सोमवार, 30 अगस्त 2010

[51] "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" - का ही एक अंग है -महामण्डल !

 " महामण्डल मानो स्वामी विवेकानन्द का ब्रेन्चाइल्ड है ! "
 महामण्डल का गठन तो हो गया, किन्तु अब प्रश्न उठा की इस संस्था के कार्यकर्ता लोग कहाँ बैठ कर अपनी गतिविधयों का संचालन करेंगे ? बैठने का कोई स्थान नहीं था, रूपया पैसा भी नहीं था, कुछ भी नहीं था. किन्तु उस समय कुछ थोड़े से उत्साही युवक अवश्य इस संगठन से जुड़ चुके थे. उस समय अद्वैत आश्रम में ही मीटिंग इत्यदि हुए करते थे.महामण्डल का गठन भी उसी स्थान पर बैठ कर हुआ था.
उस हॉल में स्वामी विवेकानन्द का विशाल आयल पेन्टिंग भी रखा हुआ था. वहाँ महामण्डल की स्थापना बैठक समाप्त हो जाने के बाद, जब स्वामीजी की उस छवि पर दृष्टि पड़ी तो ऐसा लगा मानो स्वामीजी वहाँ साक्षात् खड़े हैं और प्रसन्न मुख से आशीर्वाद दे रहे हैं! स्वामीजी की उस छवि को देखने से ऐसा लग रहा था मानो स्वामीजी ने महामण्डल को आविर्भूत होते केवल देखा ही नहीं हो, बल्कि अपनी निगेहबानी में इसको प्रारम्भ भी कर रहे हों. " महामण्डल मानो स्वामी विवेकानन्द का ब्रेन्चाइल्ड है"-- अनुभूति के उस उद्गार को कह कर समझाया नहीं जा सकता.
" एटा एकटा मने हवा कथा आर कि ! "  
" - यह एक मन में वैसा प्रतीत होने (य़ा विश्वास करने ) की बात है और क्या ! "   
 प्रश्न था, इस संगठन की गतिविधियाँ किस जगह से सन्चालित की जाएँ ? उस समय अद्वैत आश्रम में ही चर्चा हुई कि जब तक अन्य कोई व्यवस्था नहीं हो जाती है, तबतक क्या वहीं पर शाम के बाद थोड़ी देर तक वहीं पर बैठ कर हमलोग क्या अपना कार्य कर सकते हैं ? उस समय एक सन्यासी जो इंग्लैण्ड में रहते थे, किसी कारणवश वहाँ आये हुए थे. वे बोले- " हाँ, हाँ, क्यों नहीं कर सकते हैं | " उन्होंने पुनः प्रश्न किया - " आपलोगों के पास रुपये-पैसे कितने हैं ? " मैंने कहा अभी रुपये-पैसे कहाँ से आयेंगे? अभी अभी तो इसकी स्थापना हुई है ! वे स्वयं बोले - " अच्छा, अच्छा मैं देखता हूँ कि मेरे बैग में क्या है ? " बैग को खोल कर देखे और कहा - " मैं अब क्या कहूँ इसमें केवल पच्चीस रुपये ही हैं. " रामकृष्ण मठ मिशन के एक सन्यासी के करकमलों से प्राप्त ये पच्चीस रुपये ही सर्वप्रथम महामण्डल के लिये संबल स्वरुप थे. 
उसके बाद अद्वैत आश्रम के निचले तल्ले पर बने ऑफिस में जहाँ सन्यासी लोग बैठ कर कार्य करते हैं, वहीं पर बैठ कर महामण्डल- ऑफिस का काम भी चलने लगा. विभिन्न स्थानों में चिट्ठी-पत्री भेजनी थी, इसको कैसे भेजा जाये ? तब स्वामी स्मरणानन्दजी वहाँ के मैनेजर हुआ करते थे, उनके समक्ष इस समस्या को रखते हुए मैंने पूछा, महाराज क्या होगा ? उन्होंने कहा- " क्या चाहते हैं कहिये ? " मैंने कहा महाराज दो'चार दिन हमलोगों को दीजिये न. उन्होंने कहा- " ठीक है, इस चन्द दिनों की अवधि में आपलोग जितने पत्र लिखेंगे हमलोग उस पर टिकट चिपका कर पोस्ट में डाल देंगे. " इस प्रकार से कार्य आरम्भ हुआ, चलने लगा, और चलता रहा. 
