गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

सिल्वरजुबली में सिंहावलोकन

 झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल वर्ष (२००९-२०१०) के सचिव का 
वार्षिक प्रतिवेदन    

 स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " हो सकता है कि एक पुराने वस्त्र को त्याग देने के सदृश, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं बहुत उपादेय पाऊँ|लेकिन मैं काम करना नहीं छोडूंगा|जब तक सारी दुनिया न जान ले, मैं सब जगह लोगों को यही प्रेरणा देता रहूँगा कि वह परमात्मा के साथ एक है! "(१०:२१७)
आज की यह ' वार्षिक-सभा ' महामण्डल की ' २५ वीं ' वार्षिक आमसभा है! सिल्वरजुबली में सिंहावलोकन किया जाय- स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श मानने वाली यह संस्था झुमरीतिलैया में क्यों और कैसे आविर्भूत हुई ? 
उस दिन - वर्ष  १९८५ में १२ जनवरी के दिन ' स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती ' मनाई  जा रही थी, तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजिव गाँधी ने पहली बार - १२ जनवरी को ' राष्ट्रीय युवा दिवस ' घोषित करते हुए दिल्ली रामकृष्ण मिशन आश्रम पहुँच कर स्वामी विवेकानन्द के शिकागो Pose वाली छवि पर माल्यार्पण किया था|उसका Live Telecast ' झुमरीतिलैया महामण्डल ' का वर्तमान सचिव भी टीवी पर देख रहा था|उसे ऐसा लगा मानो चन्द सेकेन्ड के लिये स्वामीजी की " वह छवि "टीवी के परदे पर Still (ठहर सी गयी थी) हो गयी थी|

 अचानक उनकी आँखों में कुछ ऐसा दिखा कि हिन्दी भाषी प्रान्तों के युवा, जिस ' युवा आदर्श ' (Role Model) की तलाश अभी तक सिनेमा के नायकों में कर रहे थे, उन सबसे अधिक आकर्षक और ओजपूर्ण तो यह " योद्धा सन्यासी स्वामी विवेकानन्द " हैं ! फिर क्या था झुमरी तिलैया के अपने बंगाली मित्रों के पास उस छवि की खोज करने लगा, अन्त में वह छवि श्री सुकान्त मजुमदार के यहाँ प्राप्त हो गयी जिसे अपने प्रतिष्ठान में मुख्य स्थान पर लगा दिया|


 और उसके अगले ही दिन- " मकर संक्रान्ति १४ जनवरी १९८५ "  के दिन झुमरी तिलैया में एक ' चारित्र निर्माण कारी संस्था ' के रूप में ' विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ' भी बिना कोई योजना बनाये- स्वतः ही आविर्भूत हो गया!( यह तो बाद में पता चला की सन १८६३ में १२ जनवरी को भी मकर संक्रान्ति थी, जब स्वामी विवेकानन्द का जन्म हुआ था)
किन्तु चरित्र क्या है, और चरित्र निर्माण कैसे किया जाता है; इन सब के विषय में तत्कालीन अध्यक्ष य़ा सचिव दोनों में से किसी के पास कोई जानकारी नहीं थी | इसीलिये जेसीज क्लब , बैंक ऑफ़ इंडिया, रोटरी क्लब जैसी संस्थाओं के मिलकर " करमा हरिजन टोला " के विकास में ' ज्ञान-मन्दिर 'भी लगा रहा |
इसी बीच राँची रामकृष्ण मिशन में कार्यरत महामण्डल के भ्राता श्री प्रमोद रंजन दास (प्रमोद दा) से स्वामी विवेकानन्द की उक्ति सुनने को मिली कि - " देश के प्रत्येक घर को हम सदावर्त में भले ही परिणत कर दें, देश को रोड और अस्पतालों आदि से भले ही पाट दें, परन्तु जबतक मनुष्य का चारित्र परिवर्तित नहीं होता, तब तक दुःख-क्लेश बना ही रहेगा|" (३:२९) उन्होंने ने ही उसे वर्ष १९८७ में बेलघड़िया में आयोजित महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने को प्रोत्साहित किया! 
उस युवा प्रशिक्षण शिविर में अपने साथ-साथ सैंकड़ो युवओं के ऊपर
 " Be and Make " तथा " 3H निर्माण " सूत्र पर आधारित ६ दिवसीय प्रशिक्षण शिविर के प्रभाव को देख कर आवाक रह गया! स्वामीजी ने कहा है- " यदि यह प्रभु का कार्य हो, तो उचित समय पर योग्य व्यक्ति अवश्य ही तदनुरूप कार्य में आकर सम्मिलित होंगे! "(४:३६९) और वर्ष १९८८ में महामण्डल का ३दिवसिय ' प्रथम बिहार राज्य स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर ' झुमरीतिलैया में आयोजित होने के बाद ' विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ' का विलय " झुमरी तिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल " में हो गया|
महामण्डल द्वारा प्रकाशित मन, ह्रदय तथा शरीर को सुसमन्वित ढंग से विकसित कराकर तरुणों के जीवन को गठित करने वाली पुस्तिकाओं  (Mahamandal Booklets ) एवं युवाओं में ' श्रद्धा और विवेक ' जाग्रत करा देने में समर्थ उसकी संवाद पत्रिका " Vivek Jivan " के अंग्रेजी एवं बंगला में लिखी हुई रचनाओं को ठीक से समझ कर उन्हें हिन्दी में अनुवादित करने में सक्षम एवं स्वामी विवेकानन्द में अनुराग रखने वाले किसी हिन्दी भाषी व्यक्ति के लिये बंगला भाषा को सीखना भी अनिवार्य हो गया था| ...इसीलिये लगता है, स्वयं स्वामीजी ही अपनी वाणी को सत्य सिद्ध करने के लिये अब भी कार्यरत हैं; और उन्ही की प्रेरणा से यहाँ का कार्य प्रारम्भ हुआ था|
स्वाधीनता प्राप्ति से पूर्व देशवासिओं के मन में ऐसी धारणा थी कि वर्तमान में सम्पूर्ण देश को दरिद्रता, अनाहार, अशिक्षा आदि जिन समस्याओं से जूझना पड़ रहा है, उन सारी समस्याओं का मूल कारण केवल (अंग्रेजों की) पराधीनता ही है !जैसे ही देश गुलामी की जंजीरों से मुक्त होकर राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेगा, वैसे ही यहाँ की सारी समस्याएं समाप्त हो जाएँगी और देश में समृद्धि का ज्वार आ जायेगा! 
परन्तु आजादी के छः दशक बीत जाने के बाद-२१ अप्रैल २०१० को प्रतिष्ठित हिन्दी समाचार पत्र ' हिन्दुस्तान 'का सम्पादकीय कहता है- 
" योजना आयोग के पैनल ने गरीबी का आकलन करने वाली 'सुरेश तेंदुलकर समिति की पद्धति ' को स्वीकार करते हुए (२००४-०५) में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या को ३७.२ % (करीब ४४ करोड़) मान लिया है ! यह संख्या योजना आयोग के अपने ही पूर्व के आकलन से १० % ज्यादा है| गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की २७.५ % संख्या का वह आकलन ' कैलोरी उपभोग ' पर आधारित था, जिसकी आलोचना तमाम अर्थशास्त्री लंबे समय से कर रहे थे|

