बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

" लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी "


॥ श्री नन्द जी ॥
दोहा:-
कोई वस्तु अनित्य नहीं, रहत सदा ही नित्य ।
रूपान्तर ह्वै जात है, कैसे भई अनित्य ॥१॥
जैसे नैना बन्द करि, देखो कहूँ न कोय ।
वैसे हरि को खेल यह, हर दम ऐसै होय ॥२॥
जब जानौ तुम ध्यान को, देखौ सर्गुन खेल ।
जब पहुँचो तुम लय दशा, वहां न खेल न मेल ॥३॥ 
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डाक्टर मोहम्मद इक़बाल 
लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी,
ज़िन्दगी शमअ की सूरत हो ख़ुदाया मेरी।
दूर   दुनिया  का  - मेरे दम अँधेरा हो जाये,
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाये।
हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना
दर्द-मंदों से-  ज़इफ़ों से मोहब्बत करना !
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको;
नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझको।


शब्दार्थ :शमा की सूरत=दीपक की भाँति; ज़ीनत=शोभा; इल्म की शमा=ज्ञान का दीपक; ज़ईफ़ों=बूढ़े लोगों
(जीनत = शोभा, श्रृंगार की वस्तु, इल्म= ज्ञान, हिमायत= सहानुभूति, जईफ= दुर्बल, पददलित )    


नया शिवाला 
 सच कह दूँ ऐ ब्रह्मण गर तूँ बुरा न माने,
तेरे सनम कदों के बुत हो गये पुराने.


अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा,
जंग-ओ- जदल सिखाया वाइज़ को भी खुदा ने,


तंग आके आखिर में मैंने दैर-ओ-हरम को छोड़ा,
वाइज़  का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने, 

पत्थर की मूर्तियों में समझा है तू खुदा है,
खाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है.

आ गैरत के परदे इक बार फिर उठा दें,
बिछड़ों को फिर मिला दें, नक़्शे दूरी मिटा दें.
 
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती,
आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें।

दुनिया के तीर्थों से ऊँचा हो अपना तीरथ 
दामन-ए-आसमां से इस का कलश मिला दें.
 
हर सुबह मिल के गायें मन्तर वो मीठे मीठे, 
सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें.

शक्ति भी शान्ति भी भक्तों के गीत में है,
धरती के वासियों की मुक्ति प्रीत में है. खुली आँखों से ध्यान 

तराना-ए-हिन्द

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा,
हम बुलबुलें हैं उसकी ये गुलसिताँ हमारा।

ग़ुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा

पर्बत वो सब से ऊँचा हमसाया आसमाँ का
वो सन्तरी हमारा वो पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती हैं जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिस के दम से रश्क-ए-जिनाँ हमारा

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा, वो दिन है याद तुझ को
उतरा तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गये जहाँ से,
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा।

'इक़बाल' कोई महरम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा।



अटल बिहारी वाजपेयी
" यक्ष प्रश्न "
 जो कल थे,
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वे कल नहीं होंगे।

होने, न होने का क्रम,
इसी तरह चलता रहेगा,
हम हैं, हम रहेंगे,
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।


सत्य क्या है?
होना या न होना?
या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
मुझे लगता है कि
होना-न-होना एक ही सत्य के
दो आयाम हैं,
शेष सब समझ का फेर,
बुद्धि के व्यायाम हैं।
किन्तु न होने के बाद क्या होता है,
यह प्रश्न अनुत्तरित है।


प्रत्येक नया नचिकेता,
इस प्रश्न की खोज में लगा है।
सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है।
शायद यह प्रश्न, प्रश्न ही रहेगा।
यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें
तो इसमें बुराई क्या है?
हाँ, खोज का सिलसिला न रुके,
धर्म की अनुभूति,
विज्ञान का अनुसंधान,
एक दिन, अवश्य ही
रुद्ध द्वार खोलेगा।
प्रश्न पूछने के बजाय
यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।

शेख सादी
हर शै में देख लीजै उसका ही नूर है ।
तिल भर नहीं है खाली हर दम हुजूर है ॥६॥
है सब में सब से न्यारा मानो वचन हमारा ।
श्री कौशिला का प्यारा, यशुमति कहै दुलारा ॥७॥
कहते खुदा हैं उसको- खुद आने वाला जानो ।
     है फिक्र सब की उसको खुद खाने वाला जानो ॥८॥
जिसका है नाम सुनिये उसका है रूप गुनिये ।
सूरति शब्द में लागै तब तन मन हरि में पागै ॥९॥
देखैं हम रूप हर दम कहने की क्या रहै गम ।
धुनि रोम रोम जारी छूटै जगत से यारी ॥१०॥
कहते हैं शेखसादी मुरशिद के पास जाओ ।
तन मन से प्रेम कीजै तब इसका भेद पाओ ॥११॥



 ॥ श्री नाभा जी ॥
दोहा:-
रा रकार रघुनाथ जी, मा मकार महरानि ।
आखिर दोनों एक हैं, रूप राशि गुनखानि ॥१॥

॥ श्री निजामुद्दीन औलिया ॥
शेर:-
यह राम कृष्ण प्यारे आँखों के मेरे तारे ।
क्या खेल हैं पसारे औ रहते सब से न्यारे ॥१॥

॥ श्री उपनन्द जी ॥
छन्द:-
नाम रूप लीला धाम चारों नित्य जानिये ।
सर्व शक्तिमान को अनित्य कैसे मानिये ॥१॥
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शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

[59]" वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं "

 " वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं " 
....बाकी के मनुष्य तो मृतक से भी गये गुजरे हैं, तो फिर पत्थर बन चुके ह्रदय में दूसरों के प्रति सहानुभूति जाग्रत करने की चेष्टा करने का उपाय क्या है ?
 सबसे सहज उपाय है, स्वामीजी की ओर देखना. मानव-मात्र के दुःख को दूर करने के प्रति स्वामीजी के ह्रदय में कैसी तड़प थी ! सभी जाति-धर्म के मनुष्यों के लिये उनके ह्रदय में कैसी संवेदना थी! यदि छात्र जीवन के समय से ही परम-देशभक्त स्वामी विवेकानन्द के जीवन को ही " युवा- आदर्श " के रूप हमलोगों के समक्ष रखा जाय, और हमलोग उनकी जीवनी को ध्यानपूर्वक पढ़-सुन कर, चिन्तन- मनन करके स्वामीजी के जीवन को ही अपने ध्यान की वस्तु बना लें, तब हमलोगों का ह्रदय स्वतः ही विस्तृत हो जायेगा.
  जब हमलोग सागर  से प्रेम करने में सक्षम हो जायेंगे तो हमलोग स्वाभाविक रूप से सभी प्रकार के लहरों से भी प्रेम करने में समर्थ हो जायेंगे.तब हमलोगों का ह्रदय भी इतना विस्तृत हो जायेगा कि उसमे सबों के लिये (सभी तरह के मनुष्यों के लिये ) थोड़ा भी स्थान अवश्य रहेगा, और दूसरों का दुःख हमलोग को बिल्कुल अपने दुःख के जैसा महसूस होगा. और तब हमलोग अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, य़ा बौद्धिक - जहाँ पर जैसी शक्ति लगानी हो, हम सभी लोग अपनी पूरी शक्ति लगाकर, अपना ' सर्वस्व न्योछावर करके भी ' दूसरे मनुष्यों के दुःख को दूर करने की चेष्टा करने में समर्थ बन जायेंगे. 
अपने ह्रदय को सागर जितना विस्तृत कर पाने सक्षम बन जाने को ही- " मनुष्य बनना " कहते हैं.
जिस किसी भी देश में इस प्रकार के ' विशाल-ह्रदय मनुष्य ' निर्मित कर लिये जाते हैं, वे उस देश के जो नीचे पड़े हुए मनुष्य हैं, अवहेलित हैं, अज्ञानी हैं, निन्दित हैं, शोषित हैं, अनाहार में दीन बिताते हैं, जो अशिक्षा के अँधेरे में डूबे हुए हैं, जिनकी ओर नजर उठाकर देखने की भी फुर्सत किसी को नहीं है, उनलोगों को पुनः अपने पैरों पर खड़े होने का सामर्थ्य प्रदान कर सकते हैं.  
फिर यदि वे लोग भी अपने पैरों पर खड़ा होकर, रीढ़ की हड्डी को सीधी रखते हुए, अपने सिर को ऊँचा उठा कर अपने देशवासियों की ओर देख सके-  जो उनके सहोदर हैं, और बिल्कुल उसी अवस्था में हैं जिस अवस्था में वह पहले स्वयं भी थे, तब वे उनके हित को भी अपने ह्रदय से बिल्कुल अपना हित जैसा महसूस करने में सक्षम हो जाते हैं. और तब वे (देशवासियों के उन्नति के लिये योजना में भ्रष्टाचार नहीं करते बल्कि ) अपनी पूरी शक्ति समस्त देश-वासियों को ऊँचा उठाने के उनके विकास योजनाओं में लगा देते हैं- स्वामीजी इसी लिये (ऐसे ही मनुष्यों का निर्माण करने के लिये)  तो आये थे ! 
स्वामीजी मानव-मात्र की मुक्ति के लिये धरती पर आये थे. किन्तु स्वामीजी के अनुसार मुक्ति का अर्थ केवल वनों-जंगलों में जाकर तपस्या करना नहीं है, केवल ईश्वर ईश्वर करके इधर-उधर भ्रमण करना नहीं है, केवल तीर्थाटन करते रहना ही नहीं है, य़ा केवल किसी मन्दिर,मस्जिद गिरजा में जाकर पूजा कर लेना ही नहीं है. 
स्वामीजी ने कहा था- " मनुष्य ही सबसे बड़ा देवमन्दिर है ! " स्वामीजी की इसी विशेषता को स्पष्ट करते हुए मैं उडिषा में घटित एक घटना का उल्लेख पहले भी कई बार कर चुका हूँ, उसी  प्रसंग को पुनः पुनः दुहराने में थोड़ा संकोच भी होता है पर पता नहीं क्यों इस घटना की पुनरुक्ति होती ही रहती है.  एक बार उडिषा में किसी स्थान पर एक व्याख्यान-सभा हो रही थी, कई वक्ता लोग आये थे, दो-चार सन्यासी भी थे, उडिषा के विशिष्ठ गणमान्य व्यक्ति लोग थे, प्रोफ़ेसर लोग भी थे, वहाँ पर मुझे बोलने के लिये कहे, तो बोला था. बोलते समय मैंने एक बात कही थी-         
    " I believe that a second person like Swami Vivekananda was never born in human history. "
"-मेरा  दृढ विश्वास यह है कि, मानवसभ्यता के इतिहास में स्वामी विवेकानन्द के जैसा और कोई दूसरा व्यक्ति आज तक नहीं जन्मा है !" 
सभा समाप्त होने के बाद युवाओं का एक दल, जिन्हें देखने से लग रहा था कि वे लोग कॉलेज के छात्र होंगे, सबों ने मुझे घेर लिया, और घेर कर बहुत उत्साहपूर्वक बोले, ' अदभुत, अदभुत, आपकी वक्तृता सुन कर हमलोगों को बहुत अच्छा लगा है." उनलोगों में से ही एक लड़का आगे आकर बहुत विनम्रतापूर्वक बोला- " किन्तु एक बात है महाशय . " मैंने कहा- ' बोलो भाई. ' तब उसने कहा कि अभी, अभी अपने भाषण में आपने जो एक बात कहा कि -" स्वामी विवेकानन्द जैसा और कोई दूसरा मनुष्य इस पृथ्वी परआज तक पृथ्वी पर जन्म नहीं ग्रहण किये हैं"
- क्या ऐसा कहना ठीक है ? 
मैंने कहा- ' भाई मुझे जो बात सही लगती है, मैं केवल वही बात कहता हूँ. ऐसा कहने के पीछे मेरा अन्य कोई उद्देश्य नहीं है, य़ा मन में अन्य कोई भाव रख कर मैंने वैसा नहीं कहा है. ' 
तब उस लड़के ने बताया - " आप बुरा मत मानियेगा, हमलोगों के यहाँ एक सन्यासी हैं,  जो बिल्कुल स्वामी विवेकानन्द कि तरह ही लगते हैं. यदि आप उनसे मिलना चाहें तोकल सुबह मैं आपको उनसे मिलवा वापस भी ला सकता हूँ, वे यहाँ से बहुत ज्यादा दूर पर नहीं रहते है. "
तब मैंने पूछा कि ," उनमे कौन कौन सी विशेषताएं हैं? " तब वह उनकी एक एक विशेषता गिनवाने लगा. " वे एक गैरिक वस्त्रधारी सन्यासी हैं, वे महाविद्वान हैं, कोई विद्या ऐसी नही है जिसे वे नहीं  जानते हों,उनके पास जाने वाला कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि वे क्या जानते हैं और क्या नही जानते हैं. जिस किसी भी विषय में उनके साथ कोई चर्चा करना चाहता हो, उसी से उस विषय के सम्बन्ध में यथासंभव कह देते हैं. और उनके उत्तर को सुन कर समझा जा सकता है कि वे उस विषय के बारे में जानते हैं. सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता हैं, वेद-वेदान्त आदि समस्त शास्त्र उनके मुख में ही है. उनके त्याग का भाव असाधारण है. कभी किसी से कुछ लेना नहीं चाहते हैं. यदि कोई उनको खाने को दे देता है तो खाते हैं, नहीं देने से बिना खाए ही रह जाते हैं. बिल्कुल असाधारण मनुष्य हैं ! " मैंने जानना चाहा कि - " वे रहते कहाँ हैं ?
" उसने कहा यहाँ से अधिक दूर नहीं है. पास में ही एक जंगल है, उसी में वे एक कुटिया बना कर रहते हैं. एक घंटे में ही वहाँ पहुँचा जा सकता है, बस दो घन्टा के भीतर ही हमलोग वहाँ से वापस लौट सकते हैं." मैंने ( हाथ जोड़ कर ) कहा- " भाई , मैं तुम्हारे कहने पर (तुम्हारा दिल रखने के लिये) इतना भले मान सकता हूँ कि विद्या, त्याग, तितिक्षा आदि युक्त किसी सन्यासी के रूप में, वे स्वामी विवेकानन्द से थोड़ा भी कम नहीं हों, य़ा स्वामीजी में इसके अतिरिक्त भी जितने सारे गुण थे, सभी बे सब भी एक जैसे ही हों, पर इतने सारे गुण होने पर भी चूँकि वे अभी तक जंगल में ही बैठे हुए हैं यह जान लेने के बाद अब मैं उनसे मिलने की जरुरत नहीं समझता. क्योंकि हिमालय में बैठ कर बाकी जीवन बीता देने की प्रबल ईच्छा रहने पर भी स्वामीजी जंगल में बैठे नहीं रह सके. 
अपने शिष्य के साथ वार्तालाप करते हुए वे कहते हैं : -
" मैं क्या अपने शेष बचे जीवन को हिमालय की किसी कन्दरा में बैठ कर 
ध्यान में लीन रहते हुए नहीं बीता सकता हूँ रे !
किन्तु वैसा मैं कर नहीं सकता;
जहाँ देश के इतने लोग, इतने दुःख में पड़े किल-बिल कर रहे हों, 
वहीं मैं (स्वार्थी होकर ) ध्यान में बैठा  रहूँगा ?
  - ऐसा करना मेरे लिये कदापि सम्भव नहीं है ."
  ' इसीलिये भाई, मैं यह स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ कि ये साधु भी बिल्कुल स्वामी विवेकानन्द के ही जैसे एक और व्यक्ति हैं;  इसीलिये इस विवाद का भंजन करने के लिये मुझे वहाँ जाने की कोई आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती है.'
" मैं स्वामीजी को सबसे अनूठा व्यक्ति मानता हूँ- यह बात मैं किसी के मुख से सुन कर य़ा पुस्तक से पढ़ कर नहीं कहता हूँ, यह मेरे ह्रदय की बात है, मेरे अपने अन्तर में मुझे स्वामीजी ऐसे ही दिखाई देते हैं, यह मेरे अनुभव की बात है,  मैं अधिक पड़ता-लिखता नहीं हूँ, मैं ज्यादा कुछ जानता भी नहीं हूँ. अपने ह्रदय के स्पन्दनों के बीच में स्वामीजी के विशाल ह्रदय की धडकनों का थोड़ा सा परिचय  प्राप्त हुआ है. अतः उसी ह्रदय की भाषा में कह सकता हूँ कि-  " स्वामी विवेकानन्द के जैसा मेरे ह्रदय को छू लेने वाला कोई दूसरा व्यक्ति मुझे आज तक कहीं नहीं मिला है, इसलिए कहता हूँ कि उनके जैसा और कोई दूसरा व्यक्ति अभी तक पृथ्वी पर जन्म ग्रहण नहीं लिये हैं! "
{निम्न लिखत पत्र में स्वामीजी के ह्रदय की एक झलक देखी जा सकती है :- 
Swami Vivekananda's letter to 
 His Highness the Maharaja of Mysore (23 June 1894).

(स्वामी विवेकानन्द द्वारा मैसूर के महाराज को २३जुन १८९४ को लिखा पत्र.) 

