सोमवार, 10 मई 2010

' विद्या गुरुमुखी!' [21 JNKHMP]]

जब वे स्कूल में हमलोगों के शिक्षक थे उसके बहुत दिनों बाद, उनके (पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ के ) विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बनने की बात भी स्मरणीय है| उनदिनों बंगला भाषा का अख़बार ' दैनिक-वसुमती ' बहुत प्रचलित था, एवं हमलोगों के घर में भी वही अख़बार आता था|एक दिन सुबह सुबह ' वसुमती ' के सम्पादकीय में देखा- लिखा था, ' कलकाता विश्व विद्यालय के दर्शन -विभाग में प्राध्यापक के इतने पद खाली क्यों पड़े हुए हैं? जब भूतनाथ सप्ततीर्थ हैं ही, तो उनको यह पद क्यों नहीं दिया गया है? 

पढ़ कर बहुत आनन्द हुआ कि हमलोगों के पण्डितमहाशय को विश्वविद्यालय में प्राध्यापक का पद मिलना चाहिये, अभी तक क्यों नहीं मिला है, यह बात समाचार पत्र के संपादकीय में लिखा है|उसके कुछ ही दिनों बाद यह सुनने में आया कि विश्वविद्यालय की ओर से पण्डित भूतनाथ महाशय को वहाँ के प्राध्यापक का पद ग्रहण करने के लिये एक पत्र भेजा गया है|
बाद में सुना गया की पण्डित भूतनाथ महाशय ने विश्वविद्यालय के पद पर जाना अस्वीकार कर दिया है| उस समय का विश्वविद्यालय बिल्कुल भिन्न प्रकार का था! उस समय के प्राध्यापकों की दृष्टि सदा इसी बात पर लगी रहती थी कि कैसे विद्यार्थियों को अच्छी से अच्छी शिक्षा प्राप्त हो सके| वे लोग आपस में चर्चा किये कि, क्या हुआ, क्यों भूतनाथ पण्डित महाशय आना नहीं चाहते हैं? 
खोज-खबर लेने पर उनलोगों को पता चला कि,वे जिस स्कूल के छात्र रहे हैं, उसके प्रधानाचार्य जिनकी उम्र बहुत अधिक होने पर भी अभी तक स्कूल में ही पढ़ा रहे हैं| इसीलिये जब तक वे स्कूल में रहेंगे, वे स्कूल छोड़ कर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक का पद नहीं ग्रहण कर सकते| 
तब उनलोगों ने आपस में परामर्श करके, हमलोगों के प्रधान शिक्षक को अर्थात हमलोगों के आचार्यदेव शिरीष चन्द्र मुखोपाध्याय को, विश्विद्यालय की तरफ से एक अनुरोध-पत्र भेजे|- " आपके स्कूल के संस्कृत के शिक्षक को यदि आप हमलोगों के विश्विद्यालयमे आने की अनुमति दे देते तो बहुत अच्छा होता !" आचार्यदेव ने एक दिन उनको बुलाया और कहा- भूतनाथ !
  " सर्वत्र जयमिच्छेत पुत्रात् शिष्यात् पराजयम्।" 
- मनुष्य हर जगह जय पाने की आकांक्षा करता है, किन्तु अपने पुत्र और शिष्य से पराजय ही पाना चाहता है ! तुम यदि विश्वविद्यालय में अध्यापन करो तो मुझे बहुत आनन्द होगा !" अगले ही दिन स्कूल की नौकरी छोड़ कर वे विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य करने चले गये| दर्शन-शास्त्र के ऊपर उनकी लिखी एक पुस्तक प्रकाशित हुई है| उस पुस्तक के प्रकाशित होने के बाद उसकी एक प्रति जिस प्रकार अपने आचार्य देव को दिये हैं उसी प्रकार उसकी दूसरी प्रति और एक आचार्य जो कलकाता के विख्यात पण्डित थे- उनको भी दिये हैं| 
उन दोनों ने पुस्तक को पढ़ा है|बाद में जब वे कलकाता विश्वविद्यालय के उनके आचार्य पास पहुँचे हैं, तब वे कहते हैं- " भूतनाथ, तुम्हारा पाण्डित्य और तुम्हारी स्मरण-शक्ति कितनी प्रखर है, इस बात से सभी परिचित हैं| किन्तु इस ग्रन्थ में तुम एक जगह पर शुकदेवजी द्वारा कथित एक श्लोक को उद्धृत किये हो, वहाँ पर तुमने जैसा लिखा है, मूल श्लोक में वैसा तो नहीं है; तुमसे ऐसी भूल कैसे हुई ?"  
तब उन्होंने उत्तर दिया था-" आपलोगों से ही सीखा है, ' विद्या गुरुमुखी!' 