हालांकि गरीबी मिटाने के लिये समर्पित विशेषग्य..के अनुसार इस संख्या को ५० % तक मानते हैं|..सही आकड़े तो सन २०११ तक ही मिल पायेंगे,लेकिन देश के कई हिस्से भूख की चपेट में हैं और उन्हें जल्दी से जल्दी राहत मिलनी चाहिये|दिलचस्प बात यह है कि ३७.२ % की यह संख्या सिर्फ खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लिये स्वीकार की गई है| सरकार के बाकी योजनायें और कार्यक्रम अभी २७.५ % वाले आकलन के आधार पर ही चलेंगे|" जनकल्याण का रास्ता " निकलता है तो उसका स्वागत होना चाहिये | " 
अगर हम सभी भारतवासी सचमुच " जनकल्याण का रास्ता " ढूँढना चाहते हों -  तो हमें इस प्रश्न का उत्तर अवश्य ढूँढना चाहिये कि, आखिर क्यों राजनैतिक स्वाधीनता भी देशवासियों का यथार्थ कल्याण करने में विफल सिद्ध हो गयी? राजनीतिक दृष्टि से स्वाधीनता प्राप्त करने के ६२ वर्ष बाद, इतने मिहनती होने पर भी हमारे करीब ४४ करोड़ देशवासी क्यों गरीब हैं ?इतना धन व्यय करने के बाद भी सारी पंचवर्षीय योजनायें लक्ष्य को क्यों नहीं प्राप्त कर पाती हैं ? जब अंग्रेज चले गये गये हैं तो फिर आज स्वतन्त्रता के इस शुभ्र प्रकाश में भी देशवासी स्वयं को छला हुआ सा -क्यों अनुभव कर रहे हैं ?
विलम्ब से ही सही, पर अभी किस उपाय के द्वारा- इतने वर्षों की विफलता को दूर करके एक बार पुनः देश को विकास और प्रगति के पथ पर आरूढ़ कराया जा सकता है?

