शनिवार, 7 अगस्त 2010

[44] " स्वामी विवेकानन्द निर्देशित शिक्षा-प्रणाली "

-अद्वैत आश्रम में  जनवरी 1968 में आयोजित महामण्डल की दूसरी बैठक में लिए गए निर्णय के अनुसार उस नव आविर्भूत युवा संगठन का नाम ' महामण्डल ' (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ) निर्धारित हो गया। प्रख्यात शिक्षाविद और प्रेसीडेन्सी कॉलेज कोलकाता, में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक अमियदा (श्री अमिय कुमार मजूमदार) महामण्डल के प्रथम अध्यक्ष बने। (उस समय अमियदा 'Indian Philosophical Congress' के सचिव थे तथा डॉ ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन उसके अध्यक्ष थे।)
 अब हमलोगों को स्वामी विवेकानन्द निर्देशित शिक्षा प्रणाली के अनुसार, अरियादह में महामण्डल का " प्रथम अखिल भारत वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर " शिविर आयोजित करने की तैयारी करनी थी। प्रश्न यह उठा कि उस नव आविर्भूत युवा संगठन-  'महामण्डल ' द्वारा  के आदर्श (Role Model) , उद्देश्य और पाठ्यक्रम  (Purpose and Syllabus-curriculum)  तथा प्रशिक्षक कौन हों -संन्यासी या अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित कोई गृहस्थ ?
..... दूसरी बैठक में उपस्थित सभी लोगों ने सर्वसम्मत निर्णय लिया कि - यह सब तय करने के लिये आगे जो कुछ भी सोचना या करना है , वह आपको ही (नवनीदा को ही) करना है ! फिर यही विचार मन में रात-दिन चलने लगा।  
पहले मन में प्रश्न उठा कि इस ' युवा महामण्डल ' का आदर्श-पुरुष (Ideal-प्रेरणाश्रोत/ इष्ट) किसको बनाना चाहिये ?  स्वाभाविक उत्तर है कि युवा महामण्डल के आदर्श-पुरुष (प्रेरणाश्रोत/ इष्ट/ साँचा य़ा Role -Model) तो चिर-युवा  स्वामी विवेकानन्द ही हो सकते हैं ! क्योंकि स्वामी विवेकाननन्द की विचारधारा ~ "भौतिकवाद और अध्यात्मवाद में समन्वय" की बुनियाद पर युवाओं के बीच इस प्रकार का कार्य करना होगा जिससे उनके भीतर सुमति (सदबुद्धि) वापस आजाय, य़ा युवा-वर्ग सुमति ( आत्मश्रद्धा ) प्राप्त करने में सक्षम हो जाएँ ! इस युवा-संगठन का मूल कार्य तो यही है। इसीलिये उस नव आविर्भूत युवा संगठन के आदर्श हैं  - स्वामी विवेकानन्द !  (महामण्डल का  कार्यक्षेत्र य़ा)  कार्य की परिधि है - सारा भारतवर्ष !  
 सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि युवा-प्रशिक्षण शिविर के लिए स्वामी विवेकानन्द निर्देशित प्रशिक्षण -पद्धति (शिक्षा प्रणाली) कैसी होनी चाहिये ? युवा -प्रशिक्षण का उद्देश्य, पाठ्यविषय और पाठ्यक्रम (syllabus and curriculum) क्या होना चाहिये ?  यह संगठन किस प्रकार अपना कार्य करेगा ? स्वामीजी बार बार यही कहते थे कि, Man-making and Character Building Education - मनुष्य निर्माण एवं चरित्र-गठन करने वाली शिक्षा सभी युवाओं को देनी होगी ! क्योंकि प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में युवाओं को चरित्र-निर्माण की पद्धति नहीं सिखाई जाती है।   
आज (स्वतंत्र भारत में ) भी देश में ऐसी कोई राष्ट्रीय शिक्षा नीति नहीं है जिसमे - मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-गठन कराने की शिक्षा देने की व्यवस्था हो, और पहले (गुलाम भारत में ) तो खैर ऐसी शिक्षा देने का सवाल ही नहीं था। उसके भी और पहले की तो -बात ही अलग थी। जिस समय में नेताजी सुभाष चन्द्र स्कूल में पढ़ते थे, या जब उन्हीं के जैसे अन्य लोग स्कूल में पढ़ते थे, जिन्होंने देश के लिये प्राण न्योछावर कर दिये थे , या त्यागने के लिये प्रस्तुत थे, उनके समय के शिक्षक लोग दूसरे ही ढंग की चीज (प्रेरणा) छात्रों को देते थे. किन्तु यह चीज (संजीवनी-बुट्टी 3 'H ' - विकास की शिक्षा ) तो उनके समय में भी नहीं थी !
