गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

'शक्ति पूजा और लोकाचार' स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [33] (धर्म और समाज),

 'क्या दुर्गा पूजा एक त्यौहार मात्र है?'
स्वामी विवेकानन्द द्वारा अमृतत्व (अमरत्व) के विषय पर अमेरिका में दिये गए एक सन्देश को हमलोग थोडा ध्यान पूर्वक सुनें, और मन ही मन इसके उपर चिन्तन करते हुए इसे समझने चेष्टा करें- वे कहते हैं, " तुम, मैं अथवा ये समस्त आत्मायें क्या हैं ? तुम और हम उसी विराट विश्वव्यापी चैतन्य या प्राण या मन के अंश-विशेष हैं, जो हम में क्रमसंकुचित या अव्यक्त अवस्था में हैं। और हम घूमकर, क्रम-विकास की प्रक्रिया के अनुसार उस विश्व-व्यापी चैतन्य में पुनः वापस लौट जायेंगे। लोग उसी विश्व-व्यापी चैतन्य को प्रभु, भगवान, ईसा, बुद्ध या ब्रह्म कहते हैं- भौतिकतावादी उसीकी शक्ति (उर्जा) के रूप में उपलब्धि करते हैं। तथा अज्ञेय वादी लोग उसी की उस अनन्त अनिवर्चनीय सर्वातीत पदार्थ के रूप में धारणा करते हैं, और हम सभी लोग उसी के अंश हैं। "२/१२६ 
हमलोग भौतिक जगत के भोगों में- 'कामुकता और कमाई' में जितना अधिक मदहोश (हिप्नोटाइज्ड)रहेंगे
उस विश्व-व्यापिनी शक्ति से उतना ही अधिक विलग होते जायेंगे । और शक्ति से जितना अधिक विच्छिन्न होंगे, उतने ही अधिक दुर्बल होते जायेंगे। दुर्बल होने के कारण ही हमलोगों की ऐसा दुःख-दारिद्र्य भोगना पड़ रहा है। सुख या आनंद इन्द्रिय-विषयों के भोग करने से प्राप्त नहीं होता, वास्तव में शक्ति ही परमानन्द प्रदान करती हैं। (नशा शराब में होता -तो नाचती बोतल ! ) दुर्बल होने के कारण ही हमलोग परमानन्द प्राप्त करने के अपने जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित हो जाते हैं।
हमलोगों के राष्ट्रीय जीवन के विकास को, भारत के जन-साधारण के निजी जीवन में शक्ति के नाश ने ही, हजारों वर्षों तक रुद्ध किये रखा है। इसीलिये स्वामीजी बार बार कहते हैं, हमलोगों के लिए इस समय शक्ति पूजा की घोर आवश्यकता है। इस शक्ति पूजा का तात्पर्य कोई पौराणिक या या तांत्रिक आचार-अनुष्ठान नहीं है, या इसके साथ 'हिन्दूओं के योग ' वाली बात भी नहीं है। [संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत के आग्रह पर २१ जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग-दिवश घोषित कर दिया है। किन्तु योग का अर्थ केवल शरीर का रोग दूर करने वाले विभिन्न आसन ही नहीं है।] योग का वास्तविक अर्थ है, उसी विश्व व्यापिनी शक्ति के साथ योग -'एकत्व की अनुभूति' को बढ़ाने की चेष्टा करना। आज वैसी शक्ति पूजा का आयोजन कहाँ हो रहा है ?
स्वामी विवेकानन्द किस प्रकार की शक्ति पूजा का आयोजन करना चाहते थे ?  यह उन्हीं के मुख से भारती की संपादिका को २४ अप्रैल १८७९७ को लिखित पत्र से सुना जाये, " इसी जीवात्मा में अनन्त शक्ति अव्यक्त भाव से अन्तर्निहित है, चींटी से लेकर ऊँचे से ऊँचे सिद्ध पुरुष तक सभी में वह आत्मा विराजमान है, और अन्तर जो कुछ है वह केवल प्रकाश (अभिव्यक्ति) के तारतम्य में है। कैवल्यपाद में है -'वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत "- किसान जैसे खेतों की मेंड़ तोड़ देता है और एक खेत का पानी दूसरे खेत में चला जाता है , वैसे ही आत्मा भी आवरण टूटते ही प्रकट हो जाती है । उपयुक्त अवसर और उपयुक्त देश-काल मिलते ही उस शक्ति का विकास हो जाता है। परन्तु चाहे विकास हो, चाहे न हो, वह शक्ति प्रत्येक जीव में -ब्रह्मा से लेकर घास तक में - विद्यमान हैं ! इस शक्ति को, सर्वत्र  घर घर जाकर जगाना होगा । " वैसी  शक्ति पूजा कहाँ हो रही है ?
यहाँ क्या हो रहा है ? पुराने ढांचे (frame) के उपर कादो-माटी का नया लेप चढ़ाया जा रहा है। कहा जा रहा है - "दुर्गापूजा का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है (?), यह तो एक त्यौहार है- आइये हमलोग इसको अपने मन-मर्जी के अनुसार फ़िल्मी भक्ति-गीत आदि के साथ डी.जे. के धुन पर नाचते-गाते मना लेते हैं।" इन दिनों इसी प्रकार की मानसिकता के साथ शक्ति की पूजा करने का आह्वान अधिक सुनाई देती है। किन्तु जिस प्रकार पुराने पोथी-पत्री को निचोड़ने से कोई नई वस्तु प्राप्त करना कठिन होता है,  वैसे ही अपने मनमर्जी के अनुसार दुर्गोत्सव मनाने की इस नई प्रवृत्ति से कोई शक्ति प्राप्त होने वाली नहीं है। यदि हम सचमुच मनुष्य का कल्याण करना चाहते हों, तो इस युग में हमलोगों को नये शास्त्र का अनुसरण करना ही होगा। नये रूप में शक्ति पूजा का आयोजन करना होगा, यह आयोजन किस प्रकार करना होगा ? इसका जो निर्देश विवेकानन्द ने दिया है, उसे हम उनकी रचना 'चिन्तनीय बातें' के अलोक में प्राप्त कर सकते हैं।
" सनातन हिन्दुधर्म का गगनचुम्बी मन्दिर है - उस मन्दिर के अन्दर जाने के मार्ग भी कितने हैं ! और वहाँ है  क्या नहीं ? वेदान्त के निर्गुण ब्रह्म से लेकर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, शक्ति, सूर्य, चूहे पर सवार गणेशजी, छोटे देव-देवियाँ- जैसे षष्ठी, माकाल (सोने की ईंटें ? ) इत्यादि तथा और भी न जाने क्या क्या वहाँ मौजूद हैं। फिर वेद, वेदान्त, दर्शन, पुराण, तंत्र, में बहुत सी सामग्री है, जिसकी एक एक बात से भव-बंधन टूट जाता है। 
और लोगों की भीड़ का तो कहना ही क्या, तेंतीस करोड़ लोग उस ओर  दौड़े रहे हैं। मुझे भी उत्सुकता हुई, मैं भी दौड़ने लगा।  किन्तु यह क्या? मैं तो जाकर देखता हूँ एक अद्भुत काण्ड !! 
कोई भी मन्दिर के अन्दर नहीं जा रहा है, प्रवेश-द्वार के सामने ही एक पचास सिर वाली, सौ हाथ वाली दो सौ पेट वाली और पाँच सौ पैर वाली मूर्ति खड़ी है।  उसी के पैरों के नीचे सब लोट-पोट हो रहे हैं। एक व्यक्ति से कारण पूछने पर उत्तर मिला, " भीतर जो सब देवता हैं, उनको दूर से ही लोट-पोट लेने से ही या दो फूल फेंक देने से ही उनकी यथेष्ट पूजा हो जाती है। असली पूजा तो इनकी होनी चाहिये जो दरवाजे पर विद्यमान हैं; और जो वेद, वेदान्त, दर्शन, पुराण, और शास्त्र सब देख रहे हों, उन्हें कभी कभी सुन ले, तो भी कोई हानी नहीं, किन्तु इनका हुक्म तो मानना ही पड़ेगा। " 
तब मैंने फिर पूछा, ' इन देवताजी का भला नाम क्या है ? ' उत्तर मिला, ' इनका नाम है -लोकाचार ' और मुझे लखनऊ के ठाकुर साहब की बात याद आ गयी, " शाबाश ! भई लोकाचार !! ....शबाश ! बाबा येजिद, देवता तो तू ही है ! सरउ  का अस मार मारेउ कि ई सब अबहिन तलक रोवत है !!" १०/१४६ 
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" बीज का ही वृक्ष होता है,बालू के कण का नहीं। पिता ही पुत्र होता है, मिट्टी का ढेला नहीं। अब प्रश्न है कि यह क्रमविकास किसका होता है ? बीज क्या था ? वह बीज ही उस वृक्ष के रूप में था । इसीको क्रमसंकोच कहते हैं। जब तुम अनेक को देखते हो, तब तक तुम अज्ञानता (हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड) में हो। ' इस अनेकतापूर्ण जगत में जो उस एक को , इस परिवर्तनशील जगत में जो उस अपरिवर्तनशील को अपनी  आत्मा की आत्मा के रूप में देखता है, अपना स्वरूप समझता है , वही मुक्त है , वही आनंदमय है, उसीने लक्ष्य की प्राप्ति की है। अतएव यह जानलो कि तुम्हीं जगत के ईश्वर हो -तत्त्वमसि ! 
यदि सैकड़ों सूर्य पृथ्वी पर गिर  पड़ें , सैकड़ों चन्द्र चूर चूर हो जाएँ, एक के बाद एक ब्रह्माण्ड विनष्ट होते चले जाएँ , तो भी तुम्हारे लिए क्या ? पर्वत की भांति अटल रहो ; तुम अविनाशी हो । कहो "शिवोSहं ,शिवोSहं-मैं पूर्ण  
सच्चिदानन्द हूँ । " पिंजड़े को तोड़ डालने वाले सिंह की भाँति तुम अपने बन्धन (कामुकता और कमाई में आसक्ति ) को तोड़कर सदा के लिए मुक्त हो जाओ ! " २/१३१ 

" ईश्वर माँ है। हमलोग धन, सम्पत्ति और इन सभी चीजों की खोज में डूबे हुए हैं; किन्तु एक समय ऐसा आएगा, जब हम जाग उठेंगे; और जब यह प्रकृति हमें और खिलौने देने का प्रयत्न करेगी तब हम कहेंगे, ' नहीं, मैंने बहुत पाया, अब मैं ईश्वर के पास जाऊंगा।' (10/42)
" भाई, शक्ति के बिना जगत का उद्धार नहीं हो सकता। क्या कारण है कि संसार के सब देशों में हमारा देश ही सबसे अधम है, शक्तिहीन है, पिछड़ा हुआ है ? इसका कारण यही है है कि वहाँ शक्ति की अवमानना होती है। ...जीती जागती दुर्गा को छोड़ कर मिटटी की दुर्गा पूजने चले हो ? भाई, जीती जागती की पूजा कर दिखाऊंगा, तब मेरा नाम लेना 2/360  
ভালো থাকা ভালোবাশা, ভালো মনে কিছু আশা , বেদোনার দুরে থাকা, সখস্মৃতি ফিরে দেখা, বোধন থেকে বরণ -ডালা , বিজয়া মানে এগিয়ে চলা ! সুভো বিজয়া!]
["One must propitiate the Divine Mother, the Primal Energy, in order to obtain God's grace. God Himself is MahAmAyA, who deludes the world with Her illusion
 and conjures up the magic of creation, preservation and destruction." Sriramakrishna]
 




मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

प्रकृति का प्रतिशोध ( 'क्षमा और अविरोध' ) स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [32] (धर्म और समाज),

