रीरामकृष्ण देव) के रूप में, क्रमविकसित होता है, एक श्रृंखला या श्रेणी है, और यह सम्पूर्ण अभिव्यक्ति उसी जीविसार में संकुचित रही होगी। यह समस्त जीवन, धरती पर अवतीर्ण यह ईश्वर (ठाकुर देव की बुद्धि) तक उसी ‘protoplasm ‘ या जीवद्रव्य में निहित थे, बस, धीरे धीरे -- बहुत धीरे क्रमशः उस सबकी अभिव्यक्ति मात्र हुई है। ‘ It is this one mass of intelligence which, from the protoplasm up to the most perfected man, is slowly and slowly uncoiling itself.’ बुद्धि की यह एक राशी ही जीविसार से पूर्णतम मनुष्य ( जीवन-मुक्त Liberated Soul) तक अपने को क्रमशः व्यक्त कर रही है, या खोल रही है। ” (२/१२४)
इसीलिये मनुष्यों की भीड़ जहाँ वस्तुतः उच्च नियमों का पालन कर ही नहीं सकती; वहीँ कोई सामान्य रूप विकसित मनुष्य भी यदि ठान ले, तो अपनी पात्रता के अनुरूप उनका अनुसरण कर सकता है। किन्तु हमें अपनी सीमाओं को स्वीकार करना चाहिये और अन्धाधुन्ध तरीके से, या विवेकहीनता पूर्वक (haphazardly) कोई कार्य नहीं करना चाहिये, बल्कि निष्ठापूर्वक चरण-बद्ध तरीके से, शांत-चित्त होकर अपने पाशविक-संस्कारों को हटाते हुए, धीरे धीरे देवमानव में क्रम-विकसित या क्रम-मुक्त होने का प्रयत्न करते रहना चाहिये। जो लोग अपने जीवन को उन्नत बनाने के प्रति गंभीर हैं, वे जीवन के स्वस्थ विकास के लिये अनिवार्य कुछ अनुशासनों (Healthy Disciplines of Life-अष्टांग) का व्यवस्थित ढंग से अनुसरण करके क्रम-विकसित हो सकते हैं।
अष्टांगयोग-पद्धति (यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा) के माध्यम से मन को बहुत  हद तक नियंत्रित अवश्य किया जा सकता है, किन्तु (समाधी में गये बिना) कोई भी मनुष्य इसको पूरी तरह से नियन्त्रित नहीं कर सकता है। यदि हम अपने जीवन को सार्थक बनाने के प्रति गंभीर हैं, तथा आत्मसंयम के उच्च अध्यात्मिक नियमों का अनुसरण करने के लिये तत्पर हैं; तो मनुष्य-जीवन में ब्रह्मचर्य (continence) का महत्व के पहलू पर मन को एकाग्र करना ही होगा। और स्वीकार करना होगा, कि मन की दुर्बलताओं को धीरे धीरे, केवल चरण-बद्ध तरीके से ही नियंत्रित किया जा सकता है। भगवत गीता में भगवान कहते हैं -
शनै: शनै: उपरमेत बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
     आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ।।६/२५॥  
(शनै: = क्रम क्रम से (अभ्यास करता हुआ); उपरमेत् = उपरामता को प्राप्त होवे (तथा); धृतिगृहीतया = धैर्ययुक्त; बुद्वया = बुद्विद्वारा; मन: = मन को; आत्मसंस्थम् = परमात्मा में स्थित; कृत्वा = करके (परमात्मा के सिवाय और); किंचित् = कुछ; अपि = भी; न चिन्तयेत् = चिन्तन न करे।)  
“ धीरे धीरे चरणबद्ध तरीके (अष्टांग-मार्ग) से अभ्यास करते हुए साधक को उपरति (quietude परम शांति) प्राप्त करना चाहिये तथा धैर्य युक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके, उस साधक या साधिका को एकमात्र ब्रह्म (युगावतार ठाकुर ) के सिवा अन्य किसी व्यक्ति या वस्तु का चिन्तन नहीं करना चाहिये ।”
