शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

70. 'आचार्य शंकर के प्रसंग में ' $@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [70] (10. विश्व मानव के कल्याण में),

श्रीमद शंकराचार्य का जन्म अनुमानतः ७८८ ईस्वी में हुआ था, एवं अनुमानतः ८२० ईस्वी में उनका देहान्त हो गया था। [उनके जन्म तिथि के संबंध में मतभेद है, दयानन्द सरस्वती ने शंकराचार्य की जन्मतिथि को ईसा के पूर्व का माना है। 'केरलोत्पत्ति' ग्रन्थ के अनुसार आचार्य शंकर जन्म ३९२ ईस्वी में हुआ था। लेकिन बाद में १० ऐतिहासिक प्रमाण की सहायता से अधिकांश विद्वानों का यही मानना है कि वे ७८८ ई. में आविर्भूत हुए। सामान्यतः उनका जीवन मात्र ३२ वर्ष का माना जाता है, किसी किसी प्राचीन ग्रन्थ के अनुसार ऐसा भी कहा जाता है कि वे ३८ वर्ष तक जीवित रहे थे।]
आचार्य शंकर का जन्म  केरल प्रदेश के पूर्णानदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में हुआ था। पूर्णानदी के विषय में एक किंवदन्ती है कि आचार्य शंकर की माताजी को नदी में स्नान करना बहुत अच्छा लगता था, किन्तु क्रमशः उम्र बढ़ जाने के कारण उनके लिये नदी तक जाना कष्टकर हो गया। इसीलिये आचार्य शंकर की इच्छशक्ति के प्रभाव से नदी की धारा ने अपना मार्ग बदल लिया और उनके घर के किनारे से होकर बहने लगी। उनके जन्म के सम्बन्ध में यह भी सुना जाता है कि किसी साधू-महात्मा ने उनकी माँ से कहा था कि तुम्हारे पुत्र का भविष्य दो प्रकार का हो सकता है- वह यदि दीर्घायू हुआ तो मूर्ख रहेगा, और यदि अल्पायु हुआ तो बहुत बुद्धिमान,प्रतिभा सम्पन्न होगा, धर्म इत्यादि विषयों के प्रति इसमें विशेष रूचि रहेगी; तुम अपने पुत्र की आयू कितनी चाहती हो ? उत्तर में उनकी माँ ने कहा- स्वल्पायु हो। स्वल्पायु ही हुए, सोलह वर्ष जीवित रहेंगे।
 इस अप्रतिम प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर बड़ा होने लगा और मात्र 8 वर्ष के भीतर ही वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभरत आदि समस्त शास्त्रों का अध्यन कर लिया। और उनको अद्भुत व्युत्पत्ति विज्ञान (शब्दों के उद्गम का शास्त्र-etymology) प्राप्त हुआ। उसके बाद आठ से सोलह वर्ष तक की उम्र में ही उन्होंने अपनी मौलिक रचनाओं तथा भाष्य आदि लिख डाले। उसके बाद व्यासदेव से वर प्राप्त करने पर इनकी आयू दोगुनी होकर बत्तीस वर्ष की हो गयी। सोलह से बत्तीस वर्ष तक इन्होंने धर्म-प्रचार किया था। उस समय भरत में वैदिक धर्म म्लान हो रहा था तथा मानवता बिसर रही थी, ऐसे में आचार्य शंकर मानव धर्म के भास्कर प्रकाश-स्तम्भ बनकर प्रकट हुए। मात्र ३२ वर्ष के जीवनकाल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की कि उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गई।
इन्होंने भारतवर्ष के चार कोणों में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिनके प्रबंधक तथा गद्दी के अधिकारी शंकराचार्य कहे जाते है । वे चारों स्थान निम्न- लिखित हैं—(१) उत्तर में ज्योतिर्मठ या ज्योतिषपीठ,बद्रिकाश्रम उत्तराखण्ड,  हिमालय में स्थित है (२) दक्षिण में श्रृंगेरीपीठ, मैसूर, कर्नाटक राज्य में स्थित (३) पूर्व में गोवर्धन पीठ पुरी, उड़ीसा और (४) पश्चिम में द्वारिकापीठ गुजरात में स्थित हैं; और भारत की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहे हैं। 
इतिहास यह भी बतलाता है कि उस समय बौद्धधर्म निम्न स्तर पर पहुँच गया था, जिसके दुष्प्रभाव से देश में अनाचार और धर्म की ग्लानी हो रही थी, जिसकी निन्दा स्वामीजी ने भी की है। उन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित करके वैदिक धर्म को पुनरुजीवित किया था । इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दक्षित किया था।
 चार मठों की स्थापना, दशनाम सन्यास को सुव्यवस्थित रूप देकर, हरिहर निष्ठा की स्थापना करके सगुण-निर्गण का भेद मिटाने का प्रयास किया था। एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया था, तो दूसरी तरफ जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करके  शंकराचार्य ने सनातन धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित कर दिया।
स्वामी विवेकानन्द ने विदेशों में जाकर जिस जिस वैदिक धर्म और अद्वैत वेदान्त का प्रचार किया था, उसे आचार्य शंकर ने ही भारत में चार मठ और समूचे देश में दशनामी संन्यास परम्परा और अखाड़ों के माध्यम से पुनर्स्थापित किया था।
ऐसा कहा जाता है कि इन्होंने सन्यासी शिष्य भी बनाये थे और गार्हस्थ सम्प्रदाय में गाणपत्‍य, सौर, शैव, शाक्‍त और वैष्‍णव संप्रदाय इत्यादि छः संप्रदाय बनाये थे। ऐसा कहना कि उन्होंने साधारण लौकिक धर्म को बिल्कुल समाप्त ही कर दिया था, बिल्कुल सही बात नहीं है। इस ओर भी उनका ध्यान समानरूप से था, इससे यह सिद्ध होता है कि शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे;ये कार्य ही उन्हें 'जगदगुरु' पद पर प्रतिष्ठित करते हैं।