  'बदला लेने की प्रवृत्ति का नष्ट होना मनुष्य बनना है'  
[शक्तिशाली (हृदयवान का) क्षमा और अविरोध देवत्व है !]
मनुष्य और पशु दोनों में, प्रतिशोध लेने की एक पाशविक-प्रवृत्ति लगभग एक जैसी ही विद्यमान रहती है। हिन्दी में प्रचलित कहावत है-'जैसे को तैसा '। अंग्रेजी में कहावत है-'दाँत के बदले जबड़ा '। (एक प्रचलित गर्वोक्ति है-"To revenge is mean not mentioned in my policy.") आज कल सुना जा रहा है- " खून के बदले खून।" किन्तु, यह बदला लेने की प्रवृत्ति क्या सचमुच मनुष्यों में भी रहने योग्य है? मनुष्य तो उसे कहते हैं, जो विवेक-पूर्ण निर्णय लेने के बाद कार्य करता हो। यदि हमलोग विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कोई कार्य करें, तो क्या करना श्रेय होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है। मनुष्य यदि हृदयवान हो, तो वह प्रेम की असीम शक्ति से सम्पूर्ण जगत को अपना बना सकता है। यदि सम्पूर्ण मानवता मेरी हो जाय-सभी मनुष्य मेरे अपने हैं; ऐसा बोध जाग्रत हो जाय तो, तो किसी को बदले की भावना से पहुँचायी गयी क्षति या चोट स्वयं अपने ऊपर लगने जैसी कष्टदायक प्रतीत होगी। जिस मनुष्य ने ऐसी हृदयवत्ता अर्जित कर ली हो,तो भले ही वह स्वयं को चोट सह ले, किन्तु किसी भी परिस्थिति में दूसरे किसी को चोट या क्षति पहुँचाने की बात नहीं सोंच सकता। इसको ही अप्रतिकार या अविरोध कहते हैं। यह अत्यंत उच्च अवस्था है ! जो मनुष्य सचमुच महान और शक्तिशाली होते हैं, वे सर्वदा अविरोध या अप्रतिकार की स्थिति में रहते हैं।
रानी रासमणि जिन्होंने 'दक्षिणेश्वर काली मन्दिर' को स्थापित किया था, वे श्रीरामकृष्ण को गुरु से भी बढ़ कर श्रद्धा करती थीं। उनके दामाद मथुरबाबु जो मन्दिर के संचालक थे, वे माँ भवतारिणी के पुजारी-श्रीरामकृष्ण  को बाबा कहकर बुलाते थे, और उनकी बड़ी सेवा करते थे। यह देखकर मन्दिर के ही एक दूसरे पुजारी हलधारी (उनके चाचा के लड़के)  ईर्ष्या से जल-भुन गये और उनसे डाह करने लगे। एक दिन श्री रामकृष्ण को अकेले में देखकर उनसे पूछा, 'तुमने किस जादू-जन्तर या ताबीज के बल पर उन्होंने मथुरबाबू कोअपने वश में कर लिया है? जब श्रीरामकृष्ण ने कहा कि उन्होंने तो वैसा कुछ भी नहीं किया है!  यह सुनकर हलधारी क्रोध से इतने आवेशित हो गये कि, अपना आपा (होश) खो बैठे और ठाकुर (श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ) पर पैरों से प्रहार कर दिए। श्रीरामकृष्ण गिर पड़े, किन्तु किसी प्रकार उठे और वहाँ से चुपचाप चले गये। इसके बहुत दिनों बाद जब मथुरबाबु ने इस घटना के बारे में सुना, तो कहे, " बाबा, आपने उसी समय मुझसे क्यों नहीं कहा ? हलधारी का सिर ही उड़ा देता !" ठाकुर बोले, " इसीलिये तो नहीं कहा, आहा बेचारे से कैसी गलती हो गयी।" इसको कहते हैं अप्रतिकार (अविरोध)! 
इसी प्रकार की एक अन्य घटना का उदहारण मिलता है, " किसी साधू ने एक बिच्छू को जल में गिर कर तड़फफड़ाते हुए देखा। उनहोंने तुरन्त उसको अपनी हथेली में उठा लिया। उठते ही बिच्छू ने उनको डंक मार दिया और पुनः जल में गिर पड़ा। उन्होंने फिर से उसको उठाया, बिच्छू ने फिर से डंक मारा। बिच्छू के डंक की तीव्र जलन भी उनके मन में क्रोध या बदले की भावना उत्पन्न नहीं कर सकी। वे उसको उठाकर जल से बाहर निकाल ही दिये, प्रेम और क्षमा की ही विजय हुई।
पर जो व्यक्ति जिंगोइस्ट टाइप  (jingoist-अंधराष्ट्र्भक्त,  ) इससे क्या हुआ, 'मैं भी आखिर मनुष्य ही हूँ; यदि कोई व्यक्ति मेरे साथ (मेरे देश के साथ ?) ऐसा-वैसा ही व्यवहार करता रहे (वन्देमातरम न बोले या पाकिस्तानी झण्डा लहराये), तो क्या मुझे उसको यूँ ही छोड़ देना चाहिये?" मन में ऐसा प्रश्न उठाना ही, अपने भीतर की पशुता को समर्थन देने जैसा है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था,  "ठाकुर (नवनी दा ) के भीतर, केवल 'पशु' ही क्यों, 'मनुष्य' भी पूरी तरह से मर चुका था, वहाँ सिर्फ 'देवता' ही जाग्रत थे ! " हमलोगों को भी (धर्म को सीखकर)  पहले इस पशु के स्तर से उपर उठाना होगा, फिर मनुष्य के स्तर का भी अतिक्रमण करते हुए देवत्व के स्तर में उन्नत होना होगा! क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ने इसीको धर्म कहा है। वे कहते हैं -" धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। "इसीलिये यदि हर समय पूर्ण विवेकज ज्ञान का प्रयोग करना संभव न भी हो पाता हो, तब भी मनुष्य को देवत्व में उन्नत करने वाले इस 'अविरोध' के गुण को, यथा-संभव धीरे धीरे बढ़ाने की चेष्टा करनी होगी। थोड़ी भी क्षति पहुँचने या चोट लगने से (या मच्छड़-बिच्छु काटते ही), बदला लेने की प्रवृत्ति को क्रमशः जीतना ही पड़ेगा। यदि ऐसा संभव नहीं हो सका तो मनुष्य शरीर में जन्म लेना (बुद्धत्व प्राप्ति?) व्यर्थ  हो जायेगा।   
केवल इतना ही नहीं, इसका एक वैज्ञानिक आधार भी है।
प्रसिद्द वैज्ञानिक न्यूटन द्वारा आविष्कृत एक अकाट्य वैज्ञानिक नियम है, जिसे 'Law of Motion' या गति का नियम' के नाम से जाना जाता है। न्यूटन के गति के तीसरे नियम के अनुसार-  ‘प्रत्येक क्रिया के समान एवं विपरीत प्रतिक्रिया होती है; तथा यह प्रतिक्रिया परिमाण में कार्य के ठीक बराबर और विपरीत मुखी होती है।'
 [उदाहरणार्थ बन्दूक से जब गोली छोड़ी जाती है, तो हमें पीछे की ओर झटका लगता है। या घोड़ा गाड़ी को खींचते समय अपनी पिछली टाँगों से पृथ्वी को पीछे की ओर ठेलता है, जिससे प्रतिक्रिया स्वरूप पृथ्वी घोड़े को आगे की ओर धक्का देती है, और गाड़ी आगे बढ़ती जाती है। जब एक वस्तु किसी दुसरे वस्तु पर बल का प्रयोग करता है, तत्क्षण ही वह दूसरा वस्तु पहले वस्तु पर वापस बल लगाता है। प्रयोग किए गए दोनों बल परिमाण में बराबर होते है,पर दिशा में विपरीत। इन नियम के सम्बन्ध में दो महत्त्वपूर्ण बातें ध्यान देने योग्य हैं—हम यह नहीं जान सकते हैं कि अमुक बल क्रिया है तथा अमुक बल प्रतिक्रिया है। हम केवल यही जान सकते हैं कि एक बल क्रिया है तथा दूसरी प्रतिक्रिया। क्रिया तथा प्रतिक्रिया सदैव अलग–अलग पिण्डों पर लगती है, एक ही पर नहीं।]
इसीलिये हमलोग जो भी कार्य क्यों न करें, ठीक वही हमलोगों की तरफ वापस लौट कर आ जाता है। प्रेम करते हैं, तो बदले में प्रेम मिलता है। घृणा करते हैं, तो बदले में घृणा ही वापस मिलती है। मेरे प्रति किसी ने गलत किया है, इसीलिये मैं उसका बदला लूँगा। लेकिन बदले में जो कार्य होगा उसके भी बराबर और बिपरीत प्रतिक्रिया मेरे प्रति अवश्य होगी। यही है-' कुदरत का कानून ' या प्राकृतिक नियम ! इस को प्रकृति का प्रतिशोध भी कहते हैं। किसी ने मेरे प्रति कोई अन्यायपूर्ण (अनैतिक या wrongful) कार्य किया है, तो उसके प्रतिशोध का क्या होगा ? उसका दायित्व (प्रकृति के कानून को अपने हाथ में लेने की) मुझे लेने की आवश्यकता ही नहीं है, प्रकृति स्वयं उसका ठीक बदला लेगी। क्योंकि यदि मैंने बदला ले लिया, तो बदले का बदला मुझे भी पाना ही होगा। आधुनिक मनोविज्ञान भी इसे स्वीकार करता है। उनकी भाषा में इसको
'The Law of Retaliation ' या '' प्रतिशोध का नियम' कहते हैं। माता सुनीति द्वारा बालक ध्रुव को दिया गया यह परामर्श आधुनिक मनोविज्ञान का सिद्धान्त  'लॉ ऑफ़ रेटलीएशन ' की स्पष्ट व्याख्या है: 
श्रीमद्भागवत में बालक-ध्रुव की कहानी है। हमलोग इस कहानी को जानते हैं। सौतेली माता सूरुचि के गलत परामर्श से रानी सुनीति का पुत्र ध्रुव कुमार पिता की गोदी में नहीं बैठ सका। इससे ध्रुव के आत्मसम्मान को गहरी ठेस पहुँचती है, उसे बहुत दुःख हुआ, और क्रोध-अभिमान से उसको आँखें लाल हो जाती हैं. और  माँ के पास जाकर शिकायत किये-- तो माँ सुनीति ध्रुव को समझाते हुए कहती है -    
  मामङ्गलं तात परेषु मंस्था 
           भुङ्क्ते जनो यत्परदुःखदस्तत् ॥ ०४.०८.०१७ 
बेटे, किसी भी परिस्थिति में दूसरे के अमंगल का विचार भी मन में नहीं लाना चाहिए, दूसरे को अपना अपराधी नहीं समझना चाहिए। मनुष्य दूसरे को जैसा दुःख देता है, उसे बदले में ठीक वैसा ही दुःख प्राप्त होता है।अमेरकी संस्कृत विद्वान एडवर्ड वॉशबर्न हॉपकिंस [E.W. Hopkins-(१८५७-१९३२)] की एक प्रसिद्द पुस्तक है 'Origin and Evolution of Religions' इस पुस्तक में एंथ्रोपोलॉजी (Anthropology या मानवशास्त्र) की दृष्टि में - ट्राइबल लोगों के धर्म से लेकर श्रेष्ठ धर्म तक, प्रत्येक धर्म की उत्पत्ति और विकास का पूर्ण विवरण दिया गया है। इस पुस्तक में श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देश का उल्लेख भी प्रसंगवश किया गया है। समस्त धर्मों के सार को खोजते खोजते निबन्ध के अन्त में लेखक कहते हैं -जिस नैतिक नियम को आजकल 'एथिक आफ रेसिप्रोसिटी' (पारस्परिकता का  नियम ) या 'गोल्डेन रूल' या  कहते हैं उसी बात कोभारत के महाभारतकार श्री वेद व्यास जी ने ‘धर्म सर्वस्व’ या धर्म का सार बताया है! और समस्त धर्मों के आविष्कृत सार को बहुत संक्षेप में इस प्रकार लिखा  है-  " जैसा व्यवहार प्राप्त होने से तुमको स्वयं दुःख होता है, वैसा व्यवहार किसी दूसरे के साथ मत करना। " महाभारत का मूल श्लोक इस प्रकार है- 
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। 
अर्थात् “धर्म का सार जो है उसको सुनो और सुनकर उसके ऊपर चलो। वह सार यह है- जो 'व्यवहार तुमको अपने लिये प्रतिकूल जान पड़े वैसा दूसरे के लिये न करो।'
विवेक-प्रयोग द्वारा प्रतिशोध के दुर्गुण का त्याग करने से क्षमा रूपी सद्गुण का अर्जन साधक को क्रमशः सत्य और प्रेम के निकट लाने लगता है। ' बदला लेना ' एक पाशविक प्रवृत्ति तो है ही; किन्तु 'प्रकृति प्रतिशोध लेती है' के नियम की ओर टकटकी लगाकर देखते रहना भी महानता का लक्षण नहीं है। सभी परिस्थिति में सभी का कल्याण सोचना ही उचित है। और दूसरों के कल्याण में अपना तन-मन-प्राण न्योछावर कर देना ही मनुष्य-जीवन की चरम सार्थकता है। 
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सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

🙏 " जीवात्मा और धर्म " स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [31] (धर्म और समाज),

जीवात्मा और धर्म 

      हम जब किसी नए विषय या वस्तु को समझने की कोशिश करते हैं तब हम  उसी प्रकार के किसी पूर्व-परिचित विषय या वस्तु के साथ तुलना करके समझने की चेष्टा करते हैं।  हमलोग पहले अपनी इन्द्रियों के माध्यम से ही किसी बाह्य वस्तु या विषय को समझने की चेष्टा  करते हैं। इन्द्रियज-ज्ञान की सहायता से हमलोग भौतिक जगत के ' रूप-रस-शब्द-गंध-स्पर्श' आदि पाँच विषयों की अनुभूति करते हैं।  किन्तु जो वस्तु बाह्य जगत में नहीं है - उस वस्तु या विषय की धारणा करने में हमलोगों को थोड़ी कठिनाई होती है। तब हमलोग बाह्यजगत की ही वस्तु से तुलना कर उसे समझने की कोशिश  करते हैं। मूर्ति की कल्पना यहीं से उत्पन्न हुई है। क्योंकि हमलोग किसी निर्गुण-निराकार वस्तु की कल्पना नहीं कर सकते हैं, इसीलिये समस्त गुणों (शुभ और अशुभ) से युक्त किसी वस्तु की कल्पना करके, उसके भीतर देश-काल-पात्र आदि विभिन्न गुणों को आरोपित करने के बाद हमलोग उसे समझने की चेष्टा करते हैं। ऐसा नहीं होने पर  किसी गुणातीतभाव की  धारणा कर पाना हमलोगों के लिये लगभग असम्भव ही  है। चाणक्य-नीति में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है -

अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदिदैवतम्
 
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनः ॥
 
वैदिक ब्राह्मणों के आराध्य-देव हैं अग्नि । पूजा होने के बाद अंत में जो होम किया जाता है, वह प्राचीन काल के अग्नि पूजा का ही साक्ष्य है। होमाग्नि को प्रज्ज्वलित करके, जिस देवता का आह्वान करना चाहते हों, उसके नाम का मन्त्र पढ़ कर आहूति दिया जाता है।  जो लोग मुनि अर्थात मननशील-विज्ञ व्यक्ति हैं, उनके देवता बाहर नहीं हैं।  उनके देवता उनके हृदय में ही विद्यमान हैं। लेकिन, अल्प-बुद्धि वाले अपने  देवता को  मूर्त -प्रतीकों के रूप में कल्पना कर उसकी प्रतिमा को पूजते हैं।  क्योंकि, जो देवता  कल्पनातीत हैं, जो वाक्य और मन के अगोचर हैं, जिनके विस्तार, आकर, सीमा या गुणों  को बोलकर नहीं समझाया जा सकता, उनको समझने में सुविधा के लिये किसी रूप की कल्पना कर ली जाती है। किन्तु जो समदर्शी हैं उनके देवता केवल उनके हृदय में ही नहीं रहते, वे चराचर विश्व में जितने भी जीव-जन्तु, जड़, वृक्ष, लता, नदी, पर्वत, समुद्र आदि हैं, सर्वत्र अपने ईष्टदेव को ही विद्यमान देखते हैं।
    हमलोग सामान्य-बुद्धि वाले  मनुष्य हैं इसीलिये किसी  प्रतीक  की कल्पना किये बिना आगे नहीं बढ़ सकते, या पूर्णत्वप्राप्ति की दिशा में अग्रसर नहीं हो सकते,  इसीलिये कहा गया है-  "उपासकानां कार्यार्थं ब्रह्मणो रुपकल्पना। " प्रश्न उठता है कि वह कौन है जो इन विविध रूपों की कल्पना करता है? क्या  मनुष्य अपनी कल्पना से इन रूपों की कल्पना करता है ? या स्वयं ब्रह्म ही उपासक की धारणा में अपने को प्रकट करने के लिये ससीम रूप धारण कर लेते  हैं ?  तंत्र-शास्त्रों में कहा गया है- " मनुष्य भी कल्पना नहीं करता और ब्रह्म भी कल्पना नहीं करते। बल्कि 'शक्ति' ही कल्पना करती है। वह  जिस प्रकार अविद्या-माया का रूप धारण करके जीव के बंधन का कारण होती हैं, उसी प्रकार जीवात्माओं को मुक्ति प्रदान करने के लिये विद्या-माया बनकर विभिन्न रूपों को धारण करतीं हैं।" इसीलिये कहा गया है- ' साधकानां हितार्थाय अरुपा रूप धारिणी।' - अर्थात साधकों के मंगल के लिये रुपातीता ने रूप धारण कर लिया, और निराकार से साकार हो गयीं हैं।
'ईश्वर जीव और जगत' के स्वरुप को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये स्वामी विवेकानन्द ने भी प्रतिक की सहायता ली थी।  उन्होंने  किसी दक्ष  कवि की तरह  कल्पना  द्वारा  एक वस्तु-प्रतीक ( अर्चावतार) की सहायता से अपनी अनुभूति को व्यक्त करते हुए- श्रीमती ओली बुल को (20 जनवरी, 1895 लिखित) पत्र में कहा था , "प्रत्येक जीवात्मा एक तारा के समान है। ये तारे आकर में बहुत बड़े होते हैं , पर दीखते बहुत छोटे हैं। उसी प्रकार आत्मा भी अनन्त -असीम है। पर जीव-शरीर की छुद्र सिमा में रहकर स्वयं को प्रकट करता है इसीलिए हम इसे भी छोटा (अणु जैसा) ही समझ लेते हैं।  लेकिन यह जीवात्मा छुद्र या अणु जैसा छोटा नहीं है , और एक दूसरे से भिन्न भी नहीं है। सभी जीवात्मायें एक वृहत एकता के सूत्र में बंधी हैं , किन्तु यह बात आसानी से समझ में नहीं आती। " 
      इस नीले आकाश का कोई ओर-छोर है। हम इसके आदि-अन्त की  कल्पना भी नहीं कर पाते।  टिमटिमाते तारों को देख कर लगता है ये सभी आकाश  में टंगे हुए हैं। आत्मा की तुलना भी इस आकाश से की जा सकती है। समस्त प्राणियों के शरीर उसी आत्मा की घनीभूत अभिव्यक्तियाँ हैं। जीव और जगत के रूप में अपने को अभिव्यक्त कर देने के बाद आत्मा समाप्त नहीं हो जाता है। इन सब में परिव्याप्त होने के बाद आत्मा भी आत्मा की  अभिव्यक्ति अनन्त शून्य तक सुविस्तृत है। पुरुषसूक्त में कहा गया है -'पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।' -(ऋ. १०. ९०. ३ )  - अर्थात यह सम्पूर्ण विश्व -ब्रह्माण्ड ब्रह्म या परमात्मा के केवल एक  एक चौथाई अंश में ही स्थित है। जबकि उसका अधिकांश भाग दृश्यमान जगत के परे अनन्त लोक तक परिव्याप्त है। इन्द्रियग्राह्य जगत को परिपूर्ण करते हुए उसका भी अतिक्रमण करके उसके बाहर ही इस सत्ता का अधिकांश भाग अवस्थित है। गीता (१०.४२) में भी कहा गया है- 
 
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। 
 विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।। 

-जगत के किन किन स्थानों में उनका विशेष प्रकाश है, उसका वर्णन करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन कहते हैं; अथवा हे अर्जुन बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ। 





ब्रह्म का विशिष्ट-वैभव बतलाते हुए कह रहे हैं- 'इस पुरुष/(प्रकृति या शक्ति?) की इतनी महिमा है कि यह सम्पूर्ण चराचर विश्व, यह सारा ब्रह्माण्ड (मन जहाँ तक जा सकता है) परमेश्वर (ब्रह्म या परमात्मा/परमेश्वरी-माँ जगदम्बा) के केवल एक चौथाई अंश में ही स्थित है। और उसका अधिकांश भाग (शेष तीन-चौथाई भाग) इस मन (या दृष्टिगोचर जगत) के परे अनन्त लोक तक परिव्याप्त है। आत्मा हमलोगों के इन्द्रियग्राह्य जगत को (अपने मन को ) परिपूर्ण करते हुए उसका भी अतिक्रमण करके उसके बाहर ही इस सत्ता का अधिकांश भाग (तीनचौथाई भाग) अवस्थित है। अर्थात् वह ईश्वर/  इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है, यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है और सर्वत्र विद्यमान है उसको हम किसी एक ही स्थान पर, या किसी एक ही 'नाम-रूप' में अवस्थित नहीं कह सकते।”
[अस्य = इन सर्वनियन्ता भगवान् का, विश्वाभूतानि = अनन्तानन्त जीव तथा अनन्त लोक, पादः = सम्पूर्ण ऐश्वर्य का चतुर्थ भाग है । और, अस्य = इन भगवान श्रीरामकृष्ण का, त्रिपादः = तीनो पाद अर्थात् तीनो भाग हैं- अहंकार आदि से युक्त 'बद्ध जीव और मुमुक्षु' , दूसरा पाद नित्यमुक्त = जो कभी संसार में फँसे ही नहीं-नारद आदि, और तीसरे हैं मुक्त जीव = डीहिप्नोटाइज्ड, भ्रम से मुक्त, जो भवबन्धन से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं वे अमृतं =अविनाशी हैं।] 

