शनिवार, 26 मई 2012

" प्रलय या गहरी समाधि " [ ***22] परिप्रश्नेन

२२.प्रश्न : मेरे मन में मनुष्य की आत्मा या परमात्मा के सम्बन्ध में एक धुंधली सी धारणा है; मैं इसके सम्बन्ध में कुछ सुनना चाहता हूँ. आत्मा और परमात्मा क्या है ? 
उत्तर : अन्तरात्मा या आत्मा तथा परमात्मा वस्तुतः (de facto) एक ही हैं, दोनों में कोई अन्तर नहीं है. आत्मा दो प्रकार की नहीं होती, वास्तव में आत्मा के अतिरिक्त अन्य और कुछ है ही नहीं. आत्मा कहने का तात्पर्य ही ब्रह्म होता है, आत्मा का अर्थ ही है परमात्मा.
जब तक हमलोग इस भ्रम में रहते हैं, या यह कल्पना करते हैं कि वे किसी जीव के भीतर हैं, तब उनको जीवात्मा या आत्मा कह देते हैं. और जब ऐसा जान लेते हैं कि वे सर्वव्यापी होने पर भी, सभी कुछ का अतिक्रमण कर के, सबकुछ के परे भी वे ही अवस्थित हैं; जब इस दृष्टिकोण से विचार करते हैं, तब उनको ही परमात्मा (परम+आत्मा) कहते हैं. 
हमलोगों के भीतर जो आत्मा अवस्थित हैं, उनके बारे में ठीक ठीक धारणा करना बहुत कठिन है. इसका कारण यह है कि किसी भी वस्तु की धारणा हमलोग मन के द्वारा ही करते हैं. किन्तु आत्मा मन-बुद्धि के अगोचर हैं, वे मन-बुद्धि का अतिक्रमण करके अवस्थित हैं. 
वे सुनने में बड़े अच्छे लगते हैं, इसी कारण उनको बोल कर नहीं समझाया जा सकता है. मन के भीतर उनकी धारणा - क्यों नहीं की जा सकती ? इस बात को उनके उपर बहुत परिचर्चा (शास्त्रार्थ) करके तर्कसंगत विचार करने पर ही समझा जा सकता है. क्योंकि वे रोम-रोम में व्याप्त हैं, सबकुछ में अनुस्यूत हैं, सदा साथ रहने वाले हैं,अविभाज्य हैं, इसीलिए शब्दावली के आभाव में हमलोग कह देते हैं, कि आत्मा सर्वगत हैं, वे सर्वव्यापी हैं. किन्तु वास्तव में उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है. 
जो कुछ भी देख रहा हूँ, जो कुछ भी है, सब कुछ वे ही बने हैं, सभी कुछ ब्रह्ममय है ! इसीलिए वे सर्वव्यापी नहीं हो सकते हैं. यदि सभीकुछ वे ही हों, तो फिर वे किसी एक जगह (अपने से भिन्न पदार्थ में ) में जायेंगे कैसे ? यदि उनके अतिरिक्त अन्य कुछ हो ही नहीं, तो फिर वे सबों के भीतर प्रविष्ट कैसे होंगे ? यह सब बातें हमलोग अपने मन को समझाने के लिए कह देते हैं. अर्थात जो अस्तित्व हैं, जिनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, वे ही आत्मा हैं, वे ही परमात्मा हैं.
किन्तु उनको बुद्धि के द्वारा कभी नहीं समझा जा सकता है, वे तो अनुभव करने की वस्तु हैं ! हमलोगों
 का ' मैं-पन ' या मिथ्या अहंकार उन्हें कभी नहीं जान सकता, बस जो आत्मा हैं, वे ही स्वयं को या परमात्मा को जान सकते हैं. केवल वह ' आत्मा ' ही यह जान पाते हैं, कि ' वे ' क्या हैं ! इसी अवस्था का वर्णन करते हुए स्वामी विवेकानन्द,समाधि के उपर रचित एक कविता में कहते हैं
" प्रलय या गहरी समाधि " 
सूर्य भी नहीं है, ज्योतिर्मय सुंदर शशांक भी नहीं,
प्रतिबिम्ब-सा व्योम में यह विश्व नजर आता है।
मनो-आकाश अस्फुट..., भासमान विश्व-ब्रह्माण्ड वहाँ 
अहंकार-स्रोत ही में तिरता डूब जाता है। 
धीरे धीरे प्रतिबिम्बों का समूह प्रलय में समाया जब 
निज ' नाम-रूप ' के अहंकार की धारा उसी में लीन हो जाती है ।
रुद्ध हो गयी वह धारा, शून्य में लीन हो गया शून्य,
'अवांग-मन-सगोचरम ' को वह जाने जो ज्ञाता है ! 