उस समय अलोपी महाराज ( स्वामी चिदात्मानन्द ) अद्वैत आश्रम के प्रेसिडेन्ट थे. कुछ ही दिनों के बाद " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " का प्रथम कैम्प होने वाला था. उस समय लड़के लोग आये हैं, शाम हो जाने के बाद हमलोग ऑफिस में बैठ कर काम कर रहे हैं, देर रात्रि तक काम करते करते ९ बज गया है. उपरी तल्ले पर रात्रि के भोजन का घन्टा बज उठा. सन्यासी ब्रह्मचारियों के भोजन का घन्टा बज गया, किन्तु हमलोग काम में लगे हुए थे. हठात एक ब्रह्मचारी आकर मुझसे पूछते है, ' आपलोग कुल कितने व्यक्ति हैं ? ' मैंने पूछा, ' क्या बात है ? ' वे बोले बड़े महराज पूछ रहे हैं ' मैंने देख कर बता दिया, ठीक से याद नहीं पर आठ आदमी य़ा नौ आदमी हमलोग उस समय वहाँ पर कार्य कर रहे थे. सुन के वे चले गये. थोड़ी देर के बाद आठ नौ थाली में रोटी सब्जी- परोस कर सभी के हाथों पर रख कर बोले, " बड़े महाराज ने कहा था, लड़के लोग वहाँ पर बैठ कर काम कर रहे हैं, उनलोगों ने तब से मुख में कुछ डाला नहीं है, हमलोग भला किस प्रकार खा सकते हैं ? " उनके उस प्रेम की कल्पना भी क्या की जा सकती है ? 
उसके बाद जब वहाँ पर मीटिंग होता तो जाता था, अब भी याद है कि तब- मीटिंग समाप्ति के बाद वापस आते समय, वे हमेशा मुझसे कहा करते थे- ' नवनी बाबू आप खाना खा कर ही जाइयेगा | ' मैंने कहा नहीं मुझे जल्दी स्टेशन पहुँच कर ट्रेन पकडनी है. ' वे कहते - ' नहीं, नहीं, खाना खाने के बाद ही जाइयेगा, खाने के बाद ही जाइयेगा.' एक दिन हाथ पकड़ कर खींच रहे हैं, किसी भी तरह जाने नहीं दिये, बैठा कर अपने सामने खिलवाये तब जाने दिये. इसीलिए उनलोगों के पास कितना प्रेम था, कितनी सहानुभूति थी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता !
  हमलोगों के प्रति उन सन्यासियों की सहानुभूति का कारण क्या था ? वे लोग जानते थे कि ये लोग स्वामीजी के नाम पर काम में लगे हुए हैं. हमलोगों का तो कार्य चल ही रहा है, इतने विशाल पैमाने पर ( लगभग सभी बड़े बड़े देशों में ) ' रामकृष्ण मठ मिशन ' इतना बड़ा बड़ा कार्य कर रहा है. किन्तु यह भी तो एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य है. यह भी ठीक उसी तरह का कार्य है जिस तरह, श्री रामचन्द्र के द्वारा समुद्र पर पुल बाँधते समय एक छोटी सी गिलहरी अपने पीठ पर बालू लाद कर समुद्र में डालने का प्रयास कर रही हो! किन्तु उस गिलहरी के प्रयास को भी कम करके नहीं आँका जा सकता. उसका भी तो अपना एक मूल्य जरुर है.