इसी के पहले वाली शताब्दी के साठवें दशक तक, सत्तर के दशक तक भी नहीं था।  तब इसके ऊपर चिन्तन करना पड़ा, और (विवेकानन्द साहित्य का मन्थन कर) स्वामीजी द्वारा प्रदत्त मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-गठन की पद्धति ~ 'Be and Make' को ढूंढ़ कर महामण्डल की कार्यपद्धति के रूप में निर्धारित कर लिया गया। 
 फिर यह तय हुआ कि "  स्वामी विवेकानन्द निर्देशित शिक्षा-प्रणाली " के अनुसार ' चरित्र-गठन ' एवं ' मनुष्य- निर्माण ' के कार्य को सारे भारतवर्ष में फैला देना, अर्थात भारत का कल्याण (Welfare of India) ही इस संघ का उद्देश्य होगा ! 
अब इसका एक Leaflet (पत्रक) लिखा गया और शिविर आयोजित होने से पहले ही उसको छपवा कर परिचित लोगों के बीच वितरित कर दिया गया। (सभी विद्यालयों , विश्वविद्यालयों में वह पत्रक, शिविर-नियमावली, आवेदन -प्रपत्र आदि को पोस्ट के द्वारा भेज दिया गया। उस Leaflet का  प्रथम हिन्दी प्रारूप 1988 में तैयार किया गया ! ) फिर ' महामण्डल का आदर्श और उद्देश्य '  शीर्षक देकर एक छोटी सी पुस्तिका तैयार की गयी। ये सभी कार्य ऑफिस के टेबल पर बैठ कर ही करने पड़ते थे। बहुत से लोग पूछते थे- आप ऑफिस के कार्य कैसे निबटाते हैं ?  ऑफिस के काम की मैंने कभी उपेक्षा नहीं की है, उस समय तक नौकरी करते हुए मुझे कई वर्ष हो चुके थे।  क्योंकि बहुत कम उम्र में ही मुझे नौकरी में आना पड़ा था, एवं विभिन्न स्तर पर मैंने कार्य किया है। उस समय जितने कार्यों का दायित्व मेरे ऊपर था, उन समस्त कार्यों का उचित ढंग से निष्पादन करने में एक पुरा दिन लग जाना तो दूर रहा, सारे कार्य दिन के एक-चौथाई समय में ही समाप्त हो जाते थे। 
निष्ठापूर्वक कार्यों का निष्पादन करने के फलस्वरूप मेरे कार्यालय के जो प्रधान थे, उन्होंने स्पष्ट आदेश दे रखा था कि, समस्त फ़ाइल चाहे जिस किसी के पास भी जाएँ, उसके  दस्तावेज य़ा विवरण एकबार इनके पास अवश्य भेजनी होगी।  उसके बाद ही कोई चिट्ठी डिसपैच के लिये भेजी जा सकेगी। बाद में मैंने हिसाब लगाकर देखा था कि, दिन भर में 150 के करीब फाइलें मेरे पास आया करती थीं।  किन्तु ऑफिस के किसी भी आज के फ़ाइल को, कल के लिये कभी पेन्डिंग नहीं छोड़ा। मैं यदि कभी यह पाता कि कोई आवश्यक फ़ाइल अपराह्न में तीन बजे आ गया है, तब मैं डिसपैच सेक्सन को खबर कर देता कि- ' पाँच बज जाने के बाद भी एक चपरासी को रोक लीजियेगा। और डायरेक्टर के स्टेनो-बाबू ( stenographer ) को ही बुलवा लेता था। क्योंकि डायरेक्टर ने बोल रखा था कि  आपको जब कभी जरुरत हो, मेरे साथ मिल सकते हैं।  
      उनको बुलवाकर साथ ही साथ उस फ़ाइल की उचित व्यवस्था करके पाँच बज जाने के बाद भी उसको भिजवा देना य़ा बहुतजरुरी फ़ाइल रहा तो जल्दी-जल्दी उसे  हाथो- हाथ राइटर्स बिल्डिंग में मिनिस्टर के पास य़ा सेक्रेटरी के पास ही सीधा भिजवा देता था।  मैंने स्वयं आजमा कर देखा है कि, पूरे दिन के एक-चतुर्थांश य़ा बहुत हुआ तो एक-तृतीयांश समय में ही सारे दिन का कार्य समाप्त  हो जाता था।  
