बुधवार, 16 सितंबर 2009

" बाह्यजगत, अन्तर्जगत एवम इन्द्रियातीत-भूमि की झाँकी "



" यह सम्पूर्ण विश्व ' विविधता में एकता ' का एक विराट् उदाहरण है !
(दी होल यूनिवर्स इज अ ट्रिमेन्डsस केस ऑफ़ यूनिटी इन वेराईटी) 
'द साइंस ऑफ़ थ्री एच : 3H- का विज्ञान' 
(The Science of 3H' 'Hand-Head-Heart'
PHYSICAL-MENTAL-SPIRITUAL  )
किसी शायर ने कहा था - "ऐ खुदा ' मुझसे ' किसी रोज मिला दे 'मुझको' (Personal truth या ' अहम् ' को ), मौजे ' दरिया ' हूँ, ' समन्दर ' में गिरा दे मुझको।" उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द हमारे निद्रित मनुष्यत्व को झकझोरते हुए कहते हैं - " भौतिक जगत्, मानसिक जगत् या आध्यात्मिक जगत् - इस तरह की कोई  नितान्त स्वतंत्र (अलग-अलग) सत्तायें नहीं हैं। जो कुछ है, सब एक ही तत्त्व है (आत्मा ही ब्रह्म है)। या हमें यों कहना चाहिये कि यह सब एक ऐसी 'टैपरिंग-वस्तुऐं' क्रमशः पतली होती हुई शुन्डाकार वस्तुएं हैं,जो यहाँ स्थूल हैं, और जैसे जैसे यह ऊँची चढ़ती जातीं हैं, वैसे ही वैसे वह सूक्ष्म होती जाती हैं, सुक्ष्तम को हम- ' आत्मा ' कहते हैं और स्थूलतम को,'शरीर '।" (वि० सा० ख० ४ :१७३ )
The whole universe is a tremendous case of Unity in Variety।" (C.W:vol:1:504)
" यह सम्पूर्ण विश्व - ' विविधता में एकता ' का एक विराट् उदाहरण है। मनरूपी पिण्ड (mass) केवल एक ही है, उसीकी विभिन्न अवस्थाओं के विभिन्न नाम हैं। वे इस मानस-सागर की विभिन्न लघु भँवरें हैं। हम एक ही साथ व्यष्टि और समष्टि (Universal), दोनों हैं। इसी प्रकार यह क्रीड़ा चल रही है। ...वास्तव में यह एकत्व कभी खण्डित नहीं होता। जड़पदार्थ (matter-Hand)और मन (mind-Head) तथा आत्मा (Brhman-Heart) ये तीनो एक ही हैं।" (वि० सा० ख० :४ : १५२)

 " तुम एक समय में एक ही वस्तु देख सकते हो। मैंने जब साँप देख लिया, तो रस्सी एकदम विलीन हो गयी। और जब मैं रस्सी देखता हूँ,तो साँप अन्तर्हित हो जाता है। ....जब हम संसार देखते हैं, तब हम भगवान कैसे देख सकेंगे ? ...यहाँ जब तुम साँप देखते हो, तब रस्सी नहीं रहती। जब तुम आत्मविद् होओगे, तो बाकी सब कुछ अदृश्य हो जायगा। तुम जब केवल आत्म-दर्शन करोगे, तो तुम्हें कोई जड़-पदार्थ नहीं दिखायी देगा। तुम जिसे जड़ कहते हो वही आत्मा है। ये सारे भेद इन्द्रियों द्वारा आरोपित हैं। एक ही सूर्य हजारों छोटी तरंगों से प्रतिबिम्बित होकर हमें हजारों छोटे सूर्यों के समान लगता है। " (४:१५३)
" प्रकृति (आदतें) हमे चारो ओर से  दमित करने का प्रयास कर रही है और आत्मा अपने को अभिव्यक्त करना चाहती है। प्रकृति कहती है - ' मैं विजयी होउंगी '। आत्मा कहती है- " विजयी मुझे होना है "। प्रकृति कहती है - ठहरो ! मैं तुम्हे चुप रखने (भेंड़ बने रहने) के लिए थोड़ा सुख भोग दूंगी। आत्मा को थोड़ा मजा आता है, क्षण भर के लिए वह धोखे में पड़ जाती है, पर दूसरे ही क्षण वह फ़िर मुक्ति के लिए चीत्कार कर उठती है। " (३:१७३)
... इन्द्रियों के माध्यम से विश्व को देखते समय तुम्हें यह स्मरण रहना चाहिए कि उसे हम (केवल) जड़ और शक्ति के रूप में भी ग्रहण कर सकते हैं। तथा (संवेग के नियमानुसार) जब हम वेग (velocity) बढ़ाते हैं, तो पिण्ड (mass) घटता है। दूसरी ओर हम पिण्ड बढ़ा सकते हैं और वेग घटा सकते हैं।... सम्भव है, हम एक ऐसे बिन्दु पर पहुँचे, जहाँ पिण्ड (mass) की सारी सत्ता ही मिट जाए !" (वि० सा० ख० ४: १५३) 
 हमे यह स्मरण रखना चाहिए कि स्वामीजी ने यह वक्तव्य सैनफ्रांसिस्को में २२ मार्च १९०० ई को दिया था, इसके बाद १९०५ ई में ही आइन्स्टीन द्वारा, ' पदार्थ- उर्जा समीकरण ' E=Mc2 प्रतिपादित हुआ था।  इस दृष्टिगोचर जगत् वैचित्र का कारण स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं - " अद्वैतवादि के मत से, इस नाम-रूप, अज्ञान या माया अथवा यूरोपीय लोगों कि भाषा में स्पेस-टाइम-काजैलिटी (देश-काल-निमित्त) के कारण ही यह एक अनन्त सत्ता इस वैचित्र्यमय जगत् के रूप में दिख पड़ती है।"
 स्वामी विवेकानन्द स्वयं एक युक्तिवादी मनुष्य थे, इसीलिए धार्मिक सिद्धान्तों को भी विज्ञान की कसौटी पर जाँचने के बाद ही स्वीकार करने के पक्षधर थे; इसीलिए वे कहते हैं - "  जिन अन्वेषण- पद्धतियों का प्रयोग बाह्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में होता है, क्या उन्हें धर्म-विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जा सकता है ? मेरा विचार है कि ऐसा अवश्य होना चाहिए, और मैं यह भी चाहूँगा कि यह कार्य जितना शीघ्र हो, उतना ही अच्छा।यदि कोई धर्म इन अन्वेषणों के द्वारा ध्वन्सप्राप्त हो जाय, तो वह सदा से निरर्थक धर्म था - कोरे अन्धविश्वास का, एवं वह जितनी जल्दी दूर हो जाय, उतना ही अच्छा  मेरी यह दृढ़ धारणा है कि ऐसे धर्म का लोप होना एक सर्वश्रेष्ठ घटना होगी। सारा मैल जरुर धुल जाएगा, पर इस अनुसन्धान के फलस्वरूप धर्म के सनातन तत्व ही विजयी होकर निकल आयेंगे।वह केवल भौतिक विज्ञान और रसायन-शास्त्र के सिद्धान्तों जैसा केवल विज्ञान सम्मत ही नहीं होगा - प्रत्युत् और भी अधिक सशक्त हो उठेगा, क्योंकि भौतिकी और रसायन शास्त्र के पास अपने सत्यों को सिद्ध करने का अन्तःसाक्ष्य नहीं है, जो धर्म को उपलब्ध है।" (वि० सा० ख० २:२७८) "
 ........if a religion is destroyed by such investigations, it was then all time useless unworthy superstitions, and the sooner it goes the better . " (C.W: 1: 367)
  ' बाह्य -जगत् ' (the Outside):-
 स्वामी विवेकानन्द अपनी वैज्ञानिक (ऋषि) दृष्टि से ' सृष्टि-प्रक्रिया ' की व्याख्या करते हुए कहते हैं,
  " प्रश्न पूछा गया कि यह जगत् कहाँ से आया है, किसमे अवस्थित है, और फ़िर यह किसमें लय हो जाता है ?...मुक्तावस्था से इसकी उत्पत्ति होती है, बन्धन में इसकी अवस्थिति है, और मुक्ति में ही इसका लय होता है। " (३:७०) " 
वे अन्यत्र कहते हैं - " जिस प्रकार एक मिट्टी के ढेले को जान लेने पर मिट्टी से बनी हुयी समस्त वस्तुओं को जान लिया जाता है, उसी प्रकार ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसे जान लेने पर स्वयं समस्त विश्व को जाना जा सकता है ?" (२:२१)  
