बुधवार, 31 अगस्त 2011

14."भारत-प्रेमी अभेदानन्द " (प्रचारक अभेदानन्द- १६)

14.भारत-प्रेमी अभेदानन्द
  श्रीश्रीठाकुर (श्रीरामकृष्ण ) के दीर्घकालीन तपस्या की घनीभूत शक्ति - उनके जिन मुट्ठी भर सन्यासी-शिष्यों के माध्यम से इस विश्व के समक्ष प्रकट हुई थी, स्वामी अभेदानन्दजी भी उनमें से एक थे. उन जैसे विराट महापुरुष की जीवन के सम्बंध में कुछ लिखने या बोलने की कोशिश करना, सामान्य श्रेणी के मनुष्यों के लिए एक प्रकार की धृष्टता ही मानी जाएगी. किन्तु जिन लोगों को उनके यथार्थ-जीवन को निकट से देखने या उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला है, वे यदि प्रयास करें तो कुछ कह सकते हैं. फिर भी वे जिन मौलिक उपदेश- संग्रह और एवम् रचनाओं को पीछे छोड़ गये हैं, उनको ही आधार बना कर इस निबन्ध को लिखने का प्रयास किया जा रहा है. उनके अलौकिक महान चरित्र का अनुसरण करने तथा उनके सम्बंध में कुछ चर्चा करके धन्य होने की आशा से इस निबन्ध को लिखने का प्रयास किया जा रहा है.
भारत में किसी भी युग में साधु-सन्त, ऋषि-मुनि, योगी-तपस्वी का अभाव नहीं रहा है, किन्तु उनका आदर्श व्यष्टि के भीतर ही सीमाबद्ध था, संन्यास के आदर्श को समष्टीगत या राष्ट्रिय-स्तर पर कभी ग्रहण किया गया था या नहीं, इसमे सन्देह है.
फिर भी आज समाज के प्रत्येक स्तर के मनुष्यों के भीतर, स्वामी विवेकानन्द और स्वामी अभेदानन्द के आदर्श से, कुछ न कुछ व्यक्ति अवश्य ही अनुप्रेरित पाये जाते हैं. दरिद्र से लेकर धनी व्यक्तियों में से कोई भी व्यक्ति उनके आदर्श को ग्रहण करने में कुंठित नहीं होता.बालक, वृद्ध, ब्राह्मण, शूद्र, आदि का विचार किये बिना, सम्पूर्ण मानवता इनकी विचारधारा से कुछ न कुछ अवश्य लाभान्वित हुई है.
   इनदिनों राष्ट्रीय और सामूहिक स्तर पर भारत के समस्त राज्यों के मनीषी ( नेताजी सुभाषचन्द्र, अन्ना हजारे आदि )  उनके आदर्श को ग्रहण करते नजर आ रहे हैं, तथा इनके अध्यात्मिक-चरित्र और आदर्श से अनुप्रेरित होकर, एवं उनके व्यक्तित्व को साँचा मान कर  अपना जीवन् गठित करने का अवसर पा रहा है.
 इसके मूल कारण का अन्वेषण करने में ध्यान केन्द्रित करने से पता चलता है कि, अभेदानन्दजी के जीवन् में त्याग, तपस्या, ईश्वर के साथ एकत्व की अनुभूति ही इसका मुख्य कारण हो सकता है.
क्योंकि साधारण लोगों में से कितने लोग साधना के निर्विकल्प-सविकल्प समाधि के विषय में जानते हैं, या कितने लोग ऐसी किसी अवस्था में विश्वास करते होंगे? यदि सामान्य धर्मोपदेशकों के समान केवल न्यास, प्राणायाम, ध्यान-धारणा को ही जीवन् का सार समझ कर, साधारण लोगों को सदैव उसीका उपदेश देना उनका भी कर्तव्य होता तो, उनके चरित्र को आदर्श मान कर, इतने दिनों तक सभी श्रेणी के लोग ईश्वर की ओर अग्रसर हो पाते या नहीं इसमें सन्देह है.  इसीलिए इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि, इनके तपोपूत जीवन के अतिरिक्त भी इनके चरित्र में और भी कुछ विशेषता अवश्य थी, जिसके फलस्वरूप मनुष्य उनके जीवन-दर्शन को अपने मार्गदर्शक के रूप में आज भी अनुसरण कर रहा है. व्यक्तिजीवन में या समष्टिजीवन में यहाँ तक कि, राष्ट्रीय तथा सांस्कृतिक जीवन में भी इनका जीवनदर्शन और व्यवहार कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य डाल रहा है.    
