सोमवार, 17 जनवरी 2011

विवेकानन्द का दर्शन करने के अभ्यास से - ' विवेक स्रोत ' उदघाटित होता है !

पिछले तीन सम्पादकीय लेखों में हमने ' मनः संयोग ' की पद्धति को सीखने की आवश्यकता तथा शिक्षा को आत्मसात करने में इसके महत्व को समझा है. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मनुष्य और पशु में मूख्य अन्तर उनकी मन की एकाग्रता की शक्ति में है. किसी भी कार्य में सारी सफलता इसी एकाग्रता का परिणाम है....एकाग्रता की शक्ति में अन्तर के कारण ही एक मनुष्य दूसरे से भिन्न होता है. छोटे से छोटे आदमी की तुलना ऊँचे से ऊँचे आदमी से करो. अन्तर मन की एकाग्रता की मात्रा में होता है." 
इसी एकाग्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए स्वामीजी कहते हैं- " अर्थ का उपार्जन हो, चाहे भगवद आराधना हो- जिस काम में जितनी अधिक एकाग्रता होगी, वह कार्य उतने ही अधिक अच्छे प्रकार से सम्पन्न होगा. द्वार के निकट जाकर पुकारने य़ा खटखटाने से जैसे द्वार खुल जाता है, उसी भाँति केवल इस उपाय से ही प्रकृति के भण्डार का द्वार खुल कर प्रकाश बाढ़ के रूप में बाहर आता है." 
हमलोगों ने यह भी समझा था, कि स्वाभाविक रूप से चंचल मन कामना-वासना कि मदिरा, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि विकारों से ग्रस्त हो कर अतिरिक्त चंचल हो जाता है; फलस्वरूप उसको एकाग्र करना कठिन हो जाता है. इसीलिये ऋषि पतंजलि ने आठ चरणों में मन को वशीभूत करने की पद्धति का आविष्कार किया था, और उसे सूत्र बद्ध करके योग-सूत्र दिया था- यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि.  हमलोग जो यथार्थ मनुष्य बनना चाहते हैं, उनके लिये स्वामीजी ने प्राणायाम, ध्यान और समाधि को बाद करके केवल पाँच अंगों का अभ्यास करना ही पर्याप्त माना था. इन पाँच अंगों को दो भाग में बाँट कर -' यम और नियम ' का पालन प्रति मुहूर्त करना है,तथा ' आसान-प्रत्याहार-धारणा ' का अभ्यास दिन में दो बार सुबह और शाम अपनी सुविधा के अनुसार निर्दिष्ट समय पर करना है. आज हमारे जीवन में व्यस्तता बढ़ गयी है इसलिए यदि संध्या में अभ्यास के लिये बैठना सम्भव न हुआ तो कम से कम रात में सोने से पहले बिछावन पर बैठ कर भी कर सकते हैं.  
मन की अतिरिक्त चंचलता को कम करने के लिये पहले जीवन में संयम लाना होगा, इसीलिये 5 do not doe's and 5 doe's अर्थात ' यम और नियम ' का पालन (अभ्यास) प्रति मुहूर्त २४ घंटे करना है.
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः – अहिंसा, सत्य, अस्तेय(अचौर्य या चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह(संग्रह का अभाव), यमाः – ये पाँच यम हैं।
 शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान, नियमाः – (ये पाँच) नियम हैं। इसप्रकार हमने ५ यम और ५ नियम के बारे में जान लिया.
अब मनुष्य बनने के प्रशिक्षण के दूसरे भाग अर्थात-' आसान-प्रत्याहार-धारणा ' के ऊपर चर्चा करेंगे.एकाग्रता का अभ्यास करने के लिये बैठने का ढंग- अर्थात ' आसान '  कैसा होना चाहिये ?