" हमने अभी तक उस वस्तु को प्राप्त नहीं किया है, जिसे जान लेने पर सबकुछ को जाना जा सके। हमने समस्त जगत् को पदार्थ (Matter) और उर्जा (Energy) में या प्राचीन भारतीय दार्शनिकों के शब्दों में, ' आकाश ' और ' प्राण ' में पर्यवसित कर दिया। अब आकाश और प्राण को उनके मूल (महत तत्व) में पर्यवसित करना होगा। "(२:२२)
प्राण का अभिप्राय है शक्ति (माँ जगदम्बा) - जो सब गति या संभाव्य गति, शक्ति या आकर्षण के रूपों में अपने को अभिव्यक्त करती है। " (४:१५२)
 " इन्हे ' मन ' नामक उच्चतर सत्ता में पर्यवसित किया जा सकता है। मन अर्थात महत् अथवा सार्वभौमिक विचार-शक्ति से प्राण और आकाश दोनों की उत्पत्ति होती है। प्राण या आकाश की अपेक्षा ' विचार ' - हमारी यथार्थ सत्ता की और अधिक सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है। विचार ही स्वयं इन दोनों में विभक्त हो जाता है। " (२:२३)
" ब्रह्माण्ड में जो उर्जा (Energy) है, उसका नाम है प्राण और वह इन भूतों में शक्ति के रूप में निवास करती है। प्राण के प्रयोग का महान उपकरण है -मन। मन भौतिक पदार्थ है। मन से परे आत्मा है, जो प्राण को धारण करता है। आत्मा, वह विशुद्ध बुद्धि है, जिसके द्वारा प्राण नियंत्रित और निर्दिष्ट होता है। ...मन अत्यन्त सूक्ष्म जड़पदार्थ (Matter) है। प्राण को अभिव्यक्त करने का उपकरण है-मन । अभिव्यक्ति के लिये शक्ति (Energy) को भौतिक पदार्थ (Matter-शरीर-मन) की आवशयकता होती है। " (४:९७)
 " मैं भी एक प्रकार से भौतिकवादी (materialist-मातृभक्त या हीरो) हूँ, क्योंकि मेरा विश्वास है कि केवल एक ही वस्तु का अस्तित्व है। आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवादी भी यही कहते है, पर वे उसे जड़ (matter) के नाम से पुकारते हैं, और मैं उसे ' ब्रह्म ' (या अल्ला-माँ जगदम्बा-काली) कहता हूँ। ये भौतिक वादी कहते हैं कि इस जड़ से ही सारी आशा, धर्म तथा सभी कुछ प्रसूत हुआ है। और मैं कहता हूँ, ' ब्रह्म ' (माँ जगदम्बा) से ही सब कुछ प्रसूत हुआ है।(२:९३) 
" आजकल हम जिसे जड़ पदार्थ कहते हैं, उसे प्राचीन हिंदू ' भूत ' अर्थात बाह्य-तत्व कहते थे। उनके मतानुसार ' एक तत्व ' नित्य है, शेष सब इसी से उत्पन्न हुये हैं। इस मूल तत्व को ' आकाश ' की संज्ञा प्राप्त है। आजकल 'ईथर' शब्द से जो भाव व्यक्त होता है, यह 'आकाश' बहुत कुछ उसके सदृश्य है, यद्दपि पूर्णतः नहीं। इस 'आकाश' तत्व के साथ ' प्राण ' नाम की आद्य उर्जा  (Primary Energy) रहती है।
प्राण और आकाश संघटित और पुन्संघटित होकर शेष तत्वों का निर्माण करते हैं। कल्पान्त में सबकुछ प्रलयगत हो कर आकाश और प्राण में लौट जाता है। " (४:१९४) "
 "..... विज्ञान भी आज कह रहा है कि, यह सबकुछ उसी एक उर्जा (शक्ति) का विकास है- जगत् में जो कुछ भी है, वह उस सबकी समष्टि है।" (२:९५) 
आधुनिक भौतिक विज्ञान (modern physics) को स्वामी विवेकानन्द ने उस समय एक चुनौती दिया था, जब वह भविष्यके गर्भ में था,और उनकी उस चुनौती को विद्युत विज्ञान के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिको में से एक विद्युत् वैज्ञानिक Nikola Tesla ने स्वीकार भी कर लिया था।   १३ फरवरी १८९६ ई में श्रीयुत् E.T. Sturdy को एक पत्र में लिखते हैं - " श्रीयुत् टेस्ला वैदान्तिक प्राण, आकाश और कल्प के सिद्धान्त को सुनकर बिल्कुल मुग्ध हो गए। उनके कथनानुसार आधुनिक भौतिक विज्ञान केवल इन्ही सिद्धान्तों को ग्रहण कर सकता है।....श्री टेस्ला यह समझते हैं कि गणितशास्त्र कि सहायता से वे यह प्रमाणित कर सकते हैं, कि जड़ और शक्ति (matter and energy) दोनों ही स्थितिक उर्जा (Potential Energy) में रूपांतरित हो सकते हैं। गणितशास्त्र के इस नवीन प्रमाण को समझने के लिए मैं आगामी सप्ताह में उनसे मिलने जाने वाला हूँ। ऐसा होने से वैदान्तिक ब्रह्माण्ड विज्ञान अत्यन्त दृढ़ नींव पर स्थित हो सकेगा। इन दिनों मैं वैदान्तिक ब्रह्माण्ड विज्ञान और प्रलय विज्ञान (Eschatology) में बहुत काम कर रहा हूँ। आधुनिक विज्ञान के साथ उनका पूर्ण सामंजस्य मैं स्पष्ट रूप से देखता हूँ, और एक कि व्याख्या के बाद दुसरे की भी हो जायगी।" (४:३८४)
प्रोफेसर टेस्ला हलाँकि इसमे सफल न हो सके, किन्तु १९०२ ई में स्वामीजी के शरीर त्याग देने के पश्चात् १९०५ई में अलबर्ट आइन्स्टाइन द्वारा प्रतिपादित ' सापेक्षता का सिद्धान्त ' (Theory of Relativity) प्रकाशित हो ही गया। इस सिद्धान्त के द्वारा अन्य वस्तुओं के साथ साथ यह भी प्रमाणित हो गया कि जड़ और शक्ति (Matter and Energy) वास्तव में एक ही वस्तु के दो आयाम हैं, एनर्जी ही मैटर के रूप में प्रतिभाषित हो रही है।अतः एक को दूसरे में (मैटर को एनर्जी में-परमाणु बम के रूप में ) रूपान्तरित किया जा सकता है या बदला जा सकता है। और यह अन्वेषण आधुनिक विज्ञान को आगे बढ़ाने में एक ' मील का पत्थर ' सिद्ध हुआ। 
अपने इसी सिद्धान्त के द्वारा आइन्स्टाइन ने भौतिक विज्ञान की, दीर्घकाल से चली आ रही अवधारणा को भी खण्डित कर दिया, कि प्रकाश (Light) के संचरण के लिए सम्पूर्ण अन्तरिक्ष (Space) में व्याप्त, अदृश्य(पहचान में न आने योग्य), ' ईथर ' नामक सूक्ष्म ठोस पदार्थ एक माध्यम के रूप में कार्य करता है।उन्हों ने इसे एक अनावश्यक पूर्वानुमान (unnecessary assumption) बताते हुए खारिज कर दिया। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि १९८५ ई में स्वामी विवेकानन्द ने भी ऐसी ही सम्भावना को व्यक्त करते हुए भौतिक विज्ञान पर एक निबन्ध लिखा था, जो उस समय के एक प्रतिष्ठित Journal में प्रकाशित हुआ था, जिसमे उन्होंने लिखा था -- " किन्तु ईथर की समस्त परिकल्पनाओं में ईथर के दो कणों, चाहे वे कितने भी क्षूद्र क्यों न हों, के बीच में कुछ न कुछ खाली स्थान रहना ही चाहिए; तथा वह कौन सी वस्तु है जो इस ईथर कणों के बीच के खाली स्थान को भी भर देती है ?.....अतः ईथर का सिद्धान्त या अन्तरिक्ष में व्याप्त भौतिक कणों को अन्तरिक्ष का स्पष्टीकरण नहीं माना जा सकता।" इस प्रकार हम यह देख सकते हैं कि उन्होंने भी अन्तरिक्ष कि व्याख्या पर प्रश्न चिन्ह लगया था. 