हम लोग यहाँ, ब्रह्मचर्य सबों के लिये लाभकारी है, के विषय पर चर्चा कर रहे हैं। जो युवा, चरित्र एवं मनुष्य-जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को रूपान्तरित करने के प्रति गंभीर हैं, वे अपने शरीर-मन की समष्टि को क्षति पहुँचाये बिना, जितना उनसे संभव हो उतना ब्रह्मचर्य का अभ्यास कर सकते हैं। गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी दैहिक और मानसिक संरचना के अनुरूप ही साधना चाहिये। प्रत्येक वर्ण के लोगों को अपने वर्ण और आश्रम के लिये विहित धर्म-कर्म का ही अनुसरण करना चाहिये -
श्रेयान् स्वधर्मों विगुण: परधर्मात् स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ।।३/३५ ।।
(स्वनुष्ठितात् = अच्छी प्रकार आचरण किये हुए; परधर्मात् = दूसरे के धर्म से विगुण: = गुणरहित; (अपि) = भी; स्वधर्म: = अपना धर्म; श्रेयान् = अति उत्तम है; स्वधर्मे = अपने धर्म में; निधनम् = मरना (भी); श्रेय: = कल्याण कारक है (और); परधर्म: =दूसरे का धर्म; भयावह: = भय को देने वाला है। )-
“सुन्दर रूप से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा, गुणरहित होने भी निज-धर्म श्रेष्ठतर है। अपने वर्णाश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ) के धर्म में मृत्यु भी कल्याणकारी है, और दूसरों (वानप्रस्थ या संन्यासी ) का धर्म भययुक्त या हानिकारक  है ।”

श्रीरमण महर्षि ने स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह‘ की व्याख्या करते हुए कहा हैं- “ हर देश में किसी न किसी रूप में वर्णाश्रम विद्यमान है । महत्त्व इस बात है कि एकमात्र आत्मा में स्थित रहो, वहाँ से बाहर न भटको इसका वास्तविक भाव यही है ।
स्व = स्वयं का अर्थात् आत्मा का । पर = दूसरे का अर्थात् अनात्मा का ।
आत्मधर्म का प्रतिष्ठान आत्मा में है । वहाँ क्लेश अथवा भय नहीं होंगे । जब कोई अन्य होता है तभी दुःख उत्पन्न होता है । यदि यह अनुभूति हो कि केवल एकमात्र आत्मा ही है, दूसरा कोई नहीं है, तब भय नहीं होगा । 
आज का मानव भ्रमवश अनात्म-धर्म को आत्म-धर्म समझकर दुःख उठाता है ।  उसे (आत्मा को) जानकर उसी में स्थित रहना चाहिए । तब भय का अन्त हो जाता है और संशय भी नहीं रहते । यदि इसका अर्थ वर्णाश्रम धर्म लें तो भी यही आशय निकलेगा । ऐसा धर्म तभी फलदायक होगा जब कर्मों को निःस्वार्थ भाव से किया जाये ।
अर्थात् यह मान लिया जाय कि (वह अक्रम-मुक्त) व्यक्ति कर्त्ता नहीं है परन्तु किसी उच्चतर सत्ता का यन्त्र मात्र है । उच्चतर सत्ता अवश्यम्भावी को होने दे और मैं केवल उसके आदेशों का ही पालन करूँ । कर्म मेरे नहीं हैं । इसलिए कर्मों के परिणाम भी मेरे नहीं हो सकते । युद्ध  करने अथवा न करने वाले तुम हो कौन् ? कर्त्ता भाव को त्यागो । जब तक उस भाव का निवारण नहीं करोगे तुम्हें कर्म तो करना ही होगा । उच्चतर सत्ता तुम्हारा उपयोग कर रही है । उसके आदेश के पालन की अवहेलना कर के भी तुम स्वयं उसी सत्ता को स्वीकार कर रहे हो । इसकी अपेक्षा उस सत्ता को अंगीकार कर उसके आदेशों का यन्त्रवत् पालन करो । (अन्य प्रकार से कहें तो) यदि तुम इन्कार करोगे तो