शनिवार, 25 जुलाई 2009

' क्या किसी परिवर्तन की सम्भावना है ?

" पार्लियामेन्टरी-डेमोक्रेसी-सिस्टम की वर्तमान अवस्था "
परिवर्तन कहाँ ? किस चीज में परिवर्तन ? यही कि २००९ के बाद विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र (भारत) में  ' यू .पी . ए . 2 ' की  सरकार गठित हुई है,  उसके बाद भारत की वर्तमान  परिस्थिति में, या देश की वर्तमान व्यवस्था में, क्या किसी परिवर्तन की  संभावना  है ? इसका छोटा सा उत्तर है -' नहीं '। 
 क्यों? इस क्यों को समझने के लिये हमें इस तथा-कथित 'पार्लियामेन्टरी-डेमोक्रेसी-सिस्टम' या 'लोकतान्त्रिक-व्यवस्था ' की वर्तमान अवस्था को सही सही रूप में समझना होगा। हर पाँच साल के बाद किसी पुरानी, बदरंग, दागी हो चुके पत्तों के ताश की गड्डी को फेंट कर, पुनः उन्ही पुरानी दागी, विकृत पत्तों में से कुछ पत्तों को चुन लेने की प्रक्रिया को ही वर्त्तमान में ' पार्लियामेन्टरी-डेमोक्रेसी-सिस्टम ' लोकतान्त्रिक व्यवस्था कहा जाता है । इस बार (२००९ई०) के आम -चुनाव के बाद जो मंत्री-मण्डल गठित हुआ है, उसमें वही पुराने राजा ( चिड़ि के बादशाह) हैं , रानियाँ (काले पान की बेगम) भी वही हैं, और कुछ जोकर (दग्गी -राजा या लाल -पान के गुलाम,किन्तु स्वयं को अब भी राजा समझते हैं।) भी वही हैं, या बहुत हुआ तो उनके ( युवा संताने है, जो २०१४ के चुनाव के बाद स्वयं राजा बन जाने के स्वप्न देख रहे है ) ही कुछ पसंदीदा लोग हैं। 
निजी- स्वार्थ की बलि-वेदी पर (स्वयं प्रधान-मंत्री बनने के स्वार्थवश) भारतमाता का अंग-भंग करके जो स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी, उसके बाद विगत छः दशकों में राजनीती ने पूरे ' सिस्टम को ' - अर्थात सब कुछ को प्रदूषित कर दिया है। पाश्चात्य विजय से लौट आने के बाद, कुछ लोगों ने स्वामी विवेकानन्द से प्रश्न किया था, ' क्या आप भारत को स्वतंत्र करने में कोई सहायता नहीं कर सकते हैं ? उसके उत्तर में उन्होंने ने कहा था, " स्वतंत्रता प्राप्त होने पर उसे सुरक्षित और सम्भाल कर रखने वाले मनुष्य, अभी भारत में निर्मित कहाँ हुए हैं ?"
उन्होंने कहा था - " मैंने अमेरिका को, वहाँ पहुँचने के पहले ही जीत लिया था। मैं भारत को भी तीन दिन में स्वतंत्र करा सकता हूँ; किन्तु प्राप्त होने पर उसे  सुरक्षित और सँभाल कर रखने वाले मनुष्य कहाँ हैं ? इसीलिए पहले आदमी- ' मनुष्य ' उत्पन्न करो ! " यहाँ द्रष्टव्य है कि भारत कि पिछली भंग हो गई लोक-सभा के ५४३ ' जन-प्रतिनिधियों ' में से कुल १२८ सांसद खून, दंगा से लेकर विभिन्न गंभीर अपराध के आसामी थे; तथा इनके चुनावी-प्रचार को और भी असरदार बनाने के लिए ब्लैक-मार्केट का करोड़ो करोड़ रुपया और अस्त्र-सश्त्र से सारे देश को पाट दिया गया था।
वर्तमान राजनितिक परिदृश्य में युवा वर्ग को राजनीती के क्षेत्र में उतारने के लिए, उनके बीच एक प्रकार की सनक या उन्माद फैलाने की चेष्टा की जा रही है। किन्तु राजनितिक दलों का यह प्रस्ताव वास्तव में - कुछ ' पेशेवर राजनीतिज्ञों ' की संतानों के लिए एक " दीर्घकालीन-पेन्सन योजना " के आलावा और कुछ नहीं है। जिस प्रकार के युवाओं की आवश्यकता को स्वामी विवेकानन्द ने पूरा करने का आह्वान किया था, उस कसौटी पर ये लोग खरे नहीं उतरते। क्योंकि स्वामीजी के निर्देश के अनुसार इन्हें, पहले इन्सान या " मनुष्य "- बनने का प्रशिक्षण नहीं दिया गया है।