-ये तीनो पाद कहां हैं? इसका उत्तर देते हैं --दिवि।  दिव् शब्द का अर्थ है परमाकाश,स्वर्ग, भगवद्धाम! गीता ११/१२ में कहा गया है -'दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।' भगवान के विराट्-रूप [चिन्मय भगवद्धाम ='विस्फोटी परमानन्द' कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानन्द की बाढ़ की उपमा; या माँ जगदम्बा के विराट रूप=सर्वव्यापी मातृहृदय का 'अहं'-बोध] की जो प्रभा -- प्रकाश है; उसकी उपमा कहते हैं - अगर आकाशमें एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जायँ, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा (विराट्-रूप परमात्मा या विराट सर्वव्यापी 'अहं'-बोध रूपिणी माँ जगदम्बा) विश्वरूप के प्रकाश के समान शायद ही हो। अथवा सम्भव है कि न भी हो अर्थात् उससे भी विश्वरूप का प्रकाश ही अधिक हो सकता है।
गीता (१०.४२) में भी कहा गया है-  अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।  विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।
-जगत का किन किन स्थानों में उनका विशेष प्रकाश है, उसका वर्णन करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन कहते हैं; अथवा हे अर्जुन बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ। 
      वे सभी स्थानों में व्याप्त हैं, किन्तु जीवात्मा में उनका विशेष प्रकाश है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मैं जीवन भर ईश्वर को ढूँढ़ता रहा, किन्तु अन्त में मैंने मनुष्य के भीतर ही ईश्वर को देखा है।"  
     अन्यान्य जड़ वस्तुओं की तुलना में जीव शरीर में ही ब्रह्मचैतन्य का प्रकाश सर्वाधिक है। जो लोग सम-दर्शी होते हैं  वे सर्वत्र उनका अनुभव करते हैं।  हमलोग तो सर्वदर्शी नहीं हैं इसीलिये जीवों के भीतर, विशेषतः  मनुष्य के भीतर ही उनको स्पष्ट रूप से देख पाते हैं। सीमाहीन आकाश में परिव्याप्त ब्रह्मवस्तु हमारी  धारणा से परे है। किन्तु जिस आकृति में घनीभूत होकर ब्रह्म ने स्थूल रूप धारण किया है, वहाँ हमलोग उनके अस्तित्व का अनुभव कर सकते है।
       स्वामीजी एक जगह कहते हैं, " यदि प्रत्येक मनुष्य के भीतर अवतार होने की सम्भावना नहीं हो, तो फिर कहना होगा कि अवतार कभी हुए ही नहीं थे। " अर्थात  प्रत्येक मनुष्य के भीतर अवतार  होने की सम्भावना विद्यमान है। किसी अवतार पुरुष के जीवन और सन्देश की विवेचना, उनके जीवन का अध्यन और जीवन लीला पर चिंतन करने से प्रत्येक व्यक्ति अपने संकीर्ण जीवनवृत्त का अतिक्रमण कर महत जीवनबोध अर्जित करने में सफल हो पाता है। 
           महर्षि पतंजली कहते हैं, " ईश्वरप्रणिधानम् - पवित्र-जीवन में उपनीत महापुरुषों के जीवन और सन्देश का चिन्तन करने वाला मनुष्य, पहले की अपेक्षा अधिक उन्नत-अवश्य हो जाता है।  शंकराचार्य कहते हैं, ' त्रय-दुर्लभं ' -' मनुष्यत्वं, मुमुक्षुत्वं और महापुरुष संश्रय'- इन तीन चीजों को एक साथ प्राप्त करना दुर्लभ है। कितने जन्मों तक साधना करने (विभिन्न योनियों -८४ लाख में भटकने के बाद) के बाद मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है।  मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी नाम-यश, भोग-वासना  में बन्ध जाने से मुक्ति की इच्छा ही  नहीं होती। फिर  मुक्त होने की इच्छा होने पर भी महापुरुष (पहुँचे हुए संत-गुरु ) का आश्रय प्राप्त करना बहुत दुर्लभ है। यह तीनों  दुर्लभ संसाधन एक साथ प्राप्त होने पर ही मुक्ति की सम्भावना है।  नहीं तो मुक्ति की सम्भावना बहुत कम है। 
      चौपाया जीवों का सिर सदैव नीचे की ओर रहता है। वही जब क्रमिक विकास में दो पैरों पर खड़े होना, और हाथों का उपयोग करना सीख लेता है , तब वह अपने सिर को ऊपर उठाकर आकाश की ओर देख सकता है, तब उसकी दृष्टि की परिधि बढ़ जाती है।  फिर वह जितना ही उन्नत होता जाता है , उसकी क्षितिज रेखा उतनी ही बढ़ती जाती है। इस प्रकार वह क्रमशः अनन्त की कल्पना करना सीखता है। आगे बढ़ने या उन्नत मनुष्य बनने के लिए और भी प्रयत्न करना पड़ता है , यही इसका अन्त नहीं है।  
       स्वामीजी श्रीमती ओली बुल को लिखित पत्र (20 जनवरी, 1895) में कहते हैं , " प्रत्येक जीवात्मा एक तारा है , और ये सभी तारे उसी ईश्वर रूपी अनन्त निर्मल नील आकाश में विन्यस्त हैं। वही ईश्वर प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप है , वही प्रत्येक का यथार्थ स्वरुप और वही प्रत्येक और सबका यथार्थ व्यक्तित्व है। इन जीवात्मा- रूप तारों में से कुछ के , जो हमारी दृष्टि-सीमा से परे चले गए हैं , उनका अनुसन्धान करने से ही धर्म का आरम्भ हुआ, और यह अनुसन्धान तब समाप्त हुआ, जब हमने पाया कि उन सबकी अवस्थिति परमात्मा में ही है और हम भी उसीमें हैं।" (३/३७६) 
[ " Each soul is a star, and all stars are set in that infinite azure, that eternal sky, the Lord. There is the root, the reality, the real individuality of each and all. Religion began with the search after some of these stars that had passed beyond our horizon, and ended in finding them all in God, and ourselves in the same place."]
-अर्थात जीवात्मा के जीवन में धर्म शुरू होता है इसी प्रकार कुछ वैसे वृहत आकर के तारों का अनुसन्धान करने से जो दिगंश वलय (azimuth ring)  के निवासी हैं, जिनके जीवन-परिक्रमा का पथ और भी  विशाल होता है। जो महापुरुष (नेता) अन्य लोगों को भी उनके संकीर्ण क्षितिज से परे ले जा सकते हैं, उनके जीवन-लीला के अध्यन और अनुसन्धान से ही व्यक्ति के जीवन में धर्म का आरम्भ होता है। किसी साधक में धर्म-जीवन का आरम्भ उसके भौतिक संसार के आकर्षण की ओर पीठ फेर देने से होती है , वापस लक्ष्य (काशी ) की तरफ यात्रा शुरू करने से कलकत्ता स्वतः पीछे छूट जाता है। क्रमश ऊपर उठते जाने से ही उस अनन्त नीले आकाश में  पहुँचा जा सकता है, जहाँ आत्मा और ब्रह्म में कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता। सबकुछ ब्रह्म में ही लीन हो जाता है, और वहीं जीवात्मा के धर्म का भी अन्त हो जाता है।   
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'ईश्वर जीव और जगत' के स्वरुप को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये (कृष्ण-बुद्ध- ईसा और मोहम्मद तो पुरुष थे किन्तु, ईश्वर -गॉड-अल्ला-पुरुष है या स्त्री ?... को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये।)  स्वामी विवेकानन्द (जो पहले माँ काली को नहीं मानते थे ?) ने किसी कमाल के कवि जैसी कल्पना के द्वारा  एक वस्तु-प्रतीक (object module, या अर्चावतार) की सहायता से व्याख्यायित किया है। अपनी अनुभूति को व्यक्त करते हुए- श्रीमती ओली बुल को लिखित पत्र  (२० जनवरी, १८९५) में कहते हैं, "प्रत्येक आत्मा एक एक स्टार है (सितारे की तरह है)। और ये सभी सितारे ईश्वररूपी उस अनन्त नीले आकाश में विन्यस्त हैं (अजियोर/azure/नीलाकाश/अनन्त तक विस्तृत मातृहृदय- में पहुँचे हुए हैं)। और वही ईश्वर (मातृहृदय ईश्वर) प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप, यथार्थ स्वरुप है, और वही समस्त सितारों (भक्तों, वीरों,हीरोज) का स्वाभाविक व्यक्तित्व है। इन जीवात्मा-रूप सितारों में से कुछ अविस्मरणीय सितारों का जब हम पुनरानुसन्धान करना प्रारम्भ करते हैं,(कुछ अविस्मरणीय मातृहृदय जैसे-नवनीदा, स्वामी विवेकानन्द, श्रीमाँ सारदा-सरस्वती, भगवान श्रीरामकृष्णदेव, मोहम्मद, चैतन्य, नानक, बुद्ध, ईसा,राम,कृष्ण, जैसे सितारों का पुनरानुसन्धान करना प्रारम्भ करते हैं।) जो हमारी दृष्टि से परे चले गए हैं, तभी हमारे जीवन में धर्म का प्रारम्भ होता है, और यह अनुसन्धान तब समाप्त हो जाता है, जब हम पाते हैं कि उन सब (विभिन्न व्यक्तित्वों) की अवस्थिति ईश्वर (मातृहृदय में रूपांतरण) में ही है, और हमलोग भी उसी ईश्वर (माँ जगदम्बा) में अवस्थित हैं।"  ( Each soul is a Star, and all stars are set in that infinite azure, that eternal sky, the Lord. There is the root, the reality, the real individuality of each and all. Religion began with the search after some of these stars that had passed beyond our horizon, and ended in finding them all in God, and ourselves in the same place.) अब सारा रहस्य यह है कि आपके पिता ने जो जीर्ण वस्त्र पहना था, उसका त्याग उन्होंने कर दिया, और अभी वे वहीँ अवस्थित हैं, जहाँ वे अनन्त काल से थे। इस लोक या किसी अन्य लोक (सप्त लोक चौदह भुवन) में क्या वे फिर ऐसा कोई एक वस्त्र पहनेंगे ? मैं सच्चे दिल से प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा न हो, जब तक कि वे ऐसा पूरे ज्ञान (होशोहवास) के साथ न करें। मैं प्रार्थना करता हुआ कि अपने पूर्व कर्म की अदृश्य शक्ति से परिचालित होकर कोई भी अपनी इच्छा के विरुद्ध कहीं भी न ले जाया जाय।  मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड-सिंह) हो जायें, अर्थात वे यह जान लें कि वे तो मुक्त ही हैं !  (अर्थात केवल इतना जान लें कि अब वे हिप्नोटाइज्ड-भेंड़ नहीं हैं! ) और यदि वे पुनः कोई स्वप्न देखना भी चाहें, तो वे सब आनन्द और शान्ति के स्वप्न हों। "]   
 (विवेकानंद जो पहले माँ काली को नहीं मानते थे ?) ने किसी कमाल के कवि जैसी कल्पना के द्वारा  एक वस्तु-प्रतीक (object module, या अर्चावतार) की सहायता से व्याख्यायित किया है।
[अर्चावतार अर्चा का अर्थ प्रतिमा अथवा मूर्ति होता है। निराकार-निर्विकार-शुद्ध-बुद्ध-परमानंदस्वरूप परब्रह्म (क्योंकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हैं। जिन्हें मायाधीश, मायापति आदि नामों से जाना जाता है।) भक्तों की हितकामना से मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह आदि अवतारों के अतिरिक्त राम, कृष्ण,बुद्ध, ईसा,आदि विविध रूपों में अवतार ग्रहण करते हैं। यह अवतार मूर्ति रूप में प्रतिष्ठित होने के कारण अर्चावतार शब्द से अभिहित होता है।] 

[ (Object-symbol/ महाकाली -महालक्ष्मी -महासरस्वती आदि)इस दृष्टि से शूद्र भी गुरु से ज्ञान प्राप्त करके चरित्रवान मनुष्य बनकर ब्राह्मण में रूपांतरित हो सकते हैं। जातिप्रथा जन्मगत ही नहीं है, इसका उद्देश्य प्रत्येक मनुष्य को चरित्रवान मनुष्य में अर्थात ब्राह्मण में रूपांतरित करना है।   (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का जन्म दो बार होता है—एक बार माता के गर्भ से और दूसरी बार गुरु द्वारा ज्ञान दिए जाने पर। इसलिए इन्हें द्विजाति कहा जाता है। इनका आराध्य देव अग्नि है।) 

(जैसे अशुभ की अध्यक्षता कौन शक्ति करती है ? इस विचार पर चिंतन करने से माँ काली, कृष्ण या किसी अवतार की मूर्ति की कल्पना जन्म लेती है।)

 ' प्रत्येक जीवात्मा में अवतार बन जाने की सम्भावना है !'माँ जगदम्बा ने अपना स्वरूप बतलाते हुये स्वयं कहा है- “एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का – ममापरा”।  ‘मैं ही परब्रह्म, परम-ज्योति, प्रणव-रूपिणी तथा युगल रूप धारिणी हूं। मैं ही सब कुछ हूं। मुझ से अलग किसी का वजूद ही नहीं है। मेरे गुण तर्क से परे हैं। मैं नित्य स्वरूपा एवं कार्य कारण रूपिणी हूं।’ अतः मनुष्यमात्र को यदि अपना आत्मकल्याण करना हो अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना हो तो अवश्य ही माँ भगवती की आराधना करें। माँ ममता की मूरत है। इतना तो निश्चित है जो भगवती के शरण में जाता है, उसे माँ अवश्य अपनाती है। यह बात भी स्मरण रहे कि शक्तिमान् की शक्ति अभिन्नरूप से रहती है, सम्पूर्ण पदार्थों में – जैसे –अग्नि में दाहिका शक्ति होती है, विद्वानों के अन्दर विद्याशक्ति, धनवानों में धनशक्ति, ब्रह्मचारियों में ब्रह्मचर्यशक्ति इत्यादि। शक्ति एक होकर भी अनेकरूप में व्यक्त होती है। जीवमात्र में अविद्या शक्ति बनकर रहने वाली माँ जगज्जनी भगवती पराम्बा, विश्वजन-मोहिनी (मनुष्य को हिप्नोटाइज्ड करने वाली शक्ति ?) कहलाती है।]
           



      

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

' विजया-दुर्गोत्स्व ' ( शारदीय नवरात्र) स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [30] (धर्म और समाज)