तुम्हें बलपूर्वक युद्ध में खींच लिया जायेगा। अनिच्छुक कर्त्ता की अपेक्षा इच्छापूर्वक कार्य करना श्रेयस्कर है। अथवा आत्मा में स्थित हो कर्त्तापन के भाव से रहित होकर स्वभावानुसार कर्म करो । तब कर्म का फल तुम्हें प्रभावित नहीं करेगा । यही पुरुषार्थ एवं वीरता है । अन्त में श्रीरमण महर्षि कहते हैं- जड़ जगत से आसक्ति को त्याग कर, ’आत्मा में संस्थिति’ ही गीता के उपदेश का सार है। यदि मनुष्य आत्मा में स्थित है, ये संशय उदय नहीं होंगे । वे तभी तक उदय होते हैं जब तक वह वहाँ स्थित नहीं होता ।"
(One has to approximate the Ideal according to one’s station in life and one’s physical and mental capacity.’) प्रत्येक व्यक्ति को यथासंभव अपने आदर्श के ही अनुसार अपने लक्ष्य पर पहुँचने की चेष्टा करनी चाहिये, ऐसा कहना निरर्थक है कि गृहस्थ से संन्यासी श्रेष्ठ है। संन्यासी का अर्थ है-धर्माचार्य; जिसकी सारी शक्तियाँ केवल धर्म की ओर रहती हैं। गृहस्थ भी ब्रह्मनिष्ठ हो सकता है। ब्रह्मज्ञान लाभ ही उसके जीवन का भी लक्ष्य है, तथापि उसे सदैव कर्म करते रहना होगा, अपने आश्रम के विहित सारे कर्तव्य उसे सम्पन्न करने होंगे, किन्तु वह जो भी करेगा, ब्रह्मार्पण-बुद्धि से करेगा। कोई किसी से हीन नहीं है, किन्तु एक का कर्तव्य दूसरे के लिये कर्तव्य नहीं है। कोई व्यक्ति अपने जीवन के क्रम-विकास (evolution) करते हुए जिस अवस्था तक पहुँच सका है, तथा उसकी जैसी शारीरिक और मानसिक योग्यता अभी है, उसी के अनुसार प्रयत्न करते हुए उसे अपने आदर्श के सन्निकट पहुँचने की चेष्टा करनी चाहिये। 
महान अध्यात्मिक पैगम्बरों ने प्रत्येक युग में हमलोगों के समक्ष सर्वोत्कृष्ट आदर्श का एक साँचा प्रस्तुत किया है। किन्तु हम जैसे सामान्य-मनुष्यों को उन्हें साकार करने में कई (जन्म) सदियाँ बीत जाती हैं। किन्तु जो व्यक्ति ‘ ब्रह्मचर्य की साधना ‘ (ठाकुर को ब्रह्म मान कर उनकी उपासना, 'नाम-जप') प्रारंभ कर देते हैं, उन्हें सदैव ही तत्काल शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और नैतिक लाभ प्राप्त होता है। उन्नति के हर क्षेत्र में एक ईमानदार, क्रमिक और नियमित प्रयत्न (अध्यवसाय) की अनिवार्यता होती है, उसी प्रकार मन को भी उन्नत बनाने में जल्दीबाजी न दिखाकर  यथाक्रम नियमित रूप से  और पूरी ईमानदारी के साथ प्रयत्न करना होगा।
ब्रह्मचर्य की इस प्रक्रिया (श्रवण-मनन-निदिध्यासन या नाम-जप) द्वारा क्रम-विकसित होने को, या 'ब्रह्म-रूपी ठाकुर' की उपासना करने को मन का दमन नहीं उसका उद्दातीकरण या उच्च बनाने की प्रक्रिया (sublimation) कहा जाता है। जो बुद्धिमान (विवेक-शील) व्यक्ति जीवन की सार्थकता के उपर बहुत गम्भीरता से चिन्तन-मनन करने के बाद, यह निर्णय लेता है कि बहुत सारा धन खर्च करके भोग-विलास का जीवन जीने या इन्द्रियभोगों की तुष्टि में लगे रहने कि की अपेक्षा, ‘ मानव-जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य (पूर्णत्व) मुक्ति को प्राप्त करना ही मेरे जीवन का चरम उद्देश्य होना चाहिये; उस विवेकी मनुष्य के लिये इन्द्रियों का दमन करने या मन को प्रतिबन्धित करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। गीता में भगवान कहते हैं -