" Our duty to the Masses of India  "  

" मातृभूमि के प्रति हमारा कर्तव्य "






Shri Narayana bless you and yours. Through your Highness' kind help it has been possible for me to come to this country. Since then, I have become well known here, and the hospitable people of this country have supplied all my wants. It is a wonderful country and this is a wonderful nation in many respects ...
 महाराज, 
श्री नारायण आपका और आपके कुटुम्ब का मंगल करें. आपके द्वारा दी गयी उदार साहायता से ही मेरा इस देश में आना सम्भव हुआ है. यहाँ आने के बाद से यहाँ के लोग मुझे अच्छी तरह से जानने लगे हैं, और इस देश के अतिथिपरायण निवासियों ने मेरे सारे आभाव दूर कर दिये हैं.यह एक अदभुत देश है और यह जाति भी कई बातों में एक अदभुत जाति है.......
  Nowhere on earth have women so many privileges as in America. They are slowly taking everything into their hands; and, strange to say, the number of cultured women is much greater than that of cultured men ... they require more spiritual civilization, and we, more material.
 अमेरिका की महिलाओं को जितने अधिकार प्राप्त हैं, उतने दुनिया भर में और कहीं की महिलाओं को नहीं. धीरे धीरे वे सब कुछ अपने अधिकार में करती जा रही हैं, और आश्चर्य की बात तो यह है कि शिक्षित पुरुषों की अपेक्षा यहाँ शिक्षित स्त्रियों की संख्या कहीं अधिक है....धर्म के विषय में यहाँ के लोग य़ा तो कपटी होते हैं य़ा मतान्ध; विवेकी लोग धर्मों में व्याप्त कुसंस्कार से उब चुके हैं और नये प्रकाश के लिये भारत की ओर देख रहे हैं.....मेरा निष्कर्ष यह है कि उन्हें और भी अधिक आध्यात्मिक सभ्यता को अपनाने की आवश्यकता है और हमें अभी कुछ और भी अधिक भौतिकवादी सभ्यता  नजदीक से जानने की.  
The one thing that is at the root of all evils in India is the condition of the poor. The poor in the West are devils; compared to them ours are angels, and it is therefore so much easier to raise our poor. 
भारतवर्ष के सभी अनर्थों की जड़ है- गरीबों की दुर्दशा. पाश्चात्य देशों के गरीब तो निरे दानव हैं, उनकी तुलना में हमारे यहाँ के गरीब देवता हैं. इसीलिये हमारे गरीबों की उन्नति करना सहज है. 
 The only service to be done for our lower classes is :-
to give them education to develop 
their lost individuality. (i.e . firm faith in their own Self)That is the great task between 
our
" People and Princes "
(modern highly educated and highly paid youth of India ). 
 Up to now, nothing has been done in that direction.
अपने निम्न वर्ग के लोगों के प्रति हमारा एक मात्र कर्तव्य है- उनको शिक्षा देना, उनमे उनकी खोई हुई जातीय विशिष्टता ( आत्म-श्रद्धा ) का विकास करना. हमारे देश की आमजनता के प्रति हमारे  देश के(उच्च शिक्षा प्राप्त, उच्च पद पर आसीन अधिकारीयों) राजकुमारों (युवाओं)के सम्मुख यही एक बहुत बड़ा काम पड़ा हुआ है. अब तक इस दिशा में कुछ भी काम नहीं हुआ है. 
Priest-power and foreign conquest have trodden them down for centuries, and at last, the poor of India have forgotten that they are human beings. They are to be given ideas 
(self-respect, self-confidence ...24 Qualities of   character given in mahamandal's chart) 
their eyes are to be opened to what is going on in the world around them; and then 
(After becoming men of character) 
they will work out the own salvation.
पुरोहितों की शक्ति और विदेशी विजेतागाण सदियों से उन्हें कुचलते रहे हैं, जिसके फलसवरूप भारत के गरीब बेचारे भूल गये हैं कि वे भी मनुष्य हैं.उनमे अच्छे-अच्छे भाव (आत्म-श्रद्धा, आत्मविश्वास,...आदि चरित्र के २४ गुण जो महामण्डल के चरित्र-निर्माणकारी तालिका में दिये हुए हैं) भरने होंगे; उनके चारों ओर आस-पास की दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, इस सम्बन्ध में उनकी आँखें खोल देनी होंगी; इसके बाद (चरित्रवान मनुष्य बन जाने के बाद) फिर वे अपना उद्धार अपने आप कर लेंगे.        
Every nation, every man, and every woman 
must work out their own salvation. 
Give them ideas 
(4 Mahavakya of Veda and Mental -Concentration ) 
- that is the only help they (masses of India )require, 
and then the rest must follow as the effect. 
प्रत्येक जाति के,प्रत्येक स्त्री-पुरुष को अपना उद्धार स्वयं ही करना होगा.उनको अच्छे अच्छे विचार दो  (४ महावाक्य सुना दो और मनः संयोग कराना सीखा दो) उन्हें (भारतवर्ष के जनसाधारण को) बस उसी  एक साहायता की जरुरत है, इसके फलस्वरूप बाकी सब कुछ (मेरा भारत महान बनाने का सपना) अपने आप ही हो जायेगा.      
Ours is to put the chemicals together, the crystallization comes in the law of nature. Our duty is to put ideas into their heads, they will do the rest. 
That is what is to be done in India. I could not accomplish it in India, and that was the reason of my coming to this country.
हमें केवल रासायनिक पदार्थों को (3H - Hand , Head, Heart य़ा स्थूल, सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म) को इकठ्ठा भर कर देना है, क्रिस्टलीकरण (चरित्र-गठन य़ा रवा बंध जाना) तो प्राकृतिक नियमों (Law of Association) से ही साधित हो जायेगा. हमारा कर्तव्य है, उनके दिमागों में विचार भर देना- बाकी वे स्वयं कर लेंगे. भारत में बस इतना ही काम करना है..भारत में इसे मैं कार्य रूप में परिणत न कर सका, और यही कारण था कि मैं इस देश में आया. 
The great difficulty in the way of educating the poor is this. Supposing even your highness opens a free school in every village, still it would do no good, for the poverty in India is such, that the poor boys would rather go to help their fathers in the fields, or otherwise try to make a living, than come to the school. If the poor boy cannot come to education, education must go to him. 
गरीबों को शिक्षा देने में मूख्य बाधा यह है- मान लीजिये महाराज, आपने हर एक गाँव में एक निःशुल्क पाठशाला खोल दी, तो भी इससे कुछ काम न होगा, क्योंकि भारत में गरीबी ऐसी है कि गरीब लड़के पाठशाला में आने के बजाये खेतों में अपने माता-पिता को मदद देने य़ा किसी दूसरे उपाय से रोटी कमाने जायेंगे.इसीलिये अगर पहाड़ मुहम्मद के पास न  आये, तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास जाना पड़ेगा. अगर गरीब लड़का शिक्षा ग्रहण करने के लिये न आ सके,तो शिक्षा को ही उसके पास जाना पड़ेगा.  
(- अर्थात गाँव-गाँव में युवा चरित्र-निर्माणकारी शिविर आयोजित करना होगा ) 
There are thousands of single-minded, self-sacrificing Sanyasins in our country, going from village to village, teaching religion. If some of them can be organized as teachers of secular things also, they will go from place to place, from door to door, not only preaching, but teaching also.
हमारे देश में हजारों एकनिष्ठ और त्यागी साधु (देश-प्रेमी स्त्री-पुरुष ठाकुर-माँ-स्वामीजी के गृहस्थ भक्त आदि) हैं, जो गाँव गाँव में धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं. यदि उनमे से कुछ लोगों को सांसारिक विषयों के शिक्षकों के रूप में (महामण्डल के नेता का प्रशिक्षण देकर) संगठित किया जा सके तो गाँव गाँव, दरवाजे दरवाजे पर जाकर वे केवल धर्मशिक्षा(आत्म-श्रद्धा जगाने की शिक्षा ) ही नहीं देंगे, बल्कि धन कमाने की शिक्षा भी दिया करेंगे.    
Suppose two of these men go to a village in the evening with a camera, a globe, some maps, etc. By telling stories about different nations, they can give the poor a hundred times more information through the ear than they can get in a lifetime through books.
मानलीजिये कि इनमे से दो व्यक्ति (महामण्डल य़ा सारदा नारी संगठन में प्रशिक्षित दो नेता) शाम को साथ में एक मैजिक लैंटर्न, एक ग्लोब, और कुछ नक्शे आदि लेकर किसी गाँव (आज २०१० में जानिबीगहा के महामण्डल चालित स्कूल में लैपटॉप लेकर जाते हैं) में जाते हैं. वे अपढ़ लोगों को गणित, ज्योतिष, और भूगोल की बहुत कुछ शिक्षा दे सकते हैं.वे गरीब पुस्तकों से जीवन भर में जितनी जानकारी पा सकेंगे, उससे सौगुनी अधिक वे उन्हें बातचीत के माध्यम से विभिन्न देशों के बारे में कहानियाँ सुनाकर दे सकते है.      
This requires an organization, which again means money. Men enough there are in India to work out this plan, but alas! they have no money. lt is very difficult to set a wheel in motion; but when once set, it goes on with increasing velocity. After seeking help in my own country & failing to get any sympathy from the rich, I came over to this country through your Highness' aid.
इसके लिये एक संगठन की आवश्यकता है, जो पुनः धन पर निर्भर करता है. इस योजना को कार्यरूप में परिणत करने के लिये भारत में मनुष्य तो बहुत हैं, पर हाय ! वे निर्धन हैं. एक चक्र को चलाना बड़ा कठिन काम है, पर अगर एक बार वह गतिशील हुआ कि वह क्रमशः अधिकाधिक वेग से चलने लगता है.अपने देश में साहायता पाने का प्रयत्न करने के बाद जब मैंने धनिकों से कुछ भी सहानुभूति न पायी, तब मैं, महाराज, आपकी साहायता से इस देश में आ गया.  