 स्थिरसुखम् आसनम् – – स्थिर पूर्वक तथा सुखयुक्त (बैठने की स्थिति) आसन है।)
प्राचीन ऋषि-मुनी लोग पद्मासन में बैठ कर ध्यान लगाने का अभ्यास कर सकते थे, पर जो लोग उस प्रकार बैठने में अभ्यस्त नहीं हैं, उनको उस प्रकार बैठने पर शरीर में कष्ट होगा तो, मन उधर ही चला जायेगा. इसलिए सुखासन में य़ा बाबू जैसा पालथी मरकर भी बैठा जा सकता है. सर्वोत्तम ढंग है- अर्धपद्मासन में बैठना. इस प्रकार बैठने से - मेरुदण्ड, गर्दन और सर सीधा और सरल रेखा में रहता है जिससे शरीर के किसी भी अंग पर जोर नहीं पड़ता और हम बिना हिले-डुले काफी देर तक इसप्रकार बैठ सकते हैं. अर्धपद्मासन में बैठ कर प्रत्याहार का अभ्यास करना है.
स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ।।54।।
प्रत्याहार का अर्थ है- एक और आहरण करना यानि खींचना।  मन इंद्रियों के माध्यम से जगत के भोगों के पीछे दौड़ता है। मन की बहिर्गति को रोक कर उसे इंद्रियों की अधीनता से मुक्त करा कर अन्तर्मुखी करना - भीतर की ओर खींचना प्रत्याहार है।इसके लिये लिये कुछ समय चुपचाप बैठ कर मन का पर्यवेक्षण करना होगा. उसकी गतिविधियों का निरिक्षण करना है. मन में कई चित्र उभर रहे हैं- उनको  देखना है. 
पर मन को देखा कैसे जाता है ? हमलोग बाहरी वस्तुओं को आँखों से देख लेते हैं, परन्तु मन तो भीतर की वस्तु है और अत्यन्त सूक्ष्म है- उसको इन चर्म- चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता है. मन को देखने का यन्त्र भी मन ही है. यह मन ही मानो दो भागों में बंट जाता है; ' द्रष्टा मन और दृश्य मन ''.  - मन का ही भाग द्रष्टा मन (Subjective mind ) बन कर दृश्य मन (Objective mind) को देखने लगता है. 
अभ्यास करने से मन एक साथ दो भाग में बंट सकता है, य़ा Double presence of mind हो सकता है. इसके लिये बाहरी आँखों को मूंद लेने से- मन में क्या क्या विचार उठ रहे हैं, उसमे कैसे चित्र उभर रहे हैं उनको देखना सरल हो जाता है. मन में Past-Future के विचार उठ रहे हैं, मन मानो भूत-भविष्य के बारे में लगातार कुछ न कुछ बक बक करता ही रहता है. उसमे ऐसे ऐसे विचार भी दृश्य बन कर उभर रहे हैं जो मन को नीचे भी ले जा सकते हैं. यदि इस प्रकार के दृश्य आ भी रहे हों, तो पहले मन को उन सबको देखने की छूट देनी है- जो भी कुछ दिखाई पड़ रहा हो चुपचाप उसे देखते रहो. 