इसके अलावा यदि तार्किकतावादी समाज के दृष्टिकोण से विचार करें, तो जानना चाहेंगे कि आखिर ऐसा कौन सा काम उन लोगों ने किया था, या क्या कहा था- जिसके कारण आज के मनीषी भी उनको अपना
 आदर्श मानते हैं ? हम पाते हैं कि मुख्यतः उनलोगों ने सभा-सम्मेलनों का आयोजन किया था, या देश-विदेश में घूम-घूम कर व्याख्यान दिए थे, या कभी आवश्यकतानुसार विभिन्न देशों के मनीषीयों के संग एक ही मंच पर बैठ कर, विभिन्न सिद्धान्तों पर विचार-विमर्श किए थे. उस परिचर्चा में भगवान के साथ एकत्व अनुभूति की बातें हैं, या ध्यान-धारणा-समाधि की बातें हैं, एवं सर्वोपरि - राष्ट्र के चिरंतन समस्त सामाजिक समस्याओं का मौलिक समाधान- ' मनुष्य-निर्माण और चरित्र निर्माण ' की बातें हैं. 
किन्तु केवल भारत की समस्त समस्याओं के मौलिक कारणों का उल्लेख कर के ही वे थमे नहीं थे, बल्कि स्वयं को उदाहरणस्वरूप यथार्थ ' मनुष्य ' के रूप में गठित कर, अर्थात भक्ति-मुक्ति को सिर पर रख कर वे वीर-कर्मी के वेश में ' बहुजन हिताय बहुजन सुखाय ' ( रामकृष्ण-विवेकानन्द भावान्दोलन का प्रचार-प्रसार के माध्यम से ) सामाजिक कल्याण के कर्मक्षेत्र में भी अवतीर्ण हुए थे. एवं सभा-सम्मेलनों में गंभीर स्वर में व्याख्यान देकर  वेदान्त की प्राण-स्पर्शी अमृतमय श्रेष्ठ उपदेश, शाश्वत जीवन् प्राप्ति के मंत्र को मानवजाति की कर्णगूहाओं तक पहुँचा दिया था. अभेदानन्दजी इन्हीं सब उपायों की सहयता से ' मानव-आत्मा के उत्तरण ' की सहायता से ' भारत-आत्मा की मुक्ति के पथ ' को भी ज़ंजीरों से मुक्त करना चाहा था.  यह तो हुई उनके साधन-स्वाध्याय के द्वारा अर्जित सेवा-व्रत जीवन का एक पक्ष.
इसके अलावा भी अभेदानन्दजी के स्वदेश-प्रेम का और एक दूसरा पक्ष भी था. सामाजिक दृष्टिकोण से देखने पर उनका वह अवदान उन्हें एक विशिष्ट आसन पर आरूढ़ कर देता है.शस्त्रों के अनुसार सर्वत्याग के व्रत से दीक्षित सन्यास ग्रहण करने के बाद प्रकट रूप से राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेना नीतिविरुद्ध माना जाता है.
  किन्तु अपने देश और उसके निवासियों का सच्चा  परिचय पाश्चात्य जगत के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए और भारतीय समाज-व्यवस्था की भ्रांत धारणा को पाश्चात्य जगत् के मन से दूर करने के लिए- जब हमलोग उनको विभिन्न तथ्यों का संकलन करने के उद्देश्य से,विश्व-विख्यात ग्रंथालय- ' ब्रिटिश म्यूज़ियम ' में बैठ कर रात-दिन ध्यानपूर्वक गहन अध्यन करने में व्यस्त रहते और अथक परिश्रम करते देखते हैं, तब क्या हम ऐसा  सोंचने पर विवश नहीं हो जाते कि, सचमुच इस भारतीय तरुण सन्यासी का स्वदेश-प्रेम और समाज-प्रेम कितना गहरा रहा होगा  ! 
  इसके साथ ही साथ उनका आध्यात्मिक-व्यक्तित्व एवं मनीषा की बात सोचने से ह्मलोगों का सिर श्रद्धा से स्वतः ही झुक जाता है तथा ह्म उनको अपना पथ-प्रदर्शक मानने के लिये बाध्य हो जाते हैं. इसके अलावा जब अभेदानन्दजी अमेरिका के भाषण मंच से भारतीय अध्यात्मिक-जीवन संबंध में व्याख्यान देते हुए सुनते हैं, तब वहां भी उनका स्वदेश-प्रेम झलक उठता है.