[" But on all suppositions, there must be Space between two particles of ether, however small; and what fills this inter ethereal Space ?... thus the Theory of the ether or material particles in space, cannot account for Space itself." (C.W vol 9 page 288,289)]

 The Mystery of Empty Space
द मिस्ट्री ऑफ़ एम्प्टी स्पेस
{अन्यत्र उन्होंने कहा था - " हमारा मन - देश, काल और निमित्त (पुर्वर्तिता और परवर्तिता के अनुक्रम) की चहारदिवारी के बाहर नहीं जा सकता। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपनी सत्ता को नहीं लाँघ सकता, उसी प्रकार देश और काल के नियम (नाम-रूप) ने जो सीमा खड़ी कर दी है, उसका अतिक्रमण करने की क्षमता किसी में नहीं है। (उधर वेदान्त के) इस कथन का तात्पर्य क्या है, कि - ' तीन काल में भी इस जगत् का अस्तित्व नहीं है ' या ' जगत् मिथ्या है ' ? इसका मर्मार्थ यही है कि उसका (जगत् का) निरपेक्ष अस्तित्व नहीं है। मेरे, तुम्हारे, अन्य सबों के मन के लिए इसका केवल सापेक्षिक अस्तित्व है।" (२:४६).....जगत का जो कुछ देश-काल-निमित्त के नियम के अधीन है, वही माया के अर्न्तगत है। " (२:६७)
" धर्म और विज्ञान में सामंजस्य लाने के लिए दोनों को ही आदान-प्रदान करना होगा। त्याग करना पड़ेगा, यही नहीं कुछ दुःखद बातों को भी सहन करना पड़ेगा। पर इस त्याग के परिणाम स्वरूप प्रत्येक व्यक्ति और भी निखर उठेगा और सत्य के सम्बन्ध में अपने को और भी आगे पायेगा। और अन्त में जाकर -' देश-काल की सीमा में बद्ध ज्ञान  का  महामिलन उस  'परमज्ञान ' से होगा, जो इन दोनों से परे है, जो मन तथा इन्द्रियों की पहुँच से परे है -' जो निरपेक्ष, असीम और अद्वितीय है।" (२:२०१)}
" इस देश, काल और निमित्त में हम एक विशेषता यह देखते हैं कि वे अन्यान्य किसी पदार्थ से पृथक होकर नहीं रह सकते। तुम शुद्ध देश की कल्पना करो, जिसमे न कोई रंग है, न सीमा और न चारो ओर किसी वस्तु से संसर्ग है; तो तुम देखोगे कि तुम इसकी कल्पना नहीं कर सकते। देश सम्बन्धी विचार करते ही तुमको दो सीमाओं के बीच अथवा तीन वस्तुओं के बीच स्थित देश की कल्पना करनी होगी।.... काल के सम्बन्ध में भी यही बात है। शुद्ध काल के सम्बन्ध में तुम कोई धारणा नहीं कर सकते। काल की धारणा करने के लिए तुमको एक पूर्ववर्ती और परवर्ती घटना लेनी पड़ती है। और अनुक्रम की धारणा के द्वारा उन दोनों को मिलाना होगा। जिस प्रकार देश बाहर की दो वस्तुओं पर निर्भर रहता है, उसी प्रकार काल भी दो घटनाओं पर निर्भर रहता है । और ' निमित्त ' अथवा ' कार्य-कारण वाद ' की धारणा इस देश और काल पर निर्भर रहती है। अतः देश-काल-निमित्त के भीतर ' विशेषता ' यही है कि इनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है।"
 "इस कुर्सी या उस दीवार का जैसा अस्तित्व है, उसका वैसा भी नहीं है। वे मानो सभी वस्तुओं के पीछे लगी हुई छाया के समान हैं, जिन्हें तुम किसी भी प्रकार पकड़ नहीं सकते। उनकी कोई सत्ता नहीं है, अधिक से अधिक वे छाया के समान हैं।फ़िर, वे कुछ भी नहीं हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उन्ही में से तो जगत् अभिव्यक्त हो रहा है। वे तीनो मानो स्वभावतः मिल कर नाना प्रकार के रूपों की उत्पत्ति कर रहे हैं। अतएव, पहले हमने देखा कि देश-काल-निमित्त की समष्टि का अस्तित्व नहीं है, फ़िर वे बिल्कुल असत् या अस्तित्वशून्य भी नहीं हैं। दूसरे ये कभी कभी बिल्कुल अदृश्य भी हो जाते हैं।उदाहरण के लिए, समुद्र की तरंगों को लो, तरंग अवश्य ही समुद्र के साथ अभिन्न है, फ़िर भी हम उसको ' तरंग ' कह कर समुद्र से पृथकरूप में जानते हैं। इस विभिन्नता का कारण क्या है ? तरंग - नाम और रूप ! नाम अर्थात उस वस्तु के सम्बन्ध में हमारे मन में जो एक धारणा रहती है वह, और रूप अर्थात आकार। पर क्या हम तरंग को, समुद्र से बिल्कुल पृथक रूप में सोच सकते हैं ? नहीं, कभी नहीं ! वह तो सदैव इस समुद्र की धारणा पर ही निर्भर करती है। यदि वह तरंग चली जाए, तो रूप भी अदृश्य हो जाएगा। फ़िर भी ऐसी बात नहीं कि यह रूप बिल्कुल भ्रमात्मक था। " (२:९०-९१)
स्वामीजी द्वारा दिया गया यह आश्चर्यजनक वक्तव्य उस समय का है जब भौतिक विज्ञान ने देश-काल की अविछन्नता (space-time continuum) तथा जड़पदार्थ (matter) को देश-काल की वक्रता  कहते हुए, (curvatures of space-time) उनके ऊपर स्पष्ट रूप से कोई विवरण नहीं दिया था। इस प्रकार हम देख सकते हैं, कि भौतिक विज्ञान कि मौलिक धारणाएं जिन तथ्यों पर प्रतिष्ठित हैं, उनके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार जितने स्पष्ट थे उतने ही आधुनिक भी थे। 
वे कहते हैं - " यदि भौतिक विज्ञानों का अर्थ ज्ञान की ऐसी शाखायें हैं, जो केवल इन्द्रियानुभूती पर ही आधारित और निर्मित हैं, और इसके अतिरिक्त अन्य किसी तथ्य पर नहीं, तो हमारा दावा है कि ऐसा विज्ञान न तो कभी था और न कभी हो सकेगा। इन्द्रियाँ निश्चय ही ज्ञान के उपादानों का संग्रह करतीं हैं और उनके साम्य और वैषम्य का निर्धारण करतीं हैं; पर उनकी गति यहीं पर रुक जाती है।पहली बात यह है कि तथ्यों का भौतिक संग्रह कुछ आध्यात्मिक धारणाओं, यथा - देश,काल के आश्रित हैं। ... जैसे जड़, शक्ति, मन, नियम, कारणता , और दिक्-काल जैसे विचार तो अति-उच्च अमूर्तिकरण के परिणाम हैं, और इनमे से किसी एक का भी किसी ने कभी इन्द्रियानुभव नहीं किया है। दूसरे शब्दों में, ये पुर्णतः आध्यात्मिक हैं। तथा इन आध्यामिक धारणाओं के बिना किसी भौतिक तथ्य का समझ सकना असंभव है।" (९:२७५) "
{ "....Apart from the question whether abstractions are possible or not...it is plain that these notions of matter or force, time or space, causation, Law, or mind are held to be units abstracted and independent..."(C.W:4:378)}"
....." इस प्रकार के प्रश्नों से अलग कि (जड़पदार्थो, मन...आदि का ) अमूर्तिकरण या सूक्ष्मीकरण सम्भव है या नहीं, इतना तो स्पष्ट है कि जड़, शक्ति, दिक्, काल, कारणता, विधान, अथवा मन को ऐसी इकाई माना गया है, जो सम्बन्धित वर्गों से भाव रूप में परिकल्पित हुई हैं और अपने आप में स्वतंत्र हैं।और यह कि जब उन्हें इस रूप में स्वीकार किया जाता है, तभी वे इन्द्रियानुभूत तथ्यों के व्याख्यात्मक समाधान बन कर सामने आती हैं। इसप्रकार इन अमूर्त विचारों कि सत्यता के अतिरिक्त दो और तथ्य स्पष्ट रूप में उभर कर सामने आते हैं- एक तो यह, कि ये तत्व आध्यात्मिक (metaphysical) हैं, और दूसरे केवल तात्विक रूप में ही ये भौतिक (physical) तथ्यों की व्याख्या कर पाते हैं, अन्यथा नहीं।" (९:२७६)  
बीसवीं सदी में आने के बाद ही यह प्रमाणित हो सका कि, समस्त जड़ पदार्थ जिन सब-एटॉमिक- पार्टिकल्स या उप-परमाणुविक कणों ' (Subatomic Particles/ सूक्ष्माणु) के द्वारा संघटित होते हैं, वे द्विधर्मी (dual nature) हैं। अर्थात उनकी प्रकृति द्वयात्मक होती है।अर्थात वे ' कण ' - के समान गुण-धर्म वाले (Particle-like) होने के साथ साथ, ' तरंग ' - के समान गुण-धर्म (Wave-like) भी होते हैं।
उनके यथार्थ स्वरूप के बारे में सूस्पष्ट रूप से अभी तक कुछ नहीं कहा जा सका है। उदाहरणार्थ - वह भौतिक घटना जिसे ' फोटो-इलेक्ट्रिसिटी ' (Photo-Electricity) के नाम से जाना जाता है. - इस प्रक्रिया में ' प्रकाश ' (Light) के ' कणात्मक ' गुण-धर्म (Particle-like behavior) का प्रदर्शन होता है। ( इस अन्वेषण के लिए आइंस्टाइन (Einstein) को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था।) तथा जिस भौतिक घटना में प्रकाश (Light) का' तरंग ' जैसा गुण-धर्म (Wave-like behavior) प्रर्दशित होता है, उसे 'प्रकाश का समवर्तन ' (Interference of Light) कहा जाता है।
और यही बात विद्युदणुओं (Electrons) के लिए भी सत्य है, जिसके कारण विद्युत्-धारा (Electric current) प्रवाहित होती है।यहाँ स्वामीजी द्वारा कथित उस उक्ति का स्मरण हो आता है, जो उन्होंने तब कहा था, १८९६ ई में, जब ' विद्युदअणुओं ' (Electrons) का आविष्कार भी नहीं हुआ था। उन्होंने कहा था-" ...इसके परे विद्युत-लोक है, अर्थात वह अवस्था जहाँ प्राण (Wave) आकाश (Particle) से प्रायः अभिन्न है, और यह बताना कठिन हो जाता है कि ' विद्युत ' जड़ है या शक्ति।" (४:३८५)
 इन्ही अति क्षूद्र उप-परमाणुविक कणों ने- जो आँखों से दिखाई भी नहीं पड़तीं, (हिग्स बोसोन ने ?) अपने को असीम-अनन्त तक विस्तृत करके, तारों, निहारिकाओं से परिपूर्ण विशाल-विशाल आकाशगंगाओं (Galaxies) से भरे ब्रह्माण्ड का निर्माण कर लिया है ! 