इस कविता की अन्तीम पंक्ति बंगला में इस प्रकार है- ' বোঝে প্রাণ বোঝে যার । ' 
या ' बोझे प्राण बोझे जार ।' -अर्थात उनको प्राण ही समझ पाता है, ' मैं ' उनको जान गया हूँ, ऐसा मुख से कहने वाला अहं तो उस प्रलय (निर्विकल्प समाधि) में ही लीन हो गया था, अब कौन कह सकता है ? श्रीरामकृष्ण इसी बात को इस प्रकार कहते हैं- ' एकमात्र ब्रह्म ही अनुच्छिष्ट हैं, उनको कोई मुख से नहीं कह सकता है, सारे शब्द (नाम ), सारे शास्त्र जूठे हो गये हैं, किन्तु ब्रह्म अभी तक जूठा नहीं हुआ ।'
क्योंकि वे इस भौतिक जगत में दिखाई देने वाले किसी लौकिक पदार्थ के जैसा कोई वस्तु या भौतिक-पदार्थ नहीं हैं; इसीलिए उनको वाणी के द्वारा व्यक्त व्यक्त नहीं किया जा सकता, कोई हजार मुखों से भी उनका वर्णन नहीं कर सकता.
हमलोग अपनी पञ्च इन्द्रियों के माध्यम से केवल भौतिक पदार्थों की ही धारणा कर सकते हैं. जैसे इस वस्तु का इतना भार या इतना वजन होगा, इसका आकर ऐसा है,  इसका यह रूप है, इसमें ऐसे गुण हैं, इसके साथ अन्य वस्तु का सम्पर्क हो सकता है इत्यादि बातों को ही हम अपने मन के द्वारा धारणा के सकते हैं. 
मनुष्य अपने मन में जितनी बड़ी से बड़ी या सबसे वृहत वस्तु की धारणा कर सकता है, वे उन सबसे भी वृहत हैं, इसीलिए मन से विचार करके उनके बारे में धारणा बना पाना संभव नहीं है. फिरभी हताश होने की जरूरत नहीं है, कोई व्यक्ति यदि इसी प्रकार उनके बारे में सुनता रहे, या इसी विषय पर बार बार परिचर्चा करता रहे, तथा (चारो महावाक्य पर ) गहराई से मनन करता रहे, तो वैसा करते-करते उनके बारे में थोड़ी धारणा अवश्य हो सकती है. 
इसके लिए, बीच बीच में (निर्जन में- अर्थात कैम्प में जाकर) आत्मचिन्तन करते रहना चाहिए-" यह ठीक  है कि ब्रह्म क्या हैं, उनके बारे में मैं नहीं जानता. किन्तु ऐसी बात भी नहीं है, कि उनके बारे में मैं बिल्कुल कुछ भी नहीं जानता. मैं यह दावा तो नहीं कर सकता, कि मैंने ब्रह्म को पूर्ण रूप से जान लिया है, किन्तु यह भी नहीं कह सकता कि मैं ब्रह्म के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूँ." इस प्रकार का चिन्तन-मनन, करते रहना आवश्यक है.
 यही बात प्रत्येक उपनिषद में कही गयी है. " ब्रह्म सर्वव्यापी हैं, वे सर्वदा निश्चल होते हुए भी, सर्वदा द्रूत गति से गमन करते हैं. वे यहीं हैं, वे दूर से दूर भी हैं. वे कान नहीं रहने से भी सुन सकते हैं, आँखें नहीं रहने से भी देख सकते हैं, वे जीभ के बिना होने पर भी, समस्त बातें, समस्त शब्द उन्हीं से निर्गत होते हैं, समस्त इच्छाएँ वहीँ से आ रही हैं, वे समस्त सृष्टि का मूल हैं. वे कानों के भी कान हैं, मन के भी मन हैं. सम्पूर्ण सृष्टि उन्हीं में विलीन हो जाएगी. वे मेरे भीतर भी हैं, और मेरे बाहर भी हैं. जो कुछ भी विश्व-ब्रह्माण्ड मैं देख रहा हूँ, सबके भीतर वे ही अवस्थित हैं. वे प्रत्येक जीवों में हैं, प्रत्येक प्राणी के भीतर में हैं, प्रत्येक मनुष्य में वही हैं. ऐसा कुछ भी नहीं है, जो वे नहीं हैं."