The Americans do not care a bit whether the poor of India die or live. And why should they, when our own people never think of anything but their own selfish ends?
अमेरिका वासियों को इस बात की कुछ भी परवाह नहीं कि भारत के गरीब जियें य़ा मरें. और भला वे परवाह भी क्यों करने लगें, जब कि हमारे अपने देशवासी (सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हो जाने के बाद भी) सिवाय अपने स्वार्थ की बातों के और किसी की चिन्ता नहीं करते ?  
My noble Prince, this life is short, the vanities of the world are transient, but they alone live who live for others, the rest are more dead than alive.  
महामना राजन, आप इतना तो समझ ही लीजिये कि- यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं. (इस जगत में जो लोग आपको जीवित दिखायी दे रहे हैं,उनमे से)  यथार्थ रूप से वही जीवित है जो दूसरों का हितसाधन करने कि ईच्छा से जीवन धारण करता है,(जैसे निर्विकल्प- समाधि में जाने के बाद भी ठाकुर की आज्ञां से स्वामीजी बटवृक्ष बन करदूसरों को छाया देने के लिये जीवन धारण किये थे.)बाकी लोगों का जीना तो मरने ही के बराबर है. (जो रिटायर्ड होने के बाद भी केवल अपने ही भविष्य की चिन्ता में जीते हैं, उनका जीवन ? )     
One such high, noble-minded and royal son of India as your Highness can do much more towards raising India on her feet again and thus leave a name to posterity which shall be worshipped. That the Lord may make your noble heart feel intensely for the suffering millions of India, sunk in ignorance, is the prayer of -- Vivekananda.
महाराज, आप जैसे एक उन्नत, महामना भारत का राजपुत्र  भारत को फिर से अपने पैरों पर खड़ा कर देने के लिये बहुत कुछ कर सकते हैं.और इस तरह भावी वंशजों के लिये एक ऐसा नाम छोड़ जा सकते हैं, जिसकी वे पूजा करें. प्रभु (ठाकुर) आपके महान ह्रदय में भारत के उन लाखों नर-नारियों के लिये गहरी संवेदना पैदा कर दें, जो अज्ञात में गड़े हुए दुःख झेल रहे हैं- यही मेरी प्रार्थना है. 
Source: Complete Works of Swami Vivekananda ( Vol: 4: page 361)
(हिन्दी वि० सा० ख० २: ३६८)}
ऐसे देश प्रेमी स्वामी विवेकानन्द को अपने ' ह्रदय का धन ' समझ कर - उन्हें देश के युवाओं के समक्ष एक युवा-आदर्श के रूप में प्रस्तुत करना होगा, एवं उन सबों के जीवन में भी स्वामी विवेकानन्द प्रति अनन्य श्रद्धा-भक्ति को प्रतिष्ठित करना होगा ! उनको भी अन्य किसी तथाकथित राजनीतिक नेताओं की तरह ( जिनको हमलोग स्वयं तो अपने ह्रदय का धन नहीं समझते किन्तु दूसरों को दिखाने के लिये दीवार पर लटका देते हैं.) एक और युवा आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर देने से नहीं होगा. युवाओं के ह्रदय में भारत माँ के लिये - स्वामीजी के जैसा ही उत्साह चाहिये, वैसा ही आग्रह चाहिये, वही प्रेम चाहिये, वही स्नेह चाहिये; हमलोगों को स्वामीजी की पूजा नहीं करनी होगी, स्वामीजी की स्तुति नहीं करनी होगी, केवल स्वामीजी को अपने ह्रदय से प्रेम करना होगा. इसलिए मुझे क्या महसूस होता है, जानते हो भाई ?
यही कि-
" ठाकुर आमार बाबा, माँ सारदा आमार माँ, आर स्वामी विवेकानन्द आमार बड़ दादा " 
" ठाकुर मेरे बाबूजी हैं, माँ सारदा मेरी माँ हैं, और स्वामी विवेकानन्द मेरे बड़े भैया हैं ! "
 कोई भी व्यक्ति अपने बाबूजी -माँ- भैया का सबसे अधिक आदर करता है, सबसे ज्यादा प्रेम करता है, और करना भी चाहिये. और यदि सचमुच बिल्कुल अपने माँ-बप  तरह ही " ठाकुर- माँ " - किसी के बाबूजी-माँ हों ; और स्वामीजी से बड़े भैया की तरह कोई व्यक्ति प्रेम करता हो क्या उसके जीवन में फिर किसी भी चीज का आभाव हो सकता है ? क्या फिर उसे अपनी विद्या, बल, शक्ति को, प्रेरणा को, हृदयवत्ता को मनुष्य की सेवा में अपने जीवन को उत्सर्ग कर देने की कामना को दृढ़ता से ह्रदय में बैठा लेने में और कोई असुविधा हो सकती है ! अशिक्षा के अन्धकार में डूबे  हुए मनुष्यों को यदि ऊपर उठाना हो तो ठाकुर-माँ-स्वामीजी को अपना ह्रदय-धन बना कर ह्रदय में बैठा लेना होगा; और भारत का  समस्त युवा वर्ग ऐसा करने में सक्षम हैं ! पर हो सकता है कि सभी युवा उनको अपना ह्रदय-धन न बना सकें, किन्तु अगर उनका एक छोटा सा प्रबुद्ध युवा- दल भी ऐसा कर ले तो उतने से ही काम हो जायेगा.
एक critical number Chemistry - में बहुत बार प्रयोग में आता है, that critical number of young people must come.केमिस्ट्री में एक क्रिटिकल नम्बर (गुणगुणग्य-संख्या ) को अक्सर प्रयोग में लाया जाता है, जब युवा समुदाय में से भी उसी प्रकार एक क्रिटिकल नम्बर (जब पर्याप्त संख्या में - इस अर्जेन्टली नीडेड य़ा अत्यन्त आवश्यक गुणगुणग्य संख्या वाले ) में चरित्र-सम्पन्न युवाओं का निर्माण कार्य पूरा हो जायेगा  -  तब जो युवा जीवन के जोश में अपने जीवन के उद्देश्य को भूल कर कूमार्ग में पड़ जाते हैं, वे लोग इन गुणगुणग्य-संख्या वाले युवाओं को प्रलोभनों का दबाव देकर, उनकी शक्ति को अस्वीकार करके समाज के ऊपर उन्हें अपना प्रभाव डालने से विरत नहीं  कर सकेंगे. और इस छोटे से गुणगुणग्य-संख्या (क्रिटिकल नम्बर में उपलब्ध) प्रबुद्ध युवा नेतृत्व के मार्गदर्शन में समस्त समाज इसी प्रकार चरित्र-निर्माण के पथ पर आगे बढ़ता जायेगा !
 इस प्रकार के समस्त कार्यों में भीड़ जाने के कारण, शुरू शुरू में मेरे विरुद्ध भी अनेक अभियोग लगाये थे.मुझे महामण्डल के कार्य से मैं जब भी बाहर जाना पड़ता तो मैं छुट्टी का दरखास्त देकर ही जाया करता था.पर आने के बाद देखता हूँ कि मेरी छुट्टी नामंजूर कर दी गयी है; और तात्कालिक सजा के रूप में मेरा इन्क्रीमेन्ट तथा  मेरा कन्फर्मेशन भी रोक दिया गया है. तथा अन्य कोई सजा दी जा सकती है य़ा नहीं, इसपर भी विचार किया जा रहा है.
इन सब कार्यों के जो प्रधान ऑफिसर थे उनके पास जब मेरा अभियोग पहुँचा तो,  उन्होंने मुझे अपने ऑफिस में बुलवाया. उनका ऑफिस में दबदबा कुछ ऐसा था कि उनके कमरे में जाने पर कोई ऑफिसर भी उनके सामने चेयर पर नहीं बैठते थे, खड़े रहकर ही सभी अपनी बात कहते थे. इधर मेरे अन्दर एक बहुत बड़ा दोष यह था, जिसे बताना उचित होगा य़ा नहीं, नहीं जानता; परन्तु मैं केवल अपने शिक्षक महाशयों को ही ' सर ' कहा करता था; उनको सम्बोधित करने की रीति ही यह थी इसीलिये कहता था. शिक्षकों के अलावा किसी अन्य को मैंने अपने जीवन भर में कभी 'सर ' कह कर सम्बोधित नहीं किया है.नौकरी करने गया हूँ इसीलिये मुझे ' सर ' कहना ही होगा, ऐसी कोई मजबूरी मेरे साथ नहीं थी, मैंने कभी नहीं कहा. जिस कमरे में प्रविष्ट होने में सभी डरते थे, मेरे जाते ही वे बोले- ' बैठिये '. वे किन्तु सायंस कालेज के प्राध्यापक थे. मुझसे बोले, " आपको एक कार्य दिया जाये तो क्या आप उसे कर सकेंगे ? " मैंने कहा कि, " क्या कार्य करना है, यह जाने बिना मैं उसे कर पाउँगा य़ा नहीं कहना सम्भव नहीं है. " " नहीं , नहीं , वह तो बिल्कुल ठीक बात है, वह तो आप एकदम ठीक ही कह रहे हैं. " इतना कहने के बाद जो कार्य करने को कहे उसको पश्चिम बंगला सरकार कम से कम २० वर्षों से तो कर नहीं पायी थी.किन्तु होना उचित था.
मैंने कहा कि, '  न करने के लायक तो कोई कारण मुझे दिखाई नहीं दे रहा है, किन्तु इसको करने में ये ये चीजें लगेंगी तथा  इस कार्य के लिये मुझे दो व्यक्ति और चाहिये, तथा वे वैसे ही व्यक्ति होने चाहिये जिनके नाम मैं सुझाऊंगा.' " कहिये आप को कौन कौन से दो व्यक्ति चाहिये ? " पर जब मैंने एक आदमी का नाम सुझाया तो बोले, " उसकी बात कहते हैं, he is an unwilling horse, जब मैं उसके द्वारा कोई काम नहीं करवा पता हूँ तो आप कैसे करवा लीजियेगा ? "
मैंने कहा कि " यहाँ पर कौन व्यक्ति क्या काम कर सकता है, उन सब को मैं पहचानता हूँ, जानता हूँ. काम करवाने का तरीका मैं जानता हूँ, पर उसके नहीं रहने पर मैं यह कार्य कर नहीं पाउँगा. "" ठीक है हो जायेगा. "
उसीके बाद ऐसा हुआ कि जहाँ मेरी नौकरी जाने की बातें हो रहीं थीं वहीं ऐसा हुआ कि जिस कमरे में मेरा ऑफिस था उसके ही ठीक दूसरी तरफ, कोरिडोर के उस तरफ उनके ऑफिस का कमरा था. एक दीन मैं अपने ऑफिस में बैठ कर काम कर रहा था, काम अधिक होने पर मैं छौ -साढ़े छौ बजे तक भी काम करता था. ऑफिस के दूसरे सभी लोग निकाल गये थे. वे अपने ऑफिस में काम कर रहे थे और मैं अपने ऑफिस में काम कर रहा था. हठात मेरे कमरे कि बत्ती बुझ गयी.
मेरे मुँह से निकल गया, ' कौन है रे ? ' वे जल्दी जल्दी पर्दा हटा कर कहते हैं, " ओह, आप अभी तक काम कर रहे हैं, उठिए उठिए काम बन्द कर दीजिये, मेरे साथ चलिए अभी और काम नहीं करना होगा. " कह कर अपनी गाड़ी में बैठा कर मुझे अद्वैत आश्रम के गेट पर उतार दिये. क्योंकि ऑफिस का काम ख़त्म करने के बाद, महामण्डल का काम करने के लिये मुझे रोज शाम को वहीं जाना पड़ता था.(शायद इस बात को वे जान चुके थे). 
ऑफिस के काम की अवहेलना मैंने कभी नहीं की है. इसलिए मुझे यह बहुत अच्छी तरह से ज्ञात है कि, निष्ठा पूर्वक काम करने से तथा  ईमानदार रहने से मनुष्य को कभी हानी नहीं उठानी पड़ती. किन्तु जीवन में कितनी ही तरह की समस्याएं तो आती ही रहीं हैं, और उनमे से सभी को तो कहा भी नहीं जा सकता. अपनी आखों के सामने मैंने कितने ही असत काम होते देखा है. फिर भी मैं अपने को यथासाध्य निष्ठापूर्वक ही करता आया हूँ. एकबार किसी इन्स्पेक्सन में गया था, मुझे धमकी मिली- " आप का खून हो जायेगा, संभल जाइये ! " मेरा खून तो नहीं हुआ, उनकी कुछ दुर्बुद्धि का खून जरुर हो गया. इसलिए जिस किसी भी काम को चाहे वह व्यापार हो य़ा नौकरी - यदि निष्ठा के साथ की जाये, काम में ईमानदारी रखी जाये तो जो कोई भी चेष्टा सफल होती है.