क्या उन्होंने ( नेता-पुत्रों ने )   अपना ' चरित्र -निर्माण ' कार्य पूरा कर लिया है ? क्या उनका ह्रदय भारत की करोड़ो-करोड़ अभागी आम जनता के दुःख-कष्टों का अनुभव करने में संवेदनशील है ? क्या उनका ह्रदय उपेक्षित, निर्बुद्धि पशुओं जैसी हालत में रहने को विवश लाखो-करोड़ो जनसाधारण के दुर्बल, अशक्त, क्षीण होती हुई ह्रदय की धडकनों को महसूस कर सकता है ? बिल्कुल नहीं। क्योंकि उनको तो प्रारम्भ से ही सत्ता की तड़क-भड़क, शान-शौकत से जीने का आदि बनाया जगया है। और वे लोग भारत की सीधी-साधी ग्रामीण जनता को भविष्य में आने वाले स्वर्णिम-प्रभात का स्वप्न दिखाने का असफल प्रयास कर रहे हैं।  विगत आम-चुनाव से पहले अंग्रेजी समाचार-पत्र के एक सम्पादक ने लिखा था - " भारत के युवाओं से कहा जाता है की उन्हें निष्ठापूर्वक अपने उत्तरदायित्व का पालन करना चाहिए। क्यों ? क्योंकि वे भविष्य के भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि किसी उम्मीदवार की उम्र ४० या ४५ से कम होती है तो उस पुरूष या स्त्री को भविष्यकी आशा के रूप में प्रक्षेपित किया जाता है। 
किन्तु इस घुड़-दौड़ में कितने " युवा " उम्मीदवार ऐसे हैं जो अपनी स्वयं की 'योग्यता' या ' नेतृत्व-क्षमता ' के कौशल के बलबूते पर उम्मीदवार बनते हैं ? इनमे से अधिकांश लोग किसी न किसी पेशेवर राजनीतिज्ञों के बेटे-बेटियाँ या भतीजे-भतीजियाँ हैं या जो लोग देश की समस्त समस्याओं के लिए उत्तरदायी हैं, वास्तव में वे लोग उन्हीं की संताने  हैं। " वही सम्पादक राजनीतिज्ञों के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुए आगे कहते हैं-- 
" वर्त्तमान राजनैतिक कलाबाजियों को देखने-सुनने के बाद जो निष्कर्ष निकल कर सामने आते हैं, उन में से पहला तो यह है कि- अधिकांश राजनीतिज्ञ या तो " Unscrupulous Scoundrels " हैं अनैतिक बदमाश  लोग हैं, या फिर वे " Opportunistic Scoundrels " या अवसरवादी  खलाधम जन हैं। और अंतिम निष्कर्ष यह कि अधिकांश राजनीतिज्ञ उस श्रेणी के दुष्ट हैं जो न किसी सिद्धान्त को मानते हैं, न किसी विचार-धारा से अनुप्रेरित हैं, वे केवल निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए ही ' आत्म-संरक्षण ' के  राजनीती का सहारा लेते हैं। किन्तु देश-प्रेम से प्रेरित हो कर राजनीती करने वाले बहुत थोड़े से राजनीतिज्ञ  ही अपवाद स्वरूप शेष रह गए हैं। " अब तो यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि नामी-
गिरामी राजनीतिज्ञ लोग आपस में एक दुसरे को कैसे-कैसे अमर्यादित भाषा में कोसते रहते हैं। इंग्लैंड के प्रधान मंत्री ने तो यहाँ तक कह दिया है कि- " राजनीति सज्जन-व्यक्तियों के लिए उपयुक्त व्यवसाय नहीं है।' 
अब प्रश्न उठता है कि, क्या हम लोग इस व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए कुछ कर सकते हैं? या  इस वस्तुस्थिति का सामना हम कर भी सकते हैं या या नहीं ? ' Yes,We Can! '  हाँ, हम कर सकते हैं ! ' इसके लिए हमें अपने अन्दर वह कुशाग्र-बुद्धि, या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति - जो हमे अनिष्टकारी और हितकारी या सद्-असद् के बीच भेद करने में सक्षम बनाती है; विकसित करनी होगी, जिसे हमने लगभग खो ही दिया है। महाभारत में कहा गया है-