यह विश्व- ब्रह्माण्ड आख़िर किस प्रकार अस्तित्व में आया होगा ? आज भी सृष्टि-रचनावाद के सिद्धान्त को समझाने के लिए, ' महा विस्फोट के सिद्धान्त ' (Big Bang Theory) को ही सर्वाधिक लोकप्रिय सिद्धान्त माना जाता है। इस सिद्धान्त कि सरल व्याख्या इस प्रकार दी जाती है - " यह ब्रह्माण्ड उस ' विलक्षण ' अवस्था से अस्तित्व में आया जहाँ न तो देश था न काल।"
(the universe came into being from the state called ' singularity ' - something where there is neither space or time.
 Before Time and Space 
बिफोर टाइम ऐंड स्पेस 
अब से लगभग पन्द्रह अरब वर्ष पहले -प्रकृति की साम्यावस्था भंग हो गयी -अचानक एक महाविस्फोट हुआ - देश, काल अस्तित्व में आ गया, और हमारा यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न हो गया। इस बात को कोई नहीं जनता, कि इसका जन्म कैसे हुआ - और अभी यह जिस रूप में है, उस अवस्था तक विस्तृत कैसे हुआ होगा ?
" यह सारा व्यक्त इन्द्रियग्राह्य जगत् 'रूप' है, और इसके पीछे है 'नाम',शब्द या  अनन्त स्फोट। स्फोट का अर्थ है - समस्त जगत् की अभिव्यक्ति का कारण - ' शब्द ब्रह्म '। इस स्फोट का एकमात्र वाचक शब्द है-ॐ'।...स्फोट से ही सारे शब्द उत्पन्न होते हैं, फ़िर भी वह स्वयं पूर्ण रूप से विकसित कोई शब्द नहीं है। अर्थात, यदि किसी भी शब्द (जैसे माँ ) से उन सब भेदों को, जो एक भाव (माँ) को दूसरे से (पिता भाव से) अलग करते हैं, निकाल दिया जाय, तो जो कुछ बच रहता है, वही स्फोट या ॐ है। इसीलिए इस स्फोट को 'नादब्रह्म ' कहते हैं। " (४:३०)  
 स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " भारतीय दर्शन के अनुसार 'नाम और रूप' ही इस जगत् की अभिव्यक्ति के कारण हैं। ... रूप, वस्तु का मानो छिलका है और नाम या भाव भीतर का गूदा। शरीर है रूप (बेल का खोपडा-छिलका) , और (बेल का गुदा है) मन या अन्तः करण है - नाम, और उसके पीछे है आत्मा (बेल का बीज कारणस्वरूप 'अस्ति-भाति-प्रिय', सच्चिदानन्द, ब्रह्म !) (४:२९) 
" स्वामी विवेकानन्द ने ' सांख्य ' और ' वेदान्त ' की सहायता से इस सृष्टि रचनावाद के सिद्धान्त की व्याख्या जिस स्पष्टता से दी है, उसे पढ़ कर कोई भी व्यक्ति आश्चर्य- चकित हो सकता है। वे कहते हैं कि यह दृश्यमान ब्रह्माण्ड, अव्यक्त अवस्था से बाहर निकला है और संभवतः यह पुनः उसी ' अव्यक्ताव्स्था ' में लौट जाएगा। उन्ही के शब्दों में- " ...जगत् किसी एक विशेष दिन में रचा नहीं गया। एक ईश्वर ने आकर इस जगत् की सृष्टि की और बाद में वह सो रहा, यह हो नहीं सकता। सृजन की शक्ति निरन्तर क्रियाशील है। ... हमारे संस्कृत शब्द ' सृष्टि ' का अंग्रेजी में ठीक से अनुवाद किया जाय तो वह Projection होना चाहिए creation नहीं। "  (५:२२)
"...सारी प्रकृति सदा विद्यमान रहती है, केवल प्रलय के समय वह क्रमशः सुक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जाती है, और अन्त में एकदम अव्यक्त हो जाती है। फ़िर कुछ काल के विश्राम के बाद मानो कोई उसे पुनः ' प्रक्षेपित ' करता है, तब पहले की ही तरह समवाय, वैसा ही विकास वैसा ही रूपों का प्रकाशन का क्रीड़ाक्रम चलता रहता है.... फ़िर वह नष्ट हो जाती है,.... और पुनः वह निकल आता है। अनन्त काल से वह लहरों (या पेन्डुलम) की तरह एक बार बाहर हो जाता है, और फ़िर पीछे हट जाता है। देश, काल, निमित्त तथा अन्यान्य सब कुछ इसी प्रकृती अर्न्तगत है। इसलिए यह कहना कि सृष्टि का आदि है, बिल्कुल निरर्थक है। सृष्टि के आदि अथवा अन्त, यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता।" (५:२३) इन दिनों भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप को जानने के लिए, इसके आवर्ती प्रतिरूप (Cyclic models) तथा दोलायमान प्रतिरूप ( Oscillatory) के ऊपर शोध कार्य चल रहा है। 
किन्तु स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त बिल्कुल तर्कसंगत तथा स्वतः प्रमाणित तथ्यों पर आधारित था।वे कहते हैं-" असत् से सत् की उत्पत्ति असंभव है- शून्य से संसार का उदय अयोक्तिक है। परन्तु क्रमविकासवाद (Theory of Evolution ) के सिद्धान्त का उच्च भौतिक विज्ञान के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए, जिसके अनुसार क्रमविकास की प्रत्येक सृंखला के पीछे ' क्रम-संकोच ' (Involution) की क्रिया निहित है। "( ४:३४१) 
उन्होंने इस निराधार कल्पना (conjecture) को सीरे से ही नकार दिया, कि इस विश्व-ब्रह्माण्ड का कोई एक पहला कारण या सृष्टिकर्ता है। उनके लिए यह विश्व अनादी-अनन्त है ! यह विश्व-जगत् ईश्वर कि सृष्टि नहीं है -बल्कि स्वयं ईश्वर ही अपने-आपको को इस चरा-चर जगत् के रूप में अभिव्यक्त कर रहे हैं। तथा इस विश्व को इस रूप में दर्शन करने की दृष्टि प्राप्त कर लेना ही ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है।
हमारे चारो ओर जो प्रकृति तथा उसे संचालित करने वाला विधान है, उसके सम्बन्ध में हमारा ज्ञान कितना सही है ? प्रकृति सम्बन्धी ज्ञान तथा उन्हें संचालित करने वाले विधान के सम्बन्ध में, स्वामी विवेकानन्द के जो विचार थे -बिल्कुल वही विचार, उनके जाने के कई दशकों बाद, प्रमात्रा भौतिकी (Quantum Physics) के मौलिक आधार के रूप में आविष्कृत हुए थे।जिसके अनुसार - जो कुछ भी हम देख रहे हैं, वह इस बात पर निर्भर करता है, कि हम उसे किस प्रकार से देख रहे हैं। निरिक्षण करने वाले (द्रष्टा) को परिवर्तित कर दो, और यह विश्व परिवर्तित हो जाएगा।
 स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " जब तक मैं जगत् से पृथक हूँ, जब तक मैं अपने अतिरिक्त और कुछ देखता हूँ, जब तक एक द्रष्टा है और (दूसरा उससे भिन्न ) दृश्य वस्तु है- संक्षेप में, जब तक द्वैत भाव है, यह जगत् सदैव परिणामशील प्रतीत होगा।पर असल बात यह है कि इस जगत् में परिणाम भी है और अपरिणाम भी। ... जो मन को देखते हैं, वे आत्मा को नहीं देख  पाते, और जो आत्मा को देख लेते हैं -उनके लिये शरीर और मन दोनों न जाने कहाँ चले जाते हैं।" (२:३०) }
{" हम किसी विषय के प्रत्यक्षीकरण पर विचार करें। मैं एक गिलास देखता हूँ। यह ज्ञान कैसे आता है ? गिलास का ' वह ' जिसे जर्मन दार्शनिक (Thing-in-itself) कहते हैं, अज्ञात है; मैं उसे कभी नहीं जान सकता। मानलो वह ' क ' है। गिलास का यह ' क ' हमारे चित्त के ऊपर कार्य कर रहा है। और चित्त प्रतिक्रिया कर रहा है। चित्त एक सरोवर के समान है। सरोवर में एक पत्थर फेंकने से - सरोवर कि प्रतिक्रिया स्वरूप एक तरंग पत्थर की ओर आएगी।यह तरंग उस पत्थर के समान जरा भी नहीं होती- वह एक (वृत्ति)तरंग है। गिलास का ' क ' ही पत्थर के रूप में मन पर आघात कर रहा है, तथा मन उसकी दिशा में एक तरंग फेंक रहा है। इसी तरंग को हम गिलास की संज्ञा देते हैं। 