 देश की दुरावस्था के लिये केवल दूसरों को जिम्मेदार ठहराने, या शासक वर्ग के विरुद्ध विक्षोभ प्रदर्शन के लिये, रेल,बस,आदि सरकारी संपत्तियों को जला कर खाक कर देने से - देश की दुरावस्था का अवसान कभी संभव न होगा|स्वामी  विवेकानन्द ने कहा है- " जो लोग अपने दुखों य़ा कष्टों के लिये दूसरों को दोषी बनाते हैं, वे साधारणतया अभागे और दुर्बल-मस्तिष्क हैं|अपने ही कर्म-दोष से वे ऐसी परिस्थिति में आ पड़े हैं, और अब वे दूसरों को इसके लिये दोषी ठहरा रहे हैं| पर इससे उनकी दशा में तनिक भी परिवर्तन नहीं होता- उनका कोई उपकार नहीं होता, वरन दूसरों पर दोष लादने की चेष्टा करने के कारण वे और भी दुर्बल बन जाते हैं|
...अतएव उठो, साहसी बनो, वीर्यवान होओ|सब उत्तरदायित्व अपने कन्धे पर लो- यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो|तुम जो कुछ बल य़ा सहायता चाहो, सब तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है|अतएव इस ज्ञानरूप शक्ति के सहारे तुम बलवान बनो और अपने हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो !"  (२:१२०)
" पहले यह बताओ कि समाज के दोष दूर करने कि आवश्यकता तुमको है य़ा सरकार को ? यदि तुमको आवश्यकता है, तो क्या सरकार उन्हें दूर करेगी य़ा तुमको स्वयं ही उन्हें दूर करना होगा ?..भिखमंगों की मांगें कभी पूरी नहीं होतीं| 
माना की सरकार तुमको तुम्हारी आवश्यकता की वस्तुएं देने को एकबार राजी हो भी जाय, पर प्राप्त होने पर उन्हें सुरक्षित और संभाल कर रखने वाले मनुष्य कहाँ हैं? इसलिए पहले आदमी (इन्सान ) य़ा - ' मनुष्य ' उत्पन्न करो| हमें अभी ' मनुष्यों ' आवश्यकता है, और बिना श्रद्धा के मनुष्य कैसे बन सकते हैं ? (८:२७०)
भारत के पुनर्निर्माण के प्रति जितने भी बुद्धि जीवी, राजनीतिक नेता आदि हैं सभी एक मत हैं, सभी चाहते हैं कि भारत का पुनर्निर्माण तो होना ही चाहिये, किन्तु उपाय को लेकर किसी एक का भी मत दूसरे से नहीं मिलता | ७६ CRPF जवानों के दन्तेवाड़ा में शहीद होने के बाद लोकसभा में जो चर्चा हो रही थी उसके लाइव-टेलीकास्ट को मैं भी देख रहा था|उसको देखने के बाद स्वामी विवेकानन्द कथित एक कहानी का स्मरण हो आया, जो इस प्रकार है :-  
" अपने मत को अक्षुण रखने में प्रत्येक मनुष्य का एक विशेष आग्रह देखा जाता है|"...एक समय एक छोटे राज्य को जीतने के लिये एक दूसरे राजा ने दल-बल के साथ चढ़ाई कर दिया। शत्रुओं के हाथ से बचाओ कैसे हो, इस सम्बन्ध में विचार करने के लिये उस राज्य में एक बड़ी सभा बुलायी गयी|सभा में इंजीनियर, बढ़ई, चमार, लोहार, वकील, पुरोहित आदि सभी उपस्थित थे |
इंजीनियर ने कहा- 'शहर के चारों ओर एक बहुत बड़ी खाई खुदवाइये|' 
बढ़ई बोला- ' काठ की एक दीवाल खड़ी कर ड़ी जाय|' 
चमार बोला- ' चमड़े के समान मजबूत और कोई चीज नहीं है, चमड़े की ही दीवाल खड़ी की जाय|'
लोहार बोला- ' इस सबकी कोई आवश्यकता नहीं है; लोहे की दीवाल सबसे अच्छी होगी; उसे भेदकर गोली य़ा गोला नहीं आ सकता|'
वकील बोले- ' कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है; हमारा राज्य लेने का शत्रु को कोई अधिकार नहीं है- यही एक बात शत्रु को तर्क-युक्ति द्वारा समझा दी जाय|'
पुरोहित बोले- ' तुम लोग तो पागल जैसे बकते हो|होम-याग करो, स्वस्त्यन करो, तुलसी दो, शत्रु कुछ भी नहीं कर सकता|'
इस प्रकार उन्होंने राज्य को बचाने का कोई उपाय निश्चित करने के बदले अपने अपने मत का पक्ष लेकर घोर तर्क-वितर्क आरम्भ कर दिया|यही है मनुष्य का स्वभाव !" (१०:३२७,३२८)मानव मन के एकतरफा, एकपक्षीय झुकाव(या सनक) के बारेमें;' शिकागो-भाषण ' के पूर्व ही २५ अक्टूबर १८९२ को स्वामी विवेकानन्द से दीक्षा प्राप्त करने वाले उनके शिष्य ' श्री हरिपद मित्र ' भी उनको एक घटना सुनाते हुए कहते हैं- ' स्वामी जी , मुझे लड़कपन में पागलों के साथ बातचीत करना बड़ा अच्छा लगता था|एक दिन मैंने एक पागल देखा - खासा बुद्धिमान, थोड़ी-बहुत अंग्रेजी भी जनता था; वह केवल पानी ही चाहता था! उसके पास एक फूटा लोटा था|पानी की कोई नयी जगह देखते ही, चाहे नाला हो, हौज हो, बस वहीं का पानी पीने लगता था| 
मैंने उससे इतना पानी पीने का कारण पूछा,तो वह अंग्रेजी में बोला -  
 ' Nothing like water, Sir !'(पानी जैसी दूसरी कोई चीज ही नहीं, महाशय!) मैंने उसे एक अच्छा लोटा देने की इच्छा प्रकट की, पर वह किसी प्रकार राजी नहीं हुआ|कारण पूछने पर बोला , 'यह लोटा फूटा हुआ है, इसीलिये इतने दिनों तक मेरे पास टिका हुआ है|अच्छा रहता, तो कब का चोरी चला गया होता!
स्वामी जी यह कथा सुन कर बोले, '..ऐसे लोगों को झक्की कहते हैं|हमसभी लोगों में इस प्रकार का कोई दुराग्रह य़ा झक्कीपन हुआ करता है|हमलोगों में उसे दबा रखने की क्षमता है| पागल में वह नहीं है|हमलोगों में और पागलों में भेद केवल इतना ही है|रोग, शोक, अहंकार, काम, क्रोध, ईर्ष्या य़ा अन्य कोई अत्याचार अथवा अनाचार से दुर्बल होकर, मनुष्य के अपने इस संयम को खो बैठने से ही सारी गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है! मन के आवेग को वह फिर संभाल नहीं पाता| हमलोग तब कहते हैं, 'यह पागल हो गया है |' बस इतना ही ! " (१०:३२८) 
२१ अप्रैल २०१० को दैनिक जागरण में एक समाचार छपा था- शीर्षक था-' शारीरिक परिवर्तन के प्रभाव से अवगत हुए किशोर-किशोरी '" नेहरू युवा केन्द्र, हजारीबाग में किशोर-किशोरी मार्गदर्शन को ले कार्यशाला का आयोजन हुआ |कार्यशाला में ग्रामीण व शहरी क्षेत्र के २० किशोर व २५ किशोरियों ने भाग लिया, जिन्हें जीवन कौशल के विभिन्न पहलुओं की जानकारी देते हुए शारीरिक परिवर्तन के प्रभाव से अवगत कराया गया|जिला युवा समन्वयक विजय कुमार के निर्देशन में आयोजित कार्यशाला में प्रतिभागियों ने परामर्शदात्री रूपा बनर्जी से शारीरिक परिवर्तन के सम्बन्ध में कई सवाल पूछे|परामर्शदात्री ने सवालों का विस्तृत जवाब देकर प्रतिभागियों को संतुष्ट किया|
कार्यशाला में लिंग भेद, नशा, भ्रूण हत्या, एनीमिया, एड्स व सामाजिक सरोकार से संबन्धित विषयों पर जानकारी दी गयी|कार्यशाला को सफल बनाने में DPO शुभ्रो मल्लिक, राजनारायण महतो, शबनम, आदि का सराहनीय योगदान रहा| " 
इसको क्या कहेंगे? क्या इसी (भ्रूण हत्या और एड्स ) शिक्षा के बल पर तरुणों में आत्मश्रद्धा का संचार हो सकेगा
" मनुष्य को सदैव उसकी दुर्बलता की याद कराते रहना उसकी दुर्बलता का प्रतिकार नहीं है- बल्कि उसे अपने बल का स्मरण करा देना ही उसके प्रतिकार का उपाय है|मनुष्य में जो बल पहले से ही विद्यमान है, उसका उन्हें स्मरण कराओ| " (८:११)  
 " वेदान्त सबसे पहले मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास करने के लिये कहता है| जिस प्रकार संसार का कोई कोई धर्म कहता है कि जो व्यक्ति अपने से बाहर किसी सगुण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता, वह नास्तिक है| उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है| अपनी आत्मा की महिमा में विश्वास न करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते है|" (८:६) 
 " मनुष्य केवल मनुष्य भर चाहिये| बाकी सब कुछ अपने आप हो जायेगा| आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वि, श्रद्धासमपन्न और दृढविश्वासी निष्कपट नवयुवकों की| ऐसे सौ मिल जाएँ, तो संसार का कायाकल्प हो जाय |"(५:११८)  
 " आज हमें श्रद्धा की आवश्यकता है, आत्मविश्वास की आवश्यकता है| बल ही जीवन, और निर्बलता ही मृत्यु है- ' हम आत्मा हैं- अजर,अमर, मुक्त और शुद्ध| फिर हमसे पाप-कार्य कैसे संभव है ? असंभव है- इस प्रकार की दृढ निष्ठा होनी चाहिये|इस प्रकार का अडिग विश्वास हमें मनुष्य बना देता है, देवता बना देता है|पर आज हम श्रद्धाहीन हो गये हैं और इसीलिये हमारा तथा देश का पतन हो रहा है|...हम श्रद्धाहीन कैसे बन गये ? 
बचपन से हमारी शिक्षा ही ऐसी रही है| हमने तो यही सीखा है कि हम नगण्य हैं, नाचीज हैं|कभी हमें यह नहीं बताया गया कि हमारे देश में भी ( बिक्रमादित्य जैसे राजा और चाणक्य जैसे प्रधान मंत्री हुए हैं !) महान पुरुषों का जन्म हुआ है |
