मंगलवार, 4 मई 2010

" तंत्र विद्या की अद्भुत साधना " जीवन नदी के हर मोड़ पर -19

" मेरी प्रमातामही जगन्मोहिनी देवी "

      हमलोगों ने पीछे के एक अध्याय में पढ़ा कि नित्यानद प्रभु किस प्रकार से खड़दह में आकर बसे थे। बाद में उनके ही पुत्र ने खड़दह में 'श्याम' का मन्दिर बनवाया था, जिसका नाम है-  'श्यामसुन्दर का मन्दिर'। उसका भी एक लम्बा इतिहास है। 
      नित्यानन्द के पुत्र वीरभद्र ने अपने स्वप्न में देखे गए रूपों के अनुसार एक ही बड़े पत्थर से 'कृष्ण', 'काली' और 'शिव' की तीन मूर्ति बनवा कर तीन मन्दिरों में प्रतिष्ठित करवाया था। 
      खड़दह के इस श्यामसुन्दर मन्दिर में ठाकुर भी गये हैं, माँ भी गयी हैं, शायद इसीलिये एक छोटा चित्र ठाकुर का और एक छोटा चित्र माँ का श्यामसुन्दर मन्दिर के बरामदे में -एक ताक पर रखा हुआ है। ठाकुर भक्तों के बीच अक्सर चर्चा किया करते थे कि इस अंचल में तीन जाग्रत देवता हैं - दक्षिणेश्वर की 'माँ भवतारिणी', कालीघाट की 'माँ काली' और खड़दह के 'श्यामसुन्दर'।
          एक दिन सुबह- सुबह दक्षिणेश्वर में गंगा के किनारे एक नौका आकर लगी, नौका से कई लोग उतरे। ठाकुर सम्भवतः कहीं निकट ही थे। उन्होंने उन लोगों से पूछा- " क्यों जी, इतनी सुबह-सुबह कहाँ चल दिये ? " उनलोगों ने बताया- ' हमलोग श्यामसुन्दर का दर्शन करने खड़दह जा रहे हैं। सोचा एकबार आपका भी दर्शन कर लें ! 'ठाकुर बोले- " अच्छी बात है, जरुर जाओ, आज तुमलोग देखोगे कि वे बहुत सुन्दर कपड़ा पहने हैं, जिसके किनारे में जरी से डिजाइन बना हुआ हैं। और माथे कि पगड़ी में बहुत ही सुन्दर सा एक मोर का पंख लगा हुआ है! " उनलोग वहाँ जाकर देखे कि सचमुच उस दिन श्यामसुन्दर ने बहुत ही सुन्दर नक्काशी किया हुआ चौड़े किनारे वाली धोती पहनी है तथा माथे पर एक नया सा ' मयूर-पंख ' भी लगा हुआ है!

[Shyam Sundar in our temple at Khardah]

(The deity is being worshipped for 500 years The founder was Birabhadra Prabhu, the son of Lord Nityananda.)