मैं तुमको देख रहा हूँ। तुम स्वरूपतः (Thing-in-itself) जो हो, वह अज्ञात और अज्ञेय है। तुम वही अज्ञात सत्ता ' क ' हो - तुम हमारे मन पर कार्य कर रहे हो, और मन आघात प्राप्त होने की दिशा में एक तरंग निक्षेप करता है, तथा उस तरंग को ही हम श्री अथवा श्रीमती ' अमुक ' कहा करते हैं। इस प्रत्यक्ष क्रिया के दो उपादान हैं- एक भीतर से दूसरा बाहर से आनेवाला, तथा इन दोनों का ही मिश्रण - ' क ' + मन हमारा बाह्य जगत् है। ...यही बात आंतरिक प्रत्यक्षीकरण के सम्बन्ध में भी सत्य है। यथार्थ आत्मा या हमारा सच्चा-स्वरुप ' यथार्थ मैं ' जो हमारे भीतर विद्यमान है। वह भी अज्ञात और अज्ञेय है। उसे ' ख ' कहा जाये। जब हम अपने को अमुक -व्यक्तिविशेष के रूप में जानते हैं, तब वह ' ख ' + मन होता है। यह ' ख ' मन पर आघात करता है। अतः हमारा समग्र जगत् ' क ' + मन (बाह्य जगत्) और ' ख ' + मन (अन्तर जगत् ) है। ' क ' और ' ख ' बाह्य और अंतर्जगत के परे ' वस्तुरूप ' में माने जा सकते हैं।" (४:२१५) 
 उस अवस्था में जो सचमुच हमसे बहिर्निष्ठ है, ' वह '- वह नहीं है जिसे हम देखते हैं। जिस गिलास को मैं देखता हूँ, वह निश्चय ही बाह्य वस्तु नहीं है। जो कोई बाह्य वस्तु गिलास में है, उसे मैं नहीं जानता और न कभी जान पाउँगा।मुझ पर किसी वस्तु का संस्कार पड़ता है। तत्क्षण मैं उसकी तरफ़ प्रतिक्रिया प्रेषित करता हूँ, इन दोनों के संयोग का परिणाम है गिलास। बाह्य से क्रिया- ' क '। अभ्यंतर की क्रिया - ' ख '। गिलास है- ' क ' + ' ख '। जब तुम ' क ' पर देखते हो, तो उसे बाह्य जगत् कहते हो, ' ख ' पर देखते हो तो अंतर्जगत। (४:१३२)
इसलिए स्वामीजी का यह विश्वास निश्चित रूप से सत्य सिद्ध होगा कि- " विज्ञान और धर्म एक दुसरे का आलिंगन करेंगे। कविता और दर्शनशास्त्र मित्र हो जायेंगे। यही भविष्य का धर्म होगा। और हम यदि ऐसा करने में सफल हो जायें, तो यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि यह सभी काल और सभी अवस्थाओं के मनुष्यों के लिए उपयोगी होगा। केवल यही पथ विज्ञान को ग्राह्य हो सकता है, क्योंकि यह लगभग वहाँ पहुँच चुका है। "(२:९४)
(The Inside) 
अन्तर्जगत 
मस्तिष्क और मन कि समष्टि (Brain-mind complex) ही सबकुछ का निर्माण कर रही है। इस दृश्यमान 'त्रि-आयामी जगत् ' से प्रारम्भ करके ( भौतिक वैज्ञानिकों के लिए चाहे जगत् के आयामों कि संख्या जितनी भी हो, किन्तु हमलोग जगत् को तीन आयामों वाला( 3 D) ही देख पाते हैं।) हर प्रकार के विचारों, भावों, भय, राग-द्वेष, आदि मनोभावों का निर्माण भी इसी मस्तिष्क और मन कि समष्टि द्वारा ही हो रहा है। 
फ़िर भी यह मन क्या है, और मस्तिष्क के साथ इसका क्या सम्बन्ध है- इस बात को निश्चित रूप से कोई भी नहीं जानता। किन्तु हमारा मन है, इस बात को हम इसके कार्यों (Functions) के द्वारा जानते हैं, यह बाहर से आने वाले सन्देषों (संकेतों) को ग्रहण करके, उनका विश्लेषण करता है तथा उन्हें वर्गीकृत भी कर देता है। जिसके फलस्वरूप हम किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसपर विचार करते हैं, अनुभव करते हैं, कल्पना-इच्छा-संकल्प करते हैं, स्वप्न देखते हैं। 
और वह क्या है जो बहिर्जगत से हमारे अंतर्जगत में प्रविष्ट हो रहा है ? - वह एक उद्दीपक (Stimuli) है, जिसे विज्ञान कि भाषा में - ' विद्युतरासायनिक- संकेत ' (इलेक्ट्रोकेमिकल- सिग्नल्स) कहते हैं।  जो कोषाणुओं (Neurons) के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँच रही है। किसी वस्तु को देखने में क्या घटित होता है ? शून्य द्रव्यमान (Zero-mass) के वे विशिष्ट कण जिसके साथ विभिन्न मात्रा कि उर्जा भी संयुक्त रहती है, उसे ' Photons ' कहते हैं।  और उन्ही Photons की श्रंखला को प्रकाश (Light) कहते हैं।या आप यह भी कह सकते हैं कि हमारी नेत्रों के दृष्टिपटल (रेटिना) से, जब अनुरूप आवृत्ति बैंड की विद्युत-चुम्बकीय तरंगें (Electromagnetic Waves)  टकरातीं हैं, तब उसके विद्युत-रासायनिक संकेत उसी समय हमारे मस्तिष्क की दिशा में निर्दिष्ट होने लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारा 'ब्रेन-माइंड कम्प्लेक्स' (या मस्तिष्क-मन की समिष्टि) या एक ऐसा न्यूरोट्रांसमीटर है जो इन विद्युतरासायनिक-संकेतों को कच्चे माल के रूप में व्यव्हार कर के, उन सब वस्तुओं का निर्माण करतीं हैं, जिन्हें हम देख पाते हैं; यह कोई नहीं जानता कि कैसे ? परन्तु वही बहिर्जगत के रूप में प्रक्षेपित होता है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " पाश्चात्य दार्शनिक तो, इस तथ्य को अभी हाल में जान सके कि नेत्र वास्तव में दर्शन-इन्द्रिय (ऑप्टिक नर्व) नहीं है। बल्कि यथार्थ इन्द्रिय इनके पीछे मस्तिष्क के स्नायू केन्द्र (Optic Nerve) में वर्तमान हैं। और यदि वह 'ऑप्टिक नर्व' नष्ट हो जाये तो सहस्रलोचन इन्द्र की तरह, चाहे मनुष्य की हजार आँखें हों, पर वह कुछ देख नहीं सकता। तुम्हारा दर्शन यह स्वतःसिद्ध सिद्धान्त को लेकर आगे बढ़ता है कि, दर्शन-क्रिया का तात्पर्य वास्तव में बाह्य दृष्टि से नहीं, यथार्थ दृष्टि अन्तर इन्द्रिय की, मस्तिष्क के भीतर रहने वाले स्नायू केन्द्र की है।" (५:२९३)
जब मैं किसी पुस्तक को पढ़ रहा होता हूँ, तब मैं एक कागज के पन्नों पर छपे कुछ काली रेखाओं और वक्र गोलाइयों को देखता हूँ। उन्हें मैं अपने मन में विद्यमान कुछ विचारों के साथ जोड़ता हूँ, और उसका अर्थ निकलता हूँ। उसी प्रकार बाहर में कोई ध्वनी या उसका अभिप्राय भी नहीं है। श्रवण क्रिया में कम्पन ही कर्ण और हवा के माध्यम से मस्तिष्क में स्थित श्रवण-स्नायू केन्द्रों तक पहुँचते हैं, तथा जिस ध्वनी को हम सुनते हैं, वह हमारे भीतर ही उत्पन्न होते हैं। मैंने स्वचालित ढंग से विभिन्न प्रकार की ध्वनियों के साथ कुछ विचारों को संयुक्त करना सीख लिया है, इसीलिए जब कोई कुछ कहता है तो हम उसके कथन का अभिप्राय समझ लेते हैं।इससे यह सिद्ध हो जाता है कि समस्त प्रत्यक्ष ज्ञान तथा अवधारणायें वास्तव में मानसिक रचना है।
 तथा वह मानसिक प्रतिक्रिया निवेशों की प्रकृति एवं मध्यस्थ शारीरिक प्रक्रिया (Intermediary physiological process) के ऊपर निर्भर करती है। हमलोग मन के कार्यों को, उन्ही के ऊपर मन को एकाग्र और अंतर्मुखी करके समझ सकते हैं। मानव शरीर के सबसे जटिल और सबसे कठिन अंग मस्तिष्क से सम्बंधित, तंत्रिका विज्ञान (Neuro Science) पर किये गये हाल के शोध में कई बड़े-बड़े साहसिक कदम उठाये गये हैं, जिसने मानव-मस्तिष्क की सर्वोत्कृष्टता के विषय में किसी भी संदेह को बिल्कुल समाप्त कर दिया है।
