बुधवार, 18 सितंबर 2013

" हिन्दू धर्म " (सनातन धर्म) के उपर स्वामी विवेकानन्द का शोध-पत्र !

" धर्म-महासभा " में १९ सितम्बर, १८९३ ई० को पठित - " Paper on Hinduism "

 Swami Vivekananda in Chicago 

by Swami Vivekananda  
(Read at the Parliament on 19th September, 1893)  

प्रागैतिहासिक युग से चले आनेवाले केवल तीन ही धर्म आज संसार में विद्यमान हैं-हिन्दू धर्म (वैदिक धर्म), पारसी धर्म और यहूदी धर्म। उनको अनेकानेक प्रचण्ड आघात सहने पड़े हैं, किन्तु फिर भी जीवित बने रहकर वे सभी अपनी आन्तरिक शक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
पर जहाँ हम यह देखते हैं कि यहूदी धर्म ईसाई धर्म को आत्मसात नहीं कर सका, वरन अपनी सर्वविजयनी दुहिता ( all-conquering daughter)-- ईसाई धर्म --द्वारा अपने जन्म-स्थान से ही निर्वासित कर गया, और केवल मुट्ठी भर पारसी ही अपने महान धर्म की गाथा गाने के लिये अब अवशेष हैं,-वहाँ भारत में एक के बाद एक न जाने कितने सम्प्रदायों का उदय हुआ और उन्होंने वैदिक धर्म को जड़ से हिल सा दिया; किन्तु भयंकर भूकम्प  के समय समुद्र-तट के जल के समान वह कुछ समय पश्चात हजार गुना बलशाली होकर सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौटने के लिये पीछे हट गया; और जब यह सारा कोलाहल शान्त हो गया, तब इन समस्त धर्म-सम्प्रदायों को उनकी धर्म-माता (वेदान्तिक धर्म या हिन्दू धर्म ) की विराट काया ने चूस लिया, आत्मसात कर लिया और अपने में पचा डाला। 
वेदान्त दर्शन की अत्युच्च अध्यात्मिक उड़ानों से लेकर -आधुनिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार जिसकी केवल प्रतिध्वनी मात्र प्रतीत होते हैं, मूर्ति-पूजा के निम्न स्तरीय विचारों एवं तदानुषंगिक अनेकानेक दन्तकथाओं तक, और बौद्धों के अज्ञेयवाद (Agnosticism) तथा जैनों के निरीश्वरवाद (Atheism) -इनमें से प्रत्येक के लिये हिन्दू धर्म में स्थान है. तब यह प्रश्न उठता है कि वह कौन सा एक सामान्य विन्दु है, जहाँ पर इतनी विभिन्न दिशाओं में जानेवाली त्रिज्याएँ केन्द्रस्थ होती हैं ? वह कौन सा एक सामान्य आधार है, जिस पर ये प्रचण्ड विरोधाभास आश्रित हैं ? इसी प्रश्न का उत्तर देने का अब मैं प्रयत्न करूँगा। 
' The Hindus' हिन्दू जाति (१६ संस्कार, चार पुरुषार्थ, चार आश्रम - युक्त सनातन धर्म का पालन करने वाली जाति) ने अपना धर्म श्रुति - वेदों से प्राप्त किया है। उनकी धारणा है कि वेद अनादि और अनन्त (without beginning and without end) हैं। श्रोताओं को, संभव है, यह बात बेतुका लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती है ? किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक है ही नहीं ! वेदों का अर्थ है-  भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष। ' the accumulated treasury of spiritual laws discovered by different persons in different times.'
जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त मनुष्यों को पता लगने के पूर्व से ही अपना काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्य-जाति उसे भूल भी जाये, तो भी वह नियम अपना काम करता ही रहेगा, ठीक वही बात आध्यात्मिक जगत का शासन करने वाले नियमों के सम्बन्ध में भी है. एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ, और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता (individual spirits and the Father of all spirits-ठाकुर श्री रामकृष्ण !) के साथ जो नैतिक तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं, वे  आविष्कार के पूर्व भी थे, और यदि हम उन्हें भूल भी जायें, तो भी बने रहेंगे।
इन नियमों या सत्यों का आविष्कार करने वाले ' ऋषि ' कहलाते हैं, और हम उनको पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा (गुरु या Leader of the Mankind ) मानकर सम्मान देते है। श्रोताओं को यह बतलाते हुए मुझे हर्ष होता है कि इन महानतम ऋषियों में कुछ स्त्रियाँ भी थीं। 
यहाँ यह कहा जा सकता है कि ये नियम, नियम के रूप में अनन्त भले ही हों, पर इनका एक आदि तो अवश्य होना चाहिये। किन्तु वेद हमें यह शिक्षा देते हैं कि सृष्टि का न आदि है, न अन्त ! विज्ञान भी इस बात को प्रामाणित करता है कि ' the sum total of cosmic energy is always the same.' अर्थात समग्र विश्व की समस्त उर्जा-समष्टि का परिमाण सदा एक सा रहता है।  तो फिर, यदि ऐसा कोई समय था, जब कि किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं था, उस समय यह सम्पूर्ण व्यक्त उर्जा कहाँ थी ? कोई कोई कहते हैं कि ईश्वर में ही वह सब अव्यक्त रूप में निहित थी. तब तो ईश्वर कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त होता है, इससे तो वह विकारशील हो जायेगा। प्रत्येक विकारशील पदार्थ यौगिक होता है और हर यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्यम्भावी है, जिसे हम विनाश कहते हैं. इस तरह तो ईश्वर की मृत्यु हो जाएगी, जो अनर्गल है. अतः ऐसा समय कभी नहीं था-जब यह सृष्टि नहीं थी ! 