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृते: ज्ञानवानSपि ।
        प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति ।।गीता ३/३३॥  


(भूतानि = सभी प्राणी; प्रकृतिम् = प्रकृति को; यान्ति = प्राप्त होते है अर्थात् अपने स्वभाव परवश हुए कर्म करते हैं; ज्ञानवान् = ज्ञानवान्; अपि = भी; स्वस्या: = अपनी; प्रकृते: = प्रकृति के; सदृशम् = अनुसार; चेष्टते = चेष्टा करता है (फिर इसमें किसी का); निग्रह: = हठ; किम् = क्या; करिष्याति = करेगा। “)
ज्ञानवान व्यक्ति या आत्मज्ञान में प्रतिष्ठित व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही काम करते हैं, सभी जीव अपने स्वभाव के वश में होकर ही कर्म करते हैं, ऐसी स्थिति में उपदेश या शासन-वाक्य क्या करेगा ? अर्थात कुछ भी फल न होगा।
अपरोक्षानुभूति के पूर्व तक सभी मनुष्य प्रारब्ध कर्म के अधीन रहते हैं और ज्ञानी लोगों को भी अपना प्रारब्ध भोग करके ही क्षय करना पड़ता है, वे भी अपने पूर्व जन्मों में अर्जित कर्मफल के अनुसार ही परिचालित होते हैं। इस कर्म-संस्कार को ही यहाँ प्रकृति कहा गया है। पूर्व जन्म के धर्माधर्म रूप कर्मों के फलस्वरूप विशेष-विशेष गुणों के विकास को परिपक्व आदत, पूर्व-संस्कार या सहज प्रवृत्ति (instinct) कहते हैं, इसी का नाम स्वाभावजात कर्म है। प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार ही बाध्य होकर काम करता है।  यहाँ ‘ निग्रह: किं करिष्यति ? ‘ “ कोई भी प्राणी (अस्तित्व-जिसका विवेक जाग्रत नहीं है) अपनी प्रकृति या स्वाभाव के पीछे पीछे चलने को बाध्य है, दमन क्या कर सकता है ? (Being follow nature; what can suppression do ?) “ इस आक्षेप का आशय यह है कि किसी भी मनुष्य के लिये उसके अपने स्वभाव का संशोधन करना (या जीवन-गठन) सबसे कठिन कर्तव्य (task) है। 
हमारे इस ग्रह पर जिस किसी प्राणी में जीवन है, उनमें से प्रत्येक के भीतर सहजप्रवृत्ति (आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति) और विषयों की भूख होती है। ‘ प्रजनन के लिये आग्रह ‘ (procreative urge) पौधों, जानवरों और मनुष्यों के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। इस अदम्य इच्छा का नियंत्रण पौधों में- प्रकृति के द्वारा; जानवरों में सहज-प्रवृत्ति के द्वारा, तथा मानवों में उस व्यवहारिक बुद्धि (common sense) या विकसित तर्क-बुद्धि के द्वारा होता है। जो हमें आत्मसंयम, आत्मानुशासन, आचरण में नियमनिष्ठता और पवित्रता आदि सद्गुणों का अभ्यास करने में सक्षम बना देती है। यह विवेक-प्रयोग करने की योग्यता ही वह चरम-बिन्दु है, जहाँ पहुंचकर मनुष्य पशुओं से अलग हो जाता है।