  विश्व के ' समस्त धर्मों का तुलनात्मक अध्यन ' विषय पर अमेरिका के विभिन्न सभाओं में स्वामी अभेदानन्दजी ने  भारतवर्ष के धर्म और दर्शन के सार्वभौमिक ज्ञानमय रूप को- पाश्चात्य  श्रोताओं के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत किया था-
" Our religion and philosophy are absolutely universal, that we have inherited from our ancient forefathers,who were mantra-drashtas,i.e. the seers of Truth....Our religion and philosophy have civilized the nations of different countries,whether of Asia, or of Europe, whether directly or indirectly.


Spiritual ideals of the highest nature first arose from the heart of India and then traveled westwardand eastward.....The spirituality which we have inherited through our wonderful religion  and philosophy is known under the name of - Vedanta. "
-" ह्मलोगों ने अपने धर्म और दर्शन को अपने उन प्राचीन पूर्वजों से प्राप्त किया था, जो ' मंत्र-द्रष्टा ' थे, इसका तात्पर्य होता है- ' सत्य का साक्षात्कार ' करने वाले- या ऋषि...ह्मलोगों का धर्म और दर्शन नीतान्त सार्वभौमिक हैं. हमारे देश के धर्म और दर्शन ने विश्व के कई देशों को, चाहे प्रत्यक्षतः हुए हों या अप्रत्यक्ष रूप से, चाहे वे एशिया के देश रहे हों या यूरोप के सभ्य बनाया है. यह ह्मारा भारत देश ही है, जिसके हृदय में-सर्व प्रथम  सर्वोच्च श्रेणी के आध्यात्मिक आदर्श  जाग्रत हुये थे, और वही भावधारा यहाँ से निकल कर पश्चमी और पूर्वी गोलार्धों तक प्रसारित हुई थी...एवं उस  ' अध्यात्मिकता ' को ' वेदान्त ' के नाम से जाना जाता है, जिसे हमने अपने अद्भुत धर्म और दर्शन से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त किया है.
  इसके अलावा स्वामी अभेदानन्दजी के कई अन्य व्याख्यानों में भी उनकी गहरी देश-भक्ति का पता चलता है. वे अनुभव करते थे कि भारतवर्ष की राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता इसी  शाश्वत वेदान्त के पथ और आदर्श के अनन्त परिधी के बुनियाद पर ही टिकी हुई है. 
इसीलिए देशप्रेमी अभेदानन्दजी भारत की दुर्गति और दुर्दशा को देख कर व्यथित हो गये थे. उनकी अंतर-आत्मा ने भारत की आर्थिक समस्याओं का समाधान भी ढूँढ निकाला था. इसलिए १४ सितम्बर १९०९ ई० को कोलकाता के कर्जन-थियेटर में छात्र-सम्मेलन में उनके प्राणों में जोश भरने वाला एक व्याख्यान दिया था.
 उस भाषण में उन्होंने कहा था- " ध्यान रखना कि यह ' स्वदेशी-आन्दोलन ' केवल नारों तक ही सिमट कर न रह जाये;  ह्मलोगों को अपने हस्तशिल्प (बुनकरों ) को फिर से उन्नत करना ही पड़ेगा ! सैंकड़ों शताब्दियों से हमारे देश का हस्तशिल्प उपेक्षित होता आया है. किन्तु आज हमारी आँखें खुल चुकी हैं- हमलोग यह समझ गये हैं कि, यदि हस्तशिल्पकारी (बुनकरों )को उन्नत नहीं किया गया तो हमारे देश का पतन अनिवार्य है. "
 भविष्य-द्रष्टा अभेदानन्दजी ने दुर्दशग्रस्त भारतवर्ष को देखा था एवम् उसको हटाने के लिए आर्थिक समस्या को हल करने का मार्ग भी दिखा दिया था. ( जिसको अपना कर अन्ना हज़ारे ने अपने ग्राम रालेगाँव सिद्धि  को एक उन्नत गाँव में बदल दिया है) उन्होंने ठीक इसी पद्धति को अपना कर भारतवर्ष के राष्ट्रीय-जीवन् को उन्नत करना चाहा था.
 १९०६ ई० में स्वामी अभेदानन्दजी का भारत-प्रत्यावर्तन एक बार फिर से भारत-वासियों  में नयी उमंग का संचार  कर दिया था. उनके स्वागत करने में समग्र भारत वासी एकात्म बन गये थे. उस समय अभेदानन्दजी के आगमन का संपूर्ण वृतान्त ' मयसूर स्टैण्डर्ड ' पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. 