यदि किसी कार्य के लिये और भी कुछ जानकारी, य़ा और कुछ तत्थ्य संग्रह किये बिना पुरा करना सम्भव नहीं रहता तो, उनको कलेक्ट करने में जितना समय लगता, उतनाही समय तक उस फ़ाइल को अपने पास रखता था.इसीलिए कह सकता हूँ कि ऑफिस के काम के प्रति कोई लापरवाही दिखाए बिना, ऑफिस के टेबल पर बैठ कर ही  मनः संयोग , चरित्र-गठन , चरित्र के गुण आदि कई महामण्डल पुस्तिकाएँ लिखी गयीं हैं।  घर में वापस लौटने के बाद, रात्रि में भी काम करना पड़ता था, कभी कभी तो देर रात (डेढ़-दो बजे तक भी) तक काम करना पड़ता था।  
अब प्रश्न उठा कि, स्वामीजी की शिक्षा पद्धति के अनुसार शिक्षा कैसे दी जाएगी ? हमलोग तो स्कूल, कालेज बनायेंगे नहीं।  तब यह तय हुआ कि, महामण्डल के द्वारा युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया जायेगा।  इसके लिये पहले युवाओं का आह्वान करके प्रशिक्षण शिविर परिसर में एकत्र करके रखा जायेगा।  फिर पूरे दिन का एक कार्यक्रम बना कर, उनको चरित्र-गठन किस प्रकार किया जाता है, चरित्र कहते किसे हैं, मनुष्य-निर्माण किस प्रकार होता है, कोई भी मनुष्य का ढाँचा रखने वाला व्यक्ति आखिर ' मनुष्य ' बनता किस प्रकार है, मनुष्य बन कर समाज के लिये क्या किया जा सकता है (सर्वोत्तम समाज-सेवा  किस प्रकार की जाती है) - इन सब विषयों की शिक्षा दी जाएगी।  
 ' स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित मनुष्य-निर्माण की पद्धति के अनुसार '  इस प्रकार से प्रशिक्षण देने की व्यवस्था महामण्डल के सिवा आज भी कहीं और नहीं है।  उस समय (1967 तक ) भी नहीं थी। मनुष्य-निर्माण की पद्धति आखिर है क्या ?  प्रशिक्षण के द्वारा धीरे धीरे मनुष्य कैसे बना जाता है ? स्वामीजी ने तो कहा है, बार बार कहा है कि,मनुष्य के तीन मौलिक components ( अवयव य़ा घटक) हैं-शरीर, मन और ह्रदय ! **  इनको ही हमलोगों के देश में - शरीर, मन और आत्मा भी कहा जाता है !  ये  तीन बातें पहले भी कही जाती थीं, पहले किसी ने कहा ही नहीं हो ऐसा नहीं है।  किन्तु स्वामीजी शरीर, मन, और आत्मा नहीं कहते थे।  क्योंकि- आत्मा  क्या है ? - इसको साधारण मनुष्यों को समझा देना उतना सहज नहीं है।  किन्तु  ह्रदय की भाषा को तो हर कोई समझ लेता है।  ह्रदय वह वस्तु है जिसे आत्मा को अभिव्यक्त करने वाला यन्त्र कहा जा सकता हैं, य़ा माध्यम भी कहा जा सकता है। 
किसी व्यक्ति की आत्मा किस प्रकार कार्य कर रही है, इसको उस मनुष्य के ह्रदय से समझा जा सकता है। मनुष्य का ह्रदय सहानुभूति-सम्पन्न रहना चाहिये, दूसरों के दुःख में दुखी होने वाला, दूसरों के आनन्द में आनन्दित होने वाला विस्तृत ह्रदय, समस्त विश्व के साथ (एकात्मता का बोध करने वाला ह्रदय) अपने को जुड़ा हुआ मानने वाला ह्रदय होगा।  प्रत्येक मनुष्य का ह्रदय इतना विस्तृत हो सकता है, कि वह समस्त विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव कर पाने में सक्षम होगा.         