 महामण्डल को वह मूल्य सदैव प्राप्त हुआ है. जिस समय महामण्डल स्थापित करने का संकल्प लिया गया, तब उस समय जो मठ के बड़े लोग थे, उस समय स्वामी विरेश्वरानन्दजी महाराज प्रेसिडेन्ट थे और स्वामी गम्भीरानन्दजी महाराज तब जेनेरल सेक्रेट्री थे- उन दोनों के पास जाकर बोला महाराज हमलोगों ने यह सब करना ठीक किया है. दोनों ने कहा- " बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा कार्य है, करो, करो! " उसके बाद वे लोग जितने दिनों तक (शरीर में) थे, मैं जब कभी मठ जाया करता वे दोनों ही मुझसे महामण्डल के बारे में पूछा करते थे. गंभीर महाराज सदैव बस एक ही बात पूछते थे- " को टा सेन्टर होल ? "" - अभी तक तुमलोगों के कुल कितने केन्द्र स्थापित हुए हैं ?
 " और विरेश्वरानन्दजी पूछा करते थे-" केमन काज हच्छे  ? आरो काज बाढ़छे तो, भाल हच्छे तो, केमन हच्छे ? " -अर्थात महामण्डल का काम कैसा चल रहा है ? इसका दायरा (कार्य-क्षेत्र ) और फ़ैल रहा है न? काम अच्छी तरह से आगे बढ़ रहा है न ? किस प्रकार चल रहा है ? " आदि, आदि. 
उसके बाद हमलोगों के दो-चार कैम्प हो गये हैं. उसके बाद बेलुड में भी कई वर्षों तक कैम्प हुए हैं. उस समय वहाँ पर टेकनीकल स्कूल का एक होस्टल था. मठ से बाहर निकल कर जी.टि रोड से होकर बाली की तरफ थोड़ा आगे बढ़ते ही बायीं तरफ बहुत बड़ा सा, कई एकड़ों में फैला शिल्प मन्दिर में छात्रों का एक होस्टल है. वहीं पर कैम्प हो रहा है. दो-तीन वर्ष तक कैम्प वहाँ हो गया है. तब बेलुड मठ में भरत महाराज ( स्वामी अभयानन्द ) भी रहते थे, मैं अक्सर उनके पास जाया करता था. वे महामण्डल के बारे में हमेशा पूछा करते थे, और सुन कर बहुत आनन्द प्रकट करते थे. उनके पास जाते ही अपने सामने बैठा कर थोड़ा भी प्रसाद हर समय देते थे. और जानकारी भी लिया करते थे. 
जब तक वहाँ कैम्प हुआ करता था, तब कैम्प के बाद, प्रत्येकबार समस्त कैम्पर्स को एक शोभा-यात्रा ( सफ़ेद वस्त्र में सजा कर ) के रूप से मठ में अवश्य ले जाया जाता था. मठ के सभी सन्यासी ब्रह्मचारी उस शोभा यात्रा को देखते थे, ये क्या है ! इतने सारे लड़के आये हैं, ये सभी लोग जूते उतार कर पहले मन्दिर में जाकर एक एक कर के ठाकुर को प्रणाम करेंगे, फिर पंक्तिबद्ध होकर भरत महाराज को जाकर प्रणाम करने के बाद - फिर उसी प्रकार शोभा-यात्रा के रूप में वापस कैसे लौट पायेंगे ? एक साथ सात-आठ सौ जोड़े जूतों को बाहर खोल कर, सभी लड़के मन्दिर में जाकर ठाकुर को प्रणाम करने के बाद उतने बड़े प्रांगण  की परिक्रमा पूरी करके वापस लौट आते, किन्तु कभी किसी एक का भी जूता भुलाया नहीं. मन्दिर के सामने सभी कैम्पर्स को दो लाइन बना कर खड़ा करा दिया जाता था, बायीं तरफ वाली कतार अपने जूतों को खोल कर बायीं ओर रख देते और दाहिनी तरफ वाली पंक्ति अपने जूतों को खोल कर दाहिनी तरफ रख देते थे.
फिर दर्शन करके लौट आने के बाद ठीक उसी लाइन में उसी स्थान पर मन्दिर के सामने जाकर खड़े हो जाते थे. और जो बायीं पंक्ति में खड़े होते उनको अपना जूता बायीं ओर मिल जाता तथा जो दायीं पंक्ति में होते उन्हें अपना जूता दाहिने ओर कहा मिल जाता था. कभी किसी का एक भी जूता नहीं भुलाया, कभी धक्का मुक्की नहीं हुआ. सभी लोग महामण्डल के अनुशासन को देख कर अवाक रह जाते थे. 