यदि कोई पूर्ण श्रद्धा के साथ इसी बात पर मन ही मन विचार करता रहे, तो उसका क्या होगा ? उसका हृदय तथा उसकी दृष्टि क्रमशः विस्तृत होती रहेगी. अब वह उनके संबन्ध में क्या सोचेगा ? यही-कि वे सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, वे सत-चित-आनन्दमय हैं. शंकराचार्य ने कहा है- 
दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत ।
        सा   दृष्टि   परमोदारा न नासाग्रविलोकिनी ।।
सत - का अर्थ क्या हुआ ? यही, की वे हैं. (सचमुच यह विश्वास होना कि दिन में सितारे नहीं दिखाई देने से भी वे हैं, रात्रि में अवश्य निकल आएंगे. या बाबूजी अँधेरे कमरे में सो रहे हैं, उनको ढूंढ़ते ढूंढ़ते हाथ पहले जंगला पर पड़ गया, नहीं ये बाबूजी नहीं हैं, पलंग पर पड़ा ये भी नहीं हैं, बाबूजी पर हाथ पड़ गया, तो हम निश्चिन्त हो गये कि बाबूजी हैं.) 'अस्ति ' का भाव, वे हैं के भाव को ' सत ' कहते हैं.
 असत का अर्थ है, जो तीन काल में नहीं हो सकता. वास्तव में ' सत-असत-मिथ्या ' पर चिन्तन-मनन  करने का अर्थ अच्छा-बुरा में अन्तर करना नहीं है,उसका अर्थ है- वे हैं ! वे चित स्वरुप हैं. वे ' Consciousness ' हैं, वे चैतन्य (अभिज्ञता ) हैं, वे चिति हैं. दुर्गा सप्तसती में कहा गया है- ' या देवी सर्वभूतेषु चिति-रूपेण संस्थिता ।' वे चिति या बोधस्वरूप हैं, वे सभी वस्तुओं में बोधस्वरूप हैं. एवं वे आनन्दमय हैं.
 आनन्द को कैसे समझा जाता है ? जब आनन्द का प्रवाह होता है, तो वह प्रेम के रूप में ही प्रवाहित होता है. इसीलिए हम इस प्रकार ब्रह्म के उपर चिन्तन करते रहें- कि वे सर्वत्र हैं, सर्व जीवों में हैं, वे सर्व लोकों में हैं, फिर वे ही सर्व लोकों का अतिक्रमण करके भी हैं."
" वे मेरे भीतर हैं और मेरे बाहर भी वही हैं. जो सदा-सर्वदा हैं वे सत-स्वरूप हैं, जो चिन्मय हैं, जो चितस्वरूप हैं, जो विचार स्वरूप हैं, जो बोधस्वरूप हैं, जो आनन्दमय हैं, जो कई धाराओं में प्रेमरूप से प्रवाहित होकर सबों का आलिंगन करते हैं, वे सबों के भीतर रहते हुए, मेरे भीतर भी हैं."
जो भी व्यक्ति इन बातों के उपर चिन्तन करता है, उसके भीतर घृणा नहीं रह सकती, वह किसी से  द्वेष नहीं करता,उसमें हिंसा नहीं रहती, स्वार्थपरता नहीं रहती, शक्तिहीनता नहीं रहती. उसके भीतर की शक्ति जाग्रत हो जाती है, उसके हृदय में ज्ञान का उन्मेष हो जाता है, एवं सर्वग्रासी प्रेम उसके अन्तर से प्रवाहित होकर सबों का आलिंगन करता है. 
यही है मनष्य बनने का सच्चा तरीका, एवं जगत-कल्याण का वास्तविक उपाय भी यही है. आजकल के कुछ विदेशी मनीषी, और ठेठ-विदेशि भाषा की कुछ पुस्तकों को पढ़े-लिखे तथाकथित कुछ देशी बुद्धिजीवी लोग, जिन्होंने इन बातों को कभी अपने जीवन में सुना भी नहीं है, या कभी इसके उपर परिचर्चा करने की कोई चेष्टा भी यदि नहीं किया है,और वैसे लोग ही अगर यह फतवा देने लगें, कि यह सब झूठी बात है, भ्रामक है-भ्रम में डालने वाली बातें हैं, कपोल-कल्पित बातें हैं, और उन पढ़े-लिखे मूर्खों की बातों को सुन कर हमलोग यह मानने लग जाएँ, कि सचमुच हमारे उपनिषदों में ज्ञान की बातें हैं ही नहीं, तो फिर हमलोगों के दुःख-कष्टों को दूर करने की शक्ति सम्पूर्ण त्रिलोकी में किसी के पास नहीं है. वैसे जो पढ़े-लिखे मूर्ख ऐसी बकवास करते हैं, उनके संबन्ध में शंकराचार्य ने कहा हैं-
स्वात्मानं शृणु मुर्ख त्वं श्रुत्या युक्त्या च पुरुषम ।
देहातीतं सदाकारं सुदूर्दर्शं भवादृशै : ।।
-अर्थात, हे मुर्ख ! श्रुतियों (वेद-उपनिषद आदि) में तुम्हारी अपनी आत्मा को ही पुरुष कहा गया है, उनके बारे में सुनो एवं उनको तर्क-वितर्क की सहायता जानने की चेष्टा करो. यह आत्मा देहातीत हैं (केवल शरीर नहीं हैं), अस्तित्व के आकर एवं स्वरुप को समझ पाना तुम्हारे जैसे बुद्धि-सम्पन्न व्यक्तियों के लिए समझ पाना सचमुच बहुत दुष्कर है. 