बेलुड मठ तो खूब ही जाया करता था. संसारी के साथ सन्यासी का एक बहुत बड़ा अन्तर क्या होता है, वहाँ जाते जाते मुझे यह अच्छी तरह समझ में आ गया था. मैंने यह अच्छी तरह से जान लिया था कि संसारी लोग बिना किसी प्रत्याशा के प्रेम नहीं कर सकते हैं, वहीं सन्यासी लोग बदले में कुछ पाने की आशा किये बिना ही प्यार कर सकते हैं, इस तथ्य का मुझे अच्छा अनुभव हुआ था. तथा मुझे ऐसा भी महसूस हुआ है कि जो लोग ठाकुर-माँ- स्वामीजी का काम करते हैं उनको वे लोग दूसरों की अपेक्षा थोड़ा अधिक ही प्यार करते हैं. विरेश्वरानन्दजी महाराज, गम्भिरानान्दजी महाराज, भूतेशानान्दजी महाराज, अभयानन्दजी महाराज (भरत महाराज ), इनलोगों ने मुझे जितना प्रेम और स्नेह दिया है उसको मैं बोल कर समझा नहीं सकता; क्योंकि मुझे यह भी महसूस होता है की प्रेम अनुभव करने की वस्तु है, मुख से कह कर उसका इजहार करने की जरुरत नहीं है. 
बहुत बार इनका प्यार ऐसा महसूस हुआ है जैसे, कोई पिता अपने प्यार को बाहर प्रकट किये बिना अपने सन्तान को ह्रदय से प्यार करता है. बहिः प्रकाश व्यतिरिक्त जिस प्रकार पिता का प्यार अपने सन्तान के प्रति होता है, मानो वे लोग भी ठीक उसी प्रकार प्रेम करते थे, पूर्व में वर्णित कई घटनाओं से यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है.
एक दीन सुबह के समय बेलुड मठ गया हूँ. उस समय भूतेशानन्दजी महाराज प्रेसिडेन्ट थे. बैठक खाने में भक्तों के साथ प्रसंग कर रहे थे. मेरे जाते ही अन्दर जाने का दरवाजा बन्द हो गया. सेवक महाराज उनका सुनने का यन्त्र खोल कर भक्तों को गंगा की दिशा में स्थित दरवाजे से बाहर जाने के लिये कहे. अधिकांश भक्त लोग उठने  लगे थे.मुझको देखते ही महाराज बोले- " की नवनी, एसेछ ? "  ( क्या नवनी, आ गये ? )
 फिर कुछ प्रिय भक्तों की ओर देखते हुए कहते हैं-
" स्वामीजी बलेछिलेन, ठाकुरेर आविर्भावेर सँगे सँगे सत्य युग आरम्भ हयेछे.कई बापू !
मारामारी- काटाकाटी कत कि हच्छे ! "
"- स्वामीजी ने कहा था, ठाकुर के आविर्भूत होने के साथ ही साथ
सत्य युग आरम्भ हो गया है, पर कहाँ भाई !
संसार भर में कितना मारा-मारी, काटा-कटी कितना क्या क्या हो रहा है ! " 
उसी बीच में किसी अहमक कि तरह मैंने कह दिया- 
" यह जो गंगा बहती जा रही है, इसमें इतना ज्वार-भाटा खेलता है.
भाटा समाप्त होते समय पानी की गति बहुत बढ़ जाति है, 
कितु उसके पहले से ही ज्वार का जल नीचे से बहता रहता है,
ऊपर से वह दिखायी नहीं पड़ता. "
उनके (स्वामी भूतेशानन्दजी के ) मुखमंडल पर वही वात्सल्य पूर्ण हँसी प्रस्फुटित हो गयी- बोले- " नवनी ठीक बलछे. एई जे विवेकानन्द युव महामण्डल - एटा कि सत्ययुगेर लक्षन नय ? " " नवनी ठीक कहता है, यह जो विवेकानन्द युवा महामण्डल चल रहा है, क्या यह सत्य युग का लक्षण नहीं है ? "
एकदिन भरत महाराज के पास गया हूँ, कहते हैं-
" तोमादेर ' विवेक-जीवन ' आमार काछे आसे, आमि एकटू एकटू देखी. 
अनेक जायगाय युवकदेर ' कथामृत ' पड़िये पड़िये माथा खाच्छे. 
तोमराई ठीक काज करछ, स्वामीजीर कथा शोनाच्छ . " 
" - तुमलोगों का ' विवेक-जीवन ' (महामण्डल की मासिक संवाद-पत्रिका )
मेरे पास आता रहता है, मैं उसे थोड़ा-बहुत देखता भी हूँ . 
बहुत से स्थानों पर युवाओं को " वचनामृत " 
(श्रीरामकृष्ण-वचनामृत) पढ़ा पढ़ा कर उनका माथा खाता है,
तुमलोग युवाओं को स्वामीजी की वाणी सुनाते हो, तुम्ही लोग सही काम कर रहे हो ! "
महामण्डल के उडिषा राज्य शाखा कि ओर से लगातार चार वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर स्वामी रंगनाथानन्दजी की वक्तृता का आयोजन किया गया था. कितने दिनों तक प्रति दिन चार-पाँच जगहों पर उनका भाषण होता था. प्रत्येक बार मुझको भी जाने के लिये कहते थे. किसी जगह पर महाराज पहले बोलते थे उनके बाद मैं बोलता था. कहीं पर वे कहते- " तुम पहले बोलो मैं बाद में बोलूँगा " प्रत्येक जगह पर प्रचूर श्रोता एकत्र होते थे. सभा का पण्डाल के बाहर भी इतनी भीड़ (दो-तीन हजार लोग) इकट्ठी हो जाति थी कि पण्डाल से कुछ दूरी पर ही गाड़ी खड़ी कर देनी पड़ती थी.
किसी स्थान पर सभापतित्व करने की जिम्मेवारी सुप्रीम कोर्ट के मूख्य न्यायधीश की थी. अन्तिम क्षणों में सूचना मिली वे  नहीं आ सकेंगे. हठात उनलोगों ने न जाने क्या सोंच कर सभापतित्व करने के लिये मेरा नाम प्रस्तावित कर दिया, रंगनाथानन्दजी को बताया तो, उन्होंने कहा- ' very good .' 
सभापति के भाषण को पहले ही देते हुए, मैंने कहा- ' महाराज के भाषण को अन्त में सुनने पर आपलोग उनके उपदेश के भाव को अधिक देर तक अपने दिमाग में बैठा सकेंगे, इसीलिये सभापति का भाषण उनसे पहले ही हो गया है.
एक ग्राम की ओर चलते समय रास्ते में लोग पैर धो रहे थे, माला पहना रहे थे. इतना अधिक माला पहना दिया कि गले में अँट नहीं रहा था. हमदोनों ही लोग बीच बीच में कितने हार को गले से खींच कर फेंक रहे थे और कितने ही लोग उनको लूटने के लपकते थे. मंच पर एक तरफ खड़े होकर महाराज वक्तृता दे रहे थे, मैं बीच में बैठा हुआ था, हठात श्रोताओं के बीच से, उनके सर को इधर उधर हटाते हुए एक व्यक्ति मंच पर चढ़ कर मेरे सामने साष्टांग सो गया और दोनों पैरों को पकड़ कर रोने लगा. महाराज जिस प्रकार वक्तृता दे रहे थे, मेरी ओर जरा सा एक नजर देखे और बिना रुके बोलते ही रहे. दूसरे लोग आये और उस व्यक्ति को उठाकर ले गये. बाद में जब महाराज ने उस व्यक्ति उस प्रकार रोने का कारण जानना चाहा तो बताया गया कि वह व्यक्ति चाहता था कि मैं माँ के सम्बन्ध में कुछ कहूँ .
महाराज ने मुझे माँ के सम्बन्ध एक घन्टा तक बोलने को कहा और खुद अगली सभा के लिये चल पड़े, तथा सभा की समाप्ति के पश्चात् मुझे वहाँ नहीं जाकर उसके बाद वाली सभा में जाने का आदेश दिया. मुझे वैसा ही करना पड़ा. एक स्थान पर जाने के पहले हम दोनों को बिठाकर विभिन्न उपचार से पूजा करने के बाद आरती किया. (नर-नारायण repeats ?) मनुष्य के मन में क्या-क्या भावनाएं आ सकती हैं ! इन सबको रंगनाथानन्दजी ने बहुत सहज भाव से ग्रहण किया, मैं भी उनका अनुसरण करता चला गया. वे भी कितने अदभुत मनुष्य थे ! उनका प्रेम पाकर के मुझे ऐसा प्रतीत होता था- क्या पिता पुत्र को इस प्रकार प्रेम कर सकते हैं ? एवं यह भी मेरे मन में ऐसा ख्याल भी आता है कि, (पिता-पुत्र य़ा नर-नारायण के बीच जो स्नेह होता है ) वैसा स्नेह सदैव किसी न किसी को प्राप्त होता रहेगा !
इसके बहुत बाद में जब भरत महाराज बहुत अस्वस्थ होने सेवा प्रतिष्ठान में रहरहे थे. यह खबर मुझे दूसरों से प्राप्त हुई थी. अक्सर किसी को भी उनसे मिलने की अनुमति मिलती नहीं थी. मेरा मन बेचैन हो रहा था. हठात एक दिन दोपहर के समय मेरे दसवें तल्ले पर स्थित ऑफिस के कक्ष में, जयराम महाराज (स्वामी स्मरणानन्दजी, वर्तमान समय में मठ के भाईस प्रेसिडेन्ट ) आकर हाजिर होगये. और बोले " भरत महाराज को देखने के लिये सेवा प्रतिष्ठान जा रहा हूँ. आपके ऑफिस के सामने गुजरते समय मन में आया आपसे भी मिलता चलूँ. " मैंने पूछा - " क्या आप मुझे भी अपने साथ ले चलेंगे ? " उन्होंने कहा- ' चलिए '. मैं फाइलों को संभल कर रख दिया और उनके साथ हो लिया. उनके साथ जा रहा था, इसीलिये रास्ते में किसीने हमें टोका-टाकी नहीं किया.
लिफ्ट से सेवा-प्रतिष्ठान के चौथे तल्ले पर चढ़ कर दक्षिण की ओर वाले अन्तिम केबिन में महाराज आँखों को मूंद कर चुचाप सोये हुए थे. केबिन के अन्दर उनके बिछावन के समीप खड़े होकर हमदोनों उनको देख  रहे थे. वहाँ पर अकेले " मन्टू बाबू " {जिन्होंने बहुत वर्षों तक मठ में भरत महाराज की सेवा-सुश्रुषा (देख-भाल) आदि की थी} ही खड़े थे. सभी लोग चुप-चाप थे. जयराम महाराज ने मन्टू बाबू से पूछा, " हम लोग जो यहाँ आये हैं क्या महाराज इस बात को समझ सके हैं ? " मन्टू बाबू ने थोड़ा कर्कश स्वर में कहा- " मैं यह कैसे बता सकता हूँ ? " 
जयराम महाराज इतने शान्त स्वाभाव के थे, की कर्कश स्वर में उत्तर न देकर उन्होंने मुझसे कहा- " आप यहीं ठहरिये, मैं किसी व्यक्ति के साथ मिल कर शीघ्र ही आ रहा हूँ."
इधर मन्टू बाबू को भी थोड़ा अफ़सोस हो रहा था कि, सन्यासी से उस प्रकार बोल दिये ! उन्होंने शान्त भाव से मुझसे कहा- " रात्रि के समय एक दरी बिछा कर फर्श पर सोना पड़ता है, और सारे दिन सन्यासी लोग, डाक्टर, नर्स, भक्त लोग आते रहते हैं, कई तरह के प्रश्न पूछते हैं, साबुन को जितना सम्भव होता है उत्तर देता हूँ. कुछ ही दिन पहले पती और पत्नी दोनों आये थे, वे लोग महाराज के पास बीच बीच में मठ में आया करते थे. वे ट्रेन से बहुत दूर से आये थे. इस कमरे में तो कोई आ नहीं  सकते थे, कमरे के बाहर से ही पूछ रहे थे, " हमलोग महाराज को देखने के लिये आये हैं, क्या महाराज इस बात को जान रहे हैं ? " महाराज तो आँखे मूंद कर सोये हुए थे.
हठात महाराज कहते हैं- " उनलोगों से पूछो कि, विवाह के रात्रि में पती-पत्नी आपस में सात-सात वचन एकदूसरे को देते हैं; वे वचन उनको अब भी याद हैं य़ा सब भूल गये हैं ? " जैसे ही मन्टू बाबू ने महाराज कि बात उनलोगों से कहा, वे दोनों जोर जोर से रोने लगे और दरवाजे की चौखट पर सर रगड़ने लगे. उसके बाद धीरे धीरे उठे और हाथ जोड़ कर बोले- " हमलोग तलाक लेने के लिये कोर्ट जा रहे थे, फिर सोंचे कि एक बार महाराज को प्रणाम करके जाना चाहिये. नहीं , अब तलाक नहीं लेंगे. " 
वैसे तो स्वामीजी की समस्त वाणी मन्त्र के जैसी ( वेदों के ४ महावाक्यों के जैसी) ही हैं- जिसका मनन करने ' त्राण ' (भवसागर से तर जाते हैं ) होता है, फिर भी उनका एक उपदेश - जिसने इस जीवन नदी को सदा (सागर से मिलने जाने के पथ पर ) चलते रहने को प्रेरित किया है-
वह उपदेश है : 
" They alone live who live for others, 
the rest are more dead than alive. " 

