बुधवार, 16 मई 2012

8.स्वामी अभेदानन्द की दृष्टि में निवेदिता/ pracharak abhedanada

 8.स्वामी अभेदानन्द की दृष्टि में निवेदिता 
आचार्य स्वामी विवेकानन्द ने मिस मार्गरेट एलिजाबेथ नोबेल को- ' भगिनी निवेदिता ' में रूपान्तरित कर दिया था. इन्हीं स्वामी विवेकानन्द के अन्यतम अन्तरंग गुरुभ्राता थे स्वामी अभेदानन्द; जो स्वामीजी के आह्वान पर ' वेदान्त-प्रचार ' करने के लिए पाश्चात्य गए थे. उन्होंने पाश्चात्य-वासियों को ( १९९६-१९२१ ) पुरे  २५ वर्षों तक भारत के ' सर्वजनीन वेदान्त-दर्शन ' का श्रवण करवाया था. 
                 इसी वेदान्त-दर्शन के आलोक में सम्पूर्ण विश्व ने भारतवर्ष को एक उदार सनातन देश के रूप में पहचाना था, तथा इसी सार्वजनीन वेदान्त धर्म और दर्शन के उत्स को जानने के लिए मिस मार्गरेट नोबेल भारतवर्ष आई थीं. उस समय तक मिस नोबेल ' निवेदिता ' में परिणत नहीं हुई थीं; अर्थात भारतवर्ष आने के पहले से ही उनका परिचय अभेदानन्दजी के साथ था. स्वामीजी ने ही अभेदानन्दजी के साथ उनका प्रथम परिचय करवाया था.
                       उनके साथ बातचीत करके अभेदानन्दजी यह समझ गए थे कि इस आयरिस तरुणी मिस नोबेल के मन में भारतवर्ष को लेकर अनेक स्वप्न हैं, तथा भारतवर्ष के उदार सार्वजनीन वेदान्त-दर्शन के माध्यम से ही उन्हें यह स्वप्न देखने की प्रेरणा प्राप्त हुई है. अभेदानन्दजी ने इस बात का अनुभव भी किया था,  कि मिस मार्गरेट के भीतर उन्नत शिक्षा-दीक्षा जनित ज्ञान-दीप्त प्रतिभा भरी हुई है, एवं उनके व्यक्तित्व में जो  शुद्ध भक्ति-भाव है, वह आत्मशक्ति के बल पर अटल है।
                       वे भारतवर्ष आने के लिए बहुत आग्रही थीं, तथा स्वामीजी के ' शिवज्ञान से जीवसेवा ' के आदर्श से अनुप्रेरित होकर भारतमाता की  बलीवेदी पर अपना मन-प्राण अर्पित करना देना चाहतीं थीं. स्वामीजी भी मार्गरेट के सेवा-कर्म में निष्ठा तथा आचार-व्यव्हार को देख कर मुग्ध हो गए थे. उन्होंने मन में यह ठान लिया था कि भारतवर्ष में नारी-शिक्षा का स्तर उन्नत करने के लिए मिस मार्गरेट नोबेल जैसी महिला को उत्तरदायित्व सौंपना बहुत प्रयोजनीय है.
 इस विषय पर स्वामी अभेदानन्दजी के साथ बातचीत करते हुए उन्होंने कहा - ' देखो काली, मिस नोबेल बहुत good soul है एवं Education लाईन में भी है, इसीलिए सोचता हूँ कि भारत में लड़कियों के लिए जैसा स्कूल निर्माण करने की परियोजना मेरे मन में है, उसका पूरा दायित्व इसी के उपर सौंप दूँ. तुम बताओ वो इस जिम्मेदारी को उठाने में सक्षम होगी या नहीं ?'
अभेदानन्दजी ने इस प्रस्ताव पर अपनी सम्मति देते हुए कहा- ' इस कार्य के लिए बिल्कुल योग्य नारी का चुनाव तुमने किया है.  इसके बाद स्वामीजी के आह्वान पर अपना योगदान देने के लिए मिस मार्गरेट नोबेल भारतवर्ष आगयीं और ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण करके ' भगिनी निवेदिता ' के रूप में आत्मप्रकाश कीं. 