हमे एक भी तो अच्छी बात नहीं सिखाई जाती|हमे हाथ-पैर चलाना (परेड में चलना) तक नहीं आता|हमें इंग्लैण्ड (अभी अमेरिका) के पूर्वजों की तो एक एक घटना और तिथि याद हो जाती है, पर, दुःख है, अपने देश के अतीत से हम अनभिज्ञ रहते हैं|हम केवल निर्बलता का पाठ पढ़ते हैं|पराजित राष्ट्र होने से, हमें यह विश्वास हो गया कि हम शक्तिहीन और हर बात में परावलम्बी हैं|
अतः श्रद्धा नष्ट न हो तो क्या हो ? अब हमें पुनः एकबार श्रद्धा का भाव जाग्रत करना होगा, हमारे सोये हुए आत्मविश्वास को जगाना होगा, तभी आज देश के सामने जो समस्याएं हैं, उनका समाधान स्वयं हमारे द्वारा हो सकेगा| " (८:२६९) 
" सारी शिक्षा तथा समस्त प्रशिक्षण का एकमेव उद्देश्य मनुष्य का निर्माण होना चाहिये| परन्तु हम यह न कर केवल बहिरंग पर ही पानी चढाने का सदा प्रयत्न किया करते हैं|जहाँ व्यक्तित्व का ही आभाव है, वहाँ सिर्फ बहिरंग पर पानी चढाने का प्रयत्न करने से क्या लाभ? 
सारी शिक्षा का ध्येय है- मनुष्य (में यथार्थ नेतृत्व शक्ति का) का विकास! वह " मनुष्य "
- { महामण्डल के ' नेता ' जैसा मनुष्य } जो अपना प्रभाव सब पर डालता है, जो अपने संगियों पर जादू सा कर देता है, शक्ति का एक महान केन्द्र है, और जब वह मनुष्य तैयार हो जाता है, वह जो चाहे कर सकता है| यह व्यक्तित्व जिस वस्तु पर अपना प्रभाव डालता है, उसी वस्तु को कार्यशील बना देता है ! " (४:१७२)
" (मनोनिग्रह अर्थात ) आत्मसंयम का अभ्यास करने (और लालच को काम करते जाने से ) महान इच्छा-शक्ति का प्रादुर्भाव होता है; वह बुद्ध य़ा ईसा जैसे चरित्र का निर्माण करता है| मूर्खों को इस रहस्य का पता नहीं रहता, परन्तु फिर भी वे मनुष्य जाती पर शासन करने के इच्छुक रहते हैं!" (३:९)
" तथ्य-समूह से मन को भर देना ही शिक्षा नहीं है, शिक्षा का आदर्श है, साधन को योग्य बनाना और अपने मन पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना| यदि किसी विषय पर मन को केन्द्रित करना चाहूँ, तो उसे उसमे ही निविष्ट हो जाना चाहिये, और जिस क्षण उसे आदेश दूँ, पुनः उसे वहाँ से हट जाना य़ा मुक्त हो जाना चाहिये|
...एकाग्रता के साथ साथ अनासक्ति की क्षमता का विकास हमे करना होगा, जो समान रूप से दोनों में, ' प्रवृत्ति -निवृत्ति ' में शक्तिशाली है, वही सच्चा पौरुष प्राप्त कर सकता है| सारा विश्व डगमगा जाये, तो भी तुम उसे चिन्तातुर नहीं पाओगे|कौन सी पुस्तक ऐसी शिक्षा दे पायेगी !तुम चाहे जितनी पुस्तकें पढ़ लो| " (४:१५७,१५८)
" मैं शिक्षा को गुरु के साथ संपर्क, ' गुरु-गृहवास '- समझता हूँ| गुरु के व्यक्तिगत जीवन के आभाव में शिक्षा नहीं हो सकती|अपने विश्वविद्यालयों को लीजिये| अपने ५० वर्ष के अस्तित्व में उन्होंने क्या किया है? उन्होंने एक भी मौलिक व्यक्ति पैदा नहीं किया|वे केवल परीक्षा लेने की संस्थाएँ हैं|(देशवासियों के कल्याण के लिये ) सबके कल्याण के लिये बलिदान की भावना (अपने जीवन को न्योछावर करदेने की भावना) का अभी हमारे राष्ट्र में विकास नहीं हुआ है| " (४:२६२) 
" आज के विश्वविद्यालय ' बाबू ' पैदा करने की मशीन के सिवाय कुछ नहीं है| अगर इतना ही होता, तब भी ठीक था, पर नहीं- इस शिक्षा से लोग किस प्रकार श्रद्धा और विश्वास रहित होते जा रहे हैं|
वे कहते हैं कि गीता तो एक प्रक्षिप्त अंश है और वेद देहाती (गड़ेरिये का) गीत मात्र है| वे भारत के बाहर के देशों तथा विषयों के सम्बन्ध में तो हर बात जानना चाहते हैं, पर यदि उनसे कोई अपने पूर्वजों के नाम पूछे तो चौदह पीढ़ी तो दूर रही, सात पीढ़ी तक भी नहीं बता सकते|
(...यह न सोचना कि) इससे क्या हुआ? वे अपने पूर्वजों के नाम नहीं जानते हैं तो क्या हानी है ? नहीं, ऐसा मत सोचो| जिस राष्ट्र का अपना कोई इतिहास नहीं है, वह संसार में अत्यन्त ही हीन और नगण्य है| 
क्या तुम सोचते हो कि कोई व्यक्ति जिसे सदैव इस बात का विश्वास और अभिमान है कि वह उच्च कुल में उत्पन्न हुआ है, कभी दुश्चरित्र हो सकेगा?...इसी तरह राष्ट्र का गौरवमय अतीत राष्ट्र को नियन्त्रण में रखता है, उसका अधःपतन नहीं होने देता|" (८:२२७) 
" शिक्षा किसे कहते हैं ? क्या वह पठन मात्र है? नहीं| क्या वह नाना प्रकार का ज्ञानार्जन है? नहीं, यह भी नहीं| जिस संयम के द्वारा इच्छा-शक्ति का प्रवाह और विकाश वश में लाया जाता है और वह फलदायक  होता है, वह शिक्षा कहलाती है|...वास्तविक शिक्षा को ..मानसिक शक्तियों का विकास - केवल शब्दों का रटना मात्र नहीं, अथवा व्यक्तियों को ठीक तरह से और दक्षता पूर्वक इच्छा करने का प्रशिक्षण देना कह सकते हैं|" (७:३५९)(४:२६८)
" शिक्षा से मेरा तात्पर्य आधुनिक प्रणाली की शिक्षा से नहीं, वरन ऐसी शिक्षा से है जो बी भावनात्मक हो तथा जिससे स्वाभिमान और श्रद्धा के भाव जागें|केवल किताबें पढ़ा देने से कोई लाभ नहीं|हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढे, बुद्धि विकसित हो, और देश के युवक अपने पैरों पर खड़े होना सीखें|...अबतक तो उन्होंने थोड़ी सी भी अनिष्ट य़ा संकट की आशंका होने पर आँसू बहाना ही सीखा है|" (८:२७७)
" ( उच्च शिक्षा का अर्थ डिग्री बटोरना य़ा फर्स्ट क्लास फर्स्ट हो कर आईएस बन जाना ही नहीं है-) उच्च शिक्षा का उद्देश्य है- जीवन की समस्याओं को सुलझा लेने में स्वयं समर्थ बन जाना- और आज का सभ्य संसार आज भी इन्हीं समस्याओं पर गहन चिन्तन कर रहा है, किन्तु हमारे देश में सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही गुत्थियाँ सुलझा ली गयीं | " (८:२३०) 
" हमारा यह संसार - इन्द्रियों, बुद्धि और युक्ति का संसार, दोनों ही ओर अनन्त, अज्ञेय और अज्ञात से परिसीमित है|यह अनन्तता ही हमारी खोज है, इसीमें अनुसन्धान के विषय हैं, इसीमें तथ्य हैं और इसी से प्राप्त होने वाले प्रकाश को संसार धर्म कहता है|इस तरह धर्म वस्तुतः इन्द्रियातीत भूमिका की वस्तु है, ऐन्द्रिक भूमिका की नहीं|
वह समस्त तर्क के परे है, बुद्धि के स्तर की नहीं| यह एक अलौकिक दिव्य दर्शन है, एक अन्तःप्रेरणा है, यह मानो अज्ञात और अज्ञेय के उदधि में डुबकी लगाना है, जिसके द्वारा ' ज्ञानातीत ' ज्ञात से भी अधिक ज्ञात हो जाता है, क्योंकि वह कभी 'जाना ' नहीं जा सकता |" (४:१८७)
" शिक्षा का अर्थ है,उस पूर्णत्व की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है!
धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है|"  (२:३२८)
" मैं धर्म को शिक्षा का अन्तरतम अंग समझता हूँ!..पर ध्यान रखिये कि यहाँ धर्म का अर्थ मैं अपना (ब्रांडेड धर्म )" य़ा किसी दूसरे की राय की बात नहीं कहता|" (४:२६८) 
 " मेरे गुरु कहते थे कि हिन्दू, ईसाई आदि नाम (ब्रांड) मनुष्य मनुष्य में भ्रातृ-प्रेम के होने में बहुत रूकावट डालते हैं|पहले इन्हें (नाम कि कट्टरता को ) तोड़ने का यत्न करना चाहिये|
उनकी कल्याण करनेवाली शक्ति अब नष्ट हो गयी है और अब केवल उनका घातक प्रभाव रह गया है,जिसके जादू-टोने के कारण हममें से सर्वश्रेष्ठ मनुष्य भी राक्षसों का सा व्यवहार करने लगते हैं|" (३:३८७)  
" मन्दिर और गिरजा, पोथी और पूजा, ये धर्म की केवल शिशुशाला (Kinder-garden ) मात्र हैं, जिनके द्वारा आध्यात्मिक शिशु पर्याप्त बलवान होता है, जिससे वह उच्चतर सीढियों पर पैर रखने में समर्थ होता है|...धर्म न तो मतों में है, न पन्थों में और न तार्किक विवाद में ही|धर्म का अर्थ है आत्मा की ब्रह्मस्वरुपता को जान लेना, उसका प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कर लेना और तद्रूप हो जाना |" (३:२४८)
" धर्म के सब रूपों में एक सार भाग और एक अ-सार भाग होता है|यदि हम उनसे अ-सार को अलग कर दें, तो सब धर्मों का वह वास्तविक आधार बच रहता है, जो धर्म के सब रूपों में सामान्यतः मिलता है| उन सब के पीछे वही एक है| हम उसे God, अल्लाह, जिहोवा, चेतना, प्रेम जो चाहें, कहें|...किन्तु मनुष्य की प्रवृत्ति अ-सार पर बल देने की रही है| वे इन रूपों के लिये, अपने हमसफ़र को सहमत बनाने के लिये, आपस में लड़ते हैं, एक दूसरे की हत्या तक कर देते हैं|" (४:२३८)

" केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही ऐसा है, जो हमारे दुखों को सदा के लिये नष्ट कर दे सकता है;अन्य किसी प्रकार के ज्ञान से आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अल्प समय के लिये ही होती है| केवल आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा ही हमारे दैन्य-क्लेशों का सदा के लिये अन्त हो सकता है| अतएव किसी मनुष्य की आध्यात्मिक सहायता करना ही उसकी सबसे बड़ी सहायता करना है|जो मनुष्य को पारमार्थिक ज्ञान दे सकता है, वही मानव समाज का सबसे बड़ा हितैषी है! " (३:२८)   

 स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " सभी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाएं मनुष्यों के भलेपन पर टिकती हैं| कोई राष्ट्र इसलिए महान और अच्छा नहीं होता कि उसकी Parliament (संसद) ने यह य़ा वह (Bill) पास कर दिया है, वरन इसलिये होता है कि उसके निवासी महान और अच्छे होते हैं|" (४:२३४) 
" हम उस मनुष्य को देखना चाहते हैं, जिसका विकास समन्वित रूप से हुआ हो...ह्रदय से विशाल 
मन से उच्च, कर्म में महान ! हम ऐसा मनुष्य चाहते हैं, जिसका ह्रदय संसार के दुःख-दर्दों को गंभीरता से अनुभव करे|
और हम चाहते हैं ऐसा मनुष्य, जो न केवल अनुभव कर सकता हो, अपितु समस्याओं के तह तक य़ा  प्रकृति और बुद्धि के गहराई में पहुँच कर वस्तुओं के अर्थ का भी पता लगा सके (Sharp-Intellect)| हम चाहते हैं ऐसा मनुष्य, जो यहाँ भी न रुके, वरन जो भाव और वास्तविक कार्य में ताल-मेल बैठा कर उन समस्याओं का निदान करने में भी समर्थ हो अर्थात व्यावहारिक (Practical ) मनुष्य |हम मस्तिष्क (Head) ह्रदय (Heart)और हाथों (Hand) - के ऐसे ही संघात (3H) को चाहते है!
इस संसार में बहुत से शिक्षक हैं, पर तुम पाओगे कि उनमे से अधिकतर एकांगी (एकपक्षीय य़ा झक्की टाइप ) हैं|एक को ' ज्ञान का देदीप्यमान मध्यान्ह सूर्य ' दिखाई देता है, और दूसरा कुछ नहीं सूझता|दूसरे को ' प्रेम का सुन्दर संगीत सुनाई ' देता है, और कुछ नहीं सुन पड़ता |एक 'निरन्तर कर्म 'में ही डूबा रहना चाहता है, उसे न कुछ महसूस करने का समय है, न विचार करने का|तब हम उन महान मनुष्यों का निर्माण क्यों न करें, जो समान रूप से क्रियाशील, ज्ञानवान, प्रेमवान हैं
क्या ऐसे मनुष्यों का निर्माण करना असंभव है ? निश्चय ही नहीं ! 
(महामण्डल तो यही कार्य विगत ४३ वर्षों से करता आ रहा है, और अब मनुष्य निर्माण कारी शिक्षा का प्रशिक्षण शिविर एक परीक्षित सत्य बन चुका है|और अपनी ऋषि दृष्टि से भविष्य के महामण्डल को भारत के गाँव गाँव में आविर्भूत होता हुआ देख कर ही उह्नोने कहा था-)
ऐसों की संख्या उस समय तक बढती रहेगी जब तक कि समस्त संसार का मानवीकरण नहीं हो जाता ! " (३:२१४,२१५) 
     