यदि सम्पूर्ण आध्यात्मिक जीवन का लक्ष्य अन्तस्थ ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति के लिये मानव-प्रकृति का शोधन (refinement) करना हो, अर्थात मनुष्य की पाशविक-प्रकृति (animal nature देहाध्यास या स्वयं को स्त्री-परुष शरीर मानने के भ्रम) का क्रमिक उन्मूलन करना हो, तो ब्रह्मचर्य के अभ्यास सहित सभी साधनायें (अष्टांग-योग या श्रीरामकृष्ण की उपासना आदि) मानव-जीवन में अपने सही स्थान को प्राप्त कर लेती हैं। अपने वर्ण और आश्रम के लिये विहित धर्म-कर्म पर निर्भर रहते हुए भी, प्रत्येक व्यक्ति आत्म-संयम, पवित्रता, या ब्रह्मचर्य का अभ्यास कर सकता है। अपनी उच्चतम भावना में ब्रह्मचर्य का अर्थ, काम-शक्ति (procreative urge) को उच्च बनाने की क्रिया (sublimation या रुपान्तरण) के माध्यम से, इस पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करना है। 
संस्कृत भाषा में ब्रह्मा शब्द का अर्थ होता है परमात्मा या सृष्टिकर्ता और चर्य का अर्थ है उसकी खोज। यानी आत्मा के शोध का अर्थ है ब्रह्मचर्य। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी माना गया है कि मन, कर्म और विचार से सेक्स से दूर रहना ब्रह्मचर्य है। विवेक-प्रयोग के द्वारा स्वाभाविक रूप से यौन विचारों और इच्छाओं से पूर्ण-स्वतंत्र हो जाना ही ब्रह्मचर्य है | ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ है, ब्रह्म में रमण। यह विचार, वचन और कर्म तथा सभी इंद्रियों का नियंत्रण है| अपनी चेतना को उच्चतर क्षेत्र में ले जाने के लिए कृतसंकल्प होकर काम-ऊर्जा को सुरक्षित रखते हुए, काम-शक्ति को उर्ध्वगामी बनाकर, उसे आध्यात्मिक ऊर्जा या ओजस में रूपान्तरित कर लेना ही ब्रह्मचर्य है। 
विश्व के प्रमुख धर्म-ग्रंथों में ब्रह्मचर्य (chastity) के विषय पर, जिन विशिष्ट नियम-अधिनियमों को मानव-समाज के समक्ष रखा है, वे सब मनुष्य-जीवन में प्राप्त होने वाली भगवद-कृपा का ही एक रूप हैं। भारत में ब्रह्मचर्य को सर्वोच्च-स्तर तक विकसित किया गया था, और इसीके आधार पर सम्पूर्ण जीवन-चक्र को चार चरणों (आश्रमों) में समेट लिया गया था - यथा (१) छात्र जीवन या अध्येता का जीवन (२) गृहस्थ- जीवन (३) सेवानिवृत्त-जीवन ‘retired-life’ (४) एक मात्र भगवान को समर्पित जीवन।
पहले चरण के जीवन में छात्रों को, कठोर ब्रह्मचर्य या कुंवारापन (celibacy) का अनुसरण करना पड़ता है, जो उन्हें अपने पढ़ाई में उत्कृष्टता, स्वस्थ और मजबूत शरीर, के साथ सुन्दर चरित्र को सुनिश्चित करते हुए, भविष्य के परिपक्व वयस्क जीवन के लिए तैयार कर देता है। ब्रह्मचर्य अपने आप में अति उत्तम है, लेकिन वह २५ साल की आयु तक ही हो तो व्यावहारिक रह सकता है। बहुत थोड़े से चुने हुए व्यक्ति ही, जिनको यह संसार बिल्कुल अरुचिकर या बेस्वाद लगता हो, केवल वैसे लोग ही, गृहस्थ से सीधा सन्यास लेने के योग्य हो सकते हैं। बढी हुई आध्यात्मिकता तो खिले हुए कमल और सुगंधमय गुलाब की तरह होती है।
इसीलिये दूसरे चरण के जीवन या गृहस्थ-जीवन में वंश-विस्तार की इच्छा (Procreative Urge) को, अगली पीढ़ी के लिये योग्य सन्तति (Eligible offspring) का निर्माण करने के उद्देश्य से, पति-पत्नी के लिये एक अपरिहार्य किन्तु नियंत्रित कर्तव्य के रूप में, पवित्र मान कर स्वीकार किया जाता है। तीसरे चरण के जीवन (वानप्रस्थ-जीवन) में दम्पति, अपने गृहस्थी का सारा बोझ अपने बेटों के उपर सौंपकर उन साधनाओं का अभ्यास करने के लिए सेवानिवृत्त हो जाते हैं, जिसमें ब्रह्मचर्य का अभ्यास भी शामिल है। चौथे चरण का सम्पूर्ण जीवन ही ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन के प्रति  समर्पित है; जिसमें कोई व्यक्ति एकांत में रहने वाला संन्यासी अथवा धर्माचार्य बनने का स्वतंत्र  निर्णय ले सकता है।