 किन्तु केवल ह्रदय के विकास करने य़ा विस्तृत बना लेने से ही तो काम नहीं चलेगा।  ह्रदय को अपने भीतर धारण करने के लिये एक शरीर भी तो है ?  उसकी भी आवश्यकता रहती है.इसीलिये शरीर को शख्त, सबल, निरोग, कर्मठ रखना होगा।  शख्त, सबल, निरोग, कर्मठ शरीर बनाने के लिये क्या आवश्यक है ? नियमित रूप से व्यायाम आदि करना आवश्यक है।  इसीलिये खाली हाथ का व्यायाम आदि करने का प्रशिक्षण देना इस शिक्षा का एक अंग होगा। (महामण्डल के पूर्व उपाध्यक्ष में से एक - पश्चिम बंगाल के प्रसिद्ध बॉडी बिल्डर निलमोनी दास ('Iron-man' Nilmoni Das) महामण्डल के प्रथम शारीरिक प्रशिक्षक थे। अभी उनके सुपुत्र श्री स्वप्न दास हैं। )
      उसी प्रकार हमलोगों का मन भी है; बल्कि मन ही तो सबकुछ है। हमारे शास्त्रों में  कहा गया है कि ~मन  ही मनुष्यों के बन्धन और मुक्ति का कारण है !  
 मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । 
इस मन के द्वारा ही हमलोग प्रत्येक कार्य को करने में समर्थ होते हैं।  किन्तु हमलोग अपने मन की हमलोग कोई सुध नहीं लेते, उसका समुचित मूल्य नहीं समझते हैं।  इसीलिये मन हमलोगों के द्वारा उसकी जो इच्छा  हो वही करवा लेता है, और उसके बहकावे में आकार  हमलोग विवेक-विचार किये बिना ही मन जो कुछ चाहता है, उसीको पाने के लिये दौड़ जाते हैं।  हमलोग मन के दास बन गये हैं, किन्तु हमें मन को अपना दास बनाना होगा।  जिस प्रकार मनुष्य अर्थ का भी दास नहीं होता, उसका प्रभु होता है। किन्तु अभी रूपया ही मनुष्य का स्वामी बन गया है, रुपया मनुष्य का दास नहीं है। जिस प्रकार हम सभी लोग रूपये के दास बन गये हैं, उसी प्रकार हमसभी लोग मन के भी दास बन गये हैं।  मन हमारा दास नहीं है, वह हमारे आदेश के अनुसार कार्य नहीं करता। इसीलिये इस बिगड़े हुए मन को पहले अपने वश में लाना होगा !  मन को अपने वश में कैसे लाऊंगा, उसकी पद्धति क्या है ? इस पद्धति को प्रशिक्षण शिविर में सिखाया जायेगा। 
     इसी प्रकार हमलोगों के  ह्रदय का विस्तार कैसे होता है-  भारत के विभिन्न प्रान्तों से आये विभिन्न भाषा-भाषी मनुष्यों के साथ मिलकर शिविर के विविध कार्यक्रमों में भाग लेने से हमारे अनजाने ही वह भी हो जाता है।  इसीलिये मनुष्य-निर्माण पद्धति को स्वामीजी एक सूत्र में कहते हैं- 3H विकास ! ' HAND ' standing for the body, ' HEAD ' standing for one 's itellect and mind; तथा ' HEART ' या हृदय जो मनुष्य की आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम/यंत्र है, जिसके द्वारा मनुष्य की आत्मा का परिचय प्राप्त होता है।  जैसे किसी किसी मनुष्य को ' महात्मा ' कहा जाता है - ' महात्मा ' का अर्थ क्या है ? वैसा मनुष्य  जिसका ह्रदय अति विस्तृत हो गया हो।  जो ह्रदय सबों के सुख-दुःख को अपने ही सुख-दुःख जैसा अनुभव करने में समर्थ होता है, और जो दुःख-कष्ट में गिरा हुआ है, उसके दुखों को दूर करने के लिये, उसकी सहयता करने के लिये जिसका ह्रदय उसे प्रेरणा देता है, उदबुद्ध करता है, उसके ह्रदय का प्रेम जाग्रत हो जाता है. और वह अपने शरीर की शक्ति, अपना अर्थबल, सब कुछ को वह दूसरे मनुष्यों का दुःख-कष्ट दूर करने में व्यवहार करता है। (महात्मा गाँधी का प्रिय भजन था - वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर परायी जाने रे !  यही तो है- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा।  स्वामीजी इसी प्रकार का  मनुष्य (पूर्णतया निःस्वार्थपर  - महात्मा  मनुष्य   य़ा चरित्रवान-मनुष्य का ही निर्माण करना चाहते थे ! 