" जानामि धर्मम् न च में प्रवृत्तिः ।
जानाम्यअधर्मम् न च में निवृत्तिः ॥ "
- अर्थात मैं यह जानता हूँ कि ' धर्म ' क्या है, किन्तु मेरी उसमे कोई अभिरुचि नहीं है। मैं यह भी जानता हूँ कि 'अधर्म' क्या है, किन्तु मैं उससे अपने को चाह कर भी अलग नहीं कर पाता हूँ।
ठीक इसी तरह हमलोग भी, अपना चरित्र-निर्माण करने या मनुष्य बनने की आवश्यकता को समझते हैं; किन्तु इसके लिए जीवन में जो निरन्तर 'विवेक-प्रयोग' आदि अभ्यास करने अनिवार्य होते हैं, उस काम में हमलोग आलसी हो चुके हैं। इसीलिये हमारे शास्त्रों में कहा गया है -

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
-नीतिशतक
आलस्य मनुष्यों के शरीर में रहने वाला महान् शत्रु है। अपना जीवन गठन करने के लिये हमलोग तत्पर नहीं हो पाते हैं। क्योंकि हम लोग अधिक से अधिक भोग-सुख लूटने की कामनाओं से इतने सम्मोहित हो चुके हैं कि अपनी विवेक-क्षमता को ही भूल गए हैं। हमलोग यह भूल चुके हैं कि, इस पृथ्वी पर केवल मनुष्य ही वह " Biped-animal "(द्विपाद-प्राणी ) है, जो चार आधारभूत उपकरणों कि सहायता से अपने शरीर को सीधा खड़ा रख कर चल सकता है। मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपने सिर को ऊपर उठा कर सीमाहीन (अनन्त ) आकाश को निहार सकता है, तथा लोकोत्तर (परम सत्य) का चिन्तन भी कर सकता है।
स्वामी विवेकानन्द आर्श्चय जनक शब्दों में मनुष्य को परिभाषित करते हुए कहते हैं- " मनुष्य एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, लेकिन जिसका केन्द्र एक स्थान में निश्चित है ; और परमेश्वर एक ऐसा असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, परन्तु जिसका केन्द्र सर्वत्र है। वह सब हाथों द्वारा काम करता है, सब आँखों द्वारा देखता है, सब पैरों द्वारा चलता है, सब शरीरों द्वारा साँस लेता है, सब जीवों में वास करता है, सब मुखों द्वारा बोलता है और सब मस्तिष्क द्वारा विचार करता है।(यदि मनुष्य अपनी विवेक-क्षमता को अनन्त गुनी कर ले तो ) मनुष्य ईश्वररूप बन सकता है और सम्पूर्ण विश्व पर अपना अधिकार चला सकता है। " (वि० सा० ख० ३:११९) उन्होंने कहा था-" मेरे मित्रो ! पहले मनुष्य बनो, तब तुम देखोगे कि वे सब बाकि चीजें स्वयं तुम्हारा अनुसरण करेंगी " (१०:६२) 
हमारे देश को वास्तव में कैसे लोग चलाते हैं, यह बात अब इतने वर्ष बीत जाने के बाद किसी से छुपी नहीं है। इसीलिए चुनाव-प्रचार करते समय इन राजनीतिज्ञों को आम जनता के दुःख -कष्टों के लिए घड़ियाली आँसू बहाने और थोथे आश्वासनों का किसी पर कोई असर नहीं होता। कोई ढाई हजार साल पहले विख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा था - 'बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी सजा यह होती है कि वे बुरे और भ्रष्ट अपराधी लोगों का शासन झेलें, क्योंकि उन्होंने स्वयं शासन-तंत्र में भाग लेने से इंकार किया है। ' इस प्रजातन्त्र के मंदिर (वर्तमान-लोकसभा ) के वर्तमान माननीय सांसदों