' विजया का सच्चा अर्थ है- आत्मविजय!'  
' विजया-दशमी' के अवसर पर हम सभी लोग सर्वांगीन कल्याण तथा मंगलमय जीवन के लिये माँ दुर्गा से प्रार्थना करते हैं, और एक-दूसरे को अपनी शुभकामनायें तथा प्रेम देते हैं। किन्तु दुर्गोत्स्व-विजया केवल परम्परा से चले आ रहे रीति-रिवाज के पालन करने का दिन ही नहीं है। 'विजया' है मंगलमय-जीवन जीने की शक्ति प्राप्त करने के लिये माँ से प्रार्थना करने और संकल्प लेने का दिन। हमारी पौराणिक कथाओं में जो नित्य-नूतन (Perpetual) मार्गदर्शन छुपा है, उसको प्राप्त करने का एक सुअवसर है नौरात्रा !
श्रीरामचन्द्र ने माँ दुर्गा का ' समयपूर्व-आह्वान ' (अकाल बोधन) करके रावण को मार कर, माता सीता को छुड़ा लिया था। उसी विजय-दिवस का स्मरण करना ही विजया-दशमी ! जिसे हमलोग दस दिनों तक दुर्गोत्स्व के रूप में मनाते हैं। पूर्वी भारत में, विशेष रूप से बंगाल में, हिन्दू लोग माँ दुर्गा को बिल्कुल अपने अपने घर की बिटिया जैसी मानते हैं, और दसमी को उनके पती के घर लौट जाने के दुःख को विजया का आनन्द अतिक्रमण कर लेता है। क्योंकि विजया के दिन रावण का वध और सीता की रक्षा भीतर हमें माँ दुर्गा को विदाई देने की वेदना से अधिक आनन्द ही प्राप्त होता है। ऐसा कैसे हुआ? यह एक विचारणीय प्रश्न है।
सत्य का पालन (रघुकुल रीति सदा चली आई प्राण जाये पर वचन न जाई!) करने के लिये जब रामचन्द्र ब्रह्मस्वरूपिणी सीता को लेकर वनवासमें गये थे, तो वह पंचवटी का वन था। हम में से प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्मस्वरूप है। विवेक- विद्या के रहते हुए भी जब हमलोग- 'पंचवटी' अर्थात ' पंच-भूतों ' के  पंजे में फंस जाते हैं। तब  माया के द्वारा ठग लिये जाते हैं, माया-मृग (सोने का हिरण- पांच इन्द्रियविषय) हमलोगों मे लालच उत्पन्न कर देता है। और जब हम सीता (विवेक-शक्ति रूपी विद्या) को खो कर दुःख से अभिभूत हो जाते हैं। तब बहुत प्रयास करके माँ-दशभुजा (विवेक-प्रयोग रूपी विद्या) की  पूजा करके  रावण-निधन (हृदय के अंधकार अर्थात मिथ्या-अहं) को मार कर सीता को मुक्त कराकर वापस पाना पड़ता है।  
दस-इन्द्रियों का मूर्तमान रूप ही हमलोगों का दसानन रावण है। पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ -आँख,कान, नाक, जीभ और त्वचा; तथा पाँच कर्म इन्द्रियाँ हैं- मुंह, हाथ-पैर, गुदा और प्रजनन इन्द्रिय। ये सभी अत्यन्त बलवान हैं, इनका प्रबल होना ही रावण का भय दिखाना है और विद्या-हरण का कारण है। देवी-पक्ष की षष्ठी तिथि तक मन को अपने वश लाने के बाद देवी पूजा करने का अर्थ है, मन में छुपे षड-रिपुओं का दमन करने के बाद ही देवी की पूजा में प्रवृत होना। दशानन (दस-इन्द्रियों) का दमन करने के लिए ही दशभुजा देवी का आह्वान करना पड़ता है। देवी के हाथों में जो दस अस्त्र हैं, उन्हीं के सहारे दश इन्द्रियों का दमन करना पड़ता है।
शत्रु का दमन करने के लिये कई  बार शत्रु के घर के लोगों को अपनी ओर मिला लेने से उसको हराना आसान हो जाता है। रामचन्द्र ने रावण के घर के आदमी-विभीषण को अपने पक्ष में मिला लिया था। इन्द्रियों का दमन करने के लिए भी इन्द्रिय के घर के आदमी की जरुरत होती है। दश इन्द्रियों के घर में एक आदमी ऐसा है, जिसका चरित्र शेष दश इन्द्रियों के जैसा नहीं है, उस एकादश इन्द्रिय का नाम है-मन। इसी वशीभूत मन की सहायता से दस इन्द्रियों का दमन करना पड़ता है। यह मन अत्यन्त शक्तिशाली है। यह दशभुजा के दश अस्त्रों को दशानन के दमन या अपने  इन्द्रियों के दमन के लिये प्राप्त कर सकता है। महापराक्रमी सिंह उसी शक्तिशाली मन का प्रतिक है। इसीलिये सिंह को दशभुजा माता का वाहन कहा गया है। अर्थात हमलोग मन की सहयता से दश इन्द्रियों का दमन करने के संग्राम में कूद सकते हैं। किन्तु उससे पहले मन में छुपे षडरिपु- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि को - इनके छहों तिथियों तक काट देना
अत्यंत आवश्यक है
इसीलिये विजया का सच्चा अर्थ है- आत्मविजय। मन की सहायता से आत्म-ग्लानी में फंसे आत्मा का उद्धार, खोई हुई विवेक-प्रयोग की शक्ति रूपी विद्या को वापस प्राप्त करके अपने ब्रह्मत्व में प्रतिष्ठित रहना ही -आत्मा का उद्धार या आत्मविजय है। दुर्गोत्सव या विजया उसी आनन्द की अभिव्यक्ति है। इस आत्म-प्रतिष्ठा में सिद्धि प्राप्त करने के आनन्द का अनुभव करना ही मुख्य बात है, (सिद्धि) भाँग खाकर नशे में चूर हो जाना नहीं।
भारत के युवा वृन्द यदि चन्दे में मोटी रकम इकठ्ठा  कर यदि सार्वजानिक पूजा की चकाचौन्ध को को बढ़ा देने में ही अपनी उर्जा को बर्बाद नहीं करें, तथा आत्म-प्राप्ति के आनन्द में डूब सकें, आत्मग्लानी को विसर्जित करके यदि समाज को कलंक मुक्त बना सकें, तभी उनको पूजा करना शोभा देगा। भारत के समस्त युवा-संगठन यदि इसी सच्ची विजया के मार्ग पर चल सकें, विजया की इस शुभ घड़ी में  युवाओं के अंतर में विराजित महासिंह से हमलोगों (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल)  की यही प्रार्थना है।
[अतः इस शारदीय नवरात्र में श्रीमद् देवी भागवत महापुराण के आधार पर परम तत्व स्वरूपा भगवती के स्वरूप (बारे में) पर कुछ चर्चा करके अपनी वाणी पवित्र करें।]
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बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

🔱🙏 " धर्म का परिणाम : मतभेद या समन्वय " 🔱🙏 [The Consequences of Religion: Harmony or Discord ] 🔱🙏 [SVHS-32 ] सच्चा धर्म~ "शैक्षणिक धर्म : Be and Make" 🔱🙏 सात सुर 🔱🙏 'एक हाथी और छ: दृष्टिहीन व्यक्तियों की कथा '🔱🙏कई रंग बदलने वाले गिरगिट की कहानी 🔱🙏[स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना. (धर्म और समाज),

"धर्म की परिणति : विरोध या समन्वय "

[The Consequences of Religion: Harmony  or Discord ?]

1.
 
"आधुनिक जगत में धर्म "

       अविनाशी जीवात्मा और शाश्वत परमात्मा के बीच जो सनातन सम्बन्ध है, उसको अपने अनुभव से जान लेना और  उसके उपर विश्वास करना, तथा उस अनुभूति को सदाचार के नियमों एवं समाज सेवी प्रतिष्ठानों के माध्यम से अभिव्यक्त करना ही धर्म है। उसे जिस दृष्टि से भी क्यों न देखें, धर्म एक ऐसी प्रबल अन्तस्थ प्रेरणा (Intrinsic motivation) है जो  व्यक्ति-विशेष के समग्र जीवन को गहराई तक प्रभावित करती है। इसीलिये स्वाभाविक रूप से ही धर्म अक्सर मानव-मन में  तीव्र आवेग और प्रतिक्रिया जाग्रत कर देता है। लेकिन धर्म केवल मनुष्य को  ईश्वर के साथ ही नहीं जोड़ता बल्कि किसी मनुष्य को अन्य सभी मनुष्यों के साथ जोड़ देना भी धर्म का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है। किन्तु, धर्म के इस अति महत्वपूर्ण गुण को भूल जाने के कारण ही, यह एक विनाशक-मशीन में परिणत हो जाता है। धार्मिकता की उत्तेजना (Stimulation of religiosity) को तो समझा जा सकता है, किन्तु धर्म के नाम पर अनुचित व्यवहार करना कभी भी अपेक्षित नहीं है। इसीलिये, विशेष रूप से सभी धार्मिक नेताओं को अपने भाषणों या  निबन्धों के माध्यम से अपने वक्तव्य देने के पहले यह जरूर विचार करना चाहिए  कि मेरा यह वक्तव्य समाज को विभाजित करेगा या एकताबद्ध करेगा ? मेरे वक्तव्य से देश के नागरिकों में वैमनस्य बढ़ेगा  या आपसी भाईचारे में वृद्धि होगी ? कोई व्यक्ति अपने धर्म के उपर चाहे कितना भी गर्व का अनुभव क्यों नहीं करता हो, उसे इस बात को नहीं भूलना चाहिये कि मनुष्य आज एक ऐसे विविधता पूर्ण सामाज में रह रहा है ,  जहाँ किसी प्रकार का ऐक्यभाव सम्भव नहीं है। विज्ञान और तकनीक (Science and Technology), संस्कृति और व्यापार तथा लोकतान्त्रिक समाज के दबाव ने नाना प्रकार के  मनुष्यों को सघन रूप से बंधन रहित और  जटिल रूप से  इकट्ठा कर दिया है। इन परिस्थितियों में समन्वय और शान्ति को स्थापित करना हमारी सबसे प्राथमिक आवश्यकता है। 
      इस आवश्यकता को पूर्ण करने में रचनात्मक भूमिका निभाने के लिये सभी धार्मिक-समुदायों को आगे आना चाहिये। इसी प्रसंग में स्वामी निखिलानन्द कहते हैं, " मनुष्य जाति आज एक भयंकर रोग से ग्रस्त है। यह रोग मूलतः आध्यात्मिक है।  राजनैतिक विवाद , आर्थिक उथल-पुथल  एवं नैतिक शर्मिंदगी तो इसके केवल बाह्य लक्षण मात्र हैं। "आज का मानव अपने पड़ोसी के साथ ही नहीं अपने परिवार के सदस्यों के साथ भी युद्ध करने में व्यस्त है। लोभ, सत्ता का लालच और क्रोध पूरी तरह व्याप्त  हो गया  है। अनैतिक इच्छायें (Immoral desires) और सन्देह विभिन्न सम्प्रदायों और विभिन्न राष्ट्रों में परस्पर सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध के  मूल सिद्धान्त को ही विषाक्त कर रहे हैं। अब जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्रवाद  के नाम पर मनुष्य समाज को विभाजित कर उसे पतन के गर्त में ढकेलने वाली अशुभ शक्तियों से केवल जाग्रत और रचनात्मक शुभशक्तियाँ ही मुकाबला कर सकती हैं। हमारे विचारों में एक मौलिक  परिवर्तन लाना आवश्यक  हो गया है। व्यवस्था परिवर्तन करने के लिये अब  मनुष्य  के स्वभाव को ही बदलना आवश्यक हो गया है। किन्तु, यह व्यवस्था परिवर्तन पाश्चात्य देशों में प्रचलित विज्ञान और प्रौद्द्गिकी या मनोविज्ञान को अपनाने से या उनके साथ किसी प्रकार का सामरिक , राजनैतिक या आर्थिक समझौते पर हस्ताक्षर कर नहीं लाया जा सकता है। केवल सच्चा धर्म~ "शैक्षणिक धर्म : Be and Make" ही मनुष्य जाति के चरित्र में परिवर्तन लाकर  इस भ्रष्ट व्यवस्था को बहुत हद तक बदलने में सक्षम है। तथा  जगत के समस्त श्रेष्ठ धर्म (ब्रांडेड धर्म), इस मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शैक्षणिक धर्म -  "Be and Make" को साकार रूप देने के लिए मानव समाज को अनुप्रेरित करने के कर्तव्य से बन्धे हुए हैं। " जिस प्रकार  मानव समाज को निगल लेने वाले  विभिन्न प्रकार के खतरे हैं, उसी प्रकार जगत को आनन्दमय बनाने की अनन्त संभावनायें भी हैं। अब स्थानिक दूरी बहुत हद तक कम हो चुकी है, सम्पूर्ण जगत एक वैश्विक गाँव (global village ) में बदल चूका है। तथा आज का मनुष्य पहले की अपेक्षा  बहुत आसानी से अपने देश (पाकिस्तान)  की सुख-शान्ति के साथ दूसरे देशों (मोदी के बाद का भारत युग post-Modi India era) की सफलता- विफलता की तुलना करके  देख सकता है। यथार्थ ज्ञान के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपने जन्मसिद्ध  अधिकार को जान कर, उसका प्रयोग अपनी इच्छा के अनुसार करने में सक्षम है। इस शुभ-घड़ी में मानव -जाति की शांति और मुक्ति को अपना लक्ष्य मानते हुए  विभिन्न धर्म-समुदाय के निर्देशक (मार्गदर्शक) के रूप में कार्य करना हमारा कर्तव्य है। अवसाद ग्रस्त मनुष्य जाति को उपहार-स्वरूप  एक संगीतमय धर्म (शैक्षणिक धर्म - Be and Make) देने का प्रयास हमलोगों को अवश्य करना  चाहिये।

2.