हमलोग यह जानते हैं कि जब बहुत दीर्घ समय तक लिखित भाषा नहीं बनी थी, तो किस प्रकार; गुरु-शिष्य के माध्यम से श्रुति के माध्यम से, कान से सुन सुन कर, मन ही मन याद रखते हुए, वंश परम्परा के अनुसार- वेद को किस प्रकार संरक्षित रखा गया था, फिर उनको एकीकृत या संहित करके वेदव्यास ने उसे चार भागों में विभक्त किया था। वेदों की बहुत सी साखायें हैं, जिनके पाठ्य-विधि में (Text) थोड़ा-बहुत अन्तर या विभिन्नता होती है। उसके बाद जब इनकी संख्या बहुत ज्यादा हो गयी, तो उसको याद रखना बहुत मुश्किल हो गया, सुसंहती (compactness) का अभाव दिखाई देने लगा-तब व्यासदेव ने उसको ठीक से सजाकर एकत्रित किया और उसको समान वर्ग में श्रेणीबद्ध कर दिया। पहले उनको तीन श्रेणी में विभाजित किया-ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा जो शेष रह गए उनको अथर्ववेद कहा गया। ऋगवेद में जितने भी मन्त्र या श्लोक हैं, वे काव्यमय हैं, उनको कविता के माध्यम व्यक्त किया गया है। यजुर्वेद मुख्यतः गद्य है। तथा सामवेद में मुख्यतः ऋग्वेद के मन्त्र हैं, जिनमें कुछ और मन्त्र जोड़ कर संगीतमय बनाया गया है। सामवेद गाया जाने वाला -ग्येय वेद है।
 वेद को मुख्यतः तीन भागों में विभक्त क्या गया है, इसीलिये उसको 'त्रयी' कहा जाता है। वेद के सारांश को वेद से अलग करके -उसका नाम 'उपनिषत' दिया गया। चूँकि वेद का सारांश उसमें है, जिसे गुरु के मुख से सुन सुन कर याद रखना होता था, इसीलिये उसको 'श्रुति' कहा जाता है। फिर उनका भी प्रधान या सिर होने के कारण उपनिषदों को 'श्रुतिशिर' भी कहा जाता है।
[ जगद्गुरु आदि शंकराचार्य कृत साधना पंचकं में कहा गया है- वाक्यार्थश्च विचार्यताम श्रुतिशिर: पक्ष: स्माश्रीयताम। हम वेदों के चार महावाक्यों और श्रुतियो को समझ सकें, हम कुतर्को में ना उलझें, "में ब्रह्म हूँ" ऐसा विचार करें, हम अभिमान से प्रतिदिन दूर रहे, "में देह हूँ" ऐसे विचार का त्याग कर सकें और इसको लेकर हम विद्वान बुद्धिजनों से या तथाकथि बुद्धिजीवियों से बहस न करें... ]
फिर उपनिषदों में भी जिनको अन्तिम भाग रखा गया है, उसको 'वेदान्त' कहते हैं। फिर वेद शब्द विद धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है-ज्ञान, उसका भी जो अन्त है, अर्थात ज्ञान का भी जहाँ अंत हो जाता है, जिसके परे और कोई ज्ञान नहीं है, जो ज्ञान का शिखर हो -उस अर्थ में भी 'वेदान्त' कहा गया है। वेदव्यास ने समस्त वेद को एकत्रित करके श्रेणीबद्ध या सुसंहित किया था इसीलिये वेद को 'संहिता' भी कहा जाता है। इसीलिये ऋगवेद संहिता,यजुर्वेद संहिता, सामवेद संहिता इत्यादि कहा जाता है। फिर वैदिक साहित्य के जिस अंश पर अरण्य-जीवन या वानप्रस्थ जीवन में विवेचना की जाती थी, उसको 'आरण्यक' कहा जाने लगा। फिर आरण्यक के भी विभाग थे-कुछ अंश को आरण्यक, कुछ अंश को ब्राह्मण, कुछ अंश उपनिषत के नाम से परिचित हुए। उपनिषत में दार्शनिक तत्वों को प्रमुखता दी गयी है। इन अंशों को छोड़ देने के बाद जो कुछ बचता है, उसको 'कर्मकाण्ड' कहा जाता है।
कर्मकाण्ड के भीतर जिन कर्मों को प्रधानता दी जाती है, उसको 'श्रौतकर्म' कहा जाता है। श्रुति माने वेद, इसलिये श्रुति विषयक कर्मों को या वेद में कथित कर्मों को 'श्रौतकर्म' कहते हैं। इस समय जिस प्रकार हमलोग हथौड़ी ठोकने को भी कर्म कहते हैं- वैदिक कर्म का वैसा अर्थ नहीं होता है। गीता में जिस कर्म पर चर्चा की गयी है, वह कर्म 'श्रौतकर्म' है, जो वेदोक्त कर्म है, अर्थात यज्ञ इत्यादि कर्म। उसको ही वास्तव में कर्म कहा जाता है। उपनिषद में भी यही बात कही गयी है।
उपनिषत शब्द का अर्थ होता है, उप-नि-षद, अर्थात जिन शब्दों को नजदीक में बैठकर सुना जाता है। अर्थात जो विद्या संपूर्णतः गुरुमुखी विद्या है, जिसे शिष्य लोग गुरु के पास जाकर तत्वों पर चर्चा करके अर्जन करते हैं। इस विद्या को पुस्तक पढ़कर नहीं सीखा जा सकता है। महान व्यक्तियों के पास जाकर, और उनके मुख से सुनकर, उनके जीवन को देखकर जो कुछ सीखा जाता है, उसको उपनिषद कहते हैं। वेद पढ़ने के लिये जिन समस्त विद्या को जानना होता है, उसको 'वेदांग' कहते हैं।
 शिक्षा,कल्प,व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त - ये छ: वेदांग है। वेद का व्याकरण बिल्कुल अलग होता है, साधारण संस्कृत व्याकरण और वैदिक व्याकरण एक नहीं होता है। इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है। व्याकरण नहीं जानने से भाषा समझ में नहीं आती है। उसी प्रकार वैदिक छन्द भी साधारण छन्दों से अलग होते हैं। उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है, उन्हीं छन्दों में से एक है, गायत्री छन्द। गायत्री-मन्त्र की रचना गायत्री-छन्द में हुई है, इसीलिये उसको गायत्री कहा जाता है।