मैसूर में उनके भाषण का मूल विषय था- ' भारतवर्ष का राष्ट्रीय-जागरण '.    मैसूर के नागरिक-समाज तथा भारत वासियों को लक्ष्य करते हुए अभेदानन्दजी ने कहा था- " वेदान्त मानव मन में उच्च आदर्शों को प्रतिष्ठित करा देता है,  मनुष्य को कर्मठ और उद्द्यमशील  बना देता है. और यह वेदान्त ही है- जिसने भारत के बहु-भाषी, बहु-धर्मीय समाज को इतने दीर्घ काल से एकता के सूत्र में बांधे रखा है, किन्तु उस वेदान्त- ज्ञान को आज हमलोग भूल गए हैं - जिसके कारण भारत की राष्ट्रिय एकता आज जाती-धर्म-भाषा के नाम पर विखंडित दिखाई दे रही है " 
 भारत-सेवक अभेदानन्दजी के मर्मस्पर्शी भाषण को सुनकर श्रोताओं के हृदय में गहरी राष्ट्रीयता जाग्रत हो जाती थी. उनके भाषण के समाप्त होने पर उपस्थित-जनता स्वतः ' वन्दे-मातरम ' का नारा लगाने लगती थी. मैसूर की स्वागत सभा के उत्तर में, अभेदानन्दजी बार बार अपने अग्रज गुरुभाई स्वामी विवेकानन्द के नाम का उल्लेख किए थे, क्योंकि वे राष्ट्र-प्रेम जाग्रत कराने वाले प्रमुख प्रेरणा और शक्ति थे.
   तत्पश्चात बंगाल के नागरिक समाज को लक्ष्य करके स्वामी अभेदानन्दजी ने कहा- " अमेरिका और इंग्लैंड में जो कार्य किए गये हैं उसके सम्बंध में आपलोगों के भीतर पर्याप्त अभिगम्यता की अभिव्यक्ति को देख कर मेरे मन में विचार उठ रहे हैं कि, अब हमारे देश की उन्नति बिल्कुल आसन्न है, संभव है कि बहुत निकट भविष्य में ही ह्मारा देश विश्व का एक श्रेष्ठ राष्ट्र बन जाएगा. किन्तु, मेरे भाइयों हमारे देश को जो श्रेष्ठत्व प्राप्त होगा वह राजनीति के द्वारा नहीं बल्कि धार्मिक चेतना के द्वारा ही प्राप्त होगा.
 स्वामी अभेदानन्दजी के भारत-प्रेम के एक प्रमुख घटक के रूप में उनके ' आर्थिक विचारों ' को भी लिया जाता है. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता ही किसी देश को विकास के पथ पर आगे ले जाती है. जो लोग स्वदेश-सेवक होते हैं, उनके मन में सदैव देश की उन्नति के विचार ही उठते रहते हैं. इसीलिए ह्म देखते हैं कि, इतिहासकार सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता ने अभेदानन्दजी के सम्बन्ध  में इस प्रकार कहा  है- " First a patriot and then a philosopher. "  - अर्थात स्वामी अभेदानन्दजी पहले एक देशभक्त थे, तब एक दार्शनिक थे.
       स्वामी अभेदानन्दजी में जो भारतीय दार्शनिक अवधारणा और प्रज्ञा निहित थी, वह राष्ट्रीय-जीवन में उनके प्रभाव को और अधिक बढ़ा देती थी. उस दृष्टि से देखने पर स्वामी अभेदानन्दजी एक कार्यकुशल स्वदेशप्रेमी और राष्ट्रवादी सन्यासी दिखाई पड़ते हैं. उन्होंने  भारतमाता को  पूरे विश्व के समक्ष  अध्यात्मिक संपदा और शास्त्रबल के सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया था. इसके अलावा भारत वासियों के के भीतर ऐसी राष्ट्रीय-चेतना को जाग्रत किया था, जिसके कारण समग्र भारत में नवजगरण आया है.
केवल इतना ही नहीं, भारतवर्ष के देशभक्त नेताओं के प्रति भी स्वामी अभेदानन्दजी के मन में गहरी श्रद्धा थी. भारत के राष्ट्रीय जीवन के विषय को लेकर वे देशबन्धु चितरंजन, महात्मा गाँधी और सुभाषचन्द्र बोस के साथ विभिन्न अवसर पर परिचर्चा में भी भाग लेते रहे थे. यहाँ तक कि, देशप्रेमी रमेशचन्द्र दत्त के ग्रंथों को भी पूरे मनोयोग से अध्यन किया था. रमेशचन्द्र की पुस्तक- ' Civilization in Ancient India ', ' Economic History of India ', एवं  ' Indian in the Victorian Age '  आदि ग्रंथों से उदाहरण देकर ब्रूकलिन इंस्टिच्युट    के विभिन्न सभाओं में भारत में अँग्रेज़ी-शासन दुष्प्रभाव को सभी के समक्ष उजागर किया था.