             
 धीरे धीरे स्वामीजी के चिराकांक्षित नारी-शिक्षा के कार्य में निवेदिता ने स्वयं को समर्पित कर दिया. उस समय स्वामी अभेदानन्दजी अमेरिका में थे. इसीलिए निवेदिता के द्वारा किये जा रहे सेवाकार्यों का संवाद पत्र के माध्यम से ही प्राप्त होता था. पत्रलेखक स्वयं स्वामीजी थे. इस प्रकार लिखे थे-
 "भाई काली (अभेदानन्द), तुम्हें यह जान कर प्रशन्नता होगी, कि कुछ ही दिनों पूर्व २१ न०, बागबाजार में
 मिस नोबेल (निवेदिता ) का स्कुल, श्रीश्रीमाँठाकुरानी ( श्रीश्रीमाँसारदादेवी ) के आशीर्वाद से स्थापित हो गया है. वे स्वयं उपस्थित होकर इसके उद्घाटन कार्यक्रम को देखा है. यह बहुत अच्छा हुआ.
लडकियों के लिए स्थापित इस विद्यालय का भविष्य उज्ज्वल है, क्योंकि इसे संघ-जननी का आशीर्वाद प्राप्त है. बेलूड़ मठ से मैं, राखाल (ब्रह्मानन्द ) और शरत ( सारदानन्द ) इस सादगीपूर्ण ढंग से आयोजित समारोह में उपस्थित थे. इसमें मुझे कुछ सन्देह नहीं है कि मिस नोबेल बहुत अल्प समय में ही इस बालिका विद्यालय को मेरी आशा के अनुरूप  खड़ी कर लेगी. 
        क्योंकि इसी कार्य के लिए तो उसे मैं इस देश में लाया हूँ. एक नये आदर्श में लड़कियों का जीवन गठन हो,एक सम्पूर्णतया नये शिक्षा व्यवस्था में उनका चरित्र विकसित हो, इसीलिए महानगरी के एक मोहल्ले में हमलोगों ने यह सामान्य सा प्रयास किया है. मैं मानों दिव्य चक्षुओं से देख रहा हूँ, मिस नोबेल ( निवेदिता ) 
की प्रचेष्टा से यह प्रयास अवश्य सफल होगा. "


निवेदिता के सेवाकर्म की समृद्धि केलिए लिखे गए, स्वामीजी के इस आशीर्वाद-पत्र को पढ़ कर, अभेदानन्दजी बड़े आनन्दित हुए. क्योंकि निवेदिता के नारी-शिक्षा की सफलता के लिए उन्हों ने भी ह्रदय से आशीर्वाद दिया था. सभी लोगों की सहानुभूति प्राप्त कर निवेदिता की शिक्षा-व्यवस्था में उत्तरोत्तर श्रीवृद्धि होने लगी. इसीबीच अकस्मात बिजली गिरने जैसी घटना हुई, ४ जुलाई १९०२ को स्वामीजी का महाप्रयाण हो गया.
निवेदिता असहाय हो गयी. अभेदानन्दजी भी बहुत चिन्तित हो गए थे.क्योंकि, जो अपनी शिष्या को विघ्न-बाधाओं से सतत ढाल बन कर रक्षा किया करते थे, उस शिष्या मिस मार्गरेट के सिर के ऊपर से आकाश के जैसे व्यक्तित्व वाले स्वामीजी का महाप्रस्थान हो गया था. एक विराट स्थान रिक्त हो गया था, सभी इस सोच में पड़ गये थे कि अब आगे स्कूल किस प्रकार चल पायेगा, कौन इस दायित्व पूर्ण कार्य में सहयोग देने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाएगा ? 
 तभी सभी आशंकाओं को दूर करने के लिए अमेरिका में स्वामी अभेदानन्दजी को स्वामी सारदानन्दजी का एक पत्र प्राप्त हुआ, जिसमे उनहोंने लिखा था - " निवेदिता का स्कूल भलीभांति चल रहा है, तथा इसको स्थायी रूप देने के लिए निवेदिता के प्रयास में कहीं कोई त्रुटी नहीं है. उसीके प्रयास से वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस आदि बहुत से गणमान्य व्यक्ति अभी स्कूल कि ओर आकृष्ट हुए हैं तथा उनमे से कुछ लोग बीच बीच में स्कूल देखने के लिए आते रहते हैं. सुना है कि रविठाकुर ( रविन्द्रनाथ ठाकुर ) भी आये थे. .... लड़कियों की संख्या पहले की अपेक्षा बहुत अधिक हो गयी है." 