खोपड़ी का सामने वाला हिस्सा (Frontal lobe) या ' ललाट ' के क्रमविकास ने मन की कार्यप्रणाली को समझने की असीम संभावनाओं को बढा दिया है। किंतु मानव-समाज उन संभावनाओं का अन्वेषण समुचित ढंग से अभी तक नहीं कर सका है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि, ललाट का सामने वाले हिस्से (cortex) में ही वह स्नायू केन्द्र है जिसमें 'विवेक-प्रयोग' करने का सामर्थ्य होता है ! हमारे विकसित ललाट में अवस्थित यह स्नायुकेन्द्र (सेरेब्रल कॉर्टेक्स) ही सत्-असत् के बीच विवेक (Discrimination) करने, पाशविक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने, आदि जैसे- मन कि उच्चतर क्रियाओं को संपन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।(जबकि पाशविक प्रवृत्तियों का सम्बन्ध मस्तिष्क के उस निचले हिस्से से है, जो मनुष्य शरीर प्राप्ति तक क्रमविकास (Evolution) करने के विभिन्न चरणों में विकसित होता है ) यह शोध भविष्य में उस ' विवेक ' को जानने का एक शरीर-वैज्ञानिक आधार (Physiological basis) प्रदान कर सकता है, जो केवल मनुष्य शरीर में ही दिखाई पड़ता है। और यह विवेक-प्रयोग सामर्थ्य ही है, जो मानव-मात्र के लिए अपना यथार्थ ' दिव्य-स्वरूप ' (Divine nature) को जान लेने का द्वार भी खोल देता है
कवि राजा भृतऋहरी इसी विवेक को 'धर्म' की संज्ञा देते हुए कहते हैं -
' आहार-निद्रा-भय-मैथुनम् च सामान्यमेतत, पशुर्भीनराणाम । 
    धर्मेव तेषाम् अधिको विशेषो, धर्मेण हीना पशुभिः समाना ॥ "
"- अर्थात श्रेय-प्रेय (शाश्वत-नश्वर ) के बीच विवेक-प्रयोग करने की शक्ति को ही ' धर्म ' कहते हैं, जो मनुष्य को उसकी पाशविक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखते हुए धर्म-पथ (मनुष्योचित पथ) का अनुसरण करने की योग्यता प्रदान करके उसे पशुओं से अलग करता है। जबकि ' विवेक-प्रयोग- शक्ति ' से रहित मनुष्य तो पशु के समान ही है। "
भौतिक-वादी लोग यह तर्क देते हैं कि ' मन ' (Mind) भी ' मस्तिष्क ' (Brain) के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह सच है कि मस्तिष्क में ऐसे करोड़ो कोशाणु (नयूरोन्स) हैं, जिनमे से प्रत्येक के भीतर भौतिक जड़ कणों द्वारा निर्मित हजारो अन्तर्ग्रन्थन (Synapses) रहते हैं। इसी के कारण अनेक वैज्ञानिक भी इसी मत के समर्थक हो जाते हैं। और उन्ही का अनुकरण करते हुए अनेक आधुनिक मानव, इसी ' भ्रांत-मत ' को विज्ञान का अन्तिम निष्कर्ष समझ कर इसके समर्थक बन गये हैं। जबकि वास्तविकता ऐसी  नहीं है। जार्ज हेनरी लुईस द्वारा लिखित पुस्तक " The Physical basis of Mind " की भूमिका में नोबेल पुरस्कार प्राप्त स्नायुरोग विशेषग्य (Neurologist) - सर चार्ल्स शेरिंगटन कहते हैं- " वर्तमान में ' मन के भौतिक आधार ' को जानने के प्रति आग्रह बढ़ता जा रहा है। मस्तिष्क के सम्बन्ध में अधिकाधिक बढ़ती हुई जानकारी के साथ हमारा मूल विषय (थीम), मस्तिष्क के क्रियाविज्ञान (physiology of The Brain) के लगभग समकक्ष पहुँच चुका है। चिन्तन-शक्ति, स्मरण-क्षमता, अनुभव-क्षमता, युक्ति-तर्क आदि मानसिक क्रियाओं के सन्दर्भ में जिस ' मन ' (Mind) शब्द का प्रयोग होता है, उसे भी भौतिक पदार्थों की श्रेणी में रखना कठिन हो गया है। जब कि शरीरविज्ञान वैसा एक प्राकृतिक - विज्ञान (Natural Science ) है जो शारीरिक सीमा के अतीत की समस्त विषयों के सम्बन्ध में मौन रहना अधिक पसन्द करता है; इसी कारण 'मन के भौतिक आधार' के अध्यन का विषय इन दो मतों के बीच उपेक्षित रह जाता है। "
उसी प्रकार विख्यात न्यूरो-सर्जन तथा सर सेरिंगटन के छात्र डा० वाइल्डर पेनफिल्ड अपनी पुस्तक-'The Mystery of Mind' (मन का रहस्य) के ' मानवीय-मस्तिष्क और चेतना का विवेचनात्मक अध्यन' नामक अध्याय में कहते हैं- " मस्तिष्क की क्रियाओं का निरिक्षण करते समय कोई भी न्यूरोलॉजिस्ट
(स्नायुतान्त्रिका विशेषज्ञ)  ' MRI ' देखकर यह अनुमान लगा सकता है कि प्रच्छ्न्न स्थितिज अन्तःशक्ति (conduction of potential) का संचालन मस्तिष्क के किस क्षेत्र में हो रहा है और उसका बनावट (pattern) कैसा है। अर्थात रक्त का प्रवाह देख कर वे मस्तिष्क को पढ़ सकते हैं। वे यह बता सकते हैं कि कोई व्यक्ति वृक्ष को देख रहा है या उसकी किसी डाल पर बैठे पंछी को, या कि कोई सच बोल रहा है या झूठ। (टीवी धारावाहिक सच का सामना ने इसे और प्रसिद्द कर दिया है।) लेकिन असली प्रश्न अभी भी एक रहस्य है कि मस्तिष्क में यह ' चेतना ' कहाँ से आती है, कि ' मैं हूँ ' और मुझे ' अमरत्व ' लाभ करने के लिये सदैव प्रयासरत रहना चाहिये ?
जिन क्रियाओं को- ' मन का कार्य ' (Mind-action) कहते हैं, वहाँ यह बात लागु नहीं होती। तथा मस्तिष्क (Brain) से बिल्कुल स्वतंत्र रूप से ' मन के कार्य ' ठीक उसी प्रकार क्रियाशील प्रतीत होते हैं, जैसे कोई क्रमादेशक (प्रोग्रामर) अपने कम्प्यूटर से बिल्कुल स्वतंत्र रह कर क्रियाशील रहता है। भले ही उस प्रोग्रामर को अपना कोई उद्देश्य पूरा करने के लिए अपने कम्प्यूटर के कार्यप्रणाली पर कितना भी निर्भर रहना पड़ता हो।"
आइये अब "मन तथा जड़पदार्थ " (Mind & Matter) के संदर्भ में स्वामी विवेकानन्द के वचनों को सुनते है - " प्राथमिकता अथवा कारणता (Precedence or Causation) की समस्या से परे -  मन (Mind) भूतद्रव्य (Matter) का कारण है या भूतद्रव्य मन का ? बाह्य (स्थूल शरीर) आन्तरिक (मन या कारण शरीर) के अनुरूप बनता है, या आन्तरिक बाह्य के अनुरूप ?  पदार्थ मन की अनुरूपता स्वीकार करता है,  या मन पदार्थ की ?  परिवेश मानव मन को ढालता है, या मानव मन परिस्थितिओं को अपने अनुकूल ढाल देता है ?  - यह एक प्राचीन, अति प्राचीन प्रश्न है, जो आज भी उतना ही नविन और जीवन्त है, जितना कभी था।  
 इस पहेली का समाधान ढूंढने की चेष्टा किये बिना भी- इतना तो स्पष्ट है कि, बाह्य (स्थूल शरीर) का निर्माण आन्तरिक (मन या कारण शरीर) द्वारा चाहे हुआ हो या न हुआ हो, पर हम बाह्य को समझने में समर्थ हो सकें - इसकेलिए आवश्यक है कि बाह्य, आन्तरिक की अनुरूपता स्वीकार करे।हम चाहे यह मान भी लें कि बाह्य जगत ही आन्तरिक का कारण है, फ़िर भी हमे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हमारे मन के कारण रूप में बाह्यजगत भी - अज्ञात और अज्ञेय है। क्योंकि हमारे मन को, बाह्य जगत् के उतने ही रूप का या दृश्य का ज्ञान प्राप्त हो सकता है जितना उसकी प्रकृति के अनुरूप हो या उसकी प्रतिच्छाया हो। अब जो स्वयं उसकी प्रतिच्छाया है - प्रतिबिम्ब है, वह उसका कारण तो नहीं हो सकता। और फ़िर इस व्यापक अस्तित्व का वह दृश्य जो मन के द्वारा समग्र से पृथक कर लिया जाता है, अवगत किया जाता है, जाना जाता है, वह तो निश्चय ही मन का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसके अस्तित्व का ज्ञान ही मन में और मन के द्वारा होता है। "(९:२७६)

यहाँ उल्लेखनीय होगा कि बाह्य जगत् की वैज्ञानिक गवेषणा एवं उसकी व्याख्या करने के लिये ' मात्रा भौतिकी ' (quantum physics) के निर्भीक समर्थकों ने इसी अवधारणा को, बिना इसमे कोई फेर-बदल किये अपने आधारभूत वाक्य के रूप में प्रतिपादित किया था। तथा उन्होंने भी यह घोषित किया था, कि जड़ पदार्थ केवल अज्ञात ही नहीं अज्ञेय भी हैं। अभी केवल विगत शताब्दी में ही, विज्ञान को यह पता चला है कि उर्जा तरंग कणों (energy wave particles ) के समान गुणधर्म का गणितीय नृत्य है यह जगत्। 