धर्म-समन्वय का सिद्धान्त  

     जगत के विभिन्न विचारधाराओं को आपस में जोड़ने  तथा उनके बीच समन्वय और एकत्व बोध स्थापित करने की क्षमता  हिन्दू-धर्म के अतुलनीय विशेषताओं में  प्रमुख है । अन्य किसी धर्म में यह वैशिष्ट्य हिन्दू धर्म के जैसा नहीं है। इसी विशिष्टता के कारण आधुनिक जगत में अन्य धर्मों की अपेक्षा हिन्दू धर्म को बड़ी भूमिका निभानी होगी। प्रसिद्द इतिहासकार आर्नोल्ड टायेनबी इसी सम्भावना की ओर संकेत करते हुए कहते हैं- "  हमलोग इस समय विश्व- इतिहास के एक परिवर्तनशील दौर (transition period) से गुजर रहे हैं। इस दौर का प्रारम्भ पाश्चात्य प्रभाव से हुआ था, किन्तु अब यह स्पष्टरूप से दिखाई दे रहा है कि  यदि हम समग्र मानव जाति को  आत्म-विनाश से बचाना चाहते हैं तो हमें इस (मंथन) दौर का अन्त भारतीय विचारधारा के साथ करना होगा। पाश्चात्य वैज्ञानिक-चिन्तन के कारण आज  सम्पूर्ण विश्व भौतिकवाद के नींव पर आपस में जुड़ गया है। किन्तु जब वैश्विक-समाज  एक-दूसरे से प्रेम करने के बजाय एक-दूसरे को मारने पर आमादा हैं, ऐसे समय में इस  पश्चमी महारत ने न केवल दो देशों के बीच की दूरी को ही कम  किया है, बल्कि उसने समस्त जगत के मनुष्यों के हाथों में शक्तिशाली आणविक बम भी रख दिया है। मनुष्य जाति के इतिहास के इस अत्यन्त खतरनाक मोड़ पर (रूस -यूक्रेन युद्ध और इस्राइल -हमास युद्ध के समय) भारत के द्वारा प्रदर्शित मार्ग ही सम्पूर्ण मनुष्य जाति के लिये मुक्ति का मार्ग होगा।" 
      भारत के द्वारा प्रदर्शित मार्ग की व्याख्या करते हुए प्रसिद्द इतिहासकार तथा  विचारक अर्नाल्ड युसूफ टॉयनबी आगे कहते हैं, " हिन्दू चिन्तन के अनुसार जगत के सभी महान धर्म सच्चे हैं  और सत्य तक पहुँचने के सही मार्ग हैं.....। यह जानना अच्छा है , किन्तु  इतना जान लेना ही यथेष्ट नहीं है। धर्म केवल अध्यन का ही विषय नहीं है।  यह एक ऐसी वस्तु है जिसका स्वयं अनुभव करना होगा, फिर उसे अपने जीवन में उतारना होगा  तथा यह वह क्षेत्र है, जिसमें  श्रीरामकृष्ण ने अपना वैशिष्ट प्रकट किया है। " 
      स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " उन्होंने कभी किसी धर्म की आलोचना नहीं की। वर्षों मैं उनके समीप रहा, परन्तु उनके मुख से किसी दूसरे धर्म-पन्थ के बारे में बुराई नहीं सुनी। सभी धर्म-पंथों पर उनकी समान श्रद्धा थी, और उन सब में उन्होंने ऐक्य भाव ढूँढ़ लिया था। मनुष्य ज्ञान-मार्गी, भक्ति-मार्गी, योग-मार्गी, अथवा कर्म-मार्गी हो सकता है। विभिन्न धर्मों में इन विभिन्न भावों में से किसी एक भाव का प्राधान्य देखा जाता है। परन्तु यह भी संभव हो सकता है कि इन चारों भावों का मिश्रण एक ही व्यक्ति में हो जाय। भावी मानव जाति यही करेगी भी। यही मेरे गुरुदेव की धारणा थी। उन्होंने किसी को बुरा नहीं कहा, बल्कि सभी में अच्छाईयाँ ही देखीं।"  (वि सा ० ७/२५९ )
    " दूसरा एक और अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा आश्चर्यजनक सत्य मैंने अपने गुरुदेव से सीखा, वह यह है कि संसार में जितने धर्म हैं, वे परस्पर विरोधी या प्रतिरोधी नहीं हैं-वे केवल एक ही चिरन्तन शाश्वत धर्म के भिन्न भिन्न भाव मात्र हैं। यही एक सनातन धर्म चिर काल से समग्र विश्व का आधारस्वरूप रहा है और चिर काल तक रहेगा, और यही धर्म विभिन्न देशों में, विभिन्न भावों में प्रकाशित हो रहा है। अतएव हमें सभी धर्मों के प्रति श्रद्धावान होना चाहिए, और जहाँ तक संभव हो सके, उनके तत्वों को ग्रहण करने की चेष्टा करनी चाहिए। " (7/261) 
      श्रीरामकृष्ण ने अपने जीवन में जो प्रयोग किया था वही सभी सभी धर्मों का समन्वय है।  तथा उन्होंने इसी की शिक्षा सभी को दी थी। आमतौर से लोग इसी सिद्धान्त को  'सर्वधर्म समन्वय ' के नाम से जानते हैं। इन दिनों कई राजनैतिक लोग इसके लिये 'सर्वधर्म समभाव ' शब्द का प्रयोग करते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है। सम का अर्थ है समान किन्तु,  'समन्वय' शब्द का अर्थ है सुसंगत या अविरोध (Compatibility) इससे  विभिन्न धर्मों में विविधता और अन्तर रहने के बावजूद एकात्मता बनाये रहने का संकेत मिलता है। जिस प्रकार  संगीत में व्यवहृत विभिन्न  स्वर  कर्कशता  उत्पन्न नहीं करते बल्कि मधुरता ही उत्पन्न करते हैं। (सात सुर=संगीत के मुख्य सात सुर होते हैं जिनके नाम षडज्, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद हैं। साधारण बोलचाल में इन्हें सा, रे, ग, म, प, ध तथा नि कहा जाता है। ) वैसे ही सर्वधर्म समन्वय का आदर्श हमें  विभिन्न लयबद्ध -ध्वनियों के मिश्रण से उत्पन्न संगीत के समान विभिन्न धर्म ग्रंथों  के बीच अविरोध के सिद्धान्त को अपनाते हुए परस्पर ऐक्य की अनुभूति का परामर्श देता है। 'समन्वय' कहने का तात्पर्य केवल भीड़ एकत्रित करना नहीं है। दर्शन शास्त्रों में इस संस्कृत शब्द 'समन्वय' का सामान्य अर्थ है- 'अविरोध' या सुसंगति। इस समन्वय को अनुभव करने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस सच्चाई पर अपना ध्यान केन्द्रित रखें कि विभिन्न धर्म-पन्थ परस्पर विरोधी नहीं हैं बल्कि एक-दूसरे के परिपूरक हैं।
      समन्वय का अर्थ केवल मतों को एकत्रिकृत कर लेना भर नहीं है। धर्म के क्षेत्र में विविध धर्म-पंथों के सार भाग को संकलित करने का प्रयास पहले भी कई बार विफल हो चुका  है। क्योंकि समस्त धर्मपंथों के सार भाग को संकलित करने का प्रयास अन्ततोगत्वा परस्पर बहिष्कार में तब्दील हो जाता है। इसका मूल कारण यह है कि जिस धर्म-पंथ के भीतर अन्य समस्त धर्मपंथों को निगल लेने का रुझान रहता है , वह कुछ ही समय बाद इतना हावी हो जाता है कि  उसी विशिष्ट 'नाम या ब्राण्ड' वाले धर्मपन्थ का प्रभुत्व स्पष्ट होने लगता है। और इस प्रकार अलग- अलग स्वभाव के मनुष्यों के जीवन के स्वाभाविक अध्यात्मिक-प्रवाह को अक्षुण्ण  रखते हुए, समस्त धर्म-पंथों को समान रूप से विकसित होने का कोई अवसर नहीं मिलता। यदि एक पक्षीय  कट्टर-विचारधारा को ही सत्य मानने वालों की अपेक्षा, समस्त मानवीय पक्षों के विचार-धाराओं को स्वीकार करना श्रेष्ठ-मत है, तो समस्त मतवादों में अलग- अलग प्रकार के विचारों के गुच्छे को देख-समझकर समन्वय का सच्चा अनुभव करना उससे कई-गुना उच्च स्तर का है। एकांगी (कट्टर) मनुष्य अपने  उपसिद्धान्तों , आस्थाओं, और अन्य सभी बातों को धर्म का अद्वितीय सत्य और एकमात्र सिद्धान्त समझता  है, तथा अन्य धर्मपंथों को न केवल भ्रमात्मक और  झूठा ही समझता है बल्कि अन्य समस्त धर्म-पंथों और उनके अनुयायिओं को अपने से नीच मानकर उनकी निन्दा करने और उनसे घृणा करने को ही अपना धर्म समझने लगता है। स्वधर्म के प्रति उनका प्रेम शायद शुद्ध हो, किन्तु उनका हृदय संकीर्ण हो जाता है, उनकी दृष्टि में कोई गहराई नहीं रहती, तथा अपने अन्य मतावलम्बी भाइयों के प्रति सच्ची-सहानुभूति ही समाप्त हो जाती है। श्री रामकृष्ण के जीवन-व्रत के प्रमुख सिद्धान्तों में एक प्रधान सिद्धान्त था मनुष्य के हृदय में धार्मिक सहानुभूति और समन्वय के भाव को जाग्रत कर देना। 
इसी प्रसंग का उल्लेख, विशेष रूप से करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि, " सत्य केवल एक है किन्तु, यह भिन्न- भिन्न प्रकार से प्रकट हो सकता है, तथा भिन्न -भिन्न दृष्टिकोणों से इसका भिन्न- भिन्न स्वरूप दिख सकता है, दुनिया के सभी श्रेष्ठ धर्मों  में सन्निहित इसी केन्द्रीय रहस्य से अवगत होना मनुष्य मात्र का अनिवार्य कर्तव्य है ! फिर हम यह जानते हैं कि एक ही वस्तु  को विरोधी दृष्टि कोणों से देखा जा सकता है, किन्तु,  वस्तु वही रहती है।"  (3/130) सर्वधर्म-
समन्वय का मूल इसी केन्द्रीय रहस्य में स्थापित है। इसी केन्द्रीय रहस्य को जानने के महत्व पर प्रकाश डालते हुए स्वामीजी आगे कहते हैं- " तब हम दूसरे के प्रति वैर-भाव रखने के बजाय सबके साथ असीम सहानुभूति रख सकेंगे। जब तक इस संसार में भिन्न भिन्न प्रकृति के मनुष्य जन्म लेंगे, तब तक हमें उसी एक अध्यात्मिक सत्य को विभिन्न साँचों में ढालना पड़ेगा; यह समझ लेने पर ही हम विभिन्नता के होते हुए भी एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता रख सकेंगे। "(7/261-62) 

3.

समस्त धर्मों के सामान्य मूलतत्वों का समूह 

     जगत के सभी श्रेष्ठ धर्म पूरी दृढ़ता के साथ इसी बात की घोषणा करते हैं कि अविनाशी सत्य 'एक और आद्वितीय' है ! अभिव्यक्ति की भाषा में थोड़ा-बहुत अन्तर रहने से भी प्रत्येक धर्म अपने अनुयायियों को एक ही सत्य की और ले जाता है। प्रत्येक धर्म में उस परम सत्य का साक्षात्कार करने के लिये किसी न किसी रूप में ज्ञान, भक्ति और कर्म के लिये स्थान है।
   सभी धर्मों में ऐसे महापुरुष हैं, जिन्होंने उस अविनाशी सत्य का साक्षात्कार कर लिया है तथा उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं। चाहे जिस किसी धर्म की उपासना पद्धति का अनुसरण करते हुए  सिद्धत्व की प्राप्ति क्यों न हुई हो,  ईश्वर (परम सत्य) की उपलब्धि सर्वदा एक ही है । इसके अतिरिक्त लगभग सभी धर्मों में किसी एक ' त्राता' (Savior-उद्धारक ) अथवा एकाधिक अवतारों के आविर्भाव की धारणा को  स्वीकार किया जाता है। उनमे से कोई भी मसीहा (त्राता)  विध्वंश करने के लिये अवतरित नहीं हुआ है। बल्कि, उनमें से प्रत्येक अवतार का आविर्भाव एक ही उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हुआ है।
      प्रत्येक धर्म-सम्प्रदायों में ईश्वर का साक्षात्कार करने की पद्धति के रूप में मन की प्रवृत्ति को बदलने तथा इन्द्रिय सुख-भोगने की इच्छा पर संयम रखने का परामर्श दिया गया है। तथा प्रत्येक धर्म-पंथ किसी न किसी रूप में भौतिक जगत (स्थूल)  और अध्यात्मि जगत (सूक्ष्म)  के मध्य  एक सीमा को भी  रेखांकित करता है। जो मनुष्य अध्यात्मिक-पथ का पथिक है, वह अपने को  केवल शरीर और मन की समष्टि ही नहीं समझता बल्कि , इसके अतिरिक्त एक तृतीय वस्तु का अस्तित्व भी देख पाता है;  उसी गूढ़ सत्ता को सामान्य तौर पर 'आत्मा' (नूर) कहा जाता है। जिन लोगों ने उस अविनाशी सत्य का साक्षात्कार कर लिया है वे सभी इस बात पर एकमत हैं, कि किसी को भी आत्मा की उपलब्धि बाहर से प्राप्त नहीं होती है, यह अनुभूति अपने भीतर ही होती है। दर्शन की दृष्टि से प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय ईश्वर के स्वरुप, जगत और मनुष्य (जीव) और इनके बीच परस्पर सम्बन्ध का ही अनुसन्धान करता है।
       प्रत्येक धर्म-पंथ में व्यवहारिक मनोविज्ञान (Applied psychology) के प्रति एक स्पष्ट झुकाव होता है। प्रत्येक धर्म-पंथ मनुष्य जीवन के चरम उद्देश्य को स्पष्ट करता है। प्रत्येक धर्मपंथ अतीन्द्रिय जगत में साधकों द्वारा सिद्धि रूप में परमानन्द और परम शान्ति प्राप्त होने की बात कहता है। समस्त धर्मपंथ समाज के लिये जो नैतिक सिद्धान्त अधिरोपित करते हैं, उसके आधार के रूप में  कार्य-कारण सम्बन्ध के उपर स्थापित कर्मफल के विधान को सर्वत्र स्वीकार किया जाता है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-"मेरे गुरुदेव का मानव जाति के लिये यह सन्देश है कि -'प्रथम स्वयं धार्मिक बनो और सत्य की उपलब्धी करो।' वे चाहते थे कि तुम भ्रातृ-प्रेम के विषय में भाषण मत देते रहो, वरन अपने शब्दों को सिद्ध करके दिखाओ।" ठीक उसी प्रकार  संसार के  समस्त धर्म-सम्प्रदाय भी हमलोगों को अपने भ्रातृ-स्वरुप समग्र मानव-जाति के कल्याण के कार्यों में रत रहने की शिक्षा देते हैं।" 

 4.

सनातन धर्म में धर्म समन्वय की शिक्षा 

      उपनिषदों में कहा गया है, गौओं के शरीर का रंग चाहे जैसा भी क्यों न हो, उन सभी के दूध का रंग सफ़ेद ही होता है; मतभेद एवं मिथ्याधारणा की उत्पत्ति ज्ञान की अपूर्णता से होती है। अधुरे ज्ञान से ही मतभेद, या धर्मान्धता  का जन्म  होता है। श्रीरामकृष्णदेव धर्मान्धता का कारण तथा उसे दूर करने के उपाय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- " अज्ञान के कारण ही मनुष्य केवल  अपने ही  धर्म को श्रेष्ठ समझते हुए व्यर्थ का शोर मचाता है। जब चित्त में सच्चे ज्ञान का प्रकाश आ जाता है तो सभी सांप्रदायिक कलह शान्त हो जाते हैं।" वेदान्त का भी यही सिद्धान्त है ~"एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । #" - अर्थात वह सत्ता केवल एक ही है, ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं। (ऋ. 1.164.46) इसे स्पष्ट करने के लिए श्रीरामकृष्ण कई रंग बदलने वाले गिरगिट की कहानी सुनाया करते थे। धर्मान्धता  के दोष को स्पष्ट करने के लिये श्रीरामकृष्ण बहुत प्रसिद्द कहानी  'एक हाथी और छ: दृष्टिहीन व्यक्तियों की कथा '  सुनाते थे। 
     स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " किसी भी चर्च (धर्मपंथ) की चहारदीवारी के भीतर जन्म लेना अच्छा है, किन्तु उसी में मर जाना अच्छा नहीं है।" जब बरगद का पौधा छोटा हो तो उसके चारों ओर बाड़ से घेर देना अच्छा है, किन्तु जब पौधा बड़ा होकर वृक्ष में बदल जाये तो वह घेरा अनावश्यक हो जाता है। 
      यदि हमलोग प्राचीन वैदिक ऋषियों के उपदेशों के प्रति विश्वास स्थापित कर सकें  तो पाएंगे कि उन लोगों ने भी समन्वय और सार्वभौमिक भाव ["सर्वे भवन्तु सुखिनः" और "वसुधैव कुटुम्बकम "] का प्रचार- प्रसार करने पर विशेष जोर दिया है। प्रायः इन्द्र नाम से परिचित उस श्रेष्ठ पुरुष को ऋग्वेद (4:32:13:26) में "विवक्मि पुरुहूतम इन्द्रं"  'पुरुहूत'-अर्थात सर्वजन पूजित कहा गया है, फिर उन्हीं को  (ऋग्वेद (4:32:13) में सभी लिये सामान्य- "इन्द्र॑ साधा॑रणः त्वम्।" भी कहा गया है। उन्हीं को  कभी- कभी वरुण भी कहा गया है।  अथर्ववेद (4:16:8) में कहा गया है-" यः संगदेशेया वरुणो यो विदेश्यः। "- हमारे वरुण देव जिस प्रकार इस देश के हैं, उसी प्रकार विदेश के भी हैं। ऋग्वेद (5/85/7 में) के एक ऋषि अपने भाई, साथी, मित्र या विदेशी के प्रति किये गये अपराध के लिये भी क्षमा प्रार्थना करते हैं। विश्व-बन्धुत्व का अभूतपूर्व उदहारण शुक्ल यजुर्वेद (36/18) की प्रार्थना में देखि जा सकती है - " मित्रस्याहं चक्षूषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रषा चक्षूषा समीक्षामहे।' - समस्त प्राणियों के प्रति हमलोगों की दृष्टि प्रेम-पूर्ण हो, हमलोग एक दूसरे को मित्रतापूर्ण दृष्टिकोण से देखें। भारतीय मानस की सनातन भावना सभी धर्मों को सामान रूप से मान्यता देने की या सर्वधर्म-समभाव ही  नहीं है बल्कि , 'अनेकता में एकता'  देखने वाली  "विरोध नहीं, बल्कि सभी धर्मों में समन्वय और अविरोध" है। सर्वधर्म समभाव एक  राजनैतिक नारा है, किन्तु सर्वधर्म-समन्वय (Harmony of Religions) का सिद्धान्त आधुनिक युग के किसी राजनेता की कल्पना या बुद्धिजीवी के मस्तिष्क की उपज नहीं है बल्कि विशुद्ध रूप में यह भारतवर्ष का चिरन्तन  सिद्धान्त है, जो सैंकड़ों वर्षों से हमारे देश में कान्तिमान और देदीप्यमान बना हुआ  है। अथर्ववेद (12/1/45) में कहा गया है, 'जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं, नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्।'-अर्थात विभिन्न देशों के विभिन्न भाषा बोलने वाले, और विभिन्न धर्म के अनुयायियों को यह धरती एक समान धारण करती है।' सुन्दर शास्त्रीय वचनों को कहने वाले ऋषि लोग समन्वय के दृष्टान्त के उपर बार बार जोर देते हैं, ऋग्वेद (10/114/5) में कहा गया है-" सुपर्णं विप्राः कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधाकल्पयन्ति " - एक ही पक्षी को अलग अलग रूप से देखने के कारण कवि या बुद्धिमान ऋषि लोग कई रूप से उसकी व्याख्या करते है।" (The wise seers describe the one existence (एकं सन्तं ) in various words..) ऋग्वेद (1/164/46) के अनुसार " एकं सद विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।" अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं। इस विषय में आचार्य सायन की टिप्पणी है, ' चरम सत्ता  एक ही है, किन्तु उसे अलग -अलग रूपों में चिन्तन किया जाता है। गीता (4/11) में श्रीकृष्ण के उपदेश में भी हमें यही बात दिखाई पड़ती है-

 ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
  मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ।।

हे अर्जुन ! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
     उसी प्रकार शिवमहिम्नः स्तोत्रम (7) में जब आचार्य पूष्पदन्त कहते हैं- " रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां। नृणामॆकॊ गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥"  - ' जिस प्रकार भिन्न -भिन्न नदियाँ विभिन्न पर्वतों से निकल कर टेढ़ी-मेढ़ी या सीधी बहकर अन्त में आकर एक ही समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार भिन्न- भिन्न दृष्टिकोणों वाले भिन्न भिन्न धर्मपंथ भी अन्त में तुम्हींमें मिल जाते हैं।' यह एक ऐसा सत्य है जो हम सभी को मान्य होना चाहिए। इस समय वे जो कह रहे हैं, वह वास्तव में मुण्डक उपनिषद (3/2/8) में भी कहा गया है।