मैं एक उपमा दूँ : स्रष्टा और सृष्टि मानो दो रेखाएं हैं जिनका न आदि है न अन्त, और जो सामान्तर हैं। ' God is the ever active providence ' ईश्वर नित्य क्रियाशील महा-शक्तिस्वरूप है, सर्व-विधाता है, जिसकी प्रेरणा से प्रलय-पयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता है, उनका कुछ काल तक पालन होता है और तत्पश्चात् वे पुनः विनष्टि कर दिये जाते हैं। 
‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् '- अर्थात् पूर्व कल्प कि भांति प्रभु ने इस कल्प में भी सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, द्यौ और पृथ्वी आदि को रचा। इस वाक्य का नित्य पाठ प्रत्येक (द्विज) हिन्दू बालक प्रतिदिन करता है। इस मन्त्र में हम सृष्टि रचना के विषय में नियमित रूप से विचार किया करते हैं।
{संध्योपासन द्विजमात्रके लिये बहुत ही आवश्यक कर्म है । दिन और रात्रि के, रात्रि और दिन के तथा पूर्वान्ह और अपरान्ह के संधिकाल में एकाग्रचित्त होकर जो उपासना की जाती है, उसे संध्या कहते हैं।  ऋत और सत्य सृष्टि रचना का मन्त्र-" ॐ ऋतञ्च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत । ततो रात्र्यजायत । ततः समुद्रो अर्णवः । समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत ।अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी । सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापुर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ॥ अघमर्षण मन्त्र (ऋ० अ० ८ अ० ८ व० ४८)}
यहाँ पर मैं खड़ा हूँ। अपनी आँखें बन्द करके यदि मैं अपने अस्तित्व को समझने का प्रयत्न करूं कि मैं क्या हूँ- ‘मैं’ मैं’ ‘मैं’, तो मुझमें किस भाव का उदय होता है ? इस भाव का कि मैं शरीर हूँ। तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के समूह के सिवाय और भी कुछ भी नहीं हूँ ? वेदों की घोषणा है – नहीं, मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ। शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूँगा। मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ और जब इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही। मेरा एक अतीत भी है। इस शरीर-ग्रहण के पूर्व भी मैं विद्यामान था। आत्मा किसी पदार्थ से सृष्टि नहीं हुई है, क्योंकि सृष्टि का अर्थ होता है भिन्न-भिन्न द्रव्यों का संयोग- वियोग, संघात और विघटन । अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए। इससे सिद्ध हो गया है कि आत्मा का सृजन नहीं हुआ था, वह कोई सृष्टि पदार्थ नहीं है।
कुछ लोग जन्म से ही सुखी होते हैं। पूर्ण स्वास्थ्य का आनंद भोगते हैं, उन्हें सुन्दर शरीर उत्साह पूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त रहती हैं। दूसरे कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते, तो कोई मूर्ख होते हैं, और येन-केन-प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों ? 
यदि ये सभी एक ही न्याय और दयालु ईश्वर ने उत्पन्न किये हों, तो ऐसा फिर उसने एक को सुखी और दूसरे को दुखी क्यों बनाया ? भगवान् ऐसा पक्षपाती क्यों है ? फिर ऐसा मानने से भी बात नहीं सुधर सकती कि जो वर्तमान जीवन में दुखी है, वे भावी जीवन में पूर्ण सुखी रहेंगे। न्यायी और दयालु भगवान् के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुखी क्यों रहे ? दूसरी बात यह कि ' the idea of a creator God does not explain the anomaly ' सृष्टि-उत्पादक ईश्वर को मान्यता देनेवाला यह सिद्धान्त सृष्टि में इस वैषम्य के लिये कोई कारण बताने का प्रयत्न तक नहीं करता बल्कि वह तो केवल एक सर्व-शक्तिमान् स्वेच्छाचारी पुरुष का निष्ठुर व्यवहार ही प्रकट करता है। 
अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिये, जिनके फलस्वरूप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करता है। और ये कारण हैं, उसके ही द्वारा पूर्व जन्म में किये गए कर्म ! क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती ? ' two parallel lines of existence — one of the mind, the other of matter.' यहाँ जड़ पदार्थ और मन (सूक्ष्म जड़-पदार्थ) सत्ता की दो समानान्तर रेखायें हैं। यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपान्तर (ठोस-तरल और गैस ) ही, जो कुछ यहाँ है , उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो फिर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती। किन्तु - ' it cannot be proved that thought has been evolved out of matter' इस बात को सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़ वस्तुओं से हुआ है ?  और यदि कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य है, तो अध्यात्मिक अद्वैवाद (spiritual monism) निश्चय ही तर्कसंगत है और भौतिक अद्वैतवाद (materialistic monism) से किसी भी प्रकार कम वांछनीय नहीं;  परन्तु यहाँ इन दोनों की आवश्यकता नहीं है।
हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता है; किन्तु ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शारीरिक रूपाकृति है, जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन एक विशेष प्रकार से काम कर सकता है। आत्मा की कुछ ऐसी विशेष प्रवृत्तियाँ होती हैं, जिनकी उत्पत्ति अतीत के कर्म से होती है. - एक विशेष प्रवृत्तिवाली जीवात्मा ' laws of affinity' या ' योग्यं योग्येन युज्यते ' के नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति को प्रकट करने के लिये सबसे उपयुक्त आधार हो।