    इस मन्दिर के अतिरक्त हमलोगों के घर के नजदीक में ही ' राधाकान्तदेव ' का मन्दिर भी है।  खड़दह का 'श्यामसुन्दर' का मन्दिर - नित्यानन्द प्रभु के समय का है, अर्थात यह मन्दिर लगभग 550 वर्ष पुराना है ! किन्तु  'राधाकान्त' तो 750 वर्ष पुराने हैं ! ये पहले कहीं अन्यत्र थे। बाद में  वहाँ से यहाँ आये हैं। ये (राधाकान्तदेव) ही हमलोगों के 'कुल-देवता' हैं।  यहाँ का मन्दिर बहुत बाद में निर्मित हुआ है।  
      हमलोगों का परिवार श्री हर्ष के कुल का है। श्री हर्ष की जो वंशावली है उसमें एक अत्यन्त ख्यात नाम परिवार है। लोग उस परिवार को शिरोमणि परिवार के नाम से जानते हैं। उस वंश के एक व्यक्ति ने 'शिरोमणि' की उपाधि प्राप्त की थी। इस परिवार के कम से कम दो व्यक्तियों ने  दूसरे क्षेत्र में भी बहुत ऊँचा पद प्राप्त किया था। एक व्यक्ति कलकाता हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस  बने थे तो दूसरे सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस हुए थे। 
       पितामह के जमाने में खड़दह में संस्कृत के बहुत सारे टोल (पाठशाला) हुआ करते थे।  उनलोगों ने चूँकि प्रेसिडेन्सी कॉलेज में पढाई की थी, इसलिए उनलोगों के संस्कृत अध्यन करने का ढंग दूसरे प्रकार का था। हमलोग अक्सर संस्कृत शुद्ध उच्चारण को लेकर एक मजेदार घटना के विषय में सुनते रहते थे।   
         हमारे घर के प्रवेश द्वारा के आगे सीमेन्ट के दो ऊँचे बेंच बने हुए थे, वहाँ पर अक्सर बहुत से लोग बैठा करते थे। वहाँ पर उम्रदराज लोगों के साथ-साथ कम उम्र के लोग भी बैठा करते थे। वहाँ के जो लोग संस्कृत पढ़ने के लिए कलकाता जाते थे, उनलोगों को ईश्वरचन्द्र विद्यासागर महाशय द्वारा लिखित ' व्याकरण कौमुदी ' पढाया जाता था।  
       एक दिन स्थानीय टोल में संस्कृत पढ़े हुए लड़कों से कोलकाता जाकर संस्कृत पढ़े हुए  लोगों ने पूछा जरा बताओ तो कि 'भू'-धातु को लट-लकार में क्या कहा जायेगा ? तब टोल में पढ़े छात्रों ने अपने मस्तिष्क पर जोर डालते हुए बहुत सारे व्याकरण- सूत्रों का स्मरण किया, तथा काफी सोंच-विचार के बाद कहा कि 'भूति' होगा। इस पर  सभी व्यस्क लोग हँसने लगे। जिन लोगों ने विद्यासागर महाशय की ' व्याकरण कौमुदी ' को पढ़ा है, वे लोग तो शब्दरूप और  धातुरूप में पारंगत होंगे ही।  उनलोगों ने सुधार करते हुए कहा था, कि 'भू' धातु का लट 'भवति' होगा ' भूति ' नहीं होगा।  उनदिनों बुद्धिमान लोगों का समय इसी प्रकार से 'काव्यशास्त्र विनोदेन' गुजरा करता था। 
       उस समय का खड़दह बिल्कुल एक (पल्लिग्राम) नीरा गाँव हुआ करता था। फिर भी वहाँ कई दर्शनीय स्थान थे ! तब घर मकान इतने अधिक नहीं थे, बहुत कम थे, यहाँ की अधिकांश धरती धान के खेत के रूप में ही थे। बैरकपुर ट्रंक रोड से प्रवेश करने पर जो पहला मुहल्ला था, उसी में हमलोगों का घर था। चारों ओर हरे-भरे धान के खेत ही दिखाई देते थे। घर के दोनों ओर जजों का और अधर दास का तालाब हुआ करता था। अभी जहाँ अस्पताल है, वहाँ एक मिट्टी का ढूह था। कभी वहीं पर " पूँटे की माँ " नामक एक वृद्धा का घर था। 
      उन दिनों  वहाँ भी नाटक, अभिनय आदि का प्रचलन था। मेरे पितामह और उनके अग्रज ने मिल कर एक नाटक-मन्डली का गठन किया था। और उस नाटक मन्डली का नाम रखा था- 'प्रमीथियन थियेटर'। वहाँ पर अभिनय एवं गीत- संगीत आदि हुआ करते थे। पितामह के अग्रज एक म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट (यन्त्र) बजाया करते थे तथा पितामह गाने गाया करते थे। गाना गाने में उनको  महारत हासिल थी।  
   उनकी माँ जगन्मोहिनी देवी उनसे बीच-बीच में गाना सुनती रहती थीं।  एक दिन घर के सामने वाले बरामदे में बैठ कर, उन्होंने मेरे पितामह को गाना गाने के लिये कहा। वे गिरीश घोष की रचना को गाने लगे- 
   " हाम दे पालाय पाछू फिरे चाय, रानी पाछे तोले कोले। " इस गीत को सुनते हुए  उनकी माँ दूसरी दुनिया में खो गईं तथा कहने लगीं-" यह देखो, मेरा गोपाल कैसे घुटनों के बल चलता हुआ आ रहा है !"("घुटरुन चलत रेणु तन मण्डित,मुख दधि लेप किये "- सूरदास ) इस प्रकार की अनेकों घटनाएँ घटी हैं! मेरी प्रमातामही जगन्मोहिनी देवी एक असाधारण आध्यात्मिक शक्ति-सम्पन्ना एक साध्वी थीं।  