  अभेदानन्दजी ने अपने ' India and Her People ' नामक ग्रन्थ की भूमिका में रमेशचन्द्र के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट किए हैं. यहाँ पर इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि, अमेरिका में अभेदानन्दजी द्वारा दिए गये भाषणों के बहुत से अंश मुंबई में ब्रिटिश सरकार को आपत्ति जनक प्रतीत हुआ, तब उन्होंने इस ग्रंथ को क़ानूनी तौर से निषिद्ध घोषित कर दिया.
  इसके अलावा यह भी उल्लेखनीय है कि १९०६ ई० में राष्ट्रीय आन्दोलन के फलस्वरूप जब देश के अधिकांश नेतागण जेल में दल दिए गये थे, तो उस समय उनको अनुप्रेरित करने के उद्देश्य से,  मात्र एक वर्ष के लिये, अमेरकी शिष्यों तथा छात्रों से विदा लेकर,  अभेदानन्दजी भारत में पदार्पण किए थे. लंका से कश्मीर तक उत्साहवर्धक भाषणों की सहयता से देशवासियों के मन में एक आलोडन उत्पन्न कर भारत वासियों को जाग्रत करके पुनः पाश्चात्य की यात्रा पर चले गये थे.
  उनके इस धूमकेतु के समान अचानक भारत में आविर्भुत होने का मूल कारण सभी लोगों के आँखों के समक्ष उजागर हुआ हो या नहीं, किन्तु इसके पीछे एक गंभीर उद्देश्य अवश्य  निहित था.  जिसके फलस्वरूप हमारे राष्ट्रीय जीवन में पर्याप्त उन्नति हुई है. क्योंकि जो नेता अपनी निजी इच्छाशक्ति को विराट- इच्छाशक्ति के साथ एकीभूत करके,  महामाया जगदम्बा के विराट कर्म का यंत्रस्वरूप बनकर- जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे थे; वैसे लोगों द्वारा अब वैसा कोई कार्य करना संभव नहीं, जिससे जगत का सार्वभौमिक कल्याण प्रभावी रूप से साधित न होता हो. 
   इसीलिए स्वामी अभेदानन्द जी का कठोर तपस्यादीप्त जीवन केवल भारतीय अध्यात्म-साधना के प्रवाह को ही परिपुष्ट नहीं करती है, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन और साधना को भी समृद्ध करने की प्रेरणा देती है. एवं आने वाले समय में भी, विश्व उनके इस अनुप्रेरक वाणी को अकुंठ चित्त से ग्रहण करने के लिए, प्रतीक्षा कर रहा है. क्योंकि यह वाणी नीत्से के किसी - ' अतिमानव ' अवतार की वाणी नहीं है, मार्क्स और लेनिन के जड़वाद की वाणी नहीं है.- वह वाणी चैतन्य की वाणी है, जागरण की वाणी है; भगवान श्रीरामकृष्ण के सर्वधर्म -समन्वय की वाणी है- नवचेतना की वाणी है.
      इसलिए भगवान श्रीरामकृष्ण का ' समन्वय आदर्श ' - कर्मयोगी स्वामी विवेकानन्द का ' सेवायोग ' और ज्ञानी स्वामी अभेदानन्द का प्राणों को जाग्रत करने वाला ' अभिः  मन्त्र '  केवल बंगाल तथा भारत की ही संपदा नहीं है, वरन संपूर्ण जगत के समस्त मानव जाती की मुक्ति का सोपान स्वरूप है.
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' ভাবমুখে ' পত্রিকায় প্রকাশিত ' भावमुखी ' पत्रिका में प्रकाशित      
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रविवार, 28 अगस्त 2011

13." स्वामी अभेदानन्द के प्रिय सुभाषचन्द्र " (प्रचारक अभेदानन्द - १५)

13.स्वामी अभेदानन्द के प्रिय नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
 श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग लीला पार्षदों में स्वामी अभेदानन्दजी एक प्रमुख स्थान रखते हैं. भारतीय शाश्वत-सनातन ' सार्वभौमिक-धर्मादर्श ' के जिस विजय-विजयन्ती को उनके गुरु-भाई विवेकानन्द ने पाश्चात्य भूमि पर लहराया था, उस प्रवाह को अक्षुण्ण बनाये रखने का उत्तरदायित्व उन्होंने अपने अनुज अभेदानन्द को सौंपा था. स्वामी अभेदानन्दजी ने पूरी निष्ठा के साथ इस भारी उत्तरदायित्व का पालन सुदीर्घ २५ वर्षों (१८९६-१९२१) तक किया एवं पाशचतय भूमि पर, इसकी एक सूदृढ़ बुनियाद खड़ी कर दी थी.