इस प्रकार कुछ क्षणों तक स्वाधीनता देने के बाद, Objective Mind को आदेश देना पड़ेगा- सीमा के बाहर मत जाओ ! उसके साथ बातचीत करो- क्या तुम हर समय Past-Future के बारे में ही बकबक करते रहोगे ? क्या तुम मेरे सामने बैठ कर पवित्र नाम-रूप का श्रवण-मनन नहीं करोगे ? क्या तुम मुझे पशु बनाना चाहते हो ? मन को बालक के जैसा समझाना होगा- तुम मेरा यंत्र है, मेरा गुलाम है, मैं तुम्हारा स्वामी हूँ, तुम्हारा प्रभु हूँ- तुमको मेरी बात माननी ही पड़ेगी. मन को भूत-भविष्य में जाने से खींच कर तथा उसके बारे में बकबक करने से रोकर, अपने सामने वर्तमान में चुचाप मौन रहकर बैठने को मना लेना होगा. जैसे समझाने-बुझाने से बिगडैल बच्चे भी थोड़ी देर के लिये हमारी बात मान लेते हैं, वैसे ही मन भी सामने आकर बैठ जायेगा. परन्तु मन को खींच कर केवल सामने लाने से ही नहीं होगा, मन भी प्रकृति का अंश है, इसलिए कभी Vacuum होकर य़ा शून्य होकर नहीं रह सकता - उसमे फिर से सद्-असद चिन्तन उठने लगेगा. तब उसको एकाग्र करने का लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा. इसी लिये मन का पर्यवेक्षण करके बहिर्मुखी मन को खींच कर, य़ा वैराग्य का फाटक लगाकर इन्द्रिय विषयों में जाने से लौटा कर उसे किसी पवित्र य़ा Positive आदर्श का चिन्तन करने का आदेश देना होगा.
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।।1।।॥3.1॥ नाभिचक्रे हृदयपुण्डरीके मूध्र्नि ज्योतिषि नासिकाग्रे जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति धारणा।श्रीमद्व्यासभाष्ये)
धारणा - इन्द्रिय विषयों से खींच कर अन्तर्मुखी बने मन को अपने शरीर में किसी विशिष्ट स्थान- ह्रदय कमल में धारण करना होगा. किसी निराकार आदर्श के बारे में चिन्तन करना कठिन होता है, तथा किसी मूर्तमान पवित्र आदर्श पर मन को टिकाये रखना य़ा साकार नाम-रूप का चिन्तन करना सरल होता है. अतः अपने ह्रदय कमल पर बैठाने के लिये पहले से ही किसी मूर्त आदर्श का चयन कर लेना अच्छा होगा.
  हमारा परामर्श है कि अपने ह्रदय कमल पर मूर्त आदर्श के रूप में स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति स्थापित कर- उनके ऊपर मन को धारण करना - Concentrate  करना  उचित होगा. 
महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर प्रथम प्रमाणिक व्याख्या “व्यास भाष्य” के रूप में प्राप्त होती है। व्यास भाष्य से तात्पर्य है- व्यास के द्वारा महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर दी गयी व्याख्या। पतंजलि योग-सूत्र ॥1.12॥ पर व्यासदेव अपने भाष्य में मन के बहिर्मुखी प्रवाह को अन्तर्मुखी बनाने का सरल उपाय बताते हुए कहते हैं-

चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च।
या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। 
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा।
तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते।
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। 

"- विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत " इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो  व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-शक्ति ' ही सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है ! तथा एक दिन  (१२ जनवरी १८६३) को वे स्वयं ही स्वामी विवेकानन्द के रूप में आविर्भूत होंगे; तब उनके मूर्त रूप पर मन को धारण करने से ही ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा !
क्योंकि निराकार अन्तर्यामी गुरु के रूप में ' विवेक-शक्ति ' सबके ह्रदय में अवस्थित हैं, जो हमे सर्वदा श्रेय (Good)  और प्रेय (Pleasant ) में से चयन कर केवल श्रेय पथ पर चलने को अनुप्रेरित करते रहते हैं.  क्योंकि वास्तव में जो भी सारयुक्त, श्रेष्ठ, एवं श्रेयस है उसी से जुड़ना योग है।उसी निराकार अन्तर्यामी गुरु - ' विवेकशक्ति ' के मूर्तमान रूप हैं - स्वामी विवेकानन्द ! स्वामी विवेकानन्द के नाम-रूप पर मन को धारण करने के साथ ही साथ चरित्र के समस्त गुणों का ध्यान भी हो जाता है. वे २४ गुणों के मूर्तमान रूप हैं- उनका चित्र युवाओं का सर्वाधिक प्रिय और पसन्दीदा चित्र है- इसलिए उनके अनुकर्णीय चरित्र तथा उपदेशों को हमारा मन आसानी से चिन्तन कर सकता है. इसीलिये तो भारत सरकार ने भी उनके जन्म-दिन ' १२ जनवरी '  को ' राष्ट्रीय युवा दिवस ' घोषित किया है. 