  " मनुष्य के मन में ही समस्या का समाधान मिल सकता है| कोई कानून किसी व्यक्ति से वह कार्य नहीं करा सकता है, जिसे वह करना नहीं चाहता है|
अगर मनुष्य अच्छा बनना चाहेगा, तभी वह अच्छा बन पायेगा|सम्पूर्ण विधान एवं विधान के पण्डित मिलकर भी उसे अच्छा नहीं बना सकते| सर्वशक्ति सम्पन्न तो कहेगा ही, ' मैं किसी की परवाह नहीं करता !' हम सब अच्छे बनें, यही समस्या का हल है|(४:१५७)  
...यह तो हमें मान ही लेना चाहिये कि कानून,सरकार, राजनीति ऐसी अवस्थाएं हैं, जो किसी प्रकार अन्तिम नहीं हैं| उनसे परे एक एक ध्येय (ब्रह्मज्ञानी मनुष्य) है, जहाँ कानून कि आवश्यकता नहीं है|...ईसा ने देखा कि विधि-नियम उन्नति का मूल नहीं हैं, केवल नैतिकता और पवित्रता ही शक्ति है|"(४:२३४)
" ऐसा न कहो कि मनुष्य पापी है| उसे बताओ की तू ब्रह्म है| यदि कोई शैतान हो, तो भी हमारा कर्तव्य यही है कि हम ब्रह्म का ही स्मरण करें, शैतान का नहीं|...हम यही कहें - 'हम हैं ', 'ईश्वर हैं और हम ईश्वर हैं|
' शिवोहम शिवोहम कहते हुए आगे बढ़ते चलो|जड़ (शरीर) नहीं, वरन चैतन्य (आत्मा) हमारा लक्ष्य है! नाम-रूप वाले सभी पदार्थ नाम-रूप हीन सत्ता (अस्ति,भाति,प्रिय) के अधीन हैं| इसी सनातन सत्य की शिक्षा श्रुति (गीता -उपनिषद आदि) दे रही है! प्रकाश को ले आओ, अन्धकार आप ही आप नष्ट हो जायेगा|
वेदान्त -केसरी गर्जना करे, सियार अपने अपने बिलों में छिप जायेंगे!..यदि कोठरी में अन्धकार है, तो सदा अन्धकार का अनुभव करते रहने और अन्धकार अन्धकार चिल्लाते रहने से तो वह दूर नहीं  होगा, बल्कि प्रकाश को भीतर ले आओ, तब वह दूर हो जायेगा|
..आत्मा की शक्ति का विकास करो और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो, और जिस स्थिति की आवश्यकता है, वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी|अपने आभ्यन्तरिक ब्रह्मभाव को प्रकट करो और उसके चारों ओर सब कुछ समन्वित हो कर विन्यस्त हो जायेगा|
वेदों में बताये हुए- 'इन्द्र और विरोचन ' के उदाहरण को स्मरण रखो|दोनों को ही अपने ब्रह्मत्व का बोध कराया गया था, परन्तु असुर विरोचन अपनी देह को ही ब्रह्म मान बैठा|
इन्द्र तो देवता थे, वे समझ गये कि वास्तव में आत्मा ही ब्रह्म है!!
तुम तो इन्द्र की सन्तान हो! तुम देवताओं के वंशज हो! जड़ पदार्थ तुम्हारा ईश्वर कदापि नहीं हो सकता; शरीर तुम्हारा ईश्वर कभी नहीं हो सकता!
भारत का पुनरुत्थान होगा, पर वह जड़ की शक्ति से नहीं, वरन आत्मा की शक्ति द्वारा| वह उत्थान विनाश की ध्वजा लेकर नहीं, वरन शान्ति और प्रेम की ध्वजा से-...ऐसा मत कहो कि हम दुर्बल हैं, कमजोर हैं|
श्री रामकृष्ण के चरणों के दैवी स्पर्श से जिनका अभ्युदय हुआ है, उन मुट्ठी भर नवयुवकों की ओर देखो !उन्होंने उनके उपदेशों का प्रचार आसाम से सिंध तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक कर डाला|
..उनपर कितने ही अत्याचार किये गये, पुलिस ने उनका पीछा किया, वे जेल में डाले गये, पर अन्त में जब सरकार को उनकी निर्दोषिता का निश्चय हो गया, तब वे मुक्त कर दिये गये!
अतएव, अपने अन्तःस्थित ब्रह्म को जगाओ, जो तुम्हें क्षुधा-तृष्णा, शीत-उष्ण सहन करने में समर्थ बना देगा |..आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से भौतिक उन्नति होती है, विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है और अपने ही पर होने से मनुष्य भी ईश्वर-तुल्य बन जाता है!
पहले हमें ईश्वर बन लेने दो! तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर-तुल्य- ' मनुष्य ' बनाने में सहायता देंगे| बनो और बनाओ - Be and Make !यही हमारा मूल मंत्र रहे! " (९:३७९-३८०) 
विलासपूर्ण भवनों में बैठे बैठे जीवन की सभी सूख-सामग्रियों (एसी, LCD टीवी और फ्रिज आदि ) से घिरे हुए रहना और धर्म की थोड़ी सी चर्चा कर लेना अन्य देशों में भले ही शोभा दे, पर भारत को तो स्वभावतः सत्य की इससे कहीं अधिक पहचान है|
..कोई भी बड़ा कार्य बिना त्याग के नहीं किया जा सकता|स्वयं 'पुरुष' ने भी सृष्टि की रचना करने के लिये सवार्थ त्याग किया, अपने को बलिदान किया|
अपने आरामों का, अपने सुखों का, अपने नाम, यश और पदों का- इतना ही नहीं, अपने जीवन तक का- त्याग करो, और मनुष्य-निर्माण रूपी श्रृंखला का ऐसा पुल बना दो जिस पुल पर से करोड़ो (४४ करोड़ गरीब) लोग भवसागर को पर कर जाएँ !(९:३८१)
" मैं समझता हूँ कि हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप जनसमुदाय (इन ४४ करोड़ गरीब लोगों ) की उपेक्षा है, और वह भी हमारे पतन का एक कारण है| हम कितनी भी राजनीति बरतें(नरेगा का नाम बादल कर मनरेगा कर दें), उससे उस समय तक कोई लाभ न होगा, जब तक कि भारत का जनसमुदाय एक बार फिर सुशिक्षित, सुपोषित, और सुपालित नहीं होता|वे हमारी शिक्षा के लिये धन देते हैं, हमारे मन्दिर बनाते हैं, और बदले में ठोकरें पाते हैं| वे व्यवहारतः हमारे दास हैं|यदि हम भारत को पुनर्जीवित करना चाहते हैं तो हमें उनके लिये काम करना होगा|
...आपके सामने है जनसमुदाय को उसका अधिकार देने की समस्या| आपके पास संसार का महानतम धर्म है और आप जनसमुदाय को सारहीन और निरर्थक बातों पर पलते हैं|आपके पास चिरंतन बहता हुआ स्रोत है और आप उन्हें गन्दी नाली का पानी पिलाते हैं| आपका मद्रास का स्नातक एक नीची जाती का स्पर्श नहीं करेगा, पर वह अपनी शिक्षा के लिये उससे रुपया खींचने को तैयार है |(४:२६०,२६१)
" प्रेम कभी निष्फल नहीं होता मेरे बच्चे, कल हो य़ा परसों य़ा युगों के बाद, पर सत्य की जय अवश्य होगी|प्रेम ही मैदान जीतेगा(बंदूकें नहीं)|क्या तुम अपने भाई, मनुष्य जाती - को, प्यार करते हो ? ईश्वर को कहाँ ढूंढने चले हो- ये सब गरीब (४४ करोड़), दुखी, दुर्बल मनुष्य क्या ईश्वर नहीं हैं? इन्हीं की पूजा पहले क्यों नहीं करते ?
गंगा-तट पर कुआँ खोदने क्यों जाते हो? प्रेम की असाध्य -साधिनी शक्ति पर विश्वास करो|इस झूठ जगमगाहट वाले नाम-यश की परवाह कौन करता है? समाचारपत्रों में क्या छपता है, क्या नहीं, इसकी मैं कभी खबर ही नहीं लेता
क्या तुम्हारे पास प्रेम है ? तब तो तुम सर्वशक्तिमान हो| क्या तुम संपूर्णतः निःस्वार्थ हो? यदि हो ? तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता है? चरित्र की ही सर्वत्र विजय होती है ! भगवान ही समुद्र के तल में भी अपनी संतानों की रक्षा करते हैं| तुम्हारे देश के लिये वीरों (Heroes) की आवश्यकता है - वीर बनो ! " (३:३२३)
" मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में, नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमे से आयेंगे|सिंहों की भाँति वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे|...वे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र में उस समय तक फैलेंगे, जब तक कि हम सम्पूर्ण भारत पर नहीं छा जायेंगे !" (४:२६१)
" आवश्यकता है संघठन करने की शक्ति की, मेरी बात समझे ?क्या तुममें से किसी में यह कार्य करने की बुद्धि है ?यदि है तो तुम कर सकते हो|...हमें कुछ चेले (निष्ठावान आज्ञाकारी कर्मी ) भी  चाहिये- वीर युवक, समझे ? दिमाग में तेज और हिम्मत के पूरे, यम का सामना करने वाले, तैर कर समुद्र पार करने को तैयार - समझे? हमें ऐसे सैंकड़ो चाहिए- स्त्री और पुरुष, दोनों|जी -जान से इसीके लिये प्रयत्न करो !"(३:३५४)
" हे नर-नारियों ! उठो, आत्मा के सम्बन्ध में जाग्रत होओ, सत्य में विश्वास करने का साहस करो| संसार को कोई सौ (१००) साहसी नर-नारियों की आवश्यकता है ! अपने में साहस लाओ, जो सत्य को जान सके, जो जीवन में निहित सत्य को दिखा सके, जो मृत्यु से न डरे, प्रत्युत उसका स्वागत करे, जो मनुष्य को यह ज्ञान करा दे कि वह आत्मा है, और सारे जगत में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो उसका विनाश कर सके|" (२:१८) 
" कुछ ही लोग हैं, जो सत्य की जिज्ञासा करते हैं, उससे भी कम सत्य को जानने का साहस करते हैं, और सबसे कम सत्य को जानकर हर प्रकार से उसको कार्यरूप में परिणत करते हैं|...फिर भी कुछ तो ऐसे वीर संसार में हैं ही, जो सत्य को जानने का साहस करते हैं, जो उसे धारण करने तथा अन्त तक उसका पालन करने का साहस करते हैं| " (२:२१०)
" अपनी बहादुरी तो दिखाओ! प्रिय भाई, मुक्ति न मिली तो न सही, दो-चार बार नरक ही जाना पड़े तो हानि ही क्या है ? क्या भर्तृहरि का यह कथन असत्य है- 
मनसि  वचसि काये पुन्यपीयूषपूर्णः 
त्रिभुवनं-उपकारश्रेनिभिः प्रीयामानः  !
परगुणपरमाणुम पर्वतीकृत्य केचित 
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः क्रियन्तः ||   
ऐसे साधु (सज्जन पुरुष ) कितने हैं, जिनके कार्य मन तथा वाणी पुण्यरूप  अमृत से परिपूर्ण  हैं और जो विभिन्न उपकारों के द्वारा त्रिभुवन की प्रीति सम्पादन कर दूसरों के परमाणु तुल्य अर्थात अत्यन्त स्वल्प गुण को भी पर्वतप्रमाण बढ़ा कर दूसरों से कहते रहते हैं- और इस प्रकार अपने हृदयों को विशाल बनाते रहते हैं!(' विवेकानन्द - राष्ट्र को आह्वान ' पुस्तिका का पृष्ठ २७)    
" समस्त मंगलकारी शक्तियों को एकत्र करो! किस ध्वजा के नीचे तुम अग्रसर हो रहे हो, इसकी परवाह मत करो|तुम्हारी ध्वजा का रंग हरा, नीला, य़ा लाल कुछ भी हो, उसकी चिन्ता मत करो, बल्कि सभी रंगों को एक में मिला दो और उससे अत्युज्ज्वल श्वेत रंग का निर्माण करो, जो कि प्रेम का रंग है|
हमे तो कर्म ही करना है, फल अपने आप होता रहेगा|यदि कोई सामाजिक बन्धन तुम्हारे ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में बाधक है, तो आत्मशक्ति के सामने अपने आप ही वह टूट जायेगा|
भविष्य मुझे दीखता नहीं और मैं उसे देखने की चिन्ता भी नहीं करता| परन्तु मैं अपने सामने वह एक सजीव दृश्य तो अवश्य देख रहा हूँ कि हमारी यह प्राचीन भारत माता पुनः एक बार जाग्रत होकर अपने सिंहासन पर नवयौवनपूर्ण और पूर्व कि अपेक्षा अधिक महा महिमान्वित होकर विराजी है| शान्ति और आशीर्वाद के वचनों के साथ सारे संसार में उसके नाम की घोषणा कर दो !
सेवा और प्रेम में सदा तुम्हारा ,
विवेकानन्द (९:३८१) 
स्वामीजी के अनुसार राष्ट्र कल्याण की पहली शर्त है- " स्वयं मोहनिद्रा से जागकर यथार्थ मनुष्य बनना तथा भारत के अन्य समस्त देशप्रेमी युवाओं को संगठित कर, उन्हें भी मोहनिद्रा से जगाकर यथार्थ मनुष्य बनजाने में सहायता करना !" इसलिए उन्होंने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था- " साहसी बनो! सत्य को जानो, और उसे जीवन में परिणत करो! चरम लक्ष्य भले ही बहुत दूर हो, पर उठो, जागो, जब तक ध्येय तक न पहुँचो, तबतक मत रुको! " (२:२०)
" उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! " 
" Arise, awake ! and stop not till the goal is reached !" 
स्वामी जी ने कहा था- " अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों के साथ हमे कार्य करना होगा|(अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े छात्रों के) त्यागी हुए बिना  तेजस्विता नहीं आने की| कार्य आरम्भ कर दो! यदि तुम एक बार दृढ़ता से कार्यारम्भ कर दो तो मैं कुछ विश्राम ले सकूँगा! "( ३:३१३)
स्वामीजी के इसी उपदेश को ध्यान में रखते हुए, तथा महामण्डल के भाई श्री अजय अग्रवाल के अनुरोध पर इस वर्ष से ' झुमरी तिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल ' का " सदस्यता आवेदन प्रपत्र " इस वर्ष से दोनों भाषाओँ में (अंग्रेजी और हिन्दी ) में छपवाने का निर्णय लिया गया है | अंग्रेजी का प्रपत्र निम्नवत होगा-
JHUMRI TILAIYA 
VIVEKANAND YUVA MAHAMANDAL 
( Affiliated to Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal )


Application Form for Admission 

To, 
The Secretary,
Jhumritilaiya Vivekananda Yuva Mahamandal,
 ' Tara Niketan '
Bishunpur Road, Jhumri Tilaiya,
Kodarma (Jharkhand)
pin -825409 

Sir, 

I have read the " Aims and Objects " of the Mahamandal 
and I have allegiance to its ideals. I affirm that I shall endeavor to uphold the ideals through my thought, actions, and speech and I shall also try to propagate the ideals among the others.

I shall abide by the rules and regulations of the Mahamandal 
  and shall also endeavor to further the cause of the Mahamandal in all possible ways.
  In this connection it is to state that I am not attached to- " any
Political Party" . 

Kindly admit me as a member of Jhumri Tilaiya Vivekananda Yuva Mahamandal unit. My other particulars are given below:-

Yours faithfully

Signature of the applicant
date:
 ------------------------------------------------
Name in full : (In block letters)---------------------------------
Fathers Name :----------------------------------------------------
Address         : ---------------------------------------------------

 Phone no :---------------------      Email address: ----------------------------
Age :-----------------------------     Occupation : -----------------------------
For Office Use

Admission fee paid vied :Rs. -------------------------------------------------------
  
Receipt No :------------ Date :--------------------------
Reason for cancellation of membership :-------------------------------------------
Secretary's opinion :-----------------------------------------------------------
हिन्दी प्रपत्र की रुपरेखा निम्नवत होगी:-
झुमरीतिलैया  
विवेकानन्द युवा महामण्डल 
(अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की एक इकाई )

सदस्यता आवेदन प्रपत्र 

सेवा में, 
सचिव, 
झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल, 
' तारा निकेतन '
बिशुनपुर रोड, झुमरीतिलैया, कोडरमा |
(झारखण्ड ) 
पिन- 825409 
महाशय, 
मैंने महामण्डल के " उद्देश्य और कार्यक्रम " को पढ़ा है, और मैं इसके आदर्शों 
के प्रति निष्ठा रखता हूँ! मैं दृढ़ता पूर्वक यह वचन देता हूँ कि, मैं इन आदर्शों की मर्यादा को अपने विचार, आचरण तथा वाणी के द्वारा सदैव प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न कर्ता रहूँगा, साथ ही साथ इन आदर्शों को दूसरों के बीच प्रतिष्ठित कराने का प्रयास भी करूँगा| 
मैं महामण्डल के सभी नियमों का पालन करूँगा एवं महामण्डल के कार्यक्रमों को    
समग्र रूप से विकसित कराने के लिये सदैव तत्पर रहूँगा|
इस सन्दर्भ में मैं यह घोषणा करता हूँ कि मैं किसी भी राजनीतिक दल के साथ संलग्न 
नहीं हूँ! कृपया मुझे झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल की सदस्यता प्रदान की जाय| अन्य व्यक्तिगत विवरण नीचे दे रहा हूँ |
आपका विश्वासी 


आवेदक के हस्ताक्षर |
तिथी :-----------------------
पूरा नाम :----------------------------------------------
पिता का नाम :----------------------------------------
पूरा पता :--------------------------------------------
----------------------------------------------------
------------------------------------------------------
फोन : ------------------------------------ ई मेल --------------------
उम्र- ------------------------------------- वयवसाय ----------------------
(कार्यालय के लिये )
प्रवेश शुक्ल :----------------
रसीद संख्या :--------------------- तिथी ----------------------------------
सदस्यता अस्वीकार करने का कारण  :--------------------------------------



सचिव का मन्तव्य 
-----------------------------------------------------------------------------------------


वर्ष (२००९-१०) में
झुमरी तिलैया 
विवेकानन्द युवा महामण्डल 
द्वारा किये गये कार्यों का विवरण 