" - यथार्थ रूप में वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं, 
बाकी लोग तो मृतक (मुर्दा) से भी अधम हैं. " 
( स्वामीजी का यह कथन कितना सत्य है इसका प्रमाण है मेरी यह जीवन नदी जो अपने हर नये मोड़ पर कितने ही ऐसे जीवित लोगों का अनुभव संजोय है ! ) 
जीवन नदीर बाँके बाँके, कतई देखा शोना होल - 
अतल प्रानेर सागर ह'ते, किसेर ध्वनी बोझा गेल ?
कालेर बेलाये रेखा रेखे, एबार जाबार समय एल ;
भेसे जाबार एल पाला, विस्मरनेर अतल तले || 
उस परा-वाणी को समझ कर कवि ह्रदय गा उठता है- 
जीवन नदी के हर मोड़ पर - कितना कुछ देखने सुनने का अवसर मिला - 
किन्तु प्राण-सागर की असीम गहराई (नाभि) से ऊपर उठती हुई 
(वह नाम-धुन : परा-मध्यमा-पश्यन्ति वैखरी वाणी) वह ध्वनि किसकी है ?- 
( वह परा वाणी " शब्द-ब्रह्म "  ॐ कार की गूँज है- )
बात समझ में आयी ?     
काल के कपाल पर स्मृति-चिन्हों को बनाते -बनाते, अब मेरा खेल ख़त्म हुआ; विस्मृति की असीम गहराई (महा-आनन्द ) में बह जाने का समय आ गया है !!  
महाकवि अज्ञेय की कविता है-   