संस्कृत श्लोकों में साधारणतः चार चरण या चार पंक्तियाँ होती हैं। चारो चरण या पंक्ति में एक एक श्लोक होते हैं। किन्तु गायत्री-छन्द एक अद्भुत  छन्द है। वह त्रिपाद रचना है। 'पाद' शब्द का अर्थ होता है, एक-चतुर्थांश -चौथा हिस्सा 1/4th.।किन्तु गायत्री छन्द इसका अपवाद है। इसके तीन चरण हैं या एक त्रिपाद है।
विभिन्न समय में विभिन्न ऋषियों ने जिन सत्यों को आविष्कृत क्या था, या सत्य के सम्बन्ध में उन्हें जो अनुभूतियाँ हुई थीं, वेद के मन्त्रों में मुख्यतः उन्हीं को अभिव्यक्त किया गया है। किन्तु उनमें कहीं  कोई युक्तिपूर्ण तारतम्य नहीं था, छिट-पुट रूप से बीच बिच में सत्य का  झलक मिल जाता था। इसीलिये लोगों को दर्शन वाला हिस्सा समझने में कठिनाई हो रही थी। जब व्यासदेव ने देखा कि वेद के विभिन्न अंश अस्त-व्यस्त हैं,बिखरे हुए हैं-  यथाक्रम नहीं रखे हैं, तो उन्होंने वेद को एकत्र करके इस प्रकार से वर्गीकृत कर दिया ताकि भविष्य में उपयुक्त तरीके से उसका अभ्यास किया जा सके।
उसके बाद वेदान्त या उपनिषद के भीतर जो दर्शन है, उस दर्शन के मूल तत्वों को सूत्रबद्ध कर दिए। ' सूत्र ' का अर्थ होता है, मूल और प्राथमिक तत्वों को छोटे छोटे शब्दों में अभिव्यक्त करना या संचित रखना। क्योंकि छोटे छोटे शब्दों को याद रखना अपेक्षाकृत सहज  होता है, और आवश्यकता पड़ने पर उसकी व्याख्या करने से, या उसके भाव की विवेचना करने से, सम्पूर्ण दर्शन समझ में आ सकता है। इसका नाम - व्याससूत्र, या 'ब्रह्मसूत्र' या 'शारीरकसूत्र' अथवा 'वेदान्तसूत्र'।
वेदान्त सूत्र के प्रथम चार सूत्र अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इन चारों को मिलाकर 'चतुःसूत्री' कहा जाता है। वेदान्त के चतुःसूत्री का प्रथम सूत्र है- 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा'। अर्थात इसके पहले भी कई जिज्ञासा थी, और उसका उत्तर प्राप्त करने की भी बहुत चेष्टाएँ हुई थीं। किन्तु वाह्य भौतिक जगत में उसका उत्तर नहीं प्राप्त हो सका
इक्कीसवीं सदी का विज्ञान भी यह घोषणा करता है कि बाहर में खोज करने पर यथार्थ वस्तु के बारे में कुछ पता नहीं चलता। वे यह कहते हैं कि वस्तु को बाहर से विश्लेषण करने पर जितना कुछ दीखता है,हम उतना ही जानते हैं, उससे अधिक नहीं जानते हैं। वस्तु की सत्ता या अस्तित्व के बारे में हमारे पास कोई जानकारी नहीं होती है। हमें अपनी इन्द्रियों के द्वारा या इन्द्रिय-सहायक यंत्रों के द्वारा किसी वस्तु का जो रूप दिखलाई पड़ता है, वह रूप एवं उसकी सहयता से हम उसको अपने उपयोग में कैसे ला सकते हैं, हमलोग इसी की व्याख्या करते हैं। इसीलिये वेदान्त जगत के प्रत्येक पहलु के उपर विचार करके कहता है- " नाल्पे सुखमस्ति, भूमैव सुखम।"(छान्दोग्य. 7।23।1)
सीमा के भीतर (ससीम या दृष्टिगोचर जगत का) अनुसन्धान कर लेने के बाद जब कुछ नहीं मिला तो, हमलोगों ने ससीम के भीतर ही असीम की खोज का प्रारंभ कर दिया। हमलोगों ने अबतक ससीम वस्तुओं का ही अन्वेषण किया है, अब ब्रह्म का या अनन्त का असीम का अनुसन्धान करेंगे। किन्तु उस आत्मा को तो "अणोरणीयान् महतो महीयान " कहा गया हैं - अर्थात आत्मा तो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और वृहत से भी वृहत वस्तु है।  पहले हमलोगों में सूक्ष्म मौलिक कण अणु-परमाणु  को भी जब खंडित और विश्लेषित कर लिया तो हमलोगों ने सोचा कि वाह, बहुत बड़ा आविष्कार हमने कर लिया है। किन्तु इसी प्रकार और आगे प्रयोग करने पर 200 से अधिक मूल कणों का पता चल गया। इस समय भी प्रयोग-अनुसन्धान आदि चल रहा है। (अभी एक ऐसा मौलिक कण पाया गया है, जिसको God Particle या बोसॉन भी कहा जा रहा है। प्रत्येक भौतिक पदार्थ में गुण और मात्रा प्रत्यक्ष दिखते हैं। कणों में भार कहाँ से आया ?) किन्तु अन्त में क्या मिलेगा, इस बात को विज्ञान बताने में असमर्थ होता जा रहा है।
 किन्तु उपनिषद के ऋषि घोषणा करते हैं- " वे अणु से भी छोटे हैं,और हमलोग सबसे वृहत कहने से जो समझते हों, मानलो 'आकाश' तो वे उससे भी बड़े हैं।" जैसे 'माया' के प्रसंग में एक जगह कहा गया है, 'साधू नाग महाशय' इतने विनम्र थे, इतने मितभाषी थे, अपने को सभी मनुष्यों के सामने इतना छोटा मानते थे, कि माया का बन्धन भी उनको बांधने में असमर्थ था। वे उस माया के फन्दे से फिसल कर बाहर निकल गये थे। और स्वामी विवेकानन्द के बारे में कहा जाता है कि उनका अहंकार इतना वृहत था कि सम्पूर्ण विश्व उनके लिये एक जैसा ही था। उनका अहंकार विश्वव्यापी हो गया था। वे अपने को समूर्ण विश्व से एक और अभिन्न अनुभव करते थे। इसीलिये माया की डोर इतनी लम्बी नहीं थी कि उनको बांध सके।