 स्वामी अभेदानन्द जी अमेरिका में बैठे कर भी निवेदिता के क्रिया-कलापों की खोज-खबर लेते रहते थे. मिस नोबेल को लन्दन में रहते समय भी, एक स्वेच्छा-सेविका के रूप में काम करते हुए देखेथे, इसीलिए निवेदिता के सेवाकर्म के प्रति उनकी धारणा बहुत स्वच्छ थी. इसके अतिरिक्त स्वामी अभेदानन्दजी जब १९०९  ई० में ६ महीनों के लिये भारत आये थे उस समय भारत में रहते हुए निवेदिता  के सामाजिक-जीवन में और शिक्षा-क्षेत्र में उनकी  कार्यधारा से परिचित हुए थे, एवं निवेदिता की ' संगठन-क्षमता ' को देख कर मुग्ध हुए थे.
 परवर्ती काल में इस बात का उल्लेख उन्होंने इस प्रकार किया था- " निवेदिता ( मार्गरेट ) एक बहुत कुशल Organizer थीं एवं उनके व्यक्तित्व में मन को आकृष्ट कर लेने की एक शक्ति थी; जिसके फलस्वरूप बहुत से विख्यात व्यक्तियों की सहानुभूति एवं सहयोग उन्हें प्राप्त हुआ था. 
किसी वेदेशिनी महिला के लिए यह कुछ कम गौरव की बात नहीं थी. ऐसा प्रतीत होता है, कि शायद इसी कारण बागबाजार के एक कोने में एक साधारण से स्कूल को केन्द्र बना कर निवेदिता ने अपने कार्य-क्षेत्र की परिधि  को इतना विस्तृत कर लिया, कि उन्होंने सम्पूर्ण बंगाल के ह्रदय को ही जीत लिया है.
इसीलिए मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यदि स्वामीजी की महासमाधि के बाद उनकी यह सूयोग्य शिष्या यहाँ न होतीं तो उनकी भावधारा भी समस्त भारत में इतनी प्रचारित नहीं हो पाती. " 
 इसमें कोई सन्देह नहीं कि निवेदिता एक विदुषी महिला थीं. उन्होंने अपना मन-प्राण समर्पित कर जिस प्रकार भारतवर्ष की सेवा की है, इतिहास में उसका दूसरा उदहारण खोज पाना कठिन है. उनका कार्य-क्षेत्र केवल रामकृष्ण-संघ तक ही सीमाबद्ध नहीं था, समस्त भारतवर्ष को अपने घेरे में लपेटे हुए था. उनके  जीवन की विचार-धारा और सेवा-कार्य के माध्यम से मानों समग्र भारत ही जीवन्त-रूप धारण कर लिया था. उससमय भगिनी निवेदिता को केन्द्र में रख कर बंगाल के नवजागरण ने अपने शिखर को छू लिया था, एवं वे उस राष्ट्रीय आन्दोलन की केन्द्रबिन्दु बन चुकीं थीं. 
 इस घटना को भारत में रहते समय स्वयम अभेदानन्दजी अपनी आँखों से देख चुके थे तथा इस संवाद को इस प्रकार प्रकट किया था- " निवेदिता की विचार- धारा एवं कर्म का प्रभाव केवल भारतीय राजनीती पर ही नहीं,पड़ा था बल्कि कला, साहित्य, संस्कृत यहाँ तक कि राष्ट्रिय जीवन के सभी स्तरों में मानों एक नवजागरण की बाढ़ आगई थी. प्रत्येक क्षेत्र में उनका प्रभाव कितना गम्भीर और आन्तरिक था, उसको मैंने स्वयम अपनी आँखों से देखा था. उन दिनों ' सिस्टर निवेदिता ' नाम बंगाल के शिक्षित समाज में जैसा सूपरिचित था, उतने ही श्रद्धा के साथ इस नाम को सर्वसाधारण के मुख से भी उच्चारित होते मैंने सुना था. भारतवर्ष को जिन्होंने अपना सर्वस्व निवेदित कर दिया था, उन्हीका नाम था- निवेदिता. जन्म के आधार पर विदेशिनी होने पर भी अपने कर्म और मृत्यू के आधार पर वे, एक भारतवासी थीं. जब १९११ ई० में दार्जलिंग में उनका निधन हुआ, उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष ही भगिनी-विहीन हो कर शोकग्रस्त हो गया था. 