         तन्त्र शास्त्र के अनुसार किसी तंत्र-साधक की माँ ही यदि उसकी गुरु हों तो माँ से प्राप्त होने वाली विद्या सर्वश्रेष्ठ स्तर की 'तंत्र विद्या' होती है। मेरे पितामह की गुरु उनकी माँ ही थीं, तथा उन्होंने पितामह से कई प्रकार की साधनाएँ करवाईं थीं ! यहाँ तक की बहुत सी तान्त्रिक साधनाएँ भी करवाईं थीं ! 
         तालाब के सामने वाले बेल के पेंड़ के नीचे जो शिव हैं, उनकी प्रतिष्ठा भी उन्होंने ने ही किया था। ऊपर वाले पूजा-घर में माँ काली की प्रतिष्ठा भी उन्होंने ने ही किया था। पितामह को बेल के पेंड़ के नीचे प्रतिष्ठित शिव के निकट बिठाकर ऊपर से ( खिड़की पर खड़ी होकर)  निर्देश देते हुए उन्होंने तन्त्र की बहुत सारी साधनाएँ करवाईं थीं। एक विशेष साधना का प्रशिक्षण देते समय ऊपर से बोल रही हैं- " राधा-यन्त्र एंके आगे पूजो करे निये एई तन्त्रेर साधनाटी करो !अर्थात पहले राधायन्त्र की पूजा कर लो तत्पश्चात शिवजी के पास तन्त्र की साधना करो! राधा यंत्र की पूजा कर लेने के बाद तंत्र-साधना का निर्देश दे रही हैं।  
      पितामह के जीवन का सब कुछ अद्भुत था।  जिस समय वे आन्दुल स्कूल में कार्यरत थे, तब वहाँ पर भी कई आश्चर्य-जनक घटनाएँ घटती रहतीं थीं;  जिसके विषय बहुत कम लोग ही जान पाते थे। रात्रि के समय न जाने कहाँ कहाँ से आकर कुछ तान्त्रिक लोग वहाँ पर बैठकें करते थे।  तन्त्र को लेकर बहुत सी चर्चाएँ होती रहती थीं। तान्त्रिक धर्म-चक्र बैठकें भी होतीं थी। एक दिन  अत्यन्त ही आश्चर्य पूर्ण घटना घटी थी। 
      इस घटना को हमने पितामह के मुख से सुना था , जब वे किसी को इस घटना के विषय में बता रहे थे। हमलोग इसी प्रकार उन सब बैठकों के वृतान्त सुना करते थे।  ऐसा नहीं था कि, वे  हमलोगों को सामने बिठाकर यह सब सुनाते रहते हों। दरअसल उनके पास बहुत सारे लोग आते रहते थे, उनलोगों से पितामह की कई विषयों पर जो चर्चा होती रहती थी। उसी को हमलोग उनकी बैठकखाने के बगल वाले कमरे में दूर से बैठे कर सुन लेते थे। 
        वह विशेष घटना इस प्रकार थी - ' पितामह एक दिन काफी रात बीत जाने के बाद  आन्दुल स्कूल से बाहर निकले। उस समय आन्दुल-मौड़ी भी एक नीरा गाँव जैसा ही था। अधिकांश क्षेत्र वन-जंगल से भरपूर था। किनारे-किनारे सरस्वती नदी प्रवाहित होती थी। हमलोगों भी सरस्वती नदी के किनारे-किनारे होकर ही स्कूल आते-जाते थे। बहरहाल उस दिन घनी रात  में पैदल चलते-चलते पितामह कितनी दूर निकल आये, और कहाँ पहुँच गये हैं यह उन्हें बिल्कुल भी पता नही चला। हठात एक जगह पर एक ' शव '(मुर्दा) पड़ा हुआ दिखाई देता है !
      उसी शव के ऊपर बैठ कर वे उस घनी रात्रि में ' शव-साधना ' करते हैं। किन्तु शव-साधना करने के बाद उनके मन में यह विचार उठा कि, अभी तुरन्त ही अपने गुरु के पास जाना होगा ! अर्थात उसी समय उनको अपनी मातृ-देवी के पास खड़दह जाना ही पड़ेगा। साथ ही साथ उनके मन में यह भावना भी उठी  कि, " घर में घुसते ही बस एक बार ' माँ ' कह कर पुकारूँगा, और माँ यदि मेरी पुकार सुनते ही सामने नहीं दिखाई दी य़ा उनका कोई उत्तर न आया तो- यह शरीर और बचेगा नहीं - वहीं गिर कर नष्ट हो जायेगा !"
इस प्रकार आन्दुल स्कूल से निकल कर पैदल ही चलते हुए, खड़दह- जा पहुँचे! घर में प्रवेश करते ही, सीधा प्रवेश किया जा सकता है, किन्तु सामने ही एक छोटा दीवार जैसा उठा हुआ है, अभी भी वैसा ही है, इसीलिये बाहर से भीतर का पूरा हिस्सा देखा नहीं जा सकता है| वे घर के भीतर प्रवेश कर बाहर के दरवाजे से पूजा का दालान पारकर जब घर में प्रविष्ट हुए तो एक बार ' माँ ' कह कर पुकारे| 
एक बार जैसे ही ' माँ ' कह कर आवाज दिये, तो देखते हैं कि माँ एक तुरन्त का कटा हुआ एक डाभ के मुख ढँक कर हाँथ में लिये हुए वहाँ खड़ी हैं ! और कह रही हैं- " लो मेरे बेटे, इसे पी लो "! पितामह की गुरु और अपनी माँ कैसे यह जान गयीं कि माँ कहकर एक बार आवाज लगाने के बाद यदि वे उसको नहीं दिखाई देंगी तो उनका शरीर वहीं गिर जायेगा ? और कैसे वे पहले से हाथ में एक डाब के मुख को काट- छिल कर ढँक कर खड़ी हैं ? एवं पितामह किस प्रकार आन्दुल से पैदल चल कर इतनी दूर खड़दह आ पहुँचे हैं? माँ यह कैसे जान गयी कि रात्रि में उन्होंने शव-साधना किया है? और जैसे ही उन्होंने ' माँ ' कह  कर आवाज लगायी, कि माँ ने सामने आकर उनके हाथ में डाभ पकड़ा दिया? इन बातों की कल्पना भी नहीं की जा सकती, किन्तु यह सब सचमुच घटित हुआ है !
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[We decorate our(?) temple on puja days