इस प्रकार छोटा और बड़ा में वास्तव में कोई भेद नहीं है। (वह आत्मा कीड़ी में कीड़ी के आकर का है,और हाथी में हाथी के आकर का है।) ससीम सुख का अनुसन्धान तो हर पहलु से कर के देख लिया गया है, उसका कोई परिणाम नहीं मिला, अब वृहत का अनुसन्धान करना है- 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।'अथ अतः 'Thereafter' - तत्पश्चात; इसीलिये कहा जा रहा है, कि इसके पहले तो अनेको चेष्टा हो चुकी है। अतः,इसके बाद-अर्थात जब भौतिक पदार्थों के सूक्ष्म से सूक्ष्म कणों में भी, कुछ नहीं मिला है, तो अब 'वृहत' का अनुसन्धान करो ! इस प्रकार व्यासदेव ने अपना 'वेदान्तसूत्र' सम्पूर्ण विश्व को उपहार स्वरूप दिया।
 इसके अतिरिक्त व्यासदेव ने जितने अन्य कार्य किये हैं, इसमें वेदों को चार भाग में बर्गीकृत करना भी एक पर्मुख कार्य है। वेदों के ज्ञान काण्ड या वेदान्त भाग ये उपनिषदों में जो दार्शनिक चिन्तन है उनको एकत्रित करके उनको युक्ति के आधार पर श्रेणीबद्ध करके, एक तत्व के रूप में प्रकाशित किये।पहले उनको युक्ति के आधार पर संकलित नहीं किया गया था, इसलिये उसके परस्पर विरोधी धर्म को बहुत से लोग नहीं समझ पाते थे, इसलिये सिलसिलेवार ढंग से युक्ति के आधार पर सजाकर प्रस्तुत किया गया।
अब वेद को वर्गीकृत किया गया, उसको सुसंहित किया गया, उसमें जो वेदान्त दर्शन था, उसको सूत्र में ढाल कर सुसंबद्ध किया गया। किन्तु इन सब का क्या कोई व्यावहारिक पक्ष भी है? हालाँकि विदेशी लोग यह कहकर भारत की निन्दा करते हैं, कि ये लोग व्यावहारिक-बुद्धि नहीं रखते हैं; किन्तु ऐसा कहना बिल्कुल गलत है।
हमारे देश के लोग बड़े व्यावहारिक थे, और सामाजिक जीवन में वेदान्त के महान तत्वों को कैसे उपयोगी बनाया जा सकता है,यह सब भी विचार किये थे। स्वामी विवेकानन्द ने जिस वेदान्त को 'व्यावहारिक-वेदान्त' कहकर प्रचारित किया था, वह भारत का सनातन व्यावहारिक वेदान्त ही तो था ! हमारे देश के वेदान्त का अर्थ ही है-व्यावहारिक वेदान्त।  किसी प्राचीन कवि ने कहा था-" वेदान्ती लोक कल्याण के कर्मों में निरन्तर लगा नहीं रहता-ऐसा कहने बढ़ कर और हास्यापद बात क्या हो सकती है ? वेदान्त किस प्रकार दैनन्दिन जीवन में उपयोगी हो सकता है, इसको वेदव्यास ने महाभारत की रचना करके दिखलाया है। विशेषरूप से महाभारत में उस स्थान पर जहाँ श्रीकृष्ण ने गीता कहा है। इसीलिये कहा गया है-
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।   
समस्त उपनिषद मानो गाय है, और गोपालनन्दन कृष्ण मानो दूध दुहने वाले हैं।वे मानो उपनिषदों का दोहन कर रहे हों, और पार्थ अर्थात अर्जुन मानो बछड़ा है। बछड़ा जब दूध खींचता है,तभी तो दूध दूहा जा सकता है। पार्थ बार बार जिज्ञासा करके, थोड़ा थोड़ा करके उपनिषदों से खींचे थे, इसीलिये वहाँ से गीतामृत रूपी असाधारण पौष्टिक दूध सम्पूर्ण मानवता को प्राप्त हुआ है।
 यह गीता ही व्यावहारिक वेदान्त है !इस प्रकार वेद से उपनिषद बना है, उपनिषद से वेदान्तसूत्र बना है, और वेदान्त का जो व्यावहारिक पक्ष या प्रयोग-धर्मी वेदान्त है, वह है गीता। किन्तु ये समस्त कार्य व्यासदेव ने अकेले ही कर दिखाया था। इसीलिये सनातन धर्म, या दर्शन या मनुष्य जाति के लिये व्यासदेव का अवदान असाधारण है। इसीलिये व्यास को 'चिरजीवी विशालबुद्धि व्यास' कहा जाता है, उनकी कीर्ति ने उनको मानवता के समक्ष अमर बना दिया है।
एक अन्य दृष्टि से देखने पर, यदि यह विचार करें कि वास्तव में 'व्यास' किसको कहते हैं? किसी वृत्त के केन्द्र गुजरती हुई जो सरल रेखा परिधि को दोनों ओर स्पर्श करती है, उसे व्यास कहते है। अर्थात यदि व्यास ज्ञात हो जाय, या व्यास के सम्बन्ध में रहने से, इस पार और उस पार सम्पूर्ण का ज्ञान हो जाता है।
इसलिये गीता के ध्यान मन्त्र में, जहाँ व्यासदेव की स्तुति की गयी है, वहाँ उनको 'विशालबुद्धि' कहा गया है।
व्यासदेव ने जो वेदान्त-सूत्र लिखा था, उसके बाद आचार्य शंकर उसके उपर भाष्य की रचना किये थे। क्योंकि वेद या उपनिषद के भीतर जो दार्शनिक तत्व थे उनको वर्गीकृत करके व्यासदेव ने जिस वेदान्त-सूत्र की रचना की थी, उसकी व्याख्या में भी विभिन्नता की सम्भावना हो गयी थी। विभिन्न लोग अलग अलग ढंग से वेदांत-सूत्र की व्याख्या करने लगे थे, जिसके कारण भ्रान्ति उत्पन्न हो गयी थी। इनमें से किसकी व्याख्या सही है, किसकी गलत है ? इसमें ग्रहण करने योग्य कौन सा भाष्य होगा ? इन सबके बारे में भी भ्रम उत्पन्न हो गया था।
तब अत्यन्त तीक्ष्णबुद्धि-सम्पन्न शंकर ने समस्त शास्त्रों का अध्यन कर लेने के बाद, उसके अद्वैत पक्ष को लेकर वेदान्त-सूत्र पर भाष्य रचना किये। सनातन भावधारा में सामान्य रूप से तीन मतों को स्वीकार किया जाता है- द्वैत,विशिष्टाद्वैत एवं अद्वैत। शंकर ने अद्वैत पक्ष को आधार बनाकर, पहले ब्रह्मसूत्र के उपर, फिर उपनिषद एवं गीता पर भी भाष्य रचना किये थे। इन तीनों को एक साथ मिलाकर 'प्रस्थानत्रैय' कहा जाता है।