यथा नद्द्यः स्यन्दमानाः समुद्रे- अस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान् नाम-रूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषम् उपैति दिव्यम् ।।

- जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ अपना अपना नाम-रूप छोड़कर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, वैसे ही ज्ञानी महापुरुष नाम-रूप से रहित होकर परात्पर दिव्य पुरुष परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाता है- सर्वतोभावेन उसी में विलीन हो जाता है।
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~"एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । #" -अर्थात वह सत्ता केवल एक ही है, ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं। (ऋ. 1.164.46) = "सत्य केवल एक ही है", किंतु कोई व्यक्ति, उस इन्द्रियातीत सत्य (परम् सत्य Absolute truth-ब्रह्म या आत्मा का) का समग्र रूप से (इन्द्रियगोचर रूप से-माँ काली /जगदम्बा रूप से) साक्षात्कार करने में असमर्थ है ;  एवं मात्र आंशिक या एक पक्ष (Relative Truth- सापेक्षिक सत्य -M/F देह और मन )  का दर्शन करने में ही समर्थ हो पाता है। उसी अंश को (सापेक्षिक सत्य को) सम्पूर्ण सत्य (परम सत्य)-मानकर, कुछ लोग, सत्य खोजने-पाने-जानने का प्रबल दावा करते हैं और दूसरों को झूठा एवं दोषी ठहरा देते हैं। यही नहीं अपने अहंकार में, वे, इतने असहिष्णु हो जाते हैं कि, जो असहमत हैं, भिन्न राय रखते हैं, उनके दमन, उनकी हत्या को भी अपना धर्म-सिद्ध अधिकार एवं कर्तव्य समझते हैं। किन्तु,  सनातन अथवा हिंदू धर्म, आरंभ से ही, प्रगतिशील, सहिष्णु एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता आया है। उसका कहना है कि सत्य एक है, किंतु विद्वानों के द्वारा, उसे अपने दृष्टिकोण के अनुरूप व्याख्यायित किया जाता है।
>>> धर्मान्धता  के दोष को स्पष्ट करने के लिये श्रीरामकृष्ण बहुत प्रसिद्द कहानी  'एक हाथी और चार दृष्टिहीन व्यक्तियों की कथा ' इस प्रकार सुनाते थे- "चार दृष्टिहीन मनुष्यों को, एक हाथी को स्पर्श करके, उस पशु का अनुमान लगाने के लिए कहा गया। प्रत्येक मनुष्य ने हाथी के भिन्न-भिन्न अंगों को स्पर्श करके, उसके बारे में भिन्न-भिन्न अनुमान लगाए, यद्यपि वे सभी अनुमान एक ही पशु के विषय में लगाए गए थे। सत्य एक ही था, पर उसके रूप अनेक थे — प्रत्येक मनुष्य द्वारा की गई व्याख्या सही थी, पर सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान उन्हें नहीं हो पाया। " 
" एक बार चार दृष्टिहीन व्यक्ति हाथी देखने गये थे ! उनमें से एक जन हाथी के पैर को ही छू कर वापस आ गया, और कहने लगा ' हाथी खम्भे जैसा है।' दूसरे ने हाथी के सूँड़ को छुआ था, वह कहने लगा, ' हाथी अजगर -जैसा है।' तीसरा अन्धा हाथी के पेट को छू आया था; वह कहने लगा,  " हाथी बड़े नाद की तरह है।' चौथा हाथी के कान को स्पर्श कर आकर कहने लगा-' हाथी तो सूप-जैसा है।' इस तरह चारों हाथी के रूप के बारे में वाद-विवाद करने लगे। उनका शोरगुल सुनकर एक व्यक्ति ने आकर पूछा, ' क्या बात है ? तुम लोग क्यों झगड़ रहे हो ? ' तब उन दृष्टिहीन व्यक्तियों ने उसी को मध्यस्त ठहराकर सब किस्सा कह सुनाया। सुनकर वह आदमी बोला, ' तुममें से किसी ने भी ठीक-ठीक हाथी को नहीं देखा। हाथी खम्भे के जैसा नहीं, उसके पाँव खम्भे-जैसे हैं। वह अजगर के जैसा नहीं उसकी सूँड़ अजगर-जैसी है। वह नांद के जैसा नहीं, उसका पेट नाँद के जैसा है। वह सूप-जैसा नहीं, उसके कान सूप-जैसे हैं। इन सब को मिलाकर ही हाथी बना है।' जिन्होंने ईश्वर के स्वरूप (3H) के एक ही पहलू (इन्द्रियगोचर शरीर और मन 2H ) को देखा है, (3rd"H" आत्मा या ह्रदय को नहीं देखा वे आपस में इसी प्रकार झगड़ते रहते हैं। " (अमृतवाणी-302)
"कई रंग बदलने वाले गिरगिट की कहानी"  -  दो आदमियों के बीच घोर विवाद छिड़ गया। एक ने कहा, ' उस खजूर के पेड़ पर एक सुन्दर लाल लाल रंग का (साकार ) गिरगिट रहता है।' दूसरा बोला,'तुम भूल करते हो, वह गिरगिट लाल नहीं नीला (निराकार)  है।' विवाद करते हुए जब वे किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सके तो उसी खजूर के पेड़ के निचे रहने वाले एक आदमी (आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति या सद्गुरु देव) से मिलने पहुंचे। उनमें से एक ने पूछा, ' क्यों जी, तुम्हारे इस इस पेड़ पर एक लाल रंग का गिरगिट रहता है न ! ' वह आदमी बोला, ' जी हाँ '। तब दूसरे ने कहा,' अजी, कहते क्या हो ? वह गिरगिट लाल नहीं, नीला है।' वह आदमी बोला -'जी हाँ' । वह जनता था कि गिरगिट बहुरूपी होता है, सदा रंग बदलता  रहता है, इसलिये उसने दोनों की बात में हामी भरी। सच्चिदानन्द भगवान के भी मूर्त और अमूर्त अनेक रूप हैं। जिस साधक ने उनके जिस रूप का दर्शन किया है,वह उसी रूप को जानता है। परन्तु जिसने (आत्म साक्षात्कारी मनुष्य ने) उनके बहुविध रूपों को देखा है, वही कह सकता है कि ये विविध रूप उस एकही प्रभु के हैं। वे साकार हैं, निराकार हैं, तथा उनके और भी कितने प्रकार हैं यह कोई नहीं जानता।"(अमृतवाणी /124)
 ये कथायें एक प्रतीक है जो सत्य तथा सत्यार्थियों के परस्पर संबंधों को प्रभावी ढंग से दर्शाती है। बचपन में एक कहानी पढ़ी थी—एथेंस का सत्यार्थी।  इसमें एक जिज्ञासु, सत्य के दर्शन पाकर अपनी दृष्टि खो बैठता है।  (अर्थात इसमें एक -"इन्द्रियातीत सत्य का जिज्ञासु" उस "परम सत्य " के दर्शन पाकर अपनी 'दृष्टि' (भौतिक दृष्टि ?) खो बैठता है।) क्योंकि उसकी अंतःप्रज्ञा (intuition) खुल जाती है।  बच्चों के लिए इस अंतः प्रज्ञा को अनुभव करना एवं इसे विकसित करना सरल होता है। बच्चों का मन सरल होता है।  उनमें आसक्ति कम होती है और वह प्रकृति के साथ लयबद्ध होते हैं।  अत: अंतःप्रज्ञा (intuition) बिना तर्क किये और बिना अनुमान (inference) के ही ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता है, जैसे गाय का एक बछड़ा सैकड़ो गायों में दिग्भ्रमित न होते हुए अपनी माँ को पहचान लेता है। बुद्धी भ्रमित हो सकती है लेकिन अंतःप्रज्ञा नहीं। अंतरात्मा (विवेक-प्रयोग शक्ति)  भी इसी प्रकार अंत:प्रज्ञा का ही एक रूप है , जो हमें परामर्श देता है कि कोई कृत्य जो हम कर रहे हैं वह नैतिक (पुण्य-श्रेय) है या अनैतिक (अपुण्य-प्रेय ) ? 
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5.

श्रीरामकृष्ण और सर्वधर्म समन्वय 

      यदि उपरोक्त बातें सत्य हैं तो फिर धर्मों में अनेकता और विरोध का उद्भव कैसे हुआ ? दर्शन शास्त्र के विद्वान प्राध्यापक डॉ० सतीशचन्द्र चट्टोपाध्याय श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के पहले धार्मिक-जगत की अवस्था कावर्णन करते हुए लिखते हैं -" विभिन्न धर्म और विभिन्न सम्प्रदाय  ईश्वर के सम्बन्ध में अलग- अलग विचारधारा का पोषण करते थे। उनके विचार परस्पर विरोधी एवं रुढ़िवादीता से भरे हुए थे, धार्मिक जीवन में सभी लोग अलग -अलग आचार-अनुष्ठान का पालन करते थे। प्रत्येक धर्मावलम्बी  ऐसा सोचता  था  कि केवल उनका धर्म ही सच्चा है, और केवल वही  मुक्ति प्रदान करने में सक्षम है, बाकी सभी  भ्रमात्मक हैं।  गंभीर धार्मिक कट्टरता और उन्माद ही विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों  की विशेषता बन गई  थी एवं उस समय में  धार्मिक वातावरण पूरी तरह से दूषित हो चूका था।  धार्मिक विरोध और संघर्ष की व्यथा से भरे उन्हीं  दिनों में श्रीरामकृष्ण ने अपनी वाणी में सर्वधर्म समन्वय के वचनामृत लोगों को सुनाया था।" 
श्री रामकृष्ण के जीवन और सन्देशों में सभी मतों को सम्मान पूर्वक ग्रहण करने का जो भाव था उसके विषय में दर्शन शास्त्र के एक प्रवीण प्राध्यापक डाक्टर महेन्द्रलाल सरकार कहते हैं - " श्रीरामकृष्ण का अति संवेदनशील हृदय मनुष्य जीवन के मौलिक विश्वास के प्रति भेद-भाव को बिल्कुल स्वीकार नहीं कर पाता था। तथा इस भेद-भाव के समाधान का तरीका बताने के पहले उन्होंने विभिन्न धर्मों के बताये गए मार्गों एवं  प्रचलित प्रथाओं और विश्वासों का परिक्षण करने  के लिये अपने दैनन्दिन जीवन में स्वयं उनका अभ्यास किया था, साधना द्वारा उसी एक अविनाशी  सत्य की उपलब्धी कर संसार के सम्मुख सर्वधर्म-समन्वय का आदर्श प्रस्तुत करते हुए कहा था -  "जितने मत, उतने पथ !" 
  बड़े तालाब में बहुत से घाट होते हैं। किसी भी घाट से उतरने पर एक ही पानी मिलता है। इसलिये 'मेरा घाट अच्छा है, तुम्हारा नहीं '-इस तरह परस्पर झगड़ना निरर्थक है। इसी प्रकार सच्चिदानन्द-सरोवर में भी अनेक घाट हैं। यथार्थ में व्याकुल होकर लगन के साथ इनमें किसी भी एक घाट का अवलम्ब लेकर आगे बढो, तुम अवश्य ही सच्चिदानन्द-सरोवर में उतर सकोगे। ऐसा कभी न कहो कि मेरा धर्म श्रेष्ठ है।" (अमृतवाणी/122) Mr. E. W. Hopkins  अपनी पुस्तक 'Origin and evolution of Religions' ( धर्मों की उत्पत्ति और विकास) में सम्पूर्ण मानव जाति को एकता के सूत्र में पीरो देने वाले ऐसे दिव्य परमहंसों  के विषय  में कहते हैं, " ऐसे महापुरुष प्राचीन सनातन धर्म के साथ स्वयं को जोड़ कर जब  उसी प्राचीन धर्म को  अपनी भावी पीढ़ियों के हाथों में सौंपते  हैं, तो  उनका धर्म संयुक्त जीवन ही  धर्म को समझने का सबसे महत्वपूर्ण साधन बन जाता है। "
       स्वामी घनानन्द ने अपनी पुस्तक 'Sri Ramakrishna and His Unique Message' (श्री रामकृष्ण और उनका अनोखा संदेश) में यह दिखाया है कि उस महान शिक्षक ने जीवन के सभी स्तरों  तथा मनुष्य के उद्द्यम या कर्म के समस्त क्षेत्रों में समन्वय के सिद्धान्त का उपयोग किया था। धर्म समन्वय के प्रसंग में स्वामी घनानन्द कहते हैं, " हिन्दू धर्म के अतिरिक्त इस्लाम, इसाई तथा दूसरे धर्मों के सत्य का साक्षात्कार करके श्रीरामकृष्ण ने विश्व के अध्यात्मिक रहस्यवादियों  के बीच एक विलक्ष्ण स्थान प्राप्त किया था। विश्व की संस्कृति एवं आध्यात्मिक विचार, मानव-जाति की प्रत्याशा-अभिलाषा तथा आदर्श के क्षेत्र में सर्वजन स्वीकार्य  समन्वय के सन्देश का प्रचार-प्रसार करने में समर्थ श्रीरामकृष्ण अनुपम स्थान रखते हैं। सत्य- साक्षात्कार के जिस फल को अपने मजबूत मुट्ठी से दबाकर उसका पूरा रस निचोड़ लेने में श्रीरामकृष्ण सफल हुए थे। उस निचोड़ का नाम है- 'सर्वधर्म-समन्वय '। 
        ' अनेकता में एकता ' और   समन्वय के सिद्धान्त पर स्वमी विवेकानन्द ने हमेशा बल दिया था।  इस सम्बन्ध में उनकी एक ओजस्वी को वाणी को सुनना हमारे लिए लाभदायक होगा। " एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति- आदि ऋचाएं जब पहली बार लिखी गयीं थी, तब वे जितनी सजीव, महान, उत्साहवर्धक और प्राणप्रद थीं उसकी अपेक्षा आज इनका महत्व और अधिक बढ़ गया है। हमलोगों को यह बात आज भी सीखनी होगी, कि धर्म-को हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम या ईसाई किसी भी नाम से क्यों न संबोधित किया जाय सभी धर्मो के ईश्वर एक ही हैं। यदि कोई व्यक्ति इनमें से किसी एक धर्म का  उपहास करता है, तो वास्तव में वह नादान है, और अपने ही ईश्वर का उपहास करता है।"
" ईसा मसीह के आविर्भाव होने के ३०० वर्ष पूर्व बौद्ध धर्म प्रचारकों को यह निर्देश दिया गया था कि- किसी दूसरे धर्म की कभी निन्दा मत करना। जिस किसी भी देश का धर्म क्यों न हो, समस्त धर्मपंथों मौलिक आधार एक ही है। इसलिये जितना संभव हो उनकी सहायता करना, जितना हो सके उनको शिक्षा देने का प्रयास करना, किन्तु उनको चोट पहुँचाने की कोशिश कभी मत करना।"
      " क्या  ईश्वर के ग्रंथों का भण्डार अब समाप्त हो गया है ? -अथवा अभी भी वह क्रमशः प्रकाशित हो रही है ? यह आध्यात्मिक अनुभूति एक अद्भुत पुस्तक है। बाईबिल, वेद , पुराण , कुरान तथा अन्यान्य धर्मग्रन्थ समूह मानो उसी पुस्तक के एक- एक पृष्ठ हैं, और उसके असंख्य पृष्ठ अभी भी अनुद्घाटित हैं। हमलोग वर्तमान में खड़े है,किन्तु अनागत भविष्य की ओर उन्मुख होकर देख रहे हैं। अतीत में जो जहाँ भी जो कुछ अच्छा हुआ था उस सबको हमलोग  ग्रहण करेंगे, वर्तमान में  जो ज्ञान-ज्योति प्रकशित हुई है उसे अपने जीवन में धारण करेंगे तथा भविष्य में मानव-जाति के पथ-प्रदर्शक जो भी नेता आयेंगे उन्हें ग्रहण करने के लिये अपने हृदय के दरवाजे को खुला रखेंगे। अतीत के ऋषिकुल को प्रणाम, वर्तमान के मानव-जाति के सच्चे नेताओं  को प्रणाम, और भविष्य में जो भी आयेंगे उन सबको मेरा प्रणाम ! "(3/138)
      जिस युवा नेता के पास एक आधुनिक और अति तीव्र गति से चलने वाला मन होगा , जो  सदैव विवेकपूर्ण निर्णय लेने के बाद ही किसी कार्य को करेगा। ऐसा  विवेक सम्पन्न  युवा नेता  प्राचीन (पुराणों) को केवल केवल पुरखों की पुरानी कहानी कहकर उसका मजाक उड़ाने वाला नहीं होगा। वैसा  युवा मन मनुष्य जीवन की अनन्त संभावनाओं में विश्वास करेगा एवं अदम्य साहस और विश्वास के साथ -' मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ ' के शैक्षणिक आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिये कृत-संकल्प भी होगा।
      आधुनिक युग के प्रथम युवा-नेता  श्रीरामकृष्ण को जिस आध्यात्मिक प्रेरणा ने  विभिन्न धर्मपंथों की साधना के लिए  उद्बुद्ध कर दिया था  वह प्रेरणा उनके द्वारा प्रचारित धर्मसमन्वय के सन्देश के समान ही महान थी। स्वामी प्रभवानन्द कहते हैं, " एक बार श्रीरामकृष्ण से  किसी ने पूछा था कि उन्होंने क्यों इतने सारे अलग अलग मार्गों से साधना की थी, चरम लक्ष्य तक पहुँचने के लिये क्या कोई एक मार्ग ही यथेष्ट नहीं था ? इसपर उनका उत्तर था- ' मेरी माँ  अनन्त हैं, उनके हजारों रंग-रूप हैं, वे स्वयं को कई नाम-रूपों में अभिव्यक्त  करती है। यह जगत उनकी विविध अभिव्यतियाँ ही तो हैं  ! मैं सभी मार्गों से उनका साक्षात्कार  करना चाहता था। इसीलिये उन्होंने समस्त धर्मपंथों में निहित सत्य का दर्शन मुझे करा दिया था।' हालाँकि उन्होंने  विभिन्न धर्मपंथों में समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य इन विविध धर्म-मार्गों की साधना नहीं की थी, किन्तु फिर भी उसी के परिणाम स्वरूप,  उनके जीवन में यह समन्वय मूर्तमान हो उठा था।"
        इसीलिये आज किसी व्यक्ति या संगठन को धर्म समन्वय पर आधारित किसी नये नाम वाला सार्वभौमिक धर्म को रचने की कोई आवश्यकता नहीं है; बहुत पहले से ही श्रेष्ठ धर्मों  इसका अस्तित्व रहा है। इस बात को  स्पष्ट करते हुए  स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-  " सार्वभौमिक धर्म सदा से विद्यमान है। पुरोहित और दूसरे लोग, जिन्होंने विभिन्न नाम वाले अपने अपने धर्मों को, को पूरे विश्व भर में फैला देने का भार इच्छापूर्वक अपने कंधों पर उठा लिया है, यदि वे कृपापूर्वक कुछ देर के लिये प्रचार-कार्य बन्द कर दें, तब हमको यह ज्ञात हो जायेगा कि सार्वभौमिक धर्म पहले से ही वर्तमान है।  तुम देख रहे हो कि सब देश के पुरोहित (धर्म के ठीकेदार नेता या राजनीतिज्ञ लोग) ही कट्टरपंथी हैं। बराबर वैसे ही लोग सर्वधर्म-समन्वय को फलने-फूलने में बाधा डालते आ रहे हैं-कारण उसमें उनका निजी स्वार्थ है।" (3/131)  फिर भी ऐसे दो-चार उन्नत और असाधारण लोग होते हैं जो लोकमत की परवा नहीं करते। वे सत्य-द्रष्टा हैं, तथा केवल सत्य को ही सर्वशक्तिमान मानते हैं। तथा सत्य की ओर दृष्टि रखते हुए एकमात्र सत्य को ही धारण कर जीवन यापन करते  हैं।"  (3/132) 
     ऐसे ही एक महान (noble) व्यक्ति थे श्रीरामकृष्ण, उन्होंने अपनी हृदयेश्वरी  श्यामा माँ को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया  था, किन्तु सत्य नहीं दे सके थे। और  केवल सत्य को ही पकड़े रखा था। फिर इसी सत्य ने उनकी धर्मान्वेषी दृष्टि के सामने स्वयं को कई विविध रूपों में अनावृत  किया था, एवं एक ही सत्य के उन विविध विशेष रूपों से समन्वित धर्म को उन्होंने सम्पूर्ण मानवजाति को उत्तराधिकार के रूप में समर्पित कर दिया था।  
     आधुनिक जगत के सामने श्रीरामकृष्ण का परिचय देते हुए प्रसीद्ध साहित्यकार क्रिष्टोफर आयशरउड लिखते हैं- " मैं इस पुस्तक को शुद्ध आस्तिक या घोर नास्तिक के लिये नहीं लिख रहा हूँ। किसी अति आश्चर्यजनक घटना , वस्तु या व्यक्ति भले ही वह चाहे जिस देश-काल  में क्यों न उत्पन्न हुए हों, को देखकर, जो व्यक्ति उसे अकल्पनीय जानकर  भी उसे स्वीकार करने में जो कुण्ठित नहीं होता हो  और  जो किसी नये अवतार की खोज करने में सर्वदा तत्पर रहता हो, मेरी यह रचना उसी श्रेणी के पाठकों के लिये है। "
         किसी नये अवतार या पैगम्बर के आविर्भूत होने या भविष्य में किसी व्यक्ति के पैगम्बर की श्रेणी में उन्नत हो जाने की सम्भावना को पूर्ण रूप से समझने  या  पहचानने  के लिये गहरी अन्तर दृष्टि या अत्यंतकुशाग्र बुद्धि की आवश्यकता होती है। जिनके भीतर इन बातों का आभाव होता है, वैसे लोग ही आधुनिक जगत के अवतारी पुरुषों या पैगम्बरों के जीवन और संदेशों को छोटा करके देखते हैं, या उनकी निन्दा करने की चेष्टा करते हैं। श्री मैक्समूलर ने 1896  ई० में ' दी नाइनटीन्थ सेंचुरी ' नामक पत्रिका में श्रीरामकृष्ण के जीवन पर आधारित ' ए रीयल महात्मा ' शीर्षक से एक निबंध  लिखा था। अपनी इस रचना के द्वारा उन्होंने इस महान शिक्षक के बारे में कुछ आधारहीन शंकाओं तथा गलत धारणाओं को पाश्चात्यवासियों के मन से दूर करने का प्रयास किया था। क्योंकि किसी भी युग में महान व्यक्तियों को छोटा करके आँकने में ही व्यस्त रहने वाले निंदकों का आभाव नहीं रहता
    स्वामी विवेकानन्द का शरीर चले जाने के बाद श्री गिरिश चन्द्र घोष  ने 1904 ई० स्वामी विवेकानन्द की जन्मतिथि के अवसर पर बेलूड़मठ में आयोजित सभा में कहा था, " निन्दक मनुष्य भी ईश्वर की एक अद्भुत रचना होते हैं ! ऐसा प्रतीत होता है कि सभी महान कार्यों (लीला) को पुष्ट करने  में उनकी भी आवश्यकता होती ही है। निंदकों ने ही सीता को वनवास दिया था, वृन्दावन में कृष्ण की प्रेम-लीला को पूष्ट करने के लिये जटिला-कुटिला का होना भी जरुरी था, उसी प्रकार विवेकानन्द की लीला में भी निन्दकों का कोई आभाव नहीं था।....निन्दक लोग उनकी चाहे जितनी निन्दा करें,  वैसे लोगो का जीवन इतना पवित्र है कि कोई उनकी ओर ऊँगली नहीं उठा सकता, न  ही कोई उनसे ईर्ष्या ही कर सकता है ! "