अब हम मन से थोड़ा अलग हट कर मन में उठने वाले विचारों का कुछ समय पर्यवेक्षण कर सकते है. थोड़ा प्रत्याहार सध जाने पर हम देखते हैं की मन अब Past-Future के बारे में बकबक करना छोड़ कर, हमारे पूर्व चयनित आदर्श - स्वामी विवेकानन्द का ही चिन्तन करने में लगा है, परन्तु 1-2 second के बाद ही हाँथ से लगाम खींच कर मन फिर से इन्द्रिय विषयों में भाग गया है. पर मैं मन से हार नहीं मानूंगा- वह तो मेरा यन्त्र है, मैं उसका प्रभु हूँ, उसको फिर से खींच कर अपने सामने लाऊंगा. आज मन को हराना ही है - ' संतोष ' के द्वारा (देने वाले का ध्यान करके, जो मिला है उसका ध्यान नहीं करके ) लोभ को परास्त कर दूंगा,  कामना-वासना,  अहंकार, ईर्ष्या आदि रिपुओं को स्वामी विवेकानन्द के जीवन-चरित और उपदेश के द्वारा हरा दूंगा. मन पर यदि अधिक दबाव महसूस होने लगे तो उसे कुछ समय के लिये ढील देने के बाद- फिर से खींच कर सामने लाओ. इसी प्रकार ढीलदेते और खींचते हुए उसे अपने पूर्ण नियन्त्रण में लाना ही होगा. 
कोई पूछ सकते हैं क्या केवल स्वामी विवेकानन्द पर ही मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करना होगा ? मेरे तो इष्ट-देव बुद्ध हैं, ईसा हैं, नानक हैं, कृष्ण हैं, राम हैं- अलग इष्ट हैं मेरे,  मैं बुद्ध पर ध्यान क्यों न करूँ ? भगवान  ईशू जो माता मेरी के गोद में हैं, उस पर ध्यान क्यों न करूँ ? कोई व्यक्ति यदि अपने गुरु य़ा इष्ट पर मन को धारण करे य़ा चैतन्य महाप्रभु अथवा राधा-कृष्ण पर मन को धारण करना चाहे तो उसमे कोई हर्ज नहीं है. परन्तु हमारा परामर्श केवल इतना है कि वह मूर्त आदर्श ' पवित्र ' तो होना ही चाहिये. किसी Sports-Man का ध्यान करना अच्छा नहीं है- क्योंकि कोई व्यक्ति अच्छा खेल सकता है, पर उसका चरित्र खराब भी हो सकता है. अतः स्वामी विवेकानन्द के विकल्प के रूप में जिस किसी भी मूर्त-आदर्श को चयन करें तो तुलना कर के देख लेना चाहिये कि वह महापुरुष भी - 'पवित्रता' और ' प्रेम ' की दृष्टि से इन्ही ' त्रिदेवों '  (श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द ) के प्रतिमूर्ति ही हों. 
फिर भी यदि मन भाग जाये, य़ा अत्यधिक दबाव का अनुभव करने लगे, तो अपनी आँखों को खोल कर अपने आदर्श के चित्र को फिर से टकटकी बांध कर देखो. देखोगे कि मन अभी आँख खोल कर देखने पर भी वहाँ से भाग जा रहा है. परन्तु इस लड़ाई में हमे उससे हारना नहीं है, हम उसके प्रभु हैं, मन हमारा दास है- उसको बाह्य विषयों में जाने से खींच कर पुनः एक बार अपने इष्ट की मूर्ति पर धारण करना है. पुनः पुनः इसका अभ्यास करते रहने से - धीरे धीरे मन वश में आने लगता है.                      


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