इस दृष्टिगोचर जगत् प्रपंच की संतोषप्रद व्याख्या करते हुए स्वामीजी आगे कहते हैं- " इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि मन को भूतद्रव्य (Matter) का परिणाम कहना असम्भव ही नही असंगत भी है। ... अस्तित्व का वह अंश जो विचार और जीवन कि विशिष्टताओं से विरहित है, और जिसमे बाह्यतत्त्व की विशिष्टता वर्तमान है, वही भूतद्रव्य (Matter) कहलाता है। और जो अंश बाह्य ततत्व से विरहित है, और जिसे विचार और जीवन की विशिष्टताएं उपलब्ध हैं, उसे मन (Mind) कहा जाता है।
अब मन से भूत द्रव्य की, अथवा पदार्थ से मन की उत्पत्ति सिद्ध करना प्रत्येक से उन गुण-धर्मो की अनुमिति करना है, जिनसे विरहित हम उन्हें मान चुके हैं। इसीलिए मन और पदार्थ (Mind & Matter) की कारणता के सम्बन्ध में चलने वाला सारा संघर्ष एक शाब्दिक पहेली भर है,उससे अधिक कुछ नहीं।
....इसका अर्थ यह हुआ कि, एक पक्ष इस समस्त जगत् की व्याख्या उसके उस अंश से करना चाहता है जो बाह्य है, और दूसरा पक्ष उसके उस अंश से जो आतंरिक है। ये दोनों ही प्रयत्न असंभव हैं। मन और पदार्थ (दोनों जड़ हैं,इसलिये वे कभी)  एक दुसरे की व्याख्या नहीं कर सकते- एक दुसरे का रहस्य नहीं खोल सकते। 
समस्या का एकमात्र समाधान उस तत्त्व में खोजना पड़ेगा जो मन और भौतिक पदार्थ (आकाश और प्राण) दोनों को ही अपने में समाहित कर लेता है।... यह तर्क दिया जा सकता है कि मन के आभाव में विचार का अस्तित्व असम्भव है। क्योंकि यदि हम यह कल्पना करें कि कोई ऐसा समय था, जब विचार का अस्तित्व नहीं था, तो निश्चय ही भौतिक पदार्थ का भी जैसा हम उसे जानते हैं, अस्तित्व नहीं हो सकता था। दूसरी ओर यह कहा जा सकता है कि चूँकि अनुभव के आभाव में ज्ञान असंभव है, और चूँकि यह अनुभव ही है जो बाह्यविश्व कि कल्पना करता है, इसीलिए मन का अस्तित्व - जैसा कि हम उसे जानते हैं, भौतिक पदार्थ (अहं ?) के आभाव में असंभव है। " (९:२७७,२७८)

(THE BEYOND) :
इन्द्रियातीत 

 - हमारे भीतर या बाहर जो कुछ भी है, वह वस्तु चाहे शारीरिक हो या मनसतात्विक, वह प्रकृति का ही एक अंश है तथा प्राकृतिक नियमों का पालन करता है। इस तरह से देखने पर ये सभी वस्तुयें पार्थिव वस्तुयें हैं। किन्तु सभी प्राणियों में ऐसी कोई एक वस्तु है, जो उन्हें जड़ पदार्थों से अलग करती है, वह है -' अपनी सत्ता का बोध ' (The awareness of Existence) तथा ' आत्म-रक्षा के लिए आग्रह ' ( The urge for self-preservation)। उदाहरण के लिए, ' मैं जानता हूँ, कि मैं हूँ, तथा मुझे सदैव जीवित रहने के लिये संघर्ष करना चाहिए।' यहाँ तक कि एक जीवाणु (Amoeba) भी यह जानता है कि उसका अस्तित्व है, वह है ! तथा अपने जीवन कि रक्षा के लिये वह भी संघर्ष करता है। किन्तु एक मेज अपने अस्तित्व के प्रति जाग्रत नहीं होता, इसीलिए वह सदैव बने रहने के लिये संघर्ष भी नहीं कर सकता। प्रत्येक जीव या प्राणियों में यह जो विलक्ष्ण वैशिष्ट है, वह उसे जड़ प्रकृति से प्राप्त नहीं हो सकता, वह अवश्य ही उसे किसी अज्ञात श्रोत से प्राप्त हुई होगी। 
तथा उस श्रोत को प्रकृति से अवश्य ही परे भी होना चाहिए (जैसा हम जानते हैं की वह तो जड़ है), लेकिन परे होते हुए भी वह स्वयं को इसके भीतर अभिव्यक्त करने की शक्ति रखता है। (अगर मैं अपने मशीन रूपी अवचेतन मस्तिष्क को पढ़ सकता हूँ, और उस न्यूरोट्रांसमीटर को भी देख सकता हूँ जो मेरे मस्तिष्क से संकेत (संदेष) भेजता है, तो इसका अर्थ यह है कि मैं न्यूरोट्रांसमीटर (दिमाग या Brain) नहीं हूँ, फ़िर मैं कौन हूँ ?)

भारत के श्रेष्ठ ऋषि-मुनियों ने, शरीर और मन के इस नित्य- परिवर्तनशील समष्टि से परे, किन्तु सभी जीवों में अन्तर्निहित इसी अप्राकृतिक सारतत्व को - ' आत्मा ' की संज्ञा दी है। यह आत्मा क्या है ? इसके उत्तर में वे कहते हैं- ' प्रकृति में दृष्टिगोचर किसी भी अन्य वस्तु के सदृश्य यह नहीं है, इसीलिए यह युक्तितर्क या तुलना सापेक्ष वस्तु नहीं है, तथा साधारण अनुभव के समान इसे भी ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता। जब हम इस आत्मतत्व का अनुभव कर लेते है, तो हम वही बन जाते हैं- इतना ही नहीं वे या भी कहते हैं कि हम पहले ही से 'वह' हैं !'(आत्मसाक्षात्कार कर लेने के बाद, निर्विकल्प-समाधिवान पुरुष, अवतार या नेता का ) प्रकृति के साथ जो हमारा पुराना तादातम्य था केवल वह समाप्त हो जाता है, और अब हमलोग केवल एक हाड़-मांस का पिण्ड और विचारों- भावनाओं की समष्टि मात्र ही नहीं रह जाते हैं। "

तो फ़िर हम अपनी बुद्धि द्वारा ऐसी वस्तु को समझ कैसे सकते हैं ? क्योंकि किसी नये सिद्धांत को पूर्ण रुपें समझे बिना, उसके आधार पर हम आगे कैसे बढ़ सकते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में गौतमबुद्ध मौन हो जाते हैं। वे केवल इतना ही कहते हैं -"अप्प दीपो भव !" अर्थात निर्धारित प्रणाली का अनुसरण करो और स्वयं ही सत्य की अनुभूति करो। ' 
किन्तु प्राचीन भारतीय वेदान्त-दर्शन : अर्थात 'श्रुति-युक्ति-अनुभूति' के सहारे मानवीय बुद्धि जहाँ तक पहुँच सकती है, उस ओर संकेत करता हुआ कहता है- ' ब्रह्म या आत्मा सत्-चित्-आनंद स्वरूप है '। अर्थात यह ' सत्-स्वरूप ' है, इसका यथार्थ अस्तित्व है, इसीलिए इसमे ' अमरत्व लाभ' करने अथवा आत्मरक्षा करने की प्रवृत्ति रहती है।  फ़िर यह ' चित्-स्वरूप ' है - यथार्थ ज्ञानस्वरूप है, इसीलिए इसमे चेतना तथा ज्ञानप्राप्ति की स्वभाविक इच्छा रहती है। फ़िर यह ' आनन्द- स्वरूप ' है, इसीलिए सदैव सुख प्राप्त करना और दुःख से बचना चाहता है। प्रकृति के चिरंतन प्रवाह के माध्यम से और उसके भीतर व्याप्त रहने वाला यही एक मात्र अपरीवर्तनशील ' सत्य-वस्तु '- आत्मा या ब्रह्म है। सभी प्राणियों में यह,' सच्चिदानन्द ' स्वरुप ' ब्रह्म ' ही - स्वयं को ' आत्मा ' के रूप में अभिव्यक्त करता है। तथा क्रमविकास के उच्तर सोपानों तक विकसित जीवों में इसकी अभिव्यक्ति की मात्रा क्रमशः अधिकतर होती जाती है। तथा  भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' ( या विवेकानन्द - निवेदिता भक्ति-वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में BE AND MAKE ' के महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यास करना) इस सत्य तक पहुँचने का निकटतम मार्ग है। 
प्रतिभासिक मनुष्य के पार्श्व में स्थित ' यथार्थ ' मनुष्य यह ब्रह्म ही है। १८९७ ई के लाहौर व्याख्यान में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " इस समय पाश्चात्य देशों में भौतिक विज्ञान की जैसी द्रुत उन्नति हो रही है, और शरीर विज्ञान जिस तरह धीरे-धीरे प्राचीन धर्मों के एक के बाद दूसरे दुर्ग पर अपना अधिकार जमा रहा है, उसे देखते हुए पाश्चात्य वासियों को कोई टिकाऊ आधार नहीं मिल पा रहा है, क्योंकि आधुनिक शरीर विज्ञान में पग-पग पर मन(Mind) की मस्तिष्क (Brain) के साथ अभिन्नता देख कर वे बड़ी उलझन में पड़ गये हैं, परन्तु भारतवर्ष में हमलोग यह तत्त्व पहले से ही जानते हैं। भारतीय बालक को पहले ही यह तत्त्व सीखना पड़ता है कि मन भी एक जड़ पदार्थ है, परन्तु सूक्ष्मतर जड़ है।