6.

रचनात्मक व्यक्ति मुट्ठीभर ही होते हैं !

       जन-कल्याण के किसी उन्नत एवं नवीन भावादर्श (विचारधारा) को स्वीकार करने से भयभीत हो जाने वाले कुछ मनुष्य समाज में हमेशा रहेंगे। वे लोग अपने संकीर्ण संसकारों से पहले की ही तरह चिपके रहना चाहेंगे। जिनका हृदय विशाल नहीं होता, जिनमें नये विचारों को समझने योग्य बुद्धि नहीं होती, वे अपनी परिवर्तित अवस्था के साथ ताल-मेल नहीं रख पाते। अति उच्च विचार एवं हाल में आविष्कृत कोई वैज्ञानिक -सिद्धान्त समूह भी , पहले पहल केवल कुछ चुने हुए 'रचनात्मक -प्रतिभा सम्पन्न' व्यक्तियों द्वारा ही प्रतिष्ठित  किये जाते हैं। किन्तु ये सभी भ्रम-भंजक सत्य जब तक प्रकट होकर साधारण जनता के मन को समता प्रदान करने वाली प्रेरक-शक्ति नहीं बन जाते, तब तक उन थोड़े सर रचनात्मक प्रतिभा सम्पन्न अल्प-संख्यकों को ही विशाल जन-समुदाय के मार्ग-दर्शन का दायित्व अपने कन्धों पर लेकर आगे बढ़ना होता है। और जब तक वे इस आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान करने के लिए स्वयं आगे नहीं बढ़ते, तब तक भ्रम, विरोध, निन्दा, भ्रष्टाचार,जीवन को हानी पहुँचाने वाले आपसी -झगड़ों में मानव-सभ्यता का अपक्षरण (erosion) होता ही रहेगा।  
       सभ्यता के इतिहास के सम्बन्ध में आर्नोल्ड टायनबी की पुस्तकें बहुत विख्यात हैं, उसमें उन्होंने ने भी इसी बात की ओर इशारा किया है।  आर्नोल्ड टायनबी के इसी चिन्ता को आधार बनाकर आधुनिक युग के भौतिक शास्त्री श्री फ़्रीटजोफ़ कापरा कहते हैं, " जीवनीशक्ति से भरपूर होकर शिखर तक उठ जाने के बाद, सभ्यता की संस्कृति भाफ बनकर उड़ना शुरू कर देती है, और सभ्यता में ह्रास होने लगता है। टायनबी के मतानुसार लचीलापन (Flexibility) का अभाव ही संस्कृति के क्षरण के मुख्य कारणों में से एक प्रमुख कारण है। पतनोन्मुख समाज में लचीलापन का अभाव दिखाई देने के साथ ही साथ उसके साथ जुड़े उपादानो (हिन्दू-मुस्लिम) में  एकत्व का अभाव भी व्यापक तौर से दिखने लगता है, जिसका अनिवार्य परिणाम है सामाजिक वैर-भाव और अलगाव-वाद (separatism)। 
       किन्तु , ऐसा होने के बावजूद  संघर्ष के सामने खड़े होकर उसका प्रत्युत्तर देने की क्षमता किन्तु समाज से पूरी तरह लुप्त नहीं हो जाती। रुढ़िवादी विचार तथा आचार अनुष्ठान के दृढ आदर्श से बंधे रहने के कारण जब संस्कृति की मुख्य धारा जब चेतना शून्य हो जाती है, तब वहाँ रचनात्मक-प्रतिभा सम्पन्न कुछ अल्पसंख्यक व्यक्ति प्रकट हो जाते है, जो युद्ध-संघर्ष से परे जाने के प्रयास को आगे बढ़ाते रहते हैं। प्रबल कट्टर-पंथी और प्रभावशाली सामाजिक संगठन, संस्कृति के इन शक्ति-दूतों के हाथों में नेतृत्व की भूमिका देना  अस्वीकार कर देता है, किन्तु वे संगठन स्वयं ही क्रमशः जीर्ण-शीर्ण होते हुए, अंत में अनिवार्य रूप से समाप्त भी हो जाते हैं। और तब रचनात्मक- प्रतिभा से युक्त कोई न कोई नेता आविर्भूत होता है, जो किसी न किसी  उपाय से प्राचीन समाज में यथार्थ धर्म को नये रूप में प्रतिस्थापित करने में अवश्य समर्थ होता हैं। " 
      इतिहास के ऐसे ही समस्या-ग्रस्त परिवर्तन के युग में, भारतीय मन ने जब  अपना लचीलापन खो दिया था  तथा पाश्चात्य-चिंतन से मनीषा और विद्वता सम्पूर्णतः समाप्त हो चुकी थी,  युद्ध-संघर्ष के घात -प्रतिघात के बीच कुछ रचनात्मक लोगो का समूह  जाग्रत हो गया था,  जिन्होंने अपने आदर्श एवं केन्द्रीय शक्ति के रूप में श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देश ग्रहण किया था। रचनात्मक-प्रतिभा सम्पन्न यह दल ही ' रामकृष्ण भाव आन्दोलन ' के अग्रदूत हैं।  अपने असाधारण प्रयास से इस दल ने भारत की आम जनता की श्रद्धा और विश्वास अर्जित किया है। इस ' रामकृष्ण भाव आन्दोलन ' का   सांस्कृतिक परिणाम और  सामाजिक परिणाम दोनों ही महत्वपूर्ण है।
   "रामकृष्ण भाव आन्दोलन ' की वह विशिष्ट सांस्कृतिक भावना- "देशव्यापी समन्वय और एकीकरण " जो आधुनिक भारत के विघटनकारी और अलगाववादी  शक्तियों पर लगाम लगाने के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस सम्बन्ध में स्वामी निर्वेदानन्द की निर्देशात्मक उक्ति देखने योग्य है- " योग्यता और अभिरुचि की विविधता को प्राकृतिक रूप से अमिट घटना स्वीकार करते हुए, अन्तर के अनुसार उपाय ग्रहण करने को तैयार रहना होगा। सच तो यह है कि विभिन्न धर्मपंथों के सूत्रपात के द्वारा यही किया जा रहा है। उनमें से किसी एक धर्मपंथ के साथ दूसरे के झगड़े का कोई कारण नहीं है। ...इस क्षेत्र में ' अनेकता में एकता ' या बहुत्व में एकत्व ' का दर्शन ही निश्चित रूप से साम्प्रदायिक और जातिवादी संघर्ष को मिटाने में समर्थ होगा।"
   वर्षों पूर्व स्वामी विवेकानन्द ने अपनी ऋषि-दृष्टि से 1896 में ही रचनात्मक-प्रतिभा सम्पन्न इस छोटे से दल 'युवा महामण्डल' को आविर्भूत होते हुए देख लिया था ! और  श्री आलासिंगा को एक पत्र  में लिखा था --" कुछ न कुछ घटित अवश्य होगा। कोई शक्तिशाली व्यक्ति इसे वहन करने के लिये उठ खड़ा होगा। ईश्वर जानता है कि क्या अच्छा है। …सम्पूर्ण भारत वर्ष में इस चरित्र -निर्माणकारी आंदोलन को फैला देने के लिए, (बहुत बड़ी संख्या में)  वेदान्त के महावाक्यों, पातंजल योग-सूत्र की  व्याख्या करने में सक्षम  उपदेशकों [नेताओं -जीवनमुक्त शिक्षकों-पैगम्बरों ] की आवश्यकता है।" 
     " हमलोगों का कार्य बड़े सुंदर ढंग से शुरू हुआ है, तथा हम सभी भाइयों में आपसी प्रेम सभी प्रशंसा के भाव से उपर है। सच्ची निष्ठा और उद्देश्य की पवित्रता निश्चय ही इस समय विजय प्राप्त करेगी, तथा कोई छोटा सा दल  भी इन सब गुणों  से भूषित होने पर समस्त विघ्न-बाधाओं के रहने के  बावजूद अपने अस्तित्व को निश्चित रूप से बचाए रख सकेगा।"
     किन्तु इस रचनात्मक लोगों के छोटे से समूह के महत्व को, जो बहुसंख्यक भीड़ है वह  स्वीकार करने में समय लगा  सकती है। शायद वे लोग, इन लोगों के प्रभाव या आवश्यक उपदेशों की उपेक्षा भी करें । किन्तु ये अल्प संख्यक लोग कभी भयवश या किसी बड़े आदमी की विशेष-कृपा पाने के लालच में, उनसे अपने लिए कभी स्वीकृति पाने की चेष्टा नहीं करते। फिर भी जो घटित होता है, वह यह  कि - ये रचनात्मक अल्प  संख्यक लोग ही हमेशा दाता  की भूमिका में रहते हैं, और जो बहुसंख्यक हैं वे हमेशा ग्रहीता  बने रहते हैं। 
     आधुनिक युग के मानव-समाज में, विभिन्न धर्मपंथों का आविर्भाव तथा समय के प्रवाह में उनकी अनिवार्य अधोगति से उत्पन्न जो कैन्सर जैसा रोग दिखाई दे रहा है, उसको ठीक करने में सक्षम कोई दवा अभी तक आविष्कृत या प्रयुक्त नहीं हुई थी। यद्यपि वेदों  में उस दवा का की जड़ी-बुट्टी विद्यमान थी, उस दवा की जड़ी-बुट्टी  को युग की आवश्यकता के अनुसार कठोर तपस्या के कष्ट सहकर, उन्हें पुनः  पुष्पित-पल्लवित करने का कार्य, तथा विभिन्न  धार्मिक-सम्प्रदायों में संघर्ष  के कारण आमजनों का जीवन अधिक प्रदूषित हो गया था, उस जीवन को  मिलन-पुष्प के सुगन्ध से प्रमुदित कर  देने का कार्य श्रीरामकृष्ण के आगमन की ही प्रतीक्षा कर रहा था। उनके अद्वैत तपस्या से प्रस्फुटित उस पुष्प का नाम है 'सर्वधर्म-समन्वय'। किन्तु, संभव है कि अधिकांश व्यक्ति इस सिद्धान्त के मर्म को शीघ्रता के साथ हृदयंगम नहीं कर सकेंगे। क्योंकि, आत्म-विश्वास में अचल स्थिति तथा उद्देश्य की पवित्रता जैसे सदगुण मुट्ठीभर रचनात्मक मनुष्यों के भीतर ही रहते हैं, और यही अच्छा भी है। नहीं तो कदाचित  बहुत बड़ी संख्या के दबाव में ये सतगुण बेस्वाद ही हो जायेंगे। किन्तु यह वेदान्ती या 'दृढ़-आत्मविश्वासी अल्पसंख्यक-समूह' अपने लिये, कभी किसी प्रकार के विशेषाधिकार का दावा नहीं करता बल्कि उनका तो उद्देश्य ही होता है अपने विशेषाधिकार पाने की कामना को ही समूल समाप्त कर देना और स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार यही वेदान्त का लक्ष्य भी है।
       'रामकृष्ण मिशन' द्वारा प्रकाशित ' आदर्श और उद्देश्य' की अनुज्ञप्ति के अंतर्गत विशेषाधिकार को समाप्त कर की बात का उल्लेख इस प्रकार है- " भारत में सभी दुखों का मूल कारण है उच्च और निम्न श्रेणी के मनुष्यों के बीच बहुत बड़ा अन्तराल। इस विशाल अंतर को यदि नहीं पाटा गया तो जनसाधारण के कल्याण की कोई आशा नहीं है। मानव-समाज के हित के लिये श्रीरामकृष्ण देव ने जिन सब तत्वों की व्याख्या की है, तथा कार्यरूप में उनके जीवन से  जो तत्व प्रतिपादित हुए हैं, उनका प्रचार तथा मनुष्य की शारीरिक, मानसिक व पारमार्थिक (3H) उन्नति के लिये  उन तत्वों का प्रयोग, तथा उन विषयों में सहायता करना, इस 'संघ' का उद्देश्य है। "तथा जातिगत और धर्मगत समन्वय का सिद्धान्त इस प्रकार अभिलिखित हुआ है- " जगत के सभी धर्ममतों को एक अखण्ड सनातन धर्म का रूपान्तर मात्र समझते हुए विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच आत्मीयता और सौहार्द की स्थापना के लिये श्रीरामकृष्ण देव ने जिस कार्य का प्रारम्भ किया था उसका परिचालन ही इस मिशन का कर्तव्य है ।   
       अतः हम देखते हैं कि  इस प्रकार की सार्वजनिक सहानुभूति तथा दूर-दृष्टि केवल रामकृष्ण मिशन जैसे किसी छोटे से रचनात्मक समूह के पास ही होने की ही आशा की जा सकती है। स्वामी सतप्रकशानन्दजी लिखते हैं- " आधुनिक विश्व  में व्यक्ति या समाज के द्वारा मनुष्य को किसी भी प्रकार  की  सेवा प्रदान करने की जो बुनियाद होगी वह एकमात्र वही सत्य होगा, जो मनुष्य-मात्र में अन्तरनिहित देवत्व को निर्धारित करती है। मनुष्य-जाति में परस्पर श्रद्धा, प्रेम और एकता को प्रतिष्ठित करना ~ यही भाव- रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का एक वैशिष्ट्य है, जिस पर मानव जीवन में शान्ति और प्रगति निर्भर करती है। और उसे प्राप्त करने का उपाय है, जो सर्वव्याप्त सत्ता मनुष्य से सम्बद्ध देश, जाती,नस्ल, धर्म,पद एवं प्रतिभा पर आधारित भेद-भाव का अतिक्रमण करके मानवमात्र में समान रूप में विराजमान हैं, उसी सम्बन्ध के सार्वभौमिक मिलन-स्थल को खोज कर बाहर निकालना । "
 