 इस 'प्रस्थानत्रैय', अर्थात गीता,उपनिषद और ब्रह्मसूत्र में ही-हमलोगों के देश का सम्पूर्ण प्राचीन ज्ञान-भण्डार छुपा हुआ है, इसीलिये जो लोग उसके उपर भाष्य लिखते हैं, उन्हें हमारे देश में आचार्य कहा जाता है। शंकर, रामानुज,मध्व, निम्बार्क आदि आचार्यों ने अपने-अपने मत के अनुसार इनकी जो व्याख्या की है, उनमें कुछ व्याख्या की भिन्नता है, और अपने मतानुसार स्वतंत्र-व्याख्या की गयी है।
आचार्य शंकर की सर्वश्रेष्ठता या वैशिष्ट्य (per-eminence) का प्रारंभ यहीं से होता है। उनहोंने वेदान्त के अद्वैत पक्ष को आधार बनाकर ब्रह्मसूत्र की जो व्याख्या की है, उसका मूल बिन्दु यही है कि -यहाँ दो  कुछ भी नहीं है, सत्य एक है, अनेक नहीं! और अनेक रूपों में जो कुछ दिख रहा है-वह सब ज्ञेय वस्तु या प्रतीत होने वाली वस्तु है, क्षणभंगुर है, मायिक वस्तु है, या अध्यस्त है।
 जो वस्तु दिखाई दे रही है, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कोई वस्तु वहां है,किन्तु वास्तव में नहीं है, तो उसको ही भ्रान्ति या भ्रम कहते हैं; जिसका कारण है 'माया'। जो एक होकर भी अनेक रूपों में भास रहा है-उसी को माया कहते हैं। जो वस्तु वह नहीं हो, जिस रूप में वह दिख रही हो, उसी को 'माया' कहते हैं। माया (एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु के रूप में दिखना -परिणाम नहीं है, विवर्त है।)का सबसे प्रसिद्द उदाहरण है, ' सर्प-रज्जू-न्याय '।  अर्थात अँधेरे में रज्जू को देखने से, उसके सर्प होने का भ्रम हो जाता है। जो वास्तव में वह नहीं है, वह उसी रूप में दिखाई पड़ रहा है। इसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की गयी है। आचार्य शंकर इस भ्रम को अध्यास कहते हैं, अर्थात सम्मोहित अवस्था में जो जैसा नहीं है, वैसा ही दिख रहा है; इसीको माया या माया का कार्य कहते हैं। माया-तत्व की व्याख्या में कहा जाता है, कि इसकी दो शक्तियाँ है- एक है आवरण-शक्ति और दूसरी है विक्षेप शक्ति। आवरण-शक्ति की सहायता से जो वस्तु वास्तव में जो है, उसको यह माया उस रूप में देखने नहीं देती है। जैसे वास्तव में है तो रज्जू किन्तु वैसा देखने नहीं देती है, या दिख नहीं रही है। फिर विक्षेप शक्ति की सहायता से जो नहीं है, उसी रूप में दिख रही है। जैसे वास्तव में है तो रज्जू, किन्तु सर्प जैसी दिख रही है। और हम वहाँ रज्जू नहीं देखकर सर्प देख रहे हैं। वास्तव में एक ही है,अनेक नहीं है, उसके सिवा अन्य कुछ भी नहीं है।
ठीक इसी बात को या इसी विचार को ठाकुर बहुत सरल भाषा में इस प्रकार कहते हैं-" ब्रह्म ही वस्तु हैं, ईश्वर ही वस्तु हैं, उनके स्थान पर अन्य जो कुछ भी दिख रहा है, वह सब अ-वस्तु है। एक को जानने का नाम ज्ञान है, अनेक को जानने का नाम अज्ञान है।" वास्तव में सबकुछ ब्रह्म ही हैं, किन्तु हमलोग अनगिनत रूप में देख रहे हैं। इसको ही अध्यास कहते हैं।

मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन। 
मृत्यो: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।। ११।।  
(कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय प्रथम वल्ली)
वे एक ही हैं,इस संसार में अनेक कुछ भी नहीं है। किन्तु जो इसे नहीं देखता।जो मनुष्य यहाँ (इस संसार में) (परमात्मा को) अनेक की भाँति देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है। संसार का अर्थ होता है जन्म-मृत्यु; अर्थात जो यहाँ अनेक को देखता है, वह संसार का के भँवर में फँस जाता है, बार बार जन्मता और मरता रहता है।
जो एक को एक नहीं देखते, अनेक रूप में देखते हैं, वे समझते हैं कि जो कुछ दिख रहा है, वही सत्य है।माया की शक्ति कार्य कर रही है, इसीलिये आवरण पड़ जाता है, इसीलिये हमलोग ब्रह्म को देख नहीं पा रहे हैं, या अनेकता में एक की उपलब्धी नहीं कर पा रहे हैं। जिस प्रकार रस्सी को रस्सी के रूप में नहीं देख रहे हैं, वह बिल्कुल सर्प प्रतीत हो रहा है।
उसी प्रकार माया में आवृत होने के कारण ही हम जगत को जो ईंट,लकड़ी,पत्थर इत्यादि अलग अलग रूपों में देख रहे हैं। जब माया हट जायेगी तो सब कुछ को ब्रह्म के रूप में देख सकेंगे। सत्य प्रकट हो जायेगा। एक बार माया का पर्दा हट जाने के बाद,हमलोगों की सत्य-दृष्टि खुल जाती है।

हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्न अपावृणु सत्य -धर्माय दृष्टये।। 
(ईशावास्योपनिषद/15)
हिरण्यमय पात्र, अर्थात सोने की थाली से सत्य का मुख ढका हुआ है। और हमलोग सोने की थाली पर  ही प्रलोभित होकर, उसी में संतुष्ट हो गये हैं। किन्तु उस सोने की थाली के पीछे ही वह परम सत्य है। इसीलिये प्रार्थना करते हैं- "सत्य-धर्माय दृष्टये अपावृणु।"  हे महामाया ! तुम इस सोने की थाली को हटा लो, दूर कर दो, ताकि मैं सत्य को देख सकूँ। इस माया को यदि हम हटा सकें तो, हमलोग अनेक को नहीं देखेंगे, केवल एक उसी सत्य को देखेंगे।