 किसी अन्य के प्रति ऐसा शोक व्यक्त करते कभी नहीं देखा गया था. किन्तु उस दिन मुट्ठी भर मनुष्यों की पुष्पांजली के लिए सोच्चार नहीं बन गया था गणमाध्यम या विदेशी प्रथा के अनुसार श्रद्धांजली देने के लिए उनको पुरे एक सप्ताह तक बर्फ की शैया पर लिटा कर भी, उनको नहीं रखा गया था.समग्र भारतवासियों ने उस दिन उनको आन्तरिक अश्रु-जलान्जली दे कर उनको अन्तिम विदाई दी थी.
उनके पूतपवित्र  नश्वर शरीर को पवित्र भारतीय-पद्धति के अनुसार पंचभूतों में विलीन कर दिया गया था. क्योंकि भारत को प्यार करते करते, वे भारतमयी जो बन गयीं थीं. ' भारतवर्ष ' - नाम ही उनका जपम्न्त्र था, भारत-आत्मा के साथ घुलमिल कर वे एकाकार हो गयीं थीं. इसलिए प्रत्यक्ष-दर्शी रवीन्द्रनाथ कहते थे
 - " स्वयं को संपूर्णतः निवेदित कर देने की जो आश्चर्य जनक क्षमता, जैसी निवेदिता में थी, वह मैंने अन्य किसी और मनुष्य में कभी नहीं देखा है...उनका शरीर, उनकी आशैशव यूरोपीय आदतें, उनके अपने नाते-रिश्ते की स्नेह-ममता, स्वजातीय समाज की उपेक्षा, एवं जिनके लिए उन्होंने अपना प्राण-समर्पित कर दिया था, उनकी उदासीनता, दुर्बलता और त्यागस्विकार का आभाव, कोई भी कारण उनको लौट जाने के लिए मजबूर नहीं कर सका. "
 यह बात ठीक है कि भारतवासियों से निवेदिता ने कोई भी वस्तु पाने की ईच्छा कभी नहीं की थी; किन्तु भारतवासियों ने उनके प्रति, सौजन्यतावश ही सही थोड़ी सी कृतज्ञता भी प्रकट नहीं की थी. बल्कि उनकी स्मृति के प्रति भी अवमानना की गयी है, इस तथ्य को स्वामी अभेदानन्दजी के एक प्रतिवेदन में इस प्रकार व्यक्त किया गया है- 
" अमेरिका से अपने ऊपर सौंपे कार्य को समाप्त करने के बाद मैं १९२१ ई० में भारत लौटा, एवं १९२५ ई० 
में ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम ' की स्थापना दार्जलिंग में की. उस समय मेरे मन में विचार उठा, अब से १४ वर्ष पूर्व निवेदिता का नश्वर शरीर भी तो दार्जलिंग में ही भष्मी-भूत हुआ था. किन्तु उनकी चिता-भष्म के उपर कोई स्मरण-चिन्ह निर्माण करने की बात किसी ने भी नहीं सोचा !
भारत के बलिवेदी पर जिसने इस प्रकार अपने को निवेदित कर अपने गुरु द्वारा प्रदत्त नाम- ' निवेदिता ' को जिसने सार्थक कर के दिखा दिया, उनकी स्मृति के प्रति ऐसी अवहेलना से मैं अत्यन्त व्यथित हो गया. तब मैंने अपनी निजी धन से ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम ' की ओर से एक ' स्मृति-मन्दिर ' का निर्माण कराया. एक संगमरमर के पत्थर पर उनके सम्बन्ध में सिर्फ एक ही वाक्यलिखवाया था -
  " Who gave her all to India
क्या सचमुच यही उनका वास्तविक परिचय नहीं है? "   ' भगिनी निवेदिता '  का सच्चा परिचय अभेदानन्दजी के आखों के समक्ष कौंध गया था, जिसको उन्होंने एक ही वाक्य में व्यक्त कर दिया है. जिन्होंने अपने को भारतमाता की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, भारत-कल्याण के लिए जिसने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया था, उसी महाप्राण का नाम है- निवेदिता.
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' সংবাদ প্রতিদিন ' ২৮ অক্টোবর ২০০৪, ভগিনী নিবেদিতার জন্মজ্যান্তি উপলক্ষে প্রকাশিত বিশেষ সম্পাদকীয় নিবন্ধ .
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