7.

इस आन्दोलन के समालोचक-वृन्द

        कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि धर्म की रक्षा तथा उसका प्रचार करने के लिये मानव-समाज में उग्र धार्मिक उन्माद पैदा करना आवश्यक है -वर्तमान युग में ऐसा सोचना भी क्या अजीब नहीं लगता ?  स्वामी विवेकानन्द ने इसी प्रसंग में  चेतावनी देते हुए  कहा था, " धर्मान्ध लोगों के बारे में विचार कर के देखो। हर समय गुस्से से उनका चेहरा तमतमाया रहता है। और उनके लिये धर्म का अर्थ ही दूसरों के साथ लड़ना- झगड़ना होता है। उन लोगों ने अतीत काल में धर्म के नाम पर क्या किया है, और यदि उनको मौका मिले तो आज भी क्या नहीं कर सकते हैं-जरा विचार कर देखो।" 
     अकाल पीड़ितों को राहत के लिये यथासंभव सहायता पहुँचाने का परामर्श देते हुए स्वामीजी ने एक पत्र में स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा था, " तुम्हारे साथ मैं यहाँ तक सहमत हूँ कि धार्मिक विश्वास एक अत्यन्त विस्मयकारी अन्तरदृष्टि है, एवं  केवल इसी के द्वारा मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। किन्तु इसमें धर्मान्धता या धार्मिक कट्टरता उत्पन्न हो जाने का खतरा  भी है।  यह बात हमेशा याद रखना कि जो रुढ़िवादी धर्मान्ध लोग, हमलोगों की निन्दा करते रहते हैं, ये समस्त सहायता और राहत कार्य (relief work) ही उन लोगों के प्रति हमारा एकमात्र उत्तर है।" स्वामी विवेकानन्द ने श्रीरामकृष्ण के चरणों में बैठकर आध्यात्मिक शिक्षा पायी थी, इसीलिये उन्होंने न केवल समस्त धर्मों के प्रति सहनशीलता की शिक्षा पायी थी बल्कि समस्त धर्मों को ही सत्य मान कर  ग्रहण की थी। उन्होंने यह समझ लिया था कि समस्त धर्म-सम्प्रदाय ईश्वर-प्रणिधान रूपी अन्तिम लक्ष्य में उपनीत होने का सच्चा पथ है। इसीलिये वे समस्त देशों के समस्त पैगम्बरों तथा अवतारों के प्रति समान रूप से श्रद्धान्वित  थे। किन्तु जब वे किसी भी धर्म के अनुयायिओं को उनके धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध कोई कार्य करते देखते या वैसी बातें कहते सुनते तो कड़ी फटकार लगाते हुए उसकी भर्त्सना करने में कोई संकोच नहीं करते थे। इसीलिये जब कहीं आवश्यक लगा है तो  बिना संकोच उन्होंने ईसाईयों एवं मुसलमानों के प्रतिकूल भी टिप्पणी की है और  हिन्दुओं की आलोचना करते समय उनकी शब्दों के बाण इतने तीखे हो जाते थे कि बहुत से कट्टर हिन्दू क्रोध में उन्मत्त हो जाते थे। लेकिन स्वामीजी अपने विचार, कार्य तथा अभिव्यक्ति में निर्भीक थे।
        
उन्होंने अपने गुरु से यही शिक्षा प्राप्त की थी कि जनसाधारण   की आँखों से छुपा कर न तो कुछ सोचूंगा, न तो कहूँगा, न लिखूंगा, न करूँगा। वे स्वयं जिस बात को सत्य और दूसरों के प्रति कल्याणकारी नहीं समझते, उसे कभी कहते या करते नहीं थे। उनके जीवन और संदेशों के बारे में नये- नये तथ्य निरन्तर आविष्कृत हो रहे हैं, तथा उनके जीवन और मस्तिष्क या मनो-आकाश के साथ सपूर्ण विश्व के लोग परिचित हो सकें इसीलिये उनको सामान्य जनता के सामने प्रकाशित किया जा रहा है। उनके जीवन तथा कार्य के सम्बन्ध में छुपाने योग्य कुछ भी नहीं है। उनके  द्वारा  रचित विवेकानन्द साहित्य हिन्दी भाषा में 10 खंडों में उपलब्ध है, जिसको अत्यन्त गहरी जिज्ञासा एवं  धैर्य के साथ पढना आवश्यक होता है। वहाँ से थोड़े भी अंश को हटाया नहीं गया है क्योंकि जब उनके ऐसा  व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के साथ धीमे स्वर  में भी कुछ बातचीत कर रहा होता है, तो वह भी सम्पूर्ण मानव-जाति के कल्याण के लिए ही होता है। किन्तु उनके शब्दों को समझने के लिये उन्हें बहुत एकाग्र होकर सुनना पड़ेगा।
    समस्त मानव-जाति के जीवन को सुख-शान्ति और सौभाग्य से पूरित करने तथा एकात्मता स्थापित करने के लिये इस महा शक्तिशाली सामाजिक तथा आध्यात्मिक चरित्र-निर्माणकारी- शैक्षणिक आन्दोलन - 'Be and Make ' का प्रारम्भ, स्वयं स्वामी विवेकानन्द ने ही किया है। इसकी शक्ति तथा अवश्यम्भावी विजय की भविष्यवाणी करते हुए उन्होंने (मैक्स मूलर द्वारा लिखित 'Ramakrishna: His Life and Sayings' नामक पुस्तक पर लिखी गयी बंगला समालोचना में कहा था- १०/१५६ में ) स्वयं ही कहा है- " जो लोग श्रीरामकृष्ण के नाम की प्रतिष्ठा और प्रभाव को देखकर दास-जाति की तरह ईर्ष्या एवं द्वेष के वशीभूत होकर अकारण तथा बिना किसी अपराध के वैमनस्य प्रकट कर रहे हैं, उनसे हमारा यही कहना है कि 'हे भाई, तुम्हारी ये सब चेष्टायें व्यर्थ हैं। यदि यह दिग्दिगन्तव्यापी महाधर्म-तरंग-- जिसके शुभ्र शिखर पर इस महापुरुष की मूर्ति विराजमान है--यदि हमारे धन, नाम-यश पाने  की चेष्टा का फल हो, तो फिर तुम्हारे या अन्य किसीके लिए कोई प्रय
त्न की आवश्यकता नहीं है, महामाया के अलंघनीय नियम के प्रभाव से शीघ्र ही यह तरंग महाजल में अनन्त काल के लिये विलीन हो जायेगी! और यदि जगदम्बा-परिचालित इस महापुरुष की निःस्वार्थ प्रेमोच्छवासरूपी इस तरंग ने जगत  को प्लावित करना प्रारंभ कर दिया हो, तो फिर हे क्षूद्र मानव, तुम्हारी क्या हस्ती कि माता के शक्ति संचार का अवरोध कर सको ? " 
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>>>चारों पुरुषार्थों में से प्रथम पुरुषार्थ इसी शैक्षणिक धर्मधन " Be and Make " का उपार्जन करो, किसी में दोष मत ढूँढो, क्योंकि सभी मत, सभी पथ अच्छे हैं। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम और न सम्प्रदाय, वरन इसका अर्थ होता है- अध्यात्मिक अनुभूति (या आत्म-साक्षात्कार) जिन्हें अनुभव हुआ है, वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने धर्मलाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं, वे ही मनुष्य जाति के श्रेष्ठ आचार्य (नेता या मार्गदर्शक) हो सकते हैं-केवल वे ही ज्योति की शक्ति हैं। "7/267)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " जब कभी किसी मनुष्य ने आत्मज्ञान को प्राप्त कर लिया तो उसके मुख से यही ज्वलंत शब्द निकले-हे ईश्वर, तू ही सबका नाथ (मालिक) है, तू ही सबके हृदय में वास करता है, तू ही सबका मार्ग-प्रदर्शक है, तू ही सबका गुरु है और तू ही हम सभी की अपेक्षा अनन्त रूप से इस विश्व का रक्षक है।' (7/263)
>>"तुम यह न सोचो कि (भारत के) लोग शैक्षणिक धर्म " Be and Make " को पसन्द नहीं करते, मैं बात पर विश्वास नहीं करता। वे लोग जो कुछ चाहते हैं , धर्मप्रचारक [महामण्डल के नेता ] ठीक वह चीज उन्हें दे नहीं सकते। जो युवा जड़वादी,नास्तिक या अधार्मिक घोषित हो चुके हैं ; उन्हें भी यदि कोई ऐसा मनुष्य [मार्गदर्शक नेता] मिले, जो ठीक उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें आदर्श दिखला सके, तो वे लोग भी समाज में सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक अनुभूत्ति -सम्पन्न व्यक्ति बन सकेंगे। हमारी मातृभाषा में बात करने वाले यदि कोई सज्जन आकर , हमें तत्वोपदेश दें , तो उसे हम फौरन समझ लेंगे और बहुत दिनों तक याद रख सकेंगे - यह बात बिल्कुल ठीक है। "( 3 /132-33 )     

वे एकबार भी यह विचार नहीं करते कि ' हिन्दीभाषी ' लोग क्यों हमारी बात पर कान नहीं देते ? क्यों मैं हिन्दी भाषा उन्हें धर्म के सत्य को समझाने में समर्थ नहीं होता ? क्यों मैं उनकी मातृभाषा को सीखकर (या उनके मानसी-स्तर पर उतरकर ) उनके साथ उन्हीं की भाषा में बातचीत नहीं करता ? क्यों मैं उनके ज्ञान-चक्षु उन्मीलित करने में समर्थ नहीं होता ? असल में उन्हींको अच्छी तरह जानने की आवश्यकता है, और जब वे देखते हैं कि लोग उनकी बात पर कान नहीं देते, तब यदि किसी को गाली देने का मन करे, तो उन्हें पहले स्वयं को ही गाली देनी चाहिए। क्योंकि दोष सदैव " Be and Make " आन्दोलन को प्रचारित करने वाले उन नेताओं का है जो सिर्फ 'बंगाली और अंग्रेजी' में ही बोलते हैं, और अपने संगठन का विस्तार करने के लिये 'मनः संयोग' में विश्वासी युवा-संगठन को छात्रों- युवाओं के लिये उपयोगी बनाने की चेष्टा नहीं कर सकते। (3/133) " }
[स्वामीजी कहते है, ' प्रत्येक धर्म वाले अपने मतों की व्याख्या करके उसीको एकमात्र सत्य कहकर उसमे विश्वास करने के लिए आग्रह करते हैं। वे सिर्फ इतना ही करके शान्त नहीं होते, वरन समझते हैं कि जो उनके मत में विश्वास नहीं करते, वे किसी भयानक स्थान में अवश्य जायेंगे। कोई  कोई  तो दूसरों को अपने सम्प्रदाय में लाने के लिये तलवार तक का प्रयोग करते हैं। वे ऐसा दुष्टता से करते हों, सो नहीं। मानव-मस्तिष्क से उत्पन्न धर्मान्धता-कैंसर नामक व्यधिविशेष की प्रेरणा से वे ऐसा करते हैं। ये धर्मान्ध सर्वथा निष्कपट होते हैं, मनुष्यों में सबसे अधिक निष्कपट। किन्तु अन्य पागल लोगों की तरह उनमें भी सम्पूर्ण मानव-जाति के प्रति अपने उत्तरदायित्व का बोध नहीं होता। यह धर्मान्धता एक भयानक बीमारी है। मनुष्यों में जितनी दुष्ट बुद्धि है, वह सभी धर्मान्धता के कारण जाग्रत होती है। उसके द्वारा क्रोध उत्पन्न होता है, स्नायु-समूह अतिशय तन जाते हैं, और मनुष्य शेर के जैसा हो जाता है। " (3/141) 
" मैं किसी भी सम्प्रदाय का विरोधी नहीं हूँ, जब तक मनुष्य चिन्तन करेंगे, तब तक सम्प्रदाय भी रहेंगे। वैषम्य ही जीवन का चिन्ह है और यह अवश्य ही रहेगा। मैं तो प्रार्थना करता हूँ कि उनकी  संख्या में वृद्धि होते होते संसार में जितने मनुष्य हैं, उतने ही सम्प्रदाय हो जायें, जिससे धर्म राज्य में प्रत्येक  मनुष्य अपने पथ से अपनी व्यक्तिगत चिन्तन-प्रणाली के अनुसार सत्य की खोज के पथ पर चल सके। " (3/128)]
[भारतवर्ष (राष्ट्र) की उन्नति के लिये वेदों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। आज आवश्यकता है कि स्कूलों में प्रारंभ से ही वैदिक शिक्षा को जानने के लिए 'संस्कृत-व्याकरण' सिखाने का प्रबन्ध किया जाये। इससे विद्यार्थियों के नैतिक चरित्र में सुधार होगा और आगे जाकर वे भारत माता के सच्चे सेवक बन सकेंगे। ]
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