हम नदी के साथ-साथ
सागर की ओर गए
पर नदी सागर में मिली
हम छोर रहे:

नारियल के खड़े तने हमें
लहरों से अलगाते रहे
बालू के ढूहों से जहाँ-तहाँ चिपटे
रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल
हमारा मन उलझाते रहे

नदी की नाव
न जाने कब खुल गई
नदी ही सागर में घुल गई
हमारी ही गाँठ न खुली
दीठ न धुली

हम फिर, लौट कर फिर गली-गली
अपनी पुरानी अस्ति की टोह में भरमाते रहे।

" हरिः ॐ तत सत "

(Definition of Critical :- urgently needed; absolutely necessary Example: critical medical supplies|vital for a healthy society|of vital interest)

               
           

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

[58] "ऐसा उदार ह्रदय था मेरी माँ का !"

" खड़दा का आभिजात्य वर्ग के लोगों का मोहल्ला "
खड़दा में हमलोगों के मोहल्ले का नाम है- ' कुलीन पाड़ा ' (आभिजात्य वर्ग के लोगों का मोहल्ला ) वहाँ पर लक्ष्मी-नारायणजी का मन्दिर है, उस मन्दिर में कुछ वर्षों तक मैं प्रतिदिन संध्या के समय जाया करता था. उस मन्दिर के जो प्रतिष्ठाता हैं उनका सन्यास नाम था- यतीन्द्ररामानुज दास. वे रामानुजी वैष्णव संप्रदाय के सन्यासी थे. किन्तु सन्यास लेने से पहले उनका पेशा डाक्टरी का था, वे एक प्रसिद्ध डाक्टर थे. आन्दुल के दो डाक्टर थे एक थे बुधेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, और दूसरे थे ये - डाक्टर इन्द्रभूषण बसू; जो बाद में यहाँ (खड़दा में) आ गये थे. थोड़ा पहले के समय के जो लोग हैं, वे सभी इनको जानते हैं. 
उस समय के देशी राजा लोग बीमार पड़ने पर इन लोगों को ही अपने रोग का इलाज करवाने के लिये अपने साथ ले जाया करते थे. मैं जिस दिन पहली बार मन्दिर गया तो देखता हूँ एक व्यक्ति सन्यासी वेष में सादा वहिर्वास एवं शरीर पर एक चादर ओढ़े खड़े हैं. उनको  देखने से ऐसा लगा मानो बड़े ही तेजस्वी पुरुष हों. मन्दिर के प्रांगण  में सारे कार्यों की देखरेख करते हुए घूमफिर रहे थे. सन्यासी समझ कर उनको अपना प्रणाम निवेदित किया. प्रणाम करते ही चेहरे की ओर देखते हुए बड़े स्नेह पूर्वक बोले- ' कहाँ रहते हो ? ' इत्यादि इत्यादि. उसी के बाद से वहाँ आना-जाना शुरू हो गया. प्रौढ़ अवस्था में, काफी उम्र बीत जाने के बाद उन्होंने डाक्टरी का पेशा त्याग कर सन्यास ले लिया था. इसी अवस्था में उन्होंने संस्कृत भी सीखा था एवं संकृत भाषा के असाधारण विद्वान् हुए थे.
कुछ वर्षों के लिये दक्षिण भारत चले गये थे. तमिल भाषा सीख लिये. भक्ति मार्ग के जितने भी प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं उनमे से अधिकतर ग्रन्थ तमिल भाषा में ही उपलब्ध हैं. उन्होंने लगभग तीस तमिल भक्ति-शास्त्रों का बंगलाभाषा में अनुवाद किया था.यहीं पर एक प्रेस स्थापित किया था जिसमे इन ग्रंथों की छपाई होती थी. ' उज्जीवन ' नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किये थे. वह छपता रहा, फिर साथ साथ अन्य पुस्तकों को भी प्रकाशित करने लगे.
साथ ही साथ  इतनी उम्र बीत जाने के बाद भी संगीत की शिक्षा प्राप्त किये, पहले से थोड़ा बहुत संगीत जानते थे, किन्तु बाद में कीर्तन विशेष रूप से सीख लिये थे. उनके जैसा किसी अन्य कीर्तन गाने वाले को मैंने आज तक कभी नहीं सुना है. उनके कीर्तन शास्त्रीय रागों पर आधारित होते थे, एवं प्रत्येक उत्सव के अवसर पर उनका कीर्तन सुनने के लिये भारी संख्या में भक्त लोग एकत्र होते थे. उसमे प्रवचन तो यदाकदा ही होते थे परन्तु कीर्तन सर्वदा हुआ करता था.
जिस दिन जो कीर्तन होगा, उसे पहले से छपवा कर सबों के हाथों में दे दिया जाता था तथा वे खड़े होकर ही गाया करते थे.एवं नवद्वीप ब्रजवासी महोदय जैसे खोलवादक ( मृदंग वादक ) मृदंग बजाया करते थे. वृद्ध, तन किन्तु हाथ, उस हाथ से कैसी मधुर ध्वनी निकलती थी. जो लोग पुराने समय के किर्तनिये हैं वे जानते हैं कि नवद्वीप ब्रजवासी महोदय किस अनन्य कोटि के मृदंग वादक थे. कीर्तन करते समय किर्तनिया लोग प्रारम्भ में थोड़ा सा आलाप अवश्य लिया करते हैं. किन्तु जब वे आलाप लेते थे तो उनके  कंठस्वर को थोड़ा सा सुनते ही श्रोता को स्तंभित हो जाना पड़ता था. उस समय किसी भी श्रोता के शरीर-मन में थोड़ी भी चंचलता का रहना असम्भव हो जाता था. एवं उस मन्दिर का सौन्दर्य भी असाधारण था. यह मन्दिर गंगा के बिल्कुल किनारे ही स्थित है, तथा गंगा के उसपार से भी उनका कंठस्वर सुनाई देता था.
अपूर्व मनोहर कंठस्वर एवं अति उद्दात गला, तथा जिन को स्वर कि शुद्धता का ज्ञान है, वे उनके कन्ठ स्वर को सुन कर पुलकित हो जाते थे. फिर कैसा सुन्दर कीर्तन प्रस्फुटित होने लगता था. उस समय भी मुझे उनका कीर्तन बहुत अच्छा लगता था किन्तु आगे चल कर और भी अच्छी तरह से समझने लगा था. इसीलिये संगीत के जैसा माँ के पास गाना सुनता था, उसी तरह हाथ में खल्ली पकड़ा कर किस प्रकार वाद्य-यन्त्र  से निकलने वाले स्वरों को गले में उतरा जा सकता है- यह विद्या इनके पास से ही सीखा था. जब उनकी उम्र बहुत अधिक हो गयी तो एकदिन उनके पास गया था, मुझसे बोले- ' तुम्ही लोग भाग्य वाले हो, इतने कम उम्र में इन सब की ओर तुम्हारे मन का झुकाव हो गया है, हमलोगों का अधिकांश जीवन तो वैसे ही व्यर्थ में चला गया.'!
इस मन्दिर में अयोध्या के ब्राह्मण लोग पुरोहित हुआ करते थे. उनलोगों के साथ घनिष्ट परिचय हो गया था. मन में विचार आया इनलोगों से अगर संस्कृत के उच्चारण को सीख लिया जाय तो कितना अच्छा होगा ? घर में संस्कृत के ऊपर बहुत सी पुस्तकें विरासत से उपलब्ध थीं, संस्कृत के ऊपर चर्चा भी होती थी.
प्रपितामह भुवनचन्द्र विद्यानिधि तो ईश्वरचंद्र विद्यासागर महाशय के छात्र थे. हमलोगों के स्कूल में संस्कृत की पढ़ाई बहुत अच्छे स्तर की होती थी. किन्तु बंगाली लोग संस्कृत को सही ढंग से उच्चारण करने में अभ्यस्त नहीं होते. इस मन्दिर के दो पुरिहितों से संस्कृत का सही उच्चारण करना सीखने लगा. श, ष, स के उच्चारण के पार्थक्य को समझा, न और ण में उच्चारण के पार्थक्य को सीखा. लघु और गुरु स्वरों के पार्थक्य को सीख कर रोज सुबह में थोड़ी देर अभ्यास करता था. उस समय तक तो नौकरी का जीवन शुरू हो चुका था. नौकरी के सिलसिले में बदली हो य़ा नई नई नौकरी लगी हो- जहाँ भी रहता था वहीं सुबह में कम से कम १५ मिनट सही ढंग से संस्कृत में उच्चारण करने का अभ्यास अवश्य किया करता था.