में से १६३ सांसद आपराधिक मुकदमों के आसामी हैं। किन्तु ये लोग बन्दुक के बल पर नहीं आये हैं, बल्कि जनता के द्वारा चुने गए हैं। क्योंकि हमने नेहरूवादी कांग्रेस के नेतृत्व में आजादी मिलने के साथ ही साथ  व्यापक तौर पर ब्रिटेन के प्रजातन्त्र व प्रशसनिक व्यवस्था का अनुकरण (परानुकरण ) किया था। किन्तु हमारे रहनुमा यह नहीं समझ पाये कि ब्रिटेन के भोगवादी समाज के  एथिक्स अर्थात ' भोगवादी आदत से बनी नैतिकता ' और हजार वर्षों की " गुलामी की आदत से पैदा हुई हमारी नैतिकता " में फर्क था और है।  (एथिक्स शब्द यूनानी मूल शब्द एथिकोस से पैदा हुआ है। जिसका मतलब होता है, आदत से पैदा हुआ)
२०१३ ई० के चर्चित कोलगेट के ' तोता-प्रकरण ' मामले से १६ साल पहले १९९७ ई० में ही सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को कड़ी फटकार लगते हुए सिबिआइ को सीधे सिभिसी (केन्द्रीय सतर्कता आयोग ) के अधीन काम करने को कहा था। किन्तु राजनीतिज्ञों की नैतिकता पहले ही बेशर्मी के भेंट चढ़ चुकी थी।  नतीजतन विश्वसनीय (सरकार के पिट्ठू ) अफसरों को रिटायरमेन्ट के बाद भी पाँच साल के लिये घोडा-गाड़ी और लालबत्ती के साथ ही मोटी आय की व्यवस्था की जाने लगी। किन्तु अपने समाज के एथिक्स, या ' आदत से पैदा हुई नैतिकता या चरित्र-निर्माण ' के उपर कोई ध्यान नहीं दिया। जिसके फलस्वरूप इन ६२ सालों में जीडीपी के साथ साथ भ्रष्टाचार भी बढ़ता गया। ' मेरा भारत महान ' के कर्णभेदी नारे में गरीब साधारण जनता की चीत्कार दबती चली गयी।
 आज की जरुरत 'मनरेगा-योजना'   या 'मुफ्त खाद्य योजना ' की नहीं है, बल्कि यह है कि पहले योग्य और चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करने वाली भारत के ऋषियों द्वारा अविष्कृत पतंजलि-योगसूत्र को शिक्षापद्धति से जोड़ने की है। उन्हें ऐसी शिक्षा दी जाये कि वे अपने मन को एकाग्र करना सीख कर अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करने में हो सकें, वे निःस्वार्थ  देश-सेवा से भागे नहीं, बल्कि मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण आन्दोलन को भारत के गाँव गाँव तक फैला कर , बुरे लोगों से प्रजातंत्र को मुक्त करने के कार्य में जुट जाएँ। (वरिष्ट पत्रकार एनके सिंह की लेख के आधार पर)]  
 
 ' सच्ची-शिक्षा ' विहीन गणतंत्र में जन साधारण के लिए सामान स्वाधीनता, मर्यादा और सामान अधिकार देने की बातें करना दिन में सपने देखने जैसी बातें हैं। इसीलिये पाकिस्तान के एक पूर्व राष्ट्रपति ने कहा था- " Democracy without education is a hypocrisy without limitation " - अर्थात  शिक्षा के सर्वगत न होने तक, सीमाहीन पाखण्ड का ही दूसरा नाम गणतंत्र है।"  
इस देश में गणतंत्र आने से बहुत पहले, अमेरिका और यूरोप में प्रवास करते समय स्वामी विवेकानन्द ने पाश्चात्य देशों में स्थापित गणतंत्र की राजनैतिक कलाबाजिओं को भी बड़ी गहराई में जा कर देखा था, और पार्लियामेन्टरी सिस्टम का जो चेहरा उनको दिखाई दिया था, उसका वर्णन करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मैंने तुम्हारा Parliament 'लोक-सभा', Senate 'वरिष्ठ-सभा' अथवा