उनहोंने भारत के ' सर्वजनीन- वेदान्त ' के उदार और सर्वलौकिक सनातन धर्म-दर्शन के सूतीक्ष्ण यूक्ति-तर्क पूर्ण व्याख्या के आलोक में ही इस पाश्चात्य-विजय अभियान में सफलता प्राप्त की थी.
 Charles Malloy, Swami Abhedananda, 
Ralph Waldo Trine, and Charles Brodie Patterson at Green Acre, Eliot, Maine,
पाश्चात्यवासी उनकी उस प्रबल तर्कपूर्ण शाशत्रार्थ  को सुन कर मुग्ध हो गये थे, तथा उनको स्वामीजी के योग्य उत्तराधिकारी के रूप में पहचाना  था. कहना न होगा कि उन्हीं की प्रबल प्रचेष्टा से पाश्चात्य में वेदांत-प्रचार के कार्य में सफलता मिली थी. तत्पश्चात वे १९२१ ई० में भारतवर्ष लौट आए थे, एवम् यहाँ भी विभिन्न प्रदेशों में श्रीरामकृष्ण भावप्रचार कार्य में आजीवन रत रहे थे. 
प्रचारक स्वामी अभेदानन्दजी महाराज इधर आध्यात्म-साम्राज्य के अधिपति थे. श्रीरामकृष्ण के लीलासहचारों में से प्रायः सभी एक एक कर इस धरा-धाम को छोड़ कर लीला-संवरण कर लिए थे. उनमें से केवल अभेदानन्दजी ही कोलकाता में रह रहे थे. यह २५ अगस्त १९३८ की बात है. उस समय अभेदानन्दजी रामकृष्ण वेदान्त मठ के संस्थापक अध्यक्ष थे. और देशनायक सुभाषचन्द्र बोस राष्ट्रीय कांग्रेस के सभापति थे. दोनों अपने अपने क्षेत्रों में मुख्य-भूमिका को निभा रहे थे. उन दोनों का कार्य-क्षेत्र अलग होने पर भी,  निर्माणकारी सार्वभौमिक कल्याण-कारी कार्यों, - ' बहुजनहिताय बहुजनसूखाय ' व्रत में दोनों का मन-प्राण समर्पित था. उनलोगों की हृदय-वीणा मानो एक ही लय के समस्वर में मुक्ति-आन्दोलन का अनुकंपन बन कर गूँज रहे हैं. दोनों एक दूसरे के आत्मा के आत्मीय थे. 
एक की आत्मा दूसरे से जुड़ी हुई थी. एक का दूसरे पर जब स्नेह बिल्कुल सच्चा था, तो उन दोनों में भेंट होना भी अनिवार्य रूप से आवश्यम् भावी था. स्वामी अभेदानन्दजी तब थोड़ा अस्वस्थ थे. कोलकाता के रामकृष्ण वेदान्त मठ के दूसरे तल्ले पर रह रहे थे, डाक्टर ने उनको नीचे चढ़ने-उतरने को मना कर दिया था. एक दिन अपने सेवक संन्यासी को बुला कर महाराज ने कहा- ' देखो, राष्ट्र-गौरव सुभाषचन्द्र को देखने की बहुत इच्छा हो रही है, क्या उनको इसकी सूचना दे सकते हो?' महाराज की इच्छा और निर्देश को सुभाषचन्द्र के पास पहुँचा दिया गया.
सूचना मिलते ही, सुभाषबाबू ने संदेश भिजवाया कि वे यथा शीघ्र महाराज को देखने और श्रद्धा प्रकट करने के लिये आएँगे. यह खबर मिलते ही, अभेदानन्दजी आनन्द से भर उठे, और सुभाषचन्द्र से मिलने के लिये हर क्षण अधीर हो कर प्रतीक्षा करने लगे. २५ अगस्त १९३८ को रात ८ बजे धोती-कुर्ता धारण किये एक सज्जन व्यक्ति को मठ में देखते ही, महाराज बोल पड़े- ' सुभाष, आओ मैं तुम्हें अपने सीने से लगा लूँ.' वे उनको पहले कभी देखे नहीं थे, किन्तु कैसे उन्हें पहचान लिये, कोई नहीं जानता. 