ऐसा दृढ विश्वास रखना ही यथार्थ श्रद्धा है, यही वास्तविक आध्यात्मिकता है. आत्मा पर विश्वास, अपनी शक्ति के उपर विश्वास रखो. स्वयं में जो शक्ति है, वह कहाँ से आ रही है ? मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मैं शक्तिमान हूँ. मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मुझमें ज्ञान का प्रस्फुटन होता है. मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए तो मैं आनन्द का अनुभव करता हूँ. मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मैं मनुष्यों से प्रेम कर सकता हूँ. प्रेम हृदय से प्रेम प्रवहित हो सकता है. यह सच्चिदानन्दमय आत्मा मेरे भीतर हैं, इसी विश्वास को हृदय में धारण करके जीवन जीना ही आध्यात्मिकता है. 
केवल यह आध्यात्मिकता ही सच्चा साम्यवाद (Communism - या सब वस्तुओं में सबका समानाधिकार रखने का सिद्धान्त) स्थापित कर सकती है.जोलोग शोषित, मुर्ख, दरिद्र है, गरीबी से त्रस्त और पददलित हैं, सताये हुए हैं और भूखों मर रहे हैं- यह आध्यात्मिकता ही वैसे लोगों के चेहरे पर भी हँसी खिला सकती है.  
इसी ज्ञान, इसी  शक्ति, इसी आध्यात्मिकता को यदि भारत के जनसाधारण के भीतर जाग्रत नहीं कराया जा सका- तो उनके चेहरों पर हँसी खिला पाना कभी संभव नहीं होगा. एवं भारत के गाँवों की झोपड़ियों में रहने वाली आम-जनता के बीच इस प्रकार के सच्चे साम्यवाद या आध्यात्मिकता को स्थापित नहीं करने से भारतवर्ष का पुनर्निर्माण कभी संभव नहीं हो सकेगा, फलस्वरूप सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्यों की उन्नति भी संभव नहीं हो सकेगी. इसीलिए समाज के नीतिनिर्धारकों को सम्पूर्ण पृथ्वी के विकास के लिए इसी आध्यात्मिकता या सच्चे साम्यवाद की शरण में जाना ही होगा.
 स्वामी विवेकानन्द, जगन्माता माँ सारदा एवं ठाकुर श्रीरामकृष्ण ने इसी सच्चाई को अपने जीवन (धन का आभाव तथा ग्रामीण परिवेश के जीवन) द्वारा प्रदर्शित किया है, अपनी अमृतमयी वाणी से इन्हीं बातों का उल्लेख कई प्रकार से किया है-और किस लिए किया है ? जगत के कल्याण के लिए किया है. इसके अलावा उनका कोई दूसरा उद्देश्य नहीं था. सम्पूर्ण जगत का कल्याण हो सके, इसीलिए हमलोगों की आँखों के सामने उन लोगो ने अपने जीवन-लीला का मंचन किया था.
हमलोग उनके इतने निकट (भारत में जन्मे हैं) रहे हैं, इसीलिए उनकी लीलाओं को विभिन्न प्रकार से सुन पा रहे हैं. यदि हमलोगों में थोड़ी सी भी सद्बुद्धि बची हुई हो, तो हमलोग इस परमसुन्दर आदर्श को अपने जीवन में धारण करने की चेष्टा अवश्य करेंगे. पर केवल अपनी मुक्ति, अपने आनन्द, अपने सुख के लिए नहीं, बल्कि भारत के जनसाधारण के लिए, विश्व के समस्त मनुष्यों का कल्याण साधित करने की इच्छा से करें.
मनुष्यों के कल्याण के लिए- हमलोग अपने जीवन की समस्त शक्तियों को उद्घाटित कर सकें, उन्हें जाग्रत कर सकें, उस अनन्त प्रेम को अनेकों धाराओं में प्रवाहित-प्रस्फुटित या अभिव्यक्त करके
अपने जीवन को सार्थक बनाकर अन्त में हँसते-हँसते इस जगत से प्रस्थान कर सकें; ठाकुर-माँ-स्वामीजी हम सभी लोगों को यही आशीर्वाद दें !                                   

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