मैं जिस समय आठवीं क्लास में पढता था तब हमलोगों के प्रधान शिक्षक ने जिस भाव से कहा था उसी प्रकार का भाव मेरे लिये ग्रहणीय है, इसीलिये शुकदेव का श्लोक जानते हुए भी मैं उसे लिख नहीं सका|" आश्चर्य होता है, ऐसी गुरुभक्ति देख कर, बहुत आश्चर्य होता है| इसप्रकार की आसाधारण बातें कितनी ही घटित हुई हैं| स्कूल में पढ़ते समय अन्य एक बात की ओर लड़कों में बहुत आग्रह देखा जाता था|
छात्रों में पढाई से भी ज्यादा जोर शारीरिक व्यायाम करने पर रहता था|
हमलोगों के स्कूल के निकट ही' शक्ति संघ ' नामक संस्था थी, स्कूल के बाद मैं सीधा वहीं चला जाया करता था|
 मुझे वहाँ पर जिम्नास्टिक्स के साथ साथ - लाठी खेलना, तलवार-बाजी का खेल, छूरे-बाजी का खेल आदि खेल बहुत प्रिय थे| उस समय तो इलेक्ट्रिसिटी (बिजली) नहीं थी,मोमबत्ती य़ा लालटेन की रौशनी में पढना पड़ता था, इसलिए जब खेल-कूद से थक कर अपने कमरे में पढने बैठता, तो पढ़ते पढ़ते कभी नींद आ जाती थी और पढाई भी  बन्द करनी पड़ती थी|
पण्डित महाशय ने एक दिन मुझे क्लास में थोड़ी सजा भी दी थी| मेरे पूरे छात्र जीवन में यही एकमात्र सजा मिली थी| उन्होंने चाणक्य के कुछ श्लोकों को याद करके आने को कहा था, किन्तु अगले दिन जब क्लास में पूछा तो मैं बता नहीं सका| तब एक साधारण स दण्ड दिये थे, बोले- ' खड़े रहो !' शायद इसीलिये मैं उसके बाद से पण्डित महाशय द्वारा कहे गये किसी श्लोक को एक बार सुन लेने के बाद कभी भूलता नहीं था| वे सभी श्लोक मुझे इस उम्र में भी याद हैं, और प्रतीत होता है कि आगे भी याद रहेंगे, उसकी कूंजी किन्तु इसी - 'खड़े-रहो!' वाले दण्ड से प्राप्त हुई थी|  
कितने ही शिक्षकों से पढने का मौका मिला है, स्कूल के अन्य कुछ शिक्षकों की बातें याद आती हैं| हमलोगों के गणित के शिक्षक- बेचाराम चक्रवर्ती महाशय का जीवन भी असाधारण था| बहुत दिनों बाद यह जान पाया था कि वे रात्रि में ३ बजे ही नींद से उठ जाते थे, और कई प्रकार की साधनाएँ आदि किया करते थे, सुबह में थोड़ा घूमने के लिये लिये भी जाते थे|शायद इसीलिये वे दीर्घायु भी प्राप्त किये थे - हमलोगों के सभी शिक्षकों में वही एकमात्र ऐसे थे जो ' एक सौ एक ' (१०१) की आयू तक जीवित थे!
 अनठानबे (९८) वर्ष की आयू तक तो वे, रास्ते पर एक दम स्ट्रेट (तन कर) खट-खट करते हुए चलते थे, कभी रिक्सा पर नहीं बैठते थे|उस समय मैट्रिक की परीक्षा के लिये बोर्ड-टोर्ड आदि नहीं था, हमलोगों ने वर्ष १९४७ में ' मैट्रिकुलेशन ' पास किया था,तब मैट्रिकुलेशन की परीक्षा भी युनिभर्सिटी से पास करना पड़ता था|