भरत महाराज इस अनुशासन को बहुत पसन्द करते थे, और हमलोगों से इतना स्नेह करते थे कि, शोभा-यात्रा कर के वहाँ जाने के पहले ही पूछ लिया करते थे, इस बार कैम्प में कितने लड़के आये हैं ? और प्रत्येक के लिये कहीं आर्डर दे कर मिठाई बनवा लेते थे. बेलुड मठ में स्वामीजी के कमरा के निकट जो आम का पेड़ है, वे वहीं पर एक चेयर पर बैठे  रहते थे, और प्रत्येक कैम्पर जब उनको प्रणाम करके वापस लौट रहा होता,  तो प्रत्येक के हाथ में एक एक मिठाई पकड़ा दिया जाता था. बहुत वर्ष के बाद एक दिन वहाँ के एक सन्यासी मुझको बोले कि महाराज (भरत महाराज ) पूछ रहे हैं कि, " एबारे कत छेले ? एबारे ओरा आसबे ना ? " "- इसबार कितने लड़के हुए हैं, वे लोग क्या इस बार नही आयेंगे ? "
बोला महाराज, महाराज लड़के लोग तो आयेंगे, किन्तु इस बार तो वे आपका दर्शन नहीं कर पायेंगे . उन्हों पूछा - " क्यों, क्यों"  मैं बोला, आप तो ऊपर ही रहते हैं, अब तो आप नीचे नहीं जा पायेंगे .तब उन्होंने कहा, " यदि मैं नीचे नहीं जा सकूँगा तो वे लोग ही ऊपर चले आयेंगे. "  मैं ने कहा महाराज इस बार ८०० लड़के कैम्प में आये हैं, ८०० लड़के ऊपर कैसे जा सकेंगे ? भरत महाराज ने कह दिया- " स्वामीजी के कमरे तक जाने की जो सीढ़ी है, उसी के द्वारा वे लोग ऊपर चढ़ेंगे, फिर स्वामीजी के कमरे के सामने वाले बरामदे में आयेंगे, उनके कमरे के ठीक बगल वाले कमरे के सामने मैं एक चेयर पर बैठा रहूँगा, वहा से होते हुए पुराने मन्दिर में जाने की जो सीढ़ी है, वहीं से उतर कर चले जायेंगे. "  कितना सुन्दर उपाय बतला दिये ! और बोले " आठ सौ मिठाई बनाने के लिये आर्डर भेज दो ! " 
जिस प्रकार उन्होंने मार्ग सुझाया था हमलोग ठीक उसी प्रकार गये. मन्दिर में ठाकुर को प्रणाम करने के बाद " प्रेसिडेन्ट महाराज " ( स्वामी भूतेशानन्दजी महाराज ) को प्रणाम करके वहाँ पर (स्वामीजी के कमरे के सामने चेयर पर विराजमान स्वामी अभयानन्द जी के पास) गये, फिर वहाँ से वापस लौटने के बाद प्रसाद प्राप्त किये. उस समय उनके सामने से गुजरते समय महामण्डल का ध्वज विधि-पूर्वक लिये हुए एक लड़का जो आगे आगे चल रहा था, जब वह सामने से गुजरा तो उन्होंने पूछा - " यह क्या है ? " मैंने कहा - " यह महामण्डल का ध्वज है. " वे बोले - " दिखाओ, दिखाओ ", फिर हाथों को बढ़ा कर महामण्डल ध्वज को अपने हाथों में पकड़ कर उसके ऊपर स्नेह से अपने हाथ फेर दिये ! 
महामण्डल को इतना सौभाग्य मिला है जिसका वर्णन नहीं कर सकता. मठ- मिशन के सन्यासियों का आशीर्वाद महामण्डल को प्रारम्भ से ही मिलता आया है.  