 ठाकुर ने कहा था, " मैं ब्रह्म और माया, जीव और जगत-सबको लेकर चलता हूँ। पहले नेति नेति करने के समय जीव और जगत को छोड़ देना होता है। जिसका नित्य है, उसीकी लीला है। इसीलिये मैं नित्य और लीला दोनों को लेता हूँ। माया के बल पर विश्व-ब्रह्माण्ड को उड़ा देने के लिये नहीं कहता हूँ। ज्ञानी देखते हैं, कि सबकुछ स्वप्नवत है। भक्त सभी अवस्था को लेते हैं। उत्तम भक्त नित्य और लीला दोनों को लेता है। इसीलिये नित्य से उतर आने के बाद भी उनका सम्भोग कर सकता है।"
आचार्य शंकर ने जगत को व्यावहारिक सत्य कहा है। उनहोंने भी जगत को बिलकुल उड़ा नहीं दिया था। आचार्य शंकर कोई शुष्क हृदय मनुष्य नहीं थे इसका प्रमाण उनके द्वारा लिखित -गंगा-स्त्रोत्र,भवानी-स्त्रोत्र, शिव-स्त्रोत्र आदि में देखा जा सकता है। आचार्य शंकर के द्वारा रचित 'विष्णुषट्पदी ' नामक एक अभूतपूर्व स्त्रोत्र है, जिसमें विष्णु का वर्णन किया गया है। उसको पढने से समझ में आता है कि शंकर कितने हृदयवान व्यक्ति थे।
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वं । सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः ॥ ३॥
अविनयमपनय विष्णो दमय मनः शमय विषयमृगतृष्णां । भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरतः ॥ १॥

-हे विष्णु ! मेरे अविनय या अशिष्टता को दूर कर दो। मेरे अहंकार को चूर्ण करदो, मुझे अपने मन का दमन करने में सहायता करो। विषय-भोग रूपी मृगतृष्णा (मरीचिका)-उसमें सुख है, ऐसा मानकर, इस लौकिक सुखों में आनन्द है, इसीमे अर्थ है, ऐसा सोंच कर उसके पीछे दौड़ रहा हूँ। किन्तु उस उषर रेगिस्तान में जीवन का थोडा भी आनन्द नहीं मिलता, किन्तु वहीं पहुँच कर हमलोग अपने को खो देते हैं। इसीलिये प्रार्थना करते हैं कि इसप्रकार की विषय भोगों की मृगतृष्णा बिल्कुल दूर हो जाये। ऐसा केवल मन का दमन करने से ही संभव है। इसीलिये हे विष्णु ! मेरे मन को दमन करने में मेरी सहायता करें। 
किन्तु जब तक अहंकार है, तब तक मन का दमन नहीं किया जा सकता है। इसीलिये सर्वप्रथम मेरा अविनय, अर्थात विनयहीनता या अहंकार दूर करो। इसका, अहंकार दूर करने का -क्या उपाय है ? एकमात्र सभी भूतों पर दया का विस्तार करने से ही अहंकार दूर करना संभव होता है। इसी बात को ठाकुर देव कहते थे, " अपने लोगों को प्रेम करने का नाम माया है, सर्वभूतों  को प्रेम करने का नाम दया है। "
हमारे समस्त शास्त्रों में चिरकाल से दया की प्रशंसा होती आ रही है। समस्त प्राणियों के प्रति दया,प्रेम, करुणा, सहानुभूति बढ़ाने का उपदेश दिया गया है। इसका फल क्या होगा ? यही, कि वैसा करने से ह्मलोग संसार से मुक्त हो जायेंगे, या जन्म-मृत्यु के हाथों से छुटकारा प्राप्त कर लेंगे। संसार-सागर से उद्धार मिल जायेगा।
बौद्ध धर्म के प्रभाव से हमलोगों का जो सनातन धर्म है,वह लगभग लुप्त होने के कागार तक पहुँच गया था। क्योंकि बौद्ध धर्म में वेद के उपर विश्वास करने की कोई बात नहीं थी। यहाँ तक कि स्वयं बुद्धदेव ने भी ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा है। हालाँकि वे किस प्रकार के नास्तिक थे, इस सम्बन्ध में संदेह की गुंजाईश है, और इसको लेकर बहुत मतभेद भी है। किन्तु सामान्य जनता जिनको तत्वज्ञ बनने की क्षमता नहीं थी,वे उनके ईश्वर के सम्बन्ध में चुप्पी को गलत समझ लिये, और ईश्वर के प्रति अपनी आस्था को खोने लगे थे। वेद पर विश्वास नहीं करने के कारण, वेद-वेदान्त में जो महान सत्य छुपे हुए थे, वे सब मनुष्य के जीवन से लूप्त होने लगे थे।
बुद्धदेव ने जिस संन्यासी सम्प्रदाय की स्थापना की थी, उसमें कोई व्यक्ति संन्यास धारण करने का उचित या योग्य अधिकारी है या नहीं इसपर कोई विचार किये बिना ही, बिना किसी रुकावट के सभी को संन्यास दिया जाने लगा था। परिणाम स्वरूप संन्यास धर्म की अधोगति होने लगी, और क्रमशः संन्यास का आदर्श विकृत होकर अपभ्रष्ट हो गया था। क्रमशः संन्यासियों के जीवन में अराजकता का प्रवेश हो गया, तह संन्यासियों के जीवन की अराजकता को देखकर समाज भी कलुषित होने लगा। सम्पूर्ण भारतवर्ष का समाज क्रमशः चरित्रहीन होने लगा।
उसी समय में आचार्य शंकर ने व्यास-सूत्र पर भाष्य की रचना किये, समस्त उपनिषदों पर (दश उपनिषद या मतभेद है की बारह उपनिषदों ) भाष्य की रचना किये। उसके भीतर जो कर्म में रूपायित करने की दृष्टि थी, जिसकी व्याख्या व्यासदेव ने गीता के माध्यम से की थी, उसके उपर भी असाधारण भाष्य की रचना की। इसप्रकार वेदान्त, ब्रह्मसूत्र, एवं गीता के बीच सुसामंजस्य स्थापित करके तत्व और जीवन के बीच स्थापित किये। ताकि अपने व्यावहारिक जीवन में भी उपयोगी तत्वों को ग्रहण करके भारत की उन्नति हो सके। नया संन्यासी सम्प्रदाय स्थापित किये, नये मठ को स्थापित किये।
