शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

" गृह न०- १००, काशीपुर रोड " [ " आत्म -संस्मरणात्मक पुस्तक " जीवन नदी के हर मोड़ पर ' - 1]

 बंगला पुस्तक : 'जीवन नदीर आँके बाँके'  (জীবন নদীর আঁকে বাঁকে)   का हिन्दी अनुवाद
  
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के

 संस्थापक सचिव

श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ' 

 की 

" आत्म -संस्मरणात्मक  पुस्तक "


'जीवन नदी के हर मोड़ पर'  
 
  
प्रकाशक का निवेदन 

अधिकांश लोगों को यह ज्ञात है कि श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक सचिव हैं ! वर्तमान समय में वे इस संस्था के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर रहे हैं|समय की मांग के अनुसार युवाशक्ति को सुसंगठित कर, उस शक्ति को स्वामी विवेकानन्द की परिकल्पना के अनुरूप नवीन भारत गढ़ने के कार्य में सूनियोजित करने के उद्देश्य से वर्ष 1967 में, ' युवा महामण्डल ' की स्थापना हुई थी। 
कहा जा सकता है कि, " भगवान श्रीरामकृष्ण देव कि ईच्छा, श्रीश्रीमाँ सारदा देवी के आशीर्वाद एवं स्वामी विवेकानन्द के उत्साह (प्रेरणा) से वर्ष 1967  में महामण्डल को आविर्भूत होना पड़ा था!"यह संस्था अपनी स्थापना के समय से ही रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन के अनेकों पूजनीय सन्यासी महाराज के आशीर्वाद से धन्य हुई है!
भारतवर्ष के विभिन्न 12 राज्यों में अपने 315 केन्द्रों के माध्यम से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल "मनुष्य बनने और दूसरों को मनुष्यत्व प्राप्त करने में सहायता करने " के उद्देश्य से विगत  42 वर्षों से निःशब्द हो कर कार्य करता चला आ रहा है। 
इसी सिलसिले में, समय समय पर नवनीदा के साथ महामण्डल के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिये विभिन्न स्थानों पर जाने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ है। अवकाश के क्षणों में विविध प्रसंगों के ऊपर उनके साथ चर्चा होती रहती थी, इसी क्रम में अपनी अन्तरंग मंडली के समक्ष वे अपने विगत जीवन की कुछ स्मृतियों को भी सुना दिया करते थे, उसका अधिकांश ही अमूल्य और विशेष शिक्षनीय जैसा लगता था। 
मैंने यह महसूस किया है कि उनके मुख से निसृत उनके अतीत जीवन की घटनाओं ने अनेकों मन पर गहरी छाप छोड़ी है। मेरा यह दृढ विश्वास भी है कि, उनके सुदीर्घ जीवन में घटित अनेकों  दुःख-कष्ट, उत्साह -निरुत्साह से भरी जीवन-संग्राम की कथाओं को सुनने से, न केवल महामण्डल के निष्ठावान कार्यकर्तागणों को बल्कि साधारण जनता को भी अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा आगे बढने के लिये अतिउपादेय पाथेय प्राप्त होगा। 
युगावतार श्रीरामकृष्ण देव इस धारा-धाम से अंतर्ध्यान होने से कुछ दिनों पूर्व अपने अन्तिम लीलास्थली - ' काशीपुर उद्द्यान भवन ' में स्वामी विवेकानन्द को अपनी जीवन भर की साधना का सम्पूर्ण फल समर्पित करते हुए कहा था- " आज तुमको अपना यथासर्वस्व सौंप कर मैं तो बिल्कुल फकीर बन गया हूँ| तुम्हें इस शक्ति से जगत में अनेकों कार्य करने होंगे, और कार्य समाप्त होते ही तुम वापस लौट जाओगे|"
इसी इतिहास-प्रसिद्ध " काशीपुर उद्द्यान भवन " से अति निकट स्थित, श्रीश्रीठाकुर देव के भक्त श्रीयुत महिमाचरण चक्रवर्ती महाशय के " गृह न० -१००, काशीपुर रोड " में नवनीदा ने जन्म ग्रहन किया था|
इसीलिये कभी कभी मेरे मन में यह ख्याल भी आता है कि, ठाकुर-स्वामीजी निर्देशित कार्य के सम्पादन की अनुप्रेरणा एवं उत्तरदायित्व का वहन करने के उद्देश्य से महामण्डल के आविर्भूत होने तथा  तदानुरूप परिकल्पना के अनुसार एक युवा -संगठन के रूप में गठित हो जाने के साथ - ' गृह न० -१००, काशीपुर रोड ' का भी कोई न कोई विशेष सम्बन्ध अवश्य है!
मन में एक सुप्त वासना थी कि उनके जीवन की अन्य अज्ञात घटनाओं को जाना जाय तथा उन ज्ञानवर्धक बातों को सबों की कल्याण के लिये प्रकाशित करवा दिया जाय| एकदिन बातचीत के क्रम में यह अनुरोध किया तो मेरे अनुरोध पर कुछ ध्यान दिये बिना उसे यूँ ही टाल दिये|फिर भी मैं निराश न होकर महामण्डल के ही एक अन्य वरिष्टभ्राता आदरणीय ' केष्टोदा ' ( श्री उषारंजन दत्त) को साथ में लेकर जब बार बार अनुरोध करने लगा तो अन्त में उन्होंने अनुमति देदी।  और उनके विगत जीवन से संबधित पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देने पर स्वीकृति प्रदान कर दिये। 
उनके मुख से निसृत संस्मरणों को कई दिनों तक टेपरेकॉर्डर चला कर कैसेट में भर लिया गया, बाद में उस संभाषण को महामण्डल के ही एक भाई श्री प्रवाल महन्ती और विशेषपरीचिता स्नेहपात्री श्रीमती रंजिता साहा की सहायता से लिपिबद्ध कर लिया गया| तत्पश्चात इसे अनुच्छेद बद्ध कर के मुद्रित करने में भी सहायता की है, महामण्डल के ही एक अन्य भाई श्री विश्वनाथ पाल ने | इन सबों की अथक परिश्रम का परिणाम है - " जीवन नदी के हर मोड़ पर " नामक यह ग्रन्थ! 
नवनीदा के इस ' आत्मसंस्मरणात्मक पुस्तक ' में - महामण्डल के आविर्भूत होने के पूर्व की तथा बाद की ऐसी अनेकों बहुमूल्य बातें हैं जिनके बारे में हममें से अधिकांश लोग अभी तक अपरिचित हैं | यदि इस ग्रन्थ का अध्यन करके किसीको अनुप्रेरणा और उत्साह मिलती है तो हमारी प्रचेष्टा सार्थक होगी|
श्रीरनेन मुखोपाध्याय 
सारदा सप्तमी 
8 दिसम्बर 2009  
कोलकाता - 700009 
==========================================
 "हाउस नंबर- १००, काशीपुर रोड"