विशुद्ध सिद्धान्त पत्रिका (बंगाली पञ्चांग ) के प्रतिष्ठाता माधवचन्द्र चट्टोपाध्याय मेरी माँ के पितामह थे. वे भारत सरकार के लोक निर्माण विभाग के प्रथम भारतीय इंजीनियर थे, रुड़की से इंजीनियरिंग पढ़े थे. वे एक समय नौकरी के सिलसिले में कुछ समय तक कटक में रहे थे. वहाँ पर एक ज्योतिर्विद (astronomer)  के साथ उनका परिचय हुआ तब उनका इस विद्या की ओर बहुत झुकाव हो गया था, इस विषय पर उन्होंने बहुत गहरा अध्यन किया था. एवं बाद में इस पत्रिका में सुधार करने की बात उठी थी. ' विशुद्ध सिद्धान्त पत्रिका ' को  प्रकाशित हुए १०० से अधिक वर्ष बीत चुके हैं. किन्तु हमारे घर में यही पत्रिका १०० वर्ष से भी अधिक समय से व्यवहार की जाति रही है. उनके पुत्र, मेरे मातामह (नाना) परेशचरण चट्टोपाध्याय लोक निर्माण विभाग विभाग में एक्जीकियुटिभ इंजीनियर थे. हुगली जिले के नंदीग्राम में उनका पुराना घर था. माने उनलोगों का आदि निवासस्थान वहीं था. श्यामबाजार में जहाँ पञ्चमुहान (पञ्चमाथा मोड़ ) कहता है, ठीक उसी जगह में उनलोगों का तीन तल्ला घर था. पञ्चमाथा मोड़ बनते समय उनका घर तोड़ दिया था, बाद में उनलोगों ने उत्तर पाड़ा में एक मकान बनाया था. फिर जब उत्तर पाड़ा की तरफ से बालि की ओर जाने का ब्रीज जब निर्मित हो रहा था तब उनलोगों का उत्तर पाड़ा वाला घर भी तोड़ दिया गया था. उसके बाद से वे लोग इधर उधर विभिन्न स्थानों में रह चुके हैं. मेरे मातामह (नाना ) परेशचरण चट्टोपाध्याय बहुत से स्थानों में रहे हैं. जिस समय वे आसाम में थे उस समय वहाँ एक सरोवर (झील ) खुदवाये थे. उसका नाम ' परेश सरोवर ' था. वे नौकरी के दौरान कुछ समय तक तेजपुर में थे.
मेरी माँ का जन्म तेजपुर में ही हुआ था. मेरी माँ का नाम उषा था, उषा रानी कहते थे. तेजपुर के एक राजा की कन्या का नाम उषा था. नहीं कह सकता कि मेरी माँ का नाम उन्ही के नाम पर था य़ा नहीं . बचपन में माँ तेजपुर में रहती थी, एकदिन एक दिन एक दीन-दरिद्र विकृत मस्तिष्क महिला हठात घर के बगीचे में घुस आयी और खाना माँगने लगी, बालिका के उम्र कि मेरी माँ ने उसको घर के भीतर ले जाकर अच्छी तरह से स्नान करवाया, अच्छे कपड़े पहनाये तब भर पेट भोजन करा कर विदा कर दिया, जाते समय उस महिला ने मेरी माँ को ढेर सारा आशीर्वाद दिया था. 
मेरी माँ का ह्रदय असाधारण रूप से कोमल और सहानुभूतिशील था, पिताजी भी वैसे ही थे. पितामह, प्रपितामह, प्रपितामही, इन सबों के ह्रदय में सबों के प्रति अत्यन्त प्रेम था, सहानुभूति थी. इनलोगों का सारा ध्यान सर्वदा इसी बात की ओर लगा रहता था कि कैसे सबों कि थोड़ी साहायता की जाये, दूसरों को थोड़ी तृप्ति दी जाये, आनन्द दिया जाये. भुवन पण्डित महाशय जाड़े के समय में एक दिन शाल ओढ़ कर गंगा के किनारे प्रातः भ्रमण (मॉर्निंग वाक) करने गये थे, जब वापस लौटे तो शरीर पर शाल नहीं था. पूछा गया, " शाल क्या हुआ ? " उन्होंने कहा एक आदमी ठंढ से बहुत काँप रहा था, उसी को दे दिया. "  हमलोगों की अवस्था बहुत अच्छी नहीं थी, मोटामोटी परिवार के खर्च भर पैसे आ जाते थे, किन्तु यह सब वैसे ही चलता रहता था. अपने हिस्से का दोपहर के भोजन दूसरे को खिला कर स्वयं मुढ़ी खाकर मेरी माँ ने कितने दीन बिताये होंगे, उसकी गिनती नहीं की जा सकती. जब माँ का देहान्त हो गया तो घर के सामने दो-तीन सौ लोग आकर जमा हो गये थे. ( सभी के मुख पर एक ही बात थी - कोई कहता चाची मुझको बहुत मानती थी, कोई कहता मौसी मुझे बहुत मानती थी.) महिलायें आ आ कर थोड़ा थोड़ा सिंदूर ले जा रही थी. मोहल्ले के सारे लोगों की आँखें नम हो गयीं थीं. एक-दो लोग आकर जोर जोर से रोते हुए कह रहे थे, " माँ, यदि आप मुझे खाना नहीं खिलातीं, तो पता नहीं कितने दिनों तक मुझे भूखा ही रह जाना पड़ता. " ऐसा उदार ह्रदय था मेरी माँ का !
         शियालदह स्टेशन के निकट 6 /1 A जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, स्थित तनु बाबू के के घर के निचले तल्ले पर महामण्डल का सिटी ऑफिस तो चल ही रहा था. परन्तु बीच बीच में महामण्डल द्वारा सन्चालित विभिन्न केन्द्रों के संचालकों को विशेष प्रशिक्षण देने के लिये केंद्रीय संस्था की ओर से तीन तीन महीने के अन्तराल पर विशेष प्रशिक्षण शिविर आयोजित होते रहते थे. इसके लिये हमलोगों को किसी स्कूल य़ा किसी बड़े हॉल में एक-दो दीन की व्यवस्था करनी पड़ती थी. इसीलिये हर बार यह शिविर विभिन्न स्थानों पर आयोजित करना पड़ता था.
 अतः किसी ऐसे स्थान की आवश्यकता बहुत अधिक प्रयोजनीय हो गयी थी जो अपना स्थायी स्थान हो जहाँ नियमित रूप से इस प्रकार के प्रशिक्षण की व्यवस्था हो सकती हो. कोन- नगर का महामण्डल भवन के निकट जहाँ कोपरेटिभ सोसाइटी चलता है, वहाँ शिशिर कुमार घोष महाशय के के घर के बगीचे के किनारे एक छोटे से घर में सुभाष गुहा ने महामण्डल के कार्य को आरम्भ किया था. अनुमति लेकर वह जब वहाँ पर पाठचक्र चलाने लगा तो वहाँ रहने वाले स्थानीय लोगों को महामण्डल के सम्बन्ध जानकारी प्राप्त हुई. शिशिर बाबू के भाई सुबीर कुमार घोष महाशय महामण्डल को ४ कट्ठा जमीन दान में दे दिया. वहाँ पर और भी ४ कट्ठा जमीन वे पौर-सभा (नगर-परिषद् ) को दान करने की बात सोंच रहे थे. किन्तु उनके एक परिचित कानून-विद प्रणय सरकार ने सुबीर बाबू को सावधान करते हुए कहा उनलोग आपके द्वारा दिये जमीन को किस प्रकार व्यवहार में लायेंगे यह ठीक नहीं है, हो सकता है यहाँ का परिवेश अवान्छित हो जाये, इसीलिये किसी जमीन का दान किसी अच्छी संस्था को करना ही अच्छा होगा. 
इसीलिये सुबीर बाबू ने बाद में और भी चार कट्ठा जमीन महामण्डल को ही दान में दे दिया. महामण्डल के विभिन्न केन्द्र में जिला स्तर पर य़ा कुछ जिलों को मिला कर आंचलिक प्रशिक्षण शिविर हो रहे थे, एवं अब भी हो रहे हैं. सभी लोगों ने भवन निर्माण के लिये अर्थ दान में दिये. सबसे पहले निचले तल्ले पर एक बड़ा सा हॉल और कुछ छोटे छोटे कमरे कुआँ आदि बनाये गये. हॉल में ठाकुर-माँ-स्वामीजी की तीन छवियाँ यथाविधि प्रतिष्ठित कर दिया गया. 
बाद में दूसरे तल्ले पर एक सभा-कक्ष और एक कमरा निर्मित हुआ जिसके बाद से अब विशेष प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने के लिये हमलोगों विभिन्न स्थानों में दौड़ने की जरुरत नहीं होती. उस हॉल में १५० से २०० व्यक्ति एक साथ बैठ कर क्लास कर सकते हैं. बाद ठाकुर-माँ-स्वामीजी के छवि को भी दूसरे तल्ले वाले हॉल में ले जाया गया. महामण्डल की स्थानीय शाखा भी इसी जगह से अपने नियमित कार्य करते हैं. महामण्डल जिस प्रकार केवल पुरुषों के लिये है, उसी की तरह कार्य स्त्रियों के बीच भी करने के लिये बहुत सी महिलाओं के आग्रह को पूर्ण करने के लिये महामण्डल ने प्रयास करके ' सारदा नारी संगठन ' की भी स्थापना कर दी है. उसकी स्थानीय शाखा का साप्ताहिक पाठचक्र भी इसी स्थान में आयोजित होता है.महामण्डल के इस भवन की बुनियाद का पत्थर बेलुड मठ के जेनरल सेक्रेटरी श्रीमत स्वामी वन्दनानन्दजी महाराज के करकमलों द्वारा रखी गयी थी, जिसमे हजारो लोग उपस्थित हुए थे.
कोन नगर का एक रिक्सा-चालक ( ठेला-रिक्सा वाला) जिसका नाम था अशोक, उसने पहले एक मीट्टी के कमरे की नींव में उपयोग करने के लिये अपने रिक्से (वैन-रिक्सा) से बहुत सी मिट्टी ढो कर ला दिया था. उसके लिये कोई किराया नहीं लिया था, इधर अपने रोजगार से नियमित वह एक पञ्च रुपये का सिक्का एक चुकिया में डाल दिया करता था. जब वैसा १०० सिक्का (पाँच रुपये का)  जमा हो गया तो भवन निर्माण के लिये चंदे में दे दिया. यह घटना रामचन्द्र के सेतु-बांध के समय हनुमान द्वारा दी गयी साहायता का स्मरण करवा देती है. महामण्डल के इतिहास में यह घटना भी अविस्मर्णीय हो कर रहेगी.
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