उन दोनों के आपस में मिलने का दृश्य बड़ा विलक्षण और असाधारण था. वैसे आश्चर्य-पूर्ण मिलन दृश्य को देखने मात्र से दोनों आखें जुड़ा जातीं हैं. वह दिव्य आलिंगन-दृश्य केवल हृदय से हृदय से अनुभव करने की वस्तु है. दोनों की आँखों से स्नेह, प्रेम और श्रद्धा की अमृत धारा झर-झर कर बहती जा रही थी. वह मानो जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध रहा हो. प्रत्यक्ष दर्शी के मानस-पटल पर अंकित उस मिलन-दृश्य की जो छवि अंकित हुई थी उसका वर्णन करते हैं- ' आज भी वह दृश्य ह्मलोगों के हृदय पर स्वर्णक्षरों में खुदी हुई है.वे सब बातें याद आने पर सारा शरीर रोमांचित हो उठता है. ...उनका (सुभाषचन्द्र का ) कैसा रूप था, उनकी कैसी भक्ति थी !...वीर- महावीर थे. 
भारतमाता के सच्चे  सपूत ' नेताजी सुभाष ' के उपर महाराज के हृदय में बहुत आशाएँ थीं, तथा वे विश्वास करते थे कि भारतवर्ष को यदि स्वाधीनता प्राप्त होगी, तो वह सुभाषचन्द्र के माध्यम से ही प्राप्त होगी. इसीलिये सुभाषचन्द्र में भारतमाता के प्रति आत्म-त्याग की भावना और सेवा-निष्ठा ( जीवन के भोगों के प्रति मोह का त्याग और सेवाव्रत ) में परम अनुराग से संतुष्ट होकर अभेदानन्द जी ने पूछा था- ' सुभाष, भारत की स्वाधीनता कबतक वापस आएगी?
( संपूर्ण भारतवर्ष चरित्र-निर्माण कारी आन्दोलन की अनिवार्यता को कब तक समझ सकेगा ?) इसके उत्तर में भारत-सेवक (देशभक्त) सुभाषचन्द्र ने आवेगपूर्ण हृदय से कहा था- ' महाराज, जगद्डल पत्थर को खिसकाना क्या कोई आसान काम है ?....फिर भी आशा है महाराज. आशा नहीं होती तो मैं इतनी मिहनत क्यों कर रहा हूँ? भारत स्वाधीन होकर ही रहेगा ! '
जब भारतमाता के वीर-सपूत सुभाषचन्द्र, ने भारत-प्रेमी अभेदानन्द महाराज को आश्वासन दे दिया था, तो क्या वह बात कभी मिथ्या हो सकती थी! क्योंकि, सुभाषचन्द्र के मन की धधकति हुई इच्छा के साथ महाराज की प्रचंड इच्छा भी जुड़ी हुई थी. इसीलये वैसी सम्मिलित इच्छा (एक मन-प्राण होकर लिया गया संकल्प) एकदिन फलदायी होने को बाध्य है.
नेताजी सुभाष की इच्छा और आशापूर्ण वचनों को सुन कर अभेदानन्दजी आनन्द से भर उठे, और गदगद होकर आशीर्वाद दिये- ' विजयी-भव !, तुम्हारा स्वास्थ्य सदैव अक्षुण्ण बना रहे. जब तुमको समय मिले तो तुम फिर आना.'  मधुर-भाषी सुभाषचन्द्र ने झुक कर पूरी विनम्रता के साथ महाराज की पवित्र चरण-धूल और आशिर्वचनों को सिर-माथे धारण किया, एवम् उसीके साथ देश और देश की विभिन्न समस्याओं के उपर लंबे समय तक सलाह-मशविरा भी किया. 
उनकी देशभक्ति और देशप्रीति से अत्यन्त प्रसन्न हो कर आनन्द के साथ जयकारा लगाये- ' जय राष्ट्रपति सुभाषचन्द्र बोस की जय ! तुम राष्ट्रपति बन गये हो, तुम्हें देखने की बड़ी इच्छा थी, इसीलिए आज मैं अत्यन्त आनन्दित हूँ. ..तुम बांगलादेश  और बंगाली जाति के सिरमौर तो हो ही, किन्तु तुमने समग्र भारत के मुख को भी उज्ज्वल कर दिया है !' 