एकबार महामण्डल के कैम्प का उदघाटन करने के लिये स्वामी आत्मस्थानन्दजी महाराज ' कोन- नगर ' आये थे. वे अपने उदघाटन भाषण में कहे, ' रामकृष्ण मिशन की ओर से मैं सभी शिविरार्थियों को मठ में प्रसाद पाने के लिये आमन्त्रित कर रहा हूँ. ' सभी सोंचने लगे यह कैसे सम्भव होगा, इतने लोगों को कोन-नगर से बेलुड मठ कैसे ले जाया जायेगा? हमलोगों को बहुत प्रयास करके एक स्टीमर भाड़ा पर लेना पड़ा. वहाँ पर कोई जेटी नहीं थी, तब किसी प्रकार प्रयास करके एक काम-चलाऊ जेटी बना लिया गया. स्टीमर को बहुत सुन्दर ढंग से सजा लिया गया, फिर एकसाथ सभी लड़कों को लेकर स्टीमर पर चढ़ा गया, (थोड़े से लड़के कैम्प में रह गये), ठाकुर माँ स्वामीजी के चित्र को रखा गया, महामण्डल गान हुआ, ठाकुर की वाणी , स्वामीजी की वाणी, माँ की वाणी का पाठ हुआ.
बेलुड मठ पहुँचने के साथ ही मन्दिर में जाना है. उस समय स्वामी भूतेशानन्दजी महाराज प्रेसिडेन्ट थे.
Srimat Swami Bhuteshananda, hoisting the Mahamandal
flag at a youth training camp
वे पूजनीय जयराम महाराज को बोले, ' जाओ, जाओ, देखो, देखो ओरा मन्दिरे एलो की ना, मन्दिर बन्द हो जायेगा.' एक आदमी को यह देखने के लिये भेजे कि, लड़कों के आने तक कहीं मन्दिर का दरवाजा न बन्द हो जाय. हमलोग स्टीमर से उतर कर सीधा मन्दिर में प्रणाम कर के बाहर निकले, तब देखे कि दरवाजा बन्द हुआ. उस समय ठीक बारह बज कर पैतीस (12:35 P.M.) मिनट हुए थे.उसके बाद सभी लोग पाटिया पर बैठ कर प्रसाद पाए, फिर उसी स्टीमर पर चढ़ कर वापस कैम्प में लौट आये. 
इसीलिये हमलोगों के ऊपर प्राचीन सन्यासिओं से लेकर वयः कनिष्ठ सन्यासियों तक की आन्तरिक सहानुभूति एवं सहायता  और आशीर्वाद  इतने विविध रूप में प्राप्त हुआ है, जिसका वर्णन मुख से बोल कर समाप्त नहीं किया जा सकता है. 
Monks & Brahmacharis of the Ramakrishna Order
at the public session of a youth training camp

एक बार रामकृष्ण मिशन में युवा सम्मलेन हुआ था, उसमे एक दिन का विषय था- " रामकृष्ण मूभमेन्ट" ( रामकृष्ण भाव-आन्दोलन ) सभी लोग अपने भाषणों में रामकृष्ण मठ मिशन के कार्यों पर ही चर्चा कर रहे थे, उस सम्मेलन का सभापतित्व 'गम्भीर महाराज'  कर रहे थे, उन्होंने अपने बक्तव्य में कहा- 
" रामकृष्ण मूवमेंट डज़ नॉट मीन ओनली रामकृष्ण मठ ऐंड मिशन ; देयर आर सो मेनी अदर ऑर्गनाइजेशन्स " - जारा एई ठाकुर-स्वामीजीर भावे काज करछे ! " " - रामकृष्ण भावान्दोलन का अर्थ केवल रामकृष्ण मठ एवं मिशन ही नहीं समझना चाहिये, यहाँ ऐसे कई संगठन हैं- जो ठाकुर स्वामीजी के भाव में कार्य करते हैं ! "ऐसा कह कर उनहोंने ऐसे कई संगठनों के नाम का उल्लेख किया, और उसी क्रम में बोले, जिस प्रकार - " विवेकानन्द युवा महामण्डल ! "  यह भी कोई कम बड़ी बात नहीं है. इसमें उन्होंने न केवल महामण्डल को स्वीकृति दिया हैं, बल्कि उन्हों ने महामण्डल का उल्लेख  " रामकृष्ण मूभमेन्ट " के एक अंग के रूप में किया हैं ! 
"रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा"  का ही एक अंग है -महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर !                             

                 

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