 ' राज्य-सभा', Vote ' मताधिकार' , Majority ' बहुमत अथवा जनादेश', Ballot 'मतपत्र' , Ballot Rigging (मतपत्रों की हेराफेरी) सब कुछ को देखाहै- अरे राम हो राम ! प्रत्येक देश में एक ही नियम लागु होता है, थोड़े से शक्तिमान मनुष्य जिस ओर चाहते हैं, समाज को चलाते हैं; बाकि लोग भेंड़ की झुंड के समान उनका अनुशरण करते हैं। ......यह ठीक है कि वोट, बैलेट आदि द्वारा प्रजा को जो एक विशेष ढंग कि शिक्षा मिलती है, उससे हम वंचित रह जाते हैं। 
किन्तु राजनीती के नाम पर चोरों का जो दल देशवासियों का रक्त चूस कर, समस्त यूरोपीय देशों का नाश करता है, और उनका भक्षण करके स्वयं मोटा-ताजा बना रहता है, वैसा कोई भी दल कम से कम हमारे देश भारत में तो नहीं है। (यह बात उन्होंने भारत के यूपीए 2 सरकार के  २०१३ वाले टुजी-घोटाला, कोमन वेल्थ घोटाला,कोलगेट, रेलगेट, आईपीएल  घोटालों से  १०० वर्षों से भी अधिक पहले कही थी) घूस कि वैसी धूम, वह दिन-दहाड़े लूट, जो पाश्चात्य देशोंमें होती है- अरे राम कहो ! यदि वहाँ की आन्तरिक व्यवस्था को देख लेते तो मनुष्य पर से विश्वास ही उठ जाता। !
' घर की जोरू बर्तन माँजे, गणिका लड्डू खाय।
गली-गली में गोरस फिरता, मदिरा बैठ बिकाय।। '


जिनके हाथ में रुपया है, वे राज्य-शासन को अपनी मुट्ठी में रखते हैं, प्रजा को लूटते हैं, उसको चूसते हैं, और बाद में उन्हें सिपाही बनाकर देश-देशान्तर में मरने के लिए भेज देते हैं। जीत होने पर पुनः उन्ही का घर धन-धान्य से भरा जाएगा, किन्तु बेचारी निरीह प्रजा तो उसी जगह मार डाली गई। ....राम हो राम ! यह सब देख-सुन कर भी न तो तुम्हे अपनी भृकुटी ताननी चाहिए, न किसी प्रकार का आर्श्चय ही व्यक्त करना चाहिए। " (वि०सा० ख० १० : ६१ )
 

यदि स्वामीजी आज भी जीवित होते तो कहते - " मेरे मित्रो ! यदि तुम इन राजनीतिज्ञों (मौनी-बाबा नब्बे चोर ) की  कलाबाजिओं के पृष्ठभूमि में चलने वाली कृत्यों को एक बार भी देख लो,तो घूसखोरी कि धूम और दिन-दहाड़े डकैती करते समय मनुष्यों के भीतर शैतानियत के नृत्य को देख कर, तुम मानव-जाति के उज्ज्वल भविष्य के प्रति हताश ही हो जाओगे। इसलिए मेरी सलाह अपने युवा मित्रों के लिए तो केवल इतना ही है कि- 'मेरे मित्रों, पहले तुम मनुष्य बनो ! '
इस कथन का तात्पर्य क्या है? क्या हम मनुष्य नहीं हैं ? आकृति में हमलोग अवश्य मनुष्य हैं, हमारा ढाँचा अवश्य ही मनुष्य जैसा है। किन्तु हमलोग केवल मनुष्य कि आकृति में " Homo Erect-us " श्रेणी के वह पशु नहीं हैं, जो केवल अपने पैरों पर सीधाखडा हो सकता है। हमलोग तो " Homo Sapience " श्रेणी के सदस्य हैं। " Sapience " का अर्थ होता है, समझ-बुझ रखने वाला, ' विवेकी ' जो सद्-असद् या हितकर- अहितकर का ज्ञान रखता है। यदि हमलोग अपने विचार, संकल्प और कर्म में विवेक-शक्ति या उचित-अनुचित निर्णयबोध का परिचय नहीं देते, तो हमलोग स्वयं को -" Homo Sapient " या यथार्थ मनुष्य कहने का दावा भी नहीं कर सकते। इसीलिये राजा कवि भर्तृहरी कहते हैं- 
येषां न विद्या न तपो न दानं
ज्ञान न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
-नीतिशतक