यह सिद्धान्त विज्ञान सम्मत है, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करना चाहता है, और एक ही काम को पुनः पुनः दुहराते रहने से आदत का निर्माण होता है। अतएव नवजात शिशु की प्राकृतिक आदतों की व्याख्या करने के लिये एक ही कार्य को बार बार दुहराते रहना या पुनरावृत्तियाँ अनिवार्य हो जाती हैं। और चूँकि वे उस नवजात शिशु के प्रस्तुत जीवन में प्राप्त तो नहीं हुई हैं, तो इससे यह निशिचित रूप से सिद्ध हो जाता है, कि उस शिशु ने इन प्रवृत्तियों को पिछले जन्मों से ही प्राप्त किया होगा। 
(पुनर्जन्म के विरोध में ) एक दूसरा तर्क भी दिया जाता है, यदि उपरोक्त बातों को स्वतः-सिद्ध मान भी लिया जाय, तो मुझे अपने पूर्व जन्म की कोई भी बात स्मरण क्यों नहीं है ? इसका समाधान सरल है. मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हूँ. यह मेरी मातृभाषा नहीं है. वस्तुतः इस समय (अंग्रेजी बोलते वक्त) मेरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं है, पर उन शब्दों को सामने लाने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मेरे मन में उमड़ पड़ते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि चेतना (Consciousness) मानस-सागर की सतह मात्र है और भीतर उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभवराशि संचित है। केवल प्रयत्न तथा उद्दम कीजिये, वे सब उपर उठ आयेंगे, और अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे।- पुनर्जन्म को लेकर 'This is direct and demonstrative evidence'  यह एक प्रत्यक्ष और ठोस सबूत है.
हमारे ऋषियों ने समस्त संसार के समक्ष इस चुनौती को रखा है, कि किसी सिद्धान्त को स्वयं जाँच कर के सत्यापित करना ही उसका पूर्ण प्रमाण है। वे कहते हैं-हमने उस रहस्य का पता लगा लिया है, जिससे स्मृति-सागर की गंभीरतम गहराई तक मन्थन क्या जा सकता है- उसका प्रयोग कीजिये और आप अपने पूर्व जन्मों की सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर सकेंगे। 
अतएव हिन्दू का यह विश्वास है कि वह आत्मा है ! ''उसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि दग्ध नहीं कर सकती; जल भिगो नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। " गीता २/२३ हिन्दुओं की यह धारणा है कि -'आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित है; और मृत्यु का अर्थ है, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थान्तरित हो जाना।' यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं है। वह स्वरूपतः नित्य-शुद्ध-बुद्ध मुक्तस्वभाव है। परन्तु किसी कारण से वह अपने को जड़ से बँधी हुई पाती है, और अपने को जड़ ही समझती है। प्रश्न यह है कि यह ज्ञानस्वरूप आत्मा जड़ का दासत्व क्यों करती है ? यह सभी की चेतना का एक तथ्य है कि विश्व का प्रत्येक व्यक्ति अपने को शरीर मानता है। स्वयं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्ण होने का भ्रम (देहाध्यास या Universal Error) कैसे हो जाता है ? इसका उत्तर हिन्दू के ' मैं नहीं जानता ' के सिवा कुछ नहीं है। वर्तमान अवस्था हमारे पूर्वानुष्ठित कर्मों के द्वारा निश्चित होती है और भविष्य, वर्तमान कर्मों द्वारा। आत्मा संसार-चक्र (जन्म-मृत्यु) में लगातार घूमती हुई कभी उपर विकास करती है, कभी प्रत्यागमन करती है।
पर यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता है -' Is man a tiny boat in a tempest ?' क्या मनुष्य प्रचण्ड तूफान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका है, जो एक क्षण किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती है और दूसरे ही क्षण भयानक गर्त में नीचे धकेल दी जाती है, अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती है; क्या वह कार्य-कारण  की सतत प्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ी हुई अशक्त, असहाय भग्न पोत है, क्या वह उस (wheel of causation) कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ है, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिन्ता न करते हुए, अपने मार्ग में आने वाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता है ? 
इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काँप उठता है, पर यही प्रकृति का नियम है। तो फिर क्या कोई आशा नहीं है ? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं है ? -यही करुण पुकार निराश-विह्वल ह्रदय के अन्स्तल से उपर उठी और उस करुणामय के सिंघासन तक जा पहुंची। वहाँ से आशा तथा सांत्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अन्तःप्रेरणा प्रदान की, और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्य-स्वर में इस आनन्द-सन्देश की घोषणा की - 
" शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥२।५॥"
वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-
मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति
   नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
-- श्वेताश्वतरोपनिषद्॥३।८॥