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{*** उपासक और उपास्य-खण्ड-3 , २१४ / Worshipper and Worshipped -E6/49) " हम उस मनुष्य को देखना चाहते हैं , जिसका विकास समन्वित रूप से हुआ हो -हृदय से विशाल , मन से उच्च और कर्म में महान। ( great in heart, great in mind, great in deed)  हम ऐसा मनुष्य चाहते हैं , जिसका हृदय संसार के दुःख-दर्दों को गहराई से अनुभव करता हो , जो न केवल अनुभव करता हो,वरन उसके मूल कारण को खोज लेने में भी सक्षम हो। हम चाहते हैं ऐसा मनुष्य , जो यहाँ भी न रुके बल्कि उसके हाथ इतने सबल हों, वह उन दुःख के कारणों को दूर करने में समर्थ हो। हम मस्तिष्क (Head), हृदय (Heart) और हाथों (Hand) के ऐसे ही संयोजन (3H) को प्रत्येक युवा में देखना चाहते हैं। हम उस महाकाय मनुष्य का निर्माण क्यों न करें -जो समान रूप से क्रियाशील, ज्ञानवान और प्रेमवान भी हो ? क्या यह असम्भव है ? निश्चय ही नहीं। यही है भविष्य का मनुष्य। इस समय ऐसे तीनों अवयवों के संतुलित विकास द्वारा निर्मित मनुष्य बहुत थोड़ी संख्या में हैं। लेकिन ऐसे मनुष्यों की संख्या तब तक बढ़ती रहेगी जब तक कि समस्त संसार का मानवीकरण नहीं हो जाता। ... धर्म (शिक्षा, निःस्वार्थपरता) वह वस्तु है जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में उन्नत कर देता है।   
(What we want is to see the man who is harmoniously developed . . . great in heart, great in mind, [great in deed] . . . . We want the man whose heart feels intensely the miseries and sorrows of the world. . . . And [we want] the man who not only can feel but can find the meaning of things, who delves deeply into the heart of nature and understanding. [We want] the man who will not even stop there, [but] who wants to work out [the feeling and meaning by actual deeds]. Such a combination of head, heart, and hand is what we wantWhy not [have] the giant who is equally active, equally knowing, and equally loving? Is it impossible? Certainly not. This is the man of the future, of whom there are [only a] few at present. [The number of such will increase] until the whole world is humanized. Religion is the idea which is raising the brute into man, and man into God.)]           
[स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - Be and Make' में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक /नेता (C-IN-C) बनने और बनाने को ही महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर के पाठ्यविषय और पाठ्यक्रम के रूप में निर्धारित कर लिया गया।]   
 

1 टिप्पणी:

Mahamandal blog spot.com ने कहा…

...रेशम के कीड़े के समान तुम्हीं ने अपने चारों ओर ककून ( कच्चे रेशम का कोवा जैसा कवच या नाम-रूप का आवरण ओढ़ लिया है) का निर्माण कर लिया है. कौन तुम्हारा उद्धार करेगा ? तुम इस ककून (नाम-रूप के आवरण ) को फोड़ कर एक सुन्दर तितली के रूप में - मुक्त आत्मा के रूप में बाहर प्रकट हो जाओ. " यह शिक्षा (ककून को तोड़ कर मुक्त होने का प्रशिक्षण ) केवल महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में ही प्राप्त हो सकती है.