संयम के व्यापक अर्थ में वंश-विस्तार की इच्छा (Procreative Urge) को कोसे बिना, आत्म-संयम, अपने जीवन-साथी के साथ प्रति वफ़ादार रहने, या अनधिकृत-मैथुन से बचने के लिये, ब्रह्मचर्य सभी श्रेणी के गृहस्थों के लिये प्रयोज्य है। और इसके सबसे सीमित अर्थ में, ब्रह्मचर्य-पालन ईश्वर प्राप्ति के लिए अत्यंत आवश्यक गुण है।
हिंदू धर्म हमेशा से प्रगतिशील रहा है और प्राचीन धर्म-शास्त्रों के विरुद्ध गये बिना भी, इसने हर ऐतिहासिक युग में उन परिवर्तनों को, अपने भीतर स्वीकार और समाविष्ट कर लिया है जो जनसाधारण के लिये उपयोगी या लाभदायक हैं। परम्परागत रूप से ब्रह्मचर्य-पालन को, हर युग में समाज ने सम्मान दिया है; तथा आध्यात्मिक-जीवन के प्रथम आवश्यकता के रूप में सदैव स्वीकार भी किया गया है। हिन्दू-धर्म शास्त्रों ने कल्प युग तक हमारे राष्ट्र का मार्गदर्शन किया है, और भारतीय लोगों के आध्यात्मिक कल्याण में तथा उन्हें स्वास्थ्य और दीर्घायु प्रदान करने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। किन्तु दुर्भाग्यवश, आधुनिक भारत में सभी उम्र और जीवन शैली के लोग, विशेष रूप से आज का शिक्षित वर्ग, उन शास्त्रोक्त यम-नियम को पीड़ा-दायक या उपहास की वस्तु समझकर उनसे छुटकारा पाना चाहता है। इसी कारण ऐसे पुरुषों और स्त्रियों में जो लोग अपनी अध्यात्मिक विरासत से अनभिज्ञ हैं, उन तथाकथित आधुनिक (advanced) परिवारों में शारीरिक, मानसिक और नैतिक रूप से विकृत सदस्यों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
यह भाव दिखलाने के लिये, कि परमात्मा को प्राप्त सिद्ध महापुरुष की महिमा क्या होती है ? गीता ३/१६ में उसका वर्णन किया गया है। ऐसे जीवन्मुक्त पुरुष संसार में विरले हैं, जो केवल संसार के कल्याण के लिये तथा लोक-शिक्षा के लिये वे संसार में विचरण करते हुए शुभ कर्मों का अनुष्ठान करते हैं। उनके होने मात्र से ही संसार का कल्याण होता है। श्री रामकृष्णदेव कहते थे- “ यहाँ के जो कुछ कर्म हैं सभी आदर्श प्रस्तुत करने तथा लोकशिक्षा के लिये हैं। …राजा जनक आदि ज्ञानी आत्मज्ञान प्राप्त करके गृहस्थी में रहते थे। राजा जनक साधन-भजन के अनन्तर सिद्ध होकर संसार में रहते थे।  वे दो तलवार घुमाया करते थे- ज्ञान और कर्म की। जनक साधारण मनुष्य नहीं थे, वे आधिकारिक पुरुष थे, इसी कारण वे ब्रह्मज्ञान में प्रतिष्ठित रहकर लोक-शिक्षा के लिये सभी प्रकार के कर्मों का आचरण करने में समर्थ थे।
ब्रह्मज्ञान में प्रतिष्ठित अवतार आदि को छोड़ कर हमारे-आपके जैसे अन्य सभी गृहस्थ या प्रवृत्ति-मार्गियों या सृष्टि से सम्बंध रखने वाले अन्य सभी मनुष्यों पर सृष्टि-चक्र के अनुसार चलने का, या अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने का उत्तरदायित्व है- इसको स्पष्ट हुए भगवत गीता में कहा गया है -

 