' हे अमृत के पुत्रों ! सुनो, हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो, मैंने उस अनादि पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया है, जो समस्त अज्ञान-अंधकार के परे है. केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो. दूसरा कोई पथ नहीं है। " 
' अमृत के पुत्रो '- "Children of immortal bliss" -- कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है यह ! बन्धुओ ! इसी मधुर नाम -अमृत के अधिकारी से आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दें. निश्चय ही हिन्दू किसी मनुष्य को भी पापी कहना अस्वीकार करता है.आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, अमर आनंद के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। " Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so " आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं। आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव-स्वरुप पर घोर लांछन है। आप उठें ! हे सिंहो ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनंदमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास है, न कि आप हैं दास जड़ के। अतः वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्टि-व्यापार कुछ निर्मम विधानों का संघात है, और न यह कि वह कार्य-कारण की अनन्त कारा है; वरन वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्रकृति नियमों के मूल में, जड़-तत्व और शक्ति के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक विराजमान है, ' जिसके आदेश से वायु चलती है, अग्नि दहकती है, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती है। ' और उस पुरुष का स्वरुप क्या है ? वह सर्वत्र है, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान है, सब पर उसकी पूर्ण दया है। 
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।।
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं।

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं

भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि।।

" तू हमारा पिता है, तू हमारी माता है, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा है, तू ही सभी शक्तियों का मूल है; हमें शक्ति दे। तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करने वाला है; तू मुझे इस जीवन के क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे।  ' वैदिक ऋषियों ने यही गाया है।  हम उसकी पूजा किस प्रकार करें ? प्रेम के द्वारा।
'ऐहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकर उस परम प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिये। ' वेद हमें प्रेम के सम्बन्ध में इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं।  

अब देखें कि श्री कृष्ण ने, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्ण अवतार मानते हैं, इस प्रेम के सिद्धान्त का पूर्ण विकास किस प्रकार किया है और हमें क्या उपदेश दिया है। उन्होंने कहा है कि मनुष्य को इस संसार में पद्मपत्र (lotus leaf),की तरह रहना चाहिये। पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिये -उसका ह्रदय (Heart) ईश्वर में लगा रहे और उसके हाथ (Hand )कर्म करने में लगे रहें। इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा से ईश्वर से प्रेम करना बुरी बात नहीं, पर केवल प्रेम के लिये ही ईश्वर से प्रेम करना सबसे अच्छा है, और उसके निकट यही प्रार्थना करनी उचित है - 
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥

- शिक्षाष्टकं४॥ 
' हे जगत के ईश्वर, (ठाकुर देव !)  मुझे न तो सम्पत्ति चाहिये, न सन्तति, न विद्यायदि तेरी इच्छा है, तो सहस्रों बार जन्म-मृत्यु के चक्र में पडूंगा; पर हे प्रभो, केवल इतना ही दे कि मैं फल की आशा छोड़ कर तेरी भक्ति करूँ, केवल प्रेम के लिये ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो। ' कृष्ण के एक शिष्य उस समय भारत के सम्राट थे। उनके शत्रुओं ने उन्हें राजसिंहासन से च्युत कर दिया था और उन्हें अपनी सम्राज्ञी के साथ हिमालय के जंगल में आश्रय लेना पड़ा था। वहाँ एक दिन सम्राज्ञी ने उनसे प्रश्न किया, " मनुष्यों में सर्वोपरि पुण्यवान होते हुए भी आपको इतना दुःख क्यों सहना पड़ता है ? " 
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, " महारानी, देखो -यह हिमालय कैसा भव्य और सुन्दर है। मैं इससे प्रेम करता हूँ। यह मुझे कुछ नहीं देता; पर मेरा स्वभाव ही ऐसा है कि मैं भव्य और सुन्दर वस्तु से प्रेम करता हूँ। उसी प्रकार मैं भगवान से भी प्रेम करता हूँ. वह अखिल सौन्दर्य, समस्त सुषमा का मूल है। वही एक ऐसा पात्र है, जिससे प्रेम करना चाहिये। उससे प्रेम करना मेरा स्वभाव है, और इसीलिये मैं उससे प्रेम करता हूँ। मैं किसी बात के लिये उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु नहीं माँगता। उसकी जहाँ इच्छा हो मुझे रखे। मैं तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम के लिये ही उस से प्रेम करना चाहता हूँ, "I cannot trade love"- मैं प्रेम का सौदा नहीं कर सकता। ' 
वेद घोषणा करते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप है, वह केवल पंचभूतों के बन्धनों में बन्ध गयी है; और उन बन्धनों के टूटते ही वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगी।  अवस्था का नाम है- मुक्ति, जिसका अर्थ है स्वाधीनता --अपूर्णता के बन्धनों से छुटकारा, जन्म-मृत्यु से छुटकारा। 
और यह बन्धन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता है और यह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती है। अतएव अपने जीवन को पवित्र बना लेना ही, उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय है। उसकी दया किस प्रकार काम करती है ? वह पवित्र ह्रदय में अपने को प्रकाशित करता है। पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवन में ईश्वर-दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता है। ' तब उसकी समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती है, सारे सन्देह दूर हो जाते हैं। ' तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ का खिलौना नहीं रह जाता। यही हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धान्त है--यही उसका अत्यन्त मार्मिक भाव है। 
हिन्दू शब्दों और सिद्धान्तों के जाल में जीना नहीं चाहता। यदि इन साधारण इन्द्रिय-संवेद्द विषयों से परे और भी कोई सत्ताएँ हैं, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता है। यदि उसमें कोई आत्मा है, जो जड़-वस्तु नहीं है, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी विश्वात्मा है, तो वह उसका साक्षात्कार करेगा। वह उसको अवश्य देखेगा और मात्र उसी से उसकी समस्त शंकाएँ दूर होंगी। अतः एक हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता है-' मैंने आत्मा का दर्शन किया; मैंने ईश्वर का दर्शन किया है। ' और यही पूर्णत्व की एकमात्र शर्त है। हिन्दू धर्म भिन्न भिन्न मत-मतान्तरों या सिद्धान्तों पर विश्वास करने के लिये संघर्ष और प्रयत्न में निहित नहीं है, वरन यह साक्षात्कार है, वह केवल विश्वास कर लेना नहीं है, वह है 'Being and Becoming' अर्थात - होना और बनना  !
 इस प्रकार हिन्दुओं की सारी साधना-प्रणाली का लक्ष्य है- सतत अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना ! और इस प्रकार ईश्वर को जान कर, उसका दर्शन कर, उसी स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण हो जाना -हिन्दुओं का धर्म है। 
और जब मनुष्य पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसका क्या होता है ? तब वह असीम परमानन्द का जीवन व्यतीत करता है। जिस एक मात्र वस्तु में मनुष्य को सुख पाना चाहिये, उसे -अर्थात ठाकुर ! को पाकर वह परम तथा असीम आनंद का उपभोग करता है और ईश्वर के साथ भी परमानन्द का आस्वादन करता है। यहाँ तक सभी हिन्दू एकमत हैं। भारत के विविध सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म है। परन्तु perfection is absolute ' पूर्ण असीम होता है, और असीम दो या तीन नहीं हो सकता। उसमें कोई गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्ति नहीं हो सकता। अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष हो जाती है, तब वह ब्रह्म के साथ एक हो जाती है। और वह ईश्वर को केवल अपने ही स्वरुप की पूर्णता, सत्यता और सत्ता के रूप में -- परम सत्, परम चित, परम आनंद के रूप में प्रत्यक्ष करती है।
इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारम्बार पढ़ा करते हैं कि इसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व 'Individuality' को खोकर जड़ता प्राप्त करता है या पत्थर के समान बन जाता है ! प्रचलित लोकोक्ति है -' जाके पैर न फटी बेवाई, सो क्या जाने पीर परायी।' मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती। यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनन्द होता है, तो दो शरीरों की चेतना का आनन्द अधिक होना चाहिये, और उसी तरह क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ साथ आनंद की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिये, और विश्व-चेतना का बोध होने पर आनंद की परम अवस्था प्राप्त हो जायेगी। 
अतः उस असीम विश्व-व्यक्तित्व ' Infinite Universal Individuality ' की प्राप्ति के लिये इस कारास्वरूप दुःखमय ससीम व्यक्तित्व (देहाध्यास या Universal Error) के धरावाहिकत्व का अंत होना ही चाहिये। जब मैं उस प्राणस्वरूप के साथ एक हो जाउँगा, तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता है। जब मैं ज्ञानस्वरूप के साथ एक हो जाउँगा, तभी अज्ञान (देहाध्यास) का अन्त हो सकता है, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी है। विज्ञान ने मेरे निकट यह सिद्ध कर दिया है कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र है, वास्तव में मेरा यह शरीर एक अविच्छिन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिण्ड है, और ' my other counterpart ' मेरे दूसरे पक्ष -आत्मा (Heart) के संबंध में अद्वैत ही अनिवार्य निष्कर्ष है। 
विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्यों ही कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुँच जायगा, त्यों ही उसकी प्रगति रुक जायगी; क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। उदाहरणार्थ रसायन शास्त्र यदि एक बार उस मूल एक तत्व का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह और आगे नहीं बढ़ सकेगा। भौतिकी जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगी, अन्य शक्तियाँ जिसकी अभिव्यक्ति हैं, तब वह वहीं रुक जायगी। वैसे ही, धर्म-शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो इस मृत्यु-लोक में एक मात्र जीवन है, जो इस परिवर्तनशील जगत का शाश्वत आधार है, जो एकमात्र परमात्मा है, अन्य सब आत्माएँ जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियाँ हैं। इस प्रकार अनेकता और द्वैत में होते हुए इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती है। धर्म इससे आगे नहीं जा सकता। यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य है। 
समग्र विज्ञान अंततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचेंगे। आज हिन्दू को यह देखकर बहुत प्रसन्नता होती है कि जिस सनातन सिद्धान्त को वह इतने वर्षों से अपने सीने से चिपकाये हुआ था - ' जगत ब्रह्म की सृष्टि (creation) नहीं अभिव्यक्ति (Manifestation) है' (ब्रह्म ही जगत बन गया है !) अब उसकी यही शिक्षा अधिक सशक्त भाषा में विज्ञान के नूतनतम निष्कर्षों के अतरिक्त प्रकाश में दी जा रही है।
अब हम वेदान्त दर्शन की महाप्राण उद्घोषणाओं से उतरकर ज्ञानरहित लोगों के धर्म की ओर आते हैं। यह मैं प्रारम्भ में ही आपको बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद (polytheism) नहीं है। प्रत्येक मन्दिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने, तो वह यही पायेगा कि भक्तगण सर्वव्यापित्व आदि ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं। यह अनेकेश्वरवाद नहीं है, और न एकदेववाद (monotheism) से ही इस स्थिति की व्याख्या हो सकती है। ' गुलाब को चाहे किसी भी नाम से क्यों न पुकारें, उसकी सुगंध तो मीठी ही होगी। ' नाम ही व्याख्या नहीं होती। 
बचपन की एक बात मुझे यहाँ याद आती है। एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा करके धर्मोपदेश कर रहा था। बहुतेरी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह गया कि " अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को एक डंडा लगा दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकती है ? " एक श्रोता ने चट चुभता सा जवाब दे डाला, " अगर मैं तुम्हारे ईश्वर को गाली दे दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकता है ? " पादरी बोला, " मरने के बाद वह तुम्हें सजा देगा। " हिन्दू भी तनकर बोल उठा, " तुम मरोगे, तब ठीक उसी तरह हमारी देवमूर्ति भी तुम्हें दण्ड देगी। "  
वृक्ष अपने फलों से जाना जाता है। जब मूर्तिपूजक कहे जाने वाले लोगों में ऐसे मनुष्यों को पाता हूँ, जिनकी नैतिकता, आध्यात्मिकता और प्रेम अपना सानी नहीं रखते, तब मैं रुक जाता हूँ, और अपने से यही पूछता हूँ--" क्या पाप-कर्म से भी पवित्रता की उत्पत्ति हो सकती है ? " 
अंधविश्वास मनुष्य का महान शत्रु है, पर धर्मान्धता तो उससे भी बढ़कर है। ईसाई किसी गिरजाघर में ही क्यों जाता है ? क्रूस को पवित्र क्यों समझता है? प्रार्थना के समय आकाश की ओर मुँह क्यों किया जाता है ? कैथोलिक ईसाईयों के गिरजाघरों में इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? और प्रोटेस्टेन्ट ईसाईयों के मन में प्रार्थना के समय इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? मेरे भाइयो ! मन में किसी मूर्ति के बिना आये कुछ सोच सकना उतना ही असम्भव है, जितना श्वास लिये बिना जीवित रहना। ' Law of Association ' साहचर्य के नियम के अनुसार भौतिक मूर्ति से मानसिक भाव-विशेष का उद्दीपन हो जाता है, अथवा मन में भावविशेष का उद्दीपन होने से तदुनुरूप मूर्ति-विशेष का भी आविर्भाव होता है। इसीलिये तो हिन्दू आराधना के समय बाह्य प्रतीक का उपयोग करता है। वह आपको बतलायेगा कि यह बाह्य प्रतीक उसके मन को अपने ध्यान के विषय परमेश्वर में एकाग्रता से स्थिर रहने में सहायता करता है। वह यह बात उतनी ही अच्छी तरह से जानता है, जितना आप जानते हैं कि वह मूर्ति न तो ईश्वर है, और न सर्वव्यापी ही। और सच पूछिये तो दुनिया के लोग ' सर्वव्यापित्व ' का क्या अर्थ समझते हैं ? वह तो केवल एक शब्द या प्रतीक मात्र है। क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल है ? यदि नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं, उस समय विस्तृत आकाश या देश की ही कल्पना करने के सिवा हम और क्या करते हैं ? 
' by the Laws of our mental constitution' अपनी मानसिक संरचना के नियमानुसार, हमें किसी प्रकार अपनी अनंतता की भावना को नील आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से सम्बद्ध करना पड़ता है; उसी तरह हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभावानुसार गिरजाघर, मस्जिद या क्रूस से जोड़ लेते हैं। हिन्दू लोग पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यपित्व आदि आदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं। अन्तर यह है कि जहाँ अन्य लोग अपना सारा जीवन किसी गिरजाघर की मूर्ति की आराधना में ही बिता देते हैं और उससे आगे नहीं बढ़ते, क्योंकि उनके लिये तो धर्म का अर्थ यही है कि कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीकृत कर लें और अपने मानव-बन्धुओं की भलाई करते रहें--वहाँ एक हिन्दू की सारी धर्म-भावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार में केन्द्रीभूत होती है। 
मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना है। मूर्तियाँ, मन्दिर, गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्म-जीवन की बाल्यावस्था में केवल आधार या सहायक मात्र हैं; पर उसे उत्तरोत्तर उन्नति ही करनी चाहिये। मनुष्य को कहीं पर अटकना नहीं चाहिये। शास्त्र का वाक्य है - 
उत्तमो ब्रह्मसदभावो ध्यानभावस्तु मध्यमः |