जिन मनुष्यों के पास न विद्या, न दान, न ज्ञान, न शील (चरित्र) , न गुण, और न धर्म ही है, वे इस मनुष्यलोक में पृथ्वी पर भाररूप हैं, जो आकृतिमात्र से मनुष्य होकर पशुरूप में विचरण करते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण मानव जाती के लिए कौन सा उपदेश दिया है, उसे अगर एक ही पंक्ति में कहने का साहस किया जाय, तो वह है- " यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास कि सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। बाकि लोग तो मृत से भी ज्यादा अधम हैं। " (२: ३७१ )

क्या हमलोगों में से अधिकांश मनुष्यों कि ही तरह, हमारे ये राजनीतिज्ञ लोग - " मृत से भी ज्यादा अधम " नहीं हैं ?स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " हम उस मनुष्य को देखना चाहते हैं, जिसका विकास सम्निवित रूप से हुआ हो- ह्रदय से परम उदार, मन से उच्च , कर्म में महान। हम ऐसा मनुष्य चाहते हैं, जिसका ह्रदय संसार के दुःख-दर्दों को गंभीरता से अनुभव करे। जो न केवल अनुभव ही करे बल्कि दुःख के कारण का भी पता लगा सकता हो, जो यहाँ भी न रुके उस दुःख को दूर करने का उपाय भी बता सके। हम मस्तिष्क, ह्रदय और हाथों के ऐसे ही संघात को चाहते हैं। जो समानरूप से क्रियाशील, ज्ञानवान और प्रेमवान है। " ( ३:२१५)
इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द के परामर्श के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि, यथार्थ मनुष्य बनने के लिए हमे अपने तीन प्रमुख अवयवों (3H's)- our Hand,Head and Heart - के समन्वित विकास पर ध्यान देना होगा। यहाँ पहला ' H ' Hand- हाथ या भुज-दण्ड प्रतिक है ' बाहू-बल' या शारीरिक शक्ति का, दूसरा 'H' Head - मस्तिष्क या सिर प्रतिक है ' विवेक-शक्ति' या सद्-असद् का विवेकपूर्ण निर्णय लेने की शक्ति का। तीसरा 'H' Heart या ह्रदय का विकास - जो दूसरों के दुःख-कष्टों को देख कर अपने ह्रदय में पीड़ा का अनुभव करने में सक्षम हो।
जब हमारे पास ' अपनी फिक्र ' नहीं दूसरों की फ़िक्र ' दूसरों के दुःख को दूर हटाने के लिए चिन्ता करने वाला ह्रदय(Heart) विकसित हो जायगा, तभी हम अपनी शारीरक-शक्ति(Hand) और मानसिक-शक्ति (Head) की सहायता से दूसरों के चहरे पर छाये दुःख,विषाद, उदासी को दूर हटा कर उनके मुख पर भी हँसी खिलाने में थोड़ी सहायता कर सकते हैं।
इन तीनो अवयवों (3H's) को विकसित करने की प्रक्रिया को ही चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया कहते हैं. इसके लिए हम सभी लोगों को अपना चरित्र-निर्माण करना, सबसे पहला कर्तव्य है। क्योंकि सुंदर चरित्र एक वैसे ' दिशासूचक-यन्त्र ' की तरह कार्य करता है, जो हमे सदैव विवेक-संगत दिशा या उचित दिशा में ही अग्रसर रहने को प्रेरित करता रहता है।
एक ही क्रिया (सद्-कर्म) को बार-बार दुहराते रहने से। तथा क्रिया (सद्-कर्म) निर्देशित होते हैं विवेक-सम्मत निर्णय लेने एवं इच्छा-शक्ति द्वारा (and actions are guided by ratiocination and will)। इस प्रकार का सुंदर चरित्र या ' सद्-चरित्र ' गठित होता है- " Repetition of action "  सद् या असद् किसी भी तरह के कार्य को करने के पहले मन में इच्छा उठती है, फ़िर हम उसे पूरा करने का संकल्प लेते हैं, अतः हमें अपने मन में उठने वालीइच्छाओं तथा संकल्पों को बहुत सतर्क रहकर देखना होगा कि वे विवेक-सम्मत हैं या नहीं ?