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य: ।
     अघायु: इन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।।३/१६।।


(पार्थ = हे पार्थ ; य: = जो पुरुष ; इह = इस लोकमें ; एवम् = इस प्रकार ; प्रवर्तितम् = चलाये हुए ; चक्रम् = सृष्टिचक्रके ; न अनुवर्तयति = अनुसार नहीं बर्तता है (अर्थात शास्त्रानुसार कर्मोंको नहीं करता है) ; स: = वह ; इन्द्रियाराम: = इन्द्रियोंके सुखको भोगनेवाला ; अघायु: = पापआयु (पुरुष) ; मोघम् = व्यर्थ ही ; जीवति = जीता है )
“ हे पार्थ ! जो पुरुष इस लोक में प्रत्येक गोचर वस्तु और प्राणियों के बीच अन्तःसंबन्ध के चक्र,जो ब्रह्माण्डीय उद्भव के प्रारंभ से ही, अचल रूप में घूर्णनशील है, के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है। “
मनः संयोग के महत्व पर प्रकाश डालते हुए स्वामीजी कहते हैं- “ मन अत्यन्त सूक्ष्म भौतिक पदार्थ है। प्राण को अभिव्यक्त करने का उपकरण मन है। अभिव्यक्त होने के लिये शक्ति को भौतिक पदार्थ की आवश्यकता होती है। हमारा मन तीन स्तरों पर क्रियाशील है--अवचेतन, चेतन और अतिचेतन। मनुष्यों में केवल योगी ही अतिचेतन अवस्था में रहता है। स्वास्थ्य को क्षति पहुँचाये बिना कैसे अतीन्द्रिय बनें, यही हम सीखना चाहते हैं। प्राण की अन्तिम तथा सर्वोच्च अभिव्यक्ति है प्रेम। जिस क्षण तुम प्राण से प्रेम का निर्माण करने में सफल हो गये, उसी क्षण तुम मुक्त हो। तुम दूसरों की आलोचना कदापि न करो, स्वयं ‘अपनी’ आलोचना करो। याद रखो, वह अन्य रूपधारी तुम्हीं हो। (४/८५-९८)]   
उपभोक्तावाद एवं तथाकथित व्यक्ति-स्वातंत्र्य के इस युग में, हमलोग ब्रह्मचर्य के व्यवहार पर जोर देने के बजाय, केवल दो आयामों ‘ शरीर और मन ‘ के विकास पर ही अधिक बल दे रहे हैं । वर्तमान विश्व की संस्कृति रोग-ग्रस्त हो गयी है, और तत्काल उसके आध्यात्मिक उपचार की आवश्यकता है। इन दिनों भोगवादी संस्कृति सम्पूर्ण समाज हावी हो चुकी है, और ज्यादातर मामलों में कामुक संतुष्टि के लिए ही आज के लोग भोग-विलास की वस्तुओं में आसक्त हैं, जो की शारीरिक, मानसिक और नैतिक दृष्टि से अत्यंत हानिकारक हैं। इसलिये यदि हम क्रम-विकसित मनुष्य से पूर्णत्व- प्राप्त मनुष्य या यथार्थ मनुष्य बनना चाहते हों, तो सदाचार (rectitude) ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये। जब हमलोग मानव-जीवन को स्वस्थ बनाने वाले सिद्धान्तों या नियमों का उल्लंघन करते है, तो स्वयं को हम मुसीबत में फँसा लेते हैं।