 हमारा यह जो स्थूल शरीर है, इसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर या मन है। यह भी जड़ है, केवल सूक्ष्मतर जड़ है, परन्तु आत्मा नहीं। ... आत्मा तो मनुष्य के भीतर ' यथार्थ ' मनुष्य है। यह आत्मा जड़ को (शरीर और मन को ) अपने यन्त्र के रूप में, अथवा मनोविज्ञान कि भाषा में कहें तो अपने अन्तःकरण  के रूप में चलाती-फिरती है। और मन अन्तर-इन्द्रियों की सहायता से, शरीर की दृश्यमान वाह्यइन्द्रियों पर कार्य करता है। " (५: २९२)
यहाँ तक कि अंहकार (भी जो किसी मध्यस्त (Sense Agency) की तरह मन के कार्यों में संयुक्त रहता है) - जिसके करण जड़ प्रकृति और आत्मा के तादातम्य (ग्रंथि) को स्वीकार कर के हम अपना परिचय - मैं श्री ' अमुक' हूँ ' , कह कर अपना परिचय देते हैं। तथा मैं यह कर रहा हूँ, या वह किया हूँ-' कर्तापन ' का यह मिथ्या अभिमान या अहंकार भी इस साक्षी स्वरूप आत्मा का शरीर-मन की समष्टि के साथ तादातम्य करने का ही परिणाम है।
अतः हमारा अंहकार या 'अहम्' एक भ्रम या देहाध्यास है, हमारी यथार्थ आत्मा नहीं है। अब जरा इस विरोधाभास (Paradox) पर विचार करें - ' मैं यह सोंचता हूँ कि, मैं शरीर हूँ। तथा मैं यह जानता हूँ कि मेरा शरीर मर जाएगा। किन्तु जन्मजात रूप से मेरे अन्दर आत्मसंरक्षण करने कि प्रवृत्ति भी है। दूसरे शब्दों में मेरे अन्दर यह प्रवृत्ति जन्मजात रूप से है कि मुझे ' अमरत्व ' प्राप्त करने के लिए हर सम्भव प्रयास अवश्य करना चाहिए। '
जब तक हमलोग परम-सत्य, आत्मा या अपने यथार्थ स्वरूप कि उपलब्धि या आत्म-साक्षात्कार नहीं कर लेते, हमलोगों को ऐसे ही स्व-विरोधी मनोभाओं के बीच जीना पड़ता है। जितना अधिक से अधिकतर हम इस ' आत्म्वस्तु ' या परम सत्य कि ओर अग्रसर होते रहते हैं, उसी परिमाण में हम क्रमशः अपने ' तुच्छ अहम् ' या क्षुद्र अंहकार को भूलते जाते हैं; तथा सबों के साथ अपने एकत्व की अनुभूति होने लगती है।' 
" जगत में कोई पराया नहीं है ' - सभी को अपना बनाना सीखो ! श्रीमाँ सारदा देवी की यही शिक्षा,यही बोध हमलोगों को मातृहृदय के प्रेम से परिपूर्ण कर देता है!  क्योंकि यह आत्मा ही सबों का सार तत्त्व है। सब प्राणियों के ह्रदय में विद्यमान यह स्वप्रकाश सत्य ही सभी जीवों की यथार्थ आत्मा है। यही सर्व व्याप्त सत्ता है, इतना ही नहीं वह इन सब के परे भी है।
" एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । 
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥ "
( श्वेता शतर :६:११)
'- “वह एक देव ही सब प्राणियों में छिपा हुआ है।  सब में व्याप्त हैं,और समस्त प्राणियों का अन्तर्यामी परमात्मा है। इसी के साथ यह भी कहते हैं कि - सबों के भीतर निवास करने वाले यह परमदेव ही सबके कर्मों के अधिष्ठाता हैं, कर्तापन के अभिमान से कर्म करने वाले जिव को, कर्मानुसार फल प्रदान करते हैं। तथा मन में शुभ - अशुभ हर प्रकार के विचारों या बाहरी-भीतरी सभी कर्मों को देखने वाले निष्क्रिय' साक्षी ' हैं।परम चेतन सवरूप परमात्मा सबों को चेतना प्रदान करने वाले होते हुए भी वह आद्वितीय चैतन्य स्वरूप हैं जो प्रकृति के गुणों से अतीत भी हैं।'
  स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में -" वह साक्षी स्वरूप हैं, हमारे समस्त ज्ञान का वह साक्षी स्वरूप है। हम जो कुछ जानते हैं, वह सब पहले उसे जानकर उसी के माध्यम से जानते हैं। वही हमारी आत्मा का सारतत्त्व है। वही वास्तविक अहम् है। और वह ' अहम् ' ही, हमारे इस ' अहम् ' का सार सत्ता स्वरूप है। हम अपने उस ' अहम् ' के मध्यम से जाने बिना कुछ भी नहीं जान सकते। अत एव सभी कुछ हमें ब्रह्म के माध्यम से ही जानना पड़ेगा।" (२:८६)
 यहाँ पर स्वामीजी ने केवल अभिव्यक्ति की भाषा में थोड़ा परिवर्तन करके "Impersonal Truth" या अवैयक्तिक सत्य को "Personal Truth" या वैयक्तिक सत्य में परिवर्तित कर दिया है। इसीलिए हमलोगों को भी जीवन की संभावनाओं तथा कार्यक्षेत्र के विस्तार ( या मैं कौन हूँ ? ) को - पूर्ण रूप में समझने के लिये ' चैतन्य के सिद्धान्त ' (Principle of Awareness) को 'क' और 'ख' (या नाम-रूप) से पृथक करके,या आकाश (matter) और प्राण (Energy) से सर्वथा विलक्षण उसके स्वरूप को पहचान लेना होगा। र इस कार्य को पुरा करने में केवल हमारी मानव-प्रजाति के प्राणी-(Homo Sapiens) ही सक्षम हो सकते हैं।
 स्वामीजी कहते हैं - " जड़ द्रव्य (शरीर) , मन, आत्मा (3H) ये तीनो एक हैं। ये केवल नाम-भेद मात्र हैं। विश्व में सत्य एक है और हम उसे विभिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं।  एक दृष्टिकोण से देखा गया वही सत्य जड़ तत्व है, दूसरे दृष्टिकोण से वही मन है। यहाँ दो वस्तुयें नहीं हैं। ...रस्सी को देख कर उसे साँप समझने वाला मन भ्रम में नहीं था। अगर वह भ्रमित रहता, तो उसे कुछ भी दिखायी न देता। केवल एक वस्तु को दूसरी वस्तु समझ लिया गया है, अस्तित्वहीन वस्तु को किसी दूसरे रूप में नहीं समझा गया है।" (४:१५२,१५३)
" जो ऐसी अवस्था (निर्विकल्प-समाधिवान पुरुष, अवतार,वेदान्ती लीडरशिप की अवस्था)  को प्राप्त हो गये हैं, जहाँ न सृष्टि है, न सृष्ट, न सृष्टा, जहाँ न ज्ञाता है, न ज्ञान और न ज्ञेय, जहाँ न मैं है, न तुम और न वह, जहाँ न प्रमाता है, न प्रमेय और न प्रमाण। जहाँ - कौन किसको देखे ? - वे पुरूष सबसे अतीत हो गये हैं, और वहाँ पहुँच गये हैं, जहाँ - न वाणी पहुँच सकती है, न मन! और श्रुति जिसे ' नेति ', ' नेति ' कहकर पुकारती है। ... जब प्रह्लाद अपने आपको भूल गये, तो उनके लिये न सृष्टि रही और न उसका कारण, रह गया केवल नाम-रूप से अविभक्त एक अनन्त तत्व। पर ज्यों ही उन्हें यह बोध हुआ कि - ' मैं प्रह्लाद हूँ ' !! त्यों ही उनके सम्मुख जगत् और कल्याणमय अनन्त गुणागार जगदीश्वर प्रकाशित हो गये। " (४:१२)
 " अद्वैतवादी कहता है, ' नाम-रूप को अलग कर लेने पर क्या प्रत्येक वस्तु ' ब्रह्म ' नहीं है ? (४:३३)
 " कभी कभी हम कोई ऐसा मुख (पूज्य नवनीदा जैसा मुख)  देखते हैं, जो मानो ऐसी ज्योति (प्रभामंडल- halos) से मण्डित है, जिससे हम उसके चरित्र की झलक पा सकते हैं और उसके बारे में एक अचूक निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं।" (४:९३)
 स्वामी विवेकानन्द ऐसे ही मनुष्यों (लोकशिक्षकों, नेताओं का) का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में करना चाहते थे। उनके जीवन के उद्देश्य (mission) के पीछे यही भाव अब भी कार्यरत है, तभी तो अपने जीवनोद्देश्य को प्रकट करते हुये, उन्होंने कहा था - " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्यजाति को उसके ' दिव्य- स्वरूप' का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना। " (४:४०७)
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श्री अरुणाभ सेनगुप्ता के ' प्रथम ' निबन्ध - द्विभाषी संवाद पत्रिका Vivek- Jivan के annual number 2009 में प्रकाशित इसके उप-सम्पादक -The Outside, The Inside, and The Beyond : Glimpses of Swamiji's View का हिन्दी रुपान्तरण।