युवा प्रशिक्षण शिविर :
  • " १५वाँ बिहार-झारखण्ड राज्य स्तरीय चरित्र-निर्माणकारी युवा प्रशिक्षण शिविर " का आयोजन ३० अक्टूबर से १ नवम्बर २००९ तक स्थानीय C.H.Inter College में किया गया|इस शिविर में बिहार-झारखण्ड के विभिन्न जिलों से आये ३६८ युवकों ने हिस्सा लिया| 
  • इस शिविर को रामकृष्ण-विवेकानन्द  सेवासंघ, अंबिकापुर (छत्तीस गढ़ ) के सचिव परमपूज्य स्वामी तन्मयानन्द जी ने उदघाटित किया तथा ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के अध्यक्ष परमपूज्य श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय, महामण्डल के दो सहायक सचिव श्रद्धेय श्री रनेन मुखर्जी एवं श्री दीपक सरकार ने शिविर के सञ्चालन में प्रमुख भूमिका निभाई |
  • एक दिवसीय " बिहार-झारखण्ड निष्ठावान कार्यकर्त्ता प्रशिक्षण शिविर " का आयोजन २६ जुलाई २००९ को ' तारा-टावर ', झुमरीतिलैया  में आयोजित हुआ |
  • जिसमे जानिबिघा विवेकानन्द युवा महामण्डल, बरसोत विवेकानन्द युवा पाठचक्र, हजारीबाग विवेकानन्द युवा महामण्डल, फुलवरिया विवेकानन्द युवा पाठचक्र, तथा झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के १८ कार्यकर्ताओं ने भाग लिया तथा महामण्डल का निष्ठावान,निष्कपट और निः स्वार्थपर कर्मी ' बनने और बनाने ' की प्रेरणा को और भी दृढ़ता से धारण किय़ा |
  प्रकाशन कार्य   : 
  •   महामण्डल द्वारा अंग्रेजी और बंगला भाषा में प्रकाशित पुस्तिका " Leadership : its Concept and Qualities " को हिन्दी में अनुवाद करके " नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण " के नाम से प्रकाशित किया गया| 
  • ' चरित्र गठन ' एवं ' चरित्र के गुण ' को बंगला से हिन्दी में अनुवाद करके महामण्डल की त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका 'विवेक-जीवन ' में धारावाहिक तरीके से प्रकाशित किया गया|  
  • महामण्डल की त्रैमासिक हिन्दी संवाद पत्रिका ' विवेक-जीवन ' के ग्राहकों की संख्या में वृद्धि करने का प्रयत्न किया गया| 
  • इस पत्रिका के देश व्यापी प्रचार-प्रसार हेतु डाक-शुल्क में सुविधा का लाभ लेने के लिये; भारत सरकार के "Office of the Registrar of Newspapers for India, New Delhi -110066 " से सम्पर्क किया गया| 
  •  ८ मार्च २०१० को भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक का कार्यालय से महामण्डल द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक सम्वाद पत्रिका को ' विवेक अंजन ' शीर्षक से छापने के लिये अनुमोदित किया गया है, क्योंकि  ' Vivek Jivan ' नाम अंग्रेजी- बंगला भाषा में पहले से निबंधित है|
श्रीरामकृष्ण विवेकानन्द साहित्य विक्रय केन्द्र (बुक स्टाल):
  • बरही विवेकानन्द युवामहमंडल द्वारा आयोजित दो दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर में ९-१० जून २००९ को बरही उच्च विद्यालय के प्रांगण में लगाया गया जिसमे लगभग ८०० रूपए की महामण्डल पुस्तिकाओं का विक्री हुई |
  • झुमरी तिलैया में आयोजित शिविर में ३० अक्टूबर से १ नवम्बर २००९ को C.H. Inter College में लगभग १२,००० रूपए की रामकृष्ण-विवेकानन्द साहित्य एवं महामण्डल पुस्तिकाओं की विक्री हुई |
श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द चित्र प्रदर्शनी :
  • दो दिवसीय बरही  युवा प्रशिक्षण शिविर में तथा त्रिदिवसीय झुमरीतिलैया शिविर में कुल ५ दिनों  तक श्रीरामकृष्ण एवं स्वामी विवेकानन्द के जीवन और सन्देश पर चित्र प्रदर्शनी लगायी गयी|
विशेष  कार्यक्रम :
श्रीरामकृष्ण  परमहंस की जन्म तिथी(१६ फरवरी २०१०) के शुभ अवसर पर झुमरीतिलैया विवेकानन्द महामण्डल के साप्ताहिक पाठचक्र को प्रति रविवार C.D. Girls High  School , गौशाला रोड, झुमरी तिलैया में आयोजित करने का निर्णय लिया गया |
तथा इस अवसर पर श्री सुकान्त मजुमदार, श्री अजय अग्रवाल, श्री सुनील देबनाथ, और अजय पाण्डेय ने श्रीरामकृष्ण देव की पूजा अर्चना के बाद एक बहुत सुन्दर " गीति-आलेख " प्रस्तुत
किया | संध्या ६ बजे से रात्रि ९ बजे तक चले इस कार्यक्रम में झुमरीतिलैया के लगभग ५० -६० स्त्री-पुरुषों ने भाग लिया|
श्रीरामकृष्ण की जीवनी और उपदेशों का कथावाचन हिन्दी में श्री अजय अग्रवाल द्वारा तथा प्रार्थना और भजन श्रीमती काकोली मजुमदार, श्रीमती उमा बिश्वास, श्रीमती जयश्री श्रीमती सुनील देबनाथ ने प्रस्तुत किया, जबकि पटकथा लेखन श्री रामचंद्र मिश्र ने किया|
साप्ताहिक पाठचक्र ( Study Circle ) :
" 3H- निर्माण "
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, " हम मस्तिष्क (Head) ह्रदय (Heart)और हाथों (Hand) - के ऐसे ही संघात (3H) को चाहते है!इस संसार में बहुत से शिक्षक हैं, पर तुम पाओगे कि उनमे से अधिकतर एकांगी (एकपक्षीय य़ा झक्की टाइप ) हैं|
एक को ' ज्ञान का देदीप्यमान मध्यान्ह सूर्य ' दिखाई देता है, और दूसरा कुछ नहीं सूझता|दूसरे को ' प्रेम का सुन्दर संगीत सुनाई ' देता है, और कुछ नहीं सुन पड़ता |एक 'निरन्तर कर्म 'में ही डूबा रहना चाहता है, उसे न कुछ महसूस करने का समय है, न विचार करने का| 
तब हम उन महान मनुष्यों का निर्माण क्यों न करें, जो समान रूप से क्रियाशील, ज्ञानवान, प्रेमवान हैं? क्या ऐसे मनुष्यों का निर्माण करना असंभव है ? निश्चय ही नहीं
ऐसों की संख्या उस समय तक बढती रहेगी जब तक कि समस्त संसार का मानवीकरण नहीं हो जाता !"
महामण्डल तो यही कार्य विगत ४३ वर्षों से करता आ रहा है!
 यथार्थ मनुष्य बनने के लिये यह अपने सदस्यों को " पञ्च कर्म " का दैनिक अभ्यास करने का परामर्श देता है ! 
  • शरीर  (Hand) को स्वस्थ रखने के लिये - खाली हाँथ का दैनिक व्यायाम (Physical Exercise ) और पौष्टिक आहार लेना चाहिये !
  • मन (Head) को स्वस्थ सबल बनाने के लिये- मन को वश में रखने के लिये लालच को कम करना चाहिये और प्रति दिन दो बार, कम से कम 5 मिनट मनः संयम (Mental Concentration) का अभ्यास करना चाहिये |
  • स्वाध्याय : और मन को पौष्टिक आहार देने के प्रतिदिन नियमित रूप से स्वामी विवेकानन्द के एक भी ' शक्तिदाई विचारों ' को पढ़ लेना चाहिये |
  • ह्रदय (Heart ) को विस्तार करने के लिये- (Auto-Suggeestion)  महामण्डल से प्राप्त " स्वपरामर्श-सूत्र " का दो बार नियमित रूप से पाठ करना चाहिये| प्रातः काल सो कर उठते ही , और रात में सोने से पहले जब मनः संयोग करने बैठें तो उसके पहले| 
  • प्रार्थना  :स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " संसार में पवित्र चिन्तन का एक स्रोत बहा दो| मन ही मन कहो - ' संसार के सभी मनुष्य सुखी हों, सभी शान्ति और आनन्द में रहें, सबों को ईश्वर (परम सत्य) की अनुभूति हो! ' इस प्रकार पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, चारों ओर पवित्र चिन्तन की धारा बहा दो|ऐसा जितना करोगे, उतना ही तुम अपने को अच्छा अनुभव करने लगोगे|बाद में देखोगे ,  ' दूसरे सब लोग स्वस्थ हों ', यह चिन्तन ही स्वास्थ्य-लाभ का सहज उपाय है|इसके बाद जो लोग ईश्वर पर विश्वास करते हैं, वे ईश्वर के निकट प्रार्थना करें- मुझे अर्थ, स्वास्थ्य य़ा जो कुछ भी दो वह स्वर्ग के लिये नहीं, वरन ह्रदय में ज्ञान और सत्य-तत्व के उन्मेष के लिये |इसको छोड़ कर बाकी सब प्रार्थनाएँ स्वार्थभरी हैं|" (१:५७) उन्होंने कहा था - " मनुष्य की प्रज्ञा, उसके अनुभव, उसका विवेक, उसकी बुद्धि, उसका ह्रदय, ये सब इस संसाररूपी क्षीरसागर के मन्थन में लगे हुए हैं |दीर्घ काल तक मथने के बाद उसमे से मक्खन निकलता है, और यह मक्खन है ईश्वर|हृदयवान मनुष्य ' मक्खन ' पा लेते हैं और कोरे बुद्धिमानों के लिये सिर्फ ' छाछ ' बच जाति है |" (३:१०७)
इन ' पञ्च कर्म ' में यहाँ के सदस्यों का प्रतिशत निम्नवत है -
प्रार्थना -  ९५ %
मनः संयम - ८२ %
शारीरिक व्यायाम - ६५ %
स्वाध्याय - ७० %
संकल्प सूत्र - ६६ % 
यहाँ की प्रेरणा से नये स्थान में ' पाठ- चक्र '  का प्रारम्भ : 
झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल से अनुप्रेरित हो कर यहाँ के पूर्व सदस्य श्री रजत मिश्र ने दिल्ली में पाठ चक्र का प्रारम्भ दिनांक      से  किया है, जिसक पता है- 
इस वर्ष महामण्डल के नये युवा सदस्य :
१५ वे राज्य स्तरीय शिविर का बाद ' शिविर अनुभव प्रपत्र ' को पढने और संपर्क करने के बाद तीन नये तरुण पाठचक्र में इस वर्ष जुड़े हैं| 
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