उसदिन अभेदानन्द महाराज सुभाषचन्द्र की स्वदेशप्रेम की आकुलता को देख कर विस्मित और मुग्ध हो गये थे, और नहीं नहीं करके भी उस समय के भारतवर्ष की वर्तमान परिस्थितियों पर लगभग घंटा भर से अधिक देर तक बातचीत किए थे. सुभाषचन्द्र इस बात को जानना चाहते थे कि भारत की समस्याओं का निदान कैसे किया जा सकता है? उसके उत्तर में महाराज ने कहा था- ' देखो, इस जगाद्दल पत्थर को हटाने का एक उपाय है, - एकता के द्वारा, भारत का नागरिक-समाज संगठित हो कर कार्य करना सीख सके इसकी चेष्टा में जुट जाओ!
   उसके बाद महाराज के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित करके तथा उनके आशीर्वाद को ग्रहण कर, अपने घर वापस लौट गये थे. किन्तु इधर महाराज हर समय सुभाष की ही यादों में खोये रहे, एवं रात्रि के समय अपने सेवक सन्यासी (पी. ए) से हंसते हुए बोले- ' तुमने सुभाष बाबू के प्रसन्न-चित्त मुख पर ध्यान दिया? बहुत ही प्रसन्न-वदन फिर भी कितना गंभीर शान्त हृदय पुरुष. भीतर में त्याग का भाव है न, यह अपना जीवन किसी सन्यासी की तरह व्यतीत करता है- माहत्यागी है.
 Netaji Subhas Chandra Bose at Midnapore Rail Station.  
रविवार, २२ मई १९४० 
  यह मानो जौहरी के द्वारा स्वर्ण पर सुहागा जैसा है. त्यागीपुरुष अभेदानन्दजी अध्यात्ममार्ग के ही सहयात्री थे, इसीलिए त्याग के आदर्श में गठित सुभाषचन्द्र की जीवन-यात्रा को समझ लेने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई थी.  
 सुभाषचन्द्र अपने मित्र सत्यरंजन बक्शी के साथ एलगिन रोड स्थित अपने घर पहुँचे तो, हरिदास मित्र ने
 पूछा,- ' रांगा काकू ! स्वामी अभेदानन्द आपको कैसे लगे ? ' उत्तर में सुभाषचन्द्र ने कहा- ' ओह कैसा सुंदर चेहरा देख कर आया हूँ. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो आग का गोला दप-दप कर रहा था. एक विराट ज्योतिर्मय पुरुष! उनका दर्शन करके धन्य हो गया हूँ. ' .... 
    
एक सैनिक और नेता की भूमिका में सुभाषचन्द्र के स्वछन्द विचरण होने पर भी नैपथ्य में थी अपरिसिम त्याग और तपस्यादीप्त जीवन. अपने आंतरिक जीवन (आंतरिक-चरित्र ) को उन्होंने अध्यात्मिकता से भरपूर कर लिया था. स्वामी विवेकानन्द का निर्दिष्ट मार्ग-दर्शन ही जिनका आजन्म-आकांक्षित लक्ष्य रहा हो, क्या उनके चलने का पथ उससे विपरीत हो सकता था ! अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने साधु-सन्तों का भरपूर संग मिला था, तथा ईश्वर के प्रति असीम अनुराग था. इसी अनुराग को लेकर दक्षिनेश्वर की माँ भवतरिणी के प्रासदी के फूल को मस्तक पर धारण करके ही, अनन्तयात्रा के पथ पर निकल पड़े थे.
  जिसका उत्समुख, गोमुख-गंगोत्री का संगम-स्थल उनकी यह यात्रा क्या कभी स्तब्ध हो सकती है ! - कदापि नहीं, उसी यात्रा ने स्वाधीनता संग्राम को सफलता दिलाई थी, जिसके स्वर्ण-जयन्ती वर्ष ह्मलोगों ने मना लिया है. किन्तु, इस मृत्युंजयी वीर सेनापति की खोज कितने लोग रखते हैं ? - जिसके बदलौत हमें यह स्वाधीनता प्राप्त हुई है ! हमलोग जो अपने को उनका वंश-धर कह कर अपना परिचय देने में गर्व का अनुभव करते हैं, वे खुद उनके स्वपनों को साकार करने में, कितना मनोनिवेश कर पाए हैं, आज की स्वाधीनता दिवस के शुभ अवसर पर उसीकि विचार-विवेचना करके हम अपना आत्मविश्लेषण करें तो, उनके प्रति हमारी यही सच्ची श्रद्धा होगी.
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' বর্তমান' ১৫ আগস্ট ২০০১ তারিখে প্রকাশিত/ ' वर्तमान ' समाचार-पत्र में १५ अगस्त २००१ को प्रकाशित