उसी प्रकार आगे चलकर और भी नये ढंग से समयोपयोगी बनाकर वेदान्त के तत्वों को जीवन में अपनाने के योग्य बनाकर ठाकुर-माँ-स्वामीजी ने अपने जीवन के माध्यम से हमलोगों को दिया है। सम्पूर्ण मानव सभ्यता की प्रगति के जीवनधारा को याद रखने के लिये यदि तीन चरणों में व्यक्त करना हो, तो प्रथम सोपान पर व्यासदेव हैं, दूसरे सोपान पर आचार्य शंकर हैं, और तृतीय तथा अंतिम सोपान पर श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द हैं।
सम्पूर्ण मानव-इतिहास, उसका दर्शन, उसकी संस्कृति, उसकी प्रगति, उसके उत्थान-पतन का इतिहास यदि याद रखने की बात हो, तो बहुत सी बातों को याद नहीं रखकर, इन तीन सोपानों को याद रखने काम हो जायेगा। वेदव्यास ने क्या किया था, आचार शंकर ने क्या किया था तथा ठाकुर-माँ-स्वामीजी ने क्या किया था-इतना जान लेना ही भारत के सच्चे इतिहास को जानना है।
इसके भीतर सामयिक पतन और उससे पुनरुत्थान के उपाय को भलीभांति समझा जा सकता है। और इनके बीच की कड़ी (शङ्करः)भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। कहा गया है-  "शङ्करः शङ्करः साक्षात् व्यासो नारायणः स्वयम् । आचार्य शंकर साक्षात् शिव हैं, शिवजी का अवतार हैं -आचार्य शंकर; उन्होंने मनुष्य के कल्याण के लिये शरीर धारण किया था, ऐसा कहा जाता है।
ठाकुर ने कहा था, " शिव के अंश से जिसका जन्म होता है, वह ज्ञानी होता है; उसका मन हर समय 'ब्रह्म सत्य,जगत मिथ्या ' के बोध की ओर चला जाता है। विष्णु के अंश से जिसका जन्म होता है, उसमें प्रेम-भक्ति होती है।" किन्तु शंकराचार्य में विष्णु के प्रति भक्ति भी कम नहीं थी। ठाकुर यह भी कहते थे, कि " शंकराचार्य ने लोक-शिक्षा के लिये 'विद्या का मैं' रख लिया था। " उस महान पुरुष को हम प्रणाम करते हैं।

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[  कोई दूसरा मरता है तो कहते हैं बेचारा मर गया। खयाल ही नहीं आता, अपने मरने की खबर आई है। किसी अंग्रेज कवि की पंक्ति है-  किसी को भेजो मत पूछने कि लिए की चर्च की घंटी किसके लिए बजती है। तुम्हारे लिए ही बजती है। बिना पूछे ही जानो कि तुम्हारे लिए ही बजती है।’ हम मौत से बहुत घबराते हैं। हम मृतक को फूलों से ढककर मौत की भयावहता को कम करने की चेष्टा करते हैं।
संन्यास का अर्थ यही है- जीते जी, इस तरह जीना जैसे मर गए। मृत्यु में जो उतरेगा, वह अमृत को उपलब्ध होगा। संन्यास लेने का अर्थ है, स्वयं को स्वयं की मृत्यु की खबर देना। कह देना है जो चर्च में घण्टी बज रही है, मेरे लिए ही बज रही है, वह जो रास्ते से लाश गुजर रही है, वह मेरी ही गुजर रही है।
परम सत्य के बिल्कुल आमने-सामने ऋषि खड़ा है। बड़ी दुविधा है, प्रकाश के आधिक्य के कारण सूक्ष्म आंखे भी चौधियां जा रही हैं। जैसे-जैसे सत्य की तरफ यात्रा होती हैं, वैसे-वैसे प्रकाश बढ़ता जाता है। ध्यान में गहरे उतरते हैं, प्रकाश बढ़ता चला जाता है। एक बिन्दु ऐसा आता है जब प्रकाश इतना ज्यादा हो जाता है कि गहन अंधकार मालूम होने लगता है।इसे बाइबिल में आत्मा की अधंकारपूर्ण रात्रि कहा गया है। ऋषि प्रार्थना कर रहा है ‘प्रकाश के इस पर्दे को हटाले ताकि मैं इसके पीछे छिपे सत्य के मुख को देख सकूं। अनन्त सूर्य एक साथ जलने लगते हैं। अंधकार में आंख खोलना आसान है, प्रकाश के आधिक्य में आंख खोलना बहुत कठिन है। हमने प्रकाशित चीजें देखी है, प्रकाश के स्त्रोत को देखा हे, प्रकाश को देखा ही नहीं है। प्रकाश का अनुभव बाहर के जगत में होता ही नहीं। प्रकाश इतनी सूक्ष्म ऊर्जा है कि बाहर उसके दर्शन नहीं हो सकते। प्रकाश के दर्शन तो भीतर ही होते हैं।‘जब तक भीतर नहीं देखा था, तब तक जिसे प्रकाश समझा था, भीतर देखने के बाद मालूम चला, वह अंधकार है। 
यहां ऋषि ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय‘ अंधेरे से प्रकाश की ओर ले चल, प्रार्थना नहीं कर रहा। वह ज्योति के सामने पहुंच गया है। वह तो प्रकाश के पर्दे को हटाने के लिए प्रार्थना कर रहा है। साधक लक्ष्य पर पहुंच गया है। प्रकाष का पर्दा इतना गहन हैं कि सत्य के दर्शन नहीं हो पा रहे हैं। ज्यों ही प्रकाश का पर्दा हटता है, सत्य का मूल रूप आलोक फूट पड़ता है।आलोक दर्शन होते ही ज्ञाता और ज्ञेय दोनों खो जाते हैं। दृष्टा और दृश्य खो जाते हैं, फिर ऋषि ही सत्य हो जाता हैं। भक्त खोजता है, भगवान खो जाता है।
 हे प्रभु ! सांसारिक चमक-दमक और सांसारिक सुखद आकर्षणरूपी आवरणके पात्र से सत्य का मुख ढका हुआ है।हे प्रकाशवान, सर्व पोषक ! उस भौतिक आकर्षण के परदे को हटाइये ताकि मुझे सत्य - धर्म का ज्ञान हो और मैं परम सत्यको देख सकूँ ।]