[ Nityananda came to stay in Khardaha in 1522.  Virabhadra was born in 1535 in the Kunja Bati. His samadhi is there also. In 1570, Birbhadra received a large piece of stone from the Nawab, which was then carved into the Shyamasundar deity.
Shiromoni House One of the oldest Houses in Khardah. All the houses in its near vicinity are more or less relatives. Late Sanath Mukherjee was Amrita's and  Sourav's grandfather, whose houses u can locate nearby. One of the most well known families in Khardah. The Radhakanta Temple belongs to the family.]. One day, about A.D. 1520, two thousand and five hundred men and women, "all Mussulmans," hearing of the great teacher of love and mercy, had come to him there to receive discipleship, and been admitted by him into Hinduism, as the order of Nera-Neris, or the Shaven-hes and the Shaven-shes. The records called them Mussulmans because to the writers they were not recognisable as Hindus, and it had been long ago forgotten that there could be any other category outside orthodox society to which they could belong. But they were in fact Buddhists, and that memorable day in the life of Nityananda definitely marked the death of Buddhism in Bengal.
The Vaishnavite cult has left its mark on Khardah. Nityananda Prabhu, a disciple of Sri Krishna Chaitanya, had settled in a thatched hut here. It is now a humble brick structure known as Kunjabati.
His son Bir Bhadra Goswami had started the worship of Shyamsundar that  subsequently became the presiding deity of Khardah.It is said that about 250 years ago, a woman named Pateswari Ma Goswami had raised the famous Shyamsundar temple .  
The temple compound has a large kitchen and natmancha, and close to the Hooghly banks are the ratha-shaped Rasmancha and Dolmancha. 
The sanctity of the Dolmancha has been violated by blocking the archway. Recent attempts at decorating the main temple with white panels depicting Krishnalila are quite appalling. Adjacent to the Shyamsundar temple is a smaller one dedicated to Madanmohan. Khardah is famous for its Ras and Dol celebrations.] 
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