स्तुतिर्जपोअधमो भावो बाह्यपूजाअधमाधमा ||
(महानिर्वाण तन्त्र ४/१२)
बाह्य पूजा या मूर्ति-पूजा सबसे नीचे की अवस्था है; आगे बढ़ने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था है, और सबसे उच्च अवस्था तो वह है, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाय। देखिये, वही अनुरागी साधक, जो पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब क्या कह रहा है -

 न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकम्
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ 
- काठकोपनिषत् २-२-१५
 ' सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न चन्द्रमा या तारागण ही; वह विद्युत्-प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकती, तब इस सामान्य अग्नि की बात ही क्या ! वे सभी उसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते हैं। 'पर वह किसीकी मूर्ति को गाली नहीं देता और न उसकी पूजा को ही पाप बताता है। वह तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था जानकर उसको स्वीकार करता है। ' बालक ही मनुष्य का जनक है। ' तो क्या किसी वृद्ध पुरुष का बचपन या युवावस्था को पाप या बुरा कहना उचित होगा? 
यदि कोई मनुष्य अपने दिव्य स्वरुप को मूर्ति की सहायता से अनुभव कर सकता है, तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा ? और जब वह उस अवस्था के परे पहुँच गया है, तब भी उसके लिये मूर्ति-पूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं है। 
हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा है, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा है। हिन्दू के मतानुसार निम्नतम जड़पूजावाद से लेकर सर्वोच्च ब्रह्मवाद तक जितने धर्म हैं, वे सभी अपने जन्म तथा साहचर्य की अवस्था द्वारा निर्धारित होकर उस असीम के ज्ञान तथा उपलब्धी के निमित्त मानवात्मा के विविध प्रयत्न हैं, और वह प्रत्येक उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता है। 'every soul is a young eagle ' प्रत्येक आत्मा उस युवा गरुड़ पक्षी के समान है, जो धीरे धीरे ऊँचा उड़ता हुआ तथा अधिकाधिक शक्ति-सम्पादन करता हुआ 'till it reaches the Glorious Sun' अंत में उस भास्वर सूर्य तक पहुँच जाता है। 
' Unity in variety ' अनेकता में एकता प्रकृति का विधान है और हिन्दुओं ने इसे स्वीकार किया है। अन्य प्रत्येक धर्म में कुछ निर्दिष्ट मतवाद विधिबद्ध कर दिये गये है और सारे समाज को उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता है। वह समाज के सामने केवल एक कोट रख देता है, जो जैक, जॉन और हेनरी, सभी को ठीक होना चाहिये। यदि वह जॉन या हेनरी के शरीर में ठीक नहीं आता, तो उसे अपना तन ढँकने के लिये बिना कोट के ही रहना होगा। हिन्दुओं ने यह जान लिया है कि निरपेक्ष ब्रह्म-तत्व का साक्षात्कार, चिन्तन या वर्णन केवल सापेक्ष के सहारे ही हो सकता है, और मूर्तियाँ, क्रूस या नवोदित चन्द्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं, वे मानो बहुत सी खूंटियाँ हैं, जिनमें धार्मिक भावनायें लटकाई जाती हैं। ऐसा नहीं है कि इन प्रतीकों की आवश्यकता हर एक के लिये हो, किन्तु जिनको अपने लिये इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं है, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं कि वे गलत हैं। हिन्दू धर्म में वे अनिवार्य नहीं हैं। 
एक बात आपको अवश्य बतला दूँ। भारतवर्ष में मूर्ति-पूजा कोई जघन्य बात नहीं है। वह व्यभिचार की जननी नहीं है। वरन वह अविकसित मन के लिये उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय है। अवश्य, हिन्दुओं के बहुतेरे दोष हैं, उनके कुछ अपने अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखिये कि उनके वे दोष अपने शरीर को ही उत्पीड़ित करने तक सीमित हैं, वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते। एक हिन्दू धर्मान्ध भले ही चित पर अपने आपको जला डाले, पर वह विधर्मियों को जलाने के लिये 'fire of Inquisition' 'इन्क्विजिशन ' न्यायिक परीक्षा की अग्नि कभी भी प्रज्ज्वलित नहीं करेगा। और इस बात के लिये उसके धर्म को उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता है। 
अतः हिन्दुओं की दृष्टि में समस्त धर्म-जगत भिन्न भिन्न रुचिवाले स्त्री-पुरुषों की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थितियों में से होते हुए एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा है, प्रगति है। प्रत्येक धर्म जड़भावापन्न मानव से एक ईश्वर का उद्भव कर रहा है, और वही ईश्वर उन सबका प्रेरक है। तो फिर इतने परस्पर विरोध क्यों हैं ? हिन्दुओं का कहना है कि ये विरोध केवल आभासी हैं। उनकी उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृतियों के अनुरूप अपना समायोजन करते समय होती है। 
वही एक ज्योति भिन्न भिन्न रंग के काँच में से भिन्न भिन्न रूप से प्रकट होती है। समायोजन के लिये इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक है। परन्तु प्रत्येक के अन्तस्तल में उसी सत्य का राज्य है। ईश्वर ने अपने कृष्णावतार में हिन्दुओं को यह उपदेश दिया है- 
 मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥ गीता ७/७॥ 
 ' प्रत्येक धर्म में मैं, मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ ! ' 

यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम् ।।
गीता १०/४१ ।।
 तथा जहाँ भी तुम्हें मानव-सृष्टी को उन्नत बनानेवाली और पावन करने वाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखायी दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ है। '
और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ ? सारे संसार को मेरी यह चुनौती है कि वह समग्र संस्कृत दर्शनशास्त्र में मुझे एक उक्ति तो दिखा दे, जिसमें यह बताया गया हो कि केवल हिन्दुओं का ही उद्धार होगा और किसी दूसरे का नहीं। व्यास देव ' वेदान्त सूत्र ' में कहते हैं 
अन्तरा चापि तु तद्दृष्टेः।। ब्रसू-३,४.३६ । 
" हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुँचे हुए मनुष्य हैं। " एक प्रश्न और है -
- ' ईश्वर में ही अपने सभी भावों को केन्द्रित करनेवाला हिन्दू अज्ञेयवादी (agnostic) बौद्ध धर्म और निरीश्वरवादी ( atheistic) जैन धर्म पर श्रद्धा कैसे रख सकता है ?' इसीलिये कि यद्दपि बौद्ध तथा जैन धर्म के अनुयायी ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते, तथापि उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महत्वपूर्ण केन्द्रीय सत्य-' मनुष्य में ईश्वरत्व का विकास ' की ओर उन्मुख रहती है। उन्होंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा है। और जिसने पुत्र को देख लिया, उसने पिता को भी देख लिया। 
भाइयो ! हिन्दुओं की धार्मिक मान्यताओं की यही संक्षिप्त रुपरेखा है। हो सकता है कि हिन्दू अपनी सभी योजनाओं को कार्यान्वित करने में असफल रहा हो, पर यदि (सार्वभौमिक भ्रम ' Universal Error ' या सार्वभौमिक देहाध्यास को मिटा देने का उपाय बताने वाला) कभी कोई सार्वभौमिक धर्म ' Universal Religion ' होना है, तो वह किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं होगा, वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा; जिसका सूर्य श्रीकृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा, जो न तो ब्राह्मण होगा, न बौद्ध, न ईसाई और न इस्लाम, वरन इन सबकी समष्टि होगा, किन्तु फिर भी जिसमें विकास के लिये अनंत अवकाश होगा; जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से किंचित उन्नत निम्नतम घृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने ह्रदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से इतना उपर उठ गये उच्चतम मनुष्य तक को, जिसके प्रति सारा समाज श्रद्धा से अपना सीश झुका देता है और लोग जिसके मनुष्य होने में सन्देह करते हैं, उसे भी अपनी बाहुओं से आलिंगन कर सके और उनमें सबको स्थान दे सके। वह धर्म ऐसा होगा, जिसकी नीति में उत्पीड़न या असहिष्णुता के लिये कोई स्थान नहीं होगा; वह प्रत्येक स्त्री और पुरुष में अन्तर्निहित दिव्यता को स्वीकार करेगा और उसका सम्पूर्ण बल और सामर्थ्य मानवता को अपने यथार्थ स्वरुप, अपनी अन्तर्निहित दिव्यता का साक्षात्कार करने के लिये सहायता देने में ही केन्द्रित होगा। 


 Verily, verily I say unto thee, except a man born be born again, he cannot see the Kingdom of God.

( चेतावनी : वैज्ञानिक मानसिकता के साथ इस वैदिक धर्म को एवं सनातन सिद्धांतों को जानने जानने के लिये निवृत्ति मार्गी युवाओं के साथ साथ प्रवृत्ति मार्गी युवाओं को भी, चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण प्राप्त करके द्वारा यथार्थ ' मनुष्य ' बनना  होगा। 'आदर्श मनुष्य' बने बिना, केवल पुस्तक पढ़कर या किसी आशाराम टाईप 'नकली-सन्त' के निर्देशन में ऋषि (या नेता) बनने का प्रयत्न करेंगे तो मस्तिष्क बिगड़ भी सकता है। )
" If there is ever to be a universal religion, (to expunge universal Error)  it must be one which will have no location in place or time; which will be infinite like the God it will preach, and whose sun will shine upon the followers of Krishna and of Christ, on saints and sinners alike; which will not be Brahminic or Buddhistic, Christian or Mohammedan, but the sum total of all these, and still have infinite space for development; which in its catholicity will embrace in its infinite arms, and find a place for, every human being, from the lowest grovelling savage not far removed from the brute, to the highest man towering by the virtues of his head and heart almost above humanity, making society stand in awe of him and doubt his human nature. It will be a religion which will have no place for persecution or intolerance in its polity, which will recognise divinity in every man and woman, and whose whole scope, whose whole force, will be created in aiding humanity to realise its own true, divine nature. 
आप ऐसा ही धर्म जगत के सामने सामने  रखिये, और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी बन जायेंगे ! (भारत माता फिर से अपनी गौरवशाली सिंहासन पर विराजमान हो जायेगी !!!) सम्राट अशोक की परिषद बौद्ध परिषद थी। अकबर की परिषद अधिक उपयुक्त होती हुई भी, केवल बैठक-विनोद गोष्ठी भर ही थी। किन्तु पृथ्वी के कोने कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका के लिये सुरक्षित था कि ' प्रत्येक धर्म में ईश्वर हैं! ' 
वह जो हिन्दुओं का ब्रह्म, पारसियों का अहुर्मज्द, बौद्धों का बुद्ध, यहूदियों का जिहोवा और ईसाईयों का स्वर्गस्थ पिता है, आपको अपने उदार उद्देश्य को कार्यान्वित करने की शक्ति प्रदान करे ! 
नक्षत्र पूर्व गगन में उदित हुआ और कभी धुँधला और कभी देदीप्यमान होते धीरे धीरे पश्चिम की ओर यात्रा करते करते उसने समस्त जगत की परिक्रमा कर डाली और अब ' वह ' (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के रूप में आविर्भूत होकर) एकबार फिर से प्राची के क्षितिज में सहस्र गुनी अधिक ज्योति के साथ उदित हो रहा है! 
हे स्वाधीनता की मातृभूमि कोलम्बिया (अमेरिका), तू धन्य है ! यह तेरा ही सौभाग्य है कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने हाथ नहीं भिगोये, तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हरण कर सहज में ही धनी और सम्पन्न होने की चेष्टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा ही था ।  

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