हमे अपने मन में केवल उन्हीं इच्छाओं को उठने देना चाहिए जो मनुष्यत्व के उन आदर्शों को प्राप्त करने में सहायक हों जिनकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं (will should always be guided by ratiocination)। इसप्रकार जब हम सदैव सद्कर्म करने का ही अभ्यास करते रहेंगे तो हम सद्चरित्र के अधिकारी- ' मनुष्य 'बन जायेंगे। मनुष्य का मन इतना अधिक संवेदनशील और कोमल होता है कि, उसपर पड़ी कोई हलकी सी लकीर या छाप कोभी मिटा पाना कभी सम्भव नहीं होता।
इसीलिए हमे अपने ' मन ' का व्यवहार अत्यधिक सतर्क हो कर करना चाहिए, क्योंकि हमने स्वयं कि इच्छा से प्रेरित होकर जिन कर्मों कि लकीर या छाप इसके ऊपर डाल दिए हैं, वे ही सूक्ष्म संस्कार जब तक हम जीवित रहेंगे हमारे जीवन को निर्देशित करते रहेंगे। मन का स्वभाव ही ऐसा है कि, पढने, देखने, सुनने या अनुभव करने केसाथ ही साथ उसके साथ जुड़ी हुई कोई खास कामना या इच्छा मानो विद्युत-चमक की जैसी तीव्र गति से- मन केभी उत्पत्ति स्थान ( चित्त ) में प्रविष्ट हो कर वहाँ अन्तः स्थापित हो जाती है।
 
इस तरह मन के उत्पत्ति-स्थान (चित्त ) में अन्तः स्थापित समस्त छापों या प्रवृत्तियों की समष्टि ही व्यक्ति मनुष्यके चरित्र का निर्माण करतीं हैं। क्योंकि अचेतन मन पर पड़ी ये प्रवृत्तियाँ अथवा मनोवृत्तियाँ अचानक कोई नयी परिस्थिति या परिवेश के सम्मुखीन होते ही, किसी मनुष्य को ठंढे मन से विवेक-विचार द्वारा निर्णय किए बिना ही, सहसा कोई क्रिया या प्रतिक्रिया कर देने के लिए उद्दत कर देतीं हैं।
इसीलिए जैसे ही कोई कामना या इच्छा विद्युत-चमक के समान तीव्र गति से हमारे मन के भीतर प्रविष्ट करनेवाली हो ,ठीक उसी क्षण( then & there )  हम लोगों को विवेक-प्रयोग करने में समर्थ 'मनुष्य 'बनना होगा। उसके गुण-दोष का निर्णय ले कर , उसे वहाँ प्रविष्ट करने कि अनुमतिदेने या अस्वीकार कर देने 
की ' इच्छा-शक्ति ' को प्रबल बनाने के लिए, हमें निरंतर सतर्क रहते हुए अपनी इच्छाओं और कामनाओं को  अपने पूर्व निर्धारित आदर्श के साँचे में डाल कर देखना होगा कि, कहीं वे हमारे चरित्र को दूषित तो न कर देगी ?
हम लोगों में से कितने व्यक्ति ऐसे हैं जो इस चरित्र-निर्माण कारी पद्धति से परिचित हैं तथा अपने चरित्र को कलुषित न होने देने के लिए उस पर निरन्तर पहरेदारी बनाये रखते हैं ? हमारे देश के नागरिकों तथा राजनीतिज्ञों में से बहुत थोड़े से लोगों ने ही मनुष्य जीवन की अनन्त संभावनाओं को प्रस्फुटित करने के विषय में कभी सुना या समझा है।  
हाय ! अफ़सोस है ! हम अभी तुंरत (बिना स्वयं मनुष्य बने और बनाये ) ही किसी नई सरकार के चरित्र में वास्तविक परिवर्तन की अपेक्षा अभी  कैसे कर सकते हैं ? या अपनी मातृभूमि के उपेक्षित जनसाधारण की ' आत्मा के सर्व-ग्रासी प्रेम और सौहार्द की धारा को हिमखंड जैसा रुखा '- बन जाने से रोक भी कैसे सकते हैं ?
( vivek- jivan के मई २००९ में प्रकशित सम्पादकीय ' ANY CHANCE OF A CHANGE ?' का हिन्दी अनुवाद )