बहुत पहले सुदर्शन जी की एक कहानी पढ़़ी थी- ' एथेंस का सत्यार्थी’। यूनान देश के एथेंस नगर के निवासी दार्शनिक सुकरात (देवकुलीश) को एथेंस का सत्यार्थी इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने ' सत्य की खोज एवं झूठ के खंडन ' के लिए जहर का प्याला पीना भी स्वीकार कर लिया था। इसलिए आज के युग में भी जो सत्य की खोज में समर्पित हो जाए उसे एथेंस का सत्यार्थी ही कहना चाहिये। सुकरात (Socrates 469-399 ई. पू.) यूनान का विख्यात दार्शनिक वह कहता था-ज्ञान और सच्चरित्रता एक ही वस्तु हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।'ज्ञान का संग्रह और प्रसार, ये ही उसके जीवन के मुख्य लक्ष्य थे। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि शुभ या भद्र दो चरम सीमाओं में मध्यवर्ती स्थिति है। घृष्टता और कायरता दोनों अवगुण हैं; इनके मध्य में साहस है जो सदाचार है। शिष्टाचार उद्दंडता और दासभाव के बीच की अवस्था है।
 सुकरात रहस्‍यदर्शी था, उसे दार्शनिक कहना ठीक नहीं होगा। लेकिन पश्‍चिम में बुद्धों की कोई परंपरा नहीं है। इसलिए इतिहासकार या उसके स्‍वयं के शिष्‍य भी उसे समझ नहीं पाये। वे उसे एक विचित्र, बेबूझ व्‍यक्‍ति मानते थे। सुख-दूःख या सर्दी-गर्मी उसके लिए सब एक बराबर था। उसे बार-बार घंटो टाँस में खो जाने की आदत थी। लोग कहते थे उसकी आत्‍मा ने शरीर पर विजय पा ली है। उसकी एक ही बुरी आदत थी: लोगों के साथ संवाद करना। और संवाद के द्वारा सत्‍य को उघाड़ना। एथेन्‍स के सारे नेता उस की हरकत से परेशान थे। वे उसके बोलने को रोक नहीं सके तो आखिर उसकी आवाज को ही बंद करवा दिया। उसके अधूरे कार्य को उसके शिष्य अफलातून और अरस्तू ने पूरा किया।
 तरुणों को बिगाड़ने, देवनिंदा और नास्तिक होने का झूठा दोष उसपर लगाया गया था और उसके लिए उसे जहर देकर मारने का दंड मिला था। सुकरात ने जहर का प्याला खुशी-खुशी पिया और जान दे दी। उसे कारागार से भाग जाने का आग्रह उसे शिष्यों तथा स्नेहियों ने किया किंतु उसने कहा-भाइयो, तुम्हारे इस प्रस्ताव का मैं आदर करता हूँ कि मैं यहाँ से भाग जाऊँ। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और प्राण के प्रति मोह होता है। भला प्राण देना कौन चाहता है? किंतु यह उन साधारण लोगों के लिए है जो लोग इस नश्वर शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। आत्मा अमर है फिर इस शरीर से क्या डरना?
 हमारे शरीर में जो निवास करता है क्या उसका कोई कुछ बिगाड़ सकता है? आत्मा ऐसे शरीर को बार बार धारण करती है अत: इस क्षणिक शरीर की रक्षा के लिए भागना उचित नहीं है। क्या मैंने कोई अपराध किया है? जिन लोगों ने इसे अपराध बताया है उनकी बुद्धि पर अज्ञान का प्रकोप है। मैंने उस समय कहा था-विश्व कभी भी एक ही सिद्धांत की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। मानव मस्तिष्क की अपनी सीमाएँ हैं। विश्व को जानने और समझने के लिए अपने अंतस् के तम को हटा देना चाहिए। मनुष्य यह नश्वर कायामात्र नहीं, वह सजग और चेतन आत्मा में निवास करता है। इसलिए हमें आत्मानुसंधान की ओर ही मुख्य रूप से प्रवृत्त होना चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अपने जीवन में सत्य, न्याय और ईमानदारी का अवलंबन करें। हमें यह बात मानकर ही आगे बढ़ना है कि शरीर नश्वर है। अच्छा है, नश्वर शरीर अपनी सीमा समाप्त कर चुका। टहलते-टहलते थक चुका हूँ। अब संसार रूपी रात्रि में लेटकर आराम कर रहा हूँ। सोने के बाद मेरे ऊपर चादर उड़ देना। "] 
एक जगह यह भी लिखा है- इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा- ‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।’इन्हीं शंकराचार्यजी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है।
 हमारे दशनामी सम्प्रदाय के नाम इस परकार हैं -(1)-वन, (2)-अरण्य, (3)-गिरि, (4)-सागर, (5)-पर्वत, (6)-तीर्थ, (7)-आश्रम, (8)-पुरि, (9)-भारती, (10)-सरस्वती। इसमें से पुरी-सम्प्रदाय के श्रीमद तोतापुरी जी महाराज, श्रीरामकृष्ण के गुरु थे, इसलिये उनके (ठाकुर के ) सभी भक्त पूरी सम्प्रदाय के माने जा सकते हैं। पुरी की परिभाषा इस प्रकार है -
'ज्ञान तत्वेण सम्पूर्णः पूर्णतत्व पदेस्थितः।
पद ब्रह्मरता नित्य पुरी नामा स उच्यते।।'
-अर्थात ज्ञान तत्व से युक्त पूर्ण तत्वज्ञ व शब्द ब्रह्ममें लीन में रहने वाला पुरी है। पुरियों की 16 मढी इस प्रकार है:-1-वैकुण्ठ पुरि, 2-केशव पुरि मुलतानी, 3-गंगा पुरि दरिया पुरि, 4-ञिलोक पुरि, 5-वन मेघनाथ पुरि, 6-सेज पुरि, 7-भगवन्त पुरि, 8-पू्रण पुरि 9-भण्डारी हनुमत पुरि, 10-जड भरत पुरि, 11-लदेर दरिया पुरि, 12-संग दरिया पुरि, 13-सोम दरिया पुरि 14-नील कण्ठ पुरि,15-तामक भियापुरि, 16-मुयापुरिनिरंजनी]



              

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