जिस भवन में भगवान श्रीरामकृष्ण देव एवं स्वामी विवेकानन्द - दोनों के चरण-धूलि पड़े थे, ऐसे ही एक भवन, गृह न०-१००, काशीपुर रोड में इसका (श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय का) जन्म हुआ था। स्वामीजी ने श्रीरामकृष्णदेव का स्नेह-स्पर्श प्राप्त किया था, और ठाकुमाँ  -अर्थात मेरी दादी ने स्वामीजी का स्नेह -स्पर्श प्राप्त किया था। इस नवजात बालक को अपनी  दादीमा का स्नेह-स्पर्श इस नवजात को तो प्रचूर मिला था इसीलिये ऐसा प्रतीत होता है कि एन-केन प्रकार से इस  नवजात को भी ठाकुर का स्पर्श प्राप्त हुआ था। इसके  दादी माँ को उनके बचपन में स्वामीजी एक गुड़िया भी प्राप्त हुई थी।  
काशीपुर रोड स्थित जिस भवन में इसका जन्म हुआ था वह महिमाचरण चक्रवर्ती का निवास स्थान था। जो अक्सर श्रीरामकृष्ण से मिलने जाया करते थे, और जिनके सम्बन्ध में अनेक लोग नाना प्रकार से कहा करते थे, किन्तु ठाकुर उनसे बहुत स्नेह करते थे | उन्होंने अनेकों शास्त्र-ग्रंथो का अध्यन किया था, और प्रसंग उपस्थित होते ही शास्त्रों को उद्धृत भी कर सकते थे|वार्तालाप के क्रम में ठाकुर उनसे एक-दो श्लोक सुनाने के लिये कहते, वे सुनाते एवं उसे सुन कर ठाकुर बड़े आनन्दित होते थे| वे भी ठाकुर के प्रति अत्यन्त भक्ति करते थे| 
उनके गुरु थे हिमालय पहाड़ पर निवास करने वाले सन्यासी डमरूवल्लभजी ! महिमाचरण अपने घर में सर्वदा दाहिने हाथ से एक एकतारा बजाया करते थे, इसीलिये वे अपने बाएं हाथ से ही लिखते थे और लिखने के लिये सर्वदा लाल स्याही का ही प्रयोग किया करते थे| उनके हाथों से लिखे गये अनेकों हस्तलेख देखा हूँ | 
बाद के दिनों में जब इस मकान में दूसरे लोग रहने लगे थे , तो उनके कमरे में कभी कोई सो या लेट नहीं सकता था; क्योंकि वहाँ कभी कभी 
तारयन्त्र (एकतारा) बजने की ध्वनी सुनाई पड़ती थी| उस मोहल्ले के लोगों ने बाद में उनकी (स्वर्गीय महिमाचरण चक्रवर्ती की) याद में एक स्मृति मन्दिर का निर्माण करवाया था, जिसमे आज भी प्रतिदिन पुष्प-हार चढ़ाये जाते हैं तथा संध्याकाल  में धूप-दीप जलाये जाते हैं। उनका (महिमाचरण का) वह निवास स्थान (नवनीदा का जन्मस्थान) आज वर्ष 2009 में भी जीर्ण अवस्था में खड़ा है।  सकी छवि बाद वाले पृष्ठ पर मुद्रित है| इन्ही महिमाचरण की कन्या, तुषारवासिनी देवी मेरी (नवनी दा की)  ' ठाकुमा ' - अर्थात दादी माँ थीं! इसीलिये ठाकुर, माँ, स्वामीजी की कथाओं को नाना प्रकार से सुनने का सौभाग्य मुझे बचपन से ही प्राप्त हुआ है|