  हमलोगों के बैच में (४७ बैच) में, स्कूल से जितने छात्र मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में बैठे थे, उनमे से जितने छात्रों के बारे में जानकारी मिल सकी थी, उन सबों को खोज कर एक समिति गठित की गयी थी, उसका नाम था- ' प्राक्तन-छात्र समिति ' (एक्स-स्टूडेंट समिति) ! उस समय तक हमलोगों के २ शिक्षक जीवित थे| एक थे बेचाराम चक्रवर्ती महाशय और दूसरे थे पञ्चानन भट्टाचार्य महाशय|दोनों ही किन्तु गणित के शिक्षक थे| अनेक वर्ष बीत जाने के बाद भी जब कभी आन्दुल जाने का मौका मिलता उनलोगों से भेंट करने की कोशिश अवश्य करता था| (एक बार ओटीसी के बाद मुझको(बिजय को) बाई-बाई बोल कर ' अपने सर ' लोग से  मिलने गये थे)|
जिस वर्ष ' प्राक्तन-छात्र समिति ' ने एक एक-दिवसीय ' गेट-टुगेदर ' के कार्यक्रम का आयोजन किया था उसमे इन दोनों शिक्षक-महाशय को भी स-सम्मान आमंत्रित किया गया था| बेचाराम चक्रवर्ती महाशय को लाने के लिये, रिक्सा से लाने की व्यवस्था की गयी तो, उन्होंने कहा - ' अरे नहीं भाई, रिक्से में बैठ कर स्कूल जाऊंगा क्या, पैदल ही जाऊंगा! ' वे जब स्कूल पहुँचे तो गेट से प्रवेश करने के बाद जैसे ही स्कूल दिखाई दिया वे उसके सामने खड़े हो कर " स्कूल के भवन " को (शिक्षा-पीठ को) दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किये, फिर अन्दर प्रविष्ट किये| दोनों शिक्षकों को सम्मान पूर्वक बैठाने के बाद, हम सभी छात्रों ने उनके चरणों में फूल चढ़ा कर - प्रणाम किया, उनलोगों ने आशीर्वाद दिया, हमलोगों को उन्होंने कुछ अच्छी-अच्छी बातें भी बताईं| उसके बाद कुछ दूसरे कार्यक्रम भी आयोजित हुए| कई वर्षों तक यह कार्यक्रम हुआ था|
उसके बाद हमलोगों के सहपाठियों में से, एक-एक करके कई लोग प्रस्थान करने लगे| हमलोगों का एक सहपाठी शंकर बन्द्योपाध्याय, पढने में बहुत तेज था हर साल क्लास में वही फर्स्ट करता था, बाद में डाक्टरेट किया था और एक स्कूल में हेडमास्टर बन गया था|वह भी हमलोगों के पहले चला गया|उसके बाद और भी कई लोग चले गये हैं| अभी जितने लोग बचे हुए हैं, अभी पहले की तरह स्कूल में मिलना सम्भव नहीं हो पा रहा है| कई वर्षों तक हमलोग सम्मिलित होते थे, एवं अन्यान्य प्राक्तन छात्रों को लेकर भी इस प्रकार का समावेश वहाँ कई बार हुआ है| एक बार १९०१ से लेकर जो लोग मैट्रिकुलेसन पास किये हैं, उन सब की एक सूचि प्रकाशित हुई है| ऐसा अन्य किसी स्कूल में भी होता है य़ा नहीं पता नहीं| किन्तु अपने स्कूल के लिये बहुत आनन्द की घटना थी|
(सबों से निःस्वार्थ प्रेम करने की शक्ति को ही आध्यात्मिक-शक्ति या आध्यात्मिकता कहते हैं !)
       
   

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