गुरुवार, 24 मई 2012

राष्ट्र-गठन का प्राथमिक कार्य है-चरित्र-निर्माण ! [14] परिप्रश्नेन

१४. प्रश्न : हमारे देश के बहुत से लोग ' गरीबी की सीमा-रेखा ' से नीचे (BPL) वास करते हैं, जिनको दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती, जिनके पास सिर छुपाने के लिए छत भी नहीं है. उन समस्त व्यक्तियों के लिए पहले उपयुक्त परिमाण में न्यूनतम उपभोग की वस्तुओं को उपलब्ध कराय बिना, उन्हें गरीबी रेखा से ऊपर उठाये बिना उनकी आत्मोन्नति कैसे सम्भव हो सकती है?

उत्तर : हमारा ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है कि गरीबों की दरिद्रता को दूर करने की चेष्टा न कर, केवल  उनकी आत्मोन्नति की चेष्टा ही करनी होगी। श्रीरामकृष्ण एवं स्वामी विवेकानन्द दोनों ने कहा है- ' खाली-पेट में  धर्म नहीं होता है।' गरीबों की दरिद्रता को दूर करने की चेष्टा अवश्य करनी होगी. किन्तु यही करना महामण्डल का प्राथमिक कार्य नहीं है। हमलोगों का प्राथमिक कार्य है- युवाओं की आत्मोन्नति, जीवन-गठन, उनके चरित्र का निर्माण करना। 

यदि इसी कार्य को बहुत बड़े पैमाने पर, देश के गाँव-गाँव में फैला दिया जाय तो ऐसे बहुत से योग्य मनुष्य निर्मित हो जायेंगे, जो अपने विभिन्न कार्यों को पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ सम्पादित करेंगे, उनके स्वाभाविक कार्यों के द्वारा भी देश की दरिद्रता, अज्ञानता इत्यादि बुराइयाँ बहुत हद तक दूर होंगी।हमलोगों के देश में स्वाधीनता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया है, इसीलिए देश में इतनी दरिद्रता है, समाज में अच्छाई के बदले हर क्षेत्र में अनैतिकता ही दिखाई दे रही है.

स्वामीजी ने देश की उन्नति के लिए जो परामर्श दिए थे, भारत के पुनर्निर्माण के लिए जैसी उनकी योजना (Be and Make ) थी-वह सब किसी के सिर में घुसी नहीं, या किसी ने उन्हें स्वामीजी से सीखने की भी चेष्टा नहीं की.इसीलिए यह सब घोटाला मच रहा है. दरिद्रों को उपभोग की वस्तुओं देने की योजनाओं के द्वारा भ्रष्टाचार मिटाना संभव नहीं है। यदि गरीबी दूर करने की योजनाओं (नरेगा आदि) को चलते रहने से, उस कार्य में लगे- पढ़े-लिखे, ऊँची डिग्री प्राप्त, अफसर,नेता, कर्मचारी, व्यापारी लोग भी ईमानदार भी बन जाते, तो क्या भ्रष्टाचार दूर होने में ६४ वर्ष लग जाते ? राष्ट्र-गठन का प्राथमिक कार्य है-चरित्र-निर्माण !परिप्रश्नेन 

गरीबों तक उनका हक या उचित सहायता राशी कौन पहुँचायेगा? वैसा ईमानदार मनुष्य कहाँ से आयेगा ? रुपया कहाँ से आयेगा ? सरकार के खजाने में उतना रुपया है ? भारतवर्ष तो दिवालिया होने की कगार पर खड़ा है ! देश के उपर  हजारों कड़ोड़ रुपयों के विदेशी ऋण में क्रमशः वृद्धि हो रही है. देश के लोग अपने देश के प्रति 
 कर्तव्यनिष्ठ नहीं हैं, देश से प्रेम नहीं करते, काले धन के प्रेमी हैं। इसीलिए तो ऐसी अवस्था हो गयी है. यदि किसी उपाय से देश के लोगों का, युवाओं का चरित्र निर्मित हो जाये, वे लोग यदि कर्तव्यपरायण हो, वे यदि देशवासियों से प्रेम कर सकें, और यदि ऐसे युवा हजारों की संख्या में निर्मित कर लिए जाएँ, तभी देश की दशा में परिवर्तन हो सकता है।
इस प्राथमिक कार्य (युवाओं का चरित्र-निर्माण ) को किये बिना, जिनके पास खाने के लिए नहीं है,  उनको थोडा सस्ता राशन देने, या जिनको सिर छुपाने की जगह नहीं है, उनको थोडा सस्ता आवास बना देने से, देश की कभी उन्नति नहीं होती, होना संभव भी नहीं है. यदि होना संभव होता, तो क्या ६४ वर्ष यूँ ही बीत जाते ? 

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