इस पुस्तिका में, हर किसी के लिये विशेष रूप से वर्तमान पीढ़ी के युवक-युवतियों के लिये- वंश-विस्तार करने की इच्छा (procreative urge) का उच्चतर, उत्कृष्ट तथा स्थायी उद्दातीकरण (sublimation) करने का एक व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया हैं। स्वामी विवेकानन्द (वेदान्त और विशेषाधिकार में) कहते हैं - ” आत्मा के प्रसंग में यह कहना निरर्थक है कि एक आत्मा अन्य की अपेक्षा श्रेष्ठ है। आत्मा के वर्णन में यह कहना निरर्थक है कि मनुष्य का आवरण, पशु अथवा पौधों के आवरण से श्रेष्ठ है; सारा विश्व एक है। आवरण (अंतःकरण या शुद्ध-बुद्धि या शरीर) में अन्तर के कारण पौधे में आत्मा की अभिव्यक्ति की रुकावटें बहुत बड़ी हैं, पशुओं में उनसे थोड़ी कम, और मनुष्यों में और भी कम हैं; किसी सुसंस्कृत और आध्यात्मिक मनुष्य में उनसे भी कम हैं, और पूर्ण मानव (कृष्ण-बुद्ध-ईसा) में उन रुकावटों का पूर्णतया लोप हो जाता है।
हममें से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा समय अवश्य आयेगा, जब समस्त विश्व जाग्रत अवस्था में देखा जा रहा स्वप्न मात्र प्रतीत होगा। तब हमें पता लगेगा कि अपने परिवेश की अपेक्षा हम (आत्मा) अनन्त गुना श्रेष्ठ हैं ! समस्त ज्ञान और सभी शक्तियाँ हमारे भीतर ही हैं, बाहर नहीं। जिन्हें हम सिद्धियाँ, प्रकृति के रहस्य और शक्ति कहते हैं, वे सब भीतर विद्यमान हैं। प्रकृति में कोई ज्ञान नहीं है, मानव की आत्मा से समस्त ज्ञान उद्भूत होता है।
मनुष्य ज्ञान व्यक्त करता है, अपने भीतर वह उसका आविष्कार करता है, जो पहले से, शाश्वत काल से ही विद्यमान है। प्रत्येक व्यक्ति में एक समान ही सामर्थ्य है--एक में उसकी अभिव्यक्त अधिक है, दूसरे में कम। फिर विशेषाधिकार का दावा कहाँ ? मनुष्य किस मुख से अपने लिये विशेषाधिकार पाने का दावा कर सकता है ? ईश्वर का कोई विशेष संदेशवाहक नहीं, न कभी था, और न आगे वैसा दावा कोई कर सकता है।
छोटे-बड़े सभी जीव ईश्वर की समान रूप से अभिव्यक्तियाँ हैं, अन्तर केवल अभिव्यक्तियों के परिमाण में है। सुर और असुर में कुछ भेद नहीं है, भेद केवल उनके निःस्वार्थी और घोर स्वार्थी होने में है। असुर भी उतना जानता है, जितना सुर, उसमें बस पवित्रता नहीं होती -इसी कारण वह असुर बन जाता है। वेदान्त की इसी भावना को आधुनिक संसार (यू.एन.ओ में बैठे पाँच वीटो पावर प्राप्त राष्ट्रों) पर लागू करो। पवित्रता (ब्रह्मचर्य) से रहित ज्ञान और शक्ति का अतिरेक मनुष्यों को असुर बना देता है। (excess of knowledge and power, without holiness, makes human beings devils.’) वेदान्ती नैतिकता का यही सारांश है--सबके प्रति साम्य ! अपने को शुद्ध कर लो और संसार का विशुद्ध होना अवश्यम्भावी है।”(९/९५-१०२) 
आशा की जाती है कि यह पुस्तिका लोगों के जीवन की अध्यात्मिक शून्यता को भरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी, तथा पाठकों को उनके शारीरिक, मानसिक, नैतिक और अध्यात्मिक कल्याण के महत्वपूर्ण क्षेत्र में विकास करने के लिये समुचित ज्ञान और मार्गदर्शन प्रदान करेगी। यदि अध्यात्मिक जीवन का मूल उद्देश्य, मनुष्यों की पाशविक प्रकृति का क्रमिक उन्मूलन करना, तथा उसके मानव-प्रकृति का संशोधन करके उसके अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करना है; तो यह स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य-पालन सहित समस्त प्रकार की अध्यात्मिक साधनाओं का  मानव-जीवन में अपना एक उचित स्थान अवश्य हैं।
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